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युग – प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और उनका साहित्य

 युग – प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और उनका साहित्य

युग – प्रवर्तक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और उनका साहित्य

भारत में अंग्रेजों का आधिपत्य स्थापित हो चुका था । शासन की भाषा अंग्रेजी स्वीकृत हो चुकी थी , पद – लालसा से लालायित भारतीय , अंक और विदेशी सभ्यता अपनाने में गौरव समझने लगे थे । सभ्य और सुशिक्षित भारतीय समाज हिन्दी में हेय दृष्टि से देखने लगा था । सर सैय्यद जैसे विद्वान हिन्दी के नाम पर बाँसों उछल पड़ते थे और हिन्दी की  ” गवारू बोली ” कहकर सम्बोधित करने में अपने विद्वान होने की सार्थकता प्रकट करते थे । हिन्दू सभ्यता , संस्कृति  और साहित्य पर चारों ओर से कुठाराघात हो रहे थे । लोगों को यह विश्वास ही नहीं होता था कि हिन्दी पढ़कर भी कोई सभ्य और शिक्षित हो सकता है । हिन्दी की दशा तो अव्यवस्थित थी ही परन्तु हिन्दी पद्य  को भी लोग नापसन्द करने में गौरव का अनुभव करने लगे थे । ऐसे समय में हिन्दी को एक ऐसे दृढ़ आत्मविश्वासी कुशल नेतृत्व की आवश्यकता थी युग परिवर्तन करने की क्षमता हो , जो राष्ट्रीयता की रक्षा कर सकता हो , अथवा मातृभाषा की रक्षा के लिए सर्वस्व बलिदान कर सकता हो । वह समय हिन्दी के लिए संक्रान्ति काल था । राजनीति तथा समाज में नवीन क्रान्ति हो रही थी । ऐसे वातावरण में हिन्दी में नये युग के प्रवर्तक एवं हिन्दी साहित्य में स्वतन्त्रता के प्रथम उद्घोषक भारतेन्दु का भारत भूमि में अवतरण हुआ ।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म इतिहास प्रसिद्ध सेठ अमीचन्द के वंश में हुआ था । इनके पिता बापू गोपालचन्द्र ( उपनाम गिरधरदास ) ब्रजभाषा के प्रतिभा सम्पन्न कवि थे । भारतेन्दु जी पर घर के साहित्यिक वातावरण का प्रभाव था । उन्होंने पाँच वर्ष की अवस्था में निम्नलिखित दोहे की रचना की थी –

लै ब्यौडा ठाड़े भये , श्री अनुरुद्ध सुजान ।
वाणासुर की सेन को , हनन लगे भगवान ।।

उन्होंने अंग्रेजी , हिन्दी , उर्दू की शिक्षा घर पर ही प्राप्त की थी । दस वर्ष की अवस्था में ही उनके माता – पिता का स्वर्गवास हो गया । फलस्वरूप शिक्षा का क्रम बीच में ही टूट गया । तेरह वर्ष की अवस्था में इनका विवाह हो गया । तदनन्तर इन्होंने जगन्नाथपुरी की यात्रा की , जहाँ ये बंगला भाषा के सम्पर्क में आये । अनेक तीर्थयात्रायें करने के कारण भारतेन्दु को प्रकृति – सौन्दर्य और देश के विभिन्न प्रान्तों के सामाजिक रीति – रिवाजों को देखने व समझने का अवसर मिला । वह स्वतन्त्रता प्रेमी तथा प्रगतिशील विचारों के व्यक्ति थे । उनके स्वभाव में दयालुता थी । वे दाना थे । उनकी सत्यता के प्रति अटूट श्रद्धा थी । उन पर लक्ष्मी और सरस्वती की समान रूप से कृप थी । उन्होंने सरस्वती की सेवा में लक्ष्मी को पानी की तरह बहाया । अपने जीवन काल में भारतेन्दु ने अनेक पत्र – पत्रिकाओं , सभाओं , साहित्यिक गोष्ठियों तथा नवीन साहित्यकारों को जन्म दिया । तत्कालीन साहित्यकारों में भारतेन्दु सर्वप्रथम थे । जीवन के अन्तिम दिनों में भारतेन्दु आर्थिक कष्टो से दब गये थे , उन्हें क्षय रोग हो गया था । सम्वत् १ ९ ४१ में हिन्दी साहित्य का यह प्रकाश पुंज सदैव के लिये समाप्त हो गया ।

भारतेन्दु बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे , उन्होंने साहित्य की प्रत्येक दिशा को नई गति और नई चेतना प्रदान की । नाटक , काव्य , इतिहास , निबन्ध , व्याख्यान आदि सभी विषयों पर अधिकारपूर्वक लिखा । अपने सत्रह – अट्ठारह वर्ष के साहित्यिक जीवन में भारतेन्दु ने अनेक ग्रन्थों की रचना की । भारतवीणा , वैजयन्ती , सुमनांजलि , सतसई , गार , प्रेम प्रलाप , होली , भारतेन्दु जी के उत्कृष्ट काव्य – ग्रन्थ है । भारतेन्दु जी की सबसे बड़ी देन नाटकों के क्षेत्र में है ‘ चन्द्रावली ‘ , ‘ भारत दुर्दशा ‘ , ‘ नील देवी ‘ अंधेर नगरी ‘ , ‘ प्रेम योगिनी ‘ , ‘ विषस्य विषमौषधम् ‘ और ‘ वैदिकी हिंसा न भवति ‘ , ये भारतेन्दु जी के मौलिक नाटक हैं । विद्या सुन्दर ‘ , ‘ पाखण्ड विडम्बन ‘ , धनंजय विजय ‘ , ‘ कर्पूरमंजरी ‘ , ‘ मुद्रा राक्षस ‘ , सत्य हरिश्चन्द्र ‘ और ‘ भारत जननी ‘ आपके अनुदित नाटक हैं । सुलोचना , शीलवती आदि आपके आख्यान हैं । परिहास पंचक ‘ में हास्य रस सम्बन्धी गद्य हैं । ‘ काश्मीर कुसुम ‘ और ‘ बादशाह दर्पण आपके इतिहास सम्बन्धी ग्रन्थ हैं । भारतेन्दु जी ने अपने अल्प जीवनकाल में सौ से अधिक ग्रन्थों की रचना की |

भारतेन्दु जी का काव्य विविधतापूर्ण है , उनकी कुछ रचनायें भक्ति रस से भरी हुई हैं । कुछ रचनाओं में रीतिकाल की सी झलक दिखलाई पड़ती है । अन्य रचनाओं में नवीन चेतनाओं पर प्रकाश डाला गया है । इस प्रकार हम भारतेन्दु के समस्त काव्यों को चार भागों में विभक्त कर सकते हैं
( १ ) भक्ति प्रधान , ( २ ) शृंगार प्रधान , ( ३ ) देश – प्रेम प्रधान तथा ( ४ ) सामाजिक समस्या प्रधान ।

उनकी भक्ति प्रधान रचनायें राधा – कृष्ण से सम्बन्धित हैं । इन रचनाओं में वे सूर , तुलसी को कोटि में आते हैं । एक उदाहरण देखिए –
बाज्यौं करै नुपुर सौननि के निकट सदा ,
पदतल माँहि मन मेरी बिहयों करै ।
बाज्यौ करै बंशी धुनि , पूरि रोम – रोम मुख ,
मन्द मुस्कानि मन मनहि हयौं करै ।।
हरीचन्द चलनि , मुरनि बतरानि चित्त ,
छाई रहै छवि जुग दृगनि भयों करै ।
प्रानहुँ ते प्यारो रहै प्यारो तू सदाई प्यारे ,
पीत पट सदा हिय बीच फहरयो करै ।

शृंगार प्रधान रचनाओं में ये पद्माकर , घनानन्द और रसखान की कोटि में आते हैं । भारतेन्दु को संयोग की अपेक्षा वियोग चित्रण में अधिक सफलता मिली है । गोपिकाओं को दुःख है कि वे कृष्ण को एक बार भी प्यार से आँखें भर कर न देख पाई । इसलिए उनके अतृप्त नेत्र आज भी कृष्ण की प्रतीक्षा में खुले हुए हैं और मृत्यु के बाद ज्यों के त्यों खुले रहेंगे । कितना स्वाभाविक और मनोहारी वर्णन है-

इन दुखियान को न सुख सपनेहू मिल्यौ ,
यों ही सदा व्याकुल विकल अकुलायेंगी ।
प्यारे हरिचन्दजू की गौन जानि औधि जो पै ,
जैहैं प्रान तऊ ये तो संग न समायेंगी ।
देख्यो एक बार हूँ न नैन भरि तोहि यातें ,
जौन – जौन लोक जैहै तहाँ पछितायेंगी ।
बिना प्राण प्यारे भये दरस तिहारे हाय ,
देखि लीजो आँखें ये खुली ही रह जायेंगी ।

संयोग का चित्रण भी कहीं – कहीं बहुत सुन्दर है । ऐसा प्रतीत होता है मानो भारतेन्दु , गोपियों के मुख से अपनी ही बात कह रहे हैं । उदाहरण देखिए –
रोकत हैं तो अमंगल होय , और प्रेम नसै जो कहे प्रिय जाइये ।
जो कह जाहु न , तो प्रभुता , जो कछू न कहें तो सनेह नसाइये ॥
जो हरिचन्द कहैं , तुमरे बिन , जियें न , तो यह क्यों पतियाइये ।
तासौ पयान समैं तुमसौं हम का कहैं प्यारे हमें समझाइये ।

अपनी देश – प्रेम प्रधान रचनाओं द्वारा उन्होंने राष्ट्रीय जागरण का प्रथम उद्घोष किया । भारतेन्दु भारत की दुर्दशा पर भगवान से प्रार्थना करते हैं –

गयो राज , धन , तेज , रोष , बल , शान नसाई ,
बुद्धि वीरता , श्री , उछाह , सूरत बिलाई ।
आलस , कायरपनो , निरुद्यमता अब छाई ,
रही मूढ़ता , बैर , परस्पर , कलह लड़ाई ।
सब विधि नासी भारत प्रजा , कहूँ न रह्यो अवलम्बन अब ।
जागो जागो करुनायतन , फेरि जागिहौ , नाथ कब ।।

सामाजिक समस्याओं के चित्रण द्वारा भारतेन्दु ने कविता – कामिनी की रीतिकालीन विलासिता के झुरमुटों से निकालकर जन – जीवन की साधारण पृष्ठभूमि पर लाकर खड़ा कर दिया । भारतवर्ष की भिन्नता पर दुःख प्रकट करते हुए भारतेन्दु कहते हैं –

भारत में सब भिन्न अति , ताही सों उत्पात ।
विविध बेस , मतहूँ विविध , भाषा विविध लखात ।।

हिन्दी के उत्थान के लिए भारतेन्दु ने अपना तन , मन , धन सब कुछ समर्पित कर दिया था । मातृ – भाषा के विषय में उन्होंने बहुत कुछ लिखा है –
अंग्रेजी पढ़ कै जदपि , सब गुन होत प्रवीन ।
पै निज भाषा ज्ञान बिन , रहत हीन के हीन ।।
X X X X X X X X X X X
निज भाषा उन्नति अहै , सब उन्नति को मूल ।
बिन निज भाषा ज्ञान के , मिटत न हिय को सूल ॥

भारतेन्दु की कविता में ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों का रूप मिलता है , परन्तु इतना अवश्य है कि इन्होंने खड़ी बोली में बहुत कम रचना की । ये भाषा की शुद्धता के पक्षपाती थे । इनकी भाषा बड़ी परिष्कृत , व्यवस्थित और प्रवाह – युक्त है । प्राकृत तथा अपभ्रंश काल के शब्दों का , जिन्हें कवि लोग अपनी कविताओं में स्थान देते चले आ रहे थे , इन्होंने बहिष्कार किया । भारतेन्दु ने अपनी प्रतिभा से हिन्दी के कर्णकटु शब्दों को मधुर बनाया तथा विदेशी शब्दों को हिन्दी के ढाँचे में ढालकर ग्रहण किया । भारतेन्दु की रचनाओं में सभी रसों का सुन्दर समायोजन है । श्रृंगार , शान्त , रौद्र , भयानक , वीभत्स , करुण , वात्सल्य , अद्भुत और हास्य सभी रसों का उनकी रचनाओं में सुन्दर परिपाक है । रसों के साथ अलंकारों का सहजे- सौन्दर्य भी देखने योग्य है । अनुप्रास , रूपक , उपमा , उत्प्रेक्षा , प्रतीक , विभावना आदि अलंकार स्वाभाविक रूप से आये हैं । भारतेन्दु की छन्द योजना अत्यन्त विस्तृत है । तुलसीदास की भाँति भारतेन्दु ने भी प्राचीन तथा अर्वाचीन सभी शैलियों में रचनायें कीं । इन्होंने भाव और भाषा के अनुरूप पद , कवित्त , सवैया , दोहा , रोला , छप्पय , चौपाई , बरवै , हरिगीतिका , बसन्त – तिलका आदि छन्दों का सफल प्रयोग किया ।
हिन्दी गद्य के क्षेत्र में भारतेन्दु जी की अमूल्य सेवायें हैं । आज हिन्दी का जो रूप हमारे सामने है वह भारतेन्दु की साहित्य साधना का ही प्रसाद है । भारतेन्दु के साहित्य क्षेत्र में आने के  समय भाषा का स्वरूप अस्थिर था , वह निष्प्राण और रूपहीन थी । एक ओर राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द उसे उर्दू प्रधान बनाना चाहते थे , दूसरी ओर राजा लक्ष्मणसिंह उसे संस्कृत – प्रधान बनाना चाहते थे । लल्लूलाल की भाषा में ब्रजभाषापन था और सदल मिश्र की भाषा में पूर्वीपन की मात्रा अधिक थी । भारतेन्दु ने अस्थिर भाषा को अपने व्यक्तित्व के प्रभाव से स्थिर रूप प्रदान किया । उन्होंने हिन्दी को सरल और सुबोध बनाने का प्रयत्न किया । उन्होंने विदेशी शब्दों को भी हिन्दी के ढाँचे में ढालकर ग्रहण किया । भारतेन्दु की भाषा में स्वाभाविकता थी और माधुर्य था । अपने व्यक्तित्व के प्रभाव से उन्होंने अनेक साहित्य साधकों को जन्म दिया । भारतेन्दु अपने समय के हिन्दी साहित्य और भाषा के एकमात्र नेता थे । उन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर हिन्दी गद्य को विकासोन्मुख बनाया , उसका मार्ग – प्रदर्शन किया , इसलिये वह युग भारतेन्दु युग के नाम से प्रसिद्ध है ।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र गद्य की भाँति हिन्दी नाटकों के भी जन्मदाता हैं । वास्तव में उनसे पूर्व नाटकों का क्षेत्र बिल्कुल शून्य था । जो दो – चार नाटक थे भी उनमें न तो मौलिकता थी और न शास्त्रीय नाटकीय तत्त्व । मुसलमानों के आधिपत्य के कारण भारतेन्दु से पूर्व नाटकों का समुचित विकास नहीं हो पाया था , क्योंकि मुसलमानों की दृष्टि में किसी भी आधिभौतिक शक्ति का मंच पर लाना कुफ समझा जाता था ; भारतेन्दु के समय में कुछ नाटकं कम्पनियाँ थीं , जो अश्लील अभिनयों से जनरुचि को विकृत करने में प्रयलशील थीं । भारतेन्दु जी नाटक रचना में बंगला से सबसे अधिक प्रभावित हुए । उन्होंने हिन्दी में भी नाटक लिखने का निश्चय किया । उनके अनुवादित और मौलिक नाटकों की संख्या चौदह है । प्रायः ये सभी नाटक अपने समय के लोकप्रिय नाटक थे तथा वे अपने नाटकों का निर्देशन और अभिनय स्वयं किया करते थे । भारतेन्दु जी के सभी नाटक खड़ी बोली में लिखे गये हैं । उनके मौलिक नाटकों में ‘ भारत दुर्दशा ‘ का स्थान सर्वश्रेष्ठ है । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भारतेन्दु जी के नाटकों के विषय में लिखा है कि “ उन्होंने सामग्री जीवन के क्षेत्रों से ली है । ” वास्तव में उनके नाटक स्वयं नाटककार के जीवन से एवं तत्कालीन सामाजिक जीवन से अनुप्रेरित थे । ‘ चन्द्रावली नाटिका ‘ भारतेन्दु जी को अपने नाटकों में सबसे अधिक प्रिय थी । इसमें चन्द्रावली और कृष्ण के एक छोटे से आख्यान द्वारा प्रेम का सच्चा आदर्श प्रदर्शित किया गया है । ” वैदिकी हिंसा – हिंसा न भवति ” एक सुन्दर प्रहसन है । यही इनका पहिला मौलिक नाटक कहा जाता है । भारतेन्दु जी केवल नाटकों के जन्मदाता मात्र थे । नाट्यकला को दृष्टि से हमें उनमें कुशल नाटककार के दर्शन नहीं होते , अधिकांश उत्कृष्ट नाटक तो बाद में लिखे गये|

भारतेन्दु जी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न कलाकार थे । उन्होंने धार्मिक , सामाजिक , ऐतिहासिक , भावात्मक आदि सभी विषयों पर लेखनी चलाई । उनकी प्रतिभा से हिन्दी साहित्य का कोना – कोना प्रकाशित हुआ । खेद है कि ३५ वर्ष की अल्पायु में ही वे काल कवलित हो गये , परन्तु –

जयन्ति ते सुकृतिनः रससिद्धाः कवीश्वराः ,
नास्ति येषाम् यश : काये , जरामरणजम् भयम् ।।

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