bihar board class 12 political science | समकालीन विश्व में अमेरिकी वर्चस्व
bihar board class 12 political science | समकालीन विश्व में अमेरिकी वर्चस्व
(U.S. HEGEMONY IN WORLD POLITICS)
याद रखने योग्य बातें
• शीतयुद्ध का अंत : 1991 के दशक में।
• एकध्रुवीय विश्व : सोवियत संघ के विघटन के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका के रूप में
एकध्रुवीय विश्व उभरा।
• न्यूयार्क स्थित वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादी हमला : सितंबर 2001
• अमेरिकी वर्चस्व के तीन क्षेत्र : (1) राजनीतिक, (2) आर्थिक, (3) सांस्कृतिका
• नई विश्व व्यवस्था : संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा इराक के विरुद्ध बलप्रयोग की अनुमति दिए
जाने को अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने नई विश्व व्यवस्था की संज्ञा दी।
• आपरेशन डेजर्ट स्टार्म : प्रथम खाड़ी युद्ध के दौरान उन देशों को मिली-जुली सेना
(660000) के सैन्य अभियन को (संयुक्त राष्ट्र संघ के) ‘ऑपरेशन डेजर्ट स्टार्म’ कहा
जाता है।
• ‘स्मार्ट बम’ : प्रथम खाड़ी युद्ध में अमेरिका ने जिन बमों का प्रयोग किया उसके लिए
बड़े विज्ञापनी अंदाज में उन्हें ‘स्मार्ट बम’ की संज्ञा दी।
• ‘कंप्यूटर युद्ध’ : प्रथम खाड़ी युद्ध में अमरीका ने जो स्मार्ट बम का प्रयोग करके शीघ्र
ही कुवैत के विरुद्ध इराक को घुटने टेकने के लिए विवश किया, उसे पर्यवेक्षकों ने
‘कंप्यूटर युद्ध’ की संज्ञा दी।
• ‘वीडियो गेम बार’ : दुनिया भर के अलग-अलग स्थानों पर जो दर्शकगण इराकी सेना
के धराशायी होने के दृश्य अपने टी-वी. पर देख रहे थे उसे ‘वीडियो गेम वार’ कहा गया।
• ‘पेंटागन’ : वर्जिनिया (अमेरिका) में है। यहाँ अमेरिकी रक्षा विभाग का मुख्यालय
• ऑपरेशन एण्डयूरिंग फ्रीडम : अमेरिका द्वारा आतंकवाद के विरुद्ध विश्वव्यापी युद्ध
के एक अंग के रूप में चलाई गई सैन्य कार्यवाही।
• ऑपरेशन इराकी फ्रीडम : 19 मार्च, 2003 को अमेरिका ने इराक के विरुद्ध सैन्य
आक्रमण कर दिया।
• हेगेमनी : इस शब्द की जड़ें प्राचीन यूनान में हैं। इस शब्द से किसी एक राज्य के नेतृत्व
या प्रभुत्व का बोध होता है। वहाँ इसका प्रयोग ‘एथेन्स’ राज्य की प्रभुता को इंगित करने
के लिए हुआ करता था।
• इंटरनेट : वैश्वि सार्वजनिक वस्तु का एक उदाहरण है- इंटरनेट। हालांकि आज इंटरनेट
के जरिए वर्ल्ड वेब (जगत-जोड़ता-जाल) का आभासी संसार साकार हो गया दिखता है,
लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इंटरनेट अमेरिकी सैन्य अनुसंधान परियोजना का
परिणाम है।
• ब्रेटनवुड प्रणाली : ब्रेटनवुड प्रणाली के अंतर्गत वैश्विक व्यापार के नियम तय किए
गए थे। इन नियमों को अमेरिकी हितों के अनुकूल बनाया गया था।
• एम०वी०ए० : मास्टर ऑफ बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन।
• विश्व का प्रथम विजनेस स्कूल : यूनिवर्सिटी ऑफ पेन्सिलवेनिया में वाहर्टन स्कूल (अमेरिका)।
8. समकालीन विश्व-व्यवस्था के संबंध में निम्नलिखित में कौन-सा कथन सही नहीं
है? [B.M. 2009A]
(क) आज कोई ऐसी विश्व सरकार मौजूद नहीं है जो देशों के व्यवहार को नियंत्रित कर
सके।
(ख) अंतर्राष्ट्रीय मामलों में संयुक्त राज्य अमेरिका की चलती है।
(ग) विभिन्न देश एक-दूसरे पर बल प्रयोग करते हैं।
(घ) जो देश अंतर्राष्ट्रीय कानून का उल्लंघन नहीं करते हैं, उन्हें संयुक्त राष्ट्र कठोर दंड
देता है। उत्तर-(घ)
9. वर्चस्व के बारे में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन गलत है? [B.M. 2009A]
(क) इसका अर्थ किसी एक देश की अगुआई या प्राबल्य है।
(ख) इस शब्द का इस्तेमाल प्राचीन यूनान में एथेंस की प्रधानता को चिह्नित करने के लिए
किया जाता था।
(ग) वर्चस्वशील देश की सैन्य शक्ति अजेय होती है।
(घ) वर्चस्व की स्थिति नियत होती है। जिसने एक बार वर्चस्व कायम कर लिया उसने
हमेशा के लिए वर्चस्व कायम कर लिया। उत्तर-(घ)
10. ऑपरेशन इराकी फ्रीडम’ (इराकी मुक्ति अभियान) के बारे में निम्नलिखित में से
कौन-सा कथन गलत है? [B.M. 2009A]
(क) इराक पर हमला करने के इच्छुक अमेरिकी अगुआई वाले गठबंधन में 40 से ज्यादा
देश शामिल हुए।
(ख) इराक पर हमले का कारण बताते हुए कहा गया कि यह हमला इराक को सामूहिक
संहार के हथियार बनाने से रोकने के लिए किया जा रहा है।
(ग) इस कार्यवाही से पहले संयुक्त राष्ट्रसंघ से अनुमति ले ली गयी थी।
(घ) अमेरिकी नेतृत्व वाले गठबंधन को उनकी सेना से तगड़ी चुनौती नहीं मिली।
उत्तर-(ग)
11. शीत युद्ध का अंत हुआ- [B.M. 2009A]
(क) 1991
(ख) 1891
(ग) 2001
(घ) उपर्युक्त में से कोई नहीं उत्तर-(क)
12. प्रथम खाड़ी युद्ध का संबंध था- [B.M.2009A]
(क) सोवियत संघ, ईरान और अफगानिस्तान से
(ख) अमेरिका द्वारा अपने लगभग 34 देशों की सेनाओं के साथ इराक पर हमले से
(ग) मिस्र, फिलस्तीन, ईरान और इराक झगड़े से
(घ) उपर्युक्त में से कोई नहीं उत्तर-(ख)
13. न्यूयार्क स्थित वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादियों का हमला हुआ था [B.M. 2009A]
(क) सितंबर 2001
(ख) सितंबर 2003
(ग) सितंबर 2005
(घ) उपर्युक्त में से कोई नहीं उत्तर-(क)
14. निम्न में से कौन-सा शहर किसी न किसी देश की राजधानी नहीं है ?B.M. 2009A]
(क) यह संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ और उसके साथी देशों के बीच की एक
प्रतिस्पर्धा थी।
(ख) यह महाशक्तितयों के बीच विचारधाराओं को लेकर एक युद्ध था।
(ग) शीत युद्ध ने हथियारों की होड़ शुरू की।
(घ) अमेरिका और सोवियत संघ सीधे युद्ध में शामिल थे।
उत्तर-(घ)
15. किस देश ने 2003 में संयुक्त राष्ट्रसंघ की उपेक्षा करके इराक पर आक्रमण किया?
[B.M. 2009A]
(क) अमेरिका
(ख) चीन
(ग) फ्रांस
(घ) रूस उत्तर-(क)
16. सद्दाम हुसैन को कब पकड़ा गया? [B.M. 2009A]
(क) 13 दिसम्बर, 2003
(ख) 25 अक्टूबर, 2004
(ग) 13 जनवरी, 2003
(घ) 27 अक्टूबर, 2004 उत्तर-(क)
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
1. 1991 में ‘नई विश्व व्यवस्था’ की शुरुआत कैसे हुई?
How did the beginning of the New World Order’ in 1991 take place?
उत्तर-नई विश्व व्यवस्था की शुरुआत (Begiming of Neto World Order)-
(1) सोवियत संघ के अचानक विघटन से हर कोई आश्यर्चचकित रह गया। दो महाशक्तियों
(अमेरिका तथा सोवियत संघ) में अब एक का वजूद तक न था जबकि दूसरा अपनी पूरी ताकत
या कहें कि बढ़ी हुई ताकत के साथ कायम था। इस तरह जान पड़ता है कि अमेरिका के वर्चस्व
(Hegemony) की शुरुआत 1991 में हुई जब तक ताकत के रूप में सोवियत संघ अंतर्राष्ट्रीय
परिदृश्य से गायब हो गया। एक सीमा तक यह बात सही है लेकिन हमें इसके साथ-साथ दो और
बातों का ध्यान रखना होगा।
(2) पहली बात यह है कि अमेरिकी वर्चस्व के कुछ पहलुओं का इतिहास 1991 तक सीमित
नहीं है बल्कि इससे कहीं पीछे दूसरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के समय 1945 तक जाता है।
(3) दूसरी बात, अमेरिका ने 1991 से ही वर्चस्वकारी ताकत की तरह बर्ताव करना शुरू नहीं
किया। दरअसल यह बात ही बहुत बाद में जाकर साफ हुई कि दुनिया वर्चस्व के दौर में जी रही है।
2. इराक पर अमेरिकी आक्रमण के दो वास्तविक उद्देश्य लिखिए।
Write two real objectives of invasion of the United States on Iraq.
उत्तर-(i) इराक के तेल भंडार पर अमेरिकी नियंत्रण बनाना। अमेरिका एक विकसित देश
है यद्यपि उसके पास विश्व में लगभग तेल के 40 प्रतिशत संसाधन मौजूद हैं लेकिन वह तेल
उत्पादक देशों को नियंत्रण में रखना चाहता है ताकि उसकी यातायात, सैन्य और अन्य संबंधित
तेल आवश्यकताओं के साधन कभी भी किसी संकट का सामना न करें।
(ii) अमेरिका चाहता है कि इराक में उसकी मनपसंद सरकार कायम रहे ताकि कुवैत सहित
अन्य खाड़ी और तेल उत्पादक देश उनके मित्र और सहयोगी बने रहे। अमेरिका अपने वर्चस्व को
बनाए रखने के लिए इराक सहित सभी देशों में अपनी मनपसंद सरकार कायम रखना चाहता है।
3. वर्चस्व का अर्थ क्या होता है? समझाइए।
What is meant by the term Hegemony? Explain.
उत्तर-वर्चस्व (Hegemony)-यह राजनीति की एक ऐसी कहानी है जो शक्ति के
इर्द-गिर्द घूमती है। किसी भी आम आदमी की तरह हर समूह भी ताकत पाना और कायम रखना
चाहता है। हम रोजाना बात करते हैं कि फलाँ आदमी ताकतवर होता जा रहा है या ताकतवर बनने पर तुला हुआ है। विश्व राजनीति में भी विभिन्न देश या देशों के समूह ताकत पाने और कायम रखने की लगातार कोशिश करते हैं। यह ताकत सैन्य प्रभुत्व, आर्थिक-शक्ति, राजनीतिक रुतबे और सांस्कृतिक बढ़त के रूप में होती है।
अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में ताकत का एक ही केद्र हो तो इसे ‘वर्चस्व’ (Hegemony) शब्द
के इस्तेमाल से वर्णित करना ज्यादा उचित होगा।
4. एकध्रुवीय व्यवस्था का आशय स्पष्ट करें।
Make clear the meaning of Unipolar System.
उत्तर- शीतयुद्ध के समय (1945-91) दो अलग-अलग गुटो में शामिल देशों के बीच
शक्ति का बंँटवारा था। शीतयुद्ध के समय स रा अमेरिका और सोवियत संघ इन दो अलग-अलग
शक्ति-केंद्रों के अगुआ थे। सोवियत संघ के पतन के बाद दुनिया में एकमात्र महाशक्ति अमेरिका
बचा। जब अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था किसी एक महाशक्ति या कहें कि उद्धत महाशक्ति के दबदबे में
हो तो बहुधा इसे ‘एकध्रुवीय’ व्यवस्था भी कहा जाता है। भौतिकी के शब्द ‘ध्रुव’ का यह एक
तरह से भ्रामक प्रयोग है। अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में ताकत का एक ही केंद्र हो तो इसे ‘वर्चस्व
(Hegemony) शब्द के इस्तेमाल से वार्णत करना ज्यादा उचित होगा।
5. किन्हीं दो कारणों को लिखिए, जिनकी वजह से दूसरे विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका
विश्व की सबसे बड़ी शक्ति बनकर उभरा।
Mention any two causes which helped USA to become a superpower after the Second World War.
उत्तर-(i) अमेरिका द्वारा जापान के विरुद्ध परमाणु बम के प्रयोग से उसकी धाक विश्व में
जम गई। (ii) युद्ध के दौरान तथा बाद में अमेरिका का निर्यात बढ़ा तथा वह विश्व की सबसे बड़ी
आर्थिक शक्ति बन गया।
लघु उत्तरीय प्रश्न
1. अमेरिका द्वारा 2003 में इराक पर किए गए आक्रमण का संक्षिप्त विवरण दीजिए।
Give a brief description of American attack on Iraq in 2003.
उत्तर- -इराक पर अमेरिकी आक्रमण (2003) (Amerian’s attack on Iraq)-(1)
2003 के 19 मार्च को अमेरिका ने ‘ऑपरेशन इराकी फ्रीडम’ के कूटनाम से इराक पर सैन्य-हमला किया। अमेरिकी अगुआई वाले ‘कॉअलिशन ऑव वीलिंग्स (आकांक्षियों के महाजोट)’ में 40 से अधिक देश शामिल हुए। संयुक्त राष्ट्र संघ ने इराक पर इस हमले की अनुमति नहीं दी थी। दिखावे के लिए कहा गया कि सामूहिक संहार के हथियार (वीपंस ऑव मास डेस्ट्रक्शन) बनाने से रोकने के लिए इराक पर हमला किया गया है। इराक में सामूहिक संहार के हथियारों की मौजूदगी के कोई प्रमाण नहीं मिले। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि हमले के मकसद कुछ और ही थे, जैसे इराक के तेल-भंडार पर नियंत्रण और इराक में अमेरिका की मनपसंद सरकार कायम करना।
(2) सद्दाम हुसैन की सरकार तो चंद रोज में ही जाती रही, लेकिन इराक को ‘शांत’ कर पाने
में अमेरिका सफल नहीं हो सका है। इराक में अमेरिका के खिलाफ पर पूर्णव्यापी विद्रोह भडक
उठा। अमेरिका के 3000 सैनिक इस युद्ध में खेत रहे जबकि इराक के सैनिक कहीं ज्यादा बड़ी
संख्या में मारे गये। एक अनुमान के अनुसार अमेरिकी हमले के बाद से लगभग 50000 नागरिक
मारे गये हैं। अब यह बात बड़े व्यापक रूप में मानी जा रही है कि एक महत्त्वपूर्ण अर्थ में इराक
पर अमेरिकी हमला सैन्य और राजनीतिक धरातल पर असफल सिद्ध हुआ है।
2. प्रथम खाड़ी युद्ध पर एक टिप्पणी कीजिए।
Write a short note on the First Gulf War. [B.M. 2009A]
उत्तर-प्रथम खाड़ी युद्ध (The Firt Gulf War)- (i) 1990 के अगस्त में इराक ने
कुवैत पर हमला किया और बड़ी तेजी से उस पर कब्जा जमा लिया। इराक को समझाने-बुझाने
की तमाम राजनयिक कोशिशें जब असफल रहीं तो संयुक्त राष्ट्र संघ ने कुवैत को मुक्त कराने
के लिए बल-प्रयोग की अनुमति दे दी। शीतयुद्ध के दौरान ज्यादातर मामलों में चुप्पी साध लेने
वाले संयुक्त राष्ट्र संघ के लिहाज से यह एक नाटकीय फैसला था। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश
ने इसे ‘नई विश्व व्यवस्था’ की संज्ञा दी।
(ii) 34 देशों की मिली-जुली और 660000 सैनिकों की भारी-भरकम फौज ने इराक के विरुद्ध
मोर्चा खोला और उसे परास्त कर दिया। इसे प्रथम खाड़ी युद्ध कहा जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ
के इस सैन्य अभियान को ‘अभियान डेजर्ट स्टाम’ कहा जाता है जो एक हद तक अमेरिकी सैन्य
अभियान ही था। एक अमेरिकी जनरल नार्मन श्वार्जकॉव इस सैन्य अभियान के प्रमुख थे और
34 देशों की इस मिली-जुली सेना में 75 प्रतिशत सैनिक अमेरिका के ही थे। हालांकि इराक के
राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन का ऐलान था कि यह ‘सौ जंगों की एक जंग’ साबित होगा लेकिन इराकी
सेना जल्दी की हार गई और उसे कुवैत से हटने पर मजबूर होना पड़ा।
(iii) प्रथम खाड़ी युद्ध से यह बात जाहिर हो गई कि बाकी देश सैन्य-क्षमता के मामले में
अमेरिका से बहुत पीछे हैं और इस मामले में प्रौद्योगिकी के धरातल पर अमेरिका बहुत आगे निकल गया है। बड़े विज्ञापनी अंदाज में अमेरिका ने इस युद्ध में तथाकथित ‘स्मार्ट बमों’ का प्रयोग किया। इसके चलते कुछ पर्यवेक्षकों ने इसे ‘कंप्यूटर युद्ध’ की संज्ञा दी। इस युद्ध की टेलीविजन पर व्यापक कवरेज हुई और यह एक ‘वीडियो गेम वार’ में तब्दील हो गया। दुनियाभर में अलग-अलग जगहों पर दर्शक अपनी बैठक में बड़े इत्मीनान से देख रहे थे कि इराकी सेना किस तरह धराशायी हो रही है।
(iv) यह बात अविश्वसनीय जान पड़ती है लेकिन अमरीका ने इस युद्ध में मुनाफा कमाया।
कई रिपोर्टों में कहा गया कि अमेरिका ने जितनी रकम इस जंग पर खर्च की उससे कहीं ज्यादा
रकम उसे जर्मनी, जापान और सऊदी अरब जैसे देशों से मिली थी।
3. इतिहास हमें वर्चस्व के विषय में क्या सिखाता है? संक्षेप में लिखिए।
What does history teach us about hegemony? Write in brief.
उत्तर-वर्चस्व एवं इतिहास (Hegemony and History)-
(1) वर्चस्व बदलता रहता है (Hegemony as always changed)-शक्ति-संतुलन के
तर्क को देखते हुए वर्चस्व की स्थिति अंतर्राष्ट्रीय मामलों में एक असामान्य परिघटना है। इसका
कारण बड़ा सीधा-सादा है। विश्व-सरकार जैसी कोई चीज नहीं होती और ऐसे में हर देश को अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करनी होती है। कभी-कभी अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में उसे यह भी सुनिश्चित करना होता है कि कम-से-कम उसका वजूद बचा रहे इस कारण, अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक व्यवस्था में विभिन्न देश शक्ति-संतुलन को लेकर बड़े सतर्क होते हैं और आमतौर पर वे किसी एक देश को इतना ताकतवर नहीं बनने देते कि वह बाकी देशों के लिए भयंकर खतरा बन जाय।
(ii) फ्रांस और ब्रिटेन का वर्चस्व (Hegemony of France and Britain)-ऊपर जिस
शक्ति-संतुलन की बात कही गई है उसे इतिहास से भी पुष्ट किया जा सकता है। चलन के मुताबिक हम 1648 को वह साल स्वीकार करते हैं जब संप्रभु राज्य विश्व-राजनीतिक के प्रमुख किरदार बने। इसके बाद से साढ़े तीन सौ साल गुजर चुके हैं। इस दौरान सिर्फ दो अवसर आए जब किसी एक देश ने अंतर्राष्ट्रीय फलक पर वही प्रबलता प्राप्त की जो आज अमेरिका को हासिल है। यूरोप की राजनीति के संदर्भ में 1660 से 1713 तक फ्रांस का दबदबा था और यह वर्चस्व का पहला उदाहरण है। ब्रिटेन का वर्चस्व और समुद्री व्यापार के बूते कायम हुआ उसका साम्राज्य 1860 से 1910 तक बना रहा। यह वर्चस्व का दूसरा उदाहरण है।
(iii) वर्चस्व का अंत अवश्यंभावी है (End of Hegemony is must)- इतिहास यह
भी बताता है कि वर्चस्व अपने चरमोत्कर्ष के समय अजेय जान पड़ता है, लेकिन यह हमेशा के
लिए कायम नहीं रहता। इसके ठीक विपरीत शक्ति-संतुलन की राजनीति वर्चस्वशील देश की
ताकत को आने वाले समय में कम कर देती है। 1660 में लुई 14वें के शासनकाल में फ्रांस
अपराजेय था लेकिन 1713 तक इंगलैंड, हैबस्बर्ग, आस्ट्रिया और रूस फ्रांस की ताकत को चुनौती देने लगे। 1860 में विक्टोरियाई शासन का सूर्य अपने पूरे उत्कर्ष पर था और ब्रिटिश साम्राज्य हमेशा के लिए सुरक्षित लगता था। 1910 तक यह स्पष्ट हो गया कि जर्मनी, जापान और अमेरिका ब्रिटेन की ताकत को ललकारने के लिए उठ खड़े हुए हैं। इसी तरह, अब से 20 साल बाद एक और महाशक्ति या कहें शक्तिशाली देशों का गठबंधन उठ खड़ा हो सकता है क्योंकि तुलनात्मक रूप से देखें तो अमेरिका की ताकत कमजोर पड़ रही है।
4. अमेरिकी वर्चस्व का क्या अर्थ है? [B.M. 2009AJQ.5]
उत्तर-25 दिसम्बर, 1991 ई० को अंतर्राष्ट्रीय पटल से सोवियत संघ के विघटन से
1945 ई. से संचालित शीतयुद्ध की समाप्ति होते ही समकालीन विश्व राजनीति में संयुक्त राज्य
अमेरिका का उभार एक सर्वोच्च शक्ति के रूप में हुआ। विश्व राजनीति में अमेरिकी प्रभुत्व
में हुई वृद्धि को एकध्रुवीय विश्व का दौर कह सकते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपने वर्चस्व
की स्थिति का लाभ उठाते हुए सर्वप्रथम इराक पर 17 जनवरी, 1991 ई. को आक्रमण कर, पुनः
मार्च, 2003 ई. को अमेरिका ने इराक पर आक्रमण कर अपने वर्चस्व प्रदर्शन किया। राजनीतिक,
सांस्कृतिक, सैन्य, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अमेरिका का वर्चस्व अतुलनीय है।
5. संयुक्त राष्ट्रसंघ अमेरीका की शक्ति या उसके बढ़ते दबाव को रोकने में असफल
ही रहा है, क्यों? [B.M. 2009 A]
उत्तर-संयुक्त राष्ट्रसंघ अमेरिका की शक्ति या उसके बढ़ते दबाव को रोकने में
असफल ही रही है, क्योंकि-
(i) अपनी सैन्य व आर्थिक ताकत के बल पर अमेरिका संयुक्त राष्ट्रसंघ या अन्य किसी भी
संगठन की अनदेखी कर सकता है।
(ii) संयुक्त राष्ट्र संघ के बजट में सबसे अधिक योगदान देनेवाला देश अमेरिका ही है।
इसके साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र संघ के कई बड़े नौकरशाह अमेरिका के नागरिक हैं।
(iii) यदि किसी प्रस्ताव के संबंध में अमेरिका या उसके साथी राष्ट्रों को लगे कि यह प्रस्ताव
उनके अनुकूल नहीं है तो अमेरिका उस पर वीटो शक्ति का प्रयोग करके उसको रुकवा भी सकता
है।
(iv) वीटो शक्ति के प्रयोग व प्रभाव के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव के चयन में
भी इसकी अहम् भूमिका है। अमेरिका अपनी शक्ति और नीतियों के कारण विश्व में फूट डालता
है ताकि विरोधियों के प्रभाव को कम किया जा सके।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1. उन तीन बातों का जिक्र करें जिनसे साबित होता है कि शीतयुद्ध की समाप्ति के
बाद अमेरिकी प्रभुत्व का स्वभाव बदला है और शीतयुद्ध के वर्षों के अमेरिकी प्रभुत्व
की तुलना में यह अलग है।
Mention three ways in which US dominance since the Cold Waris different from its position as a super power during the Cold War.[NCERT T.B.Q.5)
उत्तर-शीतयुद्ध 1991 को समाप्त हुआ। विश्व में दो सुपर-पावरों (महाशक्तियों) के स्थान
पर केवल एक सुपर पावर अमेरिका का वर्चस्व का काल शुरू हो गया। सोवियत संघ महाशक्ति
के रूप में अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य से गायब हो गया। निसंदेह अमेरिकी वर्चस्व का इतिहास हमें 1991 से शुरू मानकर उसका कालांश सीमित नहीं करना चाहिए क्योंकि यह इससे कहीं पहले शुरू हो चुका था। वस्तुतः इसका प्रारंभ द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के समय (1945) से शुरू हुआ। ये ठीक है कि अमेरिका ने अधिक दादागीरी दिखानी शुरू की और मजबूती और ताकत के साथ वर्चस्व का व्यवहार 1991 से दिखाना शुरू किया और इसीलिए अनेक देशों के कई प्रमुख नेता और विचारक यह मानते हैं कि दुनिया 1991 से आज तक वर्चस्व के दौर में जी रही है।
(i) जब 1990 के अगस्त में इराक ने कुवैत पर हमला किया और बड़ी तेजी से उस पर
कब्जा कर लिया तो पहले तो अमेरिका ने एक सभ्य वर्चस्वपूर्ण शक्ति के रूप में उसे अंतर्राष्ट्रीय
मंच (यू. एन.) के माध्यम से समझाने की कोशिश की। इराक को समझाने-बुझाने की तमाम
राजनयिक कोशिशें जब नाकाम रहीं तो संयुक्त राष्ट्रसंघ ने कुवैत को मुक्त कराने के लिए बल प्रयोग की अनुमति दे दी। शीतयुद्ध के दौरान ज्यादातर मामलों में चुप्पी साध लेने वाले संयुक्त राष्ट्रसंघ के लिहाज से यह एक नाटकीय फैसला था अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने इसे ‘नई विश्व व्यवस्था’ की संज्ञा दी।
(ii) 34 देशों की मिली-जुली और 660000 सैनिकों की भारी-भरकम फौज ने इराक के विरुद्ध
मोर्चा खोला और उसे परास्त कर दिया। इसे प्रथम खाड़ी युद्ध कहा जाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ
के इस सैन्य अभियान को ‘अभियान डेजर्ट स्टार्म’ कहा जाता है एक हद तक अमेरिकी सैन्य
अभियान ही था। एक अमेरिकी जनरल नार्मन श्वार्जकॉव इस सैन्य-अभियान के प्रमुख थे और
34 देशों की इस मिली-जुली सेना में 75 प्रतिशत सैनिक अमेरिका के ही थे। हालांँकि इराक के
राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन का ऐलान था कि यह ‘सौ जंगो की एक जंग’ साबित होगा लेकिन इराकी
सेना जल्दी की हार गई और उसे कुवैत से हटने पर मजबूर होना पड़ा।
(iii) प्रथम खाड़ी युद्ध से यह बात जाहिर हो गई कि बाकी देश सैन्य-क्षमता के मामले में
अमेरिका से बहुत पीछे हैं और इस मामले में प्रौद्योगिकी के धरातल पर अमेरिका बहुत आगे निकल गया है। बड़े विज्ञापनी अंदाज में अमेरिका ने इस युद्ध में तथाकथित ‘स्मार्ट बमों का प्रयोग किया। इसके चलते कुछ पर्यवेक्षकों ने इसे ‘कंप्यूटर युद्ध’ की संज्ञा दी। इस युद्ध की टेलीविजन पर व्यापक कवरेज हुई और यह एक वीडियो गेम वार’ में तब्दील हो गया। दुनियाभर में अलग-अलग जगहों पर दर्शक अपनी बैठक में बड़े इत्मीनान से देख रहे थे कि इराकी सेना किस तरह धराशायी हो रही है।
(iv) यह बात अविश्वसनीय जान पड़ती है लेकिन अमरीका ने इस युद्ध में मुनाफा कमाया।
कई रिपोर्टों में कहा गया कि अमेरिका ने जितनी रकम इस जंग पर खर्च की उससे कहीं ज्यादा
रकम उसे जर्मनी, जापान और सऊदी अरब जैसे देशों से मिली थी।
(v) अमेरिकी वर्चस्व का दूसरा उदाहरण 1999 में दिखाई दिया जब अपने प्रांत कोसोवो में
यूगोस्लाविया ने अल्बानियाई लोगों के आंदोलन को कुचलने के लिए सैन्य कार्यवाही की। कोसोवो में अल्बानियाई लोगों की बहुलता है। इसके जवाब में अमेरिकी नेतृत्व में नाटो के देशों ने
यूगोस्लावियाई क्षेत्रों पर दो महीने तक बमबारी की। स्लोबदान मिलोसेविच की सरकार गिर गयी
और कोसोवो पर नाटो की सेना काबिज हो गई।
(vi) बिल क्लिंटन के दौर में सैन्य कार्यवाही नैरोबी, (केन्या) और दारे-सलाम (तंजानिया)
के अमेरिकी दूतावासों पर बमबारी के जवाब में 1998 हुई। अतिवादी इस्लामी विचारों से प्रभावित आतंकवादी संगठन ‘अल-कायदा’ को इस बमबारी का जिम्मेवार ठहराया गया। इस बमबारी के कुछ दिनों के अंदर राष्ट्रपति क्लिंटन ने ‘ऑपरेशन इनफाइनाइट रीच’ का आदेश दिया। इस अभियान के अंतर्गत अमेरिका ने सूडान और अफगानिस्तान के अल-कायदा के ठिकानों पर कई बार क्रूज मिसाइल से हमले किए। अमेरिका ने अपनी इस कार्यवाही के लिए संयुक्त राष्ट्रसंघ की अनुमति लेने या इस सिलसिले में अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की परवाह नहीं की। अमेरिका पर आरोप लगा कि उसने अपने इस अभियान में कुछ नागरिक ठिकानों पर भी निशाना साधा जबकि इनका आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं था। पीछे मुड़कर देखने पर अब लगता है कि यह तो एक शुरुआत भर थी।
2. अमेरिकी वर्चस्व की राह में कौन-से व्यवधान हैं। आपके अनुसार इनमें कौन-सा
व्यवधान आगामी दिनों में सबसे महत्त्वपूर्ण सावित होगा?
What are contraints on American hegemony today? Which one of these do you expect to get more important in the future? INCERT T.B.Q.7]
उत्तर-अमेरिकी वर्चस्व की राह में व्यवधान (Contraints on American
Hegemony)-(1) संयुक्त राज्य अमेरिकी वर्चस्व की सबसे बड़ी बाधा खुद उसके वर्चस्व के
भीतर मौजूद है। अमेरिकी शक्ति की राह में तीन अवरोध हैं। 11 सितंबर, 2001 की घटना के
बाद के सालों में ये व्यवधान एक तरह से निष्क्रिय जान पड़ने लगे थे लेकिन धीरे-धीरे फिर प्रकट
होने लगे हैं। पहला व्यवधान स्वयं अमेरिका की संस्थागत बुनावट है। यहाँ शासन के तीन अंगों
के बीच शवित का बँटवारा है और यही बुनावट कार्यपालिका द्वारा सैन्य शक्ति के बेलगाम इस्तेमाल पर अंकुश लगाने का काम करती है।
(2) अमेरिका की ताकत के आड़े आने वाली दूसरी अड़चन भी अंदरुनी है। इस अड्चन के
मूल में है अमेरिकी समाज जो अपनी प्रकृति में उन्मुक्त है। अमेरिका में जन-संचार के साधन
समय-समय पर वहाँ के जनमत को एक खास दिशा में मोड़ने की भले कोशिश करें लेकिन अमेरिकी राजनीतिक संस्कृति में शासन के उद्देश्य और तरीके को लेकर गहरे संदेह का भाव भरा है। अमेरिका के विदेशी सैन्य-अभियानों पर अंकुश रखने में वह बात बड़ी कारगर भूमिका निभाती है।
(3) जो भी हो, अमेरिकी ताकत की राह में मौजूद तीसरा व्यवधान सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण
है। अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में आज सिर्फ एक संगठन है जो संभवतया अमेरिकी ताकत पर लगाम
कस सकता है और इस संगठन का नाम है ‘नाटो’ अर्थात उत्तर अटलांटिक ट्रीटी आर्गेनाइजेशन।
स्पष्ट ही अमेरिका का बहुत बड़ा हित लोकतांत्रिक देशों के इस संगठन को कायम रखने से जुड़ा
है क्योंकि इन देशों में बाजारमूलक अर्थव्यवस्था चलती है। इसी कारण इस बात की संभावना
बनती है कि ‘नाटो’ में शामिल अमेरिका के साथी देश उसके वर्चस्व पर कुछ अंकुश लगा सकें।
(4) हमारे विचार में अमेरिका के वर्चस्व पर दूसरा व्यवधान ही सबसे महत्त्वपूर्ण साबित होगा
क्योंकि अमेरिका एक लोकतांत्रिक देश है। अमेरिका के नागरिक संपन्न और सुशिक्षित हैं। वे किसी भी ऐसे व्यक्ति/सरकार/ राजनीतिक दल को अनुमति नहीं देंगे कि वह अपने वर्चस्व के लिए सारी मानवजाति को तीसरे महायुद्ध की आग में झोंक दे या अपनी मनमानी के द्वारा आतंकवादियों के निशाने पर स्थायी बिंदु बना दे अथवा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर असंतोष/ईर्ष्या/शत्रुता अमेरिका के लिए अंदर-अंदर ही पनपती रहे।
(5) अमेरिका के लोग अंततः स्वतंत्र जीवन सभी के लिए चाहेंगे। जनमत की अवहेलना
कोई भी लोकतांत्रिक नेता/सरकार या राजनैतिक दल नहीं कर सकता। अमेरिका के विदेशी सैन्य
अभियानों पर वहाँ का लोकमत अंकुश रखता है और भविष्य में भी रखेगा वही कारगर भूमिका
निभाएगा। जहाँ तक नाटो का सवाल है उसके सदस्य-विचारधारा, वित्तीय साधनों, सैन्य शक्ति
और यहाँ तक कि धार्मिक और जातिगत संबंधों से भी अमेरिका के साथ बहुत ज्यादा घनिष्ठ हैं।
उनमें भी फ्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी को छोड़कर प्रायः सभी सदस्य अमेरिका के वर्चस्व पर अंकुश
लगाने की शायद ही सोच सकें।
3. 9/11 और आतंकवाद के विरुद्ध विश्वव्यापी युद्ध पर एक लेख लिखिए।
Write an essay on 9/11 and the Global War on Terror.
उत्तर-9/11 और आतंकवाद के विरुद्ध विश्वव्यापी युद्ध (9/11 and the Global
War on Terror)―
(i) पृष्ठभूमि (Background)-11 सितंबर, 2001 के दिन विभिन्न अरब देशों के 19
अपहरणकर्ताओं ने उडान भरने के चंद मिनटों बाद चार अमेरिकी व्यावसायिक विमानों पर कब्जा कर लिया। अपहरणकर्ता इन विमानों को अमेरिका की महत्त्वपूर्ण इमारतों की सीध में उड़ाकर ले गये। दो विमान न्यूयार्क स्थित वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के उत्तरी और दक्षिणी टावर से टकराए। तीसरा विमान वर्जिनिया के अर्लिंगटन स्थित ‘पेंटागन’ से टकराया। ‘पेंटागन’ में अमेरिकी रक्षा-विभाग का मुख्यालय है। चौथे विमान को अमेरिकी कांग्रेस की मुख्य इमारत से टकराना था लेकिन यह पेन्सिलवेनिया के एक खेत में गिर गया। इस हमले को ‘नाइन एलेवन’ कहा जाता है।
(ii) आतंकवादी हमले के प्रभाव (Consequences of terrorist attack)-इस हमले
में लगभग तीन हजार व्यक्ति मारे गये। अमेरिकियों के लिए यह दिल दहला देने वाला अनुभव
था। उन्होंने इस घटना की तुलना 1814 और 1941 की घटनाओं से की 1814 में ब्रिटेन ने वाशिंगटन डीसी में आगजनी की थी और 1941 में जापानियों ने पर्ल हार्बर पर हमला किया था। जहाँ तक जान-माल की हानि का सवाल है तो अमेरिकी जमीन पर यह अब तक का सबसे गंभीर हमला था। अमेरिका 1776 में एक देश बना और तब से उसने इतना बड़ा हमला नहीं झेला था।
(iii) अमेरिका की प्रतिक्रिया (Reaction of America)-(क) 9/11 के जवाब में
अमेरिका ने फौरी कदम उठाये और भयंकर कार्यवाही की। अब क्लिंटन की जगह रिपब्लिकन पार्टी के जॉर्ज डब्ल्यू, बुश राष्ट्रपति थे। ये पूर्ववर्ती राष्ट्रपति एच डब्ल्यू. बुश के पुत्र हैं। क्लिंटन के विपरीत बुश ने अमेरिकी हितों को लेकर कठोर रवैया अपनाया और इन हितों को बढ़ावा देने के लिए कड़े कदम उठाये।
(ख) ‘आतंकवाद के विरुद्ध विश्वव्यापी युद्ध’ के अंग के रूप में अमेरिका ने ‘ऑपरेशन
एण्डयूरिंग फ्रीडम’ चलाया। यह अभियान उन सभी के खिलाफ चला जिन पर 9/11 का शक
था। इस अभियान में मुख्य निशाना अल-कायदा और अफगानिस्तान के तालिबान-शासन को
बनाया गया। तालिबान के शासन के पाँव जल्दी ही उखड़ गए लेकिन तालिबान और अल-कायदा के अवशेष अब भी सक्रिय हैं। 9/11 की घटना के बाद से अब तक इनकी तरफ से पश्चिमी मुल्कों में कई जगहों पर हमले हुए हैं। इससे इनकी सक्रियता की बात स्पष्ट हो जाती है।
(ग) अमेरिकी सेना ने पूरे विश्व में गिरफ्तारियां कीं। अक्सर गिरफ्तार लोगों के बारे में उनकी
सरकार को जानकारी नहीं दी गई। गिरफ्तार लोगों को अलग-अलग देशों में भेजा गया और उन्हें
खुफिया जेलखानों में बंदी बनाकर रखा गया। क्यूबा के निकट अमेरिकी नौसेना का एक ठिकाना
ग्वांतानामो बे में है। कुछ बंदियों को वहाँ रखा गया। इस जगह रखे गये बंदियों को न तो अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की सुरक्षा प्राप्त है और न ही अपने देश या अमेरिका के कानूनों की। संयुक्त राष्ट्रसंघ के प्रतिनिधियों तक को इन बंदियों से मिलने की अनुमति नहीं दी गई।
4. ‘अमेरिका भारत के संबंध’ विषय पर एक लेख लिखिए।
Write an essay on America’s relations with India.
उत्तर-अमेरिका के भारत से संबंध (During the period of the Cold War)-
शीतयुद्ध के वर्षों में भारत अमेरिकी गुट के विरुद्ध खड़ा था। इन सालों में भारत की करीबी दोस्ती सोवियत संघ से थी। सोवियत संघ के बिखरने के बाद भारत ने पाया कि लगातार कटुतापूर्ण होते अंतर्राष्ट्रीय माहौल में वह मित्रविहीन हो गया है। इसी अवधि में भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था का उदारीकरण करने तथा उसे वैश्विक अर्थव्यवस्था से जोड़ने का भी फैसला किया। इस नीति और हाल के सालों में प्रभावशाली आर्थिक वृद्धि-दर के कारण भारत अब अमेरिका समेत कई देशों के लिए आकर्षक आर्थिक सहयोगी बन गया है।
(ii) गत 15 वर्षों में भारत-अमेरिकी संबंध (During last 15 years India-us
relationship)― हाल के सालों में भारत-अमेरिकी संबंधों के बीच दो नई बातें उभरी हैं। इन
बातों का संबंध प्रौद्योगिकी और अमेरिकी में बसे अनिवासी भारतीयों से है। दरअसल, ये दोनों
बातें आपस में जुड़ी हैं। निम्नलिखित तथ्यों पर विचार कीजिए-
• सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में भारत के कुल निर्यात का 65 प्रतिशत अमरीका को जाता है।
• बोईंग के 35 प्रतिशत तकनीकी कर्मचारी भारतीय मूल के हैं।
• 3 लाख भारतीय ‘सिलिकन वैली’ में काम करते हैं।
• उच्च प्रौद्योगिकी के क्षेत्र की 15 प्रतिशत कंपनियों की शुरुआत अमेरिका में बसे भारतीयों
ने की है।
• यह अमरीका के विश्वव्यापी वर्चस्व का दौर है और बाकी देशों की तरह भारत को भी
फैसला करना है कि अमेरिका के साथ वह किस तरह के संबंध रखना चाहता है। यह तय
कर पांना कोई आसान काम नहीं। भारत में तीन संभावित रणनीतियों पर बहस चल रही
है।
• भारत के जो विद्वान अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को सैन्य शक्ति के संदर्भ में देखते-समझते हैं,
वे भारत और अमेरिका की बढ़ती हुई नजदीकी से भयभीत हैं। ऐसे विद्वान यही चाहेंगे
कि भारत वाशिंगटन से अपना अलगाव बनाए रखे और अपना ध्यान अपनी राष्ट्रीय
शक्ति को बढ़ाने पर लगाये।
• कुछ विद्वान मानते हैं कि भारत और अमेरिका के हितों में हेलमेल लगातार बढ़ रहा है
और वह भारत के लिए ऐतिहासिक अवसर है। ये विद्वान एक ऐसी रणनीति अपनाने की
तरफदारी करते हैं जिससे भारत अमेरिकी वर्चस्व का फायदा उठाए। वे चाहते हैं कि दोनों देशों के आपसी हितों का मेल हो और भारत अपने लिए सबसे बढ़िया विकल्प ढूँढ सके।
इन विद्वानों की राय है कि अमेरिका के विरोध की रणनीति व्यर्थ साबित होगी और आगे
चलकर इससे भारत को नुकसान होगा।
• कुछ विद्वानों की राय है कि भारत अपनी अगुआई में विकासशील देशों का गठबंधन
बनाए। कुछ सालों में यह गठबंधन ज्यादा ताकतवर हो जाएगा और अमेरिकी वर्चस्व के
प्रतिकार में सक्षम हो जाएगा।
निष्कर्ष (Conclusion)- शायद भारत और अमेरिका के बीच संबंध इतने जटिल हैं कि •
किसी एक रणनीति पर निर्भर नहीं रहा जा सकता। अमेरिका से निर्वाह करने के लिए भारत को
विदेश नीति की कई रणनीतियों का एक समुचित मेल तैयार करना होगा।
5. आप किस तरह से अमेरिका की शक्ति का आकलन एक प्रमुख शक्ति के रूप में
करेंगे? (How will you evaluate America’s power as a superpower?)
[B.M. 2009A]
उत्तर-साम्यवाद के प्रसार को रोकना (Tocheck spread of comunalism)- इस
उद्देश्य को पूरा करने के लिए उसने खुलेआम कहा कि वह स्वयं तथा पश्चिमी यूरोपीय देशों से
मिलकर सोवियत संघ तथा पूर्वी यूरोप की विदेशी नीतियों पर प्रहार करेगा, जिन्हें वह साम्यवाद
को बढ़ावा देने वाला समझेगा। उसने उन सारे व्यक्तियों, शासनाध्यक्षों, सैनिक अधिकारियों,
राजनैतिक दलों आदि के विरोध के लिए अपनी गुप्तचर संस्था का उपयोग किया, जो अमेरिका
तथा पूँजीवाद व्यवस्था के प्रति शत्रुतापूर्ण रवैया अपनाए हुए थे।
अमेरिकी विदेश नीति का दूसरा उद्देश्य सैनिक हितों से सम्बन्धित था (The Second
Objective was related withMilitary Interests)-सैनिक समझौतों, सैनिक अड्डों तथा
अपनी सैन्य-शक्ति का विस्तार करना। वह चाहता था कि अधिक-से-अधिक देश सैन्य-संधियों
द्वारा उसके साथ जुड़ जाएँ। उसने नाटो, सीएटो, सेंटो आदि सैनिक समझौतों द्वारा यूरोप, अमेरिकी, एशियाई और लैटिन अमेरिकी देशों को अपने साथ मिला लिया उसने मिसाइल छोड़ने तथा अन्य नवीनतम हथियारों का प्रयोग करने के लिए विभिन्न देशों में सैनिक अड्डे बनाए।
(3) लोकतंत्र (Democracy)-लोकतांत्रिक गणतंत्रीय सरकारों को समर्थन दिया जाए।
अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र संघ तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद का
विरोध किया तथा उन सरकारों के तख्ने पलटवा दिए जो लोकतांत्रिक सरकारों एवं गणतंत्रीय
सरकारों की नीतियों का समर्थन नहीं करते थे।
(4) ऋण (Loans)-अमेरिका अन्य देशों को अपनी शर्तों पर ऋण तथा आर्थिक सहायता
देता था। फिर चाहे आर्थिक सहायता यूरोपीय देशों को दी जाती या लैटिन अमेरिकी देशों को या
एशियाई देशों को। सबके लिए शर्त थी कि वह सोवियत संघ के विरुद्ध अमेरिकी पक्ष को समर्थन
देंगे। क्यूबा, वियतनाम तथा कोरिया में उनका पक्ष लिया गया, जो अमेरिका के साथ थे।
6. अमेरिका के वर्चस्व से कैसे निपटा जा सकता है?
How can America’s hegemony overcome?
उत्तर-अमेरिका के वर्चस्व से निपटना (Overcoming over the America’s
Thegemony)-(1) संयुक्त राज्य अमेरिका के बढ़ते वर्चस्व ने विचारकों को सोचने के लिए
विवश कर दिया है। उनके समक्ष अनेक प्रश्न आ रहे हैं। जैसे कि कब तक चलेगा अमेरिकी
वर्चस्व? इस वर्चस्व से कैसे बचा जा सकता है? जाहिर तौर पर ये सवाल हमारे वक्त के सबसे
झंझावती सवाल है। इतिहास से हमें इन सवालों के जवाब के कुछ सुराग मिलते हैं लेकिन बात,
यहाँ इतिहास की नहीं वर्तमान और भविष्य की हो रही है। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में ऐसी चीजें
गिनी-चुनी ही हैं जो किसी देश की सैन्यशक्ति पर लगाम कस सके। हर देश में सरकार होती है
लेकिन विश्व-सरकार जैसी कोई चीज नहीं होती।
(2) अंतर्राष्ट्रीय राजनीति दरअसल ‘सरकार विहीन राजनीति’ है। कुछ कायदे-कानून जरूर
हैं जो युद्ध पर कुछ अंकुश रखते हैं लेकिन ये कायदे-कानून युद्ध को रोक नहीं सकते। फिर, शायद ही कोई देश होगा जो अपनी सुरक्षा को अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के हवाले कर दे। तो क्या इन बातों से यह समझा जाए कि न तो वर्चस्व से कोई छुटकारा है और न ही युद्ध से?
(3) फिलहाल हमें यह बात मान लेनी चाहिए कि कोई भी देश अमेरिकी सैन्यशक्ति के जो
का मौजूद नहीं है। भारत, चीन और रूस जैसे बड़े देशों में अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती दे पानी
की संभावना है लेकिन इन देशों के बीच आपसी मतभेद हैं और इन विभेदों के रहते उनका अमेरिका के विरुद्ध कोई गठबंधन नहीं हो सकता।
(4) कुछ लोगों का तर्क है कि वर्चस्वजनित अवसरों के लाभ उठाने की रणनीति ज्यादा संगत
है। उदाहरण के लिए, आर्थिक वृद्धि-दर को ऊंचा करने के लिए व्यापार को बढ़ावा, प्रौद्योगिकी का हस्तांतरण और निवेश जरूरी है और अमेरिका के साथ मिलकर काम करने से इसमें आसानी होगी न कि उसका विरोध करने से। ऐसे में सुझाव दिया जाता है कि सबसे ताकतवर देश के विरुद्ध जाने के बजाय उसके वर्चस्व-तंत्र में रहते हुए अवसरों का फायदा उठाना कहीं उचित रणनीति है। इसे ‘बैंडवैगन’ अथवा ‘जैसी बहे बयार पीठ तब तैसी दीजै’ की रणनीति कहते हैं।
(5) देशों के सामने एक विकल्प यह है कि वे अपने को ‘छुपा’ लें। इसका अर्थ होता है
दबदबे वाले देश से यथासंभव दूर-दूर रहना। इस व्यवहार के कई उदाहरण हैं। चीन, रूस और
यूरोपीय संघ सभी एक न एक तरीके से अपने को अमेरिकी निगाह में चढ़ने से बचा रहे हैं। इस
तरह से अमेरिका के किसी बेवजह या बेपनाह क्रोध की चपेट में आने से ये देश अपने को
बचाते हैं।
(6) जो भी हो, बड़े या मंँझले दर्जे के ताकतवर देशों के लिए यह रणनीति ज्यादा दिनों तक
काम नहीं आने वाली। छोटे देशों के लिए यह संगत और आकर्षक रणनीति हो सकती है, लेकिन
यह कल्पना से परे है कि चीन, भारत और रूस जैसे बड़े देश अथवा यूरोपीय संघ जैसा विशाल
जमावड़ा अपने को बहुत दिनों तक अमेरिकी निगाह में चढ़ने से बचाकर रख सके।
(7) कुछ लोग मानते हैं कि अमेरिकी वर्चस्व का प्रतिकार कोई देश अथवा देशों का समूह
नहीं कर पाएगा, क्योंकि आज सभी देश अमेरिकी ताकत के आगे बेबस हैं। ये लोग मानते हैं कि
राज्येतर संस्थाएंँ अमेरिकी वर्चस्व के प्रतिकार के लिए आगे आएंगी।
(8) अमेरिकी वर्चस्व को आर्थिक और सांस्कृतिक धरातल पर चुनौती मिलेगी। यह चुनौती
स्वयंसेवी संगठन, सामाजिक आंदोलन और जनमत के आपसी मेल से प्रस्तुत होगी; मीडिया का
एक तबका, बुद्धिजीवी, कलाकार और लेखक आदि अमेरिकी वर्चस्व के प्रतिरोध के लिए आगे
आएंँगे। ये राज्येतर संस्थाएँ विश्वव्यापी नेटवर्क बना सकती हैं जिसमें अमेरिकी नागरिक भी शामिल होंगे और साथ मिलकर अमेरिकी नीतियों की आलोचना तथा प्रतिरोध किया जा सकेगा।
(9) आपने यह जुमला सुना होगा कि अब हम ‘विश्वग्राम’ में रहते हैं। इस विश्वग्राम में
एक चौधरी है और हम सभी उसके पड़ोसी। यदि चौधरी का बर्ताव असहनीय हो जाय तो भी
विश्वग्राम से चले जाने का विकल्प हमारे पास मौजूद नहीं क्योंकि यही एकमात्र गाँव है जिसे हम
जानते हैं और रहने के लिए हमारे पास यही एक गाँव है। ऐसे में प्रतिरोध ही एकमात्र विकल्प
बचता है।
7. ढाँचागत शक्ति के अर्थ में अमेरिकन वर्चस्व पर एक लेख लिखिए।
Write an essay on merica’s hegemony as structure power.
उत्तर-ढाँचागत शक्ति के अर्थ में अमेरिकी वर्चस्व (America’s hegemony as a
structure porver)-(1) अमेरिका की सैन्य शक्ति के वर्चस्व से उसके ढाँचागत वर्चस्व का
अर्थ बहुत अलग है। इसका रिश्ता वैश्विक अर्थव्यवस्था की एक खास समझ से है। इस समझ
की बुनियादी धारणा है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपनी मर्जी चलाने वाला एक ऐसा देश जरूरी
होता है जो अपने मतलब की चीजों को बनाए और बरकरार रखे। ऐसे देश के लिए जरूरी है कि
उसके पास व्यवस्था कायम करने के लिए कायदों को लागू करने की क्षमता और इच्छा हो। साथ
ही यह भी जरूरी है कि वह वैश्विक व्यवस्था को हर हालत बनाए रखे। दबदबे वाला देश ऐसा
अपने फायदे के लिए करता है लेकिन अक्सर इसमें उसे कुछ आपेक्षित हानि उठानी पड़ती है।
(2) दूसरे प्रतियोगी देश वैश्विक अर्थव्यवस्था के खुलेपन का फायदा उठाते हैं जबकि इस
खुलेपन को कायम रखने के लिए उन्हें कोई खर्च भी नहीं करना पड़ता।
(3) वर्चस्व के इस दूसरे अर्थ को ग्रहण करे तो इसकी झलक हमें विश्वव्यापी ‘सार्वजनिक
वस्तुओं को मुहैया कराने की अमेरिकी भूमिका में मिलती है। ‘सार्वजनिक वस्तुओं’ से आशय
ऐसी चीजों से है जिसका उपभोग कोई एक व्यक्ति करे तो दूसरे को उपलब्ध इसी वस्तु की मात्रा
में कोई कमी नहीं आए। स्वच्छ वायु और सड़क सार्वजनिक वस्तु के उदाहरण हैं। वैश्विक
अर्थव्यवस्था के संदर्भ में सार्वजनिक वस्तु का सबसे बढ़िया उदाहरण समुद्री व्यापार-मार्ग
(सी लेन ऑव कम्युनिकेशन्स SLOCs) हैं जिनका इस्तेमान व्यापारिक जहाज करते हैं।
(4) खुली वैश्विक अर्थव्यवस्था में मुक्त-व्यापार समुद्री व्यापार-मार्गों के खुलेपन के बिना
संभव नहीं। दबदबे वाला देश अपनी नौसेना की ताकत से समुद्री व्यापार-मार्गों पर आवाजाही के
नियम तय करता है और अंतर्राष्ट्रीय समुद्र में अबाध आवाजाही को सुनिश्चित करता है। दूसरे
विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटिश नौसेना का जोर घट गया और अब बहुसमुद्री अमेरिकी नौसेना यह
भूमिका निभाती है।
(5) वैश्विक सार्वजनिक वस्तु का एक और उदाहरण है-इंटरनेट। हालाँकि आज इंटरनेट
के जरिए वर्ल्ड वाइड वेब (जगत-जोड़ता-जाल) का आभासी संसार साकार हो गया दीखता है,
लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इंटरनेट अमेरिकी सैन्य अनुसंधान परियोजना का परिणाम
है। यह परियोजना 1950 में शुरू हुई थी। आज भी इंटरनेट उपग्रहों के एक वैश्विक तंत्र पर निर्भर है और इनमें अधिकांश उपग्रह अमेरिका के हैं।
(6) हम जानते हैं कि अमेरिका दुनिया के हर हिस्से, वैश्विक अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र तथा
प्रौद्योगिकी के हर हलके में मौजूद है। विश्व की अर्थव्यवस्था में अमेरिका की 28 प्रतिशत की
हिस्सेदारी है। यदि विश्व के व्यापार में यूरोपीय संघ के अंदरूनी व्यापार को भी शामिल कर लें
तो विश्व के कुल व्यापार में अमेरिका की 15 प्रतिशत की हिस्सेदारी है। विश्व की अर्थव्यवस्था
का एक भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जिसमें कोई अमेरिकी कंपनी अग्रणी तीन कंपनियों में से एक नहीं हो।
(7) ध्यान रहे कि अमेरिका की आर्थिक प्रबलता उसकी ढांचागत. ताकत यानी वैश्विक
अर्थव्यवस्था को एक खास शक्ल में ढालने की ताकत से जुड़ी हुई है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद
ब्रेटनवुड प्रणाली कायम हुई थी। अमेरिका द्वारा कायन यह प्रणाली आज भी विश्व की अर्थव्यवस्था की बुनियादी संरचना का काम कर रही है। इस तरह हम विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश और विश्व व्यापार संगठन को अमेरिकी वर्चस्व का परिणाम मान सकते हैं।
(8) अमेरिका की ढाँचागत ताकत का एक मानक उदाहरण एम.बी.ए. (मास्टर ऑव बिजनेस
एडमिनिस्ट्रेशन) की अकादमिक डिग्री है। यह विशुद्ध रूप से अमेरिकी धारणा है कि व्यवसाय
अपने आप में एक पेशा है जो कौशल पर निर्भर करता है और इस कौशल को विश्वविद्यालय में
अर्जित किया जा सकता है।
(9) यूनिवर्सिटी ऑव पेन्सिलवेनिया में वार्टन स्कूल के नाम से विश्व का पहला ‘बिजनेस
स्कूल’ खुला। इसकी स्थापना सन् 1881 में हुई। एम बी.ए. के शुरूआती पाठ्यक्रम 1900 से
आरंभ हुए। अमेरिका से बाहर एम बी.ए. के किसी पाठ्यक्रम की शुरूआत सन् 1950 में ही जाकर हो सकी। आज दुनिया में कोई देश ऐसा नहीं जिसमें एम बी.ए. को एक प्रतिष्ठित अकादमिक डिग्री का दर्जा हासिल न हो। इस बात से हमें अपने दक्षिण अफ्रीकी दोस्त जाबू की याद आती है। ढाँचागत वर्चस्व को ध्यान में रखें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जाबू के पिता क्यों जोर दे रहे थे कि वह पेंटिंग की पढ़ाई छोड़कर एम.बी.ए. की डिग्री ले।
8. सांस्कृतिक अर्थ में अमेरिकन वर्चस्व का विवरण दीजिए।
Discuss America’s hegemony as a soft power. [B.M. 2009A]
उत्तर-अमेरिका का सांस्कृतिक अर्थ में वर्चस्व (America’s hegenony as a soft
power)-(1) अमेरिकी वर्चस्व को शुद्ध रूप से सैन्य और आर्थिक संदर्भ में देखना भूल होगी।
हमें अमेरिकी वर्चस्व पर विचारधारा या संस्कृति के संदर्भ में भी विचार करना चाहिए। वर्चस्व के इस तीसरे अर्थ का रिश्ता ‘सहमति गढ़ने की ताकत से है। यहाँ वर्चस्व का आशय है सामाजिक,
राजनीतिक और खासकर विचारधारा के धरातल पर किसी वर्ग की बढ़त या दबदबा।
(2) कोई प्रभुत्वशाली वर्ग या देश अपने असर में रहने वालों को इस तरह सहमत कर सकता
है कि वे भी दुनिया को उसी नजरिए से देखने लगे जिसमें प्रभुत्वशाली वर्ग या देश देखता है।
इससे प्रभुत्वशाली की बढ़त और वर्चस्व कायम होता है। विश्व राजनीति के दायरे में वर्चस्व के
इस अर्थ को लागू करें तो स्पष्ट होगा कि प्रभुत्वशाली देश सिर्फ सैन्य शक्ति से काम नहीं लेता;
वह अपने प्रतिद्वंद्वी और अपने से कमजोर देशों के व्यवहार-बर्ताव को अपने मनमाफिक बनाने के लिए विचारधारा से जुड़े साधनों का भी इस्तेमाल करता है।
(3) कमजोर देशों के व्यवहार-बर्ताव को इस तरह से प्रभावित किया जाता है कि उससे सबसे
ताकतवर देश का हितसाधन हो; उसका प्राबल्य बना रहे। इस तरह, प्रभुत्वशाली देश जोर-जबर्दस्ती और रजामंदी दोनों ही तरीकों से काम लेता है। अक्सर रजामंदी का तरीका जोर-जबर्दस्ती से कहीं ज्यादा कारगर साबित होता है।
(4) आज विश्व में अमेरिका का दबदबा सिर्फ सैन्य शक्ति और आर्थिक बढ़त के बूते ही
नहीं बल्कि अमेरिका की सांस्कृतिक मौजूदगी भी इसका एक कारण है। चाहे हम इस बात को माने या न मानें लेकिन यह सच है कि आज अच्छे जीवन और व्यक्तिगत सफलता के बारे में जो
धारणाएँ पूरे विश्व में प्रचलित हैं; दुनिया के अधिकांश लोगों और समाजों के जो सपने हैं-वे
सब बीसवीं सदी के अमेरिका में प्रचलित व्यवहार-बर्ताव के ही प्रतिबिंब हैं।
(5) अमेरिकी संस्कृति बड़ी लुभावनी है और इसी कारण सबसे ज्यादा ताकतवर है। वर्चस्व
का यह सांस्कृतिक पहलू है जहाँ जोर-जबर्दस्ती से नहीं बल्कि रजामंदी से बात मनवायी जाती है। समय गुजरने के साथ हम इसके इतने अभ्यस्त हो गए हैं कि अब हम इसे उतना ही सहज मानते हैं जितना अपने आस-पास के पेड़-पक्षी या नदी को।
(6) आपको आन्द्रेई और उसकी ‘कूल’ जीन्स की याद होगी। आन्द्रेई के माता-पिता जब
सोवियत संघ में युवा थे तो उनकी पीढ़ी के लिए नीली जीन्स ‘आजादी’ का परम प्रतीक हुआ
करती थी। युवक-युवती अक्सर अपनी साल-साल भर की तनख्वाह किसी ‘चोरबाजार’ में विदेशी
पर्यटकों से नीली जीन्स खरीदने पर खर्च कर देते थे। ऐसा चाहे जैसे भी हुआ हो लेकिन सोवियत
संघ की एक पूरी पीढ़ी के लिए नीली जीन्स ‘अच्छे जीवन’ की आकांक्षाओं का प्रतीक बन गई
थी- -एक ऐसा ‘अच्छा जीवन’ जो सोवियत संघ में उपलब्ध नहीं था।
(7) शीतयुद्ध के दौरान अमेरिका को लगा कि सैन्य शक्ति के दायरे में सोवियत संघ को
मात दे पाना मुश्किल है। अमेरिका ने ढाँचागत ताकत और सांस्कृतिक प्रभुत्व के दायरे में सोवियत संघ से बाजी मारी। सोवियत संघ की केंद्रीकृत और नियोजित अर्थव्यवस्था उसके लिए अंदरूनी आर्थिक संगठन का एक वैकल्पिक मॉडल तो थी लेकिन पूरे शीतयुद्ध के दौरान विश्व की अर्थव्यवस्था पूँजीवादी तर्ज पर चली। अमरीका ने सबसे बड़ी जीत सांस्कृतिक प्रभुत्व के दायरे में हासिल की। सोवियत संघ में नीली जीन्स के लिए दीवानगी इस बात साफ-साफ जाहिर करती है कि अमेरिका एक सांस्कृतिक उत्पाद के दम पर सोवियत संघ में दो पीढ़ियों के बीच दूरियाँ पैदा करने में कामयाब रहा।
9. अमरीकी वर्चस्व सैनिक शक्ति के रूप में समझाइए।
Explain American hegemony as a hard power. [B.M. 2009A]
उत्तर-अमेरिकी वर्चस्व सैनिक शक्ति के अर्थ में (America hegemony as a hard
power)-(क) “हेगेमनी’ शब्द की जड़ें प्राचीन यूनान में हैं। इस शब्द से किसी एक राज्य के
नेतृत्व या प्रभुत्व का बोध होता है। मूलत: इस शब्द का प्रयोग प्राचीन यूनान के अन्य नगर-राज्यों
की तुलना में एथेंस की प्रबलता को इंगित करने के लिए किया जाता था। इस प्रकार ‘हेगेमनी’ के
पहले अर्थ का संबंध राज्यों के बीच सैन्य-क्षमता की बनावट और तौल से है।
(ख) ‘हेगेमनी’ से ध्वनित सैन्य-प्राबल्य का यही अर्थ आज विश्व-राजनीति में अमेरिका की
हैसियत को बताने में इस्तेमाल होता है। क्या आपको आयशा की याद है जिसकी एक टाँग अमेरिकी हमले में जाती रही? यही है यह सैन्य वर्चस्व जिसने उसकी आत्मा को तो नहीं लेकिन उसके शरीर को जरूर पंगु बना दिया।
नाट―नीचे दिया गया मानचित्र अमरिका का सैन्य शक्ति के विभिन्न कमान को दर्शाता
है। याद रहे विश्व की अधिकांश सशस्त्र सेनाएँ अपनी सैन्य-कार्यवाही के क्षेत्र को विभिन्न कमानों
में बाँटती हैं। हर ‘कमान’ के लिए अलग-अलग कमांडर होते हैं। इस मानचित्र में अमेरिकी सशस्त्र
सेना के पाँच अलग-अलग कमानों के सैन्य कार्यवाही के क्षेत्र को दिखाया गया है। इससे पता
चलता है कि अमेरिकी सेना का कमान-क्षेत्र सिर्फ संयुक्त राज्य अमेरिका तक सीमित नहीं बल्कि
इसके विस्तार में समूचा विश्व शामिल है।
(i) अमेरिका की मौजूदा ताकत की रीढ़ उसकी बढ़ी-चढ़ी सैन्य शक्ति है। आज अमेरिका की
सैन्य शक्ति अपने आप में अनूठी है और बाकी देशों की तुलना में बेजोड़। अनूठी इस अर्थ में
कि आज अमेरिका अपनी सैन्य क्षमता के बूते पूरी दुनिया में कहीं भी निशाना साध सकता है।
एकदम सही समय में अचूक और घातक वार करने की क्षमता है उसके पास। अपनी सेना को
युद्धभूमि से अधिकतम दूरी पर सुरक्षित रखकर वह अपने दुश्मन को उसके घर में ही पंगु बना
सकता है।
(ii) अमेरिकी सैन्य शक्ति का यह अनूठापन अपनी जगह है, लेकिन इससे भी ज्यादा
विस्मयकारी तथ्य यह है कि आज कोई भी देश अमेरिकी सैन्य शक्ति की तुलना में उसके पासंग
के बराबर भी नहीं है। अमरीका ने नीचे के कुल 12 ताकतवर देश एक साथ मिलकर अपने सैन्य
क्षमता के लिए जितना खर्च करते हैं उससे कहीं ज्यादा अपनी सैन्य क्षमता के लिए अकेले अमरीका करता है। इसके अतिरिक्त, पेंटागन अपने बजट का एक बड़ा हिस्सा रक्षा अनुसंधान और विकास के मद में अर्थात् प्रौद्योगिकी पर खर्च करता है।
(iii) अमेरिका के सैन्य प्रभुत्व का आधार सिर्फ उच्च सैन्य व्यय नहीं बल्कि उसकी गुणात्मक
बढ़त भी है। अमेरिका आज सैन्य प्रौद्योगिकी के मामले में इनता आगे है कि किसी और देश के
लिए इस मामले में उसकी बराबरी कर पाना संभव नहीं है।
(iv) इसमें कोई शक नहीं कि इराक पर अमेरिकी हमले से अमेरिका की कुछ कमजोरियाँ
उजागर हुई हैं। अमेरिका इराक की जनता को अपने नेतृत्व वाली गठबंधन सेना के आगे झुका
पाने में सफल नहीं हुआ है। बहरहाल, अमेरिका की कमजोरी को पूरी तरह से समझने के लिए हमें इसे ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। इतिहास इस बात का गवाह है कि साम्राज्यवादी शक्तियों ने सैन्य बल का प्रयोग महज चार लक्ष्यों―जीतने, अपरोध करने, दंड देने और कानून व्यवस्था बहाल रखने के लिए किया है।
(v) इराक के उदाहरण से प्रकट है कि अमेरिका की विजय-क्षमता विकट है। इसी तरह अपरुद्ध
करने और दंड देने की भी उसकी क्षमता स्वत:सिद्ध है। अमेरिकी सैन्य क्षमता की कमजोरी सिर्फ
एक बात में जाहिर हुई है। वह अपने अधिकृत भू-भाग में कानून व्यवस्था नहीं बहाल कर पाया है।
★★★