10th hindi

bihar board 10 hindi | जनतंत्र का जन्म

bihar board 10 hindi | जनतंत्र का जन्म

 जनतंत्र का जन्म
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-रामधारी सिंह दिनकर
*कविता का सारांश:-
आधुनिक काल में राष्ट्रीय चेतना के उद्घोषक राष्ट्रकवि दिनकर देश में जनतंत्र की स्थापना की घोषणा करते हुए कहते हैं-सदियों गुलामी झेलने के पश्चात जनतंत्र आ रहा है, समय की पुकार सुनो और जल्दी से सिंहासन छोड़ो, जनता खुद आ रही है सिंहासनारूढ़ होने ।
हाँ, वही जनता आ रही है, जो अबोध मिट्टी की मूरत-सी, जाड़ा-पाला सहती रही है और अंग-अंग चूसे जाने पर मुँह नहीं खोलती। वही जनता जिसके बारे में बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, कहा जाता है कि वह बहुत कष्ट सहती है, वह क्या कहती है, यह जानना चाहिए ! जैसे जनता फूल हो कि उसे तोड़कर डाली में सजा लिया जाए या वह दुधमुंही बच्ची से जिसे चंद खिलौनों से बहला लिया जाता रहा है। वही जनता आ रही है।
लोग नहीं जानते कि जनता को जब क्रोध आता है, भृकुटि टेढ़ी होती है तो ऐसे भूचाल आते हैं बड़े-बड़े राजमहल भरभराकर गिर पड़ते हैं, उनके क्रोध की आँधी में न जाने कितनी ताजी हवा हो जाती है। जनता को कोई रोक नहीं सकता। जनता स्वयं समय की धारा बदल देती है।
सदियों के कंधवार की छाती चीर जनता के सपनों का मूर्त जनतंत्र आ गया है। अब एक नहीं तैंतीस कोटि लोगों को सिंहासन की जरूरत है। अब राजा का राज नहीं, प्रजा का राज चलेगा, तैंतीस करोड़ लोग इस देश के स्वामी होंगे। हर आदमी को राजप्रसादों, ऊँची अटारियों में रहनेवाला का राज नहीं चलेगा, राज होगा मेहनतकशों और मजदूरों का, किसानों, हलवाहों का।
अब देश की जनतांत्रिक व्यवस्था में राज फावड़े और हल होंगे, श्रम राष्ट्र का प्रतीक होगा। अब उनका स्वर्ण शृंगार होगा, जो धूल-धूसरित है। समय की यही पुकार है । समय के रथ की हर्हर ध्वनि सुनो और उस पर सवार आ रही जनता के लिए सिंहासन खाली करो।

* सरलार्थ *
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उत्तर छायावाद के प्रखर कवि रामधारी सिंह दिनकर एक कवि ही नहीं समर्थ गद्यकार है। वे भारतेन्दु युग के प्रवाहमान राष्ट्रीय भावधारा के एक महत्त्वपूर्ण आधुनिक कवि हैं । उन्होंने प्रबंध मुक्तक, गीत-प्रगीत, काव्यनाटक आदि अनेक काव्य शैलियों में सफलतापूर्वक उत्कृष्ट रचनाएँ प्रस्तुत की हैं। भारतीय और पाश्चात्य साहित्य का उनका अध्ययन अनुशीलन विस्तृत एवं गंभीर है !
प्रस्तुत कविता में स्वाधीन भारत में जनतंत्र के उदय का जयघोष है। सदियों बाद भास्ट विदेशी पराधीनता से मुक्त होकर जनतंत्र की प्राण-प्रतिष्ठा की है । आज भारत का दाज पहनकर इठला रहा है । मिट्टी की मूर्ति की तरह मूर्तिमान रहनेवाले आज अपना मुँह खोल दिया
है । वेदना को सहनेवाली जनता हुँकार भर रही है । जनता का रुख जिधर जाता है उधर बवंडर उठने लगते हैं । आज राजा नहीं प्रजा का अभिषेक होनेवाला है। आज का देवता मंदिरों, सातादों में नहीं खेत-खलिहानों में हैं । वस्तुतः कवि जनतंत्र के ऐतिहासिक और राजनीतिक अभिप्रायों को उजागर करते हुए एक नवीन भारत का शिलान्यास-सा करता है जिसमें जनता ही स्वयं सिंहासन पर आरूढ़ होने को है।

पद्यांश पर आधारित अर्थ ग्रहण-संबंधी प्रश्न
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(1) सदियों की ठंठी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

(i) उपर्युक्त पद्यांश के रचनाकार कौन हैं ?
उत्तर-रामधारी सिंह दिनकर ।

(ii) प्रस्तुत पंक्तियाँ किस कविता से उद्धृत हैं ?
उत्तर – जनतंत्र का जन्म ।

(iii) कवि कैसी ठंडी-बुझी राख की चर्चा करता है?
उत्तर-सदियों से भारत पराधीनता की बेड़ियों में आबद्ध था। आज हम स्वाधीनता की लड़ाई में विजयी हुए हैं। एक नये लोकतंत्र का जन्म हो रहा है। हमारी चेतना जो युगों-युगों से पराधीनता के कारण सो गयी थी, लेकिन उसकी चिनगारी राख की बुझी ढेरी में सुलग रही थी,
उसने आज अपने विकराल रूप को धारण कर लिया है। सुषुप्त चेतना के जाग्रत रूप की चर्चा कवि ने अपनी कविता में किया है, उसी कविता द्वारा इसकी महत्ता का गुणगान आज हो रहा है। हम जग गए हैं। लोकतंत्र का अभ्युदय हुआ है।

(iv) कवि किसके लिए सिंहासन खाली करने को कहता है?
उत्तर-कवि जनता के लिए सिंहासन खाली करने को कहता है क्योंकि लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि है, उसका स्थान लोक देवता का है।

(v) प्रस्तुत कविता का भावार्थ लिखें ।
उत्तर-प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के जनतंत्र का जन्म काव्य-पाठ से ली गयी हैं।
इन काव्य पंक्तियों के द्वारा कवि दिनकर ने कहा है कि सदियों की ठंढी और बुझी हुई राख में सुगबुगाहट दिखायी पड़ रही है, कहने का भाव यह है कि क्रांति की चिनगारी अब भी अपनी गरमी के साथ प्रज्ज्वलित रूप ले रही है। मिट्टी यानी जनता सोने का ताज पहनने के लिए आकुल-व्याकुल है राह छोड़ो, समय साक्षी है-जनता के रथ के पहियों की घर्घर आवाज साफ
सुनायी पड़ रही है। अरे शोपकों! अब भी चेतो और सिंहासन खाली करो-देखो, जनता आ रही है। उन पंक्तियों के द्वारा आधुनिक भारतीय लोकतंत्र की व्याख्या करते हुए जनता के महत्व को कवि ने रेखांकित किया है। कवि जनता को ही लोकतंत्र के लिए सर्वोपरि मानता है। वह जन प्रतिनिधियों से चलनेवाले लोकतंत्र की विशेषताओं का वर्णन करता है। सदियों से पीड़ित, शोषित, दमित जनता के सुलगते-उभरते क्रांतिकारी विचारों भावनाओं से सबको अवगत कराते हुए सचेत
किया है। उसने, उसे नमन करने और समय-चक्र को समझने के लिए विवश किया है।

(2) जनता? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें दही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे साँप हो चूस रहे,
तब भी न भी मुँह गोल दर्द कहनेवाली।

(i) उपर्युक्त पद्यांश के रचनाकार कौन हैं ?
उत्तर-रामधारी सिंह दिनकर ।

(ii) प्रस्तुत पंक्तियाँ किस कविता से उद्धृत हैं ?
उत्तर-जनतंत्र का जन्म ।

(iii) कवि ने अबोध मूरतें किसे कहा है?
उत्तर- कवि ने जनता को अबोध मूरतें कहकर संबोधित किया है, क्योंकि जनता मूक रहकर सारी पीड़ाओं को झेलती है, प्रतीत होता है कि ये अबोध मूरतें हैं। इन्हें पीड़ाओं का अहसास ही नहीं होता। ये अनजान, अबोध-सी हैं।

(iv) किसके अंग में लगे साँप चूस रहे हैं?
उत्तर-जब जाड़े-पाले में जनता ठिठुर-ठिठुर कर रातें काटती हैं और कंपकंपाती ठंढ के दंश को सहती है, उसे ही साँप के दंश से तुलना करते हुए कवि ने कंपकंपाती शीतलहर की चुभन को सर्प-दंश कहा है साँप रूपी ठंढ जनता के अंग-अंग को डंस रही है और खून चूस रही है।

(v) प्रस्तुत कविता का भावार्थ लिखें।
उत्तर-प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक जनतंत्र का जन्म काव्य पाठ से ली गयी हैं। इन काव्य पंक्तियों के द्वारा कवि दिनकर ने जनता की प्रशंसा में काव्य-रचना किया है। कवि कहता है कि जनता सचमुच में मिट्टी की अबोध मूरतें ही हैं। जनता की पीड़ा व्यक्त नहीं की जा सकती। वह जाड़े की रात में जाड़ा-पाला को सामान्य ढंग से सहन करते हुए जीती है उसकी
कसक को वह हिम्मत के साथ सह लेती है। तनिक भी आह नहीं करती। ठंढ से कंपकपाता शरीर, लगता है कि हजारों साँप डॅस रहे हैं, कितनी पीड़ा व्यथा को सहकर वह जीती है, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। इतनी पीड़ा, दु:ख को सहकर भी वह अपनी व्यथा कभी व्यक्त नहीं करती।
कवि ने जनता की हिम्मत और कष्ट सहने की आदत को कितनी मार्मिकता के साथ व्यक्त किया है। इन पंक्तियों के द्वारा कवि ने भारतीय जनजीवन की आर्थिक विपन्नता और मानसिक पीड़ा को अभिव्यक्ति दी है। उसने भारत की गरीबी, बेकारी, अभावग्रस्तता का सटीक वर्णन किया है। उसकी यानी जनता की बेबसी, बेकारी, लाचारी और शारीरिक पीड़ा, भोजन-वस्त्र, आवास की कमी की ओर कवि ने सबका ध्यान आकृष्ट किया है। कवि का कोमल हृदय भारतीय जन की दयनीय अवस्था से पीड़ित है। वह उसके लिए ममत्व रखता है और भविष्य में उसकी महत्त की ओर इंगित भी करता है।

(3) जनता? हाँ, लंबी-बड़ी जीभ की वही कसम,
“जनता, सचमुच ही, बड़ी वेदना सहती है।’
“सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है?”
“है प्रश्न गूढ़ ; जनता इस पर क्या कहती है?”

(i) उपर्युक्त पद्यांश के रचनाकार कौन हैं ?
उत्तर-रामधारी सिंह दिनकर ।

(ii) प्रस्तुत पंक्तियाँ किस कविता से उद्धृत हैं ?
उत्तर-जनतंत्र का जन्म |

(iii) कौन बड़ी वेदना सहती है?
उत्तर- कवि की दृष्टि में जनता मूक बनकर बड़ी वेदना सहती है। वह निर्दोष एवं निष्कलुष है फिर भी सारी पीड़ाओं के बीच वह जीती है।

(iv) कवि की दृष्टि में जनता की वेदना के प्रति जनमत क्या है?
उत्तर-लोकतंत्र या जनतंत्र जब जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा शासन है, तब फिर ऐसी बिडंबना क्यों? जनमत के आधार पर जब लोकतंत्र बनता है तब भी जनता ही बेहाल, बेकार, अभावग्रस्त क्यों है? जनमत इस पर मौन क्यों है? जबतक जनता की वेदना के प्रति हम असहिष्णु बने रहेंगे तबतक सच्चा लोकतंत्र हो ही नहीं सकता।

(v) प्रस्तुत कविता का भावार्थ लिखें।
उत्तर-प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक ‘जनतंत्र का जन्म’ काव्य पाठ से ली गयी हैं। इन पंक्तियों में कवि के कहने का भाव यह है कि जनता असह्य वेदना को सहकर जीती है। जीवन में वह उफ तक नहीं करती। कवि शपथ लेकर कहता है कि लंबी-चौड़ी जीभ की बातों पर विश्वास किया जाय। कसम के साथ यह कहना है कि कवि की पीड़ा को शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता है। जनमत का सही-सही अर्थ क्या है? कवि राजनीतिहों से पूछता है और जानना चाहता है। यह प्रश्न बड़ा गंभीर और प्रासंगिक है। ऐसी अपनी विषम स्थिति पर जनता की क्या सोच है? राजनेताओं की डींग भरी बातों में कहीं उनकी पीड़ा या वेदना का जिक्र है क्या?

इन पक्तियों के द्वारा कवि जनता की पीडा, उसकी विपन्नता, कसक और उत्पीड़न भरी जिन्दगी की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हुए चेतावनी देता है और लोकतंत्र का मजाक उड़ाने से मना करता है।

(4) ‘मानो, जनता हो फूल जिसे एहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दुधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।’

(i) उपर्युक्त पद्यांश के रचनाकार कौन हैं ?
उत्तर-रामधारी सिंह दिनकर ।

(ii) प्रस्तुत पंक्तियाँ किस कविता से उद्धृत हैं ?
उत्तर-जनतंत्र का जन्म ।

(iii) कवि ने जनता को फूल के रूप में क्यों कहा है?
उत्तर-जनता की पीड़ा से, अभावग्रस्तता से कवि भाव-विहुवल होकर कहता है कि जनता कितनी निर्दोष और अबोध है। हम उसी के बल पर शासन चलाते हैं किन्तु उसके महत्त्व को नकार कवि कहता है कि जनता के साथ हम फूल-सा व्यवहार करते हैं। जब चाहा तोड़ लिया और दोनों में जैसे चाहा वैसे सजा लिया। कहने का भाव यह है कि हमने जनता के भोलापन का नाजायज लाभ उठाया और उसके महत्त्व, दुख-दर्द का ख्याल नहीं रखा।

(iv) कवि ने दुधमुंही बच्ची किसे कहा है?
उत्तर-कवि ने व्यंग्य में जनता को दुधमुंही बच्ची के रूप में संबोधित किया है। जैसे बच्ची को दो-चार खिलौनों के सहारे हम भरमा लेते हैं, ठीक उसी प्रकार भोली-भाली जनता को भी झूठे वादों के बल पर हम भरमा लेते हैं।

(v) प्रस्तुत कविता का भावार्थ लिखें।
उत्तर-प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘जनतंत्र का जन्म’ काव्य-पाठ से ली गयी हैं। इन पंक्तियों के द्वारा कवि ने जनता को फूल के समान नहीं समझने और देखने को कहा है। कवि का भाव जनता के प्रति बड़ा ही पवित्र है। वह कहता है कि जनता फूल नहीं है कि जब
चाहो दोनों में सजा लो और जहाँ चाहो वहाँ रख दो। जनता दुधमुंही बच्ची भी नहीं है कि उसे बरगला कर काम बना लोगे। वह झूठी-मूठी बातों से भरमाई नहीं जा सकती। यंत्र-मंत्र रूपी खिलौनों से भी वश में नहीं की जा सकती। जनता का हृदय सेवा और प्रेम से ही जीता जा सकता है। अतः, जनता को समादर के साथ उचित तरजीह और अधिकार मिलना चाहिए। उसके हक की रक्षा होनी चाहिए। सम्मान और सहभागिता भी सही होनी चाहिए।

(5) लेकिन, होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

(i) उपर्युक्त पद्यांश के रचनाकार कौन हैं ?
उत्तर-रामधारी सिंह दिनकर ।

(ii) प्रस्तुत पंक्तियाँ किस कविता से उद्धृत हैं ?
उत्तर-जनतंत्र का जन्म ।

(iii) भूडोल, बवंडर कब उठते हैं?
उत्तर-कवि की दृष्टि में जनता जब असहनीय पीड़ा से व्यग्र होकर हुँकार करती है, तब धरती डोलने लगती है। वायुमंडल में बवंडर उठ जाता है।

(iv) किसके रथ का घर्घर-नाद सुनायी पड़ता है?
उत्तर-कवि कहता है कि काल-चक्र बड़ा क्रूर और न्यायी होता है। वह किसी को नहीं छोड़ता। समय के रथ के घर्घर-नाद को ध्यान से सुनो!अब सिंघासन पर जनता को बिठाओ।
जनता को लोक देवता के रूप में प्रतिष्ठापित करो। काल की गति बडी न्यारी है।

(v) प्रस्तुत कविता का भावार्थ लिखें ।
उत्तर-प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘जनतंत्र का जन्म’ काव्य पाठ से ली गयी हैं। इस कविता में जनता की अजेय शक्ति का वर्णन किया गया है। जनता के पास अपार शक्ति है। जनता जब हुँकार भरती है तब भूकंप आ जाता है। बवंडर उठ खड़ा होता है। जनता के हुँकार के समक्ष सभी नतशिर हो जाते हैं।
जनता की राह को आज तक कौन रोक सका है? सुनो, जनता रथ पर, सवार होकर आ रही है, उसकी राह छोड़ दो और सिंहासन खाली करो कि जनता आ रही है। इन पंक्तियों में जनता की शक्ति और उसके उचित सम्मान की रक्षा हो, इस पर कवि जोर देता है। कवि जनता का अधिक शक्ति के साथ सम्मान करने और उसके लिए पथ-प्रशस्त करने की भी सलाह देता है। इस प्रकार जनता के प्रति कवि उदारभाव रखता है वह समय का साक्षी है। इसीलिए भविष्य के प्रति आगाह करते हुए जनता के उचित सम्मान की सिफारिश करता है।

(6) हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है;
जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।

(i) उपर्युक्त पद्यांश के रचनाकार कौन हैं ?
उत्तर-रामधारी सिंह दिनकर ।

(ii) प्रस्तुत पंक्तियाँ किस कविता से उद्धृत हैं ?
उत्तर-जनतंत्र का जन्म ।

(iii) किसके हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती है?
उत्तर-जनता अत्याचार, अराजकता और शोषण-दमन से आकुल-व्याकुल होकर जब हुँकार करती है तब राजमहलों की नींवें हिल जाती हैं। कहने का भाव यह है कि जनता के समक्ष सभी बौने हैं। आधुनिक युग में जनता सर्वोपरि है। वही लोकतंत्र का बल है, संजीवनी शक्ति है।

(iv) किसके चाहने से काल उसी के मनोनुकूल मुड़ जाता है?
उत्तर-कवि कहता है कि किसकी मजाल है जो जनता की राह को रोके। समय भी जनता के उग्र तेवर के आगे नतमस्तक हो जाता है। जनता जब जैसा चाहती है, वैसे ही काल को मुड़ना पड़ता है। काल-गति को भी जनता अपनी इच्छानुसार मोड़ देती है।

(v) प्रस्तुत कविता का भावार्थ लिखें।
उत्तर-प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘जनतंत्र का जन्म’ काव्य-पाठ से ली गयी हैं। इन पंक्तियों में कवि के कहने का आशय है कि जनता की हुँकार से, जनता की ललकार से, राजमहलों की नींवें उखड़ जाती हैं। मूल भाव है कि जनता और जनतंत्र के आगे सजतंत्र का अब कोई मोल नहीं।
जनता की साँसों के बल से राजमुकुट हवा में उड़ जाते हैं-गूढार्थ हुआ कि जनता ही राजा को मान्यता प्रदान करती है और वही राजा का बहिष्कार या समाप्त भी करती है।
जन-पथ को कौन अबतक रोक सका है? समय में वह ताव या शक्ति कहाँ जो जनता की राह को रोक सके। महाकारवाँ के भय से समय भी दुबक जाता है। जनता जैसा चाहती है, समय भी वैसी ही करवट बदल लेता है जनता के मनोनुकूल समय बन जाता है। यहाँ मूल भाव यह है कि किसी भी तंत्र की नियामक शक्ति जनता है। उसका महत्त्व सर्वोपरि है।

(7) अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता; गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते आते हैं।

(i) उपर्युक्त पद्यांश के रचनाकार कौन हैं ?
उत्तर-रामधारी सिंह दिनकर ।

(ii) प्रस्तुत पंक्तियाँ किस कविता से रद्धत हैं ?
उत्तर-जनतंत्र का जन्म ।

(iii) कितने वर्षों का अंधकार बीत गया और लोकतंत्र का उदय हुआ?
उत्तर-सैकड़ों, हजारों वर्षों का अंधकार मिटा यानी गुलामी मिटी और नए लोकतंत्र का जन्म हुआ, उदय हुआ।

(iv) कौन तिमिर के वक्ष को चीरते-उमड़ते आते हैं?
उत्तर-जनता के स्वप्न जो अजेय हैं, आज तिमिर के वक्ष को चीरते हुए, उमड़ते हुए आते हैं। कहने का भाव यह है कि गुलामी की बेड़ियाँ टूटी, हमारे सपने साकार हुए, भारत आजाद हुआ और हम लोकतंत्र के पावन पर्व पर हर्षित हो रहे हैं।

(v) प्रस्तुत कविता का भावार्थ लिखें।
उत्तर-प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘जनतंत्र का जन्म’ नामक काव्य-पाठ से ली गयी हैं। इन पंक्तियों में कवि के कहने का मूलभाव यह है कि वर्षों, सैकड़ों वर्षों, हजारों वर्षों का अंधकाररूपी समय बीत गया। अंबर के चाँद-तारे प्रज्ज्वलित होकर धरती पर उतर रहे हैं। यह कोई दूसरा नहीं हैं। ये तो जनता के स्वप्न हैं जो अंधकार के वक्ष को चीरते हुए धरा पर अवतरित हो रहे हैं। यहाँ प्रकृति के रूपों में भी कवि जनता के विजयारोहण का गान कर रहा है। जनता में अजेय शक्ति है। वह महाप्रलय और महाविकास की जननी है। उसके सामने सभी चीजें शक्तिहीन हैं, शून्य है। जनता का जनतंत्र में सर्वाधिक महत्त्व है।

(8) सबसे विराट जनतंत्र जगत का आ पहुँचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तैयार करो;
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।

(i) उपर्युक्त पद्यांश के रचनाकार कौन हैं ?
उत्तर-रामधारी सिंह दिनकर ।

(ii) प्रस्तुत पंक्तियाँ किस कविता से
उद्धृत हैं?
उत्तर-जनतंत्र का जन्म ।

(iii) कवि ने तैंतीस कोटि-हित किसे कहा है?
उत्तर-भारत की आबादी आजादी के काल में तैंतीस करोड़ थी। उसे ही, कवि तैंतीस करोड़ के रूप में व्याख्यायित करते हुए उसके हित की बातें करता है। तैंतीस करोड़ जनता के हित के लिए सिंहासन खाली करो। राजतंत्र और गुलामी मिट गयी। लोकतंत्र का उदय हुआ।

(iv) कवि किसका अभिषेक करना चाहता है?
उत्तर-कवि राजा का नहीं, प्रजा का, जनता का अभिषेक करना चाहता है क्योंकि आज भारत स्वाधीन हो चुका है। जनतंत्र का उदय हो रहा है। अतः, सिंहासन पर जनता को बिठाओ यानी लोकात्र की स्थापना करो।

(v) प्रस्तुत कविता का भावार्थ लिखें।
उत्तर-प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘जनतंत्र का जन्म’ नामक काव्य पाठ से ली गयी हैं। इन पंक्तियों में कवि के कहने का मूल भाव यह है कि भारत में लोकतंत्र का उदय हो रहा है। भारत स्वाधीन हो चुका है। यहाँ लोकतंत्र की स्थापना हो रही है। यहाँ की तैंतीस करोड़ जनता के हित की बात है। शीघ्र सिंहासन तैयार करो और जनता का अभिषेक कर सिंहासन पर विठाओ! आज राजा की अगवानी या अभ्यर्थना करने की जरूरत नहीं। आज प्रजा को पूजने और सिंहासनारूढ़ करने की जरूरत है।
आज का शुभ दिन तैंतीस करोड़ जनता के सिर पर राजमुकुट रखने का है। आशय कहने का यह है कि जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन ही लोकतंत्र है। अतः, की अगवानी, पूजा, अभ्यर्थना तथा उसे मान्यता मिलनी चाहिए।

(9) आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूरख,
मंदिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर मिट्टी-तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।

(i) उपर्युक्त पद्यांश के रचनाकार कौन हैं ?
उत्तर-रामधारी सिंह दिनकर ।

(ii) प्रस्तुत पंक्तियाँ किस कविता से उद्धृत हैं ?
उत्तर-जनतंत्र का जन्म ।

(iii) कवि अपने आपको मूरख क्यों कहता है?
उत्तर-कवि अपने आपको मूरख इसलिए कह रहा है क्योंकि कवि भावुक होकर अपनी सुध-बुध खो बैठा है। वह मंदिरों में, राज प्रासादों में, तहखानों में आरती लेकर निरर्थक घूम रहा रुप में देखकर आश्चर्यचकित होकर अपना होश खो बैठा है और भावुकता में इधर-उधर भटक रहा है, जबकि लोकतंत्र की अगवानी करते हुए जनता की आरती उतारनी चाहिए थी।

‘(iv) कवि ने देवता किसे कहा है? वे कवि को कहाँ मिलेंगे?
उत्तर-कवि ने जनता को देवता कहा है। मेहनतकश जनता, मजदूरों को कवि देवता के रूप में देखता है और उन्हें सम्मान प्रदर्शित करता है। वह अतिशय प्रसन्न मुद्रा में रहकर कहता है कि आज के देवता जनता है। मेहनतकश मजदूर, शोषित-पीड़ितजन ही जो सड़कों पर मिट्टी तोडते मिलेंगे, खेतों-खलिहानों में श्रम करते हुए मिलेंगे आज के आधुनिक देवता हैं, वे ही लाक
देवता हैं। आज उनकी ही महिमा है। आज उन्हीं की पूजा-अर्चना, वंदना, अभ्यर्थना करना आवश्यक है।

(v) प्रस्तुत कविता का भावार्थ लिखें ।
उत्तर-प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के “जनतंत्र का जन्म” काव्य- पाठ से ली गयी हैं। कवि के कहने का मूल भाव यह है कि आज हम आरती उतारने के लिए इतना व्यग्र हैं, मूर्ख बनकर किसे हम ढूँढ रहे हैं?
मंदिरों, राजमहलों, तहखानों में अब देवता या राजा नहीं बसते है। आज के देवता है-जनता। जनता को पाने के लिए सड़कों पर, खेतों में, खलिहानों में जाना होगा क्योंकि वहीं वह श्रम करते कहने का अर्थ यह है कि लोकतंत्र में जनता ही सब कुछ होती है। सारी शक्तियाँ उसी में निहित हैं। वही देवता है, वही राजा है वही लोकतंत्र है। अतः, उसे पाने के लिए गाँवों में, खेतों
में, खलिहानों में, सड़कों पर जाना होगा। उसका तो वही मंदिर है, राजमहल है, तहखाना है। जनता लोकतंत्र की शक्ति-पुंज है।

(10) फावड़े और हल राजदंड बनने को हैं,
धूसरता सोने से शृंगार सजाती है।
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

(i) उपर्युक्त पद्यांश के रचनाकार कौन हैं ?
उत्तर-रामधारी सिंह दिनकर ।

(ii) प्रस्तुत पंक्तियाँ किस कविता से उद्धृत हैं ?
उत्तर-जनतंत्र का जन्म ।

(iii) कवि राजदंड किसे कहता है?
उत्तर-कवि ने हल और कुदाल को राजंदड के रूप में चिह्नित किया है। आधुनिक युगमुं, लोकतंत्र के युग में जनता के ये दो अनमोल हथियार-कुदाल और हल ही राजदंड के प्रतीक हैं। इन्हीं के बल पर हम नयी कृषि संस्कृति के सहारे राष्ट्र का भाग्य संवार सकते हैं।

(iv) कौन सोने से शृंगार सजाती है?
उत्तर–धरती माता के पुत्र जब अपनी मेहनत के बल पर नयी फसलें उगाते हैं तब धरती की सुघड़ता बढ़ जाती है। उसकी छवि में निखार आ जाता है।
धरती की धूसरता में सोने का श्रृंगार निहित दिखायी पड़ता है। चारों तरफ हरीतिमा सी हुए पसर जाती है। परती राने लगती है। आकाश चिर प्रसन्न हो उठता है और धरती के सौंदर्य में निखार आ जाता है। उसे ही देखकर वह धरती का जो धूसर रूप है वह स्वर्णमयी सुंदरता को पाकर खिल उठता है। यह सारा श्रेय जनता को है।

(v) प्रस्तुत कविता का भावार्थ लिखें।
उत्तर प्रस्तुत काव्य पक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘जनतंत्र का जन्म’ नामक काव्य-पाठ से ली गयी हैं। इन पक्तियों का प्रसंग जनता के साथ जुड़ा हुआ है। लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि होती है। वही सत्ता को चलाती है। वही सत्ता की रक्षा करती है। वही सत्ता के लिए संघर्ष करती है। लोकतंत्र का राजदंड कोई राजपत्र-कोई हथियार या भिन्न प्रकार का औजार नहीं है।
लोकतंत्र का मूल राजदंड है- जनता का हल और कुदाल। क्योंकि इसी के द्वारा वह धरती से सोना
पैदाकर लोकतंत्र को सबल और सुसंपन्न बनाती है अब कुदाल और हल ही राजदंड के प्रतीक बनेंगे। धरती की धूसरता का शृंगार आज सोना (स्वर्ण) कर रहा है यानी धूल में ही स्वर्ण- है उनका रूप भले ही भिन्न-भिन्न हो। रास्ता शीघ्र दो, देखो, समय के रथ का पहिया
पर्धर आवाज करते हुए आगे को बढ़ता जा रहा है। सिंहासन शीघ्रता से खाली करो, देखो जनता स्वयं आ रही है। इन पंक्तियों का गूढार्थ है कि जनता ही जनतंत्र की रक्षक, निर्माता और पोषक है।

*कविता के साथ:-
प्रश्न 1. कवि की दृष्टि में समय के रथ का घर्घर-नाद क्या है ? स्पष्ट करें।
उत्तर-कवि स्वाधीन भारत की पराकाष्ठा को मजबूत बनाना चाहता है। बदलते समय में भारत का स्वरूप भी बदल रहा है। आज राजा नहीं प्रजा सिंहासन पर आरूढ़ हो रही है। असीम वेदना सहनेवाली जनता आज जयघोष करती है। देश की बागडोर राजा के हाथ में नहीं जनता के हाथ में है। आज उसकी हुँकार सर्वत्र सुनाई पड़ती है। राजनेताओं के सिर पर राजमुकुट नहीं है।

प्रश्न 2. कविता के आरंभ में कवि भारतीय जनता का वर्णन किस रूप में करता है ?
उत्तर-वर्षों की पराधीनता की बेड़ी को तोड़कर आज जनता जयघोष कर रही है। वह हुँकार भरती हुई सिंहासन खाली करने को कहती है । मूर्तिमान रहनेवाली जनता आज मुँह खोल चुकी है। पैरों के तले रौंदी जानेवाली, जाड़े-पाले की कसक सहनेवाली आज अपनी वेदना को सुना रही है । पराधीन भारत में जनता त्रस्त थी । मुँह बंद रखने के लिए वह विवश थी किन्तु आज हुँकार कर रही है।

प्रश्न 3. कवि के अनुसार किन लोगों की दृष्टि में जनता फूल रही है या दुधमुंही बच्ची की तरह है और क्यों ? कवि क्या कहकर उनका प्रतिवाद करता है ?
उत्तर-सिंहासन पर आरूढ़ रहनेवाले राजनेताओं की दृष्टि में जनता फूल या दूधमुंही बच्ची की तरह है । रोती हुई दूधमुंही बच्ची को शान्त रखने के लिए उसके सामने खिलौने दे दिए जाते हैं। उसी प्रकार रोती हुई जनता को खुश करने के लिए कुछ प्रलोभन दिये जाते हैं । कवि यहाँ कहना चाहता है कि जनता जब क्रोध से आकुल हो जाती है तब सिंहासन की बात कौन कहे धरती भी काँप उठती है । सिंहासन खाली कराकर एक नए प्रतिनिधि को बिठा देती है । देश की बागडोर प्रतिनिधि के हाथ में नहीं जनता के हाथ में है।

प्रश्न 4. कवि जनता के स्वप्न का किस तरह चित्र खींचता है ?
उत्तर-स्वाधीन भारत की नींव जनता है । गणतंत्र जनतंत्र पर निर्भर है। जनता का स्वप्न अजेय है। सदियों अंधकार युग में रहनेवाली जनता आज प्रकाशयुग में जी रही है । वर्षों से स्वप्न को संजोये रखनेवाली जनता निर्भय होकर एक नये युग की शुरुआत कर रही है। आज अंधकार युग का अंत हो चुका है। विशाल जनतंत्र का उदय हुआ है। अभिषेक राजा का नहीं प्रजा का
होनेवाला है।

प्रश्न 5. विराट जनतंत्र का स्वरूप क्या है ? कवि किनके सिर पर मुकुट धरने की बात करता है और क्यों ?
उत्तर-भारत विश्व का विशाल गणतंत्रात्मक देश है । यहाँ देश की बागडोर राजनेताओं को न देकर जनता को सौंप दी गयी है। जनता ही सर्वोपरि है । अपने मनपसंद प्रतिनिधि को ही सिंहासन पर आरूढ़ करती है। कवि जनता के सिर पर मुकुट धरने की बात करता है। कवि
का मत है कि गणतंत्र भारत का स्वरूप जनता के अनुरूप हो । जनता को पक्ष में लेकर ही देश की रूपरेखा तैयार की जाए । मनमानी करनेवाले राजनेताओं को सिंहासन से उतारकर नए राजनेता
को जनता ही आरूढ़ करती है।

प्रश्न 6. कवि की दृष्टि में आज के देवता कौन हैं, वे कहाँ मिलेंगे?
उत्तर-कवि की दृष्टि में आज के देवता कठोर परिश्रम करनेवाले मजदूर और कृषक हैं।
वे पत्थर तोड़ते हुए या खेत-खलिहानों में काम करते हुए मिलेंगे । भारत की आत्मा गाँवों में बसती है । किसान ही भारत के मेरुदंड हैं । जेठ की दुपहरी हो या सर्दी या फिर मूसलधार वर्षा सभी में वे बिना थके हुए खेत-खलिहानों में डटे हुए मिलते हैं।

प्रश्न 7. कविता का मूल भाव क्या है ? संक्षेप में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-प्रस्तुत कविता में स्वाधीन भारत का सजीवात्मक चित्रण किया गया है। सदियों बाद जनतंत्र का उदय हुआ है । पराधीन भारत की स्थिति अत्यन्त दयनीय है। चारों तरफ शोषण, कुसंस्कार, अत्याचार आदि का साम्राज्य था । भारतवासी मुँह बंदकर सबकुछ सहने के लिए विवश थे । पराधीनता की बेड़ी से मुक्त होते ही भारतीय जनता सुख से अभिप्रेत हो गई । जनता सिंहासन पर आरूढ़ होने के लिए आतुर हो गई। मिट्टी की तरह मूर्तिमान रहनेवाली जनता मुँह खोलने लगी है । कभी असीम वेदना को सहनेवाली जनता आज हुँकार भर रही है। गणतंत्र की बागडोर जनता के हाथ में है। गिट्टी तोड़ने वाले, खेत-खलिहानों में काम करनेवाले जयघोष कर रहे हैं। आज फावड़ा और हल राजदंड बना हुआ है। आज परिस्थिति बदल चुकी है। राजनेता नहीं
जनता सिंहासन पर आरूढ़ होनेवाली है।

प्रश्न 8. व्याख्या करें :

(क) सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी, सोने का ताज पहन इठलाती है;

(ख) हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है;
जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ ?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।

उत्तर– (क) प्रस्तुत पंक्तियाँ रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित ‘जनतंत्र का जन्म’ र्शीषक कविता से संकलित है । इनमें कवि स्वाधीन भारत की रूपरेखा को सजीवात्मक रूप में प्रदर्शित किया है । कवि की अभिव्यक्ति है कि स्वाधीनता मिलते ही भारत में जनतंत्र का उदय हो गया
है। बुझी हुई राख धीरे-धीरे सुलगने लगी है। सोने का ताज पहनकर भारत आज इठला रहा है। वर्षों से त्रस्त जनता हुँकार भर रही है ।

(ख) प्रस्तुत पंक्तियाँ उत्तर छायावाद के प्रखर कवि रामधारी सिंह दिनकर द्वारा चरित ‘जनतंत्र का जन्म’ शीर्षक कविता से संकलित है । पराधीन भारत की दयनीय स्थिति को देखकर कवि हृदय विचलित हो उठा था । स्वाधीनता मिलते ही उसका मुखमंडल दीप्त हो उठा है । जनता की हुँकार प्रबल वेग से उठती है। सिंहासन की बात कौन कहे धरती भी काँप उठी है । उसकी साँसों से ताप हवा में उठने लगते हैं । जनता की रुख जिधर उठती है समय भी उधर ही अपना मुख कर देता है । वस्तुतः यहाँ कवि कहना चाहता है कि जनता ही सर्वोपरि है । वह जिसे चाहती है उसे राजसिंहासन पर आरुढ़ करती है ।

भाषा की बात
प्रश्न 1. निम्नांकित शब्दों के पर्यायवाची लिखें :
तिमिर, नाद, राजप्रासाद, मंदिर ।
उत्तर-सदी —- साल, संवत
ताज —- मुकुट
कसक —– क्षोभ
कसम—- सौगंध
फूल। —– पुष्प
भृकुटी—–भौंह
तिमिर —– अंधकार
राजप्रासाद ——- राजमहल
राख —- बुझी हुई आग
सिंघासन —- गद्दी
दर्द —– पीड़ा
जनमत —– लोगों का मत
भूडोल —– भूकंप
काल —-समय
नाद —— ध्वनि
मंदिर —–घर

प्रश्न 2. निम्नांकित का लिंग-निर्णय करें :
ताव, दर्द, वेदना, कसक, हुँकार, बवंडर, गवाक्ष, जगत, अभिषेक, शृंगार, प्रना
उत्तर-ताव —- पुलिंग
दर्द —— पुलिंग
वेदना —— स्त्रीलिंग
कसक —— स्त्रीलिंग
हुँकार —– पुलिंग
बवंडर —– पुलिंग
गवाक्ष —— पुलिंग
जगत ——- पुलिंग
अभिषेक —— पुलिंग
शृंगार —— स्त्रीलिंग
प्रजा ——- स्त्रीलिंग

प्रश्न 3. कविता से सामासिक पद चुनें एवं उनके समास निर्दिष्ट करें।
उत्तर-(१) सिंहासन —– सिंह चिह्नित आसन —मध्यमपदलोपी समास
(२)अबोध—- न बोध—- समास
(३)जनमत—- जनों का मत— तत्पुरुष समास
(४)भूडोल—- भूमि का डोलना —- तत्पुरुष समास
(५)कोपाकुल—–कोप से आकुल —– तत्पुरुष समास
(६)शताब्दियों —–शत अब्दियों का समूह —– द्विगु समास
(७)अजय —- न जय—नञ् समास
(८)राजप्रासादों—- राजाओं का प्रसाद— तत्पुरुष समास

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