bihar board class 11 sociology | पर्यावरण और समाज
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पर्यावरण और समाज
(Environment and Society)
शब्दावली
• पारिस्थितिक व्यवस्था-पारिस्थितिक विज्ञान में जीवित वस्तुओं तथा पर्यावरण के बीच पाए जानेवाले संबंधों का अध्ययन किया जाता है। पारिस्थितिकी का तात्पर्य है पर्यावरण से अनुकूलन करना।
• पारिस्थितिक तंत्र-विश्व में असंख्य परितंत्र अस्तित्व में हैं। पशु, पौधे तथा पर्यावरण को एक ही तंत्र का हिस्सा समझा जाता है, इसे पारिस्थितिक तंत्र कहते हैं।
• पर्यावरण-पर्यावरण का अभिप्राय व्यक्ति भौगोलिक पर्यावरण तथा उन समस्त वस्तुओं से है जो उसके चारों ओर विद्यमान हैं।
• सामाजिक पारिस्थतिकी-जीतिव वस्तुओं तथा पर्यावरण के मध्य स्थित संबंधों का अध्ययन।
• नगरीय पारस्थितिकी-समाजशास्त्र की एक विशिष्ट शाखा जो नगरों के अध्ययन से संबंधित है। इसके अंतर्गत नगरों अनुष्यों तथा पर्यावरण के संबंधों का अध्ययन किया जाता है।
पाठ्यपुस्तक एवं अन्य महत्वपूर्ण परीक्षा उपयोगी प्रश्न एव उत्तर
अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. पारिस्थितिकी से आपका क्या अभिप्राय हैं? अपने शब्दों में वर्णन कीजिए
उत्तर-पारिस्थितिकी समाजशास्त्र के क्षेत्र में समुदायों तथा पर्यावरण के मध्य संबंधों का अध्ययन है। पर्यावरण से अनुकूलन को ही पारिस्थितिकी कहते हैं। इस प्रकार परिस्थितकी अवधारणा के अंतर्गत पृथ्वी पर मानव के संपूर्ण जीवन के ताने-बाने का अध्ययन किया जाता है।
प्रश्न 2. सामाजिक परिस्थिति की से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-सामाजिक पारिस्थितिकी के अंतर्गत किसी क्षेत्र विशेष के भोतिक, जैविक तथा सांस्कृतिक लक्षणों के अंत: संबंधों का अध्ययन किया जाता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि सामाजिक पारिस्थतिकी जीवित वस्तुओं जैसे-व्यक्ति, पेड़-पौधे तथा पशु एवं वातावरण के मध्य संबंधों का अध्ययन है।
सामाजिक पारिस्थितिकी का संबंध ग्रामीण तथा नगरीय समाजों के संदर्भ में उनके पर्यावरण के साथ सामंजस्य से है।
प्रश्न 3. नगरीय परिस्थितिकी का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-समाजशास्त्र की जिस शाखा द्वारा नगरों, व्यक्तियों तथा पर्यावरण के संबंधों का अध्ययन किया जाता है, उसे नगरीय पारिस्थितिकी कहते हैं।
प्रश्न 4. नगरवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किसने किया? नगरवाद के विषय में संक्षेप में बताइए।
उत्तर-प्रसद्धि समाजशास्त्री लुईस बर्थ ने 1938 में अपने निबंध अर्बनिज्म इज ए वे ऑफ लाइफ में नगरवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। नगरवाद के संरचनात्मक तत्वहः (i)दीर्घ आकार, (ii) जनसंख्या का उच्च घनत्व तथा (iii) विजातीयता नगरीय जीवन में द्वितीयक तथा तृतीयक संबंधों की प्रधानता होती है।
प्रश्न 5. पारिस्थितिकी सिर्फ प्राकृतिक शक्तियों तक ही क्यों सीमित नहीं है?
उत्तर-पारिस्थितिकी एक वृहद् व्यवस्था है। इसके अंतर्गत मानवीय समूह, पशुसमूह, पेड़-पौधों तथा पर्यावरण को सम्मिलित किया जाता है। आधुनिक समय में विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी ने वनस्पतियों तथा पर्यावरण के अंत:संबंधों को प्रभावित किया है। अपनी वृहद व्यवस्था के कारण पारिस्थितिकी प्रकृति की शक्ति के रूप में सीमित नहीं है।
प्रश्न 6. पर्यावरण की परिभाषा दीजिए।
उत्तर-पर्यावरण की परिभाषा : पर्यावरण एक गतिशील संकल्पना है, जिसमें सम्प्राण जैव और निष्प्राण (अजैव) वस्तुओं के साथ किसी जीव के संबंध भी शामिल होते हैं। जैव पर्यावरण में पेड़-पौधे, जीव-जंतुं सम्मिलित हैं। अजैव पर्यावरण में भूमि जल, वायु अपने विविध भौतिक तत्वों के साथ शमिल हैं।
पर्यावरण की उपर्युक्त परिभाषा को सरल शब्दों में समझने/समझाने के लिए कहा जा सकता है कि पर्यावरण शब्द से तात्पर्य हमारे इर्द-गिर्द मौजूद सभी तत्वों, प्रक्रियाओं और दशाओं तथा उनके अंत:संबंधों से है। पर्यावरण को हमारे चारों ओर पाई जानेवाली तथा एक-दूसरे को प्रभावित करने वाली सभी सप्राण और निष्प्राण वस्तुओं के कुल योग के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
प्रश्न 7. आजकल प्राकृतिक संसाधन तेजी से क्यों घट रहे हैं?
उत्तर-अतीत में संसाधनों की कमी की कोई समस्या नहीं थी। लेकिन हाल के वर्षों में जनसंख्या विस्फोट के कारण प्राकृतिक संसाधनों के हमारे उपभोग की दर में वृद्धि हुई है तथा वह प्रकृति द्वारा सृजन या पुनर्सजन दर से अधिक हो गई है। मानव शहरीकरण तथा हर क्षेत्र में विकास (उद्योग-धंधों, यातायात) कर रहा है। अतः प्राकृतिक संसाधनों के भंडार बड़ी तेजी से घट रहे
प्रश्न 8. विगत वर्षों में पर्यावरण प्रदूषण के उदाहरण दीजिए।
उत्तर-विगत वर्षों में औद्योगिक प्रगति के साथ पर्यावरण प्रदूषण में वृद्धि हुई है। वायुमंडल में कार्बन डाइ-ऑक्साइड की 25% वृद्धि हो गई है। वायुमंडल में ओजोन की 3% कमी हो गई है, जिसमें पराबैंगनी विकिरण से त्वचा का कैंसर होने का भय है। 1952 में लंदन में घूम कुहरे से दम घुटने से 4000 व्यक्ति मरे। इसी तरह 1984 ई. में भोपाल गैस कांड से भी हजारों
लोग जहरीली गैस से दम घुटने से मरे तथा लाखों आज भी आंखों तथा अन्य बीमारियों से तड़प रहे हैं।
प्रश्न 9. जल प्रदूषण के उदाहरण कीजिए।
उत्तर-प्रदूषित वायु (धुआँ, धूल से युक्त) से होकर जब वर्षा होती है तो उसके साथ ही कई तरह के जहरीले तत्व जलाशयों, नदियों और महासागरों में चले जाते हैं।
प्रश्न 10. “मानव को पर्यावरण का उपयोग बहुत समझदारी से करना चाहिए। अन्यथा बहुत हानिकारक परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-मनुष्य को अपने पर्यावरण का प्रयोग बड़ी समझदारी से करना चाहिए। पर्यावरण हमारे जीवन के लिए अनिवार्य तत्व है। यदि हम सावधानी से पर्यावरण का उपयोग नहीं करेंगे तो उसका सीधा प्रभाव हमारी आजीविका तथा उसके साधनों पर पड़ेगा। जल प्रदूषण से हमें साफ पानी नहीं मिल पाएगा। इस कारण जल की सफाई में हमें पूरा ध्यान देना चाहिए। इस प्रकार हमें अपने चारों ओर के वातावरण को स्वच्छ राखने के लिए प्रयास करने चाहिए। सफाई न होने से पर्यावरण दूषित होता है और हमारे जन-जीवन पर इसका बुरा प्रभाव पड़ सकता है। अत: हमें बड़ी सावधानी तथा समझदारी से अपने पर्यावरण का उपयोग करना चाहिए।
अति लघु उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. सामाजिक परिस्थितिकी से आपका क्या तात्पर्य है?
उत्तर-सामाजिक परिस्थितिकी का अर्थ : सामाजिक पारिस्थितिकी के अंतर्गत किसी क्षेत्र विशेष के भौतिक, जैविक तथा सांस्कृतिक लक्षणों के अंत:संबंधों की विषय-वस्तु का अध्ययन किया जाता है।
प्रसिद्ध समाजशास्त्री ऑम्बर्न तथा निमकॉफ ने सामाजिक पारिस्थितिकी को समुदायों तथा पर्यावरण का संबंध बताया है। क्यूबर के अनुसार, “सामाजिक पारिस्थितिकी एक समुदाय में मनुष्यों एवं मानवीय संस्थाओं के प्रतीकात्मक संबंधों एवं उनसे उत्पन्न क्षेत्रीय प्रतिमानों का अध्ययन है।”
अत: हम कह सकते हैं कि सामाजिक पारिस्थतिकी मानव के सामाजाकि-सांस्कृतिक जीवन अथवा क्षेत्रीय पारिस्थितिकी के विशेष संदर्भ में वैज्ञानिक तथा वस्तुगत अध्ययन करता है।
मानव द्वारा पर्यावरण की दशाओं में सामंजस्य है:
(i) मानव द्वारा भौगोलिक तथा संस्कृतिक दशाओं से अनुकूलन किया जाता है।
(ii) मानव अपनी आवश्यकतानुसार पर्यावरण को नियंत्रित करने का प्रयास करता है।
(iii) मनुष्य विभिन्न प्रकार की पारिस्थितिकीय स्थितियों, जैसे सम व विषम जलवायु, रेगिस्तान अथवा भारी वर्षा वाले क्षेत्र आदि में अपने जीवन को सुविधापूर्वक बनाने का प्रयास करते हैं।
(iv) मानव ने आधुनिक प्रौद्योगिकी की सहायता से प्रकृति को नियत्रित करने का प्रयास किया है।
(v) इस प्रकार सामाजिक पारिस्थितिकी पर्यावरण से सामंजस्य के संदर्भ में ग्रामीण तथा नगरीय समाजों से संबंधित है।
प्रश्न 2. पर्यावरण की गुणवत्ता लोगों को किस प्रकार प्रभावित करती है?
उत्तर-प्राकृतिक एवं मानव-निर्मित पर्यावरण से जुड़ा अन्य महत्वपूर्ण पक्ष पर्यावरण की गुणवत्ता का है। इस मामले में भी प्रकृतिक अपने महत्वपूर्ण घटकों, जैसे वायु, जल आदि को स्वच्छ करने में समर्थ है। इस क्षमता की सहायता से प्राकृतिक वायु, जल आदि की न्यूनतम मौलिक गुणवत्ता को बनाए रख सकती है, जो सभी जीवों के जीवन तथा स्वस्थ विकास के लिए आवश्यक है।
वायु : हमने कई बार अनुभव किया है, जब कारखानों की चिमनियों से निकलने वाले धुएँ और मोटर वाहनों की निकास नलियों से निकलने वाले धुंए से वायु की गुणवत्ता घट जाती है, यानि अगर वायु प्रदूषित हो जाती है तब हमे सांस लेने में परेशानी होने लगती हैं यदि वायु की गुणवत्ता में बहुत अधिक अंतर होता है तो विभिन्न बीमारियाँ फैलने लगती हैं। पेड़-पौधे और
अन्य प्राणी भी वायु की गुणवत्ता में हुए हास से प्रभावित होते हैं।
जल : पानी के मामले में भी यही बात लागू होती है। मनुष्य सहित अन्य सभी प्राणियों को जीवित रहने के लिए पानी में न्यूनतम मालिक गुणवत्ता होनी चाहिए। हम सभी यह सुनते हैं कि खराब (प्रदूषित) पानी पीने के कारण लोगों को उलटी दस्त और पीलिया जैसी बीमारियों हो जाती है। पानी की गुणवत्ता में हास के कारण अन्य प्राणियों का जीवन और वृद्धि भी दुष्प्रभावित होती है।
ध्वनि : मानव स्वभाव से शांतिप्रिय है। जोर-जोर की ध्वनि या शोर कानों को अच्छा नहीं लगता। हमारे मन की शांति भंग करता है। वृद्धा तथा बीमारों के आराम में बाधा डालता है।
प्रश्न 3. पर्यावरण का संरक्षण क्यों आवश्यक है?
उत्तर-पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता :
(i) हम अपने जीवित रहने और विकास के लिए सभी संसाधन अपने आस-पास के पर्यावरण, विशेष रूप से प्राकृतिक पर्यावरण से ही प्राप्त करते हैं। स्वच्छ जल, शुद्ध वायु और पौष्टिक भोजन हमारी मूलभूत आवश्यकताएँ हैं। इसके बिना हम जीवित नहीं रह सकते तथा स्वस्थ एवं प्रसन्न जीवनयापन तो कर ही नहीं सकते।
(ii) जनसंख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि के साथ जीवित रहने और विकास के लिए आवश्यक प्रकृतिक संसाधनों की मांग में भारी वृद्धि हो रही है। लेकिन सच्चाई यह है कि प्राकृतिक संसाधनों के भंडार असीमित या अक्षय नहीं हैं। यदि हम प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग अविवेकपूर्ण ढंग से और इतनी तेज गति से करते जाएंगे तो हमारी भावी पीढ़ियों के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं बचेंगे। अत: हमें न तो पीने के लिए पानी मिलेगा, न खाने के लिए भोजन और न ही प्रतिदिन काम आने वाली वस्तुएँ मिलेंगी। इस प्रकार हमारा जीवित रहना असंभव हो जाएगा और हम मानवों के साथ अन्य प्राणियों का अस्तित्व भी पृथ्वी के धरातल से मिट जाएगा।
(iii) पर्यावरण के संरक्षा के लिए दूसरा भी कारण है और वह है उत्तम कोटि के प्राकृतिक संसाधनों की हमारी आवश्यकता। जैसे कि हम जानते हैं, हमें जीवित रहने और विकास के लिए वायु, जल, मृदा आदि प्राकृतिक संसाधनों की एक न्यूनतम मौलिक गुणवत्ता की आवश्यकता होती है।
(iv) घटते हुए पर्यावरण (वनों की कटाई, कृषि योग्य भूमि की कमी आदि) के कारण मृदा के अपरदन और मृदा की ऊपरी परत के बहने पर नियत्रण नहीं हो पा रहा है और भूजल का पुनर्भरन दिन-प्रतिदिन कम होता जा रहा है। वर्षा के जल के साथ मिट्टी के कट-कटकर बहते जाने से हमारी प्रमुख नदियों में गाद जमा होने की समस्या निरंतर गंभीर होती जा रही है। इन सबका परिमणाम है कि अभूतपूर्व पैमानों पर बाढ़ें आ रही हैं। सिंचाई और घरेलू उपयोग के लिए जल की उपलब्धता घटती जा रही है और मृदा हास होने से कृषि की उत्पादकता में कमी आ रही है।
प्रश्न 4. पर्यावरण से क्या तात्पर्य है?
उत्तर-पर्यावरण का तात्पर्य : पर्यावरण का तात्पर्य प्राणी के अतिरिक्त जो कुछ भी उसके चारों ओर है, वह उसका पर्यावरण है।
रॉस के अनुसार, “कोई भी बाह्य शक्ति जो हमें प्रभावित करती है, पर्यावरण होती है।” मेकाइवर के अनुसार, “संपूर्ण पर्यावरण से हमारा तात्पर्य उस सब कुछ से है जिसका अनुभव सामाजिक मनुष्य करता है, जिसका निमार्ण करने में व्यक्ति सक्रिय रहता है तथा उससे स्वयं भी प्रभावित होता है।”
पर्यावरण एक जटिल प्रघटना है। वास्तव में वे सब परिस्थितियाँ जो मनुष्य को पत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती हैं, पर्यावरण कही जाती हैं। मेकाइवर ने कहा कि “यह (पर्यावरण) प्राणी के पूर्णरूपेण अपृथकनीय है, जिस प्रकार (पर्यावरणरूपी) तना, जिसमें प्राणीरूपी बाना डाल दिया गया हो, समाज के सजीव वस्त्र बनता है।”
पर्यावरण के स्वरूप :
(i) अनुकूल पर्यावरण : पर्यावरण का वही स्वरूप प्राणी के विकास में सहायता पहुँचाता है। इससे प्राणी का विकास होता है।
(ii) प्रतिकूल पर्यावरण : पर्यावरण का यह स्वरूप प्राणी के विकास में बाधक होता है लेकिन पर्यावरण का एक स्वरूप किसी प्राणी के लिए लाभदायक तथा किसी दूसरे प्राणी के लिए हानिकारक भी हो सकता है।
पर्यावरण का वर्गीकरण : विभिन्न विद्वानों ने पर्यावरण के विभिन्न वर्गीकरण को निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है:-
प्रश्न 5. वायु प्रदूषण की हानियों का वर्णन करो।
उत्तर-जीवाश्म ईधनों के जलने के कारण वायु का प्रदूषण होता है। इसके अतिरिक्त कारखानों की गैसों से भी वायु का प्रदूषण होता रहता है। इसकी मुख्य हानियाँ निम्नलिखित हैं-
(i) वायुमंडल में कार्बन डाई ऑक्साइड गैस की वृद्धि हो रही है। इस वृद्धि के कारण तापमान बढ़ रहा है। यदि तापमान इसी गति से बढ़ता रहा तो एक समय ऐसा आएगा जब ध्रुवों पर बर्फ की चादर पिघल जाएगी और समुद्र के पानी की सतह एक मीटर ऊपर हो जाएगी। फलस्वरूप समुद्र के तटीय प्रदेश पानी में डूब जाएँगे।
(ii) वायुमंडल में तरह-तरह की गैसों तथा कारखानों का कचरा सम्मिलित हो रहा है। कई बार इससे हजारों की संख्या में लोगों की मृत्यु हुई है। 1952 में लंदन में धूलकुहरे के कारण 4000 लोगों की मृत्यु हुई। भोपाल गैस कांड भी इसी प्रकार के प्रदूषण का ही परिणाम था।
(iii) ओजोन परत में 3% से 4% की कमी हुई है। यही वह परत है जो सूर्य की पराबैंगनी किरणों को धरती पर आने से रोकती है। पराबैंगनी किरणें कैंसर का कारण हैं।
प्रश्न 6. उस दोहरी प्रक्रिया का वर्णन करें जिसके कारण सामाजिक पर्यावरण का उद्भव होता है।
उत्तर-जनसंख्या संरचना : जनसंख्या संरचना सामाजिक पर्यावरण के अभ्युदय में प्रक्रिया के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है। जनसंख्या का घनत्व, जनसंख्या का क्षेत्रीय वितरण, जनसंख्या के घनत्व को प्रभावित करने वाले कारक, जनसंख्या का विकास, जनसंख्या नियोजन आदि से सामाजिक पर्यावरण का निर्माण होता है।
निवास स्थल का स्वरूप : सामाजिक पर्यावरण के अभ्युदय में निवास स्थल की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। जीवन में व्यक्ति अपना समय अपने निवास स्थल में ही व्यतीत करता है। अत: निवास स्थल और उसके निकट के पर्यावरण स्वच्छ होना चाहिए।
प्रश्न 7. सामाजिक संस्थाएँ कैसे तथा किस प्रकार से पर्यावरण तथा समाज आपसी रिश्तों को आकार देती हैं?
उत्तर-सामाजिक संगठन का संबंध समाज के विभिन्न पहलुओं; जैसे समूहों, समुदाया ताथा सामूहिकता की अंत:निर्भरता से है। पर्यावरण और समाज में भी यही समूह, समुदाय तथा सामूहिकता की अंत:निर्भरता अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। समाज का निर्माण भी इन्हीं से होता है। यदि समाज में समूह, समुदाय व एक दूसरे के प्रति निर्भरता न हो तो समाज का अर्थ ही समाप्त हो जाए। यदि कल-कारखानों के लिए समाज से मानवीय संसाधन प्राप्त न हों तो उत्पादन कार्य ठप्प हो जाए और समाज का औद्योगिक पर्यावरण निर्मित न हो। इस उदाहरण से स्पष्ट कि सामाजिक संगठन ही पर्यावरण और समाज के बीच संबंधों का रूप लेता है।
प्रश्न 8. संसाधनों की क्षीणता से संबंधित पर्यावरण के प्रमुख मुद्दे कौन-कौन से हैं?
उत्तर-प्रयुक्त किए जाने वाले अनवीनीकृत प्राकृतिक संसाधन एवं गंभीर पर्यावरण समस्या है। जैसे प्राकृतिक गैस, कोयला, पेट्रोलियम पदार्थ इनका एक बार दोहन हो जाने के पश्चात् ये पुनरुत्पादित नहीं होते। इसी प्रकार मृदा क्षरण तथा जल क्षरण भी गंभीर पर्यावरणीय समस्या है। संपूर्ण भारत में भूमिगत जल का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश में इसकी स्थिति गंभीर है। ऐसी ही स्थिति रही तो कृषि और जरूरी कार्यों के लिए पानी का मिलना कठिन हो जाएगा।
इसी प्रकार वन, घास भूमियाँ आदि संसाधन क्षरण के शिकार हो रहे हैं। वन भूमि को कृषि भूमि के रूप में बदला जा रहा है। इस प्रकार स्पष्ट है कि पर्यावरण से जुड़ी सभी समस्याएँ संसाधनों के क्षरण से उत्पन्न हुई हैं।
प्रश्न 9. पर्यावरण व्यवस्था के लिए एक महत्वपूर्ण तथा जटिल कार्य क्यों है?
उत्तर-पर्यावरण प्रबंधन वह विज्ञान है, जो पर्यावरण के प्रभावशाली, उचित एवं कुशल प्रबंधन का व्यापार करता है। यदि मानव समाज को अंतिम तबाही से बचाना है तो इस विज्ञान को सर्वाधिक महत्व दिया जाना चाहिए।
पर्यावरण प्रबंधन का अर्थ है कि अच्छी तरह से विचार किया गया या हमारे प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण प्रयोग हो। इस विज्ञान का अभिप्राय यह नहीं कि आर्थिक वृद्धि को रोका या कम किया जाए या मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग ही न करे, बल्कि यह अनुभव कराता है कि विकास तथा आवश्यकताओं में एक संतुलन बनाया जाए, जो कि हमें स्थायी वृद्धि की ओर ले जाए एवं किसी भी तरह से पर्यावरण को हानि न पहुँचाए।
एक एकीकृत विचार से पर्यावरण प्रबंधन भविष्य को एक महत्वपूर्ण उद्देश्य की तरह से सुनियोजित करता है। पर्यावरणविद् किसी विशिष्ट क्षेत्र में रहने वाले मनुष्यों की आवश्यकताओं का अध्ययन है और प्राकृतिक संसाधनों के लिए उनकी आवश्यकताओं को तार्किक बनाने का प्रयत्न करते हैं। सर्वाधिक महत्व क्षेत्रीय पर्यावरण संरक्षण को दिया जाता है।
संसाधनों की प्रभावशाली योजना एवं उचित प्रबंधन दुरुपयोग को रोक सकता है। नष्ट हुए प्राकृतिक संसाधनों का पुन: उत्पादन बहुत कठिन है। पर्यावरण प्रबंधन समाज के लिए एक जटिल एवं बड़ा कार्य है। इसके लिए समाज में जागरुकता की कमी है। जैसे हम जानते हैं कि पीने योग्य पानी बहुत उपयोगी वस्तु है फिर भी इसका कारों को धोने में, फर्श धोने में, पशुओं को नहलाने में या पौधों को सींचने में प्रयोग किया जाता है। जनजागृति का अभियान बड़े स्तर पर पानी के गलत प्रयोग को रोकने के लिए किया जा रहा है, पर उसका असर कम ही दिखाई देता है। स्पष्ट है कि पर्यावरण प्रबंधन समाज के लिए एक जटिल व वृहद कार्य है।
प्रश्न 10. पर्यावरण की समस्याएँ सामाजिक समस्याएँ भी हैं। कैसे? स्पष्ट कीजिए?
उत्तर-पर्यावरण समस्याएँ ही सामाजिक समस्याओं की जन्मदाता हैं। पर्यावरणीय समस्याएं समाज में पाए जाने वाले विभिन्न समूहों की सामाजिक असमानता को भी प्रभावित करती हैं। सामाजिक स्थिति और शक्ति भी पर्यावरणीय समस्या को हल करने और अन्य के लिए समस्या बन जाने के कारण भी बनती है। इसका एक उदाहरण देखें कच्छ (गुजरात) में जहाँ पानी की स्थिति दयनीय है, कुछ धनी किसानों ने बहुत साधन व्यय करके गहरे बोरिंग कर लिए और अच्छी नकदी फसलों को प्राप्त की। दूसरी ओर वर्षा नहीं हुई, गाँवों के कुएँ सूख गए, सूखा पड़ गया, लोगों को पीने के लिए भी पानी नसीव न हुआ। एक ओर हरे-भरे खेत वाले धनी किसान थे, दूसरी ओर अत्यंत दयनीय दशा में प्रकृति पर निर्भर किसान। यहाँ सामाजिक असमानता की समस्या और अधिक बढ़ गई। इसका कारण रहा पर्यावरणीय दृष्टि से जल प्रबंधन का न
होना। स्पष्ट है कि पर्यावरणीय समस्याएँ सामाजिक समस्याओं को सहभागिता होती हैं।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
प्रश्न 1. पर्यावरण किसे कहते हैं? पर्यावरण प्रदूषण की परिभाषा लिखिए।
उत्तर-वायुमंडल, स्थलमंडल और जलमंडल मिलकर पर्यावरण की रचना करते हैं। पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व में इन तीनों परिमंडलों की एक विशेष एवं महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। स्थलमंडल, जलमंडल और वायुमंडल के बीच में स्थित पेड़-पौधों तथा मनुष्य के लिए विशेष महत्वपूर्ण है, इसको जैवमंडल कहा जाता है। जीवन पूर्णरूपेण इसी पट्टी में विद्यमान है। पर्यावरण के तीन प्रमुख तत्वों भूमि, जल और वायु में पदार्थों के स्थानांतरण के कारण जैवमंडल में विभिन्न
प्रकार के जीव-जंतु तथा पेड़-पौधे पाए जाते हैं। पेड़-पौधे तथा जीव-जंतु अपने पोषण के लिए स्थलमंडल से पोषक तत्व प्राप्त करते हैं। वायुमंडल द्वारा इनको ऑक्सीजन, कॉर्बन डाइऑक्साइड तथा सौर ऊर्जा प्राप्त होती है, जो इनको बढ़ने, फलने-फूलने के लिए अत्यावश्यक है। जीव-जंतुओं और वनस्पति के सड़ने-गलने पर इनमें विघटन होता है। यह विघटन सूक्ष्म जीवाणुओं जैसे वैक्टीरिया द्वारा होता है। इस प्रकार मृदा के पोषक तत्व फिर मिल जाते हैं। मृदा स्थलमंडल का बहुत ही महत्वपूर्ण तत्व है। प्रवाहित जल द्वारा कुछ पोषक तत्व घोल लिए
जाते हैं और वह इनको घोल के रूप में जलाशयों में पहुँचा देता है।
ये तीनों परिमंडल मिलकर ही हर समय मिलकर कार्य करते रहते हैं। सौर ऊर्जा के कारण जलमंडल में वाष्पीकरण होता है। वाष्प वायुमंडल में पहुंच कर संघनन प्रक्रिया को जन्म देती है। इससे वायुमंडल आर्द्रता बढ़ जाती है। वायुमंडल की आर्द्रता वर्षण के रूप में स्थलमंडल पर पहुंच जाती है और जल परिसंचरण का चक्र पूरा हो जाता है। जैवमंडल के जीव (पेड़-पौधे तथा जीव-जंतु) जल परिसंचरण प्रक्रिया द्वारा जल प्राप्त करते हैं। जल ही जीवन है। इसी कारण जैवमंडल में जीवों का अस्तित्व बना रहता है। इस प्रकार हमारा पर्यावरण समग्र रूप में कार्य करता है। इस समग्रता को हमें संपूर्णता में देखना चाहिए। एक तत्व की अनुपस्थिति में दूसरे तत्व का कोई महत्व या अस्तित्व नहीं होता।
पर्यावरण प्रदूषण : पर्यावरण प्रदूषण वर्तमान में मानव जाति की प्रमुख समस्याओं में से एक है। मानव के सामने पर्यावरण प्रदूषण की समया पहले से कहीं अधिक दिन-प्रतिदिन गंभीर होती जा रही है। पर्यावरण प्रदूषण की समस्या का मूल कारण मानव द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण का अनुचित ढंग से उपभोग करना है। बिना सोचे-समझे संसाधनों का शोषण करना तथा पारिस्थितिक संतुलन को बिगाड़ना-पर्यावरण के प्रदूषण के आधारभूत कारण हैं। इस दृष्टि से पर्यावरण प्रदूषण का कारण विज्ञान तथा तकनिकी (प्राविधिक) ज्ञान का विकास नहीं है, वरन् मानव द्वारा प्राकृतिक संसाधनों एवं पर्यावरण का अनुचित शोषण है अर्थात् पर्यावरण प्रदूषण का प्रधान दोष एवं उत्तरदायी मनुष्य स्वयं है। आदिकाल से ही मानव प्रकृतिक पर्यावरण से संघर्ष करता चला आ रहा है। मानव ने अपने प्रयासों से प्राकृतिक पर्यावरण में किसी भी सीमा तक अपनी कुछ आवश्यकताओं के सामधान हेतु संशोधन या परिवर्तन भी किया है। मानव अपनी विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वनों को काटता है।, फसलोत्पादन हेतु कृषिअयोग्य भूमि को भी कृषि-योग्य बनता है। मानव औद्योगिक उत्पादन हेतु विभिन्न प्रकार के खनिज पदार्थों का शोषण तथा उपयोग करता है। शांति तथा अशांति के कार्यों हेतु वह अणु
शक्ति का विस्फोट करता है तथा जल प्राप्ति के लिए जलाशयों तथा बाँधों का निर्माण करता है।
पर्यावरण प्रदूषण के कारण समस्त मानव जाति त्रस्त है। औद्योगिक एवं विकासशील राष्ट्र विशेष रूप से पीड़ित हैं। इस समस्या के समाधान हेतु आज भी सभी राष्ट्रों की सरकारें एवं विद्वान पर्यावरण प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए प्रयत्नशील हैं। यदि समय रहते हुए पर्यावरण प्रदूषण के प्रसार पर नियंत्रण एवं सफलता नहीं पायी, तो यह समस्या मानव जाति का जीवित रहना दूभर कर देंगी। 2 दिसम्बर, 1984 को भारत में भोपाल गैस दुर्घटना के दुष्परिणामों से कौन
सजग व्यक्ति अवगत नही है। द्वितीय महायुद्ध के अंतिम चरणों में अमेरिका द्वारा जापान के नागासाकी तथा हिरोशिमा नगरों पर अणुबमों के प्रयोग के कुपरिणामों को वहाँ के जापानी लोग आज भी भोग रहे हैं।
परिभाषा : पर्यावरण प्रदूषण को परिभाषित करने का प्रयत्न अनेक विद्वानों ने किया है। रॉथम हैरी ने अपनी पुस्तक AstudyofPollution inIndustrialSocieties में पर्यावरण प्रदूषण के विषय में लिखते हुए उल्लेख किया है-“पर्यावरण प्रदूषण, जो मानवीय समस्याओं को प्रगति के ताने-बाने तक पहुंचाता है, स्वयंसेवी सामान्य संकट का प्रमुख अंग है। यदि सभ्यता को लौटाकर बर्बर सभ्यता तक नहीं लाना है तो उस पर विजय प्राप्त करना अत्यावश्यक है।”
दूसरे शब्दों में, कहा जा सकता है, कि पर्यावरण प्रदूषण की समस्या वस्तुत: विज्ञान की देन है, बड़े उद्योगों की समृद्धि का बोनस है, मानव को मृत्यु के मुँह में धकेलने के अनचाही चेष्टा है, बीमारियों को बिना माँगे शरीर में प्रवेश की सुविधा है, प्राणिमात्र के अमंगल की अप्रत्यक्ष कामना है, प्रदूषण प्रोद्योगिकी की प्रगति का नहीं, अपितु उसके दुर्गति का कारण है। नि:संदेह पर्यावरण प्रदूषण एक गंभीर समस्या है। आज हम सभी वायु, जल, मिट्टी, विभिन्न प्रकार के
खाद्य पदार्थों इत्यादि में शुद्धता को अभाव पाते हैं। मानवीय जीव प्रदूषण से दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक प्रभावित होता जा रहा है। जनसंख्या वृद्धि के कारण परिवहन के साधनों पर अत्यधिक दबाव, अंधाधुंध नगरीकरण, औद्योगीकरण, यंत्रीकरण कृषि, अत्यधिक वृक्ष कटाव इत्यादि के कारण वातावारण में प्रदूषण व्याप्त होता जा रहा है। आज पर्यावरण प्रदूषण की समस्या एक-दो या कुछ राष्ट्रों तक ही सीमित नहीं रह गई है, वरन् यह विश्वव्यापी समस्या बन गई है।
प्रश्न 2. सामाजिक पारिस्थितिकी के विभिन्न पहलुओं का वर्णन कीजिए।
अथवा, सामाजिक पारिस्थितिकी के चार पहलुओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-ऑग्बर्न तथा निमकॉफ के अनुसार, सामाजिक पारिस्थितिकी समुदायों तथा पर्यावरण के संबंधों का अध्ययन है। इसके अंतर्गत व्यक्ति अपना अनुकूलन एक ओर तो भौगोलिक तथा सांस्कृतिक पर्यावरण के अनुसार करता है तथा दूसरी ओर वह अपनी जरूरतों के अनुसार पर्यावरण को नियंत्रित करने का प्रयास करता रहता है। सामाजिक पारिस्थितिकी के अंतर्गत ग्रामीण तथा नगरीय समाज पर्यावरण के साथ सामंजस्य करते हुए लगातार विकास की दिशा में अग्रसर हो रहे हैं।
सामाजिक पारिस्थितिकी के चार पहलू निम्नलिखित हैं:
(i) जनसंख्या, (ii) पर्यावरण, (iii) प्रौद्योगिकी तथा (iv) सामाजिक संगठन
(i) जनसंख्या : जनसंख्या तथा पर्यावरण के बीच पारस्पिरिक संबंधा पाया जाता है। जनसंख्या के बढ़ने अथवा घटने से इन संबंधों पर प्रभाव पड़ता है।
(ii) पर्यावरण : पर्यावरण तथा पर्यावरण की दशाओं का जनसंख्या पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। इससे जनंसख्या का स्वरूप प्रभावित होता है। जिन क्षेत्रों में मानव जीवन की अनुकूल दशाएँ होती हैं वहाँ जनसंख्या का घनत्व भी अधिक पाया जाता है। ब्रन्हस के अनुसार, “साइबेरिया के टुंड्रा, सहारा के हमादा अथवा आमेजन के जंगलों में मनुष्य लगभग शून्य हैं।” पर्यावरण के अनेक पक्ष; जैसे- भौगोलिक पर्यावरण, सांस्कृतिक पर्यावरण तथा सामाजिक पर्यावरण आदि
भी जनसंख्या पर प्रभाव डालते हैं। ब्लैश के अनुसार, “खाद्यान्न पूर्ति मनुष्य तथा उसके पर्यावरण के बीच निकटतम कड़ी है।” इस संबंध में हटिंग्टन ने उचित ही कहा है कि “प्रत्येक कारक के प्रति मानव प्रतिक्रिया धस स्थिति के अनुसार बदलती रहती है जो सभ्यता द्वारा प्राप्त की जाती है।” हंटिग्टन ने जलवायु संबंधी पर्यावरणीय दशाओं के विषय में लिखा है कि “स्वास्थ्य
तथा शक्ति को नियंत्रित करने में वायु में नमी की मात्रा महत्वपूर्ण कारकों में से एक है।” रॉस ने कहा है कि ” इसलिए यह मध्यस्थ जलवायु में होता है कि ऐसे लक्षण पनपते हैं, जैसे-शक्ति, आकांक्षा, आत्मविश्वास, परिणाम तथा मितव्ययता।”
(iii) प्रौद्योगिकी : प्रौद्योगिकी का विकास मनुष्य के विकास का संकेत है। प्रौद्योगिकी रूपी माध्यम के द्वारा ही पर्यावरण से अनुकूलन सुगमतापूर्वक किया जा सकता है। प्रौद्योगिकी द्वारा सामाजिक संगठन के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित किया जाता है। आग्बर्न के अनुसार, ‘प्रौद्योगिकी समाज को हमारे पर्यावरण के परिवर्तन द्वारा जिसके प्रति हमें अनुकूलित होना पड़ता
है, परिवर्तित होती है। यह परिवर्तन प्रायः भौतिक पर्यावरण में आता है तथा हम इन परिवर्तनों के साथ जो अनुकूलन करते हैं उसमें प्रथाओं तथा सामाजिक प्रथाओं में परिवर्तन होता है।” प्रौद्योगिकी ने हमारे परिवारिक, आर्थिक, सामाजिक तथा राजनतिक पर्यावरण को निश्चत रूप से न केवल प्रभावित किया है वरन् नए आयाम भी प्रस्तुत किए हैं।
(iv) सामाजिक संगठन : विश्व में अनेक प्रकार के समाज पाए जाते हैं:
(a) शिकार व भोजन एकत्रित करने वाला जनजाति समाज : हमारे देश में अनेक आदिवासी समाज शिकार तथा भोजन एकत्रित करते हैं। इनमें आन्ध्र प्रदेश कचेंचु, छत्तीसगढ़ के कोडकु, केरल के कादर, लघु अंडमान के ओंगे तथा झारखंड के बिरहोर आदि प्रमुख हैं। ऐसे जनजाति समाजों में प्रायः पुरुष शिकार करते हैं तथा शत्रुओं से युद्ध करते हैं जबकि स्त्रियाँ
पारिवारिक कार्य करती है।
(b) चरवाहा समाज : चरवाहा समुदाय के लोगों का मुख्य व्यवसाय पशुपालन होता है। खानाबदोश तथा अर्ध-खानाबदोश जीवन उनकी प्रमुख विशेषता होती है। सिक्किम प्रदेश की भोटिया जनजाति चरवाहा समुदाय का उपयुक्त उदाहरण है।
(c) कृषि ( कृषक ) समाज : कृषि समाजों का प्रमुख व्यवसाय कृषि होता है तथा ये स्थायी रूप से गाँवों में रहते हैं। इस समाज के लोगों ने प्रौद्योगिकी विकास की ओर ध्यान दिया हैं। इनके द्वारा शिल्पकला तथा कुटीर उद्योगों की ओर विशेष ध्यान दिया जा रहा है।
(d) नगरीय औद्योगिक समाज : अब कृषि-प्रधान समाज नगरीय औद्योगिक समाजों में परिवर्तित होते जा रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों से जनसंख्या का नगरीय क्षेत्रों में पलायान हो रहा है। इससे नगरों में सामाजिक तथा आर्थिक संगठन में भी तेजी से परिवर्तन आ रहे हैं। उद्योगों का तेजी से विकास हो रहा है। तीव्र औद्योगीकरण तथा जनसंख्या के बढ़ते हुए दबाब के कारण अनेक पर्यावरण संबंधी समस्याएँ भी उत्पन्न हो रही हैं।
प्रश्न 3. प्रदूषण संबंधित प्राकृतिक विपदाओं के मुख्य रूप कौन-कौन से हैं?
उत्तर-प्रदूषण की समस्या का जन्म जनसंख्या की वृद्धि के साथ-साथ हुआ है। विकासशील देशों में औद्योगिक एवं रासायनिक कचरे ने जल ही नहीं, वायु और पृथ्वी को भी प्रदूषित किया है। पर्यावरणीय बाधाओं के रूप में प्रदूषण के प्रमुख प्रकारों को हम निम्न प्रकार विवेचित का सकते हैं-
(i) वायु प्रदूषण : वायुमंडल में विभिन्न प्रकार की गैसें विशेष अनुपात में उपस्थित रहती हैं। जीवधारी अपनी क्रियाओं द्वारा वायुमंडल में ऑक्सीजन और कार्बन डाइ ऑक्साइड का संतुलन बनाए रखते हैं किंतु कल-कारखानों से निकलने वाला धुआँ, मोटर-कारों, घर में जलाने वाले ईंधन आदि से वायु प्रदूषण फैल रहा है। यह पर्यावरण की सबसे प्रमुख बाधा है।
(ii) जल प्रदूषण : सभी जीवधारियों के लिए जल महत्वपूर्ण और आवश्यक है। जल में अनेक प्रकार के खजिन तत्व, कार्बनिक और अकार्बनिक पदार्थ तथा गैसें घुली रहती हैं। यदि जल में ये पदार्थ आवश्यकता से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाते हैं तो जल अशुद्ध होकर हानिकारक हो जाता है और वह प्रदूषित जल कहलाता है।
देश के नगरों में पेयजल किसी निकटवर्ती नदी से लिया जाता है और प्रायः इसी नदी में शहर के मल-मूत्र और कचरे तथा कारखानों से निकलने वाले अवशिष्ट पदार्थों को प्रवाहित कर दिया जाता है, परिणामस्वरूप हमारे देश में अधिकांश नदियों का जल प्रदूषित होता जा रहा है। यह भी एक पर्यावरणीय बाधा है।
(iii) ध्वनि प्रदूषण : अनेक प्रकार के वाहन, जैसे-मोटर कार, बस, जेट विमान, टैक्टर आदि तथा लाउडस्पीकर, बाजे एवं कारखानों के सायरन व विभिन्न प्रकार की मशीन आदि से ध्वनि प्रदूषण उत्पन्न होता है। अधिक तेज ध्वनि से मानव की श्रवण शक्ति का ह्रास होता है। उसे भलीभाँति नींद नहीं आती है मानव का स्नायुरांत्र भी इससे प्रभावित हो जाता है।
(iv) रेडियोधर्मी प्रदूषण : परमाणु शक्ति उत्पादन केंद्रों और परमाणु परीक्षण के फस्वरूप जल, वायु तथा पृथ्वी का प्रदूषण निरंतर बढ़ता जा रहा है। वह प्रदूषण आज की पीढ़ी के लिए ही नहीं वरन् आने वाली पीढ़ियों के लिए भी हानिकारक सिद्ध होगा। विस्फोट के समय उत्पन्न रेडियोधर्मी पदार्थ वायुमंडल को बाह्य परतों में प्रवेश कर जाते हैं।, जहाँ पर वे ठंढे होकर संघनित अवस्था में बूंदों का रूप ले लेते हैं और बाद में ठोस अवस्था में बहुत छोटे-छोटे धूल के कणों के रूप में वायु में फैलते रहते हैं और वायु के चलने के साथ संपूर्ण विश्व में फैल जाते हैं।
(v) रासायनिक प्रदूषण : प्राय: किसान अधिक उत्पादन के लिए कीटनाशनक, शाकनाशक और रोगनाशक दवाइयों तथा रसायनों का प्रयोग करते हैं। इनका स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। आधुनिक पेस्टीसाइडों का अंधाधुंध प्रयोग भी लाभ के स्थान पर हानि ही पहुंचा रहा है। जब से रसायन वर्षा के जल के साथ बहकर नदियों द्वारा सागर में पहुँच जाते हैं तो ये समुद्री जीव-जंतुओं तथा वनस्पति पर घातक प्रभाव डालते हैं। इतना ही नहीं, किसी-न-किसी रूप में मानव शरीर भी इनसे प्रभावित होता है।
प्रश्न 4. पर्यावरण प्रदूषण के प्रमुख कारणों पर प्रकाश डालते हुए पर्यावरण प्रदूषण के प्रभाव लिखिए।
उत्तर-पर्यावरण प्रदूषण के अधोलिखित कारण हैं:-
(i) पर्यावरण प्रदूषण का स्वयं उत्पन्न होना। ऐसे कारण या कारक होते हैं जिन पर मानव का अपना कोई नियंत्रण नहीं होता है। यदि मानव का इन पर कोई नियंत्रण होता भी है तो वह बहुत कम।
(ii) मानव-जन्य बहि:स्राव जैसे मूल-मूत्र इत्यादि से पर्यावरण में प्रदूषण उत्पन्न करते हैं।
(iii) कृषि कार्यों अथवा पशुओं के मूल-मूत्र इत्यादि से पर्यावरण में प्रदूषण की उत्पत्ति होती है।
(iv) औद्योगिक इकाइयों से प्रवाहित किया जाने वाला दूषित तरल पदार्थ, नदियों में छोड़ा जाने वाला अपशिष्ट पदार्थ एवं वायुमंडल में विभिन्न प्रकार की गैसों के निष्कासन से पर्यावरण में प्रदूषण उत्पन्न होता है।
(v) नगरों में गदी बस्तियों के कारण पर्यावरण दूषित होता है। इनके कारण पारिस्थितिक पर्यावरण में असंतुलन तथा मानव पर्यावरण में निम्न जीवन-स्तर उत्पन्न होता है।
(vi) रासायनिक अपशिष्टों तथा अणुशक्ति संयंत्रों से निकले कचरे से नदियाँ एवं झीलें प्रदूषित होती हैं। वायुमंडल में विभिन्न प्रकार की गैसों के फेंके जाने से वायुमंडल प्रदूषित होता रहता है। इस प्रकार का पर्यावरण प्रदूषण औद्योगिक प्रदेशों एवं विकसित राष्ट्रों में अधिक पाया जाता है।
(vii) अणुबमों के समय-समय पर जो परीक्षण किए जाते हैं, उनसे वायुंडल प्रदूषित होता है।
(viii) परिवहन के विभिन्न साधनों के द्वारा पर्यावरण प्रदूषित होता रहा है। यह समस्या विशेषकर नगरों एवं महानगरों में अधिक अनुभव की जाती है।
(ix) कृषि के अंतर्गत कीटनाशक औषधियों के प्रयोग के कारण भी पर्यावरण अत्यधिक प्रदूषित होता है।
(x) बिना सोचे-समझे अंधाधुंध वनों के काटने से पर्यावरण प्रदूषण की समस्या और भी अधिक गंभीर होती जा रही है।
पर्यावरण प्रदूषण के प्रभाव : प्रदूषण एक गंभीर समस्या बन गई है। इसके समाधान हेतु लगभग सभी राष्ट्र इस समस्या के समाधान एवं नियंत्रण हेतु अपनी आय का काफी बड़ा भाग खर्च कर रहे हैं। वास्तव में प्रदूषण के कारण न केवल मानव ही कुप्रभावित होता है, वरन् संसार के अन्य भौतिक तत्व जैसे-जलवायु, वनस्पति, अन्य जीव-जंतु, पदार्थ, भवन इत्यदि भी
विपरीत अर्थात् प्रतिकूल रूप से प्रभावित होते हैं।
प्रदूषण का दूषित प्रभाव अधोलिखित रूप से आंका जा सकता है :-
(i) स्वास्थ्य पर प्रभाव : प्रदूषण के विविध प्रकारों का प्रतिकूल प्रभाव मानव एवं अन्य जंतुओं पर पड़ता है। प्रदूषण के विविध प्रकारों के कारण मानव स्वास्थ्य में गिरावट आती है तथा अनेक रोगों की उत्पत्ति होती है। प्रदूषण के कारण उत्पन्न बीमारियों की यदि सूची तैयार की जाए तो वह काफी लंबी होगी। प्रदूषित वातावरण मानव के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। प्रदूषण संबंधी कुछ प्रभाव तो दीर्घकालीन होते हैं। दीर्घकालीन कुप्रभावों के ज्वलंत उदाहरण हैं- नागासाकी एवं हिरोशिमा पर हुई बमवर्षा के-आज भी उत्पन्न जापानी संतानें कुष्ट, अंधापन, लंगड़ापन कुरूप इत्यादि के रूप में भोग रही है। नगरीय समुदाय में सिर-दर्द, खाँसी, तपेदिक, अस्थमा इत्यादि रोगों से अनेक लोग पीड़ित मिलते हैं। ये सभी बीमारियाँ अधिकतर प्रदूषण की देन हैं।
अधिक प्रदूषण के कारण श्वांस संबंधी अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं । फेफड़ों में श्वांस द्वारा गैस, कण, रसायन इत्यादि पहुँच जाते हैं जो कुछ समयान्तर में फेफड़ों को नष्ट कर देते हैं। कार्बन-मोनो-ऑक्साइड में श्वसन के कारण रक्त का थक्का जमने लगता है तथा हृदय गति रुक जाती है और मृत्यु हो जाती है। इसमें ब्रोंकाइटिस, पल्मोनरी एम्फीसेमा अथवा दमा जैसे रोग हो जाते हैं। इनके कारण लोगों में श्वसन समस्याएँ कुष्ठ, स्नायविक-दुर्बलता, आँख जलन, सुगंध के प्रति असुहावनी प्रतिक्रिया आदि होने लगती है।
(ii) जलवायु पर प्रभाव : प्रदूषण का कुप्रभाव मौसम तथा जलवायु पर भी स्पष्ट देखने को मिलता है। प्रदूषण का कुप्रभाव ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा नगरीय या शहरी क्षेत्रों में अधिक देखने को मिलता है। शीत ऋतु में इंधन का चूँकि अपेक्षाकृत अधिक प्रयोग होता है, इस कारण वायुमंडल में उन दिनों विविक्त की मात्रा अधिक हो जाती है तथा सौर शक्ति भी नगरीय क्षेत्रों में ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा 15 प्रतिशत से 20 प्रतिशत कम पहुंचती है। इस कारण जाड़ों में ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा नगरीय क्षेत्रों में दृश्यता भी कम हो जाती है। इनसे संघनन की क्रिया
उत्पन्न होती है जिसके फलस्वरुप मेघ बनते हैं तथा ग्रामों की तुलना में नगरों में 5 प्रतिशत से लेकर 10 प्रतिशत तक अधिक वर्षा होती है।
इस प्रकार प्रदूषण मौसम को न केवल प्रभाक्ति करता है वरन् उसे संशोधित भी करता है। इसी कारण नगरों का वातावरण ग्रामों से कुछ भिन्न हो जाता है।
वैज्ञानिक अध्ययन से विदित होता है कि कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्धि प्रतिवर्ष 2 प्रतिशत की दर से हो रही है। इस आधार पर पृथ्वी का तामपान विगत 50 वर्षों से 1 सेंटीगेड बढ़ गया है। वैज्ञानिकों का मत है कि यदि पृथ्वी के तापमान में वृद्धि 3.6 सेंटीग्रेड और अधिक गई तो आर्कटिक तथा अंटार्कटिक के हिमखंड पिघल जाएँगे तथा ऐसा होने पर पृथ्वी की सतह 100 मीटर और ऊँची हो जायेगी।
आज विश्व की महाशक्तियों के पास अनुमानत: 50 हजार आण्विक अस्त्र हैं जिनकी विस्फोटक क्षमता 13 हजार मेगावाट के लगभग है यदि इन आण्विक अस्त्रों द्वारा बमबारी हुई तो 200 से लेकर 6500 लाख टन धुआँ निकलेगा जो सूर्य के प्रकाश को भी ढक लेगा।
(iii) वनस्पति पर प्रभाव : प्रदूषण का कुप्रभाव न केवल मानव एवं जीवन पर ही पड़ता है, वरन पेड़-पौधों पर भी पड़ता है। प्रदूषण द्वारा पौधे दो रूपों में प्रभावित होते हैं। प्रथम-प्रदूषण के पौधों की शारीरिक प्रक्रिया कुप्रभावित होती है जिसके परिणामस्वरुप पौधे का गुण परिवर्तित हो जाता है। पौधों का इसके कुप्रभाव के कारण विकास अवरुद्ध हो जाता है और उनकी उत्पादकता टकम हो जाती है। इसमें कोई दृश्य प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता है।
प्रश्न 5. पर्यावरण संतुलन पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-पर्यावरण संतुलन : यह सर्वविदित तथ्य है कि पर्यावरणीय क्रियाएँ अबाध रूप से चलती रहती हैं। यदि मनुष्य इन क्रियाओं से जाने-अनजाने हस्ताक्षेप करता है तो भी प्रकृति पर्यावरण संतुलन बनाए रखने का प्रयास करती है। जब तक प्रकृति का यह प्रयास सार्थक रहता है तब तक मनुष्य को हानि प्रत्यक्ष रूप से नहीं होती । अत: उसका ध्यान इस तथ्य की ओर नहीं जाता कि वह कोई ऐसा कार्य कर रहा है जिससे पर्यावरण का संतुलन बिगड़ना आरंभ हो गया है। पर्यावरण असंतुलन उत्पन्न हो जाने के कारण यदि उसे कई शारीरिक या मानसिक कष्ट भी हो जाता है तो वह उसे बीमारी समझकर उसके उपचार में जुट जाता है परंतु जब मनुष्य का हस्तक्षेप लगातार होता ही रहता है और हस्तक्षेप की तीव्रता बढ़ती चली जाती है तो प्राकृति पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने में असफल हो जाती है। परिणामस्वरुप मनुष्य को शारीरिक कष्ट के साथ-साथ दैविक आपदाओं का भी सामना करना पड़ता है और तब उसका ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित होता है कि कहीं उसकी क्रियाएँ पर्यावरण का संतुलन तो नहीं बिगाड़ रही हैं? अनेक परीक्षण इसके लिए वह करता है क्योंकि वर्तमान मानव हर तथ्य का वैज्ञानिक आधार ढूंढता है। आज विज्ञान ने स्वयं यह चेतावनी दी है कि यदि मनुष्य ने समय रहते सुधार न किया और पर्यावरणीय क्रियाओं को उनकी प्राकृतिक गति से न चलने दिया तो उसका विनाश निश्चित है। अत: आज मानव ने इस बात की आवश्यकता का अनुभव किया है कि पर्यावरण संरक्षण स्वयं उसके जीवित रहने के लिए आवश्यक है। प्रत्येक अवस्था में पारिस्थितिक संतुलन बना रहना आवश्यक ही नहीं वरन् परमावश्यक भी है अन्यथा मानव का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।
प्रश्न 6. पर्यावरण के प्रति सामाजिक उत्तरदायित्वों के क्रियान्वयन की विवेचना कीजिए।
उत्तर-विकास एवं पर्यावरण में समाज की भूमिका : पर्यावरण से संबंधित अनेकों कार्य हैं जो प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक परिवार, प्रत्येक पड़ोसी, संपूर्ण समाज के हिस्से पर प्राण की उपेक्षा करते हैं। जब तक प्रत्येक व्यक्ति कर्त्तव्य न निभाए हम निर्णय ले सकते हैं कि पर्यावरण की गुणवत्ता कम हो जाएगी। बचाव, सुरक्षा तथा पुर्ननिर्माण द्वारा वर्तमान पीढ़ी के लिए पर्यावरण सुरक्षित रखना चहिए। अत्यधिक नगरीकरण एवं प्रदूषण आदि के दुष्परिणाम के विषय में भी बताना चाहिए। पर्यावरण के संबंध में बालकों से ही जानकारी को समाज से सभी वर्गों में पहुँचाना चाहिए।
पारिस्थितिक क्लब : पारिस्थितिक कल्ब एक क्रिया-कलाप है जिसे सभी विद्यालयों में लागू किया जाना चाहिए। पररिस्थितिक कल्व छात्रों में पारिस्थितिक को समझने में सहायता करता है। पारिस्थितिक क्लब के विभिन्न तत्व तथा विभिन्न पर्यावरण विषय हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं। यह एक मंच है जिसके द्वारा इस संबंध में अपने ज्ञान का प्रस्तुतीकरण करते हैं। छात्रों को स्वयं उत्साहित करने के लिए उनके मित्र तथा सामान्य जनता को पारिस्थितकी को सुरक्षित रखने हेतु अपने अनुभवों तथा प्रयासों से अवगत कराती है। हमें प्रकृति एवं सुंदर विश्व जिसमें हम रहते हैं, को अधिक से अधिक जानना चाहिए तथा उससे मनोरंजन करना सीखना चाहिए।
पारिस्थितिक क्लब के क्रिया-कलापों के अंतर्गत हमें भावी महीनों में किए जाने वाले क्रिया-कलापों की सूची तैयार करनी चाहिए। स्थानीय संस्थाओं की सहायता से वीडियो फिल्म दिखाई जानी चाहिए। जल एवं मृदा परीक्षण पर भी कुछ कार्यक्रम संयोजित किए जा सकते हैं। सदस्यों की सहायता से एक समाचारपत्र प्रकाशित किया जा सकता है।
पर्यावरण संबंधी अभियान : अनेकों शैक्षिक एवं सूचना संबंधी अभियान स्कूल स्तर पर ही प्रारंभ किए जा सकते हैं। उन्हें कॉलेज स्तर पर तथा पड़ोस स्तर पर भी प्रारंभ किया जा सकता है। उनमें से कुछ अभियान निम्न प्रकार के हो सकते हैं:
(i) विद्यालय परिसर की सफाई।
(ii) विद्यालय परिसर की हरियाली।
(iii) कागज, जल विद्युत का संरक्षण करना, जैव-अनिम्नीकरण, पदार्थों का कम उपयोग, परिवहन संबंधी प्रदूषण को कम करना, धूम्रपान न करना आदि।
(iv) प्राणियों एवं वनस्पतियों की सुरक्षा करना।
छात्रों को इस संबंध में वाद-विवाद प्रतियोगिता, वार्ता, चार्ट तैयार करना आदि के लिए प्रेरित किया जा सकता है। सभी छात्रों को इन अभियानों में भाग लेना चाहिए। श्रेष्ठता के आधार पर भाग लेने वाले को पुरस्कृत किया जाना चाहिए।
जनसंख्या शिक्षा कार्यक्रम : सरकार समय-समय पर जनसंख्या शिक्षण कार्यक्रम को अपने अधिकार में ले लेती है जिससे जनता को प्रशिक्षित किया जा सके कि अधिक जनसंख्या से क्या-क्या हानियाँ होती हैं। इस संबंध में सरकार विज्ञान, पोस्टर्स, सूचना पत्र, रेडियो, समाचार-पत्र दूरदर्शन आदि द्वारा लोगों को मुफ्त सलाह देता है व लोगों को उत्साह पुरस्कार देकर उन्हें इस और प्रेरित करती है।
नीति-निर्माण में जनभागीदारी : नगरों में आवासीय कल्याणकारी संगठन को अच्छे जीवन स्तर संबंधी वातावरण के नीति निर्माण एवं विकास कार्यक्रमों में सम्मिलित किया जाता है। उनसे आवासीय एवं व्यापारिक क्षेत्र को सीमित एवं चिन्हित करने के लिए राय ली जा सकती है। सड़कों की सफाई, गलियों की सफाई, जनता को वृक्षारोपरण हेतु स्थानों को सीमित करने, सफाई अभिवान, कालोनियों के रख-रखाव आदि कार्यों में भी इन संगठनों का सहयोग लिया जा सकता है। ग्राम स्तर पर पंचायती, ग्राम सेवक, संविका का सहयोग अति आवश्यक है। गाँव के बुजुर्ग,नवयुवकों से भी गाँव के विकास के लिए सलाह ली जा सकती है।
प्रश्न 7. पर्यावरण संबंधित कुछ विवादस्पद मुद्दे जिनके बारे में आपने पढ़ा या सुना हो उनका वर्णन कीजिए (अध्याय के अतिरिक्त)
उत्तर-पर्यावरण से जुड़े कुछ मुद्दे निम्नलिखित हैं-
नर्मदा बचाओ आंदोलन : मध्यप्रदेश की जीवन रेखा नर्मदा को प्रदूषण से बचाने के लिए सन् 1995 में ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ प्रारंभ किया गया। इसके अच्छे परिणाम सामने आए। इस आंदोलन की सफलता के लिए अरुन्धती राय को पुरस्कार से नवाजा गया था।
चिपको आंदोलन : उत्तरांचल राज्य में वनों को बचाने के लिए भी सुंदरलाल बहुगुणा ने 27 मार्च, 1973 को चिपको आंदोलन की शुरुआत की। श्री बहुगुणा पर्यावरण को बचाने के सिलसिले में कई बार जेल भी गए। इसी प्रकार कुछ व्यक्तियों का भी यहाँ उल्लेख करना लाभप्रद रहेगा, जिन्होंने पर्यावरण संरक्षण के लिए कार्य किया है-
(i) श्रीमती मेनका गांधी : पूर्व पर्यावरण एवं वन राज्य मन्त्री एवं समाज सेवी, ये वन्य जीवों के संवर्द्धन एवं संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित कर चुकी हैं एवं समाज को वन्य जीवों को प्रति दया भाव एवं उनकी सुरक्षा के जनचेतना का भी कार्य किया है।
(ii) राजेंद्र सिंह : राजस्थान राज्य को सूखे से एवं मरुस्थलीकरण से बचाव में जुटे स्वयं सेवी संस्थान के सामाजिक कार्यकर्ता राजेन्द्र सिंह को वर्ष 2001 के रैमने मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इन्होंने छोटे-छोटे बाँधों का निर्माण एवं जल संचय की नई विधियों का इस्तेमाल करके ग्रामिण परिवेश में नई क्रांति को जन्म दिया है।
(iii) डॉ. सालिम अली (1896-1987) : विश्व विख्यात प्रकृति विज्ञानी एवं पक्षी विशेषज्ञी इन्हें भारत का बर्ड्समैन भी कहते हैं। इन्हें 1976 में पद्म विभूषण तथा 1983 में वन्य प्राणी संरक्षक पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
(iv) अशोक मेहता : आगरा में स्थित विश्व की अनमोल धरोहर की रक्षा के लिए चलाए जा रहे अभियान ‘ताज बचाओ आंदोलन’ के प्रणेता। इन्हें भी इनके उत्कृष्ट कार्य के लिए रैमने मैग्सेसे पुरस्कार दिया जा चुका है।
(v) विवेक मेनन : ये भारत के वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट के कार्यकारी निदेशक हैं। इन्होंने असम राज्य में गैंडों एवं हाथियों के अवैध शिकार के विरुद्ध कार्य किया है, जिसके लिए इन्हें वर्ष 2001 का ब्रिटिश रॉयल जियोग्राफिक सोसायटी का प्रतिष्ठित सफर्ड पर्यावरण पुरस्कार प्रदान किया गया।
(vi) माइक एच. पांडेय: वन्यजीव फिल्म निर्माता माइक एच. पांडेय पांडा पुरस्कार जीतने वाले पहले भारतीय हो गए हैं। पांडेय को ग्रीन ऑस्कर के नाम से लोकपिन यह पुरस्कार एशियाई हाथी पर बनी वेनेशिंग जायट्स के लिए दिया गया है। उन्हें यह पुरस्कार तीसरी बार मिला है। इससे पूर्व उन्होंने वर्ष 2000 तथा 1994 में भी यह पुरस्कार प्राप्त किया था।
(vii) चारुदत मिश्र : हिमालय की चोटियों पर पाए जाने वाले बीर्फीले तेंदुए की लुप्त हो रही प्रजाति को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले भारतीय पर्यावरण वैज्ञानिक चारुदत मिश्र को अप्रैल, 2005 में ब्रिटेन के महत्वपूर्ण पर्यावरण संरक्षक पुरस्कार व्हाइटले गोल्ड प्रदान किया गया।