Varahamihira Biography in Hindi-प्राचीन वैज्ञानिक वराहमिहिर जीवनी
Varahamihira Biography in Hindi – प्राचीन वैज्ञानिक वराहमिहिर की जीवनी
Varahamihira Biography in Hindi
सूर्य तथा चन्द्रमा के साथ-साथ आखों से दिखाई देने वाले ग्रहों की गतिविधियों के आधार पर जिस ज्योतिष विज्ञान की रचना की गयी, उनमें वराहमिहिर का नाम इसलिए सर्वोपरि है; क्योंकि उन्होंने ग्रह-नक्षत्रों के ज्ञान का सम्बन्ध मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं से स्थापित किया ।
वराहमिहिर का जन्म ई॰ सन् 505 में हुआ था । वृहज्जातक में उन्होंने अपने पिता आदित्यदास का परिचय देते हुए लिखा है कि: ”मैंने कालपी नगर में सूर्य से वर प्राप्त कर अपने पिता आदित्यदास से ज्योतिषशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की । इसके बाद वे उज्जयिनी जाकर रहने लगे ।
यहीं पर उन्होंने बृहज्जातक की रचना की । वे सूर्य के उपासक थे । वराहमिहिर ने लघुजातक, विवाह-पटल, वृहकत्संहिता, योगयात्रा और पंचसिद्धान्तिका नामक अन्यों की रचना की । वे विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक माने जाते हैं ।
पूरा नाम | वराहमिहिर (Varahamihira) |
जन्म दिनांक | ई. 499 |
जन्म भूमि | ‘कपिथा गाँव’, उज्जैन |
मृत्यु | ई. 587 |
पिता का नाम | आदित्यदास |
संतान | पृथुयशा |
काल | गुप्त वंश |
मुख्य रचनाएँ | बृहज्जातक, बृहत्संहिता और पंचसिद्धांतिका |
पुरस्कार-उपाधि | महाराज विक्रमादित्य ने मिहिर को मगध देश का सर्वोच्च सम्मान वराह प्रदान किया। |
धर्म | हिंदू |
वराहमिहिर
मिहिर जब अपनी युवावस्था में आए तो वे कुसुमपुर पटना जा पहुंचे, जहां उनकी मुलाकात महान खगोल वैज्ञानि व् गणित्यग आर्यभट्ट से हो गयी। भट्ट की प्रेरणा से मिहिर ज्योतिष विद्या और खगोल को ही अपने जीवन का आधार बना लिया। उस समय वहां गुप्त वंश के शासक बुधगुप्त का शासन था, जिनके प्रोत्साहन से वहां कला विज्ञान और सांस्कृतिक केंद्रों का बढ़ावा मिला था। अतः विद्वान लोगों से मिहिर का संपर्क होने लगा इससे उनके ज्योतिष ज्ञान भी बढ़ने लगा।
उनके खगोल ज्ञान का पता विक्रमादित्य चंद्रगुप्त (द्वितीय) को भी लगा। उन्होंने उसे तुरंत ही अपने राज दरबार में बुलाया और उनका सम्मान कर उन्हें अपने नवरत्नों में शामिल कर लिया। इसके बाद मिहिर ने दूर देशों की यात्राएं की। उन्होंने वेदों का गहन अध्ययन कर डाला था। उन्हें अलोकिक में अंधा विश्वास नहीं था। वह चमत्कारिक विज्ञान को महत्व देते थे। उन्होंने भी खगोल विज्ञान पर गहन अध्ययन किया था तथा पृथ्वी को गोल बताया था।
विज्ञान के इतिहास में वह प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने कहा कि कोई शक्ति ऐसी है जो चीजों को जमीन के साथ चिपकाये रखती है। आज इसी शक्ति को गुरुत्वाकर्षण कहते है। इतने विशेस्यग होते हुए भी पृथ्वी को उन्होंने गतिमान नहीं माना। उनका कहना था कि यदि पृथ्वी घूमती होती तो पक्षी पृथ्वी की गति के विपरीत दिशा में अपने घोंसले में पहुंच जाते।
वराहमिहिर विज्ञान, जलविज्ञान, भूविज्ञान, के संबंध में भी कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियां कि। उनका कहना था कि पौधे और दीमक जमीन के नीचे पानी होने की पुष्टि करते हैं। उन्हें संस्कृति व्याकरण में विशिष्ट ज्ञान प्राप्त किया था। आज भी फलित ज्योतिष शास्त्री उनके ग्रंथों का प्रयोग करते हैं। इसी कारण उन्हें अनेक बार सम्मानित व पुरस्कृत किया गया।
उनके द्वारा लिखित प्रमुख पुस्तकें– ब्रीहित सहिंता, पंचसिद्धांतिका, बृहज्जातक है। उनके बारे में कहा जाता है राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के पुत्र की मृत्यु का दिन भी उन्होंने ज्योतिष के आधार पर उन्हें बताया था। उन्होंने यह भी बताया था कि उनके पुत्र की मृत्यु को उस दिन कोई नहीं टाल सकेगा उसे बनेला जंगली सूअर मारेगा।
यह सुनकर राजा ने अपने पुत्र के प्राण रक्षा के काफी प्रयत्न किए, किन्तु वे उसकी मृत्यु का ना रोक सके। पुत्र की मृत्यु का समाचार सुनकर राजा ने मिहिर को राज दरबार में आमंत्रित किया और कहा आप पूर्ण ज्योतिषज्ञ है, मुझे इसका पूर्ण विश्वास हो गया हैं। यह कह कर राजा ने उनके मगध राज्य का सबसे बड़ा पुरस्कार ‘वराह चिन्ह’ देकर सम्मानित किया। इसके बाद ही मिहिर को वराह मिहिर कहा जाने लगा था।
वाराहमिहिर ने आर्यभट्ट प्रथम द्वारा प्रतिपादित ज्या सारणी को और अधिक परिशुद्धत बनाया। उन्होंने शून्य एवं ऋणात्मक संख्याओं के बीजगणितीय गुणों को परिभाषित किया। वराहमिहिर ‘संख्या-सिद्धान्त’ नामक एक गणित ग्रन्थ के भी रचयिता हैं जिसके बारे में बहुत कम ज्ञात है। इस ग्रन्थ के बारे में पूरी जानकारी नहीं है क्योंकि इसका एक छोटा अंश ही प्राप्त हो पाया है। प्राप्त ग्रन्थ के बारे में पुराविदों का कथन है कि इसमें उन्नत अंकगणित, त्रिकोणमिति के साथ-साथ कुछ अपेक्षाकृत सरल संकल्पनाओं का भी समावेश है।
वराहमिहिर ने ही वर्तमान समय में पास्कल त्रिकोण (Pascal’s triangle) के नाम से प्रसिद्ध संख्याओं की खोज की। इनका उपयोग वे द्विपद गुणाकों (binomial coefficients) की गणना के लिये करते थे। वराहमिहिर का प्रकाशिकी में भी योगदान है। उन्होने कहा है कि परावर्तन कणों के प्रति-प्रकीर्णन (back-scattering) से होता है। उन्होने अपवर्तन की भी व्याख्या की है।
वराहमिहिर की ज्योतिषशास्त्र को देन:
वराहमिहिर भारतीय ज्योतिष साहित्य के निर्माता थे । उन्होंने अपने पंचसिद्धान्तिका नामक ग्रन्थ में पांच सिद्धान्तों की जानकारी दी है, जिसमें भारतीय तथा पाश्चात्य ज्योतिष-विज्ञान की जानकारी भी सम्मिलित
है । उन्होंने अपनी बृहत्संहिता नामक ज्ञानकोष में तत्कालीन समय की संस्कृति तथा भौगोलिक स्थिति की जानकारी दी है । फलित ज्योतिष की जानकारी उनके अन्यों में अधिक है ।
जन्मकुण्डली बनाने की विद्या को जिस होराशास्त्र के नाम से जाना जाता है, उनका बृहज्जातक ग्रन्थ इसी शास्त्र पर आधारित है । लघुजातक इसी ग्रन्थ का संक्षिप्त रूप है । योगयात्रा में यात्रा पर निकलते समय शुभ-अशुभ आदि से सम्बन्धित घटनाओं का वर्णन है ।
इन अन्यों में ज्ञान के साथ-साथ अन्धविश्वास को मी काफी बल मिला । यदि अन्धविश्वास सम्बन्धी बातों को हम दरकिनार कर दें, तो इस कब्ध की अच्छी बातें हमारे ज्ञान में सहायक होंगी । पृथ्वी की अयन-चलन नाम की खास गति के कारण ऋतुएं होती हैं । इसका ज्ञान कराया । गणित द्वारा की गयी गणनाओं के आधार पर उन्होंने पंचांग का निर्माण किया ।
वराहमिहिर के अनुसार: ‘समय-समय पर ज्योतिषियों को पंचांग में सुधार करते रहना चाहिए; क्योंकि ग्रह-नक्षत्रों तथा ऋतुओं की स्थिति में परिवर्तन होते रहते हैं ।’ अल्वरूनी जब भारत आया था, तो उसने भी ज्योतिषशास्त्र तथा संस्कृत का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर वराहमिहिर के कुछ ग्रंथों का अरबी भाषा में अनुवाद किया ।
4. उपसंहार:
यदि हमें प्राचीन भारतीय जो ज्योतिष-विज्ञान को जानना है, तो वराहमिहिर के ज्योतिष सम्बन्धी सिद्धान्तों का अवश्य अध्ययन करना चाहिए । हमारे देश के कुछ पुराणपन्थी ज्योतिष लकीर के फकीर बनकर अन्धविश्वास पर आधारित ज्योतिष को मानते हैं ।
वराह ने जिस तरह रोमेश और पुलिश, यूनानी, पाश्चात्य ज्योतिष सिद्धान्त को भारतीय ज्योतिष के साथ समन्वित किया था, आज के ज्योतिषाचार्यो को इसकी आवश्यकता है, तभी ज्योतिषशास्त्र को विज्ञान का दरजा मिल पायेगा ।
वराहमिहिर के बारे में
सम्राट विक्रमादित्य ने एक बार अपने राज ज्योतिषी से राजकुमार के भविष्य के बारे में जानना चाहा. राज ज्योतिष ने दुखी स्वर में भविष्यवाणी की कि अपनी उम्र के 18वे वर्ष में पहुँचने पर राजकुमार की मृत्यु हो जाएगी. राजा को यह बात अच्छी नहीं लगी. उन्होंने आक्रोश में राज ज्योतिषी को कुछ कटुवचन भी कह डाले.
लेकिन हुआ वही, ज्योतिषी के बताये गये दिन को एक जंगली सूअर ने राजकुमार को मार दिया. राजा और रानी यह समाचार सुनकर शोक में डूब गये. उन्हें राज ज्योतिषी के साथ किये अपने व्यवहार पर बहुत पश्चाताप हुआ. राजा ने ज्योतिषी को अपने दरबार में बुलवाया और कहा- राज ज्योतिषी मैं हारा आप जीते. इस घटना से राज ज्योतिषी भी बहुत दुखी थे.
पीड़ा भरे शब्दों में उन्होंने कहा- महाराज, मैं नहीं जीता. यह तो ज्योतिष और खगोलविज्ञान की जीत है. इतना सुनकर राजा बोले- ज्योतिषी जी, इस घटना से मुझे विश्वास हो गया कि आप का विज्ञान बिल्कुल सच है. इस विषय में आपकी कुशलता के लिए मैं आप को मगध राज्य का सबसे बड़ा पुरस्कार ‘ वराह का चिन्ह ‘ प्रदान करता हूँ. उसी समय से ज्योतिषी मिहिर को लोग वराहमिहिर के नाम से पुकारने लगे.
वराहमिहिर के बचपन का नाम मिहिर था. वराहमिहिर का जन्म कपिथा गाँव उज्जैन में सन 505 ई. में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उन्हें ज्योतिष की शिक्षा अपने पिता से मिली.
एक बार महान खगोल विज्ञानी और गणितज्ञ आर्यभट्ट पटना (कुसुमपुर) में कार्य कर रहे थे. उनकी ख्याति सुनकर मिहिर भी उनसे मिलने पहुंचे. वह आर्यभट्ट से इतने प्रभावित हुए कि ज्योतिष और खगोल ज्ञान को ही उन्होंने अपने जीवन का ध्येय बना लिया.
मिहिर अपनी शिक्षा पूरी करके उज्जैन आ गये. यह विद्या और संस्कृत का केंद्र था. उनकी विद्यता से प्रभावित होकर गुप्त सम्राट विक्रमादित्य ने मिहिर को अपने नौ रत्नों में शामिल कर लिया और उन्हें ‘राज ज्योतिषी’ घोषित कर दिया.
वराहमिहिर वेदों के पूर्ण जानकार थे. हर चीज को आँख बंद करके स्वीकार नहीं करते थे. उनका दृष्टिकोण पूरी तरह से वैज्ञानिक था. वराहमिहिर ने पर्यावरण विज्ञान (इकोलोजी), जल विज्ञान (हाईड्रालाजी) और भू – विज्ञान (जिओलाज़ी) के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य उजागर कर आगे के लोगो को इस विषय में चिंतन की एक दिशा दी.
वराहमिहिर द्वारा की गयी प्रमुख टिप्पणियाँ-
* कोई न कोई ऐसी शक्ति जरुर है जो चीजो को जमीन से चिपकाये रखती है. (बाद में इसी कथन के आधार पर गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत की खोज की गयी)
* पौधे और दीपक इस बात की ओर इंगित करते है की जमीन के नीचे पानी है.
वराहमिहिर ने अनेक पुस्तको की रचना भी की. संस्कृत भाषा और व्याकरण में अतिदक्ष होने के कारण उनकी पुस्तके अनोखी शैली में लिखी गयी है. उनकी सरल प्रस्तुती के कारण ही खगोल विज्ञान के प्रति बाद में बहुत से लोग आकृष्ट हुए. इन पुस्तको ने वराहमिहिर को ज्योतिष के क्षेत्र में वही स्थान दिलाया जो व्याकरण में ‘पाणिनि’ का है.
वराहमिहिर की प्रमुख रचनाएँ :
* पंच सिद्धान्तिका
* बृहतसंहिता
* बृहज्जाक
अपनी पुस्तकों के बारे में वराहमिहिर का कहना था- ज्योतिष विद्या एक अथाह सागर है और हर कोई इसे आसानी से पार नहीं पा सकता. मेरी पुस्तक एक सुरक्षित नाव है, जो इसे पढ़ेगा यह उसे पार ले जाएगी. उनका यह कथन कोरी शेखी नहीं है, बल्कि आज भी ज्योतिष के क्षेत्र में उनकी पुस्तक को ”ग्रन्थरत्न” समझा जाता है.
वराहमिहिर की मृत्यु सन 587 में हुई थी।