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पं ० बालकृष्ण भट्ट | Essay in Hindi | Pandit Balkrishna Bhatt

पं ० बालकृष्ण भट्ट | Essay in Hindi | Pandit Balkrishna Bhatt

पं ० बालकृष्ण भट्ट

भारतेन्दु युग में अनेक लेखकों एवं कवियों का प्रादुर्भाव हुआ था , जिन्होंने अपनी सशक्त लेखिका से खड़ी बोली हिन्दी को सम्बल प्रदान कर सक्षम एवं समृद्ध बनाने की प्राण – पण से चेष्टा की थी । तत्कालीन साहित्यकारों में गम्भीर एवं पांडित्यपूर्ण रचना की घष्टि से भट्ट जी का अद्वितीय स्थान है ।

जीवन – वृत्त – भट्टी जी का जन्म सन् १८४४ , में प्रयाग में हुआ था । उनको प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई । पंडितों से संस्कृत का अध्ययन किया । अंग्रेजी की शिक्षा प्राप्त करने के लिये स्थानीय मिशन स्कूल में भर्ती कराया गया परन्तु पादरी प्रधानाध्यापक से अनबन हो जाने | के फलस्वरूप स्कूल छोड़ देना पड़ा । स्वाध्याय द्वारा भट्ट जी ने हिन्दी , संस्कृत , फारसी , अग्रेजी और उर्दू का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया था । शिक्षा समाप्त कर वे स्थानीय जमुना मिशन स्कूल में संस्कृत के अध्यापक हो गये थे , किन्तु मतभेद उपस्थित हो जाने से उन्हें यह पद शीघ्र ही छोड़ देना पड़ा । तत्पश्चात् स्थानीय कायस्थ पाठशाला कालेज में संस्कृत के अध्यापक नियुक्त हुए । यहीं रहकर उनका स्वाध्याय और स्वतन्त्र चिन्तन आगे बढ़ा । इसी बीच उनका विवाह हो गया था । व्यापार की इच्छा से कलकत्ता भी गये थे । परन्तु शीघ्र ही लौट आये थे । अपने स्वतन्त्र चिन्तन , निष्पक्ष निर्णय और अनुभूत भावनाओं के प्रकाशन के लिये ” हिन्दी प्रदीप ” नामक पत्र को जन्म दिया तथा हिन्दी प्रवर्धिनी सभा की स्थापना की । हिन्दी के उन्नयन , प्रसार और प्रचार की ष्टि से ये बड़े महत्वपूर्ण पदन्यास थे । अभाव और असहयोग के संघर्षों से जूझते हुए भी भट्ट जी ने बत्तीस वर्षों तक “ हिन्दी प्रदीप ” का विद्वत्तापूर्ण सम्पादन तथा लेखकों और कवियों का पथ – प्रदर्शन किया । काशी नागरी प्रचारिणी सभा के हिन्दी शब्द सागर नामक कोष का भी उन्होंने कुछ काल तक सम्पादन किया । सन् १ ९ १४ ई . में सरस्वती के ये बदरपुत्र धरा धाम छोड़ कर चल दिये ।

रचनायें- भट्ट जी जहाँ मौलिक निबन्धकार के रूप में प्रख्यात हैं वहाँ उपन्यासकार और नाटककार के रूप में भी जाने जाते हैं । उन्होंने बंगाली से हिन्दी में अनुवाद भी किये । ” भट्ट निबन्धावली ” भाग एक और दो में इनके सर्वश्रेष्ठ निबन्ध संग्रहीत हैं । भट्ट जी ने अपने जीवन काल में तीन सौ से ऊपर निबन्ध लिखे थे । “ सौ अजान एक सुजान ” और ” नूतन ब्रह्मचारी ” इनके उपन्यास तथा ‘ कविराज की सभा ‘ रेल का विकट खेल ‘ , ‘ बाल विवाह ‘ , ‘ पद्मावती ‘ और ‘ शर्मिष्ठा नाटक हैं । बंगाल के कवि माइकेल मधुसूदनदत्त की दो पुस्तकों का इन्होंने अनुवाद भी किया ।

भाषा- भट्ट जी की भाषा अपने समकालीन लेखकों में सर्वाधिक परिमार्जित और परिष्कृत है । ” हिन्दी प्रदीप ” में निरन्तर लिखते रहने के कारण उनकी लेखिनी में सबलता और संघर्षता आ गई थी । भाषा पर उन्हें स्वाभाविक अधिकार था । विषयानुकूल भाषा लिखने में वे सिद्धहस्त थे । उनको भाषा दो प्रकार की है- एक में संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्राधान्य है , तो दूसरी में तद्भव शब्दों का । जहाँ वे एक ओर संस्कृतनिष्ठ भाषा लिखने के पक्षपाती हैं वहाँ दूसरी और परिस्थिति की आवश्यकतानुसार अरबी , फारसी और अंग्रेजी के शब्दों का भी निसंकोच प्रयोग करने में नहीं हिचकते । अरबी , फारसी के रुह , राहत , रकम , औलाद आदि शब्द तथा अंग्रेजी के फिलासफी , करैक्टर , फार्मेलिटी , नेशनैलिटी आदि शब्द उनकी भाषा में यथा स्थान व्यवहत हुए हैं । समझाय , बुझाय आदि पूर्वी शब्द करें , लडें करेंगी आदि ब्रज भाषा के शब्द भी उनकी भाषा में देखने को मिल जाते हैं । मुहावरों और कहावतों के सफल प्रयोग ने भट्ट जी की भाषा को सजीव एवं सुन्दर बना दिया है । कहावतों की अपेक्षा मुहावरों की ओर भट्ट जी की विशेष रुचि थी । स्थान – स्थान पर भाषा में गुंथे हुए मुहावरे अपनी अपूर्व शोभा रखते हैं । भट्ट जी की भाषा व्याकरण सम्मत थी , इन्होंने विराम चिन्हों का भी प्रयोग किया है । इनके वाक्य कुछ छोटे और निबन्ध प्रायःकुछ बड़े होते थे ।

शैली – भट्ट जी की शैली के चार रूप हैं- ( १ ) परिचयात्मक , ( २ ) भावात्मक , ( ३ ) विचारात्मक , ( ४ ) व्यंग्यात्मक । सभी शैलियों में भट्ट जी के व्यक्तित्व की पूर्ण छाप है । उनकी भाषा का प्रत्येक शब्द उनके व्यक्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है ।
( १ ) परिचयात्मक शैली- साधारण और व्यावहारिक ज्ञान सम्बन्धी विषयों के प्रतिपादन के लिये भट्ट जी ने परिचयात्मक शैली का प्रयोग किया है । इनकी भाषा उर्दू और अंग्रेजी मिश्रित है ।
( २ ) भावात्मक शैली – भट्ट जी स्वभाव से ही श्रावुक थे । यह उनकी प्रतिनिधि शैली है । उनके अधिकाँश निबन्ध इस शैली में लिखे गये हैं । यह शैली काव्य के अनेक गुणों से युक्त है । इस शैली की भाषा संस्कृत प्रधान विशुद्ध खड़ी बोली है । इस शैली में काव्यगत , सौंदर्य , अलंकारों को रमणीयता भावों और विचारों के साथ कल्पना का सुन्दर समन्वय है । ( ३ ) विचारात्मक शैली- भट्ट जी के विचार प्रधान मनोवैज्ञानिक निबन्ध इस शैली में आते हैं । तर्क और विश्वास ” ” ज्ञान और भक्ति ” आदि निबन्ध विचारात्मक शैली के ही हैं ।
( ४ ) व्यंगात्मक शैली- भारतेन्दु युग के प्रायः सभी लेखकों ने व्यंगात्मक शैली का थोड़ा बहुत प्रयोग किया है । भट्टजी का व्यंग्य तीखा न होकर गुदगुदाने वाला एवं विनोदपरक होता है । ” ईश्वर भी क्या ठठोल है ” नाक निगोड़ी भी बुरी बला है ” , ” भकुआ कौन – कौन है ” आदि इनके निबंध इसी शैली के अंतर्गत आते हैं

संक्षेप में भट्ट जी की भाषा और शैली अत्यन्त उत्कृष्ट और परिमार्जित थी । भारतेन्दु युग की समस्त विशिष्टतायें हमें उनके निबन्धी में देखने को मिल जाती हैं । साहित्यिक , सामाजिक , राजनीतिक , धार्मिक , दार्शनिक , नैतिकता तथा सामाजिक सभी प्रकार के विषयों पर भट्ट जी ने विद्वता पूर्वक लिखा है अतः यदि हम उन्हें भारतेंदु युग का प्रतिनिधि कहे तो अतिशयोक्ति न होगी ll

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