12th Home Science

Bihar Board 12th Home Science Important Questions Long Answer Type Part 1

Bihar Board 12th Home Science Important Questions Long Answer Type Part 1

BSEB 12th Home Science Important Questions Long Answer Type Part 1

प्रश्न 1. हैजा रोग के लक्षण एवं फैलने के कारण बताएँ।
उत्तर:
यह रोग बेसिलस जीवाणु द्वारा फैलता है जो ‘बिब्रियो कोम’ के नाम से जाना जाता है। यह रोग बहुत तीव्र गति से संक्रमित होता है। इसलिए महामारी का रूप धारण करता है। यह गर्मी तथा बरसात के दिनों में अधिक होता है।

लक्षण-

  • रोगी को उल्टी तथा पतले दस्त आते हैं।
  • रोगी को पेट में दर्द रहता हैं।
  • आँखें पीली पड़ जाती है।
  • उसे अधिक ठंढ लगती है और अधिक प्यास लगती है और मूत्र का आना बंद हो जाता है या बहुत कम मात्रा में आता है।
  • उचित समय पर इलाज न करने पर शरीर में पानी की कमी हो जाती है और निर्जलीकरण हो जाता है।

फैलने के कारण-

  • संक्रमित जल, दूध अथवा पेय पदार्थ
  • अस्वच्छता का वातावरण
  • रोगी के गंदे वस्त्र
  • हैजे के रोगी की देखभाल कर रहे व्यक्ति की अस्वच्छता द्वारा।

प्रश्न 2. कुकर खाँसी के लक्षण, उपचार एवं रोकथाम लिखें।
अथवा, रात को तेज खाँसी है तथा उसमें ‘बू’ की आवाज भी है। वह किस रोग से ग्रस्त है ? इस रोग के दो अन्य लक्षण लिखिए तथा इस रोग से कैसे बचा जा सकता है ?
उत्तर:
कुकर खाँसी (Whooping Cough or Pertusis)- यह रोग बैसीलस परट्यूसिस (Bacillus Pertusis) नामक जीवाणु के संक्रमण द्वारा विशेषकर बच्चों में होता है।

लक्षण-

  1. प्रारंभ में बच्चे को खाँसी आने लगती है जो बाद में बढ़कर गम्भीर रूप धारण कर लेती है।
  2. खाँसी के साथ-साथ बच्चे को छींके आना, नाक बहना व आँखों से पानी निकलने लगता है।
  3. खाँसते-खाँसते बच्चों का मुँह लाल हो जाता है और कई बार वह वमन भी कर देता है।
  4. बच्चे को खाँसी के साथ छाती से एक विशेष प्रकार की आवाज भी निकलती है जिसके कारण इसे Wooping Cough कहते हैं।
  5. खाँसी के साथ हल्का बुखार भी रहता है।

उपचार एवं रोकथाम-

  1. लक्षण दिखाई देने पर डॉक्टर को दिखाना चाहिए।
  2. रोगी बच्चे को स्वस्थ बच्चों से अलग रखना चाहिए।
  3. रोगी बच्चे की ठण्ड व सीलन से रक्षा करनी चाहिए तथा उन्हें हवादार कमरे में रखना चाहिए।
  4. रोगी को हल्का व आसानी से पचने वाला भोजन देना चाहिए।
  5. शिशु को सही समय व अन्तराल का डी० पी० टी० के टीके लगवाने चाहिए।
  6. रोगी के वस्त्रों, वस्तुओं व कमरे आदि को विसंक्रमित करना चाहिए।

प्रश्न 3. पोलियो रोग के लक्षण, उपचार एवं रोकथाम के बारे में लिखें।
उत्तर:
पोलियो- यह रोग प्राय: 1-2 वर्ष के बच्चों में अधिक होता है। यह रोग विषाणुओं के संक्रमण के कारण होता है।
लक्षण-

  • पोलियो का आरम्भ बच्चे को तेज बुखार चढ़ने के साथ होता है।
  • इस रोग के विषाणु बच्चे के तंत्रिका तन्त्र को प्रभावित करते हैं जिससे प्रभावी अंग लगभग बेकार हो जाता है और सूखने लगता है।

उपचार व रोकथाम-

  • बच्चे को ठीक समय पर तथा सही अन्तराल पर पोलियो की प्रतिरोधक दवाई बूंदों के रूप में अवश्य देनी चाहिए।
  • भारत सरकार पोलियो जैसी शरीर असमर्थता पैदा करने वाली बीमारी से बच्चों को बचाने के लिए पोलियो पल्स (Polio Pulse) कार्यक्रम द्वारा प्रत्येक छोटे बच्चे को पोलियो की दवा निःशुल्क देती है।

प्रश्न 4. क्षय रोग क्या होता है ? इसके कारण लक्षण व उपचार के बारे में बताएँ।
उत्तर:
क्षय रोग दीर्घकालीन बैक्टीरिया से उत्पन्न बीमारी है। इस रोग को टी० बी० (तपेदिक) या ट्यूबरक्लुलोसिस भी कहा जाता है। वह रोग वायु के द्वारा फैलता है। यह रोग बहुत भयानक है जो शरीर के कई भागों में हो सकता है। जैसे-फेफड़ों का तपेदिक-जिसे टी० बी० कहते हैं, आंतों का तपेदिक, ग्रंथियों का तपेदिक, हड्डियों का तपेदिक (रीढ़ की हड्डी) मस्तिष्क का तपेदिक आदि।

रोग का कारण-

  • यह रोग सूक्ष्मदर्शी जीवाणु बैक्टीरियम (Micro-bacterium) तथा ट्यूबर्किल बेसिलस (Tubercele Bacillus) से फैलता है। यह जीवाणु सूर्य की किरणों से नष्ट हो जाता है।
  • भीड़-भाड़, खुली हवा की कमी तथा धूप की कमी से भी यह रोग फैलता है।
  • इस रोग का कारण, रोगी का गाय, भैंस का दध पीना भी है।
  • रोगी के मल, बलगम तथा खांसने से रोग फैलता है।
  • मक्खियाँ भी रोग फैलाने का कारण है।
  • माता-पिता को यदि तपेदिक हो तो बच्चों में इस रोग की संभावना हो जाती है।

संक्रमण कारक एवं उद्भव काल-

  • वायु।
  • संक्रमित प्राणियों को छोड़ी हुई श्वास द्वारा।
  • उद्भवकाल-कुछ सप्ताह के कुछ सालों तक की 4-6 सप्ताह।

मुख्य लक्षण-

  • कमजोरी व थकावट।
  • भार में कमी तथा हड्डियाँ दिखाई देना।
  • भूख में कमी।
  • हल्का ज्वर रहना तथा रात को पसीना आना।
  • खांसी, बलगम में खून आना।
  • छाती व गले में दर्द तथा सांस फूलना।
  • हृदय की धडकन कम हो जाना।
  • स्त्रियों में मासिक कम होना।

उपचार तथा रोकथाम-

  • दूध को दस मिनट तक उबालने पर टी० बी० के जीवाणु नष्ट हो जाते हैं।
  • रोगी को खुली हवा, प्रकाश तथा पूरा आराम देना चाहिए।
  • रोगी को संतुलित एवं पौष्टिक आहार देना चाहिए।
  • डॉक्टर की सलाह से रोगी को स्ट्रैप्टोमाइसिन के टीके 2 1/2 महीने तक लगवाना चाहिए।
  • दवा के साथ A तथा D तथा कैल्शियम की गोलियाँ देना आवश्यक है।

रोकथाम-

  • रोगी को दूसरे लोगों से अलग रखना चाहिए।
  • घरों में सूर्य के प्रकाश तथा हवा का आवागमन रखना जरूरी है।
  • रोगी के विसर्जन को जला देना चाहिए।
  • बच्चों को जन्म के पश्चात् पहले माह के अंदर बी०सी०जी० का टीका लगाना चाहिए।
  • प्रसार माध्यम से इस रोग की जानकारी सभी लोगों को देनी चाहिए ताकि लोग जागरूक हों।

प्रश्न 5. एक बालक के जन्म से एक वर्ष तक का सामाजिक विकास समझाये।
उत्तर:
जन्म के समय शिशु न सामाजिक होता है और न ही असामाजिक बल्कि वह समाज के प्रति उदासीन होता है। आयु बढ़ने के साथ-साथ सामाजिक गुणों से सुशोभित होता जाता है। चाईल्ड के अनुसार, सामाजिक विकास वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति में उसके समूह मानकों के अनुसार वास्तविक व्यवहार का विकास होता है।

सामाजिक विकास की अवस्थाएँ-जन्म के समय बालक उस समय तक दूसरे बालकों में रूचि नहीं लेता है जब तक उसकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति सामान्य ढंग से होती है। दो माह की आयु तक बालक बहुत तीव्र उत्तेजनाओं के प्रति ही प्रतिक्रिया करता है। तीन माह की आयु तक बालक विभिन्न ध्वनियों में भेद पहचानने लगता है। वह दूसरे के मुखमंडल की भाव-भंगिमाओं को समझने लगता है। चार माह का बालक समायोजन करने लगता है। पाँच-छ: माह की आयु में वह क्रोध तथा मित्रता का भाव समझने लगता है। आठ-नौ माह में वह वाणी संबंधी ध्वनियों का अनुसरण करने लगता है। एक वर्ष का बालक अपरिचितों को देखकर डरने लगता है।
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प्रश्न 6. संवेगों के प्रकार संक्षिप्त रूप में समझाइए।
उत्तर:
संवेगों के प्रकार (Types of Emotions)- व्यक्ति के व्यवहार में किसी न किसी अंश में संवेग अवश्य विद्यमान होते हैं। जिस प्रकार सुगन्ध दिखाई न देने पर भी फूल में विद्यमान रहते हैं, ठीक उसी प्रकार हमारे व्यवहार में संवेग व्याप्त रहते हैं। संवेग बच्चे की प्रसन्नता को बढ़ाने के साथ-साथ उसकी क्रियाशीलता को भी बढ़ाते हैं।

विभिन्न संवेगों को दो वर्गों में बाँटा जाता है-

  1. दुःखद संवेग (Unpleasent Emotions)-क्रोध, भय, ईर्ष्या आदि।
  2. सुखद संवेग (Pleasent Emotions)-हर्ष, स्नेह, जिज्ञासा आदि।

1. दुःखद संवेग-
(i) क्रोध (Anger)- शैशवकाल में प्रदर्शित होने वाले सामान्य संवेगों में क्रोध सर्वप्रमुख है क्योंकि शिशु के पर्यावरण में क्रोध पैदा करने वाले अनेक उद्दीपन होते हैं। शिशु को बहुत जल्दी ही यह मालूम हो जाता है कि दूसरों का ध्यान आकर्षित करने के लिए या फिर अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए जोर से रोकर, चीखकर या चिल्लाकर अपना क्रोध प्रकट करना सबसे आसान तरीका है। यही कारण है कि शिशु केवल भूख या प्यास लगने पर ही नहीं रोता अपितु जब वह चाहता है कि उसकी माता उसे गोद में उठाए तब भी जोर-जोर से रोता है।

जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है तब अपने कार्य में बाधा डालने के परिणामस्वरूप भी गुस्सा करने लगता है, जैसे जब वह खिलौनों से खेलना चाहे उस समय उसे कपड़े पहनाना, उसे कमरे में अकेला छोड़ देना, उसकी इच्छा की पूर्ति न करना आदि।

प्रायः सभी बच्चों के गुस्सा होने के कारण अलग-अलग हो सकते हैं परन्तु गुस्सा होने पर सभी एक-सा व्यवहार करते हैं जैसे रोना, चीखना, हाथ-पैर पटकना, अपनी सांस रोक लेना, जमीन पर लेट जाना, पहुँच के अन्दर जो भी चीज हो उसे उठाकर फेंकना या फिर ठोकर मारना आदि।

(ii) भय (Fear)- क्रोध के विपरीत, शिशु में भय पैदा करने वाले उद्दीपन अपेक्षाकृत कम होते हैं। शैशवावस्था में शिशु प्रायः निम्न स्थितियों में डरता है। अंधेरे कमरे, ऊँचे स्थान, तेज शोर, दर्द, अपरिचित लोग व जगह, जानवर आदि। जैसे-जैसे शिशु बड़ा होता है उसके मन में भय की संख्या और तीव्रता भिन्न-भिन्न होती है।

भय को बढ़ाने वाली निम्न दो स्थितियाँ हैं-
(i) अचानक तथा अप्रत्याशित स्थिति,
(ii) नई स्थिति।

(i) अचानक तथा अप्रत्याशित स्थिति- बच्चे के सामने जब कोई अप्रत्याशित स्थिति आती है तो वह अपने आप को उसके अनुरूप एकदम ढाल नहीं सकता है। यही कारण है कि जब बच्चे के सामने कोई अपरिचित व्यक्ति आता है तो वह डर जाता है।
(ii) नई स्थिति- जब बच्चे के सामने नई स्थिति या अजनबी स्थिति आती है जैसे उसके माता या पिता या फिर कोई अन्य परिचित व्यक्ति अलग किस्म के कपड़े पहन कर बच्चे के सामने आए तो इससे भी बच्चा डर जाता है।

डर कर शिशु चिल्लाकर या सांस रोककर अपने आपको डरावनी स्थिति से दूर करने की कोशिश करता है और अपना सिर घुमाकर चेहरे को छिपाने का प्रयत्न करता है। जब बच्चा चलना सीख जाता है तब वह भाग कर किसी व्यक्ति के पीछे या किसी चीज के पीछे छुप जाता है और डरावनी स्थिति से दूर होने की प्रतीक्षा करता है।

(iii) ईर्ष्या (Jealousy)- ईर्ष्या का अर्थ है-किसी के प्रति गुस्से से भरा विरोध करना। ईर्ष्या प्रायः सामाजिक स्थितियों द्वारा उत्पन्न होती है। जब परिवार में नया शिशु आता है तब छोटे बच्चे में उस शिशु के प्रति ईर्ष्या का भाव उत्पन्न होता है क्योंकि उसे लगता है कि उसके माता-पिता जो पहले केवल उससे प्यार करते थे, अब उस शिशु से भी प्यार करने लगे हैं। दो वर्ष से पाँच वर्ष के बीच बच्चे में ईर्ष्या सर्वाधिक होती है। छोटा बच्चा कई बार अपने से बड़े भाई अथवा बहन से भी ईर्ष्या करने लगता है क्योंकि उसे लगता है कि उनका ध्यान अधिक करना या फिर बीमारी . या डर होने का दिखावा करके बड़ों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश करता है।

2. सुखद संवेग-
(i) हर्ष (Joy or pleasure)- हर्ष का अर्थ है खुशी अथवा प्रसन्नता। शिशु एक माह से दो माह का होने पर सामाजिक परिस्थितियों में भी मुस्कराना और हंसना शुरू कर देता है (Social Smile)। इसके पश्चात् बच्चा छेड़छाड़ करने पर, गुदगुदा जाने पर हर्ष प्रकट करता है। दो वर्ष का होने पर बच्चा कई परिस्थितियों में खुश होता है जैसे खिलौनों से खेलना, अन्य बच्चों के साथ खेलना, दूसरे बच्चों को खेलते देखना या रोचक ध्वनियाँ पैदा करना।

सभी बच्चे अपनी खुशी मुस्करा कर या हँस कर प्रकट करते हैं। इस आयु में बच्चा हँसने के साथ बाँहों और टाँगों को भी हिलाता है। बच्चा जितना अधिक खुश होता है, उतनी ही अधिक उसकी शारीरिक गतियाँ होती हैं। डेढ़ वर्ष का बच्चा अपनी ही चेष्टाओं पर मुस्कराता है। दो वर्ष का होने पर वह दूसरों के साथ मिलकर हँसने लगता है।

(ii) स्नेह (Affection)- बच्चे में लोगों के प्रति स्नेह की अनुक्रियाएँ धीरे-धीरे विकसित होती हैं। बच्चे का किसी के प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार उस व्यक्ति की ओर आकर्षित होकर उसकी गोद में आने के प्रयास से दिखाई देता है। पहले शिशु उस व्यक्ति के चेहरे को ध्यान से देखता है, इसके पश्चात् अपनी टाँगें चलाता है, बाँहों को फैलाकर हिलाता है तथा मुस्करा कर अपने शरीर को ऊपर उठाने की कोशिश करता है। प्रारम्भ में चूँकि शिशु के शरीर की गतियाँ असमन्वित होती हैं इसलिए वह उस व्यक्ति तक पहुँचने में असफल होता है। छः माह का होने पर शिशु उस व्यक्ति के प्रति स्नेह दिखाता है और धीरे-धीरे अपरिचित व्यक्ति भी बच्चे के स्नेह के पात्र बन जाते हैं।

दो वर्ष का होने पर बच्चा परिचित व्यक्तियों के स्थान पर अपने आप से तथा अपने खिलौनों से स्नेह करने लगता है। घर में पालतू जानवर होने पर शिशु उससे डरे बिना उसके साथ खेलता है और उससे प्यार करने लगता है। प्रायः शिशु अपना स्नेह प्रकट करने के लिए चिपटना, थपथपाना, सहलाना या चूमने जैसी क्रियाएँ करता है। जिन बच्चों को अपने स्नेह की भावना को व्यक्त करने के सभी सामान्य अवसर नहीं मिलते हैं, उनके शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक विकास पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है जिससे उनके सामाजिक विकास पर भी प्रभाव पड़ता है।

(iii) जिज्ञासा (Curiosity)- जन्म के दो-तीन माह पश्चात् तक शिशु की आँखों का समन्वय भली-भाँति विकसित नहीं होता है और उसका ध्यान केवल तीव्र उद्दीपन से ही आकर्षित होता है। लेकिन आयु वृद्धि के साथ जैसे ही शिशु साफ-साफ और अलग-अलग देख सकता है वैसे ही कोई भी नई या असाधारण बात से आकर्षित होता है बशर्ते उसका नयापन इतना अधिक न हो कि भय पैदा कर सके। शिशु का भय कम होने के साथ उसकी जिज्ञासा बढ़ती है। शिशु अपनी जिज्ञासा को मुँह खोलकर, जीभ बाहर निकालकर, चेहरे की मांसपेशियाँ कस कर तथा माथे पर’ बल डालकर अभिव्यक्त करता है। एक से डेढ़ वर्ष का बच्चा जिज्ञासा जागृत करने वाली चीज की ओर झुककर उसे पकड़ने की कोशिश करता है और उस चीज के हाथ में आ जाने पर उसे हिलाता, खींचता व बजाता है।

प्रश्न 7. शारीरिक रूप से अपंग बच्चों के समक्ष आने वाली कुछ समस्याओं का ब्यौरा दीजिए। स्कूल उन्हें किस प्रकार से मदद कर सकता है ?
उत्तर:
विभिन्न प्रकार की असमर्थता/विकलांगता- विकलांगता शारीरिक, वाणी दोष तथा तंत्रिकी दोष संबंधी होती है।
शारीरिक-

  • आँख-पूर्ण या अपूर्ण अन्धापन।
  • कान-पूर्ण या अपूर्ण बहरापन।
  • अंगहीनता/कमजोर अंग।
  • शारीरिक विषमताएँ झिल्लीदार उंगलियाँ, कूबड़, छांगा, शशा ओष्ठ (Hare lip), दीर्ण तालु, (Cleft Palates), मुख व शरीर पर जन्म चिह्न।

वाक दोष- इनके कारण बच्चा हकलाने लगता है और उसके व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है।
क्रमिक दोष- जो दोष क्रम में सदा होते रहते हैं, उन्हें क्रमिक दोष कहते हैं। हृदय रोग, गठिया तथा माँसपेशी रोग।

तंत्रिकी (Neurological) दोष- ये दोष केन्द्रीय नाड़ी मण्डल की अस्वस्थता के कारण उत्पन्न होते हैं जैसे दिमागी-पक्षाघात, (Cerebralpalsy), मिर्गी (Epilepsy), तथा सिजोफेरेनिया। दिमागी पक्षापात में मस्तिष्क के ठीक कार्य न करने के कारण विभिन्न अंगों में भी पक्षाघात हो जाता है। अनियंत्रित आक्रमण के कारण मूर्छा आना और सन्तुलन खोना मिर्गी के रोगी के आम लक्षण हैं।

विशेष शिक्षा तथा शैक्षणिक संस्थाओं की आवश्यकता (Need for Special Education and Educational Institutions)- इन बालकों की विकलांगता के अनुसार अलग-अलग प्रकार की शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता होती है। बधिरों के लिए ओष्ठपठन तथा अंधों को विशेष ब्रेल लिपि द्वारा पढ़ाया जाना आवश्यक है। अतः इन बालकों को उचित उपकरण दिये जाने से ये शिक्षा प्राप्त करने में किसी भी सामान्य बालक की बराबरी कर पाते हैं। अन्य शारीरिक विकलांगताओं जैसे लंगड़ापन, हाथ कटा होना आदि पर बनावटी पैर तथा हाथ लगा कर विकलांगता को एक हद तक दूर किया जा सकता है। ऊँचा सुनने वाले बच्चों की भी श्रवण यंत्रों द्वारा बधिरता को दूर किया जा सकता है। इससे ये अन्य बालकों की भाँति शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं।

मानसिक न्यूनता वाले बच्चों के लिए विशेष संस्थानों की आवश्यकता होती है क्योंकि इसका मानसिक विकास उनकी उम्र के सामान्य बालकों से कम होता है तथा वे कुछ भी सीखने में अधिक समय लगाते हैं। अतः इन्हें इनके कौशल को पहचान कर शिक्षा दी जानी चाहिए जो इनकी आगे चलकर आजीविका भी प्रदान करे।

प्रश्न 8. भाषा विकास को परिभाषित कीजिए। छोटे बच्चों में भाषा का विकास किस प्रकार होता है:
उत्तर:
भाषा सम्प्रेषण का लोकप्रिय माध्यम है। भाषा के माध्यम से बालक अपने विचारों, इच्छाओं को दूसरे पर व्यक्त कर सकता है और दूसरे के विचारों, इच्छाओं तथा भावनाओं को समझ सकता है। हरलॉक के अनुसार भाषा में सम्प्रेषण के वे साधन आते हैं, जिसमें विचारों तथा भावों की प्रतीकात्मक बना दिया जाता है जिससे कि विचारों और भावों को दूसरे के अर्थपूर्ण ढंग से कहा जा सके। बच्चे में भाषा का विकास, बच्चे बोलना शनैः-शनैः सीखते हैं। पाँच वर्ष की शब्दावली के लगभग 2000 शब्द बोलते हैं। अर्थपूर्ण शब्दों और वाक्यों से दूसरे में सम्बन्ध स्थापित करते हैं।

  • 0-3 माह- नवजात शिशु केवल रोने की ध्वनि निकाल सकता है, रोकर ही वह अपनी माता को अपनी भूख व गीला होने के आभास कराता है। तीन माह तक कूजना सीख जाती है। जिसे क, ऊ, उ की ध्वनि निकाल सकता है।
  • 4-6 माह- इस आयु में बच्चे अ, आ की ध्वनि निकाल सकते हैं। फिर वे पा, मा, टा, वा, ना आदि ध्वनि निकाल सकते हैं।
  • 7-9 माह- इस आयु में बच्चे दोहरी आवाज निकाल सकते हैं। जैसे-बाबा, पापा, मामा, टाटा आदि इसे बैवलिंग या शिशुवार्ता कहते हैं।
  • 10-12 माह- बच्चे सहज वाक्य बोलने लगते हैं। वे तब बानीबॉल या बाबी बोल सकते हैं।
  • 1-2 वर्ष-अब बच्चे तीन या चार शब्दों के वाक्य बोलने लगते हैं।
  • 3-5 वर्ष- बच्चों की आदत हो जाती है कि वे नये सीखे शब्दों को बार-बार बोलते हैं। वे आवाज की नकल करते हैं।

प्रश्न 9. जन्म से तीन वर्ष तक के बच्चों में होने वाले सामाजिक विकास का वर्णन करें।
उत्तर:
जन्म के समय शिशु न सामाजिक होता है और न ही असामाजिक बल्कि वह समाज के प्रति उदासीन होता है। आयु बढ़ने के साथ-साथ सामाजिक गुणों से सुशोभित होता जाता है। चाईल्स के अनुसार, सामाजिक विकास वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति में उसके समूह मानकों के अनुसार वास्तविक व्यवहार का विकास होता है।

सामाजिक विकास की अवस्थाएँ :
0 से 3 माह की अवस्था में

  • आवाज की ओर मुड़ता है।
  • हँसता है।
  • दूसरे व्यक्तियों के मुस्कराने पर मुस्कराकर जवाब देता है।
  • ‘कू’ करता है।
  • खुशी से चीखता है।

6 माह की अवस्था में

  • व्यंजन-स्वर के संयोग से बबलाता है।
  • प्रत्यक्ष रूप से आपको देखता है।
  • ध्वनि की ओर मुड़ता है।
  • नकल ध्वनियों का प्रयास करता है।
  • शोर तथा क्रोध की आवाज पर प्रतिक्रिया करता है।
  • ध्यान केन्द्रित करने के लिए बड़बड़ाता है।

7 से 8 माह की अवस्था में

  • मित्रतापूर्ण सम्पर्क।
  • देखने, मुस्कराने तथा साथी को पकड़ने के लिए प्रतिबंधित।
  • अव्यक्तिगत तथा सामाजिक रूप से खेल सामग्री की सुरक्षा के लिए अंधे प्रयासों में झगड़ा।

9 माह की अवस्था में

  • नाम से पुकारने पर उत्तर देता है।
  • चार या चार से अधिक भिन्न ध्वनि उत्पन्न करता है।
  • प्रायः बा, दा का शब्दांशों का प्रयोग करता है।
  • ‘नहीं’ तथा ‘बाय-बाय’ समझता है।
  • ध्वनि की नकल करता है।

12 माह की अवस्था में

  • ताका-झाँकी खेलता है।
  • ध्वनियाँ तथा ध्यान केन्द्रित करने के हाव-भाव दोहराता है।
  • छुपी हुई वस्तु के लिए खोज करता है।
  • लम्बे बबलाने वाले वाक्यों का प्रयोग करता है जो अनर्थक है।
  • साधारण आदेशों को समझता है।
  • विनती पर खिलौने देता है।
  • ऐच्छिक वस्तु के लिए संकेत देता है।
  • दो या तीन शब्द कहता है।
  • परिचित शब्दों की नकल करता है।
  • ‘नहीं’ के सिर हिलाता है।
  • परिचित पशुओं की आवाज की नकल करना पसंद करता है।
  • बाय-बाय के लिए हाथ हिलाता है।

13 माह की अवस्था में

  • झगड़े व्यक्तिगत हो जाते हैं।
  • अत्यधिक झगड़े खेल-सामग्री के लिए होते हैं।

18 माह की अवस्था में

  • लगभग 20 शब्द कह सकता है।
  • जिन वस्तुओं तथा व्यक्तियों को अच्छी तरह जानता है, उनके चित्र पहचानता है।
  • शरीर के तीन अंगों का संकेत करता है (नाक, आँखें, मुँह)।
  • दो शब्दों को मिलाना प्रारंभ करता है (सब गये या बाय-बाय)।
  • पूछने पर पहचानी वस्तुओं को लाता है।
  • 5 वस्तुओं के लिए संकेत कर सकता है।
  • शब्दों तथा ध्वनियों की अधिक स्पष्टता से नकल करता है। खेल सामग्री से हटकर अपने साथी के प्रति ध्यान केन्द्रित करता है।

21 माह की अवस्था में
कुछ छोटे वाक्यांशों को उत्पन्न करता है।

22 माह की अवस्था में

  • दो शब्द वाक्यों में बात करता है। उदाहरण-पापा, काम जाओ।
  • मुझे तथा मेरा सर्वनामों का प्रयोग करता है।
  • दो कदम आदेशों का पालन करता है, उदाहरण के लिए-“अपने जूते उठाओ तथा इसे मेरे पास लाओ।” इन शब्द ध्वनियों का प्रयोग करता है-प, ब, म, व, ह, न इत्यादि।
  • लगभग 300 शब्दों का प्रयोग करता है अथवा कहता है।
  • संकेत करके या दूसरी क्रियाओं द्वारा कुछ साधारण प्रश्नों के उत्तर देता है। जैसे-कहाँ, क्या, क्यों आदि।
  • चार से आठ तक शरीर के अंगों को जानता है।
  • सामाजिक सम्पर्क का अवसर मिलने पर वह संचार कर सकता है।

2 वर्ष 3 माह की अवस्था में
बालक अहम् का भाव विकसित करेगा। वह जानता है कि वह कौन है तथा नाम से बुला सकता है। जो वह चाहता है उसके बारे में अधिक सकारात्मक हो जाएगा। वह न की तुलना में, जो देख-रेख करने वाला कहता है उसके विरुद्ध अपनी इच्छा रखेगा। वह ईंटों से मकान तथा महल बनाने का प्रयास करेगा।

2 वर्ष 6 माह की अवस्था में
वह अपना पहला नाम तथा कुलनाम दोनों जान लेगा। वह साधारण घरेलू कार्य करने में आनन्द प्राप्त करेगा। जैसे-मेज लगाना।

3 वर्ष की अवस्था में

  • शिशु के सामाजिक कौशल उन्नत हो जायेंगे तथा दूसरे बालकों के साथ खेलना पसंद करेगा। वह ऊपर, नीचे तथा पीछे जैसे शब्दों का भली-भांति अर्थ समझ लेगा तथा पूर्ण जटिल वाक्य बनाने योग्य हो जायेगा।
  • बालक विभिन्न भूमिकाएँ कर लेता है।

प्रश्न 10. बाल्यावस्था के विभिन्न रोग क्या हैं ?
अथवा, बाल्यावस्था के सामान्य रोगों से आप क्या समझते हैं ? व्याख्या करें।
उत्तर:
किसी प्राणी को अपना वातावरण की चुनौतियों के अनुकूल प्रतिकार में असफलता के अनुभव रोग कहते हैं। बालक में वैसे भी प्रतिकारता कम होती है। थोड़ी-सी असावधानी से वह रोगग्रस्त हो जाता है। बाल्यावस्था में होने वाले रोग निम्नलिखित हैं-

  • डिप्थीरिया (Diptheria)- जन्म से 5 वर्ष की आयु तक के बालक को यह रोग हो सकता है। इससे बचाव के लिए तीन खुराक छः सप्ताह से प्रारंभ करके 4 से 6 सप्ताह के अंतराल पर दी जाती है।
  • क्षय रोग (Tuberculosis)- जन्म से लेकर सभी आयु के बालक को यह रोग होता है। इससे बचाव के लिए जन्म के समय या दो सप्ताह के भीतर बी० सी० जी० का टीका लगाते हैं।
  • टिटनस (Tetanus)- बच्चों को टिटनस से बचाव के लिए डी० पी० टी० का टीका लगाते हैं।
  • काली खाँसी (Whooping Cough)- जन्म के कुछ सप्ताह बाद से यह रोग हो जाता है। इससे बचाव के लिए डी० पी० टी० का टीका बच्चों को लगाया जाता है।
  • खसरा (Measles)- कुछ माह से लेकर 8 वर्ष तक की आयु तक यह रोग हो सकता है। इससे बचाव के लिए एम० एम० आर० का टीका लगाते हैं।
  • गलसुआ (Mumps)- यह रोग भी बाल्यावस्था में अधिक होता है। इससे बचाव के लिए भी एम० एम० आर० का टीका लगाया जाता है।
  • पीलिया रोग (Hepatities)- यह एक गंभीर रोग होता है। इससे बचाव के लिए Hepatities B-Vaccine बालक को देते हैं। पहली खुराक जन्म के समय, दूसरी 1-2 माह बाद एक तीसरी पहली खुराक के 6-8 महीने बाद भी देते हैं।
  • हैजा (Cholera)- 2 से 10 वर्ष की आयु के बच्चों को यह रोग विशेष रूप से होता है। इसमें रिहाइड्रेशन पद्धति का प्रयोग करते हैं।
  • पोलियो (Polio)- यह रोग भी विशेष रूप से बाल्यावस्था में होता है। पोलियो की दवा तीन खुराकों में दी जाती है जो छः सप्ताह बाद से 4 से 6 सप्ताह के अंतराल पर दी जाती है।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि बाल्यावस्था के बहुत सारे रोग होते हैं जिससे बचाव के लिए प्रतिकारिता की जाती है ताकि बच्चे स्वस्थ रहें।

प्रश्न 11. वैकल्पिक शिशु देखभाल के विभिन्न प्रकार कौन-कौन-से हैं ?
उत्तर:
वैकल्पिक शिशु देखभाल के विभिन्न प्रकार (Kinds ofSubstitute Child Care)- वैकल्पिक शिशु देखभाल निम्नलिखित से प्राप्त की जा सकती है-

  • बड़े बहन-भाई से
  • सम्बन्धियों/पड़ोसियों से
  • किराये पर ली गई सहायता (Hired Help) से
  • क्रेच/डे-केअर केंद्रों (Day Care Centres) से
  • प्री-नर्सरी/नर्सरी स्कूल/बालवाड़ी (Pre-nursery/Nursery/Balwadi) से

अब आप उपर्युक्त सभी सुविधाओं की योग्यताओं का अध्ययन करेंगे।
भाई-बहन की देखभाल (Sibling Care)- निम्न आर्थिक स्थिति के परिवारों में यह आम है। छोटे-छोटे बच्चे आयु में कुछ बड़े बच्चों की देख-रेख में छोड़ दिये जाते हैं। आपको छः वर्ष का बच्चा अक्सर दो या तीन वर्ष की आयु के बच्चों की देखभाल करता दिखेगा। यह देखभाल कितनी सुरक्षित हो सकती है ? अधिक नहीं-क्योंकि छ: वर्ष के बच्चे में शिशुपालन की योग्यता नहीं होती। कुछ बड़े बच्चे भी इस देखभाल के लिए परिपक्व नहीं होते। इसलिए शिशुपालन के लिए कोई और उपाय खोजना चाहिए।

संबंधी व पड़ोसी (Relatives and Neighbours)- घर पर ही रहकर बच्चे की अच्छी देखभाल करने में सहायता कर सकते हैं व करते हैं। बड़े-बूढ़ों का परिवार में होना बच्चों के लिए बहुत बड़ा वरदान है। दादा-दादी, नाना-नानी से बच्चों को प्यार व सुरक्षा मिलती है।

पड़ोसी भी अपने परिवार से अलग अपना ही परिवार होता है। माता की अनुपस्थिति में पड़ोसी बच्चे की वैकल्पिक देखभाल में सहायता कर सकते हैं। ऐसी देख-रेख आम तौर पर अल्पकालीन ही होती है। अगर पड़ोसी के पास समय हो और वह विधिवता देखभाल करने के लिए तैयार हो तो उससे खुलकर बात करनी चाहिए ताकि आप उसकी सहायता का उचित पारिश्रमिक उसे दे सकें।

किराये पर ली गई सहायता (Hired Help)- अमीर शहरी घरानों में यह व्यापक रूप से पायी है। आया/नौकरानी की अच्छी तरह छानबीन करके उसकी विश्वसनीयता व योग्यता परख कर ही उसे रखना चाहिए। क्या आपने आया/नौकरानी को रखने से पहले पुलिस शिनाख्त के बारे में सुना है ? अपने बच्चे की सुरक्षा के लिए माता-पिता को इन पर कड़ी निगरानी रखनी चाहिए।

क्रेच (Creche)-“यह एक ऐसा सुरक्षित स्थान है जहाँ बच्चे को सही देखरेख में तब तक छोड़ा जा सकता है जब तक माता-पिता काम में व्यस्त हों।”

क्रेच एक आवासी देखभाल केंद्र है। अपना कार्य समाप्त करके माता-पिता बच्चों को घर ले जाते हैं। क्या आप कभी क्रेच में गए हैं ?

क्रेच में तीन साल तक की आयु तक के बच्चों को रखा जाता है। यहाँ बच्चों को योग्य कर्मियों की देख-रेख में रखा जाता है। इस कारण माताएँ निश्चिन्त होकर अपना कार्य कर सकती हैं।

प्रश्न 12. बच्चों की वैकल्पिक देखरेख की आवश्यकता क्या है ?
उत्तर:
आमतौर पर बच्चों की देखभाल का दायित्व माता-पिता का होता है। परंतु कई बार ऐसी परिस्थितियाँ आ जाती हैं कि उनकी देखभाल के लिए वैकल्पिक साधन ढूँढने पड़ते हैं। निम्नलिखित कारणों से बच्चों की वैकल्पिक देखभाल की आवश्यकता पड़ती है-

1. माता या पिता की मृत्यु हो जाने पर- जब माता या पिता में से किसी एक की मृत्यु हो जाती है तो ऐसी स्थिति में बच्चों को पालना कठिन हो जाता है। अतः घर के बाहर वैकल्पिक व्यवस्था का सहारा लेना पड़ता है।

2. एकाकी परिवार का होना- आज औद्योगीकरण तथा नगरीकरण के कारण एकाकी परिवार का प्रचलन लोकप्रिय है। यदि माता-पिता कामकाजी हैं तो घर में बच्चों की देखभाल करने वाला कोई नहीं रहता है। अतः बच्चों की देखभाल के लिए वैकल्पिक व्यवस्था करनी पड़ती है।

3. माता का घर से बाहर काम करना- जब महिला (माता) को घर से बाहर जाकर काम करना पड़ता है तो बच्चों की देखभाल के वैकल्पिक व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती है।

4. वैवाहिक संबंध टूटने पर- जब वैवाहिक संबंध टूटता है तो बच्चे की देखभाल की जिम्मेवारी किसी एक अभिभावक पर आ जाती है। फलतः अपने व्यावसायिक दायित्वों को पूरा करने में तथा बच्चों की देखभाल में अनेक दिक्कतें आती हैं। इस बजट से वैकल्पिक व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती है।

5. परिवार के प्रतिमान में परिवर्तन- आज दिन-प्रतिदिन परिवार के प्रतिमानों में परिवर्तन हो रहा है और पारिवारिक संबंधों में कमी आ रही है। फलस्वरूप बच्चों की देखभाल हेतु वैकल्पिक व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती है।

6. रिश्तेदारों के संबंधों में परिवर्तन- आज रिश्तेदारों के संबंधों में भी परिवर्तन हुआ है। इस वजह से आपसी स्नेह में कमी आयी है और व्यक्ति दूसरे की जिम्मेदारियों को उठाने में रूचि नहीं रखता है। इस कारण माता-पिता को घर के बाहर विकल्प ढूँढने पड़ते हैं।

7. पड़ोसियों के संबंधों में परिवर्तन- पहले पारिवारिक संबंधों में पड़ोसियों का भी महत्वपूर्ण योगदान होता था। परंतु आज पड़ोसियों के संबंधों में परिवर्तन आ गया है। शहर में तो लोग अपने पड़ोसियों को जानते भी नहीं है। अतः आज पड़ोसियों के भरोसे बच्चे को नहीं छोड़ा जा सकता है।

प्रश्न 13. नवजात शिशु के जन्म के पश्चात् की आवश्यकताएँ क्या हैं ?
उत्तर:
नवजात शिशु की जन्म के पश्चात् की आवश्यकताएँ निम्नलिखित हैं-

  • वायु- पूर्वाधात शिशुओं को, जो जन्म होने पर साँस नहीं ले रहे होते हैं, सजीव करना।
  • गर्माहट- जन्म के समय बालक को सुखाना, त्वचा से त्वचा सम्पर्क द्वारा गर्माहट को बनाये रखना, पर्यावरण तापमान तथा सिर और शरीर को ढंकना। कम वजन वाले शिशुओं के लिए कंगारू देखभाल को प्रोत्साहन देना।
  • स्तनपान- जन्म के बाद शिशु को पहले चार घंटों के भीतर स्तनपान कराना। छः माह तक उसे स्तनपान कराते रहना।
  • देखभाल- नवजात शिशु को माता-पिता तथा अन्य देखभाल करने वाले वयस्क व्यक्तियों के निकट रखना। माता को स्वस्थ रखना।
  • रोग संक्रमण पर नियंत्रण- सफाई का विशेष ख्याल रखना ताकि रोग पर नियंत्रण रखा जा सके।
  • जटिलताओं का प्रबंधन- वैसी परिस्थितियाँ जो शिशु के जीवन को कष्टकारी बनाती है, को पहचानना और उसे दूर करने का प्रयत्न करना।

प्रश्न 14. एक नवजात शिशु की वैकल्पिक देखभाल संबंधियों द्वारा किये जाने के लाभों की चर्चा करें।
अथवा, बच्चों की देखभाल की क्या-क्या वैकल्पिक व्यवस्था की जा सकती है ?
उत्तर:
वैकल्पिक शिशु देखभाल के विभिन्न प्रकार (Kinds of Substitute Child Care)- वैकल्पिक शिशु देखभाल निम्नलिखित से प्राप्त की जा सकती है-

  • बड़े बहन-भाई से
  • सम्बन्धियों/पड़ोसियों से
  • किराये पर ली गई सहायता (Hired Help) से
  • क्रेच/डे-केअर केंद्रों (Day Care Centres) से
  • प्री-नर्सरी/नर्सरी स्कूल/बालवाड़ी (Pre-nursery/Nursery/Balwadi) से

अब आप उपर्युक्त सभी सुविधाओं की योग्यताओं का अध्ययन करेंगे।

भाई-बहन की देखभाल (Sibling Care)- निम्न आर्थिक स्थिति के परिवारों में यह आम है। छोटे-छोटे बच्चे आयु में कुछ बड़े बच्चों की देख-रेख में छोड़ दिये जाते हैं। आपको छः वर्ष का बच्चा अक्सर दो या तीन वर्ष की आयु के बच्चों की देखभाल करता दिखेगा। यह देखभाल कितनी सुरक्षित हो सकती है ? अधिक नहीं, क्योंकि छः वर्ष के बच्चे में शिशुपालन की योग्यता नहीं होती। कुछ बड़े बच्चे भी इसे देखभाल के लिए परिपक्व नहीं होते। इसलिए शिशुपालन के लिए कोई और उपाय खोजना चाहिए।

संबंधी व पड़ोसी (Relatives and Neighbours)- घर पर ही रहकर बच्चे की अच्छी देखभाल करने में सहायता कर सकते हैं व करते हैं। बड़े-बूढ़ों का परिवार में होना बच्चों के लिए बहुत बड़ा वरदान है। दादा-दादी, नाना-नानी से बच्चों को प्यार व सुरक्षा मिलती है।

पड़ोसी भी अपने परिवार से अलग अपना ही परिवार होता है। माता की अनुपस्थिति में पड़ोसी बच्चे की वैकल्पिक देखभाल में सहायता कर सकते हैं। ऐसी देख-रेख आम तौर पर अल्पकालीन ही होती है। अगर पड़ोसी के पास समय हो और वह विधिवता देखभाल करने के लिए तैयार हो तो उससे खुलकर बात करनी चाहिए ताकि आप उसकी सहायता का उचित पारिश्रमिक उसे दे सकें।

किराये पर ली गई सहायता (Hired Help)- अमीर शहरी घरानों में यह व्यापक रूप से पायी जाती है। आया/नौकरानी की अच्छी तरह छानबीन करके उसकी विश्वसनीयता व योग्यता परख कर ही उसे रखना चाहिए। क्या आपने आया/नौकरानी को रखने से पहले पुलिस शिनाख्त के बारे में सुना है ? अपने बच्चे की सुरक्षा के लिए माता-पिता को इन पर कड़ी निगरानी रखनी चाहिए।

क्रच (Creche)- “यह एक ऐसा सुरक्षित स्थान है जहाँ बच्चे को सही देख-रेख. में तब तक छोड़ा जा सकता है जब तक माता-पिता काम में व्यस्त हों।”

क्रेच एक आवासी देखभाल केंद्र है। अपना कार्य समाप्त करके माता-पिता बच्चों को घर ले जाते हैं। क्या आप कभी क्रेच में गए हैं ?

क्रेच में तीन साल तक की आयु तक के बच्चों को रखा जाता है। यहाँ बच्चों को योग्य कर्मियों की देख-रेख में रखा जाता है। इस कारण माताएँ निश्चिन्त होकर अपना कार्य कर सकती हैं।

प्रश्न 15. आहार आयोजन के महत्त्व क्या हैं ?
उत्तर:
परिवार के सभी सदस्यों को स्वस्थ रखने के लिए आहार का आयोजन आवश्यक होता है। आहार आयोजन का महत्त्व निम्न कारणों से है-

1. श्रम, समय एवं ऊर्जा की बचत- आहार आयोजन में आहार बनाने के पहले ही इसकी योजना बना ली जाती है। आवश्यकतानुसार यह आयोजन दैनिक, साप्ताहिक, अर्द्धमासिक तथा मासिक बनाया जा सकता है। इससे समय, श्रम तथा ऊर्जा की बचत होती है।

2. आहार में विविधता एवं आकर्षण- आहार में सभी भोज्य वर्गों का समायोजन करने से आहार में विविधता तथा आकर्षण उत्पन्न होता है। साथ ही आहार पौष्टिक, संतुलित तथा स्वादिष्ट हो जाता है।

3. बच्चों में अच्छी आदतों का विकास करना- चूँकि आहार में सभी खाद्य वर्गों को शामिल किया जाता है इससे बच्चों को सभी भोज्य पदार्थ खाने की आदत पड़ जाती है। इससे ऐसा नहीं होता कि बच्चा किसी विशेष भोज्य पदार्थ को ही पसंद करे तथा अन्य को ना पसंद करे।

4. निर्धारित बजट में संतुलित एवं रूचिकर भोजन- आहार का आयोजन करते समय निर्धारित आय की राशि को परिवार की आहार आवश्यकताओं के लिए इस प्रकार वितरित किया जाता है जिससे प्रत्येक व्यक्ति के लिए उचित आहार का चुनाव संभव हो सके। आहार आयोजन करते समय प्रत्येक व्यक्ति की रुचि तथा अरुचि का भी ध्यान रखा जाता है और प्रत्येक व्यक्ति को संतुलित आहार भी प्रदान किया जाता है। आहार आयोजन के बिना कोई भी व्यक्ति कभी भी आहार ले सकता है। परंतु व्यक्ति की पौष्टिक आवश्यकताओं को पूरा करने में समर्थ नहीं हो सकता है। आहार आयोजन के बिना परिवार की आय को आहार पर खर्च करने से बजट. भी असंतुलित हो जाता है।

प्रश्न 16. वृद्धों के लिए आहार आयोजन करते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर:
वृद्धों के लिए आहार आयोजन करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए-

  • आहार आसानी से चबाने योग्य हों ताकि वृद्ध उसे अच्छी तरह से चबाकर खा सके।
  • भोजन सुपाच्य हो।
  • भोजन अधिक तले-भूने तथा मिर्च मसालेदार नहीं हो।
  • भोजन में सभी पौष्टिक तत्व मौजूद हों।
  • रफेज की प्राप्ति हेतु नरम सब्जियों तथा फलों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
  • वृद्ध की रुचि के अनुसार भोज्य पदार्थों का चुनाव किया जाना चाहिए ताकि वह प्रसन्नतापूर्वक रुचि के साथ खा सके। (vii) तरल तथा अर्द्ध तरल भोज्य पदार्थों, जैसे–सूप, फलों का रस, दलिया, खिचड़ी आदि को भी आहार में शामिल करना चाहिए।
  • आहार आयोजन इस तरह होना चाहिए कि वृद्ध को उतनी ही कैलोरी मिलनी चाहिए जितनी कि उसके शरीर के लिए आवश्यक है।
  • अस्थि विकृति तथा रक्तअल्पता के बचाव के लिए आहार में पर्याप्त मात्रा में दूध, दूध से बने व्यंजन, यकृत, माँस एवं हरी पत्तेदार सब्जियाँ होनी चाहिए।
  • कब्ज से बचाव के लिए पर्याप्त मात्रा में रेशेदार भोज्य पदार्थों का समावेश होना चाहिए।
  • भोजन बदल-बदल कर दिया जाना चाहिए ताकि खाने में रुचि बनी रहे।
  • बासी तथा खुले भोजन से परहेज होना चाहिए।
  • प्रोटीन की पूर्ति के लिए आहार में प्राणिज भोज्य पदार्थों (अण्डा, दूध, मांस, मछली, यकृत तथा दालों) का समावेश होना चाहिए।
  • पर्याप्त मात्रा में पानी का सेवन किया जाना चाहिए।
  • विटामिन ‘सी’ की पूर्ति हेतु आहार में नींबू, संतरा, अमरूद, आँवला तथा अन्य खट्टे फलों का समावेश किया जाना चाहिए।

प्रश्न 17. गर्भावस्था में आहार के महत्व की विवेचना करें।
उत्तर:
प्राचीनकाल से ही गर्भावस्था के दौरान स्त्रियों को दिए जानेवाले भोजन के विषय में खास ध्यान दिया जाता रहा है। उस समय यह मान्यता थी कि गर्भवती में स्त्री जो कुछ भी खाती पीती है उसका सीधा प्रभाव गर्भस्थित शिशु पर पड़ता है। फलतः विभिन्न समाजों में इस तरह के दृढ़ नियम बन गए कि गर्भवती स्त्री को क्या खाना चाहिए।

गर्भावस्था में स्त्री का वजन 7 से 10 किलोग्राम तक बढ़ जाता है। जन्म के समय बच्चे में काफी मात्रा में लोहा, प्रोटीन, विटामिन सी तथा दूसरे विटामिन होते हैं। यह सभी उसे माँ के शरीर से या अंगों से मिलते हैं। इसलिए गर्भावस्था में कमजोर खुराक मिलना एक ऐसा खतरा है जिससे कई बार जन्म देते वक्त माँ की मृत्यु हो जाती है अथवा जन्म से पहले साल में ही बच्चे की मौत हो जाती है। एक सर्वेक्षण से पता चला कि यदि गर्भवती स्त्री को पौष्टिक भोजन दिया जाए तो उसे प्रसव के समय अधिक कष्ट नहीं होता तथा उसका बच्चा सदैव स्वस्थ एवं हष्ट-पुष्ट रहता है।

पौष्टिक आवश्यकताएँ (Nutritional Requirement) :
(i) ऊर्जा (Energy)- गर्भकाल के प्रथम तीन मास में अधिक कैलोरीज की आवश्यकता नहीं है किन्तु द्वितीय और तृतीय अवस्था में लगभग 300 कैलोरीज सामान्य आवश्यकता के अलावा लेना जरूरी है। परंतु एक मोटी स्त्री का यदि गर्भावस्था में वजन बढ़ता है तो उसे कम कैलोरीज लेना ही उचित है।

(ii) प्रोटीन (Protein)- प्रोटीन से शरीर की सूक्ष्मतम इकाई-कोशिका की रचना होती है और कोशिकाओं से शिशु का शरीर बनता है और बढ़ता है। चतुर्थ मास के बाद प्रोटीन अत्यन्त आवश्यक हैं साधारण स्त्री के भोजन से गर्भवती के भोजन में 1 ग्राम उत्तम श्रेणी का प्रोटीन अधिक होना चाहिए। अन्तिम छ: महीने में लगभग 850 ग्रा० प्रोटीन का भण्डारण होता है। इसमें से आधा बच्चे के शरीर की वृद्धि और शेष माता के बढ़ते हुए तन्तुओं के लिए आवश्यक है।

अतः प्रोटीनयुक्त पदार्थ जैसे दूध, पनीर, अण्डा, मांस, मछली, दालें, सोयाबीन, मेवे आदि की मात्रा बढ़ानी चाहिए।

(iii) खनिज लवण (Mineral Salts)- लवण शरीर की मांसपेशियों के उचित संगठन और शरीर की क्रियाओं को नियमित रखने के लिए आवश्यक हैं। गर्भावस्था में कैल्शियम, लोहा आदि की आवश्यकता अधिक होने के कारण ही उनके पोषण में जरूरत बढ़ जाती है।

(iv) कैल्शियम (Calcium)- कैल्शियम का भोजन में पाया जाना जरूरी हैं हड्डियों के निर्माण एवं वृद्धि के लिए कैल्शियम और फॉस्फोरस की अत्यन्त आवश्यकता है। जन्म के समय बच्चे के शरीर में लगभग 22 ग्रा. कैल्शियम होता है जिसका अधिकांश भाग उसे आखिरी के एक महीने में मिलता है। यदि स्त्री के आहार में अपनी और भ्रूण की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पूर्ण कैल्शियम न हो तो माता के अपने शरीर के कैल्शियम का अपहरण होता है। यदि गर्भावस्था से पूर्व ही स्त्री अपोषण (Under Nutrition) से पीड़ित हो तो गर्भावस्था में उसके भोजन में प्रोटीन और कैल्शियम आदि सामान्य मात्रा से अधिक होना चाहिए। गर्भवती को 1.3 से 1.5 ग्राम प्रतिदिन कैल्शियम की जरूरत होती है।

(v) फॉस्फोरस (Phosphorous)- फास्फोरस का उपभोग कैल्शियम के साथ किया जाता है। यह गर्भावस्था में भ्रूण के शरीर की वृद्धि के लिए अति आवश्यक है। इसकी सहायता से अंस्थियों का निर्माण होता है। फॉस्फोरस की आवश्यकता आहार में पर्याप्त कैल्शियम होने पर स्वतः पूर्ण हो जाती है क्योंकि यह बहुधा उन्हीं खाद्य पदार्थों में पाया जाता है जिनमें कैल्शियम एएए अारा है। इसके अतिरिक्त कैल्पिएएए और फॉस्फोरस के सुपिक-ऐ-शुटिक सुत्रपऐपए के लिए आहार में विटामिन डी का आवश्यक मात्रा में होना आवश्यक है।

(vi) लोहा (Iron)- गर्भकाल में स्त्री को लोहे की आवश्यकता होती है। इसकी कमी से रक्त में हीमोग्लोबिन की कमी हो जाती है। सम्पूर्ण गर्भावस्था में गर्भवती महिला को 700-1000 मि. ग्रा. लोहे को शोषित करना जरूरी है। गर्भावस्था में माता के रक्त में वृद्धि होती है तथा शिशु का रक्त बनता है जिसके लिए गर्भवती को प्रतिदिन अधिक लोहे की आवश्यकता है।

(vii) आयोडीन (Iodine)-गर्भावस्था में आयोडीन की आवश्यकता भी साधारण अवस्था से बढ़ जाती है। भोजन में आयोडीन की कमी होने से माँ और शिशु दोनों को गलगण्ड, घेघा, (Goiter) रोग होने की संभावना रहती है। गर्भकालीन स्थिति में अबट ग्रंथि (Thyroid Gland) अत्यधिक क्रियाशील होती है। आयोडीन की कमी होने पर ग्रंथि थाइराक्सिन नामक अन्त:स्राव (Hormone) निर्मित करने का कार्य भी सम्पन्न करने लगती है जिसके फलस्वरूप इसकी वृद्धि हो जाती है। आयोडीन शरीर में ग्रंथियों (Glands) के द्वारा हारमोन्स उत्पन्न करने में सहायता करता है। अत: हरी पत्तेदार सब्जियाँ, अनाज तथा सामूहिक वनस्पति ऐसे ही खाद्य-पदार्थ हैं जिन्हें अपने आहार में सम्मिलित करने से आयोडीन की मात्रा सरलता से प्राप्त हो सकती है।

प्रश्न 18. आहार आयोजन के सिद्धान्त उदाहरण सहित समझाइये। एक किशोरी के लिए एक दिन की भोजन तालिका बनाइए।
उत्तर:
आहार आयोजन के सिद्धान्त :
(i) परिवार की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखना (Economic Status of the Family)- उचित आहार आयोजन के द्वारा पारिवारि आर्थिक स्थिति के अनुसार श्रेष्ठ आहार उपलब्ध कराया जाना सम्भव है। अतः अहार आयोजन करने से पूर्व परिवार की आर्थिक स्थिति को भी ध्यान में रखा जाता है क्योंकि कम खर्च में भी वे सभी पौष्टिक तत्व प्राप्त किए जा सकते हैं जो कि महँगे खाद्य पदार्थों से प्राप्त होते हैं, जैसे अंडे से प्रोटीन प्राप्त होता है। इसकी तुलना में सोयाबीन से भी उत्तम श्रेणी का प्रोटीन प्राप्त होता है। इसी प्रकार से महंगे मछली के तेल की तुलना में मौसमी फल (जैसे-पपीता, आम) या सब्जी (जैसे-गाजर) विटामिन A के अच्छे और सस्ते स्रोत हैं।

(ii) समय तथा श्रम की मितव्ययिता का ध्यान रखना (Saving Time and Labour)- आहार आयोजन करते समय इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि समय और श्रम दोनों ही व्यर्थ न जाए और सही समय पर पौष्टिक भोजन भी तैयार मिले, जैसे सुबह का नाश्ता-एक परिवार जिसमें पति-पत्नी को ऑफिस जाना हो तथा बच्चों को स्कूल जाना हो तो ऐसे में जल्दी-जल्दी नाश्ता भी बनेगा और दोपहर का लंच भी पैक होगा। ऐसी अवस्था में इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि जो भी आहार आयोजित किया जाए वह जल्दी बने तथा उसे ऑफिस एवं स्कूल ले जाने में कठिनाई न हो। समय तथा श्रम की बचत करने के लिए अनेक उपकरणों जैसे प्रेशर कूकर, मिक्सर, ग्राइंडर, फ्रिज इत्यादि का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। .

(iii) उत्सवों का ध्यान रखना (Celebration)- आहार आयोजन करते समय विभिन्न उत्सवों का भी ध्यान रखना चाहिए। इसके अतिरिक्त यदि कोई जन्मदिन पार्टी हो या कोई पर्व व त्यौहार हो तो उसके अनुसार ही आहार का आयोजन करना चाहिए।

(iv) सामाजिक तथा धार्मिक मान्यताओं का ध्यान रखना (Social & Religious Sanction)- किसी विशेष अवसर पर आहार आयोजित करते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि जिस व्यक्ति के लिए आहार-नियोजन किया जा सका है उसकी सामाजिक तथा धार्मिक मान्यताएँ क्या है, जैसे कुछ व्यक्ति प्याज नहीं खाते, कुछ लहसुन नहीं खाते, कुछ अंडा मांस, मछली इत्यादि नहीं खाते।

(v) आहार पकाते समय पौष्टिक तत्वों को नष्ट न होने देना (Protecting the Nutrients While Cooking)- आहार आयोजन करते समय आहार बनाने की विधि की ओर भी विशेष ध्यान रखना चाहिए। आयोजन आहार ऐसी विधि से बनाया जाना चाहिए जिससे आहार के पौष्टिक तत्व कम-से-कम नष्ट हो और वह पाचनशील हो।

(vi) आहार द्वारा क्षुधा संतुष्टि हो (Providing Satisfy)- आहार आयोजन करते समय : इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि जो भी कुछ खाएँ उससे पेट भरने की संतुष्टि हो। उदाहरण के लिए यदि शरीर को कार्बोज की आवश्यकता हो तो टॉफी खाई जा सकती है पर टॉफी खाने से पेट भरने की संतुष्टि नहीं होती। इसकी तुलना में यदि आलू (उबालकर, भूनकर अथवा चाट बनाकर) खाया जाए तो कार्बोज की आवश्यकता भी पूरी होती है और पेट भी भरता है।

एक किशोरी के लिए दिन की भोजन तालिका
1. दूध – 1 कप
2. भरा हुआ पराठा – 2
3. टमाटर चटनी – 2 चम्मच
4. टिफिन सेब अथवा संतरा
5. दोहपर का सांभर – 1 कटोरी
6. भोजन उबले चावल – 1 प्लेट
7. मेथी आलू – 1/4 कटोरी
Bihar Board 12th Home Science Important Questions Long Answer Type Part 2, 1

प्रश्न 19. किशोरावस्था में आहार आयोजन करते समय किन-किन बातों का ध्यान रखना आवश्यक है ?
उत्तर:
किशोरावस्था तीव्र गति से वृद्धि तथा विकास की अवस्था है। 13 से 18 वर्ष के बालक को किशोर कहा जाता है। इस आयु में शारीरिक, मानसिक तथा भावानात्मक परिवर्तन होते हैं। कंकाल तंत्र तथा पेशीय तंत्र की वृद्धि तथा विकास होता है, यौन अंग परिपक्व होते हैं। शारीरिक संरचना में तीव्र परिवर्तन के कारण यह अवस्था शारीरिक एवं संवेगात्मक दबाव की अवधि होती है। वृद्धि को प्रोत्साहित तथा बढ़ाने में आहार एक जटिल भूमिका निभाता है।

किशोरी के लिए आहार आयोजन करते समय विशेष ध्यान रखने योग्य बातें निम्नलिखित हैं-

  • आयु वर्ग (13 से 15 या 16-18 वर्ष)
  • लिंग (लडका/लडकी)
  • आय वर्ग (निम्न वर्ग, मध्यम वर्ग तथा उच्च वर्ग
  • दिनचर्या-क्रियाकलाप
  • पौष्टिक तत्वों की पर्याप्त-संतुलित आहार
  • स्वीकृति-भोजन संबंधी आदतें
  • खाद्य पदार्थों की स्थानीय उपलब्धता
  • वृद्धि दर की गति (तीव्र या मंद)

आहार आयोजन में खाद्य पदार्थों का चयन करते समय निम्नलिखित बातों का भी ध्यान जरूरी है-

  • प्रत्येक आहार में प्रत्येक खाद्य वर्ग के पदार्थ अवश्य सम्मिलित करें।
  • प्रोटीन तथा कैल्शियम के लिए दूध, मांस, मछली, अंडा को सम्मिलित करें।
  • प्रोटीन की किस्म को बढ़ाने के लिए अनाज व दालों को मिलाकर प्रयोग करें।
  • भोजन में पर्याप्त मात्रा में तरल पदर्थों का समावेश भी आवश्यक है-सूप, जूस, आदि दें ताकि पर्याप्त खनिज लवण व विटामिन तत्व मिल सके।
  • आहार में तले हुए, मिर्च मसाले वाले गरिष्ठ भोजन नहीं सम्मिलित करना चाहिए ताकि इस अवस्था में मुहांसे और पेट की गड़बड़ियाँ होने का डर रहता है।
  • इस आयु में कब्ज होने की शिकायत रहती है इसलिए रेशेदार पदार्थ, जैसे-कच्ची सब्जियाँ, फल, सलाद इत्यादि आहार में होना जरूरी है।
  • आहार में किशोरों के रूचि के अनुसार भी खाद्य पदार्थों को सम्मिलित करना चाहिए।
  • आहार में खाद्य पदार्थों के रंग, सुगंध व बनावट पर भी ध्यान देना चाहिए, इससे भोजन को आकर्षण व भूख बढ़ती है।
  • किशोरों के भोजन करने के समय को निश्चित रखना चाहिए।
  • इस आयु में समय-समय पर शरीर का भार ज्ञात करवाते रहना चाहिए। शरीर भार यदि सामान्य भार से कम या अधिक हो तो भोजन में कैलोरीज की मात्रा बढ़ा या कम कर देनी चाहिए। गलत आदतें (भोजन संबंधी) किशोरों के सामान्य वृद्धि में बाधक हो सकती है या दिल की बीमारी, मोटापा और कुपोषण का कारण बन सकती हैं। इसलिए किशोरों के लिए आहार आयोजन में इसकी महत्वपूर्ण बातों का ध्यान जरूर रखना चाहिए।

प्रश्न 20. आहार आयोजन से आप क्या समझती हैं ? इनके सिद्धांतों की संक्षेप में व्याख्या करें।
उत्तर:
आहार आयोजन का अर्थ है आहार की ऐसी योजना बनाना जिससे सभी पोषक तत्त्व उचित तथा सन्तुलित मात्रा में उपयुक्त व्यक्ति को मिल सके। आहार आयोजन बनाने में इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि वह उस व्यक्ति के लिये पौष्टिक सुरक्षित सन्तुलित साथ में रूचिकर भी हो।

सिद्धांत-
आहार आयोजन के सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
(i) परिवार की पोषण आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखते हुए सन्तुलित आहार की व्यवस्था करना-प्रत्येक व्यक्ति की पोषण आवश्यकताएँ उसकी आयु, लिंग कार्य प्रणाली से प्रभावित होती हैं अतः इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए आहार में आवश्यक पौष्टिक तत्त्व सम्मिलित करना ही आहार आयोजन का पहला सिद्धान्त है।

(ii) भोज्य पदार्थों का चयन करना- मीनू बनाते समय सभी भोज्य वर्गों से खाद्य पदार्थों : का चुनाव करना तथा एक आहार में एक ही प्रकार के पोषण तत्वों का कम या अधिक न होना।

(iii) परिवार की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखना- आहार आयोजन करते समय परिवार की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर उसके आधार पर परिवार को श्रेष्ठ तथा पौष्टिक आहार उपलब्ध कराना चाहिये।

(iv) परिवार के सदस्यों की रुचियों तथा अरुचियों का ध्यान रखना- आहार आयोजन करते समय इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है कि परिवार के सारे सदस्यों की रूचि की अनदेखी न हो।

(v) समय तथा श्रम की मितव्ययता को दृष्टिगत रखना- आहार-नियोजन करते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि समय तथा श्रम दोनों बेकार न हो जायें।

(vi) आहार ऐसा हो जो भूख को संतुष्ट कर सके- इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि जो भी हम खाएँ वे पौष्टिक हों तो साथ ही उससे पेट भरने की सन्तुष्टि प्राप्त हो।

(vii) आहार पकाते समय पौष्टिक तत्त्व नष्ट होने देना- आहार आयोजन करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि आहार इस विधि से पकाया जाय जिससे पौष्टिक तत्त्व नष्ट न. होने पायें।

(viii) उत्सवों का ध्यान रखना- होली दीपावली दशहरा जन्मदिन पर कोई विशेष पर्व होने पर उसके अनुसार आहार रखना चाहिये।

(ix) सामाजिक तथा धार्मिक मान्यताओं को ध्यान में रखना- आयोजन करते समय इस बात का विशेष ध्यान में रखना चाहिए कि जिस व्यक्ति के लिए हम आहार आयोजन कर रहे हैं, उसकी सामाजिक धार्मिक मान्यताएँ क्या हैं ? इस प्रकार सभी बातों को ध्यान में रखते हुए जो आयोजन की जाती है वे सफल होती है। अथवा, बचत वर्तमान उपभोग से भविष्य के उपयोग के लिये अलग रखा हुआ भाग होता है। यह चालू आय से भविष्य की आवश्यकताओं तथा जरूरतों को देख भाल करने के उद्देश्य से कुछ राशि रखने की प्रक्रिया होती है।

प्रश्न 21. क्रोनिक दस्त से ग्रस्त एक दो वर्षीय बालक की एक दिन की आहार तालिका बनाइए।
उत्तर:
क्रोनिक दस्त से ग्रस्त एक दो वर्षीय बालक की एक दिन की आहार तालिका :
Bihar Board 12th Home Science Important Questions Long Answer Type Part 2, 2

प्रश्न 22. मर्भावस्था मुख्यता कौन-कौन से पौष्टिक तत्त्वों की आवश्यकता होती है, वर्णन करें।
उत्तर:
गर्भावस्था के समय स्त्रियों को दिये जानेवाले भोजन पर विशेष ध्यान दिया जाता है, क्योंकि किसी भी शिशु का विकास उसके गर्भकाल में ही प्रारंभ हो जाता है। इस दौरान पौष्टिक आहार में कमी, जच्चा और बच्चा दोनों के लिए खतरा पैदा करता है। गर्भावस्था के समय निम्नलिखित पौष्टिक तत्वों की आवश्यकताओं पर ध्यान देना जरूरी है-

(i) ऊर्जा- गर्भ काल के प्रथम तीन माह में अधिक कैलोरीज की आवश्यकता नहीं है किन्तु द्वितीय एवं तृतीय अवस्था में लगभग 300 कैलोरीज सामान्य आवश्यकता के अलावा लेना जरूरी है। किन्तु यह आयु, कद, वजन, क्रियाशीलता व गर्भ की स्थिति के अनुसार बदल सकती है।

(ii) प्रोटीन- प्रोटीन से शरीर की सूक्ष्मतम इकाई कोशिका की रचना होती है। कोशिकाओं से शिशु का शरीर बनता है और बढ़ता है। इस समय गर्भवती महिला को 15 ग्राम अतिरिक्त प्रोटीन की आवश्यकता होती है। अतः प्रोटीन युक्त पदार्थ, जैसे-दूध, अंडा, मांस मछली, दाल, सोयाबीन, मेवा आदि की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए।

(iii) खनिज लवण- लवण शरीर की मांसपेशियों के उचित संगठन और शरीर की क्रियाओं को नियमित रखने के लिए आवश्यक है। गर्भावस्था में कैल्शियम लोहा आदि की आवश्यकता अधिक हो जाती है। हरी पत्तेदार सब्जियाँ, मांस आदि खाने से गर्भवती महिला के शरीर में लौह तत्व के फोलिक अम्ल की कमी पूरी हो जाती है।

(iv) कैल्शियम- हड्डियों के निर्माण एवं वृद्धि के लिए कैल्शियम और फॉस्फोरस की अत्यंत आवश्यकता है। एक गर्भवती महिला को 1.3 से 1.5 ग्राम प्रतिदिन कैल्शियम की आवश्यकता होती है। दूध, पनीर, शलजम, अंडा, मछली, मांस, रसदार फल, सोयाबीन आदि खाने से कैल्शियम की मात्रा पूरी की जा सकती है।

(v) आयोडीन- गर्भावस्था में आयोडीन की आवश्यकता साधारण अवस्था से अधिक होती है। भोजन में आयोडीन की कमी से माँ और शिशु दोनों को गलगंड, घंघा रोग होने की संभावना रहती है। अतः हरी पत्तेदार सब्जियाँ, अनाज तथा सामूहिक वनस्पति खाने से आयोडीन की कमी पूरा किया जा सकता है।

(vi) जल तथा रेशे- जल एवं रेशे शरीर की व्यवस्थित रखने में सहायता करते हैं। छिलका युक्त अनाज, दाल हरी पत्तेदार सब्जियों से शरीर को रेशे की मात्रा काफी मिलती है। इससे गर्भवती महिलाओं में कब्ज की शिकायत नहीं होती है।

प्रश्न 23. वृद्धावस्था के पोषक तत्वों का महत्त्व क्या है ?
उत्तर:
60 वर्ष तथा 60 वर्ष से अधिक की अवस्था को वृद्धावस्था कहा जाता है। इस अवस्था में चिन्ताएँ, संघर्ष तथा तनाव पहले की अपेक्षा कम होता है। जीवन का अधिक अनुभव होने के कारण अपने काम में अधिक श्रम नहीं करना पड़ता है। अतः इस अवस्था में कैलोरी वाले आहार की कम मात्रा में आवश्यकता होती है। बढ़ती आयु तथा दाँतों की क्षति के कारण स्वाद में परिवर्तन होने से वृद्ध उचित आहार निश्चित करने में समस्या का सामना करते हैं।

शारीरिक क्रियाओं में कमी के साथ ऊर्जा संग्रहण में कमी न होने के कारण मोटापा आ जाता है। इस अवस्था में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि शरीर को विटामिन, प्रोटीन, खनिज लवण पूरी मात्रा में मिले और आहार संतुलित हो। जो वृद्ध संतुलित आहार लेते हैं वे अधिक स्वस्थ और लम्बे समय तक फुर्तीले रहते हैं। वृद्धों की ऊर्जा आवश्यकता वयस्कों से कम होती है। परंतु प्रोटीन तथा सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता उसी मात्रा में रखते हैं।

प्रश्न 24. पेय जल को शुद्ध करने के लिए घरेलू उपाय विस्तारपूर्वक लिखें।
उत्तर:
पेय जल हम चाहे किसी भी स्रोत द्वारा प्राप्त करें, उनमें कुछ न कुछ अशुद्धियाँ अवश्य पायी जाती हैं। अतः जल को पीने से पहले कुछ आसान घरेलू विधियों द्वारा शुद्ध एवं सुरक्षित किया जा सकता है। ये विधियाँ निम्नलिखित हैं-
(i) उबालना, (ii) छानना, (iii) फिटकरी का प्रयोग, (iv) क्लोरीन या विसंक्रमण करना, (v) घड़ों द्वारा छानना, (vi) फिल्टर द्वारा छानना, (vii) नल में लगनेवाले छोटे फिल्टर द्वारा छानना।

(i) उबालना- जल को दस मिनट 100°C या 212° पर उबालकर साफ किया जाता है। उबालने से पानी में उपस्थित सभी जीवाणु मर जाते हैं। जा तक हो सके उबले पानी को उसी बर्तन में रहने देना चाहिए, जिससे दुबारा गंदा न हो।

(ii) छानना- आमतौर से जल को मलमल के कपड़े से छानना पड़ता है, किन्तु मलमल के कपड़े से छानने में जल के सारे जीवाणु, महीन कीचड़ व दुर्गंध युक्त गैसें नहीं छनतीं। इसके लिए चार कलशों के द्वारा छानना उचित होता है।

(iii) फिटकरी का प्रयोग-जल का विसंक्रमण करने के लिए प्रायः क्लोरीन का प्रयोग किया जाता है। साफ करने के लिए आमतौर पर फिटकरी का प्रयोग किया जाता है। फिटकरी अथवा ऐलम जलीय पोटेशियम व एल्युमिनियम सल्फेट का द्विलवण होता है। इस विधि को पोटाश एलम भी कहते हैं। फिटकरी को जब जल में डाला जाता है, जिन्हें फ्लॉक्स कहते हैं तो जीवाणु इस फ्लॉक्स में चिपक जाते हैं और पानी के निचली सतह पर जम जाते हैं।

(iv) क्लोरीन या विसंक्रमण करना- जल का विसंक्रमण करने के लिए प्रायः क्लोरीन का उपयोग किया जाता है। वाटर वर्क में जल को शुद्ध करने के लिए विरंजक, ब्लीचिंग पाउडर पानी में घुलने के बाद नेसेंट क्लोरीन देता है, जिससे पानी शुद्ध हो जाता है।
घडों दारा छानना-प्रथम तीन घड़ों के तल में छेद होता है। इसमें गंदा पानी क्रमश: कोयले का चूर्ण, रेत, कंकड़ की तह से गुजारा जाता है। चौथे घड़े में स्वच्छ जल जाता है।

(vi) फिल्टर द्वारा छानना- पानी को फिल्टर करनेवाले कई उपकरण आजकल बाजार में उपलब्ध हैं। बिजली से चलनेवाले यंत्र में पोर्सलीन कन्डेल लगा रहता है जो जल में आलम्बित अपद्रव्यों को दूर करता है। इसके बाद पानी को सक्रिय कार्बन में से गुजारा जाता है। जो रासायनिक उपद्रव्यों को दूर करता है। अतः पानी को अल्ट्रावायलेट किरणों से गुजारा जाता है। जो जल के जीवाणुओं को नष्ट कर देते हैं।

(vii) नल में लगने वाला छोटे फिल्टर द्वारा छानना- आजकल तकनीकी विकास के साथ बाजार में छोटे फिल्टर आ गये हैं जो सीधा नल में लगा दिए जाते हैं और नल खोलने पर इसमें से छन कर पानी शुद्ध होकर निकलता है।

प्रश्न 25. जल की भूमिका एवं महत्ता की चर्चा करें।
अथवा, जल के कार्यों की विवेचना करें।
उत्तर:
जल के अनेक कार्य हैं, जो निम्नवत् हैं-

  • यह शरीर के निर्माण में सहायक होता है। यह रक्त, कोशिकाओं, अस्थियों आदि में पाया जाता है।
  • यह शरीर के ताप का नियमन करता है।
  • यह शरीर की आंतरिक सफाई करता है। मल-मूत्र, पसीना और विषैले पदार्थ को शरीर से बाहर निकालता है।
  • यह भोजन के पाचन में सहायक पाचक रसों से बनाने में सहायक होता है।
  • शरीर के अंगों की चोट, झटकों और रगड़ से रक्षा करता है।
  • व्यक्तिगत स्वच्छता, जैसे स्नान आदि के काम में इसका प्रयोग करता है।
  • खाना पकाने, बर्तन साफ करने, पीने, वस्त्र धोने तथा घर की सफाई में काम आता है।
  • घरेलू जानवरों और बागवानी के काम में आता है।
  • सड़कों, नालियों की धुलाई आदि के लिए प्रयोग किया जाता है।
  • सार्वजनिक शौचालयों की सफाई में उपयोग होता है।
  • पार्कों, उद्यानों तथा फब्बारों के लिए भी इसकी आवश्यकता होती है।
  • यह आग बुझाने के काम में आता है।
  • बिजली उत्पादन, खेतों की सिंचाई तथा कारखानों में भी जल काम में लाया जाता है।

प्रश्न 26. जल को शुद्ध करने की दो विधियाँ लिखें तथा बताएँ कि दोनों में कौन-सी विधि दूसरी से अच्छी है तथा क्यों ?
उत्तर:
जल को उबालना तथा क्लोरीन या ब्लीचिंग पाउडर के साथ शुद्ध व कीटाणुरहित करने की दो विधियाँ हैं। इसमें से उबालना एक बेहतर विधि है क्योंकि जल में डाले रसायन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त उबालने से जल के सभी सूक्ष्म जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। जहाँ तक हो सके उबले पानी को उसी बर्तन में रहने देना चाहिए जिससे वह दोबारा गंदा न हो जाए। उबालना जल को स्वच्छ बनाने का सस्ता तथा सरल उपाय है।

ORS बनाने की घरेलू विधि (Household Method of O.R.S)- एक लीटर (4-5 गिलास) स्वच्छ पेय जल उबालकर छान लें तथा ठंडा होने दें। इसमें एक छोटा चम्मच नमक (लगभग 5 ग्राम) तथा 4-5 छोटे चम्मच चीनी (20-25 ग्राम) डालकर घोलें । पूर्णत: ढक्कनदार जग में भरकर प्रयोग के लिए रखें।

नोट-

  1. इसका प्रयोग तथा सावधानियाँ पहले बताए गए पाउडर के समान ही हैं।
  2. इसमें कुछ बूंदें नींबू के रस की भी डाली जा सकती हैं।
  3. नमक की पर्याप्त मात्रा में उपस्थिति की जाँच की जा सकती है। यह आँसुओं से अधिक या कम नमकीन नहीं होना चाहिए।

शुद्ध एवं अशुद्ध जल में अन्तर
Bihar Board 12th Home Science Important Questions Long Answer Type Part 2, 3

पानी के प्राकृतिक स्रोत (Natural Sources of Water)- हमें जल हमेशा प्राकृतिक स्रोतों से ही प्राप्त होता है। ये स्रोत इस प्रकार हैं-

  1. वर्षा का जल (Rain Water)
  2. पृथ्वी के ऊँचे तलों का जल (Upland Surface Water)
  3. नदी का जल (River Water)
  4. चश्मे का जल (Spring Water)
  5. गहरे कुएँ (Deep Well)
  6. उथले कुएँ (Surface Well)
  7. समुद्र का जल (Sea Water)
  8. तालाब (Ponds)
  9. पानी का पम्प अथवा नलकूप (Water Pump or Tubewell)।

Bihar Board 12th Home Science Important Questions Long Answer Type Part 2, 4

जल के अभाव लक्षण (Deficiency Symptoms)- यदि शारीरिक जल की मात्रा में 10% की कमी हो जाए तो निर्जलीकरण (Dehydration) की स्थिति बन जाती है। निर्जलीकरण लगातार उल्टी (Vomiting) और दस्त होने से व्यक्ति में होता है।

  • आँखें निस्तेज व धंसी हुई।
  • मुँह सूखा हुआ।
  • चमड़ी झुरियाँ पड़ी हुई।
  • हाथ-पाँव में ऐंठन।
  • मूत्र में अत्यधिक कमी।
  • रक्तचाप गिरा हुआ।
  • जल की कमी से शरीर से व्यर्थ पदार्थ निष्कासित होने में कठिनाई होती है। व्यक्ति कब्ज का शिकार हो जाता है तथा कई बार गुर्दो में भी विकार उत्पन्न हो जाता है।
  • शारीरिक वजन कम हो जाता है।

विशेषकर बच्चों में यदि 20% पानी की कमी हो जाए तो मृत्यु हो जाती है।

प्रश्न 27. मानव शरीर में जल के क्या कार्य हैं ?
अथवा, शरीर में जल के कार्य विस्तारपूर्वक लिखें।
उत्तर:
कार्य (Functions)- जल के शरीर में अनेक कार्य हैं क्योंकि कोशिकाओं में होने वाले समस्त रासायनिक परिवर्तन जल पर ही आधारित हैं-
1. शरीर का निर्माण कार्य (Body Building)- शरीर के पूरे वजन का 55-70% भाग पानी का होता है। जैसे-जैसे व्यक्ति बूढा होता है, पानी की मात्रा कम होती है। शरीर के विभिन्न अंगों में जल की मात्रा निम्न है-

  • गुर्दे 83%,
  • रक्त 80-90%,
  • मस्तिष्क 79%,
  • मांसपेशियाँ 72%,
  • जिगर 70%
  • अस्थियाँ 30%

रक्त में 90% मात्रा जल की होती है। जल शरीर के विभिन्न अंगों तथा द्रवों की रचना एवं कोषों के निर्माण में सहायक होता है। रक्त में स्थिर जल का मुख्य कार्य भोज्य पदार्थों द्वारा लिए गए पानी में घुलित पोषक तत्वों का शोषण करके रक्त में पहुँचाना है और यह रक्त शरीर के निर्माण करने वाले विभिन्न अंगों के कोषों तक पोषक तत्त्वों से प्राप्त शक्ति को पहुंचाते हैं। कार्बन-डाई-ऑक्साइड को फेफड़ों तक पहुँचाना एवं वहीं से बेकार पदार्थों तथा विभिन्न लवणों को गुर्दे तक पहुँचाने का कार्य भी रक्त ही करता है। यदि रक्त में जल की मात्रा कम हो जाए तो रक्त गाढ़ा हो जाता है और अपने शारीरिक कार्य जो रक्त के माध्यम द्वारा करता है, सुचारू रूप में नहीं कर पाता। परिणामस्वरूप मनुष्य बीमार हो जाता है।

2. ताप नियन्त्रक के रूप में (Act as a Temperature Controller)- जल से शरीर के तापमान को भी स्थिर रखने में सहायता मिलती है। ग्रीष्म ऋतु में पसीने के सूखने पर शरीर में ठण्डक पहुँचती है। बरसात के दिनों में वर्षा के उपरान्त वायु में नमी होती है। पसीना शीघ्र सूख नहीं पाता तो बहुत बेचैनी होती है।

जब कभी शरीर का तापक्रम बढ़ जाता है, त्वचा और श्वासोच्छवाद संस्थान से जल वाष्य अथवा पसीने के रूप में उत्सर्जित होने लगता है।

3. घोलक के रूप में कार्य (Act as a Solven)- जल ही वह माध्यम है जिसके द्वारा पोषक तत्वों को कोषों तक ले जाया जाता है तथा चपाचय के निरर्थक पदार्थों को निष्कासित किया जाता है। भोजन को कोषों तक ले जाने से पूर्व पाचन की क्रिया सम्पन्न हो जानी चाहिए। पाचन प्रक्रिया में जल का प्रयोग किया जाता है, मूत्र में 96% जल पाया जाता है। मल-विसर्जन के लिए जल की अत्यन्त आवश्यकता है। भोजन में जल की मात्रा कम रहने से मल अवरोध (Constipation) होने का भय रहता है।

4. स्नेहक का कार्य (Act as Lubricant)- यह शरीर में पाए जाने वाले समस्त हड्डियों : के जोड़ों में रगड़ होने से बचाता है। जोड़ों या सन्धियों (Joints) के चारों ओर थैली के समान (Sac-like) जो ऊतक होते हैं, उनमें जल उपस्थित रहता है। यदि आघात के कारण यह नष्ट हो जाय या रोग के कारण परिवर्तित हो जाए तो सन्धियाँ जकड़ जाती हैं।

5. शरीर के निरुपयोगी पदार्थों को बाहर निकलना (To Excrete Out the Waste Products)- जल शरीर में बने विषैले पदार्थों को मूत्र तथा पसीने द्वारा बाहर निकालता है। इससे गुर्दो की सफाई होती रहती है। मल विसर्जन के लिए पानी की अत्यन्त आवश्यकता होती है, जल शरीर में उत्पन्न निरुपयोगी पदार्थों को अधिकतर मात्रा में घोल लेता है एवं उन्हें उत्सर्जक अंगों यकृत, त्वचा आदि द्वारा शरीर के बाहर निकाल देता है।

6. पोषक तत्त्वों का हस्तान्तरण (Transportation of Nutrients)- पोषक तत्त्वों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाने का कार्य भी जल का ही है।

7. शरीर में नाजुक अंगों की सुरक्षा (Protection of Delicate Organs)- शरीर के कोमल अंग एक जल से भरी पतली झिल्ली की थैली से घिरे रहते हैं जो अंगों की बाहरी आघातों से रक्षा करती है।

प्रश्न 28. रसोई घर की स्वच्छता के लिए क्या नियम अपनायेंगे ?
अथवा, रसोई घर की स्वच्छता के लिए क्या उपाय अपनाये जा सकते हैं ?
उत्तर:
रसोईघर की स्वच्छता के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाये जा सकते हैं-

  • रसोईघर सदा प्रकाशमय और हवादार होना चाहिए।
  • रसोईघर के दरवाजे तथा खिड़कियों में जाली लगी होनी चाहिए ताकि मक्खियाँ अन्दर न आ सके।
  • कूड़ेदान के अंदर प्लास्टिक लगा देना चाहिए तथा उसे रोज खाली करना चाहिए।
  • रसोईघर के स्लैव और जमीन सरलता से साफ होने वाला होना चाहिए।
  • भोजन पकाने और बरतन साफ करने के लिए पर्याप्त ठंडा और गरम पानी उपलब्ध होना चाहिए।
  • रसोईघर के झाड़न और डस्टर साफ रखना चाहिए। उसे किसी अच्छे डिटरजेंट से साफ करना चाहिए।

प्रश्न 29. खाद्य स्वच्छता को प्रभावित करने वाले कारक कौन हैं ?
अथवा, घर में खाद्य सुरक्षा को प्रभावित करने वाले कौन-कौन से कारक होते हैं ?
उत्तर:
घर में खाद्य सुरक्षा को प्रभावित करने वाले निम्नलिखित कारक होते हैं-
(i) रसोईघर की स्वच्छता (Kitchen hygiene)- यदि रसोई साफ-सुथरी न हो तो भोजन सुरक्षित नहीं रह पाता अतः रसोईघर की दीवारों, फर्श के साथ-साथ आलमारी, बर्तन, स्लैब व झाड़न एवं डस्टर का स्वच्छ रहना आवश्यक होता है।

(ii) घर पर खाद्य पदार्थ के संग्रह करते समय स्वच्छता- खाद्य पदार्थों को सुरक्षित रखने के लिये उचित संग्रह करना चाहिये। ढक्कनदान टकियों या डिब्बों में खाद्य पदार्थ रखना चाहिये। समय-समय पर धूप लगाते रहने में खाद्य पदार्थ सुरक्षित रहते हैं।

(iii) भोजन पकाने वाले तथा परोसने वाले बर्तनों की स्वच्छता- भोजन पकाने तथा परोसने वाले बर्तनों की सफाई पर विशेष ध्यान रखना चाहिये। कभी-कभी प्रयोग आने वाले बर्तन जैसे : कदुकस, छलनी, आदि का प्रयोग करके तुरन्त साफ करके रख देना चाहिये। परोसने वाले बर्तन को कभी भी गंदे हाथों से नहीं पकड़ना चाहिये अन्यथा भोजन संदूषित हो जाता है।

(iv) घरेलू स्तर पर खाद्य पदार्थों में होने वाली रासायनिक विषाक्तता से बचाव सम्बन्धी सावधानियाँ- कुछ रासायनिक पदार्थ जैसे-सीसा, टीन, ताँबा, निकिल, एल्युमीनियम और कैडमीयम प्रायः उस भोज्य पदार्थ में पाये जाते हैं जो इन धातुओं में पकाये जाते हैं।

(v) भोजन पकाते, परोसते व खाते समय की स्वच्छता- भोजन पकाने के समय, परोसने के समय एवं खाने के समय स्थान की सफाई एवं हाथों की सफाई अत्यन्त आवश्यक होती है। वरन् खाद्य पदार्थ सुरक्षित नहीं रहता।
अतः हमें घर में भोज्य पदार्थ की सुरक्षा के लिये कुछ सावधानियाँ करनी पड़ती हैं जिससे खाद्य पदार्थ सुरक्षित रहें।

प्रश्न 30. भोजन पकाने, परासने और खाने में किन-किन नियमों का पालन करना चाहिए?
उत्तर:

भोजन पकाते समय निम्नलिखित नियमों का पालन करना चाहिए-

  • भोजन पकाने से पहले हाथों को स्वच्छ पानी और साबुन से धोना चाहिए।
  • दाल, चावल, सब्जियों तथा फल आदि को स्वच्छ पानी से धोना चाहिए।
  • मिर्च मसाले का अधिक प्रयोग नहीं करना चाहिए।
  • साफ तथा प्रदूषण रहित बर्तन का प्रयोग करना चाहिए।
  • खाद्य पदार्थों को अधिक नहीं तलना चाहिए।

भोजन परोसते समय निम्नलिखित नियमों का पालन करना चाहिए-

  • भोजन परोसते समय हाथ को स्वच्छ पानी और साबुन से धोना चाहिए।
  • स्वच्छ बर्तन तथा स्थान का प्रयोग करना चाहिए।
  • भोजन को ढककर रखना चाहिए।
  • परोसने वाले का नाखून बढ़े न हो तथा साफ हों।
  • खाने का समान उतना ही परोसना चाहिए जितना खाने वाला चाहता है।
  • भोज्य सामग्री तथा पेय जल में हाथ नहीं डालना चाहिए।

भोजन करते समय निम्नलिखित नियमों का पालन करना चाहिए-

  • भोजन करने से पहले हाथ को साबुन से धोकर साफ करना चाहिए।
  • ताजा एवं गरम भोजन करना चाहिए।
  • खाना पूरी तरह चबाकर धीरे-धीरे खाना चाहिए।
  • संतुलित मात्रा में भोजन करना चाहिए।
  • खाते समय कम मात्रा में पानी पीना चाहिए। खाने के कुछ देर बाद पानी पीना ज्यादा लाभदायक है।
  • खाने के बाद हाथ को अच्छी तरह धोना चाहिए। इन्हीं नियमों का पालन खाना पकाने, परोसने तथा खाते समय करना चाहिए।

प्रश्न 31. भोजन का हमारे जीवन में क्या महत्त्व है ?
अथवा, भोजन के कार्यों की व्याख्या करें।
उत्तर:
भोजन का प्रमुख कार्य है क्षुधा-तृप्ति एवं शरीर को स्वस्थ ढंग से कार्य करने के लिए पर्याप्त कैलोरी एवं पोषण प्रदान करना।

शरीर में उपचयापचयन होता रहता है, जिसके दो हिस्से हैं-उपचय एवं अपचय। कोषों में होनेवाली टूट-फूट अपचय है और तंतुओं के मरम्मत या बनने की प्रक्रिया उपचय कहलाती है। अर्थात् शरीर में कोष बनते-बिगड़ते रहते हैं जो एक रासायनिक क्रिया है। इस प्रक्रिया में आहार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। आधारीय उपचयापचयन (Basal Metabolism) से उच्छ्वास क्रिया, रक्त परिभ्रमण क्रिया, शारीरिक तापमान में संतुलन बनाने की क्रिया, मांसपेशियों में संकुचन-विमोचन की क्रियाएँ नियंत्रित होती हैं।

मानव आहार में विद्यमान शक्ति उसे कई प्रकार के शारीरिक कार्य के निष्पादन से लगतीहै, जैसे-यकृत, फेफड़ा, हृदय, ज्ञानेन्द्रिय आदि अंगों की यांत्रिक क्रियाओं में। शारीरिक तापमान को समान रखने में भी इस शक्ति की आवश्यकता पड़ती है। यह शक्ति ताप के रूप में (कैलोरी) प्रकट होती है। कैलोरी वह क्षमता है जो शरीर को कार्यरत् रखती है। यह एक प्रकार की रासायनिक ऊर्जा है जो कार्बोज, वसा व प्रोटीन से प्राप्त होती है।

मानव शरीर की तुलना एक मशीन से की जाती है जिसके भीतर मस्तिष्क जैसा महाकम्प्यूटर लगा हुआ है। अतएव इस मशीन और कम्प्यूटर के संचालन के लिए ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है, वह भोजन से प्राप्त होती है। इस प्रकार भोजन से प्राप्त रासायनिक ऊर्जा यांत्रिक ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है।

प्रश्न 32. मिलावट रोकने के उपायों की चर्चा करें।
उत्तर:
मिलावट रोकने के निम्नलिखित उपाय हैं-

  • सामान विश्वसनीय दुकान से खरीदें।
  • विश्वसनीय तथा उच्च स्तर की सामग्री खरीदें क्योंकि उनकी गुणवता अधिक होती है। एगमार्क, E.P.O. तथा I.S.I. चिह्नित वस्तुएँ खरीदें।
  • खुले पदार्थ न खरीदें, सील बंद पैकेट तथा डिब्बे ही लें।
  • खरीदने से पहले लेबल व प्रमाण चिह्न अवश्य पढ़ लें।
  • गुणवत्ता के लिये सचेत रहें और ध्यान रखें कि आप मिलावट के कारण ठगे न जा सके।
  • स्वास्थ्य चिकित्सा प्रयोगशाला से मिलावटी पदार्थ का निरीक्षण और परीक्षण करायें।

प्रश्न 33. कपड़ों के संग्रह से पूर्व कुछ नियम क्या है जिनका पालन करना चाहिए ?
अथवा, कपड़ों के संग्रहन से पूर्व पालन करने वाले नियमों का उल्लेख करें।
उत्तर:
कपड़ों के संग्रहण से पूर्व कुछ नियमों का पालन करना होता है। वे नियम निम्नलिखित हैं-

  1. एक बार पहन चुके वस्त्र को आलमारी में न टाँगें, क्योंकि उससे पसीने की महक आती है। पहनने के बाद वस्त्र को अच्छी प्रकार से हवा लगायें जिससे पसीने की महक दूर हो जाए।
  2. छिद्र, हुक, बटन का निरंतर निरीक्षण करें। वस्त्रों को रखने से पूर्व उधड़े भागों को सिल लें।
  3. वस्त्रों को संग्रह करने के लिए समाचार-पत्र का कागज उत्तम होता है, क्योंकि काली स्याही से वस्त्रों पर कीड़े नहीं लगते हैं।
  4. चमड़े के कोट तथा जैकेट को साफ कर पोंछ कर और सूखने से बचाने के लिए हल्का तेल लगाकर रखना चाहिए।
  5. वस्त्रों को कीड़ों से बचाने के लिए कपड़ों पर कीड़े मारने की दवा छिड़कनी चाहिए।
  6. बरसात के मौसम में कपड़ों को फंगस से बचाने के लिए चमड़े के कपड़ों को हवा लगा देनी चाहिए।
  7. गीले कपड़ों को कभी भी अलमारी में न रखें क्योंकि उनमें फफूंदी लग सकती है।
  8. प्रयोग के बाद कपड़ों से पिन निकाल देनी चाहिए अन्यथा कपड़े पर जंग के निशान पड़ सकते हैं।

प्रश्न 34. अपने परिवार के लिए वस्त्र खरीदते समय आप किन-किन बातों को ध्यान में रखेंगी?
उत्तर:
अपने परिवार के लिए वस्त्र खरीदते समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए-
1. उद्देश्य- सर्वप्रथम इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि वस्त्र किस उद्देश्य से खरीदा जा रहा है। सदैव प्रयोजन के अनुरूप ही कपड़ा खरीदना चाहिए। क्योंकि विभिन्न कार्यों के लिए एक समान कपड़ा नहीं खरीदा जा सकता। जैसे-विवाह, जन्म दिन, त्योहार आदि पर कलात्मक कपड़े खरीदे जाते हैं।

2. गुणवत्ता- विभिन्न किस्म के वस्त्रों की भरमार बाजार में होती है। हमें अपनी आवश्यकता के अनुसार उत्तम गुण वाले कपड़े का चयन करना चाहिए। उत्तम किस्म के कपड़ों का चयन करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए। जैसे-टिकाऊपन, धोने में सुविधाजनक, पसीना सोखने की क्षमता, रंग का पक्कापन, बुनाई, विभिन्न प्रकार की परिसज्जा आदि।

3. मूल्य- वस्त्रों को खरीदते समय उसके मूल्य पर भी ध्यान देना चाहिए। सदैव अपने बजट के अनुसार ही कपड़ा खरीदनी चाहिए।

4. ऋतु- सदैव मौसम के अनुसार वस्त्र खरीदनी चाहिए। गर्मी में सूती तथा लिनन के वस्त्र खरीदनी चाहिए, क्योंकि इसमें कोमलता, नमी सोखने की क्षमता तथा धोने में सरलता होती है। सर्दियों में ऊनी तथा रेशम के बने वस्त्रों का प्रयोग करना चाहिए।

5. विश्वसनीय दुकान- सदैव विश्वसनीय दुकान से वस्त्र खरीदना चाहिए, क्योंकि इसमें धोखा की संभावना कम होती है।

प्रश्न 35. डिजाइन के सिद्धान्तों का वर्णन करें।
उत्तर:
डिजाइन के निम्नलिखित सिद्धान्त हैं-
1. संतुलन- संतुलन का अर्थ समता, स्थिरता तथा विशिष्टता से है। किसी भी परिधान का निर्माण करते समय संतुलन का ध्यान रखना आवश्यक है। संतुलन द्वारा ही स्थिरता प्रदान की जाती है। संतुलन दो प्रकार का होता है-पहला स्थायी संतुलन तथा दूसरा अस्थायी संतुलन।

2. लयबद्धता- लय का अर्थ है-गति। अर्थात् एक छोर से दूसरे छोर तक बिना बाधा के घूम सके। परिधान में किनारे, कंधों, कॉलर, गला सबसे अधिक आकर्षित करते हैं। यदि ये रेखाएँ अव्यवस्थित हों तो पहनने वाले का व्यक्तित्व भी नहीं उभरता।

3. बल या दबाव- किसी भी परिधान के जिस विचार को प्रमुखता दी जाती है उसे दबाव कहते हैं। केन्द्रीय भाव या भांव की एकता दबाव होती है तथा बाकी नमूनों के गौण भाग होते हैं। कोई भी डिजाइन बल के अभाव में आकर्षक नहीं लगती है।

4. अनुपात- डिजाइन में समानुपात का सिद्धान्त शेष सभी सिद्धान्तों से महत्त्वपूर्ण है। समानुपात के सिद्धान्त के अनुसार किसी भी पोशाक के विभिन्न भागों के बीच अनुपात हो जिससे पोशाक सुन्दर और आकर्षक लगे। वस्त्रों में ठीक माप और अनुपात द्वारा ही उन्हें आकर्षक बनाकर व्यक्तित्व को आकर्षक बनाया जा सकता है।

5. एकता तथा अनुरूपता- डिजाइन के सभी मूल तत्त्वों यानि रेखाएँ, आकृतियाँ, रंग, रचना आदि पहनने वाले व्यक्ति तथा जिस अवसर पर उसे पहनना हो, एक साथ चले तथा व्यक्तित्व, गुण तथा अवसर के अनुरूप हो तो ऐसे डिजाइन को सुगठित डिजाइन कहते हैं। अतः किसी भी नमूने में एकता होना आवश्यक है।

प्रश्न 36. घर पर की जाने वाली कपड़ों की धुलाई की प्रक्रिया के चरण लिखिए।
उत्तर:
वस्त्रों की धुलाई के सामान्य चरण (General steps of washing Clothes)-

  • मैला होने पर वस्त्रों को शीघ्र धोना चाहिए विशेषकर त्वचा के सम्पर्क में आने वाले वस्त्रों को हर बार पहनने के पश्चात् धोना चाहिए विशेषकर त्वचा के सम्पर्क में आने वाले वस्त्रों को हर बार पहनने के पश्चात् धोना चाहिए। मैले वस्त्रों को दोबारा पहनने से उनमें उपस्थित मैल कपड़े पर जम जाती है और फिर उसे साफ करना मुश्किल हो जाता है। इसके अतिरिक्त कपड़े द्वारा सोखा पसीना भी उसके रेशों को क्षति पहुँचाता है।
  • मैले वस्त्रों को उतार कर किसी एक जगह पर टोकरी अथवा थैले में डालकर रखना चाहिए। मैले वस्त्रों को इधर-उधर फेंकना नहीं चाहिए अन्यथा धोते समय इकट्ठी करने में परेशानी होती है और समय भी लगता है।
  • धोने से पूर्व कपड़ों की उनकी प्रकृति के अनुसार अलग-अलग कर लेना चाहिए जैसे सूती, रेशमी व ऊनी कपड़ों को अलग-अलग विधि द्वारा धोया जाता है। इसी प्रकार सफेद व रंगीन कपड़ों को भी अलग-अलग करना आवश्यक है क्योंकि यदि थोड़ा बहुत रंग भी निकलता हो तो सफेद कपड़े खराब हो सकते हैं।
  • धोने से पूर्व फटे कपड़ों की मरम्मत कर लेनी चाहिए तथा उन पर लगे धब्बों को दूर कर लेना चाहिए।
  • धोने के लिए वस्त्र के कपड़े की प्रकृति के अनुरूप साबुन अथवा डिटरजैन्ट का चयन करना चाहिए।
  • वस्त्र को अधिक आकर्षक बनाने के लिए प्रयोग में आने वाली अन्य सामग्री का चयन भी कर लेना चाहिए जैसे रेशमी वस्त्रों के लिए सिरका, गोंद आदि।
  • वस्त्रों को धोने से पूर्व धोने के लिए प्रयोग में आने वाले सभी सामान को एकत्रित कर
    लेना चाहिए।
  • वस्त्रों की प्रकृति के अनुरूप धोने की सही विधि का प्रयोग करना चाहिए। उदाहरण के लिए कुछ कपड़ों जैसे रेशम अधिक रगड़ सहन नहीं कर पाते हैं, अतः इन्हें हाथों के कोमल दवाब से ही धोना चाहिए।
  • वस्त्रों को साफ पानी में भली प्रकार धोकर उनमें से साबुन अथवा डिटरजैन्ट अच्छी तरह निकाल देना चाहिए अन्यथा वे वस्त्रों के तन्तुओं को कमजोर कर देते हैं।
  • वस्त्रों से भली प्रकार साबुन निकाल लेने के पश्चात् उनमें उपस्थित अतिरिक्त पानी निकाल. देना चाहिए।
  • सुखाने के लिए सफेद वस्त्रों को उल्टा धूप में सुखाना चाहिए तथा रंगीन वस्त्रों को छाया में सुखाना चाहिए अन्यथा उनके रंग खराब होने की सम्भावना रहती है। सफेद वस्त्रों को अधिक समय तक धूप में पड़े रहने से उन पर पीलापन आ जाता है।
  • वस्त्रों के आकार को बनाए रखने के लिए उन्हें हैंगर पर अथवा इस प्रकार लटकाना चाहिए कि उन पर किसी भी प्रकार का अनावश्यक खिंचाव न पड़े।
  • सूखने के पश्चात् उन्हें इस्तरी करके रखना चाहिए।

प्रश्न 37. धुलाई की विभिन्न विधियों के बारे में लिखें।
उत्तर:
धुलाई क्रिया एक वैज्ञानिक कला है और अन्य कलाओं के समान ही इसके भी कुछ सिद्धान्त हैं। सिद्धान्तों का अनुसरण नियमपूर्वक करना तथा आवश्यकतानुसार इनमें कुछ-कुछ परिवर्तन करना, धोने की क्रिया धोने वाले की विवेक-बुद्धि पर निर्भर करती है। वैसे इस प्रक्रिया में धैर्य अभ्यास दोनों का ही अत्यधिक महत्त्व है। अभ्यास के सभी सिद्धान्तों के अंतर्निहिक गुण-दोष स्वतः सामने आ जाते हैं और धुलाई करने वाला स्वत: ही समझ जाता है कि कौन सिद्धान्त किस प्रकार और कब पालन योग्य है और उसके दोषों को किस प्रकार दूर करना संभव है।

घरेलू प्रयोग में तथा सभी पारिवारिक सदस्यों के परिधानों में तरह-तरह के वस्त्र प्रयोग भी आते हैं। सूती, ऊनी, रेशमी, लिनन, रेयन और रासायनिक वस्त्र तथा मिश्रण से बने वस्त्र भी रहते हैं। वस्त्रों के चयन सम्बन्धी किस्में भी एक-दूसरे से अलग रहती है। अतः धुलाई सिद्धान्तों का अवलोकन अनिवार्य है। उनका अनुसरण आवश्यकतानुसार ही करना चाहिए। अनुचित विधि के प्रयोग से वस्त्र के कोमल रेशों की घोर क्षति पहुँचाती है। उचित विधि के प्रयोग से वस्त्रों का प्रयोग सौन्दर्य स्थायी और अक्षुण्ता रहता है और वह टिकाऊ होता है, साथ ही कार्यक्षमता बढ़ती है।

धुलाई क्रिया दो प्रक्रियाओं के निम्नलिखित सम्मिलित रूप का ही नाम है-
(i) वस्त्रों को धूल-कणों और चिकनाई पूर्ण गंदगी से मुक्त करना तथा (ii) धुले वस्त्रों पर ऐसा परिष्करण देना जिससे उनका नवीन वस्त्र के समान सुघड़ और सुन्दर स्वरूप आ सके। गन्दगी को दूर करने का तरीका तथा वस्त्रों को स्वच्छ करने की विधि मुख्यतः वस्त्र के स्वभाव तथा धूल और गन्दगी की किस्म पर निर्भर करती है।

गन्दगी जो वस्त्रों में होती है वह दो प्रकार की होती है- (a) रेशों पर ठहरे हुए अलग धूल-कण तथा (b) चिकनाई के साथ लगे धूल-कण।

कपड़े धोने की विधियाँ
कपड़े धोने की विधियाँ निम्नलिखित हैं-
(i) रगड़कर- रगड़कर प्रयोग करके केवल उन्हीं वस्त्रों को स्वच्छ किया जा सकता है जो मजबूत और मोटे होते हैं। रगड़ क्रिया को विधिपूर्वक करने के कई तरीके हैं। वस्त्र के अनुरूप तरीके का प्रयोग करना चाहिए।

(a) रगड़ने का क्रिया हाथों से घिसकर- रगड़ने का काम हाथों से भी किया जा सकता है। हाथों से उन्हीं कपड़ों को रगड़ा जा सकता है जो हाथों में आ सके अर्थात् छोटे कपड़े।

(b) रगड़ने का क्रिया मार्जक ब्रश द्वारा- कुछ बड़े वस्त्रों को, जो कुछ मोटे और मजबूत भी होते हैं, ब्रश से मार्जन के द्वारा गंदगी से मुक्त किया जाता है।

(c) रगड़ने का क्रिया घिसने और सार्जन द्वारा- मजबूत रचना के कपड़ों पर ही इस विधि का प्रयोग किया जा सकता है।
(ii) हल्का दबाव डालकर- हल्का दबाव डालकर धोने की क्रिया उन वस्त्रों के लिए अच्छी रहती है। जिनके घिसाई और रगड़ाई से क्षतिग्रस्त हो जाने की शंका रहती है। हल्के, कोमल तथा सूक्ष्म रचना के वस्त्रों को इस विध से धोया जाता है।

(ii) सक्शन विधि का प्रयोग- सक्शन (चूषण) विधि का प्रयोग भारी कपड़ों को धोने के लिए किया जाता है। बड़े कपड़ों को हाथों से गूंथकर (फींचकर) तथा निपीडन करके धोना कठिन होता है। जो वस्त्र रगड़कर धोने से खराब हो सकते हैं, जिन्हें गूंथने में हाथ थक जा सकते हैं और वस्त्र भी साफ नहीं होता है, उन्हें सक्शन विधि की सहायता से स्वच्छ किया जाता है।

(iv) मशीन से धुलाई करना- वस्त्रों को मशीन से धोया जाता है। धुलाई मशीन कई प्रकार की मिलती है। कार्य-प्रणाली के आधार पर ये तीन टाइप की होती है-सिलेंडर टाइप, वेक्यूम कप टाइप और टेजीटेटर टाइप मशीन की धुलाई तभी सार्थक होती है जब अधिक वस्त्रों को धोना पड़ता है और समय कम रहता है।

प्रश्न 38. धब्बे छुड़ाने की प्रमुख विधियाँ क्या है ?
उत्तर:
दाग-धब्बे मिटाने की प्रमुख विधियाँ (Main Methods of Stain Removal)- दाग हटाने के लिए निम्नलिखित विधियों का प्रयोग करते हैं-

  • डुबोकर- इस विधि से दाग छुड़ाने के लिए दाग वाले वस्त्र को अभिकर्मक में डुबोया जाता है। इसे रगड़कर हटाया जाता है और फिर धो दिया जाता है।
  • स्पंज- इस विधि में कपड़े के जिस स्थान से दाग हटाना हो उसे ब्लॉटिंग पेपर रखें तत्पश्चात् स्पंज के साथ अभिकर्मक लगाएँ तथा उसे रगड़कर स्वच्छ कर लें।
  • डॉप विधि- इस विधि का प्रयोग करते समय कपड़े को खींचकर एक बर्तन में रखकर इसे उस पर ड्रापर से अभिकर्मक टपकाया जाता है।
  • भाप विधि- इस विधि का प्रयोग करते समय उबलते हुए पानी से निकलती हुई भाप से दाग हटाया जाता है।

प्रश्न 39. रेडिमेड कपड़े क्यों लोकप्रिय होते जा रहे हैं ?
अथवा, रेडिमेड कपड़े की लोकप्रियता के क्या कारण हैं ?
उत्तर:
रेडिमेड कपड़े की लोकप्रियता के निम्नलिखित कारण हैं-

  • ये कपड़े खरीदकर पहन लिये जाते हैं।
  • ये कपड़े सुन्दर तथा फैशनेबल डिजाइन में मिल जाते हैं।
  • ये कपड़े सस्ते होते हैं।
  • सिलवाने के झंझट से बचने के लिए लोग रेडिमेड कपड़े खरीदते हैं।
  • उपभोक्ता अधोवस्त्र रेडिमेड ही लेना चाहते हैं, क्योंकि ये पहनने, धोने और संभालने में आसान है।
  • निर्माता उपभोक्ता की जरूरत के अनुसार कपड़ा तैयार करवाता है।

प्रश्न 40. गर्भावस्था में आप किस प्रकार के वस्त्रों का चुनाव करेंगी ?
उत्तर:
गर्भावस्था में स्त्रियों की शारीरिक संरचना में परिवर्तन आ जाता है। उनका पेट तथा वक्ष-स्थल उभर आता है तथा उन्हें पसीना भी बहुत आने लगता है। इसलिए उनके शरीर के लिए वस्त्रों का चुनाव अच्छी तरह करना चाहिए।

  • पेन्टीज अधिक कसी नहीं होनी चाहिए
  • शरीर पर कसे हुए वस्त्र नहीं होने चाहिए।
  • अच्छे रंगों और अच्छे कपड़े का वस्त्र बना होना चाहिए जो शरीर पर अच्छा लगे।
  • गर्भावस्था में अधिक महंगे कपड़े नहीं खरीदें एवं
  • वस्त्र पहनने और खोलने में सुविधाजनक हो।

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