जगन्नाथ दास रत्नाकर
जगन्नाथ दास रत्नाकर
बुझने की प्रतीक्षा में अपने अन्तिम क्षणों को गिनने में आतुर वृद्धा , अवसानोन्मुख जीवन टॉप की प्रकाशहीन , बज- भाषा रूपी कम्पित शिखा को अपनी अनुपम काव्य प्रतिभा के स्नेह से जीवन दान देकर जिसने उनका फिर से काया – कल्प कर दिया वह व्यक्तित्त्व बाबू जगन्नाथ दास रत्नाकर ही था , चाहे भले ही खड़ी बोली नाराज हो गई हो ।
जीवन वृत्त- रत्नाकर जी का जन्म काशी के प्रतिष्ठित अग्रवाल परिवार में सन १८६६ ई . में हुआ था । पानीपत के निवासी इनके पूर्वज मुगल सम्राटों के दरबार में उच्चाधिकारी रहे थे । इनके पिता पुरुषोत्तमदास जी फारसी के विद्वान काव्यप्रेमी एवम् भारतेन्दु जी के मित्र थे । पारिवारिक वातावरण साहित्यमय था । बचपन की इनकी एक कविता सुनकर भारतेन्दु जी ने इन्हें कुशल कवि होने का आशीर्वाद दिया था । अंग्रेजी और फारसी विषय लेकर बी ० ए ० पास , करने के बाद ये अवागढ़ रियासत में नौकर हो गये । जलवायु को प्रतिकूलता के कारण ये दो वर्ष बाद वहाँ से काशी चले आये , फिर अयोध्या नरेश के व्यक्तिगत सचिव के पद पर नियुक्त हुए । महाराज की मृत्यु के पश्चात् महारानी के भी व्यक्तिगत सचिव रहे । इस पद पर इन्होंने मृत्यु पर्यन्त कार्य किया ।
अंग्रेजी के विद्वान् होते हुए भी रत्नाकर जी प्राचीनता के पोषक , विनोद – प्रिय एवं उदार साहित्य सेवी थे । ‘ उद्धवशतक ‘ पर इन्हें हिन्दुस्तानी एकाडेमी से पांच सौ रुपये का तथा अयोध्या की महारानी से एक हजार रुपये का पुरस्कार प्राप्त हुआ था जो इन्होंने काशी नागरी प्रचारिणी सभा को दान में दे दिया था । हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सन् १ ९ २२ के कलकत्ता अधिवेशन में ये सभापति चुने गये थे । ‘ सरस्वती ‘ मासिक पत्रिका के सम्पादक मण्डल में भी रत्नाकर जी थे । सन् १ ९ ३२ ई ० में हरिद्वार में इनका निधन हो गया ।
रचनायें – रत्नाकर जी ने अपनी अपूर्व काव्य – प्रतिभा के कारण अनेक काव्य ग्रन्थों ( प्रबन्धक और मुक्तक ) की रचना की , अनुवाद और सम्पादन किया । रचनायें निम्नलिखित हैं-
१. प्रबन्ध काव्य – उद्धवशतक , गंगावतरण , हरिश्चन्द्र ।
२. मुक्तक काव्य – रचनाष्टक , बीराष्टक , कल – काशी , श्रृंगार लहरी , हिंडोल , साहित्य रत्नाकर , धनाक्षरी नियम रत्नाकर ।
३. अनुवाद – समालोचनादर्श ( अंग्रेजी कनि पोप के निबन्धों का अनुवाद ) ।
४. सम्पादन- ‘ हमीर हठ ‘ ( चन्द्र शेखर कृत ) ‘ हिततरंगिणी ‘ ( कृपाराय ) ‘ कंठामरण ‘ ( दूलइ ) दूरसागर ( अपूर्ण रहा )
५. टीका – बिहारी सतसई पर बिहारी रत्नाकर नाम से महत्त्वपूर्ण टीका ।
काव्यगत विशेषतायें – खड़ी बोली के प्रगतिवादी चरमोत्कर्ष के युग में भी रत्नाकर जी ने पुरातन कथा वस्तुओं एवम् प्राचीन परम्पराओं को लेकर साहित्य सृजन किया यह अदम्य साहस का परिचायक है । भक्तिकालीन एवं पौराणिक कथायें इनके काव्य के विषय हैं । रीतिकालीन परम्परा के अनुसार उन्हें काव्य के रूप में चित्रित किया गया है । ‘ उद्धवशतक ‘ भागवत के भमर गीत प्रसंग पर आधारित प्रबन्ध काव्य है । ‘ गंगावतरण ‘ तथा ‘ हरिश्चन्द्र पौराणिक कथाओं पर आधारित काव्य है ।
इनके विषय में कहा जाता है कि ‘ रत्नाकर की आत्मा भक्तिकाल की और शरीर रीतिकाल का है । परन्तु भावों और अनुभूतियों के चित्रण में रत्नाकर जी रीतिकाल से सर्वथा भिन्न एवम् मौलिक हैं । रीतिकाल की रचनायें जहाँ चमत्कार – प्रघान हैं वहाँ रत्नाकर जी की रचनायें भाव और अनुभूति प्रधान हैं । रीतिकाल जहाँ जीवन के बाह्य जगत तक ही सीमित रहता है वहाँ रत्नाकर जी जीवन के अन्तर्जगत को स्पर्श करते हैं । भावों और मनोविकारों के अन्तर्द्वन्द तक मनोवैज्ञानिकता को द्दष्टि से ‘ उद्धवशतक हिन्दी साहित्य में बेजोड़ है । इनका प्रकृति चित्रण भी अपूर्व एवम् मार्मिक है । मनभावन कृष्ण के भेजे हुए सन्देश वाहक उद्धव के आने का समाचार पाते ही कुशल क्षेम जानने के लिए गोपियों को आतुरता का भावपूर्ण चित्र देखिये-
भेजे मन भावन के उद्धव के आवन की ,
सुधि ब्रज गवनि में पावन जब लगी ।
कहें रत्नाकर गुवालिन की झौरि झौरि ,
दौरि दौरि नन्द पौरि आवन तबै लगीं ।
उझकि उाकि पद कंजनि के पंजनि पै ,
पेखि पेखि पाती छाती छोहन सबै लगी ।
हमको लिख्यौ है कहा , हमको लिख्या है कहा
हमको लिख्यौ है कहा कहन सबै लगी ।
मन मुकुर ( मनरूपी शीशा ) यदि टूट गया तो फिर अनेकों मन हृदय में बस मोहन हो जायेंगे , इसलिये हे उद्धव ! इस पर तुम अपना वाणी रूपी पत्थर न मारो । गोपियों का कितना मार्मिक , तार्किक एवम् मनोवैज्ञानिक उत्तर है , उद्धव को चुप करने के लिये —टूक टूक है मन मुकुर हमारो हाय
चूँकि हूँ कठोर बैन पाहन चलावी ना ।
एक मन मोहन तो बसि के उजारयौ हमें ,
हिय में अनेक मन मोहन बसावौं ना ।।
रत्नाकर जी के विरह वर्णन में केवल गोपियाँ और राधा ही दुःखी नहीं हैं अपितु कृष्ण भी उतने ही क्षुब्ध हैं —
मोर को पखौअनि को मुकुट छबीलौ छोरि ।
किरीट मणि – मण्डित धराइ करिहैं कहा ।।
X x X
प्यारौ नाम गोविन्द गुपाल को विहाइ हाय ।
ठाकुर त्रिलोक के कहाइ करिहैं कहा ll
इधर उद्धव को गोपियाँ निरुत्तर करती हैं और उधर श्रीकृष्ण –
आवो एक बार धरि गोकुल गली की धूरि ,
तब इहि नीति की प्रतीति धरि लैहैं हम ।
मन सौं , करेजे सौं , सवन – सिर आँखिन सौं , उद्धव तिहारी सीख भीख करि लैहैं हम ।
प्रकृति वर्णन– प्रकृति वर्णन में रत्नाकर जी विशेष सफल हुए हैं । उद्धव शतक में छै कवित्तों में ही छै ऋतुओं का वर्णन करना इनकी सिद्धहस्तता का द्योतक है । इनका गङ्गावतरण प्रकृति – वर्णन से भरा पड़ा है । वह सर्वथा मौलिक एवम् सजीव है । गङ्गावतरण के समय का एक चित्र देखिए–
कबहुँ सघन वन पैठि परम स्वच्छन्द कलोलति ।
कहुँ धावत , कहुँ चलत चारु कहुँ डगमग डोलति ।। कहुँ पै थपकि , थपेड़ , पेड़ के पेड़ डहावति ।
कहुँ उत्तुंग तरंग सङ्ग तट विटप बहावति ।।
भाषा–रत्नाकर जी की भाषा साहित्यिक ब्रज भाषा है । वह बड़ी मधुर , सरस और प्रसाद गुण युक्त है । परिष्कृत और परिमार्जित होने के कारण तत्सम शब्दावली से मुक्त है । स्थान – स्थान पर लम्बे समासों का भी प्रयोग हुआ है । भाषा अर्थ गाम्भीर्य है । शब्द चयन उत्कृष्ट और भावानुकूल हुआ है । कहावतों और मुहावरों का अपूर्व प्रयोग हुआ है । कहीं – कहीं तो कविता में मुहावरे गुंथे पड़े हैं ,
जैसे —
तीन गुन पाँच तत्त्व बहकि बतावत जो ।
जैहै तीन तेरह तिहारी तीन पाँच है ll
रत्नाकर ने भाषा तथा छन्दों की तोड़ – मरोड़ नहीं की है । व्याकरण की कसौटी पर आपकी कविता खरी उतरती है । लक्षणा और व्यंजना शक्ति के प्रयोग ने भाषा में अपूर्व चमत्कार उत्पन्न कर दिया है । अंग्रेजी शैली की वक्रता और लाक्षणिकता दर्शनीय है ।
शैली – रत्नाकर जी की रीति – कालीन , अलंकृत भावात्मक शैली है । उन्होंने भाव ग्रन्थियों को बड़ी सरलता से खोला है और अन्तर्जगत् के व्यापारों का बड़ी कुशलता से चित्रण किया है । शैली में रोचकता और स्वाभाविकता है । शैली ओजस्विनी और प्रभावपूर्ण है ।
रस , छंद , अलंकार– रत्नाकर जी के काव्य में शृंगार , करुण , शान्त एवम् वीर रसों का सुन्दर एवम् सफल परिपाक हुआ है । इनकी मुक्तक रचनायें शृंङ्गार रस से ओत – प्रोत हैं । ‘ उद्धव शतक ‘ में श्रृङ्गार एवम् शान्त दोनों रस सुन्दरता के साथ – साथ लाये गये हैं ।
छन्द योजना में इन्होंने रोला , सवैया तथा कवित्त का प्रयोग किया है । वैसे रत्नाकर जी को कवित्त अधिक प्रिय थे । कवित्त रचना में इन्हें दक्षता प्राप्त थी ।
रत्नाकर जी अलंकारवादी कवि थे । इन्होंने शब्दालंकार तथा अर्थालंकार दोनों का ही प्रयोग किया है । अलंकारों की अनुपम छटा इनके काव्य में दर्शनीय है । कहीं – कहीं तो एक ही पंक्ति में अनेक अलंकार गुंथे हुए दिखाई पड़ते हैं । विशेषता यह है कि इनके काव्य में यह अलंकार योजना साध्य न होकर साधक के रूप में ही प्रयुक्त हुई है । इसने भाषा और भावों को सौन्दर्य वृद्धि ही की है । यमक , श्लेष , उपमा , रूपक , अनुप्रास , व्यतिरेक और असम्भव आदि अलंकारों की शोभा काव्य में दर्शनीय है ।