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रसखान | Essay in Hindi | Rasakhan

रसखान | Essay in Hindi | Rasakhan

रसखान

” इन मुसलमान हरि जनन पै कोटिन हिन्दू वारिये ” भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की यह पंक्ति रसखान जैसे व्यक्तियों के लिए ही है । रसखान का प्रेम धर्म था , प्रेम ही जाति थी और प्रेम ही सम्प्रदाय था । ये ऐहिक से पारलौकिक की ओर उन्मुख हुए और उसी में विलीन हो गये ।

जीवन वृत्त- रसखान का जन्म सवत् १६१५ वि ० ( सन् १५५८ ई . ) में हुआ था । ये पठान जाति के थे और दिल्ली में शाही खानदान से सम्बन्धित थे । इनका नाम सैयद इब्राहीम था । अत्यन्त भावुक एवं प्रेमी व्यक्ति थे । जनश्रुति के अनुसार ये एक स्त्री से बहुत प्यार करते थे परन्तु कहाँ से प्यार का प्रतिदान , अपमान में मिलता था । सहसा इन्हें उससे विरक्ति हो गई । इस सम्बन्ध में इन्होंने लिखा है –

तोरि मानिनी ते हियो , फोरि मोहिनी मान । प्रेम देब की छविहिं लखि , भये मियाँ रसखान ।। ”

“दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता ” के अनुसार ये किसी बनिये के लड़के पर आसक्त थे । एक दिन उन्होंने किसी वैष्णव को यह कहते सुना कि भगवान् से ही प्रेम करना चाहिए जैसे रसखान उस जानिये के लड़के से करता है । बस फिर क्या था , इनकी आँख खुल गई और इनके प्रेम का मार्ग बदल गया ।

फिर ये गोकुल आ गए और महाप्रभु बल्लभाचार्य के पुत्र गोस्वामी विट्ठल नाथ जी से दीक्षा T = ग्रहण करके उनके शिष्य बन गये । इसके पश्चात् इन्होंने अपना समस्त जीवन कृष्ण – भक्ति में ही व्यतीत किया । संवत् १६७५ ( सन् १६१८ ई ० ) में उनका देहान्त हो गया ।

रचनायें – रसखान की समस्त रचनायें स्फुट रूप से हुई । इनके दो ग्रन्थ माने जाते हैं -१ . प्रेम वाटिका , २ . सुजान रसखान । कुछ विद्वान् ‘ रसखान शतक ‘ नामक तीसरी कृति भी बताते हैं जो अनुपलब्ध है । प्रेम वाटिका में दोहे और सोरठे हैं और सुजान रसखान में कवित्त और सवैये । दोनों ही रचनायें कृष्ण रस से ओत – प्रोत हैं ।

काव्यगत विशेषतायें – रसखान के प्रेम की भाव भूमि बहुत उच्च थी । इनके प्रेम में गोपियों की पीर के दर्शन होते हैं और इनके वात्सल्य में यशोदा के प्यार के । रसखान की भक्ति गोपी भाव की थी । अतः इनकी रचनाओं में श्रृंगार के संयोग तथा वियोग दोनों ही पक्ष आये हैं । उधर इन्हें कृष्ण के बाल रूप से विशेष प्रेम था इसलिए बाल सौन्दर्य का वर्णन भी अनूठा हुआ है । प्रेम तत्व के निरूपण में और रूप – सौन्दर्य के वर्णन में रसखान अद्वितीय हैं । इन्होंने राधा और कृष्ण की प्रेम लीलाओं का बड़ा सफल और सरस वर्णन किया है । बाल – सौन्दर्य का एक उदाहरण देखिए –
धूरि भरे अति सोभित स्याम जू , तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी ,
खेलत खात फिरै अंगना , पग पैजनि बाजति पीरी कछौटी ।
वा छवि को रसखान विलोकत , वारुत काम कलानिधि कोटी ,
काग के भाग कहा कहिये , हरि हाथ से लै गयो माखन रोटी ।

कृष्ण – प्रेम की पराकाष्ठा जन्म – जन्म में कृष्ण का सान्निध्य चाहती है चाहे वह किसी रूप में भी हो –
मानुस हौं तो वही रसखान , बसौं ब्रज गोकल गाँव के ग्वारन ,
जो पशु हो तो कहा बसु मेरो , चरौं नित नन्द की धेनु मंझारन ।
पाहन हों तो वही गिरि को जो धर्यो कर छत्र पुरन्दर धारन ,
जो खग हो तो बसेरो करौं नित कालिन्दी कूल – कदम्ब की डारन ॥

भाषा- रसखान की कविता बज भाषा में है । यह परिष्कृत , परिमार्जित और प्रवाहपूर्ण है । भाषा माधुर्य और प्रसाद गुणों से युक्त है और भावानुगामिनी है । शब्दाडम्बर से दूर और स्वाभाविकता से युक्त है । कहीं – कहीं अरबी , फारसी के शब्दों का भी प्रयोग किया गया है । मुहावरों के सफल प्रयोग ने प्रभावोत्पादकता में वृद्धि की है । भाषा , सरल , सरस एवं सुबोध है ।

शैली – रसखान की शैली अत्यन्त सरल और आकर्षक है , इसे भावात्मक कहा जा सकता है । सुन्दर भावों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति ही इनकी शैली की विशेषता है । वास्तव में इनकी शैली ही रस की खान थी ।

रस , छन्द् एवं अलंकार– श्रृंगार , वात्सल्य एवं शान्त रस का इन्होंने प्रयोग किया । कवित्त , सवैया , दोहा , सोरठा इनके प्रिय छन्द थे । इनमें भी इनके कवित्त और सवैया में जो आनन्द और माधुर्य है वह आनन्द दोहे और सोरठों में नहीं । अलंकार योजना का विकास स्वाभाविक गति से हुआ है । रसखान की भाषा को अनुप्रास और यमक दो अलंकार अत्यन्त प्रिय थे ।

रसखान के विषय में आचार्य शुक्ल का मत- “ ये बड़े प्रेमी जीव थे । बड़ी प्रेम अत्यन्त गूढ भगवद् – भक्ति में परिणित हुआ है । प्रेम के ऐसे सुन्दर उद्गार इनके सवैयों में निकले कि जन साधारण प्रेम या श्रृंगार सम्बन्धी कवित्त सवैयों को ही ‘ रसखान ‘ कहने लगे , जैसे -कोई रसखान सुनाओ ।

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