Biography

Mother Teresa | मदर टेरेसा

मदर टेरेसा की जीवनी

मदर टेरेसा कौन थी? यह नाम सुनते ही सबसे पहले आपके जहन में यही सवाल आता होगा। मदर टेरेसा यह वो नाम हैं जिसे भारत का बच्चा बच्चा जानता है। क्योंकि स्कूलों के पाठयक्रमों मे मदर टेरसा के बारें में पढ़ाया जाता है और प्रश्नपत्रो में मदर टेरेसा पर निबंध, मदर टेरसा की जीवनी, मदर टेरसा का जीवन परिचय, मदर टेरेसा का योगदान के विषय में लिखने के लिए भी आता रहता है। मदर टेरेसा ऐसे व्यकतित्व की धनी थी, जिन्होंने दुखी और पीडित व्यक्तियों की सेवा साधना में अपना सम्मपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया था। जिसके लिए उन्हें विश्व का सर्वोच्च नोबेल पुरस्कार, शांति और सदभावना के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए प्रदान किया गया। ममतामयी मां, गरीबों की मसीहा, विश्व जननी और कही तो मदर मैरी जैसे अनेक उपनामो से पुकारी जाने वाली मदर टेरेसा का जीवन मानव सभ्यता के इतिहास में एक ऐसा अध्याय बनकर उभरा, जिसका उदाहरण ओर कही देखने को नहीं मिलता है।

मदर टेरेसा का जन्म कहांं हुआ था

यह सच है कि मदर ने अपना सम्पूर्ण जीवन भारत मे ही रहकर दीन दुखियों की सेवा करने में बिताया और वह भारतीय नागरिक भी थी, किंतु वह  जन्म से ही भारत की नागरिक नहीं थी। भारत की पवित्र भूमि और भारत के लोगों के साथ उनके असीम प्रगाढ़ और अटूट सम्बंधों को देखकर यह अविश्वसनीय लग सकता है, किंतु यह सच है कि उनका जन्म भारत से हजारों मील दुर एडियाट्रिक सागर के पार स्थित यूगोस्लाविया के स्कोपजे शहर में हुआ था।  मदर टेरेसा का जन्म 27 अगस्त 1910 को एक अल्बेनियाई परिवार में हुआ था।।

मदर टेरसा का पुरा नाम क्या था

मदर टेरेसा का बचपन से नाम “एग्नेस गौंझा बोनास्क्यू” था। बचपन की यह एग्नेस आगे चलकर “टेरेसा” और फिर मदर टेरसा,  ममतामयी मां, गरीबों की मसीहा, विश्व जननी, मदर मैरी, संत आदि अनगिनत नामों से जानी जाती है।

मदर टेरेसा के माता पिता

मदर टेरेसा के पिता का नाम निकोला बोयाजू था, जो एक मेहनतकश और ईमानदार अल्बेनियाई किसान थे, हालांकि बाद में उन्होंने कृषि का धंधा छोड़कर भवन निर्माण के कार्य से जुड़ चुके थे। मदर टेरेसा की माता का नाम द्राना बोयाजू था, जो एक कुशल गृहिणी थी। मदर अपने माता पिता की चौथी संतान थी। मदर टरेसा के दो बहन और एक भाई थे, जो इनसे बड़े थे।

मदर टेरेसा का बचपन

मदर का बचपन बहुत ही दुख भरा और आर्थिक तंगी में गुजरा था। सन् 1914 में जब मदर की आयु लगभग 4 वर्ष की थी, प्रथम विश्वयुद्ध का सूत्रपात हो चुका था। मदर के बाल ह्रदय पर इस विश्वयुद्ध की विभीषिका ने क्या प्रभाव डाला होगा?। यह तो कह पाना मुश्किल है। किंतु उनके माता पिता को अवश्य ही चिंतित कर दिया था। वास्तव में इस युद्ध की लहर ने उस समय के समस्त मानव समाज विशेषकर मध्यम और निम्नवर्गीय समाज को सामाजिक और आर्थिक दोनों ही स्तरों पर अव्यवस्थित कर दिया था। मदर का परिवार भी इससे अछूता नहीं रहा।

इस सबके बाद भी मदर के माता पिता किसी तरह खुद को और अपने परिवार को संभाले हुए थे, कि सन् 1917 में जब विश्वयुद्ध की समाप्ति में अभी एक वर्ष और शेष था, मदर के परिवार पर घोर विपदा आन पड़ी। इसी वर्ष मदर टेरेसा के पिता का आकस्मिक देहांत हो गया।

इस अल्बेनियाई, धार्मिक परिवार पर यह आघात आसमान टूटने जैसा था। मदर की आयु उस समय मात्र 7 वर्ष की थी। परिवार की एक मात्र कर्ताधर्ता और मुखिया के चले जाने से, पहले से ही असीम दुख में डूबे इस परिवार को शीघ्र ही आर्थिक संकट ने भी आ घेरा।

संकट की उस घड़ी में मदर की मां ने बिना किसी की ओर मदद की आश लगाए, अपने परिवार के पालन पोषण की जिम्मेदारी को बडी दृढता से निभाया। हांलाकि वह एक साधारण गृहिणी थी, परंतु सिलाई कढ़ाई और बुनाई में निपुण थी, सो उन्होंने अपने इसी कला कौशल को परिवार की आजीविका का सहारा बनाया। साथ ही साथ उन्होंने अपने बच्चों की शिक्षा दीक्षा पर भी पूरा ध्यान दिया।

मां की शिक्षा से लिया बड़ा सबक

मदर की मां जो एख धर्मपरायण महिला और आदर्श गृहिणी थी, उन्होंने कभी अपने बच्चों को उनके पिता की कमी का अहसास न होने दिया। बच्चों में अच्छे संस्कार डालने के लिए वे निरंतर प्रयत्न करती रहती थी, संतो और महापुरुषों के जीवन की गाथाओं को सरल और रोचक कहानियों के रूप में सुनाकर वे उनको भी वैसा ही बनने और करने के लिए प्ररेरित करती थी। मदर फर अपनी मां की इन शिक्षाओं का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। मदर की मां का शिक्षा देने का यह तरीका मुझे भी बहुत प्रभावित लगा। जिससे जुडी एक कहानी में आप के साथ भी शेयर करना चाहता हूँ।

एक बार स्कूल की छुट्टी के बाद मदर घर लौटी। उस समय वे लगभग 10 वर्ष की रही होंगी। उस समय पर एक भाई और बहन थे। मां अपनी एक बेटी के साथ किसी काम से कहीं गई थी। शाम होने पर तीनों भाई बहन कमरे में पढ़ने की पुस्तक खोलकर बैठ गए। उस समय मदर अपने स्कूल की एक अध्यापिका की समालोचना करने बैठ गई। दोनों भाई बहन भी ध्यान से उनकी कथा कहानी सुनने लगे। सहसा उस कमरे की बत्ती गुल हो गई और अंधेरा हो गया। कहानी बीच में ही रूक गई। पास वाले कमरे की बत्ती जल रही थी, तीनों भाई बहन सोच विचार करने लगे आखिर हमारे कमरे की बत्ती कैसे गुल हुई?।

तभी पड़ोस के कमरे से उनकी मां निकली और उनसे बोली– इस कमरे की बत्ती मैने बंद की है। दूसरों के व्यक्तिगत जीवन की समालोचना में रोशनी जलाने के लिए मेरे पास पैसे नहीं है।हांलाकि घटना मामूली थी, लेकिन मदर ने मां के कहे शब्दों में छिपे पाठ को समझ लिया और जीवन भर उसका पालन किया।

एक दिन मदर टेरसा की मां बाजार से कुछ सेब खरीदकर लाई। जिनमें एख सेब थोड़ा खराब भी था। मां ने मदर को बुलाकर कहा, जाओ इन सभी को एक टोकरी में रख दो। मदर ने वैसा ही किया। कुछ दिन बाद मां ने टोकरी लाने को कहा। टोकरी से ढक्कन हटाते ही देखा तो उसमे सब सेब सड़ गए थे। मां ने अपने बच्चों को वहां बुलाया और टोकरी दिखाकर बोली, देखो एक सड़े सेब ने टोकरी के सारे सेब सड़ा दिए। इसलिए अगर तुम अच्छे होकर भी बुरे लोगों से मिलोगे तो तुम्हारी हालत भी इन सडे सेबों की तरह हो जाएगी। मां के यही उपदेश शिक्षाए बचपन से ही मदर के मन में गहरा प्रभाव डालते थे।

मदर टेरेसा मानवता की सेवा मे कैसे, क्यों और कब आई

मदर ने अपनी छोटी सी आयु में जिस प्रकार मानवता की सेवा के मार्ग पर चलने का संकल्प लिया, कुछ लोग इसके संदर्भ में एक अनूठा तथ्य देते है। कहते है कि जिस वर्ष मदर का जन्म हुआ, उसी वर्ष दीन दुखियों और पीडितों की सेवा में समर्पित एक महान आत्मा “फलोरेंस नाइटिंगेल” की मृत्यु हुई थी। पुनर्जन्म में विश्वास रखने वाले लोगों का मानना है कि मदर के रूप मे फलोरेंस नाइटिंगेल ने ही दूसरा जन्म लिया था।

मदर टेरेसा ने जब पहली बार मानवता सेवा की ओर आकर्षित हुई, उस समय उनकी आयु 12-13 वर्ष की होगी। सरकारी स्कूल में पढ़ते समय वह सोडालिटी की बाल सदस्या बन गई। सोडालिटी मानव सेवा को समर्पित ईसाई संस्था का एक अंग थी। जिसका प्रमुख कार्य लोगों, विशेषकर विद्यार्थियों को स्वंय सेवी कार्यकर्ताओं के रूप मे तैयार करना था।

उन दिनों यूगोस्लाविया के बहुत से जेसुइट (ईसाई धर्म के प्रचारक और कार्यकर्ता) भारत में कर्सियांग और कोलकाता में रहकर सेवाकार्यो में जुटे थे। ये जेसुइट लोग समय समय पर अपने अनुभव और कार्यो के विषय में आयरलैंड के लोरेटा सम्प्रदाय के मुख्यालय में पत्र भेजते रहते थे। इन पत्रो को सोडालिटी के सदस्यों को नियमित रूप से पढ़ाया जाता था।

उन्हीं दिनों यूगोस्लाविया के जेसुइट लोगों ने कोलकाता आर्कडायसिस योजना पर काम करने के लिए 30 दिसंबर सन् 1925 को जेसुइटो का एक दल कोलकाता भेजा। इस दल में से कर्सियांग गए एक जेसुइट ने कोलकाता के दीन दुखियों की दशा और उस संबंध में किए जा रहे जेसुइटो के कार्यों का वर्णन बडे ही भावात्मक ढंग से सविस्तार लिखकर भेजा।

यही वह पत्र था, जिसका वृत्तांत पढ़ सुनकर मात्र 15 साल की स्कूली छात्रा मदर का मन कोलकाता जाने के लिए मचल उठा। उन्हें लगा जैसे हजारों मील दूर के दुखियों और पीडितों की करूण पुकार उनके मन मस्तिष्क में गुंजने लगी। जब उन्होंने अपने अध्यापकों को अपनी इस इच्छा से अवगत कराया तो उनकी भावना का सम्मान करते हुए, उन्हें आयरलैंड के लोरेटो मठ की सन्यासियों के सम्पर्क में भेज दिया गया। इस मठ की सन्यासिनियों और मिशनरी कार्यकर्ताओं के त्याग और सेवा भावना से पूर्ण जीवन ने मदर को इतना अभिभूत कर दिया की उन्होंने इसी समय अपना पूर्ण जीवन मानव की सेवा को समर्पित करने का निर्णय ले लिया।

एग्नेस का नाम मदर टेरेसा कैसे पड़ा

लोरेटो मठ के सन्यासी जीवन के साथ साथ यदि उस समय मदर के जीवन को किसी ने सर्वाधिक प्रभावित किया तो वह थी, स्पेन की महान संत टेरसा जिन्होंने तब से लगभग 400 वर्ष पूर्व धर्मात्मा के चक्रव्यूह में फंसे स्पेन के लोगों को नए जीवन का अमर संदेश दिया था। यह संयोग था अथवा कुछ और कि उन महान संत टेरेसा ने भी जीवन के 18वें साल में सन्यासियों के जीवन को अपनाया था। और मदर टेरेसा ने भी 29 नवंबर 1928 को अपने जीवन के 18 वे साल में ही सन्यासी जीवन को अपनाया। अपने आदर्श और महान संत टेरेसा के पद चिन्हों पर चलने का प्रण करते हुए, उन्होंने अपना नया नाम टेरसा रख लिया।

मदर टेरसा का भारत आगमन और मदर टेरेसा का योगदान

लोरेटो के आधिकारियों ने एक ही दृष्टि में करूणा की मूर्ति स्वरूप इस 18 वर्षीय सन्यासिनी को पहचान लिया था। मदर को पहले आयरलैंड के लोरेटो मुख्यालय और फिर डब्लिन भेजा गया। यहां उनको मिशनरी के कार्यों और नियमों आदि से परिचित कराया गया। और फिर अगस्त सन् 1929 में मदर टेरेसा को पहली बार भारत भेजा गया। भारत पहुंचते ही सबसे पहले उनको दार्जिलिंग में नोविसिएट का कार्य सौंपा गया।

वहां से कोलकाता के इंटाली के सेंट मैरी स्कूल में भूगोल की अध्यापिका के रूप में कार्य करने के रूप में भेजा गया। इस स्कूल में उन्होंने सन् 1929 से 1948 तक लम्बा समय व्यतीत किया। इस दौरान कुछ समय वे इस स्कूल की अध्यक्षा भी रही। सिस्टर ऑफ लोरेटो के रूप में भारत आई मदर को लोरेटो की ननों के साथ परोक्ष रूप से युक्त डॉक्टर्स ऑफ सेंट ऐन का भार भी सौंपा गया।

24 मई सन् 1931 को मदर टेरेसा ने स्वेच्छा से स्वयं को लोरेटो के कार्यों के लिए समर्पित करने की शपथ ली। इसके छः साल बाद ही उन्होंने इसी स्कूल में अध्यापन करते हुए। सन् 1937 में अंतिम रूप से दूसरी शपथ ली।

10 सितंबर सन् 1946 का वह दिन मदर को सदैव स्मरण रहा, जब ट्रेन द्वारा कोलकाता से दार्जिलिंग जाते समय मदर को लगा जैसे कोई अद्भुत शक्ति शक्ति उन्हें पुकारकर कह रही है। सब कुछ त्याग कर मेरे पिछे चली आओ।बस्ती बस्ती में दरिद्रतम मनुष्य की सेवा करने से ही मेरी सेवा होगी। मदर ने उसी समय इस आह्वान को अपने अंतर्मन की गहराइयों में अनुभव करते हुए निर्णय कर लिया कि वह अब अपना समस्त जीवन द्ररिद्र मानव की सेवा मे व्यतीत करेगीं। यह प्रण करते ही मदर ने लोरेटो कॉन्वेंट और उनके द्वारा मिल रही सभी सुख सुविधाओं को छोड़ दिया। इतना ही नहीं उन्होंने अपने सुंदर और महंगे वस्त्रों का भी त्याग कर दिया, और सफेद साड़ी धारण कर ली। पूरे आस्तीन का सफेद ब्लाउज और गले में टंगा क्रास का निशान। कैथोलिक सन्यासिनियों में मदर पहली महिला थी, जिन्होंने भारतीय पौशाक साड़ी को अपने मिशन की पौशाक के रूप में धारण किया।

इस सेवा के मार्ग पर चलने हेतु प्रेम के साथ साथ चिकित्सा और औषधि का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करने की भी अत्यंत आवश्यकता थी। लोरेटो को अलविदा कहकर मदर अपनी नई वेशभूषा में ही 18 अगस्त सन् 1948 को नर्सिंग की ट्रेनिंग लेने के लिए पटना बिहार की अमेरिकी मेडिकल मिशनरी की सिस्टरों के पास गई। वहां 3 महीने की ट्रेनिंग लेकर वे दिसंबर माह में कोलकाता लौट आई। और लिटिल सिस्टर्स ऑफ द पुअर संस्था में आकर रहने लगी।

मदर टेरेसा के संघर्ष के दिन

अनाथ और पीडित बच्चों की सेवा में लगी लिटिल सिस्टर्स ऑफ द पुअर नाम की यह संस्था अत्यंत दयनीय अवस्था में थी। बिल्कुल मदर की तरह। लोरेटो की निश्चिंता भरा जीवन त्याग कर जब मदर बाहर निकली थी तो जमा पूंजी के नाम पर उनके पास मात्र 5 रूपये थे।मदर के जीवन में सन् 1948 का यह दौर बड़ी कठिनाईयो भरा रहा। इसी साल मदर टेरसा को भारतीय नागरिकता प्राप्त हुई,  और इसी साल 21 दिसंबर को उन्हें सियालदह के निकट की मलिन मोतीझील बस्ती में पहला स्कूल खोलने की अनुमति भी मिली।

इंटाली लारेटो के पास की मोतीझील बस्ती के गन्दे और दुर्गंध युक्त वातावरण के बीच एक उजाड़ जमीन के टुकड़े पर मदर टेरसा का पहला स्कूल स्थापित हुआ। स्कूल क्या था? बस नाम ही था। न कोई कमरा, न छत, न दीवार, न कुर्सी, न बेंच, न लिखने पढने की सामग्री। मदर ने एक मजदूर के साथ स्वंय लगकर आसपास की झाडियों और गंदगी को साफ किया। बस्ती के 4-5 द्ररिद्र परिवारों के मैले कुचेले बच्चों को बडे प्रेम से साथ लाई, और जमीन पर लकड़ी से अक्षर लिखकर बच्चों को पढ़ाने लगी।

मदर ने जिन दिनो यह स्कूल स्थापित किया था, न तो उनके पास सिर छिपाने की कोई जगह थी, और न ही पेट की भूख मिटाने को भोजन। बारिश में भीगती और ठंड से कांपती मदर को जहां तहां से मांगकर कुछ खाना पड़ता था। 1949 में तब उन्हें थोडी राहत मिली जब माइकल गोमेज नामक सह्रदय ईसाई व्यक्ति के घर में एक छोटे से कमरे में उन्हें रहने की जगह मिली।

मोतीझील के स्कूल से घर आते जाते समय मदर को जैसे ही सड़क किनारे पड़ा कोई रोगी अथवा पीडित व्यक्ति दिखाई देता वह उसे अपने साथ ले आती। माइकल गोमेज ने भी सहर्ष मदर के इस काम में भरपूर सहयोग दिया। और अपने मकान को निराश्रय और दुखी लोगो की पनाहगाह में बदल दिया। सेंट टेरेसा चर्च के फादर ने मदर की सेवा भावना को अनुभव करते हुए उन्हें मेज, कुर्सी, दवाओं के साथ साथ अपनी आउटडोर डिस्पेंसरी का एक कोना दे दिया।

मिशनरी ऑफ चैरिटीज की स्थापना

माइकल गोमेज का छोटा सा मकान जो मदर टेरसा की कार्य विधियों का केंद्र था। पीडितों की बढ़ती संख्या को देखते हुए बहुत छोटा पड़ गया था।  7 अक्टूबर 1950 को कोलकाता में मदर की मानवता सेवी गतिविधियों की सूचना पाकर और मदर द्वारा भेजे गए मर्मस्पर्शी पत्र के आधार पर 54ए आचार्य बसु रोड पर मिशनरीज ऑफ चैरिटीज की स्थापना की गई। मदर के मार्ग दर्शन में शीघ्र ही इसकी शाखाएं समस्त भारत में फैल गई। और निर्मल ह्रदय और और निर्मला शिशु सदन जैसे अनेक मानवता सेवा के संस्थान खुलते चले गए।

आर्थिक सहायता मिलती चली गई

समाज के विभिन्न क्षेत्रों से जुडे लोग मदर टेरेसा के मार्ग दर्शन में चल रहे मिशनरी ऑफ चैरिटीज तथा निर्मला ह्रदय सहित जैसे अनेक संस्थानों से लोग जुड़ने लगे। और मनवता सेवा के इस महान कार्य मे आर्थिक योगदान करने लगे।। ऐसे लोगों में देश विदेश की अनेक संस्थाएं तो थी ही, स्वत्रंत भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु भी इसमें पीछे नहीं रहे। इस प्रकार सामाजिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग मिलने के साथ साथ ही मदर ने अपनी संस्था और उसके कार्यों को देश ही क्या विदेशों तक फैला दिया। 1950 में मिशनरीज ऑफ चैरिटीज की स्थापना से मात्र 12 वर्ष में उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मश्री के सम्मान से नवाजा गया। पुरस्कार प्राप्त करने के बाद मदर टेरेसा एक अतंर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त व्यक्तित्व बन चुकी थी।

मदर टेरेसा की संस्थाएं- मदर टेरेसा चैरिटेबल ट्रस्ट- मदर टेरेसा अनाथ आश्रम

सन् 1950 मे मिशनरी ऑफ चैरिटीज की एक छोटे से भवन में स्थापना से लेकर आज भारत में कोलकाता, रांची, दिल्ली, झांसी, आगरा, अंबाला, भागलपुर, अमरावती, मुम्बई, रायगढ़, सहित पूरे भारत में 161 से भी अधिक प्रतिष्ठान मिशनरीज ऑफ चैरिटीज के अधीन मानवता की सेवा में लगे है।

विदेशों में स्विट्जरलैंड, वेनेजुएला, आस्ट्रिया, फ्रांस, अमेरिका, कनाडा, इटली, आस्ट्रेलिया, हौलैंड, डेनमार्क, माल्टा, इंग्लैंड, आयरलैंड, न्यूजीलैंड, श्रीलंका, तंजानिया, रोम, जॉर्डन, मेलबर्न, आदि सहित 35 देशों में भी मिशनरीज ऑफ चैरिटीज के संस्थान मानव से में लगे हुए है।

मदर टेरेसा के अवार्ड – मदर टेरेसा की उपलब्धियां- मदर टेरेसा को मिले सम्मान, पुरस्कार

  • 1962— भारत सरकार द्वारा “पद्मश्री” से सम्मानित किया गया
  • 1962– फिलिपींस के दिवंगत राष्ट्रपति के नाम पर “रेमन मैगसेसे” पुरस्कार दिया गया।
  • 1963—- 23 मार्च को कोलकाता के आर्चबिशप द्वारा मदर के मार्गदर्शन में “मिशनरीज ऑफ ब्रदर्स” के शुभ अवसर पर ही आशीर्वाद दिया गया।
  • 1964— ईसाई धर्मगुरु महामान्य पोप ने भारत आगमन पर मुम्बई की यूकरिस्टिक कांग्रेस में मदर को अपनी निजी “फोर्ड लिंकन” गाडी उपहार स्वरूप प्रदान की।
  • 1969— 26 मार्च को “द इंटरनेशनल एशोसिएशन ऑफ कोवर्कर्स ऑफ मदर टेरेसा” को मिशनरीज ऑफ चैरिटीज का अनुमोदन मिला और पोप पाल छठे द्वारा उन्हें आशीर्वाद दिया गया।
  • 1971—- 6 जनवरी को मदर को पोप जॉन तेरहवें का “शांति पुरस्कार” प्रदान किया गया।
  • 1971— न्यूयॉर्क में “गुड सैमेरिटन” का अवार्ड मिला।
  • 1971— वाशिंगटन में “केनेडी इंटरनेशनल अवार्ड” मिला।
  • 1971—- कैथोलिक यूनिवर्सिटी ऑफ अमेरिका द्वारा “डॉक्टर ऑफ ह्यूमन लैटर्स” की सम्मान सुचक उपाधि।
  • 1972— दिल्ली में ” जवाहर लाल नेहरू अवार्ड फॉर इंटरनेशनल अंडरस्टेंडिंग” पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
  • 1973— लंदन में “फाउंडेशन प्राइज फॉर प्रॉग्रेस इन रिलीजन” सम्मान दिया गया।
  • 1975— मैक्सिको में “अंतरराष्ट्रीय नारी वर्ष” के उपलक्ष्य मे आयोजित सम्मेलन में विशिष्ट अतिथि के रूप में सम्मानित किया गया।
  • 1975— मिशनरीज ऑफ चैरिटी की पच्चीसवीं वर्षगांठ पर “रौम्य जयंती उत्सव” मनाया गया, जिसमें देश विदेश के अनेक गणमान्य लोगों ने मदर के सेवा कार्यों के प्रति कृतज्ञता प्रकट की।
  • 1975— अंतरराष्ट्रीय संस्था एफ.ए.ओ के सिरेस पदक के एक ओर मदर का ममतामयी चित्र तथा दूसरी ओर नवजात शिशु को थामे हुए हाथ का दृश्य चित्रित किया गया। ये चित्र ब्रिटेन के कलाकार माइकेल रिजेला द्वारा बनाए गए।
  • 1976— विश्वभारती शांति निकेतन द्वारा देशिकोतम की मानद उपाधि प्रदान की।
  • 1979— मदर को विश्व शांति और सदभावना के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
  • 1980– भारत सरकार द्वारा उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
  • 1983— 25 नवंबर को महारानी एलिजाबेथ द्वारा ब्रिटेन के सर्वोच्च सम्मान “ऑर्डर ऑफ मैरिट” से सम्मानित किया गया।
  • 1990— 15 नवंबर सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड से सम्मानित किया गया।
  • 1990– रॉयल कॉलेज लंदन द्वारा सर्वोच्च फैलो अवार्ड से सम्मानित किया गया।
  • 1993— राजीवगांधी सद्भावना पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

मदर टेरेसा के अनमोल वचन

सेवा केवल धन से ही नहीं होती। सेवा का ह्रदय होना चाहिए। अस्पताल के डॉक्टर, नर्स भी तो सेवा करते है, किंतु उनकी सेवा में प्यार का स्पर्श है या नहीं, वहीं देखने की बात है। प्यार की इस दुनिया में धोखे और बनावट के लिए कोई जगह नहीं है। कहकर नहीं, करके समझाना होगा कि हम उन्हें प्यार करते है। इसलिए हमेशा दीन दुखियों के पास प्रसन्न मन से जाना चाहिए। दुखी मन लेकर जाने से ये दुखी लोग और भी टूट जाएंगे।

  • आजकल कुष्ठ और टी.बी. जैसे भयानक रोगों का उपचार है, किंतु मैं अवांछित हूँ, मुझे कोई नहीं चाहता, यही भावना सबसे बड़ा लाइलाज रोग है। इस रोग को दूर करने की एक ही औषधि है और वह है प्यार।
  • मृत्यु तो अवश्यंभावी है, किंतु यदि हम मृत्यु की गोद में जाने से पहले इन लोगों को थोड़ा सा प्यार और स्नेह भरा स्पर्श दे सकें तो यही हमारे काम की सार्थकता होगी।
  • सच्चे मन से की गई प्रार्थना ह्रदय को विस्तृत करती है, ईश्वर की शक्ति का पथ दिखाने के लिए।
  • मनुष्य को ईश्वर की ओर ले जाना ही मेरा काम है। और उसी के लिए आवश्यक है सेवा,।
  • यदि, हम ऐसा सोचे कि दुनिया के सारे भूखो को अन्न नहीं दिया जा सकता। सब बीमार लोगों की सेवा भी सम्भव नहीं है, तो क्या सेवा, दान और प्यार को छींके पर टांग दे? नहीं! राह चलते कोई जरूरत मंद मिल जाए तो उसको देखना और उसकी जरूरत पूर्ण करना ही धर्म है। यही मानवता का तकाज़ा है। संख्या चाहे सैकड़ों में करोड़ों में या कितनी ही भी हो। प्रतिदिन प्रत्येक मनुष्य यदि एक अच्छा काम करें तो शायद यह समस्या न रहे।
  • अपने मन- प्राण ईश्वर पर छोड दो। देखना! फिर कोई समस्या नहीं लगेगी। जीवन में दुख, वेदना, व्यर्थता तो आती है। यह याद रखो, दुख ही आनंद लाता है। वेदना ही जीवन को मधुमय बनाती हैऔर व्यर्थता ही सफलता में परिवर्तित होती है। जिसका जीवन स्वयं वेदना से परिपूर्ण हो, वहीं तो वेदना से पीडित मनुष्य का दुख दूर कर सकता है।
  • मैं यदि यह सोंचू कि यह सारे काम मै ही करती हूँ तो जीवित अवस्था में न होने पर मेरे काम भी समाप्त हो जाएंगे। इस पर मेरा यह दृढ़ विश्वास है, कि ईश्वर ही हमारे द्वारा सब कुछ करा लेते है। तभी तो मनुष्य के मर जाने पर भी काम की कभी मृत्यु नहीं होती। ईश्वर ही किसी ओर के द्वारा काम करा लेंगे।

मदर टेरेसा की मृत्यु

जीवन भर दीन दुखियों की सेवा के लिए देश विदेश के किसी भी कोने से आई एक ही पुकार पर दौड़ी चली जाने वाली मदर अपने जीवन के 86 वर्ष पूरे करते करते काम के इस अत्यधिक बोझ से भीतर ही भीतर थकने लगी थी। किंतु उन्होंने अपने निरंतर बिगड़ते स्वास्थ्य को अपने काम के आगे कुछ नहीं समझा। इसका परिणाम यह हुआ कि सन् 1997 के शुरू मे ही उनका स्वास्थ्य इस कदर बिगड़ गया की उन्हें अस्पताल मे एडमिट कराना पड़ा। और कई महीनें एड़मिट रहने के बाद 5 सितंबर 1997 को मदर टेरेसा का देहांत हो गया। मानवता के इतिहास मे प्रेम करूणा समर्पण और त्याग का एक अनूठा और अमर अध्याय जोडकर सदा के लिए इस दुनिया से रूखसत हो गई। आज मदर हमारे बीच नहीं है किंतु उनकी संस्थाओं और उनके द्वारा की जा रही मानव सेवा में हम हर क्षण उनकी उपस्थिति अनुभव कर सकते है।

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