आचार्य केशवदास | Acharya Keshavdas
आचार्य केशवदास
आचार्य केशवदास
भक्तिकाल के भक्ति – रस में डूबी हुई कविता जब रीतिकाल के श्रृंगारिक , उन्मत्त वातावरण में प्रवेश करने , ये इस नवीन युग के और परम्परा के प्रवर्तक थे । भक्ति और रीति के अस्त और उदय के बीच की किड़ी थे ।
जीवन – वृत्त – केशवदास का जन्म बुन्देलखण्ड के ओरछा नगर में सन् १५५५ हुआ । इनके पिता पं ० काशीनाथ सनाढ्य बाह्मण थे । केशवदास के पूर्वज संस्कृत के प्रकाण्ड पबिहार । हुए थे , जिनके नौकर – चाकर भी संस्कृत भाषा में ही बातचीत करते थे ।
भाषा बोलिन जानहीं , जिनके कुल के दास ।
तिन भाषा कविताकरी , जड़मति केशवदास ।।
केशव की शिक्षा भी संस्कृत से ही प्रारम्भ हुई और इन्होंने संस्कृत में अगाध पाण्डित्य प्राप्त किया था ओरछा नरेश इन्द्रजीत सिंह इनके आश्रयदाता थे । वे इन्हें अपना गुरु मानते थे । इक्कीस गाँव उनकी ओर से इन्हें मिले हुए थे । इन्होंने लिखा है –
गुरु करि मान्यो इन्द्रजीत तन – मन कृपा – विचार ।
ग्राम दिए एक बीस तब , ताके पाँव पखारि ।।
केशव पर सरस्वती और लक्ष्मी दोनों की कृपा थी । इन्द्रजीत की कृपा से ये भी राज – साही करते थे-
भूतल को इन्द्रजीत जीवै जुग – जुग ,
जाके राज केशोदास , राज सो करत है ।
माँ सरस्वती की सेवा करते – करते उनका यह सपूत सन् १६१७ ई ० में अपना ‘ राज – सा ‘ छोड़कर सहसा चल बसा था ।
रचनायें – केशवदास जी ने अनेक काव्य ग्रंथों की रचना की थी , परन्तु उनमें से आठ ही उपलब्ध हैं जो निम्न प्रकार से हैं ।
१. रामचन्द्रिका , २. कवि प्रिया , ३. रसिक प्रिया ४. विज्ञान गीता , ५. जहाँगीर जस – चन्द्रिका , ६. वीरसिंह देवः चरित्र , ७.स्तन बावनी , ८.नखशिखा ।
काव्य की विशेषतायें
भाव – केशव ने लक्ष्मी प्राप्त करने के लिए अपने आश्रयदाताओं का गुण – गान किया । वीरसिंह देव चरित , रहन बावली तथा जहाँगीर जस – चन्द्रिका प्रशस्ति ग्रन्थ हैं । इनमें अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन तथा कठोर कल्पना के चित्र हैं । यश एवं आचार्यत्व प्राप्त करने के लिए इन्होंने रसिक प्रिया कबि प्रिया का निर्माण किया । भक्तिकालीन परम्परा के निर्वाह तथा तुलसी से ऊपर अपनी विद्वन स्थापित करने के लिए राम चन्द्रिका का निर्माण किया । इसमें कोई सन्देह नहीं कि इनकी रसिक ‘ प्रिन हिन्दी का प्रथम रीति ग्रंथ है । इन्होंने ही सर्वप्रथम साहित्यिक ष्टि से साहित्य – शास्त्र पर विचार कि और काव्य को चमत्कारवाद की ओर ले गये । ये हिन्दी साहित्य के प्रथम आचार्य माने जाते हैं ।
अपने गम्भीर पांडित्य के प्रदर्शन में इन्होंने अपने काव्य में कठिन से कठिन भाव , भाषा शैली , अलंकार और छन्दों का प्रयोग किया है । उनमें मौलिकता कम है , संस्कृत ग्रन्थों का आधर अधिक । परिणामस्वरूप इनका काव्य दुरुह बन गया और इन्हें “ कठिन काव्य का प्रेत ” कहा जाने लगा । आश्रयदाता भी इनके कठोर काव्य की कर्कश ध्वनि सुनने से बचते थे- “ दैवी न चाहे विदाई न तो पूँछहू केशव की कविताई ” ।
केशव के भाव – पक्ष में अभाव – पक्ष की प्रधानता है । उसमें कला – पक्ष की क्रान्ति ही का प्राधान्य है और हृदय – पक्ष की न्यूनता । राजदरवार की कृत्रिम चमक – दमक में रहने के कारण केशव में मानव हृदय की कोमल भावनाओं का अभाव था इसलिए इनकी कविता न कोमल हृदय का स्पर्श करती है और न मस्तिष्क का ।
भाषा – केशव को भाषा , बज भाषा होते हुए भी , क्लिष्ट और दुरूह है । अवधी और बुन्देलखण्डी अप्रचलित शब्दों के प्रयोग ने क्लिष्टता को और भी बढ़ा दिया है । शब्दों को तोड़ मरोड़ और लम्बी – लम्बी शब्द योजना ने भाषा की दुर्बोधता में वृद्धि की हैं । इनकी भाषा में तत्सम और तद्भव दोनों प्रकार के शब्दों का प्रयोग मिलता है । केशव की भाषा कर्कश , दुर्बोध प्रभावहीन एवं शिथिल है ।
शैली – केशव की शैली संस्कृत काव्य शैली का अनुकरण मात्र है , संस्कृत छन्दों का प्रयोग किया गया है । हिन्दी साहित्य में केशव की शैली न किसी पूर्ववर्ती कवि में थी और न इसके बाद ही किसी ने उस शैली का अनुकरण करने की हिम्मत की । केशव अपनी शैली के स्वयं जन्मदाता थे । केशव की संवादात्मक शैली प्रभावहीन एवं अनाकर्षक है । केशव की संवादात्मक शैली हिन्दी साहित्य में अद्वितीय है , उसमें वाक्पटुता है ।
रस – केशव ने सभी रसों का वर्णन किया है , परन्तु मुख्य रूप से श्रृंगार और वीर रस का । गृङ्गार के संयोग और वियोग पक्षों के अच्छे उदाहरण दिये हैं परन्तु शब्दों की सुबोधता एवं अलंकार – प्रियता के चक्कर में रस परिपाक में न स्वाभाविक गति है न सुन्दरता ।
छन्द- इनके काव्य में छन्दों की भरमार है । छन्द – परिवर्तन बड़ी शीघ्रता से हुआ है । यदि दो पंक्तियाँ दोहे में कही गई हैं तो दो नाराच छन्द में और फिर दो किसी अन्य छन्द में । यह छन्द परिवर्तन भाषा की दुर्बोधता और पाठक की असुविधा को और बढ़ा देता है । अप्रसिद्ध छन्दों एवं संस्कृत छन्दों के अतिरिक्त इन्होंने कवित्त , सवैया , दोहा , सोरठा आदि छन्द भी लिखे हैं । केशव के छन्द – बाहुल्य ने इनके प्रबन्ध – सौष्ठव को अप्रतिम बना दिया है ।
अलंकार- केशव की अलंकार योजना अत्यन्त विस्तृत एवं गहन है । अलंकार इनके काव्य के प्राण हैं । केशव ने प्रायः सभी अलंकारों का प्रयोग किया है । श्लेष , यमक , विरोधाभास आदि के अस्वाभाविक प्रयोग ने काव्य को और अधिक दुर्बोध बना दिया है । अलंकारों के विषय में इनका मत था –
जदपि सुजाति सुलच्छिनी , सुबरन सरस सुवृत्त । भूषन बिन न बिराजई , कविता बनिता मित्त ।