रामधारी सिंह दिनकर | nibandh in hindi
रामधारी सिंह दिनकर | nibandh in hindi
भारत के गौरवमय अतीत पर मुग्ध हो उठता और वाले दिन शोषण , उत्पीडन , पतन और वैषम्य के अपनी वाणी के बाणों से अग्नि वर्षा करने वाले दिनकर जी उन महाकवियों में है जो प्राचीन प्रति जिनका हृदय हाहाकार करते हुए हुंकार कर विद्रोह कर उठता है । निसन्देर दिनकर जी का काव्य दलित मानवता और सिसकती हुई करुणा का काव्य है । आधुनिक युग की नई गीता के रूप में इनका ‘ कुरुक्षेत्र ‘ महाकाव्य हैं ।
जीवन – वृत्त- ‘ दिनकर का जन्म बिहार प्रान्त में , मुंगेर जिले के सिमिरिया घाट नामक गाँव में सन् १ ९ ०८ ई ० में हुआ था । १ ९ ३२ ई . में इन्होंने पटना विश्वविद्यालय से बी ० ए ० ऑनर्स की परीक्षा उत्तीर्ण की । जीवन के क्षेत्र में पदार्पण करने पर ये सब – रजिस्ट्रार के पद पर नियुक्त हुये ।। कुछ दिनों तक आकाशवाणी में भी कार्य किया और कुछ समय प्रोफेसर भी रहे । केन्द्रीय राज्य परिषद् के ये मनोनीत : सदस्य भी रह चुके थे । भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे ।
‘ दिनकर जी को काव्य – रचना से बाल्यकाल से ही : अगाध अनुराग था । विद्यार्थी जीवन में ही इन्होंने ‘ प्राण – भंग नामक काव्य की रचना की थी , जो १ ९ २५ ई ० में प्रकाशित हुई थी । जीवन पर्यन्त दिनकर जी निरन्तर साहित्य सेवा में संलग्न रहे । हिन्दी साहित्य सम्मेलन बिहार के सभापति भी रह चुके हैं । जवान बेटे की मृत्यु ने इनके ओजस्वी व्यक्तित्व को सहसा खण्डित कर दिया और पिरुपति के देव विग्रह को अपनी व्यथा कथा समर्पित करते हुए २४ अप्रैल १ ९ ७४ को यह साहित्य सूर्य सदैव के लिये अस्त हो गया ।
रचनायें – दिनकर जी ने पद्य एवं गद्य दोनों क्षेत्रों में अनेकों ग्रन्थों की रचना की है , जिनमें प्रमुख कवि के रूप में ही है l
काव्य – रेणुका , रसवन्ती , द्वन्द् गीत , हुँकार , धूप – छाँह , सावधेनी , एकायन , इतिहास के आँसू , धूप और धुआँ आदि ।
खण्डकाव्य – कुरुक्षेत्र , रश्मिरथी । आलोचना- ‘ मिट्टी की ओर । ‘ इतिहास- ‘ संस्कृति के चार अध्याय ‘ ।
गद्य संग्रह — ‘ मिट्टी को ओर ‘ अर्धनारीश्वर रती के फूल ‘ । बाल साहित्य – चित्तौड़ का साका मिर्च का मजा ।
काव्यगत विशेषतायें- राष्ट्रीय असहयोग . आंदोलन , गाँधी जी की विचारधारा तथा बढ़ती हुई समाज की विषमताओं , अत्याचारों ने मिलकर दिनकर जी की आत्मा को प्रभावित किया है । यही कारण कि दिनकर के काव्य की प्रमुख भावना में राष्ट्रीयता , देश – प्रेम , वर्तमान पतन एवं शोषण के प्रति विद्रोह , उद्बोधन आदि हैं । प्राचीन भारत के गौरव पूर्ण अतीत का गुणगान कर दिनकर जी देश में चेतना और जागृति भर देना चाहते हैं । यथार्थ का चित्रण कर आदर्श की स्थापना करना ही इनके काव्य का मुख्य ध्येय है । प्रगतिवादी रचनायें बड़ी ओजपूर्ण एवं मार्मिक हैं । एक उदाहरण देखिए-
कहीं उठी दीन कृषको की ,
मजदूरों की तड़प पुकारें ,
अरे , गरीबों के लोहू पर ,
खड़ी हुई तेरी दीवारें ।
भारत के आर्थिक वैषभ्य का एक नग्न चित्र देखिये —
श्वानों को मिलता दूध वस्त्र ,
भूखे बालक अकुलाते हैं ,
माँ की हड्डी से चिपक ,
ठिठुर , जाड़े की रात बिताते हैं ।
भारत के स्वर्णिम अतीत का इतिहास और वर्तमान का अधःपतन दिनकर के हृदय में विद्रोह भर देता है । वे कह उठते हैं-
ओ मगध ! कहाँ तेरे अशोक ,
वह चन्द्रगुप्त बल धाम कहाँ ।
री कपिलवस्तु कह ,
बुद्धदेव के वे मंगल उपदेश कहाँ ।।
वर्तमान दृषित व्यवस्था को छिन्न – भिन्न करने के लिये , प्रलयकारी ताण्डव नृत्य के लिए वे शंकर का आह्वान करते हैं —
कहदे शंकर से आज करें ,
वे प्रलय नृत्य फिर एक बार ।
सारे भारत में गूंज उठे ,
हर – हर , बम – बम का महोच्चार ।।
क्योंकि देश में –
नारी – नर जलते साथ – साथ ,
जलते हैं मांस रुधिर अपने ।
जलती है वर्षों की उमंग ,
जलते हैं सदियों के सपने ।।
भाषा – दिनकर जी की भाषा परिमार्जित खड़ी बोलो है । भावों के अनुसार भाषा में भी ओज , पौरुष एवं बल है । दिनकर की भाषा के प्रमुख गुण सरलता , सरसता स्वाभाविकता एवं बोधगम्यता है । संस्कृत के सरल तत्सम शब्दों का प्रयोग किया गया है । भावों के अनुसार उर्दू शब्दों का भी प्रयोग किया गया है । शब्द चयन सुन्दर एवं मार्मिक है ।
शेली- दिनकर जी की शैली बड़ी ओजस्वी , स्वाभाविक एवं मनोवैज्ञानिक है । उसे तीन रूपों में विभक्त किया जा सकता है–(i ) विवरणात्मक ( ii ) भावात्मक ( iii ) उदबोधनात्मक । इनके प्रबन्ध कायों की रचना विवरणात्मक शैली में हुई है । प्रगतिवादी रचनाये भावात्मक शैली में हैं तथा जागरण और चेतना से भरे हुए गीतों में उबोधनात्मक शैली के दर्शन होते हैं ।
रस , छन्द तथा अलंकार – रस की द्यष्ट से दिनकर के काव्य में सभी रसों का समावेश है । वीर तथा करुण रसों का प्राधान्य है ।
छन्द – योजना में दिनकर जी ने प्राचीन छन्दों तथा कवित्त सवैये आदि भी प्रयोग किये हैं । प्रगतिवादी रचनाओ में आधुनिक छंद शैली का प्रयोग किया गया है ।
दिनकर के काव्य के उपमा , रूपक उतोधा , अतिशयोक्ति आदि अलंकार स्वाभाविक रूप से आये हैं । मानवीकरण , ध्वनि – चित्रण , विशेषण विपर्यय आदि पाश्चात्य अलंकार की भाषा की शोभा वृद्धि में सहायक हुए हैं ।