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डॉ ० सम्पूर्णानन्द | Essay in Hindi | Dr. Sampurnanand

डॉ ० सम्पूर्णानन्द | Essay in Hindi | Dr. Sampurnanand

डॉ ० सम्पूर्णानन्द

एक अध्यापक से उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री तथा राजस्थान के राज्यपाल के पद पर और फिर , हिमालय की उपत्यकथाओं में शान्त कुटी और साधना । एक ओर राजनीति का अखण्ड अखाड़ा और दूसरी ओर सरस्वती की अनवात मान साधना , इन घोर विरोधी स्थितियों में सामंजस्य और सन्तुलन बनाये रखकर उभरने वाला व्यक्तित्व कोई अद्वितीय प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तित्व ही होगा । कहना न होगा ‘ कि वह व्यक्तित्व डॉ ० सम्पूर्णानन्द जी का है ।

जीवन वृत्त- सम्पूर्णानन्द जी का जन्म काशी के एक सम्भ्रान्त कायस्थ परिवार में १ जनवरी , १८ ९ ० ई ० को हुआ था । इनके पिता विजयानन्द जी कचहरी में बाबू थे । इन्होंने क्वींस कॉलेज वाराणसी से बी . एस – सी ० तथा प्रयाग से एल . टी . की परीक्षायें उत्तीर्ण की । प्रेम महाविद्यालय वृन्दावन , इन्दौर , बीकानेर और काशी में इन्होंने अध्यापन कार्य किया । अध्यापन के साथ – साथ संस्कृत , दर्शनशास्त्र , राजनीति शास्त्र , समाजशास्त्र , काव्य तथा इतिहास आदि विषयों का गम्भीर एवं गहन अध्ययन भी स्वाध्याय के रूप में चलता रहा । इसके पश्चात् राजनीति में सक्रिय भाग लेना प्रारम्भ किया । वाराणसी से प्रकाशित ‘ मर्यादा ‘ तथा ‘ आज ‘ नामक हिन्दी पत्रों का और ‘ टुडे ‘ नामक अग्रेजी पत्र का इन्होंने सम्पादन कार्य भी किया । सम्पूर्णानन्द जी जिस प्रकार राजनीति में उत्तरोत्तर बढ़ते चले गये उसी प्रकार साहित्य के क्षेत्र में भी । साहित्य और राजनीति पर इनका समान अधिकार था । सम्पूर्णानन्द जी को संस्कृत एवं हिन्दी से अगाध स्नेह था । काशी का संस्कृत विश्वविद्यालय इन्हीं के अथक प्रयासों का परिणाम है । उत्तर प्रदेश की भाँति राजस्थान में भी संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना के लिये ये अपने कार्यालय में निरन्तर प्रयत्नशील रहे । उत्तर प्रदेश में हिन्दी तथा संस्कृत को उचित स्थान प्रदान कराने में सम्पूर्णानन्द जी का बहुत बड़ा हाथ रहा । संस्कृ का यह दुर्भाग्य है कि देववाणी का यह एकनिष्ठ सेवक सन् १ ९ ६ ९ ई ० को अपनी कर्म भूमि का परित्याग कर गया । सम्पूर्णानन्द जी ने अनेक प्रकार से हिन्दी साहित्य की सेवा एवं समृद्धि की थी ।

साहित्य सेवा- सम्पूर्णानन्द जी ने अपने अत्यन्त व्यस्त जीवन काल में लगभग पच्चीस ग्रन्थों की रचना की । वे सभी ग्रन्थ इनके पांडित्य बहुमुखी ज्ञान , गम्भीर चिन्तन और इनकी महानता के प्रतीक है । दर्शनशास्त्र धर्मशास्त्र और ज्योतिषशास्त्र पर पूर्ण अधिकार होने के कारण इनकी रचनायें तत्तद्विषयों पर भी हैं । व्यक्ति और राज ‘ , ‘ समाजवाद ‘ , ‘ दर्शन और जीवन ‘ , ‘ भाषा की शक्ति चिदिलास ‘ , आपके अद्वितीय गौर्व गन्थ हैं जो उनके ज्ञान की गहनता चिन्तन की सूक्ष्मता देखने को तथा प्रौढ़ता के की यात्रा आदि आपके ज्ञान विज्ञान सम्बन्धी ग्रन्थ हैं । आर्यों ( का आदि देश , अन्तर्राष्ट्रीय विधान हिन्दू विवाह में कन्यादान , ब्राह्मण सावधान , गणेश , भारत के देशी राष्ट्र , सम्राट अशोक आदि ग्रन्थ इनकी राजनीति , समाजशास्त्र एवं ऐतिहासिक विद्वत्ता के परिचायक हैं । ‘ समाजवाद ‘ नामक ग्रन्थ पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन की ओर से १२०० रु ० का मंगला प्रसाद पारितोषिक भी इन्हें प्राप्त हो चुका था । हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग के सभापति पद पर रहकर भी सम्पूर्णानन्द जी ने हिन्दी की अमूल्य सेवा की विषय- सम्पूर्णानन्द जी ने अपने आदर्श निबन्धों के द्वारा जो प्रायः पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे . समाज , धर्म , राजनीति तथा शिक्षा के क्षेत्र में एक आदर्श उपस्थित किया । निष्पक्ष एवं तटस्थ विचारक के रूप में वे हमारे सामने आते हैं । सम्पूर्णानन्द जी की रचनाओं का आधार दर्शन शास्त्र , समाजशास्त्र , इतिहास और राजनीतिशास्त्र भाषा- सम्पूर्णानन्द जी विशुद्ध संस्कृत – निष्ठ हिन्दी के पक्षपाती थे , फिर भी इन्होंने भावों की सही अभिव्यक्ति के लिये स्थान स्थान पर आवश्यकतानुसार अन्य भाषा के शब्दों का भी प्रयोग किया है । यह सब कुछ होते हुए भी भाषा की आदर्श साहित्यिकता और संस्कृत निष्ठता कहीं समाप्त नहीं हुई । अंग्रेजी के शब्दों का आपकी भाषा में नितान्त अभाव है । मुहावरे और कहावतें भी देखने को नहीं मिलती । सम्पूर्णानन्द जी ने जो कुछ लिखा वह विद्वानों और विचारकों के लिए है , साधारण पाठक के लिये नहीं । इसलिये गम्भीर विषयों की गम्भीर भाषा होना स्वाभाविक ही है । इसी कारण इन्होंने युयुत्सु ब्राविवित्सु , मुमुक्षु आदि शब्दों का बेधुडक प्रयोग किया है । शैली- सम्पूर्णानन्द के गम्भीर और प्रभावशाली व्यक्तित्व की इनकी शैली पर पूर्ण छाप है । इनकी शैली को तीन रूपों में विभाजित किया जा सकता है १. विचारात्मक शैली- चिन्तन , मनन और गहन विचारों से युक्त ज्ञान और दर्शन सम्बन्धी रचनाओं में इस शैली के दर्शन होते हैं । इस शैली की भाषा एकदम संस्कृत – निष्ठ एवं गम्भीर है तत्सम शब्दों की प्रधानता है । यह भाषा भावों और विचारों को अनुगामिनी है । उसमें अपनी स्थिति के अनुसार प्रवाह है , शब्द चयन हद्ध और वाक्य – विन्यास व्यवस्थित है । २. व्याख्यात्मक शैली- इनकी धर्म , समाजशास्त्र तथा राजनीति सम्बन्धी रचनायें इस शैली के अन्तर्गत आती हैं । भाषा का वही स्वरूप है जो विचारात्मक शैली की भाषा का है । ३. भावात्मक शैली – ‘ हिन्दू विवाह में कन्यादान ‘ , ‘ आर्यों का आदि देश ‘ आदि खोजपूर्ण गुन्य भावात्मक शैली में लिखे गये हैं । भाषा अपेक्षाकृत कुछ सरल है । वाक्य छोटे हैं । उसमें गति और प्रवाह है । भाषा बोधगम्य है ।

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