Sridharacharya Biography In Hindi – ‘गणितज्ञ’ श्रीधराचार्य की जीवनी
Sridharacharya Biography In Hindi – ‘गणितज्ञ’ श्रीधराचार्य की जीवनी
Sridharacharya Biography In Hindi
श्रीधराचार्य (जन्म: ७५० ई) प्राचीन भारत के एक महान गणितज्ञ थे। इन्होंने शून्य की व्याख्या की तथा द्विघात समीकरण को हल करने सम्बन्धी सूत्र का प्रतिपादन किया।प्राचीन भारत में ज्ञान आधुनिक युग से भी अधिक संपन्न था. गणित के क्षेत्र में भारत का योगदान अतुलनीय है. देव भूमि भारत में कई महान गणितज्ञों ने जन्म लिया हैं. जिनका गणित के अलग-अलग विषयों में अपना योगदान हैं. श्रीधराचार्य उनमे से एक हैं. वे बीज गणित के महान गणितज्ञ के रूप में पूरे विश्व में प्रसिद्ध हैं.
बिंदु(Points) | जानकारी (Information) |
नाम(Name) | श्रीधराचार्य |
पेशा (Profession) | गणितज्ञ |
जीवन काल | 870 ई से 930 ई |
जन्म स्थान (Birth Place) | बंगाल |
प्रसिद्दी का कारण | श्रीधराचार्य सूत्र |
धर्मं (Religion) | हिन्दू |
श्रीधराचार्य का जन्म और शिक्षा(Sridharacharya Birth and Education)
इतिहासकारों के अनुसार श्रीधराचार्य का जीवन काल 870 ई से 930 ई तक माना जाता हैं. कुछ विद्वानों का मानना है कि उनका जन्म बंगाल में हुआ था, जबकि अन्य मानते हैं कि उनका जन्म दक्षिण भारत में हुआ था. इनके पिता का नाम बलदेवाचार्य और माता का नाम अच्चोका था. इनके पिता कन्नड़ और संस्कृत साहित्य के प्रकांड पंडित थे. इन्होने अपने पिता से ही साहित्य, संस्कृत और कन्नड़ की शिक्षा प्राप्त की थी और आगे चलकर एक महान गणितज्ञ और दार्शनिक के रूप में प्रसिद्ध हुए.
श्रीधराचार्य गणित में योगदान (Sridharacharya Role in Mathematics)
श्रीधराचार्य ने गणित में कई महत्वपूर्ण आविष्कार किये है. इन्होने शून्य की महतवपूर्ण जानकारी दी और द्विघात समीकरण (quadratic equation) को हल करने के लिए सूत्र का आविष्कार किया. इनका यह नियम आज भी ‘श्रीधराचार्य सूत्र” (Sridharacharya Formula) और “हिन्दू नियम” के नाम से प्रसिद्ध हैं.
श्रीधराचार्य ने शून्य की व्याख्या करते हुए लिखा हैं की
-
- यदि किसी संख्या में शून्य जोड़ा जाता है तो योगफल उस संख्या के बराबर होता है. यदि किसी संख्या से शून्य घटाया जाता है तो परिणाम उस संख्या के बराबर ही होता है. यदि शून्य को किसी भी संख्या से गुणा किया जाता है तो गुणनफल शून्य ही होगा.उदाहरण (Example)-
1+0=11-0=1 किसी संख्या को शून्य से भाग देने पर श्रीधराचार्य ने कुछ नहीं लिखा हैं.1*0=0
- किसी संख्या को भिन्न (fraction) से भाग देने के लिए उन्होने बताया है कि उस संख्या में उस भिन्न(fraction) के व्युत्क्रम (reciprocal) से गुणा कर देना चाहिये
- यदि किसी संख्या में शून्य जोड़ा जाता है तो योगफल उस संख्या के बराबर होता है. यदि किसी संख्या से शून्य घटाया जाता है तो परिणाम उस संख्या के बराबर ही होता है. यदि शून्य को किसी भी संख्या से गुणा किया जाता है तो गुणनफल शून्य ही होगा.उदाहरण (Example)-
- इन्होने गोले के आयतन (volume) का सूत्र दिया हैं- गोलव्यासघनार्धं स्वाष्टादशभागसंयुतं गणितम्
V = d3/2 + (d3/2) /18 = 19 d3/36 - उन्होंने बीजगणित (algebra) के व्यावहारिक अनुप्रयोगों पर लिखा था
- उन्होंने अंकगणित (arithmetic) से बीजगणित (algebra) को अलग किया
- बीज गणित के समीकरण को हल करने के लिए इन्होने अपने पुस्तक में एक श्लोक लिखा है,
चतुराहतवर्गसमै रुपैः पक्षद्वयं गुणयेत.
अव्यक्तवर्गरुयैर्युक्तौ पक्षौ ततो मूलम्. - वह वर्गबद्ध समीकरणों को हल करने के लिए एक सूत्र देने वाले पहले व्यक्ति थे.
- आर्यभट्ट ने दशमलव के 10 अंको तक का मान की गणना की थी. श्रीधराचार्य ने इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए दशमलव के 18 अंको की गणना की.
गणितज्ञ श्रीधर की प्रमुख कृतियां निम्नलिखित हैं—
१. जैनमठ,मूडबिद्री प्रति—जैनमठ, मूडबिद्री के वीरवाणी विलास जैन सिद्धांत भवन में पाण्डुलिपि क्रमांक ४७ पर संग्रहीत इस कृति में ९ पत्र हैं। यह प्रति अपूर्ण किन्तु शुद्ध है।
२. उज्जैन प्रति—उज्जैन के ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन में संगृहीत इस पाण्डुलिपि में १६ पत्र हैं एवं क्रमांक ६६१ पर संगृहीत है। इस पाण्डुलिपि की २ छाया प्रतियाँ कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर में क्रमांक ५७५ एवं ५९२ पर संग्रहीत है। कृति स्पष्ट एवं सुवाच्य है किन्तु बीच—बीच में कुछ अंश छूट गये हैं।
३. आरा प्रति—कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ पुस्तकालय, इन्दौर में पाण्डुलिपि क्रमांक ५९३ पर संग्रहीत एक पाण्डुलिपि में ३१ पत्र हैं। यह प्रति मूल न होकर जैन सिद्धांत भवन, आरा में संगृहीत एक पाण्डुलिपि क्रमांक ५३८ (झ/१३७/१) की ही छायाप्रति है। आरा की दूसरी प्रति ५३६ (झ/१३७/२) वर्तमान में उस भण्डार में भी उपलब्ध नहीं हो पा रही है।
गणितज्ञ आचार्य श्रीधर ने ७९९ ई. में ज्योतिर्ज्ञानविधि नामक गणित ज्योतिष (Astronomy) की कृति सृजित की थी। इस कृति का रचनाकाल अंत:साक्ष्य से ७९९ ई. तय होता है।
रागहृतमदोब्धं गतमांसाश्चोपरि प्रयोज्य पुन:।
संस्थाप्याधो राधागुणिते खगुणं तु वर्षादेखादि।।१।।
संत्याज्ये नीचाप्ते लब्धा वारास्तु शेषा: घटिका: स्यु:।।२।।
यहाँ पर शक संवत् ७२१ ग्रंथ रचना का समय बताया गया है। इससे कृति का रचनाकाल ७२१ शक अर्थात् ७९९ ई. तय होता है।