जयशंकर प्रसाद | essay in hindi | jay shankar prasad
जयशंकर प्रसाद | essay in hindi | jay shankar prasad
काव्यागत विशेषतायें – महाकवि प्रसाद का व्यक्तित्व तीन चरणों में विभक्त है । प्रथम चरण में कवि प्रसाद ‘ थे । द्वितीय चरण में कवि प्रसाद ‘ व्यक्तिवादी प्रसाद ‘ बन जाते हैं । प्रसाद जी ने काव्य में प्रथम बार व्यक्तिगत सुख – दुःख , अनुभूति और कल्पनापूर्ण अभिव्यक्ति , प्रेम और सौन्दर्य
को स्थान दिया । तृतीय चरण में ‘ व्यक्तिवादी प्रसाद ‘ ‘ अध्यात्मिक प्रसाद के महान् रूप में अवतरित ‘ हुए और हिन्दी काव्य जगत में छायावाद और रहस्यवाद का प्रवर्तन किया ।
प्रसाद जी का समस्त काव्य भारतीय इतिहास की महानता , प्रेम और सौन्दर्य की शाश्वतता , के प्रति अनन्यता , दार्शनिकता , वैभव और ऐश्वर्य एवं आनन्द की महत्ता का काव्य है । इनका कामायनी महाकाव्य भारतीय इतिहास के आदि पृष्ठों की स्वर्णिम गाथा है । भारतीय इतिहास में जो का सन्दर और महान था प्रसाद उसके उन्मत्त गायक थे । इनके काव्य की पृष्ठभूमि हिन्दू एवं बौद्ध व अलौकिकता के सम्मिश्रण ने प्रसाद के प्रेम को महान बना दिया है । मानव – प्रेम और देश – प्रेम भी प्रसाद के अद्वितीय गुण हैं । प्रसाद के नारी – चित्रण में भी वही अलौकिकता झाँकती दिखाई पड़ती है । कुछ उदाहरण देखिए-
नारी के विषय में प्रसाद जी कहते हैं–
नारी तुम केवल श्रद्धा हो ,
विश्वास रजत नग पग तल में ।
पीयूष स्रोत सी बहा करो ,
जीवन के सुन्दर समंतल में ।
देश – प्रेम का एक उदाहरण देखिये –
” अरुण यह मधुमय देश हमारा ।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा । ”
‘ आंसू , कविता में उनकी हार्दिक पीड़ा का एक चित्र देखिए –
” जो घनीभूत पीड़ा थी ,
मस्तक में स्मृति – सी छायी ,
दुर्दिन में आँसू बनकर ,
वह आज बरसने आयी । ”
प्रसाद जी नाटक – सम्राट थे , महान् कवि थे , सुन्दर कलाकार तथा निबन्धकार थे । इनका साहित्य “ विश्व – साहित्य ” की कोटि में आता है । पार्थिवता को स्वर्गीयता प्रदान करने की इनमें अद्भुत प्रतिभा थी । प्रसाद और प्रेमचन्द निस्सन्देह विश्व – विभूति थे । इनके जन्म से भारत माँ की गोद सहसा अलंकृत एवं चमत्कृत हो उठी थी ।
जीवन – वृत्त- भारतीय संस्कृति के अमर गायक , प्रसाद जी का जन्म काशी के सुंघनी साहू के नाम से प्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित परिवार में सन् १८८ ९ ई . में हुआ था । इनके पिता बाबू देवी प्रसाद जी तम्बाकू के व्यापारी थे । बाल्यकाल में ही माता – पिता की मृत्यु के कारण इनकी शिक्षा आठवीं कक्षा तक ही स्कूल में हुई । दुर्भाग्यश बड़े भाई भी इन्हें १७ वर्ष की अवस्था में ही छोड़कर बल बसे । आर्थिक कठिनाइयों एवं कठिन परिस्थितियों ने इन्हें झकझोरना प्रारम्भ किया , परन्तु प्रसाद जी तनिक भी विचलित न हुए और बंगला , संस्कृत , अंग्रेजी , पुरातत्त्व और दर्शन का निरन्तर अध्ययन एवं स्वाध्याय चलता रहा । इन विषयों का इन्होंने गम्भीर अनुशीलन किया । व्यापार एवं परिवार की देख – भाल के साथ – साथ ये साहित्य – सेवा की ओर प्रवृत्त हुए । प्रसाद जी बचपन से ही भावुक प्रकृति के थे । काशी के विद्वानों और साहित्यकारों का उन पर प्रभाव था और साहित्य सृजन को ओर इनकी स्वाभाविक अभिरुचि थी । प्रसाद जी का अनेक भाषाओं पर अधिकार था , बौद्ध – कालीन भारत एवं बौद्ध दर्शन पर इन्हें पाण्डित्य प्राप्त था । ये स्वभाव के बड़े सरल , दयालु , मृदुभाषी एवं भारतीय संस्कृति के सच्चे उपासक थे । प्रसाद जी के तीन विवाह हुए थे । उनकी दयालुता एवं साहित्य – सेवाओं के कारण पैतृक सम्पत्ति धीरे – धीरे समाप्त हो चुकी थी । घनघोर आर्थिक चिन्ताओं ने इन्हें घेर लिया था ।
प्रसाद जी की प्रारम्भिक रचनायें ‘ इन्दु ‘ एवं ‘ हंस ‘ नामक मासिक पत्रों में प्रकाशित हुआ करती थीं । काशी नागरी प्रचारिणी सभा तथा जागरण ‘ और ‘ इन्दु ‘ नामक पत्रों की ये आर्थिक । सहायता भी किया करते थे । हिन्दुस्तानी एकेडमी से ५०० रु . तथा नागरी प्रचारिणी सभा ‘ से २०० रु.
तथा कामायनी महाकाव्य पर १२०० रु . का मंगला प्रसाद पारितोषिक ‘ भी इन्होंने काशी नागरी प्रचारिणी सभा को ही दे दिये थे । पारिवारिक चिन्ताओं ने प्रसाद जी को अन्त में इतना झकझोर दिया था कि राजयक्ष्मा ने इन्हें आ घेरा । सन् १ ९ ३७ में ४८ वर्ष की अवस्था में ही यह अद्वितीय प्रतिभा भारत को आंखों से सदैव सदैव के लिए , ओझल हो गई ।
रचनाओं के विषय- प्रसाद जी की रचनाओं के आधारभूत विायों को चार रूपों में विभाजित किया जा सकता है ।
१.प्रेम ( लौकिक प्रेम , अलौकिक प्रेम प्रकृति प्रेम , भारतीय संस्कृति से प्रेम ) । २.दार्शनिकता । ३.ऐतिहासिकता । ४. भारतीय संस्कृति ।
प्रसाद जी के प्रेम प्रेम का प्रवारा उपरोक्त चारों धाराओं में प्रवाहित हुआ है । इस क्षेत्र में ये छायावादी काव्यकार हैं के रूप में वे महान दार्शनिक हैं । ‘ कामायनी ‘ इनकी प्रतिनिधि रचना है । उपन्यास एवं कहानी के क्षेत्र में पौराणिक एवं बौसकालीन ऐतिहासिक चित्र प्रसाद जी के प्रिय विषय हैं । इन्होंने भारतवर्ष के स्वर्णिम इतिहास के चित्र बड़े कौशल के साथ प्रस्तुत किए हैं । कंकाल और तितली इनके यथार्थवादी उपन्यास है । शोधपूर्ण ऐतिहासिक अध्ययन पर आधारित प्रसाद जी के नाटक हिन्दी साहित्य के लिये अद्वितीय देन हैं । निबन्धकार के रूप में ‘ काव्य और कला ‘ के निबन्ध इनके स्थायी कीर्ति स्तम्भ हैं । इन निबन्धों में विचारों की पहनता , अध्ययन की सूक्ष्मता , गूढगुम्फित विचारों की सतर्क प्रतिपादन शैली स्पष्ट रूप से दर्शनीय है ।
भाषा – प्रसाद जी की भाषा परिष्कृत एवं परिमार्जित विशुद्ध हिन्दी है । इसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्राधान्य है । तद्भव एवं देशज शब्द सम्भवतः खोजने पर भी नहीं मिलेंगे । अन्य भाषा के शब्दों का तो बहिष्कार सा ही है । प्रसाद जी मूल रूप में कवि थे . अतः इनको बावि रूप उपन्यास , नाटक , कहानी सभी क्षेत्रों पर छाया हुआ है । यही कारण है कि इनकी भाषा संस्कृतनिष्ट होते हुए भी मधुर , कोमल कांत और सरस है और भाव प्रकाशन में सर्वथा समर्थ एवं सशक्त । प्रसाद जी को भाषा ओजस्वी एवम् व्यावहारिक है । नाटकों की भाषा संस्कृत – प्रधान एवं कुछ क्लिष्ट है । निबन्धों में कहानियों की भाषा अपेक्षाकृत कुछ सरल , सुबोध एवम् व्यावहारिक है । निबन्धों में क्लिष्टता एवम् सरलता का नित्रण है । अत : प्रसाद जी के गद्य की भाषा को दो रूपों में विभक्त किय जा सकता है । १.क्लिष्टतम एवम् संस्कृत प्रधान -नाटकों की भाषा । २.अपेक्षाकृत सरल एवम् सुबोध – उपन्यास एवम् कहानी की भाषा ।
शैली – प्रसाद जी की शैली पर काव्यात्मकता की गहरी छाप है । इनकी शैलों के(१) वर्णात्मक( २ ) भावात्मक , ( ३ ) विचारात्मक ।
वर्णनात्मक शैली- उपन्यास और कहानी के क्षेत्र में कथा – सूत्र को आगे बढ़ाने में प्रसाद जी ने इस शैली का प्रयोग किया है । इस शैली परिभाषा सरल आकर्षक एवं मधुर है । यह गौली सुबोध एवं सुगम है । शब्द चयन मधुर एवं वाक्य विन्यास सीधा – सादा है ।
भावात्मक शैली – मानसिक भावों के संघर्ष एवं धात – प्रतिघातों में इस शैली का प्रयोग किया गया है । भाषा संस्कृत – निष्ठ होते हुए भी सरल एवम् मधुर है शैली में प्रवाह एवम् सजीवता है.प्रभावोत्पादकता है ।
विचारात्मक शैली – उपन्यास और कहानियों में भी इस शैली के दर्शन होते हैं.परन्तु विशेष रूप से निबन्धकार के रूप में प्रसाद जो ने इस शैली का प्रयोग किया है । इसमें प्रसाद जी के स्वतन्त्र , गहन चिंतन और अगाध पाण्डित्य के दर्शन होते हैं ।
प्रकृति चित्रण में प्रसाद अद्वितीय थे । आकाश में बिखरते तारों को देखकर अबोध नायिका रजनी से प्रसाद जी कह उठते हैं –
पगली , हाँ सम्भाल ले , कैसे छूट पड़ा तेरा अचल । देख बिखरती हैं मणि राशि अरी , उठा बेसुध चंचल ।।
प्रकृति के कोमल रूम के ही नहीं बल्कि उसके भयंकर रूप के चित्र भी प्रसाद जी ने खींचे हैं-
उधर गरजती सिन्थु लहरियाँ , कुटिल काम के जालों सी ।
चली आ रही , फेन उगलती , फन फैलाये व्यालों सी ।।
प्राचीन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति पर प्रसाद जी को गर्व था –
हमारे संचय में था दान , अतिथि थे सदा हमारे देव । वचन में सत्य हदय में तेज , प्रतिज्ञा में रहती थी टेव ।।
भाषा- युग प्रवर्तक प्रसाद जी की भाषा के दो रूप हैं- व्यावहारिक और मम्भीर । प्रारम्भ में , प्रसाद जी बजभाषा तथा खड़ी बोली दोनों में ही रचना करते थे । वह सीधी – सादी एवं सरल होती थी , बाद में इन्होंने बजभाषा को छोड़ दिया । जैसे – जैसे इनकी रचनाओं का विकास होता गया वैसे – वैसे भाषा परिष्कृत एवम् गम्भीर होती गई । संस्कृत के तत्सम शब्दों के आधिक्य ने प्रसाद जी की भाषा को अपूर्व सौंदर्य , संगीत एवम् माधुर्य प्रदान किया है । ओज , प्रसाद , माधुर्य गुण सर्वत्र विद्यमान हैं । शब्द की व्यंजना शक्ति का प्रसाट जी ने खूब प्रयोग किया है । शब्द चयन अद्वितीय है । वाक्य विन्यास सूत्र की भाँति है । प्रसाद जी की भाषा ऐसी सशक्त भाषा है कि जो गम्भीर से गम्भीर भावों को भी सरलता से वहन कर लेती है ।
शैली–प्रसाद जी ने अपने काव्य में तीन प्रकार की शैली का प्रयोग किया है
( i ) वर्णनात्मक , ( ii ) भावात्मक , एवं ( iii ) गहन । वर्णनात्मक शैली की भाषा सरल एवं सुबोध है , कचानक आगे बढ़ाने के लिए इस शैली का प्रयोग किया है । भावात्मक शैली में मानसिक भावों का चित्रण किया गया है । गहन शैली में प्रसाद जी को दार्शनिक एवं रहस्यवादी रचनायें हैं । इस शैली में संस्कृत के तत्सम शब्दों का बाहुल्य है ।
रस , छंद एवं अलंकार – प्रसाद जी के काव्य में सभी रसों का समावेश है , परन्तु वीर , भयानक , करुण तथा झर ये इनके प्रिय रस रहे हैं । छन्द योजना को इंष्टि से प्रसाद जी को गीत अधिक प्रिय थे , यद्यपि उन्होंने प्राचीन तथा नवीन सभी छंद शैलियों में काव्य की रचना की है । कई नवीन छन्दों के तो प्रसाद जी स्वयं जन्मदाता थे । अंग्रेजी के सॉनेट तथा बंगला के त्रिपदी और पयार छन्दों को भी इन्होंने अपनाया था ।
अलंकार की दृष्टि से प्रसाद जी ने उन्हें लाने का कोई प्रयास नहीं किया उपमा रूपक उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों ताई चले आए हैं इनके काव्य में ध्वनि चित्रण तथा मानवीकरण आधी पाश्चात्य अलंकारों का प्रयोग हुआ है l