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essay in hindi | आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी

essay in hindi | आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी

हिन्दी साहित्य के इतिहास के आधुनिक काल का दूसरा चरण द्विवेदी युग के नाम से प्रसिद्ध है । आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ही थे , जिन्होंने ” भारतेन्दु युग ” के पश्चात् हिन्दी को जापाने , सुधारने और उनके उत्त्वान – उत्कर्ष का सारा भार अपने सबल कन्धों पर ले लिया था । कारण माया कि भारतेन्दु कात में गद्य का प्रचार एवं प्रसार तो खूब हुआ , परन्तु भाषा की एकरूपता , स्वरूप संगठन , वाक्य विन्यास , व्याकरण की शुद्धता , विराम चिन्हों के प्रयोग आदि की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया । जो जैसा चाहता वैसा लिखता , उनकी टीका टिप्पणी करके सही मार्ग प्रदर्शन करने वाला कोई न था । स्थिति उस उद्यान की भांति थी जिसमें सभी प्रकार के वृक्ष और लतायें तो हो सघनता भी हो , पर उसको काटने – छोटने और संवारने वाला कोई माली न हो ।

” सरस्वती ” के सम्पादक के रूप में द्विवेदी जी ने विभिन्न लेखकों द्वारा की जाने वाली अशुद्धियों की कड़ी आलोचना आरम्भ की । इन्होंने भाषा के परिमार्जन एवं परिवर्धन के लिए स्वयं लिख कर दूसरों से लिखवा कर नए लेखकों की रचनाओं का सुधार करके तथा उन्हें निरंतर लिखते रहने की प्रेरणा देखकर हिंदी के विकास में सक्रिय योगदान दिया।
भाषा की साज – संवार के साथ द्विवेदी जी ने विषयों की व्यापकता और विषयानुकूलता तथा शैली के विकास की ओर भी ध्यान दिया । परिणाम यह हुआ कि भारतेन्दु युग की सुकुमार एवं अबोध हिन्दी बाला द्विवेदी युग में पूर्ण युवावस्था को प्राप्त हो गई तथा गम्भीर से गम्भीर भार वहन करने में वह अपने को सक्षम पाने लगी । यह युगान्तरकारी : परिवर्तन द्विवेदी जी की ही अथक सेवाओं का फल था इसलिए उस युग को द्विवेदी युग के नाम से सम्बोधित करके हिन्दी साहित्य का इतिहास स्वयं को गौरवान्वित समझता है । जीवन वृत्त – द्विवेदी जी का जन्म सन् १८६४ ० में राय बरेली जिले के दौलतपुर गाँव में पिता पं ० रामसहाय दुवे , कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे तथा सेना में नौकर थे । अर्थाभाव के कारण द्विवेदी जी की शिक्षा अव्यवस्थति रही । घर र हवार ही संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की तथा किसी तरह मैट्रिक तक स्कूली शिक्षा भी प्राप्त की तदनन्तर अजमेर में १५ रु ० मासिक नौकरी की । इसके वर्ष बाद द्विवेदी जी बम्बई चले गये और वहाँ टेलीग्राफी शिक्षा प्राप्त की । इसके पश्चात् इन्हें रेलवे में २२ रु ० मासिक नौकरी मिल गई । उच्चाधिकारी से अनबन हो जाने कारण इन्होंने रेलवे की नौकरी से त्याग – पत्र दे दिया । ९ १३ ई . में इन्होंने ‘ सरस्वती ‘ के सम्पादन का कार्यभार सम्भाला । इसके पश्चात् इन्होंने अपना समस्त जीवन हिन्दी के उत्थान एवं सुधार तथा साहित्य सृजन में ही व्यतीत किया । रेलवे में नौकरी करने के समय द्विवेदी जी का स्वाध्याय और साहित्यानुशील निरन्तर चलता रहा था , अतः उन्हें संस्कृत , गुजराती , मराठी , बंगला तथा अंग्रेजी साहित्य का अच्छा ज्ञान प्राप्त हो गया था । द्विवेदी जी ने बीस वर्षों तक ‘ सरस्वती ‘ का विद्वत्तापूर्ण सम्पादन किया । सन् १ ९ ३८ ई ० में द्विवेदी जी का देहावसान हो गया ।

साहित्य सेवा – प्रारम्भ में लिखी गई महत्त्वपूर्ण रचनात्मक साहित्यिक रचनाओं के अतिरिक्त द्विवेदी जी आलोचना निबन्ध , जौवनी , पुनर्गत्व राजनीति , अर्थशास्त्र , धर्म समाज आदि विषयों पर १०० से अधिक गुन्थों की मौलिक तथा अनुदित रचनायें की हैं । दिवेदी जी के मौलिक ग्रन्थों ‘ अद्भुत आलाप ‘ ‘ रसज्ञ रंजन ‘ ‘ साहित्य सीकर , विचित्र
चित्रण ‘ , ‘ कालिदास की निरंकुशता ‘ ‘ सम्पत्ति शास्त्र ‘ , ‘ हिन्दी भाषा की उत्पत्ति ‘ आदि हैं । संस्कृत के अनूदित ग्रन्थों में रघुवंश ‘ , ‘ हिन्दी – महाभारत ‘ ‘ कुमार सम्भव ‘ , ‘ किरातार्जुनीय ‘ आदि तथा अंग्रेजी के अनूदित ग्रन्थों में ‘ बैंकन विचार माला ‘ , ‘ शिक्षा ‘ ‘ स्वाधीनता ‘ आदि विशेष उल्लेखनीय है ।
विषय – द्विवेदी जी ने ‘ सरस्वती ‘ में लेख लिखकर हिन्दी साहित्यकारों का पथ प्रदर्शन किया । व्याकरण सम्बन्धी अशुद्धियों को दूर किया । हिन्दी शब्द भण्डार की वृद्धि के लिये संस्कृत और अंग्रेजी के ग्रन्थों का अनुवाद किया । निबन्धकार एवं अनुवादक के अतिरिक्त द्विवेदी जी का महत्त्वपूर्ण रूप आलोचक का है । हिन्दी में आलोचना की उस समय बहुत बड़ी कमी थी , इसकी पूर्ति द्विवेदी जी की सशक्त लेखनी ने की । इसके अतिरिक्त राजनीति , अर्थशास्त्र , समाजशास्त्र आदि ज्ञान – विज्ञान सम्बन्धी विषयों पर भी द्विवेदी जी ने रचनायें कीं ।

भाषा – द्विवेदी जी ‘ भाषा ‘ के आचार्य थे । उनकी भाषा अत्यन्त परिष्कृत , परिमार्जित , व्याकरण सम्मत एवं व्यवस्थित है । उनका शब्द चयन व्यवस्थिति तथा वाक्य विन्यास दृढ़ है । भाषा में शिथिलता , गतिहीनता तथा दुरूहता कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती । द्विवेदी जी का अनेक भाषाओं पर पूर्ण अधिकार था अतः उनका शब्द भण्डार अत्यन्त विशाल है । शब्द चयन में द्विवेदी जी ने उदारता से काम लिया है , उर्दू , फारसी और अंग्रेजी के रचयिता शब्दों को विषय पर आघात के अनुकूल ग्रहण किया है । भाषा की शुद्धता , सरलता और प्रवाह की दृष्टि से द्विवेदी जी अपने युग के सर्वश्रेष्ठ लेखक हैं ।

शैली – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मतानुसार द्विवेदी जी की प्रमुख शैली व्यास शैली है , जिसमें लेखक अपने पाठकों को खुद समझा बुझाकर विषय को समझाता है । उदाहरणस्वरूप द्विवेदी जी की निम्नलिखित तीन शैलियाँ में जिनका उन्होंने अपनी रचनाओं में प्रयोग किया है –
( १ ) परिचयात्मक शैली – द्विवेदी जी ने इस शैली में राजनीति , इतिहास , समाज तथा ज्ञान विज्ञान सम्बन्धी विषयों पर निबन्ध लिखे हैं । इस शैली की भाषा अत्यन्त सरल एवं बोधगम्य है ।
( २ ) आलोचनात्मक शैली – यह द्विवेदी जी की प्रतिनिधि शैली है । इसमें उनकी साहित्यिक प्रतिभा के दर्शन होते हैं । इसी के द्वारा उन्होंने तत्कालीन साहित्यकारों की भाषा का परिष्कार एवं पथ – प्रदर्शन किया था । यह शैली भी सशक्त , गम्भीर तथा ओजपूर्ण है । वाक्य विन्यास दुग एवं व्यवस्थित है । व्यंग्य , कटाक्ष और हास्य के सम्मिश्रण से इस शैली में सजीवता और सरलता नष्ट नहीं होने पाई । इनकी आलोचनात्मक शैली को उपदेश – प्रधान तथा व्यंग्य – प्रधान दो भागों में बाँटा जा सकता है ।
( ३ ) गवेषणात्मक शैली – इनकी भाषा संस्कृत – निष्ठ एवं शैली पाण्डित्यपूर्ण है । इस शैली का प्रयोग द्विवेदी जी ने गम्भीर विषयों में किया है । इसमें द्विवेदी जी के सरल रूप के दर्शन न होकर गम्भीर रूप के दर्शन होते हैं । इसमें उनके मस्तिष्क के चिन्तन की अधिकता है , हृदय की सहानुभूति और सहयोग की न्यूनता है ।

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