12-sociology

bihar board 12 sociology book solution

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सामाजिक विषमता एवं बहिष्कार के स्वरूप

 (Patterns of Social Inequality and Exclusion)

स्मरणीय तथ्य

* सामाजिक विषमता (Social Inequality) सामाजिक संसाधनों तक आसमान पहुँच की पद्धति सामाजिक विषमता कहलाती है।

*सामाजिक स्तरीकरण (Social stratification) : सामाजिक स्तरीकरण समाज में व्यापक रूप से पाई जाने वाली व्यवस्था है जो सामाजिक संसाधनों को, लोगों की विभिन्न श्रेणियों, में असमान रूप से बाँटती है।

*पूर्वाग्रह (Prejudice) : एक समूह के सदस्यों द्वारा दूसरे समूह के बारे में पूर्वकल्पित विचार का व्यवहार।

*सामाजिक बहिष्कार (Social Boycot) : सामाजिक बहिष्कार वे तौर-तरीके हैं जिनके माध्यम से किसी व्यक्ति या समूह को समाज में पूरी तरह घुलने-मिलने से रोका जाता है या पृथक रखा जाता है।

*अस्पृश्यता (Untouchability) : ‘अस्पृश्यता’ को साधारण बोलचाल की भाषा में छुआछूत कहा जाता है। यह जाति व्यवस्था का अत्यंत घृणित व दूषित पहलू है।

*अन्य पिछड़े वर्ग (OBCs) : जनजाति की श्रेणी की तरह अन्य पिछड़े वर्गों को भी नकारात्मक रूप से यानी वे क्या नहीं हैं, इसके आधार पर परिभाषित किया जाता है।

(क) वस्तुनिष्ठ प्रश्न

(Objective Questions) 

  1. भारत में नारी आंदोलन के पुरोधा निम्न में किनको कहा जाता है ?

_ [M.Q.2009A]

(क) इंदिरा गाँधी

(ख) सुचेता कृपालिनी

(ग) कमला नेहरू

(घ) सरोजिनी नायडु

उत्तर-(घ)

  1. भारतीय समाज के निम्न धार्मिक अल्पसंख्यकों में कौन-सा सम्प्रदाय सबसे छोटा

[M.Q.2009A]

(क) मुसलमान

(ख) बौद्ध

(ग) सिख

(घ) पारसी

उत्तर-(घ)

  1. भारत में किस प्रांत में मुसलमानों की संख्या सर्वाधिक है ? [M.Q. 2009A]

(क) आंध्र प्रदेश

(ख) केरल

(ग) असम

(घ) कश्मीर

उत्तर-(घ)

  1. भारत के किस प्रांत में हिन्दू अल्पसंख्यक है ?

[M.Q.2009A]

(क) हरियाणा

(ख) पंजाब

(ग) जम्मू

(घ) केरल

उत्तर-(ग)

  1. संविधान के किस अनुच्छेद द्वारा लोकसभा में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित

जनजाति के सदस्यों के लिए सीट का आरक्षण किया गया है? [M.Q. 2009A]

(क) अनुच्छेद-334

(ख) अनुच्छेद-332

(ग) अनुच्छेद-320

(घ) अनुच्छेद-338

उत्तर-(ग)

  1. संविधान के किस अनुच्छेद में अस्पृश्यता निवारण का प्रावधान किया गया है ?

[M.Q.2009A]

(क) अनुच्छेद-23

.(ख) अनुच्छेद-17

(ग) अनुच्छेद-29

(घ) अनुच्छेद-25

उत्तर-(ख)

  1. अनुसूचित जनजाति को पहले निम्नलिखित में किस नाम से पुकारा जाता था?

[M.Q.2009A]

(क) आदिवासी

(ख) जंगली जाति

(ग) वनजाति

(घ) उपर्युक्त सभी

उत्तर-(घ)

  1. भारत में अनुसूचित जातियों जनजातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान संविधान के किस धारा में किया गया है?

[M.Q.2009A]

(क) धारा 335

(ख) धारा 379

(ग) धारा 369

(घ) धारा 330

उत्तर-(ग)

  1. 2001 जनगणना के अनुसार भारत में अनुसूचित जाति की संख्या कितना प्रतिशत

[M.Q. 2009A]

(क) 10 प्रतिशत

(ख) 13 प्रतिशत

(ग) 15 प्रतिशत

(घ) 18 प्रतिशत

उत्तर–(ग)

  1. हिन्दू विवाह का उद्देश्य धर्म, प्रजनन, रीति तथा कुछ अन्य दायित्वों का निर्वहन है

[M.Q.2009A]

(क) पूर्णतः सही है

(ख) आंशिक रूप से सही है।

(ग) गलत है

(घ) नहीं कह सकते

उत्तर-(ख)

  1. भारतीय समाज में सामाजिक स्तरीकरण का बुनियादी आधार क्या है ?

[M.Q.2009A]

(क) धन एवं संपति

(ख) जाति

(ग) वंश

(घ) धर्म

उत्तर-(ख)

  1. निम्न में किस अधिनियम के द्वारा वैवाहिक संबंधों की स्थापना में धर्म तथा जाति के

मुद्दों को वैधानिक तौर पर समाप्त किया गया है ? [M.Q.2009A]

(क) सती-प्रथा निषेध अधिनियम, 1829

(ख) हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1856

(ग) हिन्दू स्त्रियों का संति पर अधिकार अधिनियम, 1937

(घ) विशेष विवाह अधिनियम, 1958

उत्तर-(घ)

  1. पारसन्स ने बच्चों के समाजीकरण में

[M.Q.2009A]

(क) तीन अवस्थाओं क उल्लेख किया है

(ख) चार अवस्थाओं क उल्लख किया है

(ग) पाँच अवस्थाओं क उल्नख किया है

(घ) छः अवस्थाओं का उल्लख किया है

उत्तर-(ग)

  1. भारत सरकार द्वारा अनुसूचित जातियों की अधिकृत अनुसूची कब घोषित की गई?

[M.Q.2009A]

(क) सन् 1955

(ख) सन् 1950

(ग) सन् 1935

(घ) सन् 1952

उत्तर-(ख)

  1. अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए परकार ने कितना आरक्षण प्रदान किया है ?

(क) 33 प्रतिशत –

(ख) 27 प्रतिशत

(ग) 11 प्रतिशत

(घ) 44 प्रतिशत

उत्तर-(ख)

  1. पिछड़ा वर्ग विन व विकास निगम की स्थापना कब की गई?

(क) 1992

(ख) 2004

(ग) 1995

(घ) 2007

उत्तर-(क)

  1. सरकार ने अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना कब की थी?

(क) 1982

(ख) 1990

(ग) 1995

(घ) 1993

उत्तर-(घ)

18, राष्ट्रीय स्तर पर भारत में कुल कितने समुदायों को अल्पसंख्यकों के रूप में मान्यता

दी गई है?

(क) दस

(ख) आठ

(ग) पाँच

(घ) चार

उत्तर-(ग)

  1. भारत की कुल जनसंख्या का कितना प्रतिशत हिंदू है ?

(क) 82.42

(ख) 88.42

(ग) 77.92

(घ) 66,42

उत्तर-(क)

(ख) रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए :

(1) सामाजिक संसाधनों तथा असमान पहुँच की पद्धति …………. कहलाती है।

(2) एक समूह के सदस्यों द्वारा दूसरे समूह के बारे में पूर्वकल्पित विचार या व्यवहार .

…………… कहलाती है।

(3) ………….. व्यवहारों एवं विश्वास के स्थापित प्रतिमान को कहते हैं।

(4) दलित एक मराठी शब्द है जिसका अर्थ है

(5) 2001 ई० की जनगणना के अनुसार भारत में महिलाओं की संख्या …….. करोड़ है।

………..

उत्तर-(1) सामाजिक विषमता, (2) पूर्वाग्रह, (3) प्रथा, (4) टुकड़ों में टूटा हुआ,

(5) 49.87 ।

(ग) निम्नलिखित कथनों में सत्य एवं असत्य बताइये :

(1) 2001 ई० की जनगणना के अनुसार भारत में अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या 8. _7 करोड़ है।

(2) भारत में अल्पसंख्यकों को तीन आधार पर बाँटा गया है।

(3) दलित वर्ग अधिकतर शिक्षित है।

(4) स्वयंसिद्ध महिलाओं के विकास और सशक्तिकरण की समन्वित योजना है।

(5) गर्भपात को कानूनी मान्यता 1981 में प्रदान की गई।

उत्तर-(1) सत्य, (2) सत्य, (3) असत्य, (4) सत्य, (5) असत्य।

अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

    (Very Short Answer Type Questions) 

प्रश्न 1. वंचित समूह से क्या अभिप्राय है ?

उत्तर-प्रत्येक समाज में कुछ निश्चित समूह सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक या शैक्षणिक दृष्टि से कमजोर रह जाते हैं। ऐसे समूह वंचित समूह माने जाते हैं।

प्रश्न 2. भारत के वंचित समूह कौन से हैं ?

उत्तर-भारतीय समाज में वचित समूह हैं-अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और महिलाएँ व धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग।

प्रश्न 3. भारत में क्षतिपूर्ति विभेद नीति को किसके लिए अपनाया गया है ?

उत्तर-स्वाधीन भारत में क्षतिपूर्ति विभेद नीति को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़े वर्ग, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के लिए अपनाया गया है।

प्रश्न 4. क्षतिपूर्ति विभेद नीति से क्या अभिप्राय है?

उत्तर-क्षतिपूर्ति विभेद नीति से अभिप्राय समानता के नियमों जैसे बुद्धि समानता आदि से हटकर विभेद किया जाता है। विशेष व्यवहार के द्वारा अप्रत्यक्ष और सूक्ष्म विभेद समाप्त किया जा सकता है। इसके अच्छे परिणाम के रूप में सामाजिक एकीकरण और अपेक्षित प्रतिभाओं को मुख्य धारा में लाया जा सकता है। एक लंबे समय से हो रहे वंचन को कम किया जा सकता है।

प्रश्न 5. भारतीय संविधान में पिछड़े नागरिकों के हितों के कल्याण के लिए क्या कहा गया है?

उत्तर-भारतीय संविधान में पिछड़े नागरिकों विशेष रूप से अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों के आर्थिक और शैक्षणिक हितों को बढ़ावा देने के लिए कुछ विशेष अधिकार प्रदान किए गए हैं। जैसे अल्पसंख्यक समूह अपनी भाषा, लिपि, संस्कृति के संरक्षण के लिए अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना कर सकता है।

प्रश्न 6. अनुसूचित जातियों की मुख्य समस्याएँ क्या हैं ?

उत्तर-अनुसूचित जातियों के लोग निर्धन लोग हैं। वे सामाजिक रूप से पिछड़े हुए हैं। उन्हें पर्याप्त भोजन, स्वास्थ्य सुविधाएँ, वस्त्र व आवास की सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। वे अशिक्षित हैं और अधिकतर ऐसे व्यवसायों में लगे हैं जिनकी सामाजिक स्थिति निम्न होती है।

प्रश्न 7. दलित शब्द का शाब्दिक अर्थ क्या है ?

उत्तर-दलित शब्द से उन अछूत समुदायों का बोध होता है जो आधिकारिक रूप से अनुसूचित जाति के लोग हैं। दलित एक मराठी शब्द है जिसका अर्थ है-टुकड़ों में बँटा हुआ है।

प्रश्न 8. भारत में अनुसूचित जाति के लोगों की संख्या कितनी है ?

उत्तर-1991 की जनगणना के अनुसार भारत में अनुसूचित जाति के लोगों की जनसंख्या

13.82 करोड़ है। यह भारत की कुल जनसंख्या का 16.48 प्रतिशत थी।

प्रश्न 9. समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से क्षतिपूर्ति विभेद नीति से क्या तात्पर्य है ?

उत्तर-यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें सबके लिए समान अवसरों के अतिरिक्त कुछ के लिए विशेष अवसरों का प्रावधान किया जाता है और सामाजिक विषमता को कम किया जाता है।

प्रश्न 10. स्वतंत्रता के पश्चात् किस प्रकार के प्रजातांत्रिक समाज के निर्माण की घोषणा की गई?

उत्तर-स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में न्याय, स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व आधारित समाज के निर्माण की घोषणा की गई।

प्रश्न 11. आरक्षण की नीति का मुख्य उद्देश्य क्या है ?

उत्तर-अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण की नीति का मुख्य उद्देश्य सामाजिक समानता के लक्ष्य की प्राप्ति है।

प्रश्न 12. अनुसूचित जाति के लोग किस आधार पर अलग दिखाई पड़ते हैं ?

उत्तर-अनुसूचित जाति के लोग सजातीय समूह नहीं हैं। ये आंतरिक रूप से व्यवसाय के आधार पर, संख्या के आधार पर तथा भौगोलिक विस्तार और धार्मिक संस्तरण के आधार पर बँटे हैं लेकिन अस्पृश्यता के आधार पर वे पृथक् हैं और धार्मिक रूप से अशुद्ध माने जाते हैं। उन पर अनेक सामाजिक प्रतिबंध लगे हैं।

प्रश्न 13. वर्तमान में अनुसूचित जातियों की क्या स्थिति है ?

उत्तर-लगभग 35 वर्ष बीत जाने के बाद भी ग्रामीण भारत में उनकी स्थिति अच्छी नहीं है। गाँवों में अनुसूचित जाति के लोगों का गाँवों के जमींदारों और प्रभावशाली जातियों द्वारा शोषण होता है। आर्थिक रूप से वे अभी भी जमींदार जातियों पर निर्भर करते हैं।

प्रश्न 14. समाज में स्त्रियों की शक्तिहीनता का अनुमान किस बात से पता चलता है ?

उत्तर-स्त्रियों की शक्तिहीनता को अनुमान बलात्कार, दहेज, लिंग, अनुपात, पत्नी का शारीरिक उत्पीड़न, स्त्री भ्रूण हत्या जैसी घटनाओं से लगाया जा सकता है।

प्रश्न 15. धार्मिक व सामाजिक सुधार आंदोलनों से स्त्रियों की स्थिति पर क्या प्रभाव पड़ा?

उत्तर-भक्ति आंदोलन के काल में महिलाओं को सामाजिक व धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त हुई थी। धार्मिक व सामाजिक सुधार आंदोलनों से स्त्रियों में आत्मविश्वास का संचार हुआ था। समाज सुधार आंदोलनों से सती प्रथा, बाल विवाह जैसी कुरीतियों को दूर करने में सहायता मिली।

प्रश्न 16. भारत में जनजातियों की पहचान कैसे की जाती है?

उत्तर-भारतीय संविधान के अनुच्छेद 341 और 342 के अनुसार राष्ट्रपति के आदेशों द्वारा अनुसूचित जनजातियों की पहचान की जाती है।

प्रश्न 17: भारत के किन राज्यों में अनुसूचित जनजाति के लोग अधिक संख्या में निवास करते हैं?

उत्तर-भारत में सबसे अधिक अनुसूचित जनजाति के लोग मध्य प्रदेश, झारखंड, राजस्थान, महाराष्ट्र, उड़ीसा और गुजरात में निवास करते हैं।

प्रश्न 18. भारत की कुल जनसंख्या में अनुसूचित जनजातियों की संख्या कितनी है?

उत्तर-2001 की जनगणना के अनुसार भारत में अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या 6.7 करोड़ है, जो कुल जनसंख्या का 8.28 प्रतिशत है।

प्रश्न 19. अनुसूचित जनजातियों की समस्याओं की व्याख्या कीजिए।

उत्तर-ऋणग्रस्तता अनुसूचित जनजातियों की मुख्य समस्या है। निर्धनता, जमीन और जंगलों पर जनजातीय अधिकार समाप्त होना, कृषि का पुराना तरीका, महाजनों और दुकानदारों द्वारा उनका शोषण किया जाना, उनकी जमीनों पर दूसरों के द्वारा कब्जा करना आदि समस्याओं का जनजातियों

को सामना करना पड़ता है।

प्रश्न 20. भारत में अनुसूचिज जनजातियों के लिए संविधान में क्या प्रावधान किए गए हैं ?

उत्तर-अनुसूचित जनजातियों की कोई निश्चित परिभाषा नहीं है परंतु अनुच्छेद 342 के अंतर्गत राष्ट्रपति अनुसूचित जनजाति की पहचान के तरीके बताते हैं। इनके लिए दो प्रकार के प्रावधान हैं-संरक्षण के संबंध में तथा दूसरा जनजातीय विकास से संबंधित।

प्रश्न 21. जनजातियों की स्थिति में क्या सुधार किए गए हैं ?

उत्तर-स्वतंत्रता के पश्चात् जनजातियों की स्थिति में सुधार के लिए कई प्रकार के प्रयास किए गए हैं। उन्हें जमीन का वितरण किया गया है। विकसित कृषि संयंत्रों को उपलब्ध कराया गया है, बीज, खाद आदि उपलब्ध कराए गए हैं। ऋणदाताओं और महाजनों से उनकी सुरक्षा के प्रबंध किए गए हैं। भूमि पर उनके पारंपरिक अधिकारों को मान्यता दी गई है।

प्रश्न 22. अन्य पिछड़े वर्ग के लिए सरकार ने क्या प्रावधान किया है ?

उत्तर-अन्य पिछड़ा वर्ग भारत की कुल जनसंख्या का 5% है। संविधान के अनुच्छेद 340 के अनुसार आयोग का गठन कर अन्य पिछड़े वर्गों की स्थिति की जाँच की जा सकती है। काका कालेलकर आयोग ने भारत में 2399 जातियों का अपनी रिपोर्ट में अन्य पिछड़े वर्ग में सम्मिलित किया।

प्रश्न 23. पिछड़े वर्ग को समझाइए। .

उत्तर-पिछड़े वर्गों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग आते हैं। इनमें गैर-अछूत और मध्यवर्ती जातियाँ आती हैं, जो पारंपरिक व्यवसायों जैसे कृषि पशुपालन, हस्तकला, शिल्प और पेशेगत सेवाओं में संलग्न हैं, पिछड़ेपन का निर्धारण जातिगत स्थिति और व्यवसाय के आधार पर किया जाता है।

प्रश्न 24, अन्य पिछड़े वर्ग के लिए सरकार ने कितना आरक्षण प्रदान किया है ?

उत्तर-अन्य पिछड़े वर्ग के लिए संविधान में सरकार ने 27 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया है।

प्रश्न 25, पिछड़ा वर्ग वित्त व विकास निगम की स्थापना किसलिए की गई?

उत्तर-1992 में सरकार ने पिछड़ा वर्ग वित्त व विकास निगम की स्थापना की गई इसका उद्देश्य गरीबी की रेखा से नीचे के पिछड़े वर्गों की आमदनी को बढ़ाने के लिए वित्तीय सहायता देना है।

प्रश्न 26, अनुसूचिज जनजाति और अन्य पिछड़े वर्ग की स्थिति में मुख्य अंतर क्या है?

उत्तर-अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण का उद्देश्य सामाजिक समानता के लक्ष्य की प्राप्ति है जबकि अन्य पिछड़े वर्गों की सामाजिक स्थिति अनुसूचित जाति व जनजाति से भिन्न है। हरिजनों को सामाजिक पृथकता का शिकार होना पड़ा है जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग के लोगों को नहीं।

प्रश्न 27. भारत की जनसंख्या में कौन से वर्ग अल्पसंख्यक माने गए हैं ?

उत्तर-भारतीय संविधान में निम्न वर्ग अल्पसंख्यक माने गए हैं : (i) परिभाषा पर आधारित (ii) धर्म पर आधारित। .

1991 की जनगणना के अनुसार भारत की कुल जनसंख्या में 82.41 प्रतिशत हिन्दू हैं। शेष मुसलमान (11.67 प्रतिशत), ईसाई (2.32 प्रतिशत), सिक्ख (1.99 प्रतिशत), बौद्ध (0.77), जैन (0.41 प्रतिशत) और अन्य (0.43 प्रतिशत) अल्पसंख्यक माने गए हैं।

प्रश्न 28. भारत में अल्पसंख्यकों के योगदान का उल्लेख कीजिए।

उत्तर-भारत में विज्ञान, कला, पत्रकारिता, खेल, साहित्य, सिनेमा, उद्योग व व्यापार के क्षेत्र में अल्पसंख्यकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

प्रश्न 29. संविधान में अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकारों का प्रावधान क्यों किया गया है?

उत्तर-संविधान में अल्पसंख्यकों के अधिकारों के प्रावधान के पीछे तर्क दिया जाता है कि बहुसंख्यक तो अपनी संख्या के बल पर अपने हितों की रक्षा कर सकते हैं परंतु अल्पसंख्यकों

को अतिरिक्त सहायता की आवश्यकता पड़ती है।

प्रश्न 30, शिक्षा के क्षेत्र में अल्पसंख्यकों को कौन-सी सुविधाएँ प्रदान की गई हैं?

उत्तर-शिक्षा के क्षेत्र में अल्पसंख्यकों को अपनी शिक्षण संस्थाओं को चलाने का अधिकार प्राप्त है। भाषायी अल्पसंख्यक अपने बच्चों को प्राथमिक शिक्षा अपनी भाषा में दे सकते हैं। शिक्षण संस्थानों में धर्म, प्रजाति, जाति या भाषा के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता है।

प्रश्न 31. भारत में किन पाँच समुदायों को अल्पसंख्यकों के रूप में मान्यता दी गई है?

उत्तर-भारत सरकार ने पाँच समुदायों-मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध और पारसी समुदायों को राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक के रूप में मान्यता दी है।

प्रश्न 32. सरकार ने अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना कब की थी?

उत्तर-सरकार ने अल्पसंख्यक आयोग की स्थापना 1993 में की थी। प्रश्न 33. भारत में अल्पसंख्यकों को कितनी श्रेणियाँ हैं ? उत्तर-भारतमें अल्पसंख्यकों को मुख्यतया तीन श्रेणियों में बांटा गया है : (i) धार्मिक अल्पसंख्यक (ii) भाषायी अल्पसंख्यक (iii) जनजातीय अल्पसंख्यक।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

(Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1. सामाजिक विषमता व्यक्तियों की विषमताओं से कैसे भिन्न है ?

__ (NCERTT.B.Q.1)

उत्तर-सामाजिक संसाधनों तक असमान पहुँच की पद्धति ही साधारणतया सामाजिक विषमता कहलाती है। कुछ सामाजिक विषमताएँ व्यक्तियों के बीच स्वाभाविक भिन्नता को प्रतिबिंबित करती हैं। उदाहरणस्वरूप उनकी योग्यता एवं प्रयास में भिन्नता। कोई व्यक्ति असाधारण बुद्धिमान या प्रतिभावान हो सकता है या यह भी हो सकता है कि उसने समृद्धि और अच्छी स्थिति पाने के लिए कठोर परिश्रम किया हो तथापि सामाजिक विषमता व्यक्तियों के बीच सहज या ‘प्राकृतिक’ भिन्नता की वजह से नहीं है बल्कि यह उस समाज द्वारा उत्पन्न की जाती है जिसमें वह रहते हैं।

प्रश्न 2. सामाजिक स्तरीकरण की कुछ विशेषताएँ बताइए। (NCERTI.B.O. 2)

उत्तर-सामाजिक स्तरीकरण की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :

(i) सामाजिक स्तरीकरण समाज में व्यापक रूप से पाई जाने वाली एक व्यवस्था है।

(ii) सामाजिक स्तरीकरण पीढ़ी दर पीढ़ी बना रहता है।

(iii) सामाजिक स्तरीकरण व्यक्तियों के बीच की विभिन्नता का प्रकार्य ही नहीं बल्कि समाज की एक विशिष्टता है।

(iv) सामाजिक स्तरीकरण को विश्वास या विचारधारा द्वारा समर्थन प्राप्त होता है।

प्रश्न 3. आप पूर्वाग्रह और अन्य किस किस्म की राय अथवा विश्वास के बीच कैसे भेद करेंगे?

(NCERTT.B. Q.3)

उत्तर-पूर्वाग्रह एक समूह के सदस्यों द्वारा दूसरे समूह के बारे में पूर्वकल्पित विचार अथवा व्यवहार होता है। इस शब्द का अक्षरशः अर्थ ‘पूर्वनिर्णय’ है अर्थात् वह धारणा जो बिना विषय को जाने और बिना उसके तथ्यों को परखे प्रारंभ में ही बना दी जाती है। एक पूर्वाग्रहित व्यक्ति के पूर्वकल्पित विचार सबूत-साक्ष्यों के विपरीत सुनी-सुनाई बातों पर आधारित होते हैं। यह. नई जनाकरी प्राप्त होने के बावजूद बदलने से इंकार करते हैं। पूर्वाग्रह सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों ही हो सकता है। वैसे अधिकांशतया यह शब्द नकारात्मक रूप से लिए गए पूर्वनिर्णयों के लिए इस्तेमाल होता है पर यह स्वीकारात्मक पूर्वनिर्णयों पर भी लागू होता है। उदाहरणतया, एक

‘व्यक्ति अपनी जाति और समूह के सदस्यों के पक्ष में पूर्वाग्रहित हो सकता है और उन्हें बिना किसी सबूत के दूसरी जाति या समूह के सदस्य से श्रेष्ठ मान सकता है।

प्रश्न 4: अस्पृश्यता क्या है ?

(NCERTT.B. Q. 6)

उत्तर-अस्पृश्यता की परिभाषा करना अत्यन्त कठिन कार्य है लेकिन इसका अर्थ समझना सरल है। डॉ. कैलाशनाथ कटाजू जैसे विधिवेत्ता ने भी एक विधेयक में माना था कि अस्पृश्यता को परिभाषित करना संभव नहीं है किन्तु उन्होंने अस्पृश्यता को दूर करने के लिए सन् 1955 में जो विधेयक निर्मित किया था उसमें अस्पृश्यता के समाज में प्रचलित स्वरूप का उल्लेख किया गया है। इस विधेयक के अनुसार- (i) अस्पृश्यता के आधार पर किसी व्यक्ति को समान धर्म के मानने वाले अन्य व्यक्तियों के लिए खुले सार्वजनिक पूजा के स्थान में प्रवेश से, (ii) किसी सार्वजनिक अथवा स्थान में पूजा करने या प्रार्थना करने या धार्मिक सेवा करने से अथवा किसी पवित्र जलाशय, कूप, झरने या जलस्रोत को उसी रूप में, जैसा समान धर्म के अनुयायिों को प्रयोग की अनुमति है प्रयोग करने से या स्नान करने से, और (iii) दुकान, होटल, रेस्टोरेंट, सार्वजनिक मनोरंजन स्थल या बस, रेल, अस्पताल, स्कूल, कॉलेज ट्रस्ट में पहुँचने या प्रयोग से रोकना अपराध है।”

प्रश्न 5. अस्पृश्यता की परिभाषा दीजिए।

उत्तर-अस्पृश्यता की परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं :

(i) प्रो. मजूमदार के अनुसार, “अस्पृश्य जातियाँ वे हैं जो विभिन्न सामाजिक व राजनीतिक निर्योग्यताओं से पीड़ित हैं जिनमें से अधिकतर निर्योग्यताओं को परम्परा द्वारा निर्धारित करके सामाजिक रूप से उच्च जातियों द्वारा लागू किया है।”

(ii) प्रो. सत्यव्रत के अनुसार, “अस्पृश्यता समाज की वह व्यवस्था है जिसके कारण एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति या एक समाज दूसरे समाज को परम्परा के आधार पर छू नहीं सकता, अगर छूता है तो स्वयं अपवित्र हो जाता है और इस अपवित्रता से छूटने के लिए उसे किसी प्रकार का प्रायश्चित करना पड़ता है।”

(iii) डॉ. कैलाशनाथ शर्मा ने अपनी पुस्तक में ‘अस्पृश्यता’ को परिभाषित करते हुए उल्लेख किया है-“अस्पृश्य जातियाँ वे हैं जिनके स्पर्श से एक व्यक्ति अपवित्र हो जाये और उसे पवित्र होने के लिए कुछ कृत्य करने पड़ें।”

प्रश्न 6. जातिगत पूर्वाग्रह क्या है?

उत्तर-अनुसूचित या अस्पृश्य जातियों को हिन्दू समाज में परम्परात्मक रूप से निम्न समझा गया है, उनका शोषण किया गया है और उन्हें उनके सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक अधिकारों से वंचित रखा गया है, वास्तव में यही जातिगत पूर्वाग्रह है। इन पूर्वाग्रह में प्रमुख हैं

(i) मंदिरों में प्रवेश का निषेधाधिकार

(ii) भूमिहीनता.

(iii) पेशों के चयन की स्वतंत्रता नहीं

(iv) समाज में निम्नतम स्थान

(v) सार्वजनकि निर्योग्यताएँ

(vi) शिक्षा संबंधी निर्योग्यताएँ

(vii) निवास के पूर्वाग्रह।

प्रश्न 7. जातिगत पूर्वाग्रह के क्या दुष्परिणाम हैं ?

उत्तर-जातिगत पूर्वाग्रहों के कारण अस्पृश्य लोगों को एक ओर सामाजिक जीवन में अनेक बाधाओं व कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है तो दूसरी ओर आर्थिक विषमता का सामना करना पड़ रहा है जिसके परिणामस्वरूप अशिक्षा, गन्दगी, निर्धनता, जीवन का निम्न स्तर आदि अनेक समस्याएँ उत्पन्न होती गई हैं। इस प्रकार धार्मिक व राजनीतिक पूर्वाग्रहों से दलित सीधे

रूप से प्रभावित नहीं हैं वरन् आर्थिक व सामाजिक पूर्वाग्रहों का इन लोगों पर दयनीय प्रभाव पड़ रहा है। अतः यह कहना उचित ही है कि ‘तथाकथित अस्पृश्यों की समस्या मुख्य रूप से सामाजिक व आर्थिक है न कि धार्मिक व राजनीतिक’।

प्रश्न 8. जातीय विषमता को दूर करने के लिए अपनाई गई कुछ नीतियों का वर्णन कीजिए।

(NCERTT.B. Q.7)

उत्तर-जातीय विषमता को दूर करने के लिए केन्द्रीय व राज्य सरकारें निम्न कार्यक्रमों परं जोर दे रही हैं :

(i) भूमि वितरण कार्यक्रम।

(ii) कृषि-उन्नति के लिए विशेष आर्थिक सहायता।

(iii) छोटे उद्योग-धन्धों के विकास के लिए आर्थिक सहायता।

(iv) आवास योजनाओं का कार्यक्रम-विभिन्न प्रदेशीय सरकारें हरिजनों की बस्तियों में सुधार के लिए प्रतिवर्ष लाखों रुपये खर्च कर रही हैं।

(v) नये उद्योग-धन्धों की स्थापना के लिए ब्याज मुक्त ऋण।

उपर्युक्त कार्यक्रमों के अतिरिक्त 20 सूत्री कार्यक्रमों के अन्तर्गत दलित लोगों को आवास, सामाजिक न्याय, रोजगार आदि की विशेष सुविधाएँ उपलब्ध कराई जा रही हैं।

प्रश्न 9. अस्पृश्यता के उन्मूलन हेतु कुछ सुझाव दीजिए।

उत्तर-1. ग्रामों का विकास नवीन आधारों पर किया जाना चाहिए। ग्रामों में विद्यमान सामाजिक कुरीतियों और अन्धविश्वासों को समाप्त करना होगा। यह कार्य समाज-सुधारकों एवं समाज के उत्तरदायी व्यक्तियों की सहायता से किया जा सकता है।

  1. शारीरिक श्रम के प्रति सम्मान की भावना को विकसित किया जाना चाहिए।
  2. अपवित्र व्यवसायों को मशीनीकरण द्वारा दूर किया जाना चाहिए जिससे घृणित व्यवसायों की संख्या कम-से-कम हो सके।
  3. हरिजनों में आर्थिक व सामाजिक सुधार के लिए सामान्य और प्रौद्योगिक शिक्षा पर अधिक जोर दिया जाना चाहिए जिससे अज्ञानता व अन्धविश्वास का अंश हरिजनों से दूर हो सके और आर्थिक स्थिति में हरसंभव सुधार लाया जा सके।
  4. स्वास्थ्य और नैतिक स्तर को विकास के लिए हरिजनों की उचित आवास सम्बन्धी योजनाओं की तीव्र गति से लागू किया जाना चाहिए और इनके लिए मकान बनाते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि उनके मकान उच्च जातियों के लोगों के साथ बनाए जाएँ।

प्रश्न 10. अल्पसंख्यक शब्द से क्या अभिप्राय है ?

उत्तर-अल्पसंख्यक की परिभाषा स्पष्ट नहीं है, लेकिन वे समूह अल्पसंख्यक माने जा सकते हैं जिनके साथ धर्म, प्रजाति या संस्कृति के आधार पर भेदभाव का व्यवहार किया जाता है। ये एक ऐसे समूह हैं जो धर्म, प्रजाति, राष्ट्रीयता और भाषा के आधार पर समाज के अन्य समूहों से अलग माने जाते हैं।

प्रश्न 11. धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों का उद्देश्य क्या है ?

उत्तर-धार्मिक अल्पसंख्यक समूहों का उद्देश्य राज्य से कुछ ऐसी सुविधाएँ प्राप्त करना होता है जिनके द्वारा वे अपने धर्म, संस्कृति एवं भाषा को सुरक्षित रख सकें, उनका प्रचार-प्रसार कर सकें जिससे कि बहुमत के साथ उनका विलय न हो और वे अपनी विशिष्टता बनाए रख सकें।

प्रश्न 12. महिलाओं के प्रति भारतीय आदर्श क्या है ?

उत्तर-भारतीय आदर्श के अनुसार समाज में महिलाओं को वही स्थान और मर्यादा प्रदान की गई है जो पुरुषों को। भारतीय समाज में मातृत्व का सम्मान है। इतना ही नहीं भगवान् की विभिन्न शक्तियों का लक्ष्मी, दुर्गा, सरस्वती, काली आदि स्त्री शब्दों में ही वर्णन किया गया है। इस प्रकार महिलाओं को सुख-संपत्ति, गृहलक्ष्मी, भक्ति और ज्ञान का प्रतीक माना गया है; इनके अभाव में धार्मिक कृत्यों को अर्थहीन बताया गया है, लेकिन इतना सब-कुछ होते हुए भी

व्यावहारिक रूप से भारत में महिलाओं की स्थिति में विभिन्न कालों में उतार-चढ़ाव आता रहा है। .

वास्तव में भारतीय महिलाओं की स्थिति का इतिहास क्रिया और प्रतिक्रिया का इतिहास है। प्राचीन भारत से लेकर स्वतंत्र भारत तक महिलाओं की स्थिति में रोमांचकारी परिवर्तन होते रहे हैं। आज महिलाओं की जो स्थिति देखने को मिल रही है वह भिन्न-भिन्न चरणों (Stages) से होकर गुजरी है।

प्रश्न 13. वैदिक काल में महिलाओं की दशा कैसी थी?

उत्तर-वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति पर्याप्त सम्मानित थी। महिलाओं की स्थिति पुरुष के तुल्य थी। सामाजिक व धार्मिक कार्यक्रमों में महिलाएं पुरुषों की भाँति भाग लिया करती थीं। परिवार में महिलाओं का महत्वपूर्ण स्थान था। वेद. में विवाह-संस्कार के समय कहे जाने वाले। निम्न मंत्र का उल्लेख मिलता है :

.                                               सुम्नाइयेधि श्वयुरेषु म्नाइयुत देवृषु ।

ननान्दुः सम्नाइयेधि सम्नाइयुत श्वश्रुष ।

अर्थात् हे नववधू ! तू जिस नवीन घर में जाने लगी है वहाँ की तू साम्राज्ञी है। वह राजा तेरा है। तेरे श्वसुर, देवर, ननद और सास तुझे साम्राज्ञी समझते हुए तेरे राज्य में आनंदित (सुखपूर्वक) रहें। इतना ही नहीं, वेद में पत्नी के रूप में महिला को रानी कहा गया है। इस काल में महिलाओं को ऊँची-से- ऊँची शिक्षा दी जाती थी। कन्याओं के विवाह की आयु उच्च थी। उन्हें उपनयन कराने का अधिकार था। पर्दे की प्रथा का प्रचलन नहीं था। आज भी विवाह के उत्तरार्द्ध के समय यह मंत्र पढ़ा जाता है।

“सुमंगलीरियं वधुरिमा समेत पश्यत।”

अर्थात् इस सौभाग्यशालिनी वधू को सब लोग आकर देखो।

महिलाओं को अपने आध्यात्मिक विकास का पूर्ण अधिकार था। ऋग्वेद में अनेक सूक्तों की ऋषिकाएँ गोधा, घोषा, विश्वतारा, अपाला, उपनिषत्निहतृ एवं रोमशा आदि महिलाएँ ही थीं। कुछ भी हो, यह मानने से इनकार नहीं किया जा सकता कि वैदिक काल में विवाह, शिक्षा, संपत्ति, धर्म आदि क्षेत्रों में महिलाओं की स्थिति पुरुषों के तुल्य थी, उससे हीन नहीं थी।

प्रश्न 14. उत्तर वैदिक काल में महिलाओं की दशा कैसी थी?

उत्तर-उत्तर वैदिक काल (PostVedic Period) में महिलाओं की स्थिति : उत्तर वैदिक काल में महिलाओं को सामाजिक व धार्मिक क्षेत्रों में सम्मानित अधिकार प्राप्त थे। उन्हें अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार किया जाता था और धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति के लिए महिलाओं को आवश्यक समझा जाता था। इस संदर्भ में महाभारत के आदिपर्व में कहा गया है “जिनके पलियाँ हैं, वे धार्मिक संस्कार संपन्न कर सकते हैं, जिनके गृहस्थी है और जिनके पत्नियाँ हैं वे सुखी हो सकते हैं।

महाभारत और पुराणों में अनेक विदुषी महिलाओं जैसे सिद्धा, शिवा, शांडिली, ‘श्रीमती, श्रुतावती, सुभला, धारिणी, मैना, वेदवती आदि का उल्लेख आता है।

प्रश्न 15. मध्यकाल में महिलाओं की दशा कैसी थी

उत्तर-मध्यकाल (Middle Period) में महिलाओं की स्थिति : वैदिक तथा स्मृति काल की अपेक्षा मध्यकाल में महिलओं की स्थिति अत्यंत दयनीय हो गई है। इस काल में अमानवीय या खराब स्थिति का प्रमुख कारण मुगल राज्य की स्थापना थी। विचारकों का कथन है कि यद्यपि मध्यकाल के पूर्वार्द्ध में स्त्री की स्थिति काफी गिर चुकी थी फिर भी अभी ढहते हुए खंडहरों के मध्य कहीं-कहीं सुंदर महल खड़े दिखाई दे जाते थे। सच तो यह है कि राजपूत काल तक स्त्री जाति अपनी स्थिति सँभाले रही थी लेकिन मध्यकाल के उत्तरार्द्ध में, मुगल राज्य की स्थापना के बाद स्त्री की स्थिति अत्यन्त गिर गई। ब्राह्मणों ने हिन्दू धर्म की रक्षा, रक्त की शुद्धता एवं स्त्रियों के सतीत्व की रक्षा के लिए स्त्रियों के संबंध में नियम-उपनियमों को पर्याप्त कठोर बना

दिया। स्त्री शिक्षा समाप्त हो गई और स्त्री अनेक कुरीतियों की शिकार हो गई। पर्दा प्रथा, बाल विवाह आदि अनेक कुप्रथाओं का स्त्रियों में सामान्य तौर पर प्रचलन हो गया। बचपन से ही कन्याओं पर घर-गृहस्थी का भार लादा जाने लगा और कन्या के विवाह की आयु व्यावहारिक तौर पर 8-9 वर्ष हो गई।

प्रो. सत्यव्रत ने मध्यकाल के उत्तरार्द्ध में भारतीय स्त्री की स्थिति का मूल्यांकन करते हुए लिखा है, “मध्यकाल का उत्तरार्द्ध स्त्री जाति का कालायुग था, स्त्री की स्वतंत्र सत्ता प्रायः समाप्त हो चुकी थी। परिवार में उसकी स्थिति शून्य की भाँति हो गई थी, स्त्री को पैर की जूती के तुल्य समझा जाता था। जब चाहे तब बदल लिया जाता था। स्त्री जाति का युग समाज के अत्याचारों से इतना काला हो चुका था कि उसके लिखने वाले पन्ने भी समाज के अत्याचारों की कालिमा से कभी मुक्त न हो सके।”

प्रश्न 16. वर्तमान में शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं की क्या स्थिति है ? .

उत्तर-वर्तमान परिस्थितियों में प्रत्येक परिवार कन्याओं को कुछ-न-कुछ शिक्षा देना आवश्यक समझने लगा है। अब प्रत्येक नगर व कस्बे में महिलाओं के लिए विद्यालय खुल गए हैं। व्यावसायिक व औद्योगिक संस्थाएँ भी खोली गई हैं। निःशुल्क शिक्षा, अन्य शुल्कों में रियायत, परीक्षाओं में स्वाध्यायी (Private) बैठने की सुविधा, छात्रवृत्तियों आदि की व्यवस्था भी उपलब्ध है और वे पुरुषों के समान उच्च शिक्षा भी ग्रहण करने लगी हैं। इतना सब कुछ होने के बावजूद भी उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाओं की संख्या बहुत सीमित है और इस देश में साक्षर महिलाओं की संख्या कुल आबादी का अठारह प्रतिशत है। इस संदर्भ में मार्गरेट कोरमेख (Margaret Cormach) का कहना है, “अभी तक शिक्षा को जीने के लिए शिक्षा समझा जाता था, साक्षरता के लिए नहीं और इस प्रकार लड़कियों की शिक्षा मुख्यतया वैवाहिक जीवन के प्रशिक्षण से संबंधित है।”

प्रश्न 17. स्त्री सुधार के प्रारंभिक सुधार आंदोलन कौन-से थे ?

उत्तर-प्रारंभिक सुधार आंदोलन : राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, केशवचंद्र सेन, बहराम जी मालाबारी, गोविंद रानाडे, महर्षि कर्वे, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद आदि का नाम प्रारंभिक सुधारकों में लिया जा सकता है। राजा राममोहन राय ने ‘ब्रह्म समाज’ की स्थापना की और इस संस्था के माध्यम से महिलाओं की अनेक निर्योग्यताओं को दूर करने का सफल प्रयास किया। पं. ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने स्त्री-शिक्षा के लिए अनेक शिक्षण-संस्थाएं खोली और स्त्री-शिक्षा पर अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों की रचना की। महादेव गोविंद रानाडे ने ‘राष्ट्रीय सामाजिक सम्मेलन’ की स्थापना की। महर्षि कर्वे ने विधवाओं के लिए अनेक आश्रम खोले जिनमें विधवाओं को पुनर्वास संबंधी शिक्षा दी जाने की व्यवस्था की गई।

महात्मा गाँधी द्वारा सुधार आंदोलन : महात्मा गाँधी ने महिलाओं की समस्याओं को समझा और स्त्री-शिक्षा के प्रसार, कुलीन विवाह और दहेज-प्रथा पर नियंत्रण, बाल-विवाह समाप्ति, अंतर्जातीय विवाह के प्रसार पर बल दिया।

प्रश्न 18. हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 ने स्त्री समानता की दिशा में क्या राहत पहुँचाई ?

उत्तर-हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 (Hindu Marriage Act, 1955) : इस अधिनियम द्वारा हिन्दू पुरुष-स्त्रियों के वैवाहिक तथा दांपत्य अधिकारों में पूरी समानता ला दी गई है; स्त्री और पुरुष के अधिकारों की विषमता को समाप्त कर दिया गया है। पति तब तक दूसरा विवाह नहीं कर सकता जब तक कि पहली पत्नी की मृत्यु न हो गई हो। इस कानून की सबसे महत्वपूर्ण व्यवस्था दूसरा विवाह (Bigamy) अथवा बहुविवाह (Polygamy को समाप्त कर एकल विवाह (Monogamy) के नियम की व्यवस्था है।

दूसरी व्यवस्था तलाक के अधिकारों की है। तलाक के लिए कुछ अवस्थाओं का निर्धारण कर दिया गया है।

प्रश्न 19. हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 ने स्त्री समानता की दिशा में क्या कार्य किया ?

उत्तर-हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (Hindu Succession Act, 1956): इस अधिनियम द्वारा पुत्र-पुत्री के अधिकारों को समान माना गया है और उनके बीच की विषमता को समाप्त कर दिया गया है। पहले पुत्रियों को अपने पिता की संपत्ति से वंचित रखा जाता था परंतु अब पुत्री हो अथवा पुत्र, सभी का पैतृक संपत्ति में समान अधिकार है। पहले विधवाओं को अपनी संपत्ति पर सीमित अधिकार होता था, वह संपत्ति को अपनी इच्छा के अनुसार न तो बेच सकती थी परंतु इस अधिनियम के द्वारा उसे अपनी संपत्ति का पूर्ण अधिकार मिल गया है।

प्रश्न 20. स्वतंत्र भारत में महिलाओं की स्थिति पर प्रकाश डालिए।

उत्तर-यद्यपि स्वतंत्र भारत में न्याय, स्वतंत्रता, समानता और मातृत्व पर आधारित प्रजातांत्रिक समाज की स्थापना की गई परंतु स्त्रियों की स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं आया है। स्त्रियों की असुरक्षा, उनके प्रति असमानता का बोध, आर्थिक, सामाजिक स्वतंत्रता स्वास्थ्य व पोषण आदि में आज भी उनके साथ भेदभाव किया जा रहा है। अनेक सामाजिक व आर्थिक तथ्य इस बात की पुष्टि करते हैं। आज भी समाज में बलात्कार, दहेज, लिंग अनुपात, पत्नी का शारीरिक उत्पीड़न, स्त्री-भ्रूण हत्या जैसी हिंसक घटनाएँ होती हैं। स्त्रियाँ पुरुषों के अधीन रहती है। उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता। विवाहित स्त्रियाँ पुत्र की प्राप्ति के बाद ही प्रतिष्ठा प्राप्त करती हैं। भारतीय समाज में स्त्रियाँ एक ओर तो शक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं जो भय व. श्रद्धा उत्पन्न करता है और दूसरी तरफ वे अपने सौंदर्य व शील के लिए प्रशंसा प्राप्त करती हैं।

प्रश्न 21. स्वतंत्रता के पश्चात् महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए क्या प्रयास किए गए ?

उत्तर-स्वतंत्रता के पश्चात् महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए विशेष विवाह कानून 1954, हिन्दू विवाह कानून 1955, हिन्दू उत्तराधिकार कानून 1956, दहेज प्रथा विरोधी कानून, 1961 महत्वपूर्ण हैं। भारतीय संविधान में समानता के अधिकार को मल अधिकारों में सम्मिलित किया गया। स्वतंत्रता के पश्चात् विकासात्मक उपायों का लाभ शिक्षित नगरीय और उच्च आय समूह वाली महिलाओं ने उठाया है। औसत भारतीय महिलाएँ तो अभी भी बुरी स्थिति में हैं।

प्रश्न 22. सामाजिक अपवर्जन या बहिष्कार क्या है ? (NCERTT.B.Q.4)

उत्तर-सामाजिक बहिष्कार वह तौर-तरीके हैं जिनके माध्यम से किसी व्यक्ति या समूह को समाज में पूरी तरह घुलने-मिलने से रोका जाता है व पृथक रखा जाता है। यह उन सभी कारकों पर ध्यान दिलाता है जो व्यक्ति या समूह का उन अवसरों से वचित रखते हैं जो अधिकांश जनसंख्या के लिए खुले होते हैं। भूरपूर तथा क्रियाशील जीवन जीने के लिए, व्यक्ति को जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं (जैसे, रोटी, कपड़ा तथा मकान) के अतिरिक्त अन्य आवश्यक वस्तुओं और सेवाओं (जैसे, शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात के साधन, बीमा, सामाजिक सुरक्षा, बैंक तथा यहाँ तक कि पुलिस एवं न्यायपालिका) की भी आवश्यकता होती है। सामाजिक भेदभाव आकस्मिक या अनायास रूप से नहीं बल्कि व्यवस्थित तरीके से होता है। यह समाज की संरचनात्मक विशेषताओं का ही परिणाम है।

यहाँ इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है क सामाजिक बहिष्कार अनैच्छिक होता है, अर्थात् बहिष्कार बहिष्कृत लोगों की इच्छाओं के विरुद्ध कार्यान्वित होता है। उदाहरण के लिए, शहरों और कस्बों में हम हजारों बेघर गरीब लोगों की तरह धनी व्यक्तियों को कभी भी फुटपाथ या पुलों के नीचे सोते हुए नहीं देखते हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि धनी व्यक्ति फुटपाथ या पार्कों का प्रयोग करने सके ‘बहिष्कृत’ हैं। यदि वे चाहें तो निश्चित रूप से इनका प्रयोग कर सकते हैं, परंतु वे ऐसा करना नहीं चाहते। सामाजिक भेदभाव को कभी-कभी इस गलत तर्क से न्यायसंगत ठहराया जाता है कि बहिष्कृत समूह स्वयं ही सम्मिलित होने का इच्छुक नहीं है। इस प्रकार का तर्क इच्छित या चहेती चीजों के संदर्भ में सरासर गलत है। (यह उस स्थिति से बिल्कुल अलग है जहाँ अमीर लोग स्वेच्छा से फुटपाथ पर नहीं सोते या बोझा ढोने का काम नहीं करते)।

प्रश्न 23. आज जाति और आर्थिक असमानता के बीच क्या संबंध है ?

उत्तर-वास्तविक ऐतिहासिक व्यवहार में सामाजिक तथा आर्थिक प्रस्थिति एक दूसरे के अनुरूप होती थी। अतः स्पष्टतया सामाजिक (जैसे जाति) तथा आर्थिक हैसियत में घनिष्ठ संबंध था-‘उच्च’ जातियाँ प्रायः निर्विवाद रूप से उच्च आर्थिक प्रस्थिति की थीं, जबकि ‘निम्न’ जातियाँ प्रायः निम्न आर्थिक स्थिति की ही होती थीं। आधुनिक काल में, विशेष रूप से 19वीं सदी से, जाति तथा व्यवसाय के बीच के संबंध काफी शिथिल हुए हैं। व्यावसायिक परिवर्तन संबंधित आनुष्ठानिक-धार्मिक प्रतिबंध आज उतनी आसानी से नहीं लागू किए जा सकते हैं, तथा पूर्व की अपेक्षा अब व्यवसाय परिवर्तन आसान हो गया है। इसके अतिरिक्त, सौ या पचास वर्ष पहले की तुलना में, जाति तथा आर्थिक स्थिति के सहसंबंध अत्यंत कमजोर हुए हैं। आज अमीर तथा गरीब लोग हर जाति में पाए जाते हैं। लेकिन मुख्य बात यह है कि जाति-वर्ग का परस्पर संबंध वृहत् स्तर पर अभी भी पूरी तरह कायम है। व्यवस्था के थोड़ा कम सख्त होने पर मोटे-तौर पर समान सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति वाली जातियों के बीच का फासला बहुत कम हुआ है परंतु विभिन्न सामाजिक-आर्थिक समूहों के बीच जातीय अंतर अभी भी बना हुआ है।

प्रश्न 24. हम यह किस अर्थ में कह सकते हैं कि ‘असक्षमता’ जितनी शरीरिक है उतनी ही सामाजिक थी?

(NCERTT.B. Q. 11)

उत्तर-असक्षमता शब्द का प्रयोग ‘मानसिक रूप से चुनौतीग्रस्त’ (mentally challenged) ‘दृष्टि बाधित’ (physically impaired) जैसे घिसे-पिटे नकारात्मक भाव व्यक्त करने वाले शब्दों जैसे, ‘मंदबुद्धि’, ‘अपंग’ अथवा ‘लंगड़ा-लूला’ आदि के स्थान पर किया जाने लगा है। विकलांग अपनी जैविक अक्षमता के कारण विकलांग नहीं होते, बल्कि समाज ही उन्हें ऐसा बनाता है। असक्षमता शारीरिक कम सामाजिक ज्यादा होती है।

-हमें तो उन भव्य भवनों ने ‘असक्षम’ बनाया है जो हमारे प्रवेश के लिए नहीं बने हैं, जिनमें प्रवेश करने की हमें इजाजत नहीं है और इसी के परिणामस्वरूप हम शिक्षा, रोजगार पाने के अपने अवसरों, सामाजिक जीवन आदि के संबंध में आगे अधिकाधिक असक्षम होते जाते हैं। असक्षमता तो समाज की संरचना या विचारधारा में ही निहित है, व्यक्ति की शारीरिक दशा में नहीं।

-असक्षमता संबंधी सामाजिक विचारधारा का एक और भी पहलू है। असक्षमता और गरीबी के बीच एक अटूट संबंध होता है। कुपोषण, बार-बार बच्चे पैदा करने से कमजोर हुई माताएँ, रोग-प्रतिरक्षा के अपर्याप्त कार्यक्रम, भीड़-भाड़ भरे घरों में दुर्घटनाएँ-ये सब बातें एक साथ मिलकर गरीब लोगों में असक्षमता की ऐसी स्थिति ला देती हैं जो आसान परिस्थितियों में रहने वाले लोगों की तुलना में काफी गंभीर होती हैं। इसके अलावा असक्षमता, व्यक्ति के लिए ही नहीं बल्कि पूरे परिवार के लिए पृथक्करण और आर्थिक दबाव को बढ़ाते हुए गरीबी की स्थिति पैदा करके उसे और गंभीर बना देती है। इस बात में कोई संदेह नहीं कि असक्षम लोग गरीब देशों में सबसे गरीब होते हैं।

प्रश्न 25. अनुसूचित जातियों को किन विभिन्न नामों से जाना जाता है ?

उत्तर-अनुसूचित जातियों के लिए प्रयुक्त होने वाले विभिन्न नाम (Different Names for Scheduled Castes) : भारतीय धर्मग्रंथों के अध्ययन से पता चलता है कि हिन्दू समाज चार वर्गों में बँटा हुआ था-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। बाद में शूद्रों में दो भेद हुए। अस्पृश्य शूद्रों को पंचम वर्ण या अन्त्यज कहा गया है। कालान्तर में अस्पृश्यों को बोल-चाल की भाषा में ‘अछूत’ नाम से सम्बोधित किया जाने लगा। इन लोगों में कुछ चेतना जागृत होने पर उन्हें ‘अछूत’ शब्द अपमानजनक लगने लगा, इसलिए बाद में इन्हें ‘दलित वर्ग’ के नाम से पुकारा जाने लगा। असम के जनगणना के सर्वोच्च अधिकारी को ‘दलित वर्ग’ शब्द भी उचित. नहीं जान पड़ा तथा उसने इसके लिए ‘बहिर्जाति’ शब्द का प्रयोग किए जाने का सुझाव रखा, किन्तु इस शब्द के प्रयोग को भी अधिकांश लोगों ने उचित नहीं समझा। इस शब्द के आधार पर अस्पृश्य लोग

अपने को हिन्दुओं से पृथक् किए जाने की माँग करने लगे किन्तु गाँधीजी के प्रयासों से यह संभव नहीं हो सका। महात्मा गाँधी जी ने इन लोगों के लिए हरिजन’ अथवा ‘अनुसूचित जाति’ शब्द का प्रयोग किया। भारतीय संविधान में इन लोगों के लिए ‘अनुसूचित जाति’ शब्द का प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 26. अनुसूचित जातियों के धार्मिक जातिगत पूर्वाग्रह क्या थे? .

उत्तर-अस्पृश्य लोगों को अन्य सवर्ण हिन्दुओं के समान मन्दिरों में प्रवेश करने का अधिकार प्राप्त नहीं था। शूद्र के लिए वेद का अध्ययन वर्जित था। वेद में इस प्रकार की चर्चा आती है कि स्त्री व शूद्र वेद पढ़ने के अधिकारी नहीं हैं। गौतम धर्मसूत्र (1-2-4) में लिखा है, “यदि शूद्र वेद सुन ले तो उसके कानों में पिघला हुआ सीसा और लाख भर देना चाहिए, यदि वह मंत्रों का उच्चारण करे तो उसकी जीभ–छिदवा दी जानी चाहिए, यदि वह वेद-मंत्रों को याद कर ले तो उसका शरीर चीर दिया जाना चाहिए।”

अस्पृश्य लोगों के मन्दिर प्रवेश व धर्म-शास्त्रों के अध्ययन-अध्यापन पर ही रोक नहीं लगाई गई थी वरन् उन्हें धार्मिक संस्कारों से भी वंचित रखा गया। कोई पुरोहित आदि उनके यहाँ संस्कार नहीं कर सकता। – इन धार्मिक निर्योग्यताओं का प्रतिरोध करने के लिए समाज-सुधारकों ने समय-समय पर प्रयास किए हैं। मन्दिर प्रवेश की समस्या को लेकर कट्टरपन्थियों के साथ सुधारवादियों के सत्याग्रह हुए हैं। इस संदर्भ में आर्य समाज व गाँधीजी के प्रयास काफी प्रशंसनीय रहे हैं।

प्रश्न 27. जातिगत पूर्वाग्रहों के अंतर्गत आर्थिक निर्योग्यताएं लिखिए।

उत्तर-अर्थ का अभाव किसी समूह की प्रगति व सुख में बहुत बड़ी बाधा है। आर्थिक समानता के अभाव में सामाजिक प्रगति की कल्पना करना संभव नहीं है। आर्थिक दृष्टि से अस्पृश्य लोगों का जीवन बड़ा संकटमय रहा है। इनकी आर्थिक नियोग्यताओं को निम्न विभाजन के आधार पर समझना सुगम होगा :..

(अ) भूमिहीन श्रमिक (Landless labour): अनुसूचित जातियों के लोगों के पास भूमि नहीं है इसलिए वे स्वयं तो कृषि नहीं कर सकते, भूमिहीन होने के कारण वे मेहनत-मजदूरी ही कर सकते है।। इसके साथ ही जमींदार लोग उनसे बेगार लेते रहे हैं। श्री के. एम. पणिक्कर (K. M. Panikkar) ने ‘हिन्दू समाज निर्णय के द्वार पर’ नामक पुस्तक में ठीक ही लिखा है, “एक समय इन अस्पृश्य लोगों की दशा गुलामों से भी बदतर थी। गुलाम तो केवल मालिक के लिए गुलाम होता है लेकिन इन लोगों से सारा गाँव बेगार लेता था।”

(ब) आर्थिक दृष्टि से व्यवसायों का निम्न स्तर (Low status of occupations from economic viewpoint): आर्थिक दृष्टि से इन लोगों के व्यवसाय बहुत ही निम्न स्तर के हैं और रहे हैं। इनके व्यवसायों में इतना कम धन मिल पाता है कि ये लोग अपने भरण-पोषण का भी ठीक प्रकार से प्रबन्ध नहीं कर पाते हैं। विभिन्न उत्सवों पर इन लोगों को सवर्ण हिन्दुओं से कर्जा लेना पड़ता है और ये जीवन पर्यन्त कर्जे से दबे रहते हैं। गाँधीजी ने लिखा है कि शरीर की सम्पूर्ण गन्दगी को साफ करने वाले व्यक्ति को न्यूनतम पारिश्रमिक दिया जाता है-सबसे कम पैसे और फटे-पुराने वस्त्र।

(स) व्यवसाय चुनने में स्वतंत्रता नहीं (No freedom of choosing occupations) : इन लोगों को वंश-परंपरा से चले आ रहे घृणित व्यवसाय को ही करने का अधिकार था और अन्य व्यवसाय जो आर्थिक दृष्टि से अच्छे हैं इनके लिए नहीं खुले थे। इस निर्योग्यता के कारण इन लोगों की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय रही है और ये आज भी निर्धनता के संकट से निकल नहीं पाये हैं।

(द) श्रम विभाजन में निम्नतम स्थान (Lowest position in division of labour) : अस्पृश्यता की भावना विद्यमान होने के कारण इन लोगों में उपयुक्त योग्यता होने पर भी विभिन्न

संस्थानों में उच्च स्थान नहीं मिल पाता हे, परिणामस्वरूप इनकी आर्थिक स्थिति गिरी रहती है और श्रम विभाजन में निम्न स्थान बना रहता है।

अब धीरे-धीरे सरकारी प्रयासों से स्थिति में परिवर्तन आने लगा है।

प्रश्न 28. अनुसूचित जातियों से आप क्या समझते हैं ?

उत्तर-1991 की जनगणना के अनुसार भारत में अनुसूचित जाति के लोगों की जनसंख्या 13.82 करोड़ है। यह भारत की जनसंख्या का 16.48 प्रतिशत है। जाति व्यवस्था हमारे समाज की एक पुरानी प्रथा है। जाति व्यवस्था में जिस वर्ग को शूद्र की संज्ञा दी गई थी उन्हें अछूत कहा गया। जाति स्तर पर धार्मिक अशुद्धता के आधार पर अनुसूचित जातियों को सबसे नीचे के स्तर पर रखा गया है।

अनुसूचित जाति एक राजनीतिक न्यायिक शब्द है, जिसका प्रथम उपयोग साइमन कमीशन ने 1935 में किया। स्वाधीन भारत में इस शब्द को संविधान में प्रयोग किया गया ताकि क्षतिपूर्ति विभेद की नीति के अंतर्गत अनुसूचित जातियों के लिए विशेष सुविधाओं का प्रावधान किया जा सके। गाँधी जी ने इस वर्ग को हरिजन या ईश्वर की संतान कहा है। कुछ लोगों ने इस वर्ग को दलित नाम दिया है। इस शब्द का अर्थ है ‘टुकड़ों में टुटा हुआ। ज्योतिबा फुले, डॉ. अम्बेडकर और दलित पैंथर्स आन्दोलन ने सत्तर के दशक में इस शब्द को प्रचलित किया।

प्रश्न 29. जातिगत पूर्वाग्रह के अंतर्गत धार्मिक निर्योग्यताओं के क्या परिणाम सामने आए?

उत्तर-अस्पृश्यता के अभिशाप से बचने के लिए हरिजन लोगों की एक बड़ी संख्या धर्म-परिवर्तन कर चुकी हैं। धर्म-परिवर्तन द्वारा हिन्दुओं की संख्या में भी कमी हो रही है। अधिकतर भारतीय मुसलमान व ईसाई हिन्दुओं के इसी वर्ग के लोगों के धर्म-परिवर्तन के कारण बने हैं। ऐसा अनुमान है कि भारत की कुल जनसंख्या की 5 पतिशत जनता धर्म-परिवर्तन के कारण ही मुस्लिम व ईसाई धर्म में प्रवेश कर गई है। इतना ही नहीं, डॉ. बी. आर. अम्बेडकर ने अस्पृश्यता के अभिशाप से तंग आकर स्वयं एवं अपनी जाति के लाखों लोगों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित करने की घोषणा की थी। उन्होंने इस अवसर पर अत्यन्त मार्मिक परंतु तर्कपूर्ण शब्दों में कहा था, “जाति की संस्था से बचने के लिए हमारे पास दूसरा कोई मार्ग नहीं है। इसलिए मैं बौद्ध होना चाहता हूँ। नया धर्म स्थापित नहीं कर सकता, जन्मांतर तक राह देखने की तैयारी नहीं है। अब धर्मान्तरण के सिवाय मेरे पास कोई विकल्प नहीं रह गया है।” गाँधी जी ने आमरण अनशन द्वारा इसका विरोध किया और सफलता प्राप्त की।

प्रश्न 30. दलितों के समस्याओं के हल हेतु सुझाव दीजिए।

उत्तर-दलितों की समस्याओं के हल के लिए सुझाव : यद्यपि भारतीय समाज के उच्च वर्गों का दलितों के प्रति व्यवहार बहुत कुछ परिवर्तित हो गया है तथा सरकार ने भी उनकी दशा सुधारने के लिए अनेक अधिनियम और कार्यक्रम प्रारंभ किये हैं। फिर भी उनकी दशा में अधिक उल्लेखनीय परिवर्तन दिखाई नहीं देते। दलितों की विभिन्न समस्याओं का समाधान करने की दृष्टि से कुछ सुझाव प्रस्तुत किए जा सकते हैं

(i) शिक्षा, प्रसार और जनमत-निर्माण द्वारा जाति-प्रथा के संरचनात्मक स्वरूपों के दोषों को समाप्त किया जाये।

(ii) नवीन आधार पर ग्रामीण समुदाय के सामाजिक आदर्शों का निर्माण किया जाये। उच्च जातियों की दलितों के प्रति मनोवृत्ति में परिवर्तन लाया जाये।

(iii) अनुसूचित/दलित जातियों के व्यवसायों को मशीनों की सहायता से दूर किया जाये। सफाई कर्मियों के पेशे विशेष रूप से गंदे हैं, अतः टोकरियों में सिर पर मैला ढोने की कलंकपूर्ण कुप्रथा का उन्मूलन किया जाये।

(iv) उच्च जातियों में शारीरिक श्रम के प्रति सम्मान भावना उत्पन्न की जाये ताकि ऊँच-नीच की भावना दूर हो। जनमत एवं प्रचार इस मनोभाव को दूर कर सकते हैं।

(v) दलितों को सरकारी नौकरियों में नियुक्त करने के साथ-साथ उनकी औद्योगिक कुशलता बढ़ाने के लिए उन्हें सामान्य और औद्योगिक दोनों प्रकार से शिक्षित किया जाये।

(vi) दलितों का निवास स्थान उनके स्वास्थ्य और नैतिक उन्नति पर बुरा प्रभाव डालता है, अतः उनके लिए स्वस्थ वातावरण में निवास स्थान की व्यवस्था की जाये।

(vii) दलितों की अधिकांश समस्यायें आर्थिक अवनति से संबंधित है, अतः उनकी सेवाओं के बदले उचित वेतन सम्बन्धी कानून बनाये जायें।

(viii) दलितों को अन्धविश्वास और नशाखोरी से मुक्त कराने के लिए स्वस्थ मनोरंजन की समुचित व्यवस्था की जाये।

(ix) दलितों के जीवन में आर्थिक और स्वास्थ्य संबंधी आवश्यकतायें सर्वाधिक हैं, अत: उनके लिए सामाजिक सुरक्षा का विस्तृत आयोजन किया जाये।

प्रश्न 31. दुर्बल वर्ग की विशेषताएं लिखिये।

उत्तर-कमजोर/दुर्बल वर्ग (Weaker Sections) की विशेषताएँ : 1. वे लोग जो अपने जीवन की न्यूनतम मूलभूत आवश्यकतायें भी पूर्ण न कर सकें अर्थात् भोजन, कपड़ा, निवास और चिकित्सा सम्बन्धी सुविधायें जुटाने में अक्षम हों तथा उनकी आय गरीबी रेखा से बहुत नीचे हो।

  1. वे लोग, जो मुख्यतः दैनिक मजदूरी पर आश्रित हों और वे लोग भी, जो अनियमित और ऋतुओं के परिवर्तन पर आश्रित हों।
  2. वे लोग, जिनके उत्पादन में सक्रिय सहयोग देने के बाद भी निरंतर श्रम शोषण किया जाता रहा हो तथा जो अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ऋणग्रस्त हों।
  3. वे लोग जिनके पास इतनी लागत पूँजी भी नहीं है कि वे कच्चे माल और अन्य वस्तुओं का क्रय कर सकें।
  4. वे लघु व सीमान्त कृषक, जो कि सिंचाई आदि की सुविधाओं से वंचित हैं।
  5. वे लोग, जो मानवीय ऊर्जा, जिसमें परिवार के सदस्य ही कार्य करें और पशु-ऊर्जा के सहारे ही जीवन व्यतीत करें।

उपरोक्त सभी मापदंडों के आधार पर दुर्बल वर्ग के अन्तर्गत समाज के उस वर्ग को रखा जाता है, जो आज भी शोषित और पिछड़ा, सामाजिक तथा आर्थिक सुविधाओं से वंचित है। इन मापदंडों के आधार पर अनुसूचिज जातियों, जनजातियों, पिछड़े वर्गों, दलितों, लघु और सीमान्त कृषकों, बंधुआ मजदूरों और भूमिहीन मजदूरों तथा परम्परागत शिल्पियों/कारीगरों को कमजोर वर्ग में सम्मिलित किया गया है।

प्रश्न 32. अल्पसंख्यकों से आप क्या समझते हैं ?

उत्तर-वे समूह अल्पसंख्यक माने जा सकते हैं जिनके साथ धर्म, प्रजाति या संस्कृति के आधार पर भेदभाव का व्यवहार किया जाता है। सामाजिक विज्ञान के अंतर्राष्ट्रीय विश्वकोश के अनुसार अल्पसंख्यकों की परिभाषा ऐसे समूहों के रूप में की जाती है जो धर्म, प्रजाति, राष्ट्रीयता, भाषा के आधार पर समाज के अन्य समूहों से अलग माने जाते हैं। कोई भी समुदाय जो किसी राज्य के 50 प्रतिशत से अधिक न हो, अल्पसंख्यक माना जाता है।

भारत की कुल जनसंख्या में 82.42 प्रतिशत हिन्दू हैं। शेष मुसलमान (11.67 प्रतिशत), ईसाई (2.32 प्रतिशत), सिक्ख (1.99 प्रतिशत), बौद्ध (0.77), जैन (0.41 प्रतिशत) और अन्य (0.43 प्रतिशत) हैं।

प्रश्न 33. अल्पसंख्यक समूह के लक्षण क्या हैं ?

उत्तर–अल्पसंख्यक समूह अपने समान लक्षणों के आधार पर एकजुट होते हैं। किसी अल्पसंख्यक समुदाय के अनिवार्य लक्षण के रूप में उनकी सामाजिक व सांस्कृतिक पहचान होती है। इन समूहों के बीच संगठित होने की प्रवृत्ति का आधार इनकी समान भौतिक परंपरा, भाषा, धार्मिक मत और एक ही वंश से संबंध या फिर इन सबका मिश्रण हो सकता है।

प्रश्न 34. भारत में अल्पसंख्यक समुदायों का विकास में क्या योगदान रहा है?

उत्तर भारत के स्वतंत्रता आंदोलनों में अल्पसंख्यक समुदायों का विशेष योगदान रहा है। पंजाब में सिक्खों ने हरित क्रांति को सफल बनाने में योगदान दिया, उर्दू भाषा द्वारा हिन्दुत्व और इस्लाम की अच्छी सांस्कृतिक परंपराओं का जन्म हुआ। अनेक मुस्लिम, ईसाई व अन्य अल्पसंख्यक समुदायों ने भी भारतीय भाषाओं के साहित्य को समृद्ध करने में अपना योगदान दिया। शास्त्रीय-संस्कृति, नृत्य व सिनेमा के क्षेत्र में भी अल्पसंख्यकों का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। भारतीय विज्ञान, पत्रकारिता और खेलों में भी इनकी उपस्थिति महत्वपूर्ण रही है। देश के औद्योगीकरण में पारसी समुदाय का विशेष योगदान रहा है।

प्रश्न 35. संविधान में अल्पसंख्यकों को क्या सुविधाएँ प्रदान की गई हैं ?

उत्तर-संविधान में अल्पसंख्यकों को अनेक सुविधाएँ प्रदान की गई हैं :

(i) संविधान के अनुच्छेद 29(1) में राज्यों को निर्देश दिया जाता है कि जो अपनी संस्कृति का संरक्षण करना चाहते हैं उन पर बहुसंख्यक लोगों की संस्कृति नहीं थोपी जा सकती।

(ii) संविधान के अनुच्छेद 350 (ए) में राज्यों को निर्देश दिया गया है कि भाषाई अल्पसंख्यकों के बच्चों को प्राथमिक शिक्षाओं के लिए उनकी मातृभाषा में निर्देश दिए जाने की व्यवस्था करें।

(iii) अल्संख्यकों के हितों की सुरक्षा के लिए विशेष अधिकारियों की नियुक्ति कर उनकी शिकायतों की जाँच की जाए। शिक्षा संस्थाओं में धर्म, प्रजाति, जाति या भाषा के आधार पर कोई भेदभाव न किया जाए।

(vi) अनुच्छेद 300(1) के अनुसार अल्पसंख्यक अपने शिक्षण संस्थान चला सकते हैं। राज्य के शिक्षण संस्थानों को सहायता देने के मामले में अल्पसंख्यक संस्थानों के साथ भेदभाव नहीं किया जा सकता। शिक्षा का माध्यम अपनी इच्छा से रखा जा सकता है।

प्रश्न 36. सरकार ने किन वर्गों को अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा दिया है ?

उत्तर-सरकार ने पाँच समुदायों, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध व पारसी को राष्ट्रीय स्तर पर अल्पसंख्यक के रूप में मान्यता दी है। 1978 में अल्पसंख्यक आयोग का गठन किया गया जिसका उद्देश्य संविधान द्वारा अल्पसंख्यकों के संरक्षण के प्रावधानों के क्रियान्वयन का मूल्यांकन करना व सुझाव देना है। 1993 में अल्पसंख्यक आयोग की जगह राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग प्रभाव में आया। इसका उद्देश्य 15 सूत्री कार्यक्रम को अमल में लाकर अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए कार्य करना है। __प्रश्न 37. अल्पसंख्यकों की वित्तीय स्थिति में सुधार के लिए सरकार ने क्या कार्य किया है ? ____उत्तर-अल्पसंख्यकों की वित्तीय स्थिति में सुधार के लिए सरकार ने एक राष्ट्रीय विकास व वित्त निगम गठित किया है। यह निगम अल्पसंख्यकों में पिछड़े लोगों की आर्थिक स्थिति व विकासात्मक गतिविधियों को प्रोत्साहित करने के लिए वित्तीय सहयोग प्रदान करता है।

प्रश्न 38. वर्तमान भारत में महिलाओं की स्थति की व्याख्या कीजिए।

उत्तर-भारत में यद्यपि शिक्षा का प्रचार-प्रसार तेजी से हो रहा है। उन्हें संविधान में समान अधिकार प्रदान किए गए हैं। सरकारी नौकरियों में वे उच्च पदों पर आसीन हैं परन्तु स्त्रियों को अभी भी अनेक सुविधाओं व अधिकारों से वंचित रखा गया है। स्त्रियों के कार्यक्षेत्र व पुरुषों के कार्यक्षेत्र में पारंपरिक विभेद अपनाया गया है।

स्वतंत्रता के पश्चात् महिलाओं की स्थिति में अंतर तो आया है, लेकिन इसका लाभ शिक्षित नगरीय और उच्च आयसमूह वाली महिलाओं ने उठाया है। औसत भारतीय महिलाओं का जीवन प्रायः भेदभाव के विरुद्ध लंबे संघर्ष की कहानी है। गरीब भारतीय महिलाएं बच्चों के पालन-पोषण में ही अपनी आयु गुजार देती हैं।

स्त्री-पुरुष असमानता के मुख्य कारण निम्न हैं :

  1. वैवाहिक और पारिवारिक व्यवहार।
  2. स्त्रियों की गतिशीलता व स्वतंत्रता में सांस्कृतिक पारंपरिक अवरोध।
  3. पुरुषों और स्त्रियों की आर्थिक भूमिका में अंतर।

भारत में पुरुषों की संख्या स्त्रियों से अधिक है। 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में प्रति हजार पुरुषों के पीछे 933 स्त्रियाँ थीं। यह प्रतिकूल लिंग अनुपात निम्न कारणों से है:

(i) पुत्र को समाज में वरीयता देना, (ii) पुत्रियों के प्रति भेदभाव, (iii) स्त्री-भ्रूण हत्या, (iv) स्त्री-शिशु हत्या, (v) स्त्री-शिक्षा का अनुपात कम होना, (vi) गृह कार्य में उन्हें कोई उपाय प्राप्त न होना।

प्रश्न 39. भारत में महिलाओं की समस्या की विवेचना कीजिए।

उत्तर-यद्यपि स्वतंत्र भारत में न्याय, स्वतंत्रता, समानता और मातृत्व पर आधारित प्रजातांत्रिक समाज की स्थापना की गई परंतु स्त्रियों की स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं आया। स्त्रियों की असुरक्षा, उनके प्रति असमानता का बोध, आर्थिक-सामाजिक समस्याएँ, स्वास्थ्य, पोषण आदि में आज भी उनके साथ भेद-भाव किया जा रहा है। अनेक सामाजिक व आर्थिक तथ्य इस बात की पुष्टि करते हैं। आज भी समाज में बलात्कार, दहेज, लिंग अनुपात, पत्नी का शारीरिक उत्पीड़न, स्त्री-भ्रूण हत्या जैसी हिंसक घटनाएँ होती हैं। स्त्रियाँ पुरुषों के अधीन रहती हैं। उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता। विवाहित स्त्रियाँ पुत्र की प्राप्ति के बाद ही प्रतिष्ठा प्राप्त करती हैं। भारतीय समाज में स्त्रियाँ एक ओर तो शक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं जो भय व श्रद्धा उत्पन्न करता है और दूसरी तरफ वे अपने सौंदर्य व शील के लिए प्रशंसा प्राप्त करती हैं।

स्वतंत्रता के पश्चात् महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए विशेष विवाह कानून 1954, हिन्दू विवाह कानून 1955, हिन्दू उत्तराधिकार कानून 1956, दहेज प्रथा विरोधी कानून, 1961 महत्वपूर्ण हैं। भारतीय संविधान में समानता के अधिकार को मूल अधिकारों में सम्मिलित किया गया। स्वतंत्रता के पश्चात् विकासात्मक उपायों का लाभ शिक्षित नगरीय और उच्च आय समूह वाली महिलाओं ने उठाया है। औसत भारतीय महिलाएँ तो अभी भी बुरी स्थिति में हैं। –

प्रश्न 40. नारी आंदोलन ने अपने इतिहास के दौरान कौन-कौन से मुख्य मुद्दे उठाए

(NCERTT.B.Q. 10) –

उत्तर भारत में सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार के लिए प्रयास किया गया। बहुविवाह, विधवा विवाह पर रोक, सती प्रथा, पर्दा प्रथा आदि ये रिवाज उस समय तक चलते रहे जब तक कि उन्नीसवीं शताब्दी के समाज सुधारकों ने इनको चुनौती नहीं दी। भारत में महिला आंदोलन का प्रारंभ सामाजिक सुधार आंदोलन के एक हिस्से के रूप में हुआ था। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महिलाओं को घर से बाहर निकालने और स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए गाँधी जी ने प्रेरित किया। गाँधी जी ने प्रभावकारी ढंग से तर्क दिया कि महिलाओं को सामाजिक और कानूनी असमर्थताओं से मुक्त करना चाहिए। जिन महिलाओं ने राष्ट्रीय आंदोलन में हिस्सा लिया, उन्होंने आत्मनिर्भरता, स्वदेशी और नारी शिक्षा के महत्व को समझा। महिलाओं की राजनीतिक चेतना ने सार्वजनिक क्षेत्र में उनके लिए उपलब्ध स्थान का दायरा बढ़ा दिया।

आधुनिक युग में महिला संगठनों के उदय से महिला शिक्षा, स्वास्थ्य तथा सफाई में सुधार, महिलाओं के लिए मताधिकार तथा महिला श्रमिकों के लिए मातृत्व लाभ जैसे विषयों पर समाज का ध्यान केंद्रित करने में सफलता मिली है। देश के भिन्न-भिन्न भागों में महिलाओं ने अनेक आंदोलन चलाए हैं। महाराष्ट्र में मूल्य वृद्धि विरोध आंदोलन ने महिलाओं को मार्ग दिखाया है। महिलाओं की स्थिति से संबंधित रिपोर्ट में स्त्री-पुरुष अनुपात, जीवन प्रत्याशा, साक्षरता तथा जीवन में मिलने वाले अवसरों में निहित लिंग समानताओं जैसे सवालों को उठाया गया है। महिला संगठनों

ने महिला हिंसा, बलात्कार, दहेज हत्या, घरेलू हिंसा आदि कई विषयों को उठाया है। भारत में महिला आंदोलनों ने नारी की स्थिति में सुधार के लिए प्रयास किए हैं।

प्रश्न 41. नारी उत्थान में शिक्षा आवश्यक क्यों है ?

उत्तर-महिलाओं को आरंभ से ही निरीह और उपभोग की वस्तु माना जाता रहा है। वर्तमान समाज में केवल इतना ही अंतर आया है कि पहले अपने ऊपर किए जाने वाले अत्याचारों को अपनी नियति मानकर चुपचाप सहने वाली नारी अब थोड़ा बोलने लगी है परंतु जिस तेजी से पिछले पचास वर्षों में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन व अभूतपूर्व प्रगति हुई है, उस तीव्रता गति से महिलाओं का विकास संभव नहीं हो पाया है। किसी भी समाज को जागृत करने के

वहाँ के नागरिकों को विशेष रूप से नारी का शिक्षित होना अति आवश्यक होता है। किसी भी राष्ट्र, समाज या परिवार के विकास के लिए शिक्षित लड़कियाँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। लड़के को शिक्षित करने का अर्थ केवल एक व्यक्ति को शिक्षित करना होता है, जबकि एक लड़की को शिक्षित करने का अर्थ पूरे परिवार को ही शिक्षित करना है। शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी पाना नहीं है। शिक्षा से व्यक्ति के चरित्र, व्यवहार, बातचीत में तो परिवर्तन व विकास होता ही है वहीं भले-बुरे का ज्ञान भी व्यक्ति के भीतर पैदा होता है। भारत में तो नारी शिक्षा की दशा अति शोचनीय है।

आँकड़ों के अनुसार लगभग 50 लाख लड़कियाँ इस समय स्कूली शिक्षा से वंचित है। हमारे परंपरागत देश में जहाँ 70 प्रतिशत आबादी गाँवों में जीवन यापन कर रही है वहाँ लड़की को किताब, कलम या बस्ते की जगह चूल्हे-चौके की ओर धकेला जाता हैं प्रारंभिक अवस्था से ही उसको लड़कों के मुकाबले कम करके आँका जाता है चाहे वह कितनी भी प्रतिभावान क्यों न हो ?

प्रश्न 42. भारत में राजनीतिक और धार्मिक क्षेत्र में महिलाओं की क्या स्थिति है?

उत्तर-राजनीतिक क्षेत्र में (In the Field of Politics): महात्मा गाँधी के प्रयासों से भारत के इतिहास में पहली बार महिलाएँ सामूहिक रूप से बड़ी संख्या में राजनीति और राजनीतिक आंदोलनों में सम्मिलित हुई और उन्होंने पुरुषों के समान कंधे से कंधा मिलाकर कार्य किया। इन आंदोलनों में भाग लेने के कारण महिलाओं की प्राचीन रूढ़िवादिता का अंत हुआ और आज वे बिना किसी बाधा के सार्वजनिक कार्यों में भाग लेती हैं। देश के सभी राजनीतिक दलों में महिलाएँ सक्रिय रूप से भाग ले रही हैं; देश-विदेश में उच्च सरकारी व गैर-सरकारी पदों पर उनकी नियुक्ति हो रही हैं इतना कुछ होने पर भी, राजनीति और शासन में महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में काफी कम है।

धार्मिक स्थिति (Religious Status) जहाँ तक भारत में आज महिलाओं की धार्मिक स्थिति का प्रश्न है, ऐसा कहा जाता है कि आज भी वे थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ मध्यकालीन धार्मिक मूल्यों व मान्यताओं को मानती हैं; पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन आदि में पहले जैसी स्वतंत्रता के साथ भाग लेती हैं। सभी धार्मिक कृत्यों में पुरुष के साथ-साथ भाग लेती हैं। अब महिलाओं की अनेक मध्यकालीन धार्मिक नियोग्यताएँ समाप्त होती जा रही हैं।

प्रश्न 43. क्या महिलाओं का लोक-जीवन में प्रवेश वांछनीय है ?

उत्तर-भारत में महिलाओं की स्थिति उत्थान-पतन एवं पुनः उत्थान की कहानी है। सुधार आंदोलनों और सहकारी प्रयत्नों के फलस्वरूप महिलाओं की स्थिति में अनेक परिवर्तन और सुधार हुए हैं। पर इस संदर्भ में अब भी बहुत-से सुधार होने हैं और यह स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती क्योंकि कानून की दृष्टि से यद्यपि उन्हें पूर्ण समानता मिल चुकी है लेकिन अब भी सिद्धांत और वास्तविकता में पर्याप्त अंतर है। आज भी अधिकांश भारतीय महिलाएँ सामाजिक प्रतिबंधों तथा निर्योग्यताओं में जकड़ी हुई हैं। पश्चिम में परंपरा और न्याय की दृष्टि से नारी और पुरुष दोनों समान हैं, पर यहाँ न्याय और सिद्धांत भले ही निष्पक्ष हों, परंपरा निश्चय ही महिला

वर्ग के विरुद्ध है। अत: सामाजिक परिस्थितियों को भी बदलना आवश्यक है। साथ ही, भारत की ग्रामीण स्थिति के जीवन में तो अभी भी इन सुधारों का हलका-सा स्पर्श ही हुआ है। प्लेटो ने लिखा है, “समाज में नारी का स्थान और महत्व क्या है ? वही जो पुरुष का है। न कम, न अधिक। स्त्री और पुरुष दोनों रथ के पहियों के समान हैं। यदि एक कमजोर और घटिया हुआ तो समाज में रथ निर्विघ्न आगे नहीं बढ़ सकता। स्त्री और पुरुष नभ में उड़ने वाले पक्षी के दो डैनों के समान हैं। यदि एक डैना छोटा या अशक्त रहे तो पक्षी नभ में विचरण नहीं कर सकता।

इस दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि स्त्रियों को सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक क्षेत्र में या दूसरे शब्दों में लोक-जीवन में पुरुषों के समान ही प्रवेश करना होगा और पुरुषों के साथ-साथ कंधे-से-कंधे मिलाकर चलना होगा और राष्ट्र की बहुमुखी प्रगति में हाथ बँटाना होगा परंतु इस संबंध में यह स्मरणीय है कि हमारे समाज में एक रूढ़िवादी वर्ग भी है जो कि पहिलाओं के लोकजीवन में प्रवेश करने के सर्वथा विरुद्ध है। समाज का यह रूढ़िवादी वर्ग महिलाओं को भारत की प्राचीन परंपरा के अनुरूप महिमान्वित नारी के रूप में देखना चाहता है और सीता, दमयंती और द्रौपदी के आदर्शों को महिला-जीवन में अपनाने के पक्ष में है। यह वर्ग आगे बढ़ना चाहता है, पर पीछे के खिंचाव अर्थात् रूढ़ियों को अस्वीकार न करते हुए। इस प्रकार महिलाओं के लोक-जीवन में प्रवेश के प्रश्न पर इन दोनों वर्गों के बीच नवीन पीढ़ी एक असंतुलित व तनाव की स्थिति में से गुजर रही है और अब यह देखना है कि किस प्रकार यह तनाव ढीला पड़ता है तथा इस असंतुलन का संतुलन कैसे होता है। भारत का भविष्य ही इन सब बातों का निर्णय करेगा और हम सबके ही पक्ष में ही ऐसी आशा है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

(Long Answer Type Questions) – 

प्रश्न 1. अनुसूचित जातियो की मुख्य समस्याएँ क्या हैं ? . [B.M.2009 A]

उत्तर-अनुसूचित जातियों में जिन वर्गों की गिनती की जाती है वे अधिकतर निर्धन हैं। उन्हें मूलभूत आवश्यक सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं हैं। पर्याप्त भोजन, स्वास्थ्य सुविधा एवं वस्त्र और आवास भी उन्हें उपलब्ध नहीं है। यद्यपि पारंपरिक व्यवसाय अब समाप्त हो रहे हैं लेकिन दलित वर्ग के लोग अभी भी उन्हीं कार्यों व व्यवसायों में लगे होते हैं जिनकी सामाजिक स्थिति निम्न है। यद्यपि आधुनिकीकरण ने परंपरागत जाति व्यवसायों को कमजोर किया है, परंतु अभी भी अस्पृश्यता और बहिष्कार जारी है, जो संविधान की मूलभूत भावनाओं के विरुद्ध है।

अनुसूचित जाति एक समूह के रूप में अन्य जातियों से अस्पृश्यता के आधार पर अलग है। वे धार्मिक स्तर पर अशुद्ध माने जाते हैं। उन पर अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगे दिखाई देते हैं। ग्रामीण भारत में अभी भी अस्पृश्यता का रूप देखने को मिलता है। आर्थिक रूप से वे अभी भी जमींदार या प्रभावशाली जातियों पर निर्भर करते हैं। उनका विभिन्न प्रकार से शोषण होता है। भारत में अनुसूचित जातियों की स्थिति में सुधार के लिए अनेक समाधान किए गए हैं।

भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों को सुरक्षा और विशेष सुविधाएँ देने की व्यवस्था की गई है। अनुसूचित जातियों की स्थिति में सुधार के लिए संविधान में निम्नलिखित सुविधाएँ उपलब्ध कराई गई हैं :

  1. अस्पृश्यता का उन्मूलन किया गया है।
  2. सामाजिक अन्याय और विभिन्न प्रकार के शोषण से सुरक्षा की गई है।
  3. धार्मिक संस्थानों को अनुसूचित जातियों के लिए सुलभ कराया गया है।
  4. जलाशय, दुकानों, रेस्त्रां और सड़कों पर अनुसूचित जातियों पर लगे प्रतिबंध को समाप्त कर दिया गया।
  5. शैक्षणिक संस्थानों में दाखिले के लिए उन्हें विशेष सुविधाएँ दी गई हैं।
  6. शिक्षा के लिए विशेष लाभ और आर्थिक सहयोग उपलब्ध कराया गया है।
  7. सरकारी सेवाओं में भर्ती और पदोन्नति में विशेष प्रावधान किया गया।
  8. लोकसभा और विधानसभाओं में विशेष प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की गई है।
  9. अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन व नियंत्रण के लिए विशेष प्रावधान किया गया है।

प्रश्न 2. अन्य पिछड़े वर्ग दलितों (या अनुसूचित जातियों) से भिन्न कैसे हैं ?

(NCERTT.B. Q. 8)

उत्तर-समाज के सभी कमजोर समूहों का वर्णन करने के लिए ‘पिछड़े वर्ग’ का इस्तेमाल किया जाता है। अन्य पिछड़े वर्ग में गैर-अछूत निम्न व मध्यवर्ती जातियाँ आती हैं जो पारंपरिक व्यवसायों जैसे कृषि, पशुपालन, हस्तकला शिल्प और पेशेगत सेवाओं में लगी हुई हैं। ये वर्ग हरिजनों से ऊपर तथा ब्राह्मण वर्ग से नीचे माने जाते हैं। मंडल आयोग के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार किया है कि अनुच्छेद 16(4) में उच्चारित पिछड़ापन मुख्यत: सामाजिक है। भारत में पिछड़ापन व्यक्तियों की नहीं बल्कि समुदायों की विशेषता है, जो अपनी प्रकृति के अनुसार स्वयं ही निरंतर होता रहता है। पिछड़े वर्ग समुदायों के समूह हैं। इनमें बड़ी संख्या में व्यक्तियों की मिश्रित श्रेणियाँ आती हैं।

भारत में कुल जनसंख्या का 51 प्रतिशत भाग पिछड़े वर्गों का है। अनुच्छेद 340 के अनुसार आयोग को गठन करके अन्य पिछड़े वर्गों की स्थिति की जाँच की जा सकती है। 1953 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में पिछड़े वर्गों के आयोग का गठन हुआ था। इस आयोग का विचार था कि बिना सहायता के पिछड़े वर्ग सशक्त नहीं हो सकते। काका कालेलकर ने पिछड़े वर्ग में 2399 जातियों को शामिल किया था। इन पिछड़े वर्गों को प्रथम श्रेणी की सेवाओं में 25 प्रतिशत, द्वितीय श्रेणी की सेवाओं 33.5 प्रतिशत और तृतीय व चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों में 40 प्रतिशत आरक्षण देने का प्रस्ताव रखा था। मंडल आयोग के परामर्श पर सरकार ने पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की। दलित शब्द का अर्थ है-टुकड़ों में बँटा हुआ। अन्य पिछड़े वर्ग, दलित से अलग हैं। दलितों से उन अछूत समुदायों का बोध होता है। जो अधिकारिक रूप से अनुसूचित जाति के लोग हैं।

प्रश्न 3. अनुसूचित जातियों के लिए उपलब्ध संवैधानिक प्रावधानों का विवरण दीजिए।

उत्तर-सरकार ने अनुसूचित जातियों के कल्याण के लिए एक आयुक्त की नियुक्ति की है जो उसकी शिकायतों और समस्याओं से संबंधित रिपोर्ट संसद में प्रति वर्ष रखता है और इनके कल्याण के विषय में सुझाव देता है। सरकार ने इनके कल्याण के लिए निम्नलिखित कार्य किए हैं: ___ 1. विधानमंडलों में प्रतिनिधित्व : संविधान के अनुसार इन लोगों की जनसंख्या के अनुपात के आधार पर लोकसभा और राज्यसभा एवं विधानसभाओं में स्थान सुरक्षित कर दिए गए हैं। पंचायती राज संस्थाओं में भी यह व्यवस्था की गई है।

  1. सरकारी नौकरियों में आरक्षण : भारत सरकार ने 26 जनवरी, 1950 को यह निर्णय लिया था कि खुली प्रतियोगिता से जो नौकरियाँ दी जाती हैं उनमें अनुसूचित जातियों के लिए 15 प्रतिशत स्थान सुरक्षित रखे जायें तथा आयु सीमा व शैक्षिक सीमा में भी कुछ छूट दी जाय।
  2. शिक्षा संबंधी सुविधाएँ : अनुसूचित जातियों के छात्रों की पढ़ाई के लिए छात्रवृत्तियाँ, निःशुल्क शिक्षा, पुस्तकें तथा लेखन सामग्री खरीदने के लिए आर्थिक सहायता दी जाती है।
  3. तकनीकी व व्यावसायिक प्रशिक्षण : इन लोगों के लिए मेडिकल इंजीनियरिंग तथा अन्य औद्योगिक व व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्रों में कुछ स्थान सुरक्षित रखे गए हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय ने अपने अधीन मेडिकल कॉलेजों में 20 प्रतिशत अन्य स्थान सुरक्षित किए हैं।
  4. कुटीर उद्योगों की स्थापना के लिए अनुदान : इनकी दशा सुधारने लिए इन्हें कुटीर उद्योग खोलने के लिए भी सरकार ने प्रोत्साहन दिया है।
  5. गृह निर्माण योजनाएँ : सरकार ने अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों को आसान किस्तों पर मकान दिलाने तथा इनके निर्माण के लिए सहायता प्रदान की है।
  6. योजनाओं में कल्याण कार्य : प्रत्येक पंचवर्षीय योजन में अनुसूचित जातियों के कल्याण के लिए धन राशि व्यय की गई है। इस वर्ग के सामाजिक आर्थिक स्तर को ऊँचा उठाने के लिए पर्याप्त धनराशि व्यय करने की व्यवस्था की गई है।

प्रश्न 4. पिछड़ा वर्ग अथवा कमजोर वर्ग पर एक लेख लिखिए। [B.M. 2009 A]

उत्तर-कमजोर वर्ग की अवधारणा : संवैधानिक दृष्टि से कमजोर वर्ग या पिछड़ा वर्ग या दलित वर्ग के अन्तर्गत अनुसूचित जातियाँ, अनुसूचित जनजातियाँ, अल्पसंख्यक आदि आते हैं। इसमें समाज के सभी साधनहीन वर्गों को सम्मिलित किया गया है। भारतीय संविधान भ्रातृत्व एवं समानता पर अधिक जोर देता है। इसी कारण संविधान निमाताओं ने विचार किया कि यदि समानता के सिद्धान्त को वास्तविकता प्रदान करनी है तो इन दलित वर्गों, दुर्बल एवं कमजोर वर्गों का विकास करना होगा और अन्य उच्च वर्गों एवं सवर्ण वर्गों (हिन्दुओं) की भाँति ही इन्हें भी विकास की सुविधायें प्रदान करनी होंगी। यद्यपि संविधान में इस वर्ग को परिभाषित नहीं किया गया है फिर भी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 46 में इस संदर्भ में इस प्रकार उल्लेख किया गया है- “राज्य जनता के दुर्बल अंगों के विशेषतया अनुसूचित जनजातियों के शिक्षा एवं अर्थ-सम्बन्धी हितों की विशेष सावधानी से रक्षा करेगा और सामाजिक अन्याय तथा सभी प्रकार के शोषण से उनकी रक्षा करेगा।” भारतीय संविधान इस विषय में स्पष्ट कुछ नहीं कहता है कि इसमें अनुसूचित जनजातियों के अलावा भी किन-किन वर्गों को सम्मिलित किया गया है। कुछ समाजशास्त्रियों एवं अर्थशास्त्रियों ने इसे परिभाषित करने का प्रयास किया है। इसके लिए उन्होंने प्रमुख रूप से सामाजिक-आर्थिक मापदंड निर्धारित किये हैं। इन समाजशास्त्रियों ने कमजोर वर्ग की कुछ विशेषताओं का उल्लेख किया है जो निम्नलिखित हैं :

  1. वे व्यक्ति जिनकी आय निर्धनता रेखा (Poverty Line) के बहुत नीचे हो और जो अपने जीवन की न्यूनतम आवश्यकताओं : जैसे-भोजन, वस्त्र, आवास व चिकित्सा की सुविधाओं को पूरा नहीं कर पाते हों।
  2. वे व्यक्ति जो पूर्णतया दैनिक मजदूरी पर ही आश्रित हों और वह भी अनियमित और ऋतुओं के परिवर्तन पर आश्रित हो।
  3. वे व्यक्ति जिनके पास इतनी पूँजी न हो कि जिससे वे कच्चा माल खरीद सकें और अन्य उत्पादित वस्तुओं को क्रय कर सें।
  4. लघु (Small) तथा सीमान्त (Margianl) कृषक जो सिंचाई आदि की सुविधाओं से वंचित हों।
  5. वे व्यक्ति जो निरन्तर कार्य करते रहने के बाद भी ऋणग्रस्त हों और जिनका शोषण किया जाता हो।
  6. वे व्यक्ति जो मानवीय ऊर्जा और पशु ऊर्जा के सहारे ही जीवन यापन करें अर्थात् स्वयं व परिवार के लोग कार्य करें व पशुओं से कार्य लेवें।

इस प्रकार से उपर्युक्त सभी मापदंडों के आधार पर कमजोर वर्ग के अन्तर्गत समाज से उस वर्ग को शामिल किया जा सकता है जो सामाजिक, आर्थिक सुविधाओं से वंचित जो, शोषित हो, पिछड़ा हो। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि अनुसूचित जनजातियों, अनुसूचित जातियों, पिछड़े वर्गों, लघु व सीमान्त कृषकों, भूमिहीन और बंधुआ मजदूरों एवं परंपरागत कारीगरों को इस वर्ग में शामिल किया गया है।

पिछड़ा वर्ग के विकास की प्रमुख विशेषताएँ (Problems of Development of Backward Class)

भारत में कमजोर वर्ग के अंतर्गत अनुसूचित जनजातियाँ, अनुसूचित जातियाँ तथा अन्य पिछड़े वर्ग या जातियाँ आती हैं। इनके विकास की कुछ सामान्य समस्याएँ हैं और कुछ पृथक्-पृथक् समस्याएँ हैं। सामान्य समस्याओं के अंतर्गत निम्नलिखित समस्याएँ बतायी जा सकती हैं :

(i) आर्थिक समस्याएँ; जैसे-निर्धनता, बेरोजगारी, कृषि पर आश्रितता तथा आर्थिक शोषण आदि, (ii) निरक्षरता, (iii) सामाजिक पिछड़ापन, (iv) स्वास्थ्य विषयक समस्याएँ तथा (v) राजनीतिक एकीकरण की समस्याएँ आदि।

प्रश्न 5. अनुसूचित जातियों की सामाजिक एवं सार्वजनिक निर्योग्यताएँ लिखिए।

अथवा,

आज आदिवासियों से संबंधित बड़े मुद्दे कौन-से हैं ? (NCERT T.B. Q.9)

उत्तर-सामाजिक क्षेत्र में अस्पृश्य जातियों की निर्योग्यताओं को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है:

(अ) समाज में निम्नतम स्थान (Lowest Place in Society) : अस्पृश्यता की अवधारणा ने अस्पृश्य लोगों को हिन्दू-समाज के अंग नहीं वरन् उससे पृथक् हैं। इन लोगों के स्पर्श से ही नहीं वरन् इनकी छायामात्र से ही सवर्ण हिन्दू अपवित्र हो जाते हैं, इस प्रकार की धारणा 20वीं सदी के प्रारंभ तक प्रचलित थी।

(ब) सार्वजनिक निर्योग्यताएँ (Disabilities connected with Public life): इन लोगों को सार्वजनिक स्थानों का स्वतंत्रतापूर्वक प्रयोग भी नहीं करने दिया जाता था। ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं कि अस्पृश्य जाति के लोगों को छूने से नहीं वरन् अस्पृश्य जाति के लोगों के देखने से भी सवर्ण हिन्दू के अपवित्र जो जाने का भय रहता है। ये लोग सार्वजनिक सड़कों आदि का प्रयोग नहीं कर सकते थे, कुओं व जलाशयों आदि से पानी नहीं ले सकते थे। उदाहरणार्थ, गढ़वाल (उत्तराखंड) में अनुसूचित जातियों को ‘डोला-पालकी’ में चढ़ने नहीं दिया जाता था, जो अस्पृश्य इसका पालन नहीं करते थे उन्हें सवर्ण हिन्दू प्रताड़ित करते थे।

(स) शिक्षा सम्बन्धी निर्योग्यताएँ (Educational disabilities): स्कूलों व छात्रावासों में अस्पृश्य लोगों के बच्चों को प्रवेश नहीं मिल पाता था। यदि प्रवेश मिल भी जाता तो ये लोग सवर्ण हिन्दुओं के बच्चों के साथ बैठकर शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकते थे। इस प्रकार इन्हें शिक्षा ग्रहण करने की स्वतंत्रता नहीं थी। यही कारण है कि इन लोगों में आज भी शिक्षित व्यक्तियों की कमी है।

(द) निवास की निर्योग्यता (Disability of residence): इन लोगों के निवास स्थान अलग बस्तियों में होते हैं, जहाँ इन्हें पशुओं के समान जीवन व्यतीत करना पड़ता है। सवर्ण हिन्दुओं से निवास की बस्तियों का अलग होना इन लोगों के सामाजिक बहिष्कार की ओर संकेत करता है। इन लोगों की बस्तियाँ गन्दी गलियों में टूटी-फूटी झोंपड़ियों व कच्ची कोठरियों के रूप में होती हैं। आज भी सवर्ण हिन्दू अनुसूचित जाति के लोगों के साथ रहना पसन्द नहीं करते हैं । अभी कुछ वर्षों पहले भारत सरकार के एक कर्मचारी ने, जो सवर्ण था, एक दूसरे सरकारी कर्मचारी को, जो अनुसूचित जाति का था, पीटा। ऐसा कहा जाता है कि सवर्ण हिन्दू यह सहन नहीं कर सका कि अनुसूचित जाति का परिवार उसके घर की बगल में रहे। दोनों परिवार सरकारी मकानों में रहते हैं।

(इ) अस्पृश्य लोगों में अस्पृश्यता (Untouchability among untouchability) : यह बड़ी अनोखी बात है कि अस्पृश्य लोगों में भी आपस में अस्पृश्यता की भावना पायी जाती है। उदाहरणार्थ, एक वस्त्र धोने वाला एक सफाई कर्मचारी को या एक चर्मकार एक वस्त्र धोने वाले को स्पर्श नहीं कर सकता। ये लोग भी परस्पर उसी प्रकार की पृथकता का प्रदर्शन करते हैं जैसा कि स्वर्ण लोग इन निम्न जातियों के लोगों के साथ करते हैं। प्रो. डी. एन. मजूमदार (D.

  1. Majumdar) के अनुसार दक्षिण भारत में ऐसे भी स्थान हैं जहाँ ब्राह्मण लोग ही अछूतों के स्पर्श से नहीं बचते हैं वरन् अछूत लोग भी ब्राह्मणों के पास जाना अथवा उन्हें देखना ठीक नहीं समझते हैं।

(ई) राजनीतिक निर्योग्यताएँ (Political disabilities): अनुसूचित जाति के लोगों को देश के शासन में भाग लेने का कोई अधिकार प्राप्त नहीं था और राज्य की ओर से इन्हें जो न्याय प्राप्त होता था वह भी भेदभाव की भावना पर आधारित था। यह कहना उपयुक्त रहेगा कि किसी जमाने में इन लोगों को सामान्य नागरिक के अधिकार भी प्रदान किए जाते थे लेकिन अब ऐसा नहीं है।

प्रश्न 6. अनुसूचिज जातियों की स्थिति में सुधार हेतु सुझाव प्रस्तुत कीजिए।

उत्तर-कानून बना देने से ही अनुसूचित जातियों की स्थिति में सुधार नहीं लाया जा सकता है। इसके लिए लोगों की मनोवृत्तियों को बदलकर स्वस्थ सामाजिक वातावरणका निर्माण करना होगा। कुछ भी हो, अस्पृश्यता के उन्मूलन एवं हरिजनों की दशा में सुधार लाने के निम्नलिखित सुझाव उपयोगी साबित हो सकते हैं :

  1. शिक्षा और प्रचार-प्रसार के द्वारा जाति प्रथा के स्वरूप में परिवर्तन किया जाना चाहिए। यह कार्य धीरे-धीरे करना होगा। एकदम सफलता प्राप्त होने में संदेह है।
  2. ग्रामों का विकास नवीन आधारों पर किया जाना चाहिए। ग्रामों में विद्यमान सामाजिक कुरीतियों और अन्धविश्वासों को समाप्त करना चाहिए। यह काम समाज-सुधारकों एवं समाज के उत्तरदायी व्यक्तियों की सहायता से संभव है।
  3. अपवित्र व्यवसायों को मशीनीकरण द्वारा दूर किया जाना चाहिए ताकि घृणित व्यवसायों की संख्या कम-से-कम हो सके।
  4. शारीरिक श्रम के प्रति सम्मान की भावना को विकसित किया जाना चाहिए।
  5. अनुसूचिज जाति के आर्थिक व सामाजिक सुधार के लिए सामान्य और प्रौद्योगक शिक्षा पर अधिक बल दिया जाना चाहिए ताकि अज्ञानता व अन्धविश्वास का अंश हरिजनों से दूर हो सके और आर्थिक स्थिति में अपेक्षित सुधार लाया जा सके।
  6. स्वास्थ्य और नैतिक स्तर के विकास के लिए अनुसूचित जाति की उचित आवास संबंधी योजनाओं को तीव्र गति से लागू किया जाना चाहिए और इनके लिए मकान बनाते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि इनके मकान उच्च जातियों के लोगों के पास बनाए जाएँ।
  7. अनुसूचित जाति के लिए मनोरंजन की सुविधा व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि अंधविश्वास एवं बुरी आदतों को दूर करके इन लोगों में नैतिकता का एक उचित मानदंड बनाए रखा जा सके। अधिकांश अंनुसूचित जाति समुदाय अंधविश्वास व रूढ़िवादिता के शिकार हैं
  8. सामाजिक सुरक्षा संबंधी कार्यक्रमों पर जोर दिए जाने की आवश्यकता है। इसके द्वारा अधिकांश विपत्तिग्रस्त अस्पृश्य लोगों को शारीरिक व मानसिक सुरक्षा प्रदान की जा सकेगी। भारत में आज भी अधिकांश अनुसूचित जाति के लोग जीवन की न्यूनतम जीवन-स्तर को बनाये रखने में असमर्थ हैं।
  9. सभी सार्वजनिक उत्सवों, त्यौहार, मेला आदि में सब जातियों के लोगों को सम्मिलित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। यह कार्य नगर व ग्राम के नेताओं व सुधारकों की सहायता से संभव हो सकेगा।
  10. नगर में जातियों के आधारों पर छात्रावास नहीं रहने चाहिए। सब जाति के लोगों के एक जैसे छात्रावास में रहने से अस्पृश्यता धीरे-धीरे कम होगी।

प्रश्न 7. सारणी 1 : गरीबी रेखा से नीचे की जनसंख्या का प्रतिशत, 1999-2000

नोट : ‘उच्च जातियाँ’ अर्थात् अनुसूचित जातियाँ/अनुसूचित जनजातियाँ/अन्य पिछड़ा वर्ग नहीं।

सारणी 1, 1999-2000 की जनसंख्या में शासकीय ‘गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाले प्रत्येक जाति एवं समुदाय का प्रतिशत दर्शाती है। ग्रामीण एवं नगरीय भारत के लिए भिन्न-भिन्न कॉलम हैं।

सारणी 2, भी उसी प्रकार बनाई गई है सिवाय इसके कि इसमें गरीबी रेखा के बजाय अमीर लोगों का प्रतिशत दर्शाया गया है। ‘अमीरी’ को ग्रामीण भारत में एक हजार रु. प्रति व्यक्ति प्रति माह व्यय एवं नगरीय भारत में दो हजार रु. प्रति व्यक्ति प्रति माह व्यय के रूप में परिभाषित किया गया है। यह ग्रामीण भारत में पाँच व्यक्तियों के परिवार के द्वारा पाँच हजार रु. प्रति माह व्यय तथा नमरीय भारत में दस हजार रु. प्रति माह के बराबर है। तालिका को पढ़कर निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर दीजिए :

  1. भारतीय जनसंख्या के कितने प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे (क) ग्रामीण भारत में और (ख) नगरीय भारत में रहते हैं ? –
  2. किस जाति/समुदाय समूह के ज्यादातर लोग (क) ग्रामीण तथा (ख) नगरीय भारत में अत्यधिक गरीबी में जिंदगी गुजार रहे हैं ?
  3. प्रत्येक निम्न जातियों (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़े वर्ग) का गरीबी का प्रतिशत राष्ट्रीय सामान्य प्रतिशत से लगभग कितने गुना अधिक है ? क्या इसमें कोई महत्वपूर्ण ग्रामीण-नगरीय विभिन्नता है ?
  4. ग्रामीण एवं नगरीय भारत की जनसंख्या में किस जाति/समुदाय के लोगों का अमीरी में सबसे कम प्रतिशत है ? राष्ट्रीय सामान्य अनुपात से इसकी तुलना कैसे की जा सकती है?
  5. ‘उच्च’ जाति हिन्दुओं की अमीर जनसंख्या का प्रतिशत ‘निम्न जाति’ (अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ वर्ग) के प्रतिशत से लगभग कितना गुना ज्यादा है?
  6. यह सारणियाँ आपको अन्य पिछड़े वर्गों की स्थिति के बारे में क्या बतलाती हैं ? क्या इनमें कोई महत्वपूर्ण ग्रामीण-नगरीय विभिन्नता है ?

उत्तर-1. (क) ग्रामीण भारत में : 27.0%

(ख) नगरीय भारत में : 23.4%

  1. (क) ग्रामीण : अनुसूचित जाति

(ख) ग्रामीण : अनुसूचित जातियाँ किस जाति/समुदाय के सबसे कम प्रतिशत लोग गरीबी में जीते हैं : उच्च जाति सिख 3. 50% अधिक नहीं। 4. अमीरी से सबसे कम प्रतिशत-अनुसूचित जातियाँ। 5. 80 गुना अधिक।

  1. यह सारणियाँ हमें बताती है कि आर्थिक दृष्टि से अन्य पिछड़े वर्ग की दशा अत्यन्त खराब है। ग्रामीण नगरीय विभिन्नता में केवल 2% का अंतर है।

प्रश्न 8. अल्पसंख्यकों से क्या अभिप्राय है ? भारत में धार्मिक अल्पसंख्यक श्रेणियों का उल्लेख कीजिए।

उत्तर-अल्पसंख्यकों से अभिप्राय (Meaning of Minorities): सामान्यः अल्पसंख्यक से आशय उस समूह से लिया जाना है जो धर्म, भाषा और जाति की दृष्टि से बहुसंख्यक समुदाय से भिन्न एवं कम संख्या में हो। सन् 1957 में न्यायालय ने केरल के शिक्षक विधेयक के संदर्भ में अल्पसंख्यक समूह उस समूह को माना जाए जिनकी संख्या राज्य में 50 प्रतिशत से कम है। किसी भी समूह को अल्पसंख्यक कहा जाए या नहीं, यह निर्णय राज्य की संपूर्ण अल्पसंख्यक के सन्दर्भ में होना चाहिए। भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक शब्द का प्रयोग किया गया है, किन्तु इसकी कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं दी गई है। भारत में मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन आदि धर्मावलम्बियों एवं जनजातियों को अल्पसंख्यकों की श्रेणी में गिना जाता है। भाषा की दृष्टि से सम्पूर्ण भारत के संदर्भ में हिन्दी भाषी लोगों को छोड़कर अन्य भाषा बोलने वालो को तथा एक प्रान्त के संदर्भ में उस प्रान्त की प्रान्तीय भाषा को छोड़कर अन्य भाषाओं का प्रयोग करने वाले लोगों को अल्पसंख्यक माना जायेगा। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु में तमिल भाषी लोग बहुसंख्यक और हिन्दी भाषी लोग अल्पसंख्यक कहलायेंगे।

इस प्रकार अल्पसंख्यकों की कोई सर्वमान्य परिभाषा न होकर उन्हें प्रान्त और देश के सन्दर्भ में उनकी संख्या के आधार पर ही देखा जाता है। सामान्यतः अल्पसंख्यक वे हैं जो बहुमत से धर्म एवं भाषा की दृष्टि से कम संख्या में हैं। अन्य शब्दों में, किसी भी समाज की जनसंख्या में जिन लोगों का कम प्रतिनिधित्व होता है, उन्हें अल्पसंख्यक कहते हैं।

भारत में अल्पसंख्यकों की श्रेणियाँ (Categories of Minorities in India): भारत में अल्पसंख्यकों को मुख्यतया तीन श्रेणियों में बाँटा गया है : (1) धार्मिक अल्पसंख्यक, (2)

भाषायी अल्पसंख्यक, (3) जनजातीय अल्पसंख्यक। लगभग सभी देशों में धर्म और भाषा के आधार पर अल्पसंख्यक समूहों को मान्यता प्रदान की गई है। धार्मिक, जनजातीय एवं भाषायी अल्पसंख्यक समूहों का उद्देश्य राज्य से कुछ ऐसी सुविधधाएँ प्राप्त करना जिनके द्वारा वे अपने धर्म, संस्कृति एवं भाषा को सुरक्षित रख सकें, उनका प्रचार-प्रसार कर सकें जिससे कि बहुमत , के साथ उनका विलय न हो और वे अपनी विशिष्टता बनाये रख सकें।

भारत में धार्मिक अल्पसंख्यक (Religious Minorities in India): भारत में अनेक धर्मों से सम्बन्धित लोग निवास करते हैं। इनमें हिन्दू, मुसलमान, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी आदि धर्मों को मानने वाले लोग प्रमुख हैं। हिन्दू धर्म को मानने वाले लोग यहाँ सर्वाधिक संख्या में हैं, शेष धर्मों के अनुयायी अल्पसंख्यकों की श्रेणी में आते हैं। सन् 1971 से 1991 तक की जनगणना के अनुसार भारत में विभिन्न धर्मों के अनुयायियों को हम निम्नांकित तालिका द्वारा इस प्रकार प्रकट कर सकते हैं :

भारत में विभिन्न धर्म एवं उनके अनुयायी

उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि भारत में हिन्दू बहुसंख्यक हैं और मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी आदि अल्पयंख्यक हैं। भारत में हिन्दुओं की जनसंख्या में 2.37 प्रतिशत और मुसलमानों की जनसंख्या में 3.1 प्रतिशत वार्षिक दर से वृद्धि हो रही है। अन्य धर्मों के अनुयायियों की संख्या में भी वृद्धि हुई है। भारतीय समाज उसी समय स्वस्थ रहता हुआ प्रगति कर सकता है जब विभिन्न धर्मों के अनुयायियों में एक-दूसरे के प्रति सहिष्णुता हो, वे परस्पर उदारतापूर्वक व्यवहार करें और धर्म को राष्ट्रीयता के मार्ग में बाधा के रूप में न आने दें।

प्रश्न 9. भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की दशा का वर्णन कीजिए।

उत्तर-मुस्लिम अल्पसंख्यक (Muslim Minority): भारत के अल्पसंख्यकों में सर्वाधिक जनसंख्या मुसलमानों की 9.52 करोड़ है। अंग्रेजी शासनकाल में भारत की 40 करोड़ जनसंख्या में 9 करोड़ मुसलमान थे। अंग्रेजों के समय मुसलमानों का सर्वप्रथम संगठित आन्दोलन बहावी आन्दोलन था जो प्रारम्भ में एक धर्म-सुधार आन्दोलन था, किन्तु कालान्तर में इसमें राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक तत्व भी जुड़ गये। यह ब्रिटेन विरोधी आन्दोलन के रूप में प्रारम्भ हुआ

और बंगाल के मुसलमान किसानों में भी फैला जिसने किसान विद्रोहों को जन्म दिया। सन् 1857 के विद्रोह में हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमानों ने अधिक भाग लिया। अत: अंग्रेजों ने उनके प्रति उपेक्षा की नीति अपनाई।

भारत में एक लम्बे समय तक मुसलमानों का शासन रहा है इस दौरान इनके संरक्षण की कोई समस्या नहीं थी। किन्तु अंग्रेजों ने शासन करने के लिए ‘फूट डालो और राज करे’ की नीति

अपनाई तथा हिन्दुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा किया। अंग्रेजों से पूर्व भारत में राज-काज की भाषा अरबी और फारसी थी जिसके स्थान पर अंग्रेजी भाषा का प्रयोग प्रारम्भ किया। सन् 1906 में भारत में ‘मुस्लिम लीग’ की स्थापना की गई। इसी वर्ष मुसलमानों के लिए पृथक् चुनाव क्षेत्रों में प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की गई। अंग्रेजों के शासनकाल में हिन्दुओं और मुसलमानों ने मिलकर स्वशासन और स्वतंत्रता की मांग रखी, उन्होंने गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन में भाग लिया। अब तक हिन्दू और मुसलमान परस्पर सहयोग से रह रहे थे। सन् 1929. में जिन्ना ने अपनी 14 सूत्री योजना प्रस्तुत की और सन् 1940 में लाहौर के अधिवेशन में लीग ने मुसलमानों के लिए पृथक राज्य पाकिस्तान बनाने की घोषणा की। पाकिस्तान की माँग दो राष्ट्रों के सिद्धान्तों पर आधारित थी अर्थात् उनका मत था कि हिन्दू और मुसलमान दो पृथक् एवं विशिष्ट राष्ट्र हैं, अतः इनके लिए पृथक्-पृथक् राज्य होने चाहिए। अन्तत: 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ और उसके साथ ही देश का विभाजन भी हुआ।

पाकिस्तान के निर्माण के बाद भी बड़ी संख्या में मुसलमान भारत में ही रह गये। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब भारत में प्रजातंत्र की स्थापना की गई और बहुमत के आधार पर जनप्रतिनिधि

चुने जाने लगे तो अल्पसंख्यक मुसलमानों को यह भय उत्पन्न हुआ कि बहुसंख्यक लोग उनके हितों की अनदेखी करेंगे, साथ ही उनमें अपनी सुरक्षा का भय उत्पन्न हुआ जो कि निराधार एवं निर्मूल था। स्वतंत्र भारत में मुसलमानों को भी अन्य लोगों की भाँति ही कानून द्वारा समानता, स्वतंत्रता एवं न्याय प्राप्त करने के अधिकार दिये गये। वे देश के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक

और राजनीतिक जीवन में सक्रिय रूप से भाग ले रहे हैं। स्वर्गीय डॉ. जाकिर हुसैन, फखरुद्दीन अली अहमद तथा डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम देश के सर्वोच्च पद राष्ट्रपति पद को सुशोभित कर चुके हैं। मुसलमानों की कुछ सामान्य समस्याएँ या मुद्दे निम्नलिखित हैं :

(1)विधानमंडलों एवं प्रशासन के प्रतिनिधित्व से असन्तुष्टि : विधानमंडलों एवं प्रशासनिक सेवाओं को लेकर मुसलमानों से असन्तोष व्याप्त रहा है कि इनमें उनका उचित प्रतिनिधित्व नहीं हुआ है।

(2) साम्प्रदायिक दंगे : स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् देश में अनेक बार साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं। गुजरात, मेरठ, अहमदाबाद, बिहारशरीफ, रांची, जबलपुर, इंदौर, भिवानी, मुरादाबाद, व्यावर एवं अलीगढ़ आदि स्थानों पर साम्प्रदायिकता की आग भड़कती रही है। इन दंगों के कारण मुसलमानों में बहुमत सम्प्रदाय के विरुद्ध असुरक्षा की भावना जन्मी है।

(3) उर्दू भाषा का प्रश्न : मुसलमानों ने समय-समय पर उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार में उर्दू को राजभाषा का दर्जा दिलाने की मांग की है। उत्तर प्रदेश में उर्दू को द्वितीय राजभाषा का दर्जा दिया जा चुका है। कुछ राजनीतिक दलों ने यह प्रचार किया कि उर्दू केवल मुसलमानों की भाषा है। अत: उर्दू भाषा का प्रश्न एक साम्प्रदायिक प्रश्न बन गया।

(4) मुस्लिम पर्सनल लॉ : भारतीय संविधान में यह स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि देश के नागरिकों के लिए एक ही सिविल कोड होगा। भारत सरकार सुधार की दृष्टि से मुसलमानों के पर्सनल लॉ में कुछ परिवर्तन करना चाहती है, जिससे कि इस समुदाय का आधुनिकीकरण हो सके। इस दृष्टि से सरकार ने मुसलमानों की बहुविवाह पद्धति एवं तलाक के नियमों में हस्तक्षेप किया। इस बात से अनेक रूढ़िवादी मुसलमान नाराज हो गये। उनका कहना है कि विवाह सम्बन्धी कानून शरीयत पर आधारित है जिसमें हस्तक्षेप करना धर्म के विरुद्ध है।

भारत में मुस्लिम वोटों की राजनीति (Politics of Muslim Votes in India): स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में मुसलमानों का कोई दल राष्ट्रीय स्तर पर नहीं बन सका। राजनीति में दो प्रकार के मुस्लिम संगठन हैं; जैसे-मुस्लिम लीग, मुस्लिम मजलिस आदि। दूसरे वे जो मूल रूप से अराजनीतिक संगठन हैं, जैसे-जमायते इस्लामी, मुशावरत, जमीअतुल इलामा आदि।

आजादी के बाद कांग्रेस ने मुसलमानों में धर्म-निरपेक्ष दल के रूप में अपनी छवि बनायी। धर्म-निरपेक्ष के सिद्धान्त को स्वीकार कर लेने के बावजूद भी कांग्रेस ने अपनी कुर्सी बनाये रखने के लिए मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति को अपनाया। जिसके फलस्वरूप 1955 में जनसंघ का गठन हुआ। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जनसंघ के राजनीतिक आधार को मजबूत किया एवं उसका प्रसार किया। इन दोनों संगठनों से खतरा अनुभव करने के कारण, मुसलमानों में यह भावना बलवती हुई कि केवल कांग्रेस ही उनकी रक्षक है। इससे मुस्लिम मतदाताओं ने चुनावों में उसे आँखें बन्द कर समर्थन दिया। 1952, 1957 एवं 1962 तक के चुनावों में तत्कालीन सत्ताधारी कांग्रेस अनेक कारणों से मुस्लिम समाज के अधिकांश वोट बटोरती रही, किन्तु 1957 के आम चुनावों में कांग्रेस को मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन कम होने का झटका लगा। साम्यवादी दलों के बढ़ते प्रभाव ने शिक्षित एवं प्रगतिशील मुसलमानों को अपनी ओर आकर्षित किया। कांग्रेस में आंतरिक खींचतान, आर्थिक नीतियों की आंशिक असफलता तथा कानून और व्यवस्था में गिरावट आदि में आम जनता के साथ मुस्लिम मतदाताओं का भी कांग्रेस में विश्वास कम हुआ। श्रीमती इंदिरा गाँधी ने अल्पसंख्यकों एवं मुसलमानों के सामने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ का हौवा खड़ा किया और मुस्लिम मतदाताओं को अपने पक्ष में कर लिया। सन् 1971 के चुनावों में कांग्रेस की अभूतपूर्व विजय में मुस्लिम मतदाताओं के प्रमुख भूमिका रही।

सन् 1975 में थोपे गये आपातकाल में जबरन नसबन्दी के कार्यक्रम से मुस्लिम समाज का बहुत बड़ा हिस्सा कांग्रेस से नाराज हो गया। सन् 1977 के लोकसभा चुनाव में दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम जैसे अनेक मुस्लिम नेताओं ने कांग्रेस के विरुद्ध खुलकर प्रचार किया और नवगठित जनता पार्टी को समर्थन देने का अनुरोध किया। इस चुनाव में इन्दिरा गाँधी सहित कांग्रेस के बड़े-बड़े दिग्गज पराजित हुए जिसमें मुस्लिम मतदाताओं की महत्वूपर्ण भूमिका थी।

1980 के चुनावों में शाही इमाम ने मांग की कि लोकसभा, राज्यसभा तथा मंत्रिमंडल में मुसलमानों के लिए 20% स्थान दिये जायें और राज्यों में वहाँ की जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया जाए, पुलिस एवं सेना में उनके 20% स्थान सुरक्षित रहें मुसलमानों के वोट प्राप्त करने के लिए जनता पार्टी और कांग्रेस ने अपने-अपने घोषणा-पत्रों में अल्पसंख्यकों के लिए कई प्रावधान किये। कांग्रेस ने अपने घोषणा-पत्र में कहा कि अल्पसंख्यक आयोग को कांग्रेस मजबूत बनायेगा, अलीगढ़ विश्वविद्यालय के मुस्लिम स्वरूप को सुनिश्चित किया जायेगा, अल्पसंख्यकों को विधि और व्यवस्था तथा रक्षाकार्मिक सहित सभी सरकारी सेवाओं में नौकरी के उचित अवसर दिये जायेंगे, उर्दू को उसका उचित स्थान दिलाया जायेगा तथा विशिष्ट क्षेत्रों में सरकारी राज-काज के व्यवहार के लिए दूसरी भाषा के रूप में उर्दू को मान्यता दी जायेगी।

जनवरी सन् 1980 के लोकसभा चुनावों में जनता पार्टी की पराजय का एक कारण यह भी था कि उसे मुस्लिम वोट प्राप्त नहीं हुए। मुसलमानों की जनता पार्टी से नाराजगी का मुख्य कारण उसके शासन के दौरान न तो अलीगढ़ विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक स्वरूप प्रदान किया गया

और न ही उर्दू को संवैधानिक संरक्षण दिया गया। साम्प्रदायिक दंगों को रोकने में भी वह असफल रही। जनता पार्टी के विभिन्न घटकों जैसे लोकदल, समाजवादी गुट ने भी कांग्रेस के साथ-साथ जनता पार्टी में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के वर्चस्व होने का हौवा खड़ा किया और उसके मुस्लिम विरोधी होने की छवि बना दी। बहुजन समाज पार्टी (बसपा) एवं समाजवादी पार्टी (सपा) ने भी मुस्लिम मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न किया। उन्होंने चुनावों में अनेक मुस्लिम लोगों को अपना प्रत्याशी बनाया। ____ मुसलमान लोग वोट देते समय अक्सर तीन बातों का ध्यान रखते हैं-भाईचारे की भावना, मुस्लिम राजनेताओं की अपेक्षा धार्मिक नेताओं की बात स्वीकार करना तथा अल्पसंख्यक समुदाय होने के कारण प्रायः बहुसंख्यक हिन्दू समाज के वर्चस्व से प्रभावित होकर वे एकजुट होकर मतदान करने का निर्णय करते हैं।

प्रश्न 10. भारत में ईसाई अल्पसंख्यकों की स्थिति का वर्णन कीजिए।

उत्तर-ईसाई अल्पसंख्यक (Christian Minority): भारत में अल्पसंख्यकों में मुसलमानों के बाद ईसाइयों का स्थान है। सन् 1991 की जनगणना के अनुसार कुल जनसंख्या में इनका प्रतिशत 2.32 तथा इनकी जनसंख्या 1.89 करोड़ है। अंग्रेजी शासन काल में भारत में ईसाई लोगों का शासन रहा। भारत के अधिकांश ईसाई यहीं के निवासी हैं और ईसाई मिशनरियों के प्रभाव के कारण अपना धर्म परिवर्तन कर वे ईसाई बन गए हैं। ईसाइयों की संख्या केरल और दक्षिणी भारत के राज्यों में अधिक है। इनका कोई राजनीतिक दल नहीं है। ईसाइयों ने राजनीति की अपेक्षा स्वयं को सामाजिक, धार्मिक और शैक्षणिक कार्यों में लगा रखा है। अंग्रेजों के समय इनके संरक्षण की कोई समस्या नहीं थी। अंग्रेजों के बाद भारतीय ईसाइयों ने अपनी सुरक्षा में सन्देह प्रकट किया और उन्होंने यूरोप में बसने की इच्छा प्रकट की। इधर ईसाइयों की वफादारी में शंका प्रकट की जाने लगी और उन्हें विघटनकारी तत्व समझा जाने लगा, क्योंकि उन्होंने लालच और बल के आधार पर हिन्दुओं को ईसाई बनाया। हिन्दुओं को अपने धर्म से च्युत करने के लिए करोड़ों रुपया प्रति वर्ष विदेशों से आने लगा। मणिपुर, असम, नागालैंड एवं मेघालय आदि राज्यों में ईसाइयों की संख्या बढ़ने लगी। उन्होंने कई जनजातीय एवं अछूत व निम्न जातियों के लोगों को ईसाई बनाया। ऐसी स्थिति में 22 दिसम्बर, 1978 को ओमप्रकाश त्यागी ने लोकसभा में धर्म स्वतंत्रता विधेयक’ के नाम से एक विधेयक प्रस्तुत किया। इस विधेयक की धारा तीन के अन्तर्गत “कोई भी प्रत्यक्षतः या बलपूर्वक या उत्प्रेरण द्वारा या प्रवचन द्वारा या किन्हीं कपटपूर्ण साधनों द्वारा एक धार्मिक विश्वास से दूसरे में परिवर्तन नहीं करेगा और न ही इस तरह के प्रयास के लिए दुष्प्रेरणा देगा, यदि ऐसा करेगा तो व्यक्ति को एक वर्ष तक का कारावास और तीन हजार रुपये तक का जुर्माना हो सकेगा।” हालाँकि यह विधेयक पारित नहीं किया जा सका।

प्रश्न 11. भारत में सिक्ख अल्पसंख्यकों दशा का वर्णन कीजिए।

उत्तर–सिक्ख अल्पसंख्यक (Sikh Minority): सन् 1991 की जनगणना के अनुसार भारत में सिक्खों की जनसंख्या 1.63 करोड़ अर्थात् कुल जनसंख्या का 1.99 प्रतिशत है। स्वतंत्रता के पश्चात् सिक्खों ने पंजाबी सूबे की मांग की। अकाली दल ने आन्दोलन प्रारम्भ किया और कहा कि सिक्खों की भाषा एवं संस्कृति के आधार पर एक पृथक राज्य का निर्माण किया जाना चाहिए। सन् 1967 में पंजाब का विभाजन कर हरियाणा और पंजाब राज्य बनाये गये। इस नवगठित पंजाब में सिक्खों की जनसंख्या 61% हो गई। सिक्खों को केन्द्रीय मंत्रिमंडल, संसद तथा विधानसभा में पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया गया है। ज्ञानी जैलसिंह भारत के राष्ट्रपति रह चुके हैं। बूटा सिंह भारत के महमंत्री रह चुके हैं। सेना, पुलिस एवं प्रशासन में भी सिक्खों का प्रतिनिधित्व बहुत है। इन सबक लावजूद सिक्खों ने एक पृथक् राज्य ‘खालिस्तान’ की माँग प्रारंभ कर दी। अकाली दल

कई साओं ने यह धमकी दी कि भारतीय संघ के अन्तर्गत यदि सिक्ख राज्य को स्वायत्तता प्रदान नहीं की गई तो वे जन आंदोलन का सहारा लेंगे। खालसा पंथ का कहना है कि सिक्खों

को धोखाधड़ी से भारतीय गणतंत्र में शामिल होने के लिए मजबूर किया गया था। पंथ भी यही कहता है कि भारत के हिन्दू बहुमत ने एकजुट होकर इसपर जोर देते हुए कि सिक्ख-धर्म हिन्दू धर्म का ही एक अंग है, सिक्ख धर्म को नष्ट करने की कोशिश की और उनकी पंजाबी भाषा को एक बोली मात्र घोषित करके और पंजाब को द्विभाषी प्रदेश बनाकर उनकी भाषा को नीचा दिखाने का प्रयास किया। अतः आनन्दपुर साहिब में आयोजित शैक्षिक सम्मेलन के मंच से पृथक् राज्य की मांग की गई। इस आन्दोलन की भारतीय और विदेशों में रहने वाले अनेक सिक्खों का समर्थन भी प्राप्त हुआ। यह माँग चिन्ता का विषय इसलिए बन गई कि इसका नेतृत्व कुछ मुट्ठी भर उग्र तत्वों एवं आतंकवादियों के हाथ में था। बाद में यह आंदोलन समाप्तप्राय हो गया।

प्रश्न 12. भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों की समस्याओं के समाधान के लिए सरकार द्वारा क्या प्रयत्न किए गए हैं ?

उत्तर-अल्पसंख्यकों की समस्याओं के समाधान हेतु सरकार द्वारा किये गये प्रयत्न : धार्मिक एवं भाषायी अल्पसंख्यकों की समस्याओं के समाधान के लिए सरकार ने अनेक प्रयास किये हैं। भारतीय संविधान में अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए अनेक प्रावधान किये गये हैं। संविधान के अनुच्छेद 14, 15 व 16 में कानून के समक्ष समानता और विधि के समान संरक्षण का आश्वासन प्रदान किया गया है। किसी भी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति, मूलवंश आदि के आधार पर भेद-भाव नहीं किया जायेगा। अनुच्छेद 16 में सार्वजनिक सेवाओं में समान अवसर देने का भी प्रावधान है। अनुच्छेद 25 में प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी धर्म को स्वीकार करने, उसका प्रचार करने की छूट प्रदान की गई है। अनुच्छेद 26 में धार्मिक मामलों का प्रबन्ध करने, अनुच्छेद 27 में धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए कर वसूल करने तथा अनुच्छेद 28 में सरकारी शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक उपासना में भाग न लेने की छूट दी गई है। ___ अनुच्छेद 29 में नागरिकों को अपनी विशेष भाषा, लिपि एवं संस्कृति को बनाये रखने, सरकारी शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश पर धर्म, मूलवंश, जाति एवं भाषा के आधार पर भेदभाव न बरतने का प्रावधान किया गया है।

अनुच्छेद 30 में धर्म और भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थाएं स्थापित करने एवं उनका प्रशासन करने का अधिकार देता है।

संवैधानिक प्रावधानों को लागू करने, उनका पुनरावलोकन करने के लिए सरकार ने कई विशिष्ट अधिकारियों एवं आयोगों की नियुक्ति की है। सन् 1978 में अल्पसंख्यक आयोग’ की स्थापना की जिसका एक अध्यक्ष एवं सदस्य अल्पसंख्यक समुदायों में से होते हैं। यह कमीशन अन्य कार्यों के अतिरिक्त संविधान में किये गये संरक्षण प्रावधानों का मूल्यांकन करने, उन्हें प्रभावी रूप से लागू करने के लिए सुझाव देने, केन्द्र एवं राज्य सरकारों की नीतियों को लागू करने, शिकायतें सुनने, सर्वेक्षण एवं अनुसंधान करने तथा अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए समय-समय पर रिपोर्ट देने का कार्य करता है।

भाषायी अल्पसंख्यकों के लिए पृथक् से एक कमीशन बनाया गया है जो संविधान में भाषायी अल्पसंख्यकों के दिये गये प्रावधानों के बारे में जाँच-पड़ताल करता है, उनसे संबंधित शिकायतें सुनता है और उन्हें दूर करने का प्रयास करता है। सन् 1983 में केन्द्रीय सरकार ने एक ‘अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ’ की स्थापना की जो प्रधानमंत्री के 15 सूत्री कार्यक्रम का एक भाग है। यह प्रकोष्ठ अल्पसंख्यकों के द्वारा राष्ट्रीय जीवन में पूरी तरह भाग लेने, अल्पसंख्यकों की शिकायतों को दूर करने एवं उनके कल्याण कार्यों की देख-रेख करता है। कुछ राज्यों में भी ऐसे प्रकोष्ठों की स्थापना की है। प्रधानमंत्री के 15 सूत्री कार्यक्रमों के मुख्य उद्देश्य साम्प्रदायिक हिंसा को रोकना एवं साम्प्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देना। शिक्षा की आवश्यकता पर जोर देना, सेवाओं में उनकी भर्ती के लिए प्रयत्न करना तथा 20 सूत्री कार्यक्रमों सहित अन्य विकास कार्यक्रमों के लाभों में उन्हें अपना हिस्सा दिलाना, आदि हैं।

सन् 1987 में न्यायमूर्ति एच. एच. बेग की अध्यक्षता में गठित अल्पसंख्यक आयोग ने अपनी रिपोर्ट में राष्ट्रपति को अनेक सुझाव दिये। उनमें से एक सुझाव धर्म को राजनीति से पृथक् रखने का है। आयोग का मत है कि सब प्रकार की आर्थिक एवं राजनीतिक मांगों को धर्मनिरपेक्ष दलों द्वारा सही ढंग से उठाया जा सकता है। अल्पसंख्यकों को राष्ट्र की मुख्य धारा से जोड़ने के सम्बन्ध में वे सभी उपाय अपनाये जाने चाहिए जो राष्ट्रीय एककीकरण समिति ने समय-समय पर दिये हैं। :

राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास और वित्त निगम : सरकार ने पाँच अरब रुपये की शेयर पूँजी वाले राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास और वित्त निगम की स्थापना की है। निगम अल्पसंख्यक समुदाय के पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए आर्थिक और विकास सम्बन्धी गतिविधियों को प्रोत्साहन देता है। इनमें से कुछ विशेष व्यवसाय वाले लोगों और अल्पसंख्यक महिलाओं को प्राथमिकता दी जाती रही है।

निगम ने वर्ष 2004-2005 की अवधि में 73.03 करोड़ रु. आवंटित किए। यह राशि पिछले 10 वर्ष में आवंटित राशि में सर्वाधिक है।

प्रश्न 13. आधुनिक भारत में महिलाओं की दशा का वर्णन कीजिए।

उत्तर-आधुनिक भारत में महिलाओं की स्थिति (Status of Women in Modern India): 19वीं शताब्दी के प्रारंभ से महिलाओं की गिरती हुई स्थिति में फिर परिवर्तन आया। नारी ने अपने अधिकारों को समझा; शिक्षा के क्षेत्र में राजनीतिक क्षेत्र में तथा आंदोलनों में भाग लेना शुरू कर दिया। इस सदी में भारतीय नारी पर ब्रिटिश नारी की स्थिति की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। यद्यपि यह परिवर्तन धीरे-धीरे हो रहा था परंतु नारी अपने अधिकारों के बारे में सजग होती जा रही थी।

20वीं शताब्दी ने तो नारी की स्थिति में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिए हैं। स्वतंत्रता के बाद तो इस दिशा में और भी तीव्रता आई है। आज भारत में नारी सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ कंधे से कंधे मिलाकर चल रही है। राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व शैक्षणिक क्षेत्र में वह पुरुषों से होड़ लगा रही है। उनके बताए हुए कानूनों व नियमों के प्रति खुले विरोध का वातावरण उत्पन्न कर रही है।

यह सब कुछ होता जा रहा है या हो रहा है समय के प्रवाह के साथ हो रहा है, क्योंकि समय के साथ-साथ हमारे रहने-सहने के ढंग, विचार, मत, संस्थाओं, समितियों, परंपराओं, मान्यताओं आदि में परिवर्तन होता रहता है। सच तो यह है कि परिवर्तन समाज का नियम है; परिवर्तन से ही समाज में सुधारवादी व्यवस्था को बल मिलता है।

इस सबके कहने का अभिप्राय यही है कि आज भारतीय नारियाँ पुरुषों की दासी मात्र नहीं रह गई हैं; उनका कार्यक्षेत्र घर की चारदीवारी तक सीमित नहीं रह गया वरन् उन्हें पुरुषों के समान जीवन के सभी क्षेत्रों में समान अधिकार व सुविधाएं उपलब्ध हैं। वास्तव में आधुनिक भारतीय नारी की स्थिति को भली प्रकार समझने के लिए पारिवारिक, धार्मिक और सामाजिक स्थिति पर अलग-अलग स्वतंत्र रूप से विचार करना होगा।

  1. पारिवारिक स्थिति (Family Status):

(अ) विवाह संबंधी अधिकार (Rights Related to Marriage): विवाह के क्षेत्र में महिलाओं की अनेक निर्योग्यताएँ (Disabilities) समाप्त हो गई हैं। बहुपत्नी विवाह या बाल-विवाह का निषेध हो गया है, विधवा-विवाह का अधिकार प्राप्त हो गया है। अंतर्जातीय विवाहों को भी स्वीकृति मिल चुकी है।

लेकिन इसके बावजूद भारतीय महिलाएँ इन अधिकारों को पूर्ण रूप से व्यवहार में नहीं ला सकी हैं। इसका प्रमुख कारण महिलाओं की अशिक्षा एवं रुढ़िवादी विचार है। इस संदर्भ में अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी युवक संगठन की एकमात्र भारतीय सदस्या तथा बिहार विधान परिषद् की पूर्व सदस्या श्रीमती कमला सिन्हा का कहना है, “मानसिकता आज भी वही पुरानी है। अंतर्जातीय

विवाह जो निभा लेती हैं, उसकी तारीफ करनी चाहिए। महिलाओं की ओर से तलाक के मामले बहुत कम सुनने को मिलते हैं, जबकि कानून में इसके प्रावधान हैं। ‘खपा’ लेने वाला संस्करण कैसे छूट जाएगा।”

(ब) गृहस्थ संबंधी अधिकार (Rights Related to Family) : घर में अब नारी की स्थिति दासी के रूप में नहीं रही है। सच तो यह है कि आज वह गृहस्वामिनी है, गृहस्थी के प्रत्येक कार्य में उसका सहयोग व मंत्रणा. अनिवार्य है और बच्चों के लालन-पालन से लेकर शिक्षा-दीक्षा तक का महत्वपूर्ण कार्य नारी के सहारे. ही चलता है।

(स) आर्थिक अधिकार (Economic Rights): पारिवारिक संपत्ति के मामले में महिलाओं को पुरुषों की भाँति अधिकार व सुविधाएँ प्राप्त हो गई हैं। __ महिलाओं के आर्थिक या संपत्ति के क्षेत्र में अधिकार संबंधी अधिनियम के रूप में ‘हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956′ महत्त्वपूर्ण है। इसमें स्त्री-पुरुष के उत्तराधिकार के भेद को दूर करके हिन्दू स्त्री को संपत्ति में समान स्वामित्व प्रदान किया गया है। लड़के व लड़कियों दोनों को सह-अधिकारी (co-heirs) माना गया है।’

  1. सामाजिक स्थिति (Social Status):

(अ) शिक्षा के क्षेत्र में (In the field of Eduation): आज की परिस्थिति में प्रत्येक परिवार में कन्याओं को कुछ-न-कुछ शिक्षा देना आवश्यक समझने लगा है। अब प्रत्येक नगर व कस्बे में लड़कियों के लिए विद्यालय खुल गए हैं व्यावसायिक व औद्योगिक संस्थाएँ भी खोली गई हैं। नि:शुल्क शिक्षा, अन्य शुल्कों में रियायत, परीक्षाओं में स्वाध्यायी (Private) बैठने की सुविधा, छात्रवृत्तियाँ आदि की व्यवस्था भी उपलब्ध है और वे पुरुषों के समान उच्च शिक्षा भी ग्रहण करने लगी हैं। इतना सब कुछ होने के बावजूद भी उच्च शिक्षा प्राप्त नारियों की संख्या बहुत सीमित है और इस देश में साक्षर महिलाओं की संख्या कुल आबादी का अठारह प्रतिशत है। इस संदर्भ में मार्गरेट कोरमेख (Margaret Cormach) का कहना ठीक है, “अभी तक शिक्षा को जीवन के लिए शिक्षा समझा जाता था, साक्षरता के लिए नहीं और इस प्रकार लड़कियों की शिक्षा मुख्यतया वैवाहिक जीवन के प्रशिक्षण से संबंधित है।”

(ब) राजनीतिक क्षेत्र में (In the field of Politics): गाँधीजी के प्रयासों से भारत के इतिहास में पहली बार महिलाएँ सामूहिक रूप से बड़ी संख्या में राजनीति और राजनीतिक आंदोलनों में सम्मिलित हुई और उन्होंने पुरुषों के समान कंधे से कंधा मिलाकर कार्य किया। इन आंदोलनों में भाग लेने के कारण महिलाओं की प्राचीन रूढ़िवादिता का अंत हुआ और आज वे बिना किसी बाधा के सार्वजनिक कार्यों में भाग लेती हैं। देश के सभी राजनीतिक दलों में महिलाएँ सक्रिय रूप से भाग ले रही हैं; देश-विदेश में उच्च सरकारी व गैर-सरकारी पदों पर उनकी नियुक्ति हो रही है। इतना कुछ होने पर भी, राजनीति और शासन में महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में काफी कम है।

  1. धार्मिक स्थिति (Religious Status): जहाँ तक भारत में आज महिलाओं की धार्मिक स्थिति का प्रश्न है, ऐसा कहा जाता है कि आज भी वे थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ मध्यकालीन धार्मिक मूल्यों व मान्यताओं को मानती हैं; पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन आदि में पहले जैसी स्वतंत्रता के साथ भाग लेती हैं। सभी धार्मिक कृत्यों में पुरुष के साथ-साथ भाग लेती हैं। अब महिलाओं की अनेक मध्यकालीन धार्मिक निर्योग्यताएँ समाप्त होती जा रही हैं।

प्रश्न 14. नारी समानता के लिए संघर्ष में विभिन्न आंदोलनों का योगदान लिखिए।

उत्तर-स्त्रियों की वर्तमान स्थिति और सुधार आंदोलन (Present status of Women and Reform Movements) : भातीय नारी की वर्तमान स्थिति अनेक क्रियाओं व परिस्थितियों का परिणाम है। स्त्रियों की अनेक निर्योग्यताओं के कारण अभी 30-40 वर्ष पहले तक अधिकांश स्त्रियाँ मध्यकालीन युग की परिस्थितियों में रहती थीं और ऐसा कहा जाता है कि संसार में स्त्रियों

का कहीं भी इतना शोषण नहीं हुआ जैसा कि भारत में। इसी शोषण की प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप महिला सुधार आंदोलन आरंभ हुए, जिन्होंने स्त्रियों के ऊपर लादी गई सभी निर्योग्यताओं को नवीन परिस्थितियों में चुनौती दी। श्री पनिक्कर ने इस संदर्भ में लिखा है, “वर्तमान समय में स्त्रियों द्वारा हिन्दू जीवन के सिद्धान्तों का पुनः परीक्षण हिन्दू समाज के लिए एक महानतम चुनौती है।” महिला सुधार आंदोलनों को दो प्रमुख भागों में बाँटा जा सकता है

  1. प्रारंभिक सुधार आंदोलन (Preliminary Reform Movements): राजा राम मोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, केशवचंद्र सेन, बहराम जी मालाबारी, गोविंद रानाडे, महर्षि कर्वे, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद आदि का नाम प्रारंभिक सुधारकों में लिया जा सकता है। राजा राममोहन राय ने ‘ब्रह्म समाज’ की स्थापना की और इस संस्था के माध्यम से स्त्रियों की अनेक निर्योग्यताओं को दूर करने का सफल प्रसास किया। पं. ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने स्त्री-शिक्षा के लिए अनेक शिक्षण-संस्थाएँ खोली और स्त्री-शिक्षा पर अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं। गोविदं रानाडे ने ‘राष्ट्रीय सामाजिक सम्मेलन’ की स्थापना की। महर्षि कर्वे ने विधवाओं के लिए अनेक आश्रम खोले जिनमें विधवाओं को पुनर्वास संबंधी शिक्षा दी जाने की व्यवस्था की गई।
  2. महात्मा गाँधी द्वारा सुधार आंदोलन (Reform Movement by Mahatma Gandhi): महात्मा गाँधी ने महिलाओं की समस्याओं को समझा और स्त्री-शिक्षा के प्रसार, कुलीन विवाह और दहेज-प्रथा पर नियंत्रण, बाल-विवाह समाप्ति, अंतर्जातीय विवाह के प्रसार पर बल दिया।
  3. स्त्री संगठनों द्वारा सुधार कार्यक्रम (Reforms Programmes by Women): स्त्रियों की स्थिति को सुधारने के लिए स्वयं स्त्रियों द्वारा अनेक स्त्री-संगठनों की स्थापना की गई। भारत में स्त्री आंदोलन को प्रभावशाली बनाने में मार्गरेट नोबल, ऐनी बेसेंट तथा मारग्रेट कुशनस् का विशेष योगदान रहा। 1927 में सभी महिला संगठनों ने एक संघ बनाया और इस संघ का नाम ‘अखिल भारतीय महिला सम्मेलन’ रखा गया। संगठन ने सबसे पहले अलग से स्त्री-शिक्षा के लिए लेडी इरविन कॉलेज 1932 में दिल्ली में स्थापित किया गया। इस संगठन के अतिरिक्त ‘यंग विमेन क्रिश्चियन एसोसिएशन’ (Y. M.C.A.), ‘विश्वविद्यालय स्त्री संघ’, ‘महिलाओं को राष्ट्रीय समिति’ आदि संगठनों का भी स्त्री की स्थिति को वर्तमान स्तर तक पहुंचाने में पर्याप्त योगदान है।

प्रश्न 15. भारतीय महिलाओं की दशा सुधारने के लिए कौन-कौन से अधिनियम पारित हुए हैं?

उत्तर-आजादी के बाद भारत में स्त्रियों की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए अनेक अधिनियम पारित हो चुके हैं। ये प्रमुख अधिनियम व उनमें दी गई मुख्य बातें निम्न प्रकार हैं:

(अ) हिन्दू विवाहित स्त्रियों के लिए पृथक् निवास व निर्वाह-व्यय अधिनियम, 1949 : इस अधिनियम के पूर्व भारतीय हिन्दू स्त्री को पतिव्रत धर्म के नाम पर अनेक अत्याचार सहने पड़ते थे, अपमानित जीवन व्यतीत करना पड़ता था। पति को बहु-पत्नी विवाह की छूट थी, जिससे उसे सौत के दुर्व्यवहार से कष्ट सहना पड़ता था। परंतु इस कानून के अंतर्गत स्त्री अपने पति से अलग रहकर कुछ अवस्थाओं में अपने गुजारे के लिए माँग कर सकती है।

(ब) हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 (Hindu Marriage Act, 1955): इस कानून द्वारा हिन्दू पुरुष-स्त्रियों के वैवाहिक तथा दांपत्य अधिकारों में पूरी समानता ला दी गई है; स्त्री और पुरुष के अधिकारों की विषमता को समाप्त कर दिया गया है। पति तब तक दूसरा विवाह नहीं कर सकता जब तक कि पहली पत्नी की मृत्यु न हो गई हो। इस कानून की सबसे महत्वपूर्ण व्यवस्था दूसरा विवाह (Bigamy) अथवा बहुविवाह (Polygamy को समाप्त कर एकल विवाह (Monogamy) के नियम की व्यवस्था है।

दूसरी व्यवस्था तलाक के अधिकारों की है। तलाक के लिए कुछ अवस्थाओं का निर्धारण कर दिया गया है।

(स) हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 (Hindu Succession Act, 1956): इस कानून द्वारा पुत्र-पुत्री के अधिकारों को समान माना गया है और उनके बीच को विषमता को नष्ट कर दिया गया है। पहले पुत्रियों को अपने पिता की संपत्ति से वंचित रखा जाता था परंतु अब पुत्री हो अथवा पुत्र, सभी का पैतृक संपत्ति में समान अधिकार है। पहले विधवाओं को अपनी संपत्ति पर सीमित अधिकार होता था, वह संपत्ति को अपनी इच्छा के अनुसार न तो बेच सकती थी और न ही गिरवी रख सकती थी और न ही दान दे सकती थी परंतु इस अधिनियम के द्वारा उसे अपनी संपत्ति का पूर्ण अधिकार मिल गया है।

(द) हिन्दू दत्तक पुत्र तथा निर्वाह-व्यय अधिनियम, 1956 (Hindu Adoption and Maintenance Act, 1956): गोद लेने की प्रथा प्राचीन है। इस प्रथा में पहले अनेक बुराइयाँ थीं, पति अपनी पत्नी की इच्छा के बिना ही गोद ले लिया करते थे, परंतु अब कानूनी दृष्टि में पत्नी की सहमति अनिवार्य है। अब पत्नी भी गोद ले सकती है। .

अविवाहित पुरुष या स्त्री अथवा विधवा स्त्री के द्वारा लिए जाने वाले गोद के संबंध में कुछ विशेष नियम बनाए गए हैं। ऐसे नियम उन व्यभिचारों को रोकने के लिए हैं जो किसी समय उत्पन्न हो सकते हैं। गोद लेने वाले पुरुष तथा गोद ली जाने वाली पुत्री में कम-से-कम 21 वर्ष का अंतर होना अनिवार्य है। इसी प्रकार यदि कोई विधवा स्त्री अथवा अविवाहित स्त्री किसी लड़के को गोद लेती है तो उनकी अवस्थाओं में कम-से-कम 21 वर्ष का अंतर होना आवश्यक है।

इस अधिनियम के अंतर्गत हिन्दू परिवार की परित्यक्ता पत्नी, विधाव स्त्री, बूढ़े, असमर्थ, असहाय एवं निराश्रित व्यक्तियों के भरण-पोषण की भी व्यवस्था की गई है।

(य) हिन्दू अल्पवयस्कता एवं अभिभावकता अधिनियम, 1956 (Hindu Minority and Guardianship Act, 1956)

इस अधिनियम के द्वारा नाबालिग बच्चों को सुरक्षा प्रदान की गई। इसके पूर्व अल्पवयस्क बच्चों की स्थिति बड़ी दयनीय थी।

अधिनियमों का प्रभाव (Effects of Acts):

उपर्युक्त अधिनियमों द्वारा हिन्दुओं के सामाजिक संगठन व स्त्रियों की स्थिति पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़े हैं जो निम्नलिखित हैं :

  1. स्त्रियों की स्थिति में सुधार (Improvement in the Status of Women): इन अधिनियमों द्वारा स्त्रियों को पुरुषों के समक्ष समानता के अधिकार प्राप्त हो गए हैं। स्त्रियाँ अब स्वतंत्र हैं, उन्हें अपनी स्वतंत्र राय प्रकट करने का अधिकार है। इन कानूनों के द्वारा असहाय, निराश्रित एवं विधवा स्त्रियों के लिए बहुत बड़ी सुरक्षा मिली है। उन्हें गोद लेने अथवा विधवा होने पर पुनर्विवाह करने तथा अत्याचार होने पर तलाक देने के अधिकार हैं। उन्हें अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए सभी अवसर प्राप्त हैं।
  2. पुरुष की प्रभुता की कमी (Decline of the Authority of Man): हिन्दू समाज में पुरुष सर्वशक्तिमान समझा जाता था और स्त्रियाँ दासी के समान थीं। अब इस सिद्धांत को समाप्त कर दिया गया तथा पति-पत्नी को समानता का अधिकार प्रदान किया गया है। वैसे तो व्यावहारिक क्षेत्र में ये कानूनी दृष्टिकोण अभी पूर्णतः नहीं अपनाए गए हैं। इसका एकमात्र प्रभाव शिक्षित वर्ग के लोगों में ही पाया जाता है।
  3. सामाजिक कुरीतियों में कमी (Decline of Social Evils): इन अधिनियमों द्वारा अनेक सामाजिक कुरीतियों का अंत हुआ है; उनमें से बालविवाह और बहुविवाह प्रमुख हैं। विवाह के लिए एक निश्चित आयु है, बालक के लिए 21 और बालिका के लिए यह 18 वर्ष है।
  4. परिवार के स्थायित्व पर प्रभाव (Effect on Family Stability): इन अधिनियमों द्वारा जहाँ एक ओर अनेक लाभ प्राप्त हुए हैं वहाँ दूसरी ओर हानियाँ भी पहुंच रही हैं। नारी को अधिकार मिलने के कारण परिवार अस्थायी होते जा रहे हैं और परिवार का परंपरात्मक स्वरूप समाप्त होता जा रहा है। विवाह-विच्छेद और पृथक्करण के अधिकार ने काफी सीमा तक पारिवारिक अस्तित्व को हिला दिया है। संयुक्त परिवार भी नवीन परिस्थितियों में टूट रहे है। लड़के-लड़कियों के समान अधिकार होने के कारण पारिवारिक सदस्यों में आपसीपन या हम की भावना’ समाप्त होती जा रही है और पारिवारिक संपत्ति को बनाए रखना कठिन होता जा रहा है।

प्रश्न 16. भारतीय महिलाओं में समानतां (Equality) की इच्छा उत्पन्न के क्या कारण हैं?

उत्तर-वर्तमान समय में भारतीय महिलाओं की स्थितियों में हुए परिवर्तन/समानता की चाह (Causes of Present Changes in Status of Women/Quest for Equality)

वर्तमान भारत में जो समानता आई है, उनकी स्थिति में जो परिवर्तन आए हैं और भारतीय महिलाओं में समानता की जो इच्छा उत्पन्न हुई है उसके प्रमुख कारण हैं :

  1. शिक्षा (Education) : शिक्षा का महिलाओं की प्रगति में सबसे बड़ा हाथ है। इससे वे ज्ञान-विज्ञान के सभी क्षेत्रों में योग्यता प्राप्त करके आगे बढ़ी हैं। उनमें समानता और स्वतंत्रता के आदर्श विकसित हुए हैं। के. एम. कपाड़िया लिखते हैं, “स्त्रियों की उच्च शिक्षा ने हिंदू विवाह और परिवारों के आदर्शों तथा रिवाजों को गंभीर रूप से प्रभावित किया है।” जिन स्त्रियों को मानसिक रूप से पुरुषों से निम्न कहा जाता था, वे आज प्रत्येक क्षेत्र में पुरुषों से आगे बढ़ रही हैं।
  2. पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव (Influence of Western Civilization): पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण भारतीय नारी में एक नई जागृति की लहर उत्पन्न हो गई, परिणामस्वरूप स्त्रियों ने अन्यायपूर्ण समाजिक कुरीतियों, दमन-नीति आदि का पूर्ण रूप से विरोध किया। उनकी धर्मभीरुता समाप्तप्राय हो गई और उन्होंने एक व्यक्ति के रूप में बुद्धिपूर्वक अपने भूत, वर्तमान और भविष्य के विषय में सोचा। उनमें हिंदू-समाज की रूढ़ियों, रीति-रिवाजों और परंपराओं के विरुद्ध विद्रोह उत्पन्न हुआ।
  3. समाज-सुधार आंदोलन (Social Reform Movement): स्त्रियों की इस जागृति में ईश्वरचंद्र विद्यासागर, हरविलास शारदा, स्वामी दयानंद, राजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन, एनी बेसेंट आदि समाज-सुधारकों के प्रयत्नों का बड़ा हाथ है। समाज-सुधारकों के प्रयलों से विधवा-विवाह निषेध, बाल-विवाह, सती प्रथा आदि का उन्मूलन हो सका और समाज में स्त्रियों के अधिकारों के प्रति पर्याप्त जागृति उत्पन्न हुई।
  4. औद्योगीकरण (Industrialization): औद्योगीकरण के साथ-साथ भारत में स्त्रियाँ भी पुरुषों के समान घर से बाहर जाकर नौकरी करने लगीं जिसके कारण उनकी पुरुषों पर आर्थिक निर्भरता कम हुई, अंतर्जातीय और प्रेम-विवाहों को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ, पर्दा-प्रथा का अंत हुआ, साथ ही पुरुषों का स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण भी पर्याप्त रूप से बदला और बदल रहा है।
  5. प्रेस, यातायात व संचार के साधनों का विकास (Development of Press and Means of Transport and Communication) : वर्तमान में ‘प्रेस’ ने काफी उन्नति की है. जिसके कारण अनेक प्रकार की पुस्तकें, पत्रिकाओं, समाचार-पत्रों आदि का भारतीय स्तर पर प्रकाशन और वितरण होता है। इन साधनों ने देश-विदेश की महिलाओं को एक-दूसरे के निकट ला दिया है, जिसके फलस्वरूप नारी आंदोलन, नारी समस्या के प्रति स्वस्थ जनमत तथा उनके विचारों को दूर-दूर तक प्रसार करने में जो सहायता प्राप्त हुई है वह भारतीय नारी की वर्तमान प्रगतिशील स्थिति का एक महत्वपूर्ण अध्याय है।
  6. राजनीतिक आंदोलन (Political Movement): भारत के राजनीतिक आंदोलन में महिलाओं का स्थार कम महत्वपूर्ण नहीं है। महिलाओं ने पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर

काम किया जिसके कारण उनका दृष्टिकोण परिवर्तित हुआ और समाज में उनका सम्मान बढ़ा। स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात् तो इस दिशा में विशेष ध्यान दिया गया। भारत सरकार ने अनेक सामाजिक अधिनियम पारित करके हिन्दू नारी को जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के समान सुविधाएँ व अधिकार प्रदान कराए हैं।

  1. अंतर्जातीय विवाह (Intercaste Marriage): वर्तमान समाज में प्रेम-विवाह को बढ़ावा दिया जा रहा है। इन प्रेम-विवाहों में जाति-पाति का कोई बंधन नहीं होता और न ही दहेज का कोई विचार रहता है, जिसके फलस्वरूप लड़कियों को परिवार का बोझ समझने की हीन भावना का धीरे-धीरे अंत होता है। अंतर्जातीय विवाह के कारण पति-पत्नी में सहयोग, सद्भाव, सम्मान व समानता की भावनाएँ विकसित हुई हैं और पुरुष स्त्री को ‘दासी’ न समझकर साथी के रूप में देखने लगता है। इस प्रकार अंतर्जातीय विवाहों ने व्यावहारिक तौर पर महिलाओं को सम्मान दिलाने में सहायता की है।
  2. संयुक्त परिवार का विघटन (Disintegration of Joint Family): संयुक्त परिवार सामाजिक परंपराओं पर आधारित परिवार है, जहाँ का वातावरण विभिन्न अंधविश्वासों व रूढ़िवादी विचारों से ग्रस्त होता है और वहाँ वरिष्ठ सदस्य का नियंत्रण नवीन व प्रगतिशील विचारों को नहीं पनपने देता, लेकिन संयुक्त परिवारों के विघटन से महिलाएं नवीनता के वातावरण में साँस ले सकती हैं और अपने स्वतंत्र उत्तरदायित्व को स्वयं समझते हुए प्रगति के मार्ग पर चल सकती हैं। इस प्रकार संयुक्त परिवारों का विघटन महिला जागृति की दिशा में एक अच्छा कदम है।
  3. कानूनी सुविधाएँ (Legal Facilities): महिलाओं की दशा सुधारने में कानून ने भी बहुत सहायता की है। हिन्दू विधवा-पुनर्विवाह अधिनियम, 1856%; बाल विवाह निरोधक अधिनियम, 1929; विशेष विवाह अधिनियम, 1954; हिन्दू विवाह तथा विवाह-विच्छेद अधिनियम, 1955%8 हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956; दहेज-निरोधक अधिनियम, 1961 आदि ने महिलाओं की दशा सुधारने में पर्याप्त सहयोग दिया है। इसके अतिरिक्त भारत सरकार ने सन् 1971 में ‘गर्भपात’ को कानूनी मान्यता प्रदान करके महिलाओं की दशा को सुधारने की दिशा में एक और महत्वपूर्ण कदम उठाया है।
  4. सरकारी प्रयास (Govt. Efforts): भारत में महिलाओं की दशा को सुधारने में सरकारी प्रयासों का भी योगदान रहा है। सरकारी दावा यह है कि भारतीय महिलाओं का . विकास-कार्यक्रम स्वतंत्रता प्राप्ति के समय से सरकार के विकास की योजनाओं का केन्द्र रहा है जिससे महिलाओं क सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर को पुरुषों के समान ऊपर उठाकर उन्हें राष्ट्रीय विकास की मुख्य धारा से जोड़ा जाए।

सन् 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में महिलाओं की संख्या 49.87 करोड़ है जो देश की कुल जनसंख्या का 48.2 प्रतिशत है। शासन ने महिला विकास एवं उत्थान के लिए अनेक कार्यक्रम चला रखे हैं। स्वालंबन कार्यक्रम जिसे पूर्व में नोराड/महिला आर्थिक कार्यक्रम के नाम से जाना जाता था, 1982-83 में समूचे देश में प्रारंभ किया गया। इस कार्यक्रम का उद्देश्य महिलाओं को परंपरागत और गैर-परंपरागत धंधों का प्रशिक्षण और कौशल उपलब्ध कराकर उन्हें टिकाऊ आधार पर रोजगार या स्वरोजगार प्रदान करना है। स्वयंसिद्धा महिलाओं के विकास और सशक्तिकरण की समन्वित योजना है। स्वशक्ति नामक ग्रामीण महिलाओं के विकास के केन्द्र प्रायोजित। परियोजना विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय कृषि विकास कोष के सहयोग से संचालित की जाती है। स्वाधार नामक एक अन्य योजना कठिन परिस्थितियों में पड़ने वाली महिलाओं के लाभ के लिए वर्ष 2001-2002 में शुरू की है। इस योजना के अंतर्गत उपलब्ध कराई जाने वाली सेवाओं में भोजन, कपड़ा, आवास, स्वास्थ्य व देखभाल, परामर्श व्यवस्था शामिल हैं।

प्रश्न 17. ‘अन्यथा सक्षम व्यक्तियों तथा उनके संघर्ष’ के विषय में आप क्या जानते हैं ? संक्षेप में लिखिए।

उत्तर-अन्यथा सक्षम (Differently abled): लोग केवल इसलिए ‘अक्षम’ होते हैं कि वे शारीरिक अथवा मानसिक रूप से बाधित’ होते हैं, लेकिन इसलिए भी अक्षम होते हैं कि समाज कुछ इस रीति से बना है कि वह उनकी आवश्यकताओं को पूरा नहीं करता। दलित आदिवासी या स्त्रियों के अधिकारों के लिए हो रहे संघर्षों को तो काफी समय पूर्व मान्यता मिल चुकी थी मगर अन्यथा सक्षम व्यक्तियों के अधिकारों को अभी हाल में ही मान्यता प्राप्त हुई है। फिर भी सभी ऐतिहासिक कालों में, सभी समाजों में ऐसे लोग अवश्य रहे हैं जिन्हें अन्यथा सक्षम कहा जा सकता है। भारतीय संदर्भ में निर्योग्यता एवं विकलांगता आंदोलन के अग्रणी सक्रियतावादियों और विद्वानों में से एक हैं-अनिता घई। उनका मत है कि विकलांग लोगों की इस अदृश्य स्थिति की तुलना राल्फ एलिसन के इनविजिबल मेन की स्थिति से की जा सकती है। एलिसन का ‘इनविजिबल मेन’ नाम का उपन्यास संयुक्त राज्य अमेरिका में रहने वाले अफ्रीकी अमेरिकयों के विरुद्ध प्रजातिवाद (नस्लवाद) का एक खुला अभियोग-पत्र है।

“मैं एक अदृश्य व्यक्ति हूँ, समझे, केवल इसलिए कि लोग मुझे देखना ही नहीं चाहते। आप सर्कस के तमाशों में कभी-कभी धड़हीन सिर देखा करते हैं मेरी स्थिति भी लगभग वैसी ही है। ऐसा लगता है मानो मैं कड़े विद्रूपकारी दर्पणों से घिरा हूँ। जब लोग मेरे पास आते हैं तो मेरा परिवेश ही देखते हैं जो उनकी अपनी कल्पनाओं से बना है। दरअसल, वे मुझे छोड़कर बाकी सब कुछ देख सकते हैं।

‘अन्यथा सक्षम’ शब्द विशेष रूप से अर्थगर्भित है क्योंकि यह इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाता है कि आम लोग ‘अक्षम’ शब्द का जो भाव समझते हैं उस पर प्रश्नचिन्ह लगाया जा सकता है।

विश्व भर में निर्योग्यता/अक्षमता का जो तात्पर्य समझा जाता है उसके कुछ आम लक्षण नीचे दिए गए हैं :

  1. निर्योग्यता/अक्षमता को एक जैविक कमजोरी माना जाता है।
  2. जब कभी किसी अक्षम व्यक्ति के समक्ष कोई समस्याएँ खड़ी होती हैं तो यह मान लिया जाता है कि ये समस्याएँ उसकी बाधा या कमजोरी के कारण ही रत्पन्न हुई हैं।
  3. अक्षम व्यक्ति को हमेशा शिकार यानी पीड़ित व्यक्ति क रूप में देखा जाता है।
  4. यह माना जाता है कि निर्योग्यता उस निर्योग्य व्यक्ति को अपने प्रत्यक्ष ज्ञान से जुड़ी है।
  5. निर्योग्यता का मूल भाव ही यह दर्शा देता है कि निर्योग्य व्यक्तियों को सहायता की आवश्यकता है।

भारत में निर्योग्य, बाधित, अक्षम, अपंग, ‘अंधा’ और ‘बहरा’ जैसे विशेषणों का प्रयोग लगभग एक ही भाव को दर्शाने के लिए किया जाता है। अक्सर किसी व्यक्ति का अपमान करने के लिए उस पर इन शब्दों की बौछार कर दी जाती है। एक ऐसी संस्कृति में जहाँ शारीरिक ‘पूर्णता’ का आदर किया जाता हो, ‘पूर्ण शरीर’ न होने का अर्थ है कि उसमें कोई असामान्यता, दोष या खराबी है। ‘बेचारा’ जैसे विशेषणों से संबोधित करने पर तो उसकी पीड़ित परिस्थिति और भी विकट हो जाती है। ऐसी सोच का मूल कारण उस सांस्कृतिक संकल्पना में निहित है जो असमर्थ या दोषपूर्ण शरीर को दुर्भाग्य का परिणाम मानती है। नियति (भाग्य) को दोषी और निर्योग्य व्यक्ति को उसका शिकार माना जाता है। आम धारणा यह है कि विकलांगता पुराने कर्मों का फल है और उससे छुटकारा नहीं पाया जा सकता। इस प्रकार भारत में प्रचलित प्रमुख सांस्कृतिक विचारधारा एवं संरचना विकलांगता को आवश्यक रूप से व्यक्ति की विशेष स्थिति मानती है जिसे उस व्यक्ति को भुगतना पड़ता है। पौराणिक कथाओं में विकलांग लोगों की जो छवि चित्रित की गई वह अत्यंत नकारात्मक है।

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