bihar board 12th political science | क्षेत्रीय आकांक्षाएँ
bihar board 12th political science | क्षेत्रीय आकांक्षाएँ
(REGIONAL ASPIRATIONS)
याद रखने योग्य बातें
• भारत सरकार का क्षेत्रीय आकांक्षाओं के प्रति नजरिया (दृष्टिकोण)-विभिन्न
क्षेत्रों और भाषायी समूहों को अपनी संस्कृति बनाए रखने का पूर्ण अधिकार भारत सरकार
देगी।
• जम्मू-कश्मीर में तीन राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्र-(1) जम्मू, (2) कश्मीर, (3)
लद्दाख।
• अकाली दल का गठन-1920 के दशक में।
• भाषायी आधार पर पंजाब का पुनर्गठन तथा तीन राज्य–1966-(1) पंजाब, (2)
हरियाणा तथा (3) हिमाचल प्रदेश।
• आनंदपुर साहिब प्रस्ताव (क्षेत्रीय स्वायत्तता की मांग को लेकर उठाई गई पारित
हुआ था)-1973 में।
• इंदिरा सरकार का अमृतसर (स्वर्णमंदिर) में ऑपरेशन ब्लूस्टार (या सैन्य
कारवाई-जून, 1984।
• सात बहनें-पूर्वोत्तर क्षेत्र में सात राज्य।
• पूर्वोत्तर क्षेत्र में देश की कुल जनसंख्या का प्रतिशत-4 (चार)।
• भारत का कहा जाने वाला दक्षिण-पूर्व एशिया का प्रवेश-द्वार-पूर्वोत्तर राज्य।
• नगालैंड राज्य बना-1960 में।
• अरुणाचल और मिजोरम राज्य वने-1986 में।
• पूर्वोत्तर राज्यों में तीन राजनीति के हावी होने वाले मुद्दे-(1) स्वायत्तता की मांग,
(2) अलगाव के आंदोलन तथा (3) बाहरी (देश के अन्य भागों से आकर बसने वाले
लोग) लोगों का विरोध।
• राजीव गाँधी लालडेंगा में समझौता-पाकिस्तान से निर्वासन के बाद भारत लौटे तथा
1986 में मिजो को पूर्ण राज्य का दर्जा प्राप्त।
• गोवा की मुक्ति-1961 में।
• गोवा भारत संघ का राज्य बना–1987 में।
• राधास्वामी नायकर का जीवन काल-पेरियार के नाम से प्रसिद्ध 1879-19731
एन०सीई०आर०टी० पाठ्यपुस्तक एवं अन्य परीक्षोपयोगी प्रश्न एवं उनके उत्तर
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1. निम्न में मेल करें-
(i) सामाजिक धार्मिक पहचान के आधार नगालैंड/मिजोरम
(Socio-religious identity leading to statehood) (Nagaland/
Mizoram)
(ii) भाषायी पहचान और केन्द्र के साथ तनाव झारखंड/छत्तीसगढ़
(Linguistic identity and tensions with centre) (Jharkhand/
Chattisgarh)
(iii) क्षेत्रीय असंतुलन के फलस्वरूप राज्य का निर्माण पंजाब
(Regional imbalance leading to demand for (Punjab)
statehood)
(iv) आदिवासी पहचान के आधार पर अलगाववादी मांँग तमिलनाडु
(Secessionist demands on account of tribal (Tamil Nadu)
identity) [NCERT T.B.Q. 1]
उत्तर-
(i) सामाजिक धार्मिक पहचान के आधार पंजाब
(ii) भाषायी पहचान और केन्द्र के साथ तनाव तमिलनाडु
(iii) क्षेत्रीय असंतुलन के फलस्वरूप राज्य का निर्माण झारखंड/छत्तीसगढ़
(iv) आदिवासी पहचान के आधार पर अलगाववादी मांँग नगालैंड/मिजोरम
2. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए:
(i) अगस्त 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद…….. ने गोवा दमन और दियू से
अपना शासन हटाने से इंकार कर दिया।
(ii) अंततः……… के माह………. में भारत सरकार ने गोवा में अपनी सेना भेजी
और दो दिन में गोवा को मुक्त करा दिया।
(iii) आखिरकार………..में गोवा भारत संघ का एक राज्य बना।
(iv) संदिग्ध……….आत्मघाती द्वारा राजीव गांधी की हत्या वर्ष …….. में की गई थी।
(v) एकीकरण के उपरांत……… का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेगस में विलय हो गया।
उत्तर-(i) पुर्तगाल, (ii) 1961, दिसंबर, (iii) 1987, (iv) एल•टी•टी•ई•, 1991
(v) सिक्किम।
3. रिक्त कथनों का मिलान कीजिए :
क्षेत्र/राज्य नेता या संगठन
(i) जम्मू कश्मीर (क) पेरियार
(ii) तमिलनाडु (ख) शेख अब्दुल्ला
(iii) पंजाबी सभा का गठन (ग) संत हरचरण सिंह लोंगोवाल
(iv) बीसवीं शताब्दी का छठे दशक में एक (घ) मास्टर तारा सिंह
प्रभुत्व अकाली नेता
(v) मिजोरम आंदोलन (ङ) अंगमी जापू मिजो
(vi) नगालैंड की स्वतंत्रता (च) लाल डेंगा
(vii) सिक्किम में लोकतंत्र (छ) चोम्पाल
(viii) अल्पसंख्यक लेपचा-भूटिया अभिजन (झ) काजी लैंदुप
(ज) दोरजी खांग सरया
उत्तर-(i)-(ख), (ii)-(क), (iii)-(घ), (iv)-(ग), (v)-(च),
(vi)-(ङ), (vii)-(ज), (viii)–(झ),
सही विकल्प चुनें-
4. संविधान के किस संशोधन द्वारा शक्तियों के केन्द्रीकरण का प्रयास किया गया?
[B.M. 2009A]
(क) 24वाँ संविधान संशोधन
(ख) 42वाँ संविधान संशोधन
(ग) 44वाँ संविधान संशोधन
(घ) 52वाँ संविधान संशोधन उत्तर-(ख)
5. सुन्दर लाल बहुगुणा का संबंध किस आंदोलन से है? [B.M. 2009A]
(क) पर्यावरण
(ख) महिला सशक्तिकरण
(ग) किसान समस्या
(घ) आतंकवाद उत्तर-(क)
6. जम्मू-कश्मीर के संबंध में भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद पर आपत्ति उठाई
जाती है? [B.M. 2009A]
(क) 352
(ख) 356
(ग) 360
(घ) 370 उत्तर-(घ)
7. पंजाब समस्या के समाधान हेतु राजीव गाँधी ने पंजाब के किस नेता के साथ
समझौता किया था? [B.M. 2009A]
(क) सुरजीत सिंह बरनाला
(ख) प्रकाश सिंह बादल
(ग) हरचरण सिंह लौगोवाल
(घ) अमरिन्दर सिंह उत्तर-(ग)
8. 1992 में विश्व पर्यावरण के मुद्दे पर पृथ्वी सम्मेलन कहाँ हुआ? [B.M. 2009A]
(क) रियो द जनेरियो
(ख) न्यूयार्क
(ग) जेनेवा
(घ) टोकियो उत्तर-(क)
9. नेशनल कॉन्फ्रेन्स किस राज्य से संबंधित है? [B.M. 2009A]
(क) राजस्थान
(ख) पंजाब
(ग) जम्मू-कश्मीर
(घ) हिमाचल प्रदेश उत्तर-(ग)
10. क्षेत्रीय दलों के उदय का सबसे बड़ा कारण क्या है? [B.M. 2009A]
(क) कांग्रेस के नेतृत्व का पतन
(ख) क्षेत्रीय असंतुलन
(ग) भारत की संघीय व्यवस्था
(घ) बहु-दलीय व्यवस्था, उत्तर-(क)
11. संविधान में 42वाँ संशोधन कब हुआ? [B.M. 2009A]
(क) 1971
(ख) 1976
(ग)-1977
(9) 1978 उत्तर-(ख)
12. गठबंधन सरकारों के आने से संसदीय व्यवस्था में क्या प्रमुख खामियाँ आयी हैं?
[B.M.2009A]
(क) राष्ट्रपति की कमजोर स्थिति
(ख) प्रधानमंत्री की सबल स्थिति
(ग) सामूहिक उत्तरदायित्व की अवहेलना
(घ) क्षेत्रीय दलों का उत्कर्ष उत्तर-(ग)
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
1. बीसवीं सदी के कौन-से दशक को स्वायत्तता की माँग के दशक के रूप में देखा
जा सकता है? इसके क्या मुख्य राजनीतिक प्रभाव दृष्टिगोचर हुए? केवल उल्लेख
कीजिए।
उत्तर―1980 के दशक को स्वायत्तता की माँग के दशक के रूप में भी देखा जा सकता
है। इस दौर में देश के कई हिस्सों से स्वायत्तता की मांँग उठी और इसने संवैधानिक हदों को भी
पार किया। इन आंदोलनों में शामिल लोगों ने अपनी माँग के पक्ष में हथियार उठाए, सरकार ने उनको दबाने के लिए जवाबी कार्रवाई की और इस क्रम में राजनीतिक तथा चुनावी प्रक्रिया अवरुद्ध हुई।
2. ‘क्षेत्रवाद एवं राष्ट्रीय सरकार’ विषय पर संक्षिप्त नोट लिखिए।
उत्तर-(1) क्षेत्रवाद ने राष्ट्र के लिए चिंता उत्पन्न की। राष्ट्रीय सरकार को कई बार हथियार
उठाकर इन्हें कुचलने का प्रयास करने पड़े।
(2) यह निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता कि स्वायत्तता की मांग को लेकर चले अधिकतर
संघर्ष लंबे समय तक जारी रहे और इन संघर्षों पर विराम लगाने के लिए केंद्र सरकार को सुलह
की बातचीत का रास्ता अख्तियार करना पड़ा अथवा स्वायत्तता के आंदोलन की अगुवाई कर रहे
समूहों से समझौते करने पड़े।
(3) क्षेत्रवाद के समर्थक गुटों/नेताओं आदि एवं देश की सरकार के मध्य हुई बातचीत की
एक लंबी प्रक्रिया के बाद दोनों पक्षों के बीच समझौता हो सका। बातचीत का लक्ष्य यह रखा गया कि विवाद के मुद्दों को संविधान के दायरे में रहकर निपटा लिया जाए। बहरहाल, समझौते तक पहुंँचने की यह यात्रा बड़ी दुर्गम रही और इसमें जब-तब हिंसा के स्वर उभरे।
3. भारतीय संविधान ने सांस्कृतिक विभिन्नता के पक्ष में क्या व्यवस्था की है? राष्ट्रीय
एकता एवं विभिन्नता के मध्य यूरोप की तुलना में भारत का नजरिया किस तरह
से बेहतर समझा गया है?
उत्तर-राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया और भारत के संविधान के बारे में विविधता में एक बुनियादी
सिद्धांत के विषय में हम यह कह सकते हैं कि भारत में विभिन्न क्षेत्र और भाषायी समूहों को अपनी संस्कृति बनाए रखने का अधिकार संविधान द्वारा ही दिया जा सकता है। हमने एकता को भावधारा से बंँधे एक ऐसे सामाजिक जीवन के निर्माण का निर्णय लिया था, जिसमें इस समाज को आकार देने वाली तमाम संस्कृतियों की विशिष्टता बनी रहे। संविधान निर्माताओं भारतीय राष्ट्रवाद ने एकता और विविधता के बीच संतुलन साधने की कोशिश की है। राष्ट्र का मतलब यह नहीं है कि क्षेत्र को नकार दिया जाए। इस अर्थ में भारत का नजरिया यूरोप के कई देशों से अलग रहा, जहाँ सांस्कृतिक विभिन्नता को राष्ट्र की एकता के लिए खतरे के रूप में देखा गया।
4. क्षेत्रीयत्ता अथवा क्षेत्रवाद का क्या तात्पर्य है?
उत्तर क्षेत्रवाद किसी क्षेत्र विशेष के लोगों की उस प्रवृत्ति से संबंधित है जो उनमें अपने
क्षेत्र की आर्थिक, सामाजिक अथवा राजनीतिक शक्तियों की वृद्धि करने के लिए प्रेरित करती है।
इस दृष्टि से क्षेत्र देश का वह भू-भाग होता है जिसमें रहने वाले लोगों के समान उद्देश्य व आकांक्षाएँ होती है। इस प्रकार जब किसी भौगोलिक दृष्टि से पृथक् भूखंड में रहने वाले मानव समूह में धार्मिक, सांस्कृतिक भाषायी, आर्थिक-सामाजिक, राजनीतिक तथा ऐतिहासिक आदि दृष्टि से उसी प्रकार के अन्य भूखंड से पृथकता उत्पन्न हो जाती है तथा स्वयं की एकरूपता व समानता का विकास हो जाता है तब उस मानव समूह में अपने क्षेत्रों के हितों के प्रति पैदा हुई जागरूकता को क्षेत्रीयता का क्षेत्रवाद कहा जाता है।
5. क्षेत्रवाद अथवा क्षेत्रीयता के बारे में दो राजनीतिशास्त्र विद्वानों-फोरेस्टर और
एम०आर० माहेश्वरी के विचार लिखिए।
उत्तर (i) फोरेस्टर का कहना है कि क्षेत्रवाद से तात्पर्य एक देश में या देश के किसी भाग
में उस छोटे से क्षेत्र से है जो आर्थिक, भौगोलिक व सामाजिक आदि कारणों से अपने पृथक्
अस्तित्व के लिए सजग है।
(ii) एम० आर० माहेश्वरी का कहना है कि किसी क्षेत्र के पृथक् स्वरूप के लिए लोगों में
पारस्परिक समानता तथा एकरूपता तथा अन्य क्षेत्रों में अलगाव की भावना का होना आवश्यक है।
6. रामास्वामी नायकर (अथवा पेरियार) का संक्षिप्त जीवन परिचय दीजिए।
उत्तर-रामास्वामी नायकर का जन्म 1879 को हुआ। वे पेरियार के नाम से प्रसिद्ध हुए। वे
ईश्वर में आस्था नहीं रखते थे इसलिए उन्हें नास्तिकता के प्रबल समर्थक के रूप में ख्याति मिली।
वह जाति विरोधी आंदोलन एवं द्रविड़ संस्कृति और पहचान के पुनः संस्थापक के प्रेरणादाता के
रूप में प्रसिद्धि प्राप्त कर सके।
उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत कांग्रेस कार्यकर्ता के रूप में हुई। 1925 में वे आत्म
सम्मान आंदोलन के जनक बने। उन्होंने ब्राह्मण विरोधी आंदोलन का नेतृत्व किया। वे जस्टिस पार्टी के कार्यकर्ता रहे ओर उन्होंने द्रविड़ कषगम नाम की संस्था की स्थापना की। वे हिंदी और उत्तर भारतीय वर्चस्व के विरोधी थे उन्होंने कहा कि उत्तर भारतीय लोग और ब्राह्मण द्रविड़ों से अलग आर्य है। उन्होंने जीवन-भर इसी मत का प्रतिपादन किया। 1973 में उनका देहांत हुआ।
7. शेख अब्दुल्ला के जीवन के कुछ प्रमुख पहलुओं का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
उत्तर-शेख अब्दुल्ला 1905 में जन्मे। वे भारतीय स्वंतत्रता से पूर्व ही जम्मू एवं कश्मीर
के नेता के रूप में उभरे। वे जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता दिलाने के साथ-साथ वहाँ धर्मनिरपेक्षता
की स्थापना के समर्थक थे। उन्होंने राजशाही के विरुद्ध राज्य में जन आंदोलन का नेतृत्व किया।
वे धर्मनिरपेक्षता के आधार पर जीवन भर पाकिस्तान का विरोध करते रहे। वे नेशनल कांफ्रेस के
गठनकर्ता और प्रमुख नेता थे। वे भारत में जम्मू-कश्मीर के विलय के उपरांत जम्मू-कश्मीर के
प्रधानमंत्री (उन दिनों इस राज्य के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री ही कहा जाता था) 1947 में बने थे।
उनके मंत्रिमंडल को भारत सरकार की कांग्रेसी सरकार ने 1953 में बर्खास्त कर दिया था तभी से 1964 तक कारावास में रखा। सरकार ने अपनी शर्तों पर उनसे समझौता करना चाहा लेकिन
समझौता न होने के कारण 1965 से 1968 तक उन्हें कारावास में रखा। 1974 में इंदिरा कांग्रेस
सरकार के साथ समझौता हुआ। वे राज्य के मुख्यमंत्री पद पर आरूढ़ हुए। 1982 में उनका देहांत हुआ।
8. मास्टर तारा सिंह के जीवन का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर-मास्टर तारा सिंह 1885 में जन्मे थे। वे युवा अवस्था में ही प्रमुख सिख धार्मिक एवं
राजनैतिक नेता के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त कर सके। वे शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंध कमेटी (एस.पी.डी.) शुरुआती नेताओं में से एक थे। उन्हें इतिहास में अकाली आंदोलन के सबसे महान नेता के रूप में याद किया जाता है। वे देश की स्वतंत्रता आंदोलन के समर्थक ब्रिटिश सत्ता के विरोधी थे लेकिन उन्होंने केवल मुसलमानों के साथ समझौते की कांग्रेस नीति का डटकर विरोध किया। वे देश की आजादी के बाद अलग पंजाबी राज्य के निर्माण के समर्थक रहे। 1967 में उनका स्वर्गवास हुआ।
9. संत हरचंद सिंह लोंगोवाल का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर-संत हरचंद सिंह लोंगोवाल 1932 में जन्मे थे। वे अकाली होने के साथ-साथ सिखों
के धार्मिक एवं राजनैतिक नेता थे। उनकी राजनैतिक नेता के रूप में शुरुआत अकाली नेता के
रूप में 20वीं शताब्दी के छठे दशक में हुई। 1980 में वह अकाली दल के अध्यक्ष बनें। उन्होंने
अकालियों की प्रमुख मांँगों को लेकर प्रधानमंत्री राजीव गांधी से एक समझौता किया जो इतिहास में राजीव लौंगवाल समझौते के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह पंजाब के अलगाववादी हिंसक आदोलन के विरोधी रहे। इसीलिए एक कट्टरपंथी अज्ञात सिख युवक द्वारा उनकी हत्या कर दी गई और इस तरह वह 1985 में स्वर्ग सिधार गए।
10. लालडेंगा का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर-लालड़ेंगा का जन्म 1937 में हुआ। वह मिजो नेशनल फ्रंट के संस्थापक और सबसे
ज्यादा ख्याति प्राप्त नेता थे। 1959 में मिजोरम में बड़े भयंकर अकाल और उस समय की असम
सरकार द्वारा उस समय के अकाल की समस्या के समाधान में विफल होने के कारण वे देश-विद्रोही बन गए। वे अनेक वर्षों तक भारत के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष करते रहे। यह संघर्ष लगभग बीस वर्षो तक चला। वे पाकिस्तान में एक राज्य शरणार्थी के रूप में रहते हुए भी भारत विरोधी गतिविधियाँ चलाते रहे। अंत में वे प्रधानमंत्री राजीव गांधी के बुलाने पर स्वदेश लौटे और 1986 में राजीव गाँधी के साथ उन्होंने सुलह की और दोनों ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए और मिजोरम को नया राज्य बनाया गया। लालडेंगा नवनिर्मित मिजोरम के मुख्यमंत्री बने। 1990 में उनका निधन हो गया।
11. अंगमी जापू फिजो कौन थे? संक्षेप में परिचय दीजिए।
उत्तर-अंगमी जापू फिजो का जन्म 1904 में हुआ। वे पूर्वोत्तर भारत में नागालैंड की आजादी
के आंदोलन के नेता के रूप में प्रसिद्ध हुए। वे नागा नेशनल काउंसिल के अध्यक्ष बने। उन्होंने
नगालैंड को भारत से अलग देश बनाने के लिए भारत सरकार के विरुद्ध अनेक वर्षों तक सशस्त्र
संघर्ष चलाया। वे भूमिगत हुए। उन्होंने पाकिस्तान में शरण ली और अपने जीवन के अंतिम तीन
वर्ष ब्रिटेन में गुजारे। 1990 में उनका निधन हो गया। आज भी नागा समस्या देश के समक्ष है।
12. काजी लैंदुप दोरजी खागसरपा का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर-काजी लैंटुप दोरजी खागसरपा का जन्म 1904 में हुआ। वे सिक्किम के इतिहास में
लोकतंत्र की स्थापना के आंदोलन के रूप में प्रसिद्ध हुए। वे सिक्किम प्रजामंडल एवं सिक्किम
राज्य कांग्रेस के संस्थापक थे। 1962 में उन्होंने सिक्किम नेशनल कांग्रेस की स्थापना की। सिक्किम में आम चुनाव हुए। चुनाव में काजी लेंदुप को विजय मिली। इस विजय के उपरांत उन्होंने सिक्किम के भारत में विलय का पुरजोर समर्थन किया।
कालांतर में सिक्किम की विधान सभा ने जनमत कराया। जनमत में भी भारत-सिक्किम का
समर्थन किया। सिक्किम के विलय के बाद काजी लैंटुप दोरजी खागसरपा ने अपनी सिक्किम कांग्रेस पार्टी का विलय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में किया।
13. राजीव गाँधी का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर -राजीव गांँधी, फिरोज गाँधी और इंदिरा गांँधी की संतान थे। वे 1944 में जन्मे थे।
1980 के बाद वे देश की सक्रिय राजनीति में शामिल हुए। अपनी माँ इंदिरा गांधी की हत्या के
बाद वे राष्ट्रव्यापी सहानुभूति के वातावरण में भारी बहुमत से 1984 में देश के प्रधानमंत्री बने और 1989 के बीच वह प्रधानमंत्री पद पर रहे। उन्होंने पंजाब के आतंकवाद के विरुद्ध उदारपंथी नीतियों के समर्थक लोंगवाल से समझौता किया। उन्हें मिजो विद्रोहियों और असम में छात्र संघों से समझौता करने में सफलता मिली।
राजीव देश में उदारवाद या खुली अर्थव्यवस्था एवं कंप्यूटर प्रौद्योगिकी के प्रणेता थे। श्रीलंका
नक्सलीय समस्या को सुलझाने के लिए उन्होंने भारतीय शांति सेना को श्रीलंका भेजा। संभवतः
ऐसा माना जाता है किसी एल टी ई. श्रीलंका के विद्रोही तमिल संगठन में आत्मघाती द्वारा उनकी
हत्या 1991 में कर दी गई।
14. आनंदपुर साहिब प्रस्ताव का सिखों एवं देश पर क्या प्रभाव पड़ा।
उत्तर-आनंदपुर साहिब प्रस्ताव का सिख जन-समुदाय पर बड़ा कम असर पड़ा। कुछ साल
बाद जब 1980 में अकाली दल की सरकार बर्खास्त हो गई तो अकाली दल ने पंजाब तथा पड़ोसी राज्यों के बीच पानी के बंटवारे के मुद्दे पर एक आंदोलन चलाया। धार्मिक नेताओं के एक तबके ने स्वायत्त सिख पहचान की बात उठायी। कुछ चरमपंथी तबकों ने भारत से अलग होकर
‘खालिस्तान’ बनाने की वकालत की।
15. 1990 के दशक के मध्यवर्ती वर्षों में पंजाब में शांति किस तरह आ गई और इसके
क्या अच्छे परिणाम दिखाई दिए?
उत्तर-यद्यपि 1992 में पंजाब में आम चुनाव हुए लेकिन गुस्से में आई जनता ने दिल से
मतदान में पूरी तरह भाग नहीं लिया। केवल 22 प्रतिशत मतदाताओं ने मतदान का प्रयोग किया। यद्यपि उग्रवाद को सुरक्षाबलों ने अंतत: दबा दिया लेकिन अनेक वर्षों तक पूरी जनता-हिंदू और सिख दोनों को ही कष्ट और यातनाएंँ झेलनी पड़ी।
1990 के दशक के मध्यवर्ती वर्षों में पंजाब में शांति बहाल हुई 1997 में अकाली दल
(बादल) और भाजपा के गठबंधन को बड़ी विजय मिली। उग्रवाद के खात्मे के बाद के दौर में
यह पंजाब का पहला चुनाव था राज्य में एक बार फिर आर्थिक विकास और सामाजिक परिवर्तन
के सवाल प्रमुख हो उठे। हालाँकि धार्मिक पहचान यहाँ की जनता के लिए लगातार प्रमुख बनी
हुई है। लेकिन राजनीति अब धर्मनिरपेक्षता की राह पर चल पड़ी है।
लघु उत्तरीय प्रश्न
1. ‘क्षेत्रीय आकांक्षाओं के प्रति भारत सरकार का नजरिया’ विषय पर एक टिप्पणी
लिखिए।
अथवा,
क्षेत्रवाद के प्रति भारत सरकार के दृष्टिकोण पर एक आलोचनात्मक टिप्पणी
लिखिए।
उत्तर-क्षेत्रीय आकांक्षाओं अथवा क्षेत्रवाद के प्रति भारत सरकार का नजरिया (या
दृष्टिकोण) (Outlook of Government of India about Regional Aspiration or
Regionalism)-भारत ने विविधता के सवाल पर लोकतांत्रिक दृष्टिकोण अपनाया। लोकतंत्र
में क्षेत्रीय आकांक्षाओं की राजनीतिक अभिव्यक्ति की अनुमति है और लोकतंत्र क्षेत्रीयता को
राष्ट्र-विरोधी नहीं मानता। इसके अतिरिक्त लोकतांत्रिक राजनीति में इस बात के पूरे अवसर होते
हैं कि विभिन्न दल और समूह क्षेत्रीय पहचान, आकांक्षा अथवा किसी खास क्षेत्रीय समस्या को
आधार बनाकर लोगों की भावनाओं की नुमाइंदगी करें। इस तरह लोकतांत्रिक राजनीति की प्रक्रिया में क्षेत्रीय आकांक्षाएँ और बलवती होती हैं। साथ ही लोकतांत्रिक का एक अर्थ यह भी है कि क्षेत्रीय मुद्दों और समस्याओं पर नीति-निर्माण की प्रक्रिया में समुचित ध्यान दिया जाएगा और उन्हें इसमें भागीदारी दी जाएगी। ऐसी व्यवस्था में कभी-कभी तनाव या परेशानियां खड़ी हो सकती हैं। कभी ऐसा भी हो सकता है कि राष्ट्रीय एकता के सरोकार क्षेत्रीय आकांक्षाओं और जरूरतों पर भारी पड़ें। कोई व्यक्ति ऐसा भी हो सकता है कि हम क्षेत्रीय सरोकारों के कारण राष्ट्र की वृहत्तर आवश्यकताओं से आँखें मूंँद लें। जो राष्ट्र चाहते हैं कि विविधताओं का सम्मान हो साथ ही राष्ट्र की एकता भी बनी रहे। वहाँ क्षेत्रों की ताकतें, उनके अधिकार और अलग अस्तित्व के मामले पर राजनीतिक संघर्ष का होना एक आम बात है।
2. संक्षेप में स्वतंत्र भारत के समक्ष 1947 से 1991 तक के मध्य तनाव के दायरे (Areas
of Tensions) के नामों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-तनाव के दायरे (Areas of Tensions)-(1) कि आजादी के तुरंत बाद हमारे
देश को विभाजन, विस्थापन, देशी रियासतों के विलय और राज्यों के पुनर्गठन जैसे कठिन मसलों से जूझना पड़ा। देश और विदेश के अनेक पर्यवेक्षकों का अनुमान था कि भारत एकीकृत राष्ट्र के रूप में ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाएगा।
(2) आजादी के तुरंत बाद जम्मू-कश्मीर का मसला सामने आया। यह सिर्फ भारत और
पाकिस्तान के बीच संघर्ष का मामला नहीं था। कश्मीर घाटी के लोगों की राजनीतिक आकांक्षाओं का सवाल भी इससे जुड़ा हुआ था।
(3) पूर्वोत्तर के कुछ भागों में भारत का अंग होने के मसले पर सहमति नहीं थी। पहले
नगालैंड में और फिर मिजोरम में भारत से अलग होने की मांग करते हुए जोरदार आंदोलन चले।
दक्षिण भारत में भी द्रविड़ आंदोलन से जुड़े कुछ समूहों ने एक समय अलग राष्ट्र की बात उठायी
थी।
(4) अलगाव के इन आंदोलनों के अतिरिक्त देश में भाषा के आधार पर राज्यों के गठन की
माँग करते हुए जन-आंदोलन चले। मौजूदा आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और गुजरात ऐसे ही
आंदोलनों वाले राज्यों में हैं।
(5) दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों-खासकर तमिलनाडु में हिंदी को राजभाषा बनाने के
खिलाफ विरोध-आंदोलन चला।
(6) 1950 के दशक के उत्तरार्द्ध से पंजाबी-भाषी लोगों ने अपने लिए एक अलग राज्य बनाने
की आवाज उठानी शुरू कर दी। उनकी माँग आखिरकार मान ली गई और 1966 में पंजाब और
हरियाणा नाम से राज्य बनाए गए।
(7) बाद में छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तरांचल (अब उत्तराखंड) का गठन हुआ। कहा जा
सकता है कि विविधता की चुनौती से निपटने के लिए देश की अंदरूनी सीमा रेखाओं का पुनर्निर्धारण किया गया।
(8) बहरहाल, इन प्रयासों का मतलब यह नहीं था कि हर परेशानी का हमेशा के लिए हल
निकल आया। कश्मीर और नगालैंड जैसे कुछ क्षेत्रों में चुनौतियाँ इतनी विकट और जटिल थीं कि
राष्ट्र-निर्माण के पहले दौर में इनका समाधान नहीं किया जा सका। इसके अतिरिक्त पंजाब, असम
और मिजोरम में नई चुनौतियाँ उभरीं।
आज भी देश में कई प्रदेश स्वयं को स्वतंत्र (छोटे) राज्य बनाने का प्रयास कर रहे
हैं-तेलंगाना राज्य हरित प्रदेश, आदि ऐसे ही तनाव के नये दायरे हो सकते हैं।
3. पुर्तगाल से गोवा मुक्ति का संक्षेप में विवरण दीजिए।
अथवा,
गोवा का भारत में विलय किस प्रकार हुआ?
उत्तर-भारत में गोवा का विलय आसानी से नहीं हुआ। इसका कारण पुर्तगालियों फ्रांसीसीओ
का जिद्दी दृष्टिकोण था। वह इसे अपनी इज्जत का चिह्न समझते थे और वे इसे अपने नियंत्रण में
रखना चाहते थे। उनका यह दृष्टिकोण भारतीय दृष्टिकोण के बिल्कुल विपरीत था जो इसे पुर्तगालियों द्वारा भारत के आक्रमण की कार्यवाही और उसे जबरदस्ती हथियाये रखने का अपने देश के सम्मान के लिए एक धब्बा मानते थे। भारतीय सरकार ने भरसक कोशिश की कि पुर्तगालियों को गोवा छोड़कर जाने के लिए राजी करे। गोवा को प्राप्त करने के लिए पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन में अपना कार्यालय खोला ताकि वहां की सरकार को गोवा छोड़ने के लिए राजी किया जा सके लेकिन आखिरकार 1953 को यह कार्यालय बंद कर दिया गया क्योंकि भारत के तमाम कूटनीतिज्ञ प्रयास विफल हो गए।
अब भारतवासियों ने गोवा राष्ट्रीय कमेटी का गठन किया ताकि गोवा में आजादी के कार्य
के लिए संलग्न सभी राष्ट्रवादी पार्टियों की गतिविधियों में सामंजस्य स्थापित किया जा सके और
गोवा को भारत संघ में शामिल किया जा सके। 18 जून, 1954 को अनेक सत्याग्रही कैद कर लिए गए जब उन्होंने गोवा में भारतीय ध्वज लहराया। 22 जुलाई को क्रांतिकारियों ने दादर-नागर हवेली को आजाद करा लिया। इस कार्य में जनसंघ और गोवावादी लोगों की पार्टी (Goan Peoples party) का संयुक्त रूप से क्रांतिकारियों को समर्थन प्राप्त था।
15 अगस्त, 1955 को गोवा की आजादी ने एक नाटकीय मोड़ लिया। इस दिन हजारों
भारतवासी चलकर, गोवा में प्रवेश कर गए। ऐसा ही दमन और दीव में भी हुआ। इस प्रक्रिया में
200 प्रदर्शनकारी शहीद हो गए।
पुर्तगाल की इस गलत कार्यवाही से भारत भौचक्का रह गया। हमारे प्रधानमंत्री ने पुर्तगालियों
की निंदा की। सभी प्रमुख शहरों में हड़ताल हुई। नवंबर 1961 में पुर्तगालियों ने भारत के एक
जहाज पर हमला करके कुछ लोगों को मार दिया। अंतत: भारतीय सेना ने कारवाई की और
ऑपरेशन विजय (Operation Vijay) की कार्यवाही रंग लाई। 19 दिसंबर, 1961 को गोवा दमन दीव पूरी तरह आजाद हो गया।
4. “ऑपरेशन विजय” का वर्णन कीजिए तथा उसका महत्त्व बताइए।
उत्तर-पुर्तगालियों ने जब किसी भी तरह से भारतीयों की प्रार्थना की, आपसी बातचीत
को गोवा को छोड़ने के लिए नहीं माना और उसने गलतफहमी में राष्ट्रवादियों और देशप्रेमियों पर
हमले करने शुरू कर दिए। सैंकड़ों लोगों को पुर्तगाली पुलिस ने अपना निशाना बनाया तो
भारत ने गोवा की आजादी के लिए ‘ऑपरेशन विजय’ (Operation Vijay) नामक सैनिक
कार्यवाही की ताकि गोवा के साथ-साथ गोवा और दमन दीव को अत्याचारी शासन से छुड़ाया जा सके।
ऑपरेशन विजय नामक कार्यवाही 17-18 दिसंबर, 1961 को शुरू की गई। इस कार्यवाही
के कमांडर जनरल जे एन चौधरी थे। दोपहर के 2 बजकर 25 मिनट पर 19 दिसंबर, 1961 को
‘ऑपरेशन विजय’ नामक कार्यवाही समाप्त हो गई।
यह कार्यवाही भारतीय स्वतंत्रता को पूर्ण करने वाली कार्यवाही थी। गोवा, दमन, दीव हवेली
आदि में भारत का तिरंगा फहराया गया। नि:संदेह गोवा की स्वतंत्रता ने भारतीयों का स्वाभिमान
बढ़ाया और उन्हें सुशोभित किया। वे भारत के अंग बन गए। भारत की भूमि से विदेशियों की
अनाधिकृत उपस्थिति और वर्चस्व पूर्णतया समाप्त हो गया।
5. गोवा को पूर्ण राज्य का दर्जा सन् 1987 में किस तरह प्राप्त हुआ? संक्षेप में लिखिए।
उत्तर-दिसंबर 1961 में पुर्तगाल से स्वतंत्रता प्राप्त करने वाला गोवा एवं भारत संघ में
शामिल हुए गोवा संघ प्रदेश में शीघ्र एक और समस्या उठ खड़ी हुई। महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी
के नेतृत्व में एक तबके ने माँग रखी कि गोवा को महाराष्ट्र में मिला दिया जाए क्योंकि यह मराठी
भाषी क्षेत्र है। बहरहाल, बहुत से गोवावासी गोवानी पहचान और संस्कृति को स्वतंत्र अहमियत
बनाए रखना चाहते थे। कोंकणी भाषा के लिए भी इनके मन में आग्रह था। इस तबके का नेतृत्व
यूनाइटेड गोअन पार्टी ने किया। 1967 की जनवरी में केंद्र सरकार ने गोवा में एक विशेष जनमत
सर्वेक्षण कराया। इसमें गोवा के लोगों से पूछा गया कि आप लोग महाराष्ट्र में शामिल होना चाहते
हैं अथवा अलग बने रहना चाहते हैं। भारत में यही एकमात्र अवसर था जब किसी मसले पर
सरकार ने जनता की इच्छा को जानने के लिए जनमत संग्रह जैसी प्रक्रिया अपनायी थी। अधिकतर लोगों ने महाराष्ट्र से अलग रहने के पक्ष में मत डाला। इस तरह गोवा संघशासित प्रदेश बना रहा। अंतत: 1987 में गोवा भारत संघ का एक राज्य बना।
6. ‘भारत में सिक्किम विलय’ विषय पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-भारत में सिक्किम का विलय (Amexation of Sikkint in India)-
(1) पृष्ठभूमि (Background)-मतलब यह कि तब सिक्किम भारत का अंग तो नहीं
था लेकिन वह पूरी तरह संप्रभु राष्ट्र भी नहीं था। सिक्किम की रक्षा और विदेशी मामलों का जिम्मा भारत सरकार का था जबकि सिक्किम के आंतरिक प्रशासन की बागडोर यहाँ के राजा चोग्याल के हाथों में थी। यह व्यवस्था कारगर साबित नहीं हो पायी क्योंकि सिक्किम के राजा स्थानीय जनता की लोकतांत्रिक आकाक्षाओं को संभाल नहीं सके।
(2) सिक्किम में लोकतंत्र तथा विजयी पार्टी का सिक्किम को भारत के साथ जोड़ने
का प्रयास (Democracy in Sikkim and Victorious party’s efforts to connect Sikkim avitr India) -एक बड़ा हिस्सा नेपालियों का था। नेपाली मूल की जनता के मन में यह भाव घर कर गया कि चोग्याल अल्पसंख्यक लेपचा-भूटिया के एक छोटे-से अभिजन तबके का शासन उन पर लाद रहा है। चोग्याल विरोधी दोनों समुदाय के नेताओं ने भारत सरकार से मदद मांँगी और भारत सरकार का समर्थन हासिल किया। सिक्किम विधानसभा के लिए पहला लोकतांत्रिक चुनाव 1974 में हुआ और इसमें सिक्किम कांग्रेस को भारी विजय मिली। वह पार्टी सिक्किम को भारत के साथ जोड़ने के पक्ष में थी।
(3) सिक्किम भारत का 22वाँ राज्य (प्रांत) बनाया गया (Sikkim toas declared
22nd State (orprovince) of India)-विधानसभा ने पहले भारत के ‘सह-प्रान्त’ बनने की
कोशिश की और इसके बाद 1975 के अप्रैल में एक प्रस्ताव पास किया। इस प्रस्ताव में भारत के
साथ सिविकम के पूर्ण विलय की बात कही गई थी। इस प्रस्ताव के तुरंत बाद सिक्किम में
जनमत-संग्रह कराया गया और जनमत संग्रह में जनता ने विधानसभा के फैसले पर अपनी मुहर
लगा दी। भारत सरकार ने सिविकम विधानसभा के अनुरोध को तत्काल मान लिया और सिक्किम भारत का 22वांँ राज्य बन गया। चोग्याल ने इस फैसले को नहीं माना और उसके समर्थकों ने भारत सरकार पर साजिश रचने तथा बल-प्रयोग करने का आरोप लगाया। बहरहाल, भारत संघ में सिक्किम के विलय को स्थानीय जनता का समर्थन प्राप्त था। इस कारण यह मामला सिक्किम की राजनीति में कोई विभेदकारी मुद्दा न बन सका।
7. संविधान निर्माताओं एवं भारतीय संविधान के कौन-से कदम एवं व्यवस्थाएँ आपके
क्षेत्रीय आकांक्षाओं को शांत करने एवं राष्ट्रीय एकता तथा अखंडता को बनाए रखने
के अनुकूल बनाती हैं? दो अनुच्छेदों में लिखिए।
उत्तर-(1) क्षेत्रीय आकांक्षाओं के मामलों से हमें अपने संविधान निर्माताओं की दूरदृष्टि का
पता चलता है। वे विभिन्नताओं से निपटने को लेकर अत्यंत सजग थे। हमारे संविधान के प्रावधान इस बात के साक्ष्य हैं। भारत ने जो संघीय प्रणाली अपनायी है वह बहुत लचीली है। अगर अधिकतर राज्यों के अधिकार समान हैं तो जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों के लिए विशेष प्रावधान भी किए गए हैं।
(2) संविधान की छठी अनुसूची में विभिन्न जनजातियों को अपने आचार-व्यवहार और
पारंपरिक नियमों को संरक्षित रखने की पूर्ण स्वायत्तता दी गई है। पूर्वोत्तर की कुछ जटिल राजनीतिक समस्याओं को सुलझाने में ये प्रावधान बड़े निर्णायक साबित हुए भारत का संवैधानिक ढांँचा ज्यादा लचीला और सर्वसमावेशी है। जिस तरह से चुनौतियां भारत में आयीं वैसी कुछ दूसरे देशों में भी आयीं लेकिन भारत का संवैधानिक ढांँचा अन्य देशों के मुकाबले भारत को विशिष्ट बनाता है।
(3) क्षेत्रीय आकांक्षाओं को यहाँ अलगाववाद की राह पर जाने का मौका नहीं मिला। भारत
की राजनीति ने यह स्वीकार किया है कि क्षेत्रीयता लोकतांत्रिक राजनीति का अभिन्न अंग है।
8. जम्मू-कश्मीर की 1948 से 1986 के मध्य राजनीति से जुड़ी प्रमुख घटनाओं की चर्चा
कीजिए।
उत्तर-जम्मू-कश्मीर में 1948 के उपरांत तथा 1952 तक की राजनीति (Politics in
Jammu-Kashmir after 1948 and upto 1952)-प्रधानमंत्री का पद संँभालने के बाद शेख अब्दुल्ला ने भूमि-सुधार की बड़ी मुहिम चलायी। उन्होंने इसके साथ-साथ जन-कल्याण की कुछ नीतियाँ भी लागू की। इन सबसे यहांँ की जनता को फायदा हुआ। बहरहाल कश्मीर की हैसियत को लेकर शेख अब्दुल्ला के विचार केंद्र सरकार से मेल नहीं खाते थे। इससे दोनों के बीच मतभेद पैदा हुआ।
शेख अब्दुल्ला की बर्खास्तगी एवं चुनाव (Suspension of SheikAbdulla and new
general election)-1953 में शेख अब्दुल्ला को बर्खास्त कर दिया गया। एक वर्ष तक उन्हें
नजरबंद रखा गया। शेख अब्दुल्ला के बाद जो नेता सत्तासीन हुए वे शेख की तरह लोकप्रिय नहीं
थे। केंद्र के समर्थन के दम पर ही वे राज्य शासन चला सके। राज्य में हुए विभिन्न चुनावों में
धाँधली और गड़बड़ी के गंभीर आरोप लगे।
जम्मू-कश्मीर में 1953 से 1977 तक की राजनीतिक घटनाएँ (Political events in
Jammu & Kashmir from 1953 to 1977)―(क) 1953 से लेकर 1974 के बीच अधिकांश समय इस राज्य की राजनीति पर कांग्रेस का असर रहा। विभाजित हो चुकी नेशनल कांफ्रेंस (शेख अब्दुल्ला के बिना) कांग्रेस के समर्थन से राज्य में कुछ समय तक सत्तासीन रही लेकिन बाद में वह कांग्रेस में मिल गई। इस तरह राज्य की सत्ता सीधे कांग्रेस के नियंत्रण में आ गई। इस बीच शेख अब्दुल्ला और भारत सरकार के बीच सुलह की कोशिश जारी रही।
(ख) अंतत: 1974 में इंदिरा गाँधी के साथ शेख अब्दुल्ला ने एक समझौते पर हस्ताक्षर
किया। और वे राज्य के मुख्यमंत्री बने। उन्होंने नेशनल कांफ्रेंस को फिर से खड़ा किया और 1977 के राज्य विधानसभा के चुनाव में बहुमत से निर्वाचित हुए।
जम्मू-कश्मीर फारुख अब्दुल्ला के प्रथम कार्यकाल में (1982-1986) (Jammu &
Kashmir during the first tenure of Farukh Abdulla)-सन् 1982 में शेख अब्दुल्ला
की मृत्यु हो गई और नेशनल कांफ्रेंस के नेतृत्व की कमान उनके पुत्र फारुख अब्दुल्ला ने संँभाली। फारुख अब्दुल्ला भी मुख्यमंत्री बने। बहरहाल, राज्यपाल ने जल्दी ही उन्हें बर्खास्त कर दिया और नेशनल कांफ्रेंस से एक टूटे हुए गुट ने थोड़े समय के लिए राज्य की सत्ता संँभाली। केंद्र सरकार के हस्तक्षेप से फारुख अब्दुल्ला की सरकार को बर्खास्त किया गया था। इससे कश्मीर में नाराजगी का भाव पैदा हुआ। शेख अब्दुल्ला और इंदिरा गाँधी के बीच हुए समझौते से राज्य के लोगों का लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर विश्वास जमा था। फारुख अब्दुल्ला की सरकार की बर्खास्तगी से इस
विश्वास को धक्का लगा 1986 में नेशनल कांफ्रेस ने केंद्र में सत्तासीन कांग्रेस पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन किया। इससे भी लोगों को लगा कि केंद्र राज्य की राजनीति में हस्तक्षेप कर रहा है।
9. राजीव लौंगवाल समझौता अथवा पंजाब समझौता (1985) पर एक टिप्पणी
लिखिए।
उत्तर-राजीव लौंगवाल समझौता अथवा पंजाब समझौता 1985 (Rajiv Longrwall
agreement or Punjab agreement, 1985) –
(1) 1984 के चुनावों के बाद सत्ता में आने पर नए प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने नरमपंथी अकाली
नेताओं से बातचीत की शुरुआत की। अकाली दल के तत्कालीन अध्यक्ष हरचरन सिंह लौंगवाल
के साथ 1985 की जुलाई में एक समझौता हुआ। इस समझौते को राजीव गांधी लोंगोवाल समझौता अथवा पंजाब समझौता कहा जाता है।
(2) समझौता पंजाब में अमन कायम करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम था। इस बात
पर सहमति हुई कि चंडीगढ़ पंजाब को दे दिया जाएगा और पंजाब तथा हरियाणा के बीच
सीमा विवाद को सुलझाने के लिए एक अलग आयोग की नियुक्ति होगी। समझौते में यह भी तय
हुआ कि पंजाब-हरियाणा-राजस्थान के बीच रावी-व्यास के पानी के बंटवारे के बारे में फैसला करने के लिए एक ट्रिब्यूनल (न्यायाधिकरण) बैठाया जाएगा।
(3) समझौते के अंतर्गत सरकार पंजाब में उग्रवाद से प्रभावित लोगों को मुआवजा देने और
उनके साथ बेहतर सलूक करने पर राजी हुई। साथ ही, पंजाब से विशेष सुरक्षा वाले अधिनियम
को वापस लेने की बात पर भी सहमति हुई।
(4) जो भी हो पंजाब में अमन न तो आसानी से कायम हुआ और न ही समझौते के तत्काल
बाद। हिंसा का चक्र लगभग एक दशक तक चलता रहा। उग्रवादी हिंसा और इस हिंसा को दबाने
के लिए की गई कार्रवाइयों में मानवाधिकार का व्यापक उल्लंघन हुआ। साथ ही, पुलिस की ओर
से भी ज्यादती हुई। राजनीतिक रूप से देखें तो घटनाओं के इस चक्र में अकाली दल बिखर गया। केंद्र सरकार को राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा। इससे राज्य में सामान्य राजनीतिक तथा चुनावी प्रक्रिया बाधित हुई संशय और हिंसा से भरे माहौल में राजनीतिक प्रक्रिया को फिर से पटरी पर लाना आसान नहीं था।
10. आनंदपुर साहिब प्रस्ताव के विवादास्पद होने के क्या कारण थे?
What were the main provisions of the Punjab accord? In what way can
they be the basis for further tensions between the Punjab and its
neighbouring States? [NCERT, T.B.Q.3]
उत्तर-1970 के दशक में अकालियों को कांग्रेस पार्टी से पंजाब में चिढ़ हो गई क्योंकि
वह सिख और हिंदू दोनों धर्मों के दलितों के बीच अधिक समर्थन प्राप्त करने में सफल हो गई
है। इसी दशक में अकालियों के एक समूह ने पंजाब के लिए स्वायत्तता (autonomy) की मांग
उठाई। 1973 में, आनंदपुर साहिब में हुए एक सम्मेलन में इस आशय का प्रस्ताव पारित हुआ।
अनंदपुर साहिब प्रस्ताव में क्षेत्रीय स्वायत्तता की बात उठायी गई थी। प्रस्ताव की मांँगों में केंद्र-राज्य संबंधों को पुनर्परिभाषित करने की बात भी शामिल थी। इस प्रस्ताव में सिख ‘कौम (नेशन या समुदाय) की आकांक्षाओं पर जोर देते हुए सिखों के ‘बोलबाला’ (प्रभुत्व या वर्चस्व) का ऐलान किया गया। यह प्रस्ताव संघवाद को मजबूत करने की अपील करता है। लेकिन इसे एक अलग सिख राष्ट्र की माँग के रूप में भी पड़ा जा सकता है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1. समाहार और राष्ट्रीय अखंडता (Accommodation and National Integration)
को ध्यान में रखते हुए बताइए कि क्षेत्रीय आकांक्षाओं के लिए चलाए गए आंदोलनों
एवं प्रयासों, आदि से हमें क्या-क्या सबक (Lesson) (या सीखें) लेने चाहिए?
उत्तर-प्रस्तावना (Introduction) : क्षेत्रीय आकांक्षाओं से (स्वायत्तता, विकास एवं देश
में पृथक् होने आदि की इच्छाओं) जुड़े मामलों से पता चलता है कि आजादी के छह दशक बाद
भी राष्ट्रीय अखंडता के कुछ मसलों का समाधान पूरी तरह से नहीं हो पाया है। हमने देखा कि
क्षेत्रीय आकांक्षाएंँ लगातार एक न एक रूप में उभरती रहीं। कभी कहीं से अलग राज्य बनाने की
मांँग उठी तो कभी कहीं से आर्थिक विकास का मसला उठा। कहीं-कहीं से अलगाववाद के स्वर
उभरे। 1980 के बाद के दौर में भारत की राजनीति इन तनावों के घेरे में रही और समाज के विभिन्न तबके की मांँगों में पटरी बैठा पाने की लोकतांत्रिक राजनीति की क्षमता की परीक्षा हुई। हम इन उदाहरणों से निम्नलिखित पाठ (या सबक = Lesson) ग्रहण कर सकते हैं।
(1) लोकतांत्रिक राजनीति का अभिन्न अंग है (Very much part of democratic
politics) : भारत की क्षेत्रीय आकांक्षाओं के इतिहास का पहला और बुनियादी पाठ तो यही है
कि क्षेत्रीय आकांक्षाएँ लोकतांत्रिक राजनीति का अभिन्न अंग है। क्षेत्रीय मुद्दे की अभिव्यक्ति कोई
असामान्य अथवा लोकतांत्रिक राजनीति के व्याकरण से बाहर की घटना नहीं है।
उदाहरणार्थ (For Example) : ग्रेट ब्रिटेन जैसे छोटे से देश में भी स्कॉटलैंड, वेल्स और
उत्तरी आयरलैंड में क्षेत्रीय आकांक्षाएँ उभरी हैं। स्पेन में बास्क लोगों और श्रीलंका में तमिलो ने
अलगाववादी मांँग की। भारत एक बड़ा लोकतंत्र है और विभिन्नताएँ भी बड़े पैमाने पर हैं। अतः
भारत को क्षेत्रीय आकांक्षाओं से निपटने की तैयारी लगातार रखनी होगी।
(2) लोकतांत्रिक बातचीत का तरीका सर्वश्रेष्ठ (The best way is the democratic
negotiations) : हमारे देश भारत की क्षेत्रीय आकांक्षाओं के इतिहास का दूसरा अध्याय यह है
कि क्षेत्रीय आकांक्षाओं को दबाने की जगह उनके साथ लोकतांत्रिक बातचीत का तरीका अपनाना सबसे अच्छा होता है। जरा अस्सी के दशक की तरफ नजर दौड़ाएँ, पंजाब में उग्रवाद का जोर था; पूर्वोत्तर में समस्याएँ बनी हुई थीं; असम के छात्र आंदोलन कर रहे थे और कश्मीर घाटी में माहौल अशांत था। इन मसलों को सरकार ने कानून-व्यवस्था की गड़बड़ी का साधारण मामला मानकर पूरी गंभीरता दिखाई। बातचीत के जरिए सरकार ने क्षेत्रीय आंदोलनों के साथ समझौता किया। इससे सौहार्द्र का माहौल बना और कई क्षेत्रों में तनाव कम हुआ। मिजोरम के उदाहरण से पता चलता है कि राजनीतिक सुलह के जरिए अलगाववाद की समस्या से बड़े कारगर तरीके से निपटा जा सकता है।
(3) राष्ट्रीय स्तर के निर्णयों में क्षेत्रों को वजन दिया जाए (Give due sharetoregions
in the national level decisions making process) : क्षेत्रीय आकांक्षाओं के इतिहास से तीसरा सबक है सत्ता की साझेदारी के महत्व को समझना। सिर्फ लोकतांत्रिक ढाँचा खड़ा कर लेना ही काफी नहीं है। इसके साथ ही विभिन्न क्षेत्रों के दलों और समूहों को केंद्रीय राजव्यवस्था में हिस्सेदार बनाना भी जरूरी है। ठीक इसी तरह यह कहना भी नाकाफी है कि किसी प्रदेश अथवा क्षेत्र को उसके मामलों में स्वायत्तता दी गई है। क्षेत्रों को मिलाकर ही पूरा देश बनता है। इसी कारण देश की नियति के निर्धारण में क्षेत्रों की बातों को वजन दिया जाना चाहिए। यदि राष्ट्रीय स्तर के निर्णयों में क्षेत्रों को वजन नहीं दिया गया तो उनमें अन्याय और अलगाव का बोध पनपेगा।
(4) आर्थिक असमानता को प्राथमिकता के आधार पर शीघ्र-से-शीघ्र समाप्त किया
GTC (Regional imbalance in economic development should be addressed on priority basis): चौथा सबक यह है कि आर्थिक विकास के एतबार से अलग विभिन्न इलाकों के बीच असमानता हुई तो पिछड़े क्षेत्रों को लगेगा कि उनके साथ भेदभाव हो रहा है। भारत में आर्थिक विकास की प्रक्रिया का एक तथ्य क्षेत्रीय असंतुलन भी है। ऐसे में स्वाभाविक है कि पिछड़े प्रदेशों अथवा कुछ प्रदेशों के पिछड़े इलाकों को लगे कि उनके पिछड़ेपन को प्राथमिकता के आधार पर पूरा किया जाना चाहिए। वे यह भी कह सकते हैं कि भारत सरकार ने जो नीतियाँ अपनायी है उसी के परिणामस्वरूप क्षेत्रीय असंतुलन पैदा हुआ है। अगर कुछ राज्य गरीब रहें और बाकी तेजी से प्रगति करें तो क्षेत्रीय असंतुलन पैदा होगा। साथ ही, अंतरप्रांतीय अथवा अंतरक्षेत्रीय आप्रवास में भी बढ़ोत्तरी होगी।
2. द्रविड़ आंदोलन पर एक निबंध लिखिए।
उत्तर-I. द्रविड़ आंदोलन (Dravidian Movement):
प्रस्तावना (Introduction) : द्रविड़ आंदोलन भारत के क्षेत्रीय आंदोलनों में से एक
शक्तिशाली आंदोलन था देश की राजनीति में यह आंदोलन क्षेत्रीयवादी भावनाओं की सर्वप्रथम
और सबसे प्रबल अभिव्यक्ति था।
II. आंदोलन का बदला स्वरूप (Changing nature of the movement) : सर्वप्रथम
इस आंदोलन के नेतृत्व के एक हिस्से की आकांक्षा (aspiration) एक स्वतंत्र द्रविड़ राष्ट्र बनाने
की थी, परंतु आंदोलन ने तभी सशस्त्र संघर्ष (Armed Rebellion) का मार्ग नहीं अपनाया। इस आंदोलन के प्रारंभ में द्रविड़ भाषा में एक बहुत ज्यादा लोकप्रिय नारा दिया था जिसका हिंदी रूपांतर है-‘उत्तर हर दिन बढ़ता जाए, दक्षिण दिन-दिन घटता जाए’।
द्रविड़ आंदोलन अखिल दक्षिण भारतीय संदर्भ में अपनी बात रखता था लेकिन अन्य दक्षिणी
राज्यों से समर्थन न मिलने के कारण यह आंदोलन धीरे-धीरे तमिलनाडु तक ही सिमट कर रह
गया।
उपर्युक्त नारे में यह स्पष्ट है इसके संचालक देश के उत्तर और दक्षिण दो विशाल भागों में
विभाजन चाहते थे।
III. नेतृत्व और तरीके (Leadership and Methods) द्रविड़ आंदोलन का नेतृत्व तमिल
सुधारक नेता ई.वी. रामास्वामी नायकर जो पेरियार के नाम से प्रसिद्ध हुए, के हाथों में था।
पेरियार ने अपने नेतृत्व में द्रविड़ आंदोलन की मांँग आगे बढ़ाने के लिए सार्वजनिक बहसें
(PublicDebates) और चुनावी मंच (Election plateforms) का ही प्रयोग किया।
IV. आंदोलन के राजनैतिक उत्तरदायी संगठन (Political Sucessor organisation
of the Movement) :
(क) द्रविड़ आंदोलन की प्रक्रिया से एक राजनैतिक संगठन ‘द्रविड़ कषगम’ का सूत्रपात
हुआ। यह संगठन ब्राह्मणों के वर्चस्व (Domination of the Brahman) की खिलाफत (विरोध) करता था तथा उत्तरी भारत के राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक प्रभुत्व को नकारते हुए क्षेत्रीय गौरव की प्रतिष्ठा पर जोर देता था।
(ख) कालांतर में द्रविड़ कषगाम दो धड़ों में बंट गया और आंदोलन की समूची राजनीतिक
विरासत द्रविड़ मुनेत्र कषगाम के पाले में केंद्रित हो गई। 1953-54 के दौरान डी. एम. के. ने तीन
सूत्रीय आंदोलन के साथ राजनीति में कदम रखा। आंदोलन की तीन माँगें थी-पहली, कल्लाकुडभ नामक रेलवे स्टेशन का नया नाम – डालमियापुरम समस्त किया जाए और स्टेशन का मूल नाम दुबारा किया जाए। संगठन की यह माँग उत्तर भारतीय आर्थिक प्रतीकों के विरोध को प्रकट करती थी। दूसरी माँग इस बात को लेकर थी कि स्कूली पाठ्यक्रम में तमिल संस्कृति के इतिहास को ज्यादा महत्त्व दिया जाए। संगठन की तीसरी माँग राज्य सरकार की व्यावसायिक शिक्षा नीति को लेकर थी। संगठन के अनुसार यह नीति समाज में ब्राह्मण दृष्टिकोण को बढ़ावा देती थी। डी. एम. के. के हिंदी को राजभाषा का दर्जा देने के खिलाफ थी।
v. डी०एम०के० (D.M.K.) की सफलताएँ (Success of DMK) : 1965 के हिंदी विरोधी
आंदोलन की सफलता ने डी एम के को जनता के बीच और भी लोकप्रिय बना दिया। राजनीतिक
आंदोलनों के एक लंबे सिलसिले के बाद डी एम के को 1967 के विधानसभा चुनावों में बड़ी
सफलता हाथ लगी। तब से लेकर आज तक तमिलनाडु की राजनीति में द्रविड़ दलों का वर्चस्व
कायम है।
VI. डी०एम०के० का विभाजन एवं कालांतर की राजनैतिक घटनाएँ (Division of
DMK and political events) : डी एम.के. के संस्थापक सी• अन्नादुरै की मृत्यु के बाद दल
मे दोफाड़ हो गया। इसमें एक दल मूल नाम यानी डी• एम• के• को लेकर आगे चला जबकि दूसरा दल खुद को आल इंडिया अन्ना द्रमुक कहने लगा। यह दल स्वयं को द्रविड़ विरासत का असली हकदार बताता था। तमिलनाडु की राजनीति में ये दोनों दल चार दशकों को दबदबा बनाए हुए हैं।
इनमें से एक दल 1996 से केंद्र में सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा रहा है।
1990 के दशक में एम डी एम के , पी एम के , डी एम डी. जैसे कई अन्य दल अस्तित्व
में आए। तमिलनाडु की राजनीति में इन सभी दलों ने क्षेत्रीय गौरव के मुद्दे को किसी न किसी रूप
में जिंदा रखा है। एक समय क्षेत्रीय राजनीति को भारतीय राष्ट्र के लिए खतरा माना जाता था।
लेकिन तमिलनाडु की राजनीति क्षेत्रवाद और राष्ट्रवाद के बीच सहकारिता की भावना का अच्छा
उदाहरण प्रस्तुत करती है।
3. भारत के विभिन्न भागों से उठने वाली क्षेत्रीय मांँगों से ‘विविधता में एकता’ के
सिद्धांत की अभिव्यक्ति होती है। क्या आप इस कथन से सहमत है ?
All regional movements need not lead to separatist demands. Explain by
giving examples from this chapter. [NCERT T.B.Q. 8]
उत्तर-निस्संदेह मैं भारत के विभिन्न भागों से उठने वाली क्षेत्रीय मांँगों से विविधता में
एकता के सिद्धांत की अभिव्यक्ति से पूर्णतयाः सहमत हूँ। इसके पक्ष में निम्नलिखित
तर्क/मत/बिंदु/राय प्रस्तुत कर रहा हूँ-
(i) भारत विश्व का सातवाँ बड़ा देश है। आकार की दृष्टि से इसके कई प्रदेश अनेक यूरोपीय
और दुनिया के दूसरे क्षेत्रों के देशों से बड़े हैं। इसमें वर्तमान वर्ष 2007 में 28 राज्य और 7 संधीय
प्रदेश हैं। इतिहासकार मानते हैं कि सदियों से यहाँ अनेक जनजातियाँ, नृभाषी समूह, धर्मावलंबी,
भाषा-भाषायी संप्रदाय और मतों के अनुयायी, विभिन्न संस्कृतियों के लोग साथ-साथ रहते आए
हैं और उदार भारतीयों ने विश्व को एक कुटुंब मानकर विदेशों से आने वाले व्यापारियों, शिल्पकारों, धर्म प्रचारकों, दार्शनिकों, वृत्तांतकारों आदि का स्वागत किया है।
(ii) विभिन्नता में एकता यहाँ की संस्कृति की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मूल विशेषता है लेकिन
यहाँ के लोग अहिंसावादी, शांतिप्रिय होते हुए भी ‘जियो और जीने दो के सिद्धांत में विश्वास
रखते हैं। वे अपनी पहचान बनाए रखना चाहते हैं ताकि विविधताओं वाला यह देश एक उपवन
या बगीचा बना रहे। इसमें भाँति-भांँति के पेड़-पौधे, फल-फूल और पत्तियांँ उगे/रंग/हिले और
अपनी सुगंध फैलाएँ।
(iii) यदि कोई एक राज्य या राज्य सरकार या नेता अथवा राजनैतिक दल अपनी बहुसंख्यक
स्थिति को लादकर उनकी भाषा-भाषायी, निजी या व्यक्तिगत पहचान या धर्म या मत को समाप्त
करना चाहते हैं तो क्षेत्रीय-आकांक्षाएंँ या स्वायत्तता की मांग उठाना लोकतंत्र में स्वाभाविक है।
(iv) लोग जानते हैं कि लोकतंत्र में जनमत महत्त्वपूर्ण है। हर राष्ट्रध्यक्ष. प्रधानमंत्री, केंद्रीय
सरकार या मुख्यमंत्री, राज्य सरकार को मत चाहिए। वे हमारी विविधता को समाप्त नहीं कर सकते, उन्हें भारतीय संस्कृति के मूलमंत्र अर्थात् विविधता में एकता को याद कराने के लिए अपने क्षेत्र और अपनी पहचान/संस्कृति/भाषा आदि लोगों के साथ मिलकर अपनी माँग को मनवाने के लिए अपने विचारों को लिखकर, बोलकर या सभा करके अभिव्यक्त करना होगा। वे यह भी जानते है अभिव्यक्ति का अधिकार सच्चे लोकतंत्र की सबसे बड़ी राजनीतक शक्ति है। इसीलिए विभिन्न क्षेत्रों में माँगें उठती हैं। वे विविधताओं में एकता लाने के इतिहास/परंपरा और जमीनी हकीकत को यथार्थ का जामा पहनाते हैं। हमें इस लोकतंत्र का अटूट हिस्सा मानना चाहिए। हमारे देश के संविधान निर्माताओं ने सोचकर ही धार्मिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक मूल अधिकार प्रदान करने के साथ-साथ कई तरह की समानताएंँ, स्वतंत्रताएंँ दी हैं।
4. कश्मीर की क्षेत्रीय स्वायत्तता के मसले पर नियंत्रण पक्ष क्या है? इनमें कौन-सा
पक्ष आपको समुचित जान पड़ता है? अपने उत्तर के पक्ष में तर्क दीजिए।
Explain the internal divisions of the State of Jammu and Kasluir and
describe how these lead to multiple regional aspirations in that State.
[NCERT I.B.Q.5]
उत्तर-I. कश्मीर की क्षेत्रीय स्वायत्तता के मसले पर विभिन्न पक्ष (The various
aspects on the issue of regional autonomy):
बाहरी और आंतरिक विवाद (External and Internal disputes): उस समय से
जम्मू एवं कश्मीर की राजनीति हमेशा विवादग्रस्त एवं संघर्षयुक्त रही। इसके बाहरी एवं आंतरिक दोनों कारण हैं। कश्मीर समस्या का एक कारण पाकिस्तान का रवैया है। उसने हमेशा यह दावा किया है कि कश्मीर घाटी पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए। जैसा कि आप पढ़ चुके हैं कि 1947 में इस राज्य में पाकिस्तान ने कबायली हमला करवाया। इसके परिणामस्वरूप राज्य का एक हिस्सा पाकिस्तानी नियंत्रण में आ गया। भारत ने दावा किया कि यह क्षेत्र का अवैध अधिग्रहण है। पाकिस्तान ने इस क्षेत्र को ‘आजाद कश्मीर’ कहा। 1947 के बाद कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष का एक बड़ा मुद्दा रहा है। आंतरिक रूप में देखें तो भारतीय संघ में कश्मीर की हैसियत को लेकर विवाद रहा है। आप जानते हैं कि कश्मीर को संविधान में धारा 370 के तहत विशेष दर्जा दिया गया है। धारा 370 एवं 371 के तहत किए गए विशेष प्रावधानों के बारे में आपने पिछले वर्ष ‘भारतीय संविधान : सिद्धांत और व्यवहार’ में पढ़ा होगा। धारा 370 के तहत जम्मू एवं कश्मीर को भारत के अन्य राज्यों के मुकाबले ज्यादा स्वायत्तता दी गई है। राज्य का अपना संविधान है। भारतीय संविधान की सारी व्यवस्थाएँ इस राज्य में लागू नहीं होती। संसद द्वारा पारित कानून राज्य में उसकी सहमति के बाद ही लागू हो सकते हैं।
इस विशेष स्थिति से दो विरोधी प्रतिक्रियाएँ सामने आई। लोगों का एक समूह मानता है कि
इस राज्य को धारा 370 के तहत प्राप्त विशेष दर्जा देने से यह भारत के साथ पूरी तरह नहीं जुड़
पाया है। यह समूह मानता है कि धारा 370 को समाप्त कर देना चाहिए और जम्मू-कश्मीर को
अन्य राज्यों की तरह ही होना चाहिए। दूसरा वर्ग (इसमें ज्यादातर कश्मीरी है) विश्वास करता है
कि इतनी भर स्वायत्तता पर्याप्त नहीं है। कश्मीरियों के एक वर्ग ने तीन प्रमुख शिकायतें उठायी
हैं। पहला यह कि भारत सरकार ने वायदा किया था कि कबायली घुसपैठियों से निपटने के बाद
जब स्थिति सामान्य हो जाएगी तो भारत संघ में विलय के मुद्दे पर जनमत-संग्रह कराया जाएगा।
इसे पूरा नहीं किया गया। दूसरा, धारा 370 के तहत दिया गया विशेष दर्जा पूरी तरह से अमल
में नहीं लाया गया। इससे स्वायत्तता की बहाली अथवा राज्य को ज्यादा स्वायत्तता देने की मांँग
उठी।
II. मेरे मतानुसार समुचित पक्ष (According to my opinion or the well
opinions):
(क) वैसे तो मैं आज की तिथि में कक्षा बारहवीं का विद्यार्थी हूँ लेकिन प्रश्न के लिए कहे
गए उत्तर अनुसार मेरी इच्छा है कि कश्मीर को भारतीय संविधान के अंतर्गत पर्याप्त स्वायत्तता दे
दी जाए क्योंकि आधुनिक कश्मीर के जनक शेख अब्दुल्ला उनके पुत्र और पौत्र जो पर्याप्त समय तक उनके राजनैतिक उत्तराधिकारी भी रहे हैं और जम्मू-कश्मीर में अनेक भू-भाग जैसे लद्दाख और जम्मू की जनता लगभग शत-प्रतिशत आज भी अपने राज्य को भारतीय संघ में रखने और इसे धर्मनिरपेक्ष स्वरूप देने की पक्षधर है। जम्मू-कश्मीर की राजनैतिक पार्टियाँ कांग्रेस (आई), भारतीय जनता पार्टी, नेशनल फ्रंट भी पूर्णतया राष्ट्र में रखे जाने के पक्ष में हैं। ये चारों दल देश की एकता और अखंडता में विश्वास रखते हैं और यहाँ तक कश्मीर की आम जनता भी पूर्णतया शांति से जीना चाहती है। उसने आतंकवाद के कारण वर्षों से सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक हानियाँ और राजनैतिक दृष्टि से अशांत वातावरण सहा है।
(ख) जो कश्मीरी पंडित हजारों की संख्या में घर-बार छोड़कर देश या राज्यों के अन्यत्र
हिस्सों रह रहे हैं वे भी कश्मीर लौटना चाहते लेकिन उन्हें आतंकवादियों और उनके द्वारा
मजबूत किए जाने वाले लोगों द्वारा हत्याएंँ किए जाने का भय है। उनकी महिलाओं, बच्चियों की
इज्जत और परिजनों की जान खतरे में दिखाई देती है।
(ग) लोकतंत्र में चुनाव प्रतिनिधियों का निर्णय करता है। भारत का निर्वाचन आयोग अपनी
निष्पक्षता और ईमानदारी के लिए विश्वविख्यात है। कई बार संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षक आए हैं
और वे भविष्य में भी आ सकते हैं। देश का हर नागरिक संविधान की दृष्टि में समान, स्वतंत्र, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय का कानूनन अधिकारी है। जो कश्मीर का हिस्सा
पाकिस्तान के पास है वह भी भारत का है। वैसे भी कश्मीरी इतिहास धर्मनिरपेक्षता कर रहा है।
पाकिस्तान एक धर्म की राजनीति पर आधारित राज्य है। कश्मीर को सभी भारतवासी हर समय
विशेषकर गर्मियों में देखना चाहते हैं। वे हिस्से अपने राष्ट्र का मुकुट, मस्तिष्क और प्यार से धरती
पर स्वर्ग मानते हैं।
(घ) भारत में करोड़ों मुसलमान हैं। अनेक बार राष्ट्र-अध्यक्ष सेना अध्यक्ष, प्रधानमंत्री,
राज्यपाल, मुख्यमंत्री, केंद्रीय केबिनेट मंत्री, राज्य स्तरों के मंत्री अनेक ऐसे अल्पसंख्यक समुदाय
के प्रतिनिधि और अनुयायी रहे हैं। इनकी देश में केवल मात्र जनसंख्या 2 प्रतिशत के लगभग है।
अनेक मुस्लिम नेताओं को महान् माना जाता रहा है। वे राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और जम्मू-कश्मीर
के पिछले लगभग 55 वर्षों से भी ज्यादा सर्वशक्तिमान सर्वाधिक नेतागण इसी संप्रदाय के रहे हैं।
(ङ) भारत महान है और देश का हिस्सा बने रहने में सभी देशवासियों को कश्मीरियों सहित
गौरव होना चाहिए। कुछ भ्रमवश अलगाववादी हमारे एक पड़ोसी शत्रुता और ईर्ष्या की भावना
रखने वाले देश के उकसाने पर पथभ्रष्ट हो जाते हैं। समस्याएं हर राष्ट्र के जीवन में आती हैं। हमें
पूरी उम्मीद है कि कश्मीर के लोग यथार्थता को समझेंगे और भारत का समझौता उन सभी पक्षों
से हो जाएगा जो सभी के संविधान के दायरे में रखकर मान्य होगा। हमारे एक प्रधानमंत्री ने तो
पंजाब, मिजोरम और कई समझौते करके अनेक राजनीतिक समस्याओं का समाधान अपने ही
कार्यकाल में कर लिया। मानव को आशावादी होना ही श्रेष्ठकर है।
5. असम आंदोलन सांस्कृतिक अभियान आर्थिक पिछड़ेपन की मिली-जुली अभिव्यक्ति
था। व्याख्या कीजिए।
What are the various positions on the issue of regional autonomy for
Kashmir? Which of these do you think are justifiable? Give reasons for
your answer. [NCERT T.B.Q. 6]
उत्तर-असम आंदोलन का स्वरूप निःसंदेह असम आंदोलन सांस्कृतिक अभियान और
आर्थिक पिछड़ेपन की (मुख्यतः) मिली-जुली अभिव्यक्ति था। हम निम्न तथ्यों और बिंदुओं के
आधार पर इस कथन की व्याख्या कर सकते हैं-
(i) असम पूर्वोत्तर में सबसे बड़ा और ऐतिहासिक दृष्टि से प्राचीनतम राज्य रहा है। कुल
मिलाकर पूर्वोत्तर क्षेत्र में 7 राज्य या बहने हैं जिनमें चलाए गए समय-समय पर आंदोलन असम
आंदोलन के हिस्से ही हैं। पूर्वोत्तर में बड़े पैमाने पर अप्रवासी आए हैं। इससे एक खास समस्या
पैदा हुई है। स्थानीय जनता इन्हें ‘बाहरी’ समझती है और ‘बाहरी’ लोगों के खिलाफ उसके मन
में गुस्सा है। भारत के दूसरे राज्यों अथवा किसी अन्य देश से आए लोगों को यहाँ की जनता
रोजगार के अवसरों और राजनीतिक सत्ता के एतबार से एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखती है। स्थानीय लोग बाहर से आए लोगों के बारे में मानते हैं कि ये लोग यहाँ की जमीन हथिया रहे हैं। पूर्वोत्तर के कई राज्यों में इस मसले ने राजनीतिक रंग ले लिया है और कभी-कभी इन बातों के कारण हिंसक घटनाएँ भी होती हैं।
(ii) 1979 से 1985 तक चला असम आंदोलन ‘बाहरी’ लोगों के खिलाफ चले आंदोलनों
का सबसे अच्छा उदाहरण है। असमी लोगों को संदेह था कि बांग्लादेश से आकर बहुत-सी मुस्लिम आबादी असम में बसी हुई है। लोगों के मन में यह भावना घर कर गई थी कि इन विदेशी लोगों को पहचानकर उन्हें अपने देश नहीं भेजा गया तो स्थानीय असमी जनता अल्पसंख्यक हो जाएगी। कुछ आर्थिक मसले भी थे। असम में तेल, चाय और कोयल जैसे प्राकृतिक संसाधनों की मौजूदगी के बावजूद व्यापक गरीबी थी। यहाँ की जनता ने माना कि असम के प्राकृतिक संसाधन बाहर भेजे जा रहे हैं और असमी लोगों को कोई फायदा नहीं हो रहा है।
(iii) 1979 में ऑल असम स्टूडेंटस् यूनियन (आसू-AASU) ने विदेशियों के विरोध में एक
आंदोलन चलाया। ‘आसू’ एक छात्र संगठन था और इसका जुड़ाव किसी भी राजनीतिक दल से
नहीं था। ‘आसू’ का आंदोलन अवैध अप्रवासी, बंगाली और अन्य लोगों के दबदबे तथा मतदाता दर्ज कर लेने के खिलाफ था। आंदोलन की मांग थी कि 1951 के बाद जितने भी लोग असम में
आकर बसे है उन्हें असम से बाहर भेजा जाए। इस आंदोलन ने नए तरीकों को आजमाया और
असमी जनता के हर तबके का समर्थन हासिल किया।
इस आंदोलन को पूरे असम में समर्थन मिला। आदोलन के दौरान हिंसक और त्रासद घटनाएँ
भी हुईं। बहुत-से लोगों को जान गंवानी पड़ी और धन-संपत्ति का नुकसान हुआ। आंदोलन के
दौरान रेलगाड़ियों की आवाजाही तथा बिहार स्थित बरौनी तेलशोधक कारखाने को तेल-आपूर्ति
रोकने की भी कोशिश की गई।
(iv) समझौता (Agreement) : छह साल की सतत अस्थिरता के बाद राजीव गाँधी के
नेतृत्व वाली सरकार ने ‘आसू’ के नेताओं से बातचीत शुरू की। इसके परिणामस्वरूप 1985 में
एक समझौता के अंतर्गत तय किया गया कि जो लोग बांग्लादेश-युद्ध के दौरान अथवा उसके
बाद के सालों में असम आए हैं, उनकी पहचान की जाएगी और उन्हें वापस भेजा जाएगा। आंदोलन की कामयाबी के बाद ‘आसू’ और असमगण संग्राम परिषद् ने साथ मिलकर अपने को एक क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टी के रूप में संगठित किया। इस पार्टी का नाम असमगण परिषद् रखा गया। असमगण परिषद् 1985 में इस वायदे के साथ सत्ता में आई थी कि विदेशी लोगों की समस्या को सुलझा लिया जाएगा और एक ‘स्वर्णिम असम का निर्माण किया जाएगा।
(v) शांति प्रदेश और क्षेत्र (Peace in Province and Area) : असम-समझौता से शांति
कायम हुई और प्रदेश की राजनीति का चेहरा भी बदला लेकिन ‘अप्रवास’ की समस्या का समाधान नहीं हो पाया। ‘बाहरी’ का मसला अब भी असम और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में राजनीति में एक जीवंत मसला है। यह समस्या त्रिपुरा में ज्यादा गंभीर है क्योंकि यहाँ के मूलनिवासी खुद अपने ही प्रदेश में अल्पसंख्यक बन गए हैं। मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश के लोगों में भी इसी भय के कारण चकमा शरणार्थियों को लेकर गुस्सा है।
6. जम्मू-कश्मीर की अंदरूनी विभिन्नताओं की व्याख्या कीजिए और बताइए कि इस
राज्य में किस तरह अनेक आकांक्षाओं ने इन विभिन्नताओं के कारण सिर उठाया है?
Explain the internal divisions of the State of Jammu and Kashmir and
describe how these lead to multiple regional aspirations in that State.
[NCERT T.B.Q.5]
उत्तर-अंदरूनी विभिन्नताएँ (Internal diversities) : जम्मू एवं कश्मीर में तीन
राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्र शामिल हैं-जम्मू, कश्मीर और लद्दाख। कश्मीर घाटी को कश्मीर
के दिल के रूप में देखा जाता है। कश्मीरी बोली बोलने वाले ज्यादातर लोग मुस्लिम हैं। बहरहाल, कश्मीरी भाषी लोगों में अल्पसंख्यक हिंदू भी शामिल हैं। जम्मू क्षेत्र पहाड़ी तलहटी एवं मैदानी इलाके का मिश्रण है, जहाँ हिंदू, मुस्लिम और सिख यानी कई धर्म और भाषाओं के लोग रहते हैं। लद्दाख पर्वतीय इलाका है, जहाँ बौद्ध एवं मुस्लिमों की आबादी है, लेकिन यह आबादी बहुत कम है।
मुद्दे का स्वरूप (Nature of issue) : ‘कश्मीर मुद्दा’ भारत और पाकिस्तान के बीच सिर्फ
विवाद भर नहीं है। इस मुद्दे के कुछ बाहरी तो कुछ भीतरी पहलू हैं। इसमें कश्मीरी पहचान का
सवाल जिसे कश्मीरियत के रूप में जाना जाता है, शामिल है। इसके साथ ही साथ जम्मू कश्मीर
की राजनीतिक स्वायत्तता का मसला भी इसी से जुड़ा हुआ है।
अनेक आकांक्षाओं का सिर उठाना (Rise of several type of Aspiration) :
(i) धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने की अब्दुल्ला का आकांक्षा (Aspiration of Sheikin
Abdulla to make a Secular state) : 1947 से पहले जम्मू एवं कश्मीर में राजशाही थी।
इसके हिंदू शासक हरि सिंह भारत में शामिल होना नहीं चाहते थे और उन्होंने अपने स्वतंत्र राज्य
के लिए भारत और पाकिस्तान के साथ समझौता करने की कोशिश की। पाकिस्तानी नेता सोचते
थे कि कश्मीर, पाकिस्तान से संबद्ध है, क्योंकि राज्य की ज्यादातर आबादी मुस्लिम है। बहरहाल
यहाँ के लोग स्थिति को अलग नजरिए से देखते थे। वे अपने को कश्मीरी सबसे पहले, कुछ और बाद में मानते थे। राज्य में नेशनल कांफ्रेंस के शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में जन-आंदोलन चला।
शेख अब्दुल्ला चाहते थे कि महाराजा पद छोड़ें, लेकिन वे पाकिस्तान में शामिल होने के खिलाफ
थे। नेशनल कांफ्रेंस एक धर्मनिरपेक्ष संगठन था और इसका कांग्रेस के साथ काफी समय तक
गठबंधन रहा। राष्ट्रीय राजनीति के कई प्रमुख नेता शेख अब्दुल्ला के मित्र थे। इनमें नेहरू भी
शामिल हैं।
जम्मू-कश्मीर के आक्रमणकारियों से प्रतिरक्षा कराने को आकांक्षा, चुनाव और
लोकतंत्र स्थापन की आकांक्षा (To Defend jammu Kashmuralong with aspiration
toestablishdemocracyaftergener al election): अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान ने कबायली घुसपैठियों को अपनी तरफ से कश्मीर पर कब्जा करने भेजा। ऐसे में महाराजा भारतीय सेना से मदद मांँगने को मजबूर हुए। भारत ने सैन्य मदद उपलब्ध कराई और कश्मीर घाटी से घुसपैठियों को खदेड़ा। इससे पहले भारत सरकार ने महाराज से भारत संघ में विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करा लिए। इस पर सहमति जताई गई कि स्थिति सामान्य होने पर जम्मू-कश्मीर की नियति का फैसला जनमत सर्वेक्षण के द्वारा होगा। मार्च 1948 में शेख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर राज्य के प्रधानमंत्री बने (राज्य में सरकार के मुखिया को तब प्रधानमंत्री कहा जाता था)। भारत, जम्मू एवं कश्मीर की स्वायत्तता को बनाए रखने पर सहमत हो गया। इसे संविधान धारा 370 का प्रावधान करके संवैधानिक दर्जा दिया गया।
7. हर क्षेत्रीय आंदोलन अलगाववादी मांँग की तरफ अग्रसर नहीं होता। इस अध्याय
से उदाहरण देकर इस कथन की व्याख्या कीजिए।
All regional movements need not lead to separatist demands. Explain by
giving examples from this chapter. [NCERT T.B.Q.8]
उत्तर-प्रस्तावना (Introduction): भारत विभिन्नताओं का देश है। ऐसे लोकतांत्रिक
देश में स्वायत्तता की माँग स्वाभ राजनीति-व्यवस्था का अंग होता है। निःसंदेह देश के अनेक
भागों में स्वतंत्रता के बाद से ही आंदोलन हुए। आंदोलनों में शामिल कुछ लोगों ने अपनी मांँग
के पक्ष में हथियार उठाए। सरकार ने उनको दबाने में जवाबी कार्यवाही की। कई बार राजनैतिक
और क्रमिक चुनाव प्रतिक्रिया अवरुद्ध हुई। हैरानी की बात नहीं कुछ आंदोलन समय तक जारी हैं। इन संघर्षों पर विराम लगाने के लिए सरकार को सुलह की बातचीत का रास्ता अपनाना या समझौता करना पड़ा। कई लंबी बातचीत के बाद समझौता हुआ लेकिन नगालैंड और मिजोरम को छोड़कर कोई भी अलगाववादी आंदोलन लंबे समय तक नहीं चला।
हम इस अध्याय में वर्णित सभी आंदोलनों को एक-एक करके लेंगे।
(i) जम्मू एवं कश्मीर : जम्मू एवं कश्मीर के राजा ने स्वयं भारतीय संघ में मिलने की
सहमति फार्म पर हस्ताक्षर किए। वहाँ राजशाही के विरुद्ध लोकतंत्र के समर्थन में नेशनल कांफ्रेस के नेता शेख अब्दुल्ला जन नायक थे। वह नेहरू प्रधानमंत्री के परम मित्र थे और उन्होंने खुलेआम कभी भी देश के अलग होने के लिए स्वयं हथियार नहीं उठाए। उन्होंने समझौता किया। यह राज्य के प्रधानमंत्री कहलाए। धारा 370 के आधीन विशेष दर्जा प्राप्त किया लेकिन कुछ आतंकवादी अलगाववादियों को छोड़ दें तो आजतक जितने जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री या राज्यपाल हुए थे देश के संविधान के प्रति निष्ठावान रहे हैं। 1989 के बाद अलगाववादी राजनीति ने सिर उठाया। उसके समर्थन में आज भी सच्चाई यह है कि बहुमत नहीं है। मुख्यतः राजनीति आकांक्षाओं का सवाल मूलतः इस समस्या से जुड़ा है।
(ii) दक्षिण भारत में केवल द्रविड़ आंदोलन से जुड़े कुछ समूहों ने एक समय तक हिंदी
लादे जाने या ब्राह्मणवाद लादे जाने के भय से केवल उस समय के लिए अलग राष्ट्र की बात
उठाई थी। दक्षिण भारत के अनेक लोग राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा स्पीकर आदि महत्त्वपूर्ण पदों के साथ साथ केंद्रीय मंत्रिमंडल में बड़ी संख्या में केबिनेट मंत्री रह चुके हैं। अब तो वहाँ की दो प्रमुख पार्टियां तमिलनाडु की और शेष तीन राज्य को सभी पाटियाँ किसी-न-किसी गठबंधन सरकार का हिस्सा या समर्थक केंद्र में भी अनेक बार रह चुकी हैं।
(iii) पूर्वोत्तर के कुछ भागों में भारत का अंग होने पर सहमति नहीं थी लेकिन सबसे
बड़े आकार के राज्य असम या अन्य चार राज्यों में कभी ऐसे पीड़ाजनक स्वर नहीं उठे। केवल
नगालैंड में और फिर मिजोरम में भारत से अलग होने की माँग जोरदार आंदोलनों के रूप में चलाई गई। अब आंशिक रूप से नगालैंड की समस्या को अनसुलझा या अनिर्णायक कहा जा सकता है बाकी छः के छः राज्यों में आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से स्वायत्तता या कुछ राजनीतिक व्यवस्थाएंँ की जाने की मांँगें मुख्यतः स्थानीय लोगों की मांँगों के हितों से जुड़ी हैं। भारत एक महान एक सच्चा विश्व का सर्वाधिक बड़ा लोकतांत्रिक राष्ट्र है। तभी तो सिक्किम ने सहर्ष जनमत द्वारा भारत का 22 वांँ राज्य बनना स्वेच्छा से स्वीकार किया। वह सर्वाधिक शांतिप्रिय राज्य माना जाता है।
(iv) पंजाब में अलगाववाद की बातें तब उठी जब कुछ निहित स्वार्थी राजनीतिज्ञों के
अपने स्वार्थ डगमगाने लगे। आनंदपुर प्रस्ताव के बाद कुछ लोगों ने खालिस्तान बनाने की वकालत की लेकिन वह अब पुरानी हो चुकी है। 1984 के बाद से लेकर अब तक कई चुनाव हुए। अकाली भाजपा गठबंधन या नेशनल कांग्रेस पार्टी की सरकारें बनीं। देश के प्रधानमंत्री एक सिख नागरिक हैं और पंजाब में अब अलगाववाद की समस्या नहीं है।
(v) निःसंदेह विदेशियों विशेषकर बंगलादेशियों के विरुद्ध जो आवाज उठाई जाती है वह
सांस्कृतिक, आर्थिक दृष्टि से ठीक है। लाखों बंगला देशी लोग अपने देश लौटे। 1947 के पहले
वे बंगला देश के निवासी (पूर्व पाकिस्तान के रूप में और 1971 से बंगला देश के नागरिकों के
रूप में) हैं। उनके आने से हमारे पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों की भाषा संस्कृति, आर्थिक हितों, रोजगार, कृषि भूमि, पहचान आदि पर खतरे के साथ-साथ संपूर्ण देश की सुरक्षा, एकता, अखंडता के लिए खतरा पन्न होता है। हमें दूर अंदेशी बनना चाहिए। अब रामायण महाकाव्य कला में चित्रित की गई मंथरा का जमाना नहीं है जिसमें उस महिला के मुंह से ”कोउ नृप होए हमहि का हानी। चेरी छाड़ि की होउब रानी।” अब लोकतंत्र है अगर लाखों लोग वेरोकटोक आएंँगे, यहीं रहेंगे तो असंतोष की भावना व्याप्त होगी। प्रतिरक्षा के जिम्मेदार अधिकारियों और सरकार का यह प्रथम महत्वपूर्ण दायित्त्व और कर्तव्य है कि वह तुरंत-से-तुरंत विदेशियों को बाहर करके अनेक प्रदेशों में पड़ने वाले बोझ, सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, जातिगत आदि खतरों और भय से लोगों को मुक्त करे ताकि अलगाववाद के बाहरी कारक प्रबल न हो सकें।
8. पंजाब संकट तथा 1984 के सिख विरोधी दंगों का संक्षिप्त रूप से विवेचन कीजिए।
1985 तथा 2005 की महत्त्वपूर्ण राजनीतिक घटनाओं का जो इससे जुड़ी हुई थी का
भी संक्षिप्त उल्लेख कीजिए।
उत्तर-(i) पंजाब संकट (Paijab Crisis):
(1) 1980 की राजनीतिक या चुनावी हार के बाद से ही अकालियों के नेतृत्व में सिखों ने केंद्र
सरकार के विरुद्ध संघर्ष छेड़ दिया था। कांग्रेस की आंतरिक गुटबंदी की उठा-पटक ने इस संघर्ष
में जान डाल दी।
(2) उस समय आंदोलन जिन मांँगों को लेकर किया गया उनमें से प्रमुख माँगें ये थीं-
(i) अन्य राज्यों के पंजाबी भाषी क्षेत्र पंजाब में मिलाए जाएँ, (ii) चंडीगढ़ को पंजाब की
राजधानी माना जाए, (iii) भाखड़ा-नांगल योजना पंजाब के नियंत्रण में हो, (iv) पंजाब में भारी
उद्योग स्थापित किए जाएँ. (v) शिरोमणि गुरूदारा प्रबंधक कमेटी के प्रबंध में देश के सभी गुरुद्वारे हों।
(3) संत भिंडरवाला उग्रवादी प्रकृति का था। उसने सिख युवकों की एक विशाल वाहिनी
आपने चारों ओर एकत्रित कर ली और आनंदपुर साहब प्रस्ताव की पूर्ति के नाम पर सिखों का
अलग राज्य बनाने के लिए उकसाया।
(4) सिख विरोधी दंगे (Anti Sikh Riots) : दिसंबर 1983 में जब केंद्रीय सरकार पर
भिंडरवाले (Bindranwale) को गिरफ्तार करने के लिए दबाव पड़ रहा था, तब वह तथा उसके
असंख्य हथियारबद्ध समर्थकों ने स्वर्ण मंदिर के दायरे में मौजूद सबसे अधिक पावन भवन ‘अकाल तख्त’ में प्रवेश कर लिया। जब यह संत इस सुरक्षित स्थान में प्रवेश कर गया था, तब यह स्थान जिसे अब तक सुरक्षित समझा जाता था, इसमें ‘दंड’ की बाद प्रारंभ हुई और अन्य प्रकार की ‘कार्यवाहियाँ’ पंजाब के सभी स्थानों में प्रारंभ हो गईं।
(5) दंगों का कारण (Cause of Riots) : (i) 1984 के जून माह में भारत सरकार ने
‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ चलाया। यह स्वर्णमंदिर में की गई सैन्य कार्रवाई का कूट नाम था। इस
सैन्य-अभियान में सरकार ने उग्रवादियों को तो सफलतापूर्वक मार भगाया लेकिन सैन्य कार्रवाई
से ऐतिहासिक स्वर्णमंदिर को क्षति भी पहुंची। इससे सिखों की भावनाओं को गहरी चोट लगी।
भारत और भारत से बाहर बसे अधिकतर सिखों ने सैन्य-अभियान को अपने धर्म-विश्वास पर
हमला माना। इन बातों से उग्रवादी और चरमपंथी समूहों को और बल मिला।
(ii) कुछ और त्रासद घटनाओं ने पंजाब की समस्या को एक जटिल रास्ते पर ला खड़ा
किया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की 31 अक्तूबर 1984 के दिन उनके आवास के बाहर उन्ही के
अंगरक्षकों ने हत्या कर दी। एक तरफ पूरा देश इस घटना से शोक-संतप्त था तो दूसरी तरफ
दिल्ली सहित उत्तर भारत के कई हिस्सों में सिख समुदाय के विरुद्ध हिंसा भड़क उठी। यह हिंसा
कई हफ्तों तक जारी रही।
(iii) दो हजार से ज्यादा की तादाद में सिख दिल्ली में मारे गए। देश की राजधानी दिल्ली
इस हिंसा से सबसे ज्यादा प्रभावित हुई थी। कानपुर, बोकारो और चास जैसी देश के कई जगहों
पर सैकड़ों सिख मारे गए। कई सिख परिवारों में कोई भी पुरुष न बचा। इन परिवारों को गहरा
भावनात्मक आघात पहुंँचा और आर्थिक हानि उठानी पड़ी। सिखों को सबसे ज्यादा दुख इस बात का था कि सरकार ने स्थिति को सामान्य बनाने के लिए बड़ी देर से कदम उठाए। साथ ही, हिंसा करने वाले लोगों को कारगर तरीके से दंड भी नहीं दिया गया।
(6) दो जुड़ी घटनाएँ (Two connected events) : (i) 1984 के चुनावों के बाद सत्ता में
आने पर नए प्रधानमंत्री राजीव गांँधी ने नरमपंथी अकाली नेताओं से बातचीत की शुरुआत की।
अकाली दल के तत्कालीन अध्यक्ष हरचरन सिंह लोंगोवाल के साथ 1985 की जुलाई में एक
समझौता हुआ। इस समझौते को राजीव गांधी लोंगोवाल समझौता अथवा पंजाब समझौता कहा
जाता है।
(ii) प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2005 में संसद में अपने भाषण के दौरान इस रक्तपात पर
अफसोस जताया और सिख-विरोधी हिंसा के लिए देश से माफी मांगी।
★★★