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” चुभ – चुभ कर भीतर चुभै , ऐसी कहै कबीर “

 ” चुभ – चुभ कर भीतर चुभै , ऐसी कहै कबीर ” अथवा जनजागरण में कबीर के योगदान का महत्त्व ” अथवा महात्मा कबीर

” चुभ – चुभ कर भीतर चुभै , ऐसी कहै कबीर ”

महात्मा कबीर के जन्म के समय भारतवर्ष की राजनीति तथा समाज और धर्म में सर्वत्र एक अशान्ति और अव्यवस्था का साम्राज्य था । राजनीतिक दृष्टि से मुस्लिम आक्रांताओं के आतंक से पीड़ित  भारतीय जनता राजाओं का भरोसा छोड़कर हताश हो चुकी थी और उसने अपने को ईश्वर की इच्छा पर  छोड़ दिया था । धार्मिक दृष्टि से नाथ पंथियों और  सिद्धों ने रहस्यात्मक एवं चमत्कारपूर्ण तन्त्र – मन्त्र आदि  के प्रचार द्वारा जनता को धर्म के मार्ग से च्युत कर दिया था । तीर्थ यात्रा , व्रत , पर्व आदि की नि : स्सारता बताकर वे लोग हठयोग तथा अन्य शारीरिक क्रियाओं द्वारा ही ईश्वर – प्राप्ति का उपदेश दे रहे थे सामाजिक दृष्टि से हिन्दू और मुसलमानों में परस्पर कलह और कटुता , द्वेष और अविश्वास बढ़ता जा रहा था । वैचारिक संकीर्णता दोनों ओर छाई हुई थी । ऐसी स्थिति में एक ऐसे पथ – प्रदर्शक को आवश्यकता थी , जो किंकर्तव्यविमूढ़ जनता का पथ – प्रदर्शन कर सके । महात्मा कबीर ऐसे ही महापुरुष थे । उन्होंने हिन्दू – मुसलमानों में सद्भावना और प्रेम उत्पन्न करने के लिये अनेक प्रयत्न किये ।
महात्मा कबीर का जन्म संवत् १४५६ में हुआ था । कबीर पंथियों ने इनके जन्म के सम्बन्ध में यह दोहा लिखा है –
चौदह सौ छप्पन साल गए , चन्द्रवार एक ठाठ भए । जेठ सुदी बरसाइत की , पूरनमासी प्रगट भए ।

किंवदंती के अनुसार कबीर रामानन्द जी के आशीर्वाद के फलस्वरूप किसी विधवा बाह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे । लोक – लाज के कारण यह इन्हें लहरतारा नामक तालाब के किनारे छोड़ आई थी । वहाँ से नीमा और नीरू नामक जुलाहा दम्पति इन्हें ले आये , जिनके द्वारा इनका पालन – पोषण हुआ । कबीर के बाल्यकाल का विवरण अभी तक अज्ञात ही है पर इतना अवश्य है कि उनकी शिक्षा – व्यवस्था विधिवत नहीं हुई थी । उन्होंने स्वयं लिखा है

मसि कागद छूऔ नहि कलम गही नहिं हाथ ।

कबीर बचपन से अपने पिता के काम में हाथ बंटाने लगे थे । अवकाश के क्षणों में ही वे हिन्दू साधू सन्तों की संगति करते और उनसे ज्ञानार्जन करते । प्रारम्भिक काल से ही कबीर हिन्दू वेदान्त से प्रभावित थे । इसीलिये वह स्वामी रामानन्द के शिष्य हुए । कुछ लोग इन्हें सूफी कबीर शेख तकी का शिष्य मानते हैं । कबीर की स्त्री का नाम लोई था । वह एक बनखण्डी बैरागी की कन्या थी । उसके घर पर एक दिन संतों का समागम था , कबीर भी वहाँ थे । सब संतों को दूध पौने को दिया गया , सबने दूध पी लिया , कबीर ने अपना दूध रखा रहने दिया । पूछने पर बताया कि एक संत आ रहा है । उसके लिये रख दिया है । कुछ देर बाद एक संत उसी कुटी पर आ पहुँचा । सब लोग कबीर की भक्ति पर मुग्ध हो गये । लोई तो उनकी भक्ति से इतनी प्रभावित हो गई कि वह उनके साथ रहने लगी । कोई लोई को कबीर की स्त्री कहते हैं , कोई शिष्या । कबीर ने निःसन्देह लोई को सम्बोधित करते हुये पद लिखे हैं-
कहत कबीर सुनहु री लोई , तुहि विनसी रहेगा सोई ।

सम्भव है , लोई उनकी स्त्री ही हो , पीछे संत स्वभाव के कारण उन्होंने उसे शिष्या बना लिया हो । उन्होंने अपने गृहस्थ जीवन के विषय में लिखा है –

नारी तो हम भी करी , पाया नहीं विचार ।
जब जानी तब परिहरी , नारी बड़ा विकार ॥

लोई से इनके दो संतानें थीं । एक कमाल नाम का पुत्र था और दूसरी कमाली नाम की चुन्नी । मृत्यु के समय कबीर काशी से मगहर चले गये थे , उन्होंने लिखा है –

सकल जन्म शिवपुरी गंवाया , मरति बार मगहर उठि धाया ।

लोगों का यह विश्वास है कि काशी में मृत्यु से मनुष्य को मोक्ष प्राप्त हो जाता है , परन्तु कबीर इस धार्मिक अन्धविश्वास के घोर विरोधी थे इसलिये वे काशी से मगहर चले आये थे । यद्यपि लोगों ने कहा भी कि मगहर में मरने से नरक मिलेगा ; आप काशी ही चले जाइये ; परन्तु कबीर ने यही उत्तर दिया –

जो काशी तन तजे कबीरा , तो रामहि कौन निहोरा ।

कबीर की मृत्यु माघ सुदी एकादशी संवत् १५७५ में हुई थी , जैसा कि इस दोहे से सिद्ध होता है –

संवत् पन्द्रह सौ पछत्तर , कियो मगहर को गौन ।
माघ सुदी एकादशी , रलो पौन के पौन ।।

संक्रांतिकाल में पथ – प्रदर्शन करने वाले किसी भी व्यक्ति को जहाँ जनता के अंधविश्वासों और मूर्खतापूर्ण कृत्यों का खण्डन करना पड़ता है , वहाँ उसे समन्वय का एक बीच का मार्ग भी निकालना पड़ता है । यही कार्य कबीर को भी करना पड़ा । जहाँ इन्होंने पण्डितों , मौलवियों , पीरों , सिद्धों और फकीरों को उनके पाखण्ड और ढोंग के लिये फटकारा वहाँ उन्होंने एक ऐसे सामान्य धर्म की स्थापना की जिसके द्वार सबके लिए खुल गये थे । एक ओर उन्होंने हिन्दुओं के तीर्थ , वृत , मठ , मन्दिर , पूजा आदि की आलोचना की तो दूसरी ओर मुसलमानों के रोजा , नमाज और मस्जिद की भी खूब निन्दा की । माला फेरने वाले पण्डित पुजारियों के विषय में उन्होंने कहा-
माला फेरत जुग गया गया न मन का फेर ।
कर का मनका डारि दे मन का मनका फेर ।।
X X X X X X X X X X X
जप माला छापा तिलक , सौ न एको काम ।
मन काँचे नाचे वृथा , साँचे राँचे राम ।।

कबीर निर्गुणवादी थे , साकार भक्ति में उन्हें विश्वास न था , इसलिए स्थान – स्थान पर उन्ही मूर्ति – पूजा का विरोध किया –
पाहन पूजै हरि मिलें तो , मैं पूनँ पहार ।
चाकी कोई न पूजई , पीस खाय संसार ।।

सिर मुंडाकर संन्यासी होने वाले पाखण्डियों पर एक तीक्ष्ण व्यंग्य देखिये-
केसन कहा बिगारिया , जो मूँडौ सौ बार ।
मन को क्यों नहीं मुंड़िये जा में विषय विकार ।।

सिद्धों और नाथ पंथियों के तन्त्र – मन्त्र के रहस्यों का विरोध करते हुए कबीर ने लिखा है –
जन्त्र मन्त्र सब झूठ है , मत भरमा जग कोय ।
सार शब्द जाने बिना , कागा हंस न होय ॥

मुसलमानों की ईश्वर पूजा , मस्जिद में अजाँ के माध्यम से होती है । अजाँ देने वाला कामी जोर से चिल्लाता है । कबीर को यह अखरता था । वे कहते थे कि तुम्हारा खुदा क्या कुछ कम सुनता है-

काँकरि पारि जोरि के , मस्जिद लई चुनाय ।
ता चढ़ि मुल्ला बाँग दे , क्या बहिरा हुआ खुदाय ।।

मांस भक्षण का विरोध – प्रदर्शन करते हुए लिखा है-
बकरी पाती खात है , ताकि काढ़ी खाल ।
जो बकरी को खात है , उनको कहा हवाल ।।
X X X X X X X X X X X
दिन को रोजा रखत हैं , रात हनत हैं गाय ।
यह तो खून , वह बन्दगी , कैसी खुशी खुदाय ॥

मुसलमानों की हिंसा के साथ – साथ उन्होंने हिन्दुओं की छुआछूत की भावना को भी बताया-

जो तू बामन् , बामनी जाया , आन बाट काहे नहीं आया ।
X X X X X X X X X X X X X X
एक बृन्द एकै मल मूतर एक चाम , एक गूदा ।
एक जाति से सब उपजाना , का बामन को सूदा ।।

इस प्रकार दोनों की बुराइयों का दिग्दर्शन कराके उन्होंने कहा-
       इन दोउन राह न पाई , हिन्दुन की हिन्दुआई देखी , तुरकन की तुरकाई ।

इसके साथ ही उन्होंने राम और रहीम को एक बताकर कहा-
अल्ला राम की गति नाही , तह कबीर ल्यौ लाई ।

अर्थात् अल्ला और राम से भी परे एक असामान्य शक्ति की और कबीर ध्यान लगाता है । कबीर स्वयं निम्न वर्ग के प्रतिनिधि बनकर रहे तभी वे अखण्ड व्यक्तित्व को लेकर जीवित सके । आजकल के उच्च वर्ग के नेताओं की तरह उन्होंने पीडितों का समर्थन नहीं किया । यदि ऐसी परिस्थिति में पैदा न हुए होते तो सम्भवत : वे युगांतर उपस्थित नहीं कर पाते थे ।

कबीर की ईश्वर विषयक धारणा भिन्न – भिन्न सम्प्रदायों का समन्वय थी । उन्होंने न तो अद्वैतवाद अथवा ब्रह्मवाद का समर्थन किया और न सूफी तथा खुदावाद का ही । कबीर ने मानवता सामान्य भूमि पर खड़े होकर सबसे ऊपर एक नये निराले आराध्य की कल्पना की और उसी कल्पना के आधार पर ऐसे सामान्य धर्म की प्रतिष्ठा की , जो धार्मिक क्षेत्र में एक आश्चर्यजनक परिवर्तन ला सका । कबीर ने अपने को कहीं ” राम की बहुरिया ” कहा , जिससे उन्हें कोई – कोई सखी भाव का भक्त बता बैठते हैं और भी कई स्थानों पर ऐसे ही वर्णन किये हैं-
हम घर आएँ हो राजा भरतार ।
कहीं मुक्ति न मांगकर भक्ति की याचना करते हैं । कहीं कहते सुने जाते हैं-
दशरथ सुत तिहूँ लोक बखाना ।
राम नाम का मरम है आना ॥

परन्तु अन्त में कबीर यह सिद्ध कर देते हैं कि उनका राम ब्रह्म का पर्यायवाची है-
निर्गुन राम , जपहु रे भाई ।
ज्यौं तिल माँही तेल है , ज्यों चकमक में आगि ।
तेरा साँई , तुज्झ में , जागि सके तो जागि ।।

साहित्य के क्षेत्र में कबीर पण्डित तो थे परन्तु पुस्तकों के पण्डित नहीं थे । वे प्रेम का ‘ ढाई अक्षर ‘ पढ़कर पण्डित हुए थे । उनकी विधिवत् शिक्षा – दीक्षा नहीं हुई थी । उन्होंने स्वयं कहा है –
मसि कागद छुऔ नहि , कलम गही नहिं हाथ ।

कवि के लिए प्रतिभा , शिक्षा , अभ्यास ये तीनों बातें आवश्यक होती हैं । कबीर ने न तो कहीं शिक्षा प्राप्त की थी और न किसी गुरु के चरणों में बैठकर काव्य शास्त्र का अभ्यास ही किया था परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वे ज्ञान से शून्य थे । भले ही उनमें परावलम्बी ज्ञान न रह हो , परन्तु स्वावलम्बी ज्ञान की उनमें कमी नहीं थी । उन्होंने सत्संग से पर्याप्त ज्ञान संचय किया था । वे बहुश्रुत थे , उनके काव्य में विभिन्न प्रतीकों तथा अलंकारों की छटा दिखाई पड़ती है । उनके रूपक और उलटवासियों के विरोधाभास तो अद्वितीय हैं । भाषा सधुक्कड़ी होने पर भी अभिव्यक्तिपूर्ण है । कुछ विद्वानों का आक्षेप है कि छन्द की दृष्टि से उनका काव्य अत्यन्त दोषपूर्ण है और वह ठीक भी है परन्तु कबीर का ध्येय कविता की रचना द्वारा महाकवि बनना या यश प्राप्त करना नहीं था । कविता तो उनके लिए अपने विचारों तथा भावों को जनता तक पहुँचाने का माध्यम थी । यही कारण है कि सीधी हृदय से निकली हुई कबीर की कविता पाठक के हृदय पर चोट करती है इसीलिए यह कहा जाता है कि , ” चुभ – चुभ कर भीतर चुभै , ऐसी कहै कबीर ” । कबीर के हृदय में सत्यता थी , आत्मा में बल था , इसलिये उनकी वाणी में ओज था , शक्ति थी । रहस्यवादी कविता के वे स्थान जहाँ उन्होंने आत्मा के विरह और व्यथा का चित्रण किया है , किसी भी कोमल हृदय के व्यक्ति को रसमग्न करने के लिये पर्याप्त है । कबीर ज्ञान – सम्बन्धी रचनाओं में निःसन्देह सर्वश्रेष्ठ है । नीति काव्यकारों में भी कबीर का स्थान रहीम से पीछे नहीं है । तुलसी और सूर की रचनाओं के बाद लोकप्रियता एवं प्रभावोत्पादकता में कबीर का ही काव्य आता है । मिश्र बन्धुओं ने अपने हिन्दी नवरत्न ‘ में कबीर को तुलसी और सूर के पश्चात् तीसरा स्थान प्रदान करके न्याय ही किया है|

कबीर को कोई – कोई विद्वान् केवल समाज सुधारक और ज्ञानी मानते हैं , परन्तु कबीर में समाज सुधारक , ज्ञानी और कवि , तीनों रूप मिलकर एकाकार हो गये हैं । वे सर्वप्रथम समाज सुधारक थे , उसके पश्चात् ज्ञानी और उसके पश्चात् कवि । कबीर ने अपनी प्रखर भाषा और तीखी भावाभिव्यक्ति से साहित्यिक मर्यादाओं का अतिक्रमण भले ही कर दिया हो परन्तु उन्होंने जो काव्य – सृजन किया उसके द्वारा साहित्य तथा धर्म में युगान्तर अवश्य उपस्थित हुआ ।

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