12-sociology

Bihar board notes for class 12th sociology

Bihar board notes for class 12th sociology

Bihar board notes for class 12th sociology

सामाजिक आंदोलन

  (Social Movement).

   स्मरणीय तथ्य

सामाजिक आंदोलन : सामाजिक आंदोलन एक सामान्य अभिमुखता या किसी परिवर्तन को लाने का तरीका है।

*सत्याग्रह : अहिंसा के आधार पर चलाया गया एक आंदोलन जिसे गाँधी जी ने चलाया।

*सुधारवादी : परंपरागत मान्यताओं में सुधार हेतु आंदोलन। एन.सी.ई.आर.टी. पाठ्यपुस्तक एवं अन्य परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

  (Objective Questions). 

  1. निम्न में कौन मंडल आयोग के अध्यक्ष थे?

[M.Q.2009A]

(क) बी.पी, मंडल

(ख) बी. बी. मंडल

(ग) मँगनीलाल मंडल

(घ) इनमें कोई नहीं

उत्तर-(क)

  1. पिछड़ों के लिए बनाया गया प्रथम आयोग के अध्यक्ष कौन थे ?[M.Q.2009A] 

(क) कर्पूरी ठाकुर

(ख) मुंगेरी लाल नंदा

(ग) बी. पी. मंडल

(घ) काका कालेलकर

उत्तर-(घ) 

  1. चिपको आंदोलन किस प्रकार का आंदोलन है ?

[M.Q.2009A]

(क) छात्र आंदोलन

(ख) पर्यावरण आंदोलन

(ग) जनजातीय आंदोलन

(घ) किसान आंदोलन

उत्तर-(ख)

  1. मानसरोवर बांध के खिलाफ आंदोलन का नेतृत्व कौन प्रदान कर सकता है ?

[M.Q.2009A]

(क) सुन्दर लाल बहुगुणा

(ख) अरुधति राय

(ग) मेधा पाटेकर

(घ) सुनीता नारायण उत्तर-(ग) 5. चिपको आंदोलन की अगुआई किसने की ? .

[M.Q.2009A]

(क) इंद्रेश चिपकलानी

(ख) मेधा पाटेकर

(ग) सुन्दरलाल बहुगुणा

(घ) स्वामी अग्निवेश

उत्तर-(ग) 

  1. स्वतंत्र भारत में महिला आंदोलन को मुखर स्वर किसने प्रदान किया ?

[M.Q.2009A]

(क) सरोजनी नायडू

(ख) मोहिनी गिरि

(ग) मायावती

(घ) अरुंधति राय

उत्तर-(ख) 

  1. पर्यावरण में सबसे ज्यादा कौन गैस है ? [M.0.2009A] 

(क) ऑक्सीजन

(ख) नाइट्रोजन

(घ) अमोनिया

उत्तर-(ख) 

  1. इनमें कौन किसान नेता माने जाते हैं ?

[M.Q.2009A]

(क) स्वामी सहजानंद सरस्वती

(ख) जयप्रकाश नारायण

(ग) लाला लाजपत राय

(घ) इनमें कोई नहीं

उत्तर-(क)

  1. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना कब हुई ?

[M.Q.2009 A]

(क) दिसम्बर, 1885 में

(ख) दिसम्बर, 1857 में

(ग) दिसम्बर, 1847 में

(घ) दिसम्बर, 1817 में .

उत्तर-(क) 

  1. भारत छोड़ो आंदालन का आरंभ कब से हुआ ?

[M.Q.2009A]

(क) 9 अगस्त, 1917 से

(ख) 9 अगस्त, 1939 से

(ग) 9 अगस्त, 1942 से

(घ) 9 अगस्त, 1947 से

उत्तर-(ग) 

  1. स्वतः स्फूर्त जनाक्रोश को

(क) सामाजिक आंदोलन कहा जाता है

(ख) सामाजिक आंदोलन नहीं कहा जाता है

(ग) परिस्थिति विशेष में सामाजिक आंदोलन कहा जाता है

(घ) उपर्युक्त कोई नहीं

  1. निम्नलिखित में कौन सामाजिक आंदोलन का उदाहरण है ? [M.Q.2009A]

(क) भारत में स्वतंत्रता आंदोलन

(ख) झारखंड आंदोलन

(ग) दोनों

(घ) इनमें कोई नहीं

उत्तर-(ग) 

  1. सम्पूर्ण पर्यावरण का अर्थ है

[M.Q.2009A]

(क) प्राकृतिक पर्यावरण

(ख) सामाजिक पर्यावरण

(ग) सांस्कृतिक पर्यावरण

(घ) उपर्युक्त सभी .

उत्तर-(घ) 

  1. किस आयोग की संस्तुति के आधार पर अन्य पिछड़े वर्गों को सरकारी सेवाओं में 27% आरक्षण दिया गया ?

[M.Q.2009A]

(क) प्रसाद आयोग

(ख) अयंगर आयोग

(ग) काका कालेलकर आयोग

(घ) मंडल आयोग

उत्तर–(घ).

 

.

  1. संथाल विद्रोह का नेतृत्व किसने किया था ?

[M.Q.2009 A]

(क) जतरा भगत

(ख) बिरसा मुंडा

(ग) सिद्धू कान्हू

(घ) करिया मुंडा

उत्तर-(ख) 

16, संयुक्त राष्ट्र ने किस वर्ष को अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के रूप में घोषित किया?

[M.Q.2009 A]

(क) 2001

(ख) 1975

(ग) 1985

(घ) 1980

उत्तर-(ग)

  1. चिपको आंदोलन किससे संबंधित है ?

[M.Q.2009A]

(क) पशुओं की रक्षा

(ख) जल की रक्षा

(ग) वृक्षों की रक्षा

(घ) खनिजों की रक्षा

उत्तर-(ग)

  1. अहिंसा के आधार पर चलाया गया एक आंदोलन जिसे गाँधीजी ने चलाया, उसका नाम है

(क) तिभागा आंदोलन

(ख) ट्रेड यूनियन आंदोलन

(ग) सत्याग्रह आंदोलन

(घ) जन आंदोलन

उत्तर-(ग) 

  1. चिपको आंदोलन चलाया गया

(क) 1973 में

(ख) 1970 में

(ग) 1983 में

(घ) 1999 में

उत्तर-(क)

  1. “ताड़ी की बिक्री बंद करो” यह आंदोलन किस राज्य में शुरू हुआ ? 

(क) बिहार

(ख) झारखंड

(ग) गुजरात

(घ) आंध्र प्रदेश

उत्तर-(घ) 

  1. दलित-पैंथर्स की स्थापना कब की गई? 

(क) 1972 में

(ख) 1980 में

(ग) 1970 में

(घ) 1983 में

उत्तर-(क) 

  1. भारत सरकार ने महिला सशक्तीकरण के लिए राष्ट्रीय नीति की घोषणा कब की? 

(क) 2003 में

(ख) 2005 में

(ग) 2001 में

(घ) 2002 में

उत्तर-(ग) 

(ख) रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए :

(1) ‘राइन्वेटिंग रिवोल्यूशन’ नामक पुस्तक …………. ने लिखा है।

(2) परंपरागत मान्यताओं में सुधार हेतु चलाया गया आंदोलन ……… कहलाता है।

(3) ‘चिपको आंदोलन’ भारत के …………. आंदोलन के रूप में विश्व प्रसिद्ध हुआ है।

(4) दलित-पैंथर्स की स्थापना …………. में हुआ।

उत्तर-(1) गेल ऑमबेट, (2) सुधारवादी, (3) पर्यावरण, (4) महाराष्ट्र! 

(ग) निम्नलिखित कथनों में सत्य एवं असत्य बताइये :

(1) काका कालेलकर आयोग का गठन सन् 1953 में किया गया।

(2) सन् 1963 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि कुल मिलाकर आरक्षण की सीमा 50%

से कम हो गया।

(3) पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों में 33 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रावधान है। (4) मंडल आयोग की रिपोर्ट तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री वी० पी० सिंह के समय लागू की

गई थी।

उत्तर-(1) सत्य, (2) सत्य, (3) असत्य, (4) सत्य।

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

(Very Short Answer Type Questions) 

प्रश्न 1. किसान आंदोलन व श्रमिक आंदोलन का उद्देश्य क्या था ?

उत्तर-किसान आंदोलन और श्रमिक आंदोलन का मुख्य उद्देश्य अवैध वसूली और शोषण के विरुद्ध आवाज उठाना रहा था।

प्रश्न 2. बिहार में किसान आंदोलन के विषय में आप क्या जानते हैं ?

उत्तर-सन् 1919-20 में उत्तरी बिहार में दरभंगा राज के व्यापक क्षेत्र में हुए किसान आंदोलन का नेतृत्व स्वामी विद्यानंद ने किया। यह आंदोलन दरभंगा, मुजफ्फरपुर, भागलपुर, पूर्णिया और मुंगेर जिलों में फैल गया। दरभंगा राज पुराने चारागाहों का सौदा और पेड़ों पर नया दावा कर रहा था। महँगाई भी बढ़ रही थीं। राज के ‘अमला’ या एजेंट आमतौर पर छोटे जमींदार थे। आर्थिक दबाव के कारण ये और भी दमनकारी हो गए थे। इस समय किसान आंदोलन मुख्यतः ‘अमला’ वसूली और स्वामित्व अधिकारों पर रोक लगाने की मांग कर रहे थे।

प्रश्न 3. ट्रेड यूनियन आंदोलन के विषय में लघु टिप्पणी कीजिए।

उत्तर-ट्रेड यूनियन आंदोलन : भारत में ट्रेड यूनियन की जड़ें धीरे-धीर जमी हैं। सन् 1919-20 में कानपुर, कोलकात्ता, मुंबई, मद्रास, जमशेदपुर जैसे कई औद्योगिक कन्द्रों में अनेक हड़तालें हुईं। कम्युनिस्टों ने ट्रेड यूनियन आंदोलन में अपना प्रभाव बढ़ाया और फरवरी एवं सितंबर 1927 में खड़गपुर में रेलवे वर्कशॉप मजदूरों की हड़ताल आयोजित करने में निर्णायक भूमिका निभाई। सन् 1928 तक कम्युनिस्ट नेतृत्व वाली गिरनी कामगार यूनियन बहुत सशक्त हो गई।

प्रश्न 4. तेभागा आंदोलन के विषय में लघु टिप्पणी कीजिए।

उत्तर-जब सन् 1946-47 के शीतकाल में बंगाल में एक आक्रामक आंदोलन का उभार आया। प्रांतीय किसान सभा ने फ्लाउड कमीशन की सिफारिशों के अनुसार, ‘तेभागा’ लागू कराने के लिए जनआंदोलन का आह्वान किया। ‘तेभागा’ से आशय है-बटाईदार के लिए उपज का दो-तिहाई, न कि आधा या इससे भी कम। कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं जिनमें कई शहरी छात्र थे, गाँवों में पहुँचकर बटाईदारों को संगठित किया।

नवम्बर 1946 से आंदोलन मजबूत होता गया और इसका केन्द्र-बिन्दु उत्तरी बंगाल बन गया, पर आंदोलन का दमन भी बढ़ता गया। साथ ही आंदोलन के तहत आदिवासी तत्वों और मझोले, गरीब किसानों के आंतरिक तनावों के कारण संघर्ष की कुछ सामाजिक सीमाएँ भी बनती गईं। इस सब कारणों से आंदोलन का ह्रास हो गया।

प्रश्न 5. श्रमजीवी वर्ग का उदय कैसे हुआ ?

उत्तर-उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दर्शक से बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तब ब्रिटिश शासन ने भारतीय समाज एवं अर्थव्यवस्था में काफी परिवर्तन ला दिया था। ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासकों के औद्योगिक स्वार्थों की सिद्धि एवं उनके पूँजी निवेश के साधनों के माध्यम के रूप में, भारत में रेलवे, उद्योगों, चाय बगानों, खानों आदि का विकास हुआ था जिसने अनिवार्यतः श्रमजीवी वर्ग को जन्म दिया। प्रथम विश्व युद्ध के पहले के मजदूर आंदोलन पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि नवजात मजदूर वर्ग ने शोषण एवं उत्पीड़न के विरुद्ध आवाज उठाना और संघर्ष करना उन्नीसवीं शताब्दी में ही प्रारंभ कर दिया था। बीसवीं शताब्दी में यह आवाज संघर्ष में बदल गई जिसके उदाहरण 1907 की रेलवे हड़ताल और 1908 की मुंबई हड़ताल जैसी बड़ी लड़ाइयों में मिलते हैं। सन् 1907 में सारे देश में रेलवे हड़ताल हुई थी जिसके माध्यम से मजदूर अपना वेतन बढ़वाने एवं मालिकों के अत्याचार कुछ कम कराने में सफल हुए थे।

प्रश्न 6. जन आंदोलन की प्रकृति पर अति लघु टिप्पणी लिखिए।

उत्तर-जन आंदोलन वे आंदोलन होते हैं जो प्रायः समाज के संदर्भ या श्रेणी के क्षेत्रीय अथवा स्थानीय हितों, माँगों और समस्याओं से प्रेरित होकर प्रायः लोकतांत्रिक तरीके से चलाए जाते हैं। उदाहरण के लिए 1973 में चलाया गया चिपको आंदोलन, भारतीय किसान यूनियन द्वारा चलाया गया आंदोलन, दलित पैंथर्स आंदोलन, आंध्र प्रदेश में ताड़ी विरोधी आंदोलन, समय-समय पर चलाए गए छात्र आंदोलन, नारी मुक्ति और सशक्तिकरण समर्थित आंदोलन, नर्मदा बचाओ आंदोलन आदि जन आंदोलन के उदाहरण हैं।

प्रश्न 7. उत्तराखंड के कुछ गाँवों में जंगलों की कटाई के विरोध में किस प्रकार एक प्रसिद्ध आंदोलन का रूप ग्रहण किया ?

उत्तर-1973 में पेड़ों को बचाने के लिए सामूहिक कार्यवाही की एक असाधारण घटना ने वर्तमान उत्तराखंड राज्य के स्त्री-पुरुषों की एकजुटता को प्रदर्शित कर वनों की व्यावसायिक कटाई का घोर विरोध किया। इस विरोध का मूल कारण था कि सरकार ने जंगलों की कटाई के लिए अनुमति दी थी। गाँव के लोगों ने (विशेषकर महिलाओं) अपने विरोध को जताने के लिए एक नयी तरकीब अपनायी। इन लोगों ने पेड़ों को अपनी बाँहों में घेर लिया ताकि उन्हें कटने से बचाया जा सके। यह विरोध आगामी दिनों में भारत के पर्यावरण आंदोलन के रूप में परिणत हुआ और ‘चिपको-आंदोलन’ के नाम से विश्वप्रसिद्ध हुआ।

प्रश्न 8. नामदेव ढसाल कौन था? उनके दलित पैंथर्स समर्थक (पक्षधर) विचारों को , उनकी एक मराठी कविता के आधार पर संक्षेप में लिखिए।

उत्तर-नामदेव ढसाल मराठी के प्रसिद्ध कवि थे। उन्होंने अनेक रचनाएँ लिखीं जिनमें से कुछ प्रसिद्ध अंधेरे में पदयात्रा और सूरजमुखी, अशीशी वाला फकीर थी।

विचार (Thoughts): (i) नामदेव दलितों के प्रति सच्ची हमदर्दी रखते थे। वे यह मानते थे कि वह सदियों तक दूषित सामाजिक अथवा जाति प्रथा के कारण कष्ट उठाते रहे हैं।

(i) वे यह मानते थे कि अब अन्याय रूपी सामाजिक व्यवस्था के अंधकार का अंत और सामाजिक समानता और न्यायरूपी सूरज के उदय होने का समय आ गया है। –

(iii) नामदेव यह मानते थे कि दलित पैंथर्स लोग अपने हक और न्याय के लिए खुद खड़े होंगे और समाज को बदलेंगे। वे प्रगति करके आकाश को छू लेंगे। वह सूरजमुखी की भाँति प्रगति, न्याय और समानता की ओर अपना रख करेंगे।

प्रश्न 9. महिला राष्ट्रीय आयाग का गठन कब हुआ? इसके अंतर्गत कौन-कौन से उपयों को सम्मिलित किया गया जिनके द्वारा महिलाओं के अधिकारों की रक्षा हो?

उत्तर-महिलाओं के अधिकार और कानूनी अधिकारों की सुरक्षा के लिए 1990 में संसद. में महिलाओं के लिए गष्ट्रीय आयोग की स्थापना के लिए कानून बनाया जो 31 जनवरी, 1992 को अस्तित्व में आया। इसके अंतर्गत कानून की समीक्षा, अत्याचारों की विशिष्ट व्यक्तिगत शिकायतों में हस्तक्षेप और जहाँ कहीं भी उपयुक्त और संभव हो महिलाओं के हितों की रक्षा के उपाय सम्मिलित हैं।

प्रश्न 10. स्वतंत्रता के बाद महिलाओं की स्थिति में क्या परिवर्तन आया है ?

उत्तर-स्वतंत्रता के बाद महिलाओं की स्थिति को असमानता से समानता तक लाने के जागरूक प्रयास होते रहे हैं। वर्तमान काल में महिलाओं को पुरुषों के साथ समानता का दर्जा प्राप्त है। महिलाएँ किसी भी प्रकार की शिक्षा या प्रशिक्षण को चुनने के लिए स्वतंत्र हैं परंतु ग्रामीण समाज में अभी भी महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है जिसे दूर किया जाना चाहिए। यद्यपि कानूनी तौर पर महिलाएं पुरुषों के समान अधिकार रखती हैं परंतु आदि काल से चली आ रही पुरुष प्रधान व्यवस्था में व्यावहारिक रूप में महिलाओं के साथ अभी भी भेदभाव किया जाता है।

प्रश्न 11. शिक्षा और रोजगार में पुरुषों और महिलाओं की स्थिति का अंतर बताइए।

उत्तर-पुरुषों और महिलाओं की स्थिति में शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में अंतर है। स्त्री साक्षरता 2001 में 54.16 प्रतिशत थी जबकि पुरुषों की साक्षरता 75.85 प्रतिशत थी। शिक्षा के अभाव के कारण रोजगार, प्रशिक्षण और स्वास्थ्य सुविधाओं के उपयोग जैसे क्षेत्रों में महिलाओं की सफलता सीमित है।

प्रश्न 12. मई 1961 में केन्द्र सरकार के काका कालेलकर आयोग की सिफारिशें अस्वीकार करने के बाद राज्य सरकारों को क्या परामर्श दिया था ?

उत्तर-केन्द्र सरकार ने मई 1961 में अन्य पिछड़ी जातियों की अखिल भारतीय सूची को समाप्त करते हुए अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के अतिरिक्त किसी भी जाति को आरक्षण न देने का निर्णय लिया। अगस्त 1961 में इसने राज्य सरकारों को परामर्श दिया कि यदि वे पिछड़ी

जातियों के निर्धारण की कोई कसौटी तय नहीं कर पायी हैं तो इसके लिए जाति के बजाय आर्थिक आधार को अपनाना अच्छा होगा।

प्रश्न 13. बाबा साहब अंबेडकर पर अति संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

उत्तर-डॉ. भीमराव अंबेडकर : इनका जन्म 1891 में एक महर खानदान में हुआ था। इन्होंने इंग्लैंड एवं अमेरिका से वकालत की शिक्षा ग्रहण की थी। 1923 में इन्होंने वकालत प्रारंभ की। 1926 से 1934 तक ये मुंबई विधान परिषद् के सदस्य रहे। इन्होंने गोलमेज सम्मेलन में भी भाग लिया। 1942 में यह वायसराय की कार्यकारिणी परिषद् के सदस्य नियुक्त किए गए। इन्हें भारत की संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया। इन्हें आजाद भारत का न्यायमंत्री भी बनाया गया। इन्होंने हिन्दू कोड बिल पास करवाया एवं संविधान में हरिजनों को आरक्षण दिलवाया। 1956 में इनका निधन हो गया।

प्रश्न 14. मंडल आयोग की महत्वपूर्ण सिफारिशों का उल्लेख कीजिए।

उत्तर-जनता पार्टी द्वारा बी. वी. मंडल की अध्यक्षता में आयोग की 1978 में ली गई तीन प्रमुख सिफारिशें निम्नलिखित हैं :

(i) अन्य पिछड़ी जातियों (Other backward class = OBCs) को सरकारी सेवाओं में 27 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया जाए।

(ii) केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों द्वारा शासित वैज्ञानिक, तकनीकी तथा व्यावसायिक संस्थाओं में अन्य पिछड़ी जातियों (OBCs) के लिए 27% आरक्षण निश्चित किया जाए।

(iii) अन्य पिछड़ी जातियों को आर्थिक सहयोग के लिए सरकार एक पृथक् आर्थिक संस्था, को चाहे तो निश्चित करे।

प्रश्न 15. किन्हीं उन प्रमुख चार नेताओं का उल्लेख कीजिए जिन्होंने समाज के दलितों के कल्याण के लिए प्रयास किए।

उत्तर-(i) ज्योतिराव गोबिंद राव फुले ने भारतीय समाज के तथाकथित पिछड़े वर्ग के कल्याण के लिए आवाज उठाई, संगठन बनाए और लेख लिखे। वे ब्राह्मणवाद के कट्टर विरोधी थे।

(ii) मोहनदास कर्मचंद गाँधी ने हरिजन संघ, हरिजन नाम से पत्रिका, छुआछूत उन्मूलन और तथाकथित हरिजनों (जिन्हें प्रायः दलित कहा जाना अधिक सही माना जाता है) के कल्याण के लिए बहुत प्रयास किया।

(iii) डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अपने जीवन भर दलितों के उत्थान के लिए कार्य किए, संगठन बनाए और भारतीय संविधान की रचना के दौरान छुआछूत उन्मूलन के लिए व्यवस्था कराई। किसी भी रूप में छुआछूत का व्यवहार करने वाले लोगों को दोषी मानकर कानून के अंतर्गत कठोर दंड दिए जाने की व्यवस्था कराई।

(v) कांशीराम ने डॉ. भीमराव अंबेडकर जैसे महान् समाज-सुधारक को अपना आदर्श और प्रेरणास्रोत मानकर बहुजन समाज पार्टी की रचना की। यह दल उनके संपूर्ण जीवन में कार्यरत रहा। आज भी यह दल कुछ परिवर्तित रूप में तथाकथित दलितों के कल्याण के लिए कार्यरत है। .

प्रश्न 16. कृषक एवं नव किसान आंदोलनों के मध्य अंतर बताइए।

(NCERTT.B. Q.5)

उत्तर-कृषक आंदोलन के अंतर्गत पुराने कृषक भूमि एवं हदबंदी कानूनों को लेकर आंदोलन करते थे। ये सरकार की नीतियों के विरोध में आंदोलन थे। जबकि नव किसान आंदोलन कृषि में सब्सिडी आदि के लिए होते हैं। ये आंदोलन किसानों के व्यक्तिगत स्वार्थ से जुड़े होते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न

(Short Answer Type Questions) 

प्रश्न 1. संयुक्त प्रांत के लिए सन् 1920-21 के किसान आंदोलन पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।

उत्तर-संयुक्त प्रांत के अवध क्षेत्र में प्रतापगढ़, रायबरेली, सुल्तानपुर और फैजाबाद जिलों में 1920–21 में जोरदार किसान आंदोलन हुए।

सन् 1918 में उत्तर प्रदेश किसान सभा का आंदोलन एक शांतिपूर्ण आंदोलन के रूप में शुरू हुआ। इस आंदोलन में प्रतापगढ़ जिले के किसानों ने बड़ी संख्या में भागीदारी की। किसानों को बाबा रामचंद्र जैसा सक्षम नेता मिला। उन्होंने किसानों को उनकी उचित माँगों के लिए संगठित किया। बाबा रामचन्द्र ने किसानों की एकजुटता के आह्वान के लिए रामायण से संबंधित धार्मिक मिथकों और जातीय मुहावरों का व्यापक प्रयोग किया लेकिन बाबा रामचन्द्र की सफलता का यही एकमात्र कारण नहीं था। सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का भी महत्वपूर्ण योगदान था। बड़े पैमाने पर रैयतों को भूस्वामित्व प्राप्त नहीं था जो मनमानी वसूली, विस्थापन और बढ़ते राजस्व के शिकार थे।

इनकी माँगें बहुत सामान्य थीं-‘सेस’ और ‘बेगार’ की समाप्ति, ‘बेदखल की गई’ जमीन पर खेती की मनाही, ‘नाई-धोबी बंद’ द्वारा दमनकारी भूस्वामियों का बहिष्कार। सन् 1920 के अंत तक शांतिपूर्ण किसान आंदोलन अवध के तीन अन्य जिलों में फैल गया। सितंबर, 1920 में किसान आंदोलन की ताकत उभरकर सामने आई जब प्रतापगढ़ में किसानों के एक शांतिपूर्ण, पर विशाल प्रदर्शन से बाबा रामचन्द्र की रिहाई संभव हो गई।

पर वास्तव में जनवरी, 1921 में यह आंदोलन चरम सीमा पर आया। जनवरी और मार्च, 1921 के बीच में रायबरेली, प्रतापगढ़, फैजाबाद और सुल्तानपुर में व्यापक पैमाने पर किसान विद्रोह हुए। कई क्षेत्रों में बाजार लूटना, ताल्लुकेदार-सूदखोर पर हमला, पुलिस से टकराव जैसे आकामक कार्यक्रम हुए और यह सभी गांधी के नाम पर हुआ। मार्च 1921 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन गवर्नर बटलर ने इस संबंध में अपना मत इस प्रकार रखा, ‘दक्षिणी अवध के तीन जिलों में हमने कांति जैसी स्थितियों की शुरुआत देखी।’ पर अप्रैल, 1921 में यह आंदोलन सरकारी दमन और कांग्रेस की अवरोधकारी भूमिका के कारण नष्टप्राय हो गया।

इस साल के अंत में अवध में किसान आंदोलन में एक बार फिर उभार आया, जैसे यह ‘अपनी राख से ही चिनगारी बनकर सामने आया हो। अब हरदोई, बाराबंकी, बहराईच, सीतापुर

और लखनऊ आदि अवध के उत्तरी जिले आंदोलन के केन्द्र बनए गए। अपने रूप में यह एका’ आंदोलन कहलाया। इसका प्रेरणा-स्रोत मदारी पासी नामक एक क्रांतिकारी किसान नेता था। आंदोलन की मुख्य माँग थी-बढ़ती महँगाई के कारण उत्पाद, राजस्व (बटाई) का नकद में रूपांतरण। पर सरकारी दमन से यह आंदोलन भी 1922 की गर्मियों तक समाप्त हो गया।

प्रश्न 2. एक ऐसे समाज की कल्पना कीजिए जहाँ कोई सामाजिक आंदोलन न हुआ हो, चर्चा करें। ऐसे समाज की कल्पना आप कैसे कर सकते हैं ? 

इसका भी आप वर्णन कर सकते हैं।

(NCERT T.B.Q.1)

नोट : अध्यापक की सहायता से छात्र स्वयं करें।

प्रश्न 3. बिहार में किसान आंदोलन का प्रारंभ किस प्रकार हुआ?

उत्तर-बिहार : स्टीफन हेनींगम ने 1919-20 में उत्तरी बिहार में दरभंगा राज के व्यापक क्षेत्र में हुए शक्तिशाली किसान आंदोलन का विश्लेषण किया है। यह आंदोलन स्वामी विद्यानंद के नेतृत्व में विकसित हुआ था और दरभंगा, मुजफ्फरपुर, भागलपुर, पूर्णिया और मुंगेर जिलों में फैल गया। दरभंगा राज पुराने चारागाहों का सौदा और पेड़ों पर नया दावा कर रहा था। महँगाई भी बढ़ रही थी। राज के ‘अमला’ या एजेंट साधारणतया छोटे जमींदार थे। आर्थिक दबावों के कारण ये और भी दमनकारी हो गए थे। इस समय किसान आंदोलन मुख्यतः ‘अमला’ वसूली

और स्वामित्व अधिकारों पर हमले पर रोक लगाने की माँग कर रहे थे। _

ये आंदोलन दो-एक घटनाओं को छोड़कर आमतौर पर शांतिपूर्ण और सीमित प्रकृति के थे, पर जनवरी 1920 में दरभंगा राज के सुगठित-सक्षम तंत्र ने अपेक्षाकृत संपन्न रैयतों को कुछ

 

रियायतें देकर आंदोलन शांत कर दिया। विद्यानंद स्वयं 1920 के अंत में चुनावी राजनीति की ओर मुड़ गए। दरभंगा राज को कांग्रेस के बिहार नेतृत्व से काफी सहायता मिली। विद्यानंद ने कांग्रेस’ के बिहार नेतृत्व से सहयोग की निरंतर अपील की, किन्तु उन्होंने इस अपील को ठुकरा दिया। ___

सन् 1929 में बिहार किसान सभा की स्थापना हुई। आरंभ में इसकी गतिविधियाँ बेहद सीमित थीं पर बाद में यह स्वामी सहजानंद सरस्वती के गतिशील नेतृत्व में क्रांतिकारी आधारों पर सकिय हुई। सहजानंद कांग्रेस की राजनीति से भी संबंधित थे लेकिन उनका आंदोलन सन् 1934 के बाद अपने चरम उभार पर आया जब सविनय अवज्ञा आंदोलन को समाप्त हुए काफी समय गुजर गया था। __प्रारंभ में सन् 1929 के दौरान स्वामी सहजानंद सरस्वती ने भी एक सुधारवादी के रूप में किसान आंदोलन की परिकल्पना की। यह सुधारवादी आंदोलन भी राष्ट्रवदी आंदोलन की मुख्यधारा में सम्मिलित नहीं रह सका। सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान किसानों की समस्याओं के प्रति कांग्रेस नेतृत्व की गहरी उदासीनता से स्वामी सहजानंद का गंभीर मोहभंग हुआ। स्वामी सहजानंद धीरे-धीरे एक क्रांतिकारी किसान नेता बनकर उभरे। उनका कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं से नजदीकी संपर्क स्थापित हुआ। उन्होंने 1934 में, जमींदारी प्रथा के उन्मूलन के बारे में सोचना प्रारंभ कर दिया। इसलिए बिहार प्रदेश किसान सभा के घोषणा-पत्र में (11 जुलाई, 1936) किसानों की कुछ ‘बुनियादी’ माँगें दर्ज की गईं। इसमें जमींदारी प्रथा के उन्मूलन तथा किसानों के जमीन पर मालिकाना हक की व्यवस्था, भूमिहीनों के लिए रोजगार जैसी माँगें उल्लेखनीय थीं।

यह भी उल्लेखनीय है कि बिहार में सन् 1931 में कांग्रेस नेतृत्व में एक मजबूत किसान आंदोलन का उभार भी आया। सन् 1937-38 में ‘बकाश्त आंदोलन’ के नाम से एक अन्य लोकप्रिय आंदोलन हुआ। किसानों ने बेदखली के विरुद्ध संघर्ष किया। कांग्रेस का रुख अस्पष्ट-सा रहा।

प्रश्न. 4. आंध्र प्रदेश में किसान आंदोलन के विषय में आप क्या जानते हैं ?

उत्तर-आदिवासियों के निरंतर जुझारू संघर्ष का सबसे अच्छा उदाहरण आंध्रप्रदेश में गोदावरी के उत्तरी क्षेत्र में मिलता है जो मुख्यत: आदिवासी बहुल क्षेत्र था। यहाँ अगस्त, 1922 से मई, 1924 के बीच अल्लूरी सीताराम राजू के नेतृत्व में गुरिल्ला युद्ध-सा होता रहा। आंदोलन का नायक राजू आंध्र में लोक कथाओं का पात्र बन गया।

यह आंदोलन विभिन्न तत्वों के संयोग से विकसित हुआ और आदिम विद्रोह आधुनिक राष्ट्रवाद से जुड़ गया। राजू ने अपने को ‘बुलेट प्रूफ’ होने का दावा किया, इसके साथ ही उसने ‘कल्कि अवतार’ के भी अनिवार्य आगमन की घोषणा की। राजू ने गाँधीजी की प्रशंसा की, पर उसने हिंसा को भी अनिवार्य बताया। उसके नेतृत्व में आदिवासियों में अंग्रेजों और भारतीयों के बीच अंतर करने की उल्लेखनीय प्रवृत्ति दिखाई दी। आदिवासियों की समस्याएँ-शिकायतें वहीं थीं जो इस क्षेत्र में पहले भी कई आंदोलनों का कारण बनी थीं। सूदखोरी, वन अधिकारों पर नियंत्रण, सरकारी कर्मचारियों द्वारा आदिवासियों से बेगारी करवाना आदि असंतोष के मुख्य कारण थे।

आंदोलन में गुरिल्ला युद्ध की कार्यनीति का सक्षमता से उपयोग किया गया। इस आंदोलन का जनाधार भी व्यापक था। मालाबार पुलिस और असम राइफल्स ने दो साल में और 15 लाख रुपये व्यय करके आंदोलन का दमन किया। __सन् 1930 के दौरान कृष्णा जिले में दुग्गीराला बलरामकृष्णैय्या जैसे स्थानीय नेताओं के नेतृत्व में लगानबंदी अभियान छेड़ने के लिए कांग्रेस पर दबाव डाला गया। सन् 1931 में लेल्लौर में चराई शुल्क के विरुद्ध वन सत्याग्रह हुआ। इस शुल्क के जरिए जमींदार किसानों के चारे और लकड़ी के पारंपरिक अधिकारों में कटौती कर रहा था। आंदोलन का नेतृत्व एन. वी. रामानायडू

और एन. जी. रंगा ने किया। सितंबर, 1931 में कृष्णा और गुंटूर जिलों में महाजन विरोधी दंगों का उभार आया। इसमें काफी संख्या में जनता सम्मिलित हुई।

प्रश्न 5. तेलंगाना आंदोलन पर टिप्पणी कीजिए।

उत्तर-तेलंगाना का किसान संघर्ष कई मायनों में पूर्ववर्ती संघर्षों की तुलना में काफी बढ़ा-चढ़ा रहा। जुलाई, 1946 से अक्टूबर, 1951 के बीच तेलंगाना में आधुनिक भारतीय इतिहास

में किसानों के सबसे व्यापक गुरिल्ला युद्ध का समाँ रहा। यह आंदोलन अपने उभार में 16,000 वर्ग मील, 3000 गाँवों और 30 लाख की आबादी में फैल गया। इस क्षेत्र में सामंती. शोषण चरम सीमा पर था और राजनीतिक-लोकतांत्रिक अधिकारों का भयंकर दमन होता था। मुस्लिम और उच्चवर्णीय. हिन्दू ‘देशमुख’, या ‘पैगा’, ‘जागीरदार’, ‘बंजरदार’, ‘मक्तेदार’ जैसे सामंतवादी उत्की निम्न-वर्गीय, आदिवासी किसानों या कर्ज में दबे लोगों से ‘वेट्टी’ वसूलते थे। ‘वेट्टी’ प्रथा जबर्दस्ती बेगार या पैसा लेने की प्रथा है। ___

जुलाई, 1946 की एक चिंगारी ने तेलंगाना में कृषक विद्रोह की आग लगा दी। जलगाँव का देशमुख रामचंद्र रेड्डी ऐलम्मा मामक धोबिन के खेत छीन लेना चाहता था। देशमुख के गुंडों ने इसका विरोध कर रहे एक ग्रामीण कार्यकर्ता डोड्डी कुमारय्या की हत्या कर दी। इस घटना से तेलंगाना के किसानों की कोधाग्नि भड़क उठी। किसान संगठित रूप से आंदोलन करने लगे। दमन का मुकाबला करने के लिए सशस्त्र गुरिल्ला दस्ते बन गए। ये दस्ते कई गांवों में फैल गए। कई गाँवों में ‘वेट्टी’ अपने आप रुक गई, खेत मजदूरी बढ़ गई, देशमुख और अधिकारी गाँव छोड़कर भाग गए। तेलंगाना आंदोलन के एक नेता पी. सुंदरैय्या ने इसका विस्तार से प्रामाणिक वर्णन किया है पर सितंबर, 1948 के बाद भारतीय सेना ने सफलतापूर्वक आंदोलन का दमन शुरू किया और कम्युनिस्ट प्रभाव कम होने लगा पर कम्युनिस्ट अपनी हार के बावजूद इस क्षेत्र में कई । सालों तक प्रभावी बन रहे।

प्रश्न 6. जन आंदोलनों की कमियों एवं त्रुटियों को संक्षेप में लिखिए। (M. Imp.)

उत्तर-(i) जन-आंदोलनों द्वारा लामबंद की जाने वाली जनता सामाजिक और आर्थिक रूप से वंचित तथा अधिकारहीन वर्गों से संबंध रखती है। जन-आंदोलनों द्वारा अपनाए गए तौर-तरीकों से मालूम होता है कि रोजमर्रा की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में इन वंचित समूहों को अपनी बात कहने का पर्याप्त मौका नहीं मिलता था। __

(i) किन्तु कुल मिलाकर सार्वजनिक नीतियों पर इन आंदोलनों का कुल असर काफी सीमित रहा है। इसका एक कारण तो यह है कि समकालीन सामाजिक आंदोलन किसी एक मुद्दे के इर्द-गिर्द ही जनता को लामबंद करते हैं। इस तरह वे समाज के किसी एक वर्ग का ही प्रतिनिधित्व कर पाते हैं। इसी सीमा के चलते सरकार इन आंदोलनों की जायज मांगों को ठुकराने का साहस कर पाती हैं। लोकतांत्रिक राजनीति वंचित वर्गों के व्यापक गठबंधन को लेकर ही चलती है जबकि जन-आंदोलनों के नेतृत्व में यह बात संभव नहीं हो पाती।

(iii) राजनीतिक दलों को जनता के विभिन्न वर्गों के बीच सामंजस्य बैठाना पड़ता है, जन-आंदोलनों का नेतृत्व इस वर्गीय हित के प्रश्नों को कायदे से नहीं संभाल पाता। राजनैतिक दलों ने समाज के वचित और अधिकारहीन लोगों का मुद्दों पर ध्यान देना छोड़ दिया है पर जन-आंदोलन का नेतृत्व भी ऐसे मुद्दों को सीमित ढंग से ही उठा पाता है। _

(iv) विगत वर्षों में राजनीतिक दलों और जन-आंदोलनों का आपसी संबंध कमजोर होता गया है। इससे राजनीति में एक सूनेपन का माहौल पनपा है। हाल के वर्षों में, भारत की राजनीति में यह एक बड़ी समस्या के रूप में उभरा है।

प्रश्न 7. नर्मदा बचाओ आंदोलन का मूल्यांकन कीजिए।

उत्तर-(i) लोगों द्वारा 2003 में स्वीकृति राष्ट्रीय पुनर्वास नीति को नर्मदा बचाओ जैसे सामाजिक आंदोलन की उपलब्धि के रूप में देखा जा सकता है। परंतु सफलता के साथ ही नर्मदा बचाओ आंदोलन को बाँध के निर्माण पर रोक लगाने की मांग उठाने पर तीखा विरोध भी झेलना पड़ा है।

(ii) आलोचकों का कहना है कि आंदोलन का अड़ियल रवैया विकास की प्रक्रिया, पानी की उपलब्धता और आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सरकार को बांध का काम आगे बढ़ाने की हिदायत दी है लेकिन साथ ही उसे यह आदेश भी दिया गया है कि प्रभावित लोगों का पुनर्वास सही ढंग से किया जाए।

(iii) नर्मदा बचाओ आंदोलन, दो से भी ज्यादा दशकों तक चला। आंदोलन ने अपनी मांग रखने के लिए हरसंभव लोकतांत्रिक रणनीति का इस्तेमाल किया। आंदोलन ने अपनी बात न्यायपालिका से लेकर अंतर्राष्ट्रीय मंचों तक से उठायी। आंदोलन की समझ को जनता के सामने रखने के लिए नेतृत्व ने सार्वजनिक रैलियों तथा सत्याग्रह जैसे तरीकों का भी प्रयोग किया परंतु विपक्षी दलों सहित मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के बीच आंदोलन कोई खास जगह नहीं बना पाया।

(iv) वास्तव में, नर्मदा आंदोलन की विकास रेखा भारतीय राजनीति में सामाजिक आंदोलन और राजनीतिक दलों के बीच अंतर बढ़ती दूरी को बयान करती है। उल्लेखनीय है कि नवें दशक के अंत तक पहुंचते-पहुंचते नर्मदा बचाओ आंदोलन से कई अन्य स्थानीय समूह और आंदोलन भी आ जुड़े। ये सभी आंदोलन अपने-अपने क्षेत्रों में विकास की वृहत् परियोजनाओं का विरोध करते थे। इस समय के आस-पास नर्मदा बचाओ आंदोलन देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे आंदोलनों के गठबंधन का अंग बन गया।

प्रश्न 8. भारतीय किसान यूनियन, किसानों की दुर्घटना की तरफ ध्यान आकर्षित करने वाला अग्रणी संगठन है। नब्बे के दशक में इसने किन मुद्दों को उठाया और इसे कहाँ तक सफलता मिली?

उत्तर-भारतीय किसान यूनियन द्वारा उठाए गए मुद्दे : () बिजली की दरों में बढ़ोत्तरी का विरोध किया।

(ii) 1990 के दशक से भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के प्रयास हुए और इस क्रम में नगदी फसल के बाजार को संकट का सामना करना पड़ा। भारतीय किसान यूनियन ने गन्ने और गेहूँ की सरकारी खरीद मूल्य में बढ़ोत्तरी करने,

(iii) कृषि उत्पादों के अंतर्राज्यीय आवाजाही पर लगी पाबंदियाँ हटाने, (iv) समुचित दर पर गारंटीशुदा बिजली आपूर्ति करना,

(v) किसानों के लिए पेंशन का प्रावधान करने की मांग की।

सफलताएँ : (i) मेरठ में किसान यूनियन के नेता जिला समाहर्ता के दफ्तर के बाहर तीन हफ्तों तक डेरा डाले रहे। इसके बाद इनकी मांग मान ली गई। किसानों का यह बड़ा अनुशासित धरना था और जिन दिनों वे धरने पर बैठे थे उन दिनों आस-पास के गांवों से उन्हें निरंतर राशन-पानी मिलता रहा। मेरठ के इस धरने को ग्रामीण शक्ति का या कहें कि काश्तकारों की शक्ति का एक बड़ा प्रदर्शन माना गया।

(ii) 1991 के दशक के शुरुआती सालों तक बीकेयू ने अपने को सभी राजनीतिक दलों से दूर रखा था। यह अपने सदस्यों की संख्या बल के दम पर राजनीति में एक दबाव समूह की तरह सक्रिय था। इस संगठन ने राज्यों में मौजूद अन्य किसान संगठनों को साथ लेकर अपनी कुछ माँगें मनवाने में सफलता पाई। इस अर्थ में यह किसान आंदोलन 90 के दशक में सबसे ज्यादा सफल सामाजिक-आंदोलन था।

इस आंदोलन की सफलता के पीछे इसके सदस्यों की राजनीतिक मोल-भाव की क्षमता का हाथ था। यह आंदोलन मुख्य रूप से देश के समृद्ध राज्यों में सक्रिय था। खेती को अपनी जीविका का आधार बनाने वाले अधिकांश भारतीय किसानों के विपरीत बीकेयू जैसे संगठनों के सदस्य बाजार के लिए नगदी फसल उपजाते थे। बीकेयू की तरह सज्यों के अन्य किसान संगठनों ने अपने सदस्य उन समुदायों के बीच से बनाए जिनका क्षेत्र की चुनावी राजनीति में रसूख था। महाराष्ट्र का शेतकारी संगठन और कर्नाटक का रैयत संघ ऐसे ही किसान संगठनों के अन्य जीवंत उदाहरण हैं।

प्रश्न 9. नर्मदा बचाओ आंदोलन ने नर्मदा घाटी की बाँध परियोजनाओं का विरोध क्यों किया ?

उत्तर-(i) बाँध से नदियाँ के प्राकृतिक बहाव तथा पर्यावरण पर बुरा असर पड़ता है।

(ii) जिस क्षेत्र में बांध बनाए जाते हैं वहाँ रह रहे गरीबों के घर-बार, उनकी खेती योग्य भूमि, वर्षों से चले आ रहे कुटीर-धंधों पर भी बुरा असर पड़ता है। उदाहरण के लिए सरदार

 

सरोवर परियोजना पूरी होने पर संबंधित राज्यों (गुजरात, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र) के 245 गाँव

सरोवर परियोजना के क्षेत्र में आ रहे थलाख लोगों के पुनर्वास

(iii) प्रभावी गाँवों के करीब ढाई लाख लोगों के पुनर्वास का मामला उठाया जा रहा था।

(iv) परियोजना पर किए जाने वाले खर्च में हेरा-फेरी के दोष और खामियाँ उजागर करना भी परियोजना विरोधी स्वयं-सेवकों का उद्देश्य था।

(v) आंदोलनकारी प्रभावित लोगों की आजीविका और उनकी संस्कृति के साथ-साथ पर्यावरण को भी बचाना चाहते थे। वे जल, जंगल और जमीन पर प्रभावित लोगों का नियंत्रण या उन्हें उचित मुआवजा और उनका पुनर्वास चाहते थे।

प्रश्न 10. उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में (अब उत्तराखंड) 1970 में किन कारणों से चिपको आंदोलन का जन्म हुआ ?

उत्तर-चिपको आंदोलन के कारण (Cause of Chipko Movement):

(i) इस आंदोलन की शुरुआत उत्तराखंड के दो-तीन गाँवों से हुई थी। इसके पीछे एक कहानी है। गाँव वालों ने वन विभाग से कहा कि खेती-बाड़ी के औजार बनाने के लिए हमें ऐश (Ash) के वृक्ष काटने की अनुमति दी जाए। वन विभाग ने अनुमति देने से इनकार कर दिया। बहरहाल, विभाग ने खेल-सामग्री के एक विनिर्माता को जमीन का यही टुकड़ा व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए आवंटित कर दिया। इससे गाँव वालों में रोष पैदा हुआ और उन्होंने सरकार के इस कदम का विरोध किया। यह विरोध बड़ी जल्दी उत्तराखंड के अन्य इलाकों में भी फैल गया। ___

(ii) क्षेत्र की पारिस्थिति की और आर्थिक शोषण के कई बड़े सवाल उठने लगे। गाँववासियों ने मांग की कि जंगल की कटाई का कोई भी ठेका बाहरी व्यक्ति को नहीं दिया जाना चाहिए

और स्थानीय लोगों का जल, जंगल, जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर कारगर नियंत्रण होना चाहिए।

(iii) स्थानीय लोग चाहते थे कि सरकार लघु उद्योगों के लिए कम कीमत की सामग्री उपलब्ध कराए और इस क्षेत्र के पारिस्थितिकी संतुलन को नुकसान पहुंचाए बगैर यहाँ का विकास सुनिश्चित करे। आंदोलन ने भूमिहीन वन कर्मचारियों का आर्थिक मुद्दा भी उठाया और न्यूनतम मजदूरी की गारंटी की मांग की। _(iv) इलाके में सक्रिय जंगल कटाई के ठेकेदार यहाँ के पुरुषों के लिए शराब की आपूर्ति का भी व्यवसाय करते थे। महिलाओं ने शराबखोरी की लत के खिलाफ भी लगातार आवाज उठायी। इससे आंदोलन का दायरा विस्तृत हुआ और उसमें कुछ और सामाजिक मसले आ जुड़े।

प्रभाव (Effects): अंत में चिपको आंदोलन को सफलता मिली और सरकार ने पंद्रह सालों के लिए हिमालयी क्षेत्र में पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी ताकि इस अवधि में क्षेत्र का वनाच्छादन फिर से ठीक अवस्था में आ जए। बहरहाल, बात इस आंदोलन की सफलता की तो है ही, साथ ही हमें यह भी याद रखना होगा कि यह आंदोलन सत्तर के दशक और उसके बाद के सालों में देश के विभिन्न भागों में उठे अनेक जन-आंदोलनों का प्रतीक बन गया।

प्रश्न 11. आंध्र प्रदेश में चले शराब विरोधी आंदोलन ने देश का ध्यान गंभीर मुद्दों की तरफ खींचा। ये मुद्दे क्या थे?

उत्तर-आन्ध्र प्रदेश में ताड़ी-विरोधी आंदोलन का नारा बहुत साधारण था-‘ताड़ी की बिक्री बंद करो।’ लेकिन इस साधारण नारे ने क्षेत्र के व्यापक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों तथा महिलाओं के जीवन को गहरे प्रभावित किया।

(i) ताड़ी व्यवसाय को लेकर अपराध एवं राजनीति के बीच एक गहरा नाता बन गया था। राज्य सरकार को ताड़ी की बिक्री से काफी राजस्व प्राप्ति होती थी इसलिए वह इस पर प्रतिबंध नहीं लगा रही थी।

(ii) स्थानीय महिलाओं के समूहों ने इस जटिल मुद्दे को अपने आंदोलन में उठाना शुरू किया। वे घरेलू हिंसा के मुद्दे पर भी खुले तौर पर चर्चा करने लगीं। आंदोलन ने पहली बार महिलाओं की घरेलू हिंसा जैसे निजी मुद्दों पर बोलने का मौका दिया।

(iii) कालान्तर में ताड़ी-विरोधी आंदोलन महिला आंदोलन का एक हिस्सा बन गया। इससे पहले घरेलू हिंसा, दहेज प्रथा, कार्यस्थल एवं सार्वजनिक स्थानों पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ । काम करने वाले महिला समूह आमतौर पर शहरी मध्यवर्गीय महिलाओं के बीच ही सक्रिय थे

और यह बात पूरे देश पर लागू होती थी। महिला समूहों के इस सतत कार्य से यह समझदारी विकसित होनी शुरू हुई कि औरतों पर होने वाले अत्याचार और लैंगिक भेदभाव का मामला खासा जटिल है। ___

(iv) आठवें दशक के दौरान महिला आंदोलन परिवार के अंदर और उसके बाहर होने वाली यौन हिंसा के मुद्दों पर केन्द्रित रहा। इन समूहों ने दहेज प्रथा के खिलाफ मुहिम चलाई और लैंगिक समानता के सिद्धांत पर आधारित व्यक्तिगत एवं संपत्ति कानूनों की मांग की। __

(v) इस तरह के अभियानों ने महिलाओं के मुद्दों के प्रति समाज में व्यापक जागरुकता पैदा की। धीरे-धीरे महिला आंदोलन कानूनी सुधारों से हटकर सामाजिक टकराव के मुद्दों पर भी खुले तौर पर बात करने लगा। _

(vi) नवें दशक तक आते-आते महिला आंदोलन समान राजनीतिक प्रतिनिधित्व की बात करने लगा था। आपको ज्ञात ही होगा कि संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के अंतर्गत महिलाओं को स्थानीय राजनीतिक निकायों में आरक्षण दिया गया है।

प्रश्न 12. क्या आंदोलन और विरोध की कार्यवाहियों से देश का लोकतंत्र मजबूत होता है ? अपने उत्तर की पुष्टि में उदाहरण दीजिए।

उत्तर-अहिंसक और शांतिपूर्ण तरीके से कानून के दायरे में रहकर आंदोलन करने से देश का लोकतंत्र मजबूत होता है। हम अपने उत्तर की पुष्टि में निम्न उदाहरण दे सकते हैं: ___

(i) चिपको आंदोलन अहिंसक, शांतिपूर्ण चलाया गया एक व्यापक जन आंदोलन था। इससे पेड़ों की कटाई, वनों का उजड़ना रुका। पशु-पक्षियों, गिरिजनों को जल, जंगल, जमीन और स्वास्थ्यवर्धक पर्यावरण मिला। सरकार लोकतांत्रिक माँगों के सामने झुकी। ..

(ii) वामपंथियों द्वारा शांतिपूर्ण द्वारा चलाए गए किसान और मजदूर आंदोलन द्वारा. जन-साधारण में जागृति, राष्ट्रीय कार्यों में भागीदारी और सरकार को सर्वहारा वर्ग की उचित मांगों के लिए जगाने में सफलता मिली।

(ii) दलित पैंथर्स नेताओं द्वारा चलाए गए आंदोलनों, लिखे गए सरकार विरोधी साहित्यकारों की कविताओं और रचनाओं ने आदिवासी, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़ी जातियों में चेतना पैदा की। दलित पैंथर्स राजनैतिक दल और संगठन बने। जातीय भेद-भाव और छुआछूत को धक्का लगा। समाज में समानता, स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय, राजनैतिक न्याय को सुदृढ़ता मिली।

(iv) ताड़ी विराधी आंदोलन ने नशाबंदी और मद्य निषेध के विरोध में वातावरण तैयार किया। महिलाओं से संबंधित अनेक समस्याएँ या मामले (यौवन उत्पीड़न, घरेलू समस्या, दहेज प्रथा और महिलाओं को विधायिकाओं में आरक्षण दिए जाने) उठे। संविधान में कुछ संशोधन हुए और कानून बनाए गए।

प्रश्न 13. दलित-पैंथर्स ने कौन-से मुद्दे उठाए ?

उत्तर-बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक के शुरुआती सालों से शिक्षित दलितों की पहली पीढ़ी ने अनेक मंचों से अपने हक की आवाज उठायी। इनमें ज्यादातर शहर की झुग्गी-बस्तियों में पलकर बड़े हुए दलित थे। दलित हितों की दावेदारी के इसी क्रम में महाराष्ट्र में दलित युवाओं का एक संगठन ‘दलित पैंथर्स’ 1972 में बना। __

(1)आजादी के बाद के सालों में दलित समूह मुख्यतया जाति आधारित असमानता और भौतिक साधनों के मामले में अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ लड़ रहे थे। वे इस बात को लेकर सचेत थे कि संविधान में जाति आधारित किसी भी तरह के भेदभाव के विरुद्ध गारंटी दी गई है।

(ii) आरक्षण के कानून तथा सामाजिक न्याय की ऐसी ही नीतियों की कारगर क्रियान्वयन इनकी प्रमुख माँग थी।

(iii) भारतीय संविधान में छुआछूत की प्रथा को समाप्त कर दिया गया है। सरकार ने इसके अंतर्गत साठ और सत्तर के दशक में कानून बनाए। इसक बावजूद पुराने जमाने में जिन जातियों को अछूत माना गया था, उनके साथ इस नए दौर में भी सामाजिक भेदभाव तथा हिंसा का बरताव कई रूपों में जारी रहा।

(iv) दलितों की बस्तियाँ मुख्य गाँव से अब भी दूर होती थीं। दलित महिलाओं के साथ यौन-अत्याचार होते थे। जातिगत प्रतिष्ठा की छोटी-मोटी बात को लेकर दलितों पर सामूहिक जुल्म ढाये जाते थे। दलितों के सामाजिक और आर्थिक उत्पीड़न को रोक पाने में कानून की व्यवस्था नाकाफी साबित हो रही थी।

प्रश्न 14. संक्षेप में गैर-सरकारी संगठनों की मजदूर कल्याण, स्वास्थ्य शिक्षा, नागरिक अधिकार, नारी उत्पीड़न तथा पर्यावरण से संबंधित उनके पहलुओं की भूमिका का उल्लेख कीजिए।

उत्तर-भारत में सरकार के साथ-साथ गैर सरकारी संगठन भी विभिन्न सामाजिक समस्याओं से जुड़े मामलों को उठाते रहे हैं। ये मामले मजदूर कल्याण, पर्यावरण, महिला कल्याण आदि के साथ जुड़े रहे हैं। __

भारत में गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका मजदूरों के कल्याण, स्वास्थ्य क विकास, शिक्षा के प्रसार और नागरिकों के अधिकारों के रक्षण, नारी उत्पीड़न की समाप्ति, कृषि और विकास, वृक्षारोपण आदि के क्षेत्र में व्यापक रूप में रही है। गैर-सरकारी संगठनों में-(क) अंतर्राष्ट्रीय चेंबर ऑफ कॉमर्स, (ख) रेडक्रॉस सोसाइटी, (ग) एमनेस्टी इंटरनेशनल, (घ) मानवाधिकार आयोग आदि संगठन विश्व स्तर पर सभी देशों में फैले हुए हैं। इन गैर-सरकारी संगठनों में विभिन्न क्षेत्रों में अपनी भूमिका द्वारा निम्नलिखित विकास किया

(1) इन गैर-सरकारी संगठनों ने मानव जाति के अधिकारों की रक्षा की। विश्व के विभिन्न देशों में इनकी स्थापित शाखाएँ विभिन्न सरकारों द्वारा मानव अधिकारों की रक्षा करवाती हैं।

(2) इन गैर-सरकारी संगठनों ने विभिन्न देशों में वृक्षारोपण में सहयोग दिया।

(3) इन गैर-सरकारी संगठनों ने रोजगारोन्मुख योजना चलाकर मजदूरों को विभिन्न कार्यों का प्रशिक्षण दिया।

(4) ये गैर-सरकारी संगठन स्वास्थ्य के क्षेत्र में दवा छिड़काव, टीकाकरण, विभिन्न प्रकार की दवाओं के वितरण और बीमरियों की रोकथाम में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। __(5) इन गैर-सरकारी संगठनों ने कृषि के क्षेत्र में उन्नति के लिए सरकारों से निवेदन कर विकासात्मक कार्य करवाया। खाद, बीज आदि की व्यवस्था में योगदान दिया।

(6) विभिन्न गैर-सरकारी संगठनों ने बच्चों की शिक्षा के लिए शिक्षण कार्य किया एवं सामग्रियाँ वितरित की। इस तरह गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका मानव जाति के विकास और समस्याओं के समाधान में व्यापक रूप से रही है।

प्रश्न 15. अन्य पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए सरकार ने क्या कदम उठाए हैं?

उत्तर-भारतीय संविधान के अनुच्छेद 340 में कहा गया है कि सरकार अन्य पिछड़ी जाति के लिए आयोग नियुक्त कर सकती है। पहली बार 1953 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में इस प्रकार का आयोग नियुक्त किया गया। इस आयोग ने 2399 जातियों को पिछड़ी जातियों में सम्मिलित किया। 1978 में बी.पी. मंडल की अध्यक्षता में इस आयोग ने 3743 प्रजातियों को पिछड़ी जाति में शामिल करने की सिफारिश की। कमीशन ने 27 प्रतिशत नौकरियाँ अन्य पिछड़ी जाति के लिए आरक्षित की।

1998-99 से निम्न कार्यक्रम अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के लिए शुरू किए गए।

  1. परीक्षा पूर्व कोचिंग अन्य पिछड़े वर्ग के उन लोगों के बच्चों के लिए जिनकी आय 1 लाख रू. से कम हो।
  2. अन्य पिछड़े वर्ग के लड़के-लड़कियों के लिए हॉस्टल।
  3. प्री-मैट्रिक छात्रवृत्तियाँ।
  4. पोस्ट-मैट्रिक छात्रवृत्तियाँ।
  5. सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षणिक दशा सुधारने के लिए कार्यरत स्वैच्छिक संगठनों की सहायता करना।

प्रश्न 16. भारत में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के लिए सरकार द्वारा चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं का परीक्षण कीजिए।

उत्तर-भारत में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए विशेष योजनाएँ चलाई गए हैं।

(i) शिक्षा के क्षेत्र में सभी राज्यों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए उच्च स्तर तक शिक्षा निःशुल्क कर दी गई है। विभिन्न शिक्षण संस्थाओं में इनके लिए स्थान आरक्षित किए गए हैं। _

(ii) तृतीय पंचवर्षीय योजना में छात्राओं के लिए छात्रावास योजना प्रारंभ की गई। नौकरियों में आरक्षण के अतिरिक्त रोजगार दिलाने में सहायक प्रशिक्षण एवं निपुण बढ़ाने वाले कई कार्यक्रम भी प्रारंभ किए गए हैं।

(iii) 1987 में भारत के जनजातीय सहकारी बाजार विकास संघ की स्थापना की गई। . 1992-93 में जनजातीय क्षेत्रों में व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना की गई। 1997-2002 की नौंवी योजना अवधि में ‘आदिम जनजाति समूह’ के विकास के लिए अलग कार्य योजना की व्यवस्था की गई। __

(iv) मार्च 1992 में बाबा साहब अंबेडकर संस्था की स्थापना की गई। इन सबके अतिरिक्त इस समय 194 जनजातीय विकास योजनाएं चल रही हैं। कुछ राज्यों द्वारा शोध, शिक्षा, प्रशिक्षण, गोष्ठी, कार्यशाला, जनजातीय साहित्य का प्रकाशन आदि के कार्यक्रम चलाए गए हैं।

प्रश्न 17. महिला सशक्तिकरण के साधन के रूप में संसद और राज्य विधान सभाओं में सीटें आरक्षित करने का माँग की परीक्षण कीजिए। ____

उत्तर-किसी भी देश के संपूर्ण विकास के लिए सभी क्षेत्रों में स्त्रियों और पुरुषों की अधिकतम भागीदारी होनी चाहिए। पुरुष और महिलाएँ दोनों ही कंधे से कंधा मिलाकर एक सुखी और सुव्यवस्थित निजी पारिवारिक और सामाजिक जीवन व्यतीत करें। हमारे देश में जनसंख्या के लगभग आधे हिस्से की क्षमता का कम उपयोग सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए एक गंभीर बाधा है। 1952 से 1999 तक संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत ही कम रहा है।

महिला आंदोलन चुनावी संस्थाओं में महिलाओं के आरक्षण के लिए संघर्ष करता रहा है। 73वें और 74वें संविधान संशोधन के द्वारा महिलाओं को पंचायती राज संस्थाओं तथा नगरपालिकाओं एवं नगर निगमों में 33 प्रतिशत आरक्षण प्राप्त हुआ है। इस आंदोलन को केवल आंशिक सफलता मिली है। संसद और राज्य विधान सभाओं में ऐसे ही आरक्षण के लिए संघर्ष जारी है लेकिन जहाँ लगभग सभी राजनैतिक दल खुले तौर पर इस माँग का समर्थन करते हैं वहीं जब यह विधेयक संसद के समक्ष पेश होता है तो किसी न किसी प्रकार इसे पारित नहीं होने दिया जाता है।

प्रश्न 18. महिला सशक्तिकरण की राष्ट्रीय नीति 2001 के मुख्य उद्देश्यों का उल्लेख करें।

उत्तर-2001 में भारत सरकार ने महिला सशक्तिकरण के लिए एक राष्ट्रीय नीति घोषित की। इस नीति के मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं :

  1. सकारात्मक आर्थिक और सामाजिक नीतियों द्वारा ऐसा वातावरण तैयार करना जिसमें महिलाओं को अपनी पूर्व क्षमता को पहचानने का मौका मिले और उनका पूर्ण विकास हो।
  2. महिलाओं द्वारा पुरुषों की भाँति राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और नागरिक सभी क्षेत्रों में समान स्तर पर मानवीय अधिकारों और मौलिक स्वतंत्रताओं का कानूनी और वास्तविक उपभोग।
  3. स्वास्थ्य देखभाल, प्रत्येक स्तर पर उन्नत शिक्षा, जीविका एवं व्यावसायिक मार्गदर्शन, रोजगार, समान पारिश्रमिक, व्यावसायिक स्वास्थ्य एवं सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा और सार्वजनिक पदों आदि में महिलाओं को समान सुविधाएँ।
  4. न्याय व्यवस्था को मजबूत बनाकर महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव का उन्मूलन तथा राष्ट्रीय नीति के अनुसार, केंद्रीय तथा राज्य स्तरीय महिला एवं शिशु कल्याण विभागों और राष्ट्रीय एवं राज्य महिला आयोगों के साथ सहभागिता के माध्यम से विचार-विमर्श करके नीति को ठोस कार्यवाही में परिणत करने के लिए समयबद्ध कार्य योजना बनानी होगी।

प्रश्न 19. महिलाओं की शिक्षा और रोजगार संबंधी स्थिति पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए। ___

उत्तर-शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति में पुरुषों की अपेक्षा अधिक अंतर है। 2001 में स्त्री साक्षरता दर 54.16 प्रतिशत थी जबकि पुरुषों में यह 75.85 प्रतिशत थी। स्वतंत्रता के समय महिलाओं की साक्षरता दर 7.9 प्रतिशत थी जबकि 2001 में यह बढ़कर 54.16 प्रतिशत हो गई। इसके बावजूद अशिक्षित महिलाओं की संख्या इन दशकों में और भी बढ़ गई। इसका कारण जनसंख्या में वृद्धि तथा लड़कियों को विद्यालय में दाखिला न दिलवाना एवं शिक्षा की औपचारिक व्यवस्था में लडकियों का स्कल टोड जाना है। निरक्षरता एवं शिक्षा के अभाव के कारण रोजगार एव प्राशक्षण आर स्वास्थ्य सुविधाओं के उपयोग जैसे क्षेत्रों में महिलाओं की सफलता सीमित है।

प्रश्न 20. भारत में पर्यावरण-संबंधी मुख्य आंदोलनों के नाम बताएँ। [M.Q.2009A]

उत्तर-स्वस्थ मानव-जीवन के लिए पर्यावरण की सुरक्षा आवश्यक है। इससे संबंधित प्रमुख आंदोलनों में चिपको आंदोलन, एपिको आंदोलन, माधव आशीष, रियो काँफ्रेस, मानव पर्यावरण समिति (1970), पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम (1986), केन्द्रीय गंगा प्राधिकरण (1985), जल प्रदूषण निवारण और निवारण बोर्ड, बड़े बाँधों का विरोध तथा नशाखोरी के खिलाफ आंदोलन आदि उल्लेखनीय हैं।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

(Long Answer Type Questions) 

प्रश्न 1. आंध्र प्रदेश में शराब-विरोधी आंदोलन क्यों और कब शुरू हुआ? इसने कैसे एक महिला आंदोलन का रूप ले लिया ? –

उत्तर-(क) दक्षिण राज्य आंध्र प्रदेश में ताड़ी विरोध आंदोलन-महिलाओं का एक स्वतः स्फूर्त आंदोलन था। ये महिलाएं अपने आस-पास में मदिरा की बिक्री पर पाबंदी की माँग कर रही थीं। वर्ष 1992 के सितबंर और अक्टूबर माह में ग्रामीण महिलाओं ने शराब के खिलाफ लड़ाई छेड़ रखी थी। इस आंदोलन ने ऐसा रूप धारण किया कि इसे राज्य में ताड़ी विरोधी आंदोलन के रूप में जाना गया।

(ख) आंध्र प्रदेश के नेल्लौर जिसे के एक दूर-दराज के गाँव दुबरगंटा में 1990 के शुरुआती दौर में महिलाओं के बीच प्रौढ़-साक्षरता कार्यक्रम चलाया गया जिसमें महिलाओं ने बड़ी संख्या में पंजीकरण कराया। कक्षाओं में महिलाएँ घर के पुरुषों द्वारा देशी शराब, ताड़ी आदि पीने की शिकायतें करती थीं। ग्रामीणों को शराब की गहरी लत लग चुकी थी। इसके चलते वे शारीरिक और मानसिक रूप से भी कमजोर हो गए थे। शराबखोरी से क्षेत्र की ग्रामीण अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हो रही थी। शराब की खपत बढ़ने से कर्ज का बोझ बढ़ा। पुरुष अपने काम से लगातार गैर-हाजिर रहने लगे। शराब के ठेकेदार ताड़ी व्यापार पर एकाधिकार बनाये रखने के लिए अपराधों में व्यस्त थे। शराबखोरी से सबसे ज्यादा दिक्कत महिलाओं को हो रही थी। इससे

परिवार की अर्थव्यवस्था चरमराने लगी। परिवार में तनाव और मारपीट का माहौल बनने लगा। नेल्लोर में महिलाएँ ताड़ी के खिलाफ आगे आईं और उन्होंने शराब की दुकानों को बंद कराने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया। यह खबर तेजी से फैली और करीब 5000 गाँवों की महिलाओं ने आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया। प्रतिबंध संबंधी एक प्रस्ताव को पास कर इसे जिला कलेक्टर को भेजा गया। नेल्लोर जिले में ताड़ी की नीलामी 17 बार रद्द हुई। नेल्लोर जिले का यह आंदोलन धीरे-धीरे पूरे राज्य में फैल गया।

(ग) कालांतर में यह आंदोलन महिला आंदोलन के रूप में सक्रिय हुआ। ताड़ी विरोधी

आंदोलन द्वारा महिलाओं ने अपने जीवन से जुड़ी सामाजिक समस्याओं जैसे-दहेज प्रथा, घरेलू हिंसा, घर से बाहर यौन उत्पीड़न, समाज में महिलाओं पर हो रहे अत्याचार, परिवार में लैंगिक भेदभाव आदि के विरुद्ध व्यापक जागरुकता पैदा की।

(घ) महिलाओं ने पंचायतों, विधान सभाओं, संसद में अपने लिए एक-तिहाई स्थानों के आरक्षण और सरकार के सभी विभागों जैसे-वायुयान, पुलिस सेवाएँ आदि में समान अवसरों और पदोन्नति की बात की। उन्होंने न केवल धरने दिए, प्रदर्शन किए, जुलूस निकाले बल्कि विभिन्न मुद्दों पर महिला आयोग, राष्ट्रीय आयोग और लोकतांत्रिक मंचों से भी आवाज उठाई।

(ङ) संविधान ने 73वाँ व 74वाँ संशोधन हुआ। स्थानीय निकायों में महिलाओं के स्थान आरक्षित हो गए। विधानसभाओं और संसद में आरक्षण के लिए विधेयक अभी पारित नहीं हुए हैं। अनेक राज्यों में शराबबंदी लागू कर दी गई है और महिलाओं के विरुद्ध अत्याचारों पर कठोर दंड दिए जाने की व्यवस्था की गई है।

प्रश्न 2. भारत में स्त्री उत्थान के लिए उठाए गए कदमों का वर्णन कीजिए।

उत्तर-स्त्री उत्थान के लिए उठाए गए कदम : स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में स्त्रियों की दशा में सुधार लाने के लिए बहुत से कदम उठाए गए हैं। जिनमें से कुछ निम्नलिखित है :

  1. महिला अपराध प्रकोष्ठ तथा परिवार न्यायपालिका : यह महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिए सुनवाई करते हैं। विवाह, तलाक, दहेज, पारिवारिक मुकदमे भी सुनते हैं।
  2. सरकारी कार्यालयों ने महिलाओं की भर्ती : लगभग सभी सरकारी कार्यालयों में महिला. कर्मचारियों की नियुक्ति की जाती है। अब तो वायुसेना, नौसेना तथा थलसेना और सशस्त्र सेनाओं के तीनों अंगों में अधिकारी पदों पर स्त्रियों की भर्ती पर लगी रोक को हटा लिया गया है। सभी क्षेत्रों में महिलाएँ कार्य कर रही हैं।
  3. स्त्री शिक्षा : स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में स्त्री शिक्षा का काफी विस्तार हुआ है।
  4. राष्ट्रीय महिला आयोग : 1990 के एक्ट के अंतर्गत एक राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना की गई है। महाराष्ट्र, गुजरात, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, दिल्ली, पंजाब, कर्नाटक, असम एवं गुजरात राज्यों में भी महिला आयोगों की स्थापना की जा चुकी है। ये आयोग महिलाओं पर हुए अत्याचार, उत्पीड़न, शोषण तथा अपहरण आदि के मामलों की जाँच-पड़ताल करते हैं। सभी राज्यों में महिला आयोग स्थापित किए जाने की माँग जोर पकड़ रही है और इन आयोगों को प्रभावी बनाने की मांग भी जोरों पर है।
  5. महिला आरक्षण : महिलाएँ कुल जनसंख्या की लगभग 50 प्रतिशत हैं परंतु सरकारी कार्यालयों, संसद, राज्य विधान मंडलों आदि में इनकी संख्या बहुत कम है। 1993 के 73वें व 74वें संविधान संशोधनों द्वारा पंचायती राज संस्थाओं तथा नगरपालिकाओं में एक तिहाई स्थान. महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिए गए हैं। संसद तथा राज्य विधानमंडलों में भी इसी प्रकार आरक्षण किए जाने की माँग जोर पकड़ रही है। यद्यपि इस ओर प्रयास किया जा रहा है परंतु सर्वसम्मति के अभाव में जब भी विधेयक संसद में लाया जाता है तो विभिन्न दल इस पर राजनीति करने लग जाते हैं। अभी तक यह विधेयक पारित नहीं कराया जा सका है। यद्यपि सभी राजनैतिक दल इसके समर्थन में बातें तो बहुत करते हैं पर किसी ने ईमानदारी से इस विधेयक का समर्थन करने की ओर ध्यान नहीं दिया है।

उपरोक्त प्रयासों के अतिरिक्त अखिल भारतीय महिला परिषद् तथा कई अन्य महिला संगठन स्त्रियों के अत्याचार, उत्पीड़न और अन्याय से बचाने, उन पर अत्याचार तथा बलात्कार करने वाले अपराधियों को दंड दिलवाने तथा महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए प्रयत्नशील हैं।

प्रश्न 3.मंडल आयोग की रिपोर्ट की सिफारिशें, उनके कार्यान्वयन और उनके परिणामों पर एक लेख लिखिए।

उत्तर-I नियुक्ति (Appointment): भारतीय संविधान की धारा 340 (i) के अंतर्गत 1978 में मोरार जी देसाई की अगुवाई वाली जनता पार्टी की सरकार की सिफारिश पर देश के राष्ट्रपति द्वारा बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री श्री बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अध्यक्षता में दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग (याद रहे पहला पिछड़ा वर्ग आयोग काका कालेलकर की अध्यक्षता में नियुक्त किया गया) गठित किया गया। इसके पाँच अन्य सदस्य भी थे।

मंडल आयोग ने पिछड़े वर्ग की पहचान के लिए जाति को उचित आधार माना। हिंदू समाज में पिछड़े वर्गों को पहचानने के लिए आयोग ने 11 संकेतों का निर्माण किया है : चार सामाजिक जाति-आधारित पिछड़ेपन, तीन शैक्षणिक पिछड़ेपन और चार अलग-अलग महत्व देते हुए आयोग ने भारत की कुल जनसंख्या के बड़े भाग अर्थात् 52 प्रतिशत को अन्य पिछड़ी जातियों में गिना अर्थात् अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के अतिरिक्त अन्य।

IL मंडल आयोग की सिफारिशें (Recommendations of MandalCommission): पिछड़ी जातियों को दी जाने वाली रियायतें कोई आसान कार्य नहीं थी। कुछ राज्यों में पिछड़ी जातियों तथा गरीब वर्गों के लिए आरक्षण लागू करना आसान था, परंतु इसने, आरक्षण-विरोधियों द्वारा उत्पन्न विरोध को भी सामने लाकर खड़ा कर दिया। 1978 में, बिहार में अग्रणीय ब्लाकतथा पिछड़ी जातियों के मध्य हिंसात्मक विरोध हुआ। 1980 में गुजरात, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश

और यहाँ तक कि उत्तर प्रदेश में भी यही हाल था। इसीलिए, पिछड़ी जातियों की स्थिति के बारे में जानकारी प्राप्त करने के लिए जनता सरकार ने 1978 में मंडल की अध्यक्षता में एक आयोग को गठित किया था। इस आयोग द्वारा निम्नलिखित सिफारिशें की गईं :

  1. पिछड़ी जातियों को सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण दिया जाए।
  2. केंद्र तथा राज्य सरकारों द्वारा संचालित सभी वैज्ञानिक, तकनीकी और व्यावसायिक संस्थानों में पिछड़ी जातियों के लिए 27 प्रतिशत सीटें आरक्षित की जाएँ।
  3. पिछड़े वर्गों को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए सरकार द्वारा अलग से वित्तीय संस्थानों की स्थापना की जाए।

भारत सरकार ने 7 अगस्त 1990 को इन सिफारिशों को लागू करने की घोषणा की।

III. मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने की घोषणा और प्रतिक्रिया (Declaration to implement the recommendation of Mandal Commission and its reactions) : मंडल आयोग ने अपनी रिपोर्ट सन् 1980 में पेश की थी तथा इसे संसद के सामने अप्रैल 1982 में रखा गया था। कांग्रेस सरकार ने इस प्रतिवेदन को न तो अस्वीकृत किया और न ही स्पष्ट रूप से स्वीकार किया। वास्तव में इसे चुपचाप अलमारी में रख दिया गया था। जनवरी 1990 में सत्ता में आई राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने आयोग की सिफारिशों को लागू करने के कदम उठाए। इसने सभी राज्य सरकारों से उनके विचार पूछे तथा अंततः प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने सात अगस्त, 1990 को घोषणा की और 17 अप्रैल, 1990 को नौकरियों में 27% आरक्षण की मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के औपचारिक आदेश जारी कर दिए गए। इसका अर्थ यह हुआ कि नौकरियों में अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए 22.5 प्रतिशत व अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण होगा। सन् 1963 में सर्वोच्च न्यायालय ने बालाजी नामक केस के निर्णय में कहा था कि सामान्यतः कुल मिलाकर आरक्षण 50% से कम ही होगा।

IV.मंडल और आरक्षण का विरोध (Mandal and Reservation opposition) : मंडल आयोग की रिपोर्ट ने एक भयंकर विवाद को उत्पन्न कर दिया। एक विचित्र बात यह है

कि यह विवाद दक्षिणपंथी तथा तथा वामपंथी के मध्य नहीं लड़ा जा रहा है; अपितु विवाद के दोनों तरफ, दोनों ही प्रकार के लोग उपस्थित हैं। वे जो चाहते हैं कि इसे प्रभावी ढंग से लागू किया जाए, का विश्वास था कि इससे सामाजिक तथा शैक्षणिक पिछड़ापन कुछ मात्रा में घट जाएगा और पिछड़ा वर्ग जो भारत की जनसंख्या में 52 प्रतिशत है, को जीने के लिए अवसर प्रदान करेगा। इस निर्णय का समान रूप से विरोध करने वालों को विश्वास था कि इससे जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा।

टिप्पणी या निष्कर्ष (Comment and Conclusion) : इन निर्णयों के बावजूद भी कुछ राज्यों के कानून 50 प्रतिशत से ज्यादा आरक्षण उपलब्ध करा रहे हैं। सन् 1993 में तमिलनाडु विधान सभा ने 69 प्रतिशत आरक्षण उपलब्ध करवाने के लिए एक अधिनियम पास किया है। कर्नाटक सरकार ने 24 अक्टूबर, 1994 को एक अधिनियम के द्वारा 73 प्रतिशत आरक्षण उपलब्ध करवाया है। सर्वोच्च न्यायालय ने इन्हें स्वीकार नहीं किया है। इस प्रकार कानूनी रूप से आरक्षण की सीमा को 50 प्रतिशत तक ही अनुमति प्राप्त है जबकि आरक्षण सूची को और अधिक श्रेणीप्रद करने की मांग बढ़ती जा रही है।

प्रश्न 4. स्वतंत्रता पूर्व मजदूर आंदोलन के इतिहास पर प्रकार डालिए।

उत्तर-उन्नीसवीं शताब्दी एवं बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ तक ब्रिटिश शासन ने भारतीय समाज एवं अर्थव्यवस्था में काफी परिवर्तन ला दिया था। ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासकों के औद्योगिक स्वार्थों की सिद्धि एवं उनके पूँजी निवेश के साधनों के माध्यम के रूप में, भारत में रेलवे, उद्योगों, चाय बागानों, खानों आदि का विकास हुआ था जिसने अनिवार्यतः श्रमजीवी वर्ग को जन्म दिया। प्रथम विश्व युद्ध के पहले मजदूर आंदोलन पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि नवजात मजदूर वर्ग ने शोषण एवं उत्पीड़न के विरुद्ध आवाज उठाना और संघर्ष करना उन्नीसवीं शताब्दी में ही प्रारंभ कर दिया था। बीसवीं शताब्दी में यह आवाज संघर्ष में बदल गई जिसके कारण 1907 की रेलवे हड़ताल और 1908 की मुंबई हड़ताल जैसी लड़ाइयों में मिलते हैं। सन् 1907 में सारे देश में रेलवे हड़ताल हुई जिसके माध्यम से मजदूर अपना वेतन बढ़वाने एवं मालिकों के अत्याचार कुछ काम कराने में सफल हुए थे किंतु बीसवीं सदी के प्रथम दशक की सबसे महत्वपूर्ण हड़ताल थी-22 जुलाई, 1908 को तिलक को दिए गए 6 साल के कारावास दंड के विरुद्ध मुंबई के मजदूरी की हड़ताल वस्तुतः मुंबई के मजदूरों ने शहर के अन्य श्रमजीवियों एवं देश-प्रेमियों से मिलकर तिलक पर मुकदमा शुरू होने के समय से ही प्रारंभ कर दिया था। यह उनकी राजनीतिक हड़ताल थी। इसमें उन्होंने ब्रिटिश सेना के साथ मुंबई की सड़कों पर लड़ाई की थी। मुंबई के श्रमजीवियों का यह संग्राम भारत के स्वाधीनता संग्राम का एक गौरवमय अध्याय था। बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में राष्ट्रीय आंदोलन की जो लहर आई थी, मजदूर वर्ग उससे अछूता नहीं था। बंगाल उस समय बंग-भंग के कारण प्रबल राजनीतिक आंदोलन का केन्द्र था। इस आंदोलन से यहाँ का मजदूर वर्ग भी प्रभावित था। विश्व युद्ध-काल से पूर्व मजदूर वर्ग मूलतः असंगठित ही था। उनके संघर्षों के दौरान उनके संगठन अवश्य बनने लगे थे, किन्तु अभी वे अपनी शैशवास्था में ही थे किन्तु प्रथम विश्वयुद्ध एवं उसी के दौरान रूस की समाजवादी क्रांति ने मिलकर भारत के मजदूर वर्ग एवं उनके आंदोलन में महत्वपूर्ण परिवर्तन कर दिया। युद्ध ने मजदूर वर्ग पर बहुत असर डाला था।

प्रथम विश्वयुद्ध का एक परिणाम यह हुआ था कि भारत में कल-कारखानों का उत्पादन बढ़ गया और औद्योगिक प्रगति हुई। उत्पादन की यह वृद्धि कारखानों को दिन-रात चलाने से एवं मजदूरों पर ज्यादा बोझ डालकर हुई थी। युद्ध के दौरान बहुत से नए उद्योग खुले एवं कई सीमित पूँजी निवेश कंपनियाँ स्थापित हुईं। इस दौरान चाय-बगानों, कोयला खानों, कपड़ा मिलों, लोहे के कारखानों आदि का तेजी से विकास हुआ और इसमें काम करने वाले मजदूरों की संख्या में भी अभूतपूर्व वृद्धि हुई। यह उन्नति युद्ध के दौरान असीमिति लाभ कमाया किन्तु मजदूरों का वास्तविक

वेतन बढ़ने के बजाय औसतन कम हो गया। मिल मालिकों द्वारा कमाए गए अत्यधिक लाभ का अन्य कारण कच्चे माल एवं तैयार माल की कीमत में आकाश-पाताल का अंतर था। दूसरे शब्दों में यह लाभ कच्चा माल पैदा करने वाले किसानों के शोषण का परिणाम था। मजदूरों एवं किसानों की इस गिरती हुई दशा के कारण युद्ध की अवधि में एवं उसके बाद श्रमजीवियों एवं ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के बीच मतभेद बहुत गहरे हो गए। .

रूसी क्रांति के कुछ महीने बाद ही भारत के मजदूर युद्धकालीन सरकारी सख्ती की परवाह न करके हड़ताल के क्षेत्र में उतर पड़े। अगस्त, 1917 के अंत तक हड़तालों की पहली लहर मुंबई में कपड़ा मिल मजदूरों में दिखाई. पड़ी जो धीरे-धीरे मुंबई ही में नहीं अपितु 1919 तक भारत के कई नगरों में फैल गई। इसका मुख्य उद्देश्य महँगाई के कारण वेतन बढ़वाना था। ये हड़तालें व्यापक, संगठित एवं लंबी थीं। ये मजदूर वर्ग की बढ़ती चेतना एवं संगठित शक्ति की परिचायक थीं। 1920 तक देश के सभी महत्वपूर्ण उद्योगों में यूनियनें बन गई थीं। 1920 तक भारत के मजदूर आंदोलन के विकास को देखते हुए उसके लिए एक केन्द्रीय संगठन का निर्माण आवश्यक था जो समस्त मजदूर आंदोलन को एक सूत्र में बाँधकर संचालित करे। 31 अक्टूबर, 1920 को एक अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) का निर्माण किया गया यद्यपि इसका तात्कालिक उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन में प्रतिनिधित्व था। संभवतः रूसी क्रांति के बाद एक ही वर्ष में विश्व के मजदूर वर्ग ने जिस तरह समाजवादी क्रांति एवं राष्ट्रीय मुक्ति क्रांति की ओर बढ़ना प्रारंभ किया था उसे देखकर साम्राज्यवादी भयभीत हो उठे थे एवं उन्होंने समझ लिया था कि मजदूरों की शक्ति की अब उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। इसलिए ब्रिटेन, फ्रांस, अमेरिका आदि विजयी साम्राज्यवादी देशों ने राष्ट्र संघ के अंग के रूप में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की स्थापना कर दी जिसमें सरकार, उद्योगपतियों एवं मजदूरों के प्रतिनिधि एकत्र होकर मजदूरों की भलाई के प्रश्नों पर विचार करते थे। यद्यपि व्यवहार रूप में यह श्रमजीवी वर्ग को उद्योगपतियों का पुछल्ला बनाने का हथियार अधिक था, किन्तु इस प्रकार भारत में मजदूरों का एक अखिल भारतीय संगठन हुआ। एम. एन. जोशी इसके प्रतिनिधि के रूप में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन में भेजे गए। ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासकों ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को कुचलने के लिए 1919 के बाद भीषण दमन चक्र चलाया किंतु 1920-21 में इस आंदोलन ने बहुत जोर पकड़ लिया। आर्थिक समस्याओं, अकाल एवं महामारी ने आग में घी का काम किया। मजदूरों की हड़ताल चरम सीमा पर पहुंची। सन् 1920-21 में उनकी व्यापक हड़तालों ने साम्राज्यवाद-विरोधी आंदोलन को व्यापक बनाने में बड़ी सहायता की। राष्ट्रीय आंदोलन ने मजदूरों को भी प्रभावित किया था। उनकी मांगों का स्वरूप आर्थिक एवं राजनीतिक दोनों का हो गया था।

प्रश्न 5. स्वतंत्रता पूर्व हुए किसान आंदोलनों के कारणों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।

उत्तर-सन् 1920-21 में देश में किसान आंदोलन ने भी जोर पकड़ा। ब्रिटिश शासकों के विरुद्ध कृषकों का संघर्ष प्रायः उतना ही पुराना था जितना ब्रिटिश शासन। ब्रिटिश शासन के अंतर्गत कृषक भी दरिद्र से दरिद्रतर होते जा रहे थे। बंगाल में ब्रिटिश शासन के प्रारंभ से ही यथासंभव अधिकतम भू-राजस्व उगाहने की क्लाइव और वॉरेन हेस्टिंग्स की नीति के कारण बहुत विध्वंस हुआ था। स्थायी एवं अस्थायी बंदोबस्त वाले जमींदारी क्षेत्रों में किसानों को जमींदारों की दया पर छोड़ दिया गया जिन्होंने लगान को असहनीय सीमाओं तक बढ़ा दिया तथा उन्हें अबवाब (महसूल) देने एवं बेगार करने के लिए मजबूर किया। रैयतवाड़ी एवं महालवाड़ी क्षेत्रों में सरकार ने जमींदारों का स्थान ले लिया एवं अत्यधिक भू-राजस्व निर्धारित किया। यह उन्नीसवीं सदी में दरिद्रता की वृद्धि एवं कृषि की अवनति के मुख्य कारणों में से एक सिद्ध हुआ। कृषि-सुधार पर सरकार ने बहुत कम व्यय किया। अत्यधिक भू-राजस्व की रकम वसूल करने के कठोर तरीके ने उसके हानिकारक परिणामों को और भयंकर बना दिया था। भू-राजस्व अदा करने में असफल होने पर किसानों की भूमि नीलाम करने की प्रथा ने प्रायः किसानों को अपनी भूमि से वंचित कर

दिए अथवा किसानों को महाजनों से ऊँची दर पर कर्ज लेने पर विवश किया जिसका परिणाम भी अंततः किसान की भूमि महाजन के हाथ में जाना ही होता था।

जमीन के हाथ से निकल जाने, उद्योगीकरण एवं हथकरघा उद्योग के अभाव से जमीन पर बोझ बढ़ने के कारण भूमिहीन किसानों, दस्तकारों एवं हस्तशिल्पियों को बहुधा कम-से-कम मजदूरी पर खेतिहर मजदूर बनने के लिए विवश होना पड़ रहा था। इस प्रकार किसान वर्ग सरकार, जमींदार एवं महाजन के तिहरे बोझ तले कुचला जा रहा था। इस प्रकार ब्रिटिश शासन के विरुद्ध किसान संघर्ष का प्रारंभ इस शासन की स्थापना के प्रारंभिक वर्षों से ही शुरू हो गया था। संन्यासी विद्रोह (1763-1800) की मुख्य शक्ति किसान ही थे। संथाल विद्रोह (1855-56), 1857 का महा विद्रोह, नील महाविद्रोह (1859-60), कूका विद्रोह (1871-72), पवना विद्रोह (1875), दक्षिण के हंगामों (1875) आदि सभी की मुख्य शक्ति किसान थे। गाँधी जी के नेतृत्व में चलाए गए 1920-21 के आंदोलन की भी मुख्य शक्ति किसान थे। इस अवधि में किसान आंदोलन ने पंजाब में अकाली आंदोलन, मालाबार में मोपला विद्रोह एवं संयुक्त प्रांत में जमींदारों और साम्राज्यवाद-विरोधी आंदोलन का रूप धारण कर किया। इसका चौथा केन्द्र बंगाल में कहा जा सकता है जहाँ उसने लगानबंदी का रूप धारण कर लिया था। किसानों के शामिल होने से राष्ट्रीय कांग्रेस का स्वरूप बदल रहा था। इसका श्रेय गाँधी जी को था, हालांकी गाँधी जी द्वारा अकस्मात आंदोलन बंद कर दिए जाने का असंतोष वामपंथ के उदय में एक बहुत बड़ा तत्व बना।

प्रश्न 6. सन् 1922 के पश्चात् मजदूर आंदोलन की दशा का वर्णन कीजिए।

उत्तर-सन् 1922 में असहयोग जन आदोलन बंद किए जाने के बाद देशवासियों के अंदर जो निराशा आ गई थी उसे हटाने का काम मजदूर वर्ग ने किया। उन्होंने अपना वर्ग संघर्ष तेज किया एवं शासकों के दमन के बावजूद अपने मोर्चे स्थापित किए। सन् 1922 के बाद मजदूर हड़तालें अधिक संगठित हुई थी, किन्तु मजदूर आंदोलन की एक बड़ी दुर्बलता थी-कुशल नेतृत्व का अभाव। प्रायः सब ट्रेड यूनियनों का-यहाँ तक कि आल इडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस का-नेतृत्व भी सुधारवादी था, क्रांतिकारी नहीं। यह नेतृत्व यूनियनों को वर्ग संघर्ष एवं समाजवाद की पाठशाला न बनाकर उन्हें वर्ग सहयोग का हथियार बना रहा था। ए. आई. टी. यू. सी. के उस समय के नेता वेंकट वाराह गिरि, एम. एन. जोशी आदि सभी का स्वर प्रायः यही थी। ब्रिटिश शासक जानते थे कि मजदूर आंदोलन की बढ़ती हुई शक्ति उनके राज्य के लिए खतरनाक साबित हो सकती है, अतः उसे काबू में रखने के लिए उन्होंने तरह-तरह के रास्ते अपनाए। सन् 1919-20 में ‘मद्रास श्रम विभाग’ और ‘मुम्बई श्रम विभाग’ खोला गया। 1921 में उन्होंने औद्योगिक अशांति पर बंगाल कमेटी बैठाई और 1921 में मुंबई इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स कमेटी (औद्योगिक विवाद समिति)। सन् 1921 में ट्रेड यूनियन बिल तैयार किया गया।

ब्रिटिश साम्राज्यवादी और उनके भारतीय सरमाएदार दोनों ही जानते थे अगर मजदूर आंदोलन को अपनी मुट्ठी में न रखा गया तो वह क्रांतिकारी मार्ग अपनाएगा और उसका प्रभाव किसानों तथा मध्य वर्ग को भी क्रांति पथिक बना देगा। इस कार्य के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासकों ने ब्रिटेन के सुधारवादी मजदूर नेताओं का उपयोग किया। सन् 1925-27 के बीच इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के सदस्य भोंसले, उस पार्टी के भारतीय कमेटी के सचिव ग्राहम वाल, लेबर पार्टी के सदस्य थारनर जॉन्स्टन सईम और रदरफोड, ब्रिटिश पार्लियामेंट के लेबर पार्टी के सदस्य पैथिक लॉरेन्स आदि भारत आए। ब्रिटिश लेबर पार्टी के नेता चाहते थे कि भारत की ट्रेड यूनियनें सुधारवादी आम्स्टर्डम इंटरनेशनल में एवं सुधारवादी अंतर्राष्ट्रीय मजदूर संगठनों में सम्मिलित हो जाएँ। वे भारत में भी अपनी पार्टी की ही भांति इंडियन लेबर पार्टी की स्थापना चाहते थे। वे कुछ यूनियनों को आम्स्टर्डम इंटरनेशनल में खींच ले जाने में समर्थ हुए किंतु इंडियन लेबर पार्टी बनाने की दिशा में उन्हें सफलता नहीं मिली। हिंदुस्तान का बुर्जुआ वर्ग स्वयं ऐसी पार्टी की स्थापना का विरोधी था जो इस देश में ब्रिटिश इजारेदार पूँजीपतियों के स्वार्थ की रक्षा करें। स्वयं भारत के बुर्जुआ

दिए अथवा किसानों को महाजनों से ऊँची दर पर कर्ज लेने पर विवश किया जिसका परिणाम भी अंततः किसान की भूमि महाजन के हाथ में जाना ही होता था।

जमीन के हाथ से निकल जाने, उद्योगीकरण एवं हथकरघा उद्योग के अभाव से जमीन पर बोझ बढ़ने के कारण भूमिहीन किसानों, दस्तकारों एवं हस्तशिल्पियों को बहुधा कम-से-कम मजदूरी पर खेतिहर मजदूर बनने के लिए विवश होना पड़ रहा था। इस प्रकार किसान वर्ग सरकार, जमींदार एवं महाजन के तिहरे बोझ तले कुचला जा रहा था। इस प्रकार ब्रिटिश शासन के विरुद्ध किसान संघर्ष का प्रारंभ इस शासन की स्थापना के प्रारंभिक वर्षों से ही शुरू हो गया था। संन्यासी विद्रोह (1763-1800) की मुख्य शक्ति किसान ही थे। संथाल विद्रोह (1855-56), 1857 का महा विद्रोह, नील महाविद्रोह (1859-60), कूका विद्रोह (1871-72), पवना विद्रोह (1875), दक्षिण के हंगामों (1875) आदि सभी की मुख्य शक्ति किसान थे। गाँधी जी के नेतृत्व में चलाए गए 1920-21 के आंदोलन की भी मुख्य शक्ति किसान थे। इस अवधि में किसान आंदोलन ने पंजाब में अकाली आंदोलन, मालाबार में मोपला विद्रोह एवं संयुक्त प्रांत में जमींदारों और साम्राज्यवाद-विरोधी आंदोलन का रूप धारण कर किया। इसका चौथा केन्द्र बंगाल में कहा जा सकता है जहाँ उसने लगानबंदी का रूप धारण कर लिया था। किसानों के शामिल होने से राष्ट्रीय कांग्रेस का स्वरूप बदल रहा था। इसका श्रेय गाँधी जी को था, हालांकी गाँधी जी द्वारा अकस्मात आंदोलन बंद कर दिए जाने का असंतोष वामपंथ के उदय में एक बहुत बड़ा तत्व बना।

प्रश्न 6. सन् 1922 के पश्चात् मजदूर आंदोलन की दशा का वर्णन कीजिए।

उत्तर-सन् 1922 में असहयोग जन आदोलन बंद किए जाने के बाद देशवासियों के अंदर जो निराशा आ गई थी उसे हटाने का काम मजदूर वर्ग ने किया। उन्होंने अपना वर्ग संघर्ष तेज किया एवं शासकों के दमन के बावजूद अपने मोर्चे स्थापित किए। सन् 1922 के बाद मजदूर हड़तालें अधिक संगठित हुई थी, किन्तु मजदूर आंदोलन की एक बड़ी दुर्बलता थी-कुशल नेतृत्व का अभाव। प्रायः सब ट्रेड यूनियनों का-यहाँ तक कि आल इडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस का-नेतृत्व भी सुधारवादी था, क्रांतिकारी नहीं। यह नेतृत्व यूनियनों को वर्ग संघर्ष एवं समाजवाद की पाठशाला न बनाकर उन्हें वर्ग सहयोग का हथियार बना रहा था। ए. आई. टी. यू. सी. के उस समय के नेता वेंकट वाराह गिरि, एम. एन. जोशी आदि सभी का स्वर प्रायः यही थी। ब्रिटिश शासक जानते थे कि मजदूर आंदोलन की बढ़ती हुई शक्ति उनके राज्य के लिए खतरनाक साबित हो सकती है, अतः उसे काबू में रखने के लिए उन्होंने तरह-तरह के रास्ते अपनाए। सन् 1919-20 में ‘मद्रास श्रम विभाग’ और ‘मुम्बई श्रम विभाग’ खोला गया। 1921 में उन्होंने औद्योगिक अशांति पर बंगाल कमेटी बैठाई और 1921 में मुंबई इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट्स कमेटी (औद्योगिक विवाद समिति)। सन् 1921 में ट्रेड यूनियन बिल तैयार किया गया।

ब्रिटिश साम्राज्यवादी और उनके भारतीय सरमाएदार दोनों ही जानते थे अगर मजदूर आंदोलन को अपनी मुट्ठी में न रखा गया तो वह क्रांतिकारी मार्ग अपनाएगा और उसका प्रभाव किसानों तथा मध्य वर्ग को भी क्रांति पथिक बना देगा। इस कार्य के लिए ब्रिटिश साम्राज्यवादी शासकों ने ब्रिटेन के सुधारवादी मजदूर नेताओं का उपयोग किया। सन् 1925-27 के बीच इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के सदस्य भोंसले, उस पार्टी के भारतीय कमेटी के सचिव ग्राहम वाल, लेबर पार्टी के सदस्य थारनर जॉन्स्टन सईम और रदरफोड, ब्रिटिश पार्लियामेंट के लेबर पार्टी के सदस्य पैथिक लॉरेन्स आदि भारत आए। ब्रिटिश लेबर पार्टी के नेता चाहते थे कि भारत की ट्रेड यूनियनें सुधारवादी आम्स्टर्डम इंटरनेशनल में एवं सुधारवादी अंतर्राष्ट्रीय मजदूर संगठनों में सम्मिलित हो जाएँ। वे भारत में भी अपनी पार्टी की ही भांति इंडियन लेबर पार्टी की स्थापना चाहते थे। वे कुछ यूनियनों को आम्स्टर्डम इंटरनेशनल में खींच ले जाने में समर्थ हुए किंतु इंडियन लेबर पार्टी बनाने की दिशा में उन्हें सफलता नहीं मिली। हिंदुस्तान का बुर्जुआ वर्ग स्वयं ऐसी पार्टी की स्थापना का विरोधी था जो इस देश में ब्रिटिश इजारेदार पूँजीपतियों के स्वार्थ की रक्षा करें। स्वयं भारत के बुर्जुआ

के भू-स्वामी तथा महाजन उनका शोषण न कर पाएँ। महिलाओं के आंदोलनों ने लिंग-भेद के मुदों पर कार्यस्थल तथा परिवार के अंदर जैसे विभिन्न क्षेत्रों में काम किया है।

नए सामाजिक आंदोलन आर्थिक असमानता के ‘पुराने’ विषयों के बारे में ही नहीं हैं। न ही ये वर्गीय आधार पर संगठित हैं। पहचान की राजनीति, सांस्कृतिक चिंताएँ तथा अभिलाषाएँ सामाजिक आंदोलनों की रचना करने के आवश्यक तत्त्व हैं तथा इनकी उत्पत्ति वर्ग-आधारित असमानता में खोजना कठिन है। प्रायः ये सामाजिक आंदोलन वर्ग की सीमाओं के आर-पार से भागीदारों को एकजुट करते हैं। उदाहरण के लिए, महिलाओं के आंदालन में नगरीय, मध्यवर्गीय महिलावादी तथा गरीब कृषक महिलाएँ सभी सम्मिलित होती हैं। पृथक् राज्य के दो दर्जे की मांग करने वाले क्षेत्री आंदोलन व्यक्तियों के ऐसे विभिन्न समूहों को अपने साथ शामिल करते हैं जो एक सजातीय की पहचान नहीं रखते। सामाजिक असमानता के प्रश्न, दूसरे समान रूप से महत्त्वपूर्ण मुद्दों के साथ सम्मिलित हो सकते हैं।

प्रश्न 8. पर्यावरणीय आंदोलन प्रायः आर्थिक एवं पहचान के मुद्दों को भी साथ लेकर चलते हैं। विवेचना कीजिए।

(NCERTT.B. Q.4)

उत्तर-आधुनिक काल के अधिकतर भाग में सर्वाधिक जोर विकास पर दिया गया है। दशकों से प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित उपयोग तथा विकास के ऐसे प्रतिरूप के निर्माण में, जिससे पूर्व से ही घटते प्राकृतिक संसाधनों के अधिक शोषण की मांग बढ़ती है, के विषय में बहुत चिंता प्रकट की जाती रही है। विकास के इस प्रतिरूप की इसलिए भी आलोचना हुई है, क्योंकि यह स्वीकार करता है कि विकास से सभी वर्गों के लोग लाभान्वित होंगे। जैसे बड़े बांध लोगों को उनके घरों और जीवनयापन के स्रोतों से अलग कर देते हैं और उद्योग, कृषकों को उनके घरों

और आजीविका से। औद्योगिक प्रदूषण के प्रभाव की एक और ही कहानी है। यहाँ हम पारिस्थितिकीय आंदालन से संबंधित विभिन्न मद्दों को जानने के लिए उसका केवल एक उदाहरण ले रहे हैं।

रामचंद्र गुहा की पुस्तक अनक्वाइट वुड्स के अनुसार गाँववासी अपने गाँवों के पास के ओक तथा रोहोडेंड्रोन के जंगलों को बचाने के लिए एक साथ आगे गए। सरकारी जंगल के ठेकेदार पेड़ों को काटने के लिए आए तो गाँववासी, जिनमें संख्या में महिलाएं शामिल थीं, आगे बढ़े और कटाई रोकने के लिए पेड़ों से चिपक गए। गाँववासियों के जीवन-निर्वहन का प्रश्न दाँव पर था। सभी लोग ईंधन के लिए लकड़ी, चारा तथा अन्य दैनिक आवश्यकताओं के लिए जंगलों पर निर्भर थे। इस संघर्ष ने गरीब गाँववासियों को आजीविका की आवश्यकताओं को बेचकर राजस्व कमाने की सरकार की इच्छा के समक्ष खड़ा कर दिया। जीवन-निर्वहन की अर्थव्यवस्था, मुनाफे (लाभ) की अर्थव्यवस्था के विपरीत खड़ी थी। समाजिक असमानता के इस मुद्दे (जिसमें गाँववासियों के समक्ष वाणिज्यिक तथा पूँजीवादी हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकार थी) के साथ चिपको आंदोलन ने पारिस्थितिकीय सुरक्षा के मुद्दे को भी उठाया। प्राकृतिक जंगलों का काटा जाना पर्यावरणीय विनाश का एक रूप था जिसके परिणामस्वरूप क्षेत्र में विनाशकारी बाढ़ तथा भूस्खलन हुए। गांववासियों के लिए ये ‘लाल’ तथा ‘हरे’ मुद्दे अंत: संबद्ध थे जबकि उनकी उत्तरजीविता जंगलों के जीवन पर निर्भर थी। वे जंगलों का सबको लाभ देने वाली परिस्थितिकीय संपदा के रूप में भी आदर करते थे। इसके साथ ही चिपको आंदोलन ने सुदूर मैदानी क्षेत्रों में स्थित सरकार के मुख्यालय जो उनकी चिंताओं के प्रति उदासीन तथा विरुद्ध प्रतीत होता था, के विरुद्ध पर्वतीय गाँववासियों के रोष को भी प्रदर्शित किया। इस प्रकार अर्थव्यवस्था, पारिस्थितिकीय तथा राजनीतिक प्रतिनिधित्व की चिंताएँ चिपको आंदोलन का आधार था।

प्रश्न 9. निम्न पर लघु टिप्पणी लिखें :

(i) महिलाओं के आंदोलन

(ii) जनजातीय आंदोलन

उत्तर-() महिलाओं के आदोलन : 20वीं सदी के प्रारंभ में राष्ट्रीय तथा स्थानीय स्तर पर महिलाओं के संगठनों में वृद्धि देखी गई। विमेंस इंडिया एसोसिएशन (भारतीय महिला एसोसिएशन डब्लयू.आई.ए., 1971) आल-इंडिया कॉन्फ्रेंस (आखिर भारतीय महिला कॉनफ्रेंसः ए.आई.डब्ल्यू. सी.) (1926), नेशनल काउंसिल फॉर विमेन इन इंडिया (भारत में महिलाओं की राष्ट्रीय काउंसिल: एन.सी.डब्लयू.आई.) ऐसे नाम हैं जिन्हें सभी जानते हैं जबकि इनमें से कई की शुरुआत सीमित कार्यक्षेत्र से हुई है। इनका कार्यक्षेत्र समय के साथ विस्तृत हुआ। उदाहरण के लिए प्रारंभ में ए.आई.डब्लयू.सी. का मत था कि ‘महिला कल्याण’ तथा ‘राजनीति’ आपस में असंबद्ध है। कुछ वर्ष बाद उसके अध्यक्षीय भाषण में कहा गया, “क्या भारतीय पुरुष अथवा स्त्री स्वतंत्र हो सकते हैं यदि भारत गुलाम रहे? हम अपनी राष्ट्रीय स्वतंत्रता जो कि सभी महान सुधारों का आधार है, के बारे में चुप कैसे रह सकते हैं ?”

यह तर्क दिया जा सकता है कि सक्रियता का यह काल सामाजिक आंदोलन नहीं था। इसका विरोध भी किया जा सकता था। .

प्रायः यह माना जाता है कि केवल मध्यमवर्गीय शिक्षित महिलाएं ही सामाजिक आंदोलनों में सहभागिता करती हैं। संघर्ष का एक भाग महिलाओं की सहभागिता के विस्मृत इतिहास को याद करना रहा है। औपनिवेशिक काल में जनजातीय तथा ग्रामीण क्षेत्रों में प्रारंभ होने वाले संघर्षों तथा क्रांतियों में महिलाओं ने पुरुषों के साथ भाग लिया। बंगाल में निभागा आंदोलन, निजाम के पूर्वशासन का तेलंगाना सशस्त्र संघर्ष तथा महाराष्ट्र में वरजी जनजाति के बंधुआ दासत्व के विरुद्ध क्रांति, ये कुछ उदाहरण हैं।

एक मुद्दा जो हमेशा उठाया जाता है कि यदि सन् 1947 से पहले महिला आंदोलन एक सक्रिय आंदोलन था, तो बाद में उसका क्या हुआ। इसकी एक व्याख्या यह दी जाती है कि राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने वाली बहुत सी महिला प्रतिभागी राष्ट्र निर्माण के कार्य में संलग्न हो गई। दूसरे लोग विभाजन के आघात को इस ठहराव का उत्तरदायी मानते हैं।

सन् 1970 के दशक के मध्य में भारत में महिला आंदोलन का नवीनीकरण हुआ। कुछ लोग इसे भारतीय महिला आंदोलन का दूसरा दौर कहते हैं जबकि अनेक चिंताएँ उसी प्रकार बनी रहीं, फिर भी संगठनात्मक रणनीति तथा विचारधाराओं दोनों में परिवर्तन हुआ। स्वायत्त महिला आंदोलन कहे जाने वाले आंदोलनों में वृद्धि हुई। ‘स्वायत्त’ शब्द इस तथ्य की ओर संकेत था कि उन महिल संगठनों से जिसके राजनीतिक दलों से संबंध थे, से भिन्न यह ‘स्वायत्तशासी’ अथवा राजनीतिक दलों से स्वतंत्र थीं। यह अनुभव किया गया कि राजनीतिक दल महिलाओं के मुद्दों को अलग-थलग रखने की प्रवृत्ति रखते हैं।

संगठनात्मक परिवर्तन के अलावा कुछ नए मुद्दे भी थे जिन पर ध्यान दिया गया। उदाहरण के लिए, महिलाओं के प्रति हिंसा के बारे में वर्षों से अनेक अभियान चलाए गए हैं। आपने देखा होगा कि स्कूल के प्रार्थनापत्र में पिता तथा माता दोनों के नाम होते हैं। यह सदैव सत्य नहीं था। इसी प्रकार महिलाओं के आंदोलनों के कारण महत्त्वपूर्ण कानूनी परिवर्तन आए हैं। भू-स्वमित्व व रोजगार के मुद्दों की लड़ाई यौन-उत्पीड़न तथा दहेज के विरुद्ध अधिकारों की मांग के साथ लड़ी गई है।

(ii) जनजानीय आंदोलनः देश-भर में फैले विभिन्न जनजातीय समूहों के मुद्दे समान हो सकते हैं, लेकिन उनके विभेद भी उतने ही महत्त्पूर्ण हैं। जनजातीय आंदोलनों में से कई अधिकांश रूप से मध्य भारता की तथाकथित ‘जनजातीय बेल्ट’ में स्थित रहे हैं जैसे-छोटानागपुर व संथाल परगना में स्थित संथाल हों या ओरांव व मुंडा। नए गठित हुए झारखंड प्रदेश का इतिहास सौ वर्ष पुराना है। इसके विषय में पिछले पृष्ठों में काफी कुछ बताया जा चुका है।

 

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