Faiz Ahmad Faiz Biography in Hindi – फैज अहमद फैज की जीवनी
Faiz Ahmad Faiz Biography in Hindi – फैज अहमद फैज की जीवनी
Faiz Ahmad Faiz Biography in Hindi
फैज अहमद फैज का जन्म 3 फरवरी, 1911 को अविभाजित भारत के सियालकोट(पंजाब, अब पाकिस्तान में) के नजदीक कस्बा कादिर खां में हुआ. उनके पिता का नाम चौधरी सुलतान मुहम्मद खां और माता का नाम सुल्तान फातिमा था.
फैज भारतीय उप महाद्वीप के सबसे महबूब शायरों में एक थे. फैज शायर के साथ-साथ पत्रकार, गीतकार और एक्टिविस्ट भी थे. उन्होंने उर्दू में एक ऐसी विधा को जन्म दिया जिसमें लहजा तो गजल का था लेकिन वो उनके दौर के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य से सरोकार भी रखती थी.
पाकिस्तानी हुकूमत ने 1951 और 1958 में उन्हें जेल भेजा और उनकी आवाज दबाने की भरपूर कोशिश की. 1965 और 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान उन्होंने पाकिस्तानी फौज की हौसला अफजाई के लिए वतन परस्ती की नज्में लिखने से इनकार कर दिया, जिससे हुक्मरान उनसे नाराज होते चले गए. जिया उल हक ने फैज की शायरी को सार्वजनिक मंचों पर पढ़े जाने पर रोक लगा दी. इसके बावजूद, 1985 में फैज की पहली बरसी पर लाहौर में हजारों लोग उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए इकट्ठा हुए. तानाशाह जिया उल हक के आदेश को धता बताते हुए गायिका इकबाल बानो ने इस विशाल जनसमूह के सामने फैज की नज्मों और गजलों की प्रस्तुति दी.
फैज 1963 में लेनिन शांति पुरस्कार हासिल करने वाले पहले एशियाई कवि बने. उन्हें नोबल पुरस्कार के लिए भी नामांकित किया गया था.
कैरियर – Faiz Ahmad Faiz Career in Hindi
1935 में वह अमृतसर के मोहम्मडन एंग्लो ऑरिएंटल क़ॉलेज में अंग्रेजी विषय के प्राध्यापक नियुक्त हुए। उसके बाद मार्क्सवादी विचारधाराओं से बहुत प्रभावित हुए। “प्रगतिवादी लेखक संघ” से 1937 में जुड़े और उसके पंजाब शाखा की स्थापना सज्जाद ज़हीर के साथ मिलकर की जो उस समय के मार्क्सवादी नेता थे। 1937 से 1949 तक उर्दू साहित्यिक मासिक अदब-ए-लतीफ़ का संपादन किया।
वे कुछ समय फ़ौज में भी नौकरी की। बाद में फौज की नौकरी से इस्तीफा देकर पाकिस्तान टाईम्स के संपादक बन गए। 1947 में देश का विभाजन हुआ तो उन्होंने सीमा के दोनों ओर हुए दंगों और खून-खराबे के बारे में जो सम्पादकीय लिखे, वे आज भी पढ़ने के लायक हैं। फैज ने कम समय में ही पत्रकारिता में अच्छा नाम कमाया. उन्होंने जो निर्भीक होकर पत्रकारिता की, लेकिन वह पाकिस्तानी हुकूमत को नागवार गुजरने लगी।
जेल यात्रा
चौधरी लियाकत खां पाकिस्तान के प्रधानमंत्री थे। विभाजन के कारण भारत और पाकिस्तान दोनों जगह अशांति थी और पाकिस्तान की स्थिति विशेष रूप से खराब थी। सैय्यद सज्जाद जहीर जो कम्युनिस्ट नेता और प्रगतिशील आंदोलन के अगुवा थे, उन्हें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने सैय्यद मतल्ली, सिब्ते हसन और डॉक्टर अशरफ के साथ पाकिस्तान में इंकलाब करने भेजा था। सज्जाद जहीर के फैज अहमद फैज के साथ घनिष्ठ संबंध थे और फैज चूंकि फौज में अफसर रह चुके थे, इसलिए पाकिस्तान के फौजी अफसरों से उनके गहरे संबंध थे।
1951 में सज्जाद जहीर और फैज अहमद फैज को दो फौजी अफसरो के साथ रावलपिंडी साजिश केस में गिरफ्तर कर लिया गया। उन पर लियाकत अली खां की हुकूमत का तख्ता पलटने की कोशिश करने का आरोप लगाया गया। इस केस में फैज अहमद फैज करीब 4 साल जेल में बंद रहे। लगभग 3 महीने उन्होंने सरगोधा और लायलपुर की जेलों में कैदे-तनहाई में गुजारने पड़े। इस दौरान बाहरी दुनिया से उनका संबंध कट गया था। मित्रों और बीवी-बच्चों से मिलने की इजाजत नहीं थी, यहां तक कि वह अपने कलम का भी इस्तेमाल नहीं कर सकते थे। जेल में रहते हुए उन्होंने जो कुछ लिखा वह दस्ते-सबा और जिंदां नामा में प्रकाशित हुआ।
1955 में जेल से बाहर आने पर फैज ने फिर पाकिस्तान टाइम्स में काम शुरू किया। 1956 में फैज प्रगतिशील लेखक संघ के एक सम्मेलन में भाग लेने भारत आए। इसके बाद 1958 में फैज अफ्रीकी-एशियाई लेखकों के सम्मेलन में भाग लेने ताशकंद गए। इसी दौरान, जनरल अयूब खां ने तख्तापलट कर दिया। फैज को गिरफ्तार से बचने के लिए पाकिस्तान नहीं लौटने की सलाह दी गई, लेकिन वे पाकिस्तान लौटे। वापस आते ही कुछ दिनों में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। फैज छह महीने तक जेल में रहे. यहां उन्होंने एक और मशहूर नज्म लिखी जो पूरी दुनिया में पसंद की गई – निसार मैं तेरी गलियों पे ऐ वतन कि जहां, चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले।
जेल से छूटने के बाद फैज कराची आ गए. कराची का मौसम उन्हें रास नहीं आया और वे पत्नी एलिस के साथ वापस लाहौर लौट आए। 1962 में उन्हें लेनिन शांति पुरस्कार से सम्मानित किया। 1971 में पाकिस्तान का विभाजन हुआ और बांग्लादेश बना। इसके बाद पाकिस्तान में जुल्फिकार अली भुट्टो के नेतृत्व में बनी नागरिक सरकार ने फैज को सांस्कृतिक सलाहकार की जिम्मेदारी दी। 1972 में वे राष्ट्रीय कला परिषद पाकिस्तान के अध्यक्ष बने।
1977 में पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक के नेतृत्व में सैन्य विद्रोह हुआ. फैज फिर से फौजी हुकूमत के निशाने पर आ गए। 1979 में वे बेरूत चले गए जहां वे एफ्रो-एशियाई लेखक संघ के जर्नल लोटस के लिए लिखने लगे. 1982 तक वे बेरूत में रहने के बाद पाकिस्तान लौट आए।
अमृतसर में लेक्चरर की नौकरी
1934 में शिक्षा समाप्त हुई तो नौकरी शुरू हुई. 1935 में वह अमृतसर के मोहम्मडन एंग्लो ऑरिएंटल क़ॉलेज में अंग्रेजी विषय के प्राध्यापक नियुक्त हुए. अमृतसर में उस कॉलेज के प्रिंसिपल थे महमूद उज्जफर. वे और उनकी पत्नी डॉ. राशिद कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित थे. इनके सम्पर्क में आकर फैज ने ट्रेड यूनियन की गतिविधियों में शामिल होना शुरू किया. अमृतसर में ही सआदत हसन मंटो उनके छात्र बने और आगे जाकर यह रिश्ता दोस्ती में बदल गया. अमृतसर में ही फैज अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ गए.
फौज में नौकरी
1940 में फैज लाहौर के हेली कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाने लगे. अब दूसरा विश्व युद्ध शुरू हो चुका था. बुद्धिजीवियों के लिए सरकारी नौकरी के नए-नए रास्ते खुल गए थे. फैज अहमद फैज ने शिक्षा-कार्य छोड़ दिया और वह 1942 में कैप्टन के पद पर फौज में भर्ती होकर लाहौर से दिल्ली आ गए. 1943 में कैप्टन से मेजर और 1944 में मेजर से कर्नल बन गए.
फैज का पत्रकारिता में योगदान
1946 में कांग्रेस छोड़कर मुस्लिम लीग में आए प्रगतिशील विचारक मियां इफ्तिखारुद्दीन ने पाकिस्तान टाइम्स अंग्रेजी अखबार शुरू किया. यह अखबार उन दिनों के मशहूर अखबार द हिंदू के जवाब में शुरू किया गया था. फैज को इसका मुख्य संपादक बनने को कहा गया तो वे फौज की नौकरी से इस्तीफा देकर संपादक बन गए.
1947 में देश का विभाजन हुआ तो उन्होंने सीमा के दोनों ओर हुए दंगों और खून-खराबे के बारे में जो सम्पादकीय लिखे, वे आज भी पठनीय हैं. उन्हीं दिनों आई फैज की नज्म सुब्ह-ए-आजादी में उनके विचार साफ जान पड़ते हैं. उन्होंने लिखा- वो इंतजार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं.
फैज ने कम समय में ही पत्रकारिता में अच्छा नाम कमाया. उन्होंने जो निर्भीक पत्रकारिता की, वह पाकिस्तानी हुकूमत को नागवार गुजरने लगी.
लेनिन शांति पुरस्कार
जेल से छूटने के बाद फैज कराची आ गए. कराची का मौसम उन्हें रास नहीं आया और वे पत्नी एलिस के साथ वापस लाहौर लौट आए. 1962 में उन्हें लेनिन शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया, यह पुरस्कार सोवियत संघ में नोबल के समकक्ष माना जाता था. पुरस्कार मिलने के बाद उन्हें दुनिया के कई देशों में गोष्ठियों औऱ सम्मेलनों में शामिल होने के लिए बुलाया जाने लगा. इसी दौरान लेबनान से उनका खास रिश्ता बना, जो आगे चलकर कई साल तक उनका घर रहा.
1971 में पाकिस्तान का विभाजन हुआ और बांग्लादेश बना. इसके बाद पाकिस्तान में जुल्फिकार अली भुट्टो के नेतृत्व में बनी नागरिक सरकार ने फैज को सांस्कृतिक सलाहकार की जिम्मेदारी दी. 1972 में वे राष्ट्रीय कला परिषद पाकिस्तान के अध्यक्ष बने. फैज के जीवन में आने वाले कुछ साल कमोबेश शांति से गुजरे.
बेरूत में बिताए साल
1977 में पाकिस्तान में जनरल जिया उल हक के नेतृत्व में सैन्य विद्रोह हुआ. फैज फिर से फौजी हुकूमत के निशाने पर आ गए. 1979 में वे बेरूत चले गए जहां वे एफ्रो-एशियाई लेखक संघ के जर्नल लोटस के लिए लिखने लगे. 1982 तक वे बेरूत में रहने के बाद पाकिस्तान लौट आए.
फैज का उर्दू साहित्य में योगदान
फैज ने 1928 में पहली गजल और 1929 में पहली नज्म कही. फैज का पहला कविता संग्रह जुलाई 1945 में प्रकाशित हुआ, जिसका नाम था नक्शे- फरियादी. इस छोटे से संग्रह की कुछ अच्छी नज्मों ने ही फैज को और लोकप्रिय बना दिया. मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग- एक ऐसी ही नज्म है, जिसका एक-एक शेर आज भी उनके चाहने वालों के दिमाग में छाया हुआ है. चंद रोज और मेरी जान- इस संग्रह की दूसरी मशहूर नज्म है.
हालांकि, 1952 में प्रकाशित दस्त-ए-सबा के बाद उनकी प्रसिद्धि और फैल गई, इस संग्रह की नज्में और गजलें उन्होंने जेल में बंद रहने के दौरान लिखी थीं.
फैज मुशायरों के बजाय अदबी महफिलों के शायर थे. वे धीमी आवाज में नज्म पढ़ते थे. उन्हें मिर्जा गालिब और इकबाल की कतार का शायर कहा जाता है. कम ही लोग यकीन करेंगे कि फैज साहब ने अपनी मशहूर नज्म मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग… प्यार में पड़कर नहीं बल्कि कार्ल मार्क्स का कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो पढ़कर लिखी थी.
फैज की शायरी रुमानियत, जीवन के यथार्थ, बदलाव की बयार का खूबसूरत मेल थी. इस कारण फैज को जो प्रसिद्धि मिली वह बढ़ती ही चली गई. पांचवें दशक से उनकी मृत्यु यानी नौवें दशक तक वे उर्दू अदब में छाए रहे और आज भी दुनिया भर में फैले अपने प्रशंसकों के दिलों में जिंदा हैं.
फैज की प्रमुख पुस्तकें
नक्शे फरियादी, दस्त-ए सबा, जिन्दांनाम, दस्ते-तहे-संग, मेरे दिल मेरे मुसाफिर (कविता संग्रह), मीजान (लेखों का संग्रह), सलीबें मेरे दरीचे में (पत्नी के नाम पत्र)।
फैज की कविता – Faiz Ahmad Faiz Poems in Hindi
मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग
रंग है दिल का मेरे
अब कहाँ रस्म घर लुटाने की
अब वही हर्फ़-ए-जुनूँ सबकी ज़ुबाँ ठहरी है
तेरी सूरत जो दिलनशीं की है
खुर्शीदे-महशर की लौ
ढाका से वापसी पर
तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं
निसार मैं तेरी गलियों के अए वतन, कि जहाँ
आज बाज़ार में पा-ब-जौलाँ चलो
रक़ीब से
तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी तेरे जाँ-निसार चले गये
बहार आई
नौहा
तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार जब से है
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
जब तेरी समन्दर आँखों में
आप की याद आती रही रात भर (मख़दूम* की याद में)
चश्मे-मयगूँ ज़रा इधर कर दे
चलो फिर से मुस्कुराएं (गीत)
चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़
ये शहर उदास इतना ज़ियादा तो नहीं था
गुलों में रंग भरे, बादे-नौबहार चले
गर्मी-ए-शौक़-ए-नज़्ज़ारा का असर तो देखो
गरानी-ए-शबे-हिज़्रां दुचंद क्या करते
मेरे दिल ये तो फ़क़त एक घड़ी है
ख़ुदा वो वक़्त न लाये कि सोगवार हो तू
मेरी तेरी निगाह में जो लाख इंतज़ार हैं
कोई आशिक़ किसी महबूब से
तुम आये हो न शबे-इन्तज़ार गुज़री है
तुम जो पल को ठहर जाओ तो ये लम्हें भी
तुम मेरे पास रहो
चाँद निकले किसी जानिब तेरी ज़ेबाई का
दश्ते-तन्हाई में ऐ जाने-जहाँ लरज़ा हैं
दिल में अब यूँ तेरे भूले हुए ग़म आते हैं
मेरे दिल मेरे मुसाफ़िर
आइये हाथ उठायें हम भी
दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के
नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही
न गँवाओ नावके-नीमकश, दिले-रेज़ा रेज़ा गँवा दिया
फ़िक्रे-दिलदारी-ए-गुलज़ार करूं या न करूं
नज़्रे ग़ालिब
नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं
तनहाई
फिर लौटा है ख़ुरशीदे-जहांताब सफ़र से
फिर हरीफ़े-बहार हो बैठे
बहुत मिला न मिला ज़िन्दगी से ग़म क्या है
बात बस से निकल चली है
बेदम हुए बीमार दवा क्यों नहीं देते
इन्तिसाब
सोचने दो
मुलाक़ात
पास रहो
मौज़ू-ए-सुख़न*
बोल**
हम लोग
क्या करें
यह फ़स्ल उमीदों की हमदम*
शीशों का मसीहा* कोई नहीं
सुबहे आज़ादी
ईरानी तुलबा के नाम
सरे वादिये सीना
फ़िलिस्तीनी बच्चे के लिए लोरी
तिपबं बवउम ठंबा
हम जो तारीक राहों में मारे गए
एक मन्जर
ज़िन्दां की एक शाम
ऐ रोशनियों के शहर
यहाँ से शहर को देखो * मन्ज़र
एक शहरे-आशोब* का आग़ाज़*
बेज़ार फ़ज़ा दरपये आज़ार सबा है
सरोद
वासोख़्त*
शहर में चाके गिरेबाँ हुए नापैद अबके
हर सम्त परीशाँ तेरी आमद के क़रीने
रंग पैराहन का, ख़ुश्बू जुल्फ़ लहराने का नाम
यह मौसमे गुल गर चे तरबख़ेज़ बहुत है
क़र्ज़े-निगाहे-यार अदा कर चुके हैं हम
वफ़ाये वादा नहीं, वादये दिगर भी नहीं
शफ़क़ की राख में जल बुझ गया सितारये शाम
कब याद में तेरा साथ नहीं, कब हाथ में तेरा हाथ नहीं
जमेगी कैसे बिसाते याराँ कि शीश-ओ-जाम बुझ गये हैं
हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है
जैसे हम-बज़्म हैं फिर यारे-तरहदार से हम
हम मुसाफ़िर युँही मस्रूफ़े सफ़र जाएँगे
मेरे दर्द को जो ज़बाँ मिले
हज़र करो मेरे तन से
दिले मन मुसाफ़िरे मन
जिस रोज़ क़ज़ा आएगी
ख़्वाब बसेरा
ख़त्म हुई बारिशे संग
फैज का निधन Death of Faiz Ahmed Faiz
1984 में फैज को नोबल पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया. इसके कुछ ही दिन बाद 20 नवम्बर, 1984 को लाहौर में उनका निधन हो गया.
“आपके पहले संग्रह नक़्श-ए-फरियादी कि भूमिका में आपकी शायरी पर टिप्पणी करते हुए नूर मीम रशीद ने लिखा था: ‘फैज़ किसी मरकज़ी नजरिये (केन्द्रीय विचारधारा) का शायर नहीं, सिर्फ अहसासात का शायर है |’ फैज़ अहमद फैज़ के बारे में जोश मलीहाबादी ने कभी 1965 में लिखा था ‘ मेरा साहिल अब सामने आ चुका है मेरी कश्ती में अब बादबान लपेटे जा रहे है लेकिन डूब जाने से पेश्तर यह कह देना चाहता हू की मै इत्मीनान से मरूंगा और महज़ इस बिना पर कि उर्दू अदब को एक मल्लाह को पीछे छोड़े जा रहा हू और इस मल्लाह का नाम है फैज़ |”