bihar board 12 pol science | लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट
bihar board 12 pol science | लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट
(CRISIS OF THE DEMOCRATIC ORDER)
स्मरणीय तथ्य
• आपातकाल-श्रीमती इंदिरागांधी के प्रधानमंत्री कालांश में जून 1975 से 1977 तक
आपातकाल जारी रहा।
• मॉनसून की असफलता का उल्लेखनीय वर्ष-1972-73
• छात्रों के बीच भारी विरोध के स्वर जिसके समय उठे-1960 के दशक से।
• नक्सलवादी-मार्क्सवादी, लेनिनवादी (अब माओवादी)।
• कांग्रेस (ओ) नेता-मोरारजी देसाई।
• बिहार आंदोलन के सर्वोच्च नेता-जय प्रकाश नारायण।
• नक्सलवादियों का भारतीय लोकतंत्र के प्रति दृष्टिकोण का मूल विचार-उनके
अनुसार भारत में लोकतंत्र एक छलावा है।
• गुरिल्ला युद्ध-थोड़े-से लोगों द्वारा बड़ी सैन्य शक्ति के विरुद्ध छुपकर लड़ने की युद्ध
नीति।
• प्रेस सेंसर शिप-समाचारपत्रों में कुछ भी छपने से पहले सरकारी अनुमति लेना
आवश्यक करना ही प्रेस सेंसर शिप के नाम से जाना जाता है।
• सूत्री कार्यक्रम-आपातकाल में इंदिरा सरकार द्वारा भूमि, पुनर्वितरण, खेतिहर मजदूरों
के पारिश्रमिक पर पुनर्विचार, प्रबंधन में कामगारों की भागीदारी, बंधुआ मजदूरी की
समाप्ति आदि मसले शामिल थे।
• मोरारजी देसाई का जीवन काल-1886-19951
• चौधरी चरण सिंह का जीवन काल-1902-1987
• जगजीवन राम का जीवन काल-1908-1986
एन सी ई आर टी. पाठ्यपुस्तक एवं अन्य परीक्षोपयोगी प्रश्न एवं उनके उत्तर
वस्तुनिष्ठ प्रश्न
1. निम्नलिखित में कौन कथन सही है? [B.M.2009A]
(क) 25 जून, 1975 को इंदिरा गाँधी ने आपातकाल की उद्घोषणा की।
(ख) आपातकाल के दौरान सभी विपक्षी दलों के नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया।
(ग) लोकनायक जयप्रकाश ने संपूर्ण क्रांति का नारा दिया।
(घ) उपर्युक्त सभी उत्तर-(घ)
2. इंदिरा गाँधी ने भारत में आपातकाल की घोषणा कब की थी? [B.M. 2009A]
(क) 18 मई, 1975
(ख) 25 जून, 1975
(ग) 5 जुलाई, 1975
(घ) 10 अगस्त, 1975 उत्तर-(ख)
3. जनता पार्टी की सरकार कब बनी? [Board Exam. 2009A; B.M. 2009A]
(क) 1974 में
(ख) 1977 में
(ग) 1980 में
(घ) 1983 में उत्तर-(ख)
4. संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना कब हुई? [Board Exam.2009A; B.M.2009A]
(क) 1945 में
(ख) 1947 में
(ग) 1950 में
(घ) 1952 में उत्तर-(क)
5. 1975 में भारत में राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा संविधान के किस अनुच्छेद के
अन्तर्गत की गई?
[B.M. 2009A]
(क) अनुच्छेद, 352
(ख) अनुच्छेद, 355
(ग) अनुच्छेद, 356
(घ) अनुच्छेद, 360 उत्तर-(क)
6. 1977 में पहली बार केन्द्र में गैर कांग्रेसी सरकार बनवाने का मुख्य श्रेय किन्हें दिया जाता है?
[B.M. 2009A]
(क) जयप्रकाश नरायण
(ख) मोरारजी देसाई
(ग) जगजीवन राम
(घ) कृपलानी उत्तर-(क)
7. किस राजनीतिक दल ने 1975 में आपातकाल की घोषणा का स्वागत किया था?
[B.M. 2009A]
(क) जनसंघ
(ख) अकाली दल
(ग) डी एम के
(घ) सी पी आई. उत्तर-(घ)
8. 1973 में तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की वरिष्ठता को नजरअंदाज कर सर्वोच्च न्यायालय
का मुख्य न्यायाधीश किन्हें बनाया गया था? [B.M. 2009A]
(क) न्यायमूर्ति के सुव्वाराव
(ख) न्यायमूर्ति ए. एन. रे
(ग) न्यायमूर्ति वाई. चन्द्रचूड़
(घ) न्याय मूर्ति एच. आर. खन्ना उत्तर-(ख)
9. निम्नलिखित में से कौन-सा आपातकालीन घोषणा के संदर्भ में मेल नहीं खाता है-
[B.M. 2009A]
(क) सम्पूर्ण क्रांति का आह्वान
(ख) 1974 का रेल हड़ताल
(ग) नक्सलवादी आंदोलन
(घ) शाह आयोग की रिपोर्ट के निष्कर्ष उत्तर-(ग)
10. संविधान ने किस भाषा को राजभाषा का दर्जा दिया है?
[Board Exam. 2009A; B.M. 2009A]
(क) अंग्रेजी
(ख) हिन्दी
(ग) उर्दू
(घ) हिन्दुस्तानी उत्तर-(ख)
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
1. “1967 के बाद देश की कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के संबंधों में आए तनावों
ने आपातकाल की पृष्ठभूमि तैयार की थी।” इस कथन को संक्षेप में स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-(1) 1967 के बाद इंदिरा गांँधी एक कद्दावर नेता के रूप में उभरी थीं और 1973-74
तक उनकी लोकप्रियता अपने चरम पर थी लेकिन इस दौर में दलगत प्रतिस्पर्धा कहीं ज्यादा तीखी और ध्रुवीकृत हो चली थी। इस अवधि में न्यायपालिका और सरकार के संबंधों में भी तनाव आए। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार की कई पहलकदमियों को संविधान के विरुद्ध माना। कांग्रेस पार्टी का
मानना था कि अदालत का यह रवैया लोकतंत्र के सिद्धांतों और संसद की सर्वोच्चता के विरुद्ध
है। कांग्रेस ने यह आरोप भी लगाया कि अदालत एक यथास्थितिवादी संस्था है और यह संस्था
गरीबों को लाभ पहुंँचाने वाले कल्याण-कार्यक्रमों को लागू करने की राह में रोड़े अटका रही है।
2. विरोधी दलों के विरोध तथा कांग्रेस की टूट ने आपातकाल की पृष्ठभूमि कैसे तैयार
की थी?
उत्तर-देश में सन् 1952 के चुनाव से ही देश एवं अधिकांश प्रांतों में कांग्रेस के पास ही
सत्ता रही। कुछ ही प्रांतों में विरोधी दलों या संयुक्त विरोधी दलों की सरकारें बनीं। वे केंद्र में सत्ता
में आना चाहते थे। कांग्रेस के विपक्ष में जो दल थे उन्हें लग रहा था कि सरकारी प्राधिकार को
निजी प्राधिकार मानकर इस्तेमाल किया जा रहा है और राजनीति हद से ज्यादा व्यक्तिगत होती
जा रही है। कांग्रेस टूट से इंदिरा गाँधी को उनके विरोधियों के बीच मतभेद गहरे हो गए थे।
सत्ता पाने पर प्रायः प्रत्येक व्यक्ति में किसी-न-किसी सीमा तक घमंड आ ही जाता है। इंदिरा
गाँधी भी इसका अपवाद नहीं थीं। वे पुरानी कांग्रेस को पूर्णतया निर्बल बनाने की इच्छा रखती थीं। गुजरात आंदोलन तथा बिहार आंदोलनों को विरोधी दलों ने राष्ट्रव्यापी बनाना चाहा। जय प्रकाश नारायण संपूर्ण क्रांति की बात कर रहे थे। ऐसी सभी घटनाओं ने आपातकाल के लिए पृष्ठभूमि तैयार की।
3. किन कारणों से 1980 में मध्यावधि चुनाव करवाने पड़े?
What were the reasons which led to the mid-term elections in 1980?
[NCERTT.B.Q.4]
उत्तर-क्योंकि जनता दल मूलत: इंदिरा गाँधी के मनमाने शासन के विरुद्ध विभिन्न पार्टियों
का गठबंधन था इसलिए ही जनता पार्टी बिखर गई और मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली
सरकार ने 18 माह में ही अपना बहुमत खो दिया। कांग्रेस पार्टी के समर्थन पर दूसरी सरकार चरण सिंह के नेतृत्व में बनी। लेकिन बाद में कांग्रेस पार्टी ने समर्थन वापस लेने का फैसला किया। इस वजह से चरण सिंह की सरकार मात्र चार महीने तक सत्ता में रही। 1980 में लोकसभा के लिए नए सिरे से चुनाव हुए।
4. चौधरी चरण सिंह पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-चौधरी चरण सिंह का जन्म 1902 में हुआ। वह महान् स्वतंत्रता सेनानी और प्रारंभ
में उत्तर प्रदेश की राजनीति में सक्रिय रहे। वे ग्रामीण एवं कृषि विकास की नीति और कार्यक्रमों के कट्टर समर्थक थे। 1967 में कांग्रेस पार्टी को छोड़कर भारतीय क्रांति दल का गठन किया। वे दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। वे जय प्रकाश के संपूर्ण क्रांति आंदोलन से जुड़े और 1977 में जनता पार्टी के संस्थापकों में से एक थे। 1977 से 1979 तक वह भारत के उपप्रधानमंत्री और गृहमंत्री रहे। उन्होंने लोकदल की स्थापना की थी। वे लगभग कुछ महीने के लिए जुलाई 1979 से जनवरी 1980 के बीच भारत के प्रधानमंत्री रहे। चौधरी चरण सिंह का निधन 1987 में हुआ।
5. मोरारजी देसाई पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-मोरारजी देसाई का जन्म 1896 में हुआ। वे भारत के महान् स्वतंत्रता सेनानी और
गाँधीवादी नेता थे। वे बॉम्बे (अब मुंबई) राज्य के मुख्यमंत्री रहे। उन्होंने 1966 में कांग्रेस संसदीय
पार्टी का नेतृत्व सँभाला। वे 1967-1969 तक देश के उपप्रधानमंत्री रहे। वे कांग्रेस पार्टी में सिंडिकेट गुट के एक सदस्य थे। बाद में जनता पार्टी के द्वारा प्रधानमंत्री निर्वाचित हुए और वे देश में पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने। उन्होंने 1977 से 1979 के मध्य लगभग 18 महीने इस पद पर कार्य किया। 1995 में उन्होंने शरीर को त्याग दिया।
6. चारु मजूमदार का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर-चारु मजूमदार (CharuMazumdar)-चारु का जन्म 1918 को हुआ। वे भारत
के इतिहास में कम्युनिस्ट क्रांतिकारी और नक्सलवादी बगावत के नेता थे। आजादी से पहले तेभागा आंदोलन में भागीदार रहे। उन्होंने जब सीपीआई छोड़ी और कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया
(मार्क्सवादी-लेनिनवादी) की स्थापना की। यह पार्टी नक्सलवादी आंदोलन की प्रेरणा स्रोत बनी।
चारु माओवादी पंथ में विश्वास, करते थे क्रांतिकारी हिंसा के समर्थक थे। पुलिस हिरासत में मौत,
1972 में हुई।
7. जगजीवन राम पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-जगजीवन राम का जन्म 1908 में हुआ। वे भारत के महान् स्वतंत्रता सेनानी और
बिहार राज्य के उच्च कोटि के कांग्रेसी नेता थे। वे स्वतंत्र भारत के पहले केंद्रीय मंत्रिमंडल में
श्रममंत्री बने। वास्तव में 1952 से 1977 तक उन्होंने अनेक मंत्रालयों की जिम्मेदारी निभाई थी। वे देश की संविधान सभा के सदस्य थे। वे 1952 से लेकर 1986 तक सांसद रहे। 1977 से 1979 तक, अर्थात् 18 मास तक देश के उपप्रधानमंत्री रहे। वे जीवन-भर दलितों के मध्य बहुत सम्मानित रहे। 1986 में उनका निधन हो गया।
लघु उत्तरीय प्रश्न
1. किन-किन आर्थिक संदर्भो ने 1960 के बाद से ही देश में असंतोष, आंदोलनों तथा
आपातकाल (1975) की पृष्ठभूमि तैयार की थी? संक्षेप में समझाइए।
उत्तर-आर्थिक संदर्भ एवं राष्ट्रव्यापी असंतोष, आंदोलन एवं आपातकाल की
पृष्ठभूमि (Economic references and dissatisfaction movement and background of Emergency) –
(1) ‘गरीबी हटाओ’-नारा खोखला साबित हुआ। इंदिरा गाँधी ने 1971 के आम चुनावों
यह नारा दिया था लेकिन इस नारे के बावजूद भी 1971-72 के बाद के वर्षों में भी देश की
सामाजिक-आर्थिक दशा में सुधार नहीं हुआ।
(2) बंगलादेश से आए शरणार्थी (Refugees from Bangladesh)-1971 के युद्ध
के दौरान पूर्वी पाकिस्तान बंगलादेश बन गया। बंगलादेश के संकट से भारत की अर्थव्यवस्था पर
भारी बोझ पड़ा था। लगभग 80 लाख लोग पूर्वी पाकिस्तान की सीमा पार करके भारत आ गए
थे। इसके बाद भारत को पाकिस्तान से युद्ध भी करना पड़ा।
(3) भारत विरोधी अमेरिकी रुख (Anti Indo-us outlook)-स्वतंत्रता के बाद से
ही पाकिस्तान अमेरिका के गुट में शामिल हो गया था। पाक-भारत 1971 युद्ध के बाद अमरीका
ने भारत को हर तरह की सहायता देना बंद कर दिया।
(4) बढ़ती कीमतें एवं व्यय (Rising prices and expenditures)-इसी अवधि में
अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में कई गुणा बढ़ोतरी हुई। इससे विभिन्न चीजों की कीमतें
भी तेजी से बढ़ीं। 1973 में चीजों की कीमतों में 23 फीसदी और 1974 में 30 फीसदी का इजाफा हुआ। इस तीव्र मूल्यवृद्धि से लोगों को भारी कठिनाई हुई।
(5) बेरोजगारी तथा सरकार के कर्मचारी विरोधी कदम (Unemployment and
anti-employees steps taken by the government)-औद्योगिक विकास की दर बहुत कम थी और बेरोजगारी बहुत बढ़ गई थी। ग्रामीण इलाकों में बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ी थी। खर्चे को कम करने के लिए सरकार ने अपने कर्मचारियों के वेतन को रोक लिया। इससे सरकारी कर्मचारियों में बहुत असंतोष पनपा।
(6) खाद्यान्न संकट (Food Crisis)-1972-73 के वर्ष में मॉनसून असफल रहा। इससे
कृषि की पैदावार में भारी गिरावट आई। खाद्यान्न का उत्पादन 8 प्रतिशत कम हो गया। आर्थिक
स्थिति की बदहाली को लेकर पूरे देश में असंतोष का माहौल था इस स्थिति में गैर-कांग्रेसी पार्टियों ने बड़े कारगर तरीके से जन-विरोध की अगुवाई की।
(7) कांग्रेस विरोधी राजनीतिक गतिविधियाँ (Anti Congress political
activities)-1960 के दशक से ही छात्रों के बीच विरोध के स्वर उठने लगे थे। ये स्वर इस अवधि में और ज्यादा प्रबल हो उठे। संसदीय राजनीति में विश्वास न रखने वाले कुछ मार्क्सवादी
समूहों की सक्रियता भी इस अवधि में बढ़। इन समूहों ने मौजूदा राजनीतिक प्रणाली और पूँजीवादी प्रणाली और पूँजीवादी व्यवस्था को खत्म करने के लिए हथियार उठाया तथा राज्यविरोधी तकनीकों का सहारा लिया। ये समूह मार्क्सवादी लेनिनवादी (अब माओवादी) अथवा नक्सलवादी के नाम से जाने गए। ऐसे समूह पश्चिम बंगाल में सबसे ज्यादा सक्रिय थे। पश्चिम बंगाल की सरकार ने इन्हें दबाने के लिए कठोर कदम उठाए।
2. लोकनायक जयप्रकाश नारायण के जीवन का संक्षिप्त परिचय देते हुए उनके
महत्त्वपूर्ण कार्यों तथा उपलब्धियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-(1) संक्षिप्त परिचय (A brief Introduction)-लोकनायक जयप्रकाश
नारायण (जेपी) का जन्म 1902 में हुआ था। वे गाँधीवादी विचारधारा के साथ-साथ समाजवाद
तथा मार्क्सवाद से प्रभावित थे। वस्तुत: वे युवावस्था में मार्क्सवादी थे। उन्होंने स्वराज्य के संघर्ष
के दिनों में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी एवं कालांतर में सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। वे इस दल
के महासचिव (general secretary) के पक्षधर रहे।
(II) प्रमुख कार्य एवं उपलब्धियाँ (Main works and achievements)-सन् 1942
में गाँधीजी द्वारा छेड़े भारत छोड़ो आंदोलन (Quit India Movement) के महानायक बन गए। उन्हें स्वतंत्रता के उपरांत जवाहरलाल नेहरू के राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में देखा गया। उन्होंने बिनोबा भावे के भूआंदोलन में भी बढ़-चढ़कर भाग लिया था। उन्हें कई बार देश के राष्ट्रपति तथा नेहरू मंत्रिमंडल में शामिल होने के लिए कहा गया लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इंकार कर दिया। वे निस्वार्थी महान् नेता थे। उन्होंने 1955 में सक्रिय राजनीति छोड़ दी। वे गाँधीवादी होकर भूदान आंदोलन में बहुत ही सक्रिय हो गए। वे वस्तुतः लोक नायक थे। उन्होंने नागा विद्रोहियों से सरकार की ओर से सुलह की बातचीत की। उन्होंने कश्मीर में शांति प्रयास किए। उन्होंने चंबल (घाटी) के डकैतों से सरकार के समक्ष आत्मसमर्पण कराया। उन्होंने सन् 1970 के बाद लाए गए बिहार आंदोलन का नेतृत्व स्वीकार किया। वे अधिकांश विरोधी राजनीतिक दलों को एक मंच पर इंदिरा गाँधी द्वारा लगाई गई (जून 1975) की आपातकाल के घोर विरोधी के प्रतीक बन गए थे। उन्होंने जनता पार्टी के गठन में अहम भूमिका निभाई। सन् 1979 में उनका निधन हो गया।
3. जनता पार्टी ने 1977 में शाह आयोग को नियुक्त किया था। इस आयोग की नियुक्ति
क्यों की गई थी और इसके क्या निष्कर्ष थे?
The Shah Commission was appointed in 1977 by the Janta Party
Government Why was it appointed and what were is findings?
[NCERT T.B.Q.5)
उत्तर-शाह आयोग का गठन “25 जून 1975 के दिन घोषित आपातकाल के दौरान की
गई कार्रवाई तथा सत्ता के दुरुपयोग अतिचार और कदाचार के विभिन्न आरोपों के विविध पहलूओं’ की जाँच के लिए किया गया था। आयोग ने विभिन्न प्रकार के साक्ष्यों की जाँच की और हजारों गवाहों के बयान दर्ज किए। गवाहों में इंदिरा गाँधी भी शामिल थीं। वे आयोग के सामने उपस्थित हुई, लेकिन उन्होंने आयोग के सवालों के सामने उपस्थित हुई, लेकिन उन्होंने आयोग के सवालों के जवाब देने से इनकार कर दिया।
शाह आयोग ने अपनी जाँच के दौरान पाया कि इस अवधि में बहुत सारी ‘अति’ हुई। भारत
सरकार ने आयोग द्वारा प्रस्तुत दो अंतरिम रिपोर्टों और तीसरी तथा अंतिम रिपोर्ट की सिफारिशों, पर्यवेक्षणों और निष्कर्मों को स्वीकार किया। यह रिपोर्ट संसद के दोनों संदनों में भी विचार के लिए रखी गई।
4. 1975 में राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा करते हुए सरकार ने इसके क्या कारण
बताए थे?
What reasons did the Government givefor declaring a National Emergency in 1975? [B.M.2009A; NCERT T.B.Q.4]
उत्तर-(1) सरकार के मतानुसार चुनी हुई सरकार को लोकतंत्र में विपक्षी दल उसकी नीतियों
के अनुसार शासन नहीं चलने दे रहे। वे बार-बार धरना-प्रदर्शन, सामूहिक कार्यवाही, राष्ट्रव्यापी
आंदोलन की धमकियां देकर अस्थिरता पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं जिसके कारण प्रशासन
विकास के कार्यों को पूरा ध्यान नहीं दे सकता।
(2) सारी ताकत कानून-व्यवस्था की बहाली पर लगानी पड़ती है। इंदिरा गाँधी ने शाह आयोग
को चिट्ठी में लिखा कि षड्यंत्रकारी ताकतें सरकार के प्रगतिशील कार्यक्रमों में अड़गे डाल रही थी और मुझे गैर-संवैधानिक साधनों के बूते सत्ता से बेदखल करना चाहती थीं।
“लोकतंत्र के नाम पर खुद लोकतंत्र की राह रोकने की कोशिश की जा रही है। वैधानिक
रूप से निर्वाचित सरकार को काम नहीं करने दिया जा रहा। आंदोलनों से माहौल सरगर्म है और
इसके नतीजतन हिंसक घटनाएंँ हो रही है। एक आदमी तो इस हद तक आगे बढ़ गया है कि वह
हमारी सेना को विद्रोह और पुलिस को बगावत के लिए उकसा रहा है। विघटनकारी ताकतों का
खुला खेल जारी है और साम्प्रदायिक उन्माद को हवा दी जा रही है, जिससे हमारी एकता पर
खतरा मंँडरा रहा है। अगर सचमुच कोई सरकार है, तो वह कैसे हाथ बाँधकर खड़ी रहे और देश
की स्थिरता को खतरे में पड़ता देखती रहे? चंद लोगों की कारस्तानी से विशाल आबादी के
अधिकारों को खतरा पहुंँच रहा है।” -इंदिरा गाँधी
5. भारत की दलीय प्रणाली पर आपातकाल का किस तरह असर हुआ? अपने उत्तर
की पुष्टि उदाहरणों से करें।
In what way did the imposition of Emergency affect the party system in
India? Elaborate your answer with examples. [NCERT, T.B.Q.9]
उत्तर-भार की दलीय प्रणाली में कुछ समय के लिए ऐसा नजर आया कि राष्ट्रीय स्तर
पर दो दलीय प्रणाली हो जाएगी। सी-पी-आई. कांग्रेस की तरफ झुक गया और शेष सभी दल
जैसे भारतीय जनसंघ, कांग्रेस (ओ), समाजवादी, संयुक्त समाजवादी, रिपलिब्कन, कांग्रेस फॉर
डेमोक्रेसी आदि दल जनता में मिल गए। 18 महीने में ही जनता दल में फूट पड़ गई। उसके स्थान
पर जनता यू, जनता सेक्यूलर, भारतीय लोकदल, भारतीय जनता पार्टी, जनता उड़ीसा और
कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी जैसी अनेक पार्टियां सामने आई। 1980 में फिर चुनाव हुए और कांग्रेस का वर्चस्व कुछ वर्षों के लिए फिर छा गया।
6. 1977 के चुनावों के बाद पहली बार केंद्र में विपक्षी दल की सरकार बनी। ऐसा किन
कारणों से संभव हुआ?
The 1977 elections for the first time saw the Opposition coming into
power at the Centre. What would you consider as the reasons for this
development? [B.M. 2009A; NCERT,T.B.Q.7]
उत्तर-(i) बड़ी तेज थी। आपातकाल लागू होने के पहले ही बड़ी विपक्षी पार्टियां एक-दूसरे
के नजदीक आ रही थीं। चुनाव के ऐन पहले इन पार्टियों ने एकजुट होकर जनता पार्टी नाम से
एक नया दल बनाया। नयी पार्टी ने जयप्रकाश नारायण का नेतृत्व स्वीकार किया। कांग्रेस के कुछ
नेता भी जो आपातकाल के खिलाफ थे, इस पार्टी में शामिल हुए।
(ii) कांग्रेस के कुछ अन्य नेताओं ने जगजीवन राम के नेतृत्व में एक नयी पार्टी बनाई। इस
पार्टी का नाम ‘कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी’ था और बाद में यह पार्टी भी जनता पार्टी में शामिल हो
गई।
(iii) 1977 के चुनावों को जनता पार्टी ने आपात्काल के ऊपर जनमत संग्रह का रूप दिया।
इस पार्टी के चुनाव प्रचार में शासन के अलोकतांत्रिक चरित्र और अपातकाल के दौरान की गई
ज्यादतियों पर जोर दिया।
(iv) हजारों लोगों की गिरफ्तारी और प्रेस की सेंसरशिप की पृष्ठभूमि में जनमत कांग्रेस के विरुद्ध था। जनता पार्टी के गठन के कारण यह भी सुनिश्चित हो गया कि गैर-कांग्रेसी वोट एक ही जगह पड़ेंगे। बात बिल्कुल साफ थी कांग्रेस के लिए अब बड़ी मुश्किल आ पड़ी थी।
(v) लेकिन चुनाव के अंतिम नतीजों ने सबको चौंका दिया। आजादी के बाद पहली बार ऐसा
हुआ कि कांग्रेस लोकसभा का चुनाव हार गई। कांग्रेस को लोकसभा की मात्र 154 सीटें मिली थीं। उसे 35 प्रतिशत से भी कम वोट हासिल हुए। जनता पार्टी और उसके साथी दलों को लोकसभा की कुल 542 सीटों में से 330 सीटें मिलीं। खुद जनता पार्टी अकेले 295 सीटों पर जीत गई थी। और उसे स्पष्ट बहुमत मिला था। उत्तर भारत में चुनावी माहौल कांग्रेस के एकदम खिलाफ था। कांग्रेस बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा और पंजाब में एक भी सीट न पा सकी। राजस्थान और मध्य प्रदेश में उसे महज एक-एक सीट मिली। इंदिरा गांधी रायबरेली से और उनके पुत्र संजय गाँधी अमेठी से चुनाव हार गए।
7. 1974 की रेल हड़ताल पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-1974 की रेल हड़ताल (Railway Strike of 1974)—(क) रेल के महत्त्व से
कोई भी व्यक्ति इंकार नहीं कर सकता। रेल सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण यातायात का साधन माना जाता
है। रेल की हड़ताल के फलस्वरूप निश्चित ही बहुत-से लोगों का आना-जाना दूभर हो जाएगा,
लेकिन बात यहीं तक सीमित नहीं रहेगी। देश की अर्थव्यवस्था ठप हो जाएगी, क्योंकि रेलगाड़ियों के माध्यम से ही देश में एक जगह से दूसरी जगह सामानों की ढुलाई होती है।
(ख) 1974 में सबसे बड़ी और राष्ट्रव्यापी हड़ताल हुई। रेलवे कर्मचारियों के संघर्ष से संबंधित
राष्ट्रीय समन्वय समिति ने जॉर्ज फर्नन्डिस के नेतृत्व में रेलवे कर्मचारियों की एक राष्ट्रव्यापी
हड़ताल का आह्वान किया। बोनस और सेवा से जुड़ी शर्तों के संबंध में अपनी मांँग को लेकर
सरकार पर दबाव बनाने के लिए हड़ताल का यह आह्वान किया गया था। सरकार इन मांँगों के
खिलाफ थी। ऐसे में भारत के इस सबसे बड़े सार्वजनिक उद्यम के कर्मचारी 1974 के मई महीने
में हड़ताल पर चले गए। रेलवे कर्मचारियों की हड़ताल से मजदूरों के असंतोष को बढ़ावा मिला।
इस हड़ताल से मजदूरों के अधिकार जैसे मसले तो उठे ही, यह सवाल भी उठा कि आवश्यक
सेवाओं से जुड़े हुए कर्मचारी अपनी मांँगों को लेकर हड़ताल कर सकते हैं या नहीं।
सरकार और हड़ताल की समाप्ति (Government and end of strike)-केद्रीय
सरकार ने इस हड़ताल को अवैधानिक करार दिया। सरकार ने हड़ताली कर्मचारियों की मांँगों को
मानने से इनकार कर दिया। उसने इसके कई नेताओं को गिरफ्तार किया और रेल लाइनों की सुरक्षा में सेना को तैनात कर दिया। ऐसे में 20 दिन के बाद यह हड़ताल बगैर किसी समझौते के वापस ले ली गई
8. आपातकाल के सबक (Lesson) का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-(i) सरकार की ज्यादतियों के कारण सरकारी कर्मचारियों और मशीनरियों में सक्रियता
आ गई। कुछ समय के लिए थोपा गया अनुशासन दिखाई दिया लेकिन 18 मास के संकटकाल
की समाप्ति की घोषणा कर दी गई। विरोधी दलों और मतदाताओं ने जितनी अपनी राजनीतिक
जागृति दिखाई, इससे साबित्त हो गया कि बड़े-से-बड़ा तानाशाही नेता भी भारत से लोकतंत्र को
विदा नहीं कर सकता।
(ii) आपातकाल के बाद संविधान में अच्छे सुधार किए गए। अब आपातकाल सशक्त स्थिति
में लगाया जा सकता था। ऐसा तभी हो सकता था जब मंत्रिमंडल लिखित रूप से राष्ट्रपति को
ऐसा परामर्श दे।
(iii) आपातकाल में भी न्यायालयों में व्यक्ति के नागरिक अधिकारों की रक्षा करने की भूमिका
सक्रिय रहेगी और नागरिक अधिकारों की रक्षा तत्परता से होने लगी।
9. संक्षेप में बताइए कि 1975-76 के 18 मास के आपातकाल के दौरान क्या-क्या हुआ था?
उत्तर-(i) इंदिरा सरकार ने गरीबों के हित के लिए बीस सूत्री कार्यक्रम की घोषणा की
और उसे तेजी से लागू करने का प्रयास किया। इस कार्यक्रम में भूमि-सुधार, भू-पुनर्वितरण, खेतिहर मजदूरों के पारिश्रमिक पर पुनर्विचार, प्रबंधन में कामगारों की भागीदारी, बंधुआ मजदूरी की समाप्ति इत्यादि मामले शामिल थे।
(ii) देश को बड़े 676 नेताओं को गिरफ्तार किया गया लेकिन कालोतरण में शाह आयोग
के आकलन से स्पष्ट हो जाता है कि लगभग एक लाख 11 हजार लोगों को गिरफ्तार किया गया
था।
(iii) आपातकाल में प्रेस पर कई तरह की पाबंदियांँ लगाई गई हैं।
(iv) 26 जून, 1975 को सभी अखबारों की बिजली आपूर्ति काट दी गई जिसे दो-तीन दिन
बाद बहाल किया गया। इस दौरान प्रेस सेंसरशिप का बड़ा ढाँचा तैयार किया गया।
(v) प्रधानमंत्री के छोटे पुत्र संजय गाँधी ने बिना किसी अधिकारिक पद पर कार्यरत हुए ही
देश के प्रशासन पर मनमाने ढंग से नियंत्रण रखा। सरकारी कामकाज में हस्तक्षेप किया, जबरदस्ती पुरानी सब्जी मंडी, मोतियाखान तथा अनेक झुग्गी-झोपड़ी बस्तियों को हटा दिया गया।
(vi) इस काल के दौरान पुलिस की यातनाएँ और पुलिस हिरासत में लोगों के मौत की
घटनाएँ बढ़ गई। अनिवार्य रूप से नसबंदी के कार्यक्रम चलाए गए।
10. जनता सरकार पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। [B.M.2009A]
उत्तर-(i) 1977 के चुनाव के बाद बनी जनता पार्टी की सरकार में कोई ताल-मेल नहीं
था। पहले प्रधानमंत्री के पद को लेकर मोरारजी देसाई, चरणसिंह और जगजीवनराम में खींचतान हुई। अंततः मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने।
(ii) जनता पार्टी अनेक राजनैतिक दलों का भाणुमति का कुंभा था। दल में निरंतर खींचतान
बनी रही और यह दल कुछ ही महीनों तक अपनी एकता बनाए रख सका।
(iii) इस पार्टी की सरकार के पास एक निश्चित दिशा या दीर्घकालीन कल्याणकारी बहुजन
प्रिय कार्यक्रम या सर्वमान्य नेतृत्व या न्यूनतम साध्य कार्यक्रम नहीं था। मूलतः मोरारजी देसाई
गांधीवादी कांग्रेसी थे और वे उन्हीं नीतियों पर चलते रहे।
(iv) 18 मास के बाद मोरारजी भाई को त्यागपत्र देना पड़ा और दूसरी सरकार चरण सिंह के
नेतृत्व में बनी। उसके साथ कांग्रेस ने एक बड़ा राजनैतिक मजाक किया। वह चार महीने के बाद
ही प्रधानमंत्री पद से अलग हो गए।
निष्कर्ष (Conclusion)-1980 में गए चुनाव हुए। जनता सरकार की कार्यशैली उनके
नेताओं की परस्पर फूट को जनता ने पसंद नहीं किया। परिणामस्वरूप सत्ता पुनः इंदिरा कांग्रेस के पास आ गई।
11. सामाजिक न्याय (Social Justice) पर संक्षेप में लिखें। [B.M. 2009A]
उत्तर-सामाजिक न्याय-ऐसी सामाजिक व्यवस्था, जिसमें मानव-जीवन की मूलभूत
आवश्यकताओं की उपलब्धता, समाज के प्रत्येक वर्ग को समान रूप से कराई जा सके। इसके
अतिरिक्त सरकार द्वारा लायी गयी विभिन्न योजनाओं का लाभ राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक को समान रूप से मिले। उपर्युक्त स्थिति स्थापित करने के लिए सरकार आवश्यकतानुसार विभिन्न कार्यक्रमों द्वारा जागरूकता एवं अवसर प्रदान करती है। खासतौर से पिछड़े एवं कमजोर वर्ग के विकास हेतु आरक्षण का प्रावधान किया गया है, जिससे उसका सामाजिक उत्थान हो सके। मंडल आयोग की सिफारिश को लागू करके सरकार ने सामाजिक न्याय के उद्देश्य को और आगे बढ़ाया है।
12. विहान आंदोलन पर संक्षेप में लिखें। [Board Exam. 2009A]
उत्तर-बिहार आंदोलन की शुरुआत 18 मार्च, 1974 को छात्रों द्वारा जय प्रकाश नारायण
नेतृत्व में हुई। इस आंदोलन में देश में बढ़ती हुई मंँहगाई, खाद्यान्न की कमी, भ्रष्टाचार,
रोजगारी के प्रति जनता के आक्रोश एवं असंतुष्टता को लक्षित किया गया, जिसका उद्देश्य सिर्फ
सरकार बदलना नहीं बल्कि समाज और व्यक्ति को बदलने के लिए सम्पूर्ण क्रांति कर समग्र विकास को स्थापित करना था। इस आंदोलन का प्रभाव देशव्यापी था जिसका असर आने वाले समय का
राजनीत पर स्पष्ट रूप से देखने को मिला है। तत्कालीन परिस्थिति को देखते हुए समाज के
प्रत्येक क्षेत्र के लोग इस आंदोलन से जुड़ने लगे।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
1. दो प्रमुख दृष्टिकोणों पर अपने विचार रखते हुए बताइए कि 1975 के आपातकाल
की घोषणा आवश्यक थी अथवा अनावश्यक।
उत्तर-आपातकाल की घोषणा के संदर्भ में विद्वानों में विवाद अथवा मतभेद
(Discussion on different opinion of the scholars about declaration of
emergency)-राजनैतिक इतिहास के आवास में जन 1975 के आपातकाल की घोषणा भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा विवादास्पद प्रकरण (घटना) है। इसका कारण यह है कि दो विभिन्न प्रमुख दृष्टिकोणों वाले विद्वानों के समूह अथवा उनकी विचारधारा हमारे सामने आती है। इसका कारण यह भी है कि इंदिरा सरकार ने संविधान के अंतर्गत दिए गए अधिकारों का प्रयोग करके लोकतांत्रिक कामकाज को पूरी तरह ठप कर दिया था। दोनों दृष्टिकोणों पर निम्नलिखित अनुच्छेदों में विचार किया जा रहा है:
(i) आपातकाल की घोषणा का समर्थन (Support of declaration of
emergency)-इंदिरा सरकार और उसके समर्थक विद्वानों का यह तर्क है कि जून 1975 में
आपातकाल लगाना बहुत जरूरी था। सरकार का तर्क था कि भारत में लोकतंत्र है और इसके
अनुकूल विपक्षी दलों को चाहिए कि वे निर्वाचित शासक दल को अपनी नीतियों के अनुसार शासन चलाने दें। सरकार का मानना था कि बार-बार का धरना प्रदर्शन और सामूहिक कार्रवाई लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। इंदिरा गाँधी के समर्थक यह भी मानते थे कि लोकतंत्र में सरकार पर निशाना साधने के लिए लगातार गैर-संसदीय राजनीति का सहारा नहीं लिया जा सकता। इससे अस्थिरता पैदा होती है और प्रशासन का ध्यान विकास के कामों से भंग हो जाता है। सारी ताकत कानून-व्यवस्था की बहाली पर लगानी पड़ती है। इंदिरा गांधी ने शाह आयोग को चिट्ठी में लिखा कि षड्यंत्रकारी ताकतें सरकार के प्रगतिशील कार्यक्रमों में अड़गे डाल रही थीं और मुझे
गैर-संवैधानिक साधनों के बूते सत्ता से बेदखल करना चाहती थीं।
कुछ अन्य दलों, मसलन सीपीआई (इसने आपातकाल के दौरान कांग्रेस को समर्थन देना
जारी रखा था) का विश्वास था कि भारत की एकता के विरुद्ध अंतर्राष्ट्रीय साजिश की जा रही हैं।
सी•पी•आई• का मानना था कि ऐसी हालत में विरोध पर एक हद तक प्रतिबंध लगाना उचित है।
(ii) आपातकाल घोषणा के विरोधी (Opponents of declaration of
emergency)-(क) जून 1975 के दूसरी तरफ, आपातकाल के आलोचकों का तर्क था कि
आजादी के आंदोलन से लेकर लगातार भारत में जन-आंदोलन का एक सिलसिला रहा है। जेपी
सहित विपक्ष के अन्य नेताओं का ख्याल था कि लोकतंत्र में लोगों को सार्वजनिक तौर पर सरकार के विरोध का अधिकार होना चाहिए।
(ख) बिहार और गुजरात में चले विरोध-आंदोलन ज्यादातर समय अहिंसक और शांतिपूर्ण
रहे। जिन लोगों को गिरफ्तार किया गया था, उन पर कभी भी राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में लिप्त
रहने का मुकदमा नहीं चला। अधिकतर बंदियों के खिलाफ कोई मुकदमा दर्ज नहीं हुआ था। देश
के अंदरूनी मामलों की देख-रेख का जिम्मा गृहमंत्रालय का होता है। गृहमंत्रालय ने भी कानून
व्यवस्था की बाबत कोई चिंता नहीं जतायी थी।
(ग) यदि देश में संकटकाल से पूर्व चल रहे कुछ आंदोलन अपनी हद से बाहर जा रहे थे,
तो सरकार के पास अपनी रोजमर्रा की अमल में आने वाली इतनी शक्तियाँ थी कि वह ऐसे
आंदोलनों को हद में ला सकती थी। लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली को ठप करके ‘आपातकाल’ लागू
करने जैसे अतिचारी कदम उठाने की जरूरत कतई न थी।
(घ) वे अंत में तर्क देते रहे हैं कि वस्तुत: खतरा देश की एकता और अखंडता को नहीं,बल्कि शासक दल और स्वयं प्रधानमंत्री को था। आलोचक कहते हैं कि देश को बचाने के लिए
बनाए गए संवैधानिक प्रावधान का दुरुपयोग इंदिरा गाँधी ने निजी ताकत को बचाने के लिए किया।
2. क्रांग्रेस के नेतृत्व में इंदिरा गाँधी के कार्यकाल में चल रही सरकार और न्यायपालिका
से उसके हुए संघर्ष पर एक लेख लिखिए।
उत्तर-1970 के दशक से पूर्व ही इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में चल रही कांग्रेस सरकार और
देश की न्यायपालिका के संबंधों में कई बार तनाव आए। सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार की पहल-
कदमियो को देश के संविधान के विरुद्ध माना। दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी का यह मानना था कि
अदालत का यह मानना लोकतंत्र के सिद्धांत और संसद की सर्वोच्चता के खिलाफ है। कांग्रेस ने
यह आरोप भी लगाया कि अदालत का दृष्टिकोण प्रगतिशील नहीं है। यह यथास्थितिवादी (Status quo) संस्था है और यह संस्था गरीबों को लाभ पहुंचाने वाले कल्याणकारी कार्यक्रमों को लागू करने की राह में रोड़े अटका रही है। संक्षेप में 1975 तक न्यायपालिका के साथ केंद्रीय सरकार विशेषकर शासक दल के गहरे मतभेद रहे।
न्यायपालिका से संघर्ष से जुड़े उठाए गए कुछ संवैधानिक मसले (Some raised
constitutional issue)-सरकार और न्यायपालिका के संघर्ष को जन्म देने वाले वे तीन
संवैधानिक मसले थे जो राष्ट्रीय राजनैतिक फिजा और मीडिया में उठाए गए थे। वे निम्नलिखित
थे-
(1) क्या संसद मौलिक अधिकारों में कटौती कर सकती है? सर्वोच्च न्यायालय का जवाब
था कि संसद ऐसा नहीं कर सकती।
(2) संसद संविधान में संशोधन करके संपत्ति के अधिकार में काट-छांट कर सकती है? इस
मसले पर भी सर्वोच्च न्यायालय यही कहना था कि सरकार, संवि में इस तरह संशोधन
नहीं कर सकती कि अधिकारों की कटौती हो जाए।
(3) संसद ने यह कहते हुए संविधान में संशोधन किया कि वह नीति-निर्देशक सिद्धांतों को
प्रभावकारी बनाने के लिए मौलिक अधिकारों में कमी कर सकती है।
लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रावधान को भी निरस्त कर दिया। इससे सरकार और
न्यायपालिका के बीच संबंधों में तनाव आया।
केशवनंद भारती का मुकदमा (Case of Keshavnand Bharti)-सरकार और
न्यायपालिका के संघर्ष से जुड़े इस सत्ता विभाजन संबंधी संकट या मतभेद परिणति केश्वानंद
भारती के मशहूर मुकदमे के रूप में सामने आई। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला
सुनाया कि संविधान एक बुनियादी ढाँचा है और सांसद इन ढांचागत विशेषताओं में संशोधन नहीं
कर सकती है।
तनाव की दो अन्य वातें (Trwo another happening of conflict)-दो और बातों ने
न्यायपालिका और कार्यपालिका के संबंधों में तनाव को बढ़ाया। 1973 में केशवानंद भारती के
मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा फैसला सुनाने के तुरंत बाद भारत के मुख्य न्यायाधीश का पद
खाली हुआ। सर्वोच्च न्यायालय के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश को भारत का मुख्य न्यायाधीश बनाने
की परिपाटी चली आ रही थी, लेकिन 1973 में सरकार ने तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों की अनदेखी
करके न्यायमूर्ति ए.एन. रे को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया। यह निर्णय राजनीतिक रूप से
विवादास्पद बन गया क्योकि सरकार ने जिन तीन न्यायाधीशों की वरिष्ठता की अनदेखी इस मामले में की थी उन्होंने सरकार के इस कदम के विरुद्ध फैसला दिया। ऐसे में संविधान की व्याख्या और राजनीतिक विचारधाराओं का बड़ी तेजी से घालमेल हुआ। जो लोग प्रधानमंत्री के नजदीकी थे वे एक ऐसी ‘प्रतिबद्ध’ न्यायपालिका तथा नौकरशाही की जरूरत के बारे में बातें करने लगे तो विधायिका और कार्यपालिका की सोच के अनुकूल आचरण करे। इस संघर्ष का चरमबिंदु तब आया जब उच्च न्यायालय ने इंदिरा गाँधी के निर्वाचन को अवैध घोषित कर दिया।
5. नक्सलवादी आंदोलन पर एक निबंध लिखिए।
उत्तर —(1) नक्सलवादी आंदोलन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि (Historical
background of Naxsalists Movement)-पश्चिम बंगाल के पर्वतीय जिले दार्जिलिंग
के नक्सलवादी पुलिस थाने के इलाके में 1967 में एक किसान विद्रोह उठ खड़ा हुआ। इस विद्रोह की अगुआई मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के स्थानीय कैडर के लोग कर रहे थे। नक्सलवादी पुलिस थाने से शुरू होने वाला यह आंदोलन भारत के कई राज्यों में फैल गया। इस आंदोलन को नक्सलवादी आंदोलन के रूप में जाना जाता है।
(2) सी० पी०आई० से अलग होना और गुरिल्ला युद्ध प्रणाली को अपनाना (To be
seperated from CPM and adopt guerilla Warfare stretgedy)-1969 में नक्सलवादी सी.पी.आई. (एम) से अलग हो गए और इन्होंने सीपीआई (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) नाम से एक नई पार्टी चारु मजूमदार के नेतृत्व में बनायी। इस पार्टी की दलील थी कि भारत में लोकतंत्र एक छलावा है। इस पार्टी ने क्रांति करने के लिए गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनायी।
(3) कार्यक्रम (Programme)-नक्सलवादी आंदोलन ने धनी भूस्वामियों से जमीन
बलपूर्वक छीनकर गरीब और भूमिहीन लोगों को दी। इस आंदोलन के समर्थक अपने राजनीतिक
लक्ष्यों को हासिल करने के लिए हिंसक साधनों के इस्तेमाल के पक्ष में दलील देते थे।
(4) नक्सलवाद का प्रसार और प्रभाव (Spread and ImpactofNaxalism)-1970
के दशक वर्षों में 9 राज्यों के लगभग 75 जिले नक्सलवादी हिंसा से प्रभावित हैं। इनमें अधिकतर बहुत पिछड़े इलाके हैं और यहाँ आदिवासियों की जनसंख्या ज्यादा है। इन इलाकों के नक्सलवाद की पृष्ठभूमि पर अनेक फिल्में भी बनी हैं। उपन्यास पर आधारित ‘हजार चौरासी की माँ ऐसी ही में बंँटाई या पट्टे पर खेतीबाड़ी करने वाले तथा छोटे किसान ऊपज में हिस्से, पट्टे की सुनिश्चित अवधि और उचित मजदूरी जैसे अपनी बुनियादी हकों से भी वंचित हैं। जबरिया मजदूरी, बाहरी लोगों द्वारा संसाधनों का दोहन तथा सूदखोरों द्वारा शोषण भी इन इलाकों में आम बात है। इन स्थितियों से नक्सलवादी आदोलन में बढ़ोतरी हुई है।
(5) नक्सलवादी आंदोलन और कांग्रेस सरकार (Naxalism Movement and
Congress Government)-(क) 1969 में कांग्रेस शासित पश्चिम बंगाल सरकार ने निरोधक
नजरबंदी समेत कई कड़े कदम उठाए. लेकिन नक्सलवादी आंदोलन रुक न सका। बाद के सालों
में यह देश के कई अन्य भागों में फैल गया। नक्सलवादी आंदोलन अब कई दलों और संगठनों
में बँट चुका था। इन दलों में से कुछ जैसे सी०पी०आई० (एमएल-लिबरेशन) खुली लोकतांत्रिक
राजनीति में भागीदारी करते हैं।
(ख) सरकार ने नक्सलवादी आंदोलन से निपटने के लिए कड़े कदम उठाए है। मानवाधिकार
समूहों ने सरकार के इन कदमों की आलोचना करते हुए कहा है कि वह नक्सलवादियों से निपटने
के क्रम में संवैधानिक मानकों का उल्लंघन कर रही है। नक्सलवादी हिंसा और नक्सल विरोधी
सरकारी कार्रवाई में हजारों लोग अपनी जान गंँवा चुके हैं।
4. 1975 के आपातकालीन घोषणा और क्रियान्वयन के देश के राजनैतिक माहौल,
प्रेस, नागरिक अधिकारों, न्यायपालिका के निर्णयों और संविधान पर क्या प्रभाव
पड़े अथवा उनके इन क्षेत्रों में क्या परिणाम हुए।
उत्तर–(1) राजनैतिक फिजा (माहौल/वातावरण) पर प्रभाव-इंदिरा सरकार के इस
फैसले से विरोध आंदोलन एक बारगी रुक गया, हड़तालों पर रोक लगा दी गई। अनेक विपक्षी
नेताओं को जेल में डाल दिया गया। राजनीतिक माहौल में तनाव भरा एक गहरा सन्नाटा छा गया।
(2) प्रेस की स्वंतत्रता पर प्रभाव (Impactupon freedomof Press)—आपातकालीन
प्रावधानों के अंतर्गत प्राप्त अपनी शक्तियों पर अमल करते हुए सरकार ने प्रेस की आजादी पर
रोक लगा दी। समाचारपत्रों को कहा गया कि कुछ भी छापने से पहले अनुमति लेनी जरूरी है।
इसे प्रेस सेंसरसिप के नाम से जाना जाता है।
(3) आर० एस०एस० एवं जमात-ए-इस्लामी पर प्रभाव ― सामाजिक और सांप्रदायिक
गड़बड़ी की आशंका के मद्देनजर सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और
जमात-ए-इस्लामी पर प्रतिबंध लगा दिया। धरना, प्रदर्शन और हड़ताल की भी अनुमति नहीं थी।दोनों संगठनों के हजारों निष्ठावान सक्रिय कार्यक्रूर्ताओं को सलाखों के पीछे डाल दिया गया।
(4) मौलिक अधिकारों पर प्रभाव―सबसे बड़ी बात यह हुई कि आपातकालीन प्रावधानों
के अंतर्गत नागरिकों के विभिन्न मौलिक अधिकार निष्प्रभावी हो गए। उनके पास अब यह अधिकार भी नहीं रहा कि मौलिक अधिकारों की बहाली के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाएँ। सरकार ने निवारक नजरबंदी का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया। इस प्रावधान के अंतर्गत लोगों को गिरफ्तार इसलिए नहीं किया जाता कि उन्होंने कोई अपराध किया है बल्कि इसके विपरीत, इस प्रावधान के अंतर्गत लोगों को इस आशंका से गिरफ्तार किया जाता है कि वे कोई अपराध कर सकते हैं।
(5) संवैधानिक उपचारों का अधिकार एवं न्यायालय द्वारा सरकार विरोधी घोषणाएँ
(Right to constitutional remedies and some anti-government decision by
judiciary)-सरकार ने आपातकाल के दौरान निवारक नजरबंदी अधिनियमों का प्रयोग करके
बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियाँ कीं। जिन राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया वे बंदी
प्रत्यक्षीकरण याचिका का सहारा लेकर अपनी गिरफ्तारी को चुनौती भी नहीं दे सकते थे। गिरफ्तार लोगों अथवा उनके पक्ष से किसी और ने उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में कई मामले दायर किए, लेकिन सरकार का कहना था कि गिरफ्तार लोगों को गिरफ्तारी का कारण बताना कतई जरूरी नहीं है। अनेक उच्च न्यायालयों ने फैसला दिया कि आपातकाल की घोषणा के बावजूद अदालत किसी व्यक्ति द्वारा दायर की गई ऐसी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को विचार के लिए स्वीकार कर सकती है जिसमें उसने अपनी गिरफ्तारी को चुनौती दी हो। 1976 के अप्रैल माह में सर्वोच्च न्यायालय संवैधानिक पीठ ने उच्च न्यायालयों के फैसले को उलट दिया और सरकार की दलील मान ली। इसका आशय यह था कि सरकार आपातकाल के दौरान नागरिक से जीवन और आजादी का अधिकार वापस ले सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से नागरिकों के लिए अदालत के दरवाजे बंद हो गए। इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय के सर्वाधिक विवादास्पद फैसलों में एक माना गया।
(6) राजनैतिक कार्यकर्ताओं, कुछ समाचारपत्र-पत्रिकाओं तथा अत्यधिक सम्मानित
लेखकों पर प्रभाव एवं उनके निर्णय (Impact onPolitical workers.some newspaper
and magazines and some extra ordinary respectable writers and their
decision)-(क) आपातकाल की मुखालफत और प्रतिरोध की कई घटनाएँ घटीं। पहली लहर
मे जो राजनीतिक कार्यकर्ता गिरफ्तारी से बच गए थे वे ‘भूमिगत हो गए और सरकार के खिलाफ
मुहिम चलायी।
(ख) ‘इंडियन एक्सप्रेस’ और ‘स्टेट्समैन’ जैसे अखबारों ने प्रेस पर लगी सेंसरशिप का
विरोध किया। जिन समाचारों को छापने से रोका जाता था उनकी जगह ये अखबार खाली छोड़
देते थे। ‘सेमिनार’ और ‘मेनस्ट्रीम’ जैसी पत्रिकाओं ने सेंसरशिप के आगे घुटने टेकने की जगह
बंद होना मुनासिब समझा। सेंसरशिप को धत्ता बताते हुए गुपचुप तरीके से अनेक न्यूजलेटर और लीफलेट्स निकले।
(ग) पद्मभूषण से सम्मानित कन्नड़ लेखक शिवराम कारंत और पद्मश्री से सम्मानित हिंदी
लेखक फणीश्वरनाथ रेणु’ ने लोकतंत्र के दमन के विरोध में अपनी-अपनी पदवी लौटा दी। बहरहाल मुखालफत और प्रतिरोध के इतने प्रकट कदम कुछ ही लोगों ने उठाए।
(7) संसद के समक्ष चुनौतियाँ संविधान में 42वाँ संशोधन एवं उसके प्रभावशाली
प्रभाव (New challenge before Parliament 42nd constitutional amendments and its ufective resuit)―(क) संसद ने संविधान के सामने कई नई चुनौतियाँ खड़ी की। इंदिरा गांँधी के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले की पृष्ठभूमि में संविधान में संशोधन हुआ। इस संशोधन के द्वारा प्रावधान किया गया कि प्रधानमंत्री राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के निर्वाचन को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। आपातकाल के दौरान ही संविधान का 42वाँ संशोधन पारित हुआ।
(ख) 42वें संशोधन के जरिए संविधान वे अनेक हिस्सों में बदलाव किए गए। 42वें संशोधन
के जरिए हुए अनेक बदलावों में एक था-देश की विधायिका के कार्यकाल को 5 से बढ़ाकर 6 साल करना। यह व्यवस्था मात्र आपातकाल की अवधि भर के लिए नहीं की गई थी। इसे आगे के दिनों
में भी स्थायी रूप से लागू किया जाना था। इसके अतिरिक्त अब आपातकाल के दौरान चुनाव को
एक साल के लिए स्थगित किया जा सकता था। इस तरह देखें तो 1971 के बाद अब चुनाव
1976 के बदले 1978 में करवाए जा सकते थे।
5. गुजरात आंदोलन से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर विचार करते हुए एक संक्षिप्त सार
लिखिए।
उत्तर-प्रस्तावना (Introduction)-जनवरी, 1974, में शुरू हुए आंदोलन से पहले
कांग्रेस की सरकार थी। यहां के छात्र आंदोलन ने इस प्रदेश की राजनीति पर गहरा असर तो डाला ही, राष्ट्रीय स्तर की राजनीति पर भी इसके दूरगामी प्रभाव हुए। 1974 के जनवरी माह में गुजरात के छात्रों ने खाद्यान्न, खाद्य तेल तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती हुई कीमत तथा उच्च पदों पर जारी भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया।
आंदोलन की प्रगति (Progress of the Movement)-छात्र-आंदोलन में बड़ी
राजनीतिक पार्टियाँ भी शरीक हो गई और इस आंदोलन ने विकराल रूप धारण कर लिया। ऐसे
में गुजरात में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा। विपक्षी दलों ने राज्य की विधानसभा के लिए दोबारा
चुनाव कराने की मांँग की। कांग्रेस (ओ) के प्रमुख नेता मोरारजी देसाई कहा कि अगर राज्य में
नए सिरे से चुनाव नहीं करवाए गए तो मैं अनिश्चितकालीन भूख-हड़ताल पर बैठ जाऊंँगा।
आंदोलन के राजनैतिक परिणाम-गुजरात आंदोलन ने गुजरात में व्यापक उथल-पुथल
मचा दी। मोरारजी देसाई का गुजरात में व्यापक प्रभाव था। वैसे भी क्षेत्रवाद और प्रांतीयता ने
गुजरात में कांग्रेस विशेषकर इंदिरा गाँधी के खिलाफ विरोधी वातावरण तैयार करने में अहम भूमिका निभाई थी।
आजादी के दिनों से ही अनेक गुजराती यह मानते थे कि कांग्रेस ने प्रारंभ में गुजरात को
महाराष्ट्र का काफी समय तक हिस्सा रहा और सरदार पटेल को प्रधानमंत्री न बनने का उन नेताओं का गहरा संबंध नेहरू जैसे नेताओं का हाथ था और अब कांग्रेस में टूट से पहले मोरारजी देसाई जैसे कद्दवार राष्ट्रीय नेता को प्रधानमंत्री न बनने देने में स्वयं इंदिरा की बहुत बड़ी भूमिका थी। वस्तुतः मोरारजी अपने कांग्रेस के दिनों में इंदिरा गाँधी के मुख्य विरोधी रहे थे। विपक्षी दलों द्वारा सर्मथित छात्र-आंदोलन के गहरे दबाव में 1975 के जून में विधानसभा के चुनाव हुए। कांग्रेस इस चुनाव में हार गई।
गुजरात में कांग्रेस (ओ) और कालांतर में जनता दल और भारतीय जनता दल को सत्ता में
आने में मूलत: इस आंदोलन में ऐतिहासिक कारक बनकर एक सशक्त पृष्ठभूमि तैयार की थी।
टिप्पणी (Comments)-इंदिरा समर्थक गुजरातियों, प्रेस और राष्ट्रीय स्तर के अनेक
नेताओं और दलों ने गुजरात आंदोलन की आलोचना करते हुए यह कहा कि यह आंदोलन केवल
कांग्रेस पार्टी के विरुद्ध नहीं है बल्कि इंदिरा गाँधी के व्यक्तिगत नेतृत्व के विरुद्ध मोरारजी देसाई
और अन्य दक्षिणपंथी राजनीतिज्ञों का एक षड्यंत्र था।
6. बिहार आंदोलन से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर विचार करते हुए एक संक्षिप्त सार
लिखिए। [B.M.2009A]
उत्तर-प्रस्तावना (Introduction)-बिहार के आंदोलन शुरू होने से पूर्व उस राज्य में
इंदिरा कांग्रेस की सरकार थी। यहाँ आंदोलन छात्र आंदोलन के रूप में शुरू हुआ। यह आंदोलन
न केवल बिहार तक बल्कि अनेक वर्षों तक राष्ट्रव्यापी प्रभावशाली और राष्ट्रीय राजनीति पर
दूरगामी प्रभाव डालने वाला साबित हुआ।
बिहार आंदोलन के कारण (Causes of factors of Bihar Movements)–1974 के
मार्च माह में बढ़ती हुई कीमतों, खाद्यान्न के अभाव, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ बिहार
में छात्रों ने आंदोलन छेड़ दिया। आंदोलन के क्रम में उन्होंने जयप्रकाश नारायण (जेपी) को बुलावा भेजा। जेपी तब सक्रिय राजनीति छोड़ चुके थे और सामाजिक कार्यों में लगे हुए थे। छात्रों ने अपने आंदोलन की अगुआई के लिए जयप्रकाश नारायण को बुलावा भेजा था। जेपी ने छात्रों का निमंत्रण
इस शर्त पर स्वीकार किया कि आंदोलन अहिंसक रहेगा और अपने को सिर्फ बिहार तक सीमित
नहीं रखेगा। इस प्रकार छात्र-आंदोलन ने एक राजनीतिक चरित्र ग्रहण किया और उसके भीतर
राष्ट्रव्यापी अपील आई। जीवन के हर क्षेत्र के लोग अब आंदोलन से आ जुड़े।
आंदोलन की प्रगति एवं सार (Progress and spread of the Movement)-(क)
जयप्रकाश नारायण ने बिहार की कांग्रेस सरकार को बर्खास्त करने की मांग की। उन्होंने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दायरे में ‘सम्पूर्ण क्रांति’ का आह्वान किया ताकि उन्हीं के शब्दों में ‘सच्चे लोकतंत्र’ की स्थापना की जा सके। बिहार की सरकार के खिलाफ लगातार घेराव, बंद और हड़ताल का एक सिलसिला चल पड़ा। बहरहाल, सरकार ने इस्तीफा देने से इनकार कर दिया।
(ख) 1974 के बिहार आंदोलन का एक प्रसिद्ध नारा था “संपूर्ण क्रांति अब नारा है-भावी
इतिहास हमारा है।”
प्रभाव (Effects)-आंदोलन का प्रभाव राष्ट्रीय राजनीति पर पड़ना शुरू हुआ। जयप्रकाश
नारायण चाहते थे कि यह आंदोलन देश के दूसरे हिस्सों में भी फैले। जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन के साथ ही साथ रेलवे के कर्मचारियों ने भी एक राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आह्वान किया। इससे देश के रोजमर्रा के कामकाज के ठप हो जाने का खतरा पैदा हो गया। 1975 में जेपी ने जनता के ‘संसद-मार्च’ का नेतृत्व किया। देश की राजधानी में अब तक इतनी बड़ी रैली नहीं हुई थी। जयप्रकाश नारायण को अब भारतीय जनसंघ, कांग्रेस (ओ), भारतीय लोकदल, सोशलिस्ट पार्टी जैसे गैर-कांग्रेसी दलों का समर्थन मिला। इन दलों ने जेपी को इंदिरा गाँधी के विकल्प के रूप में पेश किया।
टिप्पणी (Comments)-जो भी हो जयप्रकाश नारायण बिहार के विचारों और उनके द्वारा
अपनायी गई जन-प्रतिरोध की रणनीति की आलोचनाएँ भी मुखर हुईं। गुजरात और बिहार, दोनों ही राज्यों के आंदोलन को कांग्रेस विरोधी आंदोलन माना गया। कहा गया कि ये आंदोलन राज्य सरकार के खिलाफ नहीं बल्कि इंदिरा गाँधी के नेतृत्व के खिलाफ चलाए गए हैं। इंदिरा गाँधी का मानना था कि ये आंदोलन उनके प्रति व्यक्तिगत विरोध से प्रेरित है।
7. हमारी राजव्यवस्था के निम्नलिखित पक्ष पर आपातकाल का क्या असर हुआ?
Discuss the effects of Emergency on the following aspects of our polity.
(क) नागरिक अधिकारों की दशा और नागरिकों पर इसका असर
(Effects on civil liberties for citizens)
(ख) कार्यपालिका और न्यायपालिका के संबंध
(Impact on relationship between the Execuive and Judiciary)
(ग) जनसंचार माध्यमों के कामकाज (Functioning of Mass Media)
(घ) पुलिस और नौकरशाही की कार्रवाइयाँ
(Working of the Police and Bureaucracy) [NCERT, T.B.Q.8]
उत्तर-(क) सबसे बड़ी बात यह हुई कि आपातकालीन प्रावधानों के अंतर्गत नागरिकों के
विभिन्न मौलिक अधिकार निष्प्रभावी हो गए। उनके पास अब यह अधिकार भी नहीं रहा कि मौलिक अधिकारों की बहाली के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाएँ। सरकार ने निवारक नजरबंदी का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया। इस प्रावधान के अंतर्गत लोगों को गिरफ्तार इसलिए नहीं किया जाता कि उन्होंने कोई अपराध किया है बल्कि इसके विपरीत, इस प्रावधान के अंतर्गत लोगों को इस आशंका से गिरफ्तार किया जाता है कि वे कोई अपराध कर सकते हैं। सरकार ने आपातकाल के दौरान निवारक नजरबंदी अधिनियमों का प्रयोग करके बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां कीं। जिन राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया वे बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका का सहारा लेकर अपनी गिरफ्तारी को चुनौती भी नहीं दे सकते थे। आपातकाल का विरोध और प्रतिरोध की कई घटनाएँ घटी। पहली लहर में जो राजनैतिक कार्यकर्ता गिरफ्तारी से बच गए थे वे भूमिगत हो गए और सरकार के खिलाफ मुहिम चलाई।
(ख) गिरफ्तार लोगों अथवा उनके पक्ष से किन्हीं और ने उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में कई मामले दायर किए, लेकिन सरकार का कहना था कि गिरफ्तार लोगों को गिरफ्तारी का कारण बताना कतई जरूरी नहीं है। अनेक उच्च न्यायालयों ने फैसला दिया कि आपातकाल की घोषणा के बावजूद अदालत किसी व्यक्ति द्वारा दायर की गई ऐसी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका को विचार के लिए स्वीकार कर सकती है जिसमें उसने अपनी गिरफ्तारी को चुनौती दी हो। 1976 के अप्रैल माह में सर्वोच्च न्यायालय संवैधानिक पीठ ने उच्च न्यायालयों के फैसले को उलट दिया और सरकार की दलील मान ली। इसका आशय यह था कि सरकार आपातकाल के दौरान नागरिक से जीवन और आजादी का अधिकार वापस ले सकती है। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से नागरिकों के लिए अदालत के दरवाजे बंद हो गए। इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय के सर्वाधिक विवादास्पद फैसलों मे एक माना गया।
(ग) आपातकालीन प्रावधानों के अंतर्गत प्राप्त अपनी शक्तियों पर अमल करते हुए सरकार
ने प्रेस की आजादी पर रोक लगा दी। समाचारपत्रों को कहा गया कि कुछ भी छापने से पहले
अनुमति लेनी जरूरी है। इसे प्रेस सेसरसिप के नाम से जाना जाता है। इंडियन एक्सप्रेस’ और
‘स्टैट्समैन’ जैसे अखबारों ने प्रेस पर लगी सेंसरशिप का विरोध किया। जिन समाचारों को छापने
से रोका जाता था उनकी जगह ये अखबार खाली छोड़ देते थे। ‘सेमिनार’ और ‘मेनस्ट्रीम’ जैसी
पत्रिकाओं ने सेसरशिप के आगे घुटने टेकने की जगह बंद होना मुनासिब समझा। सेंसरशिप को
धत्ता बताते हुए गुपचुप तरीके से अनेक न्यूजलेटर और लीफलेट्स निकले।
(घ) पुलिस की ज्यादतियाँ बढ़ गई। पुलिस हिरासत में कई लोगों की मौत हुई। नौकरशाही
मनमानी करने लगे। बड़े अधिकारी, समय की पाबदी और अनुशासन के नाम पर तानाशाही नजरिए से हर मामले में मनमानी करने लगे। पुलिस और नौकरशाही ने जबरदस्ती परिवार नियोजन को थोपा। अनाधिकृत ढांँचे गिराए। रिश्वतखोरी बढ़ गई
8. 25 जून, 1975 को किन परिस्थितियों में इंदिरा सरकार द्वारा राष्टपनि के आपातकाल
की घोषणा कराई गई इसके तात्कालिक प्रभाव क्या हुए थ? (B.M.2009A]
उत्तर-(1) इलाहावाद उच्च न्यायलय का निर्णय-12 जून 1975 के दिन इलाहाबाद
उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने एक फैसला सुनाया। इस फैसले में उन्होंने लोकसभा के लिए इंदिरा गाँधी के निर्वाचन को अवैधानिक करार दिया। न्यायमूर्ति ने यह फैसला समाजवादी नेता राजनारायण द्वारा दायर एक चुनाव याचिका के मामले में सुनाया था। राजनारायण, इंदिरा गाँधी के खिलाफ 1971 में बतौर उम्मीदवार चुनाव में खड़े हुए थे। याचिका में इंदिरा गाँधी के निर्वाचन को चुनौती देते हुए तर्क दिया गया था कि उन्होंने चुनाव-प्रचार में सरकारी कर्मचारियों की सेवाओं का इस्तेमाल किया था। उच्च न्यायालय के इस फैसले का मतलब यह था कि कानूनन अब इंदिरा गाँधी सांसद नहीं रहीं और अगर अगले छह महीने की अवधि में दोबारा सांसद निर्वाचित नहीं होतीं, तो प्रधानमंत्री के पद पर कायम नहीं रह सकतीं।
(2) विरोधी दलों द्वारा सरकार पर दबाव (Pressure on the governument by
opposite party)-(क) एक बड़े राजनीतिक संघर्ष के लिए अब मैदान तैयार हो चुका था।
जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में विपक्षी दलों ने इंदिरा गाँधी के इस्तीफे के लिए दबाव डाला।
इन दलों ने 25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में एक विशाल प्रदर्शन किया। जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गाँधी ने इस्तीफे की माँग करते हुए राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह की घोषणा की।
(ख) जय प्रकाश ने सेना पुलिस और सरकारी कर्मचारियों का आह्वान किया कि वे सरकार
के अनैतिक और अवैधानिक आदेशों का पालन न करें। इससे भी सरकारी कामकाज के ठप हो
जाने का अदेशा पैदा हुआ। देश का राजनीतिक मिजाज अब पहले से कहीं ज्यादा कांग्रेस के
खिलाफ हो गया।
(3) इंदिरा सरकार द्वारा आपातकाल लगाने की घोषणा (Tothe decision to impose
emergency by the Indira government) -सरकार ने इन घटनाओं के मद्देनजर जबाव में
‘आपातकाल की घोषणा कर दी। 25 जून 1975 के दिन सरकार ने घोषणा की कि देश में गड़बड़ी की आशंका है और इस तर्क के साथ उसने संविधान के अनुच्छेद 352 को लागू कर दिया। इस अनुच्छेद के अंतर्गत प्रावधान किया गया है कि बाहरी अथवा अदरूनी गड़बड़ी की आशंका होने
पर सरकार ‘आपातकाल’ लागू कर सकती है।
(4) टिप्पणी (Comments)-सरकार का निर्णय था कि गंभीर संकट की घड़ी पड़ी है और
इस वजह से ‘आपातकाल’ की घोषणा जरूरी हो गई है। तकनीकी रूप से देखें तो ऐसा करना
सरकार की शक्तियों के दायरे में था क्योंकि हमारे संविधान में सरकार को आपातकाल की स्थिति
में विशेष शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।
(5) तत्काल प्रभाव (Immediate Effect)-25 जून 1975 की रात में प्रधानमंत्री ने
राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से आपातकाल लागू करने की सिफारिश की। राष्ट्रपति ने तुरंत
यह उद्घोषणा कर दी। आधी रात के बाद सभी बड़े अखबारों के दफ्तर की बिजली काट दी गई।
तड़के सबेरे बड़े पैमाने पर विपक्षी दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी हुई। 26 जून
की सुबह 6 बजे एक विशेष बैठक में मंत्रिमंडल को इन बातों की सूचना दी गई, लेकिन तब तक
बहुत कुछ हो चुका था। आपातकाल की घोषणा के साथ ही शक्तियों के बंटवारे का संघीय ढाँचा
व्यावहारिक तौर पर निष्प्रभावी हो जाता है और सारी शक्तियाँ केंद्र सरकार के हाथ में चली आती हैं। दूसरे, सरकार चाहे तो ऐसी स्थिति में किसी एक अथवा सभी मौलिक अधिकारों पर रोक लगा सकती है अथवा उनमें कटौती कर सकती है। संविधान के प्रावधान में आए शब्दों से यह स्पष्ट हो जाता है कि आपतकाल को वहाँ एक असाधारण स्थिति के रूप में देखा गया है जब सामान्य लोकतांत्रिक राजनीति के कामकाज नहीं किए जा सकते। इसी कारण सरकार को आपतकाल की स्थिति में विशेष शक्तियाँ प्रदान की गई हैं।
9. आतंकवाद पर संक्षिप्त निबंध लिखें। [Board Exam. 2009A]
उत्तर-जब कोई व्यक्ति या समूह दहशत और हिंसा करके अपने स्वार्थ सिद्ध करने का
प्रयत्न करता है तो वह आतंकवाद कहलाता है। व्यक्ति द्वारा फैलया गया आतंक एक सीमा तक
ही प्रभाव करता है और उसे गुंडागर्दी की संज्ञा दी जाती है किन्तु जब पूरा का पूरा समूह, क्षेत्र या
देश आतंक के रास्ते को अपना ले तो वह आतंकबाद से ग्रस्त कहलाता है।
बंगाल में आतंकवाद-भारत मूलतः शांतीप्रिय देश है। यहाँ की धरती ने बुद्ध, महावीर
से लेकर एक-से-एक साधू संत, महापुरुष आदि व्यक्तित्व का निर्माण किया है। इसलिए आतंकवाद की प्रवृत्ति यहाँ की मिट्टी से मेल नहीं खाती है। परन्तु दुर्भाग्यवश षडयंत्रपूर्वक भारतवर्ष आतंक की लपेट में आता जा रहा है। सन् 1967 में बंगाल में नक्सली आतंकवाद का उदय हुआ। नक्सलवाद आंदोलन में हुई खूनी हिंसा से आतंकवाद ने जड़े जमाना शुरु की। सन् 1974 तक नक्सलवाद ने देश पर भयंकर कहर बरसाया।
पंजाब में आतंकवाद-सन् 1981 से सन् 1991 तक भारत का पंजाब प्रांत आंतकवाद
की काली छाया से घिरा रहा। तत्कालीन भ्रष्ट राजनीति और पाकिस्तान की साजिश के कारण फैला खालीस्तानी सिख आतंकवाद चौदह हजार निरपराध सिखों की जान लेकर रहा।
कश्मीर में आतंकवाद-पाकिस्तान जब पंजाब में हिंदू सिख को लड़ाने में सफल नहीं हो
पाया तो उसने कश्मीर में अपनी गतिविधियाँ तेज कर दी। पास्तिान में प्रशिक्षित आतंकवादियों
की योजनाबद्ध घुसपैठ आरंभ कर दिया। नौजवान नवयुवकों को जबरदस्ती और लालच देकर
आतंक के रास्ते में डालने के घृणित हथकंडे शुरु कर दिए गए। जानबूझ कर कश्मीर में भारतविरोधी वातावरण निर्माण किया गया। वहाँ के अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय के साथ दिल दहलाने वाले भयंकर अत्याचार किये गये ताकि वे कश्मीर छोड़कर अन्यत्र चले जाएँ और कश्मीर पर पाकिस्तान का प्रभुत्व निर्माण हो सके।
कश्मीर का आतंकवाद आज कैंसर का रूप धारण कर लिया है। पाकिस्तान आतंकवादी कभी
दिल्ली में तो कभी बम्बई में, कभी भारतीय संसद पर आतंकवादी हमले करते हैं। कभी ट्रेटन में
तो कभी बस में, कभी भीड़-भाड़ वाले क्षेत्र में तो कभी अन्यत्र बम विस्फोट कर जान माल की
क्षति कर रहे हैं। कभी कलकत्ता में बम विस्फोट होता है तो कभी गुजरात के अक्षरधाम में तो कभी कश्मीर में बम विस्फोट कर खून खराब कर दहशत निर्माण करते हैं।
बिहार में आतंकवाद की स्थिति ऐसी है। पुलिस कर्मी और थाने तक गोलियों और बसों के
धमाके से थर्रा जाते हैं। अर्थात् भारत में आतंकवादी तत्व अपनी जड़ें जमा चुके हैं।
★★★