Bihar Board 12th Psychology Important Questions Long Answer Type Part 2
Bihar Board 12th Psychology Important Questions Long Answer Type Part 2
BSEB 12th Psychology Important Questions Long Answer Type Part 2
प्रश्न 1. समूह के मुख्य प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर: समूह का वर्गीकरण विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से किया है। सभी मनोवैज्ञानिकों के विभाजन के आधार अलग-अलग है। समूह के कुछ मुख्य प्रकार निम्नलिखित है-
1. प्राथमिक और द्वितीयक समूह (Primary and Secondary group)-कूले (Cooley) ने सदस्यों के पारस्परिक सम्बन्धों के आधार पर समूह को दो भागों में विभाजित किया है।
A. प्राथमिक समूह (Primary group)-प्राथमिक समूह में सदस्यों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। जैसे-परिवार कार्य समूह आदि प्राथमिक समूह के उदाहरण हैं। इसमें व्यक्ति के साथ आमनेसामने का सम्बन्ध होता है। लिण्डग्रेन ने कहा है, “प्राथमिक समूह का तात्पर्य ऐसे समूह से है, जिसमें पारस्परिक सम्बन्ध और बारम्बारता एक साथ घटित होते हैं।”
प्राथमिक समूह के सदस्यों के बीच ‘हम’ की भावना अधिक रहती है। इसमें मतैक्य की दृढ़ता होती है। इस प्रकार के समूह के सदस्यों के मनोवैज्ञानिक पहलुओं, जैसे-मनोवृतियों, आदतों, कार्य-व्यवहारों आदि में दृढ़ता पाई जाती है। इसका आकार छोटा होता है। ये एक-दूसरे के सुख-दुःख से प्रभावित होते हैं। ऐसा समूह स्थायी होती है।
B. द्वितीयक समूह (Secondary group)-द्वितीयक समूह के सदस्यों के बीच औपचारिक सम्बन्ध अधिक होगा। इसमें आपसी सम्बन्ध के आधार, धार्मिक-निष्ठा, राजनैतिक दल की सदस्यता, वर्गनिष्ठा आदि होते हैं। इनके सदस्य एक जगह एकत्रित नहीं होते, बल्कि किसी माध्यम से आपस में जुड़े होते हैं। जैसे-सामाजिक संगठन, राजनैतिक दल, शैक्षिक संस्थान आदि इसके उदाहरण हैं। इस संबंध में लिण्डर्ग्रन ने लिखा है, “द्वितीयक समूह अधिक अवैयक्तिक होते हैं तथा सदस्यों के बीच औपचारिक तथा संवेदात्मक सम्बन्ध होते हैं।”
2. स्थायी और अस्थायी समूह (Permanent and temporary group)-कुछ मनोवैज्ञानिकों ने स्थायित्व के आधार पर स्थायी तथा अस्थायी दो प्रकार के समूहों की चर्चा की है। स्थायी समूह ऐसे समूह को कहते हैं, जिसका अस्तित्व हमेशा बना रहता है। उसके सदस्य एक लक्ष्य की पूर्ति के बाद दूसरे लक्ष्य की पूर्ति के लिए पुनः प्रयत्नशील हो जाते हैं। जैसे-कर्मचारी संघ, शिक्षक संघ आदि। परन्तु, दूसरी ओर कुछ ऐसे समूह होते है जो क्षणिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बनते हैं और आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ ही समाप्त हो जाती है। जैसे-दंगा पीड़ितों की सहायता के लिए जो समूह बनाया जाता है वह उद्देश्य की पूर्ति के साथ ही समाप्त हो जाता है। ऐसे समूह को अस्थायी समूह कहा जाता है।
3. स्व-समूह तथा पर समूह (In group and out group)-समान अभिरुचि तथा समान उद्देश्य के लोग जो समूह बनाते हैं, उसे स्व-समूह ‘हम’ समूह कहा जाता है। इसके सदस्यगण आपस में मिलकर शांतिपूर्वक रहते हैं तथा समूह के आदर्शों का पालन करते हैं। ऐसे समूह में सहयोग की भावना अधिक पायी जाती है। लेकिन पर-समूह इसके ठीक विपरीत होता है। इसमें सदस्यों के बीच अभियोजन का अभाव होता है। इसमें जाति, भाषा तथा अभिरूचि का बन्धन नहीं होता है। जैसे-उत्तर भारत के लोगों के व्यवहार को देखकर दक्षिण भारत के लोग आश्चर्य करते हैं। इनकी भाषा, लिपि, खान-पान सभी विचित्र मालूम पड़ते हैं।
4. खुला तथा बन्द समूह (Open and closed group)-एडवर्ड्स ने खुला एवं बन्द, दो प्रकार के समूह की चर्चा की है। उनके अनुसार खुला समूह उस समूह को कहते हैं, जिनमें आसानी से कोई भी यक्ति सदस्यता ग्रहण कर सकता है। जैसे-कोई राजनैतिक दल। इस प्रकार के समूह में सदस्यों की संख्या बहुत अधिक होती है। परन्तु, बाद समूह ऐसा समूह है जिसका सदस्य सभी व्यक्ति नहीं हो सकते हैं। उनमें तरह-तरह की छानबीन कर लेने के बाद ही किसी व्यक्ति को उसका सदस्य बनाया जाता है। जैसे-किसी प्रतिष्ठित क्लब का सदस्य बनना बहुत कठिन होता है। ऐसे समूह को बन्द समूह को संज्ञा देते हैं।
5. संगठित एवं असंगठित समूह (Organised and Unorganised group)-संगठन के आधार पर भी समूह को दो भागों में बांटा जा सकता है। इस प्रकार के समूह को संगठित तथा असंगठित समूह में विभाजित कर सकते हैं। किसी नियम, आदर्श, सहयोग तथा परस्पर एकता के आधार पर जो समूह निर्भर होता है उसे संगठित समूह कहते हैं। इसके सदस्य समूह के आदर्शों से बंधे होते हैं। इस प्रकार के सदस्यों का मनोबल बहुत ऊंचा होता है। वे लोग आपस में एक-दूसरे को बहुत अधिक सहयोग देते हैं। इसके सदस्यों में ‘हम’ की भावना पायी जाती है। इसके ठीक विपरीत असंगठित समूह के सदस्यों में आपस में सहयोग की भावना कम होती है। वे एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते हैं। सदस्यों का मनोबल बहुत अधिक गिरा हुआ होता है।
6. लम्बीय तथा समतल समूह (Vertical and horizontal group)-इस प्रकार का विभाजन हरबर्ट मीलर (Herbert Millar) ने प्रस्तुत किया है। लम्बीय समूह के सदस्यों के बीच सामाजिक दूरी अधिक होती है जबकि समतल समूह में सदस्य आपस में मिल-जुलकर बराबर रूप से रहते हैं। इसके अन्तर्गत कवि, संगीतकार आदि का समूह आता है। एक ही व्यक्ति कवि और संगीतकार दोनों हो सकता है। इस प्रकार एक ही व्यक्ति कई समूहों का सदस्य हो सकता है। लेकिन कुछ समूह ऐसे होते हैं जिसमें एक ही व्यक्ति कई समूह के सदस्य नहीं हो सकते हैं। जैसे एक ही व्यक्ति स्त्रियों और पुरुषों के समूह का सदस्य नहीं हो सकता, धनी और निर्धन समूह सदस्य एक ही व्यक्ति नहीं हो सकता है। इसमें सामाजिक दूरी अधिक होती है।
7. आकस्मिक तथा प्रयोजनात्मक समूह (Accidental and purposive group)-प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मैकडुगल (McDougal) ने समूह की उत्पत्ति के आधार पर आकस्मिक तथा प्रयोजनात्मक दो प्रकार के समूहों की चर्चा की है। आकस्मिक समूह एकाएक किसी स्थान पर बन जाता है। जैसे-रेल यात्रियों का समूह एकाएक बनता है, इसे आकस्मिक समूह कहेंगे। परन्तु दूसरी ओर, कुछ ऐसे समूह होते हैं जो सोच-समझकर खास उद्देश्य की प्राप्ति के लिए बनाये जाते हैं। जैसे-राजनैतिक पार्टी आदि।
8. उदार तथा कठोर समूह (Liberal and hostile group)-कुछ समूह समाज कल्याण एवं जनता की भलाई के लिए बनाये जाते हैं जैसे-राजनीतिक पार्टी, धार्मिक संस्था आदि। परन्तु इसके ठीक विपरीत कुछ ऐसे समूह होते हैं जो समाज को हानि पहुँचाते हैं। जैसे आतंकवादियों का समूह। इसका काम है देश या जनता को तबाह करना।
9. राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय समूह (National and International group)-राष्ट्रीय समूह उसे कहेंगे जो सिर्फ एक राष्ट्र तक सीमित रहते हैं, जैसे-कांग्रेस पार्टी। लेकिन कुछ ऐसे भी समूह हैं जो कई देश मिलकर बनाते हैं। जैसे सार्क, U.N.OI
10. भ्रमणकारी एवं स्थिर समूह (Mobile and immobile group)-कुछ समूह ऐसे होते हैं जो एक जगह पर स्थिर नहीं रहते, बल्कि भ्रमण करते हैं, जैसे-खानाबदोश का समूह। इसके विपरीत अधिकांश समूह ऐसे होते हैं जो स्थिर होते हैं। वे एक जगह रहकर अपने उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। जैसे-पुस्तक व्यावसायियों का समूह।
11. समूह का आधुनिक वर्गीकरण (Recent classification of group)-समूह का विभाजन आधुनिक मनोवैज्ञानिक द्वारा भी किया गया है। जो इस प्रकार A घनिष्ठ समूह B, प्राथमिक समूह C. मध्य समूह D, सहकारी समूह।. घनिष्ठ समूह में ऐसे लोग आते हैं जो आपस में घनिष्ठ रूप से संबंधित होते हैं। जैसे-परिवार। प्राथमिक समूह के अन्तर्गत छोटे समूह को रखा जा सकता है जैसे-खिलाड़ियों का समूह। इसी प्रकार मध्य समूह तथा सहकारी समूह के अन्तर्गत राजनैतिक पार्टियाँ आदि बनते हैं।
प्रश्न 2. चिंता विकृति के लक्षण कारणों का वर्णन करें।
उत्तर: चिन्ता मनः स्नायुविकृति एक ऐसा मानसिक रोग है, जिसमें रोगी हमेशा अज्ञात कारणों से चिन्तित रहा करता है। सामान्य चिन्ता एक सामान्य, स्वाभाविक और सर्वसाधारण मानसिक अवस्था है। जीवन में जटिल परिस्थितियों में यह अनिवार्य रूप से होता है। वर्तमान भयावह परिस्थिति से डरना या चिन्तित होना सामान्य अनुभव है। इसके लिए व्यक्ति डर की प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। जैसे-बाघ को सामने आता देखकर व्यक्ति सामान्य चिंता के फलस्वरूप भयभीत होने या भागने की क्रिया करता है। व्यक्ति में ऐसी भयावह परिस्थिति की अवगति रहती है। उसी के संतुलन के लिए वह किसी प्रकार की प्रतिक्रिया करता है। सामान्य चिन्ता का संबंध वर्तमान भयावह परिस्थितियों से रहता है। लेकिन सामान्य चिन्ता से असामान्य चिन्ता पूर्णतः भिन्न है।
इसमें व्यक्ति चिन्तित या भयभीत रहता है, लेकिन सामान्य चिन्ता के समाने उसकी चिन्ता का विषय नहीं रहता। उसकी अपनी चिन्ता का कारण ज्ञात नहीं रहता। उसकी चिन्ता पदार्थहीन होती है। अत: अपने विभिन्न शारीरिक उपद्रवों को व्यक्त करता है। वस्तुतः उसे अपने मानसिक उपद्रव का ज्ञान नहीं रहता। इसके अतिरिक्त उसकी चिन्ता का संबंध हमेशा भविष्य से रहता है, वर्तमान से नहीं। इसलिए उसमें निराकरणात्मक सामान्य चिन्ता की तरह प्रतिक्रिया देखने में नहीं आती है, अतः हम कह सकते हैं कि सामान्य चिन्ता भयावह परिस्थितियों की प्रतिक्रिया है। सामान्य चिन्ता के संबंध में असामान्य चिन्ता आन्तरिक भयावह परिस्थितियों की प्रतिक्रिया है।
सामान्य चिन्ता के संबंध में फिशर (Fisher) ने कहा-“सामान्य चिन्ता उन उलझी हुई कठिनाइयों की प्रतिक्रिया है जिसका परित्याग करने में व्यक्ति अयोग्य रहता है।”(Normal anxiety is a reaction to an unapprochable difficults which the individual is unable to avoid.) जबकि असामान्य चिन्ता के संबंध में उनका विचार है कि ‘असामान्य चिन्ता उन आन्तरिक या व्यक्तिगत उलझी हुई कठिनाइयों की प्रतिक्रिया है, जिसका ज्ञान व्यक्ति को नहीं रहता।” (Neurotic anxiety is a reaction to an unapproachable inner or subjective difficult of which the individual has no idea.)
चिन्ता मनःस्नायु विकृति (Symptoms of anxiety neurosis)-चिन्ता मन:स्नायु विकृति में शारीरिक और मानसिक दोनों तरह के लक्षण देखे जाते हैं। मानसिक लक्षण में भय और आशंका की प्रधानता रहती है, जबकि शारीरिक लक्षण में हृदय गति, रक्तचाप, श्वास गति, पाचन-क्रिया आदि में परिवर्तन देखे जाते हैं। उनका वर्णन निम्नलिखित हैं-
1. मानसिक लक्षण (Mental symptoms)-मानसिक लक्षणों में अतिरंजित भय और शंका की प्रधानता रहती है। यह अनिश्चित और विस्तृत होता है। इसका रोगी तर्कयुक्त प्रमाण नहीं कर सकता, किन्तु पूरे विश्वास के साथ जानता है कि उसका सोचना सही है। उसकी शंका किसी दुर्घटना से संबंध होती है। घर में आग लगने, महामारी फैलने, गाड़ी उलटने, दंगा होने या इसी प्रकार की अन्य घटनाओं के प्रति वह चिंतित रहता है। वह हमेशा अनभव करता है कि बहत जल्द ही कछ होनेवाला है। इस संबंध में अनेक काल्पनिक विचार उसके मन में आते रहते हैं। वह दिन-रात इसी विचार से परेशान रहता है उसमें उत्साह की कमी हो जाती है और मानसिक अंतर्द्वन्द्व बहुत अधिक हो जाता है। चिन्ता से या तो वह अनिद्रा का शिकार हो जाता है या नींद लगने पर तुरन्त जाग जाता है। ऐसे रोगियों में मृत्यु, अपमान आदि भयावह स्वप्नों की प्रधानता रहती है, उसका स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। इसका रोगी कभी-कभी आत्महत्या का भी प्रयास करता है।
2. शारारिक लक्षण (Physical symptoms)-चिन्ता मनःस्नायु विकृति के रोगियों में शारीरिक लक्षण भी बड़ी उग्र होते हैं। रोगी के हृदय की गति, रक्तचाप, पाचन-क्रिया आदि में परिवर्तन हो जाते हैं। पूरे शरीर में दर्द का अनुभव करता है। कभी-कभी चक्कर भी आता है। रोगी के शरीर से बहुत अधिक पसीना निकलता है। वह बोलने में हलकाता है तथा बार-बार पेशाब करता है, उसे शारीरिक वजन घटना हुआ मालूम पड़ता है। यौन भाव की कमी हो जाती है। इसके रोगी तरह-तरह की आवाजें सुनते हैं। कुछ लोगों को शिश्न छोआ होने का भय बना रहता है।
इस प्रकार के रोगियों में दो प्रकार की चिन्ता देखी जाती है-तात्कालिक चिन्ता तथा दीर्घकालिक चिन्ता। तात्कालिक चिन्ता रोगी में बहुत तीव्र तथा उग्र होती है। यह चिन्ता तुरन्त को होती है। इसमें रोगी चिल्लाता है तथा पछाड़ खाकर गिरता है। दीर्घकालिक चिन्ता पुरानी होती है। रोगी अज्ञात भावी दुर्घटनाओं के प्रति चिन्तित रहता है। वह निरंतर इस चिन्ता से बेचैन रहता है और त्रस्त रहता है। इस रोग का लक्षण के आधार पर ही विद्वानों ने दा भागों में विभाजित किया है-मुक्तिचारी चिन्ता तथा निश्चित चिन्ता। चिन्ता के कारण का अभाव नहीं रहने पर भी जब रोगी बराबर बेचैन रहता है तो उसे free floating anxiety कहते हैं, लेकिन जब रोगी किसी परिस्थिति विशेष से अपनी चिन्ता का संबंध . स्थापित कर लेता है तो उसे bound anxiety कहा गया है प्रारंभ में रोगी में मुक्तिचारी चिन्ता ही रहता है, लेकिन क्रमशः स्थायी रूप धारण कर लेने पर उसे निश्चित चिन्ता बन जाती है।
चिन्ता मनःस्नायु विकृति के कारण (Etiology)-अन्य मानसिक रोगों की तरह चिन्ता मन:स्नायु विकृति के कारणों को लेकर भी मनोवैज्ञानिकों में एकमत का अभाव है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों द्वारा जो कारण बताये गये हैं, उनमें कुछ मुख्य निम्न हैं-
1.लगिक वासना का दमन (Repressionafsexualdesire)-सप्रसिद्ध मनोविश्लेषक फ्रायड ने लैंगिक इच्छाओं के दमन को इस मानसिक रोग का क ग माना है। व्यक्ति में लैंगिक आवेग उत्पन्न दोता है और यदि वह आवेग की पूर्ति में असफल हो जाता ७, उसमें चिन्ता उत्पन्न होती है। यही इस रोग के लक्षणों को विकसित करती है। अत:सावित लैंगिक शक्ति को इस रोग का करण माना जा सकता है। किसी पति की यौन सामर्थता या स्त्री में यौन उत्तेजना होने पर चलनात्मक स्राव नहीं होने से वह इस रोग से पीड़ित हो जाता है। इसी प्रकार पुरुष अपनी असमर्थता या स्त्री दोषी होने के कारण इस रोग से पीड़ित हो सकता है।
फ्रायड के उपर्युक्त मत से मनोवैज्ञानिक सहमत नहीं है। इस संबंध में गार्डेन का विचार है कि कामेच्छा का दमन और उसका प्रतिबंध ही इस [ग का कारण नहीं, बल्कि दो संवेगों के संघर्ष के फलस्वरूपू इस रोग के लक्षण विकसित होते हैं। इस बात का मैकडूवल ने भी समर्थन किया है।
2. हान भावना (Inferioritvcomplex)-इस संबंध के फ्रायड के शिष्य एडलर ने भी अपना विचार व्यक्त किया है। उनका कहना है कि मनुष्य में आत्म प्रतिष्ठा का भावना प्रबल होती है, किन्तु बचपन में आश्वासन की शिथिलता के कारण जब व्यक्ति के Ego का समुचित रूप से विकास नहीं हो पाता है, तो वह हीनता की भावना से पीड़ित रहने लगता है। उसमें आत्म प्रतिष्ठा की भावना का दमन हा जाता है और व्यक्ति चिन्ता मनःस्नाय विकृति से पीड़ित हो जाता है।
3. मानसिक संघर्ष एव निराशा (Mental conflict and frustration) का का ऐसा मानना है कि इस रोग का कारण मानसिक संघर्ष एवं कुंठा है। इस संबंध में और भी मनोवैज्ञानिकों ने अपना अध्ययन किया है और ओकेली के मत का समर्थन किया है।
इस तरह हम देखते हैं कि चिन्ता मन:स्नायु विकृति के कारणों को लेकर सभी मनोवैज्ञानिक एक मत नहीं है। इस रोग के कारण के रूप में मुख्य रूप से लैंगिक वासना का दमन, हीनभावना तथा – मानसिक संघर्ष एवं निराशा को माना जा सकता है।
प्रश्न 3. असामान्य मनोविज्ञान की परिभाषा दें तथा उसकी विषय-वस्तु का वर्णन करें।
उत्तर: मनोविज्ञान की कई शाखाएँ हैं, उनमें असामान्य मनोविज्ञान भी एक है। असामान्य मनोविज्ञान में व्यक्ति के असामान्य व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है, अथात् व्यक्ति का वेसा व्यवहार जो सामान्य से अलग होता ह, उन व्यवहारों का अध्ययन असामान्य मनोविज्ञान के अन्तर्गत किया जाता है। असामान्य मनोविज्ञान अंग्रेजी शब्द Abnormal Psychology का हिन्दी रूपान्तर है। Abnormal शब्द की उत्पत्ति Anomelols से हुई है, जो दो शब्दों Ano ओर Moles का मल से बना है। Ano का अर्थ है ‘नहीं’ और Moies का अर्थ नियमित हाना है। इस अर्थ में अनियमित व्यवहारों (irregular benaviour) का अध्ययन करने वाला मनोविज्ञान असामान्य मनोविज्ञान है।
कुछ मनोवैज्ञानिकों ने Abnormal की व्याख्या कुछ दूसरे ढंग से की है। उन लोगों की राय में Abnormal Ab और Normal दा शब्दां के मेल से बना है। Ab का अर्थ है away, इस अर्थ में Abnormal का अर्थ, Away from normal, अर्थात् सामान्य से दूर मानते हैं। . वास्तव में देखा जाये तो दोनों विचारों से असामान्य भनोविज्ञान की विषय वस्तु स्पष्ट नहीं होतो है। मिला-जुलाकर ऊपरी दोनों परिभाषाएँ लगभग समान हैं। कोई आधुनिक मनोवैज्ञानिक ने असामान्य मनोविज्ञान का परिभाषित करने का प्रयास किया है। किस्कर (Kisker) ने इसकी परिभाषा देते हुए कहा है “मानव के वे व्यवहार और अनुभूतियाँ जो साधारण: अनोखी, असाधारण या पृथक हैं, असामान्य : समझी जाती हैं।”
जेम्स ड्रेवर के अनुसार “असामान्य मनोविज्ञान की वह शाखा है, जिससे व्यवहार या मानसिक घटना की विषमता का अध्ययन किया जाता है।”
कोलमैन (Coleman) की परिभाषा से असामान्य मनोविज्ञान का स्वरूप बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने कहा है, “असामान्य मनोविज्ञान, मनोविज्ञान का वह क्षेत्र है, जिसमें विशेष रूप से मनोविज्ञान के नियमों के समन्वय और विकास का अध्ययन असामान्य व्यवहार को समझने के लिए किया जाता है। · उपर्युक्त परिभाषा पर गौर किया जाए तो निम्नलिखित बातें स्पष्ट होती हैं-
- असामान्य मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की एक शाखा है।
- असामान्य मनोविज्ञान से व्यक्ति के असामान्य व्यवहारों को समझने का प्रयास किया जाता है।
- व्यक्ति के असामान्य व्यवहार को समझने के लिए मनोवैज्ञानिक नियमों या सिद्धांतों का अध्ययन किया जाता है।
- व्यक्ति के असामान्य व्यवहार के लक्षणों को दूर करने के लिए मनोवैज्ञानिक चिकित्सा-विधियों का सहारा लिया जाता है।
असामान्य मनोविज्ञान के क्षेत्र-असामान्य मनोविज्ञान की परिभाषा में कहा गया है कि इसमें व्यक्ति की असामान्य अनुभूतियों और व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है, लेकिन इतना कह देने से इसका क्षेत्र स्पष्ट नहीं होता। असामान्य मनोविज्ञान में असामान्य से संबंधित जिन विषयों का अध्ययन किया जाता है, उनका संक्षिप्त विवरण निम्नांकित प्रकार है-
1. असामान्य अनुभूति और व्यवहारों का अध्ययन-व्यक्ति के असामान्य व्यवहारों को समझने के लिए असामान्य मनोविज्ञान का सहारा लिया जाता है। जो व्यक्ति असामान्य होगा उसका व्यवहार भी आवश्यक रूप से असामान्य होगा, अतः ऐसे व्यक्ति के लक्षण, कारण तथा उपचार का अध्ययन असामान्य मनोविज्ञान के अंतर्गत किया जाता है।
2. अचेतन का अध्ययन-आधुनिक मनोवैज्ञानिक अनुसंधानों के माध्यम से यह बात साबित हो चुकी है कि व्यक्ति के समस्त असामान्य व्यवहारों को उसका अचेतन गम्भीर रूप से प्रभावित करता है। बहुत-से असामान्य व्यवहारों के कारणों को ज्ञात करने तथा उनका उपचार करने के लिए अचेतन का विश्लेषण करना आवश्यक होता है, इसलिए असामान्य मनोविज्ञान में अचेतन का अध्ययन अति आवश्यक है। फ्रायड ने असामान्य व्यवहारों को समझने के लिए अचेतन के अध्ययन पर बहुत अधिक बल दिया है।
3. मानसिक विकृतियों का अध्ययन- असामान्य मनोविज्ञान में मानसिक विकृतियों का अध्ययन किया जाता है, क्योंकि असामान्य व्यवहारों का मूल कारण मानसिक विकृतियाँ ही हैं। मानसिक विकृतियों को उसकी जटिलता के आधार पर दो भागों में बाँटा गया है, मनःस्नायु विकृति तथा मनोविकृति। इन विकृतियों के कारण लक्षण एवं इन्हें दूर करने के उपयों का अध्ययन करना असामान्य मनोविज्ञान का क्षेत्र है।
4. स्वप्न का अध्ययन- स्वप्न सभी व्यक्ति देखते हैं, लेकिन उसका अर्थ नहीं समझते। वास्तव में स्वप्न अचेतन इच्छाओं की अभिव्यक्ति है। इसके माध्यम से अचेतन को जाना जा.सकता है जो सभी असामान्य व्यवहारों का मूल है। इसके अन्तर्गत सभी प्रकार के स्वप्नों की व्याख्या एवं स्वप्न सिद्धान्तों का अध्ययन किया जाता है।
5. प्रेरणा एवं अभियोजन का अध्ययन- किसी भी व्यक्ति के जीवन में प्रेरणा का विशेष महत्व है। समुचित प्रेरणा में भी व्यक्ति का व्यवहार असामान्य हो जाता है, जिससे वातावरण में अभियोजन की क्षमता समाप्त हो जाती है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए असामान्य मनोविज्ञान में प्रेरणा के स्वरूप, भूमिका एवं प्रभाव आदि के साथ-साथ अभियोजन की प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है।
6. मनोरचनाओं का अध्ययन- मनोरचना एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है, जिससे व्यक्ति को संवेगात्मक तनावों से छुटकारा मिलता है। मनोरचनाओं के कारण व्यक्ति में असामान्य व्यवहार के लक्षण विकसित होते हैं। अतः असामान्य मनोविज्ञान के अन्तर्गत मनोरचनाओं का भी अध्ययन किया जाता है। इन मनोरचनाओं में प्रतिगमन युक्ताभास, प्रक्षेपण, आत्मीकरण प्रतिक्रिया निर्माण, रूपान्तरण आदि प्रमुख हैं।
7. असामान्य व्यवहार के कारणों का अध्ययन- असामान्य मनोविज्ञान के अन्तर्गत व्यक्ति के . असामान्य व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है। अत: यह ज्ञात करना आवश्यक है कि व्यक्ति के
असामान्य व्यवहारों के क्या कारण हैं। बिना कारण जाने असामान्य व्यवहारों को दूर नहीं किया जा सकता है, इसीलिए असामान्य का क्षेत्र असामान्य के कारणों का अध्ययन करना भी है।
8. मनोलैंगिक विकास का अध्ययन- मनोलैंगिक विकास के तथ्य को सर्वप्रथम फ्रायड ने बतलाया है। उन्होंने कहा कि व्यक्तित्व के निर्माण में मनोलैंगिक विकास की प्रमुख भूमिका होती है। इस तथ्य को अधिकांश मनोवैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है। अतः, स्पष्ट है कि व्यक्ति के असामान्य व्यवहारों के पीछे मनोवैज्ञानिक विकास की अहम भूमिका होती है। इसे ध्यान में रखते हुए असामान्य मनोविज्ञान के अन्तर्गत विकास की विभिन्न अवस्थाओं का अध्ययन किया जाता है।
9. मनःस्नायु विकृति एवं मनोविकृति का अध्ययन- मनःस्नायु विकृति एवं मनोविकृति मानसिक रोग है। इस मानसिक रोगों के कारण व्यक्ति का व्यवहार असामान्य हो जाता है, अत: उन असामान्य व्यवहारों को समझने के लिए मनःस्नायु विकृति एवं मनोविकृति जैसी मानसिक बीमारियों का अध्ययन किया जाता है। उसके बाद उन मानसिक बीमारियों के लक्षणों एवं कारणों को जानकर उसकी चिकित्सा करते हैं। मनःस्नायु विकृति के अन्तर्गत हिस्टीरिया, झक-बाध्यता, मन:स्नायु, विकृति, चिन्ता, मन:स्नायु विकृति आदि सामान्य मानसिक रोग आते हैं, जबकि मनोविकृति के अन्तर्गत मनोविदलता, उत्साह-विषाद मनोविकृति, परानोइया आदि आते हैं। इन रोगों के लक्षण, कारण एवं उपचार इसके क्षेत्र में आते हैं।
10. यौन विकृतियों का अध्ययन- कुछ व्यक्तियों में यौन विकृतियाँ देखी जाती हैं, अर्थात् वे गलत ढंग से यौन इच्छाओं की पूर्ति करते हैं। ऐसे व्यक्तियों के व्यवहारों को भी असामान्य कहा जाता है। जैसे-हस्तमैथुन, गुदामैथुन आदि। व्यक्ति के इन असामान्य व्यवहारों का अध्ययन करना भी असामान्य मनोविज्ञान के क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं।
11. मानसिक दुर्बलता-जो व्यक्ति मानसिक रूप से दुर्बल होते हैं, उनका व्यवहार भी असामान्य हो जाता है। अत: मानसिक दुर्बलता के कारण एवं लक्षण तथा निदान का अध्ययन भी असामान्य मनोविज्ञान के अन्तर्गत ही होता है।
12. मनोचिकित्सा का अध्ययन- असामान्य मनोविज्ञान एक व्यावहारिक विज्ञान है, अतः इसमें विभिन्न बीमारियों के कारणों का अध्ययन करने के पश्चात् उसकी चिकित्सा का उपाय करना भी है, अतः इसके अन्तर्गत कई मनोचिकित्सा प्रविधियों का अध्ययन किया जाता है। जैसे-समूह चिकित्सा, व्यवहार चिकित्सा, सम्मोहन आदि।
13. अपराध एवं बाल अपराध का अध्ययन-इस मनोविज्ञान के अन्तर्गत व्यक्ति के अपराध एवं बाल अपराध का अध्ययन भी किया जाता है। व्यक्ति के वैसे व्यवहार जो समाजविरोधी होते हैं, उन व्यवहारों, का अध्ययन एवं उसे दूर करने के उपाय का अध्ययन भी असामान्य ही करता है।
प्रश्न 4. मनोविश्लेषण चिकित्सा विधि क्या है? इसकी विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन करते हुए मनोविश्लेषण विधि के दोषों का वर्णन करें।
उत्तर: मनोचिकित्सा के क्षेत्र में मनोविश्लेषण विधि का अपना अलग महत्त्व है। इस विधि के माध्यम से मानसिक रोगियों खासकर मन:स्नायु विकृति से पीड़ित रोगियों की चिकित्सा में बहुत सहयोग मिलता है । इस प्रविधि का प्रारंभ सुप्रसिद्ध मनोविश्लेषक फ्रायड ने किया था। उन्होंने एक महिला रोगी की चिकित्सा के सिलसिले में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इस विधि के माध्यम से रोगी के अचेतन में दबी हुई भावनाओं को जानने और उसे चेतन में लाने का प्रयास किया जाता है।
मानसिक विकृतियों के सम्बन्ध में फ्रायड (Freud) का विचार है कि परिस्थिति की संगीनियों से जब व्यक्ति का अभियोजन नहीं हो पाता है, तो उसमें मानसिक संघर्ष होता है। अन्तर्द्वन्द्व के क्रम में वे सारी अनैतिक एवं असामाजिक इच्छाएँ अचेतन में दब जाती हैं। धीरे-धीरे वह वास्तविकता से दूर होता जाता है। उसके चेतन पर अचेतन हाबी हो जाता है। इस प्रकार व्यक्ति असामान्यता का शिकार हो जाता है। इस अवस्था में यदि उसे सहयोग दिया जाय, तो अचेतन के विचारों को वह समझ सकता है। उसे वास्तविकता का अभास हो सकता है और तब उसकी असामान्यता में भी कमी आ सकती है।
मनोविश्लेषण में रोगी से पूछकर उसके अचेतन तत्वों को पता लगाते हैं। शान्त, स् सज्जित कमरे में चिकित्सक और रोगी बैठते हैं और रोगी अपने अभिव्यक्ति का अवसर देते हैं। उन अपनी बात कहने के लिए उत्तेजित करते हैं। रोगी अपने ढंग से बेतरतीब बोल सकता है। वह अन्यमनस्क और निष्क्रिय हो सकता है। चिकित्सक हर प्रकार से अपनी तकनीकी विधाओं के सहारे उसके अचेतन को उभारने का प्रयास करता है। अचेतन को उभारने पर रोगी अपनी भावनाओं को व्यक्त करने लगता है। चिकित्सक उसकी भावनाओं को नोट करता जाता है। इससे रोगी का पूरा इतिहास तैयार हो जाता है।
मनोविश्लेषण की अवस्थाएँ (Stages of Psychoanalysis)
(i) आरंभिक अवस्था- आरंभिक अवस्था में सबसे पहले चिकित्सक रोगी का चयन करता है और यह देखता है कि इस विधि का लाभ उसे मिल सकता है या नहीं। इसके लिए उसका Interview लिया जाता है। साक्षात्कार में इस बात की भी जानकारी प्राप्त करते हैं कि रोगी अपनी चिकित्सक को सहयोग कर सकता है या नहीं।
इस विधि से चिकित्सा करने के लिए रोगी को सुसज्जित कमरे में कुर्सी पर बैठाया जात है तथा सिरहाने में मनोचिकित्सक स्वयं बैठ जाता है तथा उसे बिना संकोच के कुछ कहने का निर्देश दिया जाता है। रोगी से इन बातों को रगलवाने के लिए उसके साथ आत्मीयता स्थापित करना आवश्यक है। इस प्रकार चिकित्सक उसकी गतिविधियों का निरीक्षण करता रहता है।
(ii) अवरोध की अवस्था-इस अवस्था में चिकित्सव को बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता है। क्योंकि एक ऐसी अवस्था आती है जब रोगी चुप हो जाता है या अनाप-शनाप बकने लगता है। यहाँ चिकित्सक धैर्यपूर्वक तरह-तरह का पलोभन देकर उसके साथ आत्मीय सम्बन्ध स्थापित कर पुनः इस अवस्था में लाता है कि वह रन बातों को भी नि:संकोर बताए जो वर नहीं बोल ॥रा है।
(iii) स्थानान्तरण-यह मनोविश्लेषण का एक महन्तपूर्ण एवं नाजुक अवस्था है। स्थानान्तरण में दो बातें देखी जाती हैं। पहली बात तो यह कि रोगी चिकित्सक से कुछ बातों को छिपाना चाहता है और चिकित्सक उन बातों को उससे उगलवाना चाहता है। इस स्थिति में रोगी चिकित्सक पर शक करने लगता है, यहाँ चिकित्सक को काफी धैर्य की आवश्यकता होती है। हो सकता है कि रोगी चिकित्सक के पास आना छोड़ द या फिर झगड़े की नौबत आ जाय। यहाँ चिकित्सक घबड़ाता नहीं है, बल्कि उसके साथ स्नेहपूर्वक व्यवहार करके उसका विश्वासपात्र बनने का प्रयास करता है।
यही प्रतिरोध की अवस्था है। इस प्रतिरोध का नकारात्मक पक्ष कहा जाता है। रोगी का विश्वास जब चिकित्सक पर जम जाता है तो वहाँ से प्रतिरोध का भावात्मक पक्ष प्रारम्भ हो जाता है। ऐसी अवस्था में रोगी जो कुछ भी चिकित्सक को बतलाता है उसका सीधा सम्बन्ध रोग से होता है। इन बातों को वह नोट करता जाता है तथा विश्लेषण करके उसके गंग के कारणों को समझने का प्रयास करता है। इस प्रकार चिकित्सक रोगी को वास्तविकता का ज्ञान कराता है और धीरे-धीरे रोग के लक्षणों को समाप्त करने में सहयोग प्रदान करता है। इस प्रकार रोगी के लक्षण धीरे-धीरे लुप्त हो जाते हैं।
(iv) सम्बन्ध विच्छेद-यह अवस्था भी बहुत नाजुक है, क्योंकि चिकित्सक के साथ रोगी ‘ का जिस प्रकार का सम्बन्ध स्थापित हो जाता है, उसे एकाएक तोड़ने पर पुनः दूसरे लक्षण प्रकट होने की संभावना रहती है। इसलिए रोगी को अपने से अलग करने में कभी-कभी काफी समय लग जाता है। इस अवस्था में रोगी के व्यक्तित्व का पुनर्निमाण होता है और रोगी पूरी तरह से सामान्य हो जाता है।
मनोचिकित्सा विधि के दोष-मनोविश्लेषण चिकित्सा विधि मानसिक रोगियों को रोगों से छुटकारा दिलाने की एक अच्छी विधि है, परन्तु अन्य विधियों की तरह इस विधि में भी कई दोष हैं, जिससे रोगियों और चिकित्सकों को परेशानी उठानी पड़ती है और रोगी चंगा भी नहीं हो पाता है, मनोचिकित्सा विधि के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं-
1. सीमित कार्यक्षेत्र-मनोविश्लेषण-चिकित्सा प्रविधि का क्षेत्र बहुत ही सीमित है। इसके माध्यम से मनोविकृति, जैसे-मनोविदलता आदि रोगों की चिकित्सा संभव नहीं है। हाँ, इस विधि से मनःस्नायु विकृति जैसे-हिस्टीरिया आदि रोगों की चिकित्सा संभव है।
2. महँगी विधि-मनोविश्लेषण से मानसिक रोगियों को कुछ लाभ तो होता है, परन्तु इसके माध्यम से चिकित्सा करवाने में बहुत अधिक खर्च एवं समय लगता है। इसके माध्यम से चिकित्सा करने के लिए पूर्ण प्रशिक्षित चिकित्सक की आवश्यकता होती है तथा एक वर्ष में दो-चार रोगियों को ही अच्छा किया जा सकता है, अत: बहुत अधिक खर्च पड़ता है, जो केवल बहुत धनी लोगों के लिए संभव रहता है।
3. अधिक समय लगना-इस प्रविधि के माध्यम से बहुत अधिक समय लगता है। प्रत्येक माको एक घंटा रोज समय देना होता है तथा यह समय अठारह माह से ऊपर लगता है। इस फार लम्बी अवधि के कारण बहुत कम रोगियों की चिकित्सा हो पाती है।
4. मन्दबुद्धि के रोगी की चिकित्सा संभव नहीं-इस विधि से केवल मानसिक रोगियों की चिकित्सा संभव है, क्योंकि इसके रोगी में नैतिकता को बढ़ाया नहीं जा सकता है।
5. हानिकारक विधि-कुछ ऐसे भी मानसिक रोग हैं, जिसकी इस विधि से चिकित्सा करने पर लाभ की जगह हानि उठानी पड़ सकती है। खासकर स्थानान्तरण की अवधि में रोगी में कुछ अन्य विकृतियों के बढ़ने की संभावना रहती है। इसीलिए शेफर एवं लेजारस ने कहा है कि . ऐसी मानसिक चिकित्सा में मनोविश्लेषक को चाहिए कि स्थानान्तरण की अवधि बहुत कम रखे।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि यह प्रविधि बहुत अधिक दोषपूर्ण है, परन्तु अन्य विधियों को यदि पूरक के रूप में रखकर चिकित्सा को जाय तो, इससे रोगी को विशेष लाभ मिल , सकता है।
प्रश्न 5. सम्मोहन चिकित्सा से आप क्या समझते हैं ? सम्मोहन चिकित्सा के गुण एवं दोषों का वर्णन करें।
उत्तर: मनोचिकित्सा के क्षेत्र में सम्मोहन का एक आकर्षक इतिहास है। सर्वप्रथम सम्मोहन (hypnosis) का प्रयोग 1833 ई. में Braid ने किया था। Braid ने Suggestion द्वारा उत्पन्न एक Senseless अवस्था के लिए किया था। Braid ने इसे Neurohypnotims कहना पसंद किया था। बाद में अन्य विचारकों ने इसके लिए Hypnosis शब्द का प्रयोग किया। 1877 ई. मेंशाकों (Charcot) ने बतलाया कि सम्मोहन हिस्टीरिया के समान ही एक पैथोलॉजिकल अवस्था (Pathological Stage) है। फिर 1884 ई. में बर्नहिम (Bernhim) ने सम्मोहन की व्याख्या सुझाव (Suggestion) के सिलसिले में की। सच पूछा जाय, तो सम्मोहन का अर्थ कृत्रिम निद्रा है। यह निद्रा एक व्यक्ति में कृत्रिम ढंग से उत्पन्न करके दूसरे व्यक्ति को अचेतन अवस्था में ला देता है। अचेतन अवस्था में आने पर व्यक्ति सम्मोहित करने वाले व्यक्ति के सुझाव के अनुसार सभी क्रियाओं को करता है।
सम्मोहन की क्रिया सम्मोहन के Rapport पर निर्भर करती है। इस विधि के द्वारा मानसिक रोगियों को सम्मोहित करके अपने अचेतन मन में दमित इच्छाओं, अनुभवों आदि को अभिव्यक्त करने का Suggestion दिया जाता है। फलस्वरूप मानसिक रोगियों का उपचार आसान हो जाता है।
सम्मोहन उत्पन्न करने की अनेक विधियाँ हैं। सभी विधियों में Relaxation पर विशेष बल दिया जाता है। कुछ परिस्थितियों में चिकित्सक Relaxation में मदद पहुँचाने के लिए औषधि का सहारा लेता है। सम्मोहन में चिकित्सक Relaxation में मदद पहुँचाने के लिए औषधि का सहारा लेता है। सम्मोहन में रोगी को एक कुर्सी पर आराम से लिटाकर पास की किसी वस्तु पर ध्यान केन्द्रित करने का निर्देश दिया जाता है। रोगी को नींद लाने के लिए कई बार दवा भी दी जाती है।
जब रोगी आराम से सो जाता है तो उसे कई प्रकार के सुझाव दिये जाते हैं। जैसे-“Relax, let yourself go listen only my voice-Relax and go to sleep-your eyes are feeling heavyRelax and go to sleep-Close your cyes and go to sleep-you are drawsy and tried-go to sleep-go to sleep-निद्रा की अवस्था में आने पर परीक्षणों द्वारा यह जांच की जाती है कि रोगी सम्मोहित हुआ या नहीं। सम्मोहक उसे यह सुझाव देता है कि वह आँखें खोले, पर साथ-ही-साथ यह भी कहा जाता है कि वह अपनी आँखों को खोल नहीं सकेगा। इसी प्रकार रोगी को यह कहा जा सकता है कि वह किसी तकलीफ का अनुभव होता है या नहीं, इस प्रकार रोगी का निर्देश दिये जाते हैं और यदि रोगी उसके अनुसार काम करता है तो यह समझ जाते हैं कि व्यक्ति पूरी तरह से सम्मोहित हो चुका है। सम्मोहित की अवस्था में रोगी को सामान्य अवस्था में लाने के लिए सिर्फ संकेत मात्र देता है और व्यक्ति तरोताजा होकर अलग जाग उठता है।
सम्मोहित अवस्था की एक विशेषता यह भी है कि यदि व्यक्ति को इस अवस्था में निर्देश दिया जाता है, तो वह सामान्य अवस्था में आने पर उसके निर्देश के अनुसार कार्य सम्पन्न करता है। मनोविश्लेषण के क्षेत्र में इस क्रिया को Posthypnosis कहा जाता है।
मूल्यांकन (Values of hypnosis)-मनोचिकित्सा के रूप में Hysteria के रोगी को, विशेषकर Amnesia से पीड़ित रोगियों को सम्मोहन से काफी लाभ पहुंचाता है। सम्मोहन की अवस्था में रोगी अपने अचेतन मन में दमित इच्छाओं, अनुभवों और भावों को याद कर लेता है जिसे वह चेतन अवस्था में आने पर भी नहीं भूलता। साक्षात सुझाव के आधार पर Hypnosis के लक्षणों को दूर किया जा सकता है। Insomania के इलाज में नींद नहीं आती है। Insomania की चिकित्सा में Tension को कम करने में Neurotic habit से और भय से मुक्ति पाने में Hypnosis की उपयोगिता सिद्ध हो चुकी है।
सम्मोहन की सीमाएँ (Limitations of hypnosis)-यद्यपि चिकित्सा विधि के रूप में सम्मोहन से काफी लाभ पहुँचता है, फिर भी यह विधि सीमाओं से रहित नहीं है। निम्नलिखित आधार पर इस विधि की आलोचनाएँ की जा सकती हैं-
- सम्मोहन के द्वारा कुछ ही प्रकार के रोगियों की चिकित्सा की जाती है। प्रत्येक व्यक्ति को सम्मोहित करना संभव नहीं है। प्रयोगों के आधार पर यह भी देखा गया है कि किसी को इच्छा के विरुद्ध सम्मोहित नहीं किया जा सकता है। सम्मोहन के लिए रोगी का सहयोग लेना । आवश्यक है।
- सम्मोहन के विरुद्ध यह आलोचना की जाती है कि यह Superficial form of therapy है। कहने का तात्पर्य यह है कि इस विधि के द्वारा रोग के सिर्फ बाहरी लक्षणों को दूर किया जा सकता है। स्थायी चिकित्सा सम्मोहन द्वारा संभव नहीं है।
- सम्मोहन का प्रभाव अस्थायी होता है। इसके द्वारा रोगी को जो Suggestion दिया जाता है वह काफी दिनों तक लाभदायक सिद्ध नहीं होता। रोग के लक्षण थोड़े दिनों के लिए ही दूर हो पाता है। पुनः कुछ दिनों के बाद रोग के लक्षण विकसित हो जाते हैं। अत: इसका प्रभाव अस्थायी होता है।
- सम्मोहन का प्रयोग काफी कठिन है। सभी मनोचिकित्सक इसका उपयोग नहीं कर सकते। इसके लिए विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है, अतः यह विधि कुछ खास मनोचिकित्सकों तक ही सीमित है।
प्रश्न 6. मानव व्यवहार पर पड़ने वाले से संचार साधनों का वर्णन करें।
उत्तर: इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज विश्व जगत में नयी हलचल हुई है। इस नयी हलचल का वैश्विक परिदृश्य स्वतः ही उभरकर आया है जिसे हमारे और आपके सामने मीडिया अर्थात अखबार, पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, टी.वी. चैनल आदि ने परोसा है। आज जिस प्रकार पूरे विश्व में अनेक सामाजिक मुद्दों को उठाया जा रहा है वे न केवल मानव मूल्यों पर कुठाराघात कर रहे हैं वरन मानव की क्षमता, कुशलता एवं विवेक का समूल नाश कर रहे हैं। उन सब का दोष मिडिया को दिया जाए तो उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। बच्चों को टी. वी. के माध्यम से हत्या, बलात्कार, आतंकवाद, चोरी आदि जैसी तथ्यों की जानकारी स्वतः ही मिल जाती है जिससे उसके मनोवृति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
टी. वी. के अश्लील चित्रों को देखकर उनके मन में सेक्स के प्रति रूझान बढ़ता है जो उनके मनोदशा को प्रभावित करता है। आज टी.वी. के माध्यम से पाश्चात्य संस्कृति को परोसा जा रहा है जिससे मानव मूल्यों में ह्रास की प्रवृति दृष्टिगोचर हुई है। बच्चे टी. वी. देखने में अधिक समय व्यतीत करते हैं। उसके कारण पढ़ने-लिखने की आदत तथा घर के बाहर की गतिविधियों जैसे खेलने, घूमने-फिरने में कमी आती है।
टेलीविजन देखने से बच्चों का ध्यान अपने लक्ष्य से हट सकता है। उनके समझने की शक्ति तथा उनकी सामाजिक अन्तक्रियाएँ भी प्रभावित हो सकती है। किंतु इसके विपरीत कुछ श्रेष्ठ कार्यक्रमों के द्वारा सकारात्मक अभिवृत्तियों तथा उपयोगी तथ्यात्मक सूचनाएँ मीडिया से प्राप्त होती है। जो बच्चों को अभिकल्पित तथा निर्मित करने में सहायता करती हैं। वयस्कों और बच्चों के संबंध में यह कहा जाता है कि उनमें एक उपभोक्तावादी प्रवृत्ति विकसित हो रही है। क्योंकि मीडिया के माध्यम से बहुत से उत्पादों के विज्ञापन प्रचारित किए जाते हैं तथा किसी व्यक्ति के लिए उनके प्रभाव में आ जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इन परिणामों से यही निष्कर्ष निकलता है कि संचार के साधनों के माध्यम से मानव व्यवहार पर एक ओर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है तो दूसरी ओर नकारात्मक प्रभाव भी पड़ता है।
प्रश्न 7. व्यक्तित्व की परिभाषा दें। व्यक्तित्व के प्रमुख गुणों की विवेचना करें।
उत्तर: व्यक्तित्व एक सामान्य शब्द है जिसका प्रयोग अक्सर लोग शारीरिक बनावट एवं बाह्य वेशभूषा के संबंध में करते हैं। परन्तु, वास्तव में यह व्यक्तित्व नहीं है। व्यक्तित्व अंग्रेजी शब्द Personality का हिन्दी रूपांतर है। Personality का संबंध लैटिन भाषा के Personality शब्द से है जिसका अर्थ होता, नकली चेहरा। कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इसकी परिभाषाएँ दी हैं, परंतु अधिकांश लोगों द्वारा दी गई परिभाषाएँ अधूरी तथा एकांगी हैं।
वाटसन (Watson) ने इसकी परिभाषा देते हुए कहा है, “व्यक्तित्व उन क्रियाओं का योगफल है जिसे लम्बे समय तक निरीक्षण में विश्वसनीय सूचनाएँ प्राप्त की जाती है।” (Personality is the sum total of activities that can be observed a long period of time to give reliable information) शरमैन ने इस संबंध में कहा है, “व्यक्ति का विशिष्ट व्यवहार की व्यक्तित्व है।” (Personality is the characteristic behaviour of an individual.)
उपर्युक्त परिभाषा से स्पष्ट होता है कि कुछ मनोवैज्ञानिकों ने बाह्य रूप या स्थायी गुणों के आधार पर व्यक्तित्व को समझने का प्रयास किया है। वास्तव में इन मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व को समझने में भूल की है। सभी मनोवैज्ञानिकों ने इसे अपने ढंग से परिभाषित किया है।
आल्पोर्ट (G.W.Allport) ने इस प्रकार की पच्चीस परिभाषाओं की एक सूची बनायी और इसके पर्याप्त अध्ययन के पश्चात् एक उपयुक्त परिभाषा दिया है। उनके अनुसार, “व्यक्तित्व व्यक्ति के अन्तर्गत उन मनोदैहिक गुणों का गत्यात्मक संगठन है जिन पर उसके वातावरण के प्रति होनेवाले विशिष्ट अभियोजन को निर्धारित करता है।” (Personality is the dynamic organization within the individual of those psychophysical system that determine his unique adjustment to his environment.)
इस प्रकार आल्र्पोट ने व्यक्तित्व को मनोवैज्ञानिक एवं शारीरिक गुणों का ऐसा संगठन माना है जो व्यक्ति को अपने वातावरण के साथ-साथ सामंजस्य को निर्धारित करता है। अपने परिभाषा में उन्होंने व्यक्तित्व को समय के अनुसार परिवर्तनशील माना है। अर्थात्, व्यक्तित्व रूका हुआ नहीं रहता, बल्कि परिवर्तित होता रहता है।
किम्बल यंग ने व्यक्तित्व की परिभाषा अलग ढंग से दी है। उनके अनुसार “हम व्यक्तित्व को एक व्यक्ति के अधिक या कम आदतों, गुणों, मनोवृत्तियों और विचारों के प्रमाणित संग्रह के रूप में परिभाषित कर सकते हैं, जो एक प्रकार से बाह्य रूप से कार्य एवं स्थितियों में संगठित रहते हैं तथा आंतरिक रूप से प्रेरणाओं, उद्देश्यों, और आत्मगत के तथ्यों से संबंधित रहते हैं। इस प्रकार व्यक्तित्व के दो कार्य एवं स्थितियाँ हैं जिनका तात्पर्य दूसरों को प्रभावित करने के लिए आचरण करने और जीवन संगठन या आत्मा, आन्तरिक प्रेरणाओं, उद्देश्यों से संबंधित स्वयं तथा अन्य के व्यवहार पर दृष्टिपात करने से है। संक्षेप में, यह प्रकट क्रियाओं एवं अर्थो से संबंधित है।” किम्बल युंग की परिभाषा से स्पष्ट होता है कि उन्होंने व्यक्तित्व को बाह्य एवं आंतरिक दो प्रकार के तत्वों का संगठन माना है।
एन० एल० मन ने इस संबंध में कहा है, “व्यक्तित्व की परिभाषा एवं व्यक्ति का संरचना, व्यवहार के प्रतिमान, रुचियों, मनोवृत्तियों, क्षमताओं, योग्यताओं और अभिरुचियों के अत्यधिक विशिष्ट संगठन के रूप में की जाती है।”
व्यक्तित्व के निम्नलिखित प्रमुख शीलगुण हैं-
(i) सामाजिक Sociability)-जिन व्यक्तियों में सामाजिक के शीलगुण होते हैं उनमें सामाजिक कार्यों में सक्रियता देखी जाती है। ऐसा व्यक्ति हमेशा दूसरों की भलाई के लिए कार्य करता है। वह अधिक-से-अधिक व्यक्तियों से मिलना पसन्द करता है। वे स्वभाव से हँसमुख एवं मिलनसार होते हैं। ऐसे शीलगुण वाले व्यक्ति समाज में सफल नेता होते हैं। इस संबंध में गिलफोर्ड एवं जिमरमैन ने अध्ययन किया है और इस शीलगुण को काफी महत्वपूर्ण बताया है तथा इसे अपने परीक्षण गिरफोर्ड- जिसरमैन टेम्परामेंट सर्वे में शामिल किया है। जिन व्यक्तियों में ये गुण नहीं होते वे अनुयायी होते हैं।
(ii) प्रभत्व (Ascendence)-कुछ व्यक्तियों में प्रभुत्व का गुण पाया जाता है। ऐसा व्यक्ति हमेशा दूसरों पर अपना आधिपत्य तथा प्रभाव जमाने की कोशिश करता है। वह किसी कार्य में दूसरों को निर्देश देता है। इस प्रकार के शीलगुण वाले व्यक्ति अधिक क्रियाशील एवं झगड़ालू होते हैं। ऐसा व्यक्ति खेल का कप्तान, कॉलेज का प्रिंसिपल या सत्तावादी नेता होता है। इसके विपरीत जिन व्यक्तियों में इस गुण का अभाव होता है, वे निष्क्रिय एवं दूसरे के निर्देशों पर चलना अधिक पसंद करते हैं। वं हमेशा चाहते हैं कि कोई उनका मार्गदर्शन करा सके। ऐसे व्यक्तियों में अधीनता का गुण पाया जाता है।
(iii) आक्रमणशीलता-जिस व्यक्ति में आक्रमणशीलता का गुण पाया जाता है, वह आक्रमणकारी व्यवहार करता है। ऐसे व्यक्ति समाज में आतंक फैलाते हैं। इनमें सहनशीलता की कमी होती है। ये बात-बात में उग्र धारण कर लेते हैं। दंगा आदि फैलाने में इनका बहुत बड़ा हाथ होता है। ऐसे व्यक्तियों , में आधिपत्य भाव देखा जाता है।
(iv) ईमानदारी(Honesty)-जिन व्यक्तियों में ईमानदारी का गुण होता है वे सदैव ईमानदार होते हैं। ऐसे व्यक्ति न्याय करने में दूध का दूध पानी का पानी कर देते हैं।
(v) विनम्रता(Kindness)-ऐसे व्यक्तित्व वाला व्यक्ति विनम्र होते हैं। यह शीलगुण आधिपत्य के ठीक विपरीत होता है। इस प्रकार के व्यक्ति आज्ञाकारी होते हैं। ये किसी व्यक्ति को दुःख-तकलीफ · नहीं दे सकते हैं तथा समाज में सौहाद्र बनाए रखते हैं।
(vi) लज्जा(Shyness)-कुछ व्यक्ति बहुत ज्यादा लजालू होते हैं, वे लोगों के सामने आने पर लजाते हैं। ऐसे व्यक्ति सामाजिक नहीं होते, ये एकांत में रहना पसंद करते हैं तथा अपने विचारों में खोए रहते हैं। ये जितना अधिक लज्जा को छिपाने का प्रयास करते हैं उतना ही अधिक लजाते हैं।
हठ(Persistence)-ऐसे व्यक्ति जिनमें हठ का गुण होता है वे कठिन परिस्थितियों में भी अपने हठ पर अडिग रहते हैं, लक्ष्य की प्राप्ति के लिए लगातार प्रयास करते रहते हैं।
(viii) प्रतियोगिता(Competition)-प्रतियोगिता का शीलगुण अधिकांश व्यक्तियों में पाया जाता है, परन्तु किसी व्यक्ति में यह गुण ज्यादा होता है। इस प्रकार का गुणवाला व्यक्ति हमेशा दूसरों से आगे बढ़ने का प्रयास करता रहता है। आगे बढ़ने के लिए दूसरों को नुकसान नहीं पहुँचाता, बल्कि कठिन परिश्रम करता है।
(xi) संवेगात्मक अस्थिरता(Emotional instability)-जिन व्यक्ति में संवेगात्मक अस्थिरता का गुण होता है, उसकी मनोदशा में प्राय: उतार-चढ़ाव होते रहते हैं। ऐसे व्यक्ति बिना कारण ही खुशी की मनोदशा से दुःख की मनोदशा में आ जाते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने संवेग की अभिव्यक्ति बिना हिचकिचाहट के करते हैं तथा.काफी जल्दी उत्तेजित हो जाते हैं। ये दिवास्वप्न अधिक देखते है तथा भविष्य में संभावित बुरे विचारों के बारे में सोच-सोच कर घबराते हैं। इसके विपरीत कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनमें संवेगात्मक स्थिरता का गुण होता है।
(x) डाह-इस प्रकार के गुणवाला व्यक्ति दूसरों को नुकसान पहुँचाकर अपना लाभ चाहता है। ऐसे व्यक्ति लगभग सभी समाज में कुछ-न-कुछ होते हैं। ऐसा व्यक्ति दूसरे को नीचा दिखाने की ताक में रहता है। ये स्वभाव से बहुत खतरनाक होते हैं।
(xi) तंत्रिका ताप (Neuroticism)-आइजेंक ने तंत्रिका ताप को व्यक्तित्व का एक प्रमुख शीलगुण माना है। तंत्रिका ताप एक प्रकार की साधारण मानसिक विकृति है।
प्रश्न 8. बुद्धि के बहु-बुद्धि सिद्धान्त का वर्णन करें।
उत्तर: बहुबुद्धि सिद्धान्त प्रतिपादन होवार्ड गार्डनर (Howard Gardner, 1993, 1999) द्वारा किया गया। सिद्धान्त के अनुसार बुद्धि कोई एकाकी क्षमता नहीं होती है बल्कि इसमें विभिन्न प्रकार की सामान्य क्षमताएँ सम्मिलित होती हैं। इन क्षमताओं को गार्डनर ने अलग-अलग बुद्धि प्रकार कहा है। ऐसे प्रकार के बुद्धि की चर्चा उन्होंने अपने सिद्धान्त में किया है और कहा है कि ये सभी प्रकार एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं। परंतु ये बुद्धि के सभी प्रकार आपस में अंतर्किया (interaction) करते हैं और किस समस्या के समाधान में एक साथ मिलकर कार्य करते हैं। उन सभी नौ प्रकार के बुद्धि का वर्णन इस प्रकार है:
(i) भाषाई बुद्धि(Linguistic intelligence)-इससे तात्पर्य भाषा के उत्तम उपयोग एवं उत्पादन की क्षमता से होता है। इस क्षमता के पर्याप्त होने पर व्यक्ति भाषा का उपयोग प्रवाही (fluently) एवं लचील (flexible) ढंग से कर पाता है। जिन व्यक्तियों में यह बुद्धि अधिक होती है, वे शब्दों में विभिन्न एवं उसका उपयोग के पति काफी संवेदनशील होते हैं और अपने मन में एक उत्तम भाषाई प्रति (linguistic image) उत्पन्न करने में सक्षम होते हैं।
(ii) तार्किक-गणितीय बुद्धि (Logical-Mathematical intelligence)-इससे तात्पर्य समस्या समाधान (Problem solving) एवं वैज्ञानिक चिंतन करने की क्षमता से होता है। जिन व्यक्तियों में ऐसी बुद्धि अधिकता होती है, वे किसी समस्या पर तार्किक रूप से तथा आलोचनात्मक ढंग से चिंतन करने में सक्षम होते हैं। ऐसे लोगों में अमूर्त चिन्तन करने की क्षमता अधिक होती है तथा गणितीय समस्याओं समाधान में उत्तम ढंग से विभिन्न तरह के गणितीय संकेतों एवं चिन्हों (Signs) का उपयोग करते है।
(iii) संगीतिय बुद्धि (Mosical intelligence)-इससे तात्पर्य संगीतिय-लय (Rhythms) तथा पैटर्न (Patterns) के बोध एवं उसके प्रति संवेदनशीलता से होती है। इस तरह की बुद्धि पर व्यक्ति उत्तम ढंग से संगीतिय पैटर्न को निर्मित कर पाता है। वैसे लोग जिनमें इस तरह की बुद्धि की अधिकता होती है ते आवाजों के पैटर्न, कंपन उतार-चढ़ात आदि के प्रति काफी संवेदनशील होते हैं और नए-नए उत्पन्न करने में भी सक्षम होते हैं।
(iv) स्थानिक बुद्धि (Spatial intelligence)-इससे तात्पर्य विशेष दृष्टि प्रतिमा तथा पैटर्न को सार्थक ढंग से निर्माण करने की क्षमता से होता है। इसमें व्यक्ति को अपनी मानसिक प्रतिमाओं को उत्तम से उपयोग करने तथा परिस्थितियों की मांग के अनुरूप उपयोग करने की पर्याप्त क्षमता होती है। जिन व्यक्तियों में इस तरह की बुद्धि अधिक होती है, वे आसानी से अपने मन में स्थानिक वातावरण उपस्थित कर सकने में सक्षम हो पाते हैं। सर्जन, पेंटर, हवाईजहाज चालक, आंतरिक सजावट कर्ता (interior decorator) आदि में इस तरह की बुद्धि अधिक होती है।
(v)शारीरिक गतिबोधक बुद्धि (Bodily dinesthetic intelligence)-इस तरह की बुद्धि में व्यक्ति अपने पूरे शरीर या किसी अंग विशेष में आवश्यकतानुसार सर्जनात्मक (Greative) एवं लचीले (Flexible) ढंग से उपयोग कर पाता है। नर्तकी, अभिनेता, खिलाड़ी, सर्जन तथा व्यायामी (gymnast) आदि में इस तरह की बुद्धि अधिक होती है।
(vi) अंतर्वैयक्तिक बुद्धि (Interpersonal intelligence)-इस तरह की बुद्धि होने पर दूसरों के व्यवहार एवं अभिप्रेरक के सूक्ष्म पहलुओं को समझने की क्षमता व्यक्ति में अधिक होती है। ऐसे व्यक्ति दूसरों के व्यवहारों, अभिप्रेरणाओं एवं भावों को उत्तम ढंग से समझकर उनके साथ एक घनिष्ट संबंध बनाने में सक्षम हो पाते हैं। ऐसे बुद्धि मनोवैज्ञानिकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं धार्मिक नेताओं में अधिक होती है।
(vii) अंतवैयक्तिक बुद्धि (Intrapersonal intelligence)-इस तरह की बुद्धि में व्यक्ति अपने भावों, अभिप्रेरकों तथा इच्छाओं को समझता है। इसमें व्यक्ति अपनी आंतरिक शक्तियों एवं सीमाओं का उचित मूल्यांकन की क्षमता विकसित कर लेता है और इसका उपयोग वह अन्य लोगों के साथ उत्तम संबंध बनाने में सफलतापूर्वक उपयोग करता है। दार्शनिकों (Philosophers) तथा धार्मिक साधु-संतों में इस तरह की बुद्धि अधिक होती है।’
(viii) स्वाभाविक बुद्धि (Naturalistic intelligence)-इससे तात्पर्य स्वाभाविक या प्राकृतिक वातावरण की विशेषताओं के प्रति संवेदनशीलता दिखाने की क्षमता से होती है। इस तरह की बुद्धि की अधिकता होने पर व्यक्ति प्रकृति के विभिन्न प्राणियों, वनस्पतियों एवं अन्य संबद्ध चीजों के बीच सूक्ष्म विभेदन कर पाता है तथा उनकी विशेषताओं की प्रशंसा कर पाता है। इस तरह की बुद्धि किसानों, भिखारियों, पर्यटकों (tourist) तथा वनस्पतियों (botanists) में अधिक पायी जाती है।
(ix) अस्तित्ववादी बुद्धि (Naturalist intelligence)-इससे तात्पर्य मानव अस्तित्व, जिंदगी, मौत आदि से संबंधित वास्तविक तथ्यों की खोज की क्षमता से होता है। इस तरह की बुद्धि दार्शनिक चिंतकों (Philosopher thinkers) में काफी होता है। स्पष्ट हुआ है कि गार्डनर के बहुबुद्धि सिद्धान्त में कुल नौ तरह के बुद्धि की व्याख्या की गयी है, जिसपर मनोवैज्ञानिक का शोध अभी जारी है।
प्रश्न 9. बुद्धि परीक्षण के प्रकार का वर्णन करें।
उत्तर: बुद्धि की मात्रा सभी व्यक्तियों में एक समान नहीं होती है। किसी व्यक्ति की बुद्धि अधिक होती है तो किसी व्यक्ति की कम। बुद्धि मापन के लिए बनाये गये परीक्षणों के माध्यम से किसी व्यक्ति के वास्तविक बुद्धि का पता लगाया जा सकता है।
बुद्धिः मापन की दिशा में सर्वप्रथम सफल प्रयास बिने ने किया है। उन्होंने फ्रांस में साइमन की सहायता से तीन से पन्द्रह वर्ष के बच्चों की बुद्धि मापने के लिए एक परीक्षण का निर्माण किया, जिसे बिने-साइमन टेस्ट के नाम से जानते हैं। उनके टेस्ट में तीस समस्याएं थीं जो क्रमिक रूप से कठिनाई स्तर के अनुसार रखी गयी थीं। बिने-साइमन के टेस्ट में कुछ कमी महसूस की गयी थी, अत: बाद में चलकर कई बार संशोधन किया गया है। उसके बाद अन्य कई मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि-परीक्षण के लिए तरह-तरह के टेस्ट का निर्माण किया। अब तक जितने बुद्धि परीक्षणों का निर्माण किया जा चुका है उसे निम्नलिखित चार भागों में रखा गया है-
1. वाचिक या शाब्दिक बुद्धि परीक्षण : वाचिक बुद्धि परीक्षण वैसे परीक्षण को कहा जाता है जिसमें भाषा की आवश्यकता होती है। इसके लिए प्रयोज्य को भाषा का ज्ञान आवश्यक है। इसमें कुछ प्रश्न लिखे होते हैं जिनका उत्तर प्रयोज्य को देना होता है। इन्हीं उत्तरों के आधार पर प्रयोज्य की बुद्धि का मापन होता है। इसके अंतर्गत बिने-साइमन टेस्ट, स्टर्नफोर्ड-बिने स्केल आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। वाचिक परीक्षण के अधिकांश परीक्षण सामूहिक होते हैं अर्थात् इनके माध्यम से अनेक व्यक्तियों के बुद्धि का मापन एक साथ किया जा सकता है। जैसे-नौसेना, सामान्य वर्गीकरण परीक्षण, थलसेना सामान्य वर्गीकरण आदि। बिहार में भी इस प्रकार का परीक्षण डॉ. मोहसिन ने किया है।
शाब्दिक बुद्धि परीक्षण में कुछ ऐसे गुण हैं जिससे बुद्धि के मापन में इसका सर्वाधिक प्रयोग होता है। इसका सबसे पहला गुण है कि इससे वैयक्तिक परीक्षण द्वारा किसी व्यक्ति की बुद्धि का सही तौर पर मापन संभव होता है। इसका प्रमुख गुण है कि इस प्रकार के परीक्षण से कम-से-कम समय में अधिक व्यक्तियों की बुद्धि मापी जाती है। शाब्दिक परीक्षण की एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि इसके माध्यम से अमूर्त बुद्धि का मापन भी होता है। वाचिक बुद्धि परीक्षण में जहाँ एक ओर गुण हैं वहीं दूसरी ओर दोष भी हैं। इस परीक्षण के माध्यम से अनपढ़ व्यक्तियों की बुद्धि का मापन संभव नहीं है तथा इसके माध्यम से व्यक्ति की मूर्तबुद्धि का भी मापन नहीं हो सकता है।
2. क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण : क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण वैसे परीक्षण को कहते हैं जिसमें भाषा की आवश्यकता नहीं होती है, सिर्फ कुछ वस्तुओं को इधर-उधर घुमाकर समस्याओं का समाधान करना होता है। इसके माध्यम से अनपढ़ व्यक्तियों की भी बुद्धि मापी जा सकती है। वाचिक परीक्षण की तरह इसमें भी कठिनाई स्तर क्रमशः बढ़ता जाता है। पहली समस्या सरल होती है। दूसरी उससे कठिन, तीसरी दूसरी से कठिन, इसी प्रकार समस्या की कठिनाई बढ़ती जाती है। प्रयोज्य जितनी समस्याओं को हल करता है उसी के आधार पर बुद्धिलब्धि निकाला जाता है। क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण को अशाब्दिक परीक्षण भी कहा जाता है। इसके अंतर्गत ब्लॉक डिजाइन टेस्ट, पास-एलांग टेस्ट, क्यूब कंस्ट्रक्शन टेस्ट आदि प्रमुख हैं।
ब्लॉक डिजाइन का निर्माण कोह ने किया था इसमें दस डिजाइन होते हैं जिसे लकड़ी के ब्लॉक के माध्यम से बनाया जाता है। जो व्यक्ति जितने कम समय में समस्याओं का समाधान करता है उसे उतना ही अधिक अंक प्रदान किया जाता है। उसी प्राप्तांक के आधार पर बुद्धिलब्धि निकालते हैं।
धन रचना परीक्षण का निर्माण गांव से किया था। इसमें तीन उप-परीक्षण होते हैं। तीन काष्ठ के मॉडल होते हैं, जिन्हें देखकर गोटियों की सहायता से मॉडल बनाना होता है। मॉडल को बनाने में लगने वाले समय एवं अशुद्धियों के आधार पर प्राप्तांक दिये जाते हैं तथा बुद्धिलब्धि निकालते हैं।
पास-एलांग टेस्ट का निर्माण अलेक्जेंडर ने किया था। इसमें नौ पत्रक होते हैं, जिस पर अलग-अलग डिजाइन बने होते हैं। इस टेस्ट में चार ट्रे होता है, जिसका एक किनारा लाल तथा दूसरा नीला होता है। इसमें गोटियों को बिना ट्रेसे उठाये लाल किनारे की तरफ से नीले किनारे की तरफ करना होता है। उसी में लगे समय के आधार पर अंक देते हैं तथा बुद्धिलब्धि निकालते हैं।
क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण में कुछ दोष भी हैं। इसके माध्यम से अमूर्त बुद्धि का समुचित मापन संभव नहीं है। इस प्रकार के परीक्षण से एक समय में एक ही व्यक्ति की बुद्धि का मापन होता है, अतः इसमें समय एवं श्रम अधिक लगता है।
3. वैयक्तिक बुद्धि-परीक्षण : वैयक्तिक बुद्धि-परीक्षण उसे कहते हैं जिसका प्रयोग एक समय में केवल एक ही व्यक्ति पर किया जा सकता है। इस प्रकार के परीक्षण का सबसे बड़ा गुण यह है कि इसके माध्यम से बुद्धि की सही-सही जांच हो पाती है। परन्तु, इसमें समय एवं श्रम अधिक लगता
है। इसके अंतर्गत वाचिक एवं क्रियात्मक बुद्धि-परीक्षण आते हैं। जैसे बिने-साइमन टेस्ट, वेश्लर-वैलव्य _स्केल, पास-एलांग टेस्ट, क्यूब कंस्ट्रक्शन टेस्ट, ब्लॉक-डिजाइन टेस्ट आदि वैयक्तिक बुद्धि-परीक्षण के अंतर्गत आते हैं।
4. सामूहिक बुद्धि-परीक्षण : सामूहिक बुद्धि-परीक्षण के माध्यम से एक समय में अनेक व्यक्तियों की बुद्धि मापी जा सकती है। इसके अंतर्गत आर्मी अल्फा, टेस्ट, आर्मी बीटा टेस्ट, मोहसिन सामान्य बुद्धि-परीक्षण, जलोटा सामूहिक बुद्धि-परीक्षण आदि आते हैं। सामूहिक बुद्धि-परीक्षण का सबसे बड़ा गुण यह है कि इसके माध्यम से एक साथ कई प्रयोज्य की बुद्धि मापी जा सकती है। अतः इससे समय एवं श्रम की बचत होती है। इसका उपयोग व्यावसायिक चयन, शैक्षिक निर्देशन आदि में सफलतापूर्वक किया जाता है।
सामूहिक बुद्धि-परीक्षण में गुण के साथ-साथ दोष भी हैं। जब कई व्यक्तियों की बुद्धि को एक साथ मापा जाता है तो परीक्षक एक साथ सभी पर ध्यान नहीं दे पाता है, जिससे बुद्धि की सही जानकारी प्राप्त नहीं होती। छोटे बच्चों की बुद्धि का मापन इसके माध्यम से संभव नहीं है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अभी तक जितनी भी परीक्षणों का निर्माण हुआ है उनमें एक ओर गुण है तो दूसरी ओर दोष भी है। अत: किसी एक परीक्षण के माध्यम से बुद्धि की सही जानकारी प्राप्त नहीं होती है। इसलिए एक साथ कई परीक्षणों का प्रयोग कर बुद्धि की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
प्रश्न 10. फ्रायड द्वारा प्रतिपादित व्यक्तित्व के प्राथमिक संरचनात्मक तत्व का वर्णन करें।
उत्तर: व्यक्तित्व के संरचना की दिशा में अनेक मनोवैज्ञानिकों ने अपना सिद्धांत प्रस्तुत किया है। परन्तु फ्रायड की अवधारणा उन मनोवैज्ञानिकों से अलग हटकर है। सुप्रसिद्ध मनोविश्लेषणवादी मनोवैज्ञानिक सिंगमण्ड फ्रायड ने व्यक्तित्व संरचना के संबंध में एक अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। उन्होंने व्यक्तित्व की संरचना का वर्णन दो मॉडलों के आधार पर किया है। जिसे आकारात्मक मॉडल तथा गत्यात्मक मॉडल कहते हैं। दोनों मॉडलों का वर्णन निम्नलिखित है।
आकारात्मक मॉडल-आकारात्मक मॉडल में फ्रॉयड ने मन के तीन स्तरों की चर्चा की है। चेतन, अर्द्धचेतन तथा अचेतन। चेतन स्तर के अन्तर्गत वे चिंतन भावनाएँ और क्रियाएँ आती हैं जिसके प्रति लोग जागरूक रहते हैं! अर्द्धचेतन क अन्तर्गत वैसी मानसिक क्रियाएं आती हैं जिसके प्रति लोक उस समय जागरूक होते हैं जब व उस पर सावधानीपूर्वक ध्यान केन्द्रित करते हैं। तोसरा स्तर जिसे अचेतन कहते हैं उसमें ऐसी मानसिक क्रियाएँ आती हैं जिसके प्रति लोग जागरूक नहीं होते हैं।
अचेतन के संबंध में फ्रायड कहते हैं कि यह मूल प्रवत्ति या पाश्विक अंतर्नोद का भंडार होता है। इसके अंतर्गत ऐसी घटनाएँ या विचार संग्रहित रहते हैं जो चेतन रूप स जागरूक स्थिति से छिपे होने हैं और मनोवैज्ञानिक द्वन्द्वों को उत्पन्न करते हैं। अचेतन में दलित इच्छाएँ कामुक स्वरूप ही होता है जिसे प्रकट रूप में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता ह इसीलिए उसका दमन हो जाता है। व्यक्ति अपने अचेतन में दमित इच्छाओं को सामाजिक रूप से स्वीकार्य तरीकों से अभिव्यक्त करने के लिए निरंतर संघर्ष करते रहता है। यदि द्वन्द्वों के निर्माण में असफल हो जाता है।
तो उसमं असामान्यता के लक्षण विकसित हो जाते हैं और उसका व्यवहार कुसमायोजित हो जाता है। व्यक्ति के अचेतन को स्वप्न विश्लेषण, दैनिक जीवन की भूलें, विस्मरण आदि के आधार पर जाना जा सकता है। फ्रायड ने एक चिकित्सा पद्धति को विकसित किया जिसे मनोविश्लेषण के नाम से जाना जाता है। मनोविश्लेषण चिकित्सा पद्धति के माध्यम से अचेतन में दमित विचारों को चेतन स्तर पर लाया जाता है और रोगी को आत्मा जागरुक बनाकर समाज में अभियोजन के लायक बनाया जाता है।
व्यक्ति की संरचना के संबंध में फ्रायड ने मन के गत्यात्मक पहलू की चर्चा की है उन्होंने बताया है कि यह अचेतन की ऊर्जा के रूप में होते हैं। इसके तीन तत्व-इड, इगो तथा सुपर इगो के आधार पर व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है। ये तीन तत्व सम्प्रत्यय है न कि वास्तविक भौतिक संरचना। तीनों नत्वों का विवरण निम्नलिखित है-
इड-व्यक्ति के मूल प्रवृत्ति कर्जा का सोत ड्ड होता है जो इसकी आदिम इच्छाआ, कामेच्छाओं और आकामक आवेगों की तात्कालिक संतुष्टि चाहता है। यह सुख के सिद्धान्त से संचालित होता है। फ्रायड ने बताया है कि व्यक्ति की अधिकांश मूल प्रवृत्तिक ऊर्जा का मूल स्वाभाविक होती है और कुछ ऊर्जा आक्रामक होती है।
इड को नैतिक-अनैतिक को परवाह नहीं होता है।
इगा-यह मन के गत्यात्मक पहलू का दूसरा भाग है। इसका विकास इड से होता है और यह मूल पवृत्तिक आवश्यकताओं को संतुष्टि वास्तविकता के घटात्मक पर करता है। यह वास्तविक सिद्धांत से मंचालित होता है। यह व्यवहार के रपयक्त तरीकों की तलाश करता है और इच्छाओं की संतुष्टि में सहयोग करता है। इस प्रकार यह व्यक्ति को व्यवहार कुशल बनाता है।
सुपर इगो-यह मन के गत्यात्मक पहलू का सबसे अन्तिम भाग है जिसका संबंध नैतिकता से होता है। सुपर इगो को समझने का और इसकी विशेषता बताने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि इसको मानसिक प्रकार्यों की नैतिक शाखा के रूप में जाना जाए। सुपर इगो इड और इगा को बताता है कि किसी विशिष्ट अवसर पर इच्छा विशेष की संतुष्टि नैतिक है अथवा नहीं: – इस प्रकार स्पष्ट है कि फ़ायड ने व्यक्तित्व विकास के क्षेत्र में एक नया आयाम दिया है जो गरी तरह से सन पर आधारित है। इसके क्रिया-प्रतिक्रिया के फलस्वरूप व्यक्तित्व का निर्माण होता है।
प्रश्न 11. बुद्धि परीक्षण क्या है ? इसकी उपयोगिता का वर्णन करें।
उत्तर: पत्येक बालक में कुछ जन्म ज्ञात योग्यताएँ होती हैं। यह सभी बालकों में एक समान नहीं वरन् भिन्न-भिन्न होती है। बालक को इन जन्मजात योग्यताओं को पता लगाने की विधि को बुद्धि परीक्षण कहते हैं। इसके द्वारा व्यक्ति के मानसिक विकास के स्तर का अनुमान लगाया जा सकता है अथवा मापा जा सकता है।
आधुनिक काल में बुद्धि-परीक्षा परम उपयोगी सिद्ध हुई है। यह देखा गया है कि जीवन में सफलता और असफलता तथा नई परिस्थितियों के समायोजन एवं नई समस्याओं के हल करने में बुद्धि का बहुत बड़ा हाथ रहता है। यही नहीं मानव-जीवन के प्रत्येक कार्य-क्षेत्र में बुद्धि की बहुत अधिक महत्ता और उपयोगिता है। चूंकि बुद्धि परीक्षा द्वारा ही बुद्धि मापी जाती है, इसलिए उसकी भी बहुत उपयोगिता है। हम इसके कुछ उपयोगों का वर्णन नीचे करेंगे-
1.मंद बद्धि के बालकों का पता लगाना (Diagnosing Feeble-minded Children)-बुद्धि परीक्षा के द्वारा अध्यापक सरलतापूर्वक एक ही कक्षा में पढ़ने वालो में से मन्द बुद्धि और प्रखर बुद्धि के बालकों को छाँट सकता है। उनकी बुद्धि लब्धि के आधार पर वर्गीकरण कर उनके समान बुद्धि-लब्धि वाले बालकों के साथ उन्हें शिक्षा देकर उनका समुचित विकास कर सकता है। बुद्धि परीक्षा से मन्द बुद्धि, सामान्य और प्रतिभाशाली सभी प्रकार के बालकों की जानकारी आसानी से की जा सकती है। उनमें आपस में अन्तर किया जा सकता है। एक बालक जिसकी बुद्धिलब्धि 70 है वह मन्द-बुद्धि माना जाता है, जिसे विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। उसे प्रखर मेधावी छात्रों के साथ जिनकी बुद्धि-लब्धि 129 से ऊपर होती है, नहीं पढ़ाया जा सकता है।
2..बाल अपराधियों से व्यवहार (Dealing with Delinquency)–प्राय: यह देखा गया है कि अधिकतर बाल-अपराधी निम्न बौद्धिक धरातल के होते हैं। उच्च मानसिक स्तर के बालअपराधी बहुत कम मिलते हैं। बुद्धि परीक्षण हमें इन बाल-अपराधियों के उपयुक्त व्यवहार करने में सहायता पहुँचाती है क्योंकि बुद्धि परीक्षण द्वारा बाल-अपराधी की बुद्धि-लब्धि निकाली जाती है, फिर उन बहुत से कारणों को समझा जाता है जिनसे बालक अपराधी बन जाता है या विद्रोही। अतः इस प्रकार बुद्धि-परीक्षण बाल-अपराधियों के कारणों को खोजने में, उनके समुचित व्यवहार करने में सहायता पहुँचाती है।
3. शिक्षा में उपयोगी (Use in Educational System)-बुद्धि परीक्षण का सबसे अधिक उपयोग विद्यालयों में होता है। बुद्धि-परीक्षण के आधार पर बालकों का वर्गीकरण सामान्य मन्द और प्रतिभाशाली अथवा मेधावी के रूप में किया जाता है। शैक्षिक कार्यक्रमों की सफलता के लिए आवश्यक है कि मन्द बुद्धि और मेधावी बालकों में अन्तर किया जाय। उन्हें भिन्न प्रकार की शिक्षा दो जाये, अत: निम्नलिखित कारणों से बुद्धि परीक्षण परमोपयोगी सिद्ध हुई है।
- बुद्धि-परीक्षण हम यह बताती है कि पाठशाला में बालक की उन्नति में कमी का कारण उसकी मानसिक योग्यता का कमी है अथवा अन्य कोई कारण।
- बुद्धि-परीक्षण कम बुद्धि वाले बालकों को तुरन्त बता देती है।
- बुद्धि-परीक्षण उत्कृष्ट बालक को छाँटकर बता देती है। उसकी उपयुक्त शिक्षा दीक्षा के लिए तथा उसके सम्यक विकास के लिए उचित अवसर प्रदान करने पर बल देती है।
- अध्यापक के आगे आने वाली समस्याओं के हल में सहायता पहुँचाती है तथा विद्यालय में बाल-अपराधियों को पहचानने में मदद देती है।
- बुद्धि-परीक्षण बालकों को मानसिक योग्यता का सम्यक आकलन कर उन्हें उचित मार्ग प्रदर्शन करती है।
- वह बुद्धि लब्धि के आधार पर किसी बालक के लिए स्पष्ट संकेत करती है कि वह कॉलेज अथवा विश्वविद्यालय के उच्च अध्ययन के योग्य है अथवा नहीं।
- बुद्धि-परीक्षा अध्यापकों और विशेषज्ञों को बालक के लिए व्यावहारिक चुनाव में बहुत मदद देती है और उचित मार्ग प्रदर्शन करती है।
4. विशिष्ट वर्गों के अध्ययन के लिए उपयोगी (Usc of Special Group)-बुद्धि-परीक्षण व्यक्तियों के विशिष्ट वर्गों के लिए परमोपयोगी है। यह विशिष्ट वगा, जैसे-गूंगे, बहरे और जातीय समुदायों का सर्वेक्षण करती है।
5. उद्योगों में उपयोगिता (Use in the industires)-उद्योगों में अधिकारियों, कर्मचारियों और विशेषज्ञों के चुनाव में बुद्धि-परीक्षा बहुत सहायता देती है। चुनाव को अन्य विधियो जैसे साक्षात एवं उम्मीदवार के आवेदन पत्र जिसमें उसके पूर्व अनुभवों, शैक्षिक और सामाजिक, एवं विशिष्ट योग्यताओं का लेखा-जोखा होता है के साथ बुद्धि परीक्षा भी परम उपयोगी सिद्ध होती है।
प्रश्न 12. मानसिक उम्र तथा बुद्धिलब्धि पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर: मानसिक उम्र (Mental age)-विभिन्न बुद्धि परीक्षणों के माध्यम से बुद्धिलब्धि (I.Q.) निकालने के लिए मानसिक उम्र की जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है। अब प्रश्न उठता है कि मानसिक उम्र क्या है ? इस संबंध में मानसिक उम्र की एक समुचित परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है-“मानसिक उम्र किसी व्यक्ति के द्वारा विकास की वह अभिव्यक्ति है जो उसके कार्यों द्वारा जानी जाती है तथा किसी आयुविशेष में उसकी अपेक्षा की जाती है।” (The mental age is an expression of the extent of development achieved by the individual stated in terms of the performance expected at any given age.)
परिभाषा से स्पष्ट होता है कि विभिन्न उम्र स्तर में व्यक्ति विभिन्न प्रकार की अभिव्यक्तियाँ करता है। इससे तात्पर्य यह है कि जिस बालक की मानसिक आयु दस वर्ष बतायी जाती है, वह परीक्षा के अनुसार अपनी दस वर्ष की उम्र में ही सामान्य बालकों के समान व्यवहार करने में सफल हो जाता है।
बुद्धि-परीक्षक किसी बालक की बुद्धि-परीक्षण के लिए वस्तुओं का संकलन करता है जिसे वह परीक्षण में शामिल करना चाहता है तथा उनको एक विशिष्ट क्रम में सजाता है। फिर, विभिन्न उम्र स्तर के बच्चों को समस्या हल करने के लिए देता है। यह सब प्रकार से आयोजित किया जाता है जिससे बच्चों के विभिन्न उम्र की सामान्य उपलब्धियों का ठीक-ठीक पता लग सके। परीक्षण में विभिन्न उम्र के प्रतिनिधि बच्चों ने कार्यों में किस सीमा पर सफलता प्राप्त की तथा एक की उम्र के अधिकांश बच्चों ने जिस कार्य को सफलतापूर्वक किया वही उस विशिष्ट उम्र की मानसिक उम्र निश्चित कर ली जाती है।
उदाहरण के लिए, आठ वर्ष की उम्र के सामान्य बच्चों की औसत उपलब्धि ही उसकी आठ वर्ष की मानसिक उम्र का प्रतीक होगा। कोई भी आठ वर्ष ? का बच्चा ऐसे कार्यों को कर लेता है जो नौ वर्ष का सामान्य बच्चा कर सकेगा तो उसकी मानसिक आयु नौ वर्ष कहलायेगी। परन्तु, आठ वर्ष का बच्चा ऐसे कार्यों को करने में सक्षम होता है जो सात वर्ष का सामान्य बच्चा कर सकता है तो उस बच्चे की मानसिक आयु सात वर्ष ही मानी जायगी जबकि उसकी वास्तविक आयु आठ वर्ष की होगी।
इस प्रकार अपने से अधिक उम्र वाले कार्यों को करने वाले बच्चों को श्रेष्ठ तथा अपने से कम उम्र के कार्यों तक ही करनेवाले बच्चों को हीन मानते हैं।
मानसिक आयु किसी-किसी विशिष्ट उम्र में बालक की मानसिक परिपक्वता को बताती है कि बालक उस वास्तविक आयु पर मानसिक दृष्टि से कितना प्रौढ़ हुआ है। यही प्रौढ़ता एवं परिपक्वता की मात्रा मानसिक आयु है। बच्चे की उम्र में वृद्धि के साथ-साथ उसकी मानसिक परिपक्वता बढ़ती जाती है। बिने टेस्ट बच्चे की सामान्य योग्यता को मापती है, जिसका विकास थोड़े बहुत अंतर से प्रौढ़ता तक एक रूप से होता है।
बुद्धिलब्धि (Intelligence Quotient)-बुद्धिलब्धि (I.Q.) से तात्पर्य व्यक्ति के बुद्धि की मात्रा से है। किसी भी व्यक्ति को जो प्रतिभा प्राप्त होती है उसकी मात्रा को बताने वाली संख्या को I.Q. कहते हैं। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति के पास बुद्धि की कितनी मात्रा है इसकी माप अथवा उसके द्वारा उपलब्ध बुद्धि ही बुद्धिलब्धि है।
बुद्धिलब्धि के विचार को सर्वप्रथम टरमैन (Terman) ने प्रस्तुत किया। इससे संबंधित विचार पहले स्टर्न (Sterm) ने भी बताया था। स्टर्न ने मानसिक लब्धि (M.Q.) प्रस्तुत किया। इसके लिए मानसिक उम्र को वास्तविक उम्र से विभाजित किया। पहले बुद्धि की मात्रा का सही .ही ज्ञान प्राप्त करना कठिन था। केवल इस बात की जानकारी होती थी कि कौन अधिक बुद्धि का है तथा कौन कम बुद्धि का। परन्तु I.Q. से बुद्धि का मात्रात्मक मापन होने लगा। इसके आध. पर इस बात की जानकारी की जाती है कि किस बच्चे को कितनी बुद्धि है तथा एक बच्चा कितना अधिक या कम बुद्धि वाला है। I.Q. निकालने के लिए एक सूत्र का प्रतिपादन किया जो इस प्रकार है-
टरमैन द्वारा दिया गया सूत्र आज भी बहुत उपयोगी है। इस सूत्र के अनुसार यदि मानसिक उम्र और वास्तविक उम्र दोनों बराबर होगा तो I.Q. एक सौ (100) होगा जो सामान्य कहलायगा। यदि मानसिक उम्र अधिक और वास्तविक उम्र अधिक होगा तो वह तीव्र बुद्धि का माना जायगा। इसी प्रकार यदि मानसिक उम्र कम और वास्तविक उम्र अधिक होगा तो वह मंद बुद्धि का माना जायेगा। नब्बे (90) से एक सौ दस (110) तक I.Q. वाले व्यक्ति को सामान्य बुद्धि माना जाता है। मानसिक उम्र को वास्तविक उम्र से विभाजित करने के बाद 100 से गुणा करने का तात्पर्य है स्कोर को फैलना एवं दशमलव को समाप्त करना। इसे एक उदाहरण द्वारा इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-मान लिया कि किसी बच्चे की वास्तविक उम्र दस वर्ष और ब्लॉक डिजाइन टेस्ट (Block design test) के आधार पर उसकी मानसिक उम्र बारह वर्ष प्राप्त होती है तो उसकी बुद्धिलब्धि इस प्रकार प्राप्त होगी-
I.Q = M.A./C.A. × 100 = 12/10 × 100 = 120 (औसत बुद्धि)
एटकिंसन एण्ड एटकिंसन तथा हिलगार्ड (Atkinson and Atkinson and Hilgard) ने अपने अध्ययनों के आधार पर एक तालिका प्रस्तुत की है, जिसमें बुद्धिलब्धि और प्रतिभा की मात्रा का संबंध दर्शाया गया है-
I.Q. | वर्गीकरण | प्रतिशत |
140 एवं अधिक | अति प्रखर | 1 |
120 से 139 | प्रखर | 11 |
110 से 119 | उच्च औसत | 18 |
90 से 109 | औसत | 46 |
80 से 89 | निम्न औसत | 15 |
70 से 79 | सीमा रेखा | 6 |
70 से नीचे | मानसिक दुर्बल | 3 |
प्रश्न 13. अभिक्षमता परीक्षण से आप क्या समझते हैं ? इसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर: अभिक्षमता परीक्षण के माध्यम से व्यक्ति के कौशल या प्रवीणता ग्रहण करने की क्षमता का मापन किया जाता है। यह मनोविज्ञान का एक प्रमुख परीक्षण है। प्रत्येक व्यक्ति में कुछ ऐसी क्षमताएँ होती है, जो विशिष्ट होती है। उस क्षेत्र में यदि उसे आगे बढ़ने का अवसर दिया जाय तो वह बहुत अधिक ऊँचाई को हासिल कर सकता है। इसी विशिष्ट क्षमता को मापने के लिए विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने परीक्षण का निर्माण किया है। इस दिशा में काफी पहले से ही मनोवैज्ञानिकों द्वारा प्रयास जारी है। इन्हीं परीक्षणों को अभिक्षमता परीक्षण के नाम से जाना जाता है। इसके अंतर्गत कई प्रकार की विशिष्ट क्षमताएँ जैसे यात्रिक क्षमता, गणितीय क्षमता, लिपिक क्षमता, संगीत क्षमता आदि का मापन किया जाता है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने अभिक्षमता के स्वरूप को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। फ्रीमैन के अनुसार, “अभिक्षमता परीक्षण से तात्पर्य उस परीक्षण से है, जिसके माध्यम से किसी विशिष्ट क्षेत्र में विशिष्ट कार्य को पूरा करने में व्यक्ति में अन्तर्निहित क्षमता का मापन किया जाता है।”
अभिक्षमता परीक्षण के प्रकार (Type of aptitude test) :
विभिन्न मनोवैज्ञानिकों द्वारा अभिक्षमता परीक्षण के क्षेत्र में बहुत अधिक शोध किये गए हैं और परीक्षणों का निर्माण किया गया है। इन परीक्षणों के मोटे तौर पर दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-एक कारक अभिक्षमता परीक्षण तथा बहुकारक अभिक्षमता परीक्षण।
1. एक कारक अभिक्षमता परीक्षण (Unifactor aptitude test)-एक कारक अभिक्षमता परीक्षण वैसे परीक्षण को कहते हैं, जिससे व्यक्ति के किसी एक प्रकार की अभिक्षमता का मापन होता है। इस प्रकार के परीक्षण की खास विशेषता यह होती है कि इसके माध्यम से व्यक्ति में निहित एक ही क्षमता का सही ढंग से और सूक्ष्म मापन से होता है। अतः इस प्रकार के परीक्षण को विश्वसनीयता एवं वैधता की मात्रा बहुत अधिक होती है। इस प्रकार के परीक्षणों में मेनिसोटा यांत्रिक अभिक्षमता परीक्षण, संगीत अभिक्षमता परीक्षण, सामान्य लिपिक अभिक्षमता परीक्षण आदि आते हैं। इस दिशा में बिहार में भी कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य किए गए हैं, जिसमें ए० के. पी. सिन्हा तथा एल. एल. के. सिन्हा द्वारा निर्मित वैज्ञानिक अभिक्षमता प्रमुख है। यह परीक्षण कॉलेज के छात्रों में निहित वैज्ञानिक क्षमता का मापन के क्षेत्र में बहुत अधिक लोकप्रिय हुआ है।
2. बहकारक अभिक्षमता परीक्षण (Multifactor aptitude test)-इसके अंतर्गत ऐसे परीक्षण आते हैं, जिसके माध्यम से व्यक्ति में निहित अनेक प्रकार की क्षमताओं का मापन एक ही जाँच के माध्यम से करते हैं। ज्यादातर अभिक्षमता परीक्षण बहुकारक के अंतर्गत आते हैं। इस प्रकार के परीक्षणों में Different aptitude test, General aptitude battery, teaching aptitude test battery, scientific aptitude battery आदि आते हैं।
उपरोक्त परीक्षणों में Differential aptitude test (DAT) सर्वाधिक लोकप्रिय परीक्षण है, जिसका निर्माण सबसे पहले 1947 में अमेरिकन मनोवैज्ञानिक कारपोरेशन द्वारा किया गया है।
DAT का उपयोग आठवें वर्ग से लेकर बारहवें वर्ग के छात्रों के लिए किया जाता है। दूसरा संशोधन 1952 तथा 1963 ई. में किया गया। इस परीक्षण से निम्नलिखित आठ प्रकार की क्षमताओं का मापन किया जाता है।
1. शाब्दिक चिंतन परीक्षण(Verbal Reasoning test)-इसके माध्यम से शब्दों में निहित संप्रत्ययों को समझने की क्षमता का मापन किया जाता है। इससे रचनात्मक क्षमता का भी मापन किया जाता है।
2. संख्यात्मक अभिक्षमता परीक्षण (Numerical ability test)-इस जाँच के माध्यम से विद्यार्थियों में निहित संख्या या संख्याओं के आपसी संबंधों को समझने, संख्याओं की गणना एवं उसके बारे में चिंतन की क्षमता का मापन होता है। . .3. अमूर्त चिंतन परीक्षण (Abstract Reasoning test)-कुछ व्यक्तियों में अमूर्त चिंतन की योग्यता अधिक होती है। इन क्षमताओं का मापन अमूर्त चिंतन परीक्षण से किया जाता है।
4. दैशिक संबंध परीक्षण (Space Relation test)- दैशिक संबंध परीक्षण के माध्यम से व्यक्ति में निहित उस क्षमता का मापन होता है जिसके द्वारा वह यह बता सकता है कि किसी दिए हुए डायग्राम से किस प्रकार का चित्र बनेगा या कोई एक ही वस्तु को विभिन्न दिशाओं में घुमाया जाय तो किस प्रकार का दिखायी देगा। इस क्षमता की आवश्यकता ड्रेस डिजायनर तथा डेकोरेटर आदि में विशेष रूप से होती है।
5. यांत्रिक चिंतन परीक्षण (Mechanical Reasoning test)-यांत्रिक चिंतन परीक्षण के माध्यम से व्यक्ति में निहित यांत्रिक क्षमताओं का पता चलता है, जिसकी आवश्यकता उद्योगों में सर्वाधिक है। इस प्रकार की क्षमता वाले लोग सफल इंजीनियर या कुशल उद्योगपति हो सकते हैं।
6. लिपिक गति और परिशुद्धता परीक्षण (Clerical speed and accuracy test)-यह . एक ऐसी जाँच है जिसके माध्यम से व्यक्ति किसी शब्द था चित्र का प्रत्यक्षीकरण करने के पश्चात् होनेवाली सही अनुक्रिया का मापन करता है। इस प्रकार के क्षमता की आवश्यकता लिपिक कार्य या स्टेनोग्राफी आदि में सर्वाधिक होती है।
7. हिज्जे परीक्षण (Spelling test)–भाषा उपयोग परीक्षण के दो उप-परीक्षण है जिसमें हिज्जे परीक्षण पहला उप-भाग है, जिसके माध्यम से व्यक्ति में निहित शब्दों का सही-सही हिज्जे की क्षमता की माप की जाती है।
8. भाषा-वाक्य परीक्षण (Language-sentence test)–इस परीक्षण के माध्यम से भाषा का सही-सही उपयोग तथा वाक्यों का सही वैयाकरणिक अनुप्रयोग आदि की क्षमता का मापन किया जाता है। उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि DAT के माध्यम से आठ विभिन्न प्रकार की अभिक्षमता का मापन किया जाता है, जिसके क्रियान्वयन से कुल मिलाकर तीन घण्टे छः मिनट का समय लगता है। इसका उपयोग सामूहिक एवं वैयक्तिक परीक्षण के रूप में किया जा सकता है।
प्रश्न 14. पर्यावरण के प्रति जागरूकता तथा अनुकूल व्यवहार को बढ़ाने की प्रविधियों का वर्णन करें।
उत्तर: पर्यावरण के प्रति जागरूकता तथा अनुकूल व्यवहार को बढ़ाने के लिए केवल भविष्यवाणी पर्याप्त नहीं है। बल्कि इसके विद्वेशक परिणामों के सम्बन्ध में जानकारी देकर विपरीत प्रभाव को नियंत्रण करने का प्रयास किया जा सकता है जो निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा की जा सकती है।
(a) चेतावनी- समयानुरूप आने वाले विषम परिस्थितियों की जानकारी देकर लोगों को चेतना वृद्धि किया जा सकता है जिससे लोग अवगत होकर उसके समाधान के प्रति तत्पर हो सके। यह कार्य विज्ञापन के द्वारा लोगों तक पहुँचाया जाता है। प्राकृतिक विपदाओं से सम्बन्धित घटनाओं को तूफान एवं भविष्य में आने वाले समुद्री ज्वार तथा भूकम्प से बचने तथा निर्धारित क्षेत्र में न जाने की सुझाव दी जाती है।
(b) सुरक्षा उपाय-प्राकृतिक विपदाओं में कुछ ऐसे भी हैं जिनका संकेत दिये जाने पर इतना शीघ्रतापूर्वक आगमन होता है कि उनका नियंत्रण कर पाना संभव नहीं होता इसलिए इसके लिए चेतावनी देकर उन्हें मानसिक रूप से तैयार करने का कार्य किया जाता है इससे संबंधित सुझाव द्वारा समयानुरूप समायोजन में सहायता प्राप्त हो जाता है।
(c) मनोवैज्ञानिक विकारों का उपचार-मनावैज्ञानिक विकारों के उपचार में स्वावलंबन उपचार तथा व्यावसायिक उपचार दोनों उपस्थित होते हैं। लोगों में मुख्यतः भौतिक सहयोग जैसे-शरण आश्रय, भोजन, एवं वस्त्र वितीय सहायता प्राप्त करना अनिवार्य होता है जिसके लिए अनुभव एवं प्रोत्साहन होना आवश्यक होता है। प्रभाव स्वरूप इससे उसके सांवेगिक अवस्था का निवारण हो पाता है।
(d) आत्म सक्षमता- इसमें प्राणी को आत्मा विश्वास दृढ़ होता है वे स्वयं को बाहरी परिवेश में समर्थ मानते हैं परन्तु इन दशाओं की पूर्ति न हो सकने से तीव्र दबाव परिलक्षित हो जाता है और उन्हें मनोरोग उपचार की आवश्यकता पड़ती है प्रभाव स्वरूप लाभ अर्जन से सामुदायिक जीवन में समायोजन के गण विकसित होता है।
प्रश्न 15. एक प्रभावी मनोवैज्ञानिक के लिए सामान्य कौशलों का वर्णन करें।
उत्तर: भनोविज्ञान का अध्ययन करने वाले कुछ छात्रों का उद्देश्य होता है एक प्रभावी मनोवैज्ञानिक बनकर समाज एवं देश को सेवा प्रदान करना। कुशल मनोवैज्ञानिक बनने के लिए जो क्षेत्र आते हैं जिसकी शिक्षा और प्रशिक्षण करने के बाद व्यवसाय में आने के पहले जानना आवश्यक है। वे शिक्षकों, अभ्यास करने वाले या शोध करने वाले सभी के लिए जरूरी है जो छात्रों से, व्यापार से, उद्योगों से और बृहत्तर समुदायों के साथ परामर्श की भूमिकाओं में होते हैं। यह माना जाता है कि मनोविज्ञान में
सक्षमताओं को विकसित करना, उनको अमल में लाना और उनका मापन करना कठिन है, क्योंकि विशिष्ट पहचान और मूल्यांकन की कसौटियों पर आम सहमति नहीं बन पाई है।
मनोवैज्ञानिकों द्वारा पहचानी गयी आधारभूत कौशल या सक्षमता जो एक प्रभावी मनोवैज्ञानिक बनने के लिए आवश्यक है उसे तीन श्रेणियों में बाँटा गया है-
- सामान्य कौशल
- प्रेक्षण कौशल तथा
- विशिष्ट कौशल।
सामान्य कौशल मूलतः सामान्य स्वरूप के होते हैं। जिसकी आवश्यकता सभी प्रकार के मनोवैज्ञानिकों को होती है चाहे वे किसी भी क्षेत्र के विशेष क्यों नहीं। खासकर सभी प्रकार के व्यवसायी मनोवैज्ञानिक जैसे-नैदानिक, स्वास्थ्य मनोविज्ञान, औद्योगिक, सामाजिक, पर्यावरणीय सलाहकार की भूमिका में रहने वालों के लिए यह कौशल आवश्यक है।
प्रेक्षण कौशल से तात्पर्य सूचनाओं को देखकर समझने से है। कोई मनोवैज्ञानिक चाहे वह शोध कर रहा हो या क्षेत्र में व्यवसाय कर रहा हो वह ज्यादातर समय सावधानीपूर्वक सुनने, ध्यान देने और प्रेक्षण करने का कार्य करता है। वह अपनी समस्त संवेदनाओं का उपयोग देखने, सुनने स्वाद लेने, स्पर्श करने या सूंघने में करता है।
विशिष्ट कौशल मनोविज्ञान के किसी क्षेत्र में विशेषता से है जैसे-नैदानिक स्थितियों में कार्य करने वाले मनोवैज्ञानिकों के लिए यह आवश्यक है कि वह चिकित्सापरक तकनीकों, मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन एवं परामर्श में प्रशिक्षण प्राप्त करें। इस प्रकार स्पष्ट है कि एक प्रभावी मनोवैज्ञानिक बनने के लिए उपरोक्त तीनों कौशल में प्रवीण होना आवश्यक है। तभी वे सेवार्थी को अधिक-से-अधिक लाभ दे सकता हैं।
प्रश्न 16. प्रेक्षण का मूल्यांकन एक मनोवैज्ञानिक कौशल के रूप में करें।
उत्तर: मनोवैज्ञानिक चाहे किसी भी क्षेत्र में कार्य कर रहे हो वह अधिक-से-अधिक समय ध्यान से सुनने तथा प्रेक्षण कार्य करने में लगा देते हैं। मनोवैज्ञानिक अपनी संवेदनाओं का प्रयोग देखने, सुनने, स्वाद लेने या स्पर्श करने में लेते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मनोवैज्ञानिक एक उपकरण है। जो अपने परिवेश के अन्तर्गत आनेवाली समस्त सचनाओं का अवशोषण कर लेता है।
मनोवैज्ञानिक व्यक्ति के भौतिक परिवेश के उन हिस्सों के प्रेक्षण के उपरांत शीक्त तथा उसके व्यवहार का भी प्रेक्षण करता है। मनोवैज्ञानिक व्यक्ति के भौतिक परिवेश में इन हिस्सों के प्रेक्षण के उपरांत व्यक्ति तथा उसके व्यवहार का भी प्रेक्षण करता है। जिसके अन्तर्गत व्यक्ति की आय, लिंग, कद, उसका दूसरे से व्यवहार करने का तरीका आदि सम्मिलित होते हैं।
प्रेक्षण के दो प्रमुख कारण हैं-
- प्रकृतिवादी प्रेक्षण
- सहभागी प्रेक्षण।
(i) प्रकृतिवादी प्रेक्षण-उस प्रेक्षण के माध्यम से हम यह सीखते हैं कि लोग अलग-अलग परिस्थितियों में किस प्रकार व्यवहार करते हैं। यह सबसे प्राथमिक तरीका है।
(ii) सहभागी प्रेक्षण- इस प्रेक्षण में प्रेक्षक प्रेक्षण की प्रक्रिया में एक सक्रिय सदस्य के रूप में संलग्न होता है अर्थात प्रेक्षक जो प्रेक्षण कर रहा है। वह खुद अपने ऊपर भी ऐसा प्रेक्षण कर सकता है।
मनोवैज्ञानिक सेवाओं की दशा में विशिष्ट कौशल एक मूल कौशल है। मुख्यतः विशिष्ट कौशल की आवश्कताएँ विशिष्ट व्यावसायिक कार्यों को करने में होती है। उदाहरणार्थ, नैदानिक परिस्थितियों में काम करने वाले मनोवैज्ञानिक को चिकित्सापरक तकनीक मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन एवं परामर्श में पूर्ण रूप जानकारी प्राप्त होनी चाहिए। इसी प्रकार से संगठनात्मक मनोवैज्ञानिक जो केवल संगठन के क्षेत्र में कार्य करते हैं। उन मनोवैज्ञानिकों को भी शोध, कौशलों के अतिरिक्त मूल्यांकन सुगमीकरण, परामर्श तथा व्यावहारपरक कौशलों की भी आवश्यकता होती है। जिसके परिणामस्वरूप वह व्यक्ति, संगठनों समूहों के विकास की प्रक्रिया को सरलता से जान लें। ये सभी कौशल आपस में एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। विशिष्ट कौशलों के अन्तर्गत सक्षमताओं के आधार पर उन्हें निम्नवत वर्गीकृत किया जा सकता है-
- मनोवैज्ञानिक परीक्षण कौशल
- साक्षात्कार कौशल
- परीक्षण कौशल
- परामर्श कौशल
- सम्प्रेषण कौशल।
प्रश्न 17. चिन्ता विकृति के लक्षण एवं कारणों का वर्णन करें।
उत्तर: चिन्ता मनः स्नायुविकृति एक ऐसा मानसिक रोग है, जिसमें रोगी हमेशा अज्ञात कारणों से चिन्तित रहा करता है। सामान्य चिन्ता एक सामान्य, स्वाभाविक औ. सर्वसाधारण मानसिक अवस्था है। जीवन में जटिल परिस्थितियों में यह अनिवार्य रूप से होता है। वर्तमान भयावह परिस्थिति से डरना या चिन्तित होना सामान्य अनुभव है। इसके लिए व्यक्ति डर की प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। जैसे-बाघ को सामने आता देखकर व्यक्ति सामान्य चिंता के फलस्वरूप भयभीत होने या भागने की क्रिया करता है। व्यक्ति में ऐसी भयावह परिस्थिति की अवगति रहती है। उसी के संतुलन के लिए वह किसी प्रकार की प्रतिक्रिया करता है। सामान्य चिन्ता का संबंध वर्तमान भयावह परिस्थितियों से रहता है। लेकिन सामान्य चिन्ता से असामान्य चिन्ता पूर्णतः भिन्न है। इसमें व्यक्ति चिन्तित या भयभीत रहता है, लेकिन सामान्य चिन्ता के समाने उसकी चिन्ता का विषय नहीं रहता। उसकी अपनी चिन्ता का कारण ज्ञात नहीं रहता।
उसकी चिन्ता पदार्थहीन होती है। अतः अपने विभिन्न शारीरिक उपद्रवों को व्यक्त करता है। वस्तुतः उसे अपने मानसिक उपद्रव का ज्ञान नहीं रहता। इसके अतिरिक्त उसकी चिन्ता का संबंध हमेशा भविष्य से रहता है, वर्तमान से नहीं। इसलिए उसमें निराकरणात्मक सामान्य चिन्ता की तरह प्रतिक्रिया देखने में नहीं आती है, अत: हम कह सकते हैं कि सामान्य चिन्ता भयावह परिस्थितियों की प्रतिक्रिया है। सामान्य चिन्ता के संबंध में असामान्य चिन्ता आन्तरिक भयावह परिस्थितियों की प्रतिक्रिया है।
सामान्य चिन्ता के संबंध में फिशर (Fisher) ने कहा-“सामान्य चिन्ता उन उलझी हुई कठिनाइयों की प्रतिक्रिया है जिसका परित्याग करने में व्यक्ति अयोग्य रहता है।” (Normal anxiety is a reaction to an unapprochable difficults which the individual is unable to avoid.) vafot 37H14R fantil के संबंध में उनका विचार है कि ‘असामान्य चिन्ता उन आन्तरिक या व्यक्तिगत उलझी हुई कठिनाइयों की प्रतिक्रिया है, जिसका ज्ञान व्यक्ति को नहीं रहता।” (Neurotic anxiety is a reaction to an unapproachable inner or sub-jective difficult of which the individual has no idea.)
चिन्ता मनःस्नायु विकृति (Symptoms of anxiety neurosis)-चिन्ता मनःस्नायु विकृति में शारीरिक और मानसिक दोनों तरह के लक्षण देखे जाते हैं। मानसिक लक्षण में भय और आशंका की प्रधानता रहती है, जबकि शारीरिक लक्षण में हृदय गति, रक्तचाप, श्वास गति, पाचन-क्रिया आदि. में परिवर्तन देखे जाते हैं। उनका वर्णन निम्नलिखित हैं-
1. मानसिक लक्षण (Mental symptoms)-मानसिक लक्षणों में अतिरजित भय और शंका की प्रधानता रहती है। यह अनिश्चित और विस्तृत होता है। इसका रोगी तर्कयुक्त प्रमाण नहीं कर सकता, किन्तु पूरे विश्वास के साथ जानता है कि उसका सोचना सही है। उसकी शंका किसी दुर्घटना से संबंध होती है। घर में आग लगने, महामारी फैलने, गाड़ी उलटने, दंगा होने या इसी प्रकार की अन्य घटनाओं के प्रति वह चिंतिन रहता है। वह हमेशा अनुभव करता है कि बहुत जल्द ही कुछ होनेवाला है। इस संबंध में अनेक काल्पनिक विचार उसके मन में आते रहते हैं। वह दिन-रात इसी विचार से परेशान रहता है उसमें उत्साह की कमी हो जाती है और मानसिक अंतर्द्वन्द्व बहुत अधिक हो जाता है। चिन्ता से या तो वह अनिद्रा का शिकार हो जाता है या नींद लगने पर तुरन्त जाग जाता है। ऐसे रोगियों में मृत्यु, अपमान आदि भयावह स्वप्नों की प्रधानता रहती है, उसका स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। इसका रोगी कभी-कभी आत्महत्या का भी प्रयास करता है।
2. शारीरिक लक्षण (Physical symptoms)-चिन्ता मन:स्नायु विकृति के रोगियों में शारीरिक लक्षण भी बड़ी उग्र होते हैं। रोगी के हृदय की गति, रक्तचाप, पाचन-क्रिया आदि में परिवर्तन हो जाते हैं। पूरे शरीर में दर्द का अनुभव करता है। कभी-कभी चक्कर भी आता है। रोगी के शरीर से बहुत अधिक पसीना निकलता है। वह बोलने में हलकाता है तथा बार-बार पेशाब करता है, उसे शारीरिक वजन घटता हुआ मालूम पड़ता है। यौन भाव की कमी हो जाती है। इसके रोगी तरह-तरह की आवाजें सुनते हैं। कुछ लोगों को शिश्न छोआ होने का भय बना रहता है।
इस प्रकार के रोगियों में दो प्रकार की चिन्ता देखी जाती है-तात्कालिक चिन्ता तथा दीर्घकालिक चिन्ता। तात्कालिक चिन्ता रोगी में बहुत तीव्र तथा उग्र होती है। यह चिन्ता तुरन्त की होती है। इसमें रोगी चिल्लाता है तथा पछाड़ खाकर गिरता है। दीर्घकालिक चिन्ता पुरानी होती है। रोगी अज्ञात भावी दुर्घटनाओं के प्रति चिन्तित रहता है। वह निरंतर इस चिन्ता से बेचैन रहता है और त्रस्त रहता है। इस रोग का लक्षण के आधार पर ही विद्वानों ने दो भागों में विभाजित किया है -मुक्तिचारी चिन्ता तथा निश्चित चिन्ता। चिन्ता के कारण का अभाव नहीं रहने पर भी जब रोगी बराबर बेचैन रहता है तो उसे free floating anxiety कहते हैं, लेकिन जब रोगो किसी परिस्थिति विशेष से अपनी चिन्ता का संबंध स्थापित कर लेता है तो उसे bound anxiety कहा गया है प्रारंभ में रोगी में मक्तिचारी चिन्ता हो रहता है, लेकिन क्रमशः स्थायी रूप धारण कर लेने पर उसे निश्चित चिन्ता बन जाती है।
चिन्ता मनःस्नायु विकृति के कारण (Etiology)-अन्य मानसिक रोगों की तरह चिन्ता पनःस्नायु विकाते के कारणों को लेकर भी मनोवैज्ञानिकों में एकमत का अभाव है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों द्वारा जो कारण बताये गये हैं, उनमें कुछ मुख्य निम्न हैं-
1. लैंगिक वासना का दमन (Repression of sexual desire)-सुप्रसिद्ध मनोविश्लेषक फायड ने लैंगिक इच्छाओं के दमन को इस मानसिक रोग का कारण माना है। व्यक्ति में लैंगिक आवेग उत्पन्न होता है और यदि वह आवेग की पूर्ति में असफल हो जाता है, उसमें चिन्ता उत्पन्न होती है। यही इस रोग के लक्षणों को विकसित करती है। अत:स्रावित लैंगिक शक्ति को इस रोग का कारण माना जा सकता है। किसी पति की यौन सामर्थता या स्त्री में यौन उत्तेजना होने पर चलनात्मक स्रात नहीं होने से वह इस रोग से पीड़ित हो जाता है। इसी प्रकार पुरुष अपनी असमर्थता या स्त्री दोषी होने के कारण इस रोग से पीड़ित हो सकता है।
फ्रायड के उपर्युक्त मत से मनोवैज्ञानिक सहमत नहीं है। इस संबंध में गार्डेन का विचार है कि कामेच्छा का दमन और उसका प्रतिबंध हो इस रोग का कारण नहीं, बल्कि दो संवेगों के संघर्ष के फलस्वरूप इस रोग के लक्षण विकसित होते हैं। इस बात का पैकडुवल ने भी समर्थन किया है।
2. हीन भावना (Inferiority complex)-इस संबंध के फ्रायड के शिष्य एडलर ने भी अपना विचार व्यक्त किया है। उनका कहना है कि मनुष्य में आत्म प्रतिष्ठा की भावना प्रबल होती है, किन्तु बचपन में आश्वासन की शिथिलता के कारण जब व्यक्ति के Ego का समुचित रूप से विकास नहीं हो पाता है, तो वह हीनता की भावना से पीड़ित रहने लगता है। उसमें आत्म प्रतिष्ठा की भावना का दमन हो जाता है और व्यक्ति चिन्ता गनःस्नायु विकृति से पीड़ित हो जाता है।
3. मानसिक संघर्ष एवं निराशा (Mental conflict and frustration)-ओकेली का ऐसा मानना है कि इस रोग का कारण मानसिक संघर्ष एवं कुंठा है। इस संबंध में और भी मनोवैज्ञानिकों ने अपना अध्ययन किया है और ओकेली के मत का समर्थन किया है।
इस तरह हम देखते हैं कि चिन्ता मनःस्नायु विकृति के कारणों को लेकर सभी मनोवैज्ञानिक एक मत नहीं है। इस रोग के कारण के रूप में मुख्य रूप से लैंगिक वासना का दमन, हीनभावना तथा मानसिक संघर्ष एवं निराशा को माना जा सकता है।
प्रश्न 18. प्रेक्षण कौशल के दो प्रमुख उपागमों का वर्णन करें।
उत्तर: प्रक्षेपण के दो प्रमुख उपागम हैं-
- प्रकृतिवादी प्रेक्षण
- सहभागी प्रेक्षण।
(1) प्रकृतिवादी प्रेक्षण-एक प्राथमिक तरीका है जिससे हम सीखते हैं कि लो भिन्न स्थिति में कैसे व्यवहार करते हैं। मान लजिए, कोई चाहता है कि जब कोई कंपनी अपनी उत्पाद की घोषणा करती है तो उसकी प्रतिक्रियास्वरूप लोग शॉपिंग मॉल जाने पर कैसा व्यवहार करते है। इसके लिए वह उस शॉपिंग मॉल में जा सकता है जहाँ इन छूट वाली वस्तुओं को प्रदर्शित किया गया है। क्रमबद्ध ढंग से यह प्रेक्षण कर सकता है। कि लोग खरीददारी के पहले या बाद में क्या कहते या करते हैं। उनके तुलनात्मक अध्ययन से वहाँ क्या हो रहा है, इसके बारे में रुचिकर सुझाव बना सकता है।
(2) सहभागी पेक्षण-प्रकृतिवादी प्रेक्षण का ही एक प्रकार है। इसमें प्रेक्षक प्रेक्षण की प्रक्रिया में सक्रिय सदस्य के रूप में संलग्न होता है। इसके लिए वह स्थिति में स्वयं भी सम्मिलित हो सकता है जहाँ प्रेक्षण करना है। उदाहरण के लिए ऊपर दी गई समस्या में, प्रेक्षणकर्ता उसी शॉपिंग मॉल की दुकान में अंशकालिक नौकरी कर अंदर का व्यक्ति बनकर ग्राहकों के व्यवहार में विभिन्नताओं का प्रेक्षण कर सकता है। इस तकनीक या मानवशास्त्री बहुतायत से उपयोग करते हैं जिनका उद्देश्य होता है कि उस सामाजिक व्यवस्था का प्रथमतया दृष्टि से एक परिपेक्ष्य विकसित कर सके जो एक बाहरी व्यक्ति को सामान्यता उपलब्ध नहीं होता है।
प्रश्न 19. मनोवृत्ति को परिभाषित करें। इसके तत्वों की विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर: समाज मनोविज्ञान में मनोवृत्ति की अनेक परिभाषाएँ दी गयी हैं। सचमुच में मनोवृत्ति भावात्मक तत्त्व (affective component), व्यवहारपरक तत्त्व (behavioural component) तथा संज्ञानात्मक तत्त्व (congnitive component) का एक तंत्र या संगठन (organization) होता है। इस तरह से मनोवृत्ति ए.बी.सी (a.b.c) तत्त्वों का एक संगठन होता है। इन तत्त्वों की व्याख्या इस प्रकार है-
- संज्ञानात्मक तत्त्व (Cognitive component)-संज्ञानात्मक तत्त्व से तात्पर्य व्यक्ति में मनोवृत्ति वस्तु के प्रति विश्वास (belief) से होता है।
- भावात्मक तत्त्व (Affective component)-भावात्मक तत्त्व से तात्पर्य व्यक्ति में वस्तु के प्रति सुखद या दुःखद भाव से होता है।
- व्यवहारपरक तत्त्व (Behavioural component)-व्यवहार परक तत्त्व से तात्पर्य व्यक्ति में मनोवृत्ति के पक्ष तथा विपक्ष में क्रिया या व्यवहार करने से होता है। मनोवृत्ति के इन तीनों तत्त्वों (components) की कुछ विशेषताएँ (characteristics) हैं जो इस प्रकार हैं।
(i) कर्षणशक्ति (Valence)-मनोवृत्ति के तीनों तत्त्वों में कर्षणशक्ति होता है। कर्षणशक्ति से तात्पर्य मनोवृत्ति की अनुकूलता (favourableness) तथा प्रतिकूलता (unfavourableness) की मात्रा से होता है। जैसे, यदि कोई व्यक्ति सह शिक्षा (coeducation) को उत्तम समझता है, तो उसके मनोवृत्ति के तत्वों की अनुकूलता स्वभावत: अधिक होगी।
(ii) बहविधता (Multiflexity)-बहुविधता की विशेषता यह बतलाती है कि मनोवृत्ति के किसी तत्त्व में कितने कारक (factors) होते हैं। किसी तत्त्व में जितने अधिक कारक होंगे, उसमें जटिलता भी उतनी ही अधिक होगी। जैसे-सहशिक्षा के प्रति व्यक्ति की मनोवृत्ति के संज्ञानात्मक तत्त्व में कई कारक सम्मिलित हो सकते हैं-सहशिक्षा किस स्तर से प्रारंभ होनी चाहिए, सहशिक्षा के क्या लाभ हैं, सहशिक्षा नगर में अधिक लाभप्रद होता है या शहर में आदि। बहुविधता को जटिलता (complexity) भी कहा जाता है।
(iii) आत्यन्तिकता (extremeness)-आत्यन्तिकता से तात्पर्य इस बात से होता है कि व्यक्ति की मनोवृत्ति के तत्त्व कितने अधिक मात्रा में अनुकूल (favourable) या प्रतिकूल (unfavourable) है। जैसे अगर सहशिक्षा के प्रति मनोवृत्ति को अभिव्यक्ति यदि कोई व्यक्ति 5-बिन्दु मापनी पर (पूर्ण सहमत, सहमत, तटस्थ, असहमत तथा पूर्णतः असहमत) पूर्णत: सहमत या पूर्णतः असहमत पर करता है तथा दूसरा व्यक्ति तटस्थ पर करता है तो यह कहा जाएगा कि पहले व्यक्ति की मनोवृत्ति दूसरे व्यक्ति को मनोवृत्ति से अधिक आन्यन्तिक (extremes) है।
(iv) केन्द्रित (centrality)-इससे तात्पर्य मनोवृत्ति की किसी खास तत्त्व के विशेष भूमिका से होता है। मनोवृत्ति के तीन तत्त्वों में कोई एक या दो तत्त्व अधिक प्रबल हो सकता है और तब वह अन्य दो तत्त्वों को भी अपनी ओर मोड़कर एक विशेष स्थिति उत्पन्न कर सकता है। जैसे, यदि किसी व्यक्ति को सहशिक्षा की गुणवत्ता में बहुत अधिक विश्वास है अर्थात् उसका संज्ञानात्मक तत्त्व प्रबल है तो अन्य दो तत्त्व भी इस प्रबलता के प्रभाव में आकर एक अनुकूल मनोवृत्ति के विकास में मदद करने लगेगा। स्पष्ट हुआ कि मनोवृत्ति के तत्वों की कुछ अपनी विशेषता होती है। इन तत्त्वों की विशेषताओं पर मनोवृत्ति को अनुकूल या प्रतिकूल होना प्रत्यक्ष रूप से आधृत होता है।
प्रश्न 20. व्यक्तित्व अध्ययन के एब्राहम मैसलो का मानवतावादी सिद्धान्त का वर्णन करें।
उत्तर: एब्राहम मैसलो ने व्यक्तित्व के सर्वांगीण स्वरूप को स्पष्ट करने के उद्देश्य से अपने मानवतावादी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उन्होंने व्यक्तित्व सिद्धान्त के प्रतिपादन के लिए स्वस्थ एवं सजीनात व्यक्तियों का अध्ययन किया। मैसलो ने मानवीय अभिप्रेरणा का सिद्धान्त प्रतिपादित कर व्यक्तित्व गत्यात्मकता को प्रदर्शित करने का प्रयास किया है। उन्होंने अपने इस सिद्धान्त में आवश्यकताओं को पदानुक्रम में व्यवस्थित कर यह बताने का प्रयास किया है कि प्रत्येक व्यक्ति में उच्च स्तरीय आवश्यक को प्राप्त करने की सभावनाएँ रहता है। लेकिन व्यक्ति की उच्च स्तरीय आवश्यकताओं की पूर्ति तभी संभव होता है जब निम्न स्तरीय आवयकताओं की पूर्ति हो जाती है।
मैसलो के अनुसार निम्नस्तरीय आवश्यकताओं में भूख, प्यास, सुरक्षा, सम्बन्धन तथा सम्मान आते हैं जबकि उच्च स्तरीय आवश्यकताओं में न्याय, अच्छाई, सुन्दरता तथा एकता आदि आते हैं। आवश्यकता की पूर्ति वास्तव में व्यक्ति के जीवन का चरम बिन्दु होता है। मैसलो ने इसे ही आत्मस्ति की आवश्यकता कहा है, जिसे आवश्यकता पदानुक्रम में सर्वोच्च आवश्यकता माना गया है। जब आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती है तो व्यक्ति अस्वस्थ हो जाता है और अलगाव, पीड़ा, उदासीन सनकीपन आदि से ग्रस्त हो जाता है।
इस प्रकार निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि मैसलो का व्यक्तित्व सिद्धान्त अत्यधिक आशावादी, मानवतावादी एवं सर्वांगपूर्ण है। इसने व्यक्तित्व के स्वरूप का निरूपण करते हुए व्यक्ति पूर्णता के लिए आत्मसिद्धि को आवश्यक माना है।
प्रश्न 21. गार्डनर के द्वारा पहचान की गई बहु-बुद्धि की संक्षेप में व्याख्या कीजिए।
उत्तर: गार्डनर ने बहु-बुद्धि का सिद्धांत प्रस्तुत किया। उनके अनुसार बुद्धि एक तत्त्व नहीं है बल्कि कई भिन्न-भिन्न प्रकार की बुद्धियों का अस्तित्व होता है। प्रत्येक बुद्धि एक-दूसरे से स्वतंत्र रहकर कार्य करती है। इसका अर्थ यह है कि यदि किसी व्यक्ति में किसी एक बुद्धि की मात्रा अधिक है तो यह अनिवार्य रूप से इसका संकेत नहीं करता कि उस व्यक्ति में किसी अन्य प्रकार की बुद्धि अधिक होगी, कम होगी या कितनी होगी। गार्डनर ने यह भी बताया कि किसी समस्या का समाधान खोजने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की बुद्धियाँ आपस में अंत:क्रिया करते हुए साथ-साथ कार्य करती हैं। अपने-अपने क्षेत्रों में असाधारण योग्यताओं का प्रदर्शन करने वाले अत्यन्त प्रतिभाशाली व्यक्तियों के आधार पर गार्डनर ने बुद्धि को आठ प्रकार में विभाजित किया।
ये आठ प्रकार की बुद्धि इस प्रकार से हैं-
(i) भाषागत (Linguistic)-यह अपने विचारों को प्रकट करने तथा दूसरे व्यक्तियों के विचारों को समझने हेतु प्रवाह तथा नम्यता के साथ भाषा का उपयोग करने की क्षमता है। जिन व्यक्तियों में यह बुद्धि अधिक होती है वे ‘शब्द-कुशल’ होते हैं। ऐसे व्यक्ति शब्दों के भिन्न-भिन्न अर्थों के प्रति संवेदनशील होते हैं, अपने मन में भाषा के बिंबों का निर्माण कर सकते हैं और स्पष्ट तथा परिशुद्ध भाषा का उपयोग करते हैं। लेखकों तथा कवियों में यह बुद्धि अधिक मात्रा में होती है।
(ii) तार्किक-गणितीय (Logical & mathematical)-इस प्रकार की बुद्धि की अधिक मात्रा रखने वाले व्यक्ति तार्किक तथा आलोचनात्मक चिंतन कर सकते हैं। वे अमूर्त तर्कना कर लेते हैं और गणितीय समस्याओं के हल के लिए प्रतीकों का प्रहस्तन अच्छी प्रकार से कर लेते हैं। वैज्ञानिकों तथा नोबेल पुरस्कार विजेताओं में इस प्रकार की बुद्धि अधिक पाई जाने की संभावना रहती है।
(iii) देशिक (Spatial)-यह मानसिक बिंबों को बनाने, उनका उपयोग करने तथा उनमें मानसिक धरातल पर परिमार्जन करने की योग्यता है। इस बुद्धि को अधिक मात्रा में रखने वाला व्यक्ति सरलता से देशिक सूचनाओं को अपने मस्तिष्क में रख सकता है। विमान-चालक, नाविक, मूर्तिकार, चित्रकार, वास्तुकार, आंतरिक साज-सज्जा के विशेषज्ञ, शल्य-चिकित्सा आदि में इस बुद्धि के अधिक पाए जाने की संभावना होती है।
(iv) संगीतात्मक (Musical)-सांगीतिक अभिरचनाओं को उत्पन्न करने, उनका सर्जन तथा प्रहस्तन करने की क्षमता सांगीतिक योग्यता कहलाती है। इस बुद्धि की उच्च मात्रा रखने वाले लोग ध्वनियों, स्पंदनों तथा ध्वनियों की नई अभिरचनाओं के सर्जन के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं।
(v) शारीरिक-गतिसंवेदी (bodily-kinesthetic)-किसी वस्तु अथवा उत्पाद के निर्माण के लिए अथवा मात्र शारीरिक प्रदर्शन के लिए संपूर्ण शरीर अथवा उसके किसी एक अथवा एक से अधिक अंग की लोच तथा पेशीय कौशल की योग्यता शारीरिक गतिसंवेदी योग्यता कही जाती है। धावकों, नर्तकों, अभिनेताओं/अभिनेत्रियों, खिलाड़ियों, जिमनास्टों तथा शल्य-चिकित्सकों में इस बुद्धि की अधिक मात्रा पाई जाती है।
(vi) अंतर्वैयक्तिक (Interpersonal)–इस योग्यता द्वारा व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों की अभिप्रेरणाओं या उद्देश्यों, भावनाओं तथा व्यवहारों का सही बोध करते हुए उनके साथ मधुर संबंध स्थापित करता है। मनोवैज्ञानिक, परामर्शदाता, राजनीतिज्ञ, सामाजिक कार्यकर्ता तथा धार्मिक नेता आदि में उच्च अंतर्वैयक्तिक बुद्धि पाए जाने की संभावना होती है।
(vii) अंत:व्यक्ति (Interperson)-इस योग्यता के अंतर्गत व्यक्ति को अपनी शक्ति तथा कमजोरियों का ज्ञान और उस ज्ञान का दूसरे व्यक्तियों के साथ सामाजिक अंत:क्रिया में उपयोग करने का ऐसा कौशल सम्मिलित है जिससे वह अन्य व्यक्तियों से प्रभावी संबंध स्थापित करता है। इस बुद्धि की अधिक मात्रा रखने वाले व्यक्ति अपनी अनन्यता या पहचान, मानव अस्तित्व और जीवन के अर्थों को समझने में अति संवेदनशील होते हैं। दार्शनिक तथा आध्यात्मिक नेता आदि में इस प्रकार की उच्च बुद्धि देखी जा सकती है।
(viii) प्रकृतिवादी (Naturalistic)-इस बुद्धि का तात्पर्य प्राकृतिक पर्यावरण से हमारे संबंधों की पूर्ण अभिज्ञता से है। विभिन्न पशु-पक्षियों तथा वनस्पतियों के सौंदर्य का बोध करने में तथा प्राकृतिक पर्यावरण में सूक्ष्म विभेद करने में यह बुद्धि सहायक होती है। शिकारी, किसान, पर्यटक, वनस्पति-विज्ञानी, प्राणीविज्ञानी और पक्षीविज्ञानी आदि में प्रकृतिवादी बुद्धि अधिक मात्रा में होती है।
प्रश्न 22. अभिक्षमता’ अभिरुचि और बुद्धि से कैसे भिन्न है? अभिक्षमता का मापन कैसे किया जाता है?
उत्तर: अभिक्षमता क्रियाओं के किसी विशेष क्षेत्र की विशेष योग्यता को कहते हैं। अभिक्षमता विशेषताओं का ऐसा संयोजन है जो व्यक्ति द्वारा प्रशिक्षण के उपरांत किसी विशेष क्षेत्र के ज्ञान अथवा कौशल के अर्जन की क्षमता को प्रदर्शित करता है। अभिक्षमताओं का मापन कुछ विशिष्ट परीक्षणों द्वारा किया जाता है। किसी व्यक्ति की अभिक्षमता के मापन से इसमें उसके द्वारा भविष्य में किए जाने वाले निष्पादन का पूर्वकथन करने में सहायता मिलती है।
बुद्धि का मापन करने की प्रक्रिया में मनोवैज्ञानिकों को यह ज्ञान होता है कि समाज बुद्धि रखने वाले व्यक्ति भी किसी विशेष क्षेत्र के ज्ञान अथवा कौशलों की भिन्न-भिन्न रक्षता के साथ अर्जित करते हैं। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की विशिष्ट योग्यताएँ तथा कौशल ही अभिक्षमताएँ कहलाती हैं। उचित प्रशिक्षण देकर उन योग्यताओं में पर्याप्त अभिवृद्धि की जा सकती है।
किसी विशेष क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए व्यक्ति में अभिक्षमता के साथ-साथ अभिरुचि (Interest) का होना भी आवश्यक है। अभिरुचि किसी विशेष कार्य को करने की वरीयता या तरजीह को कहते हैं जबकि अभिक्षमता उस कार्य को करने की संभाव्यता या विभवता को कहते हैं। किसी व्यक्ति में किसी कार्य को करने की अभिरुचि हो सकती है परन्तु हो सकता है कि उसे करने की अभिक्षमता उसमें न हो। इसी प्रकार यह भी संभव है कि किसी व्यक्ति में किसी कार्य को करने की अभिक्षमता हो परंतु उसमें उसकी अभिरुचि न हो। उन दोनों ही दशाओं में उसका निष्पादन संतोषजनक नहीं होगा। एक ऐसे विद्यार्थी की सफल यांत्रिक अभियंता बनने की अधिक संभावना है जिसमें उच्च यांत्रिक अभिक्षमता हो और अभियांत्रिकी में उसकी अभिरुवि भी हो।
अभिक्षमता परीक्षण दो रूपों में प्राप्त होते हैं–स्वतंत्र (विशेषीकृत) : अभिक्षमता परीक्षण तथा बहुल (सामान्यीकृत) अभिक्षमता परीक्षण। लिपिकीय अभिक्षमता, यांत्रिक अभिक्षमता, आकिक अभिक्षमता तथा टंकण अभिक्षमता आदि के परीक्षण स्वतंत्र अभिक्षमता परीक्षण है! बहुल अभिक्षमता परीक्षणों में एक परीक्षणमाला होती है जिससे अनेक भिन्न-भिन्न प्रकार की परंतु समजातीय क्षेत्रों में अभिक्षमता का मापन किया जाता है। विभेदन अभिक्षमता परीक्षण (डी. ए. टी.), सामान्य अभिक्षमता परीक्षणमाला (जी. ए. टी. बी.) तथा आर्ड सर्विसेस व्यावसायिक अभिक्षमता परीक्षणमाला (ए. एस. बी. ए. बी) आदि प्रसिद्ध अभिक्षमता परीक्षण मालाएँ हैं। इनमें से शैक्षिक पर्यावरण में विभेदक अभिक्षमता परीक्षण का सर्वाधिक उपयोग किया जाता है । इस परीक्षण में 8 स्वतंत्र उप परीक्षण हैं। ये हैं-
- शब्द तर्कना।
- आकिक तर्कना।
- अमूर्त तर्कना।
- लिपिकीय गति एवं परिशुद्धता।
- यांत्रिक तर्कना।
- देशिक या स्थानिक संबंध।
- वर्तनी।
- भाषा का उपयोग।
प्रश्न 23. आत्म-सम्मान से आपका क्या तात्पर्य है? आत्म-सम्मान का हमारे दैनिक जीवन के व्यवहारों से किस प्रकार संबंधित है? वर्णन कीजिए।
उत्तर: आत्म-सम्मान हमारे आत्म का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है। व्यक्ति के रूप में हम सदैव अपने मूल्य या मान और अपनी योग्यता के बारे में निर्णय का आकलन करते रहते हैं। व्यक्ति का अपने बारे में यह मूल्य-निर्णय ही आत्म-सम्मान कहा जाता है। कुछ लोगों में आत्म-सम्मान उच्च स्तर का जबकि कुछ अन्य लोगों में आत्म-सम्मान निम्न स्तर का पाया जाता है।
किसी व्यक्ति के आत्म-सम्मान का मूल्यांकन करने के लिए व्यक्ति के समक्ष विविध प्रकार के कथन प्रस्तुत किये जाते हैं और उसके संदर्भ में सही है, यह बताइए। उदाहरण के लिए, किसी बालक/बालिका से ये पूछा जा सकता है कि “मैं गृह कार्य करने में अच्छा हूँ” अथवा “मुझे अक्सर विभिन्न खेलों में भाग लेने के लिए चुना जाता है” अथवा “मेरे सहपाठियों द्वारा मुझे बहुत पसंद किया जाता है” जैसे कथन उसके संदर्भ में किस सीमा तक सही हैं। यदि बालक/बालिका यह बताता/बताती है कि ये कथन उसके संदर्भ में सही है तो उसका आत्म-सम्मान उस दूसरे बालक/बालिका की तुलना में अधिक होगा जो यह बताता/बताती है कि यह कथन उसके बारे में सही नहीं हैं।
छः से सात वर्ष तक के बच्चों में आत्म-सम्मान चार क्षेत्रों में निर्मित हो जाता है-शैक्षिक क्षमता, सामाजिक क्षमता, शारीरिक/खेलकूद संबंधी क्षमता और शारीरिक रूप जो आयु के बढ़ने के साथ-साथ और अधिक परिष्कृत होता जाता है। अपनी स्थिर प्रवृत्तियों के रूप में अपने प्रति धारणा बनाने की क्षमता हमें भिन्न-भिन्न आत्म-मूल्यांकनों को जोड़कर अपने बारे में एक सामान्य मनोवैज्ञानिक प्रतिमा निर्मित करने का अवसर प्रदान करती है। इसी को हम आत्म-सम्मान की समग्र भावना के रूप में जानते हैं।
आत्म-सम्मान हमारे दैनिक जीवन के व्यवहारों से अपना घनिष्ठ संबंध प्रदर्शित करता है। उदाहरण के लिए जिन बच्चों में उच्च शैक्षिक आत्म-सम्मान होता है उनका निष्पादन विद्यालयों में निम्न आत्म-सम्मान रखने वाले बच्चों की तुलना में अधिक सम्मान होता है और जिन बच्चों में उच्च सामाजिक आत्म-सम्मान होता है उनको जिन बच्चों में उच्च सामाजिक आत्म-सम्मान होता है उनको निम्न सामाजिक आत्म-सम्मान रखने वाले बच्चों की तुलना में सहपाठियों द्वारा अधिक पसंद किया जाता है। दूसरी तरफ, जिन बच्चों में सभी क्षेत्रों में निप्न आत्म-सम्मान होता है उनमें दुश्चिता, अवसाद और समाजविरोधी व्यवहार पाया जाता है! अध्ययनों द्वारा प्रदर्शित किया गया है कि जिन माता-पिता द्वारा स्नेह के साथ सकारात्मक ढंग से बच्चों का पालन-पोषण किया गया है ऐसे बालकों में उच्च आत्म-सम्मान विकसित होता है। क्योंकि ऐसा होने पर बच्चों द्वारा सहायता न माँगने पर भी यदि उनके निर्णय स्वयं लेते हैं तो ऐसे बच्चों में निम्न आत्म-सम्मान पाया जाता है।
प्रश्न 24. व्यक्तित्व के मानवतावादी उपागम की प्रमुख प्रतिज्ञप्ति क्या है? आत्मसिद्धि से मैस्लो का क्या तात्पर्य था?
उत्तर: मानवतावादी सिद्धांत मुख्यतः फायड के सिद्धांत के प्रत्युत्तर में विकसित हुए। व्यक्तित्व के संदर्भ में मानवतावादी परिप्रेक्ष्य के विकास में लार्य रोजर्स और अब्राहम मैस्लो ने विशेष रूप से योगदान किया है। रोजर्स द्वारा प्रस्तावित सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विचार एक पूर्णतः प्रकार्यशील व्यक्ति का है। उनका विश्वास है कि व्यक्तित्व के विकास के लिए संतुष्टि अभिप्रेरक शक्ति है। लोग अपनी क्षमताओं, संभाव्यताओं और प्रतिभाओं को संभव सवोत्कृष्ट तरीके से अभिव्यक्त करने का प्रयास करते हैं! व्यक्तियों में एक सहज प्रवृत्ति होती है जो उन्हें अपने वंशागत प्रकृति की सिद्धि या प्राप्ति के लिए निर्दिष्ट करती है।
मानव व्यवहार के बारे में रोजर्स ने दो आधारभूत अभिगृह निर्मित किए हैं। एक यह लि व्यवहार लक्ष्योन्मुख और सार्थक होता है और दूसरा यह कि लोग (जो सहज रूप से अच्छे होते हैं) सदैव अनुकली तथा आत्मसिद्धि वाले व्यवहार का चयन करेंगे।
रोजर्स का सिद्धांत उनके निदानशाला में रोगियों को सुनते हुए प्राप्त अनुभवों से विकसित हुआ है। उन्होंने यह ध्यान दिया कि उनके सेवार्थियों के अनुभव में आत्म एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व था। इस प्रकार, उनका सिद्धांत आत्म के संप्रत्यय के चतुर्दिक संरचित है ! उनके सिद्धांत का अभिग्रह है कि लोग सतत अपने वास्तविक आत्म की सिद्धि या प्राप्ति की प्रक्रिया में लगे रहते हैं।
रोजर्स ने सुझाव दिया है कि प्रत्येक व्यक्ति के पास आदर्श अहं या आत्म का एक संप्रत्यय होता है। एक आदर्श आत्म वह आत्म होता है जो कि एक व्यक्ति बनना अथवा होना चाहता है। जब वास्तविक आत्म और आदर्श आत्म के बीच समरूपता होती है तो व्यक्ति सामान्यतया प्रसन्न रहता है, किन्तु दोनों प्रकार के आत्म के बीच विसंगति के कारण प्रायः अप्रसन्नता और असंतोष की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। रोजर्स का एक आधारभूत सिद्धांत है कि लोगों में आत्मसिद्धि के माध्यम से आत्म-संप्रत्यय को अधि कतम सीमा तक विकसित करने की प्रवृत्ति होती है। इस प्रक्रिया में आत्म विकसित, विस्तारित और अधिक सामाजिक हो जाता है।
रोजर्स व्यक्तित्व-विकास को एक सतत् प्रक्रिया के रूप में देखते हैं। इसमें अपने आपका मूल्यांकन करने का अधिगम और आत्मसिद्धि को प्रक्रिया में प्रवीणता सन्निहित होती है। आत्म-संप्रत्यय के विकास में सामाजिक प्रभावों की भूमिका को उन्होंने स्वीकार किया है। जब सामाजिक दशाएँ अनुकूल होती हैं, तब आत्म-संप्रत्यय और आत्म-सम्मान उच्च होता है। इसके विपरीत, जब सामाजिक दशाएँ प्रतिकूल होती हैं, तब आत्म-संप्रत्यय और आत्म-सम्मान निम्न होता है। उच्च आत्म-संप्रत्यय
और आत्म-सम्मान रखने वाले लोग सामान्यता नम्य एवं नए अनुभवों के प्रति मुक्त भाव से ग्रहणशील होते हैं ताकि वे अपने सतत् विकास और आत्मसिद्धि में लगे रह सकें।
मैस्लो ने आत्मसिद्धि की लब्धि या प्राप्ति के रूप में मनोवैज्ञानिक रूप से स्वस्थ लोगों की एक विस्तृत व्याख्या दी है। आत्मसिद्धि वह अवस्था होती है जिसमें लोग अपनी संपूर्ण संभाव्यताओं को विकसित कर चुके होते हैं। मैस्लो ने मनुष्यों का एक आशावादी और सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित किया है जिसके अंतर्गत मानव में प्रेम, हर्ष और सर्जनात्मक कार्यों को करने की आत्मसिद्धि को प्राप्त करने में स्वतंत्र माने गए हैं। अभिप्रेरणाओं, जो हमारे जीवन को नियमित करती हैं, के विश्लेषण के द्वारा आत्यसिद्धि को संभव बनाया जा सकता है हम जानते हैं कि जैविक सुरक्षा और आत्मीयता की आवश्यकताएँ (उत्तरजीविता आवश्यकताएँ) पशुओं और मनुष्यों दोनों में पाई जाती हैं। अतएव किसी व्यक्ति का मात्र पुनः आवश्यकताओं की संतुष्टि में संलग्न होना उसे पशुओं के स्तर पर ले आता है। मानव जीवन की वास्तविक यात्रा आत्म-सम्मान और.आत्मसिद्धि जैसी आवश्यकताओं के अनुसरण से आरंभ होती है। मानवतावादी उपागम जीवन के सकारात्मक पक्षों के महत्त्व पर बल देता है।
प्रश्न 25. व्यक्तित्व के अध्ययन के प्रमुख उपागमों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: व्यक्तित्व के अध्ययन के प्रमुख उपागम निम्न हैं-
(i) प्रारूप उपागम- व्यक्ति के प्रेक्षित व्यवहारपरक विशेषताओं के कुछ व्यापक स्वरूपों का परीक्षण कर मानव व्यक्तित्व को समझने का प्रयास करता है। प्रत्येक व्यवहारपरक स्वरूप व्यक्तित्व के किसी एक प्रकार को इंगित करता है जिसके अंतर्गत उस स्वरूप की व्यवहारपरक विशेषता की समानता के आधार पर व्यक्तियों को रखा जाता है।
(ii) विशेषक उपागम-विशिष्ट मनोवैज्ञानिक गुणों पर बल देता है जिसके आधार पर व्यक्ति संगत और स्थिर रूपों में भिन्न होते हैं। उदाहरणार्थ, एक व्यक्ति कम शर्मीला हो सकता है जबकि दूसरा अधिक; एक व्यक्ति अधिक मैत्रीपूर्ण व्यवहार कर सकता है और दूसरा कम। यहाँ ‘शर्मीलापन’ और ‘मैत्रीपूर्ण व्यवहार’ विशेषकों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसके आधार पर व्यक्तियों में संबंधित व्यवहारपरक गुणों या विशेषकों की उपस्थिति या अनुपस्थिति की मात्रा का मूल्यांकन किया जा सकता है।
(iii) अंतःक्रियात्मक उपागम- इसके अनुसार स्थितिपरक विशेषताएँ हमारे व्यवहारों को निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। लोग स्वतंत्र अथवा आश्रित प्रकार का व्यवहार करेंगे यह उनके
आंतरिक व्यक्तित्व विशेषक पर निर्भर नहीं करता है बल्कि इस पर निर्भर करता है कि किसी विशिष्ट स्थिति में बाह्य पुरस्कार अथवा खतरा उपलब्ध है कि नहीं। भिन्न-भिन्न स्थितियों में विशेषकों को लेकर संगति अत्यंत निम्न पाई जाती है। बाजार में न्यायालय में अथवा पूजास्थलों पर लोगों के व्यवहारों का प्रेक्षण कर स्थितियों के अप्रतिरोध्य प्रभाव को देखा जा सकता है।
प्रश्न 26. व्यक्तित्व के पंच-कारक मॉडल का वर्णन कीजिए।
उत्तर: पॉल कॉस्टा तथा राबर्ट मैक्रे ने सभी संभावित व्यक्तित्व विशेषकों की जाँच कर पाँच कारकों के एक समुच्चय के बारे में जानकारी दी है। इनको वृहत् पाँच कारकों के नाम से जाना जाता है। ये पाँच कारक निम्न हैं-
- अनुभवों के लिए खुलापन- जो लोग इस कारक पर उच्च अंक प्राप्त करते हैं वे कल्पनाशील, उत्सुक, नए विचारों के प्रति उदारता एवं सांस्कृतिक क्रियाकलापों में अभिरुचि लेने वाले व्यक्ति होते हैं। इसके विपरीत, कम अंक प्राप्त करने वाले व्यक्तियों में अनन्मयता पाई जाती है। –
- बहिर्मुर्खता- यह विशेषता उन लोगों में पाई जाती है जिनमें सामाजिक सक्रियता, आग्रहित, बर्हिगमन, बातूनीपन और आमोद-प्रमोद के प्रति पसंदगी पाई जाती है। इसके विपरीत ऐसे लोग होते हैं जो शर्मीले और संकोची होते हैं।
- सहमतिशीलता- यह कारक लोगों की उन विशेषताओं को बताता है जिनमें सहायता करने, सहयोग करने, मैत्रीपूर्ण व्यवहार करने, देखभाल करने एवं पोषण करने जैसे व्यवहार सम्मिलित होते हैं। इसके विपरीत वे लोग होते हैं जो आक्रामक और आत्म-केंद्रित होते हैं।
- तंत्रिकाताप- इस कारक पर उच्च अंक प्राप्त करने वाले लोग सांवेगिक रूप से अस्थिर, परेशान, भयभीत, दुःखी, चिड़चिड़े और तनावग्रस्त होते हैं। इसके विपरीत प्रकार के लोग सुसमायोजित होते हैं।
- अंतर्विवेकशीलता- इस कारक पर उच्च अंक प्राप्त करने वाले लोगों में उपलब्धि उन्मुखता, निर्भरता, उत्तरदायित्व, दूरदर्शिता, कर्मठता और आत्म-नियंत्रता पाया जाता है। इसके विपरीत, कम अंक प्राप्त करने वाले लोगों में आवेग पाया जाता है।
व्यक्तित्व के क्षेत्र में यह पंच-कारक मॉडल एक महत्त्वपूर्ण सैद्धांतिक विकास का प्रतिनिधित्व करते हैं। विभिन्न संस्कृतियों में लोगों के व्यक्तित्व को समझने के लिए यह मॉडल अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ है। विभिन्न संस्कृतियों एवं भाषाओं में उपलब्ध व्यक्तित्व विशेषकों के विश्लेषण से यह मॉडल संगत है और विभिन्न विधियों से किए गए व्यक्तित्व के अध्ययन भी मॉडल का समर्थन करते हैं। अतएव आज व्यक्तित्व के अध्ययन के लिए यह मॉडल सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण आनुभविक उपागम माना जाता है।
प्रश्न 27. दबाव के लक्षणों तथा स्रोतों का वर्णन कीजिए।
उत्तर: दबाव के लक्षण- हर व्यक्ति की दबाव के प्रति अनुक्रिया उसके व्यक्तित्व पालन-पोषण तथा जीवन के अनुभवों के आधार पर भिन्न-भिन्न होती है। प्रत्येक व्यक्ति के दबाव अनुक्रियाओं के अलग-अलग प्रतिरूप होते हैं। अतः चेतावनी देने वाले संकेत तथा उनकी तीव्रता भी भिन्न-भिन्न होती है। हममें से कुछ व्यक्ति अपनी दबाव अनुक्रियाओं को पहचानते हैं तथा अपने लक्षणों की गंभीरता तथा प्रकृति के आधार पर अथवा व्यवहार में परिवर्तन के आधार पर समस्या की गहनता का आकलन कर लेते हैं। दबाव के ये लक्षण शारीरिक, संवेगात्मक तथा व्यवहारात्मक होते हैं। कोई भी लक्षण,दबाव की प्रबलता को ज्ञापित कर सकता है, जिसका यदि निराकरण न किया जाए तो उसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं।
दबाव के स्रोत- दबाव के निम्नलिखित स्रोत हो सकते हैं-
(i) जीवन घटनाएँ- जब से हम पैदा होते हैं, तभी से बड़े और छोटे, एकाएक उत्पन्न होने वाले और धीरे-धीरे घटित होने वाले परिवर्तन हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं। हम छोटे तथा दैनिक होने वाले परिवर्तनों का सामना करना तो सीख लेते हैं किन्तु जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाएँ दबावपूर्ण हो सकती हैं। क्योंकि वे हमारी दिनचर्या को बाधित करती हैं और उथल-पुथल मचा देती हैं। यदि इस प्रकार ही कई घटनाएँ चाहे वे योजनाबद्ध हों (जैसे-घर बदलकर नए घर में जाना) या पूर्वानुमानित न हो (जैसे-किसी दीर्घकालिक संबंध का टूट जाना) कम समय अवधि में घटित होती हैं, तो हमें उनका सामना करने में कठिनाई होती है तथा हम दबाव के लक्षणों के प्रति अधिक प्रवीण होते हैं।
(ii) परेशान करने वाली घटनाएँ- इस प्रकार के दबावों की प्रकृति व्यक्तिगत होती है, जो अपने दैनिक जीवन में घटने वाली घटनाओं के कारण बनी रहती है। कोलाहलपूर्ण परिवेश, प्रतिदिन का आना-जाना, झगड़ालू पड़ोसी, बिजली-पानी की कमी, यातायात की भीड़-भाड़ इत्यादि ऐसी कष्टप्रद घटनाएँ हैं। एक गृहस्वामिनी को भी अनेक ऐसी आकस्मिक कष्टप्रद घटनाओं का अनुभव करना पड़ता . है। कभी-कभी ऐसी परेशानियों का बहुत तबाहीपूर्ण परिणाम उस व्यक्ति के लिए होता है जो उन
घटनाओं का सामना करता है क्योंकि बाहरी दूसरे व्यक्तियों को इन परेशानियों की जानकारी भी नहीं होती। जो व्यक्ति इन परेशानियों के कारण जितना ही अधिक दबाव अनुभव करता है उतना ही अधिक उसका मनोवैज्ञानिक कुशल-क्षेम निम्न स्तर का होता है।
(iii) अभिघातज घटनाएँ- इनके अंतर्गत विभिन्न प्रकार की गंभीर घटनाएँ जैसे-अग्निकांड, रेलगाड़ी या सड़क दुर्घटना, लूट, भूकंप, सुनामी इत्यादि सम्मिलित होती हैं। इस प्रकार की घटनाओं का प्रभाव कुछ समय बीत जाने के बाद दिखाई देता है तथा कभी-कभी ये प्रभाव दुश्चिता, अतीतावलोकन, स्वप्न तथा अंतर्वेधी विचार इत्यादि के रूप में सतत रूप से बने रहते हैं। तीव्र अभिघातों के कारण संबंधों में भी तनाव उत्पन्न हो जाते हैं। इनका सामना करने के लिए विशेषज्ञों की सहायता की आवश्यकता पड़ सकती है, विशेष रूप से जब वे घटना के पश्चात् महीनों तक सतत् रूप से बने रहें।
प्रश्न 28. दबाव शब्द से आपका क्या तात्पर्य है? दबाव की प्रकृति का वर्णन कीजिए।
उत्तर: दबाव अंग्रेजी भाषा के शब्द स्ट्रेस (Stress) की व्युत्पत्ति, लैटिन शब्द ‘स्ट्रिक्टस’ (Strictus) जिसका अर्थ है तंग या संकीर्ण, तथा ‘स्ट्रिन्गर’ (Stringer) जो क्रियापद है, जिसका अर्थ है कसना, से हुई है। यह मूल शब्द अनेक व्यक्तियों द्वारा दबाव अवस्था में वर्णित मांसपेशियों तथा श्वसन की कसावट तथा संकुचन की आंतरिक भावनाओं को प्रतिबिंबित करना है। प्राय: दबाव को पर्यावरण की उन विशेषताओं के द्वारा भी समझाया जाता है जो व्यक्ति के लिए विघटनकारी होती हैं। दबावकारक वे घटनाएँ हैं जो हमारे शरीर में दबाव उत्पन्न करती हैं। ये शोर, भीड़,खराब संबंध या रोज स्कूल अथवा दफ्तर जाने की घटनाएँ हो सकती हैं।
दबाव कारण तथा प्रभाव दोनों से संबद्ध हो गया है तथापि दबाव का यह दृष्टिकोण भ्रांति उत्पन्न कर सकता है। हेंस सेल्ये (Hans Selye), जो आधुनिक दबाव शोध के जनक कहे जाते हैं, ने दबाव को इस प्रकार परिभाषित किया है कि यह “किसी भी माँग के प्रति शरीर की अविशिष्ट अनुक्रिया है”
अर्थात खतरे का कारण चाहे जो भी हो व्यक्ति प्रतिक्रियाओं के समान शरीर क्रियात्मक प्रतिरूप से अनुक्रिया करेगा। अनेक शोधकर्ता इस परिभाषा से सहमत नहीं हैं क्योंकि उनका अनुभव है कि दबाव के प्रति अनुक्रिया उतनी सामान्य तथा अविशिष्ट नहीं होती है जितना सेल्ये का मत है। भिन्न-भिन्न दबावकारक दबाव प्रतिक्रिया के भिन्न-भिन्न प्रतिरूप उत्पन्न कर सकते हैं एवं भिन्न व्यक्तियों की अनुक्रियाएँ विशिष्ट प्रकार की हो सकती हैं। हममें से प्रत्येक व्यक्ति परिस्थिति को अपनी दृष्टि से देखेगा और माँगों तथा उनका सामना करने की हमारी क्षमता का प्रत्यक्षण ही यह निर्धारित करेगा कि हम दबाव महसूस कर रहे हैं अथवा नहीं।
दबाव कोई ऐसी घटक नहीं है जो व्यक्ति के भीतर या पर्यावरण में पाया जाता है। इसके बजाय, यह एक सतत चलने वाली प्रक्रिया में सन्निहित है जिसके अंतर्गत व्यक्ति अपने सामाजिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरणों में कार्य संपादन करता है। इन संघों का मूल्यांकन करता है तथा उनसे उत्पन्न होने वाली विभिन्न समस्याओं का सामना करने का प्रयास करता है। दबाव एक गत्यात्मक. मानसिक/संज्ञानात्मक अवस्था है। वह समस्थिति को विघटित करता है या एक ऐसा असंतुलन उत्पन्न करता है जिसके कारण उस असंतुलन के समाधान अथवा समस्थिति को पुनःस्थापित करने की आवश्यकता उत्पन्न होती है।
प्रश्न 29. मनोवैज्ञानिक प्रकार्यों पर दबाव के प्रभाव की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: मनोवैज्ञानिक प्रकार्यों पर दबाव के निम्नलिखित प्रभाव है-
(i) संवेगात्मक प्रभाव-वे व्यक्ति जो दबावग्रस्त होते हैं प्राय: आकस्मिक मन:स्थिति परिवर्तन का अनुभव करते हैं तथा सनकी की तरह व्यवहार करते हैं, जिसके कारण वे परिवार तथा मित्रों से विमुख हो जाते हैं। कुछ स्थितियों में इसके कारण एक दुश्चक्र प्रारंभ होता है जिससे विश्वास में कमी होती है तथा जिसके कारण फिर और भी गंभीर संवेगात्मक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं । उदाहरण के लिए, दुश्चिता तथा अवसाद की भावनाएँ, शारीरिक तनाव में वृद्धि, मनोवैज्ञानिक तनाव में वृद्धि तथा आकस्मिक मन:स्थिति परिवर्तन।
(ii) शरीर-क्रियात्मक प्रभाव-जब शारीरिक या मनोवैज्ञानिक दबाव मनुष्य के शरीर पर क्रियाशील होते हैं तो शरीर में कुछ हार्मोन, जैसे-एड्रिनलीन तथा कॉर्टिसोल का स्राव बढ़ जाता है। ये हार्मोन हृदयगति, रक्तचाप स्तर, चयापचय तथा शारीरिक क्रिया में विशिष्ट परिवर्तन कर देते हैं। जब हम थोडे समय के लिए दबावग्रस्त हों तो ये शारीरिक प्रतिक्रियाएँ कुशलतापूर्वक कार्य करने में सहायता करती हैं, किन्तु दीर्घकालिक रूप से यह शरीर को अत्यधिक नुकसान पहुंचा सकती हैं। एपिनेफरीन तथा नॉरएपिनेफरीन छोड़ना, पाचक-तंत्र की धीमी गति, फेफड़ों में वायुमार्ग का विस्तार, हृदयगति में वृद्धि तथा रक्त वाहिकाओं का सिकुड़ना, इस प्रकार के शरीर क्रियात्मक प्रभावों के उदाहरण हैं।
(iii) संज्ञानात्मक प्रभाव-यदि दबाव के कारण दाब (प्रेशर) निरंतर रूप से बना रहता है तो व्यक्ति मानसिक अतिभार से ग्रस्त हो जाता है। उच्च दबाव के कारण उत्पन्न यह पीड़ा, व्यक्ति में ठोस निर्णय लेने की क्षमता को तेजी से घट सकती है। घर में, जीविका में, अथवा कार्य स्थान में लिए गए गलत निर्णयों के द्वारा तर्क-वितर्क, असफलता, वित्तीय घाटा, यहाँ तक कि नौकरी की क्षति भी इसके परिणामस्वरूप हो सकती है। एकाग्रता में कमी तथा न्यूनीकृत अल्पकालिक स्मृति क्षमता भी दबाव के . संज्ञानात्मक प्रभाव हो सकते हैं।
(iv) व्यवहारात्मक प्रभाव-दबाव का प्रभाव हमारे व्यवहार पर कम पौष्टिक भोजन करने, उत्तेजित करने वाले पदार्थों, जैसे केफीन को अधिक सेवन एवं सिगरेट, मद्य तथा अन्य औषधियों; जैसे-उपशामकों इत्यादि के अत्यधिक सेवन करने में परिलक्षित होता है। उपशामक औषधियाँ व्यसन बन सकती हैं तथा उनके अन्य प्रभाव भी हो सकते हैं। जैसे-एकाग्रता में कठिनाई, समन्वय में कमी तथा घूर्णी या चक्कर आ जाना। दबाव के कुछ ठेठ या प्रारूपी व्यवहारात्मक प्रभाव, निद्रा-प्रतिरूपों में व्याघात, अनुपस्थिता में व्याघात, अनुपस्थिता में वृद्धि तथा कार्य निष्पादन में ह्रास हैं।
प्रश्न 30. विभिन्न जीवन कौशलों का वर्णन कीजिए। इन जीवन कौशलों से जीवन की चुनौतियों का सामना करने में किस प्रकार मदद मिलती है?
उत्तर: निम्नलिखित जीवन-कौशलों द्वारा जीवन की चुनौतियों का सामना करने में मदद मिलती है-
(i)आग्रहिता- आग्रहिता एक ऐसा व्यवहार या कौशल है जो हमारी भावनाओं, आवश्यकताओं, इच्छाओं तथा विचारों के सुस्पष्ट तथा विश्वासपूर्ण संप्रेषण में सहायक होता है। यह ऐसा योग्यता है कि जिसके द्वारा किसी के निवेदन को अस्वीकार करना, किसी विषय पर बिना आत्मचेतना के अपने मत को अभिव्यक्त करना या फिर खुलकर ऐसे संवेगों; जैसे-प्रेम, क्रोध इत्यादि को अभिव्यक्त करना संभव होता है। यदि कोई आग्रही हैं तो उसमें उच्च आत्म-विश्वास एवं आत्म-सम्मान तथा अपनी अस्मिता की एक अटूट भावना होती है।
(ii) समय प्रबंधन- कोई अपना समय जैसे व्यतीत करता है वह उसके जीवन की गुणवत्ता को निर्धारित करता है । समय का प्रबंधन तथा प्रत्यायोजित करना सीखने से, दबाव-मुक्त होने में परिवर्तन लाना है । समय दबाव कम करने का एक प्रमुख तरीका, समय के प्रत्यक्षण में परिवर्तन लाना है । समय प्रबंधन का प्रमुख नियम यह है कि हम जिन कार्यों को महत्त्व देते हैं, उनका परिपालन करने में समय लगाएँ या उन कार्यों को करने में जो हमारे लक्ष्य प्राप्ति में सहायक हों। हमें अपने जानकारियों की वास्तविकता का बोध हो तथा कार्य को निश्चित समयावधि मैं करें । यह स्पष्ट होना चाहिए कि हम क्या करना चाहते हैं तथा हम अपने जीवन में इन दोनों बातों में सामंजस्य स्थापित कर सकें, इन पर समय प्रबंधन निर्भर करता है।
(iii) सविवेक चिंतन- दबाव संबंधी अनेक. समस्याएँ विकृत चिंतन के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती हैं। व्यक्ति के चिंतन और अनुभव करने के तरीकों में घनिष्ठ संबंध होता है। जब हम दबाव का अनुभव करते हैं तो हमें अंत:निर्मित वर्णात्मक अभिनति होती है जिससे हमारा ध्यान भूतकाल के नकारात्मक विचारों तथा प्रतिमाओं पर केंद्रित हो जाता है, जो हमारे वर्तमान तथा भविष्य के प्रत्यक्षण को प्रभावित करता है । सविवेक चिंतन के कुछ नियम इस प्रकार हैं अपने विकृत चिंतन तथा अविवेकी विश्वासों को चुनौती देना, संभावित अंतर्वेधी दुश्चिता उत्तेजक विचारों को मन से निकालना तथा सकारात्मक कथन करना।
(iv) संबंधों में सुधार- संप्रेषण सदृढ और स्थायी संबंधों की कुंजी है। इसके अंतर्गत तीन अत्यावश्यक कौशल निहित हैं-सुनना कि दूसरा व्यक्ति क्या कह रहा है, अभिव्यक्त करना कि कोई कैसा सोचता है और महसूस करता है तथा दूसरों की भावनाओं और मतों को स्वीकारना चाहे वे स्वयं उसके अपने से भिन्न हों। इसमें हमें अनुचित ईर्ष्या और नाराजगीयुक्त व्यवहार से दूर रहने की जरूरत होती है।
(v) स्वयं की देखभाल- यदि हम स्वयं को स्वस्थ, दुरुस्त तथा विश्रांत रखते हैं तो हमें दैनिक जीवन के दबावों का सामना करने के लिए शारीरिक एवं सांवेगिक रूप से और अच्छी तरह तैयार रहते हैं। हमारे श्वसन का प्रतिरूप हमारी मानसिक तथा सांवेगिक स्थिति को परिलक्षित करता है जब हम दबावग्रस्त अथवा दुश्चितित होते हैं तो हमारा श्वसन और तेज हो जाता है, जिसके बीच-बीच में अक्सर आँहें भी निकलती रहती हैं। सबसे अधिक विश्रांत श्वसन मंद, मध्यपट या डायफ्रम, अर्थात सीना और उदर गुहिका के बीच.एवं गुंबदकार पेशी से उदर-केंद्रित श्वसन होता है। पर्यावरणी दबाव, जैसे-शेर, प्रदूषण, दिक् प्रकार, वर्ण इत्यादि सब हमारी मन:स्थिति को प्रभावित कर सकते हैं। इनका निश्चित प्रभाव दबाव का सामना करने की हमारी क्षमता तथा कुशल-क्षेम पर पड़ता है।
प्रश्न 31. प्रतिरक्षक तंत्र को दबाव कैसे प्रभावित करता है?
उत्तर: दबाव के कारण प्रतिरक्षक तंत्र की कार्यप्रणाली दुर्बल हो जाती है जिसके कारण बीमारी उत्पन्न हो सकती है। प्रतिरक्षक तंत्र शरीर के भीतर तथा बाहर से होने वाले हमलों से शरीर की रक्षा करता है। मनस्तंत्रिका प्रतिरक्षा विज्ञान (Psycho neuro immunology) मन, मस्तिष्क और प्रतिरक्षक तंत्र के बीच संबंधों पर ध्यान केंद्रित करता है यह प्रतिरक्षक तंत्र पर दबाव के प्रभाव का अध्ययन करता है। प्रतिरक्षक तंत्र में श्वेत रक्त कोशिकाएँ या श्वेताणु (Antibodies) बाह्य तत्त्वों (एंटीजेन), जैसे वाइरस को पहचान कर नष्ट करता है।
इनके द्वारा रोगप्रतिकारकों (antibodies) का निर्माण भी होता है। तिरक्षक तंत्र में ही टी-कोशिकाएँ, बी-कोशिकाएँ हमला करने वाली को नष्ट करती हैं, तथा टी-सहायक कोशिकाएँ प्रतिरक्षात्मक क्रियाओं में वृद्धि करती हैं। इन्हीं टी-सहायक कोशिकाओं पर ह्यूमन इम्यूनो डेफिशिएंसी वाइरस (एच. आई. वी.) हमला करते हैं, जो कि एक्वायर्ड इम्यूनो डेफिशिएंसी सिंडोम (एड्स) के कारक हैं। बी-कोशिकाएँ रोगप्रतिकारकों का निर्माण करती हैं। प्राकृतिक रूप से नष्ट करने वाली कोशिकाएँ वाइरस तथा अर्बुद या ट्यूमर दोनों के विरुद्ध लड़ाई करती हैं।
दबाव के कारण प्राकृतिक रूप से नष्ट करने वाली कोशिकाओं की कोशिका-विषाक्तता प्रभावित हो सकती है, जो प्रमुख संक्रमणों तथा कैंसर से रक्षा में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होती है । अत्यधिक उच्च दबाव से ग्रस्त व्यक्तियों में, प्राकृतिक रूप से नष्ट करने वाली कोशिकाओं की कोशिका-विषाक्तता में भारी कमी पाई गई है। यह उन विद्यार्थियों, जो महत्त्वपूर्ण परीक्षाओं में बैठने जा रहे हैं, शोकसंतृप्त व्यक्तियों तथा जो गंभीर रूप से अवसादग्रस्त हैं में भी पाई गई है । अध्ययन यह प्रदर्शित करते हैं कि प्रतिरक्षक तंत्र की क्रियाशीलता उन व्यक्तियों में बेहतर पाई जाती है जिन्हें सामाजिक अवलंब उपलब्ध रहती है। इसके अतिरिक्त प्रतिरक्षक तंत्र में परिवर्तन उन व्यक्तियों के स्वास्थ्य को अधिक प्रभावित करता है जिनका प्रतिरक्षक तंत्र पहले से ही दुर्बल हो चुका है। नकारात्मक संवेगों सहित, दबाव हार्मोन का स्राव होना जिनके द्वारा प्रतिरक्षक तंत्र दुर्बल होता है, जिसके परिणामस्वरूप मानसिक तथा शारीरिक स्वास्थ्य प्रभावित होते हैं।
प्रश्न 32. दबाव के विभिन्न प्रकारों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: दबाव मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं। ये हैं-
(i) भौतिक एवं पर्यावरणी दबाव- भौतिक दबाव वे माँगें हैं, जिसके कारण हमारी शारीरिक दशा में परिवर्तन उत्पन्न हो जाता है। हम तनाव का अनुभव करते हैं जब हम शारीरिक रूप से अधिक परिश्रम करते हैं, पौष्टिक भोजन की कमी हो जाती है, कोई चोट लग जाती है, या निद्रा की कमी हो जाती है। पर्यावरणी दबाव हमारे परिवेश की वैसी दशाएँ होती हैं जो प्राय: अपरिहार्य होती हैं; जैसे-वायु प्रदूषण, भीड़, शोर, ग्रीष्मकाल की गर्मी, शीतकाल की सर्दी इत्यादि । एक अन्य प्रकार के पर्यावरणी दबाव प्राकृतिक विपदाएँ तथा विपाती घटनाएँ हैं; जैसे-आग, भूकंप, बाढ़ इत्यादि।
(ii) मनोवैज्ञानिक दबाव- यह वे दबाव हैं जिन्हें हम अपने मन से उत्पन्न करते हैं। ये दबाव अनुभव करने वाले व्यक्ति के लिए विशिष्ट होते हैं तथा दबाव के आंतरिक स्रोत होते हैं। हम समस्याओं के बारे में परेशान होते हैं, दुश्चिता करते हैं या अवसादग्रस्त हो जाते हैं। ये सभी केवल दबाव के लक्षण ही नहीं हैं बल्कि यह हमारे लिए दबाव को बढ़ाते भी हैं। मनोवैज्ञानिक दबाव के कुछ प्रमुख स्रोत कुंठा, द्वंद्व, आंतरिक एवं सामाजिक दबाव इत्यादि हैं।
जब कोई व्यक्ति या परिस्थिति हमारी आवश्यकताओं तथा अभिप्रेरकों को अवरुद्ध करती है, जो हमारे इष्ट लक्ष्य की प्राप्ति में बाधा डालती है तो कुंठा (Frustration) उत्पन्न होती है। कुंठा के अनेक कारण हो सकते हैं; जैसे-सामाजिक भेदभाव, अंतर्वैयक्तिक क्षति, स्कूल में कम अंक प्राप्त करना इत्यादि। दो या दो से अधिक असंगत आवश्यकताओं तथा अभिप्रेरकों में द्वंद्व (conflict) हो सकता है, जैसे-क्या नृत्य का अध्ययन किया जाए या मनोविज्ञान का। हम अध्ययन को जारी भी रखना चाह सकते हैं या नौकरी भी करना चाह सकते हैं। हमारे मूल्यों में भी तब द्वंद्व हो सकता है जब हमारे ऊपर किसी ऐसे कार्य को करने के लिए दबाव डाला जाए जो हमारे अपने जीवन मूल्यांक के विपरीत हो।
(iii) सामाजिक दबाव-ये बाह्यजनित होते हैं तथा दूसरे लोगों के साथ हमारी अंत:क्रियाओं के कारण उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार की सामाजिक घटनाएँ; जैसे-परिवार में किसी की मृत्यु या बीमारी, तनावपूर्ण संबंध, पड़ोसियों से परेशानी, सामाजिक दबाव के कुछ उदाहरण हैं। एक सामाजिक दबाव व्यक्ति-व्यक्ति में बहुत भिन्न होते हैं। यह व्यक्ति जो अपने घर में शाम में शांतिपूर्ण बिताना चाहता है उसके लिए उत्सव या पार्टी में जाना दबावपूर्ण हो सकता है, जबकि किसी बहुत मिलनसार व्यक्ति के लिए शाम को घर बैठे रहना दबावपूर्ण हो सकता है।
प्रश्न 33. दबाव प्रबंधन के विभिन्न तकनीकों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: दबाव प्रबंधन की विभिन्न तकनीक निम्नलिखित हैं
(i) विश्रांति की तकनीकें- यह वे सक्रिय कौशल हैं जिनके द्वारा दबाव के लक्षणों तथा बीमारियों, जैसे-उच्च रक्तचाप एवं हृदय रोग के प्रभावों में कमी की जा सकती है। प्रायः विश्रांति शरीर के निचले भाग से प्रारंभ होती है तथा मुख पेशियों तक इस प्रकार लाई जाती है जिससे संपूर्ण शरीर विश्राम अवस्था में आ जाए। मन को शांत तथा शरीर को विश्राम अवस्था में लाने के लिए गहन श्वसन के साथ पेशी-शिथिलन का उपयोग किया गता है।
(ii) ध्यान प्रक्रियाएँ-योग विधि में ध्यान लगाने की प्रक्रिया में कुछ अधिगत प्रविधियाँ एक निश्चित अनुक्रम में उपयोग में लाई जाती हैं जिससे ध्यान को पुनः केंद्रित कर चेतना की परिवर्तित स्थिति उत्पन्न की जा सके। इसमें एकाग्रता को इतना पूर्णरूप से केंद्रित किया जाता है कि ध्यानस्थ व्यक्ति किसी बाह्य उद्दीपन के प्रति अनभिज्ञ हो जाता है तथा वह चेतना की एक भिन्न स्थिति में पहुंच जाता है।
(iii) जैवप्रतिप्राप्ति या बायोफीडबैक-यह वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा दबाव के शरीरक्रियात्मक पक्षों का परिवीक्षण कर उन्हें कम करने के लिए फीडबैक दिया जाता है कि व्यक्ति में वर्तमानकालिक शरीरक्रियाएँ क्या हो रही हैं। प्रायः इसके साथ विश्रांति प्रशिक्षण का भी उपयोग किया जाता है। जैव प्रतिप्राप्ति प्रशिक्षण में तीन अवस्थाएँ होती हैं किसी विशिष्ट शरीरक्रियात्मक अनुक्रिया को शांत व्यवस्था में नियंत्रित करने के उपाय सीखना तथा उस नियंत्रण को सामान्य दैनिक जीवन में अंतरित करना।
(iv)सर्जनात्मक मानस-प्रत्यक्षीकरण-दबाव से निपटने के लिए यह एक प्रभावी तकनीक है। सर्जनात्मक मानस-प्रत्यक्षीकरण एक आत्मनिष्ठ अनुभव है जिसमें प्रतिमा तथा कल्पना का उपयोग किया जाता है। मानस-प्रत्यक्षीकरण के पूर्व व्यक्ति को वास्तविकता के अनुकूल एक लक्ष्य निर्धारित कर लेना चाहिए, यह आत्म-विश्वास के निर्माण में सहायक होता है। यदि व्यक्ति का मन शांत हो, शरीर विश्राम अवस्था में हो तथा आँखें बंद हों तो मानस-प्रत्यक्षीकरण सरल होता है। ऐसा करने से अवांछित विचारों के हस्तक्षेप में कमी आती है तथा व्यक्ति को वह सर्जनात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है जिससे कि काल्पनिक दृश्य को वास्तविकता में परिवर्तित किया जा सके।
(v) संज्ञानात्मक व्यवहारात्मक तकनीकें- इन तकनीकों का उद्देश्य व्यक्ति को दबाव के विरुद्ध संचारित करना होता है। मीचेनबॉम (Meichenbaum) ने दबाव संचारण प्रशिक्षण (Stress inoculation training) की एक प्रभावी विधि विकसित की है। इस उपागम का सार यह है कि व्यक्ति के नकारात्मक तथा अविवेकी विचारों के स्थान पर सकारात्मक तथा सविवेक विचार प्रतिस्थापित कर दिए जाएँ। इसके तीन प्रमुख चरण हैं मूल्यांकन, दबाव न्यूनीकरण तकनीकें तथा अनुप्रयोग एवं अनुवर्ती कार्रवाई। मूल्यांकन के अंतर्गत समस्या की प्रकृति पर परिचर्चा करना तथा व्यक्ति/सेवार्थी के दृष्टिकोण से देखना सम्मिलित होते हैं। दबाव न्यूनीकरण के अंतर्गत दबाव कम करने वाली तकनीकों जैसे-विश्रांति तथा आत्म-अनुदेशन को सीखना सम्मिलित होते हैं।
(vi) व्यायाम- दबाव के प्रति अनुक्रिया के बाद अनुभव किए गए शरीरक्रियात्मक भाव-प्रबोधन के लिए व्यायाम एक सक्रिय निर्गम-मार्ग प्रदान कर सकता है। नियमित व्यायाम के द्वारा हृदय की दक्षता में सुधार होता है, फेफड़ों के प्रकार्यों में वृद्धि होती है, रक्तचाप में कमी होती है, रक्त में वसा की मात्रा घटती है तथा शरीर के प्रतिरक्षक तंत्र में सुधार होता है। तैरना, टहलना, दौड़ना, साइकिल चलाना, रस्सी कूदना इत्यादि दबाव को कम करने में सहायक होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को सप्ताह में कम-से-कम चार दिन एक साथ 30 मिनट तक इनमें से किसी व्यायाम का अभ्यास करना चाहिए। प्रत्येक सत्र में गरमाना, व्यायाम तथा ठंडा या सामान्य होने के चरण अवश्य होने चाहिए।
प्रश्न 34. स्थिति स्थापना तथा स्वास्थ्य पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर: स्थिति स्थापना एक गत्यात्मक विकासात्मक प्रक्रिया है, जो चुनौतीपूर्ण जीवन-दशाओं में – सकारात्मक समायोजन के अनुरक्षण को संदर्भित करता है। दबाव तथा विपत्ति के होते हुए भी उछलकर पुनः अपने स्थान पर पहले के समान वापस आने को स्थिति स्थापना कहते हैं। स्थिति स्थापना का संकल्पना-निर्धारण, आत्म-अर्ध तथा आत्म-विश्वास, स्वायत्तता तथा आत्मनिर्भरता की भावनाओं को अभिव्यक्त करता है, अपने लिए सकारात्मक भूमिका-प्रतिरूप ढूँढना, किसी अंतरंग मित्र को खोजना ऐसे संज्ञानात्मक कौशल विकसित करना, जैसे-समस्या समाधान, सर्जनात्मकता, संसाधन-सम्पन्नता तथा नम्यता और यह विश्वास कि मेरा जीवन अर्थपूर्ण’ तथा उसका एक उद्देश्य है। स्थिति स्थापक व्यक्ति अतिघात के प्रभावों, दबाव तथा विपत्ति पर विजयी हाने में सफल होते हैं, एवं मानसिक रूप से स्वस्थ तथा अर्थपूर्ण जीवन व्यतीत करना सीख लेते हैं।
स्थिति स्थापन को तीन संसाधनों के आधार पर हाल ही में परिभाषित किया गया है मेरे पास हैं (सामाजिक तथा अंतर्वैयक्तिक बल), अर्थात् “मेरे आस-पास मेरे विश्वास पात्र व्यक्ति है तथा चाहे कुछ भी हो जाए तो वे मुझसे प्यार करते हैं।” मैं हूँ (आंतरिक शक्ति), अर्थात् “स्वयं अपना तथा दूसरों का सम्मान करता/करती हूँ।” मैं समर्थ हूँ (अंतर्वैयक्तिक तथा समस्या समाधान कौशल), अर्थात् “जो भी समस्याएँ” मेरे सम्मुख आएँ, उनका समाध ढूंढने में मैं सक्षम हूँ।” किसी बालक को स्थिति स्थापक होने के लिए उसे उपरोक्त में से एक से अधिक शक्तियों की आवश्यकता होती है।
उदाहरण के लिए बालकों को काफी आत्म-सम्मान हो सकता है (मैं हूँ), किंतु हो सकता है कि उनके पास ऐसे व्यक्ति न हों जिससे वह सहायता प्राप्त कर सकें (मेरे पास हैं), तथा उनमें समस्याओं के समाधान की क्षमता न हो (मैं समर्थ हूँ)। ऐसे बालक स्थिति स्थापक नहीं कहे जाएंगे। बालकों पर किए गए अनुदैर्ध्य सध्ययन इस प्रकार के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं कि निर्धनता तथा अन्य सामाजिक असुविधाओं से उत्पन्न विकट असुरक्षा के उपरांत भी अनेक व्यक्ति योग्य एवं ध्यान रखने वाले वयस्कों में विकसित हो जाते हैं।
प्रश्न 35. विच्छेदन से आप क्या समझते हैं? इसके विभिन्न रूपों का वर्णन कीजिए।
उत्तर: विचारों और संवेगों के बीच संयोजन विच्छेद का हो जाना ही विच्छेदन कहलाता है। विच्छेदन में अवास्तविकता की भावना, मनमुटाव या विरक्ति,व्यक्तित्व-लोप और कभी-कभी अस्मिता-लोप या परिवर्तन भी पाया जाता है। चेतना में अचानक और अस्थायी परिवर्तन जो कष्टकर अनुभवों को रोक देता है,विच्छेदी विकार (dissociative disorder) की मुख्य विशेषता होती है।
विच्छेदन के विभिन्न रूप इस प्रकार से हैं-
(i) विच्छेदी स्मृतिलोप (dissociative amnesia)-विच्छेदी स्मृतिलोप में अत्यधिक किन्तु चयनात्मक स्मृतिभ्रंश होता है जिसका कोई ज्ञात आंगिक कारण (जैसे-सिर में चोट लगना) नहीं होता है। कुछ लोग को अपने अतीत के बारे में कुछ भी याद नहीं रहता है। दूसरे लोग कुछ विशिष्ट घटनाएँ, लोग, स्थान या वस्तुएँ याद नहीं कर पाते, जबकि दूसरी घटनाओं के लिए उनकी स्मृति बिल्कुल ठीक होती है। यह विकार अक्सर अत्यधिक दबाव से संबंधित होता है।
(ii) विच्छेदी आत्मविस्मति (dissociative fugue)-विच्छेदी आत्मविस्मृति का एक आवश्यक लक्षण है घर और कार्य स्थान से अप्रत्याशित यात्रा, एक नई पहचान की अवधारणा तथा पुरानी पहचान को याद न कर पाना। आत्मविस्मृति सामान्यता समाप्त हो जाती है। जब व्यक्ति अचानक जागता है और आत्मविस्मृति की अवधि में जो कुछ घटित हुआ उसकी कोई स्मृति नहीं रहती।
(iii) विच्छेदी पहचान विकार (dissociative identity disorder)-विच्छेदी पहचान विकार को अक्सर बहु व्यक्तित्व वाला कहा जाता है। यह सभी विच्छेदी विकारों में सबसे अधिक नाटकीय होती है। अक्सर यह बाल्यावस्था की कल्पना करता है जो आपस में एक-दूसरे के प्रति जानकारी रख सकते हैं या नहीं रख सकते हैं। a (iv) व्यक्तित्व लोप (depersonalisation)-व्यक्तित्व लोप में एक स्वप्न जैसी अवस्था होती है जिसमें व्यक्ति को स्व और वास्तविकता दोनों से अलग होने की अनुभूति होती है। व्यक्तित्व-लोप में आत्म-प्रत्यक्षण में परिवर्तन होता है और व्यक्ति का वास्तविकता बोध अस्थायी स्तर पर लुप्त हो जाता है या परिवर्तित हो जाता है।
प्रश्न 36. उन मनोवैज्ञानिक मॉडलों का वर्णन कीजिए जो मानसिक विकारों के मनोवैज्ञानिक कारणों को बताते हैं।
उत्तर: मनोवैज्ञानिक मॉडल के अंतर्गत मनोगतिक, व्यवहारात्मक, संज्ञानात्मक तथा मानवतावादी अस्तित्वपरक मॉडल सम्मिलित हैं।
(i) आधुनिक मनोवैज्ञानिक मॉडल में मनोगतिक मॉडल (Psychodynamic mode) यह सबसे प्राचीन और सबसे प्रसिद्ध है। मनोगतिक सिद्धांतवादियों का विश्वास है कि व्यवहार चाहे सामान्य हो या असामान्य वह व्यक्ति के अंदर की मनोवैज्ञानिक शक्तियों के द्वारा निर्धारित होता है, जिनके प्रति वह गत्यात्मक कहलाती है, अर्थात् वे एक-दूसरे से अंत:क्रिया करती है तथा उनकी यह अंतःक्रिया व्यवहार, विचार और संवेगों को निर्धारित करती है।
इन शक्तियों के बीच द्वंद्व के परिणामस्वरूप फ्रॉयड (Freud) द्वारा प्रतिपादित किया गया था जिनका विश्वास था कि तीन केंद्रीय शक्तियाँ व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं-मूल प्रवृतिक आवश्यकताएँ, अंतर्नाद तथा आवेग (इदम् या इड) तार्किक चितन (अहम्) तथा नैतिक मानक (पराहम्)। फ्रॉयड के अनुसार अपसामान्य व्यवहार अचेतन स्तर पर होने वाले मानसिक द्वंद्वों की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है जिसका संबंध सामान्यतः प्रारंभिक बाल्यावस्था या शैशवावस्था से होता है।
(ii) एक और मॉडल जो मनोवैज्ञानिक कारणों की भूमिका पर जोर देता है वह व्यवहारात्मक मॉडल (behavioural model) है। यह मॉडल बताता है कि सामान्य और अपसामान्य दोनों व्यवहार अधिगत होते हैं और मनोवैज्ञानिक विकार व्यवहार करने के दुरनुकूलक तरीके सीखने के परिणामस्वरूप होते हैं। यह मॉडल उन व्यवहारों पर ध्यान देता है। जो अनुबंधन (conditioning) के कारण सीखे गए हैं तथा इसका उद्देश्य होता है कि जो कुछ सीखे गए हैं तथा इसका उद्देश्य होता है कि जो कुछ सीखा गया है। उसे अनधिगत या भुलाया जा सकता है। अधिगम प्राचीन अनुबंधन (कालिक साहचर्य जिसमें दो घटनाएँ बार-बार दूसरे के साथ-साथ घटित होती है), क्रियाप्रसूत अनुबंधन (जिसमें व्यवहार का अनुकरण करके सीखना) से हो सकता है। यह तीन प्रकार के अनुबंधन सभी प्रकार के व्यवहार, अनुकूली या दुरनुकूलक के लिए उत्तरदायी हैं।
(iii) सामाजिक-सांस्कृतिक मॉडल (Socio-cultural model) के अनुसार, सामाजिक और सांस्कृतिक शक्तियाँ जो व्यक्तियों को प्रभावित करती हैं, इनके संदर्भ में उपसामान्य व्यवहार को ज्यादा अच्छे ढंग से समझा जा सकता है। चूँकि व्यवहार सामाजिक शक्तियों के द्वारा ही विकसित होता है अतः ऐसे कारक जैसे कि परिवार संरचना और संप्रेषण, सामाजिक तंत्र, सामाजिक दशाएँ तथा सामाजिक नामपत्र और भूमिकाएँ अधिक महत्वपूर्ण हो जाती हैं। ऐसा देखा गया है कि कुछ पारिवारिक व्यवस्थाओं में व्यक्तियों में उपसामान्य व्यवहार उत्पन्न होने की संभावना अधिक होती है। कुछ परिवारों में ऐसी जालबद्ध संरचना होती है जिसमें परिवार के सदस्य एक-दूसरे की गतिविधियों, विचारों और भावनाओं में कुछ ज्यादा ही अंतर्निहित होते हैं।
इस तरह के परिवारों के बच्चों को जीवन में स्वावलंबी होने में कठिनाई आ सकती है। इससे भी बड़े स्तर का सामाजिक तंत्र हो सकता है जिसमें व्यक्ति के सामाजिक और व्यावसायिक संबंध सम्मिलित होते हैं। कई अध्ययनों से यह पता चलता है कि जो लोग अलग-थलग महसूस करते हैं और जिन्हें सामाजिक अवलंब प्राप्त नहीं होता है अर्थात् गहन और संतुष्टिदायक अंतर्वैयक्तिक संबंध जीवन में नहीं प्राप्त होता, वे उन लोगों की अपेक्षा अधिक और लंबे समय तक अवसादग्रस्त हो सकते हैं, जिनके अच्छे मित्रतापूर्ण संबंध होते हैं। सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांतकारों के अनुसार, जिन लोगों में कुछ समस्याएँ होती हैं उनमें असामान्य व्यवहारों की उत्पत्ति संज्ञाओं और भूमिकाओं से प्रभावित होता है।
जब लोग समाज के मानकों को तोड़ते हैं तो उन्हें, ‘विसामान्य’ और ‘मानसिक रोगी’ जैसे संज्ञाएँ दी जाती हैं। इस प्रकार की संज्ञाएँ इतनी ज्यादा उन लोगों से जुड़ जाती हैं कि लोग उन्हें ‘सनकी’ इत्यादि पुकारने लगते हैं और उन्हें उसी बीमारी की तरह से क्रिया करने के लिए उकसाते रहते हैं। धीरे-धीरे वह व्यक्ति बीमारी की भूमिका स्वीकार कर लेता है तथा अपसामान्य व्यवहार करने लगता है।
(iv) इन मॉडलों के अतिरिक्त, व्यवहार की एक बहुमान्य व्याख्या रोगोन्मुखता-दबाव मॉडल (diathesistress model) द्वारा दी गई है। इस मॉडल के अनुसार, जब कोई रोगोन्मुखता (किसी विकार के लिए जैविक पूर्ववृत्ति) किसी दबावपूर्ण स्थिति के कारण सामने आ जाती है तब मनोवैज्ञानिक विकार उत्पन्न होते हैं। इस मॉडल के तीन घटक यह हैं। पहला घटक रोगोन्मुखता या कुछ जैविक विपथन जो वंशगत हो सकते हैं।
दूसरा घटक यह है कि रोगोन्मुखता के कारण किसी मनोवैज्ञानिक विकार के प्रति दोषपूर्णता उत्पन्न हो सकती है, जिसका तात्पर्य यह हुआ कि व्यक्ति उस विकार के विकास के लिए ‘पूर्ववृत्त’ है या उसे विकार का ‘खतरा’ है। तीसरा घटक विकारी प्रतिबलकों की उपस्थिति है। इसका तात्पर्य उन कारकों से है जो मनोवैज्ञानिक विकारों का जन्म दे सकते हैं। यदि इस तरह के पूर्ववृत्त’ या ‘खतरे में रहने वाले व्यक्ति को इस तरह के दबावकारकों का सामना करना पड़ता है तो उनकी यह पूर्ववृत्ति वास्तव में विकार को जन्म दे सकती है। इस मॉडल का कई विकारों, जैसे दुश्चिता, अवसाद और मनोविदलता पर अनुप्रयोग किया गया है।
प्रश्न 37. मनश्चिकित्सा की प्रकृति एवं विजय-क्षेत्र का वर्णन कीजिए। मनश्चिकित्सा में चिकित्सात्मक संबंध के महत्व को उजागर कीजिए।
उत्तर: मनश्चिकित्सा उपचार चाहने वाले या सेवार्थी तथा उपचार करने वाले या चिकित्सा के बीच में एक ऐच्छिक संबंध है। इस संबंध का उद्देश्य उन मनोवैज्ञानिक समस्याओं का समाधान करना होता है जिनका सामना सेवार्थी द्वारा किया जा रहा हो। यह संबंध सेवार्थी के विश्वास को बनाने में सहायक होता है जिससे वह अपनी समस्याओं के बारे में मुक्त होकर चर्चा कर सके । मनश्चिकित्सा का उद्देश्य दुरनुकूलक व्यवहारों को बदलना, वैयक्तिक कष्ट की भावना को कम करना तथा रोगी को अपने पर्यावरण से बेहतर ढंग से अनुकूलन करने में मदद करना है। अपर्याप्त वैवाहिक, व्यावसायिक तथा सामाजिक समायोजन की वह आवश्यकता होती है कि व्यक्ति के वैयक्तिक पर्यावरण में परिवर्तन किए जाएँ।
सभी मनश्चिकित्सात्मक उपागमों में निम्न अभिलक्षण पाए जाते हैं-
- चिकित्सा के विभिन्न सिद्धांत में अंतर्निहित नियमों का व्यवस्थित या क्रमबद्ध अनुप्रयोग होता है,
- केवल वे व्यक्ति, जिन्होंने कुशल पर्यवेक्षण में व्यावहारिक प्रशिक्षण प्राप्त किया हो, मनश्चिकित्सा कर सकते हैं, हर कोई नहीं, एक अप्रशिक्षित व्यक्ति अनजाने में लाभ के बजाय हानि अधिक पहुँचा सकता है,
- चिकित्सात्मक स्थितियों में एक चिकित्सक और एक सेवार्थी होता है जो अपनी संवेगात्मक समस्याओं के लिए सहायता चाहता है और प्राप्त करता है चिकित्सात्मक प्रक्रिया में यही व्यक्ति ध्यान का मुख्य केंद्र होता है तथा
- इन दोनों व्यक्तियों, चिकित्सक एवं सेवार्थी के बीच की अंत:क्रिया के परिणामस्वरूप एक चिकित्सात्मक संबंध का निर्माण एवं उसका सुदृढीकरण होता है। यह एक गोपनीय, अंतर्वैयक्तिक एवं गत्यात्मक संबंध होता है। यह मानवीय संबंध किसी भी मनोवैज्ञानिक चिकित्सा का केंद्र होता है तथा यही परिवर्तन का माध्यम बनता है।
मनश्चिकित्सा में चिकित्सात्मक संबंध का महत्व-सेवार्थी एवं चिकित्सक के बीच एक विशेष संबंध को चिकित्सात्मक संबंध या चिकित्सात्मक मैत्री कहा जाता है। यह न तो एक क्षणिक परिचय होता है और न ही.एक स्थायी एवं टिकाऊ संबंधा
प्रश्न 38. उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए कि संज्ञानात्मक विकृति किस प्रकार घटित होती है?
उत्तर: संज्ञानात्मक चिकित्साओं में मनोवैज्ञानिक कष्ट का कारण अविवेकी विचारों और विश्वासों में स्थापित किया जाता है।
(i) अल्बर्ट एलिस (albert Elis) ने संवेग तर्क चिकित्सा (Rational emotive therapy, RET) को प्रतिपादित किया। इस चिकित्सा की केन्द्रीय धारणा है कि अविवेकी विश्वास पूर्ववर्ती घटनाओं और उनके परिणामों के बीच मध्यस्थता करते हैं। संवेग तर्क चिकित्सा में पहला चरण है पूर्ववर्ती-विश्वास-परिणाम (पू.वि.प.) विश्लेषण। पूर्ववर्ती घटनाओं जिनसे मनोवैज्ञानिक कष्ट उत्पन्न हुआ, को लिख लिया जाता है।
सेवार्थी के साक्षात्कार द्वारा उसके उन अविवेकी विश्वासों का पता लगाया जाता है जो उसकी वर्तमानकालिक वास्तविकता को विकृत कर रहे हैं। हो सकता है इन अविवेकी विश्वासों को पुष्ट करने वाले आनुभाविक प्रमाण पर्यावरण में नहीं भी हों। इन विश्वासों को अनिवार्य या चाहिए विचार कह सकते हैं, तात्पर्य यह है कि कोई भी बात एक विशिष्ट तरह से होनी ‘अनिवार्य’ या ‘चाहिए’ है। अविवेकी विश्वासों के उदाहरण है; जैसे-“किसी को हर एक का प्यार हर समय मिलना चाहिए”, “मनुष्य की तंगहाली बाह्य घटनाओं के कारण होती है जिस पर किसी का नियंत्रण नहीं होता” इत्यादि।
अविवेकी विश्वासों के कारण पूर्ववर्ती घटना का विकृत प्रत्यक्षण नकारात्मक संवेगों और व्यवहारों के परिणाम का कारण बनता है। अविवेकी विश्वासों का मूल्यांकन प्रश्नावली और साक्षात्कार के द्वारा किया जाता है। संवेग तर्क चिकित्सा की प्रक्रिया के चिकित्सक अनिदेशात्मक प्रश्न करने के प्रक्रिया से अविवेकी विश्वासों का खंडन करता है। प्रश्न करने का स्वरूप सौम्य होता है निदेशात्मक या जाँच-पड़ताल वाला नहीं। ये प्रश्न सेवार्थी को अपने जीवन और समस्याओं से संबंधित पूर्वधारणाओं के बारे में गहराई से सोचने के लिए प्रेरित करते हैं। धीरे-धीरे सेवार्थी अपने जीवन-दर्शन में परिवर्तन लाकर अविवेकी विश्वासों को परिवर्तित करने में समर्थ हो जाता है। तर्कमूलक विश्वास तंत्र अविवेकी विश्वास तंत्र को प्रतिस्थापित करता है और मनोवैज्ञानिक कष्टों में कमी आती है।
(ii) दूसरी संज्ञानात्मक चिकित्सा आरन बेक (aaron beck) की है। दुश्चिता या अवसाद द्वारा अभिलक्षित मनोवैज्ञानिक कष्ट संबंधी उनके सिद्धांत के अनुसार परिवार और समाज द्वारा दिए गए बाल्यावस्था के अनुभव मल अन्विति योजना या मल स्कीमा (core scheme) या तंत्र के रूप में विकसित हो जाते हैं, जिनमें व्यक्ति के विश्वास और क्रिया के प्रतिरूप सम्मिलित होते हैं। इस प्रकार एक सेवार्थी जो बाल्यावस्था में अपते माता-पिता द्वारा उपेक्षित था एक ऐसा मूल स्कीमा विकसित कर लेता है कि “मैं वांछित हूँ।” जीवनकाल के दौरान कोई निर्णायक घटना उसके जीवन में घटित होती है। विद्यालय में उसके सामने अध्यापक के द्वारा उसकी हँसी उड़ायी जाती है। यह निर्णायक घटना उसके मूल स्कीमा “मैं वांछित हूँ।” को क्रियाशील कर देती है जो नकारात्मक स्वचालित विचारों को विकसित करती है।
नकारात्मक विचार सतत अविवेकी विचार होते हैं; जैसे-कोई मुझे प्यार नहीं करती, मैं कुरूप हूँ, मैं मूर्ख हूँ, मैं सफल नहीं हो सकता/सकती इत्यादि। इन नकारात्मक स्वचालित विचारों में संज्ञानात्मक विकृति के होते हैं किन्तु वे वास्तविकता को नकारात्मक तरीके से विकृत होते हैं। विचारों के इन प्रतिरूपों को अपक्रियात्मक संज्ञानात्मक संरचना (dysfunctional cognitive structure) कहते हैं। सामाजिक यथार्थ के बारे में ये संज्ञानात्मक त्रुटियाँ उत्पन्न करती हैं।
इन विचारों का बार-बार उत्पन्न होना दुश्चिता और अवसाद की भावनाओं को विकसित करता है। चिकित्सक जो प्रश्न करता है वे सौम्य होते हैं तथा सेवार्थी के विश्वासों और विचारों के प्रति बिना धमकी वाले किन्तु उनके खंडन करने वाले होते हैं। इन प्रश्नों के उदाहरण कुछ ऐसे हो सकते हैं, “क्यों हर कोई तुम्हें प्यार करे?”, “तुम्हारे लिए सफल होना क्या अर्थ रखता है?” इत्यादि। ये प्रश्न सेवार्थी को अपने नकारात्मक स्वचालित विचारों की विपरीत दिशा में सोचने को बाध्य करते हैं जिससे वह अपने अपक्रियात्मक स्कीमा के स्वरूप के बारे में अंतर्दृष्टि प्राप्त करता है तथा अपनी संज्ञानात्मक संरचना को परिवर्तित करने में समर्थ होता है। इस चिकित्सा का लक्ष्य संज्ञानात्मक पुनःसंरचना को प्राप्त करना है जो दुश्चिता तथा अवसाद को घटाती है।
प्रश्न 39. अभिवृत्ति निर्माण को प्रभावित करने वाले कारकों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: अभिवृत्ति निर्माण को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं-
(i) परिवार एवं विद्यालय का परिवेश-विशेष रूप से जीवन के प्रारंभिक वर्षों में अभिवृत्ति निर्माण करने में माता-पिता एवं परिवार के अन्य सदस्य महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। बाद में विद्यालय का परिवेश अभिवृत्ति निर्माण के लिए एक महत्वपूर्ण पृष्ठभूमि बन जाता है। परिवार एवं विद्यालय में अभिवृत्तियों का अधिगम आमतौर पर साहचर्य, पुरस्कार और दंड तथा प्रतिरूपण के माध्यम से होता है।
(ii) संदर्भ समूह-संदर्भ समूह एक व्यक्ति को सोचने एवं व्यवहार करने के स्वीकृत नियमों या मानकों को बताते हैं। अतः ये समूह या संस्कृति के मानकों के माध्यम से अभिवृत्तियों के अधिगम को दर्शाते हैं। विभिन्न विषयों जैसे-राजनीतिक, धार्मिक तथा सामाजिक समूह, व्यवसाय, राष्ट्रीय एवं अन्य मुद्दों के प्रति अभिवृत्ति प्रायः संदर्भ समूह के माध्यम से ही विकसित होती है । यह प्रभाव विशेष रूप से किशोरावस्था के प्रारंभ में अधिक स्पष्ट होता है जब व्यक्ति के लिए या अनुभव करना महत्वपूर्ण होता है कि वह किसी समूह का सदस्य है। इसलिए अभिवृत्ति निर्माण में संदर्भ समूह की भूमिका एवं दंड के द्वारा अधिगम का भी एक उदाहरण हो सकता है।
(iii) व्यक्तिगत अनुभव-अनेक अभिवृत्तियों का निर्माण पारिवारिक परिवेश में या संदर्भ समूह के माध्यम से नहीं होता बल्कि इनका निर्माण प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुभव के द्वारा होता है, जो लोगों के साथ स्वयं के जीवन के प्रति हमारी अभिवृत्ति में प्रबल परिवर्तन उत्पन्न करता है। यहाँ वास्तविक जीवन से संबंधित एक उदाहरण प्रस्तुत है।
सेना का एक चालक (ड्राइवर) एक ऐसे व्यक्ति अनुभव से गुजरा जिसने उसके जीवन को ही परिवर्तित कर दिया। एक अभियान के दौरान, जिसमें उसके सभी साथी मारे जा चुके थे, वह मृत्यु के बहुत नजदीक से गुजरा। अपने जीवन के उद्देश्य के बारे में विचार करते हुए उसने सेना में अपनी नौकरी छोड़ दी तथा महाराष्ट्र के एक गाँव में स्थित अपनी जन्मभूमि में वापस लौट आया और वहाँ एक सामुदायिक नेता के रूप में सक्रिय रूप से कार्य किया। एक विशुद्ध व्यक्तिगत अनुभव के द्वारा इस व्यक्ति ने सामुदायिक उत्थान या विकास के लिए एक प्रबल सकारात्मक अभिवृत्ति विकसित कर ली। उसके प्रयास ने उसके गाँव के स्परूप को पूर्णरूपेण बदल दिया।
(iv) संचार माध्यम संबद्ध प्रभाव-वर्तमान समय में प्रौद्योगिकीय विकास ने दृश्य-श्रव्य माध्यम एवं इंटरनेट को एक शक्तिशाली सूचना का स्रोत बना दिया है जो अभिवृत्तियों का निर्माण एवं परिवर्तन करते हैं। इसके अतिरिक्त विद्यालय स्तरीय पाठ्य पुस्तकें भी अभिवृत्ति निर्माण को प्रभावित करती हैं। ये स्रोत सबसे पहले संज्ञानात्मक एवं भावात्मक घटक को प्रबल बनाते हैं और बाद में व्यवहारपरक पटक को भी प्रभावित कर सकते हैं।
संचार-माध्यम अभिवृत्ति पर अच्छा एवं खराब दोनों ही प्रकार के प्रभाव डाल सकते हैं। एक तरफ, संचार माध्यम एवं इंटरनेट, संचार के अन्य माध्यमों की तुलना में लोगों को भली प्रकार से सूचित करते हैं, दूसरी तरफ इन संचार माध्यमों से सूचना संकलन की प्रकृति पर कोई रोक या जाँच नहीं होती इसलिए निर्मित होने वाली अभिवृत्तियों या पहले से बनी अभिवृत्तियों में परिवर्तन की दिशा पर कोई नियंत्रण भी नहीं होता है। संचार माध्यमों का उपयोग उपभोक्तावादी अभिवृत्तियों के निर्माण के लिए किया जा सकता है और इनका उपयोग सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने के लिए सकारात्मक अभिवृत्तियों को उत्पन्न करने के लिए भी किया जा सकता है।
प्रश्न 40. पूर्वाग्रह के विभिन्न स्रोतों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: पूर्वाग्रह के विभिन्न स्रोत निम्नलिखित हैं-
(i) अधिगम-अन्य अभिवृत्तियों की तरह पूर्वाग्रह भी साहचर्य, पुरस्कार एवं दंड, दूसरों के प्रेक्षण, समूह या संस्कृति के मानक तथा सूचनाओं की उपलब्धता, जो पूर्वाग्रह को बढ़ावा देते हैं, के द्वारा अधिगमित किए जा सकते हैं। परिवार, संदर्भ, समूह, व्यक्तिगत अनुभव तथा संचार माध्यम पूर्वाग्रह के अधिगम में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। जो लोग पूर्वाग्रहग्रस्त अभिवृत्तियों को सीखते हैं वे ‘पूर्वाग्रहग्रस्त व्यक्तित्व’ विकसित कर लेते हैं तथा समायोजन स्थापित करने की क्षमता में कमी, दुश्चिता तथा बाह्य समूह के प्रति आक्रामकता की भावना को प्रदर्शित करते हैं।
(ii) एक प्रबल सामाजिक अनन्यता तथा अंतःसमूह अभिनति-वे लोग जिनमें सामाजिक अनन्यता की प्रबल भावना होती है एवं अपने समूह के प्रति एक बहुत ही सकारात्मक अभिवृत्ति होती है वे अपनी अभिवृत्ति को और प्रबल बनाने के लिए बाह्य समूहों के प्रति नकारात्मक अभिवृत्ति रखते हैं। इनका प्रदर्शन पूर्वाग्रह के रूप में होता है।
(iii) बलि का बकरा बनाना यह एक ऐसी प्रक्रिया या गोचर है जिसके द्वारा बहुसंख्यक समूह अपनी अपनी सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं के लिए अल्पसंख्यक बाह्य समूह को दोषी ठहराता है। अल्पसंख्यक इस आरोप से बचाव करने के लिए या तो बहुत कमजोर होते हैं या संख्या में बहुत कम होते हैं। बलि का बकरा बनाने वाले प्रक्रिया कुंठा को प्रदर्शित करने का समूह आधारित एक तरीका है तथा प्रायः इसकी परिणति कमजोर समूह के प्रति नकारात्मक अभिवृत्ति या पूर्वाग्रह के रूप में होती है।
(iv) सत्य के संप्रत्यय का आधार तत्त्व-कभी-कभी लोग एक रूढ़धारणा को बनाए रखते हैं, क्योंकि वे सोचते हैं कि जो सभी लोग दूसरे के बारे में कहते हैं उसमें कोई न कोई सत्य या सत्य का आधार तत्त्व(Kernel of truth) तो अवश्य होना चाहिए। यहाँ तक कि केवल कुछ उदाहरण ही ‘सत्य के आधार तत्त्व’ की अवधारणा को पुष्ट करने के लिए पर्याप्त होते हैं।
(v) स्वतः साधक भविष्योक्ति-कुछ स्थितियों में वह समूह जो पूर्वाग्रह का लक्ष्य होता है स्वयं ही पूर्वाग्रह. को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार होता है। लक्ष्य समूह इस तरह से व्यवहार करता है कि वह पूर्वाग्रह को प्रमाणित करता है अर्थात् नकारात्मक प्रत्याशाओं की पुष्टि करता है। उदाहरणार्थ, यदि लक्ष्य समूह को ‘निर्भर’ और इसलिए प्रगति करने में अक्षम के रूप में वर्णित किया जाता है तो हो सकता है कि इस लक्ष्य समूह के सदस्य वास्तव में इस तरह से व्यवहार करें। इस विवरण को सही साबित करे। इस तरह वे पहले से विद्यमान पूर्वाग्रह को और प्रबल करते हैं।
प्रश्न 41. समूह की विशेषताओं की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: समूह की निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ होती हैं-
(i) हम दो या दो से अधिक व्यक्तियों, जो स्वयं को समूह के संबद्ध समझते हैं, की एक सामाजिक इकाई है। समूह की यह विशेषता एक समूह को दूसरे समूह से पृथक् करने में सहायता करती है और समूह को अपनी एक अलग अनन्यता या पहचान प्रदान करती है।
(ii) यह ऐसे व्यक्तियों का एक समुच्चय है जिसमें सभी की एक जैसी अभिप्रेरणाएँ एवं लक्ष्य होते हैं। समूह निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने या समूह को किसी खतरे से दूर करने के लिए कार्य करते हैं।
(iii) यह ऐसे व्यक्तियों का एक समुच्चय होता है जो परस्पर-निर्भर होते हैं अर्थात् एक व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य दूसरों के लिए कुछ परिणाम उत्पन्न कर सकता है। क्रिकेट के खेल में एक खिलाड़ी कोई महत्त्वपूर्ण कैच छोड़ देता है तो इसका प्रभाव संपूर्ण टीम पर पड़ेगा।
(iv) वे लोग जो अपनी आवश्यकताओं की संतुष्टि अपने संयुक्त संबंध के आधार पर कर रहे हैं वे एक-दूसरे को प्रभावित भी करते हैं।
(v) यह ऐसे व्यक्तियों का एकत्रीकरण या समूहन है जो एक-दूसरे से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अंतःक्रिया करते हैं।
(vi) यह ऐसे व्यक्तियों का एक समुच्चय होता है जिनके अंत:क्रियाएँ निर्धारित भूमिकाओं और प्रतिमानों के द्वारा संरचित होती हैं। इसका आशय यह हुआ कि जब समूह के सदस्य एकत्रित होते हैं या मिलते हैं तो समूह के सदस्य हर बार एक ही तरह के कार्यों का निष्पादन करते हैं और समूह के सदस्य के प्रतिमानों का पालन करते हैं। प्रतिमान हमें यह बताते हैं कि समूह में हम लोगों को किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिए और समूह के सदस्यों से अपेक्षित व्यवहार करना चाहिए और समूह के सदस्यों से अपेक्षित व्यवहार को निर्धारित करते हैं।
प्रश्न 42. औपचारिक एवं अनौपचारिक समूह तथा अंतः एवं बाह्य समूहों की तुलना , कीजिए एवं अंतर बताइए। .
उत्तर:
(i) औपचारिक एवं अनौपचारिक समूह- ऐसे समूह उस मात्रा में भिन्न होते हैं जिस मात्रा में समूह के प्रकार्य स्पष्ट और अनौपचारिक रूप से घोषित किए जाते हैं। एक औपचारिक समूह, जैसे-किसी कार्यालय संगठन द्वारा निष्पादित की जाने वाली भूमिकाएँ स्पष्ट रूप से घोषित होती हैं। औपचारिक तथा अनौपचारिक समूह के आधार पर भिन्न होते हैं । औपचारिक समूह का निर्माण कुछ विशिष्ट नियमों या विधि पर आधारित होता है और सदस्यों की सुनिश्चित भूमिकाएँ होती हैं। इसमें मानकों का एक समुच्चय होता है जो व्यवस्था स्थापित करने में सहायक होता है। कोई विश्वद्यालय एक औपचारिक समूह का उदाहरण है। दूसरी तरफ अनौपचारिक समूहों का निर्माण नियमों या विधि पर आधारित नहीं होता है और सदस्यों में घनिष्ठ संबंध होता है।
(ii) अंतःसमूह एवं बाह्य समूह-जिस प्रकार व्यक्ति अपनी तुलना दूसरों से समानता या भिन्नता के आधार पर इस संदर्भ में करते हैं कि क्या उनके पास है और क्या दूसरों के पास है, वैसे ही व्यक्ति जिस समूह के संबंध रखते हैं उसकी तुलना उन समूहों से करते हैं जिनके वे सदस्य नहीं हैं। अंत:समूह’ के समूह को इंगित करता है और ‘बाह्य समूह’ दूसरे को इंगित करता है । अंत: समूह में सदस्यों के लिए ‘हम लोग’ (We) शब्द का उपयोग होता है जबकि बाह्य समूह के सदस्यों के लिए ‘वे’ (They) शब्द का उपयोग किया जाता है। हमलोग या वे शब्द के उपयोग से कोई व्यक्ति लोगों को समान या भिन्न के रूप में वर्गीकृत करता है।
या पाया गया है कि अंत:समूह में सामान्यतया व्यक्तियों में समानता मानी जाती है, उन्हें अनुकूल दृष्टि से देखा जाता है और उनमें वांछनीय विशेषक पाए जाते हैं। बाह्य समूह के सदस्यों को अलग तरीके से देखा जाता है और उनका प्रत्यक्षण अंत:समूह के सदस्यों की तुलना में प्राय: नकारात्मक होता है अंत:समूह तथा बाह्य समूह का प्रत्यक्षण हमारे सामाजिक जीवन को प्रभावित करत. है।
प्रश्न 43. द्वंद्व समाधान युक्तियों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: द्वंद्व समाधान युक्तियाँ की व्याख्या निम्नलिखित है-
(i) उच्चकोटि लक्ष्यों का निर्धारण-शैरिफ के अनुसार उच्चकोटि लक्ष्यों का निर्धारण करके अंतर-समूह द्वंद्व को कम किया जा सकता है। एक उच्चकोटि लक्ष्य दोनों ही पक्षों के लिए परस्पर हितकारी होता है, अत: दोनों ही समूह सहयोगी रूप से कार्य करते हैं।
(ii) प्रत्यक्षण में परिवर्तन करना-अनुनय, शैक्षिक तथा मीडिया अपील और समूहों का समाज में भी भिन्न रूप से निरूपण इत्यादि के माध्यम से प्रत्यक्षण एवं प्रतिक्रियाओं में परिवर्तन करने के द्वारा द्वंद्व में कमी लाई जा सकती है। प्रारंभ से ही दूसरों के प्रति सहानुभूति को प्रोत्साहित करना सिखाया जाना चाहिए।
(iii) अंतर-समूह संपर्क को बढ़ाना-समूहों के बीच संपर्क को बढ़ाने से भी द्वंद्व को कम किया जा सकता है। सामुदायिक परियोजनाओं और गतिविधियों के द्वारा द्वंद्व में उलझे समूहों को तटस्थ मुद्दों या विचारों में संलग्न कराकर द्वंद्व को कम किया जा सकता है। इसमें समूहों को एक साथ लाने की योजना होती है जिससे कि वे एक-दूसरे की विचाराधाराओं को अधिक अच्छी तरह से समझने योग्य हो जाएँ। परंतु, संपर्क के सफल होने के लिए उनको बनाए रखना आवश्यक है जिसका अर्थ है कि संपर्कों का समर्थन एक अन्य अवधि तक किया जाना चाहिए।
(iv) समूह की सीमाओं का पुनः निर्धारण-समूह की सीमाओं के पुनः निर्धारण को कुछ मनोवैज्ञानिकों द्वारा एक दूसरी प्रतिविधि के रूप में सुझाया गया है। यह ऐसी दशाओं को उत्पन्न करके किया जा सकता है जिसमें समूह की सीमाओं को पुनः परिभाषित किया जाता है और समूह को एक उभयनिष्ठ समूह से जुड़ा हुआ अनुभव करने लगता है।
(v) समझौता वार्ता-समझौता (Negotiation) एवं किसी तृतीय पक्ष के हस्तक्षेप के द्वारा भी द्वंद्व का समाधान किया जा सकता है। प्रतिस्पर्धा समूह द्वंद्व का समाधान परस्पर स्वीकार्य हल को ढूँढने का प्रयास करके भी कर सकते हैं। इसके लिए समझ एवं विश्वास की आवश्यकता होती है। समझौता वार्ता पारस्परिक संप्रेषण को कहते हैं जिससे ऐसी स्थितियाँ जिसमें द्वंद्व होता है उसमें समझौता या सहमति पर पहुँचा जाता है। कभी-कभी समझौता वार्ता के माध्यम से द्वंद्व को दूर करना कठिन होता है; ऐसे समय में किसी तृतीय पक्ष द्वारा मध्यस्थता (Mediation) एवं विवाचन (Arbitration) की आवश्यकता होती है। मध्यस्थता करने वाले दोनों पक्षों को प्रासंगिक मुद्दों पर अपनी बहस को केंद्रित करने एवं एक स्वैच्छिक समझौते तक पहुँचने में सहायता करते हैं। विवाचन में तृतीय पक्ष को दोनों पक्षों को सुनने के बाद एक निर्णय देने का प्राधिकार होता है।
(vi) संरचनात्मक समाधान-न्याय के सिद्धांतों के अनुसार सामाजिक संसाधनों का पुनर्वितरण करके भी द्वंद्व को कम किया जा सकता है। न्याय पर किए गए शोध में न्याय के अनेक सिद्धांतों की खोज की गई है। इनमें से कुछ हैं-समानता (सभी का समान रूप से विनिधान करना), आवश्यकता (आवश्यकताओं के आधार पर विनिधान करना), तथा समता (सदस्यों के योगदान के आधार पर विनिधान करना)।
(vii) दूसरे समूह के मानकों का आदर करना- भारत जैसे बहुविध समाज में विभिन्न सामाजिक एवं सजातीय समूहों के प्रबल मानकों का आदर करना एवं उनके प्रति संवेदनशील होना आवश्यक है। यह देखा गया है कि विभिन्न समूहों के बीच होने वाले अनेक सांप्रदायिक दंगे इस प्रकार की असंवेदनशीलता के कारण ही हुए हैं।
प्रश्न 44. भीड़ के प्रमुख लक्षण क्या हैं? भीड़ के प्रमुख मनोवैज्ञानिक परिणामों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: भीड़ का संदर्भ उस असुस्थता की भावना से है जिसका कारण यह है कि हमारे आस-पास बहुत अधिक व्यक्ति या वस्तुएँ होती हैं जिससे हमें भौतिक बंधन की अनुभूति होती है तथा कभी-कभी वैयक्तिक स्वतंत्रता में न्यूनता का अनुभव होता है। एक विशिष्ट क्षेत्र या दिक् में बड़ी संख्या में व्यक्तियों की उपस्थिति के प्रति व्यक्ति की प्रतिक्रिया ही भीड़ कहलाती है। जब यह संख्या एक निश्चित स्तर से अधिक हो जाती है तब इसके कारण वह व्यक्तिक जो इस स्थिति में फंस गया है, दबाव का अनुभव करता है। इस अर्थ में भीड़ भी एक पर्यायवाची दबावकारक का उदाहरण है।
भीड़ के अनुभव के निम्नलिखित लक्षण होते हैं-
- असुरक्षा की भावना,
- वैयक्तिक स्वतंत्रता में न्यूनता या कमी,
- व्यक्ति का अपने आस-पास के परिवेश के संबंध में निषेधात्मक दृष्टिकोण तथा
- सामाजिक अंत:क्रिया पर नियंत्रण के अभाव की भावना।
भीड़ के प्रमुख मनोवैज्ञानिक परिणाम निम्नलिखित हैं-
(i) भीड़ तथा अधिक घनत्व के परिणामस्वरूप असामान्य व्यवहार तथा आक्रामकता उत्पन्न हो सकते हैं। अनेक वर्षों पूर्व चूहों पर किए गए शोध में यह परिलक्षित हुआ था। इन प्राणियों को एक बाड़े में रखा गया, प्रारंभ में यह कम संख्या में आक्रामक तथा विचित्र व्यवहार प्रकट होने लगे, जैसे-दूसरे चूहों की पूँछ काट लेना। यह आक्रामक व्यवहार इस सीमा तक बढ़ा कि अंततः ये प्राणी बड़ी संख्या में मर गए जिससे बाड़े में उनकी जनसंख्या फिर कम हो गई। मनुष्यों में भी जनसंख्या वृद्धि के साथ कभी-कभी हिंसात्मक अपराधों में वृद्धि पाई गई हैं।
(ii) भीड़ के फलस्वरूप उन कठिन कार्यों का, जिनमें संज्ञानात्मक प्रक्रियाएँ निहित होती हैं, निष्पादन निम्न स्तर का हो जाता है तथा स्मृति और संवेगात्मक दशा पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। ये निषेधात्मक प्रभाव उन व्यक्तियों में अल्प मात्रा में परिलक्षित होते हैं जो भीड़ वाले परिवेश के आदी होते हैं।
(iii) वे बच्चे जो अत्यधिक भीड़ वाले घरों में बड़े होते हैं, वे निचले स्तर के शैक्षिक निष्पादन प्रदर्शित करते हैं। यदि वे किसी कार्य पर असफल होते हैं तो उन बच्चों की तुलना में जो कम भीड़ वाले घरों में बढ़ते हैं, उस कार्य पर निरंतर काम करते रहने की प्रवृति भी उनमें दुर्बल होती है। अपने माता-पिता के साथ वे अधिक द्वंद्व का अनुभव करते हैं तथा उन्हें अपने परिवार से भी कम सहायता प्राप्त होती हैं।
(iv) सामाजिक अंतःक्रिया की प्रकृति भी यह निर्धारित करती है कि व्यक्ति भीड़ के प्रति किस सीमा तक प्रतिक्रिया करेगा। उदाहरण के लिए यदि अंतःक्रिया किसी आनंददायक सामाजिक अवसर पर होती हैं; जैसे-किसी प्रीतिभोज अथवा सार्वजनिक समारोह में, तब संभव है कि उसी भौतिक स्थान में बड़ी संख्या में अनेक लोगों की उपस्थिति कोई भी दबाव उत्पन्न करे। बल्कि इसके फलस्वरूप सकारात्मक सांवेगिक प्रतिक्रियाएँ हो सकती हैं । इसके साथ ही, भीड़ भी सामाजिक अंत:क्रिया की प्रकृति को प्रभावित करती है।
(v) व्यक्ति भीड़ के प्रति जो निषेधात्मक प्रभाव प्रदर्शित करते हैं, उसकी मात्रा में व्यक्तिगत भिन्नताएँ होती हैं तथा उनकी प्रतिक्रियाओं की प्रकृति में भी भेद होता है।
प्रश्न 45. निर्धनता उपशमन के उपयोग की व्याख्या कीजिए।
उत्तर: निर्धनता उपशमन के उपाय-निर्धनता एवं उसके निषेधात्मक परिणामों को उपशमित अथवा कम करने के लिए सरकार तथा अन्य समूहों द्वारा अनेक कार्य किए जा रहे हैं। यह कार्य निम्नलिखित हैं-
(i) निर्धनता चक्र को तोड़ना तथा निर्धन व्यक्तियों के आत्मनिर्भर बनाने हेतु सहायता करना-प्रारंभ में निर्धन व्यक्तियों को वित्तीय सहायता, चिकित्सापरक एवं सुविधाएँ उपलब्ध कराना आवश्यक हो सकता है। यह ध्यान रखने की आवश्यकता होती है कि निर्धन व्यक्ति इस वित्तीय एवं अन्य प्रकार की सहायताओं और स्रोतों पर अपनी जीविका के निर्भर न हो जाएँ।
(ii) ऐसे संदर्भो का निर्माण जो निर्धन व्यक्तियों को उनकी निर्धनता के लिए दोषी ठहराने की बजाय उन्हें उत्तरदायित्व सिखाए-इस उपाय के द्वारा उन्हें आशा, नियंत्रण एवं अनन्यता की भावनाओं को दोबारा अनुभव करने में सहायता मिलेगी।
(iii) सामाजिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करते हुए शैक्षिक एवं रोजगार के अवसर उपलब्ध कराना-इस उपाय के द्वारा निर्धन व्यक्तियों को अपनी योग्यताओं तथा कौशलों को पहचानने में सहायता मिलेगी जिससे वे समाज के अन्य वर्गों के समकक्ष अपने में समर्थ हो सकें । यह कुंठा को कम करके अपराध एवं हिंसा को भी कम करने में सहायक होगन तथा निर्धन व्यक्तियों को अवैध साधनों के बजाय, वैध साधनों से जीविकोपार्जन करने हेतु प्रोत्साहित करेगा।
(iv) उन्नत मानसिक स्वास्थ्य हेतु उपाय-निर्धनता न्यूनीकरण के अनेक उपाय उनके शारीरिक स्वास्थ्य को तो सुधारने में सहायता करते हैं किन्तु उनके मानसिक स्वास्थ्य की समस्या का समाधान प्रभावी ढंग से करना फिर भी आवश्यक होता है। यह आशा की जा सकती है कि इस समस्या के प्रति जागरूकता के द्वारा निर्धनता के इस पक्ष पर अधिक ध्यान देना संभव हो सकेगा।
(v) निर्धन व्यक्तियों को सशक्त करने के उपाय-उपर्युक्त उपायों के द्वारा निर्धन व्यक्तियों को अधिक सशक्त बनाना चाहिए जिससे वे स्वतंत्र रूप से गरिमा के साथ अपना जीवन-निर्वाह करने में समर्थ हो सकें तथा सरकार अथवा अन्य समूहों की सहायता पर निर्भर नहीं रहें।।
प्रश्न 46. अचेतन की परिभाषा दें तथा इसकी विशेषताओं का वर्णन करें। अथवा, अचेतन क्या है ? अचेतन की विभिन्न विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर: मन के सम्बन्ध में फ्रायड ने अपना वैज्ञानिक अध्ययन प्रस्तुत किया है। उन्होंने मन के दो पहलुओं की चर्चा की है-
- मन के गत्यात्मक पहलू,
- मन के आकारात्मक पहलू।
आकारात्मक पहलू के आधार पर उन्होंने मन को तीन भागों में बाँटा है-
- चेतन,
- अर्द्धचेतन
- अचेतन।
चेतन के सम्बन्ध में फ्रायड का कहना है कि यह मन का वह भाग, जिसकी जानकारी व्यक्ति का वर्तमान में रहती है। अर्द्धचेतन में ऐसे विचार रहते हैं, जिसकी जानकारी व्यक्ति को तत्काल नहीं रहती, लेकिन प्रयास करने पर उसकी जानकारी हो सकती है, लेकिन अचेतन मन का वह भाग है, जिसकी जानकारी व्यक्ति को न तो वर्तमान में रहती है और न ही प्रयास करने पर उसकी जानकारी हो सकती है।
अचेतन मन का सबसे बड़ा भाग है। इसकी तुलना फ्रायड ने बर्फ के उस बड़े टुकड़े से की है, जो पानी में है। जिस प्रकार पानी के रहने के कारण उसका बड़ा भाग दिखाई नहीं पड़ता है, उसी प्रकार मन के इस बड़े भाग की जानकारी व्यक्ति को नहीं रहती है। फ्रायड के अनुसार, यह मन का 7/8वाँ भाग है। इसमें हमारी अतृप्त इच्छाएँ संचित रहती हैं। फ्रायड से पूर्व भी कई विद्वानों ने अचेतन की चर्चा की है, लेकिन फ्रायड ने इसे कसौटियों पर कसकर इसे वैज्ञानिक रूप में पेश किया है। पहले के लोगों का विचार था कि अचेतन में निष्क्रिय एवं व्यर्थ की मानसिक क्रियाएँ रहती हैं, जिनका हमारे जीवन में कोई महत्त्व नहीं होता, लेकिन फ्रायड ने उसका खण्डन किया और बतलाया कि इसमें निष्क्रिय एवं बेकार की मानसिक क्रियाएँ नहीं रहतीं, बल्कि सक्रिय मानसिक क्रियाएँ रहती हैं। इसका हमारे मानसिक जीवन में बहुत अधिक महत्त्व होता है। यह व्यक्ति को हमेशा प्रभावित करते रहता है।
अचेतन की परिभाषा देते हुए ब्राउन ने कहा है-“अचेतन मन का ऐसा भाग है, जिसमें ऐसे विचार या मानसिक क्रियाएँ रहती हैं, जिसका प्रत्यावहन व्यक्ति अपने इच्छानुसार नहीं कर पाता। वे या तो स्वतः प्रकट होते हैं या उन्हें सम्मोहन या अन्य प्रयोगात्मक विधियों द्वारा जाना जा सकता है।” ब्राउन की परिभाषा से स्पष्ट हो रहा है कि अचेतन मन का वह भाग है जिसमें कुछ विचार सूचित होते हैं जो कभी चेतन में थे, लेकिन वर्तमान में किसी कारणवश अचेतन में चले गये हैं। उनकी परिभाषा से यह स्पष्ट हो रहा है कि अचेतन के विचारों को अपनी इच्छा से नहीं जाना जा सकता है। ये मौका पाकर अपने आप प्रकट होते हैं या उन्हें मनोवैज्ञानिक तरीके से जाना जा सकता है।
अचेतन की विशेषताएँ : अचेतन की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
1. अचेतन मन का सबसे बड़ा भाग है-फ्रायड के अनुसार, अचेतन मन के तीनों पहलुओं में सबसे बड़ा भाग है। यह मन का 7/8वाँ भाग है। इससे स्पष्ट होता है कि अचेतन तुलना में कितना बड़ा है।
2. कामुक इच्छाओं का भंडार-फ्रायड ने कहा है कि अचेतन में काम-सम्बन्धी इच्छाएँ रहती है। इसका खास कारण यह है कि व्यक्ति का जीवन काम शक्तियों से प्रेरित होता है, अर्थात् व्यक्ति की हर इच्छाएँ काम से ही प्रेरित रहती है। इस मत को लेकर फ्रायड का बहुत विरोध हुआ, लेकिन फ्रायड ने काम शब्द का प्रयोग व्यापक रूप में किया है। उन्होंने कहा कि केवल संभोग ही काम नहीं है। अपने बच्चों के प्रति माता-पिता का स्नेह, मैत्री, मातृत्व, भाई-बहनों का प्रेम आदि काम-शक्ति से प्रेरित होता है। फ्रायड ने कहा कि काम-शक्ति बच्चों में भी रहती है। जब बच्चा किसी चीज को मुंह से चूसता है, तो वह लैंगिक इच्छाओं की संतुष्टि करता है, जिस प्रकार की संतुष्टि बड़े होने पर संभोग के द्वारा करता है। काम की संतुष्टि में समाज के द्वारा बाधाएँ उत्पन्न की जाती है जिससे व्यक्ति में काम-सम्बन्धी इच्छाओं की तृप्ति नहीं हो पाती है और उसका दमन अचेतन मन में हो जाता है, इसलिए अचेतन को कामुक इच्छाओं का भंडार माना जाता है।
3. अचेतन में इड की प्रवृत्तियाँ-व्यक्ति के अचेतन में इड की प्रवृत्तियाँ भरी रहती हैं। हम जानते हैं कि इड को वास्तविकता का ज्ञान नहीं रहता, अतः अपनी असामाजिक या अनैतिक इच्छाओं की पूर्ति करना चाहता है, किन्तु सामाजिक व्यवस्था के कारण इसकी पूर्ति संभव नहीं हो पाती, अतः ऐसे विचारों या इच्छाओं का दमन अचेतन मन में हो जाता है।
4. अचेतन अतार्किक एवं अनैतिक होता है-फ्रायड के अनुसार, अचेतन अतार्किक एवं अनैतिक होता है। अचेतन को समय एवं परिस्थिति का ज्ञान नहीं रहता है।