12th Psychology

Bihar Board 12th Psychology Important Questions Long Answer Type Part 1

Bihar Board 12th Psychology Important Questions Long Answer Type Part 1

BSEB 12th Psychology Important Questions Long Answer Type Part 1

प्रश्न 1. बुद्धि के द्वितत्वक सिद्धान्त का वर्णन करें। अथवा, बुद्धि के द्वि-कारक सिद्धान्त का वर्णन करें।
उत्तर: बुद्धि के द्वि-कारक सिद्धान्त का प्रतिपादन ब्रिटिश मनोवैज्ञानिक चार्ल्स स्पीयरमैन ने किया। इन्होंने बुद्धि संरचना में दो प्रकार के कारकों का उल्लेख किया है, जिन्हें सामान्य बुद्धि (जी० कारक) तथा विशिष्ट बुद्धि (एस० कारक) कहते हैं। इनके अनुसार बुद्धि में सामान्य बुद्धि का बड़ा अंश है जो व्यक्ति के संज्ञानात्मक कार्यों के लिए उत्तरदायी है। इस कारक पर किसी तरह के शिक्षण, प्रशिक्षण, पूर्व अनु आदि का प्रभाव नहीं पड़ता है। इस कारण यह कारक जन्मजात कारक माना जाता है। दूसरी स्पीयरमैन में विशिष्ट बुद्धि का अति लघुरूप (5%) माना है।

विशिष्ट बुद्धि की प्रमुख विशेषता यह है कि यह एक ही व्यक्ति में भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न मात्रा में पाया जाता है। शिक्षण-प्रशिक्षण से प्रभावित होता है। ऐसे कारकों की आवश्यकता विशेष योग्यता वाले कार्यों में पड़ती है। जैसे एक व्यक्ति प्रसिद्ध लेखक है परन्तु आवश्यक नहीं है कि वह उतना ही निपुण पेण्टर भी साबित हो। अर्थात् लेखन में विशिष्ट बुद्धि अधिक हो सकती है तथा पेंटिंग व गायन विशिष्ट बुद्धि की मात्रा कम हो सकती है। इस प्रकार यह बुद्धि का प्रथम व्यवस्थित सिद्धान्त है। आगे चलकर इस सिद्धान्त की आलोचना इस आधार पर की गयी कि बुद्धि में केवल दो ही तत्त्व वल्कि अनेक तत्त्व होते हैं।

प्रश्न 2. फ्रायड के मनोलैंगिक विकास की पाँच अवस्थाओं का वर्णन करें।
उत्तर: फ्रायड ने मनोलैंगिक विकास को पाँच अवस्थाओं में बाँटा है-
(i) मौखिक अवस्था- एक नवजात शिशु की मूल प्रवृत्तियाँ मुख पर केंद्रित होती हैं। यह शिशु का प्राथमिक सुख प्राप्ति का केंद्र होता है। यह मुख ही होता है जिसके माध्यम से शिशु भोजन ग्रहण करता है और अपनी भूख को शांत करता है। शिशु मौखिक संतुष्टि भोजन ग्रहण, अँगूठा चूसने, काटने और बलबलाने के माध्यम से प्राप्त करता है। जन्म के बाद आरंभिक कुछ महीनों की अवधि में शिशुओं में अपने चतुर्दिक जगत के बारे में आधारभूत अनुभव और भावनाएँ विकसित हो जाती हैं। फ्रायड के अनुसार एक वयस्क जिसके लिए यह संसार कटु अनुभवों से परिपूर्ण हैं, संभवतः मौखिक अवस्था का उसका विकास कठिनाई से हुआ करता है।

(ii) गुदीय अवस्था- ऐसा पाया गया है कि दो-तीन वर्ष की आयु में बच्चा समाज की कुछ मांगों के प्रति अनुक्रिया करना सीखता है! इनमें से एक प्रमुख माँग माता-पिता की यह होती है कि बालक मूत्रत्याग एवं मलत्याग जैसे शारीरिक प्रकार्यों को सीखे। अधिकांश बच्चे एक आयु में इन क्रियाओं को करने में आनद का अनुभव करते हैं। शरीर का गुदीय क्षेत्र कुछ सुखदायक भावनाओं का केंद्र हो जाता है। इस अवस्था में इड और अहं के बीच द्वंद्व का आधार स्थापित हो जाता है। साथ ही शैशवावस्था की सुख की इच्छा एवं वयस्क रूप में नियंत्रित व्यवहार की मांग के बीच भी दंद्र का आधार स्थापित हो जाता है।

(iii) लैंगिक अवस्था- यह अवस्था जननांगों पर बल देती है। चार-पाँच वर्ष की आयु में बच्चे पुरुषों एवं महिलाओं के बीच का भेद अनुभव करने लगते हैं। बच्चे कामुकता के प्रति एवं अपने माता-पिता के बीच काम संबंधों के प्रति जागरूक हो जाते हैं। इसी अवस्था में बालक इडिपस मनोग्रंथि का अनुभव करता है जिसमें अपनी माता के प्रति प्रेम और पिता के प्रति आक्रामकता सन्निहित होती है तथा इसके परिणामस्वरूप पिता द्वारा दंडित या शिश्नलोप किए जाने का भय भी बालक में कार्य करता है। इस अवस्था की एक प्रमुख विकासात्मक उपलब्धि यह है कि बालक अपनी इस मनोग्रंथि का समाधान कर लेता है। वह ऐसा अपनी माता के प्रति पिता के संबंधों को स्वीकार करके उसी तरह का व्यवहार करता है।

बलिकाओं में यह इडिपस ग्रंथि थोड़े भिन्न रूप में घटित होती है। बालिकाओं में इसे इलेक्ट्रा मनोग्रंथि कहते हैं। इसे मनोग्रंथि में बालिका अपने पिता को प्रेम करती है और प्रतीकात्मक रूप से उससे विवाह करना चाहती है। जब उसको यह अनुभव होता है कि संभव नहीं है तो वह अपनी माता का अनुकरण कर उसके व्यवहारों को अपनाती है। ऐसा वह अपने पिता का स्नेह प्राप्त करने के लिए करती है। उपर्युक्त दोनों मनोग्रंथियों के समाधान में क्रांतिक घटक समान लिंग के माता-पिता के साथ तदात्मीकरण स्थापित करना है। दूसरे शब्दों में, बालक अपनी माता के प्रतिद्वंद्वी की बजाय भूमिका-प्रतिरूप मानने लगते हैं। बालिकाएँ अपने पिता के प्रति लौ ८ इच्छाओं का त्याग कर देती हैं और अपनी माता से तादात्मय स्थापित करती है।

(iv) कामप्रसप्ति अवस्था-यह अवस्था सात वर्ष की आयु से आरंभ होकर यौवनारंभ तक बनी रहती है। इस अवधि में बालक का विकास शारीरिक दृष्टि से होता रहता है। किन्तु उसकी कामेच्छाएँ सापेक्ष रूप से निष्क्रिय होती हैं। बालक की अधिकांश ऊर्जा सामाजिक अथवा उपलब्धि संबंधी क्रियाओं में व्यय होती है।

(v) जननांगीय अवस्था- इस अवस्था में व्यक्ति मनोलैंगिक विकास में परिपक्वता प्राप्त करता है। पूर्व की अवस्थाओं की कामेच्छाएँ, भय और दमित भावनाएँ पुनः अभिव्यक्त होने लगती हैं। लोग इस अवस्था में विपरीत लिंग के सदस्यों से परिपक्व तरीके से सामाजिक और काम संबंधी आचरण करना सीख लेते हैं। यदि इस अवस्था की विकास यात्रा में व्यक्ति को अत्यधिक दबाव अथवा अत्यासक्ति का अनुभव होता है तो इसके कारण विकास की किसी आरंभिक अवस्था पर उसका स्थिरण हो सकता है।

प्रश्न 3. निर्धनता के मुख्य कारणों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: निर्धनता के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-
(i)निर्धन स्वयं अपनी निर्धनता के लिए उत्तरदायी होते हैं। इस मत के अनुसार, निर्धन व्यक्तियों में योग्यता तथा अभिप्रेरणा दोनों की कमी होती है जिसके कारण वे प्रयास करके उपलब्ध अवसरों का लाभ नहीं उठा पाते। सामान्यतः निर्धन व्यक्तियों के विषय में यह मत निषेधात्मक है तथा उनकी स्थिति को उत्तम बनाने में तनिक भी सहायता नहीं करता है।

(ii) निर्धनता का कारण कोई व्यक्ति नहीं अपितु एक विश्वास व्यवस्था, जीवन-शैली तथा वे मूल्य हैं जिनके साथ वह पलकर बड़ा हुआ है। यह विश्वास व्यवस्था, जिसे ‘निर्धनता की संस्कृति’ (culture of poverty) कहा जाता है, व्यक्ति को यह मनवा या स्वीकार करवा देती है कि वह तो निर्धन ही रहेगा/रहेगी तथा यह विश्वास एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होता रहता है।

(iii)आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक कारक मिलकर निर्धनता का कारण बनते हैं। भेदभाव के कारण समाज के कुछ वर्गों को जीविका की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति करने के अवसर भी दिए जाते। आर्थिक व्यवस्था को सामाजिक तथा राजनीतिक शोषण के द्वारा वैषम्यपूर्ण (असंगत) तरह से विकसित किया जाता है जिससे कि निर्धन इस दौड़ से बाहर हो जाते हैं। ये सारे कारक सामाजिक . असुविधा के संप्रत्यय में समाहित किए जा सकते हैं जिसके कारण निधन सामाजिक अन्याय, वंचन, भेदभाव तथा अपवर्जन का अनुभव करते हैं।

(iv) वह भौगोलिक क्षेत्र, व्यक्ति जिसके निवासी हों, उसे निर्धनता का एक महत्त्वपूर्ण कारण माना जाता है। उदाहरण के लिए, वे व्यक्ति जो ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं जिनमें प्राकृतिक संसाधनों का अभाव होता है (जैसे-मरुस्थल) तथा जहाँ की जलवायु भीषण होती है (जैसे-अत्यधिक सर्दी या गर्मी) प्रायः निर्धनता के शिकार हो जाते हैं। यह कारक मानव द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। फिर भी उन इन क्षेत्रों के निवासियों की सहायता के लिए प्रयास अवश्य किए जा सकते हैं ताकि वे जीविका के
वैकल्पिक उपाय खोज सकें तथा उन्हें उनकी शिक्षा एवं रोजगार हेतु विशेष सुविधाएँ उपलब्ध कराई जा सकें।

(v) निर्धनता चक्र (Poverty cycle) भी निर्धनता का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण है जो यह व्याख्या करता है कि निर्धनता उन्हीं वर्गों में ही क्यों निरंतर बनी रहती है। निर्धनता ही निर्धनता की जननी भी है। निम्न आय और संसाधनों के अभाव से प्रारंभ कर निर्धन व्यक्ति निम्न स्तर के पोषण तथा स्वास्थ्य, शिक्षा के अभाव तथा कौशलों के अभाव से पीड़ित होते हैं। इनके कारण उनके रोजगार पाने के अवसर भी कम हो जाते हैं जो पुनः उनकी निम्न आय स्थिति तथा निम्न स्तर के स्वास्थ्य एवं पोषण स्थिति को सतत् रूप से बनाए रखते हैं। इनके परिणामस्वरूप निम्न अभिप्रेरणा स्तर स्थिति को और भी खराब कर देता है, यह चक्र पुनः प्रारंभ होता है और चलता रहता है। इस प्रकार निर्धनता चक्र में उपर्युक्त विभिन्न कारकों की अंत:क्रियाएँ सन्निहित होती हैं तथा इसके परिणास्वरूप वैयक्तिक अभिप्रेरणा, आशा तथा नियंत्रण-भावना में न्यूनता आती है।

प्रश्न 4. सामान्य अनुकूलन संलक्षण क्या है? इसकी विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन करें।
उत्तर: मनुष्य अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और अन्य उद्देश्यों से भी प्राकृतिक पर्यावरण के ऊपर अपना प्रभाव डालते हैं। निर्मित पर्यावरण के सारे उदाहरण पर्यावरण के ऊपर मानव प्रभाव को अभिव्यक्त करते हैं। उदाहरण के लिये, मानव ने जिसे हम ‘घर’ कहते हैं उसका निर्माण प्राकृतिक पर्यावरण को परिवर्तित करके ही किया जिससे कि उन्हें एक आश्रय मिल सके। मनुष्यों के इस प्रकार के कुछ कार्य पर्यावरण को क्षति भी पहुंचा सकते हैं और अंततः स्वयं उन्हें करते हैं, जैसे-रेफ्रीजरेटर तथा वातानुकूलन यंत्र जो रासायनिक द्रव्य (जैसे-CFC या क्लोरो फ्लोरो कार्बन) उत्पादित करते हैं, जो वायु को प्रदूषित करते हैं तथा अंतत: ऐसे शारीरिक रोगों के लिए उत्तरदायी हो सकते हैं, जैसे-कैंसर के कुछ प्रकार।

धूम्रपान के द्वारा हमारे आस-पास की वायु प्रदूषित होती है तथा प्लास्टिक एवं धात से बनी वस्तओं को जलाने से पर्यावरण पर घोर विपदाकारी प्रदूषण फैलाने वाला प्रभाव होता है। वृक्षों के कटान या निर्वनीकरण के द्वारा कार्बन चक्र एवं जल चक्र में व्यवधान उत्पन्न हो सकता है। इससे अंततः उस क्षेत्र विशेष में वर्षा के स्वरूप पर प्रभाव पड़ सकता है और भू-क्षरण तथा मरुस्थलीकरण में वृद्धि हो सकती है। वे उद्योग जो निस्सारी का बहिर्वाह करते हैं तथा इस असंसाधि त गंदे पानी को नदियों में प्रवाहित करते हैं, इस प्रदूषण के भयावह भौतिक (शारीरिक) तथा मनोवैज्ञानिक परिणामों से, संबंधित व्यक्ति तनिक भी चिंतित प्रतीत नहीं होते हैं।

मानव व्यवहार पर पर्यावरणीय प्रभाव :
(i) प्रत्यक्षण पर पर्यावरणी प्रभाव-पर्यावरण के कुछ पक्ष मानव प्रत्यक्षण को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, अफ्रीका की एक जनजाति समाज गोल कुटियों (झोपड़ियों) में रहती है अर्थात् ऐसे घरों में जिनमें कोणीय दीवारें नहीं हैं, वे ज्यामितिक भ्रम (मूलर-लायर भ्रम) में कब त्रुटि प्रदर्शित करते हैं, उन व्यक्तियों की अपेक्षा जो नगरों में रहते हैं और जिनके मकानों में कोणीय दीवारें होती हैं।

(ii) संवेगों पर पर्यावरणी प्रभाव-पर्यावरण का प्रभाव हमारी सांवेगिक प्रतिक्रियाओं पर भी पड़ता है। प्रकृति के प्रत्येक रूप का दर्शन चाहे वह शांत नदी का प्रवाह हो, एक मुस्कुराता हुआ फूल हो, या एक शांत पर्वत की चोटी हो, मन को एक ऐसी प्रसन्नता से भर देता है जिसकी तुलना किसी अन्य अनुभव से नहीं की जा सकती। प्राकृतिक विपदाएँ; जैसे-बाढ़, सूखा, भू-स्खलन, भूकंप चाहे पृथ्वी के ऊपर हो या समुद्र के नीचे हो, वह व्यक्ति के संवेगों पर इस सीमा तक प्रभाव डाल सकते हैं कि वे गहन अवसाद और दुःख तथा पूर्ण असहायता की भावना और अपने जीवन पर नियंत्रण के अभाव का अनुभव करते हैं। मानव संवेगों पर ऐसा प्रभाव एक अभिघातज अनुभव है जो व्यक्तियों के जीवन को सदा के लिये परिवर्तित कर देता है तथा घटना के बीत जाने के बहुत समय बाद तक भी अभिघातज उत्तर दबाव विकार (Post traumatic stress disorder-PTSD) के रूप में बना रहता है।

(iii) व्यवसाय, जीवन शैली तथा अभिवृत्तियों पर पारिस्थितिकी का प्रभाव-किसी क्षेत्र का प्राकृतिक पर्यावरण यह निर्धारित करता है कि उस क्षेत्र के निवासी कृषि पर (जैसेमैदानों में) या अन्य व्यवसायों, जैसे-शिकार तथा संग्रहण पर (जैसे-वनों, पहाड़ों या रेगिस्तानी क्षेत्रों में) या उद्योगों पर (जैसे उन क्षेत्रों में जो कृषि के लिए उपजाऊ नहीं हैं) निर्भर रहते हैं परन्तु किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र के निवासियों के व्यवसाय भी उनकी जीवन शैली और अभिवृत्तियों का निर्धारण करते हैं।

प्रश्न 5. प्रेक्षण कौशल क्या है? इसके गुण-दोषों का वर्णन करें।
उत्तर: किसी व्यवहार या घटना को देखना किसी घटना को देखकर क्रमबद्ध रूप से उसका वर्णन प्रेक्षण कहलाता है। मनोवैज्ञानिक चाहे किसी भी क्षेत्र में कार्य कर रहे हों वह अधिक-से-अधिक समय ध्यान से सुनने तथा प्रेक्षण कार्य में लगा देते हैं। मनोवैज्ञानिक अपने संवेदनाओं का प्रयोग देखने, सुनने, स्वाद लेने या स्पर्श करने में लेते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मनोवैज्ञानिक एक उपकरण है, जो अपने परिवेश के अन्तर्गत आने वाली समस्त सूचनाओं का अवशोषण कर लेता है।

मनोवैज्ञानिक व्यक्ति के भौतिक परिवेश के उन हिस्सों के प्रेक्षण के उपरांत शक्ति तथा उसके व्यवहार का भी प्रेक्षण करता है। मनोवैज्ञानिक व्यक्ति के भौतिक परिवेश में उन हिस्सों के प्रेक्षण के उपरांत व्यक्ति तथा उसके व्यवहार का भी प्रेक्षण करता है, जिसके अंतर्गत व्यक्ति की आय, लिंग, कद, उसका दूसरे से व्यवहार करने का तरीका आदि सम्मिलित होते हैं।

प्रेक्षण के दो प्रमुख उपागम हैं-

  • (i) प्रकृतिवादी प्रेक्षण तथा
  • (ii) सहभागी प्रेक्षण। गुण-
    • (i) यह विधि वस्तुनिष्ठ तथा अवैयक्तिक होता है।
    • (ii) इसका प्रयोग बच्चे, बूढ़े, पशु-पक्षी सभी पर किया जा सकता है।
  • (iii) इस विधि द्वारा संख्यात्मक परिणाम प्राप्त होता है।
  • (iv) इसमें एक साथ कई व्यक्तियों का अध्ययन संभव है।
  • (v) इस विधि में पुनरावृत्ति की विशेषता है। दोष-
    • (i) इस विधि में श्रम एवं समय का त्गय होता है।
    • (ii) प्रेक्षक के पूर्वाग्रह के कारण गलती का ८ रहता है।
    • (iii) प्रयोगशाला की नियंत्रित परिस्थिति नहीं होने कारण निष्कर्ष प्रभावित होता है।

प्रश्न 6. दुश्चिंता विकार के विभिन्न प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर: प्रत्येक व्यक्ति को व्याकुलता और भय होते हैं। सामान्यतः भय और आशंका की विस्तृत, अस्पष्ट और अप्रीतिकर भावना को ही दुश्चिंता कहते हैं। दुश्चिंता विकार व्यक्ति में कई लक्षणों के रूप में दिखाई पड़ता है। इन लक्षणों के आधार पर इसे मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया गया है :
(i) सामान्यीकृत दुश्चिंता विकार- इसके लंबे समय तक चलनवाले अस्पष्ट, अवर्णनीय तथा तीव्र भय होते हैं जो किसी भी विशिष्ट वस्तु के प्रति जुड़े हुए नहीं होते हैं। इसके लक्षणों में भविष्य के प्रति अकिलता एवं आंशिका अत्यधिक सतर्कता, यहाँ तक कि पर्यावरण में किसी भी प्रकार के खतरे की छान-बीन शामिल होती है। इसमें पेशीय तनाव भी होता है। जिससे आराम नहीं कर पता है बेचैन रहता है तथा स्पष्ट रूप से कमजोर और तनावग्रस्त दिखाई देता है।

(ii) आतंक विकार– इसमें दुश्चिंता के दौर लगातार पड़ते हैं और व्यक्ति तीव्र दहशत का अनुभव करता है। आतंक विकार में कभी विशेष उद्दीपन से सम्बन्धित विचार उत्पन्न होती है तो अचानक तीव्र दुश्चिंता अपनी उच्चतम सीमा पर पहुँच जाती है। इस तरह के विचार अचानक से उत्पन्न होते हैं। इसके नैदानिक लक्षणों में साँस की कमी, चक्कर आन, कपकपी, दिल तेजी से धड़कना, दम घुटन , जी मिचलना, छाती में दर्द या बेचैनी, सनकी होने का भय, नियंत्रण खोना या मरने का एहसास सम्मिलित होते हैं।

प्रश्न 7. आत्म किसे कहते हैं? आत्म-सम्मान की विवेचना करें।
उत्तर: आत्म शब्द अंग्रेजी के शब्द Self का हिन्दी रूपान्तर है, जिसका अर्थ है “What one is” अर्थात् जो कुछ कोई होता है। आत्म शब्द का प्रयोग सामान्यतः दो अर्थों में किया जाता हैएक अर्थ में आत्म व्यक्ति के स्वयं के मनोभावों या मनोवृत्तियों का दर्पण होता है। अर्थात् व्यक्ति अपने बारे में जो सोचता है वही आत्म है। अत: आत्म एक वस्तु के रूप में है। दूसरे अर्थ में आत्मा का अभिप्राय कार्य पद्धति से है अर्थात् आत्म को एक प्रक्रिया माना जाता है। इसमें मानसिक प्रक्रियाएँ आती हैं जिसके द्वारा व्यक्ति किसी कार्य का प्रबंधन, समायोजन, चिंतन, स्मरण, योजना का निर्माण आदि करता है। इस प्रकार थोड़े शब्दों में हम कह सकते हैं कि व्यक्ति अपने अस्तित्व की विशेषताओं का अनुभव जिस रूप में करता है तथा जिस रूप में वह व्यक्ति होता है, उसे ही आत्म कहते हैं।

आत्म-सम्मान या आत्म-गौरव या आत्म-आदर, आत्म सम्प्रत्यक्ष से जुड़ा एक महत्वपूर्ण है। व्यक्ति हर क्षण अपने मूल्य तथा अपनी योग्यता के बारे में आकलन करते रहता है। व्यक्ति का अपने बारे में यही मूल्य अथवा महत्त्व की अवधारणा को आत्म सम्मान कहा जाता है। लिण्डग्रेन के अनुसार, “स्वयं को जो हम मूल्य प्रदान करते हैं, वही आत्म-सम्मान है।” इस प्रकार आत्म-सम्मान से तात्पर्य व्यक्ति को अपने प्रति आदर, मूल्य अथवा सम्मान को बताता है जो कि गर्व तथा आत्मप्रेम के रूप में संबंधित होता है।

आत्म-सम्मान का स्तर अलग-अलग व्यक्तियों में अलग-अलग पाया जाता है। किसी व्यक्ति में इसका स्तर उच्च होता है तो किसी व्यक्ति में इसका स्तर निम्न होता है। जब व्यक्ति का स्वयं के प्रति सम्मान निम्न होता है तो वह आत्म-अनादर ढंग से व्यवहार करता है। अतः व्यक्ति का आत्म-सम्मान उसके व्यवहार से भक्त होता है। व्यक्ति अपने आपको जितना महत्त्व देता है उसी अनुपात में उसका आत्म-सम्मान होता है।

प्रश्न 8. बुद्धि लब्धि तथा संवेगात्मक बुद्धि में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर: बुद्धि लब्धि (I.Q.) तथा संवेगात्मक बुद्धि (E. Q.) में अंतर निम्नलिखित है-

बुद्धि लब्धि संवेगात्मक बुद्ध
1. बुद्धि लब्धि यह बताती है कि शिशु की मानसिक योग्यता का किस गति से विकास हो रहा है। 1. संवेगात्मक बुद्धि यह बताती है कि अपने तथा दूसरे व्यक्ति के संवेगों का परिवीक्षण करने, उनमें विभेदन करने की योग्यता तथा प्राप्त सूचना के अनुसार अपने चिंतन तथा व्यवहारों को निर्देशित करने की योग्यता हीसांवेगिक बुद्धि है।
2. बुद्धि लब्धि घट-बढ़ सकती है तथा परिवर्तन भी होता है। 2. संवेगात्मक बुद्धि घट-बढ़ नहीं सकती है।
3. बुद्धि लब्धि को प्रभावित करने का एक स्रोत सकता है। 3. उसे वातावरण द्वारा प्रभावित नहीं किया जा वातावरण भी है।
4. बुद्धि लब्धि सामान्यतया योग्यता की ओर संकेत करती है। 4. संवेगात्मक बुद्धि सामान्यतया योग्यता की ओर संकेत नहीं करती है।
5. बुद्धि लब्धि का उपयोग किसी व्यक्ति की सांवेगिक बुद्धि की मात्रा बताने में नहीं किया जाता है। 5. सांवेगिक बुद्धि का उपयोग किसी व्यक्ति की सांवेगिक बुद्धि की मात्रा बताने में किया जाता है।

प्रश्न 9. प्राथमिक समूह तथा द्वितीयक समूह के बीच अन्तरों की विवेचना करें।
उत्तर: प्राथमिक तथा द्वितीयक समूह के मध्य एक अंतर यह है कि प्राथमिक समूह पूर्व-विद्यमान होते हैं जो प्रायः व्यक्ति को प्रदत्त किया जाता है जबकि द्वितीयक समूह वे होते हैं जिसमें व्यक्ति अपने पसंद से जुड़ता है। अतः परिवार, जाति एवं धर्म प्राथमिक समूह है जबकि राजनीतिक दल की सदस्यता द्वितीयक समूह का उदाहरण है। प्राथमिक समूह में मुखोन्मुख अतःक्रिया होती है, सदस्यों में घनिष्ठ शारीरिक समीप्य होता है और उनमें एक उत्साहपूर्वक सांवेगिक बंधन पाया जाता है।

प्राथमिक समूह व्यक्ति के प्रकार्यों के लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं और विकास की आरंभिक अवस्थाओं में व्यक्ति के मूल्य एवं आदर्श के विकास में इनकी बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इसके विपरीत, द्वितीयक समूह वे होते हैं जहाँ सदस्यों में संबंध अधिक निर्वेयक्तिक, अप्रत्यक्ष एवं कम आवृत्ति वाले होते हैं। प्राथमिकता समूह में सीमाएँ कम पारगम्य होती हैं, अर्थात् सदस्यों के पास इसकी सदस्यता वरण या चरण करने का विकल्प नहीं रहता है, विशेष रूप से द्वितीयक समूह की तुलना में जहाँ इसकी सदस्यता को छोड़ना और दूसरे समूह से जुड़ना आसाना होता है।

प्रश्न 10. मानव व्यवहार पर प्रदूषण के प्रभावों का वर्णन करें।
उत्तर: पर्यावरणीय प्रदूषण वायु, जल तथा भूमि प्रदूषण के रूप में हो सकता है। इन सभी प्रदूषणों का वर्णन क्रमशः निम्नलिखित हैं-

(i) मानव व्यवहार पर वायु प्रदूषण का प्रभाव- वायुमंडल में 78.98% नाइट्रोजन, 20.94% ऑक्सीजन तथा 0.03% कार्बन डाइऑक्साइड होता है। यह शुद्ध वायु कहलाती है। लेकिन उद्योगों का धुआँ, धूल के कण, मोटर आदि वाहनों की विषाक्त गैसें, रेडियोधर्मी पदार्थ आदि वायु प्रदूषण के मुख्य कारण हैं, जिसका प्रभाव मानव के स्वास्थ्य तथा व्यवहार पर पर्याप्त पड़ता है। मानव श्वसन क्रिया में ऑक्सीजन लेता है तथा कार्बनडाइऑक्साइड छोड़ता है जो वायुमंडल में मिलती रहती है।

आधुनिक युग में वायु को औद्योगिक प्रदूषण ने सर्वाधिक प्रभावित किया है। प्रदूषित वायुमंडल में अवांछित कार्बनडाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, अधजले हाइड्रोकार्बन के कण आदि मिले रहते हैं। ऐसे वायुमंडल में श्वास लेने से मनुष्य के शरीर में कई प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। राय एवं कपर के शोध परिणामों से यह ज्ञात होता है कि निम्न प्रदूषित क्षेत्रों के मानवों की अपेक्षा उच्च प्रदूषित क्षेत्रों के मानवों में अत्यधिक उदासीनता, अत्यधिक आक्रामकता एवं पारिवारिक अन्तर्द्वन्द्र विशेष देखा गया है।

(ii) मानव व्यवहार पर जल प्रदूषण का प्रभाव- जल प्रदूषण से तात्पर्य जल के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों में ऐसा परिवर्तन से है कि उसके रूप, गंध और स्वाद से मानव के स्वास्थ्य और कृषि, उद्योग एवं वाणिज्य को हानि पहुँचे, जल प्रदूषण कहलाता है। जल जीवन के लिए एक बुनियादी जरूरत है। प्रदूषित जल पीने से विभिन्न प्रकार के मानवीय रोग उत्पन्न हो जाते हैं, जिसमें आँत रोग, पीलिया, हैजा, टायफाइड, अतिसार तथा पेचिस प्रमुख हैं। औद्योगिक इकाइयाँ द्वारा जल स्रोतों में फेंके गए पारे, ताँबे, जिंक और अन्य धातुएँ तथा उनके ऑक्साइड अनेक शारीरिक विकृतियों को जन्म देते हैं। इस प्रकार प्रदूषित जल का मानव जीवन पर बुरा असर पड़ता है।
इस प्रकार वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण तथा इन दोनों के प्रभाव से भूमि प्रदूषण का प्रभाव मानव व्यवहार पर पड़ता है।

प्रश्न 11. सामान्य और असामान्य व्यवहारों में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर: सामान्य तथा असामान्य व्यक्ति के व्यवहारों में अलग-अलग विशेषताएँ पायी जाती है। इनके बीच कुछ प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं-

सामान्य व्यक्ति असामान्य व्यक्त
1. सामान्य व्यक्ति का संपर्क वास्तविक से रहता है। वह अपने भौतिक, सामाजिक तथा आन्तरिक पर्यावरण के साथ संबंध बनाये रखता है। वास्तविकता को वह पहचान खोया रहता है। कर उसके प्रति तटस्थ मनोवृत्ति रखता है। दूसरी ओर असामान्य व्यक्ति का संबध वास्तविक से विच्छेदित रहता है। वह वास्तविक से दूर अपनी भिन्न दुनिया में रखता है। 

 

2. सामान्य व्यक्ति में सुरक्षा की भावना निहित रहती है। वह सामाजिक, पारिवारिक, व्याव- सायिक तथा अन्य परिस्थितियों में अपने असुरक्षित महसूस करता है। दूसरी ओर असामान्य व्यक्ति अपने बेवजह आपको सुरक्षित महसूस करता है।
3. सामान्य व्यक्ति अपना आत्म-प्रबंध में सफल रहता है। वह खुद अपनी देखभाल तथा सुरक्षा करता रहता है। दूसरी ओर व्यक्ति अपना आत्मप्रबंध करने में विफल रहता है। वह अपनी देखभाल तथा सुरक्षा हेतु दूसरों पर निर्भर रहता है।
4. सामान्य व्यक्ति के कार्यों में सहजता तथा स्वभाविकता होती है। वह समानुसार व्यवहार करने की योग्यता रखता है। साथ-ही-साथ ऐसे व्यक्तियों में संवेगात्मक परिपक्वता रहता है। दूसरी ओर असामान्य व्यक्ति विचित्र तथा अस्वाभाविक हरकतें करता है। उसमें परिस्थिति के अनरूप व्यवहार करने की क्षमता का अभाव रहती है।
5. सामान्य व्यक्ति के व्यक्तित्व में सम्पूर्णता रहती है जिससे वह आंतरिक संतुलन बनाये रखता है। दूसरी ओर असामान्य व्यक्तियों में इन गुणों का अभाव पाया जाता है। जिस कारण उनके व्यक्तित्व का विघटन होने लगता है।
6. सामान्य व्यक्ति अपना आत्म मूल्यांकन कर अपनी योग्यता एवं क्षमता को ध्यान में रख-कर अपने जीवन लक्ष्य का निर्धारण करता है, जिससे उन्हें वास्तविक जीवन में सफलता मिलती है। दूसरी ओर असामान्य व्यक्ति वास्तविक आत्म मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं और अपनी खूबियों को चढ़ा-चढ़ा कर देखते हैं जिससे उन्हें वास्तविक जीवन में सफलता मिलती है।
7. सामान्य व्यक्तियों में कर्त्तव्य बोध होता है। वे किसी कार्य को जिम्मेदारीपूर्वक स्वीकार कर उसे अपनाते हैं। वे गलत तथा सही दोनों के लिए जिम्मेवार होते हैं। दूसरी ओर असामान्य व्यक्तियों में यह उत्तर दायित्व-भाव नहीं रहता है। ये सही अथवा गलत किसी के लिए भी जिम्मेवारी नहीं स्वीकारते है।
8. सामान्य व्यक्ति का सामाजिक अभियोजन कुशल होता है। ये सामाजिक मूल्य एवं मर्यादा के अनुकूल व्यवहार दिखलाते हैं। अत: वे समाज में लोकप्रिय भी रहते हैं। दूसरी ओर असामान्य व्यक्ति का सामाजिक अभियोजन कुशल नहीं होता है। ये समाज से कटे तथा विपरीत व्यवहार प्रदर्शित करने वाले होते हैं। अतः ये समाज में उपहास के पात्र होते हैं।

प्रश्न 12. मनोवृत्ति क्या है ? इसके संघटकों का वर्णन करें।
उत्तर: समाज मनोविज्ञान में मनोवृत्ति की अनेक परिभाषाएँ दी गई हैं। सचमुच में मनोवृत्ति भावात्मक तत्त्व का एक तंत्र या संगठन होता है। इस तरह से मनोवृत्ति ए० बी० सी० तत्त्वों का एक संगठन होता है। इन तत्त्वों को निम्न रूप से देख सकते हैं-

  • संज्ञानात्मक तत्त्व-संज्ञानात्मक तत्त्व से तात्पर्य व्यक्ति में मनोवृत्ति वस्तु के प्रति विश्वास से होता है।
  • भावात्मक तत्त्व-भावात्मक तत्त्व से तात्पर्य व्यक्ति में वस्तु के प्रति सुखद या दुखद भाव से होता है।
  • व्यवहारपरक तत्त्व-व्यवहारपरक तत्त्व से तात्पर्य व्यक्ति में मनोवृत्ति के पक्ष में तथा विपक्ष में क्रिया या व्यवहार करने से होता है।

मनोवृत्ति की इन तत्त्वों की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
(i) कर्षणशक्ति- मनोवृत्ति तीनों तत्त्वों में कर्षणशक्ति होता है। कर्षणशक्ति से तालिका मनोवृत्ति को अनुकूलता तथा प्रतिकूलता की मात्रा से होता है।

(ii) बहुविधता- बहुविधता की विशेषता यह बताती है कि मनोवृत्ति के किसी तत्त्व में कितने कारक होते हैं। किसी तत्त्व में जितने कारक होंगे उसमें जटिलता भी इतनी ही अधिक होगी। जैसे सह-शिक्षा के प्रति व्यक्ति की मनोवृत्ति को संज्ञा कारक, सम्मिलित हो सकते हैं-सह-शिक्षा किस स्तर से आरंभ होना चाहिए। सह-शिक्षा के क्या लाभ हैं, सह-शिक्षा नगर में अधिक लाभप्रद होता है या शहर में आदि। बहुविधता को जटिलता भी कहा जाता है।

(iii) आत्यन्तिकता-आत्यन्तिकता से तात्पर्य इस बात से होता है कि व्यक्ति को मनोवृत्ति के तत्त्व कितने अधिक मात्रा में अनुकूल या प्रतिकूल है।

(iv) केन्द्रिता- इसमें तात्पर्य मनोवृत्ति की किसी खास तत्त्व के विशेष भूमिका से होता है। मनोवृत्ति के तीन तत्त्वों में कोई एक या दो तत्त्व अधिक प्रबल हो सकता है और तब वह अन्य दो तत्त्वों को भी अपनी ओर मोड़कर एक विशेष स्थिति उत्पन्न कर सकता है जैसे यदि किसी व्यक्ति को सह-शिक्षा की गुणवत्ता में बहुत अधिक विश्वास है अर्थात् उसका संरचनात्मक तत्त्व प्रबल है तो अन्य दो तत्त्व भी इस प्रबलता के प्रभाव में आकर एक अनुकूल मनोवृत्ति के विकास में मदद करने लगेगा।

स्पष्ट है कि मनोवृत्ति के तत्त्वों की कुछ विशेषताएँ होती हैं। इन तत्त्वों की विशेषताओं मनोवृत्ति की अनुकूल या प्रतिकूल होना प्रत्यक्ष रूप से आधारित है।

प्रश्न 13. समूह निर्माण को समझने में टकमैन का मॉडल किस प्रकार से सहायक है ? व्याख्या करें।
उत्तर: टकमैन का मॉडल-टकमैन (Tuckman) ने बताया है कि समूह पाँच विकासात्मक अनुक्रमों से गुजरता है। ये पाँच अनुक्रम हैं-निर्माण या आकृतिकरण, विप्लवन या झंझावात, प्रतिमान या मानक निर्माण, निष्पादन एवं समापन।
(i) निर्माण की अवस्था-जब समूह के सदस्य पहली बार मिलते हैं तो समूह, लक्ष्य एवं लक्ष्य को प्राप्त करने के संबंध में अत्यधिक अनिश्चितता होती है। लोग एक-दूसरे को जानने का प्रयत्न करते हैं और वह मूल्यांकन करते हैं कि क्या वे समूह के लिए उपयुक्त रहेंगे। यहाँ उत्तेजना के साथ ही साथ भय भी होता है। इस अवस्था को निर्माण या आकृतिकरण की अवस्था (forming stage) कहा जाता है।

(ii) विप्लवन की अवस्था-प्रायः इससे अवस्था के बाद अंतर-समूह द्वंद्व की अवस्था होती है जिसे विप्लवन या झंझावात (Storming) की अवस्था कहा जाता है। इस अवस्था में समूह के सदस्यों के बीच इस बात को लेकर द्वंद्व चलता रहता है कि समूह के लक्ष्य को कैसे प्राप्त करना है, कौन समूह एवं उसके संसाधनों को नियंत्रित करने वाला है और कौन क्या कार्य निष्पादित करने वाला है। इस अवस्था के संपन्न होने के बाद समूह में नेतृत्व करने के लक्ष्य को कैसे प्राप्त करना है इसके लिए क्या स्पष्ट दृष्टिकोण होता है।

(iii) प्रतिमान अवस्था-विप्लवन या झंझावत की अवस्था के बाद एक दूसरी अवस्था आत. जिसे प्रतिमान या मानक निर्माण (Forming) की अवस्था के नाम से जाना जाता है। इस अवधि में यूह के सदस्य समूह व्यवहार से संबंधित मानक विकसित करते हैं। यह एक सकारात्मक समूह अनन्यता के विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

(iv) निष्पादन (Performing)-चतुर्थ अवस्था निष्पादन की होती है। इस अवस्था तक समूह की संरचना विकसित हो चुकी होती है और समूह के सदस्य इसे स्वीकृत कर लेते हैं समूह लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में समूह अग्रसर होता है। कुछ समूहों के लिए समूह विकास की अंतिम व्यवस्था हो सकती है।

(v) समापन की अवस्था- तथापि कुछ समूहों के लिए जैसे-विद्यालय समारोह सदस्यता के लिए आयोजन समिति के संदर्भ में एक अन्य अवस्था हो सकती है जिसे समापन की अवस्था (Adjourning stige) के नाम से जाना जाता है। इस अवस्था में जब समूह का कार्य पूरा हो जाता है तब समूह भंग किया जा सकता है।

प्रश्न 14. प्रतिबल क्या है? इसके कारणों का वर्णन करें।
उत्तर: प्रतिबल एक ऐसी शारीरिक मानसिक दबाव की अवस्था है जिसकी उत्पत्ति आवश्यकता की पूर्ति में बाधा उत्पन्न हो जाने से होती है और इसका बुरा प्रभाव व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक जगत् पर पड़ता है जिसके कारण व्यक्ति इससे किसी भी प्रकार छुटकारा पाना चाहता है। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि प्रतिबल एक दबाव की अवस्था है। यह दबाव शारीरिक या मानसिक किसी भी रूप में हो सकता है। इसकी उत्पत्ति आवश्यकताओं की पूर्ति में बाधा होने के कारण होती है। इसका बुरा प्रभाव शारीरिक और मानसिक जगत् पर पड़ता है, और व्यक्ति इससे छुटकारा पाना चाहता है।

साधारण प्रतिबल व्यक्ति के जीवन में गति प्रदान करनेवाली शक्ति है, जबकि अधिक तीव्र प्रतिबल अधिक घातक होते हैं। प्रतिबल की तीव्रता आवश्यकता की तीव्रता पर निर्भर करता है। व्यक्ति के प्रतिबल के प्रति सहनशीलता अलग-अलग मात्रा में पायी जाती है। प्रतिबल को निर्धारित करने वाले कई कारक हैं। इन कारकों में निराशा, संघर्ष, दबाव आदि प्रमुख हैं। व्यक्ति में मनोवैज्ञानिक, सामाजिक या शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति में बाधा उपस्थिति होती है तो ऐसी स्थिति में व्यक्ति निराशा का शिकार हो जाता है। यह प्रतिबल का प्रमुख निर्धारक है। कौलमैन ने संघर्ष को प्रतिबल का एक महत्त्वपूर्ण निर्धारक माना है। जब व्यक्ति किसी कारण वश मानसिक संघर्ष का सामना करता है तो उसमें प्रतिबल की संभावना बहुत अधिक होती है। इसके अलावा दबाव से दबाव का अनुभव करता है। यह भी प्रतिबल को निर्धारण करता है।

प्रश्न 15. व्यक्तित्व के आकारात्मक मॉडल से आप क्या समझते हैं? व्याख्या करें।
उत्तर: व्यक्तित्व के आकारात्मक मॉडल के प्रतिपादक सिगमंड फ्रायड हैं। इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्तित्व के प्राथमिक संरचनात्मक तत्त्व तीन हैं-इदम् या इड (id), अहं (ego) और पराहम (super ego)। ये तत्त्व अचेतन में ऊर्जा के रूप में होते हैं और इनके बारे में लोगों द्वारा किए गए. व्यवहार के तरीकों से अनुमान लगाया जा सकता है।

इड-यह व्यक्ति की मूल प्रवृत्तिक ऊर्जा का स्रोत होता है। इसका संबंध व्यक्ति की आदिम आवश्यकताओं, कामेच्छाओं और आक्रामक आवेगों की तात्कालिक तुष्टि से होता है। यह सुखेप्सा-सिद्धांत पर कार्य करता है जिसका यह अभिग्रह होता है कि लोग सुख की तलाश करते हैं और कष्ट का परिहार करते हैं। फ्रायड के अनुसार मनुष्य की अधिकांश मूलप्रवृतिक ऊर्जा कामुक होती है और शेष ऊर्जा आक्रामक होती है। इंड को नैतिक मूल्यों, समाज और दूसरे लोगों की कोई परवाह नहीं होती है।

अहं-इसका विकास इड से होता है और यह व्यक्ति की मूलप्रवृत्तिक आवश्यकताओं की संतुष्टि वास्तविकता के धरातल पर करता है। व्यक्तित्व की यह संरचना वास्तविकता सिद्धांत संचारित होती है और प्रायः इड को व्यवहार करने के उपयुक्त तरीकों की तरफ निर्दिष्ट करता है। उदाहरण के लिए एक बालक का इड जो आइसक्रीम खाना चाहता है उससे कहता है कि आइसक्रीम झटक कर खा ले। उसका अहं उससे कहता है कि दुकानदार से पूछे बिना यदि

आइसक्रीम लेकर वह खा लेता है तो वह दण्ड का भागी हो सकता है। वास्तविकता सिद्धांत पर कार्य करते हुए बालक जानता है कि अनुमति लेने के बाद ही आइसक्रीम खाने की इच्छा को संतुष्ट करना सर्वाधिक उपयुक्त होगा। इस प्रकार इड की माँग अवास्तविक और सुखेप्सा सिद्धांत से संचालित होती है, अहं धैर्यवान, तर्कसंगत तथा वास्तविकता सिद्धांत से संचालित होता है।

पराहम्-पराहम् को समझने का और इसकी विशेषता बताने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि इसको मानसिक प्रकार्यों की नैतिक शाखा के रूप में जाना जाए। पराहम् इड और अहं को बताता है कि किसी विशिष्ट अवसर पर इच्छा विशेष की संतुष्टि नैतिक है अथवा नहीं। समाजीकरण की प्रक्रिया में पैतृक प्राधिकार के आंतरिकीकरण द्वारा पराहम् इड को नियंत्रित करने में सहायता प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई बालक आइसक्रीम देखकर उसे खाना चाहता है, तो वह इसके लिए अपनी माँ से पूछता है।

उसका पराहम् संकेत देता है कि उसका यह व्यवहार नैतिक दृष्टि से सही है। इस तरह के व्यवहार के माध्यम से आइसक्रीम को प्राप्त करने पर बालक में कोई अपराध-बोध, भय अथवा दुश्चिता नहीं होगी।

इस प्रकार व्यक्ति के प्रकार्यों के रूप में फ्रायड का विचार था कि मनुष्य का अचेतन मन तीन प्रतिस्पर्धा शक्तियों अथवा ऊर्जा से निर्मित हुआ है। इड, अहं और पराहम की सापेक्ष शक्ति प्रत्येक व्यक्ति की स्थिरता का निर्धारण करती है।

प्रश्न 16. व्यक्तित्व के आकारात्मक मॉडल से आप क्या समझते हैं? व्याख्या करें।
उत्तर: व्यक्तित्व के आकारात्मक मॉडल के प्रतिपादक सिगमंड फ्रायड हैं। इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्तित्व के प्राथमिक संरचनात्मक तत्त्व तीन हैं-इदम् या इड (id), अहं (ego) और पराहम (super ego)। ये तत्त्व अचेतन में ऊर्जा के रूप में होते हैं और इनके बारे में लोगों द्वारा किए गए. व्यवहार के तरीकों से अनुमान लगाया जा सकता है।

इड-यह व्यक्ति की मूल प्रवृत्तिक ऊर्जा का स्रोत होता है। इसका संबंध व्यक्ति की आदिम आवश्यकताओं, कामेच्छाओं और आक्रामक आवेगों की तात्कालिक तुष्टि से होता है। यह सुखेप्सा-सिद्धांत पर कार्य करता है जिसका यह अभिग्रह होता है कि लोग सुख की तलाश करते हैं और कष्ट का परिहार करते हैं। फ्रायड के अनुसार मनुष्य की अधिकांश मूलप्रवृतिक ऊर्जा कामुक होती है और शेष ऊर्जा आक्रामक होती है। इंड को नैतिक मूल्यों, समाज और दूसरे लोगों की कोई परवाह नहीं होती है।

अहं-इसका विकास इड से होता है और यह व्यक्ति की मूलप्रवृत्तिक आवश्यकताओं की संतुष्टि वास्तविकता के धरातल पर करता है। व्यक्तित्व की यह संरचना वास्तविकता सिद्धांत संचारित होती है और प्रायः इड को व्यवहार करने के उपयुक्त तरीकों की तरफ निर्दिष्ट करता है। उदाहरण के लिए एक बालक का इड जो आइसक्रीम खाना चाहता है उससे कहता है कि आइसक्रीम झटक कर खा ले। उसका अहं उससे कहता है कि दुकानदार से पूछे बिना यदि आइसक्रीम लेकर वह खा लेता है तो वह दण्ड का भागी हो सकता है।

वास्तविकता सिद्धांत पर कार्य करते हुए बालक जानता है कि अनुमति लेने के बाद ही आइसक्रीम खाने की इच्छा को संतुष्ट करना सर्वाधिक उपयुक्त होगा। इस प्रकार इड की माँग अवास्तविक और सुखेप्सा सिद्धांत से संचालित होती है, अहं धैर्यवान, तर्कसंगत तथा वास्तविकता सिद्धांत से संचालित होता है।

पराहम्-पराहम् को समझने का और इसकी विशेषता बताने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि इसको मानसिक प्रकार्यों की नैतिक शाखा के रूप में जाना जाए। पराहम् इड और अहं को बताता है कि किसी विशिष्ट अवसर पर इच्छा विशेष की संतुष्टि नैतिक है अथवा नहीं। समाजीकरण की प्रक्रिया में पैतृक प्राधिकार के आंतरिकीकरण द्वारा पराहम् इड को नियंत्रित करने में सहायता प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई बालक आइसक्रीम देखकर उसे खाना चाहता है, तो वह इसके लिए अपनी माँ से पूछता है। उसका पराहम् संकेत देता है कि उसका यह व्यवहार नैतिक दृष्टि से सही है। इस तरह के व्यवहार के माध्यम से आइसक्रीम को प्राप्त करने पर बालक में कोई अपराध-बोध, भय अथवा दुश्चिता नहीं होगी।

इस प्रकार व्यक्ति के प्रकार्यों के रूप में फ्रायड का विचार था कि मनुष्य का अचेतन मन तीन प्रतिस्पर्धा शक्तियों अथवा ऊर्जा से निर्मित हुआ है। इड, अहं और पराहम की सापेक्ष शक्ति प्रत्येक व्यक्ति की स्थिरता का निर्धारण करती है।

प्रश्न 17. टाइप-ए तथा टाइप-बी प्रकार के व्यक्तित्व में अंतर करें।
उत्तर: हाल के वर्षों में फ्रीडमैन एवं रोजेनमैन ने टाइप ‘ए’ तथा टाइप ‘बी’ इन दो प्रकार के व्यक्तित्वों में लोगों का वर्गीकरण किया है। इन दोनों शोधकर्ताओं ने मनोसामाजिक जोखिम वाले कारकों का अध्ययन करते हुए उन प्रारूप की खोज की। टाइप ‘ए’ व्यक्तित्व वाले लोग में उच्च स्तरीय अभिप्रेरणा, धैर्य की कमी, समय की कमी का अनुभव, उतावलापन और कार्य के बोझ से हमेशा लदे रहने का अनुभव करना पाया जाता है। ऐसे लोग निश्चिंत होकर मंद गति से कार्य करने में कठिनाई का अनुभव करते हैं। टाइप ‘ए’ व्यक्तित्व वाले लोग अतिरिक्त दान और कॉरेनरी हृदय रोग के प्रति ज्यादा संवेदनशील होते हैं। इस प्रकार के लोगों में कभी-कभी सी. एच. डी. विकसित होने का खतरा, उच्च रक्त दाब, उच्च कोलेस्ट्रॉल स्तर और धूम्रपान से उत्पन्न होनेवाले खतरों की अपेक्षा अधिक होती है। उसके विपरीत टाइप ‘बी’ व्यक्तित्व को टाइप ‘ए’ व्यक्तित्व की विशेषताओं के अभाव के रूप में जाना जाता है।

प्रश्न 18. निर्धनता को दूर करने के उपायों का सुझाव दें। अथवा, गरीबी के उन्मूलन के लिए एक योजना बनाइए।
उत्तर: निर्धनता को दूर करने के उपाय निम्नलिखित हैं-
1. कृषि तथा उद्योग में अधिक-से-अधिक रोजगार उत्पन्न करना- यदि देश के उद्योगधन्धे तथा कृषि पर अधिक बल दिया जाता है तो अधिक रोजगार के साधन उपलब्ध होने से बेरोजगारी समाप्त होगी, व्यक्तियों की आय बढ़ेगी और निर्धनता पर नियंत्रण होगा। इसके लिए सरकार को सकारात्मक उपाय करने चाहिए।

2. जनसंख्या नियंत्रण-निर्धनता कम करने के लिए जनसंख्या पर नियंत्रण करना आवश्यक है। जनसंख्या वृद्धि से विकास का परिणाम लुप्त हो जाता है तथा निर्धनता बढ़ती है। अतः जनसंख्या को नियंत्रित करने से विकासात्मक उपायों से आय बढ़ेगी।

3. काले धन को समाप्त करना- काला धन चोरी करके छुपाई गई आय है जिस पर कर अदा नहीं किया जाता है। यह धन भ्रष्ट कार्यों में लगाया जाता है। इससे आर्थिक शोषण बढ़ता है तथा निर्धनता बढ़ती है। अतः निर्धनता को कम करने के लिए काले धन को बाहर निकाला जाना चाहिए।

4. वितरणात्मक न्याय-विकास को प्राप्त होने वाले लाभ का यथोचित वितरण होना चाहिए। विकास के लाभ निर्धनों तक पहुँचना चाहिए। धनी व्यक्तियों पर कर (tax) का भार डालकर निर्धनों पर खर्च किया जाना चाहिए।

5. योजना का विकेन्द्रीकरण तथा कार्यान्वन-सरकार द्वारा गरीबों की भलाई के लिए चलाई गई योजनाओं का विकेन्द्रीकरण नहीं होगा तब तक ग्राम पंचायतों द्वारा निर्धन व्यक्ति की पहचान नहीं हो सकेगी तथा इन योजनाओं का लाभ गरीबों तक नहीं पहुँचेगा।

6. मनुष्य भूमि स्वामित्व-भू-स्वामी अपनी जमीन को जोतने के लिए गरीबों को देकर उपज का पर्याप्त भाग अपने पास रख लेते हैं। अतः जो जमीन को जोते स्वामित्व उसी का होने से यह शोषण नहीं हो पाएगा।

7. विभिन्न उपाय-ऋणदायी संस्थाओं में कम दरों पर ऋण देना, पंचायती राज संस्थाओं को मजबूत करना, युवकों को रोजगार करने योग्य बनाना, आदि उपाय भी सहायक हैं।

प्रश्न 19. मनोगत्यात्मक चिकित्सा क्या है? इसकी विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन करें।
उत्तर: मनोगत्यात्मक चिकित्सा का प्रतिपादन सिगमंड फ्रायड द्वारा किया गया। मनोगत्यात्मक चिकित्सा ने मानस की संरचना, मानस के विभिन्न घटकों के मध्य गतिकी और मनोवैज्ञानिक कष्ट के स्रोतों का संप्रत्ययीकरण किया है। यह उपागम अत: मनोद्वंद्व का मनोवैज्ञानिक विकारों का मुख्य कारण समझता है। अतः, उपचार में पहला चरण उसी अन्त:द्वन्द्व को बाहर निकालना है। मनोविश्लेषण ने अंत:द्वंद्व को बाहर निकालने के लिए दो महत्त्वपूर्ण विधियों मुक्त साहचर्य विधि तथा स्वप्न व्याख्या विधि का आविष्कार किया। मुक्त साहचर्य विधि सेवार्थी की समस्याओं को समझने की प्रमुख विधि है। सेवार्थी को एक विचार को दूसरे विचार से मुक्त रूप से संबद्ध करने के प्रोत्साहित किया जाता है और उस विधि को मुक्त साहचर्य विधि कहते हैं। जब सेवार्थी एक आरामदायक और विश्वसनीय वातावरण में मन में जो कुछ भी आए बोलता है तब नियंत्रक पराहम तथा सतर्क अहं को प्रसप्तावस्था में रखा जाता है। चूँकि चिकित्सक बीच में हस्तक्षेप नहीं करता इसलिए विचारों का मुक्त प्रवाह, अचेतन मन की इच्छाएँ और द्वंद्व जो अहं द्वारा दमित किए जाते रहे हों वे सचेतन मन में प्रकट होने लगते हैं।

उपचार की प्रावस्था :
अन्यारोपण (transference) तथा व्याख्या या निर्वचन (interpretation) रोगी का उपचार करने के उपाय हैं। जैसे ही अचेतन शक्तियाँ उपरोक्त मुक्त साहचर्य एवं स्वप्न व्याख्या विधियों द्वारा सचेतन जगत में लाई जाती है, सेवार्थी चिकित्सा की अपने अतीत सामान्यतः बाल्यावस्था के आप्त व्यक्तियों के रूप में पहचान करने लगता है। चिकित्सक एक अनिर्णयात्मक तथापि अनुज्ञापक अभिवृत्ति बनाए रखता है और सेवार्थी को सांवेगिक पहचान स्थापित करने की उस प्रक्रिया को जारी रखने का अनुमति देता है।

यही अन्यारोपण की प्रक्रिया है। चिकित्सक उस प्रक्रिया को प्रोत्साहन देता है क्योंकि उससे उसे सेवार्थी के अचेतन द्वंद्वों को समझने में मदद मिलती है सेवार्थी अपनी कुंठा, क्रोध, भय और अवसाद जो उसने अपने अतीत में उस व्यक्ति के प्रति अपने मन में रखी थी लेकिन उस समय उनकी अभिव्यक्ति नहीं कर पाया था को चिकित्सक के प्रति व्यक्त करने लगता है उस अवस्था को अन्यारोपण कहते हैं। सकारात्मक अन्यारोपण में सेवार्थी चिकित्सक की पजा करने लगता है या उससे प्रेम करने लगना है कि चिकित्सक का अनुमोदन चाहता है। नकारात्मक अन्यारोपण तब प्रदर्शित होता है जब सेवार्थी में चिकित्सक के प्रति शत्रुता, क्रोध अप्रसन्ता की भावना होती है। अन्यारोपण प्रक्रिया में प्रतिरोध भी होता है।

निर्वचन मूल युक्ति है जिसमें परिवर्तन को प्रभावित किया जाता है। प्रतिरोध एवं स्पष्टीकरण निर्वचन की दो विश्लेषणात्मक तकनीक है। प्रतिरोध में चिकित्सक सेवार्थी के किसी एक मानसिक पथ की ओर संकेत करता है जिसका सामना सेवार्थी को अवश्य करना चाहिए। स्पष्टीकरण एक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से चिकित्सक किसी अस्पष्ट या भ्रामक घटना को केन्द्र बिन्दु में लाता है। यह घटना के महत्त्वपूर्ण विस्तृत वर्णन को महत्त्वहीन वर्णन से अलग करके तथा विशिष्टता प्रदान करके किया जाता है। निर्वचन एक अधिक सूक्ष्म प्रक्रिया है। प्रतिरोध, स्पष्टीकरण तथा निर्वचन को प्रयुक्त करने की पुनरावृत्ति प्रक्रिया को समाकलन कार्य कहा जाता है। समाकलन कार्य रोगी को अपने आपको और अपनी समस्याओं के स्रोत को समझने में तथा बाहर आई सामग्री को अपने अहं में समाकलित करने में सहायता करता है।

प्रश्न 20. पूर्वधारणा को दूर करने की किन्हीं तीन विधियों का वर्णन करें।
उत्तर: पूर्व धारणा को दूर करने की तीन विधियाँ निम्नलिखित हैं
1. शिक्षा एवं सूचना के प्रसार के द्वारा विशिष्ट लक्षण समूह से संबद्ध रूढ़ धारणाओं को संशोधित करना एवं प्रबल अंतःसमूह अभिन्न की समस्या से निपटना।
2. अंत:समूह संपर्क को बढ़ाना प्रत्यय सम्प्रेषण समूहों के मध्य अविश्वास को दूर करने तथा बाह्य समूह के सकारात्मक गुणों की खोज करने का अवसर प्रदान करता है। ये युक्ति तभी सफल होती है जब

  • दो समूह प्रतियोगी संदर्भ के स्थान पर एक सहयोगी संदर्भ में मिलते हैं। .
  • समूह के मध्य घनिष्ठ अन्तःक्रिया एक दूसरे को समझने या जानने में सहायता करती है।
  • दोनों समूह शक्ति या प्रतिष्ठा में भिन्न नहीं होते हैं।

3. समूह अनन्यता की जगह व्यक्तिगत अनन्यता को विशिष्टता प्रदान करना अर्थात् दूसरे व्यक्ति के मूल्यांकन के आधार के रूप में समूह के महत्त्व को बलहीन करना।
अतः पूर्वाग्रह नियंत्रण की युक्तियाँ तब अधिक प्रभावी होंगी जब उनका प्रयास होगा-

  • पूर्वाग्रहों के अधिगमन के अवसरों को कम करना।
  • ऐसी अभिवृत्तियों को परिवर्तित करना।
  • अन्त:समूह पर आधारित संकुचित सामाजिक अनन्यता के महत्त्व को कम करना तथा
  • पूर्वाग्रह वे शिकार लोगों में स्वतः साधक भविष्योक्ति की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करना।

प्रश्न 21. साक्षात्कार कौशल क्या है ? इसके चरणों का वर्णन करें।
अथवा, साक्षात्कार कार्य कौशल क्या है? साक्षात्कार प्रारूप के विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन करें।
उत्तर: साक्षात्कार में साक्षात्कारकर्ता को विभिन्न चरणों से होकर गुजरना पड़ता है, जिसका विवरण निम्नलिखित है
(i) प्रारंभिक अवस्था-यह साक्षात्कार की सबसे पहली अवस्था है। वास्तव में साक्षात्कार की सफलता उसकी प्रारंभिक तैयारी पर ही निर्भर होती है। यदि इस अवस्था में गलतियाँ होगी तो साक्षात्कार का सफल होना संभव नहीं है।

(ii) प्रश्नोत्तर की अवस्था-साक्षात्कार की यह सबसे लंबी अवस्था है। इस अवस्था में साक्षाकारकर्ता साक्षात्कारदाता से प्रश्न पूछता है और साक्षात्कारदाता उसके प्रश्नों को सावधानीपूर्वक सुनता है और कुछ रूककर उसे समझता है, उसके बाद उत्तर देता है। उसके उत्तर देते समय साक्षात्कारकर्ता उसके हाव-भाव, मुखाकृति का भी अध्ययन करता है।

(iii) समापन की अवस्था- साक्षात्कार का यह सबसे अंतिम चरण है। जब साक्षात्कारकर्ता को सारे प्रश्नों का उत्तर मिल जाय और ऐसा अनुभव हो कि उसे महत्त्वपूर्ण बातों की जानकारी प्राप्त हो चुकी है तो साक्षात्कार का समापन किया जाता है। इस अवस्था में साक्षात्कारदाता के मन में बननेवाली प्रतिकूल अवधारणा का निराकरण करना चाहिए। साक्षात्कारदाता भी जब यह कहता है कि और कुछ पूछना है तो उसे प्रसन्नतापूर्वक समापन की सूचना देनी चाहिए तथा सफल साक्षात्कार के लिए उसे धन्यवाद भी देना चाहिए।

प्रश्न 22. मानव व्यवहार पर पर्यावरणीय प्रभावों का वर्णन करें।
अथवा, “मानव पर्यावरण को प्रभावित करते हैं तथा उससे प्रभावित होते हैं।” इस कथन की व्याख्या उदाहरणों की सहायता से कीजिए।
उत्तर: पर्यावरण पर मानव प्रभाव-मनुष्य भी अपनी शारीरिरक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और अन्य उद्देश्यों से भी प्राकृतिक पर्यावरण के ऊपर अपना प्रभाव डालते हैं। निर्मित पर्यावरण के सारे उदाहरण पर्यावरण के ऊपर मानव प्रभाव को अभिव्यक्त करते हैं। उदाहरण के लिये, मानव ने जिसे हम ‘घर’ कहते हैं, उसका निर्माण प्राकृतिक पर्यावरण को परिवर्तित करके ही किया जिससे कि उन्हें एक आश्रय मिल सके। मनुष्यों के इस प्रकार के कुछ कार्य पर्यावरण को क्षति भी पहुँचा सकते हैं और अंततः स्वयं उन्हें भी अनेकानेक प्रकार से क्षति पहुँचा सकते हैं।

उदाहरण के लिए, मनुष्य उपकरणों का उपयोग करते हैं, जैसे-रेफ्रीरजेटर तथा वातानुकूलन यंत्र जो रासायनिक द्रव्य (जैसे-सी.एफ.सी. या क्लोरो-फ्लोरो कार्बन) उत्पादित करते हैं, जो वायु को प्रदूषित करते हैं तथा अंततः ऐसे शारीरिक रोगों के लिए उत्तरदायी हो सकते हैं, जैसे कैंसर के कुछ प्रकार। धूम्रपान के द्वारा हमारे आस-पास की वायु प्रदूषित होती है तथा प्लास्टिक एवं धातु से बनी वस्तुओं को जलाने से पर्यावरण पर घोर विपदाकारी प्रदूषण फैलाने वाला प्रभाव होता है।

वृक्षों के कटान या निर्वनीकरण के द्वारा कार्बन चक्र एवं जल चक्र में व्यवधान उत्पन्न हो सकता है। इससे अंततः उस क्षेत्र विशेष में वर्षा के स्वरूप पर प्रभाव पड़ सकता है और भू-क्षरण तथा मरुस्थलीकरण में वृद्धि हो सकती है। वे उद्योग जो निस्सारी का बहिर्वाह करते हैं तथा इस असंसाधित गंदे पानी को नदियों में प्रवाहित करते हैं, इस प्रदूषण के भयावह भौतिक (शारीरिक) तथा मनोवैज्ञानिक परिणामों से तनिक चिंतित प्रतीत नहीं होते हैं।

मानव व्यवहार पर पर्यावरणी प्रभाव :
(i) प्रत्यक्षण पर पर्यावरणी प्रभाव-पर्यावरण के कुछ पक्ष मानव प्रत्यक्षण को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, अफ्रीका की एक जनजाति समाज गोल कुटियों (झोपड़ियों) में रहती है अर्थात् ऐसे घरों में जिनमें कोणीय दीवारें नहीं हैं। वे ज्यामितिक भ्रम (मूलर-लायर भ्रम) में कम त्रुटि प्रदर्शित करते हैं, उन व्यक्तियों की अपेक्षा जो नगरों में रहते हैं और जिनके मकानों में कोणीय दीवारें होती हैं।

(ii) संवेगों पर पर्यावरणी प्रभाव-पर्यावरण का प्रभाव हमारी सांवेगिक प्रतिक्रियाओं पर भी पड़ता है। प्रकृति के प्रत्येक रूप का दर्शन चाहे वह शांत नदी का प्रवाह हो, एक मुस्कुसता हुआ फूल । हो, या एक शांत पर्वत की चोटी हो, मन को एक ऐसी प्रसन्नता से भर देता है जिसकी तुलना किसी अन्य अनुभव से नहीं की जा सकती। प्राकृतिक विपदाएँ, जैसे-बाढ़, या सूखा, भू-स्खलन, भूकंप चाहे पृथ्वी के ऊपर हो या समुद्र के नीचे हो, वह व्यक्ति के संवेगों पर इस सीमा तक प्रभाव डाल सकता है कि वे गहन अवसाद और दुःख तथा पूर्ण असहायता की भावना और अपने जीवन पर नियंत्रण के अभाव का अनुभव करते हैं। मानव संवेगों पर ऐसा प्रभाव एक अभिघातज अनुभव है जो व्यक्तियों के जीवन को सदा के लिये परिवर्तित कर देता है तथा घटना के बीत जाने के बहुत समय बाद तक भी अभिघातज उत्तर दबाव विकार (Post-traumatic stress disorder-PTdS) के रूप में बना रहता है। .

(iii) व्यवसाय, जीवन-शैली तथा अभिवृतियों पर पारिस्थितिक का प्रभाव-किसी क्षेत्र का प्राकृतिक पर्यावरण या निर्धारित करता है कि उस क्षेत्र के निवासी कृषि पर (जैसे-मैदानों में) या अन्य व्यवसायों, जैसे-शिकार तथा संग्रहण पर (जैसे-वनों, पहाड़ों या रेगिस्तानी क्षेत्रों में) या उद्योगों पर (जैसे-उन क्षेत्रों में जो कृषि के लिए उपजाऊ नहीं हैं) निर्भर रहते हैं परन्तु किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र के निवासियों के व्यवसाय भी उनकी जीवन-शैली और अभिवृत्तियों का निर्धारण करते हैं।

प्रश्न 23. मनोविदलता के लक्षणों का वर्णन करें।
उत्तर: मनोविदलता (Schizopherenia) को पहले dementia praecox के नाम से जाता था। Dementia praecox शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग क्रेपलिन ने किया था, जिसका तात्पर्य मनोविचछन्नता होता है। Schizophrenia शब्द का सर्वप्रथम ब्ल्यू मर (Bleumer) ने 1911 ई. में किया था। उन्होंने कहा है कि इस रोग में व्यक्ति के व्यक्तित्व का विभाजन हो जाता है। बाद में इस अर्थ को भी छोड़ दिया गया। आधुनिक युग में इस संबंध में अनेक अनुसंधान किए जा रहे हैं तथा इसकी परिभाषा देते हुए जे. सी. कोलमैन (J.C. Coleman) ने कहा है, “मनोविद्गलता वह विवरणात्मक पद है जिसमें मनोविकृति से संबंधित कई विकारों का बोध होता है। इसमें बड़े पैमाने पर वास्तविकता तोड़-मरोड़कर दिखायी देती है। रोगी सामाजिक अन्तः क्रियाओं से पलायन करता है। व्यक्ति का प्रत्यक्षीकरण, विचार और संवेग, अपूर्ण और विघटित रूप में होते हैं।”

लक्षण (Symptoms)-मनोविदलता के रोगियों में बहुत प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक लक्षण देखे जाते हैं, जिनमें कुछ मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं-
1. संवगात्मक उदासीनता-मनोविदलता की रोगी संवेगात्मक रूप से उदासीन रहता है, अर्थात् रोगी emotional apathy में पाया जाता है। फिशर (Fisher) ने emotional apathy को मनोविदलता का Most Common Symptom स्वीकार किया है। रोगी बाह्य वातावरण के प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं करता है। यहाँ तक कि यदि उसके परिवार में किसी व्यक्ति की मौत हो जाय, तो भी उसे किसी प्रकार का दुःख की अनुभूति नहीं होती। प्रश्न पूछे जाने पर वह संक्षिप्त उत्तर देता है। कभी-कभी दो विरोधी संवेगात्मक प्रतिक्रियाएँ एक साथ देखने को मिलती है। उदाहरण के लिए उसमें रोने और हँसने की क्रिया एक साथ देखी जा सकती है। रोगी अपने शारीरिक . अवस्थाओं के प्रति काफी उदासीन होता है। उसे खाने-पीने की कोई परवाह नहीं रहती। मैकडूगला ने भी emotional apathy को इस मानसिक रोग का एक प्रमुख लक्षण माना है।

2. मानसिक हास-मनोविदलता के सभी रोगियों में मानसिक ह्रास के लक्षण देखे जाते हैं। कहने का तापत्पर्य यह है कि उसकी मानसिक क्रियाएँ विभिन्न दोषों से युक्त रहती हैं। उसका चिन्तनपूर्ण रूप से अव्यवस्थित रहता है। इसकी स्मृति बहुत कमजोर होती है। अपनी परिस्थितियों को सुलझाने में असमर्थ रहते हैं और यहाँ तक कि अपना नाम, पता आदि को भी नहीं बदल पाते। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट होता है कि इसके रोगी का I. Q. सामान्य से बहुत कम होता है।

3. विभ्रम-मनोविदलता के रोगी का प्रधान लक्षण विभ्रम है। इससे ग्रस्त रोगियों में अनेक प्रकार के विभ्रम देखे जाते हैं, फिर उनमें संरक्षण की प्रधानता रहती है। मनोविदलता का रोगी ऐसा अनुभव करता है कि उसे भगवान या किसी काल्पनिक व्यक्ति की आवाज सुनाई पड़ रही है। कभी-कभी वह भगवान की आवाज को सुनता है और चिल्लाता है। रोगी वह भी समझता है कि सभी लोग उसके दुश्मन हैं और जहर देकर मारना चाहते हैं। खाने में उसे कोई स्वाद नहीं मिलता और वह आस-पास की दुर्गन्ध से सशक्ति रहता है। इस प्रकार के रोगी विभिन्न प्रकार के विभ्रमों का शिकार बन जाता है। .

4. व्यामोह-मनोविदलता के रोगियों में व्यामोह (dilusions) के लक्षण भी देखे जाते हैं। रोगी यह अनुभव करता है कि लोग उसे जान से मारने का षड्यंत्र कर रहे हैं। चिकित्सक को भी वह दुश्मन समझता है। दवा को जहर समझकर पीने से इनकार करता है। डॉ पेज ने मनोविदलता के रोगियों के व्यामोह की तुलना सामान्य व्यक्ति के स्वप्न से की है। जिस प्रकार स्वप्न की स्थिति में दृश्य को हम देखते हैं, वे शून्य प्रतीत होते हैं, ठीक उसी प्रकार इस रोग से पीड़ित रोगी अपने dilusions को शून्य स्वीकार कर लेता है।

5. भाषा-दोष-रोगी में बोलने की गड़बड़ी के लक्षण भी देखे जाते हैं। उनके वाक्य निरर्थक एवं लम्बे होते हैं। कभी-कभी कोई शब्दों को मिलाकर एक नए वाक्य का निर्माण कर लेते हैं। कभी रोगी इतनी तेज रफ्तार से बोलता है, जिसे दूसरे लोग सुन नहीं पाते हैं। इसी प्रकार रोगी में विचित्र लेखन के लक्षण देखे जाते हैं। उसकी लेखशैली दोषपूर्ण होती है। लिखने के सिलसिले में वे symbols, lines, drawing and words को एक ही साथ मिला देते हैं। व्याकरण के नियमों का वे कभी पालन नहीं करते हैं।

6. शारीरिक क्षमता का हास-मनोविदलता के रोगी शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं। शरीर में मेहनत करने की क्षमता नहीं होती। वह हमेशा नींद की कमी महसूस करता है। इस प्रकार schizophrernia के रोगी में अनेक प्रकार के मानसिक और शारीरिक दोष पाये जाते हैं।

प्रश्न 24. व्यक्तित्व विकास की अवस्थाओं का वर्णन करें। अथवा, फ्रायड ने किस तरह से व्यक्तित्व विकास की व्याख्या की है?
अथवा, फ्रायड द्वारा प्रस्तावित व्यक्तित्व-विकास की पंच अवस्था सिद्धांत की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: फ्रायड ने व्यक्तित्व-विकास का एक पंच अवस्था सिद्धांत प्रस्तावित किया जिसे मनोलैंगिक विकास के नाम से भी जाना जाता है। विकास की उन पाँच अवस्थाओं में से किसी भी अवस्था पर समस्याओं के आने से विकास बाधित हो जाता है और जिसका मनुष्य के जीवन पर दीर्घकालिक प्रभाव हो सकता है। फ्रायड द्वारा प्रस्तावित पंच अवस्था सिद्धांत निम्नलिखित है-
(i) मौखिक अवस्था-एक नवजात शिशु की मूल प्रवृत्तियाँ मुख पर केंद्रित होती हैं। यह शिशु का प्राथमिक सुख प्राप्ति का केंद्र होता है। यह मुख ही होता है जिसके माध्यम से शिशु भोजन ग्रहण करता है और अपनी भूख को शांत करता है। शिशु मौखिक संतुष्टि भोजन ग्रहण, अँगूठा चूसने, काटने और बलबलाने के माध्यम से प्राप्त करता है। जन्म के बाद आरंभिक कुछ महीनों की अवधि में शिशुओं में अपने चतुर्दिक जगत के बारे में आधारभूत अनुभव और भावनाएँ विकसित हो जाती हैं। फ्रायड के अनुसार एक वयस्क जिसके लिए यह संसार कटु अनुभवों से परिपूर्ण हैं, संभवत: मौखिक अवस्था का उसका विकास कठिनाई से हुआ करता है।

(ii) गुदीय अवस्था-ऐसा पाया गया है कि दो-तीन वर्ष की आयु में बच्चा समाज की कुछ मांगों के प्रति अनुक्रिया करना सीखता है। इनमें से एक प्रमुख माँग माता-पिता की यह होती है कि बालक मूत्रत्याग एवं मलत्याग जैसे शारीरिक प्रकार्यों को सीखे। अधिकांश बच्चे एक आयु में इन क्रियाओं को करने में आनंद का अनुभव करते हैं। शरीर का गुदीय क्षेत्र कुछ सुखदायक भावनाओं का केंद्र हो जाता है। इस अवस्था में इड और अहं के बीच द्वंद्व का आधार स्थापित हो जाता है। साथ ही शैशवावस्था की सुख की इच्छा एवं वयस्क रूप में नियंत्रित व्यवहार की मांग के बीच भी द्वंद्व का आधार स्थापित हो जाता है।

(iii) लैंगिक अवस्था-यह अवस्था जननांगों पर बल देती है। चार-पाँच वर्ष की आय में बच्चे पुरुषों एवं महिलाओं के बीच का भेद अनुभव करने लगते हैं। बच्चे कामुकता के प्रति एवं अपने माता-पिता के बीच काम संबंधों के प्रति जागरूक हो जाते हैं। इसी अवस्था में बालक इडिपस मनोग्रंथि का अनुभव करता है जिसमें अपनी माता के प्रति प्रेम और पिता के प्रति आक्रामकता सन्निहित होती है तथा इसके परिणामस्वरूप पिता द्वारा दंडित या शिश्नलोप किए जाने का भय भी बालक में कार्य करता है। इस अवस्था की एक प्रमुख विकासात्मक उपलब्धि यह है कि बालक अपनी इस मनोग्रंथि का समाधान कर लेता है। वह ऐसा अपनी माता के प्रति पिता के संबंधों को स्वीकार करके उसी तरह का व्यवहार करता है।

बलिकाओं में यह इडिपस ग्रंथि थोड़े भिन्न रूप में घटित होती है। बालिकाओं में इसे इलेक्ट्रा मनोग्रंथि कहते हैं। इसे मनोग्रंथि में बालिका अपने पिता को प्रेम करती है और प्रतीकात्मक रूप से उससे विवाह करना चाहती है। जब उसको यह अनुभव होता है कि संभव नहीं है तो वह अपनी माता का अनुकरण कर उसके व्यवहारों को अपनाती है। ऐसा वह अपने पिता का स्नेह प्राप्त करने के लिए करती है। उपर्युक्त दोनों मनोग्रंथियों के समाधान में क्रांतिक घटक समान लिंग के माता-पिता के साथ तदात्मीकरण स्थापित करना है। दूसरे शब्दों में, बालक अपनी माता के प्रतिद्वंद्वी की बजाय भूमिका-प्रतिरूप मानने लगते हैं। बालिकाएँ अपने पिता के प्रति लैंगिक इच्छाओं का त्याग कर देती हैं और अपनी माता से तादात्मय स्थापित करती है।

(iv) कामप्रसुप्ति अवस्था-यह अवस्था सात वर्ष की आयु से आरंभ होकर यौवनारंभ तक बनी रहती है। इस अवधि में बालक का विकास शारीरिक दृष्टि से होता रहता है। किन्तु उसकी कामेच्छाएँ सापेक्ष रूप से निष्क्रिय होती हैं। बालक की अधिकांश ऊर्जा सामाजिक अथवा उपलब्धि- संबंधी क्रियाओं में व्यय होती है।

(v) जननांगीय अवस्था-इस अवस्था में व्यक्ति मनोलैंगिक विकास में परिपक्वता प्राप्त करता है। पूर्व की अवस्थाओं की कामेच्छाएँ, भय और दमित भावनाएँ पुनः अभिव्यक्त होने लगती हैं। लोग इस अवस्था में विपरीत लिंग के सदस्यों से परिपक्व तरीके से सामाजिक और काम संबंधी आचरण करना सीख लेते हैं। यदि इस अवस्था की विकास यात्रा में व्यक्ति को अत्यधिक दबाव अथवा अत्यासक्ति का अनुभव होता है तो इसके कारण विकास की किसी आरंभिक अवस्था पर उसका स्थिरण हो सकता है।

प्रश्न 25. अभिवृत्ति से आप क्या समझते हैं? अभिवृत्ति परीक्षण के प्रमुख प्रकारों का वर्णन करें। अथवा, अभिवृत्ति की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर: अभिवृत्ति मन की एक अवस्था है। किसी विषय के संबंध में विचारों का एक पुंज है जिसमें एक मूल्यांकनपरक विशेषता पाई जाती है अभिवृत्ति कहलाती है।
अभिवृत्ति की चार प्रमुख विशेषताएँ हैं-कर्षण शक्ति, चरम सीमा, सरलता या जटिलता तथा केन्द्रिकता।
(i) कर्षण शक्ति (सकारात्मक या नकारात्मक)-अभिवृत्ति की कर्षण शक्ति हमें यह बताती है कि अभिवृत्ति विषय के प्रति कोई अभिवृत्ति सकारात्मक है अथवा नकारात्मक। उदाहरण के लिए यदि किसी अभिवृत्ति (जैसे-नाभिकीय शोध के प्रति अभिवृत्ति) को 5 बिन्दु मापनी व्यक्त करता है जिसका प्रसार 1. बहुत खराब, 2. खराब 3. तटस्थ न खराब न अच्छा 4. अच्छा से 5. बहुत अच्छा तक है। यदि कोई व्यक्ति नाभिकीय शोध के प्रति अपने दृष्टिकोण या मत का आकलन इस मापनी या 4 या 5 करता है तो स्पष्ट रूप से यह एक सकारात्मक अभिवृत्ति है। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति नाभिकीय शोध के विचार को पसंद करता है तथा सोचता है कि यह कोई अच्छी चीज है। दूसरी ओर यदि आकलित मूल्य 1 या 2 है तो अभिवृत्ति नकारात्मक है। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति नाभिकीय शोध के विचार को नापसंद करता है एवं सोचता है कि यह कोई खराब चीज है। हम तटस्थ अभिवृत्तियों को भी स्थान देते हैं। यदि इस उदाहरण में नाभिकीय शोध के प्रति तटस्थ अभिवृत्ति इस मापनी पर अंक 3 के द्वारा प्रदर्शित की जाएगी तब एक तटस्थ अभिवृत्ति में कर्षण शक्ति न तो सकारात्मक होगी न ही नकारात्मक।

(ii) चरम सीमा-एक अभिवृत्ति को चरम-सीमा यह इंगित करती है कि अभिवृत्ति किस सीमा तक सकारात्मक या नकारात्मक है। नाभिकीय शोध के उपयुक्त उदाहरण में मापनी मूल्य ‘1’ उसी चरम सीमा का है जितना ‘5’। बस अंतर इतना है कि दोनों ही विपरीत दिशा में है। तटस्थ अभिवृत्ति नि:संदेह न्यूनतप तीव्रता की है।

(ii) सरलता या जटिलता (बहविधता)- इस विशेषता से तात्पर्य है कि एक व्यापक अभिवृत्ति के अंतर्गत कितनी अभिवृत्तियाँ होती हैं। उस अभिवृत्ति को एक परिवार के रूप में समझना चाहिए जिसमें अनेक ‘सदस्य’ अभिवृत्तियाँ हैं। बहुत-से विषयों (जैसे स्वास्थ्य एवं विश्व शांति) के संबंध में लोग एक अभिवृत्ति के स्थान या अनेक अभिवृत्तियाँ रखते हैं। जब अभिवृत्ति तंत्र में एक या बहुत थोड़ी-सी अभिवृत्तियाँ हों तो उसे ‘सरल’ कहा जाता है और जब वह अनेक अभिवृत्तियों के पाए जाने की संभावना है, जैसे व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य का संप्रत्यय, प्रसन्नता एवं कुशल-क्षेम के प्रति उसका दृष्टिकोण एवं व्यक्ति स्वास्थ्य एवं प्रसन्नता कैसे प्राप्त कर सकता है, इस संबंध में उसका विश्वास एवं मान्यताएँ आवश्यक हैं।

इसके विपरीत, किसी व्यक्ति विशेष के प्रति अभिवृत्ति में मुख्य रूप में एक अभिवृत्ति के पाये जाने की संभावना है। एक अभिवृत्ति तंत्र के घटकों के रूप में नहीं देखना चाहिए। एक अभिवृत्ति तंत्र के प्रत्येक सदस्य अभिवृत्ति में भी संभाव्य या ए. बी. सी. घटक होता है।

(iv) केन्द्रीकता-यह अभिवृत्ति तंत्र में किसी विशिष्ट अभिवृत्ति की भूमिका को बताता है। गैर-केन्द्रीय या परिधीय अभिवृत्तियों की तुलना में अधिक केन्द्रीकता वाली कोई अभिवृत्ति, अभिवृत्ति तंत्र की अन्य अभिवृत्तियों को अधिक प्रभावित करेगी। उदाहरण के लिए विश्वशांति के प्रति अभिवृत्ति में सैनिक व्यय के प्रति एक नकारात्मक अभिवृत्ति, एक प्रधान या केन्द्रीय अभिवृत्ति के रूप में ही हो सकती है तो बहु-अभिवृत्ति तंत्र की अन्य अभिवृत्तियों को प्रभावित कर सकती है।

प्रश्न 26. विभिन्न प्रकार के मनोचिकित्सा का वर्णन करें।
उत्तर: चिकित्सा या मनोचिकित्सा का अर्थ मनोवैज्ञानिक प्रविधियों द्वारा मानसिक विकृतियों, . द्वन्द्वों तथा व्याधियों का उपचार करना है। सरासन (Sarason, 2005) ने भी इसी अर्थ में मनोचिकित्सा को परिभाषित किया है।

मनोचिकित्सा के कई प्रकार होते हैं, जिनमें निम्नलिखित मुख्य हैं-
(i) मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा (Psychoanalytic therapy)-इस विधि को फ्रॉयड ने विकसित किया। इसकी कई अवस्थाएँ होती हैं। इन्हीं अवस्थाओं को साक्षात्कार की अवस्था, स्वतंत्र साहचर्य की अवस्था, दैनिक जीवन की भूलों की अवस्था, स्वप्न विश्लेषण की अवस्था, अंतरण की अवस्था, पुर्नशिक्षण की अवस्था तथा समापन की अवस्था कहते हैं। यह मनोचिकित्सा विधि मानसिक रोगियों के उपचार में केवल आंशिक रूप से सफल है।\

(ii) व्यवहार चिकित्सा (Behaviour therapy)-इस चिकित्सा विधि को स्किनर ने विकसित किया तथा उल्पे ने इसमें योगदान किया। इस विधि के कई परिमार्जित प्रकार या रूप हैं। इनमें विमुखता चिकित्सा (aversive therapy), संकेत व्यवस्था (token economy), मुकाबला (flooding), व्यवहार प्रतिरूपण (behaviour modeling) आदि प्रमुख हैं। आवश्यकता के अनुकूल इन चिकित्सा प्रविधियों का उपयोग करके रोगी का उपचार किया जाता है। यह चिकित्सा विधि भी आशिक रूप में ही सक्षम है।

(iii) संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा (Cognitive behaviour therapy)-संज्ञानात्मक चिकित्सा को बेक नामक मनोवैज्ञानिक ने विकसित किया। वास्तव में यह चिकित्सा विधि व्यवहार चिकित्सा का ही विकसित एवं परिमार्जित रूप है। इसमें व्यवहार परिमार्जन के साथ-साथ रोगी के संज्ञान परिवर्तन पर भी बल दिया गया है। इसलिए यह चिकित्सा विधि वास्तव में अधिक प्रभावी एवं उपयोगी है।
इसके अलावे भी चिकित्सा या मनोचिकित्सा के कई प्रकार हैं, जैसे-समूह चिकित्सा, खेल चिकित्सा, अनादेश चिकित्सा आदि।

(iv) योगा चिकित्सा (Yoga therapy)-योगा चिकित्सा वास्तव में भारतीय चिंतकों में योगदानों का परिणाम है। इस चिकित्सा में योगा के माध्यम से रोगी को रोगमुक्त किया जाता है। योगा के कुछ निश्चित नियम हैं, जिनके अनुसार रोगी को व्यवहार करना पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप वह क्रमशः रोगमुक्त बन जाता है। इसका गुण यह है कि इसका कोई हानिप्रद प्रभाव नहीं होता है। दूसरी बात यह है कि रोगी सदा के लिए रोगमुक्त हो जाता है।

प्रश्न 27. मनोचिकित्सा को वर्गीकृत करने के विभिन्न प्राचल का वर्णन करें।
उत्तर: मनोचिकित्सा विविध प्रकार के मानवीय रोगों एवं विक्षोभों, विशेषतया जो मनोजात कारणों से होते हैं, का निराकरण करने के लिए मनोवैज्ञानिक तथ्यों एवं सिद्धांतों का योजनाबद्ध एवं व्यवस्थित ढंग से उपयोगी है।

चिकित्सात्मक संबंधों की प्रकृति को निम्नवत् रूप से स्पष्ट किया जा सकता है-
(i) प्रतिरोध (Resistance)-सामान्यतः रोगी की समस्याएँ उसके अचेतन मन से संबंध रखती है जो असामाजिक और लैंगिक होती है। रोगी उनको बताने के बाद एकदम से रुक जाता है। जब ऐसी स्थिति आए तो चिकित्सक का कर्तव्य बनता है कि वह रोगी की प्रतिरोधात्मक बातों का कोई निवारण करें। ऐसी स्थिति सामान्यतः तब उत्पन्न होती है जब रोगी तथा चिकित्सक के बीच आत्मीय संबंध स्थापित हों, ऐसी स्थिति में रोगी अपनी समस्या को प्रकट करने में प्रतिरोध करता है।

(ii) संक्रमण (Transference)-मनोचिकित्सा में रोगी और चिकित्सक के बीच एक संबंध स्थापित हो जाता है जिसके कारण चिकित्सक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। क्योंकि कहीं न कहीं रोगी अपनी घृणा या प्रेम का वास्तविक पात्र उस चिकित्सक को मान लेता है जिसके परिणामस्वरूप अगर चिकित्सक सावधानियाँ न अपनाए तो उसे परेशानियाँ अर्थात् रोग घेर लेते हैं जिसके फलस्वरूप संक्रमण की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

(ii) आत्मीयता संबंध की स्थापना (Establishment of report formation)-आत्मीयता संबंध की स्थापना का मुख्य उद्देश्य यह है कि किसी भी तरह से रोगी के मस्तिष्क के उन रोगों को दूर करना जिसकी वजह से व्यक्ति असामान्य हो जाता है या असामान्य व्यवहार करने लगता है। आत्मीयता संबंध की स्थापना करने से ही मनोचिकित्सा का आरंभ होता है। इसमें चिकित्सा काल में व्यक्ति में आत्मविश्वास उत्पन्न किया जाता है और उसके व्यक्तित्व को संगठित किया जाता है जिससे वह अपने आसपास के लोगों तथा पर्यावरण के मध्य एक उचित संबंध स्थापित कर सके। एक चिकित्सक हमेशा यही चाहता है कि वह जिस भी रोगी का इलाज कर रहा है वह उसे पूर्ण रूप से ठीक कर सके। परंतु यह तभी संभव है जब रोगी और चिकित्सक के मध्य आत्मीयता के विचार जागृत हों या सौहार्द्रपूर्ण संबंध स्थापित हों।

(iv) अन्तर्दृष्टि (Insight)-अगर किसी रोगी की चिकित्सा उचित ढंग से हो रहा हो तो वह अपनी दमित भावनाओं, परेशानियों आदि के विषय में चिकित्सक को बताने लगता है। इसका सीधा संबंध अहम् और असामाजिकता को छोड़ने से होता है। इसलिए यह जरूरी है कि ये इच्छाएँ जिस रूप में दमित हुई थीं ठीक उसी प्रकार से बाहर आयें या रोगी उसी प्रकार से उन्हें व्यक्त कर सके। जिस प्रकार से इच्छाएँ दमित हुई ठीक उसी प्रकार से व्यक्त न कर पाने के कारण व्यक्ति अपनी समस्याओं और परेशानियों में उलझ जाता है और निषेधात्मक रूप से अपनी बातों को प्रकट करता है। इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए यह जरूरी है कि चिकित्सक अपने आपको इस बात के लिए तैयार करें कि वह रोगी की उन निषेधात्मक बातों को भी समझ सके। इससे रोगी में अन्तर्दृष्टि आ जाती है।

(v) संवेगात्मक पुनर्शिक्षा तथा सामान्य समायोजन (Techniques of psychotherapy)जब रोगी को इस बात का आभास होता है कि उसकी अन्तर्दृष्टि ठीक प्रकार से काम कर रही है तो वह सामान्य व्यक्तियों की तरह कार्य करने लगता है और वह स्वयं भी अपनी परेशानियों को दूर करने की कोशिश करता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि रोगी को यदि उचित प्रकार की मनोचिकित्सा मिलती है तो इस रोगी को आराम अवश्य मिलता है।

प्रश्न 28. समूह को परिभाषित करें। समूह का निर्माण किस तरह होता है ? अथवा, समूह संरचना के मुख्य घटकों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: जब दो या दो से अधिक व्यक्ति एक स्थान पर एकत्रित होते हैं तो उसे समूह कहते हैं। रन्तु, सामाजिक समूह के लिए दो आवश्यक शर्ते हैं। दो या दो से अधिक व्यक्तियों का एक स्थान पर एकत्रित होना तथा उनके बीच कार्यात्मक संबंध का होना । यदि दो व्यक्ति बाजार में साथ-साथ टहल रहे हो तो उसे समूह नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि, दोनों के बीच कार्यात्मक सम्बन्ध नहीं है। परन्तु, दोनों के बीच कार्यात्मक संगठन हो जाए तो उसे समूह की संज्ञा देंगे। लिण्डग्रेन (Lindgren) ने इसी अर्थ में समूह को परिभाषित करते हुए कहा है, “दो या दो से अधिक व्यक्तियों के किसी कार्यात्मक सम्बन्ध में व्यस्त होने पर समूह का निर्माण होता है।” । समूह का निर्माण (Formation of Group)-समूह संरचना के मुख्य घटक निम्नलिखित है-

(i) भूमिकाएँ (Roles)-सामाजिक रूप से परिभाषित अपेक्षाएँ होती हैं जिन्हें दी हुई स्थितियों में पूर्ण करने की अपेक्षा व्यक्तियों से की जाती है। भूमिकाएँ वैसे विशिष्ट व्यवहार को इंगित करती हैं जो व्यक्ति को एक दिये गये सामाजिक संदर्भ में चित्रित करती हैं। किसी विशिष्ट भूमिका में किसी व्यक्ति से अपेक्षित व्यवहार इन भूमिका प्रत्याशाओं में निहित होता है। एक पुत्री या पुत्री के रूप में आप से अपेक्षा या आशा की जाती है कि आप बड़ों का आदर करें, उनकी बातों को सुनें और अपने अध्ययन के प्रति जिम्मेदार रहें।

(ii) प्रतिमान या मानक (Norms) -समूह के सदस्यों द्वारा स्थापित, समर्थित एवं प्रवर्तित व्यवहार एवं विश्वास के अपेक्षित मानदंड होते हैं। इन्हें समूह के ‘अकथनीय नियम’ के रूप में माना जा सकता है। परिवार के भी मानक होते हैं जो परिवार के सदस्यों के व्यवहार का मार्गदर्शन करते हैं। इस मानकों का सांसारिक दृष्टिकोण के रूप में समझने या सहप्रतिनिधित्व के रूप में देखा जा सकता है।

(i) हैसियत या प्रतिष्ठा (Status)-समूह के सदस्यों को अन्य सदस्यों द्वारा दी जाने वाली सापेक्ष स्थिति को बताती है। यह सापेक्ष स्थिति या प्रतिष्ठा या तो प्रदत्त या आरोपित (संभव है कि यह एक व्यक्ति की वरिष्ठता के कारण दिया जा सकता है) या फिर साधित या उपार्जित (व्यक्ति ने विशेषज्ञता या कठिन परिश्रम के कारण हैसियत या प्रतिष्ठा को अर्जित किया है) होती है। समूह के सदस्यता होने से हम इस समूह से जुड़ी हुई प्रतिष्ठा का लाभ प्राप्त करते हैं।

इसलिए हम सभी ऐसे समूहों के सदस्य बनना चाहते हैं जो प्रतिष्ठा में उच्च स्थान रखते हों अथवा दूसरों द्वारा अनुकूल दृष्टि से देखे जाते हों। यहाँ तक कि किसी समूह के अंदर भी विभिन्न सदस्य भिन्न-भिन्न सम्मान एवं प्रतिष्ठा रखते हैं। उदाहरण के लिए, एक क्रिकेट टीम का कप्तान अन्य सदस्यों की अपेक्षा उच्च हैसियत या प्रतिष्ठा रखता है, जबकि सभी सदस्य टीम की सफलता के लिए समान रूप से महत्त्वपूर्ण होते हैं।

(iv) संसक्तता (cohesiveness)-समूह सदस्यों के बीच एकता, बद्धता एवं परस्पर आकर्षण को इंगित करती है। जैसे-जैसे समूह अधिक संसक्त होता है, समूह के सदस्य एक सामाजिक इकाई के रूप में विचार, अनुभव एवं कार्य करना प्रारंभ करते हैं और पृथक्कृत व्यक्तियों के समान कम। उच्च संसक्त समूह के सदस्यों में निम्न संसक्त सदस्यों की तुलना में समूह में बने रहने की तीव्र इच्छा होती है। संसक्तता दल-निष्ठा अथवा ‘वयं भावना’ अथवा समूह के प्रति आत्मीयता की भावना को प्रदर्शित करती है। एक संसक्त समूह को छोड़ना अथवा एक उच्च संसक्त समूह की सदस्यता प्राप्त करना कठिन होता है।

प्रश्न 29. समूह संघर्ष क्या है ? समूह संघर्ष के प्रमुख प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर: समूह संघर्ष के अन्तर्गत एक व्यक्ति या समूह या प्रत्यक्षण करते हैं कि अन्य व्यक्ति उनके विरोधी हितों को रखते हैं तथा दोनों पक्ष एक दूसरे का खण्डन करने का प्रयत्न करते रहते हैं। समूह संघर्ष लोग समूह मानकों का अनुसरण करते हैं जबकि ऐसा न करने पर वे एकमात्र दण्ड का सामना कर सकते हैं वह है समूह की अप्रसन्नता या समूह संघर्ष से भिन्न देखा जाना। लोग अनुरूपता को क्यों दर्शाते हैं जबतक वे यह भी जानते हैं कि मानक स्वयं में वांछनीय नहीं है।

अनुरूपता के घटक (Component of Confirmity)-
(i) समूह का आकार (Size of group)-जब समूह बड़े से तुलनात्मक छोटा होता है। अनुरूपता तब अधिक पाई जाती है। ऐसा क्यों होता है ? छोटे समूह में विसामान्य सदस्य (वह जो अनुरूपता को दर्शाता नहीं है) को पहचानना सरल होता है। किन्तु एक बड़े समूह में यदि ज्यादातर सदस्यों के मध्य प्रबल सहमति होती है तो यह बहुसंख्यक समूह को सशक्त बनाता है तथा इसलिए मानक भी मजबूत होते हैं। ऐसी स्थिति में अल्पसंख्यक सदस्यों के अनुरूप प्रदर्शन की संभावना अधिक होती है क्योंकि समूह का दबाव प्रबल होगा।

(ii) अल्पसंख्यक समूह का आकार (Size of minor group)-मान लीजिए कि रेखाओं के विषय में निर्णय के कुछ प्रयत्नों के पश्चात् प्रयोज्य यह देखता है कि एक दूसरा सहभागी प्रयोज्य की अनुक्रिया से सहमति का प्रदर्शन करना आरम्भ कर देता है। क्या अब प्रयोज्य के अनुरूपता प्रदर्शन की संभावना अधिक है या ऐसा करने की संभावना कम है ? जब अल्पसंख्यकों में वृद्धि होती है तो अनुरूपता की संभावना कम होती है। इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि वास्तव में यह समूह में भिन्न मतधारियों या अनुपथियों की संख्या में वृद्धि कर सकता है। इसे ऐश के प्रयोग द्वारा समझाया गया है।

(iii) कार्य की प्रकृति (Nature of work)-ऐश के प्रयोग में प्रयुक्त कार्य में इस प्रकार के उत्तर की अपेक्षा की जाती है जिसका सत्यापन किया जा सकता है वह गलत भी हो सकता है तथा सही भी हो सकता है। माना कि प्रायोगिक कार्य में किसी विषय के बारे में विचार प्रकट करना है। इस स्थिति में कोई उत्तर सही या गलत नहीं होता है। किस स्थिति में अनुरूपता के पाये जाने की संभावना प्रबल है, प्रथम स्थिति जिसमें गलत अथवा सही उत्तर की तरह कोई चीज हो या दूसरी स्थिति जिसमें बिना किसी सही या गलत उत्तर के व्यापक रूप से उत्तर में परिवर्तन किया जा सके ? हो सकता है कि आपका अनुमान सही हो, दूसरी स्थिति में अनुरूपता के पाए जाने की संभावना कम है।

प्रश्न 30. प्राकृतिक महाविपदा के प्रभावों का वर्णन करें। उनके विध्वंसकारी प्रभावों को कम करने के तरीकों का वर्णन करें।
उत्तर: मानव भी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और अन्य उद्देश्यों से भी पर्यावरण पर अपना प्रभाव डालते हैं। उदाहरण के लिए, जिस घर में हम रहते हैं उसका निर्माण प्राकृतिक पर्यावरण को परिवर्तित करके ही किया जाता है जिससे कि उस घर में मानव शरण ले सकें। मनुष्यों द्वारा कुछ कार्य पर्यावरण को नुकसान भी पहुँचा सकते हैं। उदाहरण के लिए, मनुष्यों ने अपनी सुविधा के लिए कुछ उपकरणों का आविष्कार किया है जैसे-रेफ्रिजरेटर तथा वातानुकूलन यंत्र।

किन्तु ये उपकरण एक प्रकार की रासायनिक गैस छोड़ते हैं जो वायु को प्रदूषित करती है जिस कारण मानव अन्य रोगों से ग्रसित हो सकते हैं। धूम्रपान के द्वारा एक विशेष व्यक्ति तो रोग से ग्रसित होता ही है साथ-साथ धूम्रपान के द्वारा आस-पास की वायु भी प्रदूषित होती है। प्लास्टिक एवं धातु से बनी वस्तुओं को जलाने से पर्यावरण पर घोर विपदाकारी प्रदूषण फैलाने वाला प्रभाव होता है। वृक्षों के काटने से जल चक्र में व्यावधान उत्पन्न हो सकता है।

अनेक उदाहरणों का यह संदेश है कि मनुष्य ने उन्हें प्राकृतिक पर्यावरण के ऊपर दर्शाने के लिए ही जनित किया है। मानव जीवन अपनी सुविधाओं के लिए टेक्नोलॉजी का उपयोग कर प्राकृतिक पर्यावरण को परिवर्तित कर रहा है जबकि वास्तविकता तो यह है कि वे संभवतः जीवन की गुणवत्ता को और खराब बना रहे हैं।

शोर (Noise), प्रदूषण (Pollution), भीड़ (Crowding) तथा प्राकृतिक विपदाएँ (Natural disasters) ये सब पर्यावरणीय दबाव-कारकों के उदाहरण हैं। अपितु, इन विभिन्न दबाव-कारकों के प्रति मानव की प्रतिक्रियाएँ भिन्न हो सकती हैं।

प्रश्न 31. मनोदशा मनोविकृति से आप क्या समझते हैं ? मनोदशा मनोविकृति के प्रकारों के मुख्य लक्षणों का वर्णन करें।
उत्तर: मनोदशा मनोविकृति- इस विकार में व्यक्ति का संवेगात्मक अवस्था में रुकावट उत्पन्न हो जाती है। व्यक्ति में सबसे ज्यादा भावदशा विकार होता है। इसमें व्यक्ति के अंदर नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। कभी-कभी व्यक्ति पर अवसाद (Depression) इस कदर हावी हो जाता है कि वह मृत्यु तक करने की सोच लेता है। यह एक प्रकार का विकार है जिसका सीधा प्रभाव व्यक्ति के व्यवहार पर पड़ता है।
सामान्य तौर पर व्यक्ति इस अवसाद से तब ही ग्रस्त होता है जब उसके दिल पर कोई गहरी चोट लगी हो।

मुख्य भावदशा विकार में तीन प्रकार के विकार होते हैं-
(i) अवसादी विकार (Depressive disorder)-इस प्रकार के रोगियों में उदास होने, चिन्ता में डूबे रहने, शारीरिक तथा मानसिक क्रियाओं की कमी, अकर्मण्यता, अपराधी प्रवृत्ति आदि के लक्षण पाये जाते हैं।

(ii) उन्मादी विकार (Mania disorder)-उन्मादी विकार में रोगी हर समय खुश दिखाई देता है। वह हर समय संतुष्ट तथा चुस्त दिखाई पड़ता है। वह प्रायः नाचना, गाना, दौड़ना, बातचीत करना, बड़बड़ाना, चिल्लाना आदि हरकतें करना ज्यादा पसंद करता है।

(iii) द्विध्रुवीय भावात्मक विकार (Bipolor Affective Disorder)-मनोदशा विकारों को इस मनोव्याधिकीय श्रेणी में रखने के लिए यह आवश्यक है कि उसमें उत्साह और अवसाद दोनों के आक्षेप हों। एक बार उत्साह के आक्षेप के साथ-साथ अवसादी आक्षेप होता है। कुछ रोगियों में उत्साही (उन्मादी) आक्षेप एकदम से प्रकट हो जाते हैं तथा दो सप्ताह से छः माह तक रहते हैं। इसके मध्य भी व्यक्ति पूर्ण रूप से ठीक रहता है। अवसाद आक्षेप या तो इसके तुरंत बाद ही हो जाते हैं या कभी-कभी हो सकते हैं। अवसादी आक्षेपों में रोग के लक्षणों की गंभीरता कम या ज्यादा होती रहती है।

प्रश्न 32. सांवेगिक बुद्धि को परिभाषित करें। इसके प्रमुख तत्वों का वर्णन करें। अथवा, संवेगात्मक बुद्धि से आप क्या समझते हैं ? इसके विभिन्न तत्त्वों का उल्लेख करें। 
उत्तर: बुद्धि के क्षेत्र में अनेक मनोवैज्ञानिकों ने अपना महत्त्वपूर्ण अध्ययन किया और सिद्धान्तों की स्थापना की है। इस कड़ी में गोलमैन द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त संवेगात्मक बुद्धि भी है। यह एक वैज्ञानिक सिद्धान्त है जिसकी रचना गोलमैन ने 1995 में की है। संवेगात्मक बुद्धि (Emotional Quotient) बुद्धि-लब्धि (Intelligence Quotient) दोनों में काफी भिन्नता है। संवेगात्पक बुद्धि को संवेगात्मक क्षेत्र में समायोजन कहा जा सकता है, जो जीवन में सफलता पाने में बहुत अधिक सहायक होता है। संवेगात्मक बुद्धि का संबंध वास्तव में व्यक्ति के कुछ ऐसे शीलगुणों से होता है जो संवेग की अवस्था में अभियोजन में सहायक होते हैं। इसके माध्यम से उसे अपने संवेगों की पहचान होती है तथा दूसरों के संवेगों को सही ढंग से समझते हुए सही ढंग से अभियोजन का प्रयास करता है। इसके माध्यम से वह लोगों के साथ अपने संबंधों को प्रगाढ़ करता है।

संवेगात्मक बुद्धि (E. Q.) शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग सैलोवी तथा मायर (Salovey and Mayer) ने 1990 में किया था। उन्होंने इसके पाँच प्रमुख तत्त्वों की चर्चा की है, जिसका विवरण निम्नलिखित है-

  1. अपने संवेगों को पहचानना
  2. अपने संवेगों को प्रबंधन करना
  3. अपने आप को अभिप्रेरित करना
  4. दूसरों के संवेगों की पहचान करना
  5. अन्तर्वैयक्तिक संबंधों को संतुलित करना।

व्यक्ति को सामाजिक अभियोजन हेतु अपने संवेगों पर नियंत्रण की आवश्यकता होती है। संवेगों का प्रबंध जितना अधिक संतुलित होगा सामाजिक अभियोजन भी उतना ही सफल होगा। वास्तव में जीवन में सफलता पाने हेतु संवेगों का प्रबंधन आवश्यक होता है। व्यक्ति के अंतर्गत कई प्रकार के शीलगुण निहित होते हैं। इन्हीं शीलगुणों का उपयोग करके संवेगात्मक परिस्थितियों में अभियोजन करता है। सैलोवी तथा मायर ने संवेगात्मक बुद्धि के जिन पाँच तत्त्वों की चर्चा की है उसी के आधार पर किसी की संवेगात्मक बुद्धि की पहचान होती है। हालांकि बाद में आशावादिता को भी संवेगात्मक बुद्धि का एक तत्त्व माना गया है।

संवेगात्मक बुद्धि के मापन की दिशा में भी महत्त्वपूर्ण शोध हुए हैं और उसके आधार पर कई प्रकार के जाँच को प्रकाश में लाया है। इस दिशा में बार-आन के कनाडा के ट्रेन्ट विश्वविद्यालय में एक आविष्कारिका का निर्माण किया जिसे बार-आन संवेगात्मक लब्धि आविष्कारिका (Bar-on emotional quotient inventory) के नाम से जाना जाता है। यह आविष्कारिका बहुत अधिक लोकप्रिय हो चुकी है। संवेगात्मक बुद्धि मापन की दिशा में भारत में भी शोध कार्य जारी है। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. ए. के. चड्ढा ने भी एक टेस्ट का निर्माण किया है, जिसे सांवेगिक बुद्धि परीक्षण के नाम से जानते हैं। भारतीय संदर्भ में उनका यह जाँच काफी लोकप्रिय है।

चूँकि यह एक नया सिद्धान्त है, इस दिशा में शोध कार्य जारी है फिर भी इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि व्यक्ति को सिर्फ बुद्धि-लब्धि (I.Q.) के आधार पर ही सफलता नहीं मिलती बल्कि इसके लिए संवेगात्मक बुद्धि भी आवश्यक है।

प्रश्न 33. बुद्धि में आनुवंशिकता बनाम पर्यावरण विवाद का वर्णन करें।
उत्तर: आनुवंशिक एवं पर्यावरणीय दोनों ही प्रकार के प्रभाव होते हैं। अतः इस अध्ययन के अंतर्गत बुद्धि एवं संस्कृति के संदर्भ में चर्चा करेंगे। बुद्धि का अर्थ एवं अवधारणा समझ लेने के पश्चात् यह समझना उचित होगा कि बुद्धि का संस्कृति से क्या तारतम्य है एवं बुद्धि व सांस्कृतिक पर्यावरण में दोनों की क्या भूमिकाएँ हैं ?

विकास की ओर अग्रसर होता है एवं आस-पास के पर्यावरण से संयोजन करता है। बुद्धि की एक प्रमुख विशेषता यह भी है कि वह पर्यावरण के अनुकूलन में सहायक होती है अर्थात् व्यक्ति जिस पर्यावरण में निवास करता है अथवा उससे भिन्न जिस पर्यावरण की ओर उन्मुख होता है तब बुद्धि ही उसको भिन्न पर्यावरण के अनुकूल बनाती है या यूँ कह सकते है कि व्यक्ति का सांस्कृतिक पर्यावरण बुद्धि के विकसित होने में एक संदर्भ प्रदान करता है।

उदाहरण के लिए वे समाज जिनमें तकनीकी विकास को अधिक महत्व प्रदान किया जाता है, उनमें तर्कना एवं निर्णयन के आधार पर निजी उपलब्धियों का परिमार्जन होता है अर्थात् उसे बुद्धि समझा जाता है जबकि वे समाज जिनमें सामाजिक अन्तर्वैयक्तिक संबंधों का निर्माण करने वाले तत्वों का संयोजन होता है उनमें सामाजिक एवं सांवेगिक (Social and emotional) कौशलों को अधिक महत्त्व प्रदान किया जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि संस्कृति के अनुरूप ही बुद्धि का अनुकूलन हो जाता है।

प्रश्न 34. सिगमंड फ्रायड ने व्यक्तित्व की संरचना किस तरह से की है? अथवा, फ्रायड ने व्यक्तित्व की संरचना की व्याख्या कैसे की है?
उत्तर: फ्रायड के सिद्धांत के अनुसार व्यक्तित्व के प्राथमिक संरचनात्मक तत्त्व तीन हैं-इदम् या इड, अहं और पराहम्। ये तत्त्व अचेतन में ऊर्जा के रूप में होते हैं और इनके बारे में लोगों द्वारा किए गए व्यवहार के तरीकों से अनुमान लगाया जा सकता है। इड, अहं और परामहम् संप्रत्यय है न कि वास्तविक भौतिक संरचनाएँ।
Bihar Board 12th Psychology Important Questions Long Answer Type Part 3 1

इड- यह व्यक्ति की मूल प्रवृत्तिक ऊर्जा का स्रोत होता है। इसका संबंध व्यक्ति की आदिम आवश्यकताओं, कामेच्छाओं और आक्रामक आवेगों की तात्कालिक तुष्टि से होता है। यह सुखेप्सासिद्धांत पर कार्य करता है जिसका यह अभिग्रह होता है कि लोग सुख की तलाश करते हैं और कष्ट का परिहार करते हैं। फ्रायड के अनुसार मनुष्य की अधिकांश मूलप्रवृतिक ऊर्जा कामुक होती है और शेष ऊर्जा आक्रामक होती है। इड को नैतिक मूल्यों, समाज और दूसरे लोगों की कोई परवाह नहीं होती है।

अहं-इसका विकास इड से होता है और यह व्यक्ति की मूलप्रवृत्तिक आवश्यकताओं को संतुष्टि वास्तविकता के धरातल पर करता है। व्यक्तित्व की यह संरचना वास्तविकता सिद्धांत संचारित होती है और प्राय: इड को व्यवहार करने के उपयुक्त तरीकों की तरफ निर्दिष्ट करता है। उदाहरण के लिए एक बालक का इड जो आइसक्रीम खाना चाहता है उससे कहता है कि आइसक्रीम झटक कर खा ले। उसका अहं उससे कहता कि दुकानदार से पूछे बिना यदि आइसक्रीम लेकर वह खा लेता है तो वह दंड का भागी हो सकता है वास्तविकता सिद्धांत पर कार्य करते हुए बालक जानता है कि अनुमति लेने के बाद ही आइसक्रीम खाने की इच्छा को संतुष्ट करना सर्वाधिक उपयुक्त होगा। इस प्रकार इड की माँग आवस्तविक और सुखेप्सा-सिद्धांत से संचालित होती है, अहं धैर्यवान, तर्कसंगत तथा वास्तविकता सिद्धांत से संचालित होता है।

पराहम्-पराहम् को समझने का और इसकी विशेषता बताने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि इसको मानसिक प्रकार्यों की नैतिक शाखा के रूप में जाना जाए। पराहम्, इड और अहं बताता है कि किसी विशिष्ट अवसर पर इच्छा विशेष की संतुष्टि नैतिक है अथवा नहीं। समाजीकरण की प्रक्रिया में पैतृक प्राधिकार के आंतरिकीकरण द्वारा पराहम् इड को नियंत्रित करने में सहायता प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई बालक आइसक्रीम देखकर उसे खाना चाहता है, तो वह इसके लिए अपनी माँ से पूछता है। उसका पराहम् संकेत देता है कि उसका यह व्यवहार नैतिक दृष्टि से सही है। इस तरह के व्यवहार के माध्यम से आइसक्रीम को प्राप्त करने पर बालक में कोई अपराध-बोध, भय अथवा दुश्चिता नहीं होगी।

इस प्रकार व्यक्ति के प्रकार्यों के रूप में फ्रायड का विचार था कि मनुष्य का अचेतन तीन प्रतिस्पर्धा शक्तियों अथवा ऊर्जाओं से निर्मित हुआ है। कुछ लोगों में इड पराहम् से अधिक प्रबल होता है तो कुछ अन्य लोगों में पराहम् इड से अधिक प्रबल होता है। इड, अहं और पराहम् की सापेक्ष शक्ति प्रत्येक व्यक्ति को स्थिरता का निर्धारण करती है। फ्रायड के अनुसार इड की दो प्रकार की मूलप्रवृत्तिक शक्तियों से ऊर्जा प्राप्त होती है जिन्हें जीवन-प्रवृत्ति एवं मुमूर्षा या मृत्यु-प्रवृत्ति के नाम से जाना जाता है। उन्होंने मृत्यु-प्रवृत्ति (अथवा काम) को केंद्र में रखते हुए अधिक महत्त्व दिया है। मूलप्रवृत्तिक जीवन-शक्ति जो इड को ऊर्जा प्रदान करती है कामशक्ति लिबिडो कहलाती है। लिबिडो सुखेप्सा-सिद्धांत के आधार पर कार्य करता है और तात्कालिक संतुष्टि चाहता है।

प्रश्न 35. स्वास्थ्य को परिभाषित करें। व्यक्ति की शारीरिक तंदुरुस्ती को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन करें।
उत्तर: “स्वास्थ्य एक ऐसी तंदुरूस्ती या कुशल क्षेत्र की अवस्था होती है जिसमें दैहिक, सांस्कृतिक, मनोसामाजिक, आर्थिक तथा आध्यात्मिक गुण होते हैं न कि सिर्फ रोग की अनुपस्थिति सांस्कृतिक, मनोसामाजिक, आर्थिक तथा आध्यात्मिक गुण होते हैं न कि सिर्फ रोग की अनुपस्थिति पाई जाती है।” स्वास्थ्य में कई तरह के कारकों का एक समन्वय पाया जाता है तथा इसमें रोग की अनुपस्थिति होती है। जब व्यक्ति इस सभी कारकों से प्रभावित होते हुए अपने आपको एक संतुलित अवस्था में बनाए रखने में सक्षम होता है, तो उसका स्वास्थ्य उत्तम कहलाता है।

व्यक्ति की शारीरिक तंदरूस्ती को प्रभावित करने वाला प्रमख कारक निम्नलिखित हैं-
(i) संज्ञान संबंधित कारक (Factors related to cognition)-व्यक्ति किस तरह से अपने विभिन्न शारीरिक लक्षणों जैसे सर्दी लगना, डायरिया होना, उल्टी होना, चेचक आदि के प्रति सोचता है या किस तरह का विश्वास रखता है, से उसकी शारीरिक तंदुरुस्ती काफी प्रभावित होता है। यदि व्यक्ति यह सोचता है कि वह ज्यादा दही खा लिया है, इसलिए उसे इन्फ्लुएंजा हो गया है, तो वह डॉक्टर के पास नहीं जायेगा। परंतु यदि वह यह सोचता है कि उस इन्फ्लुएंजा का कारण उसका फेफड़ा में संक्रमण का होना है, तो वह डॉक्टर की मदद लेने के लिये तैयार हो जायेगा। इस तरह से रोग के बारे में उसे क्या जानकारी है तथा यह विश्वास कि यह किस तरह से उत्पन्न होता है, से बहुत हद तक व्यक्ति की शारीरिक तंदुरूस्ती प्रभावित होती है।

(ii) व्यवहार से संबंधित कारक (Factors related to behaviour)-मनोवैज्ञानिकों द्वारा यह स्थापित किया जा चुका है कि व्यक्ति जिस तरह का व्यवहार करता है तथा जिस तरह की जीवनशैली को वह अपनाता है, उससे उसका स्वास्थ्य काफी हद तक प्रभावित होता है। जैसे-कुछ लोग दिन भर में 10 कप चाय पीना आवश्यक समझते हैं, कुछ लोग 8-10 सिगरेट पीना अति आवश्यक समझते हैं, कुछ लोग स्वच्छंद होकर लैंगिक सहवास करते हैं, कुछ लोग विशेष तरह का भोजन एवं प्रतिदिन दैनिक व्यायाम करते हैं, कुछ लोग प्रतिदिन मांसाहारी भोजन करना अधिक पसंद करते हैं, आदि-आदि। ऐसे व्यवहारों का कुछ खास-खास शारीरिक रोगों जैसे चक्रीय हृदय रोग, कैंसर, एच० आई० वी० (HIV) / एड्स (AIDS) आदि से सीधा संबंध होता है। जैसे-नियमित व्यायाम करने वाले व्यक्ति को चक्रीय हृदय रोग होने की संभावना कम होती है। मनोविज्ञान की एक नई शाखा जिसमें व्यवहारों में परिवर्तन लाकर रोगों से होने वाले दबावों को कम करने का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है, का विकास हुआ है। इस शाखा को व्यवहारपरक औषधि की संज्ञा दी गई है।

(iii) सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारक (Sovial and cultural factors)-कुछ सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारक भी होते हैं जिनसे व्यक्ति की दैहिक अनुक्रियाएँ प्रभावित होती हैं और फिर उनसे शारीरिक तंदुरुस्ती प्रभावित होती है। जैसे-भारतीय सांस्कृतिक में चेचक को किसी विशेष देवी माता का प्रकोप समझकर उस देवी माता की पूजा-अर्चना करके इस रोग का उपचार करने की कोशिश की जाती है। ऐसा सामाजिक एवं सांस्कृतिक विश्वास पश्चिमी देशों में नहीं पाया जाता है। फलतः इस रोग के प्रति इस ढंग की प्रतिक्रिया नहीं की जाती है। इन दोनों तरह की अनुक्रियाओं या प्रतिक्रियाओं से व्यक्ति की शारीरिक तंदुरूस्ती प्रभावित होती है। देवी माता का प्रकोप मानकर उपचार करने में व्यक्ति के स्वास्थ्य को कुप्रभावित होने की संभावना अधिक होती है। उसी तरह से भारतीय समाज में महिलाओं को दिया गया मेडिकल राय या अन्य महिलाओं द्वारा दिया गया मेडिकल सुझाव पर कार्य देर से प्रारम्भ किया जाता है जिसके पीछे यह विश्वास होता है कि वे लोग या तो इतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं या फिर उनकी प्रकृति दु:ख दर्द सहने की ही होती है। स्पष्ट हुआ कि कई ऐसे कारक है जिनके व्यक्ति की शारीरिक तंदुरूस्ती प्रभावित होती है।

प्रश्न 36. पूर्वाग्रह को नियंत्रित करने के लिए एक योजना का निर्माण करें।
उत्तर: पूर्वाग्रह नियंत्रण की युक्तियाँ तब अधिक प्रभावी होगी जब उनका प्रयास होगा-
(a) पूर्वाग्रहों के अधिगम के अवसरों को कम करना।
(b) ऐसी अभिवृत्तियों को परिवर्तित करना।
(c) अंत:समूह पर आधारित संकुचित सामाजिक अनन्यता के महत्त्व को कम करना।
(d) पूर्वाग्रह के शिकार लोगों में स्वतः अधिक भविष्योक्ति की प्रवृत्ति को हतोत्साहित करना।

इन लक्ष्यों को निम्न प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है-
(i) शिक्षा एवं सूचना के प्रसार के द्वारा विशिष्ट लक्ष्य समूह से संबद्ध रूढ़ धारणाओं को संशोधित करना एवं प्रबल अंत:समूह अभिनति की समस्या से निपटना।

(ii) अंत:समूह संपर्क को बढ़ाना प्रत्यक्ष संप्रेषण, समूहों के मध्य अविश्वास को दूर करने तथा बाह्य समूह के सकारात्मक गुणों को खोज करने का अवसर प्रदान करना है। हालांकि ये युक्तियाँ तभी सफल होती हैं, जब दो समूह प्रतियोगी संदर्भ के स्थान पर एक सहयोग संदर्भ में मिलते हैं।
समूहों के मध्य घनिष्ठ अंतःक्रिया एक-दूसरे को समझने या जानने में सहायता करती है। दोनों समूह शक्ति या प्रतिष्ठा में भिन्न नहीं होते हैं।

(iii) समूह अनन्यता की जगह व्यक्तिगत अनन्यता को विशिष्ट प्रदान करना अर्थात् दूसरे व्यक्ति के मूल्यांकन के आधार के रूप में समूह (अंतः एवं बाह्य दोनों ही समूह) के महत्त्व को बलहीन करना।

प्रश्न 37. कार्ल रोजर्स की विचारधारा का वर्णन करें।
उत्तर: काल रोजर्स की विचारधारा-
(i) मानव व्यवहार लक्ष्य निर्देशित (Goal directed) एवं लाभप्रद (Worthwhile) होता है।

(ii) मानव जो जन्मजात ही नेक प्रकृति के होते हैं, हमेशा ही आत्म-सिद्ध (Seif actualized) तथा अनुकूली (Adaptive) व्यवहार करते हैं।कार्ल रोजर्स के अनुसार, व्यक्तित्व का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू आत्म (Self) का विकास होता है जिसमें व्यक्ति को अपनी अनुभूतियों एवं अन्य मानसिक प्रक्रियाओं का ज्ञान होता है। आत्म-सम्मान का विकास शैशवावस्था में होता है जब शिशु की अनुभूतियों का एक अंश अधिक मूर्त (abstract) रूप प्राप्त करने लगता है और ‘मैं’ या ‘मुझको’ के रूप में धीरे-धीरे विशिष्ट होने लगता है। इसका परिणाम यह होता है कि शिशु धीरे-धीरे अपनी अस्मिता या पहचान से अवगत होने लगता है। फलतः उसमें अच्छे-बुरे का ज्ञान होने लगता है।

आत्म-संप्रत्यय से तात्पर्य व्यक्ति के उन सभी पहलुओं एवं अनुभूतियों से होता है कि जिनसे व्यक्ति अवगत होता है। आत्म-संप्रत्यय का निर्माण एक बार हो जाने से उसमें परिवर्तन नहीं होता है। आत्म-संप्रत्यय से संगत अनुभूतियों को व्यक्ति स्वीकार करता है और असंगत अनुभूतियों को वह अस्वीकार करता है।

रोजर्स का यह भी मत है कि प्रत्येक व्यक्ति का एक आदर्श आत्म भी होता है। आदर्श आत्म से तात्पर्य अपने बारे में विकसित की गई एक ऐसी छवि से होता है जिसे वह आदर्श मानता है। एक सामान्य व्यक्ति में वास्तविक आत्म तथा आदर्श आत्म में संगति होता है। इससे व्यक्ति में खुशी उत्पन्न होती है। परंतु जब व्यक्ति का वास्तविक आत्म तथा आदर्श आत्म में अंतर हो जाता है तो इससे असंतुष्टि तथा दुःख व्यक्ति में उत्पन्न होता है।

रोजर्स का यह मत है कि व्यक्ति आत्म-सिद्धि के माध्यम से अपने आत्म को अधिक-से-अधिक विकसित करने की कोशिश करता है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति का आत्म विकसित होने के साथ-ही-साथ सामाजिक भी हो जाता है।

रोजर्स के अनुसार व्यक्तित्व विकास एक सतत् प्रक्रिया होता है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति द्वारा अपना किया गया आत्म-मूल्यांकन तथा आत्म-सिद्धि की प्रक्रिया में प्रवीणता विकसित करना सम्मिलित होता है। इन्होंने आत्म-संप्रत्यय के विकास में सामाजिक प्रभावों की भूमिका को भी स्वीकार किया है। उनका मत है कि जब सामाजिक हालात धनात्मक या अनुकूल होते हैं, तो व्यक्ति का आत्म-संप्रत्यय तथा आत्म-सम्मान उच्च होता है। दूसरे तरफ, जब सामाजिक हालात प्रतिकूल होते हैं, व्यक्ति का आत्म-संप्रत्यय तथा आत्म-सम्मान दोनों ही कम हो जाते हैं। जिन व्यक्तियों का आत्म-संप्रत्यय तथा आत्म-सम्मान उच्च होता है, वे प्रायः खुले विचार के होते हैं जिनसे वे आत्म-सिद्धि की ओर तेजी से बढ़ते हैं।

रोजर्स के अनुसार व्यक्तित्व दो तरह की आवश्यकताओं द्वारा मूलतः प्रभावित होता है-स्वीकारात्मक श्रद्धा तथा आत्म-श्रद्धा। स्वीकारात्मक श्रद्धा से तात्पर्य दूसरों द्वारा स्वीकार किये जाने, दूसरों का स्नेह पाने एवं उनके द्वारा पसंद किये जाने की इच्छा से होती है। स्वीकारात्मक श्रद्धा की आवश्यकता दो तरह की होती है-शर्तपूर्ण स्वीकारात्मक श्रद्धा तथा शर्तरहित स्वीकारात्मक श्रद्धा। शर्तपूर्ण स्वीकारात्मक श्रद्धा में दूसरों का स्नेह, प्यार एवं अनुराग प्राप्त करने के लिए उनके द्वारा निश्चित किये गए मानदंडों के अनुरूप व्यक्ति को व्यवहार करना पड़ता है। रोजर्स ने इस तरह की श्रद्धा को व्यक्तित्व विकास के लिये उपयुक्त नहीं माना है। शर्तहीन स्वीकारात्मक श्रद्धा में दूसरों का स्नेह, प्यार एवं मान-सम्मान पाने के लिये कोई शर्त नहीं रखा जाता है। माता-पिता द्वारा बच्चों को दिया गया स्नेह एवं मान-सम्मान इसी श्रेणी का श्रद्धा होता है। ऐसे व्यक्ति अपनी क्षमताओं एवं प्रतिभाओं को सर्वोत्कृष्ट तरीके से अभिव्यक्त करने का पूरा-पूरा प्रयास करते हैं।

प्रश्न 38. आक्रामकता क्या है? आक्रामकता के कारणों का वर्णन करें।
उत्तर: आक्रामकता आधुनिक समाज की प्रमुख समस्या है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार आक्रामकता एक ऐसा व्यवहार होता है जो दूसरों को शारीरिक रूप से या शाब्दिक रूप से हानि पहुँचाने के आशय से किया जाता है। ऐसी अभिव्यक्ति व्यक्ति अपने वास्तविक व्यवहार के माध्यम से अथवा फिर कटु वचनों या आलोचनाओं के माध्यम से करता है। इसकी अभिव्यक्ति दूसरों के प्रति शत्रुतापूर्ण भावनाओं द्वारा भी की जाती है।

आक्रामकता के निम्नलिखित कारण हैं-
(i) सहज प्रवृत्ति-आक्रामकता मानव में (जैसा कि यह पशुओं में होता है) सहज (अंतर्जात) होती है। जैविक रूप से यह सहज प्रवृत्ति आत्मरक्षा हेतु हो सकती है।

(ii) शरीर क्रियात्मक तंत्र-शरीर-क्रियात्मक तंत्र अप्रत्यक्ष रूप से आक्रामकता जनिक कर सकते हैं, विशेष रूप से मस्तिष्क के कुछ ऐसे भागों को सक्रिय करके जिनकी संवेगात्मक अनुभव में भूमिका होती हैं, शरीर-क्रियात्मक भाव प्रबोधन की एक सामान्य स्थिति या सक्रियण की भावना प्रायः आक्रमण के रूप में अभिव्यक्त हो सकती है। भाव प्रबोधन के कई कारण हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, भीड़ के कारण भी आक्रमण हो सकता है, विशेष रूप से गर्म तथा आर्द्र मौसम में।

(iii) बाल-पोषण-किसी बच्चे का पालन किस तरह से किया जाता है वह प्रायः उसी आक्रामकता को प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए, वे बच्चे जिनके माता-पिता शारीरिक दंड का उपयोग करते हैं, उन बच्चों की अपेक्षा जिनके माता-पिता अन्य अनुशासनिक, तकनीकों का उपयोग करते हैं, अधिक आक्रामक बन जाते हैं। ऐसा संभवतः इसलिए होता है कि माता-पिता ने आक्रामक व्यवहार का एक आदर्श उपस्थित किया है, जिसका बच्चा अनुकरण करता है। यह इसलिए भी हो सकता है कि शारीरिक दंड बच्चे को क्रोधित तथा अप्रसन्न बना दे और फिर बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता है वह इस क्रोध को आक्रामक व्यवहार के द्वारा अभिव्यक्त करता है।

(iv) कंठा-आक्रामण कुंठा की अभिव्यक्ति तथा परिणाम हो सकते हैं, अर्थात् वह संवेगात्मक स्थिति जो तब उत्पन्न होती है जब व्यक्ति को किसी लक्ष्य तक पहुँचने में बाधित किया जाता है अथवा किसी ऐसी वस्तु जिसे वह पाना चाहता है, उसको प्राप्त करने से उसे रोका जाता है। व्यक्ति किसी लक्ष्य के बहुत निकट होते हुए भी उसे प्राप्त करने से वंचित रह सकता है। यह पाया गया है कि कुंठित स्थितियों में जो व्यक्ति होते हैं, वे आक्रामक व्यवहार उन लोगों की अपेक्षा अधिक प्रदर्शित करते हैं जो कुंठित नहीं होते। कुंठा के प्रभाव की जाँच करने के लिए किए गए एक प्रयोग में बच्चों को कुछ आकर्षक खिलौनों, जिन्हें वे पारदर्शी पर्दे (स्क्रीन) के पीछे से देख सकते थे, को लेने से रोका गया। इसके परिणामस्वरूप ये बच्चे, उन बच्चों की अपेक्षा, जिन्हें खिलौने उपलब्ध थे, खेल में अधिक विध्वंसक या विनाशकारी पाए गए।

प्रश्न 39. प्रतिभाशाली बालकों की विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर: प्रतिभाशाली बालकों की विशेषताएँ (Characteristics of Gifted Children)-प्रतिभाशाली बालकों की कुछ ऐसी विशेषताएँ होते हैं, जिससे कि उसे सामान्य बच्चों से अलग किया जा सकता है–

  • मानसिक गुण- मानसिक गुण प्रतिभाशाली बालकों की सबसे प्रमुख विशेषता है। इनमें सामान्य बालकों की उपेक्षा अधिक मानसिक योग्यता होती है। अनेक अध्ययनों के आधार पर देखा गया है कि प्रतिभाशाली बालकों का 1.Q. 140 या इससे अधिक होता है।
  • चिन्तन- प्रतिभाशाली बालक सामान्य बच्चों की अपेक्षा अधिक अमूर्त चिन्तन करते हैं। ये बच्चे सूक्ष्ममातिसूक्ष्म विषयों पर विचार कर सकते हैं तथा कठिन समस्याओं को समझने तथा उनका हल करने में अधिक कुशाग्र होते हैं।
  • शारीरिक गण-सामान्य बालकों की तुलना में प्रतिभाशाली बच्चे अधिक लम्बे तथा भारी बदन के होते हैं। ये जन्म के समय सामान्य बच्चों की अपेक्षा एक पौण्ड भारी तथा डेढ़ इंच लम्बे होते हैं।
  • सीखने की योग्यता- प्रतिभाशाली बालकों में सीखने की योग्यता सामान्य बच्चों की तुलना में अधिक होती है। अन्य बच्चों की अपेक्षा इनका भाषा विकास तीन माह पहले हो जाता है। फलतः इनका शब्दभण्डार बड़ा होता है। स्कूल जाने के पहले ही ये कुछ शब्दों को पढ़ना-लिखना सीख लेते हैं। ये कम समय में ही पाठ्य-पुस्तक विषयों को याद कर लेते हैं।
  • रूचि- प्रतिभाशाली बालकों की रूचि किसी एक ओर अधिक समय तक नहीं रहती है। वातावरण की सभी वस्तुओं का ज्ञान ये प्राप्त करना चाहते हैं। इसलिए उनका ध्यान बराबर विचलित होते रहते हैं।
  • सामाजिक गण- जो बालक प्रतिभाशाली होते हैं वे सामान्य बच्चों की तुलना में अधिक सामाजिक होते हैं। ऐसे बालक खेलों में भी ज्यादा अभिरूचि लेते हैं। ऐसे बच्चों में नेतृत्व का गुण अधिक होता है।
  • उच्च वंश-परम्परा-प्रायः प्रतिभाशाली बालक उच्च वंश के होते हैं। इनके माता-पिता अधिक बुद्धिमान एवं शिक्षित होते हैं। या तो वे अच्छे पद पर होते हैं या बड़े व्यवसाय से सम्बन्धित होते हैं। परन्तु यह बात पूरी तरह से सही नहीं है, क्योंकि अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं जो गरीब परिवार के होते हुए भी प्रतिभाशाली हुए हैं।
  • समझने की क्षमता-प्रतिभाशाली बालक निर्देशन कम होने पर भी अधिक समझ लेते हैं और अपनी समझ-बूझ एवं पूर्व अनुभवों का लाभ उठाते हैं। अध्यापक को विषय समझाने में विशेष कठिनाई नहीं होती है।
  • ध्यान-प्रतिभाशाली बालकों का ध्यान विस्तार सामान्य बच्चों की तुलना में अधिक होता है। ऐसे बच्चे किसी विषय में अपने ध्यान को अधिक समय तक केन्द्रित करने में समर्थ होते हैं। इनका ध्यान कम भंग होता है।
  • अन्य शीलगुण-प्रतिभाशाली बालक प्रायः ईमानदार, दयालु एवं परोपकारी होते हैं। परन्तु, इसके लिए उन्हें उचित निर्देशन मिलना आवश्यक है।

प्रश्न 40. आक्रमण एवं हिंसा के कारण या निर्धारकों का वर्णन करें।
उत्तर: असामान्य मनोविज्ञान के अंतर्गत मनष्य के असामान्य व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। इसमें आक्रमण एवं हिंसा की अवधारणा पर भी विचार किया जाता है। जब किसी लक्ष्य या वस्तु को प्राप्त करने के लिए हिंसा को अपनाया जाता है तो उसे आक्रमण कहा जताा है। आक्रमण के निम्नलिखित कारण हैं-

(i) सहज प्रवृत्ति-आक्रामकता मानव में (जैसा कि यह पशुओं में होता है) सहज (अंतर्जात) होती है। जैविक रूप से यह सहज प्रवृत्ति आत्मरक्षा हेतु हो सकती है।

(ii) शरीर क्रियात्मक तंत्र-शरीर-क्रियात्मक तंत्र अप्रत्यक्ष रूप से आक्रामकता जनिक कर सकते हैं, विशेष रूप से मस्तिष्क के कुछ ऐसे भागों को सक्रिय करके जिनकी संवेगात्मक अनुभव में भूमिका होती हैं, शरीर-क्रियात्मक भाव प्रबोधन की एक सामान्य स्थिति या सक्रियण की भावना प्रायः आक्रमण के रूप में अभिव्यक्त हो सकती है। भाव प्रबोधन के कई कारण हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, भीड़ के कारण भी आक्रमण हो सकता है, विशेष रूप से गर्म तथा आर्द्र मौसम में। ..

(iii) बाल-पोषण-किसी बच्चे का पालन किस तरह से किया जाता है वह प्रायः उसी आक्रामकता को प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए, वे बच्चे जिनके माता-पिता शारीरिक दंड का उपयोग करते हैं, उन बच्चों की अपेक्षा जिनके माता-पिता अन्य अनुशासनिक, तकनीकों का उपयोग करते हैं, अधिक आक्रामक बन जाते हैं। ऐसा संभवतः इसलिए होता है कि माता-पिता ने आक्रामक व्यवहार का एक आदर्श उपस्थित किया है, जिसका बच्चा अनुकरण करता है। यह इसलिए भी हो सकता है कि शारीरिक दंड बच्चे को क्रोधित तथा अप्रसन्न बना दे और फिर बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता है वह इस क्रोध को आक्रामक व्यवहार के द्वारा अभिव्यक्त करता है।

(iv) कुंठा-आक्रामण कुंठा की अभिव्यक्ति तथा परिणाम हो सकते हैं, अर्थात् वह संवेगात्मक स्थिति जो तब उत्पन्न होती है जब व्यक्ति को किसी लक्ष्य तक पहुँचने में बाधित किया जाता है अथवा किसी ऐसी वस्तु जिसे वह पाना चाहता है, उसको प्राप्त करने से उसे रोका जाता है। व्यक्ति किसी लक्ष्य के बहुत निकट होते हुए भी उसे प्राप्त करने से वंचित रह सकता है। यह पाया गया है कि कुठित स्थितियों में जो व्यक्ति होते हैं, वे आक्रामक व्यवहार उन लोगों की अपेक्षा अधिक प्रदर्शित करते हैं जो कुठित नहीं होते। कुंठा के प्रभाव की जाँच करने के लिए किए गए एक प्रयोग में बच्चों को कुछ आकर्षक खिलौनों, जिन्हें वे पारदर्शी पर्दे (स्क्रीन) के पीछे से देख सकते थे, को लेने से रोका गया। इसके परिणामस्वरूप ये बच्चे, उन बच्चों की अपेक्षा, जिन्हें खिलौने उपलब्ध थे, खेल में अधिक विध्वंसक या विनाशकारी पाए गए।

प्रश्न 41. मन के गत्यात्मक पक्षों की विवेचना करें। अथवा, फ्रायड के अनुसार मन के गत्यात्मक पहलू का वर्णन करें।
उत्तर: मनोविश्लेषण के जन्मदाता फ्रायड ने मन के गत्यात्मक पक्षों का विस्तारपूर्वक अध्ययन किया है और बताया है कि उस पहलू के द्वारा ही मूल प्रवृत्तियों में उत्पन्न मानसिक संघर्ष दूर होते हैं। इस संबंध में ब्राउन ने अपना मत व्यक्त करते हुए कहा है कि “व्यक्तित्व के गत्यात्मक पहलू का अर्थ यह है जिसके द्वारा मूल प्रवृत्तियों में उत्पन्न संघर्षों का समाधान होता है।”

फ्रायड ने मन के गत्यात्मक के तीन पक्षों की चर्चा की है-
(i) इड (Id)-यह हमारे मन के गत्यात्मक पहलू का प्रथम भाग है। प्रारंभ में प्रत्येक बच्चा इड से ही प्रभावित होता है। जैसे-जैसे उम्र में वृद्धि होती है, वैसे-वैसे इगो तथा सुपर इगो का विकास क्रमशः होने लगता है। इड को न तो समय का ज्ञान रहता है और न वास्तविकता का। यही कारण है कि बच्चे अपनी उन इच्छाओं को भी पूरा करना चाहते हैं, जिन्हें पूरा नहीं किया जा सकता है। फ्रायड और उनके समर्थकों ने इड को मूल प्रवृत्तियों का भंडार माना है।

(ii) इगो (Ego)-इगो मन के गत्यात्मक पहलू का वह भाग है, जिसका संबंध वास्तविकता से होता है। फ्रायड ने इसे Self conscious intelligence कहा है। चूँकि इसे वास्तविकता का पूरा-पूरा ज्ञान रहता है, अत: इड और सुपर इगो के बीच संतुलन स्थापित करने का काम करता है। इगो तार्किक दोषों से वंचित रहता है। यह चेतन और अचेतन दोनों होता है। जीवन और वास्तविकता के बीच अभियोजन करने का काम इगो ही करता है। इसी के संतुलन पर हमारा व्यक्तित्व निर्भर करता है। इगो प्रत्येक काम के परिणाम को गंभीरतापूर्वक सोचता है और अनुकूल अवसर आने पर इड की इच्छाओं को संतुष्ट होने देता है। जो विचार इगो को मान्य नहीं होता वह अचेतन मन में दमित हो जाता है।

(iii) सुपर इगो (Super Ego)-सुपर इगो मन के गत्यात्मक का तीसरा और अंतिम भाग है। इसे आदर्शों की जननी कहा गया है। नाइस (Nice) के शब्दों में, “सुपर इगो व्यक्तित्व का वह भाग है, जिसे विवेक कहा जाता है। यह हमें सभ्य मानव की तरह व्यवहार करना सिखाता है। इस तरह यह इड की असंगत इच्छाओं की पूर्ति में बाधा डालता है।” सुपर इगो के कारण ही व्यक्ति में नैतिकता का जन्म होता है। हर हालत में इसका विकास सामाजिक परिवेश में होता है। यह मुख्यतः चेतन होता है। फलस्वरूप इसे वास्तविकता का पूरा-पूरा ज्ञान रहता है। अपने सभी नैतिक कार्यों को करने से व्यक्ति घबराता है और यदि किसी कारणवश इन कार्यों को कर डालता है तो उसे बाद में पश्चाताप करना पड़ता है।

प्रश्न 42. युंग के व्यक्तित्व प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर: युंग ने मानसिक और सामाजिक गुणों के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से किया है-
(i) अन्तःमुखी व्यक्तित्व (Introvert Personality)-युंग ने अन्त:मुखी के अंतर्गत ऐसे व्यक्तित्व वाले लोगों को रखा है जो कल्पना और चिंतन में ज्यादा समय बर्बाद करते हैं। ये लोग एकांत जीवन जीना पसंद करते हैं। अन्त:मुखी व्यक्ति बहुत अधिक भावुक होते हैं तथा उनमें आलोचनाओं को सहने की शक्ति कम होती है। इनका जीवन बहुत ही नियमित होता है। किसी काम को काफी सोच समझ कर करते हैं। अन्तःमुखी व्यक्तित्व वाले जोखिम नहीं उठा सकते। संवेगों पर इनका नियंत्रण होता है। इन लोगों को नैतिकता का विशेष ख्याल होता है। अतः ऐसे व्यक्तित्व विश्वसनीय होते हैं। इस प्रकार के व्यक्तित्व वाले व्यक्ति दार्शनिक, चिंतक, कलाकार या कवि हो सकते हैं।

(ii) बर्हिमुखी व्यक्तित्व (Extrovert Personality)-इस प्रकार के व्यक्तित्व वाले लोग व्यवहार कुशल होते हैं। ये अधिक लोगों के बीच घिरे रहना पसंद करते हैं। इनमें साहस और कुशलता अधिक देखी जाती है। बहिर्मुखी व्यक्ति कम भावुक होते हैं। ये हास्यप्रिय, हाजिर जवाब तथा अनिश्चित प्रकृति के होते हैं। एकांत में रहना ऐसे व्यक्तियों के लिए दुभर होता है। इनके दोस्ती की संख्या अधिक होती है। ये अधिक जोखिम भरे कार्य कर सकते हैं। ऐसे व्यक्तित्व के लोगों में संवेगात्मक अस्थिरता भी देखी जाती है। बात-बात पर इन्हें क्रोधित होते देखा जाता है। इस प्रकार के व्यक्तित्व वाले अधिकांश नेता या समाज सुधारक होते हैं। युग के व्यक्तित्व विभाजन के अनुसार कुछ ही ऐसे व्यक्ति होते हैं जो पूर्णतः अन्तर्मुखी या बहिर्मुखी होते हैं। अधिकांश व्यक्तियों में अन्तर्मुखी तथा बहिर्मुखी दोनों प्रकार के गुण पाए जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों को उभयमुखी कहा जाता है।

प्रश्न 43. असामान्य व्यवहार के मनोवैज्ञानिक कारणों का वर्णन करें।
उत्तर: यदि व्यक्ति का मनोवैज्ञानिक विकास दोषपूर्ण होगा, तो उसके व्यवहार में असामान्यता की संभावना बहुत अधिक रहती है। ऐसी अवस्था में व्यक्ति का व्यवहार

कुसमायोजित हो जाता है उसके व्यवहार दोषपूर्ण हो जाते हैं। असामान्य व्यवहार के मनोवैज्ञानिक कारण निम्नलिखित हैं-
(i) मातृवंचन (Maternal deprivation)-मातृवंचन असामान्य व्यवहार का एक बहुत बड़ा कारण है। ऐसा देखा जाता है कि जहाँ माताएँ शिशुओं को छोड़कर नौकरी या व्यवसाय करने के लिए चली जाती है, उन्हें उचित मात्रा में माता-पिता का स्नेह नहीं मिल पाता है। ऐसी अवस्था में शिशुओं का मनोवैज्ञानिक विकास अवरुद्ध हो जाता है, जो असामान्य व्यवहार को विकसित होने में सहायक होते हैं।

(ii) पारिवारिक प्रतिमान की विकृति (Pathogenic family pattern)-विकृत पारिवारिक दशाओं के कारण भी व्यक्ति का व्यवहार असामान्य हो जाता है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित दशाएँ आती हैं
(a) तिरस्कार,
(b) अति संरक्षण
(c) इच्छाओं की पूर्ति की अधिक छूट,
(d) दोषपूर्ण अनुशासन,
(e) अयथार्थ चाह। .

(iii) दोषपूर्ण पारिवारिक संरचना (Faulty family structure)-यदि पारिवारिक संरचना दोषपूर्ण होगी तो बच्चों में अनेक प्रकार के असामान्य व्यवहार के विकसित होने की संभावना बनी रहेगी। ऐसे परिवार में बच्चों की आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति उचित ढंग से नहीं हो पाती है और उनमें विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। अस्त-व्यस्त पारिवारिक वातावरण में बच्चों में तनाव उत्पन्न होता है।

(iv) प्रारंभिक जीवन के मानसिक आघात (Early psychic trauma)-यह भी असामान्य व्यवहारों को उत्पन्न करने में सहायक होता है। यदि बच्चों के प्रारंभिक जीवन में कोई तीव्र मानसिक आघात लगता है, तो उसका प्रभाव व्यक्ति के पूरे जीवन पर पड़ता है और व्यक्ति असामान्य हो जाता है। . (v) विकृत अन्तःवैयक्तिक संबंध (Faulty interpersonal relation)-असामान्य व्यवहारों के विकसित होने में एक मनोवैज्ञानिक कारक विकृत अन्त:वैयक्तिक संबंध भी है। यदि किसी कारणवश परस्पर संबंधित व्यक्तियों से आपसी संबंध विकृत हो जाते हैं या तीव्र मतभेद हो जाते हैं तो उन व्यक्तियों में अत्यधिक तनाव, असंतोष, चिंता आदि विकसित हो जाते हैं, जिससे व्यक्ति का व्यवहार कुसमायोजित हो जाता है।

प्रश्न 44. मनोगत्यात्मक चिकित्सा की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर: मनोगत्यात्मक चिकित्सा का प्रतिपादन सिगमंड फ्रायड द्वारा किया गया। मनोगत्यात्मक चिकित्सा की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन निम्नलिखित है-
1. मनोगत्यात्मक चिकित्सा ने मानस की संरचना, मानस के विभिन्न घटकों के मध्य गतिकी और मनोवैज्ञानिक कष्ट के स्रोतों का संप्रत्ययीकरण किया है।

2. यह उपागम अत: मनोद्वंद्व का मनोवैज्ञानिक विकारों का मुख्य कारण समझता है। अतः, उपचार में पहला चरण उसी अन्तःद्वन्द्व को बाहर निकालना है।

3. मनोविश्लेषण ने अंत:द्वंद्व को बाहर निकालने के लिए दो महत्त्वपूर्ण विधियों मुक्त साहचर्य विधि तथा स्वप्न व्याख्या विधि का आविष्कार किया। मुक्त साहचर्य विधि सेवार्थी की समस्याओं को समझने की प्रमुख विधि है। सेवार्थी को एक विचार को दूसरे विचार से मुख्य रूप से संबद्ध करने के प्रोत्साहित किया जाता है और उस विधि को मुक्त साहचर्य विधि कहते हैं। जब सेवार्थी एक आरामदायक और विश्वसनीय वातावरण में मन में जो कुछ भी आए बोलता है तब नियंत्रक पराहम तथा सतर्क अहं को प्रसप्तावस्था में रखा जाता है। चूँकि चिकित्सक बीच में हस्तक्षेप नहीं करता इसलिए विचारों का मुक्त प्रवाह, अचेतन मन की इच्छाएँ और द्वंद्व जो अहं द्वारा दमित किए जाते रहे हों वे सचेतन मन में प्रकट होने लगते हैं।

प्रश्न 45. व्यवहार चिकित्सा क्या है? संक्षेप में समझाइए।
उत्तर: व्यवहार चिकित्सा मनश्चिकित्सा का एक प्रकार है। व्यवहार चिकित्साओं का यह मापन है कि मनावैज्ञानिक कष्ट दोषपूर्ण व्यवहार प्रतिरूपों या विचार प्रतिरूपों के कारण उत्पन्न होते हैं। अतः इनका केन्द्रबिन्दु सेवार्थी में विद्यमान व्यवहार और विचार होते हैं। उसका अतीत केवल उसके दोषपूर्ण व्यवहार तथा विचार प्रतिरूपों की उत्पत्ति को समझने के संदर्भ में महत्वपूर्ण होता है। अतीत को फिर से सक्रिय नहीं किया जाता। वर्तमान में केवल दोषपूर्ण प्रतिरूपों में सुधार किया जाता है।

अधिगम के सिद्धांतों का नैदानिक अनुप्रयोग ही व्यवहार चिकित्सा को गठित करता है व्यवहार चिकित्सा में विशिष्ट तरीकों एवं सुधारोन्मुख हस्तक्षेपों का एक विशाल समुच्चय होता है। यह कोई एकीकृत सिद्धांत नहीं है जिसे क्लिनिकल निदान या विद्यमान लक्षणों को ध्यान में रखे बिना अनुप्रयुक्त किया जा सके। अनुप्रयुक्त किए जाने वाली विशिष्ट तकनीकों या सुधारोन्मुख हस्तक्षेपों के चयन में सेवार्थी के लक्षण तथा क्लिनिकल निदान मार्गदर्शक कारक होते हैं। दुर्भीति या अत्यधिक और अपंगकारी भय के उपचार के लिए तकनीकों के एक समुच्चय को प्रयुक्त करने की आवश्यकता होगी जबकि क्रोध-प्रस्फोटन के उपचार के लिए दूसरी। अवसादग्रस्त सेवार्थी की चिकित्सा दुश्चितित सेवार्थी से भिन्न होगी। व्यवहार चिकित्सा का आधार दोषपूर्ण या अप्रक्रियात्मक व्यवहार को निरूपित करना, इन व्यवहारों के प्रबलित तथा संपोषित करने वाले कारकों तथा उन विधियों को खोजना है जिनसे उन्हें परिवर्तित किया जा सके।

प्रश्न 46. व्यवहार चिकित्सा का मूल्यांकन करें। इसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर: व्यवहार चिकित्सा का इतिहास बहुत अधिक पुराना नहीं है। इसका प्रारंभ लगभग पच्चीस-तीस वर्ष पहले किया गया था। यह पद्धति मानसिक रोगियों की चिकित्सा के लिए बहुत अधिक कारगर साबित हुई है। यह विधि पैवल के संबंध प्रत्यावर्तन सिद्धान्त पर आधारित है। इस चिकित्सा के माध्यम से मानसिक रोगियों से छुटकारा दिलाया जा सकता है, जिससे वे समाज में अपना अभियोजन ठीक ढंग से कर सके। व्यवहार चिकित्सा के संबंध में आइजेक (Eysenck) का कहना है कि “मानव व्यवहार एवं संवेगों को सीखने के नियमों के आधार पर लाभदायक तरीकों से परिवर्तन करने का प्रयास व्यवहार चिकित्सा है।” क्लीनमुंज (Keleinmuntz) ने भी लगभग इससे मिलती-जुलती परिभाषा दी है।उन्होंने कहा है कि,”व्यवहार चिकित्सा उपचार का एक प्रकार है, जिसमें लक्षणों को दूर करने के लिए शिक्षण के सिद्धान्तों का उपयोग किया जाता है।

व्यवहार चिकित्सा का स्वरूप कोलमैन (Coleman) की परिभाषा से और भी स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने कहा है कि, “व्यवहार चिकित्सा संबंध प्रत्यावर्तन प्रतिक्रियाओं और व्यवहारवाद की अन्य धारणाओं पर आधारित एवं मनोचिकित्सा विधि है जो मूल रूप से स्वभाव परिवर्तन की ओर निर्देशित होती है। (Behaviour therapy is a phychotherapy based upon conditioned responses and other concepts of behaviour, primarily directed towards, habit change.) उपर्युक्त पारिभाषाओं से व्यवहार चिकित्सा का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। इसमें रोगी के गलत व्यवहारों को संबंध प्रत्यावर्तन के माध्यम से दूर किया जाता है। व्यवहार चिकित्सा के निम्नलिखित प्रकारों की मुख्य रूप से चर्चा की जा सकती है।

1. क्रमबद्ध विहर्षण- इस विधि का सर्वप्रथम प्रयोग Wolpe ने किया था। शिक्षण के क्षेत्र में Watson and Rayner ने इस विधि को प्रयोग में लाया। Wolpeने अनेक मानसिक रोगियों की चिकित्सा इस विधि के माध्यम से की, जिसका परिणाम अच्छा निकला। कोलमैन ने इस विधि के संबंध में कहा है कि विहर्षण एक चिकित्सा प्रक्रिया है, जिसके द्वारा आघातजन्य अनुभवों की तीव्रता को उनके वास्तविक रूप या हवाई कल्पना को मृदुल ढंग से व्यक्ति को बार-बार दिखलाकर कम किया जाता है।
कोलमैन के विचार से स्पष्ट होता है कि विहर्षण एक मनोचिकित्सा पद्धति है, जो शिक्षण-सिद्धान्तों पर आधारित है। इसमें रोगी को मांसपेशियों को तनावहीन बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता है, उसके बाद चिन्ता उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों को कल्पना श्रृंखलाबद्ध की जाती है। यह कल्पना रोगी को उस समय तक करने के लिए कहा जाता है, जबतक चिन्ता उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों से भयभीत न हो।

किसी रोग पर इस चिकित्सा पद्धति के प्रयोग में लाने से पहले उसके गत जीवन की जानकारी प्राप्त कर ली जाती है, जिससे कि उसे रोग से संबंधित परिस्थितियों को आवश्यकतानुसार रोगी के समक्ष प्रस्तुत किया जा सके। उसके बाद चिकित्सक सबसे कम भयावह परिस्थितियों से लेकर अधिक भयावह परिस्थितियों को सूचिबद्ध करता है। इन सूचियों को अलग-अलग कागज पर लिखकर रोगी को क्रमबद्ध रूप से लिखने को कहा जाता है। इसी समय चिकित्सक रोगी का साक्षात्कार भी करता है। अधिकांश रोग तनावों के कारण उत्पन्न होते हैं। इसलिए रोगी को तनाव की स्थिति में लाकर तनावहीन स्थिति में लाने के लिए तैकॉविशन द्वारा बतलायी गयी विधि का सहारा लिया जाता है। इसमें रोगी को एक गद्दे पर लिटा कर उसके शरीर के विभिन्न स्नायुयों को व्यवस्थित रूप में फैलाने तथा सिकोड़ने के लिए कहा जाता है। उसे यह प्रक्रिया अकसर करने को कहा जाता है जिससे रोगी तनावहीन हो जाता है।

उसके बाद विहर्षण की प्रक्रिया प्रारंभ की जाती है। रोगी को यह निर्देश दिया जाता है कि पहले सिखायी गयी प्रक्रिया में तनाव या कष्ट का अनुभव हो, तो अंगुली उठाकर इसकी सूचना दे। उसके बाद तटस्थ रूप से दृश्यों की कल्पना करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इसी बीच उसे कम कष्टदायक तथा भयावह परिस्थितियों की कल्पना करने की सलाह देता है। चिकित्सक उसे बड़ी सावधानी से नोट करता है और अंत में रोगी के सामने सबसे अधिक चिन्ता करने वाली परिस्थितियों को.तब तक उपस्थित किया जाता है जब तक कि रोगी की चिन्ता या भय के लक्षण दूर नहीं हो जाते हैं।

विहर्षण विधि का उपयोग नपुंसकता तथा उत्साहशून्यता के उपचार में सफलतापूर्वक किया जाता है। नपुंसकता को दूर करने के लिए इस विधि का प्रयोग, कूपर, लेजारस तथा वोल्पे ने सफलतापूर्वक किया। कुछ रोगी कम ही समय में इस चिकित्सा से चंगा हो जाते हैं, परन्तु कुछ अधिक समय ले लेते हैं।

2. दृढ़ग्राही प्रशिक्षण-व्यवहार चिकित्सा की इस पद्धति के द्वारा ऐसे मानसिक रोगियों की चिकित्सा की जाती है जिनमें पारस्परिक संबंधों या अन्य व्यवहारों में चिन्ता के कारण अवरोध पैदा हो जाता है। इसमें चिकित्सक यह प्रयास करता है कि रोगी का अवरोध कैसे दूर हो तथा उसकी चिन्ता में कैसे कमी हो। चिकित्सक यह भी बतलाता है कि रोगी का व्यवहार कैसे maladjusted हो गया है। वोल्पे तथा लेजारस ने बतलाया कि इस तरह के रोगी की चिकित्सा में तर्क-वितर्क तथा दृढ़ग्राही प्रतिक्रियाओं का वास्तविक जीवन में व्यक्त करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। वोल्पे ने कहा है कि चिन्ता का असंबद्धता प्रायः व्यववहार पूर्वाभ्यास में ही हो जाती है। फ्रीडमैन का कहना है कि इस विधि की कला चिन्ता अवरोध की वास्तविक जीवन की परिस्थितियों में सामान्यीकरण स्थापित करती है। इस संबंध में कोटेला ने अपना अध्ययन एक युवती पर किया जो माता-पिता के सामने डटकर बातचीत करने में हिम्मत नहीं रखती थी। कोटेला ने इस पद्धति के माध्यम से उसमें डटकर बात करने की योग्यता को विकसित किया।

3. विरुचि संबंध प्रत्यावर्तन- इस प्रकार की चिकित्सा के माध्यम से रोगी की गलत आदतों को संबंध प्रत्यावर्तन के माध्यम से दूर करने का प्रयास किया जाता है। इस प्रकार की चिकित्सा के संबंध में कहा जा सकता है कि, “सबल उत्तेजक का प्रयोग अवांछित व्यवहार के उपस्थित होने पर उसे दूर करने के उद्देश्य से किया जाता है, तो इसे विरुचित संबंध प्रत्यावर्तन कहा जाता है।” इसका सफल Feldman तथा Meuch ने समजाति लैंगिकता और वस्तु लैंगिकता के उपचार में किया। इससे जैसे ही रोगी अपने यौन के व्यक्ति या वस्तु की ओर देखना प्रारंभ करता था वैसे ही उसके विद्युत आघात पहुँचाया जाता है।

इसके माध्यम से नशे की आदत से आसानी से छुटकारा दिलाया जा सकता है। इस विधि द्वारा अवांछित व्यवहारों को दूर करने के लिए सबल उत्तेजक, जैसे-विद्युत आघात, वमन करने वाली दवाएँ आदि का सहारा लिया जाता है। जैसे-एक शराब पीने वाले का उपचार करने के लिए पहले उसे तैयार किया जाता है। उसके बाद रोगी को एक ग्लास गरम खारे घोल में ह्विस्की के साथ कुछ वमन करने वाली दवाइयाँ दी जाती है। के होने के कुछ देर बाद उसे ह्विस्की पीने को दिया जाता है। यदि पहले पैग में वमन नहीं होता है, तो दूसरे पैग में दिया जाता है, जिससे कि रोगी को वमन होने लगे। धीरे-धीरे रोगी शराब की गंध से वमन करना प्रारंभ कर देता है। यहाँ असम्बद्ध उत्तेजक दवा है जो कै करवाती है और उसे संबद्ध उत्तेजक शराब की गन्ध एवं स्वाद है।

जेम्स ने एक चालीस वर्षीय समजाति लैंगिक का उपचार इस विधि द्वारा किया। परिणामस्वरूप वह व्यक्ति समजाति लैंगिक से विषम जाति लैंगिक बन गया। उसका ध्यान मर्दो से हटकर औरतों की ओर हो गया। इस पद्धति के आधार पर गरीब रोगियों की चिकित्सा कम-से-कम समय तथा कम-से-कम खर्च में की जाती है।

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