12th Political Science

Bihar Board 12th Political Science Important Questions Long Answer Type Part 1

Bihar Board 12th Political Science Important Questions Long Answer Type Part 1

BSEB 12th Political Science Important Questions Long Answer Type Part 1

प्रश्न 1. भारत के किसी एक सामाजिक आन्दोलन की विवेचना कीजिए और इसके मुख्य उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर: नर्मदा बचाओ आंदोलन- मेधा पाटकर गुजरात में नर्मदा नदी पर बनने वाले सरदार सरोबर बांध के निर्माण का विरोध कर रही है। उसकी माँग है कि जिन लोगों को वहाँ से हटाया जाय उन्हें कहीं और जगह देकर बसाया जाय। यह भी माँग है कि बाँध की ऊँचाई बहुत अधिक न हो। ऐसा न हो कि वह टूट जाए। यदि ऐसा हुआ तो गुजरात का काफी भाग जल-मग्न हो जायेगा।

पर्यावरण संबंधी आंदोलन चलाने वाले यह भी माँग कर रहे हैं कि गंदे नालों की सफाई की जाय, मलेरिया तथा डेंगू जैसे बुखारों से बचने के लिए मच्छरों को मारा जाए, कारखानों का गंदा पानी नदियों में न छोड़ा जाए आदि। क्षेत्र में पोषणीय विकास को बढ़ावा दिया जाए।

(i) लोगों द्वारा 2003 ई० में स्वीकृति राष्ट्रीय पुनर्वास नीति को नर्मदा बचाओ जैसे सामाजिक आंदोलन की उपलब्धि के रूप में देखा जा सकता है। परन्तु असफलता के साथ ही नर्मदा बचाओ आंदोलन को बाँध के निर्माण पर रोक लगाने की माँग उठाने पर तीखा विरोध भी झेलना पड़ा है।

(ii) आलोचकों का कहना है कि आंदोलन का अड़ियल रवैया विकास की प्रक्रिया, पानी की उपलब्धता और आर्थिक विकास में बाधा उत्पन्न कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में सरकार को बांध का काम आगे बढ़ाने की हिदायत दी है लेकिन साथ ही उसे यह आदेश भी दिया गया है कि प्रभावित लोगों का पुनर्वास सही ढंग से किया जाए।

(iii) नर्मदा बचाओ आंदोलन, दो से भी ज्यादा दशकों तक चला। आंदोलन ने अपनी मांग रखने के लिए हरसंभव लोकतांत्रिक रणनीति का इस्तेमाल किया। आंदोलन ने अपनी बात न्यायपालिका से लेकर अंतर्राष्ट्रीय मंचों तक से उठायी। आंदोलन की समझ जो जनता के सामने रखने के लिए नेतृत्व ने सार्वजनिक रैलियों तथा सत्याग्रह जैसे तरीकों का भी प्रयोग किया परंतु विपक्षी दलों सहित मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के बीच आंदोलन कोई खास जगह नहीं बना पाया।

(iv) वास्तव में, नर्मदा आंदोलन की विकास रेखा भारतीय राजनीति में सामाजिक आंदोलन और राजनीतिक दलों के बीच निरंतर बढ़ती दूरी को बयान करती हैं। उल्लेखनीय है कि नवें दशक के अंत तक पहुँचते-पहुँचते नर्मदा बचाओ आंदोलन से कई अन्य स्थानीय समूह और आंदोलन भी आ जुड़े। ये सभी आंदोलन अपने-अपने क्षेत्रों में विकास की वृहत परियोजनाओं का विरोध करते थे। इस समय के आस-पास नर्मदा बचाओ आंदोलन देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे समधर्मा आंदोलनों के गठबंधन का अंग बन गया।

प्रश्न 2. विश्व शान्ति की स्थापना में भारत के मुख्य योगदान का वर्णन कीजिए।
उत्तर: भारत ने विश्व शांति की स्थापना में बहुत महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। विश्व शांति . में भारत के योगदान को निम्नलिखित तरीके से स्पष्ट किया जा रहा है-

विश्व शांति की स्थापना में भारत का योगदान (India’s Contribution towards World Peace)-
1. सैनिक गुटों का विरोध (Opposition of the Military Alliances)- इस समय विश्व में बहुत सैनिक गुट बन रहे हैं। जैसे नाटो, सीटो सैण्टो आदि। भारत का हमेशा यह विचार रहा है कि ये सैनिक गुट बनने से युद्धों की संभावना बढ़ जाती है और ये सैनिक गुट विश्व शांति में बाधः हैं। अतः भारत ने हमेशा इन सैनिक गुटों की केवल आलोचना ही नहीं की बल्कि इनका पूरी तरह से विरोध किया है।

2. निशस्त्रीकरण में सहायता (Support of Disarmament)- संयुक्त राष्ट्र संघ ने निशस्त्रीकरण के प्रश्न को अधिक महत्त्व दिया है तथा इस समस्या को हल करने के लिए बहुत ही प्रयास किये हैं। भारत ने इस समस्या का समाधान करने के लिए हमेशा संयुक्त राष्ट्र संघ की मदद की है क्योंकि भारत को यह विश्वास है कि पूर्ण निशस्त्रीकरण के द्वारा ही संसार में शांति की स्थापना हो सकती है।

3. जातीय भेदभाव का विरोध (Opposition to the Policy of Discriminations based on Caste, Cree and Colour)- भारत ने अपनी विदेश नीति के आधार पर जातीय भेदभाव को समाप्त करने का निश्चय किया है। जब संसार का कोई भी देश जाति प्रथा के भेद को अपनाता है तो भारत सदैव उसका विरोध करता रहा है। दक्षिणी अफ्रीका ने जब तक जातीय भेदभाव की नीति को अपनाया तो भारत ने उसका विरोध किया और अब भी कर रहा है।

एन० पी० टी० तथा सी० टी० बी० टी० पर हस्ताक्षर नहीं किये जाने के बावजूद अमेरिका ने भारत को शांतिपूर्ण कार्यों हेतु परमाणु कार्यक्रम चलाने की अनुमति दी तथा इसके लिए आवश्यक यूरेनियम की आपूर्ति करने का समझौता यूरेनियम आपूर्तिकर्ता देशों से करने पर सहमति हुई। यह भी निर्णय हुआ कि सामरिक दृष्टि से महत्वूर्ण परमाणु संस्थानों की निगरानी का अधिकार अमेरिका या अन्य किसी भी देश को नहीं होगा।

कुछ त्रुटियों के बावजूद इस समझौते का व्यापक स्वागत किया जा रहा है। भारत की ऊर्जा आवश्यकता को पूरा करने के लिए इस समझौते की आवश्यकता थी।

प्रश्न 3. राज्य क्षेत्र के विस्तार एवं नए आर्थिक हितों के उदय पर लेख लिखिए।
उत्तर: प्रस्तावना (Introduction)- अनेक वर्षों की अधीनता के बाद स्वतंत्र भारत के नियोजन को अपनाने का निर्णय लिया गया। क्योंकि उस समय व्यावहारिक रूप में देश की बागडोर जवाहर लाल नेहरू जैसे समाजवादी विचारधारा से प्रभावित नेता के पास थी। रोजगार को उत्पन्न करने के लिए भारत में राज्य क्षेत्र को विकसित किया और देश में नए आर्थिक हितों को जन्म दिया गया। उन सभी गलत आर्थिक नीतियों को छोड़ने का प्रयास किया गया जो साम्राज्यवादियों ने अपने मातृ देश (ब्रिटेन) के हित के लिए लिखी थी।

रोजगार बढ़ाने का प्रयास (Means to increase employment)- 1 अप्रैल 1951 से पहली योजना लागू हुई यद्यपि इस योजना में कृषि पर सबसे ज्यादा जोर दिया गया। लेकिन सरकार ने ऐसे कार्यक्रमों को अधिक प्राथमिकता दी जिससे देश के लोगों को ज्यादा से ज्यादा रोजगार न दिया जा सके क्योंकि रोजगार मिलने पर ही देश की गरीबी दूर हो सकती थी। देश के अर्थशास्त्री और राजनीतिज्ञ यह मानते थे कि योजनाओं द्वारा निश्चित लागत से बनाये गये कार्यक्रमों से लागत हटकर हम रोजगार के अवसरों में वृद्धि करने के बारे में नहीं सोच सकते।

द्वितीय पंचवर्षीय योजना स्पष्ट करती है, “निम्नलिखित लागत से रोजगार अंतर्निहित है और अवश्य ही, लागत के स्वरूप को निश्चित करते समय इस सोच-विचार को एक प्रमुख स्थान दिया जाता है। इस तरह की योजना में लागत की पर्याप्त मात्रा में वृद्धि होगी तथा विकासवादी खर्च का अर्थ है कि वह आय में वृद्धि करेगा तथा हर क्षेत्र में श्रम की मांग में वृद्धि करेगा।

सार्वजनिक उद्योगों का विस्तार (Expansion of Public Industry)- देश में भारी उद्योगों को लगाने, तेल की खोज और कोयले के विकास के साथ-साथ परमाणु ऊर्जा के विकास के कार्यक्रमों को शुरू करने के लिए आवश्यक कदम उठाए गए। इन सभी कार्यक्रमों को चलाने का मुख्य दायित्व देश की केन्द्रीय सरकार पर था। पहली योजना की बजाय दूसरी योजना में इस कार्यक्रम पर अधिक ध्यान दिया गया। अनेक देशों की सहायता से सार्वजनिक क्षेत्र में बड़े-बड़े लौह इस्पात उद्योग शुरू किए गए।

नए आर्थिक हित (New Econominc interest)- देश में आर्थिक हितों को संरक्षण और बढ़ावा देने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ निजी क्षेत्र को भी अपनाया गया। वस्तुतः समाजवाद और पूँजीवाद व्यवस्थाओं के सभी गुणों को अपनाने का प्रयत्न किया गया। देश में एक नई आर्थिक नीति मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति को अपनाया गया। रोजगार के क्षेत्र में सार्वजनिक खासकर सेवाओं (service) द्वारा रोजगार देने वाला एक विशाल उद्यम विकसित हो सका। यद्यपि देश में सरकार को आशा के अनुरूप सफलताएँ नहीं मिली और रोजगार के अवसर धीमी गति से ही उत्पन्न हो सके।

प्रश्न 4. नव अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर एक लेख लिखिए।
उत्तर: नव अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था (New International Economic Order)-
1. गुटनिरपेक्ष देश शीतयुद्ध के दौरान महज मध्यस्थता करने वाले देश भर नहीं थे। गुटनिरपेक्ष आंदोलन में शामिल अधिकांश देशों को ‘अल्प विकसित देश’ का दर्जा मिला था। इन देशों के सामने मुख्य चुनौती आर्थिक रूप से और ज्यादा विकास करने तथा अपनी जनता को गरीबी से उबारने की थी। नव-स्वतंत्र देशों की आजादी के लिहाज से भी आर्थिक विकास महत्वपूर्ण था। बगैर टिकाऊ विकास के कोई देश सही मायनों में आजाद नहीं रह सकता । उसे धनी देशों पर निर्भर रहना पड़ता । इसमें वह उपनिवेशक देश भी हो सकता था। जिससे राजनीतिक आजादी हासिल की गई।

2. इसी समझ से नव अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की धारणा का जन्म हुआ। 1972 में संयुक्त राष्ट्र संघ के व्यापार और विकास से संबंधित सम्मेलन (यूनाइटेड नेशंस कॉनफ्रेंस ऑन ट्रेड एंड डेवलपमेंट-अंकटाड) में ‘टुवार्ड्स अ न्यू ट्रेड पॉलिसी फॉर डेवलपमेंट’ शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रस्तुत की गई। इस रिपोर्ट में वैश्विक व्यापार-प्रणाली में सुधार का प्रस्ताव किया गया था। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि सुधारों से-

  • अल्प विकसित देशों को अपने उन प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण प्राप्त होगा जिनका दोहन पश्चिम के विकसित देश करते हैं;
  • अल्प विकसित देशों की पहुँच पश्चिमी देशों के बाजार तक होगी; वे अपना सामान बेच सकेंगे और इस तरह गरीब देशों के लिए यह व्यापार फायदेमंद होगा;
  • पश्चिमी देशों से मँगायी जा रही प्रौद्योगिकी की लागत कम होगी; और
  • अल्प विकसित देशों की अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संस्थानों में भूमिका बढ़ेगी।

3. गुटनिरपेक्षता की प्रकृति धीरे-धीरे बदली और इसमें आर्थिक मुद्दों को अधिक महत्व दिया जाने लगा। बेलग्रेड में हए पहले सम्मेलन (1961) में आर्थिक मुद्दे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।

प्रश्न 5. भारत-अमेरिका समझौते से संबंधित लोकसभा में हुई बहस के तीन अंश इस अध्याय में दिए गए हैं। इन्हें पढ़ें और किसी एक अंश को आधार मानकर पूरा भाषण तैयार करें जिसमें भारत-अमेरिकी संबंध के बारे में किसी एक रुख का समर्थन किया गया हो।
उत्तर:
1. भारत और अमेरिका के मध्य परमाणु ऊर्जा के मसले पर समझौता हुआ। भारत की लोकसभा में इस मुद्दे पर बहस हुई। हम देश के प्रधानमंत्री डॉ० मनमोहन सिंह के विचारों से सहमत होकर भारत-अमेरिकी संबंधों के बारे में निम्नलिखित भाषण तैयार कर सकते हैं।

2. मान्यवर हमारे विचारानुसार इसमें कोई संदेह नहीं है कि अमेरिका विश्व की एक महाशक्ति है। यह भी सही है कि शीतयुद्ध के दौरान (1945-91) भारत अमेरिकी गुट के विरुद्ध खड़ा था। भारत इन लगभग 45-46 वर्षों में मित्रता की दृष्टि से विश्व की दूसरी महाशक्ति सोवियत संघ और उसके समर्थक देशों के साथ था लेकिन अब तो सोवियत संघ ही नहीं रहा। उनके 15 गणतंत्र उससे अलग हो गए हैं। सोवियत संघ बिखर गया है। भारत ने अपनी विदेश नीति को अमेरिका की ओर बदला।

3. नि:संदेह भारत ने 1991 ई० में ही नई आर्थिक नीति अपनाने की घोषणा की। वर्तमान प्रधानमंत्री ही उस समय देश के वित्त मंत्री थे और काँग्रेस पार्टी की ही सरकार थी। तब भी भारत मानता था और आज भी वर्तमान सरकार मानती है कि ताकत की राजनीति अब भी बीते दिनों की बात नहीं कही जा सकती। भारत स्वयं महाशक्ति बनना चाहता है।

4. हम पहले भी मानते थे और अब भी मानते हैं कि भास्त की प्रगति के मार्ग में अमेरिका जैसी महाशक्ति अवरोध ला सकती है या अपनी शर्ते थोप सकती है। ऐसा वह पहले भी करता रहा है। हमारा कोई भी राष्ट्रीय नेता या राजनीतिक दल हमारे देश की सुरक्षा पर आँच नहीं आने देगा। क्योंकि वह देश अधिकांश राष्ट्रभक्त-नागरिकों का देश है, परंतु वर्तमान परिस्थितियों में देश के लिए आर्थिक और सैनिक लाभ न उठाना और परमाणु समझौते को न लागू करना भी ठीक नहीं ठहराया जा सकता। भारत सभी शक्तिशाली और बड़े देशों के साथ मित्रता के संबंध बनाए रखना चाहता है।

5. संयुक्त राज्य अमेरिका हमारा एक अच्छा मित्र है और मित्र रहेगा। हाल के वर्षों में प्रभावशाली आर्थिक वृद्धि दर के कारण भारत अब संयुक्त राज्य अमेरिका सहित अनेक देशों के लिए आकर्षण आर्थिक सहयोगी बन गया है। अनेक तथ्य यह बताते हैं कि भारत का निर्यात अमेरिका को सबसे ज्यादा है। भारतीय मूल के नागरिक और प्रवासी भारतीय अमेरिका में तकनीकी, इंजीनियरिंग, चिकित्सा और प्रौद्योगिकी सेवाओं में संलग्न है। जो लोग भारत और अमेरिका की बढ़ती हुई दोस्ती से भयभीत हैं वस्तुत: अमेरिका के प्रति या तो अपने राजनैतिक विचारधारा के कारण दुर्भाव रखते हैं या यह भूल जाते हैं कि अमेरिका और भारत दोनों ही लोकतांत्रिक और उदारवादी देश हैं। यह भी जरूरी है कि हमें देश की सुरक्षा के साथ किसी भी कीमत पर अनदेखी नहीं करनी चाहिए।

प्रश्न 6. अगर आपको भारत की विदेश नीति के बारे में फैसला लेने को कहा जाए तो आप इसकी किन दो बातों को बदलना चाहेंगे। ठीक इसी तरह यह भी बताएँ कि भारत की विदेश नीति के किन दो पहलुओं को आप बरकरार रखना चाहेंगे। अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दीजिए।
उत्तर: वैसे तो मैं कक्षा बारहवीं का विद्यार्थी हूँ लेकिन एक नागरिक के रूप में और राजनीति विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते मुझे प्रश्न में जो कहा गया उनके अनुसार मैं दो पहलुओं को बरकरार रखना चाहूँगा। (i) सी-टी०बी०टी० के बारे में वर्तमान दृष्टिकोण को और परमाणु नीति की वर्तमान नीति को जारी रखूगा। (ii) मैं संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता जारी रखते हुए विश्व बैंक अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से सहयोग जारी रखूगा। (iii) दो बदलने वाले पहलू निम्नलिखित होंगे-

(a) मैं गुट निरपेक्ष आंदोलन की सदस्यता को त्याग करके संयुक्त राज्य अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय देशों के साथ अधिक मित्रता बढ़ाना चाहूँगा क्योंकि आज दुनियाँ में पश्चिमी देशों की तूती बोलती है और वे ही सम्पत्ति और शक्ति सम्पन्न हैं। रूस और साम्यवाद निरंतर ढलाने की दिशा में अग्रसर हो रहा है।

(b) मैं पड़ोसी देशों के साथ आक्रामक संधि करूँगा तो जर्मनी के बिस्मार्क की तरह अपने राष्ट्र को अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए सोवियत संघ देश के साथ ऐसी संधि करूँगा ताकि चीन 1962 की तरह भारत देश के भू-भाग को अपने कब्जे में न रखें और शीघ्र ही तिब्बत, बारमाँसा, हाँगकाँग को अंतर्राष्ट्रीय समाज में स्वायतपूर्ण स्थान दिलाने का प्रयत्न करूँगा और संभव हुआ तो नेपाल, बर्मा, बांग्लादेश, श्रीलंका के साथ समूहिक प्रतिरक्षा संबंधी व्यापक उत्तरदायित्व और गठजोड़ की संधियाँ/ समझौते करूँगा।

प्रश्न 7. किसी राष्ट्र का राजनीतिक नेतृत्व किस तरह राष्ट्र की विदेश नीति पर असर डालता है ? भारत की विदेश-नीति के उदाहरण देते हुए प्रश्न पर विचार कीजिए।
उत्तर: हर देश का राजनैतिक नेतृत्व उस राष्ट्र की विदेश नीति पर प्रभाव डालता है। उदाहरण के लिए नेहरू जी के सरकार के काल में गुट-निरपेक्षता की नीति बड़ी जोर-शोर से चली लेकिन शास्त्री जी ने पाकिस्तान को ईंट का जवाब पत्थर से देकर वह साबित कर दिया कि भारत की तीनों तरह की सेनाएँ हर दुश्मन को जवाब देने की ताकत रखती है। उन्होंने स्वाभिमान से जीना सिखाया। ताशकंद समझौता किया लेकिन गुटनिरपेक्षता की नीति को नेहरू जी के समान जारी रखा।

कहने को श्रीमती इंदिरा गाँधी नेहरू जी की पुत्री थीं लेकिन भावनात्मक रूप से वह रूस से अधिक प्रभावित थीं। उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया। भूतपूर्व देशी नरेशों के प्रिवीपर्स पर्स समाप्त किए, गरीबी हटाओ का नारा दिया और रूस से दीर्घ अनाक्रमांक संधि की।

राजीव गांधी के काल में चीन पाकिस्तान सहित अनेक देशों से संबंध सुधारे गए तो श्रीलंका के उन देश द्रोहियों को दबाने में वहाँ की सरकार को सहायता देकर यह बता दिया कि भारत छोटे-बड़े देशों की अखंडता का सम्मान करता है।

कहने को एन.डी.ए. या बी.जे.पी. की सरकार कुछ तो ऐसे तत्वों से प्रभावित थी जो साम्प्रदायिक अक्षेप से बदनाम किए जाते हैं लेकिन उन्होंने भारत को चीन, रूस, अमेरिका, पाकिस्तान, बंग्लादेश, श्रीलंका जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस आदि सभी देशों से विभिन्न क्षेत्रों से समझौते करके बस, रेल, वायुयान, उदारीकरण उन्मुक्त व्यापार, वैश्वीकरण और आतंकवादी विरोधी नीति को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पड़ोसी देशों में उठाकर यह साबित कर दिया कि भारत की विदेश नीति केवल देश हित में होगी। उस पर धार्मिक या किसी राजनैतिक विचारधारा का वर्चस्व नहीं होगा।

अटल बिहारी वाजपेयी की विदेश नीति, नेहरू जी के विदेश नीति से जुदा न होकर लोगों को अधिक प्यारी लगी क्योंकि देश में परमाणु शक्ति का विस्तार हुआ जय जवान के साथ आपने दिया नारा ‘जय जवान जय किसान और जय विज्ञान’ । 2014 के 26 मई को श्री नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने है। उनके द्वारा किये गये सकारात्मक कार्यों से भारत की छवि दुनिया में बढ़ी है।

प्रश्न 8. संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की भूमिका पर आलोचनात्मक टिप्पणी कीजिए।
उत्तर: संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना 24 अक्टूबर, 1945 ई० को हुई। इसका मुख्य उद्देश्य विश्व में शांति स्थापित करना तथा ऐसा वातावरण बनाना जिससे सभी देशों की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक समस्याओं को सुलझाया जा सके। भारत संयुक्त राष्ट्र संघ का संस्थापक सदस्य है तथा इसे अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना तथा विश्व शांति के लिए एक महत्वपूर्ण संस्था मानता है।

संयुक्त राष्ट्र में भारत की भूमिका (India’s Role in the United Nations):
1. चार्टर तैयार करवाने में सहायता (Help in Preparation of the U.N. Charter)- संयुक्त राष्ट्र का चार्टर बनाने में भारत ने भाग लिया। भारत की ही सिफारिश पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने चार्टर में मानव अधिकारों और मौलिक स्वतंत्रताओं को बिना किसी भेदभाव के लागू करने के उद्देश्य से जोड़ा। सान फ्रांसिस्को सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधि श्री स. राधास्वामी मुदालियर ने इस बात पर जोर दिया कि युद्धों को रोकने के लिए आर्थिक और सामाजिक न्याय का महत्त्व सर्वाधिक होना चाहिए। भारत संयुक्त राष्ट्र के चार्टर पर हस्ताक्षर करने वाले प्रारंभिक देशों में से एक था।

2. संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता बढ़ाने में सहयोग (Co-operation for increasing the membership of United Nations)- संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनने के लिए भारत ने विश्व के प्रत्येक देश को कहा है। भारत ने चीन, बांग्लादेश, हंगरी, श्रीलंका, आयरलैंड और रूमानिया आदि देशों को संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

3. आर्थिक और सामाजिक समस्याओं को सुलझाने में सहयोग (Co-operation for solving the Economic and Social Problems)- भारत ने विश्व की सामाजिक व आर्थिक समस्याओं को सुलझाने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत ने हमेशा आर्थिक रूप से पिछड़े हुए देशों के आर्थिक विकास पर बल दिया है और विकसित देशों से आर्थिक मदद और सहायता देने के लिए कहा है।

4. निःशस्त्रीकरण के बारे में भारत का सहयोग (India’s Co-operation to U. N. for the disarmament)- संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में महासभा और सुरक्षा परिषद दोनों के ऊपर यह जिम्मेदारी डाल दी गई है कि निःशस्त्रीकरण के द्वारा ही विश्व शांति को बनाये रखा जा सकता है और अणु शक्ति का प्रयोग केवल मानव कल्याण के लिए होना चाहिएं। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गाँधी ने अक्टूबर, 1987 में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में बोलते हुए पन: पूर्ण परमाणविक निःशस्त्रीकरण की अपील की थी।

संयुक्त राष्ट्र संघ के राजनीतिक कार्यों में भारत का सहयोग (India’s Co-operation in the Political Functions of the United Nations)- भारत ने संयुक्त संघ द्वारा सुलझाई गई प्रत्येक समस्या में अपना पूरा-पूरा सहयोग दिया। ये समस्याएँ निम्नलिखित हैं-

1. कोरिया की समस्या (Korean Problems)- जब उत्तर कोरिया ने दक्षिण कोरिया पर आक्रमण कर दिया तो तीसरे विश्व युद्ध का खतरा उत्पन्न हो गया क्योंकि उस समय उत्तरी कोरिया रूस के और दक्षिण कोरिया अमेरिका के प्रभाव क्षेत्र में था। ऐसे समय में भारत की सेना कोरिया में शांति स्थापित करने के लिए गई। भारत ने इस युद्ध को समाप्त करने तथा दोनों देशों के युद्धबन्दियों के आदान-प्रदान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

2. स्वेज नहर की समस्या (Problems concerned with Suez Canal)- जुलाई, 1956 के ‘बाद में मिस्र ने स्वेज नहर के राष्ट्रीयकरण की घोषणा कर दी। इस राष्ट्रीयकरण से इंग्लैंड और फ्रांस को बहुत अधिक हानि होने का भय था अतः उन्होंने स्वेज नहर पर अपना अधिकार जमाने के उद्देश्य से इजराइल द्वारा मिस्र पर आक्रमण करा दिया। इस युद्ध को बन्द कराने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने सभी प्रयास किये। इन प्रयासों में भारत ने भी पूरा सहयोग दिया और वह युद्ध बन्द हो गया।

3. हिन्द-चीन का प्रश्न (Issue of Indo-China)- सन् 1954 में हिन्द-चीन में आग भड़की। उस समय ऐसा लगा कि संसार की अन्य शक्तियाँ भी उसमें उलझ जायेगी। जिनेवा में होने वाली अंतर्राष्ट्रीय कान्फ्रेंस में भारत ने इस क्षेत्र की शांति स्थापना पर बहुत बल दिया।

4. हंगरी में अत्याचारों का विरोध (Opposition of Atrocities in Hangery)- जब रूसी सेना ने हंगरी में अत्याचार किये तो भारत ने उसके विरुद्ध आवाज उठाई। इस अवसर पर उसने पश्चिमी देशों के प्रस्ताव का समर्थन किया, जिसमें रूस से ऐसा न करने का अनुरोध किया गया था।

5. चीन की सदस्यता में भारत का योगदान (Contribution of India in greating membership to China)- विश्व शांति की स्थापना के सम्बन्ध में भारत का मत है कि जब तक संसार के सभी देशों का प्रतिनिधित्व संयुक्त राष्ट्र में नहीं होगा वह प्रभावशाली कदम नहीं उठा सकता। भारत के 26 वर्षों के प्रयत्न स्वरूप संसार में यह वातावरण बना लिया गया। इस प्रकार चीन सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य भी बन गया है।

6. नये राष्ट्रों की सदस्यता (Membership to New Nations)- भारत का सदा प्रयत्न रहा है कि अधिकाधिक देशों को संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बनाया जाये। इस दृष्टि से नेपाल, श्रीलंका, जापान, इटली, स्पेन, हंगरी, बल्गारिया, ऑस्ट्रिया, जर्मनी आदि को सदस्यता दिलाने में भारत ने सक्रिय प्रयास किया।

7. रोडेशिया की सरकार (Government of Rodesia)- जब स्मिथ ने संसार की अन्य श्वेत जातियों के सहयोग से रोडेशिया के निवासियों पर अपने साम्राज्यवादी शिकंजे को कसा तो भारत ने राष्ट्रमण्डल तथा संयुक्त राष्ट्र के मंचों से इस कार्य की कटु आलोचना की।

8. भारत विभिन्न पदों की प्राप्ति कर चुका है (India had worked at different posts)- भारत की सक्रियता का प्रभाव यह है कि श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित को साधारण सभा का अध्यक्ष चुना गया। इसके अतिरिक्त मौलाना आजाद यूनेस्को के प्रधान बने, श्रीमती अमृत कौर विश्व स्वास्थ्य संघ की अध्यक्षा बनीं। डॉ. राधाकृष्णन् आर्थिक व सामाजिक परिषद के अध्यक्ष चुने गये। सर्वाधिक महत्त्व की बात भारत को 1950 में सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य चुना जाना था। अब तक छ: बार 1950, 1967, 1972, 1977, 1984 तथा 1992 में भारत अस्थायी सदस्य रह चुका है। डॉ० नगेन्द्र सिंह 1973 से ही अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीश रहे। फरवरी; 1985 में मुख्य न्यायाधीश चुने गये। श्री के० पी० एस० मेनन कोरिया तथा समस्या के सम्बन्ध में स्थापित आयोग के अध्यक्ष चुने गये थे।

निष्कर्ष (Conclusion)- भारत विश्व शांति व सुरक्षा को बनाये रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र को सहयोग देता रहा है और भारत का अटल विश्वास है कि संयुक्त राष्ट्र विश्व शांति को बनाये रखने का महत्त्वपूर्ण यंत्र है। पं० जवाहरलाल ने एक बार कहा था, “हम संयुक्त राष्ट्र के बिना विश्व की कल्पना भी नहीं कर सकते।”

प्रश्न 9. यद्यपि संयुक्त राष्ट्र संघ युद्धों को रोकने से असफल रहा है और इससे जुड़े हुए दर्दनाक परिणामों को विश्व नहीं बचा सका है तो भी इसे जारी रखना बहुत जरूरी है। ऐसी कौन-सी बातें हैं जो संयुक्त राष्ट्र संघ के अस्तित्व को अनिवार्य और परम आवश्यकता बना देती है ?
उत्तर: यह कथन सही है कि अपने जीवन काल के लगभग 62 वर्षों में संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व के अनेक भागों में छिड़े अनेक राष्ट्रों के मध्य संघर्षों, झड़पों और युद्धों को पूरी तरह नहीं रोक सका। यह भी सत्य है कि प्रत्येक युद्ध का दुष्परिणाम प्रभावित लोगों को जान, माल और भी सत्य है कि संयुक्त राष्ट्र संघ अपने पूर्ववर्ती संस्था राष्ट्र संस्था (League of Nation) की तरह दूसरे विश्वयुद्ध के बाद असफल नहीं हुआ और सौभाग्यवश विश्वयुद्ध या दूसरे विश्वयुद्ध का स्तर का था उससे भी ज्यादा विनाशकारी स्तर का तीसरा विश्वयुद्ध अभी तक नहीं हुआ है।

संयुक्त राष्ट्र संघ को बनाये रखना बहुत जरूरी है क्योंकि (i) आज संयुक्त राष्ट्र संघ में 50 या 55 राष्ट्र इसके सदस्य नहीं हैं। बल्कि 1 जनवरी, 2007 तक 192 देश इसके सदस्य बन चुके हैं यह दुनिया का सबसे बड़ा, प्रभावशाली अन्तर्राष्ट्रीय मंच है यहाँ पर अन्तर्राष्ट्रीय शांति, सुरक्षा, सामाजिक-आर्थिक समस्याओं पर खुले मस्तिष्क के वाद-विवाद और विचार-विमर्श होता है। नि:संदेह इससे अन्तर्राष्ट्रीय वातावरण को सौहार्द्र बनाये रखने में प्रशंसनीय मदद मिली है।

(ii) यह सही है कि कुछ राष्ट्रों के पास अणु और परामाणु बम हैं लेकिन यह भी सही है कि बड़ी शक्तियों के प्रभाव के कारण पर्याप्त सीमा तक सर्वाधिक भयंकर हथियारों के निर्माण और रसायन व जैविक हथियारों के प्रयोग और निर्माण को रोकने में सफलता इस संस्था को मिली है।

(iii) आज साम्यवादी विचारधारा लगभग शांत है। सोवियत संघ और चीन सहित अनेक पूर्व साम्यवादी यूरोपीय देश वैश्वीकरण, उदारीकरण और नई अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक नीति और अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं।

(iv) अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक, पिछड़े और गरीब राष्ट्रों को ऋण, भुगतान और आपातकाल में अनेक प्रकार की सहायता दिलाने में सक्षम रहा है। इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ का बना रहना जरूरी है। युद्ध मानवीय मस्तिष्क और निहित स्वार्थों, अहंकार, गलत राष्ट्रीय नीतियों और मानव विरोधी नेताओं के कार्यों की उपज है। कब सह-शस्त्र, सैन्य गुट बनने लगेंगे या कब साम्यवाद और पूँजीवाद के मध्य द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद 45 वर्षों तक जारी रहा। संघर्ष उन्हें जन्म तो देगा। इसके विषय में कोई भी व्यक्ति यह भविष्यवाणी नहीं कर सकता कि ऐसा कभी नहीं होगा।

(v) आज संयुक्त राष्ट्र संघ शिक्षा, प्रचार, स्वास्थ्य सेवाओं में बढ़ोतरी, महामारियों को रोकने आदि में अहम् भूमिका निभा रहा है। आतंकवाद, धर्मांधता और शस्त्रीकरण के स्थान पर आर्थिक, सामाजिक विकास और लोकतंत्र के प्रसार और सशस्त्रीकरण को मजबूत करना है तो संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रयोग और अधिक मानव मूल्यों, विश्व बंधुत्व, पारस्परिक सहयोग की भावना से किया जाना चाहिए।

प्रश्न 10. वैश्वीकरण ने भारत को कैसे प्रभावित किया है और भारत कैसे वैश्वीकरण को प्रभावित कर रहा है ?
उत्तर:
1. भारत पर वैश्वीकरण का प्रभाव (Impact of Globalisation in India)- पूँजी, वस्तु, विचार और लोगों की आवाजाही का भारतीय इतिहास कई सदियों का है। औपनिवेशिक दौर में ब्रिटेन के साम्राज्यवादी मंसूबों के परिणामस्वरूप भारत आधारभूत वस्तुओं को कच्चे माल का निर्यातक तथा बने-बनाये सामानों का आयातक देश था। आजादी हासिल करने के बाद, ब्रिटेन के साथ अपने इन अनुभवों से सबक लेते हुए हमने फैसला किया कि दूसरे पर निर्भर रहने के बजाय खुद सामान बनाया जाय। हमने यह भी फैसला किया कि दूसरे देशों को निर्यात की अनुमति नहीं होगी ताकि हमारे अपने उत्पादक चीजों को बनाना सीख सके। इस ‘संरक्षणवाद’ से कुछ नयी दिक्कतें पैदा हुईं। कुछ क्षेत्रों में तरक्की हई तो कुछ जरूरी क्षेत्रों जैसे स्वास्थ्य, आवास और प्राथमिक शिक्षा पर उतना ध्यान नहीं दिया गया जितने के वे हकदार थे। भारत में आर्थिक वृद्धि की दर धीमी रही।

2. भारत में वैश्वीकरण को अपनाना (Adoptation of Globalisation in India)- 1991 में नई आर्थिक नीति के अंतर्गत भारत ने उदारीकरण और वैश्वीकरण को अपना लिया। अनेक देशों की तरह भारत में भी संरक्षण की नीति को त्याग दिया गया। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की समानता, विदेशी पूँजी के निवेश का स्वागत किया गया। विदेशी प्रौद्योगिकी और कुछ विशेषज्ञों की सेवाएँ ली जा रही हैं। दूसरी ओर भारत ने औद्योगिक संरक्षण की नीति को त्याग दिया है। अब अधिकांश वस्तुओं के आयात के लिए लाइसेंस लेना अनिवार्य नहीं है। भारत स्वयं को अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था से जोड़ रहा है। भारत का निर्यात बढ़ रहा है लेकिन साथ ही साथ अनेक वस्तुओं की कीमतें बढ़ रही हैं। लाखों लोग बेरोजगार हैं। कुछ लोग जो पहले धनी थे वे अधिक धनी हो रहे हैं और गरीबों की संख्या बढ़ रही है।

3. भारत की वैश्वीकरण का प्रतिरोध (Resistence of Globalisation in India)- वैश्वीकरण बड़ा बहसमतलब मुद्दा है और पूरी दुनिया में इसकी आलोचना हो रही है। वैश्वीकरण के आलोचक कई तर्क देते हैं।
(a) वामपंथी राजनीतिक रुझान रखने वालों का तर्क है कि मौजूदा वैश्वीकरण विश्वव्यापी पूँजीवादी की एक खास अवस्था है जो धनिकों को और ज्यादा धनी (तथा इनकी संख्या में कमी) और गरीब को और ज्यादा गरीब बनाती है।

(b) राज्य के कमजोर होने से गरीबों के हित की रक्षा करने की उसकी क्षमता में कमी आती है। वैश्वीकरण के दक्षिणपंथी आलोचक इसके राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रभावों को लेकर चिंतित हैं। राजनीतिक अर्थों में उन्हें राज्य के कमजोर होने की चिंता है। वे चाहते हैं कि कम-से-कम कुछ क्षेत्रों में आर्थिक आत्मनिर्भरता और ‘संरक्षणवाद’ का दौर फिर कायम हो। सांस्कृतिक संदर्भ में इनकी चिंता है कि परम्परागत संस्कृति की हानि होगी और लोग अपने सदियों पुराने जीवन-मूल्य तथा तौर-तरीकों से हाथ धो देंगे। यहाँ हम गौर करें कि वैश्वीकरण-विरोधी आंदोलन भी विश्वव्यापी नेटवर्क में भागीदारी करते हैं और अपने से मिलती-जुलती सोच रखने वाले दूसरे देशों के लोगों से गठजोड़ करते हैं। वैश्वीकरण-विरोधी बहुत से आंदोलन वैश्वीकरण की धारणा के विरोधी नहीं बल्कि वैश्वीकरण किसी खास कार्यक्रम के विरोधी हैं जिसे वे साम्राज्यवाद का एक रूप मानते हैं।

वैश्वीकरण के प्रतिरोध को लेकर भारत के अनुभव क्या हैं ?
(a) सामाजिक आंदोलनों से लोगों को अपने पास-पड़ोस की दुनिया को समझने में मदद मिलती है। लोगों को अपनी समस्याओं के हल तलाशने में भी सामाजिक आंदोलन से मदद मिलती है। भारत में वैश्वीकरण का विरोध कई हलकों से हो रहा है। आर्थिक वैश्वीकरण के खिलाफ वामपथी तेवर की आवाजें राजनीतिक दलों की तरफ से उठी है तो इंडियन सोशल फोरम जैसे मंचों से भी। औद्योगिक श्रमिक और किसानों के संगठनों ने बहुराष्ट्रीय निगमों में प्रवेश का विरोध किया है। कुछ वनस्पतियों मसलन ‘नीम’ को अमेरिकी और यूरोपीय फर्मों ने पेटेण्ट कराने के प्रसास किए। इसका भी कड़ा विरोध हुआ।

(b) वैश्वीकरण का विरोध राजनीति के दक्षिणपंथी खेमों से भी हुआ है। यह खेमा विभिन्न सांस्कृतिक प्रभावों का विरोध कर रहा है जिसमें केबल नेटवर्क के जरिए उपलब्ध कराए जा रहे विदेशी टी० वी० चैनलों से लेकर वैलेण्टाइन-डे मनाने तथा स्कूल-कॉलेज के छात्र-छात्राओं की पश्चिमी पोशाकों के लिए बढ़ती अभिरुचि तक का विरोध शामिल है।

प्रश्न 11. 9/11 और आतंकवाद के विरुद्ध विश्वव्यापी युद्ध पर एक लेख लिखिए।
उत्तर: 9/11 और आतंकवाद के विरुद्ध विश्वव्यापी युद्ध (9/11 and the Global War on Terror)-
(i) पृष्ठभूमि (Background)- 11 सितंबर, 2001 ई० के दिन विभिन्न अरब देशों के 19 अपहरणकर्ताओं ने उड़ान भरने के चंद मिनटों बाद चार अमेरिकी व्यावसायिक विमानों पर कब्जा कर लिया। अपहरणकर्ता इन विमानों को अमेरिका की महत्त्वपूर्ण इमारतों की सीध में उड़ाकर ले गये। दो विमान न्यूयार्क स्थित वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के उत्तरी और दक्षिणी टावर से टकराए। तीसरा विमान वर्जिनिया के अर्लिंगटन स्थित ‘पेंटागन’ से टकराया। ‘पेंटागन’ में अमेरिकी रक्षा-विभाग का मुख्यालय है। चौथे विमान को अमेरिकी काँग्रेस की मुख्य इमारत से टकराना था लेकिन यह पेन्सिलवेनिया के एक खेत में गिर गया। इस हमले को ‘नाइन एलेवन’ कहा जाता है।

(ii) आतंकवादी हमले के प्रभाव (Consequences of terrorist attack)- इस हमले में लगभग तीन हजार व्यक्ति मारे गये। अमेरिकियों के लिए यह दिल दहला देने वाला अनुभव था। उन्होंने इस घटना की तुलना 1814 और 1941 की घटनाओं से की 1814 में ब्रिटेन ने वाशिंगटन डीसी में आगजनी की थी और 1941 में जापानियों ने पर्ल हार्बर पर हमला किया था। जहाँ तक जान-माल की हानि का सवाल है तो अमेरिकी जमीन पर यह अब तक का सबसे गंभीर हमला था। अमेरिका 1776 में एक देश बना और तब से उसने इतना बड़ा हमला नहीं झेला था।

(iii) अमेरिका की प्रतिक्रिया (Reaction of America) :
(a) 9/11 के जवाब में अमेरिका ने कदम उठाये और भयंकर कार्यवाही की। अब क्लिंटन की जगह रिपब्लिकन पार्टी के जॉर्ज डब्ल्यू. बुश राष्ट्रपति थे। ये पूर्ववर्ती राष्ट्रपति एच. डब्ल्यू. बुश के पुत्र हैं। क्लिंटन के विपरीत बुश ने अमेरिकी हितों को लेकर कठोर रवैया अपनाया और इन हितों को बढ़ावा देने के लिए कड़े कदम उठाये।

(b) ‘आतंकवाद के विरुद्ध विश्वव्यापी युद्ध’ के अंग के रूप में अमेरिका ने ‘ऑपरेशन एण्डयूरिंग फ्रीडम’ चलाया। यह अभियान उन सभी के खिलाफ चला जिन पर 9/11 का शक था। इस अभियान में मुख्य निशाना अल-कायदा और अफगानिस्तान के तालिबान-शासन को बनाया गया। तालिबान के शासन के पाँव जल्दी ही उखड़ गए लेकिन तालिबान और अल-कायदा के अवशेष अब भी सक्रिय हैं। 9/11 की घटना के बाद से अब तक इनकी तरफ से पश्चिमी मुल्कों में कई जगहों पर हमले हुए हैं। इससे इनकी सक्रितया की बात स्पष्ट हो जाती है।

(c) अमेरिकी सेना ने पूरे विश्व में गिरफ्तारियाँ की। अक्सर गिरफ्तार लोगों को अलग-अलग देशों में भेजा गया और उन्हें खुफिया जेलखानों में बंदी बनाकर रखा गया। क्यूबा के निकट अमेरिकी नौसेना का एक ठिकाना ग्वांतानामो वे में है। कुछ बंदियों को वहाँ रखा गया। इस जगह रखे गये बंदियों को न तो अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की सुरक्षा प्राप्त है और न ही अपने देश या अमेरिका के कानूनों की। संयुक्त राष्ट्रसंघ के प्रतिनिधियों तक को इन बंदियों से मिलने की अनुमति नहीं दी गई।

प्रश्न 12. नेपाल के लोग अपने देश में लोकतंत्र को बहाल करने में कैसे सफल हुए ?
उत्तर: नेपाल में लोकतंत्र की बहाली (Establishment of democracy in Nepal)-
1. नेपाल अतीत में एक हिन्दू-राज्य था फिर आधुनिक काल में कई सालों तक यहाँ संवैधानिक राजतंत्र रहा। संवैधानिक राजतंत्र के दौर में नेपाल की राजनीतिक पार्टियाँ और आम जनता एक ज्यादा खुले और उत्तरदायी शासन की आवाज उठाती रही, लेकिन राजा ने सेना की सहायता से शासन पर पूरा नियंत्रण कर लिया और नेपाल में लोकतंत्र की राह अवरुद्ध हो गई।

2. लोकतंत्र-समर्थक मजबूत आंदोलन की चपेट में आकर राजा ने 1990 में नए लोकतांत्रिक संविधान की माँग मान ली, लेकिन नेपाल में लोकतांत्रिक सरकारों का कार्यकाल बहुत छोटा और समस्याओं से भरा रहा। 1990 के दशक में नेपाल के माओवादी नेपाल के अनेक हिस्सों में अपना प्रभाव जमाने में कामयाब हुए। माओवादी, राजा और सत्ताधारी अभिजन के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह करना चाहते थे। इस वजह से राजा की सेना और माओवादी गुरिल्लों के बीच हिंसक लड़ाई छिड़ गई।

3. कुछ समय एक राजा की सेना, लोकतंत्र-समर्थकों और माओवादियों के बीच त्रिकोणीय संघर्ष हुआ। 2002 में राजा ने संसद को भंग कर दिया और सरकार को गिरा दिया। इस तरह नेपाल में जो भी थोड़ा-बहुत लोकतंत्र था उसे राजा ने खत्म कर दिया।

4. अप्रैल 2006 में यहाँ देशव्यापी लोकतंत्र-समर्थक प्रदर्शन हुए। संघर्षरत लोकतंत्र-समर्थक शक्तियों ने अपनी पहली बड़ी जीत हासिल की जब राजा ज्ञानेन्द्र ने बाध्य होकर संसद को बहाल किया। इसे अप्रैल 2002 में भंग कर दिया गया था। मोटे तौर पर अहिंसक रहे इस प्रतिरोध का नेतृत्व सात दलों के गठबंधन (सेवन पार्टी अलाएंस), माओवादी तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं ने किया।

5. नेपाल में लोकतंत्र की आमद अभी मुकम्मल नहीं हुई है। फिलहाल, नेपाल अपने इतिहास के एक अद्वितीय दौर से गुजर रहा है क्योंकि वहाँ संविधान-सभा के गठन की दिशा में कदम उठाए जा रहे हैं। यह संविधान-सभा नेपाल का संविधान लिखेगी। नेपाल में कुछ लोग अब भी मानते हैं कि अलंकारिक अर्थों में राजा का पद कायम रखना जरूरी है ताकि नेपाल अपने अतीत से जुड़ा रहे। माओवादी समूहों ने सशस्त्र संघर्ष की राह छोड़ देने की बात मान ली है।

माओवादी चाहते हैं कि संविधान में मूलगामी सामाजिक, आर्थिक पुनर्रचना के कार्यक्रमों को शामिल किया जाए। सात दलों के गठबंधन में शामिल हरेक दल को यह बात स्वीकार हो-ऐसा नहीं लगता। माओवादी और कछ अन्य राजनीतिक समूह भारत की सरकार और नेपाल के भविष्य में भारतीय सरकार की भूमिका को लेकर बहुत आशंकित है। 2017 में नेपाल में आम चुनाव के बाद वहाँ वामपंथी सरकार काम कर रही है।

प्रश्न 13. ‘बांग्लादेश में लोकतंत्र’ विषय पर एक लेख लिखिए।
उत्तर: बांग्लादेश में लोकतंत्र (Democracy in Bangladesh):
1. (a) पृष्ठभूमि (Background)- 1947 से 1971 तक बांग्लादेश पाकिस्तान का अंग था। अंग्रेजी राज के समय के बंगाल और असम के विभाजित हिस्सों से पूर्वी पाकिस्तान का यह क्षेत्र बना था। इस क्षेत्र के लोग पश्चिमी पाकिस्तान के दबदबे और अपने ऊपर उर्दू भाषा को लादने के खिलाफ थे। पाकिस्तान के निर्माण के तुरंत बाद ही यहाँ के लोगों ने बंगाली संस्कृति और भाषा के साथ किए जा रहे दुर्व्यवहार के खिलाफ विरोध जताना शुरू कर दिया। इस क्षेत्र की जनता ने प्रशासन में अपने समुचित प्रतिनिधित्व तथा राजनीतिक सत्ता में समुचित हिस्सेदारी की मांग भी उठायी।

(b) पश्चिमी पाकिस्तान के प्रभुत्व के खिलाफ जन-संघर्ष का नेतृत्व शेख मुजीबुर्रहमान ने किया। उन्होंने पूर्वी क्षेत्र के लिए स्वायत्तता की माँग की। शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व वाली आवामी लीग को 1970 के चुनावों पूर्वी पाकिस्तान के लिए प्रस्तावित संविधान सभा में बहुमत हासिल हो गया लेकिन सरकार पर पश्चिमी पाकिस्तान के नेताओं का दबदबा था और सरकार ने इस सभा को आहूत करने से इंकार कर दिया।

(c) शेख मुजीबुर को गिरफ्तार कर लिया गया। जनरल याहिया खान के सैनिक शासन में पाकिस्तानी सेना ने बंगाली जनता के जन-आंदोलन को कुचलने की कोशिश की। हजारों लोग पाकिस्तानी सेना के हाथों मारे गए। इस वजह से पूर्वी पाकिस्तान से बड़ी संख्या में लोग भारत पलायन कर गए। भारत के सामने इन शरणार्थियों को सँभालने की समस्या आ खड़ी हुई।

2. भारत का समर्थन (Support of India)- भारत की सरकार ने पूर्वी पाकिस्तान के लोगों की आजादी की माँग का समर्थन किया और उन्हें वित्तीय और सैन्य सहायता दी। इसके परिणामस्वरूप 1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ गया। युद्ध की समाप्ति पूर्वी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना के आत्मसमर्पण तथा एक स्वतंत्र राष्ट्र ‘बांग्लादेश’ के निर्माण के साथ हुई। बांग्लादेश ने अपना संविधान बनाकर उसमें अपने को एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक तथा समाजवादी देश घोषित किया। बहरहाल, 1975 में शेख मुजीबुर्रहमान ने संविधान में संशोधन प्रणाली को मान्यता मिली। शेख मुजीबुर ने अपनी पार्टी आवामी लीग को छोड़कर अन्य सभी पार्टियों को समाप्त कर दिया। इससे तनाव और संघर्ष की स्थिति पैदा हुई।

3. सैनिक विद्रोह ( 1975) अन्ततः लोकतंत्र की पुनः स्थापना (Military Revolt (1975) and at less democracy was re-established)- (a) 1975 के अगस्त में सेना ने उनके खिलाफ बगावत कर दिया और इस नाटकीय तथा त्रासद घटनाक्रम में शेख मुजीबुर सेना के हाथों मारे गए। नये सैनिक-शासन जियाऊर्रहमान ने अपनी बांग्लादेश नेशनल पार्टी बनायी और 1979 के चुनाव में विजयी रहे। जियाऊर्रहमान की हत्या हुई और लेफ्टिनेंट जनरल एच. एम. इरशाद के नेतृत्व में बांग्लादेश में एक और सैनिक-शासन ने बागडोर संभाला।

(b) बांग्लादेश की जनता जल्दी ही लोकतंत्र के समर्थन में उठ खड़ी हुई। आंदोलन में छात्र आगे-आगे चल रहे थे। बाध्य होकर जनरल इरशाद ने एक हद तक राजनीतिक गतिविधियों की छूट दी। इसके बाद के समय में जनरल इरशाद पाँच सालों के लिए राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। जनता के व्यापक विरोध के आगे झुकते हुए लेफ्टिनेंट जनरल इरशाद को राष्ट्रपति का पद 1990 में छोड़ना पड़ा। 1991 में चुनाव हुए। इसके बाद से बांग्लादेश में बहुदलीय चुनावों पर आधारित प्रतिनिधिमूलक लोकतंत्र कायम है। 2016 में भारत और बंगलादेश में एक समझौता हुआ जिसमें दोनों देशों के बीच आपसी सहयोग में वृद्धि हुई।

प्रश्न 14. नक्सलवादी आंदोलन पर एक निबंध लिखिए।
उत्तर:
1. नक्सलवादी आंदोलन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (Historical background of Naxalite Movement)- पश्चिम बंगाल के पर्वतीय जिले दार्जिलिंग के नक्सलवादी पुलिस थाने के इलाके में 1967 में एक किसान विद्रोह उठ खड़ा हुआ। इस विद्रोह की अगुआई मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के स्थानीय कैडर के लोग कर रहे थे। नक्सलवादी पुलिस थाने से शुरू होने वाला यह आंदोलन भारत के कई राज्यों में फैल गया। इस आंदोलन को नक्सलवादी आंदोलन के रूप में जाना जाता है।

2. सी.पी.आई. से अलग होना और गुरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपनाना (To be seperated from CPM and adopt guerilla Warfare strategy)- 1969 में नक्सलवादी सी.पी.आई. (एम) से अलग हो गए और उन्होंने सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) नाम से एक नई पार्टी चारु मजदूमदार के नेतृत्व में बनायी। इस पार्टी की दलील थी कि भारत में लोकतंत्र एक छलावा है। इस पार्टी ने क्रांति करने के लिए गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनायी।

3. कार्यक्रम (Programme)- नक्सलवादी आंदोलन ने धनी भूस्वामियों से जमीन बलपूर्वक छीनकर गरीब और भूमिहीन लोगों को दी। इस आंदोलन के समर्थक अपने राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए हिंसक साधनों के इस्तेमाल के पक्ष में दलील देते थे।

4. नक्सलवाद का प्रसार और प्रभाव (Spread and Impact of Naxalism)- 1970 के दशक वर्षों में 9 राज्यों के लगभग 75 जिले नक्सलवादी हिंसा से प्रभावित हैं। इनमें अधिकतर बहुत पिछड़े इलाके हैं यहाँ आदिवासियों की जनसंख्या ज्यादा है। इन इलाकों के नक्सलवाद की पृष्ठभूमि पर अनेक फिल्में भी बनी हैं। उपन्यास पर आधारित ‘हजार चौरासी की माँ’ ऐसी ही में बँटाई या पट्टे पर खेतीबाड़ी करने वाले तथा छोटे किसान ऊपज में हिस्से, पट्टे की सुनिश्चित – कामकाजी महिलाओं वाले परिवार में दहेज की प्रथा का चलन कम है।

प्रश्न 15. क्या आप शराब विरोधी आंदोलन को महिला-आंदोलन का दर्जा देंगे? कारण बताएँ।
उत्तर: हाँ हम शराब विरोधी आंदोलन को महिला आंदोलन का दर्जा देंगे। क्योंकि-
(a) यह आंदोलन दक्षिणी राज्य आंध्र प्रदेश में ताड़ी-विरोधी आंदोलन महिलाओं का एक स्वतः स्फूत आंदोलन था ये महिलाएँ अपने आस-पड़ोस में मदिरा की बिक्री पर पाबंदी की माँग कर रही थी। वर्ष 1992 के सितंबर और अक्टूबर माह से ग्रामीण महिलाओं ने शराब के खिलाफ लड़ाई छेड़ रखी थी। यह लड़ाई माफिया और सरकार दोनों के खिलाफ थी। इस आंदोलन ने ऐसा रूप धारण किया कि इसे राज्य में ताड़ी-विरोधी आंदोलन के रूप में जाना गया।

(b) आंध्र प्रदेश के नेल्लौर जिले के एक दूर-दराज के गाँव दूबरगंटा में 1990 के शुरूआती दौर में महिलाओं के बीच प्रौढ़-साक्षरता कार्यक्रम चलाया गया जिसमें महिलाओं ने बड़ी संख्या में पंजीकरण कराया। कक्षाओं में महिलाएँ घर के पुरुषों द्वारा देशी शराब, ताड़ी आदि पीने की शिकायतें करती थीं। ग्रामीणों को शराब की गहरी लत लग चुकी थी। इसके चलते वे शारीरिक और मानसिक रूप से भी कमजोर हो गए थे। शराबखोरी से क्षेत्र की ग्रामीण अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हो रही थी। शराब की खपत बढ़ने से कर्ज का बोझ बढ़ा। पुरुष अपने काम से लगातार गैर-हाजिर रहने लगे। शराब के ठेकेदार ताड़ी व्यापार एक एकाधिकार बनाये रखने के लिए अपराध में में व्यस्त थे। शराबखोरी से सबसे ज्यादा दिक्कत महिलाओं को रही थी।

इससे परिवार की अर्थव्यवस्था चरमराने लगी। परिवार में तनाव और मारपीट का माहौल बनने लगा। नेल्लोर में महिलाएँ ताड़ी के खिलाफ आगे आई और उन्होंने शराब की दुकानों को बंद कराने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया। यह खबर तेजी से फैली और करीब 5000 गाँवों की महिलाओं ने आंदोलन में भाग लेना शुरू कर दिया। प्रतिबंध-संबंधी एक प्रस्ताव को पास कर इसे जिला कलेक्टर को भेजा गया। नेल्लोर जिले में ताड़ी की नीलामी 17 बार रद्द हुई। नेल्लोर जिले का यह आंदोलन ध रे-धीरे पूरे राज्य में फैल गया।

(c) ताड़ी विरोधी आंदोलन से अपने जीवन से जुड़ी सामाजिक समस्याएँ जैसे-दहेज प्रथा, घरेलू हिंसा, घर से बाहर यौन उत्पीड़न, समाज में महिलाओं पर हो रहे अत्याचार, परिवार में लैंगिक भेदभाव आदि के विरुद्ध उन्होंने व्यापक जागरूकता पैदा की।

(d) महिलाओं ने पंचायतों, विधान सभाओं, संसद ने अपने लिए एक-तिहाई स्थानों के आरक्षण और सरकार के सभी विभागों जैसे-वायुयान, पुलिस सेवाएँ आदि में समान अवसरों और पदोन्नति की बात की। उन्होंने न केवल धरने दिए, प्रदर्शन किए, जुलूस निकाले बल्कि विभिन्न मुद्दों पर महिला आयोग, राष्ट्रीय आयोग और लोकतांत्रिक मंचों से भी आवाज उठाई।

(e) संविधान में ’73वाँ व 74वाँ संशोधन हुआ। स्थानीय निकायों में महिलाओं के स्थान आरक्षित हो गए। विधानसभाओं और संसद में आरक्षण के लिए विधेयक, अभी पारित नहीं हुए हैं। अनेक राज्यों में शराब बंदी लागू कर दी है और महिलाओं के विरुद्ध अत्याचारों पर कठोर दंड दिए जाने की व्यवस्था की गई है।

प्रश्न 16. भारत में स्त्री उत्थान के लिए उठाए गए कदमों का वर्णन कीजिए।
उत्तर: स्त्री उत्थान के लिए उठाए गए कदम (Steps taken for upliftment of Women)- स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद भारत ने स्त्रियों की दशा में सुधार लाने के लिए बहुत-से कदम उठाए गए हैं-
1. महिला अपराध प्रकोष्ठ तथा परिवार न्यायपालिका (Cells of crimes against Women and family courts)- यह महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिए सुनवाई करते हैं। विवाह, तलाक, दहेज, पारिवारिक मुकदमे भी सुनते हैं।

2. सरकारी कार्यालयों में महिलाओं की भर्ती (Recruitment of woman in government)- लगभग सभी सरकारी कार्यालयों में महिला कर्मचारियों की नियुक्ति की जाती है। अब तो वायुसेना, नौसेना तथा थलसेना और सशस्त्र सेनाओं के तीनों अंगों में अधिकारी पदों पर स्त्रियों की भर्ती पर लगी रोक को हटा लिया गया है। सभी क्षेत्रों में महिलाएँ कार्य कर रही हैं।

3. स्त्री शिक्षा (Women Education)- स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् भारत में स्त्री शिक्षा का काफी विस्तार हुआ है।

4. राष्ट्रीय महिला आयोग (National Commission for Women)- 1990 के एक्ट के अंतर्गत एक राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना की गई है। महाराष्ट्र, गुजरात, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, दिल्ली, पंजाब, कर्नाटक, असम एवं गुजरात राज्यों में भी महिला आयोगों की स्थापना की जा चुकी है। ये आयोग महिलाओं पर हुए अत्याचार, उत्पीड़न, शोषण तथा अपहरण आदि के मामलों की जाँच पड़ताल करते हैं। सभी राज्यों में महिला आयोग स्थापित किए जाने की माँग जोर पकड़ रही है और इन आयोगों को प्रभावी बनाने की मांग भी जोरों पर है।

5. महिलाओं का आरक्षण (Reservation of Seats for Women)- महिलाएँ कुल जनसंख्या की लगभग 50 प्रतिशत हैं परंतु सरकारी कार्यालयों, संसद, राज्य विधान मंडलों आदि में इनकी संख्या बहुत कम है। 1993 के 73वें व 74वें संविधान संशोधनों द्वारा पंचायती राज संस्थाओं तथा नगरपालिकाओं में एक-तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिए गए हैं। संसद तथा राज्य विधानमंडलों में भी इसी प्रकार आरक्षण किए जाने की माँग जोर पकड़ रही है। यद्यपि इस ओर प्रयास किया जा रहा है परंतु सर्वसम्मति के अभाव में जब भी यह विधेयक संसद में लाया जाता है तो विभिन्न दल लग जाते हैं। अभी तक यह विधेयक पारित नहीं कराया गया है यद्यपि सभी राजनैतिक दल इसके समर्थन में बातें तो बहत करते हैं पर किसी ने ईमानदारी से इस विधेयक का समर्थन करने की ओर ध्यान नहीं दिया है।

उपर्युक्त प्रयासों के अतिरिक्त अखिल भारतीय महिला परिषद् तथा कई अन्य महिला संगठन स्त्रियों के अत्याचार, उत्पीड़न और अन्याय से बचाने, उन पर अत्याचार तथा बलात्कार करने वाले अपराधियों को दंड दिलवाने तथा महिलाओं की स्थिति में सुधार लाने के लिए प्रयत्नशील हैं।

प्रश्न 17. द्रविड़ आंदोलन पर एक निबंध लिखिए।
उत्तर: द्रविड़ आंदोलन (Dravidian Movement)
I. प्रस्तावना (Introduction)- द्रविड़ आंदोलन भारत के क्षेत्रीय आंदोलनों में से एक शक्तिशाली आंदोलन था देश की राजनीति में यह आंदोलन क्षेत्रीयवादी भावनाओं की सर्वप्रथम और सबसे प्रबल अभिव्यक्ति था।

II. आंदोलन का बदला स्वरूप (Changing natue of the movement)- सर्वप्रथम इस आंदोलन के नेतृत्व के एक हिस्से. की आकांक्षा (aspiration) एक स्वतंत्र द्रविड़ राष्ट्र बनाने की थी, परंतु आंदोलन ने तभी सशस्त्र संघर्ष (Armed Rebellion) का मार्ग नहीं अपनाया। इस आंदोलन के प्रारंभ में द्रविड़ भाषा में एक बहुत ज्यादा लोकप्रिय नारा दिया था जिसका हिंदी रूपान्तर है- ‘उत्तर हर दिन बढ़ता जाए, दक्षिण दिन-दिन घटता जाए’।

द्रविड़ आंदोलन अखिल दक्षिण भारतीय संदर्भ में अपनी बात रखता था लेकिन अन्य दक्षिणी राज्यों से समर्थन न मिलने के कारण यह आंदोलन धीरे-धीरे तमिलनाडु तक ही सिमट कर रह गया।

उपर्युक्त नारे में यह स्पष्ट है इसके संचालक देश के उत्तर और दक्षिण दो विशाल भागों में विभाजन चाहते थे।

III. नेतृत्व और तरीके (Leadership and Methods)- द्रविड़ आंदोलन का नेतृत्व तमिल सुधारक नेता ई. वी. रामास्वामी नायकर जो पेरियार के नाम से प्रसिद्ध हुए, के हाथों में था। पेरियार ने अपने नेतृत्व में द्रविड़ आंदोलन की माँग आगे बढ़ाने के लिए सार्वजनिक बहसें (Public Debates) और चुनावी मंच (Election plateforms) का ही प्रयोग किया।

IV. आंदोलन के राजनैतिक उत्तरदायी संगठन (Political Sucessor organisation of the Movement)-
(a) द्रविड़ आंदोलन की प्रक्रिया से एक राजनैतिक संगठन ‘द्रविड़ कषगम’ का सूत्रपात हुआ। यह संगठन ब्राह्मणों के वर्चस्व (Domination of the Brahman) की खिलाफत (विरोध) करता था तथा उत्तरी भारत के राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक प्रभुत्व को नकारते हुए क्षेत्रीय गौरव की प्रतिष्ठा पर जोर देता था।

(b) कालांतर में द्रविड़ कषगाम दो धड़ों में बंट गया और आंदोलन की समूची राजनीतिक विरासत द्रविड़ मुनेत्र कषगम के पाले में केंद्रित हो गई। 1953-54 के दौरान डी. एम. के. ने तीन सूत्रीय आंदोलन के साथ राजनीति में कदम रखा। आंदोलन की तीन माँगें थी-पहली, कल्लाकुडभ नामक रेलवे स्टेशन का नया नाम डालमियापुरम समस्त किया जाए और स्टेशन का मूल नाम दुबारा दिया जाए। संगठन की यह माँग उत्तर भारतीय आर्थिक प्रतीकों के विरोध को प्रकट करती थी। दूसरी माँग इस बात को लेकर थी कि स्कूली पाठ्यक्रम में तमिल संस्कृति के इतिहास को ज्यादा महत्त्व दिया जाए। संगठन की तीसरी माँग राज्य सरकार की व्यावसायिक शिक्षा नीति को लेकर थी। संगठन के अनुसार यह नीति समाज में ब्राह्मण दृष्टिकोण को बढ़ावा देती थी। डी० एम० के० के हिंदी को राजभाषा का दर्जा देने के खिलाफ थी।

V. डी० एम० के० की सफलताएँ (Success of DMK)- 1965 में हिंदी विरोधी आंदोलन की सफलता ने डी० एम० के० को जनता के बीच और भी लोकप्रिय बना दिया। राजनीतिक आंदोलनों के एक लंबे सिलसिले के बाद डी० एम० के० को 1967 के विधानसभा चुनावों में बड़ी सफलता हाथ लगी। तब से लेकर आज तक तमिलनाडु की राजनीति में द्रविड़ दलों का वर्चस्व कायम है।

VI. डी० एम० के० का विभाजन एवं कालांतर की राजनैतिक घटनाएँ (Division of DMK and Political events)- डी० एम० के संस्थापक सी० अन्नादुरै की मृत्यु के बाद दल में दो फाड़ हो गया। इसमें एक दल मूल नाम यानी डी. एम. के. को लेकर आगे चला जबकि दूसरा दल खुद को ऑल इंडिया अन्ना द्रमुक कहने लगा। यह दल स्वयं को द्रविड़ विरासत का असली हकदार बताता था। तमिलनाडु की राजनीतिक में ये दोनों दल चार दशकों से दबदबा बनाए हुए हैं। इनमें से एक दल 1996 से केंद्र में सत्तारूढ़ गठबंधन का हिस्सा रहा है।

1990 के दशक में एम०डी०एम०के०, पी०एम०के० डी०एम०डी० जैसे कई अन्य दल अस्तित्व में आए। तमिलनाडु की राजनीति में इन सभी दलों ने क्षेत्रीय गौरव के मुद्दे को किसी न किसी रूप में जिंदा रखा है। एक समय क्षेत्रीय राजनीति को भारतीय राष्ट्र के लिए खतरा माना जाता था। लेकिन तमिलनाडु की राजनीति क्षेत्रवाद और राष्ट्रवाद के बीच सहकारिता की भावना का अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करती है।

प्रश्न 18. असम आंदोलन सांस्कृतिक अभियान आर्थिक पिछड़ेपन की मिली-जुली अभिव्यक्ति था। व्याख्या कीजिए।
उत्तर: असम आंदोलन का स्वरूप नि:संदेह असम आंदोलन सांस्कृतिक अभियान और आर्थिक पिछड़ेपन की (मुख्यतः) मिली-जुली अभिव्यक्ति था। हम निम्न तथ्यों और बिंदुओं के आधार पर इस कथन की व्याख्या कर सकते हैं-
(i) असम पूर्वोत्तर में सबसे बड़ा और ऐतिहासिक दृष्टि से प्राचीनतम राज्य रहा है। कुल मिलाकर पूर्वोत्तर क्षेत्र में 7 राज्य हैं जिनमें चलाए गए समय-समय पर आंदोलन असम आंदोलन के हिस्से ही हैं। पूर्वोत्तर में बड़े पैमाने पर अप्रवासी आए हैं। इससे एक खास समस्या पैदा हुई है। स्थानीय जनता इन्हें ‘बाहरी’ समझती है और ‘बाहरी”लोगों के खिलाफ उसके मन में गुस्सा है।

भारत के दूसरे राज्यों अथवा किसी अन्य देश से आए लोगों को यहाँ की जनता रोजगार के अवसरों और राजनीतिक सत्ता के एतबार से एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में देखती है। स्थानीय लोग बाहर से आए लोगों के बारे में मानते हैं कि ये लोग यहाँ की जमीन हथिया रहे हैं। पूर्वोत्तर के कई राज्यों में इस मसले ने राजनीतिक रंग ले लिया है और कभी-कभी इन बातों के कारण हिंसक घटनाएँ भी होती हैं।

(ii) 1979 से 1985 तक चला असम आंदोलन ‘बाहरी’ लोगों के खिलाफ चले आंदोलनों का सबसे अच्छा उदाहरण है। असमी लोगों को संदेह था कि बांग्लादेश से आकर बहुत-सी मुस्लिम आबादी असम में बसी हुई थी। लोगों के मन में यह भावना घर कर गई थी कि इन विदेशी लोगों को पहचानकर उन्हें अपने देश नहीं भेजा गया तो स्थानीय असमी जनता अल्पसंख्यक हो जाएगी। कुछ आर्थिक मसले भी थे। असम में तेल, चाय और कोयला जैसे प्राकृतिक संसाधनों की मौजूदगी के बावजूद व्यापक गरीबी थी। यहाँ की जनता ने माना कि असम के प्राकृतिक संसाधन बाहर भेजे जा रहे हैं और असमी लोगों को कोई फायदा नहीं हो रहा है।

(iii) 1979 में ऑल असम स्टूडेंटस् यूनियन (आसू-AASU) ने विदेशियों के विरोध में एक आंदोलन चलाया। ‘आसू’ एक छात्र-संगठन था और इसका जुड़ाव किसी भी राजनीतिक दल से नहीं था। ‘आसू’ का आंदोलन अवैध अप्रवासी, बंगाली और अन्य लोगों के दबदबे तथा मतदाता दर्ज कर लेने के खिलाफ था। आंदोलन की माँग थी कि 1951 के बाद जितने भी लोग असम में आकर बसे हैं उन्हें असम से बाहर भेजा जाए। इस आंदोलन ने नए तरीकों को आजमाया और असमी जनता के हर तबके का समर्थन हासिल किया।

इस आंदोलन को पूरे असम में समर्थन मिला आंदोलन के दौरान हिंसक और त्रासद घटनाएँ भी हुई। बहुत-से लोगों को जान गंवानी पड़ी और धन-संपत्ति का नुकसान हुआ। आंदोलन के दौरान रेलगाड़ियों की आवाजाही तथा बिहार स्थित बरौनी तेलशोधक कारखाने को तेल-आपूर्ति रोकने की भी कोशिश की गई।

(iv) समझौता (Agreement)- छह साल की सतत अस्थिरता के बाद राजीव गाँधी के नेतृत्व वाली सरकार ने ‘आसू’ के नेताओं से बातचीत शुरू की । इसके परिणामस्वरूप 1985 में एक समझौता के अंतर्गत तय किया गया कि जो लोग बांग्लादेश-युद्ध के दौरान अथवा उसके बाद के सालों में असमय आए हैं, उनकी पहचान की जाएगी और उन्हें वापस भेजा जाएगा। आंदोलन की कामयाबी के बाद ‘आसू’ और असमगण संग्राम परिषद् ने साथ मिलकर अपने को एक क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टी के रूप में संगठित किया। इस पार्टी का नाम असमगण परिषद् रखा गया। असमगण परिषद् 1985 में इस वायदे के साथ सत्ता में आई थी कि विदेशी लोगों की समस्या को सुलझा लिया जाएगा और एक ‘स्वर्णिम असम’ का निर्माण किया जाएगा।

(v) शांति प्रदेश और क्षेत्र (Peace in Province and Area)- असम-समझौता से शांति कायम हुई और प्रदेश की राजनीति का चेहरा भी बदला लेकिन अप्रवास’ की समस्या का समाध न नहीं हो पाया। ‘बाहरी’ का मसला अब भी असम और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में राजनीति में एक जीवंत मसला है। यह समस्या त्रिपुरा में ज्यादा गंभीर है क्योंकि यहाँ के मूलनिवासी खुद अपने ही प्रदेश में अल्पसंख्यक बन गए हैं। मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश के लोगों में भी इसी भय के कारण चकमा शरणार्थियों को लेकर गुस्सा है।

प्रश्न 19. “मुल्कों की शांति और समृद्धि क्षेत्रीय संगठनों को बनाने और मजबूत करने पर टिकी है।” इस कथन की पुष्टि करें।
उत्तर: प्रत्येक देश की शांति और समृद्धि क्षेत्रीय आर्थिक संगठनों के निर्माण और उन्हें सुदृढ़ बनाने पर टिकी है क्यों क्षेत्रीय आर्थिक संगठन बनने पर कृषि, उद्योग-धंधों, व्यापार, यातायात, आर्थिक संस्थाओं आदि को बढ़ावा देती है। ये आर्थिक संगठन बनेंगे तो लोगों को प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रों में रोजगार मिलेगा। रोजगारी गरीबी को दूर करती है। समृद्धि का प्रतीक राष्ट्रीय आय और प्रतिव्यक्ति आय का बढ़ाना प्रमुख सूचक है।

जब लोगों को रोजगार मिलेगा, गरीबी दूर होगी तो, आर्थिक विषमता कम करने के लिए साधारण लोग भी अपने-अपने आर्थिक संगठनों में आवाज उठाएँगे। श्रमिकों को उनका उचित हिस्सा, अच्छी मजदूरियों/वेतनों, भत्तों, बोनस आदि के रूप में मिलेगा तो उनकी क्रय शक्ति बढ़ेगी। वे अपने परिवार के जनों को शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, संवादवहन आदि की अच्छी सुविधाएँ प्रदान करेंगे। क्षेत्रीय आर्थिक संगठन बाजार शक्तियों और देश की सरकारों की नीतयों से गहरा संबंध रखती है।

हर देश अपने यहाँ कृषि, उद्योगों और व्यापार को बढ़ावा देने के लिए परस्पर क्षेत्रीय राज्यों (देशों) से सहयोग माँगते हैं और उन्हें पड़ोसियों को सहयोग देना होता है। वे चाहते हैं कि उनके उद्योगों को कच्चा माल मिले वे अतिरिक्त संसाधनों का निर्यात करना चाहते हैं। ये तभी संभव होगा जब क्षेत्रों और राष्ट्रीय स्तर पर शांति होगी। बिना शांति के विकास नहीं हो सकता। क्षेत्रीय आर्थिक संगठन पूरा व्यय नहीं कर सकते। पूरा उत्पादन हुए बिना समृद्धि नहीं आ सकती। संक्षेप में क्षेत्रीय आर्थिक संगठन विभिन्न देशों में पूँजी निवेश, श्रम गतिशीलता, यातायात सुविधाओं के विस्तार, विद्युत उत्पादन वृद्धि में सहायक होते हैं। यह सब मूल्कों की शांति और समृद्धि को सुदृढ़ता प्रदान करते हैं।

प्रश्न 20. अन्य पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए सरकार ने क्या कदम उठाए हैं ?
उत्तर: अनुच्छेद 340 में कहा गया है कि सरकार अन्य पिछड़ी जाति के लिए आयोग नियुक्त कर सकती है। पहली बार 1953 में काका कालेलकर की अध्यक्षता में इस प्रकार का आयोग नियुक्त किया गया। इस आयोग ने 2399 जातियों को पिछड़ी जातियों में सम्मिलित किया। 1978 में वी.वी. मंडल की अध्यक्षता में इस आयोग ने 3743 प्रजातियों को पिछड़ी जाति में शामिल करने की सिफारिश की। कमीशन ने 27 प्रतिशत नौकरियाँ अन्य पिछड़ी जाति के लिए आरक्षितं की।

1998-99 से निम्न कार्यक्रम अन्य पिछड़े वर्ग के लिए शुरू किया गया।

  1. परीक्षा पूर्व कोचिंग अन्य पिछड़े वर्ग के उन लोगों के बच्चों के लिए जिनकी आय एक लाख रु. से कम हो।
  2. अन्य पिछड़े वर्ग के लड़के-लड़कियों के लिए हॉस्टल।
  3. प्री-मैट्रिक छात्रवृतियाँ।
  4. पोस्ट-मैट्रिक छात्रवृतियाँ।
  5. सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षणिक दशा सुधारने के लिए कार्यरत स्वैच्छिक संगठनों की सहायता करना।

प्रश्न 21. ‘भारत विभाजन की सर्वाधिक जटिल कठिनाई अल्पसंख्यकों की थी।’ इस कथन की लगभग 100-150 शब्दों में व्याख्या कीजिए।
उत्तर: प्रस्तावना (Introduction)- भारत का विभाजन देश और लोगों के लिए अत्यधिक दुखदायी घटना थी। इस विभाजन से देश के समक्ष अनेक समस्याएँ और कठिनाई उपस्थित थीं लेकिन इन सभी में विभाजन की अबूज या जटिल कठिनाई अथवा समस्या अल्पसंख्यकों की थी।

अल्पसंख्यक (Minority)- अल्पसंख्यक का यहाँ संबंध देश-विभाजन के बाद अस्तित्व में आए दोनों देशों-भारत और पाकिस्तान की सीमाओं के दोनों ओर अल्पसंख्यक अर्थात् भारत से जाने वाले मुस्लिम और पाकिस्तान से आने वाले लाखों हिंदू और सिख आबादी से है। भारत के हिस्से में आए पंजाब और बंगाल के लाखों की संख्या में मुसलमानों की आजादी थी। इसका विस्थापन और पुनर्वास दोनों देशों की सरकारों के समक्ष जटिल कठिनाइयाँ थीं।

समस्या की जटिलता (Complexity ofProblem)- (i) भारत से जाने वाले मुसलमान लाखों की संख्या में पंजाब, बंगाल और दिल्ली उसके आस-पास के क्षेत्रों, विभाजन के कारण बड़ी कठिनाई, दुविधा और संकट में पड़ गए। इलाके में भी मुसलमानों की एक बड़ी आबादी थी। ये सब लोग एक तरह से साँसत में थे। इन लोगों ने पाया कि हम तो अपने ही घर में विदेशी बन गए। जिस जमीन पर वे और उनके पुरखे सदियों से आबाद रहे उसी जमीन पर वे ‘विदेशी’ बन गए थे। जैसे ही यह बात साफ हुई कि देश का बँटवारा होने वाला है वैसे ही दोनों तरफ के अल्पसंख्यकों पर हमले होने लगे। बड़ी जल्दी हिंसा नियंत्रण से बाहर हो गई। दोनों के पास एकमात्र रास्ता यही बचा था कि वे अपने-अपने घरों को छोड़ दें। कई बार तो उन्हें ऐसा चंद घंटों की मोहलत के अंदर करना पड़ा।

(ii) 1947 ई० में बड़े पैमाने पर एक जगह की आबादी दूसरी जगह जाने को मजबूर हुई थी। आबादी का यह स्थानांतरण आकस्मिक, अनियोजित और त्रासदी से भरा था। मानव-इतिहास के अब तक ज्ञात सबसे बड़े स्थानांतरणों में से यह एक था। धर्म के नाम पर एक समुदाय के लोगों ने दूसरे समुदाय के लोगों को बेहरमी से मारा। लाहौर, अमृतसर और कलकत्ता जैसे शहर सांप्रदायिक अखाड़े में बदल गए। जिन क्षेत्रों में ज्यादातर हिंदू अथवा सिख आबादी थी। उन क्षेत्रों में मुसलमानों ने जाना छोड़ दिया। ठीक इसी तरह मुस्लिम बहुल आबादी वाले क्षेत्रों में हिंदू और सिख भी नहीं गुजरते थे।

(iii) दोनों ही तरफ के अल्पसंख्यक अपने घरों से भाग खड़े हुए और अकसर अस्थाई तौर पर उन्हें शरणार्थी शिविरों में शरण लेनी पड़ी। कल तक जो लोगों का अपना वतन हुआ करता था वहीं की पुलिस अथवा स्थानीय प्रशासन अब इन लोगों के साथ रुखाई का बरताव कर रहा था। लोगों को सीमा के दूसरी तरफ जाना पड़ा और ऐसा उन्हें हर हाल में करना था। अकसर लोगों ने पैदल चलकर यह दूरी तय की।

(iv) सीमा के दोनों ओर हजारों की संख्या में औरतों को अगवा कर लिया गया। उन्हें जबरन शादी करनी पड़ी और अगवा करने वाले का धर्म भी अपनाना पड़ा। कई मामलों में यह भी हुआ कि खुद परिवार के लोगों ने अपने ‘कुल की इज्जत’ बचाने के नाम पर घर की बहू-बेटियों को मार डाला।

(v) बहुत-से बच्चे अपने माँ-बाप से बिछड़ गए। जो लोग सीमा पार करने में किसी तरह सफल रहे उन्होंने पाया कि अब वे बेठिकाना हो गए हैं। इन लाखों शरणार्थियों के लिए देश की आजादी का मतलब था महीनों और कभी-कभी सालों तक किसी शरणार्थी शिविर में जिंदगी काटना।।

प्रश्न 22. भारतीय किसान यूनियन, किसानों की दुर्घटना की तरफ ध्यान आकर्षित करने वाला अग्रणी संगठन है। नब्बे के दशक में इसने किन मुद्दों को उठाया और इसे कहाँ तक सफलता मिली?
उत्तर: भारतीय किसान यूनियन द्वारा उठाए गए मुद्दे (Issued raised by Bhartiya Kisan Union)-

  • बिजली के दरों में बढ़ोतरी का विरोध किया।
  • 1980 के दशक के उत्तरार्ध से भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकण के प्रयास हुए और इस क्रम में नगदी फसल के बाजार को संकट का सामना करना पड़ा। भारतीय किसान यूनियन ने गन्ने और गेहूँ की सरकारी खरीद मूल्य में बढ़ोतरी करने,
  • कृषि उत्पादों के अंतर्राज्यीय आवाजाही पर लगी पाबंदियाँ हटाने,
  • समुचित दर पर गारंटीशुदा बिजली आपूर्ति करना।
  • किसानों के लिए पेंशन का प्रावधान करने की माँग की।

सफलताएँ (Success)- (i) जिला समाहर्ता के दफ्तर के बाहर तीन हफ्तों तक डेरा डाले रहे। इसके बाद इनकी माँग मान ली गई। किसानों का यह बड़ा अनुशासित धारणा था और जिन दिनों वे धरने पर बैठे थे उन दिनों आस-पास के गाँवों से उन्हें निरंतर राशन-पानी मिलता रहा। मेरठ के इस धरने को ग्रामीण शक्ति को या कहें कि काश्तकारों की शक्ति का एक बड़ा प्रदर्शन माना गया।

(ii) बीकेयू (BKU) जैसी माँगें देश के अन्य किसान संगठनों ने भी उठाई। महाराष्ट्र के शेतकारी संगठन ने किसानों के आंदोलन को ‘इंडिया’ की ताकतों (यानी शहरी औद्योगिक क्षेत्र) के खिलाफ ‘भारत’ (यानी ग्रामीण कृषि क्षेत्र) का संग्राम करार दिया।

(iii) 1990 के दशक के शुरुआती सालों तक बीकेयू ने अपने को सभी राजनीतिक दलों से दूर रखा था। यह अपने सदस्यों की संख्या बल के दम पर राजनीति में एक दबाव समूह की तरह सक्रिय था। इस संगठन ने राज्यों में मौजूद अन्य किसान संगठनों को साथ लेकर अपनी कुछ माँगें मनवाने में सफलता पाई। इस अर्थ में किसान आंदोलन अस्सी के दशक में सबसे ज्यादा सफल सामाजिक-आंदोलन था।

(iv) इस आंदोलन की सफलता के पीछे इसके सदस्यों की राजनीतिक मोल-भाव की क्षमता का हाथ था। यह आंदोलन मुख्य रूप से देश के समृद्ध राज्यों में सक्रिय था। खेती को अपनी जीविका का आधार बनाने वाले अधिकांश भारतीय किसानों के विपरीत बीकेयू जैसे संगठनों के सदस्य बाजार के लिए नगदी फसल उपजाते थे। बीकेयू की तरह राज्यों के अन्य किसान संगठनों ने अपने सदस्य उन समुदायों के बीच से बनाए जिनका क्षेत्र की चुनावी राजनीति में पहुँच था। महाराष्ट्र का शेतकारी संगठन और कर्नाटक को रैयत संघ ऐसे किसान-संगठनों के जीवंत उदाहरण हैं।

प्रश्न 23. पुर्तगाल से गोवा मुक्ति का संक्षेप में विवरण दीजिए।
अथवा, गोवा का भारत में विलय किस प्रकार हुआ?
उत्तर: भारत में गोवा का विलय आसानी से नहीं हुआ। इसका कारण पुर्तगालियों फ्रांसीसीयों का जिद्दी दृष्टिकोण था। वह इसे अपनी इज्जत का चिह्न समझते थे और वे इसे अपने नियंत्रण में रखना चाहते थे। उनका यह दृष्टिकोण भारतीय दृष्टिकोण के बिल्कुल विपरीत था जो इसे पुर्तगालियों द्वारा भारत के आक्रमण की कार्यवाही और उसे जबरदस्ती हथियाये रखने का अपने देश के सम्मान के लिए एक धब्बा मानते थे। भारतीय सरकार ने भरसक कोशिश की कि पुर्तगालियों को गोवा छोड़कर जाने के लिए राजी करे। गोवा को प्राप्त करने के लिए पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन में अपना कार्यालय खोला ताकि वहाँ की सरकार को गोवा छोड़ने के लिए राजी किया जा सके लेकिन आखिरकार 1953 को यह कार्यालय बंद कर दिया गया क्योंकि भारत के तमाम कटनीतिज्ञ प्रयास विफल रह गए।

अब भारतवासियों ने गोवा राष्ट्रीय कमेटी का गठन किया ताकि गोवा में आजादी के कार्य के लिए संलग्न सभी राष्ट्रवादी पार्टियों की गतिविधियों में सामंजस्य स्थापित किया जा सके और गोवा को भारत संघ में शामिल किया जा सके। 18 जून, 1954 को अनेक सत्याग्रही कैद कर लिए गए जब उन्होंने गोवा में भारतीय ध्वज लहराया। 22 जुलाई को क्रांतिकारियों ने दादर-नागर हवेली को आजाद करा लिया। इस कार्य में जनसंघ और गोवावादी लोगों की पार्टी (Goan Peoples party) का संयुक्त रूप से क्रांतिकारियों को समर्थन प्राप्त था।

15 अगस्त, 1955 को गोवा की आजादी ने एक नाटकीय मोड़ लिया। इस दिन हजारों भारतवासी चलकर गोवा में प्रवेश कर गए। ऐसा ही दमन और दीव में भी हुआ। इस प्रक्रिया में 200 प्रदर्शनकारी शहीद हो गए।

पुर्तगाल की इस गलत कार्यवाही से भारत भौंचक्का रह गया। हमारे प्रधानमंत्री ने पुर्तगालियों की निंदा की। सभी प्रमुख शहरों में हड़ताल हुई। नवंबर 1961 में पुर्तगालियों ने भारत के एक जहाज पर हमला करके कुछ लोगों को मार दिया। अंततः भारतीय सेना ने कारवाई की और ऑपरेशन विजय (Operation Vijay) की कार्यवाही रंग लाई। 19 दिसंबर, 1961 को गोवा व दमन दीव पूरी तरह आजाद हो गया।

प्रश्न 24. ‘भारत में सिक्किम विलय’ विषय पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर: भारत में सिक्किम का विलय (Annexation of Sikkim in India)-
1. पृष्ठभूमि (Background)- मतलब यह कि तब सिक्किम भारत का अंग तो नहीं था लेकिन वह पूरी तरह संप्रभु राष्ट्र भी नहीं था। सिक्किम की रक्षा और विदेशी मामलों का जिम्मा भारत सरकार का था जबकि सिक्किम के आंतरिक प्रशासन की बागडोर यहाँ के राजा चोग्याल के हाथों में थी। यह व्यवस्था कारगर साबित नहीं हो पायी क्योंकि सिक्किम के राजा स्थानीय जनता की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को सँभाल नहीं सके।

2. सिक्किम में लोकतंत्र तथा विजयी पार्टी का सिक्किम को भारत के साथ जोड़ने का प्रयास (Democracy in Sikkim and Victorious party’s efforts to connect Sikkim with India)- एक बड़ा हिस्सा नेपालियों का था। नेपाली मूल की जनता के मन में यह भाव घर कर गया कि चोग्याल अल्पसंख्यक लेपचा-भूटिया के एक छोटे-से अभिजन तबके का शासन उन पर लाद रहा है। चोग्याल विरोधी दोनों समुदाय के नेताओं ने भारत सरकार से मदद माँगी और भारत सरकार का समर्थन हासिल किया। सिक्किम विधानसभा के लिए पहला लोकतांत्रिक चुनाव 1974 में हुआ और इसमें सिक्किम काँग्रेस को भारी विजय मिली। वह पार्टी सिक्किम को भारत के साथ जोड़ने के पक्ष में थी।

3. सिक्किम भारत का 22वाँ राज्य (प्रांत ) बनाया गया (Sikkim was declared 22nd State (orprovince) of India)- विधानसभा ने पहले भारत के ‘सह-प्रान्त’ बनने की कोशिश की और इसके बाद 1975 के अप्रैल में एक प्रस्ताव पास किया। इस प्रस्ताव में भारत के साथ सिक्किम के पूर्ण विलय की बात कही गई थी। इस प्रस्ताव के तुरंत बाद सिक्किम में जनमत संग्रह कराया गया और जनमत संग्रह में जनता ने विधानसभा के फैसले पर अपनी मुहर लगा दी। भारत सरकार ने सिक्किम विधानसभा के अनुरोध को तत्काल मान लिया और सिक्किम भारत का 22वाँ राज्य बन गया। चोग्याल ने इस फैसले को नहीं माना और उसके समर्थकों ने भारत सरकार पर साजिश रचने तथा बल-प्रयोग करने का आरोप लगाया। बहरहाल, भारत संघ में सिक्किम के विलय को स्थानीय जनता का समर्थन प्राप्त था। इस कारण यह मामला सिक्किम की राजनीति में कोई विभेदकारी मुद्दा न बन सका।

प्रश्न 25. गुजरात के मुस्लिम विरोधी दंगे, 2002 पर एक संक्षिप्त लेख लिखिए।
उत्तर: पृष्ठभूमि (Background)- कहा जाता है गोधरा (गुजरात) रेलवे स्टेशन पर एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी इस हिंसा का तात्कालिक उकसाना बहुत ही हानिकारक और दुखदायी साबित हुआ। अयोध्या (उत्तर प्रदेश) की ओर से आ रही एक ड़ी की बोगी कार सेवकों से भरी हुई थी और न जाने किस कारण से उसमें आग लग गई।

इस आग की दुर्घटना में 57 व्यक्ति जीवित जलकर मर गए। कुछ लोगों ने यह अफवाह फैला दी कि गोधरा के खड़े रेल के डिब्बे में आग मुसलमानों ने लगायी होगी अथवा लगवाई होगी।

अफवाहें बड़ी खतरनाक और हानिकारक होती है। गोधरा की दुर्घटना से जुड़ी-अफवाह जंगल की आग की तरह संपूर्ण गुजरात में फैल गई। अनेक भागों में मुसलमानों के विरुद्ध बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। हिंसा का यह तांडव लगभग एक महीने तक चलता रहा। लगभग 1100 व्यक्ति इस हिंसा में मारे गए।

मुसलमानों के विरुद्ध हुए दंगों को रोकने के लिए राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने पीड़ित भुक्तभोगियों के परिजनों को राहत देने और दोषी दंगाईयों को तुरंत कानून के हवाले करने एवं पर्याप्त दंड देने के लिए कहा गया। आयोग का यह कहना था पुलिस और सरकारी मशीनरी ने अपने राजधर्म का निर्वाह नहीं किया है सरकार ने अनेक लोगों को राहत दी है। अनेक लोगों पर मुकदमें चल रहे हैं लेकिन यह गानना पड़ेगा कि आतंकवाद और साम्प्रदायिकता के कारण दंगे करना या कराना हमारे देश के लोकतांत्रिक व्यवस्था (System) के किसी भी तरह से अनुकूल नहीं है।

प्रश्न 26. भारत अमेरिका समझौता का वर्णन करें।
उत्तर: भारत की परमाणु नीति दो बातों पर निर्भर करती है। भारत के पड़ोसी चीन और पाकिस्तान · परमाणु शक्ति सम्प न राष्ट्र हैं, अतः सुरक्षात्मक आवश्यकता है कि भारत परमाणु शक्ति सम्पन्न दुश्मनों से अपनी सुरक्षा व्यवस्था निश्चित करने के लिए परमाणु नीति को अपनाये। परमाणु नीति के संदर्भ में दूसरी बात यह है कि भारत को अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए परमाणु संयंत्रों की जरूरत है।

1974 तथा बाद में 1999 में दो बार भारत परमाणु परीक्षण कर चुका है। इस कारण अमेरिका सहित विश्व के सभी विकसित राष्ट्रों का इसे कोपभाजन होना पड़ा। फिर भी भारत ने स्पष्ट किया कि उसके सभी परीक्षण शांतिपूर्ण कार्यों के लिए हैं।

भारत पर अमेरिका द्वारा प्रारंभ से ही एन. पी. टी. तथा सी. टी. बी. टी. जैसे संधियों पर हस्ताक्षर करने का दबाव पड़ता रहा है। इसका अर्थ है कि भारत परमाणु परीक्षण नहीं कर सकता है। भारत इन संधियों को भेदभाव पूर्ण मानता है। भारत की स्पष्ट नीति है कि जबतक विश्व के कुछ देश परमाणु शक्ति सम्पन्न रहेंगे या परमाणु परीक्षण का अधिकार रखेंगे, तब तक भारत अपने को इससे वंचित रखने का निर्णय नहीं ले सकता है। भारत की घोषणा है-

  • भारत हथियारों की दौड़ से बाहर रहकर आवश्यक परमाणु अवरोधक शक्ति बना रहेगा।
  • भारत भविष्य में भूमिगत परमाणु विस्फोट नहीं करेगा।
  • भारत ने स्वेच्छा से इनका पहले प्रयोग न करने के सिद्धांत को स्वीकार किया है।

बदलते संदर्भ में परमाणु कार्यक्रमों को जारी रखते हुए भारत अमेरिका से अपने संबंध सुधारने तथा आवश्यक समझौता करने का निर्णय लिया। इस हेतु प्रयत्न वाजपेयी सरकार के समय से ही किया जा रहा था। अंतत: 2008 में राष्ट्रपति बुश तथा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बीच समझौता सम्पन्न हुआ। भारतीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प 2016 में आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, तकनीकी एवं हथियार संबंधित समझौते पर हस्ताक्षर किया है जिसके कारण दोनों देशों का संबंध अधिक मधुर हुआ है।

प्रश्न 27. हमारी राजव्यवस्था के निम्नलिखित पक्ष पर आपातकाल का क्या असर हुआ?
(a) नागरिक अधिकारों की दशा और नागरिकों पर इसका असर।
(b) कार्यपालिका और न्यायपालिका के संबंध।
(c) जनसंचार माध्यमों के कामकाज।
(d) पुलिस और नौकरशाही की कार्रवाइयाँ।
उत्तर:
(a) सबसे बड़ी बात यह हुई कि आपातकालीन प्रावधानों के अंतर्गत नागरिकों के विभिन्न मौलिक अधिकार निष्प्रभावी हो गए। उनके पास अब यह अधिकार भी नहीं रहा कि मौलिक अधिकारों की बहाली के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाएँ। सरकार ने निवारक नजरबंदी का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया। इस प्रावधान के अंतर्गत लोगों को गिरफ्तार इसलिए नहीं किया जाता कि उन्होंने कोई अपराध किया है बल्कि इसके विपरीत इस प्रावधान के अंतर्ग लोगों को इस आशंका से गिरफ्तार किया जाता है कि वे कोई अपराध कर सकते हैं।

सरकार ने आपातकाल के दौरान निवारक नजरबंदी अधिनियमों का प्रयोग करके बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियाँ की। जिन राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया वे बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका का सहारा लेकर अपनी गिरफ्तारी को चुनौती भी नहीं दे सकते थे। आपातकाल का विरोध और प्रतिरोध की कई घटनाएँ घटी। पहली लहर में जो राजनैतिक कार्यकर्ता गिरफ्तारी से बच गए थे वे भूमिगत हो गए और सरकार के खिलाफ मुहिम चलाई।

(b) गिरफ्तार लोगों अथवा उनके पक्ष से किन्हीं और ने उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में कई मामले दायर किए, लेकिन सरकार का कहना था कि गिरफ्तार लोगों को गिरफ्तारी का कारण बताना कतई जरूरी नहीं है। अनेक उच्च न्यायालयों ने फैसला दिया कि आपातकाल की घोषणा के बावजूद अदालत किसी व्यक्ति द्वारा दायर की गई ऐसी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को विचार के लिए स्वीकार कर सकती है जिसमें उसने अपनी गिरफ्तारी को चुनौती दी हो।

1976 के अप्रैल माह में सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने उच्च न्यायालयों के फैसले को उलट दिया और सरकार की दलील मान ली। इसका आशय यह था कि सरकार आपातकाल के दौरान नागरिक से जीवन और आजादी का अधिकार वापस ले सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से नागरिकों के लिए अदालत के दरवाजे बन्द हो गए। इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय के सर्वाधिक विवादास्पद फैसलों में एक माना गया।

(c) आपातकालीन प्रावधानों के अंतर्गत प्राप्त अपनी शक्तियों पर अमल करते हुए सरकार ने प्रेस का आजादी पर रोक लगा दी। समाचारपत्रों को कहा गया कि कुछ भी छापने से पहले अनुमति लेनी जरूरी है। इसे प्रेस सेंसरशिप के नाम से जाना जाता है।
‘इंडियन एक्सप्रेस’ और ‘स्टेट्समैन’ जैसे अखबारों ने प्रेस पर लगी सेंसरशिप का विरोध किया। जिन समाचारों को छापने से रोका जाता था उनकी जगह ये अखबार खाली छोड़ देते थे। ‘सेमिनार’ और ‘मेनस्ट्रीम’ जैसी पत्रिकाओं ने सेंसरशिप के आगे घुटने टेकने की जगह बंद होना मुनासिब समझा। सेंसरशिप को धत्ता बताते हुए गुपचुप तरीके से अनेक न्यूजलेटर और लीफलेट्स निकले।

(d) पुलिस की ज्यादतियाँ बढ़ गईं। पुलिस हिरासत में कई लोगों की मौत हुई। नौकरशाही मनमानी करने लगे। बड़े अधिकारी, समय की पाबंदी और अनुशासन के नाम पर तानाशाही नजरिए से हर मामले में मनमानी करने लगे। पुलिस और नौकरशाही ने जबरदस्ती परिवार नियोजन को थोपा। अनाधिकृत ढाँचे गिराए। रिश्वतखोरी बढ़ गई।

प्रश्न 28. आजकल अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए पारंपरिक सहयोग को क्यों महत्त्वपूर्ण समझा जा रहा है ? समझाइए।
उत्तर: अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा और पारस्परिक सहयोग- (i) आज की दुनिया परस्पर बहुत समीप आ गई है। अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा पर मँडराते इन अनेक अपारंपरिक खतरों से निपटने के लिए सैन्य-संघर्ष की नहीं बल्कि आपसी सहयोग की जरूरत है। आतंकवाद से लड़ने अथवा मानवाधिकारों को बहाल करने में भले ही सैन्य-बल की कोई भूमिका हो (और यहाँ भी सैन्यबल एक सीमा तक ही कारगर हो सकता है) लेकिन गरीबी मिटाने, तेल तथा बहुमूल्य धातुओं की आपूर्ति बढाने, अप्रवासियों और शरणार्थियों की आवाजाही के प्रबंधन तथा महामारी के नियंत्रण से सैन्य-बल के प्रयोग से मामला और बिगड़ेगा।

(ii)ज्यादा प्रभावी यही होगा कि अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से रणनीतियाँ तैयार की जायें। सहयोग द्विपक्षीय (दो देशों के बीच) क्षेत्रीय, महादेशीय अथवा वैश्विक स्तर का हो सकता है। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि खतरे की प्रकृति क्या है और विभिन्न देश इससे निपटने के लिए कितने इच्छुक तथा सक्षम हैं। सहयोगमूलक सुरक्षा में विभिन्न देशों के अतिरिक्त अंतर्राष्ट्रीय-राष्ट्रीय स्तर की अन्य संस्थाएँ जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठन (संयुक्त राष्ट्र संघ, विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व बैंक, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि) (एमनेस्टी इंटरनेशनल, रेड क्रॉस, निजी संगठन तथा दानदाता संस्थाएँ, चर्च और धार्मिक संगठन, मजदूर संगठन, सामाजिक और विकास संगठन) व्यवसायिक संगठन और निगम तथा जानी-मानी हस्तियाँ (जैसे नेल्सन मंडेला, मदर टेरेसा) शामिल हो सकती हैं।

(iii) सहयोग मूलक सुरक्षा में भी अंतिम उपाय के रूप में बल-प्रयोग किया जा सकता है। अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी उन सरकारों से निबटने के लिए बल-प्रयोग की अनुमति दे सककती है जो अपनी जनता को मार रही हो अथवा गरीबी, महामारी और प्रलयंकारी घटनाओं की मार झेल रही जनता के दु:ख-दर्द की उपेक्षा कर रही हो। ऐसी स्थिति में सुरक्षा की अपारंपरिक धारणा का जोर होगा कि बल-प्रयोग सामूहिक स्वीकृति से और सामूहिक रूप में किया जाए न कि कोई एक देश अंतर्राष्ट्रीय और स्वयंसेवी संगठन समेत अन्यों की मर्जी पर कान दिए बगैर बल प्रयोग का रास्ता अख्तियार करे।

प्रश्न 29. विश्व स्तर पर असमानता किस प्रकार के खतरे उत्पन्न करती है ? व्याख्या कीजिए।
उत्तर: असमानता और विश्व के लिए खतरे- (i) विश्व स्तर पर यह असमानता उत्तरी गोलार्द्ध के देशों को दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों से अलग करती है। दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों में असमानता अच्छी-खासी बढ़ी है। यहाँ कुछ देशों ने आबादी की रफ्तार को काबू में किया है और आय को बढ़ाने में सफल रहे हैं जबकि बाकी देश ऐसा नहीं कर पाये हैं। उदाहरण के लिए दुनिया में सबसे ज्यादा सशस्त्र संघर्ष अफ्रीका के सहारा मरुस्थल के दक्षिणवर्ती देशों में होते हैं। यह इलाका दुनिया का सबसे गरीब इलाका है। 21वीं सदी के शुरूआती समय में इस इलाके के युद्धों में शेष दुनिया की तुलना में कहीं ज्यादा लोग मारे गए।

(ii) दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों में मौजूद गरीबी के कारण अधिकाधिक लोग बेहतर जीवन खासकर आर्थिक अवसरों की तलाश में उत्तरी गोलार्द्ध के देशों में प्रवास कर रहे हैं। इससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक मतभेद उठ खड़ा हुआ है। अंतर्राष्ट्रीय कायदे कानून अप्रवासी (जो अपनी मर्जी से स्वदेश छोड़ते हैं) और शरणार्थी (जो युद्ध प्राकृतिक आपदा अथवा राजनीतिक उत्पीड़न के कारण स्वदेश छोड़ने पर मजबूर होते हैं) में भेद करते हैं।

(iii) सामान्यतया उम्मीद की जाती है कि कोई राज्य शरणार्थियों को स्वीकार करेगा लेकिन उन्हें अप्रवासियों को स्वीकारने की बाध्यता नहीं होती। शरणार्थी अपनी जन्मभूमि को छोड़ते हैं जबकि जो लोग अपना घर-बार छोड़ चुके हैं परंतु राष्ट्रीय सीमा के भीतर ही उन्हें “आंतरिक रूप से विस्थापित जन” कहा जाता है। सन् 1990 के दशक के शुरूआती सालों में हिंसा से बचने के लिए कश्मीर घाटी छोड़ने वाले पंडित “आंतरिक रूप से विस्थापित जन” के उदाहरण हैं।

प्रश्न 30. भारत में विपक्षी दलों के उदय पर एक टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
(i) आपातकाल लागू होने के पहले की बड़ी विपक्षी पार्टियाँ एक-दूसरे के नजदीक आ रही थी। चुनाव के ऐन पहले इन पार्टियों ने एकजुट होकर जनता पार्टी नाम से एक नया दल बनाया। नयी पार्टी ने जयप्रकाश नारायण का नेतृत्व स्वीकार किया। कांग्रेस के कुछ नेता भी जो आपातकाल के खिलाफ थे, इस पार्टी में शामिल हुए।

(ii) कांग्रेस के कुछ अन्य नेताओं ने जगजीवन राम के नेतृत्व में एक नयी पार्टी बनाई। इस पार्टी का नाम ‘कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी’ था और बाद में यह पार्टी भी जनता पार्टी में शामिल हो गई।

(iii) 1977 ई० के चुनावों को जनता पार्टी ने आपातकाल के ऊपर जनमत संग्रह का रूप दिया। इस पार्टी में चुनाव प्रचार में शासन के अलोकतांत्रिक चरित्र और आपातकाल के दौरान की गई ज्यादतियों पर जोर दिया।

(iv) हजारों लोगों की गिरफ्तारी और प्रेस की सेंसरशिप की पृष्ठभूमि में जनमत कांग्रेस के विरुद्ध था। जनता पार्टी के गठन के कारण यह भी सुनिश्चित हो गया कि गैर-कांग्रेस के लिए बड़ी मुश्किल आ पड़ी थी।

(v) लेकिन चुनाव के अंतिम नतीजों ने सबको चौंका दिया। आजादी के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि कांग्रेस लोकसभा का चुनाव हार गई। कांग्रेस को लोकसभा की मात्र 154 सीटें मिली थी। उसे 35 प्रतिशत से भी कम वोट हासिल हुए। जनता पार्टी और उसके साथी दलों को लोकसभा की कुल 542 सीटों में से 330 सीटें मिलीं। खुद जनता पार्टी अकेले 295 सीटों पर जीत गई थी और उसे स्पष्ट बहुमत मिला था। उत्तर भारत में चुनावी माहौल कांग्रेस के एकदम खिलाफ था। कांग्रेस बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा और पंजाब में एक भी सीट न पा सकी। राजस्थान और मध्य प्रदेश में उसे महज एक-एक सीट मिली। इन्दिरा गांधी रायबरेली से और उनके पुत्र संजय गांधी अमेठी से चुनाव हारे।

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