वात्सल्य रस के सिद्ध कवि सूरदास और उनकी भक्ति भावना
वात्सल्य रस के सिद्ध कवि सूरदास और उनकी भक्ति भावना
वात्सल्य रस के सिद्ध कवि सूरदास और उनकी भक्ति भावना
में इस प्रकार उल्लेख किया है-
उक्ति ओज अनुप्रास बरन स्थिति अति भारी ।
बचन प्रीति निर्वाह अर्थ अद्भुत तुक भारी ।। प्रतिबिम्बित दिवि दृष्टि हदय हरि लीला भासी ।
जनम करम गुण राग रसना परकासी ।।
विमल बुद्धि गुण और को जो वह गुण स्रवननि करै । सूर कवित सुन कौन कवि जो नहीं सिरचालन करै ।।
इस पद्य में सूर की काव्य सम्बन्धी सभी विशेषतायें.आ जाती हैं । इन्होंने अपने काव्य में श्रीकृष्ण के लोकरंजक रूप का वर्णन किया । ब्रज की वीथिकाओं में श्रीकृष्ण की बाल – सुलभ क्रीड़ायें , कालिन्दी के कछारों में ग्वाल – बालों के साथ कृष्ण का मनोहर चांचल्य , हरे – भरे सघन कुंजों में ब्रजबालाओं के साथ प्रेमलीला , श्रीकृष्ण का मथुरा गमन तथा उनके वियोग में विह्वल ब्रज – वनिताओं के मनोभावों के मार्मिक चित्रण तक ही सूर की दृष्टि उलझ कर रह गई । तुलसी की भाँति सूर ने यद्यपि कृष्ण के सम्पूर्ण जीवन का चित्र उपस्थित नहीं किया , फिर भी सूर ने जिस अंग का वर्णन किया , वह आज तक अद्वितीय है । सूर ने अपने काव्य में शृंगार और वात्सल्य इन दो रसों को ही प्रधानता दी । श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों के निरूपण में सूर ने अद्वितीय सफलता प्राप्त की । ब्रज – वनिताओं के साथ श्रीकृष्ण के प्रेम – व्यवहार को कवि स्वयं अपने हृदय की आँखों से देखकर आनन्द – विभोर होकर गा उठता है और इस प्रकार वे संयोग विरह के अनेक चित्र प्रस्तुत करने लगते हैं । कृष्ण के मथुरा चले जाने पर विरह में गोपियों के विरह को सूक्ष्म से सूक्ष्म दशाओं का जैसा वर्णन सूर ने किया है , वैसा अन्यत्र दुर्लभ है । इसी प्रकार वात्सल्य वर्णन में तो सूर नितान्त अद्वितीय हैं , आज तक कोई भी कवि इनकी समता में नहीं ठहरता । आचार्य शुक्ल जी की दृष्टि में ” वे इस क्षेत्र का कोना – कोना झाँक आये हैं । ” सूर की प्रशंसा करते | सूरदास जी महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के शिष्य थे । शिष्य होने से पूर्व ये दास्य भाव के । सूरदास की प्रशंसा करते हुए श्रीवियोगिहरि ने लिखा है , ” सूर ने यदि वात्सल्य को अपनाया है , तो को अपना एकमात्र आश्रय स्थान माना है । ” इस क्षेत्र में हिन्दी साहित्य का कोई भी कर सूर की समता नहीं कर सकता ।
सूरदास जी महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के शिष्य थे शिष्य होने से पूर्व ये दास्य भाव के पद लिखा करते थे । वल्लभाचार्य जी ने स्वयं कहा , “ ऐसो घिघियात का को है कछु भगवान लीला को वर्णन कर । ” उनके ही आदेश से सूरदास ने श्रीमद्भावगत् की कथाओं को मेय पदों में प्रस्तुत किया । वल्लभाचार्य ने पुष्टि मार्ग की स्थापना की थी और कृष्ण के प्रति सखा गाव को भक्ति का प्रचार किया । वल्लभ सम्प्रदाय में बालकृष्ण की उपासना को ही प्रधानता दी जाती थी । इसीलिए सूर को वात्सल्य और शृंगार इन दोनों रसों का ही वर्णन अभीष्ट था , यद्यपि कृथ के कंसहारी और द्वारिकावासी रूप भी हैं , परन्तु जिस सम्प्रदाय में सूर दीक्षित थे , उनमें बालकृष्ण की महिमा थी । सूर ने वात्सल्य वर्णन बड़े विस्तार से किया । इस वर्णन में न उन्होंने कहीं संकोच किया और न झिझके । बालक और युवक कृष्ण की लीलाओं को उन्होंने बड़े ब्यौरों के साथ प्रस्तुत किया । घोर से घोर श्रृंगार की बात करने में भी उन्होंने संकोच नहीं किया ।
कृष्ण जन्म की आनन्द बधाइयों के पश्चात् बाल लीलाओं का आरम्भ होता है । सूर ने शैशवावस्था से लेकर कौमार्यावस्था तक के अनेक चित्र प्रस्तुत किये हैं । उन चित्रों को कई भागों में विभाजित किया जा सकता है- ( १ ) रूप वर्णन , ( २ ) चेष्टाओं का वर्णन , ( ३ ) क्रीड़ाओं का वर्णन ( ४ ) अंतर्भावों का वर्णन , तथा ( 4 ) संस्कारों , उत्सवों और समारोहों का वर्णन । रूप – वर्णन में कृष्ण के सौन्दर्य की अनेक उद्भावनायें की हैं । ब्रज – बालायें कृष्ण के बाल सौन्दर्य पर तन – मन – धना सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार हैं , पर कृष्ण का सामीप्य छोड़ना उन्हें रुचिकर नहीं-
हौं बलि जाऊँ छबीले लाल की ।
छिटक रही चहुँ दिसि जो लटुरियाँ , लटकता – लटकनि भाल की ।
मोतिन सहित नासिका नथुनी , कण्ठ , कमल दल माल की ।
सूरदास प्रभु प्रेम मगन भई , ढिंग न तजहिं ब्रज बाल की ।
कृष्ण पालने में सोए है । यशोदा पालने को हिलाकर और लोरी गाकर कृष्ण को सुलाने का प्रयत्न कर रही हैं , परन्तु कृष्ण भी कम चालाक नहीं हैं , जब तक पालना हिलता रहता है और यशोदा के मधुर गान की ध्वनि उनके कानों में पड़ती रहती है तब तक मुंह बनाए आँखें बन्द किये पड़े रहते हैं , जैसे ही यशोदा मौन हो जाती है , कृष्ण आँख खोलकर देखने लगते हैं । सूर ने कितना स्वाभाविक चित्रण किया है-
यशोदा हरि पालने झुलावै ।
हलरावै दुलरावै , मल्हावै जोई सोई कुछ गावै ॥
मेरे लाल को आउ निदरिया , काहे न आनि सुआवै । कबहुँ पलक हरि मूंद लेत हैं , कबहुँ अधर फरकावै ॥ सोबत जानि मौन है रहि करि करि सैन बतावै ।।
कृष्ण चलना सीख रहे हैं । देहरी लाघने का प्रयल कर रहे हैं , पर लाँघ नहीं पाते , बार – बार गिर पड़ते हैं । यशोदा इस कार्य – कलाप को देखकर मन ही मन बड़ी प्रसन्न होती है । यशोट श्रीकृष्ण को नितान्त असमर्थ पाकर उनका हाथ पकड़कर लाधना सिखाती हैं ।
चलत देखि जसुमति सुख पावै ।
ठुमिक – लुमिक धरती पर रेंगत जननि देखि दिखावै । देहरि लौ चलि जात बहुरि , फिरि फिरि इतही को आवै ।।
गिरि गिरि परत बनत नहि लाँघत , सुर मुनि सोच करावै ।
तब जसुमति कर टेक स्याम को , कम – क्रम सों उतरावै ।।
बालक की अबोधता और भोलापन सूर की दृष्टि से कभी नहीं बचा । अपने प्रतिबिम्ब को पकड़ने का कृष्ण का प्रयास कितना स्वाभाविक है-
मनिमय कनक नन्द के आँगन , बिम्ब पकिरबे धावत । कबहुँ निरखि हरि आपु छाँह को , कर सौ पकरन चाहत ।।
अपने बच्चे का बाल विनोद देखकर माँ की प्रसन्नता की सीमा नहीं रहती , प्रेम के आवेग में कृष्ण का भोलापन दिखाने के लिये वह दौड़ी हुई नन्द को बुलाने जाती हैं ।
बाल दसा सुख निरखि जसोदा पुनि – पुनि नन्द
बुलावति ।
अंचला तर लै ढाँकि सूर के प्रभु को दूध पियावति ।।
सूर के बाल वर्णन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने कृष्ण के साथ – साथ मातृ हृदय के सुन्दर चित्र भी खींचे हैं-
सुत मुख देखि जसोदा भूली ।
हर्षित देखि दूध की द॑तियाँ , प्रेम मगन तन की सुधि भूली ।
बाहरि तै तब नन्द बुलाए , देखो मुख सुन्दर सुखदाई ।।
पुत्र वियोग से संतप्त यशोदा देवकी को संदेश देती है । मातृत्व की इस सुन्दर भाषा को देखिये –
सन्देसो देवकी सौं कहियो ।
हौं तो धाय तिहारे सुत की कृपा करति ही रहियौ । जदपि टेब तुम जानत ही हो , तऊ मोही कहि आवै । प्रातः होत मेरे लाल लईते , माखन रोटी भावै ।।
सृष्टि के आरम्भ से आज तक माताओं को अपने बच्चों के विषय में प्रायः शिकायत करते सुना है कि ” हमारा , तो मिट्टी बहुत खाता है । ” सूर ने इस शिकायत से यशोदा को भी नहीं छोड़ा , परन्तु एक विशेषता के साथ , वह यह कि कृष्ण ने मुख में समस्त ब्रह्माण्ड के दर्शन करा दिये ।
मोहन काहे न उगिलो माँटी ।
बार – बार अनरुचि उपजावति , महरि हाथ लिए साँटी ||
माँ के बहुतेरा कहने पर भी बालक कहाँ मानकर देता है , ऊपर से दाँत और भींच लेता है अगर माँ जबरदस्ती मुँह में उंगली डाल दे तो वह बिना काटे हुए बाहर नहीं निकलती । यशोदा ने भी छी , छी , थू , थू , बहुतेरा कहा पर कृष्ण ने एक न मानी –
महतारी को कह्यो न मानत , कपट चतुराई डाटी । बदन पसारि दिखाइ आपने , नाटक की परिपाटी ।
सूर स्वभाव – चित्रण द्वारा रसोद्रेक में अद्वितीय हैं । उन्होंने अपने काव्य में पग – पग पर अन्तर्भावों का चित्रण किया है । बालक के हृदय में अपने साथियों को देखकर कभी – कभी स्पर्धा भा उत्पन्न हो जाती है । बलदाऊ की चोटी लम्बी भी है और मोटी भी , परन्तु कृष्ण की चोटी प्रयास करने पर भी छोटी है , उसका उन्हें दुःख है । वो एकदम माँ से शिकायत कर बैठते हैं-
मैया कबहिं बढ़ेगी चोटी ।
किती बार मोहि दूध पियत भई यह अजहुँ है छोटी । तू तो कहति बल की बेनी ज्यों है है लॉबी मोटी ॥
क्रीड़ा वर्णन में सूरदास मानो सिद्धहस्त हैं । एक दिन साथियों में क्षोभ बढ़ा क्योंकि कृष्ण दाव देने से मना कर दिया था , परन्तु बाल्यावस्था में साम्यवाद की प्रधानता रहती है । वहाँ न कोई बड़ा है और न छोटा न कोई धनी है और न मानी । सूर ने कितना स्वभावोक्ति पूर्ण चित्रण किया है –
खेलत में को काको गुसड़याँ ।
हरि हारे , जीते श्रीदामा,बरबस की कल करत रिसयाँ ।
जाति पाँति हमसे बढ़ नाहि , नाहिन बसत तुम्हारी छैयाँ ।
अति अधिकार जनावत याते , अधिक तुम्हारे हैं कछु गैयाँ ।।
बात आज – की सी लगती है क्योंकि छोटे बच्चे को चिढ़ाने के लिए खासकर लड़कियों को घर वाले कह देते हैं कि तुझे हमने कंजरियों से दो रोटी में खरीदा था । यही घटना कृष्ण के साथ भी सूरदास जी ने घटवा दी । जब क्रोध की सीमा न रही , तो आपने खेलने जाना भी बन कर दिया । माँ का हदय इस बात पर द्रवित हो गया , वह रो उठी , गोवर्धन की शपथ खाई कि वास्तव में कृष्ण तू मेरा पुत्र है और मैं तेरी माँ हूँ ।
मैया मोही दाऊ बहुत खिजाया ।
मोसों कहत मोल को लीन्हौ,तैहि जसुमति कब जायो ।
कहा कहौं एहि रिस के मारे , खेलत ही नहीं जात । पुनि पुनि कहत कौन है माता , को , है तुमरो तात ।। सुर स्याम मोहि गोधन की सौं हौं माता तू पूत ।
सूर के कृष्ण आयु में अवश्य छोटे हैं , परन्तु तर्क और प्रत्युत्पन्न मतित्व में वे बहुत बड़े हैं । बड़ो – बड़ों को चकमा दे सकते हैं । यह स्वाभाविक चित्र सूर ने गोचारण और माखन चोरी प्रसंग में प्रस्तुत किए हैं –
मैया मैं नहि माखन खायो । ख्याल परे ये सखा सबै मिलि , मेरे मुख लपटायो । देखि तुही छीके पर भाजन , ऊँचे धर लटकायो ।
तुही निरखि नान्हें कर अपने , मैं कैसे धरि पायो ||
कृष्ण की उद्दण्डता जब गोपियों को असह्य होने लगी , तो कृष्ण को पकड़कर यशोदा के पास ले आई और साफ – साफ कह दिया-
जब हरि आवत तेरे आगे , संकुचि तनक है जात । कौन – कौन गुन कहुँ स्याम के नेकु न काहु डरांत ।।
अवस्था के साथ – साथ हृदय के परिचय की भावना बढ़ी । अब तक ग्वालों तक ही परिचय सीमित था । एक दिन सहसा राधा को रास्ते में अकेली पाकर कृष्ण पूछ बैठे , “ गौरी ! तुम कौन हो ? हमने तुम्हें कभी नहीं देखा । ” राधा ने , वह कृष्ण से यद्यपि छोटी थी , परन्तु कृष्ण को मुँह मोड़ उत्तर दिया कि शर्मदार के लिए मरना था , पर सूर के कृष्ण ने उस व्यंग्य का ऐसा उत्तर दिया कि राधा को जन्म – जन्मान्तर के लिये निरुत्तर होना पड़ा –
बूझत स्याम कौन तू गोरी ।
कहाँ रहति , काकी हो बेटी , देखी नहीं कबहुँ ब्रज खोरी ।।
काहे को हम ब्रज तन आवत , खेलत रहत आपनी पौरी ।
सुनत रहत सवननि नन्द ढोटा , करत रहत माखन दधि चोरी ।।
तुम्हरो कहा चोरि हम लैहैं , खेलन चलौ हमारी पौरी । सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि , बातन भुरइ राधिका भोरी ॥
इसके अतिरिक्त गोवर्धन लीला , कालिया दमन आदि प्रसंगों में भी सूर के बाल वर्णन के दर्शन होते हैं । सूर का बाल वर्णन भक्ति और अध्यात्म का समन्वय है । अनेक अलौकिक कार्य करते भी कृष्ण यशोदा के लिए साधारण बालक की भाँति ही बने रहते हैं , भगवान नहीं । इसका कारण यशोदा का पुत्र के प्रति अनन्य प्रेम और तन्मयता थी । इसलिए यशोदा , राधा और गोपियों के कृष्ण के साथ प्रेम सम्बन्ध पर विश्वास नहीं करती थीं , उपेक्षा भरी दृष्टि से केवल देखकर ही रह जाती हैं ।
सूर की अन्तर्भेदिनी दृष्टि कृष्ण की बाल्यावस्था के एक – एक क्षण पर पड़ती है । बाल्य जीवन की कोई वृत्ति इस महाकवि की विराट प्रतिभा के स्पर्श से अछूती नहीं रही । वास्तव में सूर का बाल वर्णन एक प्रकार से बाल मनोविज्ञान का सुन्दर अध्ययन है । सूर के वात्सल्य वर्णन पर डॉ ० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है , ” यशोदा के वात्सल्य में सब कुछ है , जो माता शब्द को इतना महिमामय बनाये हुये है । यशोदा के बहाने सूरदास ने मातृ – हृदय का ऐसा स्वाभाविक , सरल और हृदयग्राही चित्र खींचा है कि आश्चर्य होता है । माता संसार का ऐसा पवित्र रहस्य है , जिसे कवि के अतिरिक्त और किसी को व्याख्या करने का अधिकार नहीं । सूरदास जहाँ पुत्रवती जननी के प्रेम – पोषक हृदय को छूने में हुए हुए हैं , वहाँ वियोगिनी माता के करुणाविगलित हृदय को छूने में भी समर्थ हुए हैं|