प्रेम अयनि श्री राधिका
प्रेम-अयनि श्री राधिका, करील के कुंजन ऊपर वारौं ।
प्रेम अयनि श्री राधिका
class – 10
subject – hindi
lesson – 2
प्रेम-अयनि श्री राधिका,
करील के कुंजन ऊपर वारौं ।
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– रसखान
कविता का सारांश
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‘प्रेम-अयनि श्री राधिका’ में कृष्ण और राधा के प्रेममय रूप पर मुग्ध रसखान कहते हैं कि राधा प्रेम का खजाना है और श्रीकृष्ण अर्थात् नंदलाल साक्षात् प्रेम-स्वरूप । ये दोनों ही
प्रेम-वाटिका के माली और मालिन है जिनसे प्रेम-वाटिका खिली-खिली है। मोहन की छवि ऐसी है कि उसे देखकर कवि की दशा धनुष से छूटे तीर के तरह हो गई है। जैसे धनुष से छूटा हुआ तीर वापस नहीं होता, वैसे ही कवि का मन एक बार कृष्ण की ओर जाकर पुनः अन्यत्र नहीं
जाता। कवि का मन माणिक, चित्रचोर श्रीकृष्ण चुरा कर ले गए। अब बिना मन के वह फंदे में फंस गया है। वस्तुत: जिस दिन से प्रिय नन्द किशोर की छवि देख ली है, यह चोर मन बराबर उनकी ओर ही लगा हुआ
‘करील के कुंजन ऊपर वारौं’ सबैया में कवि रसखान की श्रीकृष्ण पर मुग्धता और उनकी एक-एक वस्तु पर ब्रजभूमि पर अपना सर्वस्व क्या तीनों लोक न्योछावर करने की भावमयी उत्कंठा एवं उद्विग्नता के दर्शन होते हैं। रसखान कहते हैं-श्रीकृष्ण जिस लकुटी से गाय चराने जाते हैं और
जो कम्बल ले जाते हैं, अगर मुझे मिल जाए तो मैं तीनों लोक का राज्य छोड़कर उन्हें ही लेकर रम जाऊँ। अगर ये हासिल न हों, केवल नंद बाबा की गौएँ ही चराने को मिल जाएँ तो आठों सिद्धियों और नौ निधियाँ छोड़ दूँ। कवि को श्रीकृष्ण और उनकी त्यागी वस्तुएँ ही प्यारी नहीं हैं वे उनकी क्रीडाभूमि व्रज पर भी मुग्ध है। कहते हैं और-“तो और संयोगवश मुझे ब्रज के जंगल और बाग और वहाँ के घाट, तथा करील के कुंज जहाँ वे लोला करते थे, उनके ही दर्शन
हो जाएँ तो सैकड़ों इन्द्रलोक उन पर न्योछावर कर दूं।”
रसखान की यह अन्यतम समर्पण-भावना और विदग्धता भक्ति-काव्य की अमूल्य निधियों में है।
सरलार्थ
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हिंदी साहित्य में कुछ ऐसे मुस्लिम कवि हुए हैं जिन्होंने हिंदी के उत्थान में अपूर्व योगदान दिये हैं और उन कवियों में रसखान का नाम भी आदर के साथ लिया जाता है। रसखान सवैया, छंद के प्रसिद्ध कवि थे। जितने सरस, सहज, प्रवाहमय सवैये रसखान के हैं, उतने शायद ही किसी अन्य हिन्दी कवि के हों। इनके सवैयों की मार्मिकता का आधार दृश्यों और बाह्यांतर स्थितियों की योजना में है। रसखान ने सूफियों का हृदय लेकर कृष्ण की लीला पर काव्य रचना की है। उनमें उल्लास, मादकता और उत्कटता का मणिकांचन संयोग है
प्रस्तुत दोहे और सवैया में कवि ने कृष्ण के प्रति अटूट निष्ठा को व्यक्त किया है। राधा-कृष्ण के प्रेममय युगलरूप पर कवि के रसिक हृदय की भावना व्यक्त होती है। पहले पद में कवि ने प्रेमरूपी वाटिका में प्रेमी और प्रेमिका का मिलन और उसके अंतर्मन में उठनेवाले भावों को सजीवा चित्रण किया है। माली और मालिन का रूपक देकर कृष्ण एवं राधा के मिलाप को तारतम्य बना दिया है। प्रेम का खजाना संजोने वाली राधा श्रीकृष्ण के रूपों पर वशीभूत है। एक बार मोहन का रूप देखने के बाद अन्य रूप की आसक्ति नहीं होती है। प्रेमिका चाहकर भी प्रेमी से अलग नहीं हो सकती है।
दूसरे पद में कवि श्रीकृष्ण के सान्निध्य में रहने के लिए सांसारिक वैभव की बात कौन कहे तीनों लोकों के सुख को त्याग देना चाहता है। ब्रज के कण-कण में श्रीकृष्ण का वास है । अतः, वह ब्रज पर सर्वस्व अर्पण कर देना चाहता है । ।
पद्यांश पर आधारित अर्थ ग्रहण-संबंधी प्रश्न
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1.प्रेम-अयनि श्री राधिका, प्रेम-बरन नँद नंद।
प्रेस-बाटिका के दोऊ, माली-मालिन-द्वन्द्व।।
(i) उपर्युक्त पद्यांश के रचनाकार कौन हैं ?
उत्तर-रसखान ।
(ii) प्रस्तुत पंक्तियाँ किस कविता से उद्धृत हैं ?
उत्तर-प्रेम-अयनि श्री राधिका ।
(iii) कवि ने राधिका को क्या कहा है?
उत्तर-कवि ने राधिका को प्रेम का मार्ग या पंथ कहा है।
(iv) कवि ने राधा-कृष्ण को प्रेम-वाटिका का क्या कहा है?
उत्तर-कवि ने राधा-कृष्ण को प्रेम वाटिका का माली और मालिन कहा है।
(v) प्रस्तुत कविता का भावार्थ लिखें।
उत्तर-प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी, पाठ्यपुस्तक के प्रेम-अयनि श्री राधिका काव्य-पाठ से ली गयी हैं। इन पंक्तियों का प्रसंग राधा-कृष्ण के प्रेम-प्रसंग से संबंधित है। कवि कहता है कि राधिकाजी प्रेमरूपी मार्ग हैं और श्रीकृष्णजी यानी नंद बाबा के नंद प्रेम रंग के प्रतिरूप हैं। दोनों की महिमा अपार है। कृष्ण प्रेम के प्रतीक हैं तो राधा उसका आधार हैं। प्रेमरूपी वाटिका के दोनों माली और मालिन है। दोनों की अपनी-अपनी विशेषता है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। एक-दूसरे के अभाव में पूर्णता नहीं हो सकती। प्रेम का साकार या पूर्ण रूप राधा-कृष्ण की जोड़ी है।
2. मोहन छबि रसखानि लखि अब दृग अपने नाहिं।
अँचे आवत धनुस से छूटे सर से जाहिं।।
(i) उपर्युक्त पद्यांश के रचनाकार कौन हैं ?
उत्तर-रसखान ।
(ii) प्रस्तुत पंक्तियाँ किस कविता से उद्धृत हैं ?
उत्तर-प्रेम-अयनि श्री राधिका ।
(iiii) रसखान मोहन की रूप-छवि के बारे में क्या कहते हैं?
उत्तर-रसखान कवि कहते हैं कि कृष्ण की, मोहन की रूप-छवि मन को वश में करनेवाली है। एक बार अगर आँखें उन्हें देख लेती हैं तो अपने वश में नहीं रहतीं। इन पंक्तियों में के प्रति अगाध प्रेम-भक्ति को दर्शाया गया है।
(iv) कृष्ण का कैसा रंग है? वे किसके दुलारे हैं?
उत्तर-कृष्ण का रूप या रंग प्रेम से ओत-प्रोत है। वे नंद के नंद हैं, यानी नंद के नंदलाल हैं। उनकी रूप-छबि इतनी आकर्षक है कि आँखें अगर एकबार देख लेती हैं तो उनके वश में हो जाती है। दूसरे काम में मन नहीं लगता, कृष्ण का प्रेम रंग इन्द्रधनुषी है।
(v) प्रस्तुत कविता का भावार्थ लिखें।
उत्तर-प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्य-पुस्तक के “प्रेम-अयनि श्री राधिका” काव्य-पाठ से ली गयी हैं। इस कविता का प्रसंग कृष्ण की छवि और रसखान की भक्ति से जुड़ा हुआ है। कवि रसखान कहते हैं कि कृष्ण की मनोहारी छबि को निरख कर, देखकर आँखें वश में नहीं हैं।
जैसे धनुष के खिंचते ही तीर सिर के ऊपर से गुजर जाता है और वह तीर वश में नहीं रहता ठीक उसी प्रकार कृष्ण की छबि निहारकर अँखिया अब वश में नहीं रहतीं। कृष्ण के
रूप-सौंदर्य में आँखें ऐसी खो गयी हैं कि सुध-बुध का ख्याल ही नहीं रहता। इसमें कृष्ण के प्रति रसखान की अगाध प्रेम-भक्ति और आस्था का ज्ञान प्राप्त होता है।
3. मो मन मानिक लै गयो चितै चोर नंदनंद।
अब बेमन मैं का करूँ परी फेर के फंद।।
(i) उपर्युक्त पद्यांश के रचनाकार कौन हैं ?
उत्तर-रसखान ।
(ii) प्रस्तुत पंक्तियाँ किस कविता से उद्धृत हैं ?
उत्तर-प्रेम-अयनि श्री राधिका ।
(iii) रसखान अपने मन के बारे में क्या कहते हैं?
उत्तर-महाकवि रसखान कहते हैं कि मेरे मनरूपी माणिक को कृष्ण ने लिया है। यानि अपने वश में कर लिया है। यहाँ कृष्ण भक्ति में एकात्म होने का गूढ़ भाव छिपा है।
(iv) रसखान किसके फेरे के फंदे में फंस गए हैं?
उत्तर-रसखान कहते हैं कि अब बिना मन का, अवश मन का होकर मैं क्या करूँ? मैं तो कृष्ण के प्रेम के फेरे के फंदे में बुरी तरह फंस गया हूँ। अब मैं लाचार हो गया हूँ। कृष्ण
की भक्ति से छुटकारा पाना मुश्किल है।
(v) प्रस्तुत कविता का भावार्थ लिखें।
उत्तर-प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘प्रेम-अयनि श्री राधिका’ काव्य-पाठ से ली गयी है। इस कविता का प्रसंग श्रीकृष्ण की चित्तचोर छबि से है। रसखान कृष्ण के रूप का वर्णन करते हुए कहते हैं कि मेरे मन के माणिक्य को, धन को, नंदबाबा के लाल कृष्ण ने चुरा लिया है। वे चित्त को वश में करनेवाले यानी चुरानेवाले हैं। अब मेरा मन तो उनके वश में हो गया है। मुझे कुछ भी नहीं सूझता कि अब क्या करूँ। मैं कृष्ण के फेरे के फंदे में, फंसकर लाचार हो गया हूँ। मेरा वश अवश हो गया है।
इन पंक्तियों में कृष्ण भक्ति की प्रगाढ़ता, तन्मयता, एकात्मकता एवं गहरी आस्था का सम्यक् चित्रण हुआ है।
4. प्रीतम नन्दकिशोर जा दिन तें नैननि लग्यौ।
मन पावन चित्तचोर, पलक ओट नहिं करि सकौं।
(i) उपर्युक्त पद्यांश के रचनाकार कौन हैं ?
उत्तर-रसखान ।
(ii) प्रस्तुत पंक्तियाँ किस कविता से उद्धृत हैं ?
उत्तर-प्रेम-अयनि श्री राधिका ।
(iii) रसखान ने प्रीतम किसको कहा है?
उत्तर-रसखान ने नंदकिशोर यानी श्रीकृष्ण को प्रीतम कहा है।
(iv) किसके लिए पलक की ओट करने में रसखान ने अपनी असमर्थता प्रकट की है?
उत्तर-रसखान श्रीकृष्ण की छबि देखने में इतना मगन है कि पलकें झुकती ही नहीं। पलकों की ओट करने में रसखान स्वयं को असमर्थ पाते हैं। अपलक आँखें कृष्ण-छबि को निरखते अघाती नहीं।
(v) प्रस्तुत कविता का भावार्थ लिखें।
उत्तर-प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के “प्रेम-अयनि श्री राधिका” काव्य-पाठ से ली गयी हैं।
इस कविता का प्रसंग श्रीकृष्ण के पवित्र-प्रेम के प्रति गहरी आस्था से है। कवि रसखान कहते हैं कि परम प्रिय नंदकिशोर से जिस दिन से आँखें लड़ी हैं या लगी हैं। उनके पवित्र मन ने चित्त को चुरा लिया है। उनकी छवि को पलकों की ओट से दूर नहीं किया जा सकता। कहने को भाव यह है कि कृष्ण के प्रति रसखान की गहरी आस्था है, विश्वास है,
भरोसा है, प्रेम की भूख है। जबसे आँखों ने नंदकिशोर का दर्शन किया है तबसे मन का चैन छिन गया है। आँखें अपलक उनके दर्शन के लिए लालायित रहती है। इन पंक्तियों में कृष्ण के प्रति गहरी प्रेम-भक्ति को दर्शाया गया है।
करील के कुंजन……
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5. या लकुटी अरू कामरिया पर राज तिहूँ पुर की तजि डारौं।
आठहूँ सिद्धि नवोनिधि को सुख नन्द की गाइ चराइ बिसारौं।
(i) उपर्युक्त पद्यांश के रचनाकार कौन ?
उत्तर-रसखान ।
(ii) प्रस्तुत पंक्तियाँ किस कविता से उद्धृत हैं ?
उत्तर-करील के कुंजन ऊपर वारौं ।
(iii) रसखान किसे, ‘राज तिहुँ पुर की तजि डारौं’ कहते हैं?
उत्तर-रसखान कृष्ण भक्ति के अनन्य कवि हैं। उन्होंने कृष्ण की मोहक छबि की चर्चा अपनी कविताओं में किया है। कवि कहता है कि कितना अचरज है तीनों लोकों का मालिक आज नंद के घर चरवाहा बना हुआ है। लोकोत्तर ब्रह्म होकर भी मानव के रूप में अपने अस्तित्व को
उसने भुला दिया है। वह लकुटी और कंबल लेकर ही प्रसन्न और सुखी है। उसे तीनों लोकों का राज नहीं चाहिए। यहाँ कृष्ण की सहज, सरल लोक छबि का सफल वर्णन है जिसमें आंनद ही आनंद है।
(iv) आठ सिद्धियाँ और नव निधियाँ क्या करती हैं?
उत्तर-आठ सिद्धियाँ और नव निधियाँ श्रीकृष्ण की सुख-सुविधा के लिए सदैव तत्पर रहती हैं लेकिन कृष्ण उसे तजकर नंद की गौओं को चराने में ही परम-आनंद को प्राप्त करते हैं। इन पंक्तियों में कृष्ण की लोक छबि की महत्ता को दर्शाया गया है।
(v) प्रस्तुत कविता का भावार्थ लिखें ।
उत्तर-प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के “करील के कुंजन ऊपर वारौं” काव्य-पाठ से ली गयी है। इस कविता का प्रसंग श्रीकृष्ण के विराट व्यक्तित्व के साथ नंद लाला (बाल कृष्ण) की मोहक मनोहारी छबि के तुलनात्मक विवेचन से है।रसखान कवि कहते हैं कि जो स्वयं तीनों लोकों का मालिक है, वह उसे त्यागकर एक छोटी-सी लकुटी और कंबल लेकर चरवाहा बना हुआ है जिसकी सुख-सुविधा के लिए आठों सिद्धियाँ और नव निधियाँ सदैव तत्पर रहती हैं, वह वैसे सुख का त्यागकर नंद की गायों को
चराने में भूला हुआ है। यहाँ कृष्ण की लोक छबि की तुलना विराट लोकोत्तर छवि से की गयी है। कृष्ण स्वयं में- सृष्टि के सर्जक हैं, वे स्वयं सृष्टिकर्ता हैं। कितना अद्भुत है यह प्रसंग। कृष्ण अपने विराट व्यक्तित्व को भुलाकर सरल, सहज और मनमोहक छवि के साथ लोक-लीला में रमे हुए हैं। वे लोकोत्तर सुख-सुविधाओं को तजकर लोक-जगत के बीच सहज भाव से बाल-लीलाएँ कर रहें हैं। सारा संसार जिनके सहारे है वही व्यक्ति साधारण रूप में नंद के घर रहता है, उसकी गाएँ चराता है,
रासलीला किया करता है। स्वयं को उसने इतना भुला दिया है कि उसके अपने विराट व्यक्तित्व का आभास ही नही होता। यहाँ कृष्ण के लोक-कल्याणकारी मानवीय रूप का
सफल चित्रण हुआ है जिसमें गूढार्थ भी है, रहस्य भी है, साथ ही सहजता और सरलता भी है। यह कृष्ण के चरित्र की विशेषता है।
6. रसखानि कबौं इन आँखिन सौं ब्रज के वनबाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक रौ कलधौत के धाम करील के कुंजन ऊपर वारौं।।
(i) उपर्युक्त पद्यांश के रचनाकार कौन हैं ?
उत्तर-रसखान ।
(ii) प्रस्तुत पंक्तियाँ किस कविता से उद्धृत हैं ?
उत्तर-करील के कुंजन ऊपर वारौं ।
(iii) ब्रजभूमि के प्रति रसखान की क्या धारणा है?
उत्तर-ब्रजभूमि के प्रति रसखान की अगाध श्रद्धा है। अमूल्य भक्ति-भाव है, प्रेम-रस के साथ पवित्र प्रेम-भाव भी है। ब्रज के वन, बाग, तालाब सब कुछ दर्शनीय हैं, वंदनीय हैं। ये श्रेष्ठ तीर्थ से तनिक भी कम महत्त्व के नहीं हैं। रसखान के मन में विकलता है, बेचैनी है, व्यग्रता है-कब इन आँखों से परम पावन धरती ब्रजभूमि के बनों, बागों, तालाबों के दर्शन हों। इस प्रकार ब्रजभूमि की महिमा में राधा-कृष्ण के प्रेमात्सर्ग का बहुत बड़ा योगदान है। ब्रजभूमि लीलाधाम है, रासलीला की पवित्र धरती है। यह राधाकृष्ण का परम पावन लीलाधाम है।
(iv) ब्रजभूमि की तुलना कवि किससे कर रहा है?
उत्तर-ब्रजभूमि की महत्ता का वर्णन कवि ने बड़े ही पवित्र मन से किया है। कवि कहता है कि कोटि-कोटि स्वर्ण, रजत से निर्मित धामों से भी बढ़कर ब्रजभूमि है। यह कृष्ण-राधा की क्रीड़ा-स्थली, लीलाभूमि, लीलाधाम है। गह भूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। कण-कण में राधाकृष्ण की प्रतिछबि और नाम परिव्याप्त है।
(v) प्रस्तुत कविता का भावार्थ लिखें।
उत्तर-प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘करील के कुंजन ऊपर वारौं, काव्य पाठ से ली गयी है। इन काव्य पंक्तियों का प्रसंग ब्रजभूमि की महिमा से जुड़ा हुआ है।
कवि ब्रजभूमि की महिमा का गुणगान करते हुए काव्य-रचना करता है। कवि कहता है कि रसखान नामक कवि यानी स्वयं कब अपनी आँखियों से ब्रजभूमि का दर्शन करेगा और स्वयं को धन्य-धन्य समझेगा। रसखान के मन के भीतर एक व्यग्रता है, आकुलता है, बेचैनी है, तड़प
है, ब्रजभूमि के सौंदर्य को देखने की, परखने की, उस भूमि के बागों, वनों, तालाबों के दर्शन करने की।
इस प्रकार महाकवि रसखान ब्रजभूमि को राधा-कृष्ण मय मानते हुए उसके प्रति अगाध आस्था और श्रद्धा रखते हैं। साथ ही उसकी पवित्रता, श्रेष्ठता एवं सौंदर्य के प्रति एक निर्मल भाव भी रखते हैं। करोड़ों-करोड़ इन्द्र के धाम उस ब्रजभूमि के काँटों के बगीचों पर न्योछावर हैं।
ब्रजभूमि राधा-कृष्ण की लीलास्थली है, क्रीड़ा क्षेत्र है, परमधाम है, सिद्ध लीलाधाम है।
बोध और अभ्यास
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कविता के साथ :-
प्रश्न 1. कवि ने माली-मालिन किन्हें और क्यों कहा है ?
उत्तर-कवि ने माली-मालिन श्रीकृष्ण और राधा को कहा है क्योंकि प्रेमरूपी वाटिका के ये दोनों माली और मालिन हैं । माली वाटिका को सुन्दर बनाए रखने के लिए अपने जीवन की अमूल्य निधि को समर्पित कर देता है । तन-मन सर्वस्व अर्पण करनेवाला वाटिका को ही अमर प्रेमिका मानता है। कृष्ण अपनी वाटिका अर्थात् राधा को सर्वस्व अर्पण कर देते हैं।
प्रश्न 2. द्वितीय दोहे का काव्य-सौंदर्य स्पष्ट करें।
उत्तर-द्वितीय दोहे में कवि ने मादकता का अपूर्व विश्लेषण किया है । कृष्ण की सुंदरता अनायास आकर्षित कर लेती है । उसकी अनुपम सुंदरता देखने के उपरान्त आँखें अपनी नहीं रह जाती हैं अर्थात् अपने वश से बाहर हो जाती हैं।
धनुष से निकलने वाला बाण अनायास लक्ष्य
भेद में समर्थ हो जाता है । वस्तुतः यहाँ कवि की रसिक दृष्टि अनायास सुंदरता को वेधने में पूर्णरूप से फलीभूत हो जाती है। कवि के दोहे में मादकता, उल्लास और उत्कटता तीनों का अपूर्व संयोग है।
प्रश्न 3. कृष्ण को चोर क्यों कहा गया है ? कवि का अभिप्राय स्पष्ट करें।
उत्तर-कृष्ण की मदमाती आँखें बरबस सभी को आह्लादित कर देती हैं। राधिका एवं अन्य गोप बालाएँ कृष्ण के प्रेम रस के वशीभूत हो जाती हैं। वे उससे अलग रहना चाहती हैं। फिर भी; वे अलग नहीं रह पाती हैं । वस्तुतः चित्तचोर का अभिप्राय हृदय को चुरानेवाले से है । श्रीकृष्ण के सम्पर्क में आनेवाली गोप बालाएँ लोक मर्यादाओं को तोड़ देती हैं। गोप बालाएँ श्रीकृष्ण से सावधान रहते हुए भी असावधान हो जाती हैं। अपनी मन की जिज्ञासा को प्रकट करने के लिए वे कुछ कहना चाहती हैं।
प्रश्न 4. सवैये में कवि की कैसी आकांक्षा प्रकट होती है ? भावार्थ बताते हुए स्पष्ट करें।
उत्तर-प्रस्तुत सवैये में कवि ने श्रीकृष्ण के सान्निध्य में रहने के लिए सर्वस्व न्योछावर कर दिया है। कवि की श्रीकृष्ण के प्रति अटूट आस्था ही उसे पारलौकिक भक्ति-भावना, सांसारिक सुविधा से दूर रखना चाहती है । वह आठों सिद्धि, नौ निधि, तीनों लोक आदि सभी को छोड़कर
श्रीकृष्ण के चरण रज में आश्रय पाकर अपने आपको धन्य रखना चाहता है। सांसारिक सुख मिथ्या है । कवि की आसक्ति है कि उसे इन्द्र का ध्यान नहीं । ब्रज का वन एवं तड़ाग ही अवलोकन कराता रहे। ब्रज के कण-कण में श्रीकृष्ण का वास । वह ब्रज में रहकर नंद की गाय चराकर
श्रीकृष्ण के चरणों में अर्पित हो जाना चाहता है।
प्रश्न 5. व्याख्या करें
(क) मन पावन चितचोर, पलक ओट नहिं करि सकौं ।
(ख) रसखानि कबौं इन आँखिन सौं ब्रज के बनबाग तड़ाग निहारौं ।
उत्तर-(क) प्रस्तुत दोहे में कवि राधिका के माध्यम से श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित हो जाना चाहता है। जिस दिन से श्रीकृष्ण से आँखें चार हुईं उसी दिन से अपनी सुध-बुध जाती रही। पवित्र चित्त को चुरानेवाले श्रीकृष्ण से पलक हटाने के बाद भी अनायास उस मुख छवि को देखने के लिए विवश हो जाती है । वस्तुत: यहाँ कवि बताना चाहता है कि प्रेमिका अपने प्रियतम को सदा अपनी आखों में बसाना चाहती है।
(ख) प्रस्तुत सवैये में कवि ने ब्रज का यशोगान किया है । ब्रज श्रीकृष्ण की रंगस्थली और कार्यस्थली रही है । वन-उपवन, बाग सभी कृष्ण के शाश्वत-प्रेम के गवाह हैं। कवि सांसारिक सुख न चाहकर ब्रज में रहकर श्रीकृष्ण का सान्निध्य पाना चाहता है ।
भाषा की बात
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कविता के साथ :
प्रश्न 1. समास-निर्देश करते हुए निम्नलिखित पदों का विग्रह करें।
उत्तर-प्रेम अयानि – प्रेम की अयानि – तत्पुरुष समास
प्रेम बरन – प्रेम का बरन – तत्पुरुष समास
नंदनंदन – नंद का है जो नंदन – कर्मधारय समास
प्रेमवाटिका – प्रेम को बाटिका – तत्पुरुष समास
माली-मालिन – माली और मालिन – द्वंद्व समास
रसखानि – रस की खान – तत्पुरुष समास
चितचोर – चित्त है चोर जिसका – बहुबीहि समास
अर्थात् कृष्ण
मनमानिक – मन है जो मानिक – कर्मधारय समास
बेमन – बिना मन का – अव्ययीभाव समास
नवोनिधि – नौ निधियों का समूह – द्विगु समास
आहुसिद्धि – आठों सिद्धियों का समूह – द्विगु समास
बनवाग – बन और बाग – द्वंद्व समास
तिहुँपुर – तीन लोकों का समूह – द्विगु समास
प्रश्न 2. निम्नलिखित के तीन-तीन पर्यायवाची शब्द लिखें।
उत्तर-
राधिका― कमला, श्री, प्रेम-अनि ।
नंदनंदन―कृष्ण, नंदसुत, नंदतनय ।
नैन―आँख, लोचन, विलोचन ।
सर―बाण, सरासर, नीर।
आँख―नयन, अक्षि, नेत्र।
कुंज― बाग, वाटिका, उपवन।
कलधौत ― इन्द्र, सूरपति, मेघ देवता ।