पंडित प्रताप नारायण मिश्र | Essay in Hindi | Pandit Pratap Narayan Mishra
पंडित प्रताप नारायण मिश्र | Essay in Hindi | Pandit Pratap Narayan Mishra
भारतेंदु युग में उत्पन्न होकर जी उस समय के विकास और परिष्कार से सिंह और सपूत की भांति यदि कोई लेखक को प्रभावित करता तो वह पंडित प्रताप नारायण मिश्र ही थे | उन्हें अपना अक्खड़पन और मनमौजीपन , मस्ती और सैलानीपन ही पसंद था |व्यंग – विनोद उनकी प्रकृति के मुख्य तत्व थे , चिंतन और विचार उनके स्वभाव के विपरीत थे | हिंदी और हिंदी साहित्य को पिटारे में बंद ना करके वे सामान्य जनजीवन के बीच में खींच लाए थे | निसंदेह मिश्र जी ने हिंदी भाषा – भाषी समाज का तथा स्वयं हिंदी के प्रचार और प्रसार का उस समय बहुत बड़ा काम किया था | जबकि खड़ी बोली हिंदी अपनी परिपक्व अवस्था में थी |
जीवन वृत्त – पं . प्रताप नारायण मिश्न का जन्म उन्नाव जिले के वैजे गाँव में सन् १८५६ में हुआ था । इनके पिता का नाम पं ० संकटा प्रसाद था । वे उन्नाव से आकर कानपुर में बस गये थे और ज्योतिष का काम करते थे । वे अपने पुत्र को ज्योतिषी ही बनाना चाहते थे परन्तु प्रताप नारायण की रुचि गणित के शुष्क अंकों में न रमी । बचपन से : ही स्वच्छन्द प्रकृति के होने के कारण तथा बाल्यावस्था में । पिता जी की मृत्यु हो जाने के कारण इनका प्रारम्भिक शिक्षा क्रम अव्यवस्थित रहा । घर पर ही रहकर इन्होंने संस्कृत फारसी , बंगला , अंग्रेजी और उर्दू का ज्ञानोपार्जन किया । बचपन से ही मिश्र जी की रुचि साहित्य अनुशीलन और सृजन की ओर थी । काव्य – प्रतिभा बचपन से ही उनमें विद्यमान थी , वे उर्दू तथा हिन्दी दोनों में ही कविता किया करते थे , स्वभाव से भावुक थे । फक्कड़पन , मनामौजीपन , मस्ती उनके स्वभाव की सहज विशेषतायें थीं । समाचार पत्रों और पत्रकारिता की ओर उनकी हार्दिक रुचि थी । फलस्वरूप इन्होंने ” ब्राह्मण ” नामक मासिक पत्र निकाला और बाद में हिन्दी हिन्दोत्थान ” नामक पत्र का भी सफल सम्पादन किया । इन्हीं दोनों पत्रों में इनकी अधिकांश रचनायें ! प्रकाशित हुआ करती थीं । सन् १८ ९ ४ में , ३८ वर्ष की अल्पायु में ही माँ भारती का यह मनमौजी पुत्र भारत भूमि से संदा – सदा के लिये चल बसा |
रचनायें – मिश्र जी ने अपने छोटे जीवन काल में लगभग चालीस पुस्तकों की रचना की । मित्र जी निबन्धकार के रूप में ही अधिक प्रसिद्ध हैं , यद्यपि इन्होंने साहित्य की अन्य विधाओं को भी अपनी प्रतिभा से श्री वृद्धि की थी । कलि प्रभाव , हठी हमीर , गो संकट मिश्र के नाटक हैं तथा भारत दुर्दशा , कवि कौतुक , मन की लहर , श्रृंगार विलास मानस विनोद इनके काव्य ग्रन्थ हैं । इसके अतिरिक्त मिश्र जी ने अनेक निबन्धों की रचना की जो ” निबन्ध नवनीत ” में संग्रहीत हैं । ये निबन्ध ही मिश्र जी के । कीर्ति स्तम्भ हैं । विषयों की विविधता और अनेकरूपता की दृष्टि से उनका निबन्ध – साहित्या अत्यधिक सम्पका है । निबन्यों के विषय बड़े निराले एवं आकर्षक होते हैं जैसे- भौं , दाँत , नाक , पेट , आप , बात आदि ।
भाषा – मिश्र जी की भाषा जन साधारण की भाषा है । उन्होंने जो कुछ लिखा वह विद्वत्समाज के लिये न होकर सर्वसाधारण के लिये है । उसमें कृत्रिमता , सजावट अथवा प्रयत्न के स्थान पर नैसर्गिकता अधिक है ! भाषा लिखने का उनका अपना एक मौलिक ढंग था , जिसका वे अन्त तक निर्वाह करते रहे । भारतेन्टु बाबू हरिश्चन्द्र तथा पं ० बालकृष्ण भट्ट के प्रयत्न से उस समय तक भाषा का पर्याप्त विकास एवं परिष्कार हो चुका था , परन्तु मिश्र ली पर इसका कोई प्रभाव नहीं था । अतः उनकी भाषा में अव्यवस्था ग्रामीणता एवं व्याकरण की भूलें आ जाना स्वाभाविक है । मिश्र जी ने शब्द शुद्धि की ओर ध्यान नहीं दिया । विराम चिन्हों का प्रयोग या तो हुआ ही नहीं है , यदि कहीं हुआ भी है तो अशुद्ध ही है । खुशामद , निहायत , लफज , खामहखाह आदि उर्दू फारसी के शब्द , सेत्तमेंत , रितु , खौखियाना आदि ग्रामीण शब्द , आत्माभिमान प्राबल्यता आदि संस्कृत शब्दों के अशुद्ध रूप भी मिलते हैं । कहावतों और मुहावरों का जैसा प्रयोग मित्र जी ने किया वैसा अन्यत्र दुर्लभ है । मिश्र जी का भाषा पर पूर्वीपन और पण्डिताऊपन का अधिक प्रभाव है । सब कुछ होते हुए भी मिश्र जी की भाषा में सशक्तता , रोचकता , आत्मीयता और चुलबुलापन है । भाषा के प्रवाह को तीव्रता में कहीं भी कमी नहीं आने पाई ।
शैली- हास्य , विनोद और व्यंग्य के मिश्रा जी अवतार थे । यही हास्य और विनोद इनकी शैली का प्राण है । भाषा की भाँति शैली पर भी मिश्र जी के व्यक्तित्व की स्पष्ट छाप है । मित्र जी की शैली का प्रमुख रूप एक ही है , वह है व्यंगात्मक शैली अथवा प्रसादात्मक शैली । दूसरा स्वरूप विवेचनात्मक शैली का है , परन्तु इस शैली में मिश्र जी ने बहुत कम लिखा क्योंकि स्वभाव के अनुकूल तो वे ही विषय आते थे जिनमें उन्हें अपने विनोदी स्वभाव का हास – परिहास और व्यंग का चमत्कार दिखाने का अवसर मिल सकता था । मिश्र जी की शैली को दो रूपों में विभक्त किया जा सकता है-
( १ ) विवेचनात्मक शैली – मिश्र जी की इस शैली में ‘ शिव मूर्ति निबन्ध आता है । इसमें उनकी मननशीलता का रूप कुछ उभरा है । तर्क , प्रमाण और विषय विवेचन भी ष्टिगोचर होता है । भाषा भी शुद्ध , सुसम्बद्ध तथा व्यवस्थित है । वाक्य सुलझे हुये और विचार स्पष्ट हैं , परन्तु यह निबन्ध मिश्र जी के स्वभाव का अपवाद ही कहा जा सकता है ।
( २ ) प्रसादात्मक शैली अथवा व्यंगात्मक शैली- यह शैली मिश्र जी की प्रतिनिधि एवं स्वाभाविक शैली है । उनके प्रायः सभी निबन्ध इसी शैली में लिखे गये हैं । इसमें वाणी की वक्रता , चुलबुलापन , उछल कूद और वेग विद्यमान है । मुहावरों और कहावतों के प्रयोग द्वारा व्यंजनता और भी बढ़ जाती है । इस शैली में बिना किसी प्रकार के छिपाव के स्पष्ट और धड़ल्ले के साथ आत कहने की प्रवृत्ति है । वैयक्तिक्ता और आत्मीयता इस शैली के प्रधान गुण हैं । व्यंग विनोद के समावेश से उनकी इस शैली का आकर्षण जहाँ बढ़ा है , वहाँ उसकी रोचकता और प्रभाव में भी वृद्धि हुई है । निसन्देह उनकी यह शैली बड़ी सजीव और सरस है ।