Bihar Board 12th Music Important Questions Long Answer Type Part 2
Bihar Board 12th Music Important Questions Long Answer Type Part 2
BSEB 12th Music Important Questions Long Answer Type Part 2
प्रश्न 1. पं. ओंकार नाथ ठाकुर की जीवनी लिखें।
उत्तर: आधुनिक युग के महान संगीत विद्व एवं सिद्धस्त गायक पं. ओंकार नाथ ठाकुर का जन्म 24 जून, 1897 को जहाज गाँव में पं. गौरी शंकर ठाकुर. के पुत्र के रूप में हुआ। चार साल की उम्र में अपने पिता के साथ घर-बार छोड़कर नर्मदा के किनारे कुटिया बनाकर रहने लगे। चौथे दर्जे तक पढ़ाई करने के बाद पंडितजी अपने घर की दयनीय स्थिति को सुधारने के विचार से रसोइया और एक मिल में मजदूर का काम करने लगे। बचपन से सुधारने के विचार से रसोइया और एक मिल में मजदूर का काम करने लगे। बचपन से ही संगीत के प्रति हार्दिक अभिरूचि थी तथा आवाज भी मधुर थी। आस-पास में कहीं संगीत का कार्यक्रम होता था तो वहाँ जाकर अवश्य सुनते।
इनके पिता का देहांत तब हुआ जब ये 14 साल के थे। इसके बाद भरौंच के एक पारसी सेठ ने इनका मधुर गायन सुनकर इन्हें पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्करजी के पास संगीत शिक्षा के लिए गांधर्व महाविद्यालय बम्बई में भर्ती कर दिया। वहाँ इन्होंने 5 वर्ष का पाठ्यक्रम केवल 3 वर्षों में समाप्त कर दिया। यद्यपि इनके बड़े भाई उन्हें एक नाटक कम्पनी में नौकरी कराने के लिए बेचैन थे, परन्तु इन्हें पसंद नहीं था। अतः गुरू से कहकर इन्होंने अपनी सुरक्षा कर ली तथा ये गुरू की सेवा में ही रहे। उन्हें गांधर्व महाविद्यालय लाहौर का प्राचार्य बना दिया जहाँ इन्होंने महाविद्यालय के अतिरिक्त सर्वसाधारण के बीच संगीत का प्रचार-प्रसार किया।
इनकी आवाज बहुत गंभीर, सुमधुर थी तथा इनका गायन इतना प्रभावशाली था कि श्रोतागण सुनकर मंत्रमुग्ध हो जाते। इनकी आलाप करने की शैली बहुत अलग थी जो श्रोताओं को भाव-भिभोर कर देता। यद्यपि ये मुख्य रूप से ख्याल गायक थे, फिर भी ध्रुवपद, धमार तथा टप्पा का प्रदर्शन भी सहजता पूर्वक करते थे। बनारस हिन्दू युनिवर्सिटी के संस्थापक पं० मदन मोहन मालवीय ने संगीत प्रभाकर की उपाधि तथा केन्द्र सरकार ने उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया। इन्होंने अनेक यूरोपीय देशों की यात्रा कर भारतीय संगीत के मूल तत्त्वों से उन देशवासियों को अवगत कराया। इन्होंने “संगीतांजलि”,”प्रणव भारती”,”राग अनेरस” आदि अनेक संगीत सम्बन्धी ग्रंथों की रचना किया। इन्होंने अपने शरीर त्यागने के पूर्व तक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संगीत विभाग के प्राचार्य के रूप में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इनकी मृत्यु 28 दिसम्बर, 1967 की हो गयी।
इन्होंने नेपाल के अलावा इटली, फ्रांस, जर्मनी, बेलजियम, स्विट्जरलैण्ड और इंगलैण्ड की यात्रा की और जहाँ भी गए भारतीय संगीत का मस्तक ऊंचा किया। विदेश में ही अपनी पत्नी की मृत्यु को समाचार पाकर वे बड़े दुखी हुए और स्वदेश लौट आए और बम्बई में रहने लगे। इन्हें 1952 में भारत सरकार द्वारा अफगानिस्तान भेजा गया जहाँ पर उन्होंने भारतीय सांस्कृतिक मंडल का नेतृत्व किया। 1953 में बुडापेस्ट और 1954 में जर्मनी में आयोजित विश्व शांति परिषद् में भारत का प्रतिनिधित्व किया।
कला के साथ-साथ उन्होंने शास्त्र पक्ष पर भी बहुत ध्यान दिया। 1938 में संगीतांजलि प्रथम भाग प्रकाशित किया जिसमें कलापक्ष पर प्रकाश डाला गया।
प्रश्न 2. तानसेन की जीवनी लिखें।
उत्तर: तानसेन का असली नाम तन्ना मिश्र था और पिता का नाम मकरन्द पांडे। कुछ लोग पांडेजी को मिश्र भी कहते थे। तानसेन का जन्म तिथि के विषय में अनेक मत है। अधिकांश विद्वानों के अनुसार, उनका जन्म 1532 में ग्वालियर से सात मील दूर बेहट ग्राम में हुआ था। उनके जन्म के विषय में रहस्य बनी हुई थी कि मकरन्द पांडे संतानहीन थे। अत: वे बहुत चिंतित रहा करते थे। मुहम्मद गौस नामक फकीर के आशीर्वाद स्वरूप उन्हें एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसे तन्ना के नाम से पुकारा गया। अपने पिता के एकमात्र संतान होने के कारण उनका लालन-पालन बड़े प्यार में हुआ। फलस्वरूप अपनी बाल्यावस्था में वे बड़े नटखट और उदण्डी रहे।
प्रारंभ से ही तन्ना में दूसरों की नकल करने की बड़ी क्षमता थी। तन्ना पशु-पक्षियों तथा. जानवरों की विभिन्न बोलियों की सच्ची नकल करता था और नटखट प्रकृति का होने के कारण हिंसक पशुओं को बोली से लोगों को डरवाते थे। इसी बीच स्वामी हरिदास से उनकी भेंट हुई। एक बार स्वामी जी अपनी मण्डली के साथ पास के जंगल से गुजर रहे थे। तन्ना ने एक पेड़ की आड़ से शेर की बोली से उन्हें डरवाने को सोचा। अत: साधु मण्डली बहुत घबराई। थोड़ी देर बाद तानसेन हँसता हुआ आया। स्वामी हरिदासजी उसकी प्राकृतिक प्रतिभा से अत्यधिक प्रभावित हुए और उनके पिता से तानसेन को संगीत सिखाने के लिए माँग लिया और अपने साथ तानसेन को वृन्दावन ले गए।
इस प्रकार तानसेन स्वामी हरिदास के साथ रहने लगे और दस वर्ष तक उनसे संगीत शिक्षा प्राप्त करते रहे। अपने पिता की अस्वस्थता सुनकर तानसेन अपने मातृभूमि ग्वालियर चले गए। तब स्वामी हरिदास से आज्ञा लेकर तानसेन मोहम्मद गौस के पास रहने लगे। वहाँ वे कभी-कभी ग्वालियर की विधवा रानी मृगनयनी का गायन सुनने के लिए उसके मंदिर चले जाया करते थे। वहाँ उसकी दासी हुसैनी की सुन्दरता और संगीत ने तानसेन को अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। तानसेन के चार पुत्र हुए मुरतसेन, शरतसेन, तरंगसेन, विलास खाँ और सरस्वती नाम की एक पुत्री।
जब तानसेन एक अच्छे गायक हो गए तो रीवां नरेश रामचन्द्र ने उन्हें राज्य गायक बना लिया। रामचन्द्र और अकबर की घनिष्ठ मित्रता थी। तानसेन को अकबर के दरबार में भेंट किया गया। अकबर स्वयं एक संगीत प्रेमी था। वह उन्हें पाकर काफी प्रसन्न हुआ। धीरे-धीरे अकबर तानसेन को काफी पसंद करने लगा। अकबर के दरबार में जितने गायक थे सब मिलकर अकबर से प्रार्थना किया कि तानसेन से दीपक राग गवाया जाए। तानसेन को दीपक राग गाने के लिए बाध्य कर दिया। अतः तानसेन को दीपक राग गाना पड़ा। गाते गाते गर्मी बढ़ने लगी और चारों ओर अग्नि की लपटे निकलने लगी। श्रोतागण तो गर्मी के मारे भाग निकले, किन्तु तानसेन का शरीर प्रचण्ड गर्मी से जलने लगा उसकी गर्मी को उनकी पुत्री सरस्वती ने मेघ राग गाकर अपने पिता की जीवन की रक्षा की।
बैजू बावरा तानसेन का समकालीन था। एक बार दोनों गायकों में प्रतियोगिता हुई और तानसेन की हार हुई। इसके पूर्व तानसेन ने यह घोषणा करा दी थी कि उसके अतिरिक्त राज्य में कोई भी व्यक्ति गाना न गाए और जो गाएगा तानसेन के साथ उसकी प्रतियोगिता होगी। जो हारेगा उसे उसी समय मृत्यु दण्ड मिलेगा। कोई गायक उसे हरा नहीं सका। अन्त में बैजू बावरा ने उसे परास्त किया। शर्त के अनुसार तानसेन को मृत्यु दण्ड मिलना चाहिए था। किन्तु बैजू बावरा ने उसे क्षमा कर अपने विशाल हृदय का परिचय दिया।
तानसेन ने अनेक रागों की रचना की जैसे दरबारी काहड़ा, मियाँ की सारंग, मियाँ की तोड़ी, मियाँ मल्हार आदि। तानसेन के बाद में मुसलमान धर्म स्वीकार कर लिया। इस पर अनेक विद्वानों का अनेक मत है। कुछ का कहना है कि गुरु की आज्ञा से वे मुसलमान हो गए और कुछ का कहना है कि अकबर की पुत्री से उसकी शादी हुई थी इसलिए उसने मुसलमान धर्म को स्वीकार किया। लेकिन कुछ विद्वानों का यह भी मत है कि तानसेन मुसलमान हुए ही नहीं उसने फकीर गुलाम गौस की स्मृति में नवीन रागों के नाम के आगे मियाँ शब्द जोड़ दिया जैसे मियाँ मल्हार आदि। 1585 में दिल्ली में तानसेन की मृत्यु हो गयी और ग्वालियर में गुलाम गौस के कब्र के पास उनकी समाधि बनायी गयी।
प्रश्न 3. स्वामी हरिदास की जीवनी लिखें।
उत्तर: ‘भक्त चरितामृत’ के अनुसार हरिदास जी का जन्म 1537 में जन्माष्टमी में हुआ था जो सार-स्वत ब्राह्मण थे। उनके पिता का नाम आशुधीर तथा माता का नाम गंगा देवी था। दोनों धार्मिक स्वभाव के और साधु सन्तों के बड़े भक्त थे। स्वामी हरिदास में बाल्य काल से ही ईश्वर भक्ति की भावना जागृत हुई। उन्होंने 25 वर्ष की आयु में ही संन्यास ले लिया। कुछ समय बाद वे वृन्दावन चले गए और ‘निधिवन निकुंज’ में कुटिया बनाकर रहने लगे। जीवन की कम-से-कम आवश्यकताओं की पूर्ति उन्हें अधिकतम संतोष देती। वे ईश्वर की आराधना और संगीत साधना में लगे रहते।
स्वामी हरिदास के जीवन के विषय में बहुत कम सामग्री प्राप्त होती है। कारण यह है कि उन दिनों कोई साहित्यकार व संगीतज्ञ अपने विषय में कुछ लिखना पसंद नहीं करते थे। स्वामीजी की जन्म तिथि और जन्मस्थान के बारे में बहुत मतभेद है। एक मत के अनुसार उनका जन्म पंजाब के मुलतान अथवा होशियारपुर अथवा हरियाणा के किसी गाँव में हुआ था। कुछ लोगों के अनुसार, उनके पूर्वज पंजाब के अवश्य थे लेकिन उनका जन्म उत्तर-प्रदेश के अलीगढ़ जिले में खेरे-स्वर महादेव के समीप हुआ था। स्वामी हरिदास अपनी कुटिया छोड़कर कहीं नहीं जाते थे। अकबर, तानसेन के द्वारा रोज उनकी प्रशंसा सुना करता था।
अतः उनके मन में हरिदास जी का गायन सुनने की इच्छा हुई। वे तानसेन के साथ वृन्दावन गए और स्वामीजी की झोपड़ी के निकट एक झाड़ी में छिपकर बैठ गए। तब तानसेन ने स्वामीजी के सामने जानबुझकर एक ध्रुपद को अशुद्ध गाना प्रारंभ किया तो स्वामीजी ने आश्चर्य में आकर तानसेन को डांटा और उसका शुद्ध रूप उनको सुनाया। ‘बाहर छिपे बादशाह अकबर आत्म-विभोर हो गया। अपने गायन के पश्चात् स्वामीजी ने तानसेन । से कहा कि तुमने छल से मेरा गायन सम्राट अकबर को सुनाया है, यह अच्छा नहीं किया। खैर, . अब जाओ और बादशाह को अन्दर बुला लाओ। कहते हैं कि अकबर, उनके गायन में ऐसा आत्म अमृत था कि उसने आकर स्वामीजी के चरण पकड़ लिया। स्वामीजी गायन के अतिरिक्त वादन और नृत्य में भी पारंगत थे। उत्तर भारत में जो कुछ भी संगीत आज हमें मिलता है, वह सब किसी न किसी रूप में स्वामीजी से सम्बन्ध है।
कहा जाता है कि स्वामी हरिदासजी के शिष्य तानसेन, बिरजू बाबरे, रामदास, दिवाकर तथा राजा सौरसेन थे, किन्तु तत्कालीन किसी भी साहित्य में तानसेन और बिरजू बावरे (बैजू बावरा) को स्वामीजी का शिष्य नहीं माना जाता है। तानसेन की रचनाओं में कहीं भी हरिदास जी की भक्ति भावना का दर्शन नहीं होता। स्वामीजी हरिदास जी का जन्म ऐसे काल में हुआ था कि जब भारतीय संगीत अस्तप्राय हो चुका था, किन्तु स्वामीजी ने ही उसमें पुनः प्राण प्रतिष्ठा दी। कहते हैं कि उन्होंने धमार, लिवर और चतुरंग की भी रचना की।
प्रश्न 4. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर की जीवनी लिखें।
उत्तर: ग्वालियर घराने के प्रसिद्ध संगीतज्ञ स्व० पं० विष्णु दिगम्बर पलुस्कर का जन्म 1872 के 18 अगस्त, श्रावण पूर्णिया के कुरूदवाड़ रियासत के बेलगाँव नामक स्थान में अच्छे कीर्तनकार थे। उन्होंने पंडित जी को एक अच्छे स्कूल में भेजना शुरू किया, किन्तु अभाग्यवश, दीपावली के दिन आतिशबाजी से उनकी आँखे खराब हो गयी जिसके परिणामस्वरूप उनका अध्ययन बन्द कर देना पड़ा। आँख के बिना कोई उचित धन्धा न मिलने के कारण उनके पिता संगीत सिखाना शुरू किया। उन्हें मिरज के पंडित बाल कृष्ण बुआ इचलकरंजीकर के पास संगीत शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेज दिया। वहाँ मिरज रियासत के तत्कालीन महाराज ने उन्हें राजाश्रय दिया और उनके लिए प्रत्येक प्रकार की व्यवस्था करा दी।
एक बार मिरज में एक सार्वजनिक सभा आयोजित हुई और रियासत के प्रतिष्ठित व्यक्तियों को आमंत्रित किया गया। पं० विष्णु दिगम्बर जी को राजाश्रय प्राप्त होने के कारण आमंत्रित तो किया गया लेकिन उनके गुरुजी को नहीं बुलाया गया। उन्हें बड़ा ही आश्चर्य हुआ पूछने पर उन्हें आश्चर्यजनक उत्तर मिला कि अरे ! वे तो गवैये हैं। उन्हें आमंत्रित क्यों किया जाए ! अपने गुरुजी के बारे में ऐसा कहे जाने पर उनके हृदय में घर कर गया। जो उन्हें आश्चर्य हुआ कि समाज में संगीतज्ञों की यह दशा है पं० जी ने उसी क्षण संगीतज्ञों की दयनीय दशा को सुधारने, समाज में संगीत की उच्च स्थान दिलाने तथा संगीत का प्रचार-प्रसार करने का दृढ़ निश्चय किया।
1896 में राजाश्रय के सभी सुखों को छोड़कर संगीत को उच्च स्थान दिलाने के लिए पं० जी देशाटन के लिए चल पड़े। सबसे पहले वे सतारा गए। उनका वहाँ भव्य स्वागत हुआ और उनका गायन कार्यक्रम सफल रहा। इसके बाद वे भारत के अनेक स्थानों का भ्रमण किया और हर जगह अपनी संगीत से लोगों का मंत्रमुग्ध किया। उन्होंने बड़ौदा, ग्वालियर, दिल्ली, भरतपुर, आगरा, वाराणसी, जयपुर, लाहौर, इलाहाबाद आदि का भ्रमण किया।
संगीत का प्रचार और प्रसार के लिए विष्णु दिगम्बर जी ने यह अनुभव किया कि सर्वप्रथम प्रचलित गीतों से शृंगार रस के भद्दे शब्दों को निकाल कर भक्ति रस के सुन्दर शब्दों को रखा जाए। संगीत के कुछ विद्यालय को स्थापित किया जाए जहाँ बालक और बालिकाओं को संगीत की समुचित शिक्षा दी जा सके। 5 मई, 1901 को लाहौर में प्रथम संगीत विद्यालय गांधर्व महाविद्यालय की स्थापना किया। 1908 में पंडितजी ने बम्बई में गांधर्व महाविद्यालय की एक और शाखा खोली। वहाँ पर उन्हें लाहौर की तुलना में अधिक सफलता मिली। लगभग 15 वर्षों तक विद्यालय का कार्य सुचारू रूप से चलता रहा। लेकिन कुछ ही समय बाद विद्यालय बन्द हो गया। तब पं. जी का ध्यान राम-नाम की ओर आकर्षित हुआ। वे गेरूआ वस्त्र धारण कर “रघुपतिराघव राजा राम ………” की टेक ले ली। हर समय इसी में मस्त रहते। इसके बाद वे नासिक चले गए और वहाँ ‘रामना आश्रम’ की स्थापना किया।
वैदिक काल में प्रचलित आश्रम प्रणाली के आधार पर पलुस्कर जी ने लगभग सौ शिष्यों को तैयार किया। उनके साथ अधिकांश शिष्य रहने लगे, उनके खाने-पीने, रहने तथा शिक्षा का प्रबन्ध वे निःशुल्क करते। उनके शिष्यों में स्व० वी० ए० कशालकर, स्व. पं. ओमकार नाथ ठाकुर, वी० आर० देवधर, बी० एन० ठाकुर, बी० एन० पटवर्धन आदि का नाम उल्लेखनीय है। उन्होंने एक स्वरलिपि पद्धति की रचना की, जो विष्णु दिगम्बर स्वर लिपि पद्धति के नाम से प्रसिद्ध है।
कुल मिलाकर उन्होंने लगभग 50 पुस्तकें लिखीं। उनके नाम है, संगीत बाल प्रकाश, बीस भागों में राग प्रवेश, संगीत शिक्षा-महिला संगीत आदि। कुछ समय तक ‘संगीतमृतय प्रवाह’ नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन करते रहे। 1930 में उन्हें लकवा मार गया, फिर भी अपनी कार्य क्षमता के अनुकूल. वे संगीत की सेवा करते रहे। अन्त में 21 अगस्त, 1931 को उन्होंने अपना प्राण त्याग दिया। उनके 12 पुत्र हुए। उनके पुत्रों का मृत्यु बाल्यावस्था में ही हो गया। पंडितजी के केवल एक पुत्र दतात्रय विष्णु पलुस्कर अपने जीवन के 35 वर्षों तक संगीत की सेवा करते रहे किन्तु 1955 की विजयादशमी को उनका भी मृत्यु हो गया।
प्रश्न 5. उस्ताद बिस्मिलाह खाँ की जीवनी लिखें।
उत्तर: उस्ताद विस्मिल्लाह खाँ का जन्म भारत के गौरवशाली प्रान्त बिहार के भोजपुर जिलान्तर्गत डुमरांव में 1908 में हुआ। इनके पिता का नाम उ० पैगाम्बर बख्श खाँ था जो इनके गुरू भी थे। इनके पूर्वज डुमरांव महाराज के दरबार में शहनाई वादन प्रस्तुत किया करते थे। बचपन से ही इन्हें पढ़ाई-लिखाई की अपेक्षा संगीत शिक्षा से लगाव रहा। अपने पिता के अलावा इन्होंने अपने मामा उ० अलिबख्श खाँ साहब से भी शहनाई वादन की शिक्षा ग्रहण की जिन्होंने इन्हें गायन की भी शिक्षा दी। उस्ताद अलिबख्श जहाँ भी जाते इनको अपने साथ ले जाते। अतः अल्पायु में ही इन्हें इनके संगीत सम्मेलनों में भाग लेने का अवसर प्राप्त हुआ। इसके अतिरिक्त अपने ख्याल गायन की शिक्षा प्राप्त करने हेतु लखनऊ जाकर उ० मुहम्मद हुसैन साहब का शिष्यत्व ग्रहण किया।
1718 वर्ष की आयु में ही ख्याति प्राप्त कलाकार बन गए। सबसे पहले इन्होंने प्रयाग विश्वविद्यालय के संगीत समारोह में 1926 में शहनाई वादन प्रस्तुत किया, जिससे वहाँ उपस्थित संगीतविद् तथा अन्य श्रोतागण मंत्रमुग्ध हो गए। इसके लिए इन्हें अनेक पदकों, पुरस्कारों तथा प्रमाण पत्रों से सम्मानित किया गया। ये शहनाई के साथ तबला के बजाय खुर्दक बजवाना अधिक पसन्द करते थे। इनका कार्यक्रम भारत वर्ष में ही नहीं बल्कि देश-विदेशों में अमिट छाप छोड़ चुका है। आज भी इनका कार्यक्रम को लोग दूरदर्शन तथा आकाशवाणी पर मंत्रमुग्ध हो देखते और सुनते हैं। 86 वर्ष की उम्र होने पर भी इनकी फूंक में वह दम और कशिश था कि श्रोता आत्म-विभोर हो जाते थे। साथ ही ये अत्यंत व्यवहार कुशल एवं मृदुभाषी कलाकार थे तथा जाति-धर्म आदि की संकीर्ण बंधनों से बहुत ही ऊपर थे। इनका देहावसान सन् 2006 में हो गया।
प्रश्न 6. नाद क्या है ? संगीत में नाद के महत्त्व पर प्रकाश डालें। या, नाद को स्पष्ट करते हुए उसके प्रकार एवं उसकी विशेषताओं का उल्लेख करें।
उत्तर: ‘नाद’ शब्द ‘ना’ और ‘द’ के मिलने से उत्पन्न है। ये दोनों ‘नकार’ और ‘दकार’ क्रमश: वायुवाचक और अग्निवाचक माने गये हैं। दरअसल वायु और अग्नि के संयोग से ही नाद की उत्पत्ति होती है। अग्नि द्वारा उत्पन्न नाद वायु द्वारा प्रसरित और विस्तृत होता है। अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘संगीत रत्नाकर’ में शारंगदेव ने एक स्थल पर लिखा भी है कि,
“नकारं प्राणनामानं दकारमनलं विदुः। :
जातः प्राणाग्नि संयोगातेन नादोऽमिधीयते ॥
नाद के सम्बन्ध में सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा है कि, ‘नाद का अर्थ है कम्प और कम्प जब लहरों में प्रवर्तित होता है तब उससे प्रकाश प्राप्त होता है।’
संगीतशास्त्र के अन्तर्गत नाद के दो प्रकार उल्लेखित हुये हैं, वे हैं-
(i) आहत नाद तथा
(ii) अनाहत नादा
(i) आहत नाद – आहत नाद उस नाद को कहा जाता है जो स्थूल कानों से सुनाई देने वाली वह सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित संगीतोपयोगी ध्वनि है जिसकी उत्पत्ति दो वस्तुओं के टकराने अथवा घर्षण से हो। इसी के अन्तर्गत समस्त संसार का श्रव्य संगीत गृहीत होता है।
(ii) अनाहत नाद – अनाहत शब्द ‘अन’ और ‘आहत’ के मिलने से उत्पन्न है। यह वह नाद है जो बिना किसी टकड़ाहट अथवा घर्षण से उत्पन्न होता है। मानव के अन्तर्हदय में तरंगित होनेवाला नाद ही अनाहत नाद कहलाता है। साधक को अपनी साधना अथवा अध्यात्म साधना के क्रम में एकाग्रता से लेकर समाधि की अवस्था तक यात्रा करनी पड़ती है तभी अन्तहंदय की ध्वनियाँ सुनायी देती हैं। इस प्रकार अन्तर्हृदय की उठने वाली मधुर ध्वनियों की अनुभूति ही अनाहत नाद की संज्ञा से अभिहित होता है। हमारे पूर्वजों एवं ऋषि-महर्षियों को इस स्थिति की प्राप्ति अनवरत कठिन तपस्या के पश्चात ही होती थी। इस नाद को ही ‘नोद ब्रह्म’ के नाम से जाना जाता है।
संगीतशास्त्र के अन्तर्गत नाद की जिन तीन विशेषताओं का उल्लेख किया गया है, वे हैं-
(i) नाद का छोटा अथवा बड़ा होना,
(ii) नाद की ऊँचाई अथवा निचाई तथा
(iii) नाद की जाति अथवा गण
(i) नाद का छोटा अथवा बड़ा होना – जिस नाद को धीरे-धीरे उत्पन्न किया जाय अथवा उच्चरित किया जाय या जो कम दूरी तक सुनायी दे वह छोटा नाद कहलाता है।
(ii) नाद की ऊंचाई अथवा निचार्ड-जब गाने-बजाने के क्रम में स्वर को ऊंचा अथवा नीचे लाया जाय तब इस क्रम में बढ़ने-घटने की स्थिति को ही नाद की ऊंचाई-निचाई कहा जाता है।
(iii) नाद की जाति अथवा गण-विभिन्न वाद्ययंत्रों की आवाज में भिन्नता होती है जिन्हें हम सुनते ही पहचान लेते हैं और इसी को नाद की जाति अथवा गुण कहा जाता है।
नि:संदेह नाद संगीत का एक भौतिक आधार है जिसकी उत्पत्ति मानव कंठ अथवा वाद्ययन्त्रों की सहायता से ही संभव है पर इसमें भौतिक उपकरण नाम का ही होता है। संगीत में नाद का नियम कुछ निश्चित सिद्धांतों के आधार पर होता है। कोई भी संगीतकार अपने मानस में स्थित भावों की अभिव्यक्ति नाद की सहायता से करता है जिसका प्रभाव सभ्य मनुष्य से लेकर वन्य-पशुओं तक पर पड़ता है।
निष्कर्षत: संगीत के अन्तर्गत नाद का विशेष महत्व है क्योंकि इसी की सहायता से ही संगीतकार अपने संगीत से हमारी आत्मा को प्रभावित करता है और संगीत का उद्देश्य भी हमारी आत्मा को प्रभावित करना है। अतः संगीत में नाद के महत्व से कतई इन्कार नहीं किया जा सकता है।
प्रश्न 7. स्वर और ताल पर एक लेख लिखें।
उत्तर: संगीत के अन्तर्गत स्वर उस मधुर ध्वनि को कहा जाता है जिसकी उत्पत्ति नियमित और आवर्त कम्पन्नों के संयोग से होती है। ‘संगीत रत्नाकर’ में शारंगदेव द्वारा स्वर की परिभाषा इस प्रकार की गयी है-
“श्रुत्यन्तर भावी यः स्निग्धोऽनुरणनात्मकः।
स्वतो रंजयतिश्रोतृक्तिं स स्वर उच्यते ॥
अर्थात् जो बराबर स्थिर रहे तथा जिनकी झंकार श्रोता के चित्त का रंजन करे वे मधुर ध्वनियाँ स्वर कहलाती हैं।
संगीतान्तर्गत एक सप्तक के अन्तर्गत स्थित ध्वनि के उन सात खंडों को स्वर कहा जाता है जिन्हें षडज, ऋषभ, गन्धार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद कहा गया है। इन्हें ही संक्षेप में सप्त स्वर सा रे ग म प ध नि कहा गया हैं। ये स्वर अग्नि और वायु के संयोग से उत्पन्न होते हैं। अग्नि के द्वारा वायु नाभि से उठकर हृदय, कंठ, शीर्ष आदि से टकराती है जिससे अग्नि उत्पन्न होती है और तब स्वर उत्पन्न होते हैं।
स्वरों के तीन प्रकार बताये गये हैं जो निम्नलिखित हैं-
(i) प्राकृत अथवा शुद्ध स्वर
(ii) अचल स्वर
(iii) चल अथवा विकृत स्वर’
(i) प्राकृत अथवा शद्ध स्वर-अपने निश्चित श्रुतियों पर स्थित रहने वाले सात स्वर को प्राकृत अथवा शुद्ध स्वर कहा जाता है।
(ii) अचल स्वर-अपने निश्चित स्थान से ऊपर नीचे नहीं खिसकने वाले स्वर अचल स्वर होते हैं, यथा-‘सा’ और ‘प’। इनका कोई विकृत स्वर नहीं है।
(iii) चल अथवा विकत स्वर-वैसे स्वर जो निश्चित स्थान से ऊपर-नीचे खिसक कर विकृत या उपस्वर के नाम से जाना जाने लगे, उन्हें चल अथवा विकृत स्वर कहते हैं, यथा रे ग ध और नि स्वर अपने निश्चित स्थान से नीचे खिसक कर कोमल स्वरों के नाम से व्यवहृत होते हैं तथा म ऊपर खिसककर तीव्र ‘म’ के रूप में व्यवहृत होता है।
रागों में व्यवहार की दृष्टि से स्वर पाँच तरह से प्रयोग होते हैं जिन्हें क्रमश: वादी, संवादी, अनुवादी, विवादी तथा वर्जित स्वर कहते हैं। यहाँ इन पाँचों स्वरों का विवेचन प्रस्तुत है-
(i) वादी स्वर-किसी राग में जिस स्वर का प्रयोग सबसे अधिक हो वह वादी स्वर कहलाता है, यथा-राग कल्याण में ‘ग’ वादी स्वर है। वादी स्वर को राग रूपी राज्य का राजा कहा गया है।
(ii) संवादी स्वर-किसी राग में वादी स्वर को छोड़कर दूसरा महत्वपूर्ण हो जाने वाला उपमुख्य स्वर संवादी स्वर कहलाता है, यथा-राग कल्याण में ‘नि’ संवादी स्वर है। संवादी स्वर को राग रूपी राज्य के. राजा का मंत्री कहा गया है।
(iii) अनुवादी स्वर-किसी राग में वादी तथा संवादी स्वरों को छोड़कर लगने वाले अन्य सभी स्वर अनुवादी स्वर कहलाते हैं, यथा-राग भूपाली में सा, रे, ग, प और ध कुल पाँच स्वर लगते हैं। इनमें वादी स्वर ग और संवादी स्वर ध के अतिरिक्त अन्य तीन स्वर सा, रे और प इस राग के अनुवादी स्वर हैं। इन्हें अनुचर भी कहते हैं।
(iv) विवादी स्वर – किसी राग में वे स्वर विवादी स्वर होते हैं जो उस राग में प्रयोग नहीं होते हैं, यथा राग भूपाली में प्रयुक्त कुल पाँच स्वरों सा, रे, ग, प, ध के अतिरिक्त शेष शुद्ध और विकृत कुल सातों स्वर उस राग के विवादी स्वर होंगे जिसको राग रूपी राज्य का शत्रु कहा गया है। जबकि पं० विष्णु ना. भातखंडे ने राग की रंजकता बढ़ाने के उद्देश्य से विवादी स्वरों के प्रयोग को क्षम्य बताया है।
(v) वर्जित स्वर – किसी राग में जिन स्वरों के प्रयोग से परहेज रखा जाय उन्हें वर्जित स्वर कहते हैं, यथा-राग भूपाली में मध्यम ‘म’ और निषाद ‘नि’ ये दोनों वर्ण्य अथवा वर्जित स्वर हैं।
ताल, गायन, वादन एवं नर्तन में उन मात्राओं के अलग-अलग संचयन को कहते हैं जो मात्राएँ समय की माप की इकाइयाँ होती हैं। इन्हीं इकाइयों से ही तालों का निर्माण होता है, यथा-सोलह मात्रा के संचयन से. तीन ताल, तिलवाड़ा. आदि तालो का निर्माण।
प्रश्न 8. उस्ताद बिलायत खाँ की जीवनी लिखें।
उत्तर: वर्तमान सितार वादकों में उ० बिलायत खाँ का नाम सर्वश्रेष्ठ वादकों में से एक है। इनका जन्म 1926 में गौरीपुर के निवासी सुप्रसिद्ध सितार वादक स्व. इनायत खाँ साहब के घर में पुत्र के रूप में हुआ। घर में वंश-परंपरागत सितार वादन के कारण इनके संस्कार में संगीत समाहित था। इनके पिता से संगीत शिक्षा प्राप्त कर मात्र 12 वर्ष की आयु में प्रयाग संगीत सम्मेलन में भाग लेकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। पुनः उसी शहर में एक वर्ष बाद प्रयाग विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित संगीत सम्मेलन में आकर्षक कार्यक्रम प्रस्तुत करने के कारण काफी प्रशंसित एवं चर्चित हुए। 1930 में इनके पिता के देहांत के बाद इनकी माता इनको साथ लेकर कलकता से दिल्ली चले गए। इनकी माता भी सिद्धस्थ गायिका थी। अत: वे अपने मार्गदर्शन में इनसे प्रतिदिन 1012 घंटे सितार का अभ्यास कराती। यहीं पर अपने नाना बन्दे हसन खां साहब से गायन तथा सुर-बहार की भी शिक्षा प्राप्त की।
1914 में बम्बई में कांग्रेस की ओर से एक संगीत सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें बड़े-बड़े उस्ताद गुलाम अली खाँ, फैयाज खां, अहमद जान घिरकवा, बुन्दु खाँ आदि जैसे देश के चोटी के कलाकारों के साथ ये भी आमंत्रित किए गए। इस सम्मेलन में इन्होंने अपने सितार वादन से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया तथा उनके आग्रह पर इन्हें सितार-वादन के लिए पांच बार मंच , पर आना पडा। यह इनके लिए जीवन का स्वर्णिम प्रभात था। ये गतकारी अंग से सुर-बह बड़ी कुशलता से रागों का आलाप, जोड़, झाला आदि के बाद मसीतखानी तथा रजाखानी गतों की पांडित्यपूर्ण प्रस्तुति करते हैं।
इन्होंने अपने देश में बड़े-से-बड़े संगीत सम्मेलनों में कार्यक्रम प्रस्तुत करने के अतिरिक्त अनेक यूरोपीय देश, अमेरिका, अफ्रीका आदि महादेशों के अन्तर्गत विभिन्न देशों में अपना मनोहारी कार्यक्रम प्रस्तुत कर विश्व में ख्याति प्राप्त की।
इनके पूर्वज हिन्दू-धर्मावलम्बी संत मलुकदास के वंशज राजपुत थे जिसके पश्चात् वंश के अन्य लोगों को अकबर के शासन काल में इस्लाम धर्म स्वीकार कर लेना पड़ा।
प्रश्न 9. स्वरलिपि पद्धतियाँ क्या है ?
अथवा, भातखण्डे पद्धति या विष्णु दिगम्बर पद्धति में अन्तर बताएं।
उत्तर:
भातखण्डे पद्धति – विष्णु दिगंबर पद्धति
स्वर चिह्न
शुद्ध स्वर – रे ग म प – रे ग म (कोई चिह्न नहीं)
(चिह्न रहित)
कोमल स्वर रे ग – रे ग
तीन स्वर में – म (अथवा उलटाहलंत)
सप्तक चिह्न –
मध्य सप्तक ग म प – ग म प (कोई चिह्न नहीं)
मन्द्र सप्तक नि ध प – नीं धं पं
तार सप्तक गं मं पं – गे मै पे
स्वर मान
एक मात्रा-रे ग – रे ग
11/2 मात्रा-सा-रे अर्थात् – सा रे
सा = 1 और रे = 1/2
दो की मात्रा-रे-ग – रे ग
अर्द्ध विराम सा, रे ग – सा, रे ग
अर्थात् सा = 1/2 और रे, ग
क्रमशः 1/4 मात्रा
ताललिपि-
सम – × 1
खाली – 0 +
विभाग 1 विभाग नहीं होता
ताली-ताली-संख्या जैसे – मात्रा संख्या जैसे
2,3,4 – 1,5, 11
स्वर सौन्दर्ण –
मीड-प ग – प ग
कण-ध – ध
‘प – प
खटका (प) = प ध में प – (प)
गीत उच्चारण-श्या ऽ ऽ म – श्या 0 0 म
प्रश्न 10. सप्तक किसे कहते हैं ? उनके प्रकारों के स्वरों को भातखण्डे तथा विष्णु दिगंबर स्वर लिपि में लिखें।
उत्तर: क्रमानुसार सात शुद्ध स्वरों के समूह को सप्तक कहते हैं। सातों स्वरों के नाम क्रमशः सा रे ग, म, प ध और नि है। इस प्रकार सा से नि तक का एक सप्तक होता है।
सप्तक के तीनों प्रकारों मंद्र, मध्य और तार के स्वरों की दोनों स्वरलिपियों में लिखा जा रहा है-
भातखण्डे स्वर लिपि में-
मन्द्र सप्तक-सा, रे, रे, ग मे’, प, ध ध, नि, नि
मध्य सप्तक-सा, रे, रे, ग, ग, म, मे, प, ध, ध नि, नि
तार सप्तक-सां, र, रे, गं, गं, मं, मे, पं धं, धं, नि, निं
विष्णु दिगंबर स्वर लिपि में
मन्द्र स्पतक-सां, रे, रे, गं, गं, मं, मे, पं, धू, नि, नि
मध्य सप्तक-सा, रे, रे, ग, ग, म, म्, प, ध्, ध नि, नि
तार सप्तक-सो, रे’, गू, मे, मे, मे पे, धे’ नि, नि। .
प्रश्न 11. आपके पाठ्यक्रम के कौन-कौन राग किन-किन थाटों से उत्पन्न माने गए हैं ? बताएँ।
उत्तर: थाटों की संख्या दस मानी गई।
थाट | राग |
कल्याण थाट से | कल्याण, बिहाग, भूपाली राग। |
खमाज थाट से | खमाज, देश, तिलंग, तिलक कामोद राग। |
काफी थाट से | वृन्दावनी सारंग, भीमपलासी, बागेश्री राग। |
भैरव थाट से | भैरव, कालिंगड़ा राग। |
बिलावल थाट से | अल्हैया बिलाव राग। |
आसावरी थाट से | आसावरी, जौनपुरी राग। |
भैरवी थाट से | भैरवी रागा। |
इन थाटों के अतिरिक्त पूर्वी, मारवा और तोड़ी ये तीन थाट ऐसे बच जाते हैं जिनके कोई । राग हमारे पाठ्यक्रम में नहीं है।
प्रश्न 12. निम्न गीत के प्रकारों की तुलना करें :
(क) ध्रुपद-ख्याल,
(ख) ख्याल-तराना,
(ग) ध्रुपद-धमार
उत्तर:
(क) ध्रुपद-ख्याल की तुलना ,
समता- इन दोनों रागों में निम्न समानता है-
(i) ये दोनों गायन-शैलियाँ अथवा गीत के प्रकार है जो उत्तर भारत में प्रचलित है।
(ii) आधुनिक काल में प्रचलित ध्रुपद और ख्याल के दो खण्ड पाए जाते हैं, स्थायी और अन्तरा।
विभिन्नता – इन दोनों रागों में निम्न विभिन्नता देखी जाती है-
- ध्रुपद गायन-शैली ख्याल की तुलना में अधिक प्राचीन है। तानसेन, स्वामी हरिदास, बैजू बावरा आदि ध्रुपद गाते थे, ख्याल नहीं गाते थे।
- ध्रुपद के साथ पखाबाज और ख्याल के साथ तबला, संगति के लिए उपयुक्त माने जाते हैं।
- ध्रुपद गायक कलावन्त और ख्याल गायक ख्यालिए लिए कहलाते हैं।
- प्राचीन ध्रुपदों के चार अवयव ख्याली, अंतरा, सचारी और आभोग पाए जाते हैं, किन्तु ख्याल के दोही अवयव होते हैं-स्थायी और अंतरा।
- ध्रुपद गायन में गीत के पूर्व नोक्र-तोक्र का विस्तृत आलाप किया जाता है किन्तु ख्याल में आकार का संक्षिप्त आलाप किया जाता है।
- ध्रुपद में मींड, गमक और लयकारी प्रधान होते हैं और ख्याल में मोंड, कण-मटका, मुर्की और स्वरकारी प्रधान होती है।
- ख्याल के दो प्रकार है-बड़ा और छोटा ख्याल जिसे क्रमशः बिलंबित और ध्रुत ख्याल कहते हैं, किन्तु ध्रुपद के प्रकार नहीं होते हैं।
- चारताल, शूलताल, तेवरा या तीव्रा तालों में ध्रुपद गाये जाते हैं और एक ताल, तिलवाड़ा, तीनताल, झपताल आदि तालों में ख्याल गाए जाते हैं।
- ख्याल में ताने लगाई जाती है, किन्तु ध्रुपद में तानें नहीं लगायी जाती है।
- ध्रुपद का आविष्कार ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर ने और बड़े ख्याल की रचना जौनपुर के सुलतान हुसैन शर्की ने और द्रुत ख्याल की रचना अमीर खुसरो ने किया था।
(ख) ख्याल तराने की तुलनासमता –
इन दोनों रागों में निम्न समानता है-
- दोनों आधुनिक कालीन गायन शैलियाँ है।
- दोनों के अवयव पाये जाते हैं-स्थायी और अन्तरा।
- दोनों के गायन-शैली लगभग एक ही है।
- छोटे ख्याल और तराने दोनों एकताल, तीन ताल, झपताल आदि तालों में गाए जाते हैं।
- दोनों में द्रुत ताने ली जाती है।
- महफिलों में ख्याल और तराने दोनों सुनायी पड़ते हैं।
- तवले का प्रयोग दोनों गायन शैलियों के साथ होता है।
विभिन्नता – इन दोनों तालों में निम्न विभिन्नता पाई जाती है-
- ख्याल के शब्द सार्थक और और तराना के शब्द निरर्थक होते हैं। अर्थात् ख्याल में साहित्य होता है और तराना में नोभ, तोम, तन देरे ना आदि शब्द होते हैं।
- तराना की गति धीरे-धीरे बढ़ाई जाती है और अधिकतम लय में पहुँचने के बाद उसे समाप्त करते हैं।
(ग) ध्रुपद-धमार की तुलना – इन दोनों रागों में निम्न समातना देखी जाती है-
- दोनों प्राचीन गायन शैलियाँ है।
- दोनों की गायन शैली लयकारी प्रधान है।
- दोनों की संगति पखावज से की जाती है।
- दोनों में नोभ-तोभ का विस्तृत आलाप किया जाता है।
- दोनों में ताने तथा द्रुत स्वर-समूह वयं है।
विभिन्नता – इन दोनों रागों में निम्न विभिन्नता देखी जाती है-
- धमार नामक गीत केवल धमार ताल में होता है, किन्तु ध्रुपद चारताल, शूलताल, आदि कई तालों में होता है।
- विद्यार्थियो में धमार की अपेक्षा ध्रुपद अधिक लोकप्रिय है, क्योंकि ध्रुपद धमार की अपेक्षा सरल है।
प्रश्न 13. निम्न से किन तालों की तुलना मिलती है ? उनका परिचय और ठेका लिखिए। इन्हें कब प्रयोग किया जाता है ?
उत्तर:
(क) से दादरा ताल, (ख) से झपताल, (ग) से एकताल, (घ) से चारताल के शूलताल का बोध होता है।
(क) से दादरा ताल का बोध होने का कारण यह है कि दादरा ताल में खाली विभाग के पहले ना आता है और खाली विभाग में तीन मात्राएँ होती है व धा तूना का बोल होता है। दादरा ताल में 6 मात्राएँ व 2 विभाग होते हैं। पहली मात्रा पर ताली और चौथी मात्रा पर खाली पड़ती है। इस ताल का प्रयोग भजन, गीत और चलती फिरती चीजों के साथ होता है। इसलिए ढोलक,. नगाड़ा, खजरी आदि वाद्यों का मुख्य ताल दादरा है।
दादरा ताल-त्रा 6
(ख) से झपताल का बोध होता है कि इस ताल के दूसरे विभाग में तीन मात्राएं धी धी ना के बोल तथा धी पर दूसरी ताली पड़ती है। इसका प्रयोग ख्याल के साथ होता है।
(ग) से एक ताल का बोध होता है क्योंकि चौथी ताली धी पर पड़ता है जो दो मात्राओं का विभाग है।
विलंबित एक ताल बड़े ख्याल के साथ और द्रुत एकताल छोटे ख्याल के साथ बजाया जाता – है। इसका ठेका इस प्रकार है-एक ताल-मात्रा 12
विभाग 6, ताली 1, 5, 9, 11 पर और खाली 3, 7 पर
(घ) से शूलताल और चारताल दोनों का बोध होता है, क्योंकि प्रारंभिक 6 मात्राएं और बोल दोनों में समानता है। शूल ताल में दो-दो मात्राएँ के 5 विभाग और चारताल में 2-2 मात्राओं के 6 विभाग होते हैं। शूलताल में 1,5,7 पर ताली पड़ती है। धा धा । दिता से दोनों की शुरूआत होती है और दोनों में प्रथम धा पर सम पड़ती है और दिं पर खाली पड़ती है। शूलताल और चारताल दोनों तालों का प्रयोग ध्रुपद के साथ किया जाता है।
प्रश्न 14. रूपक-तेवरा, एकताल-झपताल तथा शूलताल-चारताल की तुलना कीजिए।
उत्तर: रूपक-तेवरा की तुलना :
समानता-
(i) दोनों में सात मात्राएँ होती है।
(ii) दोनों में तीन विभाग होते हैं।
(iii) दोनों में प्रथम विभाग तीन मात्राएँ का और शेष दो विभाग दो-दो मात्रा के होते हैं।
विभिन्नता-
(i) रूपक की प्रथम मात्रा पर कुछ लोग खाली मानते हैं, किन्तु तेवरा की प्रथम मात्रा पर सभी विद्वान सम मानते हैं।।
(ii) जो विद्वान प्रथम मात्रा पर खाली मानते हैं, उनके लिए रूपक ताल में एक खाली और दो ताली होती है। किन्तु सभी विद्वान तेवरा में तीनों विभाग ताली का मानते हैं।
(iii) रूपक ताल ख्याल शैली और तेवरा ताल ध्रुपद शैली के लिए निर्मित हुआ है।
(iv) रूपक तवले का और तेवरा पखावज की ताल है।
(v) तेराव अथवा तीव्रा ताल का ठेका इस प्रकार है-
रूपक ताल का ठेका इस प्रकार है-
रूपक ताल मात्रा – 7
विभाग 3. ताली 1.4 और 6 पर
एक ताल और झपताल की तुलना :
इन दोनों रागों में निम्न समानता है-
(i) दोनों तबले के ताल है।
(ii) दोनों में द्रुत और विलंबित ख्याल गाए जाते हैं।
(iii) दोनों के तबला–तालों में कायदा पलटा, रेला, टुकड़ा आदि बजाए जाते हैं।
विभिन्नता – इन दोनों रागों में निम्न विभिन्नता पाई जाती है-
- एक ताल में बारह और झपताल में दस मात्राएँ होती है।
- एकताल में 6 और झपताल में 4 विभाग होता है।
- एक ताल में दो खाली 3 और 7 पर तथा झपताल में केवल एक खाली 6 पर मानी ‘जाती है।
- एकताल में चार ताली 1.5.9.11 पर और झपताल में तीन ताली 1, 3,8 पर मानी जाती है।
- दोनों के बोल बिल्कुल अलग है। झपताल के बोल और एकताल के बोल निम्न प्रकार से है-
विभिन्नता – इन दोनों रागों में निम्न विभिन्नता देखी जाती है-
- दोनों तालों का ठेका अलग-अलग है।
- चाल ताल के बोल खुले हुए और एक ताल के बन्द है, अत: चारताल पखावज की और एक ताल वबले की ताल है।
- चार ताल में पटन् टुकड़े आदि बजाये जाते हैं और ताल में कायदा, पलटे, रेला आदि बजाये जाते हैं।
- चार ताल ध्रुपद के साथ और एक ताल ख्याल के साथ बजाया जाने वाला ताल है।
- चार ताल का ठेका इस प्रकार है-
चारताल मात्रा – 12
विभाग 6, ताली 1, 5, 9 और 11 पर तथा खाली 3 और 7 पर।
एक ताल का ठेका इस प्रकार है-
एक ताल-मात्रा 12
विभाग 6, ताली 1, 5, 9, 11 पर और खाली 3,7 पर
प्रश्न 15. निम्न जोड़ियों में तुलना कीजिये :
(i) राग हमीर और राग केदार
(ii) राग हमीर और राग कामोद
(iii) राग भीमपलासी और बागेश्वरी।
उत्तर:
(i) राग हमीर और राग केदार की तुलना (Compare between Raga Hamir and Raga Kedar)-
- हमीर और केदार दोनों सारे प्राचीन ग्रन्थकारों और कुछ आधुनिक संगीतज्ञों द्वारा बिलावल थाट के राग माने गये हैं किन्तु दोनों ही अधिकांश विद्वानों द्वारा कल्याण थाट के राग माने जाते हैं।
- दोनों रागों में दोनों माध्यम तथा अन्य स्वर शुद्ध लगते हैं तथा दोनों मध्यम एक ही ढंग के प्रयोग किये जाते हैं।
आरोह में पंचम के साथ केवल तीव्र म और आरोह-अवरोह दोनों में शुद्ध म, जैसे मे प ध पम म रे सा। - दोनों में राग की रंजकता बढ़ाने के लिये कभी कभी अवरोह में कोमल नि का प्रयोग विवादी स्वर के नाते समान ढंग से होता है। जैसे–सां ध नि प ।
- दोनों का गायन-समय रात्रि का प्रथम प्रहार है।
- सारेसा, मेपधप, सांधनिप, मेपधनिसां स्वर-समूह दोनों रागों में प्रयोग किये जाते हैं।
- हमीर और केदार दोनों के गायन-समय औरवादी समवादी में परस्पर विरोध है अतः दोनों, राग और समय नियम के अपवाद मान लिये गये हैं
विभिन्नता-
- हमीर संपूर्ण जाति का और केदार औऽव-षाऽव जाति राग है।
- हमीर में ध वादी और ग संवादी है। किन्तु केदार में म वादी और सा संवादी है।
- केदार में निषाद अल्प है। किन्तु हमीर में ऐसा नहीं है।
- हमीर के आरोह में पंचम स्वर कभी भी वक्र प्रयोग किया जाता है। केदार के आरोह में पंचम स्वर कभी भी वक्र प्रयोग नहीं किया जाता है।
- केदार के आरोह में कभी-कभी मींड के साथ दोनों में एक साथ प्रयोग नहीं करते।
(ii) राग हमीर और राग कमोद की तुलना (Compare between Raga Hamir and Raga Kamod)
समता :
- दोनों राग प्राचीन ग्रन्थकारों और कुछ आधुनिक संगीतज्ञों द्वारा विलावल थाट जन्म माने जाते हैं किन्तु अधिकांश विद्वानों द्वारा दोनों ही कल्याण थाट के राग माने जाते हैं।
- दोनों में दोनों माध्यम तथा अन्य स्वर शुद्ध लगते हैं तीव्र में दोनों में अल्प लगता है।
- दोनों मध्यम एक ढंग से दोनों रागों में प्रयोग किये जाते हैं। जैसे आरोह में पंचम के साथ तीव्र में और आरोह-अवरोह दोनों में शुद्ध में।
- राग की रज्जकता बढ़ाने के लिए दोनों में कोमल नि का अल्प प्रयोग अवरोह में समान ढंग से होता है। जैसे-सांघ नि पा
- दोनों का गायन-समय रात्रि का प्रथम प्रहर माना गया है।
- दोनों के अवरोह में गन्धार स्वर वक्र प्रयोग किया जाता है।
- ग म प ग मरे सा, मेपध, प तथा सांसां धप स्वर समुह दोनों में प्रयोग होते हैं।
- दोनों राग के वादी समवादी स्वर, उतराग और पूर्वाक नियम के अपवाद है।
विभिन्नता-
- यद्यपि दोनों ही संपूर्ण जाति के राग हैं फिर भी दोनों की चलन में अन्तर है इसलिये हमीर की सम्पूर्ण और कामोद को वक्र सम्पूर्ण जाति का राग माना गया है।
- कामोद में रेप और हमीर में मध की संगति विशेष रूप से होती है। कामोद में रेप की संगति में सर्वप्रथम म से द्रुत मींड के साथ रे पर आते हैं तब पंचम पर पहुंचते हैं संगीतज्ञ हमीर में म ध की संगति में ग से प्रारम्भ होकर ध पर नि का आभास लेते हैं। जैसे-गम निध।
- हमीर में ध ग और कामोद में प रे स्वरवादी सम्वादी है।
- कामोद में निषाद अल्प है किन्तु हमीर में नहीं।
- हमीर के आरोह में ग अथवा म से ऊपर जाते समय या तो पंचम वर्ण्य कर दिया जाता है या उसे वक्र प्रयोग करते हैं। कामोद में पंचम अलंघन स्वर है न तो पंचम वर्ण्य किया जाता है और न वक्र प्रयोग किया जाता है।
- गन्धार स्वर हमीर राग के केवल अवरोह में और कामोद के आरोह-अवरोह दोनों में वक्र प्रयोग किया जाता है।
(iii) राग भीमपलासी और बागेश्वरी की तुलना (Compare between Raga Bhimpalasi and Bageshree)
समता :
- दोनों राग काफी थाट जनित है।
- दोनों का वादी समवादी ‘म’ और ‘सा’ है।
- दोनों में ‘ग’, ‘नी’ स्वर कोमल एवं अन्य सभी स्वर शुद्ध लगते हैं।
भिन्नता-
- भीमपलासी के आरोह में रे ध स्वर वर्जित है।
- भीमपलासी का गायन समय दिन का तीसरा प्रहर है।
- अर्ध गम्भीर प्रकृति राग है।
- भीमपलासी जाति औडव-सम्पूर्ण है।
- राग बागेश्वरी के आरोह. में रे प वर्जित तथा अवरोह में प है।
- बागेश्वरी का गायन समय मध्यरात्रि है।
- यह गम्भीर प्रकृति का राग है।
- इसका जाति औडव-षाड्व है।
प्रश्न 16. तुलना करें :
(i) टुकड़ा और परम
(ii) टुकड़ा और मोहरा
(iii) कायदा और पेशकार
(iv) आड़ और कुआड़।
उत्तर:
(i) टुकड़ा और परम की तुलना (Compare between Tukada and Param)-टुकड़ा और परम दोनों अविस्तार शील रचना है। अर्थात् दोनों अपने मूल रूप में रहते हैं उनका पलटा नहीं किया जाता।
परम | टुकड़ा |
1. यह पखावज की मुख्य वादन सामग्री है। | 1. यह तबला पर बजाने का मुख्य वादन सामग्री है। |
2. इसके बोल दोहराते हुए और जोरदार होते हैं और इसका समापन सवा तिहाई से होता है। | 2. इसके बोल परम की तुलना में मुलायम होते हैं और इसका समापन भी अधिकतर तिहाई से होता है। |
3. परम का आकार टुकड़ा की तुलना में बडा होता है यह सामान्यतः चार या उससे अधिक आवर्तनों का होता है। | 3. इसका आकार परम की अपेक्षा छोटा होता है। अधिकतर इसका क्षेत्र एक से तीन आवत्ति तक का होता है। |
4. परन के अनेक प्रकार होते हैं। यह तेज मध्य लय तथा द्रुत लय में बजाया जाता है। | 4. वह भी मध्य लय और द्रुत लय में बजाया जाता है। |
5. मुख्यतः धमार, चारताल, तीनताल, सूलताल आदि तालों में बजाया जाता है। यह दादरा, कहरवा, दीप चंदी आदि तालों में नहीं बजाया जाता है। | 5. टुकड़ा मुख्यतः तबले समस्त तालों में बजाया जाता है। परन्तु चंचल प्रकृति की तालें (दादरा, कहरवा आदि) उसके अपवाद है। इसका प्रयोग भी सोलों और संगत दोनों में होता है। |
6. परम एक प्राचीन रचना है। | 6. यह परम की अपेक्षा नया है। इसका जन्म तबला के विकास के साथ हुआ है। |
7. इसका प्रयोग सोलों और संगत दोनों में होता है। परम उदाहरण : धेटे धेटे धागे कधा धेटे धागे तेटे क्रधा धेटे क्रधा धेटे क्रधा धेटे धागे तेटे कटे ऽधिं किट धागे। तेटे कत्ता गदि गन धागे, तेटे कत्ता कत्ता कतिर किटधा किट तेटे कत्ता किट तेटे कत्ता कति किटधा तेटे कत्ता धा, कत्ता धा, कत्ता धा × |
7. तीन ताल में टुकड़ा का उदाहरण देखिये। टुकड़ा उदाहरण : धाधा तिरकिट धाति किटता तीधा, कटता धा, कटता। तीधा, कटता धा, कटता । धा, कटता धा, धा × |
(ii) टुकड़ा और मोहरा की तुलना (Compare between Tukada and Mohara)-टुकड़ा और मोहरा की तुलना करने से पूर्व इनमें समानताओं पर विचार करना उचित है।
(i) दोनों का जन्म तबला की वादन विधि में प्रगति के साथ हुआ है और ये दोनों अविस्तारशील रचना में आते हैं।
(ii) टुकड़ा और मोहरा दोनों स्वतंत्र तबला-वादन और संगति में प्रयोग किया जाता है। दोनों में असमानताओं पर विचार-
(i) आकार में परम की तुलना में टुकड़ा छोटा और अपेक्षाकृत मुलायम होता है और उसी प्रकार मोहरा टुकड़ा की तुलना में छोटा और आवश्यकतानुसार मुलायम और जोरदार होता है।
(ii) टुकड़ा के समाप्ति सदा तिहाई के साथ होता है परन्तु मोहरा तिहाई सहित और तिहाई रहित दोनों प्रकार का होता है।
(iii) दादरा, कहरवा आदि चंचल प्रकृति की तालों को छोड़कर अन्य सभी तालों में टुकड़ा और मोहरा बजाया जा सकता है।
(iv) टुकड़ा की रचना ताल के अनुसार होता है जबकि एक मोहरा सभी तालों में बजाया जा सकता है-
(iii) कायदा और पेशकार को तुलना (Compare between Kayada and Peshkar)-
समानता-
(i) कायदा और पेशकार या पेशकारा दोनों तबला-वादन की ही चीजें हैं।
(ii) कायदा और पेशकार दोनों विस्तारशील है।
(iii) उपरोक्त दोनों का स्वतंत्र तबला-वादन में प्रयोग किया जाता है।
(iv) उपरोक्त दोनों का विस्तार और विभिन्न लयकारियों में प्रयोग किया जाता है दोनों की समाप्ति तिहाई बजा कर किया जाता है।
कायदा और पेशकार की असमानता-
(i) स्वतन्त्र तबला-वादन में पेशकार का प्रयोग सर्वप्रथम किया जाता है।
(ii) पेशकार फारसी भाषा का शब्द है। ये अदालतों में हुआ करते हैं।.उनका काम न्यायाधीश के सामने मामले प्रस्तुत करना होता है जबकि कायदा अरबी और फारसी दोनों भाषाओं का शब्द है।
(iii) तबला के प्रारम्भिक-वादन की समझदारी आ जाती है। तब पेशकार-वादन सीखता जाता है।
(iv) आड़-कुआड़ की तुलना (Compare between Aar-Kuar)-समस्त लयकारियों को हम स्थूल रूप से दो वर्ग में रख सकते हैं-एक सीधी लयकारी, दो तिरीली या आड़ की लयकारी आड़ या तिरछी लयकारी के अन्तर्गत भी कोई प्रकार की लयकारियाँ आती है। परन्तु पूर्व के विद्वानों ने उन्हें मुख्य तीन प्रकार का माना है। वे ही आड़, कुआड़ और विआड़।
आड़- इस लयकारी के अन्तर्गत उनके प्रकार की लयकारियाँ आ सकती है। सीधी लयकारी के अतिरिक्त सभी अन्य प्रकार की तिरछी लयकारी आड़ की लयकारी है। यह आड़ का साधारण और व्यापक अर्थ है आड़ के विशेष अर्थ में एक मात्रा में डेढ़ मात्रा या दो मात्रा में तीन मात्रा बोलना या कहना आड़ की लयकारी है। आड़ की विशेष अर्थ वाली लयकारी अंकों द्वारा इस प्रकार दिखला सकते हैं।
1ऽ2 ऽ3ऽ
जैसे – 3/2×3/2=9/4 1234 56789 अर्थात् सवा दो गुन की लयकारी।
दूसरे मत के लोग सबा गुण अर्थात् चार मात्रा में पाँच मात्रा बोलना या कहना कुआड़ की लयकारी मानते हैं।
1ऽऽऽ2 ऽऽऽ3ऽ ऽऽ4ऽऽ 5ऽऽऽऽ
प्रश्न 17. पश्चिम के किन्हीं दो घरानों की परम्परा और उनकी वादन शैली का वर्णन कीजिये।
उत्तर: तबला का जन्म दिल्ली में हुआ और तबला के प्रथम व्यक्ति उस्ताद सिद्धार खाँ नामक व्यक्ति हुये। जिन्होंने पखावज के बोलों को तबला पर बजाने योग्य बनाया। इतना ही नही वे तबला के प्रथम घराना के संस्थापक भी हुये। उन्हीं के वंश एवं शिष्य परम्परा ने तबला-वादन को देश के अन्य क्षेत्रों में प्रचारित किया और एक सशक्त घराने की नींव डाली।
तबला का जन्म काल लगभग तीन सौ वर्ष पूर्व आंका जाता है। उस समय तक देश में आवागमन और प्रचार-प्रसार का माध्यम आज जैसा विकसित न था। उस समय तबला-वादकों की ऐसी आर्थिक स्थिति भी न रही होगी कि वे. दूर-दराज की यात्रा आसानी से कर सकें। अतः विकास का क्षेत्र बहुत सीमित था।
दिल्ली के निकट उत्तर प्रदेश का एक जिला है। मेरठ जिले में ही एक गाँव था नाम अजराड़ा है। वहाँ के कुछ युवक विधा की खोज में दिल्ली गये। उस्ताद सिद्धार खाँ के वंशजों से शिक्षा ली और पुन: अपने गाँव “अजराड़ा” लौट आये और तबले के द्वितीय घराना “अजराड़ा घराना” की स्थापना की। जिस अजराड़ा की पुस्तकों में चर्चा करते लेखकगण थकते नहीं, वही अब तबला का नाम लेने वाला कोई नहीं है। वहाँ घर-घर दूसरा कारोबार होने लगा है। तबले के सम्बन्ध में बताने वाला कोई नहीं।
दिल्लो घराना (Delgi Gharana) :
उस्ताद सिद्धार खाँ के तीन शिष्य तथा तीन पुत्र विशेष रूप से प्रसिद्ध है। शिष्यों में उस्ताद शेशन ख़ाँ, उस्ताद कल्लु खाँ तथा उस्ताद तुल्लन खाँ और पुत्रों में बुगरा खाँ, घसीट खाँ तथा तीसरा मका नाम है। दिल्ली घराने में सिताब खाँ एक विद्वान तबलिये हुए। जिनके पुत्र नजर अली तथा नाती बड़े काले खाँ ने अपने समय काफी नाम कमाया।
बड़े काले खाँ के पुत्र जनाब बोली बख्त हुये उनके पुत्र नत्थू खाँ साहब आधुनिक युग के दिल्ली घराने के खलीफा माने गये। मेरठ निवासी स्वर्गीय 30 हबीवुद्दीन खाँ हुये। खाँ साहब ने विशेष रूप से संगति करने में ख्याति प्राप्त की। महान् तबला वादक उस्ताद अहमद जान शिथरकवा थे। इसी धराने में उस्ताद गामी खाँ एक प्रसिद्ध ताबलिक हुये। बख्श खाँ दिल्ली से लखनऊ आ गये और लखनऊ घराने की नींव डाली।
वादन शैली : दिल्ली बाज में दो अंगुलियों का प्रयोग अधिक होता है। यहाँ अधिकतर बोल किनार, चांटी और स्याही के होते है। अत: इसको किनार का बाज कहते हैं। दूसरे बाजों की अपेक्षा यह अधिक कोमल बाज है। इनमें धिनगिन, तिरकिट, त्रक आदि बोलों का अधिक प्रयोग होता है यहाँ कायदे। पेशकार तथा रेले और छोटे-छोटे मुखड़े, मोहरे और टुकड़े अधिक होते हैं। बड़े जोरदार परम तथा छन्दों का प्रयोग इस बाज में नहीं होता।
उदाहरण में एक कायदा-
अजराड़ा घराना (Ajarada Gharana):
दिल्ली के पास मेरठ जिले में अजराड़ा नामक एक गाँव है। कल्लू खाँ और मीरू खाँ नामक दो भाई वहाँ के रहने वाले थे। ये दोनों दिल्ली के सुप्रसिद्ध उस्ताद सिताब खाँ साहब से शिक्षा , प्राप्त करने के पश्चात् पुनः अपने गाँव अजराड़ में आकर बस गये और अजराड़ घराने की नींव डाली।
उस्ताद हबीवुद्दीन अजराड़े घराने और दिल्ली घराने दोनों से सम्बद्ध तबला वादक थे। इन्होंने संगति करने की अपनी निजी शैली निकाली और उसमें बहुत ख्याति प्राप्त की। दुर्भाग्यवश सन् 1964 में पक्षाघात से पीड़ित हो गये और उनका तबला वादन बिल्कुल ही छूट गया और एक लम्बी बीमारी के बाद सन् 1972 में उनकी मृत्यु हो गई। उनके पिता 30 शम्मू खाँ एक प्रसिद्ध और विद्वान तबला-वादक हो गये थे।
वादन शैली – अजराड़े घराने की वादन शैली की आत्मा तो दिल्ली की है केवल उसके बाह्य रूप में थोड़ा अन्तर आ गया है। दिल्ली का बाज के समान यह भी मधुर और मुलायम बाज है।
दिल्ली और अजराड़े के बाज में विशेष अन्तर यही है कि अजराड़े के कायदे अधिकतर आड़लय में तथा डगमगती हुये चलते हैं। इसमें बाये के बोलों की अधिकता रहती है। इस बाज में जिन बोल समूहों का अधिक प्रयोग किया जाता है। वे है घाऽ धे, धनेक, धात्रक, धिनकं, दींग, दिग, गिन।
अजराड़े बाज के कायदे-
प्रश्न 18. तबला के अजराड़ा घराने के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर: तबला – वादन के प्रसिद्ध छह घरानों में अजराड़ा घराना भी एक है। दिल्ली के निकट स्थित मेरठ एक जनपद है उसी के अन्तर्गत एक गाँव का नाम अजराड़ा है। उस गाँव के दो युवक कल्लू खाँ और मीरू खाँ तबला सीखने के लिये दिल्ली चले गये और दिल्ली घराने के सिताब खाँ साहब से विधिवत् शिक्षा प्राप्त की और पुनः अपने गाँव अजराड़ा आ गयें। उन दोनों ने अपनी प्रतिभा द्वारा वादन में मौलिक परिवर्तन कर अपने वंशजों द्वारा एक नवीन घराने को जन्म दिया, जो कालांतर में अजराड़ा घराने के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उस्ताद कल्लू खाँ की परम्परा में मुहमदी बख्श, चाँद खाँ, हस्सू खाँ, शम्मू खां और उनके पुत्र उस्ताद हबीब उदीन खाँ हुए जो आधुनिक युग के चोटी के कलाकारों में से एक हुये। उस्ताद के शिष्य प्रो. सुधीर कुमार सक्सेना (बड़ोदरा) स्व. रमाजन खाँ दिल्ली और पुत्र मंजू खां उल्लेखनीय है। उनकी मृत्यु एक लम्बी बीमारी के बाद सन् 1972 से हुई। इनका उत्कर्ष काल तीन दशकों तक का था और उस समय उन्होंने अपार ख्याति प्राप्त की।
वादन शैली – अजराड़े घराने की वादन शैली की आत्मा तो दिल्ली की है। केवल उसके बाह्य रूप में अन्तर हो गया। दिल्ली बाज के समान यह भी मधुर और कर्ण-प्रिय बाज है।
दिल्ली और अजराड़े में विशेष अन्तर पड़ी है कि अजराड़े के कायदे अधिकतर आऽलय के तथा डगमगती हुये चलते हैं। इसमें बाये की अधिकता है। इस बाज में बिन बोल समूहों का अधिक प्रयोग किया जाता है। वे है-धाऽवे, धनेक, धात्रक, धनिक दीन दीन गिन। इस बाज में परम छन्द और लम्बे चक्रदार नहीं बजाये जाते।
अजराड़े बाज के कायदे
धाऽये धैनक धेटेये टेकिट धाधाऽये धैनक तीगाति नाकिन
ताऽके कैनक तेटते टेकिट धाधऽये धेनक धींगधि नागिन प्रश्न
प्रश्न 19. फर्रुखाबाद घराना और उसकी वादन-शैली का वर्णन करें।
उत्तर: यह घराना पूरब के घरानों के अन्तर्गत आता है। इसके पूर्व प्रथम तबला-वादक उस्ताद विलायत अली खाँ हुये, जो बाद में हाजी विलायत अली के नाम से प्रसिद्ध हुये। प्रसिद्ध उस्ताद बख्श ने अपनी पुत्री का विवाह विलायत अली से किया और उनकी तबले की श्रेष्ठ शिक्षा दी। यह भी प्रसिद्ध है हाजी साहब अनेकों बार हज्ज़ करने गये और अल्लाह पाक से तबले के प्रसिद्ध कलाकार होने की प्रार्थना की। हाजी की गतें आज भी विद्वानों के बीच आदर से पढ़ी जाती है। उनके पुत्र हुसेन अली खाँ तथा शिष्य मुनीर खाँ साहब ने खूब नाम कमाया। हुसेन अली खाँ के वंश में उस्ताद नन्हें खाँ हुयें, जिनके पुत्र उस्ताद मसीत खाँ थे और पौत्र उस्ताद करामत अल्ला खाँ प्रसिद्ध तबला-वादक हुये। जनाब करामत अल्ला खाँ जीवन पर्यन्त कलकत्ता में ही है। संगत करने और विशेष रूप से गायन के साथ बड़े पटु थे। पुत्र श्री साविर अच्छे तबला-वाद है। हाजी साहब की शिष्य परम्परा में छन्नू खाँ, मुबारक अली खाँ, चूड़ियाँ वाले इनाम बख्श तथा उस्ताद सलारी खाँ आदि है।
हाजी साहब के पुत्र हुसेन अली खाँ के शिष्य उस्ताद मुनीर खाँ साहब ने तबला-वादक और एक कुशल शिक्षक के रूप में खूब ख्याति अर्जित की। मुनीर खाँ साहब न मांजे स्व० अमीर हसन खाँ साहब ने महाराष्ट्र में बहुत से शिष्य तैयार किये। आपके शिष्य देश के कोने-कोने में फैले हुये है। खाँ साहब की मृत्यु सन् 1978 में लखनऊ में हुई।
वादन – शैली-फर्रुकखावाद और लखनऊ घरानों की वादन-शैली में बहुत कम अन्तर है। फर्रुकखावाद की वादन शैली में चाले तथा रौ का काम विशेष रूप से उल्लेखनीय है और गते भी बहुत प्रसिद्ध है। यहाँ धागे, तेटे, गदिन, गन, धिड़नग आदि बोल समूहों का अधिक प्रयोग होता है।
फर्रुक्खावाद की गत-
प्रश्न 20. बनारस घराने की वंश एवं शिष्य परम्परा का उल्लेख कीजिए।
उत्तर: तबला – वादन के पूरब के घरानों के विकास में लखनऊ घराने का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। लगभग एक ही समय में आज के दो सशक्त घरानों-बनारस और फर्रुक्खाबाद घरानों की नींव पड़ी। दिल्ली से आये उस्ताद मोंदू खाँ और बख्खू खाँ से शिक्षा हॉजी विलायत अली-फर्रुक्खाबाद और पठ राम सहाय मिश्र ने बनारस घराने की स्थापना की।
बालक राम सहाय एक अलौकिक प्रतिभा सम्पन्न थे। अपने बाल्य काल के तबरसा वादन . से ही लखनऊ के उस्ताद मोंदू खाँ साहब का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। बालक राम सहाय जी उस्ताद के पास लखनऊ चले गये। लगभग बारह वर्षों तक सतत् शिक्षा और अभ्यास के बाद एक परिपक्व कलाकार के रूप में पंडित जी घर आयें। पठ राम सहाय जी लखनऊ में रहकर खूब ख्याति प्राप्त की वाद में पण्डित राम सहाय जी अपने जन्म स्थान बनारस लौट आये और बनारस घराने की नींव डाली। भाई पंडित गौरी सहाय के पुत्र पण्डित भैरव सहाय तथा पौत्र पण्डित बलदेव सहाय तथा प्रपौत्र पण्डित दुर्गा सहाय प्रसिद्ध तबलिये हुए। सुप्रसिद्ध तबला-वादक पण्डित कंठ महाराज पण्डित बलदेव सहाय के शिष्य थे। कठे जी महाराज के भतीजे पंडित किशन महाराज आज के युग के प्रसिद्ध तबला वादक थे।
बनारस के पंडित चावा मित्र एक विद्वान तबलिये हये। इनके पुत्र पंडित समता प्रसाद देश के जाने-माने तबला वादकों में से थे। सरदास नग्न जी (दुर्गा सहाय) के शिष्यों में पंडित श्यामलाल की तथा उनके शिष्य इलाहाबाद के प्रसिद्ध तबला-वादक प्रोफेसर लाल जी श्रीवास्तव थे। श्री लाल जी ने सर्वप्रथम उस्ताद यूसूफ खाँ से फिर पंडित श्याम लाल जी से तथा बाद में जयपुर के पंडित जिया लाल जी से तबले की शिक्षा प्राप्त की। बनारस के दूसरे प्रसिद्ध तबला-वादक ना, धि, धि, ना, के बादशाह तथा धिर-धिर के विशेषज्ञ स्वर्गीय पंडित अनोखे लाल जी, पंडित भैरव मिश्र के योग्य शिष्यों में से थे। उनकी मृत्यु 10 मार्च 1958 ई० में हुई।
वादन – शैली
बनारस घराने के अधिष्ठता पंडित राम सहाय भी लखनऊ के उस्ताद मोंदू खाँ के शिष्य थे। लखनऊ की वादन-शैली की सभी विशेषतायें तो बनारस में आई ही और साथ-साथ वहाँ की सामाजिक स्थिति नया संगीत के प्रभाव से भी वादन-शैली में अन्तर आ गया।
बनारस सदा से हिन्दु धर्म तथा प्राचीन भारतीय संस्कृति का केन्द्र रहा है। उसके प्रभाव से तबला अलग न रह सका।
यहाँ पखावज का अधिक प्रचार होने के कारण बाज खुला और जोरदार हो गया। आज भी बनारस पूरब की ठुमरी के लिये बहुत प्रसिद्ध है। अतः तबले में लग्गी-लड़ी का काम अधिक होना आवश्यक था और वही हुआ भी। छन्द, जोरदार, परन, गत, लग्गी, लड़ी, बजाना बनारस की विशेषता है। थाप, लो और स्याही का काम अधिक तथा धिरधिर, थेटधेट, कड़ान, गगिन आदि बोलों का अधिक प्रयोग होता है।
बहाँ के एक कायदे :
प्रश्न 21. तबला के पंजाब घराने और उसकी वादन शैली पर संक्षेप में लिखिये।
उत्तर: 13वीं सदी में अलाउद्दीन खिजली के समय अमीर खुसरो ने तबले का आविष्कार किया। आविष्कार इस रूप में किया गया कि पखावज के बीच से दो भागों में विभाजित कर उसे तबला कहा। आज भी पंजाब में पखावज के समान तबले के डग्गे में आटा लगाकर उसे प्रयोग करते हैं तबले की उत्पत्ति अरब के ‘तब्ल’ से हुई जिसे एक कोस कहते हैं। सर्वप्रथम दिल्ली के सिधार खाँ हमारे सामने एक तवलिये के रूप में आते हैं। उनके द्वारा दिल्ली की तथा अन्य सभी घरानों की नींव पड़ी।
तबले के मुख्य तीन घराने है-
(i) पश्चिमी घराने
(ii) पूर्वी घराना
(iii) पंजाब घराना।
(i) पश्चिमी घराने के अन्तर्गत दिल्ली और अजराड़ा।
(ii) पूर्वी घराने के अन्तर्गत लखनऊ, फर्रुखावाद और बनारस घराने आते हैं।
(iii) पंजाब घराना स्वतः एक अलग घराना है।
पंजाब घराना (Punjab Gharana) :
इस घराने में तबले का विकास स्वतन्त्र रूप से हुआ। अतः दिल्ली अथवा किसी अन्य घरानों से इनका तनिक भी सम्बन्ध नहीं हुआ पंजाब बाज पूर्ण तथा पखावज पर आश्रित है। अन्तर केवल इतना है कि पखावज के खुले बोल तबले पर बन्द कर के बजाये जाते हैं। इस घराने के उस्ताद कादिर बख्श प्रसिद्ध पखावली थे उनके शिष्य में उन्हीं के पुरा उस्ताद अल्ला रक्खा ने अन्य विद्वानों के अतिरिक्त उस्ताद कादि बख्श से भी संगति शिक्षा प्राप्त की।
पंजाब घराने के कायदे-गत, परन, बहुत लम्बे होते हैं। विलम्बित लय के ‘लहरा’ में जब दिल्ली घराने के अधिकांश कायदे के बल चार ही मात्रा में समाप्त हो जाते हैं तो पंजाब घराने कै कायदे एक आवृत्ति अथवा 16 मात्रा तक ले लेते हैं। विमित्र लयकारियों की चककरदार सुन्दर गते इस बाज में प्रचरता से मिलती है।
धगी नाण, नणते, कगन, हो नट, धिर-धिर, केऽ, दुई दुआ, नग-नग, मटिन्नाऽ आदि-वर्ण समूहों का प्रयोग इस बोल में अधिक होता है।
प्रश्न 22. ताल के कितने प्राणा या अंग होते हैं ? किन्हीं पाँच का वर्णन करें।
उत्तर: ताल (Tal) – विमित्र मात्राओं के विविध समूहों को ताल कहते हैं। लय से मात्रा और मात्रा से ताल बने। जो तबले अथवा पखावज पर बजाये जाते हैं। कुछ निश्चित मात्राओं के उस समूह को ताल कहते हैं। जैसे-धी, ना, किट तक आदि वर्गों से निमिति होते हैं।
ताल के दस प्राण होते हैं-
(i) काल,
(ii) मार्ग,
(iii) क्रिया,
(iv) अंग,
(v) ग्रह,
(vi) जाति,
(vii) कला,
(viii) लय,
(ix) यति तथा
(x) प्रस्तार।
(i) काल-गायन, वादन और नृत्य-इन तीनों कलाओं की क्रियाओं में जो प्रस्तार समय लगता है। उसे काल कहकर पुकारते हैं।
(ii), क्रिया-ताल को बजाना अथवा हाथों पर ताली देकर दिखाना। ताल की क्रिया कहलाती है। हाथ पर जब ताल लगाते हैं ताली और खाली दिखाते हैं। यही उसकी क्रिया है।
(iii) अंग-ताल के विमित्र विभाग ही उनके कहलाते हैं। कर्नाटकी संगीत पद्धति में तालों ‘ के विभाग अंग कहलाते हैं। तीनताल, दादरा, कहरवा, दीपचंदी, रूपक इत्यादि।
(iv) कला-ताल के तबले पर अथवा ताल बाधो पर बजाने की जो विमित्र शैलियाँ है, कला कहलाते हैं। कला का अर्थ रीति अथवा शैली है आधुनिक समय में ताल-बाघ बजाने के विमित्र घराने, कला के अन्तर्गत ही आ सकते हैं।
(v) लय-गायन-वादन तथा नृत्य की क्रियाओं में जो समय लगता है। उस समय के ताल गति अथवा लय कहते हैं एक समानान्तर चाल होती है। ये तीन प्रकार की होती है-
(i) विलम्बित लय,
(ii) मध्य तल,
(iii) द्रुत लय।
प्रश्न 23. पखाबज और तबला की तुलना कीजिये।
उत्तर: पखावज और तबला दोनों अभिजात्य संगति में प्रयोग किये जाने वाला अपन्द तालवाघ है।
पखावज (Pakhawaj) | तबला (Tabla) |
1. यह अवन्दु वाघ है जिसका जन्म सम्भवतः ईसा से 500 वर्ष पूर्व हो चुका था। इसे पखावज या मृदंग भी कहा जाता है। | 1. यह उत्तर भारत में आधुनिक युग में सर्वाधिक प्रयोग किया जाने वाला अवन्दु वाघ है। इसका जन्म तीन सौ वर्षों पूर्व का माना जाता है। |
2. कुछ विद्वानों के अनुसार मृदंग का प्राचीन नाम पुष्कर था और इसके तीन मुँह हुआ करते थे। | 2. इसका मुख्य शरीर कांठ (लकड़ी) का जो 3/4 भाग खोखला होता है। |
3. यह एक नगीय वाघ है और इसे लिटा कर बजाया जाता है। | 3. यह एक दो नगीय वाघ है जिसे मुख्यतः सुख आसन में बैठकर बजाया जाता है। इसका दाहिने का मुँह 12, 13 सेंटीमीटर चौड़ा होता है जो ऊँचे स्वर में भी मिलाया जा सकता है। |
4. इसके दाहिने का मुँह बड़ा मुँह हीन के कारण ऊँचे स्वर में नहीं मिलाया जा सकता। | 4. इसके बायें की डग्गी भी कहते हैं जो मिट्टी लकड़ी या किसी धातु का बनाया जाता है। |
5. इसके बायें का मुँह पर जो या गेहूँ का गुथा हुआ आटा लगाया जाता है। | 5. इसके दोनों ओर स्थाई रूप से स्याही (काली मसाला) लगाया जाता है। |
6. इसके बाल जोरदार और गंभीर हुआ करते हैं और इसका वादन पूरे हथेली से किया जाता है। | 6. इसके बोल अधिकतर ऊंगलियों से बजाया जाता है जो कोमल और अपेक्षाकृत कम जोरदार होता है। |
7. इसका प्रयोग स्वतन्त्र-वादन प्राचीन ध्रुपद-धमार शैली तथा कथक नृत्य की संगत में किया जाता है। | 7. इसका प्रयोग ख्याल अंग की गायकी, तन्त्र, वाधों के साथ, नृत्य में तथा स्वतंत्र-वादन में किया जाता है। |
8. इसका मुख्य ताल है-धमार, चौताल, सूलतालं, तेवरताल, ब्रह्मताल तथा गजझप्पा ताल आदि। | 8. इसके मुख्य तालों का नाम है-त्रिताल, झपताल, एकताल, दादरा, कहरवा तथा पंचम सवारी ताला इस.पर पेशकार, कायतदा, रेला, टुकड़ा, गत तिहाई आदि बजाया जाता है। |
प्रश्न 24. निम्नलिखित में से किसी एक ताल को ठाह दुगुन लय में लिखें :
1. तीन ताल – 16 मात्रा
2. झपताल – 10 मात्रा
3. एकताल – 12 मात्रा
4. चारताल – 12 मात्रा
5. रूपक ताल – 7 मात्रा
6. दीप चन्दी ताल – 14 मात्रा
7. आड़ा चारताल – 14 मात्रा
8. धमार ताल – 14 मात्रा
9. तिल बाड़ा ताल-16 मात्रा
10. जत ताल – 16 मात्रा
11. कहरवा ताल – 8 मात्रा
12. दादरा ताल – 6 मात्रा
13. ध्रुपद ताल – 12 मात्रा
14. ठुमरी ताल – 14 मात्रा
15. ठप्पा ताल – 16 मात्रा।
उत्तर:
1. तीन ताल – 16 मात्रा
ताल की ठाठ (स्थाई)-विभाग 4 ताली -1, 5, 13 ठास पर तथा खाली 9वें मात्रा पर।
ताल की दुगुन –
2. झपताल – 10 मात्रा
विभाग – 4, ताली-1, 3, 8 पर तथा खाली 6वें मात्रे पर।
ताल की ठाठ (स्थाई)-
ताल की दुगुन –
3. एकताल – 12 मात्रा
विभाग – 6. ताली – 1, 5, 9, 11 पर तथा खाली 3, 7वें मात्रे पर।
ताल की ठाठ-
ताल की दुगुन-
4. चारताल – 12 मात्रा
विभाग – 7, ताली-1, 5, 9, 11 पर तथा खाली 3, 7वें मात्रे पर।
ताल की ठाठ (स्थाई)-
ताल की दुगुन-
5. रूपक ताल – 7 मात्रा
विभाग – 3, ताली – 1, 4 तथा 6वें मात्र पर।
ताल की ठाठती-
ताल की दुगुन-
6. दीप चन्दी ताल – 14
मात्रा विभाग – 4. ताली – 1, 4, 11 पर तथा खाली 9वें मात्रा पर।
ताल की ठाठ-
ताल की दुगुन-
(दीप चन्दी को चाचर ताल भी कहते हैं।)
7. आड़ा चारताल -14 मात्रा विभाग – 7. ताली-1, 3,7 तथा 11 पर एवं खाली 5, 9, 13वें मात्रा पर।
ताल की ठाठ (स्थाई)-
ताल की दुगुन-
8. धमार ताल – 14 मात्रा
विभाग – 4, ताली 1, 6. 11 पर तथा खाली 9वें मात्रा पर।
ताल की ठाठ (स्थाई)-
ताल की दुगुन-
9. तिल बाड़ा ताल – 16 मात्रा
विभाग – 4, ताली 1.5 एवं 13 पर तथा खाली 9वें मात्रा पर।
ताल की ठाठ-
ताल की दुगुन-
10. जत ताल – 16 मात्रा
विभाग – 4, ताली 1.5, 13 तथा खाली 9वें मात्रा पर।
ताल की ठाठ (स्थाई)-
ताल की दुगुन-
11. कहरवा ताल-8 मात्रा
विभाग – 8, ताल – 1 और खाली 5वें मात्रा पर।
ताल की ठाठ-
ताल की दुगुन-
12. दादरा ताल – 6 मात्रा
विभाग – 6, ताली 1 और खाली 4वें मात्रा पर ।
ताल की ठाठ-
ताल की दुगुन-
13. ध्रुपद ताल – 12 मात्रा विभाग-6 ताली 1, 5, 9, 11 और खाली 3 और 7वें मात्रा पर।
ताल की ठाठ-
ताल की दुगुन-
14. ठुमरी ताल – 14 मात्रा
विभाग – 4, ताली – 1, 4, 11 पर और खाली 8वें मात्रे पर।
ताल की ठाठ-
ताल की दुगुन-
15. ठप्पा ताल – 16 मात्रा
विभाग – 4, ताली 1, 5, 13 पर खाली 9वें मात्रा पर।
ताल की ठाठ (स्थाई)-
ताल की दुगुन-