हिन्दी कविता में रहस्यवाद और उसके विभिन्न रूप
हिन्दी कविता में रहस्यवाद और उसके विभिन्न रूप
हिन्दी कविता में रहस्यवाद और उसके विभिन्न रूप
भारतीय साहित्य में रहस्यवाद जैसा कोई शब्द नहीं मिलता । अंग्रेजी के ‘ मिस्ट्रीइज्म ‘ शब्द का हिन्दी में अनुवाद करके रहस्यवाद कहा जाने लगा । परन्तु रहस्यवाद में जिस प्रकार की रचनायें आती है | वे रचनाएं प्राचीन भारतीय साहित्य में भी उपलब्ध है और नवीन में भी | रहस्य का अर्थ है वह अदृश्य और अगम्य में और अव्यक्त शक्ति जो इस चराचर जगत को अपने नियंत्रण में किए हुए हैं | उस अव्यक्त सत्ता को प्राप्त करने की उत्कृष्ट अभिलाषा उसके साथ जीवात्मा का दर्द आत्मा होना | साधारण जीव और ब्रह्मज्ञानी में इतना ही अन्तर है कि ज्ञानी अपनी बुद्धि , तर्क एवं ज्ञान के द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि “ जीवो ब्रह्मैव नापारः ” अर्थात् जीव ब्रह्म ही है कोई दूसरी वाले हिन्दी साहित्य में रहस्यवाद और नहीं । इस प्रकार वह अद्वैतवादी की श्रेणी में आसान है । रहस्यवादी कवि बुद्धि , तर्क एवं ज्ञान का आश्रय उसके विभिन्न रूप न लेकर भावुकता और कल्पना के सहारे उस शक्ति में अपनी आत्मा को विलीन कर देना चाहता है । उस समस्त सृष्टि में , कण – कण से अदृश्य सत्ता का सौन्दर्य दृष्टिगोचर होता है , उससे वह अपना व्यक्तिगत सम्बन्ध स्थापित करता । महादेवी वर्मा ने रहस्यवाद की परिभाषा देते हुए लिखा है , “ इस प्राकृतिक अनेकरूपता के कारण एक मधुरतम व्यक्तित्व का आरोपण कर उसके निकट आत्म – निवेदन कर देना , इसका दूसरा सोपान बना , जिसे रहस्यमय रूप के कारण रहस्यवाद का नाम दिया गया । ” डॉ ० रामकुमार वर्मा रहस्यवाद को परिभाषा देते हुए कहते हैं- ” रहस्यवाद जीवात्मा की उस अंतर्निहित प्रवृत्ति का प्रकाशन है , जिससे वह दिव्य और अलौकिक शक्ति से अपना शांत और निश्चल सम्बन्ध जोड़ना चाहता है । ”
रहस्यवाद के दो प्रकार हैं । जब भावना के आधार पर जीव और ब्रह्म की एकता का प्रतिपादन होता है , तब रहस्यवाद का जन्म होता है , इसे भावात्मक रहस्यवाद कहते हैं । इसके प्रतिकूल जब अप्राकृतिक जटिल अभ्यासों द्वारा अव्यक्त सत्ता के साक्षात्कार का विधान होता है , तव साधनात्मक रहस्यवाद का जन्म होता है ।
हिन्दी कविता में रहस्यवादी रचनायें प्राचीन काल से ही विद्यमान हैं । भक्तिकाल में कबीर और जायसी की रचनाओं में रहस्यवादी संकेत पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं । प्राचीनकाल में तान्त्रिको योगियों तथा नाग पंथियों में भी रहस्य साधना की प्रवृत्ति थी , परन्तु उनकी साधना साम्प्रदायिक रूढ़ियों पर आधारित होती थी , इसलिए इन्हें काव्य के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हुआ ।
कबीर का ज्ञान – प्रधान रहस्यवाद साधनात्मक भी है और भावात्मक भी । कबीर योगियों तथा अद्वैतवादियों से पूर्णत : प्रभावित थे । उन्होंने साधनात्मक रहस्यवाद पर अधिक बल दिया । इडा पिंगला , सुषुम्ना , कुण्डलिनी , षट्चक्र , सहस्र दल कमल , सहसा ब्रह्मरंध्र आदि यौगिक शब्द या प्रतीको द्वारा साधना के मार्ग की ओर संकेत किया है । कबीर में स्वाभाविक रहस्यवाद वहाँ है , जहाँ परमात्मा से सीधा सम्बन्ध स्थापित करती हुई आत्मा अलौकिक आनन्द का अनुभव करती है । आनन्द अनिर्वचनीय होता है । जिस स्थिति में पहुंचकर रहस्यवादी अपने आनन्द का आभास देता है , वह सामान्य व्यक्ति के लिये रहस्य ही बनी रहती है , कबीर ने इस स्थिति के लिये कहा है –
हेरत हेरत हे सखी , रह्या कबीर हिराय ।
बूंद समानी समद में , सो कत हेरी जाय ।।
आनन्द की अत्यधिक तीव्रता के समय का चित्र देखिये –
गगन गरजि बरसै अमी , बादल गहर गम्भीर ।
चहुँ दिसि दमकै दामिनी , भीजै दास कबीर ॥
जायसी का रहस्यवाद प्रेम – प्रधान है । जायसी का रहस्यवाद हृदय को प्रभावित करता हैं कबीर का बुद्धि हो । जायसी के रहस्यवाद में अनुभूति की तीव्रता अधिक है । प्रेम की पीर का जैसा मर्मस्पर्शी रूप जायसी के पद्मावत में मिलता है वैसा साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है । जायसी का रहस्यवाद “ सर्व खल्विदं ब्रह्म ” के सिद्धान्त पर आधारित था । वे जगत् के समस्त उपकरणों में उसी रहस्यमयी अव्यक्त शक्ति की ज्योति देखते थे-
रवि ससि नखत दिपहिं ओहि जोति ।
रतन पदारथ , मानिक मोती ।
जहँ जहें विहँसी सुभावहु हँसी ।
तहँ तहँ छिटकी जोति परगसी ।।
नयन जो देखा कमल भा , निर्मल नीर शरीर ।
हंसत जो देखा हंस भा दसन जोति नग हीर ।।
मलिक मुहम्मद जायसी के पश्चात् प्रेममार्गी शाखा के उस्मान , शेख , नबी , कासिम शाह और नूर मुहम्मद आदि कवियों में भी इसी प्रकार की रहस्य भावना दृष्टिगोचर होती है ।
आधुनिक काल में भी रहस्यवाद की उस पुरातन प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं , परन्तु अन्तर इतना है कि यह रहस्यवाद कबीर और जायसी की परम्परा से न आकर अंग्रेजी और बंगला साहित्य से आया । रवीन्द्रनाथ टैगोर की ‘ गीतांजली ‘ पर जब नोबेल पुरस्कार मिला तो हिन्दी में रहस्यवादी रचनायें लिखने की बाढ़ – सी आ गई । परन्तु समय के प्रवाह और आलोचकों के प्रवाह के कारण वे शीघ्र ही साहित्य क्षेत्र में लुप्त हो गए । अब केवल गिने – चुने कवि ही रहस्यवादी कवि समझे जाते हैं , जिनमें जयशंकर प्रसाद , पंत , निराला तथा महादेवी वर्मा आते हैं । इनमें प्रसाद और निराला का रहस्यवाद दार्शनिक रहस्यवाद कहा जाता है और महादेवी का भावात्मक । प्रसाद जी ने कामायनी के आशा सर्ग में विराट् प्रकृति के मूल में किसी परम रमणीय अव्यक्त सत्ता की कल्पना की है-
हे अनन्त रमणीय ! कौन तुम यह यह मैं कैसे कह सकता ।
कैसे हो ? क्या हो ? इसका तो , भार विचार न सह सकता ।
X X X X X X X X X X X X X X X
सिर नीचा कर जिसकी सत्ता , सब करते स्वीकार यहाँ । सदा मौन हो प्रवचन करते , जिसका , वह अस्तित्व कहाँ ?
पन्त जी प्रकृति के उपकरणों में किसी अदृश्य सत्ता के प्रबल आकर्षण का अनुभव करते हैं , जैसे उन्हें कोई आमन्त्रण दे रहा है-
न जाने नक्षत्रों से कौन , निमन्त्रण देता मुझको मौन ।।
पन्त जी का रहस्यवाद जिज्ञासांमूलक है , कभी – कभी अनन्त की जिज्ञासा में वे लिखते हैं-
जगती के अखिल चराचर , यों मौन मुग्ध जिसके बल ।।
महाकवि निराला में अव्यक्त सत्ता से सम्बन्ध स्थापित करने तथा उसमें अद्वैत की भावनाओं से मुक्त रहस्यवाद मिलता है । कबीर का निर्गुणवाद निराला जी में भी मिलता है-
पास हीरे , हीरे की खान खोजता कहाँ और नादान ।
X X X X X X X X X X X X X
एक स्थान पर वे स्वयं उस शक्ति से प्रश्न कर बैठते हैं
— कौन तम के पार ? रे कह ।
परिमल में संगृहीत ” तुम और मैं ” कविता में कवि ने उस अव्यक्त शक्ति से इसी प्रकार के अनेक सम्बन्ध स्थापित किये हैं –
तुम शुद्ध सच्चिदानन्द
और मैं मन मोहिनी , तुम प्राण मैं काया ।।
X X X X X X X X X X
तुम पथिक दूर के श्रान्त और मैं बाट जोहती आशा । तुम भव सागर दुस्तर , पार जाने की मैं अभिलाषा ।।
X X X X X X X X X X X X X
तुम रण ताण्डव उन्माद नृत्य , मैं मधुर – मधुर नुपूर ध्वनि ।
तुम नाद वेद ओंकार सार , मैं कवि शृंगार शिरोमणि ।।
महादेवी जी में भावात्मक रहस्यवाद की प्रधानता है । वे अव्यक्त के प्रति रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करने के लिए लालायित हो उठती हैं । एक स्थान पर उस अलौकिक सत्ता के मिलने की अनुमति के आनन्द का वर्णन करती हुए कहती हैं –
चित्रित तू , मैं हूँ रेखा क्रम , मधुर राग तू , मैं स्वर सरगम ।
तू असीम , मैं छाया का भ्रम , काया छाया मैं रहस्यमय ।।
प्रेयसि प्रियतम का परिचय का ,
तू मुझ में प्रिय फिर परिचय क्या ?
वे अपने लघुतम जीवन को उस असीम और अदृश्य का सुन्दर मन्दिर मान लेती हैं । उनकी श्वासें अपने प्रिय का अभिनन्दन करती हैं और नेत्र , पाद्य समर्पित करते हैं-
उस असीम का सुन्दर मन्दिर मेरा लघुतम जीवन रे । मेरी श्वासें करती रहती , नित प्रिय का अभिनन्दन रे ।। पद रज को धोने उमड़े आते , लोचन में जल कण रे । अक्षत पुलकित रोम मधुर , मेरी पीड़ा का चन्दन रे ।।
अपने रहस्यतम प्रियतम से मिलने के लिए अनेक बार श्रृंगार किया , प्रतीक्षा की , परन्तु सब व्यर्थ । सहसा वे कह उठी , विरहानुभूति का कैसा सुन्दर चित्रण है-
गाता प्राणों का तार – तार अनुराग भरा उन्माद राग |
हँस उठते जल से आर्द्र नयन धुल जाता ओठों से विषाद |
छा जाता जीवन में बसन्त लुट जाता चिर संचित विराग , आँखें देतीं सर्वस्व वार ।
श्रृंगार किया , परन्तु श्रृंगार देखकर भी वह रहस्यमय प्रसन्न न हुआ –
शशि के दर्पण में देख – देख मैंने सुलझाये तिमिर केश ।
गूंथे चुन तारक पारिजात अवगुंठन कर किरणे अशेष ।
क्यों आज रिझा पाया उसको मेरा अभिनय श्रृंगार नहीं ।
महादेवी अपने प्रिय को चिरन्तन स्वीकार करके अपने को क्षण – क्षण नवीन सुहागिनी अनुभव करती हैं –
प्रिय चिरन्तन हैं सजनि , क्षण – क्षण नवीन सुहागिनी मैं ।
परन्तु उस चिरन्तन प्रियतम का सानिध्य जीवन में कब हो पाया , जब हुआ भी तो लज्जा के कारण कुछ कह नहीं सकी-
इन ललचाई पलकों पर , पहरा जब था वीड़ा का ,
साम्राज्य मुझे दे डाला उस चिन्तन ने पीड़ा का ॥
प्रियतम को पत्र लिखने की भी आशा है , परन्तु उस अव्यक्त प्रियतम तक संदेश को कैसे भेजें-
पल पल के उड़ते पृष्ठों पर सुधि से लिख श्वासों के अक्षर ।
मैं अपने ही बेसुधपन में , लिखती हूँ कुछ , कुछ लिख जाती ।।
विरह की अनुभूतियों के चित्रण में महादेवी जी मीरा के अधिक निकट पहुँच जाती हैं । उनके काव्य में अनन्त विरह है । यह भावना ‘ विरह का जलजात जीवन ‘ , ‘ मैं नीर भरी दुःख की बदली ‘ या ‘ प्रिय सांध्य गगन मेरा जीवन ‘ आदि पंक्तियों में स्पष्ट हुई हैं । निःसन्देह रमणीय रहस्यवादी काव्य का महादेवी जी प्रतिनिधित्व करती हैं । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने महादेवी जी के विषय में लिखा है , “ छायावादी कहे जाने वाले कवियों में महादेवी जी ही रहस्यवाद के भीतर रही हैं । अज्ञात प्रियतम के लिए वेदना ही उनके हृदय का भाव केन्द्र है , जिससे अनेक प्रकार की भावनायें छूट – छूट कर झलक मारती हैं । ”
सारांश यह है कि प्राचीन काल में कवियों ने आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध में लिखा है और वैसे ही उन्होंने साधना भी की , परन्तु आधुनिक काल के रहस्यमयी कवि साधना और सच्ची अनुभूति से कोसों दूर हैं । उनके मन में कुछ है , वाणी में कुछ और लेखनी कुछ और ही लिखती है । जब तक आन्तरिक और बाह्य भावनाओं का सामंजस्य न हो तब तक कवितायें पाठकों को प्रभावित नहीं कर सकतीं ।
निराला और महादेवी जी के अनुकरण में अनेक कवि कुछ कठिन शब्दों के आवरण में ऐसा ही कह जाते हैं , जिनसे उनकी अतृप्त वासना ही परिलक्षित होती है । न सभी प्रसाद और कबीर बन सकते हैं , न महादेवी और निराला । अतृप्ति की दशा कविता लिखने की प्रेरणा दे सकती है , परन्तु उनको आत्मा – परमात्मा के आवरण में आवृत्त करके रहस्यमय अर्थ ढूँढना कोरी भावुकता है । रहस्यमयी रचनाओं का युग समाप्त – सा होता जा रहा है , नये वाद और नई प्रवृत्तियाँ साहित्य के क्षेत्र में आ चुकी हैं ।||