Omkarnath Thakur Biography in Hindi – ओंकारनाथ ठाकुर जीवनी
Omkarnath Thakur Biography in Hindi – पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर की जीवनी
Omkarnath Thakur Biography in Hindi
पण्डित ओंकार नाथ ठाकुर भारतीय संगीत के अनन्त आकाश पर वह देदीप्यमान नक्षत्र हैं, जिनके नाम का स्मरण ही श्रद्धा और आनंद की अनुभूति कराता है. महात्मा गाँधी ने कभी कहा था कि ओंकारनाथ जी अपने एक गान से जितना कह डालते थे, उतना कहने के लिये उन्हें कई भाषण देने पड़ते थे. उनकी प्रमुख शिष्या रही डा एन राजम बताती हैं कि गुरुजी के कंठ से निकलने वाले स्वरों के विभिन्न रूपों यथा फुसफुसाहट, गुंजन, गर्जन तथा रुदन के साथ श्रोता भी एकाकर हो जाते थे. कितने कार्यक्रमों में ओंकारनाथ जी के साथ साथी कलाकारों और समस्त श्रोतावृन्द के रोने की वह गवाह रही हैं. पंडितजी की इस विलक्षण प्रभावोत्पादकता के पीछे उनकी अप्रतिम स्वर-साधना, अविचलित गुरुभक्ति, माता-पिता की आजन्म सेवा और इन सबके ऊपर सिद्धांतनिष्ठ जीवन-साधना का हाथ रहा है. पण्डित ओंकार नाथ ठाकुर की जीवनी भक्तिकाल के अवसान के बाद भारत की विलक्षणतम जीवनियों में से रही है.
श्री ओंकारनाथ ठाकुर का जन्म 24 जून, 1897 को गुजरात के बड़ोदा राज्य में एक गरीब परिवार में हुआ था। उनके पिता नाना साहब पेशवा की सेना में थे। इनके पिताजी की भेंट एक बार अकस्मात् किसी संत से हो गयी, जिसने उन्हें प्रणव-मंत्र में दीक्षित किया, और तब से इनके पिता अधिकाधिक समय प्रणव-साधना में देने लगे।
घर की माली हालत ख़राब होने के कारण बचपन से ही ओंकारनाथ ठाकुर को दूसरे के घरो में काम करना पड़ा। कुछ ही समय बाद उनका परिवार बड़ौदा राज्य के जहाज ग्राम से नर्मदा तट पर भड़ौच नामक स्थान पर आकर बस गया। ओंकारनाथ जी का बचपन यहीं बिता और प्राथमिक शिक्षा भी यहीं सम्पन्न हुई।
पंडितजी के सुन्दर मुखमंडल और कद-काठी को देखकर एक बार एक सेठ ने उनको गोद लेने की इच्छा प्रकट की, पर पंडितजी के सन्यासी पिता ने कहा: “मेरे बेटा किसी सेठ का पुत्र नहीं बनेगा; वह माँ सरस्वती का पुत्र बनेगा.” यह भविष्यवाणी बहुत जल्दी सत्य सिद्ध होने वाली थी।
ओंकारनाथ ठाकुर
पण्डित ओंकार नाथ ठाकुर का जन्म गुजरात में भरूच नगर के पास हुआ था. इनके पिता पूना के पेशवाओं की फौज में सिपाही थे. इनके पिताजी की भेंट एक बार अकस्मात् किसी संत से हो गयी, जिसने उन्हें प्रणव-मंत्र में दीक्षित किया, और तब से इनके पिता अधिकाधिक समय प्रणव-साधना में देने लगे. पण्डित जी का जन्म पिता के दीक्षा लेने के बाद हुआ, अतः स्वभाविक था कि उनका नाम प्रणव के नाम पर ओंकार नाथ रखा जाता. धीरे-धीरे पिता की रुचि सांसारिक कार्यों में कम और साधना में अधिक होने लगी, और उनके बड़े भाई और भाभी का व्यवहार उनके तथा उनके परिवार के साथ रूक्ष होने लगा. एक दिन ऐसा आया कि उनके बड़े भाई और भाभी ने मिलकर उनको घर से बाहर निकाल दिया. बालक ओंकार नाथ अपने तीन भाई-बहनों और माता-पिता के साथ सड़क पर आ गये. ओंकार नाथ जी की माताजी बड़े जीवट की महिला थीं. एक तरफ उनका परिवार था, जिसके भरण-पोषण का दायित्व उन्हें सँभालना था, दूसरी ओर उनके पति थे, जिनकी साधना में भी उन्हें अपनी भूमिका निभानी थी; उन्होंने किसी सम्बंधी पर बोझ बनने के स्थान पर दूसरों के घरों में छोटे-मोटे काम करके अपने परिवार का भरण-पोषण करना निश्चित किया. बालक ओंकार नाथ पर माता की इस विकट तपस्या का गहरा प्रभाव पड़ा, और उन्होंने अपनी शिक्षा की चिंता छोड़कर माता की पीड़ा को कम करने के लिये खाना बनाना सीखा, और एक साथ कई जगह काम करना शुरु किया. इस बीच उनके पिता पूर्ण सन्यासी हो चुके थे, और नर्मदा के किनारे कहीं कुटिया बनाकर रहने लगे थे. ओंकार नाथ सुबह पहले उनकी कुटिया में जाते, कुटिया की सफाई वगैरह करते, उसमें जल इत्यादि की व्यवस्था करते, और पिता के लिये भोजन बनाकर रखने के बाद दौड़ते हुए उस घर में पहुँचते जहाँ वह रसोइये की नौकरी करते थे. दोपहर के भोजन के बाद फिर दूसरी नौकरी, फिर पिता की सेवा, और अंत में माता की सेवा के बीच उनका जीवन कट रहा था. इन संघर्षों के बीच उन्हें शारीरिक स्वास्थ्य का महत्त्व समझ में आया, और नियमित व्यायाम को भी उन्होंने अपनी दिनचर्या में जोड़ लिया. उनकी भेंट एक बार गामा पहलवान से हो गयी, जिन्होंने पंडितजी को कुछ कसरतें सिखाईं, जिन्हें वह जीवन भर करते रहे.
पंडितजी के सुन्दर मुखमंडल और कद-काठी को देखकर एक बार एक सेठ ने उनको गोद लेने की इच्छा प्रकट की, पर पंडितजी के सन्यासी पिता ने कहा: “मेरे बेटा किसी सेठ का पुत्र नहीं बनेगा; वह माँ सरस्वती का पुत्र बनेगा.” यह भविष्यवाणी बहुत जल्दी सत्य सिद्ध होने वाली थी. मृत्यु से पहले पंडितजी के पिता ने पंडितजी को प्रणव-मंत्र की दीक्षा दी. पंडितजी ने पिता की साधना को और आगे बढ़ाते हुए नादब्रह्म और अनहत नाद की साधना आरंभ की. शीघ्र ही उनकी अद्वितीय गायन-शैली की चर्चा भरूच और आस-पास के क्षेत्रों में होने लगी. पंडितजी को अब एक गुरु की तलाश थी. भरूच के ही किसी दूसरे सेठ ने पंडितजी के असाधारण व्यक्तित्व और उनकी संगीत सीखने की इच्छा को देखते हुए उनका दाखिला पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के मुम्बई स्थित संगीत-विद्यालय में करा दिया. विष्णु दिगम्बर जैसा गुरु पाकर पंडितजी की प्रतिभा तेज़ी से निखरने लगी; वह प्राणपण से गुरु की सेवा में लग गये. आचार्य पलुस्कर ने भी थोड़े ही दिनों में जान लिया कि पण्डित ओंकार नाथ ठाकुर ही वह शिष्य हैं जिन पर अपना सर्वस्व लुटाकर वह पूर्ण हो सकते हैं. लगभग 6-7 वर्षों में ही आचार्य ने पंडितजी को न केवल एक अद्वितीय संगीतकार अपितु शास्त्रीय पक्ष में अत्यंत प्रबल एक धुरंधर संगीतवेत्ता (म्यूज़िकॉलोजिस्ट) के रूप में भी प्रशिक्षित किया. पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने जब लाहौर में गंधर्व महाविद्यालय की स्थापना की, तब पण्डित ओंकार नाथ ठाकुर को उसका प्रधानाचार्य नियुक्त किया. पण्डित जी की आयु उस समय लगभग 20 वर्ष थी.
जल्द ही एक विलक्षण गायक के रूप में पंडितजी की ख्याति चारो ओर फैल गयी. विभिन्न राजदरबारों और संगीत-समारोहों से उनके पास निमंत्रण आने लगे. जालंधर में होने वाला हरिवल्लभ संगीत सम्मेलन संभवतः पहला सार्वजनिक मंच था जिससे पंडितजी ने अपना गायन प्रस्तुत किया. श्रोताओं ने ऐसा गायन कभी नहीं सुना था; वह उनके ऊपर अपनी प्रशंसा के प्रतीक रूप में रुपये-पैसे लुटाने लगे. पंडितजी ने इससे निस्पृह रहते हुए एक पैसा भी अधिक लेने से इंकार कर दिया.
शीघ्र ही पण्डित जी का विवाह इंदिरा देवी नाम की एक विदुषी से संपन्न हुआ, और उसके साथ ही पंडितजी अपनी कला के चरमोत्कर्ष पर जा पहुंचे. देश भर के संगीत-प्रेमियों ने उन्हें अपने स्नेह से और संगीत-संस्थानों ने विभिन्न अलंकरणों से उन्हें सम्मानित किया. संगीत-मार्तण्ड और संगीत महामहोपाद्ध्याय जैसे अलंकरण पंडितजी के नाम के साथ जुड़ने लगे. इसी बीच उन्हें नेपाल के राजदरबार में गाने का निमंत्रण मिला. नेपाल के तत्कालीन महाराज ने उनपर अपार धनराशि और आभूषणों की वर्षा की, और एक अत्यंत उच्च वेतन पर उन्हें अपने राजदरबार में स्थायी रूप से रहने के लिये आमंत्रित किया, पर पण्डित ओंकार नाथ अपनी माता से मिलने के लिये व्याकुल थे. घर पहुंच कर उन्होंने पुरस्कार में मिली समस्त राशि अपनी माता के चरणों में अर्पित कर दी. पांच सालों के बाद पण्डित जी को एक बार फिर नेपाल जाने का निमंत्रण मिला. पिछली बार की भांति इस बार भी महाराज ने उनपर विपुल धनराशि न्योछावर की. इस बार लौट कर उन्होंने समस्त राशि अपने गुरु के चरणों में अर्पित कर दी! जीवन का एक बड़ा और महत्त्वपूर्ण भाग निर्धनता में बिताने के बाद भी पंडितजी को धन का कोई लोभ कभी नहीं रहा.
इस बीच पंडितजी को यूरोप जाने का मौका मिला. मुसोलिनी के साथ उनकी भेंट का विवरण ऐतिहासिक है, और एक किंवदंती बन चुका है. मुसोलिनी नींद न आने की बीमारी से पीड़ित था. उसके सामने बैठकर पण्डित जी ने राग पूरिया का आलाप शुरू किया. पंद्रह मिनट के अंदर मुसोलिनी गहरी नींद में सो गया. नींद से जागने के बाद मुसोलिनी ने पण्डित जी को कुछ पुरस्कार देने और उन्हें कुछ दिन और रोकने का प्रयास किया, पर पंडितजी आगे बढ गये. ब्रिटेन, जर्मनी, बेल्जियम आदि देशों में पण्डित जी के कार्यक्रम हुए, जो अत्यधिक सफल रहे. यूरोप यात्रा के दौरान ही पण्डित जी को अपनी प्रिय पत्नी इंदिरा की मृत्यु का समाचर मिला. वह अपना कार्यक्रम रद्द करके भारत लौट आये. पत्नी की मृत्यु का पंडितजी को बहुत गहरा सदमा लगा.बहुत दिनों तक वह सामान्य नहीं हो सके. बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि वह पहले की तरह कभी नहीं हो सके. पत्नी की मृत्यु के बाद उन्होंने राग नीलांबरी, जो उनकी पत्नी का प्रिय राग था, गाना बंद कर दिया. श्रोताओं के अनुरोध पर वह कहते थे कि यह राग उन्हें अपनी पत्नी की याद दिलाता है, जिससे वह बहुत भावुक हो जाते हैं, अतः उन्हें क्षमा किया जाय. उनके मित्रों और यहाँ तक कि उनकी माता ने भी उनसे दूसरा विवाह करने का आग्रह किया, पर पंडितजी ने अपने आराध्य श्रीराम द्वारा स्थापित एकपत्नीव्रत के आदर्श का हवाला देकर सबको शांत कर दिया. इस बीच महामना पण्डित मदन मोहन मालवीय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना कर रहे थे; उन्होंने पंडितजी से संगीत-विभाग की बागडोर सँभालने का अनुरोध किया. पंडितजी इसके लिये सहर्ष तैयार हो गये, पर किन्हीं कारणों से मालवीयजी के जीवनकाल में यह न हो सका. वर्ष 1950 में जब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में संगीत एवं कला संकाय की स्थापना हुई, तो पण्डित ओंकार नाथ ठाकुर विभाग के पहले डीन बने. एक कलाकार और शिक्षक के ही नहीं अपितु एक प्रशासक के रूप में भी उन्होंने अपार ख्याति अर्जित की. हिसाब में एक पैसे की भी गड़बड़ी उन्हें सह्य नहीं थी. अक्सर ऐसा करने वालों को वह मालवीय जी के उदाहरण से समझाते थे, जिन्होंने भीख मांग कर विश्वविद्यालय खड़ा किया था.
काशी पंडितजी को, और पण्डित जी काशी को बहुत पसंद आये. विश्वनाथ मंदिर और संकटमोचन हनुमान मंदिरों में दर्शन के लिये जाने पर पंडितजी के चरण छूने वालों की भीड़ लग जाती थी. अपने काशी-प्रवास के दौरान पंडितजी ने अनेक शिष्य बनाये, जिनमें प्रमुख हैं डा एन राजम और फ़ीरोज़ दस्तूर. बहुत पहले लेखक को डा राजम के साथ बैठने का अवसर मिला था. अपने गुरु की चर्चा चलते ही उनकी आँखें बंद हो जाती तीं, मानो वह समाधि की अवस्था में चली गयी हों. गुरु के बारे में बात करते-करते उनका गला भर्रा जाता था. इससे कल्पना की जा सकती है कि अपने शिष्यों के साथ उनका व्यवहार कैसा रहा होगा.
काशी के प्रख्यात गायक पद्मभूषण पण्डित छन्नूलाल मिश्र, जिन्होंने किशोरावस्था में पंडितजी के कई कार्यक्रम सुने, बताते हैं कि पंडितजी का कार्यक्रम एक थियेटर की तरह होता था: चार तानपुरे वाले, दो सह-गायक, दो वायलिन या हार्मोनीयम वाले, तबले पर पण्डित कंठे महाराज और पण्डित अनोखेलाल मिश्र जैसी विभूतियाँ, और बीच में श्वेत परिधान और कंधे तक लटकते घुंघराले बालों के साथ पंडितजी का विराट व्यक्तित्व – कुल मिलाकर एक नाटक के मंचन का सा दृश्य प्रस्तुत करता था. जैसे पण्डित अनोखेलाल मिश्र के एकल तबला-वादन के समय श्रोता उनसे अनुरोध करते थे कि वह और कुछ बजाने के स्थान पर केवल ना धिन धिन ना बजाएं, वैसे ही ओंकार नाथ जी से श्रोताओं का आग्रह होता था कि वह केवल ओम् ध्वनि का उच्चारण करें. एक विशेष कार्यक्रम की चर्चा करते हुए पण्डित छन्नूलाल मिश्र बताते हैं कि एक बार श्रोता अड गये कि आज तो नीलांबरी ही सुनेंगे. पंडितजी को झुकना पड़ा. उन्होंने गायन शुरु किया. लगभग पांच मिनट के बाद वह चुप हो गये. लोगों ने देखा कि उनकी आँखों से टप-टप आंसू टपक रहे हैं. साथी कलाकारों ने अपना कार्यक्रम जारी रखा, पर उनकी आँखों से भी आंसू झर रहे थे. श्रोता अवाक हो गये. अधिकांश लोग पण्डित जी के साथ मौन-रुदन करने लगे. पता नहीं कितनी देर यह स्थिति रही. थोड़ी देर बाद पंडितजी ने हाथ जोड़ कर निवेदन किया कि अब वह नहीं गा सकेंगे. पूरा सभामंडल तालियों की गड़गडाहट से गूँज उठा. 1 घंटे का निर्धारित कार्यक्रम 15 मिनट में समाप्त हो गया था, पर लोगों को एक अनूठे अनुभव से गुज़रने का मौका मिला.
काशी में पण्डित जी लगभग 7 साल-अपनी सेवानिवृत्ति तक रहे. 1925 में नेपाल-नरेश के दरबार में 3000 रुपये मासिक का वेतन ठुकराकर उसके 25 साल के बाद मालवीयजी के आग्रह के कारण मात्र 150 रुपये के मासिक वेतन पर पंडितजी ने 7 साल बिताये. क्या यह सिद्धान्तों के प्रति उनके समर्पण की अनोखी कथा नहीं कहता?
काशी छोड़ने के बाद पण्डित जी अपने गृहनगर भरूच चले गये, जहाँ उन्होंने एक छोटा सा घर बनवा लिया था. उन्होंने सर्वजनिक कार्यक्रम देना बहुत कम कर दिया, और अपना अधिकांश समय साधना में बिताने लगे. अपने अंतिम समय तक पंडितजी अपने सभी काम अपने हाथों से करते थे, और उनका यह नियम उस समय भी अक्षुण्ण रहा जब उन्हें एक ज़बर्दस्त लकवे का दौरा पड़ा, जिसके कुछ दिनों के बाद पंडितजी का प्राणान्त हो गया. उन्हें एक बात का बड़ा संतोष रहा कि अपनी माता, जिसने अपना अधिकांश जीवन कठिन परिश्रम और निर्धनता के बीच बिताया, को वह अंतिम समय में कुछ सुख दे सके.
कठिन परिस्थियों के बीच कठोर परिश्रम से अपनी राह बनाने वाले, सिद्धान्तों से कभी समझौता न करने वाले, धन-सम्मान पाकर भी अभिमान से कोसों दूर रहने वाले, स्वर्ण को लोष्ठवत समझने वाले, माता-पिता और गुरु के अनन्य भक्त सरस्वतीपुत्र संगीत-मार्तण्ड पण्डित ओंकार नाथ ठाकुर जैसे व्यक्तित्व कई शताब्दियों में एक बार जन्म लेते हैं. धन्य हैं वह लोग, जिन्होंने पंडितजी का गायन सुना. पण्डित ओंकार नाथ ठाकुर को एक मामूली आदमी का नमन.
ओंकारनाथ ठाकुर का निधन
अपने अंतिम समय तक पंडितजी अपने सभी काम अपने हाथों से करते थे, और उनका यह नियम उस समय भी अक्षुण्ण रहा जब उन्हें एक ज़बर्दस्त लकवे का दौरा पड़ा, जिसके कुछ दिनों के बाद 29 दिसंबर, 1967 को पंडितजी का निधन हो गया।