11-sociology

bihar board class 11 sociology | पाश्चात्य समाजशास्त्री

bihar board class 11 sociology | पाश्चात्य समाजशास्त्री

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पाश्चात्य समाजशास्त्री- -एक परिचय
(IntroducingWestemSociology)
शब्दावली
• अलगाव-वह स्वविमुखता की स्थिति है। इसके कारण श्रमिक अपने कार्य से अलग हो जाते हैं। यह स्थिति उस समय उत्पन्न हो जाती है जब श्रमिक तथा उसके कार्यों में संबंध की श्रृंखला टूट जाती है।
• प्रबोधन-पुनर्जागरण और धर्म सुधार आन्दोलन के फलस्वरूप यूरोप में मध्य युग का अंत हुआ। आधुनिक युग का सूत्रपात हुआ। तर्क, पर्यवेक्षण, प्रयोग, धर्म-निरपेक्षवाद, प्रकृतिवाद आदि नूतन चिंतनों का आविर्भाव हुआ। इसी का सामूहिक नाम प्रबोधन है।
• सामाजिक तथ्य-कार्य करने, चिंतन तथा अनुभव करने की ऐसी पद्धति जिसका अस्तित्व व्यक्ति की चेतना से बाहर होता है। बाह्यता तथा बाध्यता इसकी दो विशेषताएँ हैं।
• ऑफिस (नौकरशाही के संदर्भ में)-मैक्स वैवर ने नौकरशाही को पदानुक्रम अथवा संस्तरण सामाजिक संगठन कहा है। नौकरशाही में प्रत्येक व्यक्ति के पास कुछ शक्ति तथा सत्ता होती है।
             कार्ल माक्स ( 1818-1883)
पाठ्यपुस्तक एवं अन्य महत्वपूर्ण परीक्षा उपयोगी प्रश्न एव उत्तर
               अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. द कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो की केन्द्रीय विषय-वस्तु बताइए।
उत्तर-‘द कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ की रचना कार्ल मार्क्स तथा उनके सहयोगी एंजल्स ने 1848 में की।
‘द कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ की केंद्रीय विषय-वस्तु वर्ग-संघर्ष है। मार्क्स का दृढ़ मत है कि इतिहास सामाजिक वर्गों के संघर्ष की श्रृंखला है। शोषक तथा शोषित वर्ग में सैदव प्रतिरोध पाया जाता है। शोषक अथवा पूँजीपति वर्ग को बुर्जुआ तथा शोषित अथवा श्रमिक वर्ग को सर्वहारा कहते हैं।
प्रश्न 2. “आर्थिक संगठन, विशेषतया संपत्ति का अधिकार समाज के शेष संगठनों का निर्धारण करता है।” मार्क्स के उक्त कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-कार्ल मार्क्स का मत है कि पूंजीवादी समाज, जिसका आधार श्रमिकों का शोषण होता है, में उत्पादन के साधनों तथा उत्पादित वस्तुओं के वितरण पर पूंजीपतियों अथवा संपन्न वर्ग का अधिकार होता है। इसे बुर्जुआ वर्ग भी कहते हैं।
दूसरी तरह श्रमिक अथवा सर्वहारा वर्ग जिसे प्रोलिओरियट भी कहते हैं, आर्थिक साधनों पर नियंत्रण रखता है। श्रमिक वर्ग के पास अपने श्रम को बेचने के अलावा कुछ नहीं होता है। पूंजीपति वर्ग श्रमिकों का शोषण करके मुनाफा कमाता है। इस प्रकार, संपन्न वर्ग सर्वहारा वर्ग का लगातार शोषण करता रहता है।
प्रश्न 3. मार्क्स का वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत संक्षेप में बताइए।
उत्तर-मार्क्स का मत है कि “आज तक का मानव समाज का इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है।” समाज में उत्पादन तथा वितरण के साधनों पर शोषक का एकाधिकार होता है। इस वर्ग को बुर्जुआ अथवा पूंजीपति वर्ग भी कहते हैं। दूसरी तरफ समाज का साधनविहीन वर्ग जिसे श्रमिक वर्ग या सर्वहारा वर्ग भी कहते हैं, उत्पादन के साधनों से पूर्णरूपेण वंचित होता है। इस वर्ग के पास अपने श्रम को बेचने के अतिरिक्त कुछ नहीं होता है।
मार्क्स का स्पष्ट मत है कि पूंजीपति वर्ग तथा श्रमिक वर्ग के हित समान नहीं होते हैं। इन दोनों वर्गों के बीच हितों के आधार पर ध्रुवीकरण जारी रहता है। मार्क्स का मत है कि पूंजीवाद के विनाश के बीच संघर्ष तेज हो जाता है। यह वर्ग संघर्ष अपने अंतिम बिंदु पर हिंसा में बदल जाता है।
                  लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. बौद्धिक ज्ञानोदय किस प्रकार समाजशास्त्र के विकास के लिए आवश्यक है?
उत्तर-मानव व्यवहार एवं मानव समाज के व्यवस्थित अध्ययन का आरंभ 18 वीं सदी के उत्तरार्द्ध के यूरोपीय समाज में देखा जा सकता है। इस नए दृष्टिकोण की पृष्ठभूमि, क्रांतिकारी, बौद्धिक एवं वैज्ञानिक चिंतन से जुड़ी हुई है। फ्रांसीसी क्रांति तथा औद्योगिक क्रांति के परिप्रेक्ष्य में मानव समाज के अध्ययन को एक नई दिशा प्राप्त हुई। यूरोपीय समाज प्रखर फ्रांसीसी चिंतकों की चेतना को निश्चित रूप से व्यक्त किया गया है। यह सुनिश्चित किया गया कि प्रकृति तथा समाज दोनों का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया जा सकता है। समाज की सभी मुख्य धारणाओं-धर्म, समुदाय, सत्ता उत्पादन, संपत्ति, वर्ग आदि की नवीन व्यवस्थाएं होने लगीं। इतिहास के इसी
स्वर्णिम समय में समाजशास्त्र का जन्म हुआ। ऑगस्त कॉम्टे ने समाजशास्त्र की स्थापना की।
प्रश्न 2. औद्योगिक क्रांति किस प्रकार समाजशास्त्र के जन्म के लिए उत्तरदायी है?
उत्तर-राजनीतिक परिवेश का तख्ता पलट देने वाले किसी हिंसक विप्लव को ही क्रांति नहीं समझा जाता, बल्कि किसी भी क्षेत्र में, चाहे वह धार्मिक क्षेत्र हो या सामाजिक, यदि किसी सुधारात्मक, विश्वासात्मक, सांस्कृतिक या दार्शनिक परिवर्तन हो जाये तो उसे भी हम क्रांति ही कहेंगे। इंग्लैंड में जब तक यह ज्ञान नहीं हुआ था कि कोई भौतिक शक्ति ऐसी भी है जो यंत्रों
को तीव्र गति से चला सकती है और वह यंत्र बनाये भी जा सकते हैं तथा उनसे मानव समाज द्वारा उपयोग की जाने वाली वस्तुओं का अधिक मात्र,ओं में उत्पादन हो सकता है, तब तक वहाँ भी दैनिक उपयोग की वस्तुओं का उत्पादन पुराने ढर्रे से ही होता था, जिनका व्यापारिक महत्व शून्य ही था। कुटीर उद्योगों के रूप में उनका निर्माण किया जाता था और स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद जो कुछ वस्तुएँ बचती थीं, उनके बदले अय आवश्यकताओं
की वस्तुएँ भी प्राप्त की जाती थी, परंतु अचानक जेम्सवाट ने जब भाप की भैतिक शक्ति को पहचाना तो उसने भाप से चलने वाला एक इंजन बना डाला और भी मशीनों का आविष्कार हो गया। यहीं से औद्योगिक प्रगति की जड़ें जम गयीं। मशीनें बनाने के लिए लोहा तथा भापीय शक्ति प्राप्त करने को लिए कोयला प्राप्त हो गया। इसके बाद सन 1970 तक इंगलैंड ऐसी स्थिति में आ गया कि वहीं वस्त्रोत्पादन मशीनों द्वारा बड़े पैमाने पर होने लगा। अन्य उत्पादों में भी बढ़ोत्तरी हुई जो व्यापक स्तर पर तैयार होने लगे। उद्योग जगत में काफी उलटफेर हो गया। जो इंगलैंड कभी अपने यहाँ उत्पादों के निर्यात की सोच भी नहीं सकता था, वह बहुत-सी वस्तुओं का निर्यातक देश बन गया। वहां भारी मशीनें बनी और बड़े-बड़े कारखाने स्थापित हुए, जिनमें बड़ी संख्या में मजदूर कार्य करने लगे, इसी को औद्योगिक क्रांति कहा गया। सन् 1884 में सबसे पहले आरनोल्ड टायनबी ने इंग्लैंड के इस ” औद्योगिक परिवर्तन को औद्योगिक क्रांति का नाम दिया। नेल्सन का कहना है कि आद्योगिक शब्द इसलिये प्रयोग नहीं किया गया है कि परिवर्तनों की प्रक्रिया बहुत तीव्र थी, बल्कि इसलिये कि पूर्ण होने पर जो परिवर्तन वे मौलिक थे।”
औद्योगिक क्रांति ने ही वैज्ञानिक चिंतन तथा प्रहार बौद्धिक चेतना को नया आधार प्रदान किया। नए-नए मानवीय विषय जन्में, इनमें समाजशास्त्र भी एक था।
प्रश्न 3. उत्पादन के तरीकों के विभिन्न संघटक कौन-कौन से हैं?
उत्तर-मनुष्य उत्पादन के उपकरण या उत्पादन प्रणाली के द्वारा भौतिक वस्तुओं या मूल्यों का उत्पादन करते हैं। उत्पादन करने में मनुष्यों की कार्यकुशलता व उत्पादन अनुभव का भी उपयोग होता रहता है। मनुष्य, उत्पादन अनुभव और श्रम कौशल आदि सब तत्व मिलकर उत्पादक शक्ति का निर्माण करते हैं लेकिन यह उत्पादक शक्ति उत्पादन प्रणाली के केवल एक पक्ष या (पहलू) का ही प्रतिनिधित्व करती है, जबकि उत्पादन प्रणाली का दूसरा पक्ष या पहलू उत्पादन संबंधों का प्रतिनिधित्व करता है। भौतिक वस्तुओं या मूल्यों के उत्पादन में मनुष्य को प्रकृति से
जूझना पड़ता है, संघर्ष करना पड़ता है, परंतु मनुष्य यह सब कुछ अकेले नहीं कर सकता है।
उसे अन्य व्यक्तियों से मिल-जुलकर सामूहिक रूप से उत्पादान करना होता है। उत्पादन किसी व्यक्ति विशेष का नहीं, वरन् प्रत्येक परिस्थिति और प्रत्येक व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के साथ मिलता-जुलता है, प्रयास करता है और किसी न किसी प्रकार के संबंधों को अन्य व्यक्तियों के साथ स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उत्पादन के लिए व्यक्तियों को एक-दूसरे के प्रति
क्रियाशीलता और कार्यों का आदान-प्रदान ही उत्पादन सम्बंधों का निर्माण करते हैं। इस संदर्भ में श्री मार्क्स ने स्वयं लिखा हैं, “उत्पादन में मानव केवल प्रकृति के साथ ही नहीं, वरन एक-दूसरे के साथ भी क्रियाशील होता है। किसी न किसी प्रकार द्वारा ही वह उत्पादन कार्य करते हैं। उत्पादन करने के लए उन्हें एक-दूसरे से मिलने के लिए निरिचित संबंधों को बनाना होता है
और केवल इन्हीं सामाजिक मिलन व संबंधों के अन्तर्गत ही उत्पादन कार्य चलता है।”
प्रस्तुत चार्ट द्वारा उत्पादन प्रणाली को और सरलता व स्प्ष्टता से समझा जा सकता है-
उत्पादन प्रणाली स्थायी या स्थिर नहीं रहती है, इसमें सैदव परिवर्तन व विकास होता रहता है। इस प्रकार उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन होने के कारण ही सम्पूर्ण सामाजिक संरचना, विचार, कला, धर्म, संस्थाओं आदि में परिवर्तन होना आवश्यक हो जाता है। सच है कि विकास के विभिन्न स्तरों पर मानव भिन्न-भिन्न युगों या स्तरों में सामाजिक संरचना, आचार विचार प्रतिमान, संस्थाएं धर्म-कर्म तक एक समान नही रहे। अत: यह कहना ठीक ही होगा कि समाज के विकास का इतिहास वास्तव में उत्पादन प्रणाली के विकास का इतिहास अथवा उत्पादक शक्ति और उत्पादन सम्बन्धों के विकास का इतिहास है।
प्रश्न 4. क्या आप मार्क्स के इस विचार से सहमत हैं कि “ऐसा समय आएगा जब सर्वहारा वर्ग द्वारा बुर्जुआ वर्ग को उखाड़ फेंका जाएगा और एक वर्गविहीन समाज का निर्माण होगा?” अपने विचार दीजिए।
उत्तर-कार्ल मार्क्स का संपूर्ण चिंतन वर्ग संघर्ष की धारणा पर आधारित है। मार्क्स का स्पष्ट मत है कि अब तक के मानव-समाज का इतिहास वस्तुतः वर्ग संघर्ष का इतिहास है। मार्क्स का यह कथन है कि सर्वहारा वर्ग एक दिन बुर्जुआ वर्ग को उखाड़ फेंकेगा के संबंधमें निम्नलिखित बिंदु महत्वपूर्ण हैं:
(i) वर्ग-संघर्ष : मार्क्स के अनुसार मानव जाति का इतिहास साधन संपन्न अथवा साधनहीनता का इतिहास है। सामंती तथा पूंजीवादी अवस्थाओं में व्यक्तिगत संपति की अवध परणा के कारण समाज में दो वर्ग आ गए हैं:
(a) शोषक अथावा बुर्जुआ वर्ग अथवा पूँजीपति वर्ग
(b) शोषित अथवा सर्वहारा अथवा श्रमिक वर्ग
मार्क्स का मत है कि पूँजीवादी व्यवस्था अपनी अंतर्निहित दुर्बलताओं अथवा अंतर्विरोधों के कारण स्वयं ही समाप्त हो जाएगी। वर्ग-संघर्ष से वर्ग चेतना उत्पन्न होती है। वर्ग चेतना से आर्थिक हितों में द्वंद्व होगा तथा इसका अंतिम बिंदु हिंसक क्रांति होगी। इसके बाद व्यवस्था में परिवर्तन हो जाएगा। पूंजीवादी व्यवस्था के स्थान पर साम्यवादी व्यवस्था स्थापित हो जाएगी। यही कारण था कि मार्क्स ने आज तक के मानव समाज के इतिहास को “वर्ग-संघर्ष को ‘इतिहास
कहा है।
(ii) सर्वहारा वर्ग की तानाशाही : कार्ल मार्क्स का मत था कि पूंजीवादी व्यवस्था के विनाश के बीज उसमें ही अंतर्निहित हैं। पूंजीवादी व्यवस्था का शोषण श्रमिकों में असंतोष तथा जागरुकता को उत्तरोत्तर बढ़ाएगा तथा उन्हें हिंसक क्रांति के लिए बाध्य कर देगा। मार्क्स का विचार था कि पूंजीवाद के विनाश के पश्चात् सर्वहारा वर्ग की तानाशाही अपरिहार्य है। पूंजीवादी
वर्ग सर्वहारा वर्ग की क्रांति को असफल बनाने के लिए षड्यंत्र तथा प्रतिक्रांति का आलंबन कर सकता है। मार्क्स का मत था कि इस संक्रमण काल की स्थिति उस समय तक रहेगी, जब तक कि समजवादी व्यवस्था मजबूत न हो जाय। सर्वहारा वर्ग की यह व्यवस्था अल्पकालीन व्यवस्था होगी। पूंजीवाद तथा पूंजीपतियों को पूर्ण विनाश तथा समाजवादी व्यवस्था के पूर्ण विकास के बाद समाज में केवल एक वर्ग अर्थात सर्वहारा वर्ग ही रह जाएगा
(iii) वर्गविहीन तथा राज्यविहीन समाज की स्थापना : कार्ल मार्क्स का मत का था कि सर्वहारा वर्ग की तानाशाही पूंजीवादी व्यवस्था तथा पूंजीपतियों को पूर्ण-रूपेण समाप्त कर देगी। इसके बाद समाज में कोई वर्ग व्यवस्था एक आदर्श व्यवस्था होगी। मार्क्स के अनुसार इस आदर्श सम्यवादी व्यवस्था, “प्रत्येक व्यक्ति अपनी पूर्ण योग्यता तथा क्षमता के अनुसार
कार्य करेगा तथा अपनी आवश्यकतानुसार वस्तुएं लेगा।”
                दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. मार्क्स के अनुसार विभिन्न वर्गों में संघर्ष क्यों होते हैं ?
उत्तर-कार्लमार्क्स तथा एन्जिल्स कम्युनिष्ट घोषणा-पत्र में लिखते हैं, “आज तक प्रत्येक समाज शोषण तथा शोषित वर्गों के विरोध पर आधारित रहा है।”
कम्युनिष्ट घोषणा-पत्र में अंकित उपरोक्त शब्द मार्क्स के वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त का आधार है। उत्पादन की प्रणाली के फलस्वरूप जो वर्ग बनते हैं, उनके कुछ निहित स्वार्थ होते हैं। जिस वर्ग के हाथ में उत्पादन के साधन होते हैं वह शोषक और शाम बनकर श्रमिक वर्ग को निर्बल बना देता है। आज का वितरण समान होने से एक वर्ग समस्त सम्पत्ति पर अधिकार करने का प्रयत्न करता है जिसके कारण विरोध उत्पन्न होने लगता है। शोषित वर्ग में असन्तोष की भावना उत्पन्न होती है। दोनों वर्गों के हितों में विरोध होने के कारण एक-दूसरे के प्रति घृणा और शत्रुता का भाव पनपता है और संघर्ष की प्राथमिक अवस्था उत्पन्न होती है।
इस प्रकार वर्गों में संघर्ष होने से पहले वर्ग विरोध की अवस्था आवश्यक है, किंतु यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक वर्ग विरोध, वर्ग-संघर्ष में परिवर्ततित हो जाए। वर्ग-संघर्ष की अवस्था तभी उत्पन्न होती है, जबकि शोषित वर्ग अपने अधिकारों और आवश्यकताओं के प्रति जागरुक हो और उन्हें प्राप्त करने के लिए आवश्यक आधार भी रखता हो। शोषित वर्ग राज्य सत्ता के प्रयोग से इस शक्ति के दमन का प्रयत्न करता है। ऐसी स्थिति में शोषित वर्ग के लिए राज्य सत्ता पर अधिकार करना आवश्यक हो जाता है। अत: प्रत्येक वर्ग-संघर्ष एक प्रकार से राजनैतिक संघर्ष ही होता है। सत्तारूढ़ शोषक, वर्ग, धर्म, नैतिकता और राष्ट्रीयता के आवरण में अपने स्वार्थों को बचाने की चेष्टा करता है किंतु क्रांति हो जाती है।
मार्क्स के विचार से वर्ग-संघर्ष मानव समाज में अनिवार्य सिद्धान्त के रूप में पाया जाता है। मानव समाज के प्रारम्भिक काल में मालिकों और दासों में संघर्ष, हुआ, जिसके फलस्वरूप दास प्रथा का अन्त हो गया किन्तु वर्ग-भेद चलता रहा। सामान्तशाही युग में विरोध की चरम सीमा सामंतों और भूमिहीन किसानों के हिंसात्मक संघर्ष के रूप में प्रकट हुई। जागीरदारों के शक्ति अर्धदासों अर्थात् कृषि मजदूरों के द्वारा समाप्त कर दी गई। वर्ग-संघर्ष शान्त हो गया पर
समाप्त नहीं हुआ, क्योंकि वर्ग-भेद बना रहा है। सामन्त वर्ग का स्थान नवविकसित पूंजीपतियों ने ले लिया और दासों और किसानों का स्थान श्रमिकों ने ले लिया। व्यापारी, उद्योगपति, शोषक और शासक अधिक धनी बन गये तथा मजदूर वर्ग शोषित, शासित तथा निर्धन वर्ग में परिणत हो गया। भूमि का स्थान उद्योग ने, लगान का मुनाफा ने ले लिया। उत्पादन क्रिया में धन पूंजी बन गया। वर्ग-भेद स्पष् हो गया और वर्ग-विरोध भी (अतः आज भी वर्ग-संघर्ष) समाप्त नहीं हुआ। यह संघर्ष वुर्जुआ और सर्वहारा वर्गों के बीच है। मार्क्स का कथन है कि जब तक
वर्ग रहेंगे, तब तक संघर्ष रहेगा। अत: वगों की समाप्ति ही मानव-संघर्ष की समाप्ति है।
प्रश्न 2. अलगाव के सिद्धान्त के प्रमुख तत्वों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-अलगाव का अर्थ : अलगाव स्वविमुखता की स्थिति है। अलगाव के परिणामस्वरूप श्रमिक अपने कार्य से अलग हो जाते हैं। अलगाव की स्थिति उस समय उत्पन्न हो जाती है जब श्रमिक तथा उसके कार्य में संबंधों की श्रृंखला टूट जाती है। कोजर के अनुसार “अलगाव की स्थिति में व्यक्ति स्व-निर्मित शक्तियों द्वारा नियंत्रित होते हैं, जब उसका आमना-सामना
अलगाववादी शक्तियों से होता है।” इस प्रकार अलगाव का तात्पर्य है अपने ही लोगों तथा उत्पाद से पृथक हो जाना। एक पूंजीवादी व्यवस्था में अलगाव समस्त धार्मिक, आर्थिक तथा राजनैतिक संस्थाओं के क्षेत्रों को नियंत्रित तथा प्रभावित करता है।
आर्थिक अलगाव तथा उसका प्रभाव : कार्ल मार्क्स के अनुसार विभिन्न प्रकार के अलगावों में आर्थिक अलगाव सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। आर्थिक अलगाव व्यक्तियों की दैनिक गतिविधियों से संबंधित होता है। मार्क्स के अनुसार अलगाव की धारणा में निम्नलिखित चार पहलू महत्वपूर्ण होते हैं, जिनके कारण श्रमिकों में अलगाव की प्रकृति उत्पन्न होती है।
(i) वस्तु जिसका वह उत्पादन करता है
(ii) उत्पादन की प्रक्रिया
(iii) स्वयं से
(iv) अपने समुदाय के व्यक्तियों से
उत्पादन की प्रक्रिया में श्रमिक की स्थिति एक आयामी व्यक्ति की होती है:
श्रमिक का अलगाव उस वस्तु में लगाए गए श्रम के साथ-साथ उत्पादन की प्रक्रिया से भी हो जाता है। इसके कारण स्वयं से भी अलगाव हो जाता है तथा उसके व्यक्तित्व के अनेक पक्षों का विकास नहीं हो पाता है। अलगाव की स्थिति में श्रमिक अपने कार्यस्थल पर सुख तथा शांति का अनुभव नहीं करता है। ऐसी विषम स्थिति में श्रमिक सदैव यह सोचता
रहता है कि जिस कार्य को वह कर रहा है उसका संबंध अन्य व्यक्ति से है। श्रमिक अपनी पूर्ण क्षमता के द्वारा वस्तु का उत्पादन करता है लेकिन वही वस्तु उससे पृथक् हो जाती है तथा इस प्रकार उसके शोषण की शक्ति बढ़ जाती है। इसके कारण श्रमिक के मन में अपने कार्य तथा स्वयं की पूर्ति उदासीनता तथा विमुखता उत्पन्न हो जाती है। हबेर्ट मकुंजे ने इन मन:स्थिति को एक आयामी व्यक्ति कहा है। कार्ल मार्क्स ने इस स्थिति को ‘पहिए का दांत कहा है। इस प्रकार उत्पादन की प्रक्रिया में श्रमिक की स्थिति में पूर्ण अलगाव उत्पन्न हो जाता है। उसका व्यक्तित्व तथा अस्तित्व दोनों ही शून्य हो जाते हैं।
श्रमिक का स्वयं तथा अपने साथियों से अलगाव : मार्क्स का मत है कि विरोधी शक्तियां किसी श्रमिक को उसके उत्पाद से पृथक कर देती हैं :
(i) पूंजीपति जो उत्पादन प्रक्रिया को नियंत्रित करता है।
(ii) बाजार की स्थिति जो पूंजी तथा उत्पादन की प्रक्रिया को नियंत्रित करती है। श्रमिक द्वारा तैयार वस्तु किसी अन्य व्यक्ति से संबंधित होती है तथा वह व्यक्ति उसे अपनी इच्छानुसार प्रयोग करने में स्वतंत्र होता है।
इस प्रकार बाजार में वस्तु के मूल्य में उतार-चढ़ाव तथा पूंजी की गतिशीलता श्रमिक पर विपरीत प्रभाव डालते हैं। पूंजीपति लगातार शक्तिशाली होता चला जाता है।
ऐसी स्थिति में श्रमिक का न केवल स्वयं से अपितु अपने साथियों से भी अलगाव हो जाता है।
           एमिल दुर्खाइम (1857-1917)
पाठ्यपुस्तक एवं अन्य महत्वपूर्ण परीक्षा उपयोगी प्रश्न एवं उत्तर
             अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. दुर्खाइम समाजशास्त्र को किस प्रकार परिभाषित करते हैं?
उत्तर-दुर्खाइम ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक The Rules of Sociological Method-1895 में समाज शास्त्र की प्रकृति तथा विषय-वस्तु का विवेचन किया है। समाजशास्त्रीय अध्ययन में दुर्खाइम ने तथ्यपरक, वस्तुपरक एवं अनुभवी अध्ययन पद्धति पर विशेष बल दिया है। दुर्खाइम का मत है कि समाजशास्त्र का विषय-क्षेत्र प्रघटनाओं के अध्ययन तक सीमित रहना चाहिए। इन्हीं घटनाओं को दुर्खाइम ने सामाजिक तथ्य कहा है।
दुर्खाइम समाजशास्त्र को मनोविज्ञान के प्रभावों से दूर रखना चाहते हैं। वे समाजशासत्र में उन्हीं प्रघटनाओं के अध्ययन पर जोर देते हैं जो व्यक्ति के मस्तिष्क के बाहर की उत्पत्ति है। इस प्रकार समाजशास्त्र जैसा कि दुर्खाइम ने कहा है कि सामाजिक संस्थाओं, उनकी उत्पत्ति तथा प्रकार्यात्मक शैली से संबंधित है।
प्रश्न 2. दुर्खाइम ने संस्था को किस प्रकार परिभाषित किया है?
उत्तर-दुर्खाइम ने एक व्यापक अर्थ में संस्था का निर्वाचन किया है। उसने संस्था का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है कि
(i) संस्था कार्य करने के कुछ साधन है।
ii) निर्णय करने के कुछ उपाय हैं।
(iii) ये व्यक्ति विशेष से पृथक् होते हैं तथा स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करते हैं।
इस प्रकार संस्था को व्यवहार के समस्त विश्वासों तथा स्वरूपों को रूप में परिभाषित किया जा सकता है जो सामूहिकता के द्वारा लागू होते हैं।
प्रश्न 3. ‘सामाजिक तथ्य’ क्या हैं? हम उन्हें कैसे पहचानते हैं?
उत्तर-दुर्खाइम के अनुसार समाजशास्त्र कुछ प्रघटनाओं के अध्ययन तक सीमित है। सामाजिक तथ्य किसी व्यक्ति विशेष के मस्तिष्क की उपज नहीं होते हैं। सामाजिक तथ्य स्वतंत्र होते हैं।
सामाजिक तथ्य व्यक्तियों या सार्वभौमिक मानवीय स्वभाव से पूर्णतः अप्रभावित रहते हैं।
सामाजिक तथ्य विशिष्ट होते हैं तथा इनकी उत्पत्ति व्यक्तियों के सहयोग से होती है। दुर्खाइम के अनुसार, सामूहिक प्रतिनिधि ही सामाजिक तथ्य हैं।
सामाजिक तथ्य हमारे बीच होते हैं। हमें केवल इन्हें पहचानना होता है। इसके लिए हमें अपने आसापास के पर्यावरण पर दृष्टि रखनी चाहिए। समाज में क्या घटित हो रहा है? पूर्व परिस्थितियाँ क्या थी? इन सभी बातों से तथ्य निकलकर आते हैं।
प्रश्न 4. सामूहिक प्रतिनिधित्व का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-दुर्खाइम की सामूहिक प्रतिनिधित्व की धारणा सामाजिक तथ्यों के विश्लेषण पर आधारित है। दुर्खाइम का मत है कि प्रत्येक समाज में कुछ ऐसे विश्वास, मूल्य, विचारधाराएं तथा भावनाएँ आदि विद्यमान होती है जो समाज के सभी सदस्यों को मान्य होती है। दुर्खाइम का मत है कि ये सामान्य विश्वास, मूल्य, विचारधाराएँ तथा भावनाएँ किसी व्यक्ति विशेष से संबंधित न होकर सामूहिक चेतना से उत्पन्न होती है। इन्हें समूह के सदस्यों के द्वारा स्वीकार किया जाता है। इस प्रकार ये समूह का प्रतिनिधित्व करती हैं, अत: इन्हें सामूहिक प्रतिनिधान कहते हैं।
प्रश्न 5. दुर्खाइम के आत्महत्या के सिद्धांत का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर-एमिल दुर्खाइम ने आत्महत्या के मनोवैज्ञानिक आधारों को स्वीकार नहीं किया है। दुर्खाइम का मत है कि आत्महत्या की व्याख्या एक रुग्ण समाज के संदर्भ में की जा सकती है। दुर्खाइम का मत है कि आत्महत्या के सिद्धांत को सामाजिक कारकों, जैसे सामाजिक दृढ़ता, सामूहिक चेतना, समाजिकता तथा प्रतिमानहीनता के संदर्भ में की जा सकती है।
प्रश्न 6. पवित्र एवं अपवित्र में अंतर कीजिए।
उत्तर-दुर्खाइम ने श्रम विभाजन तथा आत्महत्या की भाँति धर्म को भी सामाजिक तथ्य स्वीकार किया है। दुर्खाइम ने सामाजिक जीवन के दो पहलू बताए हैं:
(i) पवित्र तथा (ii) अपवित्र
दुर्खाइम का मत है कि धर्म का संबंध पवित्र वस्तुओं, विश्वासों तथा महत्वपूर्ण सामाजिक अवसरों से है प्रत्येक समाज में कुछ वस्तुओं को पवित्र समझा जाता है। पवित्र वस्तुओं की श्रेणी में धार्मिक ग्रंथ, विश्वास, त्योहार, पेड़-पौधे, भूत-प्रेत तथा दैवी सत्ता को सम्मिलित किया जाता है। इस प्रकार ‘पवित्र’ में समाज के महत्वपूर्ण मूल्य निहित होते हैं। पवित्र वस्तुएँ संसारिक वस्तुओं से ऊपर होती हैं।
कुछ ऐसी वस्तुएं भी होती है जिनका महत्व उनकी उपयोगिता पर निर्भर करता है। इसके अंतर्गत संसारिकता के दैनिक कार्यों को सम्मिलित किया जाता है। इनमें उत्पादन की मशीनों, संपत्ति तथा आधुनिक सामाजिक संगठन को सम्मिलित किया जाता है।
प्रश्न 7. अंहवादी आत्महत्या के विषय में संक्षेप में लिखिए।
उत्तर-अंहवादी आत्महत्या में व्यक्ति यह अनुभव करने लगता है कि सामाजिक परंपराओं द्वारा निश्चित भूमिका को वह निभाने में असफल रहा है। यह तथ्य उसकी प्रतिष्ठा तथा सम्मान के विपरीत होता है।
दुर्खाइम के अनुसार जब व्यक्ति को दूसरों से संबद्ध करने वाले बंधन कमजार हो जाते हैं। तो अहंवाद उत्पन्न होता है। ऐसी परिस्थित में व्यक्ति द्वारा अपने अंह को अत्यधिक महत्व दिया जाता है। इस प्रकार व्यक्ति समाज से समुचित रूप से.एकीकृत नहीं हो पाता है। इस प्रकार परिवार, धर्म तथा राजनैतिक संगठनों में बंधनों के कमजोर हो जाने से अंहवादी आत्महत्या की दर में वृद्धि हो जाती है। जापान में हारा-किरी की प्रथा अहवादी आत्महत्या का उपयुक्त
उदाहरण है।
प्रश्न 8. परसुखवादी आत्महत्या का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-परसुखवादी अथवा परमार्थमूलक आत्महत्या में सामाजिक चेतना तथा सामाजिक दृढ़ता की मात्र अत्यधिक पायी जाती है।
दुर्खाइम के अनुसार परसुखवादी आत्महत्या में व्यक्ति में समाज के प्रति बलिदान की भावना पायी जाती है। देश की आजादी के लिए प्राण न्योछावर कर देना या जौहर प्रथा परसुखवादी आत्महत्या के उदाहरण हैं।
प्रश्न 9. एनोमिक आत्महत्या के विषय में संक्षेप में बताइए।
उत्तर-ऐनोमिक आत्महत्या अथवा प्रतिमानहीनतामूलक आत्महत्या प्राय: उन समाजों में पायी जाती हैं जहाँ सामाजिक आदर्शों में अकस्मात् परिवर्तन हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में समाज में वैयक्तिक विघटन की सामाजिक घटनाएँ बढ़ने लगती हैं। दुर्खाइम इस स्थिति को एनोमी अथवा नियमविहीनता कहते हैं।
दुर्खाइम का मत है कि अत्यधिक विभिन्नीकरण, विशेषीकरण नियमविहीन श्रम विभाजन के कारण जैविकीय दृढ़ता की स्थिति में आशानुरूप, सामाजिक, सामूहिक चेतना तथा अन्योन्याश्रितता कमी उत्पन्न हो जाती है। ऐसी विषम-स्थिति में व्यक्ति का समाज से अलगाव हो जाता है। दुर्खाइम के अनुसार ऐसी स्थिति में सामाजिक मानक समाप्त हो जाते हैं। व्यक्ति में सामाजिक स्थिति से उत्पन्न तनावों को सहन करने की क्षमता कम हो जाती है। ऐसी स्थिती में व्यक्ति के समक्ष जब भी तनावपूर्ण स्थिति आती है तो उसका संतुलन अव्यवस्थित हो जाता है तथा वह आत्महत्या कर लेता है। व्यापार में अचानक घाटा तथा राजनीतिक उतार-चढ़ाव आदि के कारण व्यक्ति आत्महत्या कर लेते हैं। इस प्रकार समाज में एनोमिक अथवा नियमविहीनता की स्थिति उत्पन्न होने से आत्महत्याओं के दर में वृद्धि हो जाती है।
प्रश्न 10. भाग्यवादी आत्महत्या किसे कहते हैं?
उत्तर-दुर्खाइम के मतानुसार समाज में अत्यधिक नियमों तथा कठोर शासन व्यवस्था के कारण भाग्यवादी आत्महत्याओं की दर में वृद्धि हो जाती है। दुर्खाइम ने भाग्यवादी आत्महत्या का उदाहरण दास प्रथा बताया है। जब दास यह समझने लगते हैं कि उनका विषम स्थिति से छुटकारा असंभव है तो वे भाग्यवादी हो जाते हैं तथा आत्महत्या कर लेते हैं।
                 लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. सामूहिक चेतना क्या है?
उत्तर-सामूहिक चेतना की अवधारणा दुर्खाइम के चिंतन का केन्द्र बिन्दु है। दुर्खाइम का मत है कि सामाजिक एकात्मकता की उत्पत्ति साझेदारीपूर्ण भावात्मक अनुभवों से होती है। समाज में व्यक्तियों में समूहिक चेतना पायी जाती है।
दुर्खाइम सामूहिक चेतना को विश्वासों तथा भावनाओं को स्वरूप मानते हैं, जो कि समाज के सदस्यों में औसतन रूप से समान रूप से पायी जाती है। सामूहिक चेतना वस्तुतः समुदाय के सदस्यों में उपस्थित वह भावना है। जिसके कारण वे परस्पर आवश्यकताओं की पूर्ति तथा नैतिक आदान-प्रदान से संबद्ध होते हैं। दुर्खाइम कहते हैं कि यांत्रिक एकता वाले समाजों में सामूहिक चेतना अत्यधिक सुदृढ़ थी। इस संदर्भ में दुर्खाइम ने ओल्ड टेस्टामेंट की हिब्रू जनजाति का उदाहरण दिया है। ऐसे समाजों में अधिकतर व्यक्ति एक समान होते हैं। इसलिए उनमें सामूहिक चेतना अत्यधिक सुदृढ़ रूप में पायी जाती है। व्यक्तियों में विचार की उत्पत्ति सामान्य अनुभवों
से होती है। ऐसी स्थिति में सामूहिक चेतना का उल्लंघन होने पर कानून द्वारा सख्त दंड का प्रावधान होता है।
यांत्रिक एकता वाले समाजों में व्यक्ति सामूहिक समग्र का अभिन्न हिस्सा बन जाता है। समूह की एकता के सामने व्यक्तिगत विभिन्नता का कोई महत्व नहीं होता है। इस प्रकार व्यक्तिगत स्वतंत्रता का पूर्ण अभाव पाया जाता है।
प्रश्न 2. सामान्य व्याधिकीय तथ्यों में अंतर बताइए।
उत्तर-दुर्खाइम अपराध को सामान्य माना है। उनका विचार है कि सामान्य तथ्य स्वस्थ हाते हैं तथा समाज की गतिविधियों में सहायक होते हैं। दुर्खाइम ने अपराध को एक सामान्य सामाजिक प्रक्रिया निम्नलिखित आधारों पर स्वीकार किया है :
(i) अपराध का किया जाना तथा उससे संबंधित दंड समाज के सदस्यों को समाज के मूल्यों तथा मानकों के विषय में बताते हैं। इस प्रकार समाज में सामाजिक तादात्म्य कायम करने में सहायता करते हैं। इसके साथ-साथ सामाजिक मूल्यों तथा सीग्गओं पर पुनर्बल दिया जाता है।
(ii) अपराध सामाजिक परिवर्तन की यांत्रिकी है। यह समान सामाजिक सीमाओं को चुनौती दे सकता है। उदाहरण के लिए सुकरात के अपराध ने एथेन्स के कानून को चुनौती दी तथा उसके कारण समाज में परिवर्तन आया।
दुर्खाइम ने बताया कि व्याधिकीय तथ्य समान्य तथ्यों के विपरीत समाज की गतिविधियों में बाधा उत्पन्न करते हैं। इनके कारण समाज के कार्यों में व्यवधान उत्पन्न होता है। दुर्खाइम के अनुसार, “जब अकस्मात् परिवर्तन होता है तो समाज के नियामक नियमों की आदर्शात्मक संरचना में शिथिलता उत्पन्न हो जाती है, अत: व्यक्ति को यह ज्ञात नहीं होता है कि क्या उचित है अथवा अनुचित। उसके संवेग अत्यधिक होते हैं जिनकी संतुष्टि हेतु वह विसंगति समाज के सदस्यों में मतैक्य अथवा सामाजिक दृढ़ता का अभाव तथा सामाजिक असंतुलन की स्थिति है।
दुर्खाइम का मत है कि श्रम का अतिविभाजन सामाजिक विघटन की स्थिति उत्पन्न करता है। इससे सामाजिक दृढ़ता कमजोर हो जाती है तथा सामाजिक संतुलन अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। इस प्रकार श्रम का अति विभाजन परिवार, समुदाय तथा संस्थाओं में व्याधिकीय स्थिति उत्पन्न कर देता है।
प्रश्न 3. ‘यांत्रिक’ और ‘सावयवी’ में क्या अंतर है?
उत्तर-दुर्खाइम ने सामाजिक दृढ़ता के आधार पर समाज को दो भागों में विभाजित किया है।
(i) यांत्रिक एकता पर आधारित समाज तथा (ii) सावयवी एकता पर आधारित समाज।
यांत्रिक एकता में व्यक्ति समाज से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित होता है। यांत्रिक एकता वाले समाज में समूह के सभी सदस्य समान विश्वास तथा भावनाएँ रखते हैं। समूह के सदस्यों के बीच सामूहिकता की भावनाएँ अत्यधिक प्रबल होती हैं। समाज में व्यक्तियों की चेतना सामूहिक होती है। समुदाय के सदस्य परस्पर एक-दूसरे की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा नैतिक आदान-प्रदान से संबंध रखते हैं। सामूहिक चेतना यांत्रिक एकता वाले समाजों में अत्यधिक सुदृढ़ होती है। इस संदर्भ में दुर्खाइम ने हिब्रू जनजाति का उदाहरण दिया है। ऐसे समाज में व्यक्तियों में समानता पायी जाती है। व्यक्तियों में विशेषीकरण या तो नाम मात्र का होता है या बिलकुल नहीं होता है। प्रत्येक व्यक्ति या तो कृषक होगा या योद्धा। व्यक्तियों में सामान्य विचार पाये जाने के कारण अत्यधिक सुदृढ़ सामूहिक चेतना पायी जाती है। यदि व्यक्ति द्वारा सामूहिक चेतना का उल्लंघन
किया जाता है तो उसे कठोर दंड दिया जाता है। वैयक्तिक स्तर पर सभी मतभेद गौण हो जाते हैं तथा व्यक्ति सामूहिक समग्र का अभिन्न अंग बन जाता है। सदस्यों में सामूहिक चेतना के साथ-साथ आज्ञापालन की सुदृढ़ भावना पायी जाती है। समाज में दमनात्मक कानून पाये जाते हैं। जनसंख्या का घनत्व भी कम पाया जाता है।
सावयवी एकता वाला समाज यंत्र की तरह न होकर एक सजीव सामाजिक तथ्य होता है। सावयवी एकता विभिन्न तथा विशिष्ट प्रकार्यों की व्यवस्था होती है। सावयवी एकता वाले समाज में व्यवस्था के संबंध समाज के सदस्यों के ऐक्यबद्ध करते हैं। सावयवी शब्द समाज की प्रकार्यात्मक अंतर्संबद्धता के तत्वों का संदर्भ प्रस्तुत करता है।
यांत्रिक एकता वाला समाज जनसंख्या के घनत्व के बढ़ने के साथ-साथ सावयवी एकता वाले समाज में परिवर्तित हो जाता है।
श्रम विभाजन के विकास के साथ-साथ व्यक्ति पारस्परिक आवश्यकताओं के कारण प्रकार्यात्मक रूप से भी अंतर्संबधित होते हैं श्रम विभाजन की प्रक्रिया में जैसे-जैसे विशेषीकरण बढ़ता जाता है। वैसे-वैसे व्यक्तियों में अत्मनिर्भरता बढ़ती जाती है। श्रम विभाजन में वृद्धि के कारण व्यवसायों में भी वृद्धि तथा विभिन्नता बढ़ती जाती है। दुर्खाइम के अनुसार “समाज की अवस्था में धीरे धीरे परिवर्तन होता है। परिवर्तन का क्रम यांत्रिक सामाजिक एकता से सावयवी एकता की ओर होता है तथा समाज में दमनकारी कानून के स्थान पर प्रतिकारी कानून आ जाता है।
प्रश्न 4. धर्म पर दुर्खाइम का दृष्टिकोण क्या है?
उत्तर-दुर्खाइम ने धर्म को एक सामाजिक तथ्य स्वीकार किया है। धर्म का संबंध पवित्र वस्तुओं, विश्वासों तथा महत्वपूर्ण सामाजिक अवसरों से होता है। प्रत्येक समाज में वस्तुओं को पवित्र समझा जाता है। दुर्खाइम के अनुसार इस श्रेणी में धार्मिक ग्रंथ, विश्वास, उत्सव, पेड़ तथा पौधे, भूत-प्रेत तथा अमूर्त देवी सत्ता को सम्मिलित किया जाता है।
धर्म की उत्पत्ति के विषय में दुर्खाइम पूर्ववर्ती सिद्धांतों से अपनी असहमति दिखाते हैं। उनका मत है कि धर्म की उत्पत्ति में सामूहिक उत्सवों तथा कर्मकांडों का महत्वपूर्ण स्थान है। दुर्खाइम का मत है कि सामूहिक उत्सवों के साथ पवित्रता की भावना जुड़ी होती है। यह भावना समाज तथा सामूहिकता ईश्वर के समकक्ष कर देती है।
दुर्खाइम का मत है कि धर्म सामाजिक एकता तथा सामाजिकता की भावना को सामूहिक मिलन उत्सवों तथा कर्मकांडों के जरिए शक्तिशाली बनाता है।
दुर्खाइम ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Elementary Forms of Religous Life में धर्म को एक सामाजिक तथ्य माना है। दुर्खाइम ने टोटमवाद को आदिम तथा साधारण धर्म की संज्ञा दी है। जीवन की शुद्धता तथा पवित्रता धार्मिक जीवन का सर्वमान्य तत्व है।
टोटमवाद का अर्थ स्पष्ट करते हुए दुर्खाइम कहते हैं कि यह विश्वासों तथा संस्कारों से ‘जुड़ी हुई व्यवस्था है। टोटम एक वृक्ष अथवा पशु हो सकता है, जिससे किसी समूह के सदस्य सुदृढ़ तथा रहस्यात्मक संबंध रखते हैं। वृक्ष अथवा पशु के रूप में समूह के सदस्य टोटम का सम्मान करते हैं तथा उसे सामान्य दशाओं में नष्ट नहीं करते हैं। टोटम समूह के सदस्यों के लिए पवित्र होता है। टोटम तक पहुँचने के लिए संस्कार तथा रस्में आवश्यक हैं। एक टोटम की पूजा करने वाले व्यक्ति अपना समूह बनाते हैं तथा समूह में वैवाहिक संबंध स्थापित करते हैं। इस प्रकार टोटम समूह की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है।
दुर्खाइम धर्म को विश्वासों तथा रीति-रिवाजों की एकीकृत व्यवस्था मानते हैं। धर्म का संबंध पवित्र वस्तुओं से होता है। धर्म के द्वारा समुदाय के सदस्य नैतिक बंधन में बंधे होते हैं। सभी धर्मों में निम्नलिखित दो मूल तत्व पाये जाते हैं:
(i) विश्वास तथा (ii) धार्मिक कृत्य अथवा रीति-रिवाज
दुर्खाइम का मानना है कि किसी भी धर्म में पवित्रता’ केन्द्रीय विश्वास होता है। पवित्र सबसे पृथक् होता है तथा समूह के सभी सदस्य इसकी पूजा करते हैं।
दुर्खाइम का मत है कि सामाजिक जीवन की समस्त प्रघटनाओं या वस्तुओं को निम्नलिखित दो भागों में बाँटा जा सकता है:
(i) पवित्र तथा (ii) अपवित्र
दुर्खाइम का मत है कि धर्म का संबंध पवित्र वस्तुओं का स्तर सांसारिकता की अपेक्षा ऊँचा होता है। समाज द्वारा पवित्र कार्यों, उत्सवों तथा रीति-रिवाजों में भाग लेने वाले व्यक्तियों को विशेष सम्मान प्रदान किया जाता है। जिन वस्तुओं को समाज के सदस्य पवित्र समझते हैं उन्हें अपवित्र अथवा साधारण से सदैव दूर रखने का प्रयास करते हैं।
अपवित्र भौतिक वस्तुएँ सामान्य सांसारिक व उपयोगितावादी पक्षों से संबद्ध होती है। इस प्रकार, पवित्र का अनुसरण धर्म है तथा पवित्र को अपवित्र से मिला देना पाप है। अंत में, दुर्खाइम के अनुसार “धर्म पवित्र वस्तुओं से संबंधित विश्वासों तथा आचरणों की समग्र व्यवस्था है जो इन पर विश्वास करने वालों को एक नैतिक समुदाय (चर्च) में संयुक्त करती है।”
प्रश्न 5. उदाहरण सहित बताएँ कि नैतिक संहिताएँ सामाजिक एकता को कैसे दर्शाती है।
उत्तर-दुर्खाइम द्वारा प्रतिपादित सामाजिक एकता की धारणा अत्यंत महत्वपूर्ण है यों तो उनके पहले भी उनके सामाजिक विचारकों प्लेटो, अरस्तु, एडम स्मिथ, सैट, साइमन, कॉम्टे आदि ने इस विषय पर अपने विचार प्रकट किए हैं लेकिन दुर्खाइम ने अपने सिद्धान्त को एक नवीन रूप में प्रस्तुत किया है और इसकी सत्यता को प्रमाणित करने के लिए सामाजिक जीवन
के अनेक तथ्यों व आंकड़ों को संकलित किया है।
दुर्खाइम के अनुसार सामजिक एकता एक नैतिक प्रघटना है इसमें व्यक्तियों के नैतिक विकास की अभिव्यक्ति होती है। क्लोस्टरमायर ने लिखा है, “सामूहिक एकता व्यक्तियों के नैतिक विकास की अभिव्यक्ति है। यह व्यक्तियों को आत्म-अनुशासित बनाती है।”
दुर्खाइम का विचर है कि अहंकारपूर्ण तथा सुखवादी सामाजिक व्यवस्था सामाजिक एकीकरण, सुदृढ़ता या एकता का आधार नहीं बन सकती। नैतिक संहिता के कारण एकता निर्धनता और आदमियता में भी मनुष्यों को प्रसन्न तथा संतुष्ट रहने की प्रेरण देती है। उदाहरण के लिए प्राचीन समाजों में भौतिकता के अभाव के बावजूद अधिक प्रसन्नता और संतोष दिखाई देता था। उसका कारण प्राचीन समाज में पाई जाने वाली नैतिक संहिता थी जो सामजिक एकता की सूचक थी।
प्रश्न 6. इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या करें?
उत्तर-इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या ही मार्क्स के विचारों का आधार है। मार्क्स के अनुसार प्रत्यके देश को एतिहासिक घटनाएं वहाँ की आर्थिक व्यवस्था को प्रभावित करती है। सामाज की सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था पर आर्थक व्यवस्था का प्रभाव पड़ता है और सभी सामाजिक सम्बन्ध आर्थिक संबंधों पर आधारित होते हैं। किसी समय का इतिहास उस समय की आर्थिक व्यवस्था का चित्रण होता है। समाज में उत्पादन के साधनां तथा वितरण प्रणाली में परिवर्तन होने से समाज में परिवर्तन आता है और इतिहास बनता है। सभी घटनाओं के आधार में अधिकांशतः आर्थिक घटनायें होती हैं। तथापि इस प्रकार की धारणा या मान्यता उचित नहीं कि प्रत्येक घटनायें मात्र आर्थक घटनाओं पर आधारित होती हैं।
                दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. सामाजिक तथ्य क्या है?
उत्तर-सामाजिक तथ्य का तात्पर्य : दुर्खाइम के अनुसार समाजशास्त्र का क्षेत्र कुछ प्रघटनाओं तक सीमित है। वे इन्ही प्रघटनाओं को सामजिक तथ्य कहते हैं। दुर्खाइम का मत है कि सामजिक तथ्य व्यक्ति की व्यक्तिगत विशेषताओं अथवा मानव प्रकृति के गुणों से स्वतंत्र होते हैं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि सामाजिक तथ्य विचार अनुभव अथवा क्रिया का ऐसा रूप है जिसका निरीक्षण वस्तुपरक आधार पर किया जा सकता है तथा जो एक विशेष
तरीके से व्यवहार करने के लिए बाध्य करता है। दुर्खाइम के अनुसार,” सामाजिक तथ्य पूर्णतया स्वतंत्र नियमों या प्रथाओं का एक वर्ग है।”
व्यक्तिगत तथ्य सामाजिक तथ्य में अंतर : व्यक्ति अपने लिए जो कार्य करता है वह व्यक्तिगत तथ्य कहलाता है। उदाहरण के लिए व्यक्ति का चिंतन करना तथा सोना आदि व्यक्तिगत तथ्य है।
दूसरी तरफ, अनेक ऐसे कार्य होते हैं जिनका निर्धारण व्यक्ति की इच्छा द्वारा नहीं होता है। उदाहरण के लिए समुदाय के सदस्यों के द्वारा प्रयोग की जाने वाली भाषा, किसी देश की मुद्रा व्यवस्था या किसी व्यवस्था के मानक तथा नियम विनियम व्यक्ति की अपनी इच्छा पर निर्भर नहीं करते हैं इस प्रकार, सामाजिक तथ्य व्यक्ति के मस्तिष्क की उपज नहीं होते हैं। सामजिक
तथ्य व्यक्ति के सोचने तथा अनुभव करने की ऐसी पद्धति है जिसका अस्तित्व व्यक्ति की चेतना से बाहर होता है।
सामजिक तथ्यों की प्रमुख विशेषताएँ: सामजिक तथ्यों को महत्वपूर्ण विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
(i) सामाजिक तथ्यों की प्रकृति संपूर्ण समाज में सामान्य होती है।
(ii) सामाजिक तथ्य व्यक्ति के मस्तिष्क से बाहर स्वतंत्र अस्तित्व रखते हैं।
(iii) सामाजिक तथ्यों के व्यवहार पर बाह्य नियंत्रण रखते हैं।
उपरोक्त विशेषताओं के आधार पर सामाजिक तथ्यों के दो स्वरूप पाये जाते हैं :
(i) बाहयता (ii) बाध्यता
(i) बाह्ययता : सामाजिक तथ्यों को उनकी बाह्य विशेषताओं के आधार पर पृथक् किया जाता है। सामाजिक तथ्यों की प्रकृति विशिष्ट होती है। ये व्यक्तियों की क्रियाओं का परिणाम होने के बावजूद भी उससे अलग बाह्य शक्ति हैं। इनका स्वरूप व्यक्तिगत चेतना से भिन्न होता है। उदाहरण के लिए किसी विशेष सामाजिक मान्यता के विकास में अनेक सदस्यों का सहयोग हो सकता है। लेकिन सामाजिक मान्यता के बन जाने पर वह किसी व्यक्ति विशेष से संबंधित
नहीं होती हैं। इस प्रकार दुर्खाइम सामूहिक प्रतिनिधानों को सामाजिक तथ्य मानते हैं।
(ii) बाध्यता: सामाजिक तथ्यों के निर्माण में व्यक्तियों का चिंतन, विचारों तथा भावनाओं का सम्मिलित होता है। व्यक्ति अपने को इनका एक हिस्सा मानता है तथा उनके अनुरूप अपने व्यवहार समायोजित करता है। व्यक्ति धर्म, परंपरा, नैतिक आचरण,मूल्य,‌रीति-रिवाजों तथा परंपराओं आदि से नियंत्रण प्राप्त करते हैं।
व्यक्ति को सामाजिक तथ्यों के निर्देशों का पालन करने के लिए बाध्य किया जाता है। जब व्यक्ति सामाजिक तथ्यों का प्रतिरोध करता है या इनके नियमों का उल्लघंन करने का प्रयास करता है तो समाज की विरोधी प्रतिक्रिया प्रदर्शित करता है। व्यक्ति को सामजिक नियमों के अनुरूप कार्य करने के लिए बाध्य किया जाता है।
प्रश्न 2. ‘आत्महत्या के प्रकारों को दुर्खाइम ने किस प्रकार वर्गीकृत किया है समझाइए।
उत्तर-दुर्खाइम ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ सुसाइड 1897 में आत्महत्या के कारणों तथा प्रकारों की समाजशास्त्रीय व्याख्या की है। दुर्खाइम आत्महत्या के मनोवैज्ञानिक कारणों से सहमत नहीं हैं। दुर्खाइम आत्महत्या को एक सामाजिक तथ्य मानते हैं। उनके अनुसार आत्महत्या सामाजिक एकता के अभाव को प्रकट करती है। व्यक्ति सामाजिक एकता के अभाव में असुरक्षा की भावना से ग्रस्त हो जाता है तथा ऐसी अवस्था में वह अपने आत्मविनाश की बात सोच सकता है। दुर्खाइम की आत्महत्या संबंधी व्याख्या की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
(i) आत्महत्या एक सामाजिक तथ्य है।
(ii) मनौवैज्ञानिक कारकों के संदर्भ में सामान्य समाज में आत्महत्या की उपयुक्त व्याख्या संभव नहीं है।
(iii) एक सामान्य समाज में आत्महत्या तथा अपराध की दर में अकस्मात वृद्धि नहीं होती है। (iv) दुर्खाइम ने आत्महत्या की व्याख्या अनेक सामाजिक कारकों जैसे सामाजिक एकता, सामूहिक चेतना, सामाजिकता तथा प्रतिमानहीनता के संदर्भ में की है। (v) समाज की विभिन्न परिस्थितियों तथा कारण विभिन्न प्रकार की
आत्महत्याओं का परिणाम होती है। (vi) आधुनिक समाजों में सामाजिक बंधनों में शिथिलता के परिणामस्वरूप व्यक्ति या तो अलगाव से ग्रसित हो जाता है या समाज में आत्मविस्मृत हो जाता है।
दुखईम ने चार प्रकार की आत्महत्याओं का उल्लेख किया है:
(i) अहंवादी आत्महत्या : अहंवादी आत्महत्या में व्यक्ति यह अनुभव करने लगता है कि सामाजिक परम्पराओं द्वारा निर्धारित भूमिकाओं को वह निभाने में असफल रहा है, यह तथ्य उसकी प्रतिष्ठा तथा सम्मान के विपरित होता है।
दुर्खाइम के अनुसार जब व्यक्ति के दूसरों से संबंध करने वाले बंधन कमजोर हो जाते हैं तो अहंवाद की उत्पत्ति होती है। ऐसी परिस्थितियों में व्यक्ति द्वारा अपने अहं को अत्यधिक महत्व दिया जाता है। अत: व्यक्ति समाज से समुचित रूप से एकीकृत नहीं हो पाता है। इस प्रकार परिवार धर्म तथा राजनीतिक संगठनों में बंधनों के कमजोर हो जाने से अंहवादी आत्महत्या की दर से वृद्धि हो जाती है। जापान में हारा-किरी की प्रथा अहंवादी आत्महत्या का उपयुक्त उदाहरण है।
(ii) परसुखवादी अथवा परमार्थमूलक आत्महत्या : परसुखवादी अथवा परमार्थमूलक आत्महत्या में सामूहिक चेतना तथा सामाजिक एकता की मात्र अत्यधिक पायी जाती है।
दुर्खाइम के अनुसार परसुखवादी आत्महत्या में व्यक्ति में समाज में प्रति बलिदान की भावना पायी जाती है। देश की आजादी के लिए प्राणों की बलिदान कर देना अथवा जौहर प्रथा परसुखवादी आत्महत्या के उदाहरण हैं।
(iii) एनोमिक आत्महत्या अथवा प्रतिमानहीनता मूलक आत्महत्या : ऐनोमिक आत्महत्या अथवा प्रतिमानहीनतामूलक आत्महत्या प्रायः उन समाजों में पायी जाती हैं जहाँ सामाजिक आदर्शों में अकस्मात परिवर्तन हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में समाज में वैयक्तिक विघटन की सामाजिक घटनाएं बढ़ने लगती हैं। दुर्खाइम इस स्थिति को एनोमिक अथवा प्रतिमानहीनता कहते हैं।
दुर्खाइम का मत है कि अत्यधिक विभिन्नीकरण, विशेषीकरण, नियमविहीन श्रम विभाजन के कारण जैविकीय दृढ़ता की स्थिति में आशानुरूप सामाजिकता, सामूहिक चेतना तथा अन्योन्याश्रितता की कमी उत्पन्न हो जाती है। ऐसी विषम स्थिति में व्यक्ति में व्यक्ति का समाज से अलगाव हो जाता है। दुर्खाइम का मह है कि ऐसी स्थिति में सामाजिक मानक समाप्त हो जाते हैं व्यक्ति में सामाजिक स्थिति से उत्पन्न तनावों को सही न करने की क्षमता कम हो जाती है। ऐसी स्थिति में व्यक्ति के समक्ष जब भी तनावपूर्ण स्थिति आती है तो उसका संतुलन अव्यवस्थित हो जाता है तथा वह आत्महत्या कर लेता है। व्यापार में अचानक घाटा तथा राजनैतिक
उतार-चढ़ाव आदि के कारण भी व्यक्ति आत्महत्या कर लेते हैं। इस प्रकार, समाज में एनोमिक अथवा नियमहीनता अथवा प्रतिमानहीनता की स्थिति उत्पन्न होने से आत्महत्याओं की दर से वृद्धि हो जाती है।
(iv) भाग्वादी आत्महत्या : दुर्खाइम के अनुसार समाज में अत्यधिक नियमों तथा कठोर शासन व्यवस्था के कारण भाग्यचादी आत्महत्याओं की दर से वृद्धि हो जाती है। दुर्खाइम ने दास प्रथा को भाग्यवादी आत्महत्या का उपयुक्त उदाहरण बताया है। जब दास यह समझने लगते हैं कि उनका नारकीय जीवन से छुटकारा असंभव है तो वे भाग्वादी हो जाते हैं तथा
आत्महत्या कर लेते हैं।
प्रश्न 3. एमिल दुर्खाइम की श्रम विभाजन की धारणा स्पष्ट कीजिए।
अथवा, श्रम विभाजन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर- एमिल दुर्खाइम ने 1893 में प्रकाशित अपने प्रसिद्ध ग्रंथ Divisional of Labout in Society. में श्रम विभाजन की धारणा को स्पष्ट किया है:
(i) समाज सामन्य नैतिक व्यवस्था पर आधारित है : दुर्खाइम के अनुसार समाज सामान्य नैतिक व्यवस्था पर आधारित है न कि विवेकपूर्ण स्वहित पर। दुर्खाइम के अनुसार समाज में व्यक्ति के स्वहित से अधिक कुछ और भी पाया जाता है। उसने इस कुछ को ही सामाजिक एकता का एक रूप कहा है। श्रम विभाजन केवल समाज में व्यक्ति की प्रसन्नताएँ बढ़ाने की विधि नहीं है वरन् एक नैतिक तथा सामाजिक तथ्य होता है जिसका उद्देश्य समाज को सूत्रबद्ध करना होता है।
(ii) श्रम विभाजन के मुख्य कारण : दुर्खाइम ने श्रम विभाजन के दो प्रमुख कारण बताए हैं:
(a) जनसंख्या के घनत्व में वृद्धि होना
(b) जनसंख्या के नैतिक घनत्व में वृद्धि होना।
दुर्खाइम का मत है कि जनसंख्या के घनत्व में वृद्धि होने के साथ-साथ सामाजिक संरचना जटिल होती जाती है। मनुष्य की आवश्यकताओं में निरंतर वृद्धि होती रहती है। चूँकि एक समूह अथवा व्यक्ति के लिए समस्त कार्यों को करना संभव नहीं हो पाता है। अत: श्रम विभाजन अपरिहार्य हो जाता है।
श्रम विभाजन के प्रश्न पर दुर्खाइम सुखवादियों तथा उपयोगितावादियों से सहमत नहीं हैं। दुर्खाइम का मत है कि श्रम विभाजन व्यक्ति के अपने हितों, विचारों, आनंद या उपयोगिता पर आधारित नहीं हैं। दुर्खाइम श्रम विभाजन को एक विशुद्ध सामाजिक प्रक्रिया मानते हैं।
सामाजिक प्रक्रिया के निम्नलिखित दो पक्ष हैं:-
(i) जनसंख्या में वृद्धि होना
(ii) नैतिक पक्ष
दुर्खाइम का मत है कि यह नैतिक दायित्व है कि जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ प्रत्येक व्यक्ति को समुचित कार्य तथा स्थिति प्रदान करे।
(iii) समाज का वर्गीकरण तथा श्रम विभाजन : दुर्खाइम की श्रम विभाजन की अवधारणा को उसके समाज के वर्गीकरण, सामाजिक एकता के प्रकारों तथा कानून के जरिए समझा जा सकता है। दुर्खाइम ने सामाजिक एकता अथवा दृढ़ता के आधार पर समाज का विभाजन दो भागों में किया है:
(a) यांत्रिक एकता पर आधारित समाज (b) सावयवी एकता पर आधारित समाज
(a) यांत्रिक एकता पर आधारित समाज : एमिल दुर्खाइम ने यांत्रिक एकता वाले समाज की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है:
(i) व्यक्ति समाज से प्रत्यक्ष रूप से संबद्ध होता है।
(ii) समाज के सदस्यों में एक ही प्रकार के विश्वास तथा भावनाएँ पाए जाते हैं।
(iii) सामूहिकता की भावना अत्यधिक प्रबल होती है।
(iv) समाज में विभिन्नीकरण अपनी प्रारंभिक अवस्था में पाया जाता है। लिंग तथा आयु विभिन्नीकरण के मुख्य आधार होते हैं।
(v) प्रकार्यों का स्वरूप अत्यधिक साधारण होता है।
(vi) समाज के सदस्य एक जैसे होते हैं।
(vii) समाज के सदस्यों में प्रबल समूहिक चेतना तथा आज्ञापलन की भावना पायी जाती है।
(viii) समाज में दमनात्मक कानून पाये जाते हैं।
(b)सावयवी एकता पर आधारित समाज : दुर्खाइम का मत है कि जनसंख्या के घनत्व के बढ़ने के साथ-साथ यांत्रिक एकता वाले समाज धीरे-धीरे सावयवी अथवा जैविकीय एकता वाले समाज में परिवर्तित हो जाते हैं।
दुर्खाइम ने सावयवी अथवा जैविकीय एकता पर आधारित समाज की निम्नलिखित विशेषताएँ बतायी हैं:
(i) विभिन्नीकरण की प्रक्रिया जटिल तथा अग्रिम अवस्था में पायी जाती है।
(ii) समाज के विभिन्न भागों तथा व्यक्तियों में पारस्परिक आवश्यकताओं के आधार पर अन्योन्याश्रितता में वृद्धि होती रहती है।
(iii) श्रम विभाजन में निरंतर वृद्धि के कारण विभिन्न व्यवसायों तथा पेशों का विकास होता है।
(iv) यद्यपि समाज में वैयक्तिकता की भावना में वृद्धि होती है तथापि पारस्परिकता तथा अन्योन्याश्रितता की भावना निरंतर बढ़ती रहती है।
(v) श्रम विभाजन से विशेषीकरण बढ़ता है तथा इससे पारस्परिक निर्भरता की भावना और अधिक प्रबल हो जाती है हालांकि अति-विशेषीकरण अलगाव भी उत्पन्न कर देता है।
(vi) समाज में दमनात्मक कानून का स्थान नागरिक तथा पुनर्स्थापना वाले कानून ले लेते हैं।
(iv) अति-श्रम विभाजन तथा अति-विशेषीकरण का परिणाम : एमिल दुर्खाइम का मत है कि अति-श्रम विभाजन का अति-विशेषीकरण से समाज में निम्नलिखित समस्याएँ आ सकती हैं:
(a) अत्यधिक व्यक्तिवादिता जिससे समाज में पृथकता तथा अलगाव उत्पन्न होता है।
(b) व्यक्तियों में सामूहिक तथा अन्योन्याश्रितता की भावना में उत्तरोत्तर कमी होती चली जाती है।
(c) समाज में एनोमिक अथवा प्रतिमानहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
             मैक्स वेबर ( 1864-1920)
पाठ्यपुस्तक एवं अन्य महत्वपूर्ण परीक्षा उपयोगी प्रश्न एवं उत्तर
               अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. सामाजिक क्रिया के अर्थ को समझने के लिए मैक्स वैबर ने किन दो अंत:संबंधित विधियों का उल्लेख किया है?
उत्तर-मैक्स वैबर ने सामाजिक क्रिया के अर्थ को समझने के लिए दो अंत:संबंधित विधियों का उल्लेख किया है : (i) वर्सतेहन तथा (ii) आदर्श प्रारूपों की मदद से विशलेषण
प्रश्न 2. आदर्श प्रारूप का अर्थ संक्षेप में बताइए।
उत्तर-आदर्श प्रारूप एक अस्तित्व की विशेषताओं का समूह है जो, कि : (i) तार्किक रूप से निरंतर होती है (ii) जो उसके अस्तित्व को संभव बनाती है। आदर्श प्रारूपों कुछ तत्वों विशेषताओं या लक्षणों का चयन है जो कि अध्ययन की जाने वाली प्रघटनाओं के लिए विशिष्ट तथा उपयुक्त है।
यद्यपि आदर्श प्रारूप का निर्माण समाज में पायी जाने वाली वास्तविकताओं के आधार पर होता है तथापि वे (आदर्श-प्रारूप) समस्त वास्तविकताओं का वर्णन तथा प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं वस्तुत: आदर्श ग्रारूप एक मानसिक निर्माण है।
प्रश्न 3. व्याख्यात्मक समाजशास्त्र से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-मैक्स वैबर समाजशास्त्र को सामाजिक क्रिया का व्याख्यात्मक बोध मानते हैं। समाज शास्त्र के द्वारा सामाजिक क्रिया की आंतरिक उन्मुखता तथा अर्थों को समझाने का प्रयास किया जाता है। वैबर इसे ही व्याख्यातमक समाजशास्त्र कहता है। व्याख्यातमक समाजशास्त्र द्वारा निम्नलिखित कारकों के अध्ययन, व्याख्या तथा पहचान पर विशेष जोर दिया जाता है : (i) सामाजिक क्रिया (ii) सामाजिक क्रया की आंतरिक उन्मुखता (iii) अंतनिर्हित अर्थ (iv) अन्य व्यक्तियों की ओर उन्मुख होने से विकसित पारस्परिकता।
प्रश्न 4. तर्कसंगत वैधानिक सत्ता से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-मैक्स वैबर के अनुसार तर्कसंगत वैधानिक सत्ता तर्कसंगत वैधता पर आधारित होती है। तर्गसंगत वैधानिक सत्ता नियामक नियमों की वैधता के विश्वास पर आधारित होती है। तर्कसंगत वैधानिक सत्ता उन व्यक्तियों के अधिकारों को स्वीकार करती है जो वैधानिक रूप से परिभाषित नियमों के अंतग्रत सत्ता का प्रयोग आदेश देने के लिए करते हैं।
प्रश्न 5. पारंपरिक सत्ता का अर्थ बताइये।
उत्तर-पारंपरिक सत्ता वस्तुत: पारंपरिक वैधता पर निर्भर करती है।
पारंपरिक वैधता प्राचीन परंपराओं की पवित्रता के स्थापित विश्वासों पर आधारित होती है। पारंपरिक सत्ता चिंतन के स्वाभाविक तरीकों पर निर्भर करती है।
प्रश्न 6. करिश्माई सत्ता से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-मैक्स वैबर के अनुसार करिश्माई सत्ता का आधार करिश्माई वैधता है।
करिश्मा का अर्थ है सुंदरता का उपहार। करिश्माई वैधता का संबंध उस व्यक्ति से होता है जिसका चरित्र विशिष्ट तथा अपवादस्वरूप है तथा जिसका उदाहरण  श्रद्धापूर्वक दिया जाता है।
करिश्माई सत्ता उन नियामक प्रतिमानों पर निर्भर होती है जिनका निर्धारण करिश्माई व्यक्ति द्वारा किया जाता है।
प्रश्न 7. नौकरशाही की अवधारणा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-आधुनिक विश्व में विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी का महत्व निरंतर बढ़ रहा है। व्यापार तथा उद्योग का आधार तार्किक गणनाएँ हैं।
राज्यों की बढ़ती हुई जटिलताओं के कारण नौकरशाही अथवा तार्किक वैधानिक सत्ता पर निर्भर हो रहे हैं।
ब्यूरो का शाब्दिक अर्थ है एक कार्यालय अथवा कानूनों, नियामों व नियिमों की व्यवस्था,जो विशिष्ट प्रकार्यों को परिभाषित करती है। इसका तात्पर्य है एक समूह की संगठित कार्य प्रक्रिया।
मैक्स वैबर के अनुसार, “नौकरशाही पदानुक्रम में एक सामाजिक संगठन है। नौकरशाही में प्रत्येक व्यक्ति के पास कुछ शक्ति तथा सत्ता होती है। नौकरशाही का उद्देश्य आधुनिक समाजों में प्रशासन, राज्यों या अन्य संगठनों, जैसे विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी एवं औद्योगिक तथा वाणिज्य संगठनों को तार्किक रूप से चलाना है।”
मैक्स वैबर प्रजातंत्र तथा नौकरशाही में घनिष्ट संबंध स्थापित करते हैं।
प्रश्न 8. वैबर का ‘धर्म’ का समाजशास्त्र समझाइए।
उत्तर-मैक्स वैबर के अनुसार धर्म मूल्यों, विश्वासों तथा व्यवहारों की एक व्यवस्था है जो मानव के कार्यों तथा अभिविन्यास को निश्चित आकार प्रदान करता है।
धर्म एक सामायिक प्रघटना है जो अन्य सामाजिक व्यवस्थाओं से घनिष्ठतापूर्वक संबंधित होती है।
मैक्स वैबर ने धार्मिक विचारों तथा आर्थिक संस्थाओं के बीच संबंधों में गहरी रुचि प्रदर्शित की है।
प्रश्न 9. प्रशासन के स्वरूप के संदर्भ में नौकरशाही की विशिष्ट विशेषताएँ बताइए।
उत्तर-मैक्स वैबर ने प्रशासन के स्वरूप के संदर्भ में नौकरशाही की निम्नलितिखत विशिष्ट विशेषताएँ बतायी हैं:
(i) निरंतरता
(ii) पदानुक्रम या संस्तरण
(iii) संसाधनों के मामलों में सरकारी कार्यालयों के निजी स्वामित्व या निंत्रण से पृथक रखना।
(v) लिखित दस्तावेजों का प्रयोग
(vi) वेतनभोगी पूर्णकालिक व्यावसायिक आधार पर विशेषज्ञ ।
                लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. ‘आदर्श प्रारूप’ से आप क्या समझाते हैं?
उत्तर-मैक्स वैबर का मत है कि समाज जटिल होता है। तथा इसमें सदैव शकितयों के परिवर्तन का खेल चलता रहता है। वैबर ने आदर्श प्रारूपों की अपने धारणा का विकास किया, जिससे अनंत जटिल तथा परिवर्तनशील दुनिया को समझकर उसके आधार पर वैज्ञानिक सामान्यीकरण हो सके।
आदर्श प्रारूप एक अस्तित्व में विशेषताओं का समूह है जो कि
(i) तार्किक रूप निरंतर होती है। (ii) जो उसे अस्तित्व को संभव बनाती है।
आदर्श प्रारूप कुछ तत्वों, विशेषताओं या लक्षणों का चयन है जो कि अध्ययन की जानेवाली
प्रघटनाओं के लिए विशिष्ट तथा उपयुक्त है। यद्यपि आदर्श प्रारूप का निर्माण समाज में पायी जाने वाली वास्तविकताओं के आधार पर होता है तथापि वे (आदर्श-प्रारूप) समस्त वास्तविकताओं का वर्णन तथा प्रतिनिधत्व नहीं करते हैं। वस्तुत: आदर्श प्रारूप एक मानसिक निर्माण है।
आदर्श प्रारूपों को गुणात्मक सामाजिक तथ्यों का ऐसा प्रतिनिधि स्वरूप या मानदंड कहा जाता है जिनका चयन तर्किक आधार पर विचारपूर्वक किया जाता है। मैक्स वैबर ने अपनी अध्ययन विषय-वस्तु के विश्लेषण में सत्ता, शक्ति, धर्म, पूँजीवाद आदि आदर्श प्रारूपों का चयन किया है।
मैक्स वेबर के अनुसार आदर्श प्रारूपों के अंतर्गत केवल तार्किक तथा महत्वपूर्ण तत्वों को ही सम्मिलित किया जाता वैबर का मत है कि आदर्श प्रारूप अपने आप में साध्य नहीं है वरन् ऐतिहासिक तथ्यों के व्यापक विश्लेषण में उपकरण अथवा सहायक यंत्र है।
प्रश्न 2. शासन के तीन प्रकार कौन से हैं?
उत्तर-मैक्स वैबर ने शासन के आदर्श प्रारूप की रचना की है। वैबर ने शासन के निम्नलिखित तीन प्रारूप बताए हैं:
(i) तार्किक अथवा बुद्धिसंपन्न शासन : शासन का यह आदर्श प्रारूप विवेक कानून तथा आदेश के द्वारा न्यायसंगत होता है। शासन के इस प्रारूप में समस्त प्रशासन का व्यापक आधार विवेक सम्मत कानून होते हैं।
(ii) पारंपरिक शासन : पारंपरिक शासन के प्रारूप के अंतर्गत शासन के प्रारूप को अतीत के रीति-रिवाजों तथा परंपराओं द्वारा न्यायसंगत ठहराया जाता है। कोई भी शासन व्यवस्था पारंपरिक शासन से पूर्णरूपेण मुक्त नहीं हो सकती है। वास्तव में शासन पारंपरिक तथा आध निक दोनों ही आधारों का मिला-जुला स्वरूप होता है। परंपराएँ, रीति-रिवाज तथा जाति आदि कारक शासन के स्वरूप, दिशा तथा प्रगति आदि को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
(iii) करिश्माई शासन : करिश्माई शासन को करिश्माई नेता के व्यक्तिगत तथा अपवादस्वरूप गुणों के आधार पर न्यायसंगत ठहराया जाता है। करिश्माई नेता का उपयोग वास्तविक राजनीतिक शासन प्रणाली को विश्लेशणात्मक रूप से समझने तथा उसके पुनर्निर्माण में किया जा सकता है। करिश्माई नेताओं में महात्मा गाँधी तथा अब्राहम लिंकन आदि का नाम उल्लेखनीय
है।
जहाँ तक शासन प्रणाली के समग्र एकीकृत स्वरूप का प्रश्न है, प्रत्येक प्रकार की शासन व्यवस्था में तार्किक, पारंपरिक तथा करिशमाई तीनों ही प्रकार के तत्व होने आवश्यक हैं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि कोई भी शासन का आदन प्रारूप किसी एक तत्व की अनुपस्थिति में सुचारु रूप से नहीं चल सकता है। उदाहरण के लिए करिश्माई नेता तो हो, लेकिन शासन
के प्रारूप में तार्किकता अथवा विवेक न हो तो शासन का प्रारूप आर्दशों प्रारूप नहीं कहलाएगा।
प्रश्न 3. पूँजीवाद के प्रमुख तत्व क्या हैं?
उत्तर-मैक्स वैबर पूँजीवाद को एक आधुनिक तथा विवेकशील पद्धति मानते हैं। वैबर का प्रसिद्ध ग्रंथ The Protestat Eithic and theSpirit of Capitalism 1904 में प्रकाशित हुआ था । वैबर का मत है कि प्रोटेस्टेंट धर्म की आचार संहिता आर्थिक क्षेत्र में पूँजीवाद के जन्म के महत्वपूर्ण कारक हैं। मैक्स वैबर ने लिखा है। कि “प्रोटस्टेंट धर्म की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं तथा वह प्रोटेस्टेंट सुधार ही था जिसने पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के विकास में प्रत्यक्ष रूप से प्रेरणा प्रदान की।” इस प्रकार प्रोटेस्टेंटवाद ने आधुनिक पूँजीवाद की भावना को प्रोत्साहित किया।
आधुनिक पूँजीवाद में निरंतर धन कमाने तथा लाभ के लिए उसका पुनर्निवेश किया जाता है। मैक्स वैबर ने फ्रैंकलिन के लेखों से पूँजीवाद के शुद्ध मनोभाव का निर्माण किया है। वैबर ने पूँजीवाद के निम्नलिखित लक्षण बताए हैं:
(i) समय ही धन होता है।
(ii) साख ही धन होता है।
(iii) धन से ही धन प्राप्त होता है। कभी भी एक पैसा गलत नहीं खर्च करना चाहिए तथा पैसा बेकार नहीं पड़ा रहना चाहिए।
(iv) प्रत्येक व्यक्ति को ऋण चुकाने में पाबंद होना चाहिए। इसी कारण कहा गया है कि नियत समय पर ऋण चुकाने वाला व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के पर्स का स्वामी बन जाता है। इसका तात्पर्य है कि निमित समय पर ऋण चुकाने वाला पुनः धन उधार ले सकता है।
(v) व्यक्ति के द्वारा आया तथा व्यय का विशद विवरण रखना चाहिए।
(vi) व्यक्ति की पहचान उसकी बुद्धिमत्ता तथा परिश्रम से होनी चाहिए। व्यक्ति को व्यर्थ समय नष्ट नहीं करना चाहिए।
मैक्स वेबर का मत है कि उपरोक्त वर्णित नियमों के पालन से आधुनिक पूँजीवाद के मनोभावों का पोषण होता है। आधुनिक पूँजीवाद का मनोभाव है, वह दृषिटकोण जो तार्किक तथा व्यवस्थित तरीके से लाभ कमाए। वह अविरल तथा तार्किक लाभ अर्जित करने का दर्शन है।
प्रश्न 4. बुद्धिसंगत, वैध व पारंपरिक सत्ता में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-बुद्धिसंगत, वैध व पारंपरिक सत्ता में निम्नलिखित अंतर है:
प्रश्न 5. वेबर की वर्ग, प्रस्थिति व शक्ति की अवधारणा की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-वेबर की वर्ग की अवधारणा : वैबर ने वर्ग को व्यक्तियों की श्रेणी के रूप में परिभाषित किया है। उन व्यक्तियों में जीवन की संभावनाओं के विशिष्ट घटक को सामान्य रूप से देखा जाता है। यह घटक विशिष्ट रूप से आर्थिक हितों का प्रतिनिधित्व करता है, जिनमें वस्तुओं पर स्वामित्व तथा आय के अवसर हों। इसे उपभोग की वस्तुओं की तरह प्रस्तुत किया जाता है। श्रम बाजार के वर्ग कभी भी वर्ग नहीं हो सकते ।
वेबर की प्रस्थिति की अवधारणा : यद्यपि स्थिति समूह समुदाय हैं। प्रस्थिति का निश्चय निर्धारण एक विशिष्ट सकारात्मक अथवा नाकारात्मक सामाजिक सम्मान से होता है। इसका निर्धारण आवश्यक रूप से वर्ग स्थिति के द्वारा नहीं होता है। प्रस्थिति समूहका सदस्य उपयुक्त जीवन शैली की धारणा अथवा उपभोग प्रतिमानों के द्वारा अन्य व्यक्तियों द्वारा प्रदान किए सामाजिक सम्मान की धारणा से परस्पर जुड़े होते हैं। प्रस्थिति विभेद सामाजिक अंत: क्रिया पर प्रतिबंधों की आशाओं से संबद्ध होते हैं ऐसे व्यक्ति जो विशेष स्थित समूह से संबद्ध नहीं होते हैं तथा जो अपने से निम्न प्रस्थिति के व्यक्तियों से सामाजिक दूरी कायम कर लेते हैं।
वेबर की शक्ति की अवधारणा : वेबर के अनुसार शक्ति अथवा सत्ता एक अन्य दुलर्भ संसाधन है। शक्ति एक व्यक्ति अथवा अनेक व्यक्तियों द्वारा दूसरों के प्रतिरोध के बावजूद अपनी इच्छा को सामुदायिक क्रिया के रूप में सभी पर लागू करते हैं अनेक व्यक्ति अधिक से अधिक शक्ति संचय करना चाहते हैं। वास्तविकता यह है कि सभी व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों की सत्ता के नियंत्रण से बचना चाहते हैं। शक्ति के लिए संघर्ष सभी समाजों में पाया जाता है। शक्ति का यह संघर्ष राजनीतिक समूहों या आधुनिक समाजों में राजनीतिक दलों के द्वारा किया जाता है। शक्ति के मैदान में दलों के समूह पाए जाते हैं। उनकी क्रियाओं का निर्धारण सामाजिक शक्ति अर्जित करने में होता है। इस प्रकार, शक्ति के आधार पर असमान्त का जन्म होता है।
प्रश्न 6. समाजिक क्रिया किसे कहते हैं?
उत्तर-मैक्स वेबर सामाजिक क्रिया को समाजशास्त्र के अध्ययन की मुख्य विषय-वस्तु मानते हैं। वेबर का मत है कि जब व्यक्ति एक-दूसरे की तरफ उन्मुख होते हैं तब इस उन्मुखता में आंतरिक अर्थ निहित होता है, वह सामाजिक क्रिया कहलाती है। वैबर ने सामाजिक क्रिया में चार तत्व बताए हैं: (i) कर्ता, (ii) परिस्थिति, (iii) साधन तथा (iv) लक्ष्य
सामाजिक क्रिया के निम्नलिखित चार प्रकार होते हैं:
(i) धार्मिक क्रिया : इसके अंतर्गत कर्मकांड तथा धार्मिक उत्सव जैसी क्रियाएँ आती हैं इन सामाजिक क्रियाओं को धर्म द्वारा स्वीकार किया जाता है।
(ii) विवेकपूर्ण क्रिया : आर्थिक क्रियाएँ जैसे उत्पादन, वितरण तथा उपयोग विवेकपूर्ण क्रियाएँ हैं। इसमें साध्य तथा साधन के विवेकपूर्ण संतुलन पर विशेश बल दिया जाता है।
(iii) परंपरागत क्रिया : वैबर परंपरागत क्रिया के अंतर्गत प्रथाओं तथा रीति-रिवाजों को सम्मिलित करते हैं।
(iv) भावनात्मक क्रिया : वैबर प्रेम, क्रोध नकारात्मक व्यवहार तथा इनका अन्य व्यक्तियों पर प्रभाव को भावनात्मक क्रिया के अंतर्गत सम्मिलित करते हैं।
प्रश्न 7. मार्क्स और वेबर ने भारत के विषय में क्या लिखा है-पता करने की कोशिश कीजिए।
उत्तर-मार्क्स के समय भारत में 1857 का विद्रोह हो चुका था। 1845 में मार्क्स फ्रांस आकर रहने लगे थे। उनकी प्रसिद्ध रचना ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’ 1847 में प्रकाशित हुई। उसके 10 वर्ष बाद भारत में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हुआ। माक्से चूंकि पूंजीवाद के विरोधी थे इसलिए उन्होंने इस बिद्रोह के पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फकने का एक प्रयास बताया। लंदन में प्रकाशित एक समाचार पत्र में मार्प ने टिप्पणी की “फ्रांस की क्रांति जब मजदूर को उसका हक दिला सकती है तो भारत में यह क्यों नहीं हो सकता।” 14 मार्च, 1883 को मार्क्स का निधन हो गया। वे भारत के बारे में उत्कृष्ट विचार रखते थे।
मैक्स वेबर भी एक समाजशास्त्री थे। प्रथम विश्वयुद्ध को उन्होंने अपनी आँखों से देखा था। वे  भारत द्वारा इस गृह युद्ध में भाग लेने के विरोधी थे। वे भारत की स्वतंत्रता के पक्षधर थे। 14 जून, 1920 के बेवर का निधन हो गया।
प्रश्न 8. सामाजिक विज्ञान में किस प्रकार विशिष्ट तथा भिन्न प्रकार की वस्तुनिष्ठता की आवश्यकता होती है।
उत्तर-जब किसी घटना का निरीक्षण उसके वास्तविक या सत्य रूप में किया जाता है और इस प्रकार के निरीक्षणों द्वारा निरीक्षणकर्ता की मनोवृत्ति का प्रभाव नहीं पड़ता है तब ऐसे निरीक्षणों को वस्तुनिष्ठ निरीक्षण और प्राप्त परिणामों को वस्तुनिष्ठ परिणाम कहते हैं। वस्तुनिष्ठ परिणामों की एक पहचान यह है कि यदि किसी समस्या का अध्ययन कई अध्ययनकर्ता एक ही निष्कर्ष पर पहुंचते हैं तो कहा जाता है कि प्राप्त निष्कर्ष वस्तुनिष्ठ है।
विशिष्ट और विपरीत परिस्थतियों में समाज विज्ञान में वस्तुनिष्ठता के विभिन्न प्रकारों की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि अनुसंधान की व्यक्तिनिष्ठता अनुसंधान के परिणामों को प्रभावित न करें।
प्रश्न 9. क्या आप कारण बता सकते हैं कि हमें उन चिंतकों के कार्यों का अध्ययन क्यों करना चहिए जिनकी मृत्यु हो चुकी है? इनके कार्यों का अध्ययन न करने के कुछ कारण क्या हो सकते हैं?
उत्तर-साहित्य कभी मरता नहीं है। विचार भी कभी मरते नहीं हैं। साहित्य और विचार हमेशा जीवित रहते हैं इसलिए ऐसे विचारक जो अब इस संसार में नहीं हैं उनकी रचनाएँ हमें अवश्य पढ़नी चाहिए। इससे हम उनके समय की विचारधारा व तथ्यों को तो जान ही सकेंगे, साथ ही उनसे आने वाले समय के लिए मार्गदर्शन प्रेरणा प्राप्त कर सकेंगे।
प्रश्न 10. सामाजिक क्रिया के चार प्रकारों का वर्णन कीजिए।
अथवा,सामाजिक क्रिया का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा इसके चार प्रकारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-सामाजिक क्रिया का अर्थ : मैक्स वेबर सामाजिक क्रिया को समाजाशास्त्र के अध्ययन की
प्रमुख विषय-वस्तु मानता है। मैक्स वेबर का मत है कि जब व्यक्ति एक-दूसरे के प्रति उन्मुख होते हैं तथा इस उन्मुखता में आंतरिक अर्थ निहित होता है, तब उसे सामाजिक क्रिया कहा जाता है।
सामाजिक क्रिया के अर्थ को स्पष्ट करते हुए मैक्स वैबर कहते हैं कि “किसी भी क्रिया को सामाजिक क्रिया उसी स्थिति में कहा जाएगा जब उस क्रिया का निष्पादन करने वाले व्यक्ति‌ उस क्रिया में अन्य व्यक्तियों के दृष्टिकोण एवं क्रियाओं को समावेशित किया जाए तथा उन्हीं के परिप्रेक्ष्य में उनकी गतिविधियाँ भी निश्चित की जाएँ।”
मैक्स वैबर सामाजिक क्रिया में निम्नलिखित चार तत्वों को आवश्यक मानते हैं:
(i) कर्ता, (ii) परिस्थिति, (iii) साधन तथा (iv) लक्ष्य ।
मैक्स वैबर ने किसी भी क्रिया को सामाजिक क्रिया मानने के दृष्टिकोण से निम्नलिखित तथ्यों का उल्लेख किया है:
(i) सामाजिक क्रिया को दूसरे व्यक्तियों को अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का व्यवहार प्रभावित कर सकता है।
(ii) प्रत्येक प्रकार के क्रिया को सामाजिक क्रिया नहीं कहा जा सकता।
(iii) व्यक्तियों के समस्त संपर्कों को सामाजिक क्रिया की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। इस संदर्भ में मैक्स वैबर ने उदाहरण देते हुए कहा है कि यदि दो साइकिल सवार आपस में टकराते हैं तो यह केवल एक घटना है न कि सामाजिक क्रिया; लेकिन जब दोनों साइकिल सवार एक दूसरे को मार्ग प्रदान करते हैं अथवा टकराने के पश्चात् झगड़ा करते हैं या समझौता करते हैं तो इसे हम सामाजिक क्रिया कहेंगे।
(iv) अनेक व्यक्तियों द्वारा की जाने वाली क्रिया को सामाजिक क्रिया नहीं कहा जा सकता है। सामाजिक क्रिया का व्यक्ति से संबंधित होना आवश्यक है। उदाहरण के लिए, वर्षा होने की स्थिति में सड़क पर चलने वाले व्यक्तियों द्वारा छाते का प्रयोग सामाजिक क्रिया नहीं है। व्यक्तियों की इस क्रिया का संबंध वर्षा से है, न कि व्यक्तियों से। मैक्स वैबर के अनुसार सामाजिक क्रिया तार्किकता से गहराई से संबद्ध होती है।
सामाजिक क्रिया के प्रकार : मैक्स वैबर ने सामाजिक क्रिया के निम्नलिखित चार प्रकार बताए हैं:
(i) लक्ष्य-युक्तिमूलक क्रिया, (ii) मूल्य-युक्तिमूलक क्रिया, (iii) भावात्मक क्रिया तथा (iv) पारंपरिक क्रिया
(i) लक्ष्य-युक्तिमूलक क्रिया : लक्ष्य-युक्तिमूलक क्रिया में व्यक्ति अपने व्यावहारिक लक्ष्यों तथा साधनों का स्वयं तार्किक रूप से चयन करता है। लक्ष्यों तथा साधनों का चयन तार्किक रूप से किया जाता है।
(ii) मूल्य युक्तिमूलक क्रिया : मूल्य युक्ति मूलक क्रिया इस अर्थ में तार्किक है कि इसका निर्धारण कर्ता के धार्मिक तथा नैतिक विश्वासों के द्वारा होता है। इस प्रकार की क्रिया के स्वरूप का मूल्य समग्र होता है तथा वह परिणामों में स्वतंत्र होता है। इस प्रकार की सामाजिक क्रिया का संपादन नैतिक मूल्यों के प्रभाव में किया जाता है।
(iii) भावात्मक क्रिया : जब क्रिया के साधनों का चयन भावनात्मक आधार पर किया जाता है तो इसे भावनात्मक क्रिया कहते हैं। ये क्रियाएँ चूंकि संवेगात्मक प्रभावों में की जाती हैं, अत: ये तार्किक हो भी सकती हैं अथवा नहीं भी हो सकती हैं।
(iv) पारंपरिक क्रिया : पारंपरिक क्रिया के अंतर्गत रीति-रिवाजों के द्वारा साध्यों तथा साधनों का चयन किया जाता है।
प्रश्न 11. नौकरशाही के बुनियादी विशेषताएँ क्या हैं?
उत्तर-नौकरशाही का अर्थ: मैक्स वैबर ने नौकरशाही को पदानुक्रम अथवा संस्तरण सामाजिक संगठन कहा है। नौकरशाही में प्रत्येक व्यक्ति के पास कुछ शक्ति तथा सत्ता होती है। नौकरशाही का लक्ष्य प्रशासन को तार्किकता के आधार पर चलाना होता है। मैक्स वैबर ने नौकरशाही तथा लोकतंत्र में नजदीकी संबंध बताया है।
नौकशाही की विशेषताएँ : मैक्स वैबर ने नौकरशाही के अंत:संबंधित विशेषताओं का उल्लेख किया है। इनके द्वारा क्रिया की तार्किकता कायम रहती है।
(i) नौकरशाही एक संगठन के रूप में शासकीय कार्यों को निरंतर करती हैं।
(ii) जो व्यक्ति इन शासकीय कार्यों को करते हैं उनमें विशिष्ट योग्यता होती है। इन व्यक्तियों को अपने शासकीय कार्यों के निष्पादन के लिए सत्ता प्रदान की जाती है।
(iii) सत्ता का वितरण भिन्न-भिन्न स्वरूपों में किया जाता है। अधिकारियों का पदानुक्रम निर्धारित किया जाता है। शीर्ष अधिकारियों के अपने अधीनस्थ की अपेक्षा अधिक नियंत्रण तथा निरीक्षण के कार्य होते हैं।
(iv) सत्ता के प्रयोग हेतु कुछ विशिष्ट योग्यताओं की आवश्यकता होती है। अधिकारों का चुनाव नहीं होता वरन् उन्हें उनकी औपचारिक योग्यताओं के आधार पर नियुक्त किया जाता है। साधारणतया ये नियुक्तियां परीक्षाओं के आधार पर होती हैं।
(v) नौकरशाही में कार्य करने वाले अधिकारियों का उत्पादन तथा प्रशासन के साधनों पर अधिकार नहीं होता है। इसके साथ-साथ अधिकारी सत्ता को अपनी निजी उद्देश्यों के लिये प्रयोग नहीं कर सकते हैं।
(vi) प्रशासनिक कार्यों का लिखित अभिलेख रखा जाता है। यही तथ्य प्रशासनिक प्रक्रिया की प्रकृति की निरंतरता का मुख्य कारण है।
(vii) नौकरशाही प्रशासन में अधिकारियों के अवैयक्तिक रूप से तथा नियमों के अनुसार कार्य करना अपरिहार्य है, जो उनकी योग्यता के विशिष्ट क्षेत्रों से परिभाषित होता है।
(viii) अधिकारियों का सेवाकाल सुरक्षित होता है। उन्हें विधि के अनुसार वेतन तथा वेतन वृद्धि दिए जाते हैं। उन्हें उनकी आयु, अनुभव तथा श्लाध्य कार्यों के आधार पर पदोन्नति प्रदान की जाती है। एक निश्चित सेवाकाल पूर्ण करने के पश्चात् नौकरशाहों को एक निश्चित आयु के पश्चात् पेंशन प्रदान की जाती है। इस प्रकार, अधिकारियों की अपने उच्च अधिकारियों तथा राजनैतिक सत्ताधारियों की सनक व स्वेच्छाचारिता के सुरक्षा प्रदान की जाती है। इस प्रकार नौकरशाह तार्किक रूप से तथा कानून के अनुसार कार्य कर सकते हैं।
इस प्रकार, प्रशासन के एक स्वरूप के रूप में नौकरशाही की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
(i) निरंतरता
(ii) पदानुक्रम अथवा संस्तरण
(iii) स्पष्ट रूप से परिभाषित नियम
(iv) सार्वजनिक कार्यालयों के संसाधनों को निजी व्यक्तियों के नियंत्रण से पृथक् रखना
(v) लिखित दस्तावेजों का प्रयोग
(vi) वेतनभोगी पूर्णकालिक व्यवसायिक विशेषज्ञ जिनका सेवाकाल निश्चित हो।
प्रश्न 12. क्या आप ऐसे विचार अथवा सिद्धांत के बारे में जानते हैं जिसने आधुनिक भारत में किसी सामाजिक आन्दोलन को जन्म दिया है?
उत्तर-वर्तमान समय में भारत में सामाजिक आंदोलन को बढ़ावा देने से आशय यहां भारतीय समाजशास्त्र को विकसित करने की संभावना से है। इस विषय को समाजशास्त्री डॉ.बी.आर. चौहान ने निम्न तथ्य प्रस्तुत किए हैं।
(i) उन समस्याओं का, जो देश के सामने आई हुई हैं अथवा उन मुद्दों को, जिनका समाज को सामना करना है, विश्लेषण प्रस्तुत करना।
(ii) महाकाव्य के ज्ञान तथा लोगों के कथनों की परीक्षणीय अव्यक्तिगत प्राक्कल्पनाओं के रूप में वैज्ञानिक स्तर पर लाना। जिस सीमा तक भारत में समाजशास्त्र इन स्थितियों का अध्ययन कर सकते हैं, उस सीमा तक वे अपने उपाधि तथा स्थान को उचित ठहरा सकते हैं। डॉ. चौहान ने भारतीय समाजशास्त्र के विकास की संभावनाओं के लिए निम्न सुझाव दिए हैं-
(i) भारतीय विश्वविद्यालयों में समाजशास्त्र के पाठ्यक्रमों की विषय-सामग्री में अपने देश की सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्याओं को सम्मिलित करना आवश्यक है। उन्हीं के शब्दों में, “विभिन्न विश्वविद्यालयों के हमारे पाठ्यक्रमों की विषय-सामग्री की यह आश्यर्चजनक विशेषता है कि वे सार्वाधिक महत्व की समस्याएँ, जिनका हमारे देश को सामना करना पड़ रहा है, विषय-सामग्री में हमारे ध्यान से ही छूट गई हैं। हमारे पाठ्यक्रम में उन समस्याओं को सम्मिलित किया गया है जिनका सामना पश्चिमी समाज को करना पड़ता है और साथ ही हमने उन्हीं का साहित्य भी लिया है। ऐसे विषयों से उदाहरणों का भी महत्व कम हो जाता है। उदारहण किसी अमूर्त कल्पना को पाठक के जीवित अनुभव में स्पष्ट करने के लिए दिये जाते है।” अतः स्पष्ट है कि भारतीय समाजशास्त्र के विकास के लिए यह आवश्यक है कि विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों की विषय-सामग्री हमारे समाज की प्रमुख समस्याओं से संबंधित हो।
(ii) डॉ. चौहान ने एक अन्य इस तथ्य पर जोर दिया है कि “यदि हम निर्णायक महत्त्व की प्रमुख समस्याओं का अध्ययन करें तो अधिक अच्छे अवबोधन के लिए यह प्रयास करना चाहिए कि राष्ट्र-समुदाय के उदय के प्रश्नों पर ध्यान दिया जाय, साथ ही पड़ोसी देशों से विदेशी संबंध बनाये रखने तथा उन राष्ट्रों से भी जिनसे विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी से हमें सहायता प्राप्त होती हों अथवा जिन्हें हम ऐसी ही सहायता दे सकते हों, से संबंध बनाये रखने की समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए। शिक्षा प्रणालियों पर अनुसंधान तथा शिक्षण स्तर पर हमें अधिक ध्यान देना होगा। मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि उन समस्याओं को, जिन्हें राष्ट्र द्वारा आयोजन के संदर्भ में हल किया जाता है, अध्ययन किया जाना चाहिए।”
(iii) डॉ. चौहान का मत है कि समाजशास्त्रियों के स्तर पर…. विशिष्ट समस्याओं के तदर्थ अध्ययन तथा आयोजित परिवर्तन के संदर्भ में वैयक्तिक अध्ययन करना संभव है। साथ ही यह भी संभव है कि अन्तः संरचनात्मक समाज के संदर्भ में परिवर्तनों का अध्ययन किया जाए और प्रजातंत्र, समाजवाद तथा परम्परागत समाज के संदर्भ में प्रणाली रचना का अभ्यास करने का प्रयत्न भी किया जाये।
(iv) डॉ. चौहान का मत है कि भारतीय समाजशास्त्रीय विकास की संभावना के अंतर्गत समाशास्त्र विचार पद्धति में आयोजन के प्रश्न को महत्व दिया जाय। डॉ. चौहान ने इस संबंध में लिखा है कि, ” हमारे देश में समजशास्त्रीय विचार-पद्धति का यह एक आश्चर्यजनक लक्षण है कि कोई ऐसा संगठन अथवा सम्मेलन अब तक नहीं हुआ कि जिसमें विशिष्ट रूप से आयोजन
से संबंधित प्रश्नों को उठाया गया हो। यह तथ्य इस लक्षण का परिणाम रहा है कि आयोजन तो किसी न किसी रूप में समाजशास्त्रियों के ध्यान से ही ओझल हो गया है। परिणाम यह हुआ है वैज्ञानिक ढंग से प्रशिक्षित तथा देशी ढंग से स्व-प्रशिक्षित दोनों ही प्रकार के सामाजिक कार्यक्रम इन समस्याओं पर बोले हैं और उन्होंने इतर परार्मश की अनुपस्थिति में अपने सुझावों को स्वीकृत करा लिया है और एक प्रकार से परीक्षण तथा गलती के द्वारा आगे बढ़ने के लिए एक तदार्थ आधार प्रदान कर दिया गया है।” इससे पूर्व कि समाजशास्त्री आयोजित विकास तथा सामाजिक सुधारों पर विचारकों के रूप में अपना दावा स्वीकार कराने में सफल हों, उन्हें इन विषयों पर अनुसंधान स्तर के ग्रंथों का निर्माण करना होगा और इस प्रक्रिया को आरंभ करना होगा जिनके द्वारा ऐसे अध्ययन किये जा सकें।….समाजशास्त्रियों को ऐसे प्रश्नों पर स्वयं के सर्वेक्षण तथा प्रयोजनाओं को शीघ्रता से अथवा सीमित समय में पूरा करना होगा, ताकि प्रशासन, आयोजन तथा अधिकांश लोग उन्हें समझ सकें।
(v) डॉ. चौहान ने भारतीय समाजशास्त्र के विकास की संभावना के संदर्भ में एक अन्य सुझाव दिया है। कि “यदि भारत के कुछ समाजशास्त्री अपनी शक्तियों को विषय की शास्त्रियों सामग्री को समृद्ध करने के विचार से किसी विषय के अनुशीलन में केन्द्रित करें तो उनके प्रयत्नों पर ही ध्यान दिया जाना चाहिए।”
भारत के विषय में प्राचीन साहित्य तथा सामाजिक संरचना के सजीव प्रारूप, लिखित, तथा
मौखिक साहित्य, कला तथा मूल्यों के प्रणालियाँ विद्यमान हैं जिनका न केवल मूल उद्भव प्राचीन है, अपितु उनकी स्वयं की अविच्छिन्ता भी है। इन पर विदेशी कारकों का संघात भी पड़ा है। जो कभी रचनात्मक तो कभी विघटनात्मक रहा है और संस्कृति की पुनर्व्याख्या के प्रश्न के साथ समाज की अविन्छिन्नता भी समस्यापूर्ण रही है। मूल्यों तथा सामाजिक संरचन एवं धर्म की पृष्ठभूमि में एक ओर तो अन्तः संरचनात्मक परिवर्तन तथा दूसरी ओर शिक्षा, प्रौद्योगिकी एवं प्रजातंत्र आदि के प्रश्न हैं जो इस संदर्भ में पहले प्रकट नहीं हुए थे। भारतीय समाज का अपना विशिष्ट स्वरूप ही इस समय कतिपय प्रश्नों के अध्ययन की मांग करता है जिसमें विभिन्न प्रकार के अध्ययन स्रोतों को टटोलना तथा उनसे परिचित होना पड़ता है।” ऐसे पर्यावरण में अध्ययन के उपकरण अधिक विविधतापूर्ण होंगे कुछ प्राचीन भाषाओं तथा बोलियों पर अच्छा अधिकार होगा एवं समाजशास्त्रीय ढंग से संबद्ध जानकारी तथा आधार-सामग्री को प्रचलित विकसित स्रोतों से निकालने के लिए तकनीकी होगी। कई विषयों पर प्रचलित ज्ञान सहायक रूप में उपयोग में लाया जा सकता है तथा अन्य विषयों पर अतिरिक्त तकनीक को विकसित किया जा सकता है जिन्हें क्षेत्रीय परिस्थति का सामना करना होता है, उनके लिए यह सामान्य
ज्ञान है कि अनुसंधान पद्धतियों पर पाठ्य-पुस्तक को अनेक स्थानों पर भूल जाना पड़ता है और अनुसंधान का कार्य करने वाले को परिस्थति से निपटने के लिए स्वयं अपनी तकनीकी विकसित करनी पड़ती है। यदि इन अन्वेषणों को अलेखन करके उन्हें सहिंता का रूप दे दिया जाता है तो विकास के संबंध में घोषणा करना संभव हो जाता है, जो पहले किया जा चुका है।
इस प्रकार डॉ. चौहान का मत है कि यदि नवीन तकनीक तथा प्रचलित तकनीकों के नीवन संयोजन को विकसित किया जाये तो अधिक अध्ययन किये जा सकेंगे तथा निम्नलिखित विषयों पर अधिक खोज हो सकेगी:
(i) भारत में समाज के लिए निर्णायक महत्व के प्रश्न
(ii) अनुसंधान तकनीकें तथा उनके संयोजन,
(iii) वे अवधारणाएँ जो विशिष्ट रूप से भारतीय पर्यावरण का वर्णन करती हों।
(iv) प्राचीन लोक, आधुनिक मूल्य, अर्थव्यवस्था तथा राज्यतंत्र के अंत: संबंधों के पक्ष।

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