bihar board 11 class psychology notes | संवेदी, अवधानिक
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संवेदी, अवधानिक एवं प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ
[ Sensory, Attentive and Perceptive Processes ]
पाठ के आधार-बिन्दु
● सम्पूर्ण संसार वस्तुओं, लोगों तथा घटनाओं की विविधता से पूर्ण है ।
● हमारी सात ज्ञानेन्द्रियाँ हैं जिन्हें सूचना संग्राही कहते हैं ।
● आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा नामक पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ बाह्य जगत से सूचनाएँ
एकत्रित करती हैं।
● गति संवेदी और प्रधान तंत्र दो गहन इन्द्रियाँ हैं जो शारीरिक अंगों की गति के सम्बन्ध
में सूचना बतलाती हैं।
● उद्दीपकों के मध्य अन्तर प्रकट करना संभव नहीं होता है ।
● संवेदनाओं की सही समझ के लिए ज्ञानेन्द्रियों की समझ वांछनीय है ।
● दृष्टि और श्रवण दो सर्वाधिक उपयोग में आनेवाली संवेदनाएँ हैं ।
● हमारी आँखे प्रकाश के उस वर्णक्रम के प्रति संवेदनशील होती हैं जिसके तरंगदैर्ध्य
का परास 380 मैनोमीटर से 780 मैनोमीटर तक होता है।
● मानव नेत्र की आंतरिक परत को रेटिना कहते हैं।
● आँख की पुतली मन्द प्रकाश में फैल जाती है तथा चमकीले प्रकाश में सिकुड़ जाती है।
● मानव नेत्र प्रकाश तीव्रता के अति विस्तृत परास (380-780 मैनोमीटर) में कार्य कर
सकती है।
● रेटिना के निकट स्थित दंड प्रकाश की निम्न तीव्रता में तथा शंकु उच्च तीव्रता में
कार्य करते हैं।
● हमारे रंगों के अनुभव का वर्णन तीन मूल विमाओं-वर्ण, संतृप्ति एवं द्युति-के रूप
में किया जाता है।
● श्रवण भी एक महत्त्वपूर्ण प्रकारता है ।
● कान श्रवण उद्दीपकों का प्राथमिक ग्राही है ।
● ध्वनि कान के लिए उद्दीपक होता है।
● तरंगदैर्घ्य दोशृंगों के बीच की दूरी को कहते हैं।
● आवृत्ति का मात्रक हर्ट्ज (Hz) होता है ।
● ध्वनि की तीव्रता उसके आयाम से निर्धारित होती है ।
● ध्वनि की तीव्रता ‘डेसिबल’ में पायी जाती है।
● खोज एक दशा होती है जिसमें कुछ उप समुच्चयों का पता लगाना होता है ।
● अवधान का एक केन्द्र और एक किनारा होता है।
● चयनात्मक अवधान को प्रभावित करने वाले बाह्य कारक हैं-आकार, तीव्रता और
गति ।
● प्रत्यक्षण के दो प्रकार के प्रकमण उपयोगी हैं-
(क) उर्ध्वगामी तथा
(ख) उधोगामी प्रकमण ।
● गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों में से कोहलर, कोफ्का तथा वर्दीमर प्रसिद्ध नाम है।
● गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों ने निम्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया-
(i) निकटता का सिद्धान्त, (ii) समानता, (iii) निरंतरता, (iv) लघुता, (v) सममिति,
(vi) अविच्छिन्नता, (vii) पूर्ति का सिद्धान्त ।
● गहराई के प्रत्यक्षण में हम दो प्रमुख सूचना स्रोतों पर निर्भर करते हैं-एकनेत्री संकेत
तथा द्विनेत्री संकेत ।
● एकनेत्री संकेत के निम्न संकेत उपविभाग हैं-
(i) सापेक्ष आकार, (ii) आच्छादन, (iii) रेखीय परिप्रेक्षण, (iv) आकाशी परिप्रेक्ष्य, (v)
प्रकाश एवं छाया, (vi) सापेक्ष ऊँचाई, (vii) गतिदिगंतरा भास, (viii) रचनागुण प्रवणता।
● दूर की वस्तुओं की असमता कम तथा निकट की वस्तुओं की असमता अधिक होती है।
● ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त सूचनाओं की अस्वाभाविक व्याख्या के कारण प्रत्यक्षण में उत्पन्न
दोष को भ्रम कहा जाता है।
● फ्राई-घटना एक प्रकार का आभासी गतिभ्रम है।
● सार्वभौम भ्रम के साथ-साथ वैयक्तिक तथा संस्कृति-विशिष्ट भ्रम भी उत्पन्न हो
जाते हैं।
पाठ्य-पुस्तक के प्रश्न एवं उनके उत्तर
Q. 1. ज्ञानेन्द्रियों की प्रकार्यात्मक सीमाओं की व्याख्या कीजिए ।
Ans. परिवेशीय ज्ञान अर्जित करने वाले सहायक के रूप में हमारी पाँचों ज्ञानेन्द्रियों (आँख,
कान, नाक, जीभ और त्वचा) के कार्य बहुत ही महत्त्वपूर्ण होते हैं। ये परिवेश से प्राप्त सभी
प्रकार की संवेदनाओं को मस्तिष्क के विशिष्ट क्षेत्रों तक पहुँचाने का कार्य करती हैं, जहाँ संवेदनाओं
की परिणामी व्याख्या की जाती है।
हमारी ज्ञानेन्द्रियों को प्रकार्यात्मक सीमा पूर्व निर्धारित होती है । यह संवेदनाओं को अति
उच्च एवं अति निम्न प्रखरता अथवा प्रबलता के कारण उन्हें ग्रहण नहीं कर पाती है । अर्थात्
ज्ञानेन्द्रियाँ कुछ सीमाओं में कार्य करने की क्षमता रखती हैं। जैसे हमारी आँख अति तीव्र प्रकाश
से चमकने वाली वस्तुओं के सामने चकाचौंध में पड़कर स्पष्ट दृष्टि ज्ञान से वंचित रह जाती है
तथा कम प्रकाश के कारण धुंधली आकृति वाली वसतु को स्पष्टतः देख नहीं पाती है । दृष्टि
की न्यूनतम दूरी 25 सेमी से नजदीक वाली वस्तु की देख पाने में असमर्थ हो जाती है । अतः
ज्ञानेन्द्रियों के सफल उपयोग के लिए उद्दीपक में इंस्टम तीव्रता अथवा परिमाण का होना वांछनीय
होता है । मनोभौतिकी में संवेदनाओं तथा संवेदनाही के बीच के सम्बन्ध का अध्ययन करने की
व्यवस्था रहती है।
उद्दीपक का वह न्यूनतम मान या वजन जो किसी संवही तंत्र को क्रियाशील करने के लिए
आवश्यक होता है उसे निरपेक्ष सीमा अथवा निरपेक्ष देहली (A.L.) कहा जाता है। निरपेक्ष सीमा
किसी निश्चित मान के रूप में प्रसारित नहीं की जा सकती है क्योंकि यह व्यक्तियों की आंतरिक
दशाओं के आधार पर बदल भी सकते हैं। जैसे, चीनी के निश्चित कणों को जल में मिलाने पर
किसी व्यक्ति को वह मीठा प्रतीत होता है तो कुछ व्यक्तियों को मीठा का आभास भी नहीं होता
है।
अतः उद्दीपकों (अथवा ज्ञानेन्द्रियों) के लिए प्रकार्यात्मक सीमा के लिए कोई सर्वमान्य
पठन-संभव नहीं होता है। प्रकार्यात्मक सीमा के निर्धारण के लिए हमें परीक्षण के रूप में किये
जाने वाले प्रयासों को कई बार प्रयुक्त किये जाने पर एक औसत मान के रूप में स्वीकार कर
लेना होता है । दो भिन्न उद्दीपकों के लिए प्रकार्यात्मक सीमा के मान में भिन्नता पाई जाती है
जो उनकी पहचान बन जाती है जैसे, चुटकी भर नमक गलने से ग्लास का पानी खारा हो जाता
है लेकिन उसी परिमाण में डाली गई चीनी का प्रभाव महसूस भी नहीं होता है ।
उद्दीपकों के लिए निर्धारित प्रकार्यात्मक सीमा का सही उपयोग तभी संभव होता है जब
व्यक्ति के तंत्रिका तंत्र की प्रकृति का सही ज्ञान उपलब्ध नहीं होता है । ग्राही अंग, तंत्रिका मार्ग,
मस्तिष्क क्षेत्र का संरचनात्मक या प्रकार्यात्मक गुण-दोष के आधार पर ही ज्ञानेन्द्रियों के लिए
प्रकार्यात्मक सीमा का निर्धारण उद्देश्यपूर्ण माना जाता है
Q.2. प्रकाश अनुकूलन एवं तम-व्यनुकूलन का क्या अर्थ है ? वे कैसे घटित होते है ?
Ans. प्रकाश पर आधारित दृष्टि नामक संवेदना हमारे लिए महत्त्वपूर्ण होता है । दृष्टि के
लिए दंड और शंकु दृष्टि के ग्राही माने जाते हैं जहाँ दंड के लिए निम्न तीव्रता वाला प्रकाश चाहिए
तो शंकु की क्रियाशीलता उच्च तीव्रता वाले प्रकाश में सक्रिय होती है । प्रकाश अनुकूलन तथा
तम-व्यनुकूलन चाक्षुष व्यवस्था के दो रोचक गोचर हैं।
पिण्ड पर पड़नेवाले प्रकाश के परिमाण अथवा तीव्रता में आनेवाले आकस्मिक परिवर्तन
या अन्तर को नेत्र तुरंत स्वीकार नहीं करता है । खुले मैदान से बन्द कमरे में पहुंँचते ही वस्तु
ठीक-ठीक दिखाई नहीं पड़ता है जबकि कुछ देर बाद हम किताब पढ़ने लग जाते हैं । इस प्रकार
अंधकार में बैठा व्यक्ति बल्ब के जला दिये जाने पर कुछ क्षण तक चकाचौंध के चक्कर में पड़
जाता है । उसे बल्ब के प्रकाश में कुछ भी देखने की क्षमता समाप्त होती हुई प्रतीत होती है।
प्रकाश की तीव्रता के परिवर्तन का नेत्र स्नायु पर पड़ने वाले प्रभाव से जुड़ा यह (चाक्षुष अनुकूलन)
प्रकाश अनुकूलन तथा तम-व्यनुकूलन है । प्रकाश की विभिन्न तीव्रताओं के साथ समंजन करने
की प्रक्रिया को ‘चाक्षुष अनुकूलन’ कहते हैं।
(i) प्रकाश अनुकूलन-प्रकाश की तीव्रता के बढ़ जाने से उत्पन्न प्रभाव के साथ नेत्र स्नायु
का सामयोजन करने की प्रक्रिया को प्रकाश अनुकूलन कहा जाता है । अंधकार से प्रकाश में आने
पर इस प्रकार के समायोजन की आवश्यकता होती है । प्रकाश समायोजन की इस प्रकार की
प्रक्रिया में लगभग एक से दो मिनट का समय लग जाता है ।
(ii) तम-व्यनुकूलन-प्रकाश की तीव्रता के हठात घट जाने से उत्पन्न प्रभाव के साथ
नेत्र-स्नायु का समायोजन करने की प्रक्रिया को तम-व्यनुकूलन कहा जाता है । तीव्र प्रकाश के
प्रभावन के बाद मंद प्रकाश वाले वातावरण से समायोजन की स्थिति तम-व्यनुकूलन का एक प्रमुख
लक्षण है । इस श्रेणी के समायोजन में लगभग आधा घंटा का समय लग जाता है ।
चाक्षुष अनुकूलन (प्रकाश अनुकूलन तथा तम-व्यनुकूलन ) के कारण-चाक्षुष अनुकूलन
के भौतिक कारण पुतली के छिद्रों के बढ़ने या घटने से रेटीना पर पहुंचने वाले प्रकाश का परिमाण
है। तीव्र या मंद प्रकाश का किसी स्थायी स्थिति में नेत्र की पुतली का छिद्र प्राप्त होने वाले प्रकाश
की तीव्रता के आधार पर अपना आकार निश्चित कर लेता है । प्रकाश की तीव्रता में द्रुत परिवर्तन
होने से पुतली का बड़ा छेद अधिक प्रकाश को भेजकर चकाचौंध की स्थिति ला देता है तथा
पुतली का छोटा छेद कम प्रकाश पाने के कारण अंधकार की स्थिति उत्पन्न कर देता है । प्रकाश
की तीव्रता की नई स्थिति में पनुः समायोजन की आवश्यकता हो जाती है जिसमें कुछ समय लग
जाता है।
प्रचीन मत के अनुसार चाक्षुष अनुकूलन का कारण प्रकाश-रासायनिक प्रक्रिया है । दृष्टि
पटल में स्थित प्रकाश संवेदी कोशिकाओं से बना दण्ड (rods) एक प्रकाश संवेदनशील पदार्थ
(रेडोप्सिन या चाक्षुष पर्पल) से युक्त होता है । प्रकाश के प्रभाव में आकर रोडोप्सिन के अणु
टूट जाते हैं । इन दशाओं में प्रकाश अनुकूलन की क्रिया सम्पन्न होती है । प्रकाश की कमी होने
पर विटामिन ‘ए’ की सहायता से दंडों में वर्णक पुनरुत्पादित करने हेतु पुनःस्थापन की प्रक्रिया
चलने लगती है। इसी कारण विटामिन ‘ए’ की कमी से रतौंधी रोग हो जाते हैं । शंकुओं में
आयडोप्सिन नामक रासायनिक पदार्थ पाये जाते हैं।
Q.3. रंग दृष्टि क्या है तथा रंगों की विमाएँ क्या हैं ?
Ans. परिवेश में देखी जाने वाली वस्तुओं की पहचान में उसका रंग एक महत्त्वपूर्ण
विशेषता है। रंग हमारी संवेदी अनुभवों में एक विशिष्ट स्थान रखता है। रंग की पहचान तो
नेत्रानुभव की बात है किन्तु उसे व्यक्त करने के लिए अलग-अलग रंगों के लिए उनके तरंगदैर्ध्य
को बताना स्पष्ट परिचय देने में सहयोग करता है। बात है कि दृश्य वर्णपट का ऊर्जा परास 300-
380 नैनोमीटर होता है जो विस्तृत क्षेत्र का सूचक है । इस तुलना में हमारे नेत्र की क्षमता ही कम
होती है । दृश्य वर्णपट के रंगों के तरंगदैर्घ्य से कम या अधिक मान वाले तरंगदैर्घ्य वाली किरणें
आँखों को नुकसान पहुँचा सकती है । जैसे अवरक्त किरणें तथा पराबैगनी किरणों के तरंगदैर्ध्य
क्रमशः दृश्य किरणों से कम तथा अधिक होती है । सूर्य के प्रकाश में संयुक्त सात रंगों
(वैनीआहपीनाला या VIBGYOR) को आधार मानकर हम वस्तुओं को विभिन्न रंगों से पहचानते
हैं।
रंग दृष्टि का सामान्य अर्थ है दृश्य किरणों, अवरक्त किरणों तथा पराबैगनी किरणों में
अन्तर समझना तथा दृश्य वस्तुओं को देखकर उनके रंगों की व्याख्या करना या प्रभाव बतलाना।
प्रकाश की किरणों के रंगों में एक रोचक संबंध होता है। तीन मूल रंगों (लाल, नीला तथा पीला)
से उत्पन्न अनेक रंगों (बैंगनी, आसमानी, हरा आदि) की उपस्थिति का भी प्रभाव हम पर पड़ता
है । फोन से भेजे गये संदेशों के लिए उत्पन्न आवाज की प्रकृति तथा उसके रंग हमारे जीवन
पद्धति में अन्तर कर सकते हैं। किसी वस्तु को ध्यान से देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि रंगों
की सही उपयोगिता क्या है ? दृष्टि स्नायु के द्वारा ग्रहण किये गये प्रकाशीय अंश अपने रंगों के
आधार पर रंग की विशेषताओं को व्यक्त करता है।
Q.4. श्रवण संवेदना कैसे घटित होती है ?
Ans. श्रवण एक महत्त्वपूर्ण संवेदन प्रकारता है जहाँ ध्वनि कान के लिए उद्दीपक की उत्पत्ति
बाह्य वातावरण में दाब विभिन्नता के कारण होती है। यह वायु में एक विशेष प्रकृति का विक्षोभ
(बाधा) उत्पन्न करते हुए वायु अणुओं को आगे-पीछे करके दाब में परिवर्तन को जारी रखती
है । सामान्य ध्वनि तरंग एकल रूप में दाब में अनुक्रमिक परिवर्तन करती है । ध्वनि तरंग श्रृंग
तथा गर्त की रचना रकते हुए फैलाता है ।
कुछ विशेष दशाओं में ध्वनि तरंगों का निर्माण मूल रूप से संपीडन और विसंपीडन
(विरलन) के कारण होता है । संपीडन से विरलन पुनः विरलन से संपीडन की आवृत्ति के कारण
वायु के दाब में पूर्ण परिवर्तन से एक तरंग चक्र का निर्माण होता है । श्रवण संवेदना के घटित
होने का प्रमुख कारण श्रृंग, गर्त अथवा संपीडन-विरलन के द्वारा किया जाने वाला दाब-परिवर्तन
को माना जा सकता है । ज्ञात है कि ये एकान्तर क्रम में सक्रिय होकर दाब परिवर्तन के द्वारा
संवेदना को प्रभावित करते हैं जहाँ आवृत्ति तथा तरंगदैर्घ्य में प्रतिलोम संबंध होता है । इस घटना
का सीधा संबंध ध्वनि की तीव्रता, तारत्व तथा स्वर विशेषता से होती है । आवृत्ति ध्वनि तरंगों
के तारत्व को निर्धारित करता है।
श्रवण संवेदना तब प्रारम्भ होती है जब ध्वनि हमारे कान में प्रवेश करती है तथा सुनने के
प्रमुख अंगों को उद्दीप्त करती है ।
कान श्रवण उद्दीपकों का प्राथमिक ग्राही होता है । पिन्ना ध्वनि कंपन को एकत्रित करके
श्रवण द्वारा कर्ण पटल तक पहुँचाती है । टिम्पैनिक गुहिका में स्थित तीन छोटी-छोटी अस्तिकाओं
(निहाई, टिकाव और हथोड़ा) को प्रभावित करते हुए ध्वनि तरंग आंतरिक कान तक पहुँच जाती
है। कॉक्लिया के द्वारा ग्रहण किया गया ध्वनि तरंग कंपन के रूप में अंतर्लसिका में गतिमान होता
है जो कोर्ती अंक में उत्पन्न कंपन का कारण भी होता है । उत्पन्न कम्पन्न से श्रवण तंत्रिका और
श्रवण वल्कुट भी प्रभावित होता है । इस प्रकार हमें श्रवण संवेदनाओं का स्पष्ट ज्ञान मिल जाता
है और आवेग की व्याख्या करके संवाद को समझते हैं ।
Q.5. अवधान को परिभाषित कीजिए । इसके गुणों की व्याख्या कीजिए।
Ans. अवधान की परिभाषा-दो या अधिक उद्दीपकों में से कुछ वांछनीय उद्दीपकों के
चयन से संबंधित मानसिक प्रक्रिया को अवधान कहा जाता है। अतः अवधान एक चयनात्मक
मानसिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति एक विशेष शारीरिक मुद्रा बनाकर किसी वस्तु को चेतना केन्द्र
में लाने के लिए तत्परता दिखाता है ।
अवधान के गुण-अवधान की प्रमुख विशेषताएँ अथवा उसके गुण निम्नलिखित हैं-
(i) अवधान का संबंध तीन प्रमुख तत्वों सतर्कता, एकाग्रता तथा खोज से पूर्णतः स्थापित
रहता है।
(ii) अवधान का एक केन्द्र और एक किनारा होता है जहाँ जानकारी को क्रमशः केन्द्रित
रूप में तथा धुंधले रूप में माना जाता है ।
(iii) अवधान का स्वरूप चयनात्मक होता है।
(iv) अवधान में विभाजन का गुण होता है ।
(v) अवधान में अस्थिरता तथा उच्चलन का गुण भी सन्निहित होता है ।
(vi) अवधान की विस्तृति सीमित होती है ।
(vii) अवधान में व्यक्ति की प्रेरणा तथा इच्छा का प्रमुख स्थान होता है ।
(viii) अवधान के दो रूप प्रमुख हैं-चयनात्मक तथा संधृत अवधान ।
(ix) अवधान के लिए आकस्मिक एवं तीव्र उद्दीपकों में ध्यानाकर्षण की अद्भुत क्षमता होती है।
Q.6. चयनात्मक अवधान के निर्धारकों का वर्णन कीजिए । चयनात्मक अवधान संधृत
अवधान से किस प्रकार भिन्न होता है ? [B.M. 2009A]
Ans. चयनात्मक अवधान का सामान्य उद्देश्य अनेक उद्दीपकों में से कुछ उद्दीपकों का चयन
करना होता है । किसी समय विशेष में हम सीमित संख्या में उद्दीपकों पर विशिष्ट ध्यान रख
सकते हैं । उद्दीपकों में से कुछ को अधिक महत्त्व देकर चयन तथा प्रकरण करने के क्रम में
निम्नलिखित निर्धारक प्रभावकारी कारक की भूमिका निभाते हैं ।
चयनात्मक अवधान को प्रभावित करने वाले कारक-सामान्य उद्दीपकों की विशेषताओं
तथा संबंधित व्यक्तियों की दक्षता पर निर्धारक के दो रूप होते हैं-
(क) बाह्य कारक तथा (ख) आंतरिक कारक ।
(क) बाह्य कारक (वस्तुनिष्ठ निर्धारक)-
(i) आकार-जो उद्दीपक आकार में बड़ा होता है व्यक्ति के अवधान में शीघ्रता से आ जाता
है । यही कारण है कि समाचार-पत्रों में समाचार के मुख्य विन्दुओं को बड़े आकार वाल अक्षरा
के माध्यम से व्यक्त किया जाता है । ग्राहकों को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए बड़े नमूने
बड़े साइनबोर्ड तथा बड़े दरवाजे का उपयोग किया जाता है।
(ii) उद्दीपन की तीव्रता-द्युतिमान (चमकता हुआ) पिण्ड लोगों को सरलता से आकृष्ट
कर लेते हैं। अधिक तीव्र उद्दीपन कम तीव्र उद्दीपन की अपेक्षा व्यक्ति का ध्यान जल्द और सरलता
से अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। भिन्न-भिन्न रंगों वाले प्रकाश, नये चमकीले पोशाक, देहरे
की द्युति, सफेद कपड़े को नील देकर चमकाना आदि अधिक आकर्षक बने होने का प्रमाण है
जिससे लोग नहीं चाहकर भी उन वस्तुओं की ओर देख ही लेते हैं।
(iii) गतिशील उद्दीपक-गतिशील उद्दीपक हमारे अवधान में शीघ्रता से आ जाते हैं । मंच
को सजाने के लिए ऐसे बल्बों को निश्चित क्रम में जोड़ा जाता है जिससे वे घूमते हुए प्रतीत हों।
आसमान में गतिमान जहाज देखने के लिए लोगों का ध्यान आकाश की ओर चला जाता है
सिनेमाघरों में चलते-नाचते चित्रों को देखने के लिए भारी भीड़ जुटती है ।
(iv) उद्दीपन का स्वरूप-बन्दूक के आकार वाली पिचकारी, शेर की आकृति वाला लेमन
जूस, अप्सरा के स्वरूप वाली गुड़िया आदि इस बात के प्रमाण हैं कि व्यक्ति को वस्तु की आकृति
या स्वरूप भी ध्यान खींचने का काम करता है।
(v) आकस्मिक एवं तीव्रता-सहसा परिवर्तन से व्यक्ति चौंक जाता है । मेघ गर्जन, वाहन
का हॉर्न, अचानक रेडियों का बजना आदि की तरह अचानक उत्पन्न ध्वनि या प्रकाश लोगों को
उस ओर कुछ देखने को प्रेरित कर देते हैं । अचानक गाड़ी के रुकने या किसी पड़ोसी के घर
में हल्ला की आवाज सुनना अवधान का कारण बन जाता है ।
(vi) उद्दीपन की अवधि-मालिक के इनकार किये जाने पर भी कर्मचारी का खड़ा रह जाना
मालिक को उसके बारे में कुछ अधिक सोचने को मजबूर होना पड़ता है । अतः किसी विशेष
उद्दीपन का देर तक उपस्थित रह जाना गहरे प्रभाव का कारण बन जाता है।
(vii) उद्दीपन की नवीनता-ग्रामीण क्षेत्र में मारुति कार को देखने बच्चे दौड़ पड़ते हैं।
यदि किसी पदाधिकारी को खेत में कुदाल चलाते पाया जाता है, सदैव धोती-कुरता पहनने वाला
पैंट-शर्ट पहनकर बाहर निकल जाता है, उन नई स्थितियों के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ जाता
है। अत: कोई व्यक्ति एकरसता से बचने के लिए नया दृश्य देखने में अधिक रुचि प्रकट करता
है।
(viii) उद्दीपन की पुनरावृत्ति-दरवाजे पर किसी लड़के का बार-बार आना, टी. वी. किसी
पर निश्चित विज्ञापन को बार-बार दिखाना उसके महत्त्व को बढ़ाने का कारण बन जाता है।
अत: किसी उद्दीपन की पुनरावृत्ति भी ध्यान खींचने का एक प्रत्यक्ष कारण है।
(ix) मानसिक तत्परता-किसी के आने की प्रतीक्षा में बैठा व्यक्ति थोड़ी-सी आहट पाकर
सतर्क हो जाता है । परीक्षा के निकट आते ही प्रमुख प्रश्नों के उत्तर को दुहरा लेने के लिए छात्र
तत्परता दिखाते हैं।
(ख) चयनात्मक अवधान के आंतरिक कारक:
(i) अभिप्रेरणात्मक कारक-जैविक तथा सामाजिक आवश्यकताओं की ओर व्यक्ति का
ध्यान आकर्षित हो जाता है । घर से भागा हुआ बालक, भूख से तड़पता भिखारी किसी भी व्यक्ति
का ध्यान अपनी ओर खींचने में समर्थ होता है । चुनाव के समय किसी विशिष्ट नेता को देखने
तथा उसका भाषण सुनने निजी काम को छोड़कर भी उमड़ती भीड़ में शामिल हो जाते हैं ।
(ii) संज्ञानात्मक कारक-संज्ञानात्मक कारक के तीन प्रबल पक्ष होते हैं-अभिरुचि,
अभिवृत्ति तथा पूर्व विन्यास ।
(क) अभिरुचि-देहाती मेले में बच्चे मनपसन्द खिलौने की दुकान खोजते हैं, मनोरंजन
प्रेमी व्यक्ति किसी शहर में वहुँचकर सबसे पहले सिनेमा की खबर जानना चाहता है। अर्थात
व्यक्ति अपनी अभिरुचि की वस्तुओं की ओर जल्द और जरूर आकर्षित होते हैं ।
(ख) अभिवृत्ति-जिन वस्तुओं अथवा घटनाओं के प्रति अनुकूल दृष्टि रखते हैं, उन पर
शीघ्रता से ध्यान चला जाता है । खेल में रुचि रखनेवाला कमेन्ट्री सुनकर संचार साधनों के प्रति
आकर्षण प्रकट करता है।
(ग) पूर्व विन्यास-पूर्व विन्यास के अन्तर्गत एक प्रेरक दशा के द्वारा ध्यानाकर्षण के लिए
प्रेरित बल लगाना माना जाता है । यदि एक साथी दूसरे से कहता है अमुक गाँव में आज नाटक
खेला जा रहा है तो श्रोता साथी साथ चलने को तैयार हो जाता है । इसके अतिरिक्त, अवधान
को प्रभावित करने वाले कारकों में आंतरिक कारकों के रूप में मनोवृत्ति, आवश्यकता, जिज्ञासा,
अर्थ, लक्ष्य, प्रशिक्षण, मनोभाव आदि का भी प्रभाव देखने को मिलता है ।
आवेगशीलता, अधिक पेशीय सक्रियता तथा अवधान की अयोग्यता जैसे विकार की प्रमुख
विशेषता संधृत अवधान में मिलती है।
चयनात्मक अवधान और संधृत अवधान में भिन्नता-प्रक्रिया-उन्मुख विचार की दृष्टि
से अवधान को दो मुख्य वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
(क) चयनात्मक अवधान और
(ख) संधृत अवधान ।
अवधान के दोनों प्रमुख वर्गों में निम्नलिखित भिन्नता पाई जाती है-
चयनात्मक अवधान संधृत अवधान
(Selective Attention) (Sustained Attention)
1. परिभाषा-चयनात्मक अवधान से विकल्पों 1. परिभाषा-उद्दीपकों के चयन के अतिरिक्त
में से एक या दो विकल्प का चयन करके उद्दीपकों के प्रति सतर्कता, एकाग्रता तथा
उसी पर ध्यान केन्द्रित करने का बोध खोज जैसे गुणों का ख्याल रखने की
होता है। प्रक्रिया को संघृत अवधान कहा जाता है।
2. उदाहरण या पहचान-वर्ग कक्षा में प्रवेश 2. उदाहरण या पहचान-विद्यालय में
करने पर साथियों के पोशाक, कक्षा के स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर दौड़
उपकरण, कक्षा की सफाई, व्यवस्था, प्रतियोगिता का आयोजन किया गया है
ब्लैकबोर्ड, प्रकाश, पंखा इत्यादि से दौड़ के प्रतिभागी छात्र अंकित सरल रेखा
संबंधित उद्दीपकों से सामना होता है के ठीक पीछ दौड़ प्रारम्भ करने संबंधी
लेकिन कक्षा में प्रवेश करनेवाला छात्र आदेश के लिए सीटी बजने का इन्तजार
किसी एक उद्दीपक पर अधिक ध्यान कर रहा है। स्पष्ट है कि जीत की कामना
देता है। माना वह सर्वप्रथम एक खाली के क्रम में प्रत्येक प्रतिभागी सतर्क
जगह की तलाश करता है। एकाग्रता के साथ सीटी बजने का इंतजार
कर रहा होता है।
3. प्रमुख कारक-उद्दीपकों के आकार, तीव्रता 3. प्रमुख कारक-संवेदन पुकारता, उद्दीपका
और गति के साथ-साथ अभिरुचि, की स्पष्टता, कालिक अनिश्चितता और
अभिवृत्ति और पूर्व विन्यास । स्थानिक अनिश्चितता के रूप में नियमित
अंतराल, निश्चित स्थान, देर तक समान,
रूप में ऊपर रहना आदि विन्दुएँ प्रमुख
कारक के सहयोगी तत्व हैं।
4. उद्देश्य-किसी एक उद्दीपक की सभी 4. उद्देश्य-उद्दीपकों के स्वभाव औ
संभव विशेषताओं की जानकारी प्राप्त उपयोगिताओं का तुलनात्मक अध्ययन एवं
करना। सही अर्थ पाने का प्रयास करना ।
5. विकार-आवेगशीलता, अधिक पेशीय
5. विकार-कई महत्त्वपूर्ण उद्दीपकों का सक्रियता तथा अवधान की अयोग्यता
अध्ययन में असमर्थ । जैसे विकार ।
Q.7. चाक्षुष क्षेत्र के प्रत्यक्षण के संबंध में गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों का प्रमुख प्रतिज्ञाप्ति
क्या है?
Ans. चाक्षुष क्षेत्र विविध प्रकार के अंशों (बिन्दु, रेखा, रंग आदि) का समूह होता है।
इन अंशों को संगठित रूप में देखा जाता है। गेस्टाल्ट (एक नियमित आकृति) मनोवैज्ञानिकों के
अनुसार हम विभिन्न उद्दीपकों को विविक्त अंशों के रूप में नहीं देखते हैं, बल्कि एक संगठित
समग्र के रूप में देखते हैं। किसी वस्तु का रूप उसके समग्र में होता है जो उनके अंशा के योग
से भिन्न होता है क्योंकि हमारी प्रमस्तिष्कीय प्रक्रियाएँ हमेशा अच्छी आकृति का प्रत्यक्षण करने
के लिए उन्मुख होती हैं।
आकृति की कुछ विशेषताएँ उल्लेखनीय होती हैं, जैसे-
(i) आकृति का एक निश्चित रूप होता है।
(ii) आकृति अपनी पृष्ठभूमि की अपेक्षा अधिक संगठित होता है
(iii) आकृति की स्पष्ट परिरेखा होती है।
(iv) आकृति अधिक स्पष्ट होती है।
गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों ने चाक्षुष क्षेत्र में उद्दीपक को अर्थवान बनाने तथा संगठित रूप में
देखे जाने के संबंध में कुछ महत्त्वपूर्ण नियमों अथवा सिद्धान्तों को प्रतिज्ञप्ति के रूप में प्रस्त
किया है जो निम्नलिखित हैं-
1. निकटता का
सिद्धान्त-परस्पर निकट पाने
वाली वस्तुएँ एक समूह के
रूप में दिखाई देती हैं। अकित
चित्र में बिन्दुओं को श्रृंखला
के रूप में देखा जा सकता है,
अर्थात् ये बिन्दुओं के एक समूह
के रूप में प्रकट होते हैं।
2. समानता का सिद्धान्त-कुछ
विशिष्ट बिन्दुओं को समान क्रम में
सजाने पर वे एक समूह के रूप में
प्रत्यक्षित होते हैं यदि वे बिन्दुएँ आकृति
और विशेषताओं में समान होते हैं।
प्रस्तुत चित्र में छोटे वृत्तों एवं वर्गों को
इस प्रकार सजाकर रखा गया है ताकि
वे संगठित रूप में एक वर्ग दिखाई दें।
3. निरंतरता का सिद्धान्त-एक सतत प्रतिरूप में वस्तुओं को सजाकर रखा जाता है तो
उनका प्रत्यक्षण एक-दूसरे से संबंधित के रूप में प्राप्त किये जाते हैं। परस्पर काटती हुई दो रेखाएँ
अ-ब तथा स-द को देखने पर यह अभ्यास होता है कि चार रेखाओं का मिलन-बिन्दु ‘स’ है।
4.लघुता का सिद्धान्त-बड़े पृष्ठभूमि की तुलना में कोई छोटी आकृति स्पष्टतः देखी जा
सकती है।
5. सममिति का सिद्धान्त-असममिति पृष्ठभूमि की तुलना में सममिति क्षेत्र आकृति के रूप
में देखी जा सकती है।
6. अविच्छिन्नता का सिद्धान्त-जब एक क्षेत्र कई अन्य क्षेत्रों के मध्य घिरा होता है तो
वह क्षेत्र एक स्पष्ट आकृति के रूप में देखी जा सकती है ।
7. पूर्ति का सिद्धान्त-किसी उद्दीपन में यदि कुछ अंश में अस्पष्ट या लुप्त रह जाते हैं तो
उसे पूरा कर देने पर उनकी आवलेति अलग-अलग भागों की जगह एक समग्र आकृति के रूप
में दिखाई देती है । प्रस्तुत चित्र में तीन छोटे-छोटे कोणों को इस प्रकार सजाकर रखा गया है
कि वे निकट होने के बावजूद अलग-अलग दिखें जिसमें उनके छोटे-छोटे खाली अंश कारण है।
यदि इन छोटे अंशों को पूरा कर दिया जाये तो ये तीनों आकृतियों मिलकर एक त्रिभुज के रूप
में देखे जा सकते हैं।
Q.8. स्थान-प्रत्यक्षण कैसे घटित होता है?
Ans. हमारी प्रमस्तिष्कीय प्रक्रियाएँ हमेशा अच्छी आकृति का प्रत्यक्षण करने के लिए
उन्मुख होते हैं । मानव जाति जगत को एक संगठित समग्र रूप में देखती है। उसे पता है
कि आकृति का एक निश्चित रूप होता है तथा वे पृष्ठभूमि से अलग दिखने के लिए प्रस्तुत रहते
हैं । चाक्षुष क्षेत्र या सतह जहाँ वस्तुएँ रहती हैं वह तीन विमाओं से संगठित होता है । प्रत्यक्षण
कारक किसी स्थान पर रखी वस्तु को जब देखती है तो वह विभिन्न वस्तुओं को मात्र आकार,
रूप, दिशा (स्थानिक अभिलक्षण) पर ही ध्यान नहीं देता बल्कि अपनी बुद्धि एवं चेतना के माध्यम
से उस स्थान में पाई जानेवाली सभी वस्तुओं के बीच की दूरी को भी महसूस करके निर्धारित
वस्तुओं की एक सच्ची प्रतिमा का निर्माण करने में सफल हो जाता है।
यद्यपि हमारे दृष्टि पटल पर वस्तुओं की प्रक्षेपित प्रतिमाएँ समतल तथा द्विविम होती हैं जिसके
चलते हम वस्तुओं के बाएँ, दाएँ, ऊपर, नीचे की वस्तुस्थिति से अवगत होते हैं, परन्तु प्रत्यक्षण
के अधिक उद्देश्पूर्ण बनाने के लिए हम स्थान में तीन विमाओं का प्रत्यक्षण करते हैं। चूंकि हम
द्विविम दृष्टिपटलीय दृष्टि को त्रिविम अर्थात् स्थान प्रत्यक्षण को सफल बनाने हेतु मनोवैज्ञानिक
संकेतों तथा अर्जित अनुभवों का प्रयोग करके सभी तीन विमाओं के सम्बन्ध में वांछनीय
जानकारियों को जमा करते हैं ।
Q.9.गहनता प्रत्यक्षण के एकनेत्री संकेत क्या हैं ? गहनता प्रत्यक्षण में द्विनेत्री संकेतों
की भूमिका की व्याख्या कीजिए ।
Ans. किसी वस्तु के प्रत्यक्षण के क्रम में जगत को तीन विमाओं से देखने की प्रक्रिया को
दूरी अथवा गहनता प्रत्यक्षण कहते हैं जो दैनिक जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण होता है । जैसे ध्वनि
की तीव्रता के आधार पर श्रोता भी वक्ता के बीच की दूरी का अन्दाज लगाया जाता है।
किसी वस्तु को एक नेत्र के देखने के क्रम में गहनता प्रत्यक्षण के लिए एकनेत्री संकेत
प्रभावी होता है । द्विविम सतहों में गहराई अथवा दूरी का निर्णय लेने में एकनेत्री संकेत उपयोगी
होता है । एकनेत्री संकेतन से संबंधित कुछ विशिष्ट लक्षण निम्नलिखित होते हैं-
(i) सापेक्ष आकार-वस्तु के दूर जाते समय दूरी के बढ़ने के साथ-साथ दृष्टि पटलीय
प्रतिमा का आकार छोटा होता जाता है । अतः छोटी दिखने वाली वस्तु के लिए दूर में स्थित के
रूप में उसका प्रत्यक्षण करते हैं।
(ii) आच्छादन अथवा अतिव्याप्ति-जो वस्तु आच्छादित होती है वह दूर तथा जो वस्तु
आच्छादन करती है वह निकट दिखाई देती है।
(iii) रेखीय परिप्रेक्ष्य-रेल की पटरियाँ, बीच की दूरी के समान होने पर भी दूरी बढ़ने
पर एक-दूसरे से मिलती हुई प्रतीत होती है ।
(iv) आकाशी परिपेक्ष्य-दूर की वस्तुएँ धुंधली या अस्पष्ट दिखती हैं ।
(v) प्रकाश एवं छाया-वस्तु के प्रकाशित भाग एवं छाया के आधार पर उसकी दूरी या
स्थिति की जानकारी मिलती है।
(vi) सापेक्ष ऊँचाई-जो वस्तु बड़ी प्रतीत होती है वह छोटी दिखाई देने वाली वस्तु से
अधिक लम्बी होती है।
(vii) रचना गुण प्रवणता-जिस चाक्षुष क्षेत्र में कोई वस्तु सघनता के साथ प्रकट होती
है वह विरल प्रतीत होने वाली वस्तु की अपेक्षा अधिक दूरी पर होती है ।
(viii) गति दिगंतराभास-गति दिगंतराभास को एक गतिक एकनेत्री संकेत माना जाता है।
निकट की वस्तुओं की अपेक्षा दूरस्थ वस्तुएँ धीरे-धीरे गति करती हुई प्रतीत होती हैं । अतः वस्तुओं
की गति की दर उसको दूरी का एक संकेत प्रदान करती है ।
गहनता प्रत्यक्षण में द्विनेत्री संकेत की भूमिका-किसी वस्तु को दोनों नेत्रों से देखने पर
त्रिविम स्थान में गहनता प्रत्यक्षण के कुछ संकेत मिलते हैं । द्विनेत्री संकेत के तीन प्रमुख लक्षण
निम्नलिखित हैं-
(i) दृष्टि परीक्षण अथवा द्विनेत्री असमता-दोनों आँखों से किसी वस्तु को देखने पर संभव
है कि दोनों रेटिना पर प्रक्षेपित प्रतिमाएँ कुछ भिन्न हों । दूर की वस्तुओं के लिए प्रतिमाओं की
असमता कम होती है जबकि निकट की वस्तुओं की असमता अधिक होती है ।
(ii) अभिसरण-निकट की वस्तुओं को दोनों आँखों से देखने पर हमारी आँखें अन्दर की
ओर अभिसरित होती हैं जिससे प्रतिमा प्रत्येक आँख की गर्तिका पर आ सके । जैसे-जैसे वस्तु
प्रेक्षक से दूर होती जाती है, वैसे-वैसे अभिसरण की मात्रा घटती जाती है ।
(iii) समंजन-दोनों नेत्रों के प्रयोग से सम्बन्धित एक विशिष्ट प्रक्रिया, जिसमें पक्ष्माभिकी
पेशियों की सहायता से हम प्रतिमा को दृष्टि पटल पर फोकस करते हैं। जैसे ही वस्तु निकट
आती है, मांसपेशियों में संकुचन की क्रिया होने लगती है तथा लेन्स की सघनता बढ़ती जाती है।
दूरी बढ़ने पर मांसपेशियाँ थिथिल हो जाती हैं ।
Q. 10. भ्रम क्यों उत्पन्न होते हैं ? [B.M.2009A]
Ans. किसी वस्तु के लिए प्रत्यक्षण से प्राप्त जानकारी तथा ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त
सूचनाओं में भिन्नता प्रकट होने को भ्रम माना जाता है। जैसे-रस्सी को साँप मान लेना, मालिक
समझकर नौकर का पैर छू लेना भ्रंश का उदाहरण माना जा सकता है।
संवेदी सूचनाओं की सही व्याख्या नहीं कर पाने के कारण भ्रम नामक गलतफहमी उत्पन्न
हो जाती है । गलत प्रत्यक्षण अथवा बाह्य उद्दीपन की स्थिति में दोष, अनुभव की कमी अथवा
ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त सूचनाओं की गलत व्याख्या से प्राप्त होनेवाले गलत प्रत्यक्षण के कारण भ्रम
उत्पन्न होते हैं । प्रेक्षक की योग्यता, अनुभव और सही समझ का अभाव भी भ्रम उत्पन्न होने
के कारण माने जाते हैं । कुछ शारीरिक कमजोरियां तथा परिवेश का अस्वाभाविक हो जाना
(अंधकार, वर्षा) भ्रम के कारण बन जाते हैं। कभी-कभी पूर्वनिर्धारित योजना या समय में अन्तर
आने से भी भ्रम उत्पन्न हो जाते हैं । जैसे, नियत समय रोज आनेवाले डाकिया के बदले कोई
दूसरे व्यक्ति को भी डाकिया समझ लेना, घंटी बजाने पर रोज भोजन की थाली मिलते रहने की
स्थिति में घंटी बजने पर नौकर के हाथ की किताब को भी थाली समझ लेना स्वाभाविक भ्रम है।
अर्थात् भ्रम कारण प्रेक्षक, ज्ञानेन्द्रियों, स्थितियों में आनेवाले अन्तर के साथ-साथ प्राप्त
सूचनाओं की गलत व्याख्या भी है ।
Q.11. सामाजिक-सांकृतिक कारक हमारे प्रत्यक्षण को किस प्रकार प्रभावित करते है?
Ans. हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ अपने बाह्य अथवा आंतरिक जगत के संबंध में मूल सूचना प्रदान
करती हैं । प्राप्त ज्ञान के आधार पर अनेक भौतिक उद्दीपकों के संबंध में वांछनीय जानकारी संग्रह
करते हैं । ज्ञानेन्द्रियों के उद्दीपनों के परिणामस्वरूप हम प्रकाश की क्षण दीप्ति अथवा ध्वनि अथवा
घ्राण का अनुभव करते हैं । ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त सूचनाओं के बारे में उचित व्याख्या करके सूचना
को अर्थवान बनाने का प्रयास किया जाता है जिसमें समाजिक-सांस्कृतिक कारक की सहायता ली
जाती है । वस्तुओं अथवा घटनाओं को पूर्णतः पहचानने के क्रम में निम्न बातें स्पष्ट होती हैं-
(i) प्रत्यक्षणकर्ता की आवश्यकताएँ एवं इच्छाएँ उसके प्रत्यक्षण को अत्यधिक प्रभावित
करती हैं।
(ii) किसी दी गई स्थिति में हम जिसका प्रत्यक्षण कर सकते हैं उसकी प्रत्याशाएँ भी हमारे
प्रत्यक्षण को प्रभावित करती हैं।
(iii) हम जिस तरह पर्यावरण का प्रत्यक्षण करते हैं, उसे प्रयोग में लाई जाने वाली शैली
(संज्ञानात्मक) भी प्रभावित करती है।
(iv) विभिन्न सांस्कृतिक परिवेशों में लोगों को उपलव्य विविध अनुभव एवं अधिगम के
अवसर पर भी उनके प्रत्यक्षण को प्रभावित करते हैं । जैसे, चरित्रविहीन परिवेश से आनेवाले लोग
कलात्मक चित्रों के माध्यम से प्रकट किये जाने वाले भावनात्मक संदेश को नहीं समझ पाते हैं ।
(v) स्थान, क्षेत्र, योग्यता, दशा, स्थिति आदि मानवीय विषमताओं से भी प्रत्यक्षण स्पष्टता
प्रभावित करता है । जैसे, शहरी लोगों की तुलना में जंगली लोग कम्प्यूटर के संबंध में बहुत कम
जानकारी व्यक्त करते हैं। संगीत का जानकार किसी वाद्य-यंत्रों से उत्पन्न ध्वनि में लय का पता
लगा सकता है । भूखा व्यक्ति दो और दो का योगफल चार रोटियाँ बतलाना है, चार कलम नहीं।
(vi) प्रत्यक्षण की प्रक्रिया में प्रत्यक्षणकर्ता की अहम भूमिका होती है। उनमें इतना क्षमता
तो होनी ही चाहिए कि लोगों के द्वारा व्यक्त प्रत्युत्तरों में से सार्थक सूचनाओं को छोर सके ।
(vii) लोग अपनी व्यक्तिगत, सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थितियों के आधार पर उद्दीपकों
का प्रक्रमण एवं व्याख्या अपने ढंग से करते हैं । इनमें उचित संशोधन की आवश्यकता होती है।
(viii) गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों के द्वारा दिये गये सिद्धान्तों (निकटता, समानता, निरंतरता,
लघुता, सममिति का सिद्धान्त प्रत्यक्षण के लिए आवश्यक तत्त्वों की जानकारी देते हैं ।
(ix) प्रत्यक्षण के लिए एकनेत्री संकेत तथा द्विनेत्री संकेतों की उपयोगिता आवश्यक
मनोवैज्ञानिक संकेत है।
(x) प्रत्यक्षण के लिए द्विविम तथा त्रिविम सतहों का अध्ययन उपयोगी सिद्ध होता है।
(xi) प्रत्यक्षण पर लोगों की रुचि और संस्कार के साथ-साथ आवास तथा पेशा (नौकरी,
इकानदारी) से प्राप्त अनुभव और प्रतिक्रिया का ध्यान रखना आवश्यक होता है ।
अतः सामाजिक-सांस्कृतिक कारक हमारे प्रत्यक्षण को प्रत्यक्षतः प्रभावित करते हैं ।
अन्य महत्त्वपूर्ण परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर
वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर
(OBJECTIVE ANSWER TYPE QUESTIONS)
1. अवधान के कितने प्रकार हैं : [B.M. 2009A]
(a) 1
(c) 2
(b) 3
(d) 4 (उत्तर-C)
अति लघु उत्तरीय प्रश्न
(VERY SHORT ANSWER TYPE QUESTIONS)
Q.1. जगत का ज्ञान हमें किस तरह मिलता है ?
Ans. जगत में पाई जानेवाली तरह-तरह की वस्तुओं का ज्ञान हमें ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा दी
गई सूचनाओं के आधार पर मिलता है।
Q.2. हमारे पास कुल कितनी ज्ञानेन्द्रियाँ हैं ?
Ans. हमारे पास कुल सात ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । पाँच संवेदन ग्राही (आँख, कान, नाक, जीभ
और त्वचा) तथा दो (गतिसंवेदी और प्रधान तंत्र) गहन इन्द्रियाँ हैं ।
Q.3. वस्तुओं की सही पहचान के प्रमुख आधार क्या हैं ?
Ans. वस्तुओं की सही पहचान उसके आकार, रंग, आकृति, स्वभाव, कठोरता आदि की
परख के आधार पर की जाती है।
Q.4. जगत का ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें किन-किन प्रक्रियाओं पर निर्भर रहना
होता है ?
Ans. संवेदना, अवधान और प्रत्यक्षण तीन ऐसी प्रक्रिया है जिन पर हम वस्तुओं के
वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति के लिए निर्भर रहते हैं।
Q. 5. उद्दीपक के स्वरूप और विविधता को एक-एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करें ।
Ans. (i) देखे जाने योग्य उद्दीपक-घर, मन्दिर ।
(ii) सुने जा सकते हैं-संगीत, कोलाहल
(iii) जिन्हें हम सूंघ कर गन्ध जान सकते हैं-फूल, इत्र ।
(iv) जिसका स्वाद ग्रहण कर सकते हैं-मिठाई, चटनी ।
(v) जिससे स्पर्श का अनुभव होता है-चिकनी सतह, रुखड़ा टेबुल ।
(vi) जो स्वभाव का बोध कराता है-द्युतिमान, धुंधला ।
(vii) जो कानों को प्रभावित करता है-श्रुतिमधुर, कर्णप्रिय ।
Q.6. संवेदन की परिभाषा दें।
Ans. संवेदन की परिभाषा देते हुए यह कहा जा सकता है कि संवेदन एक सरलतम
संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से उपस्थित उद्दीपनों का केवल आभास होता है।
Q.7.स्पष्ट संवेदन के होने के लिए कौन तत्त्व आवश्यक है?
Ans. स्पष्ट संवेदन के होने के उद्दीपनों में स्पष्टता और तीव्रता होना आवश्यक है।साथ
ही उद्दीपन कुछ विशेष अवधि के लिए व्यक्ति के सामने उपस्थित होना चाहिए ।
Q.8. संवेदना की परिभाषा क्या है ?
Ans. संवेदना एक सरल ज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसमें उपस्थित उत्तेजना का
तात्कालिक ज्ञान प्राप्त होता है।
Q.9. संवेदना किस प्रकार की मानसिक प्रक्रिया है ?
Ans. संवेदना सरल एवं ज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है ।
Q. 10. संवेदना के गुण कौन-कौन हैं ?
Ans. टिचनर से संवेदना के चार गुणों की चर्चा की है । प्रकार, तीव्रता, स्पष्टता तथा
संताकाल इसके आलावा स्टाउट ने दो और गुणों की चर्चा की है-विस्तार तथा स्थानीय चिन्ह ।
Q. 11. श्रवण संवेदन का संबंध किससे रहता है ?
Ans. श्रवण संवेदन का संबंध शंखपालि से रहता है ।
Q. 12. कोई संवेदना किस न्यूरॉन से प्राप्त होती है ?
Ans. कोई संवेदना संवेदी न्यूरॉन से प्राप्त होती है ।
Q.13. किसी उद्दीपन के प्रति प्राणी की प्रथम अनुक्रिया को क्या कहा जाता है ?
Ans. किसी उद्दीपन के प्रति प्राणी की प्रथम अनुक्रिया संवेदना है
Q.14. मस्तिष्क का कौन हिस्सा श्रवण संवेदना के लिए जिम्मेवार होता है ?
Ans. श्रवण संवेदना के लिए मस्तिष्क में शंखपालि जिम्मेवार होता है।
Q.15. संवेदन प्रकारताओं की उपयोगिता बतावें ।
Ans. संवेदन प्रकारताएँ भिन्न-भिन्न प्रकार के उद्दीपकों से प्राप्त सूचनाओं के परस्पर संबंध
के द्वारा विशिष्ट जानकारियों का पता लगाते हैं ।
Q.16. ज्ञानेन्द्रियों की प्रकार्यात्मक सीमाओं को बतलाने वाले उदाहरण दें।
Ans. हमारी आँखें वैसी वस्तुओं को देखने में असमर्थ हो जाती हैं जो बहुत ही धुंधला
हो या बहुत ही चमकदार हो । पानी में चीनी का एक निश्चित परिमाण मिलाने पर ही उसका
स्वाद मीठा प्रतीत होता है।
Q.17. वस्तु को दृश्यमान बनाने के लिए आरोपित प्रकाश के तरंगदैर्घ्य का परास
क्या होना चाहिए?
Ans. हमारी आँखें 380 नैनीमीटर से 780 नैनीमीटर तक के तरंगदैर्घ्य वाले प्रकाश के प्रति
संवेदनशील बनकर वस्तु को दृश्यमान बनाता है ।
Q.18. मानव आँख की गोलक की सबसे ऊपरी परत को क्या कहा जाता है ?
Ans. श्वेत पटल ।
Q.20. मानव आँख के किस हिस्से में खून की आपूर्ति नहीं होती है ?
Ans. कॉर्निया तथा लेंस दोनों में खून की आपूर्ति नहीं होती है ।
Q.21. आँख के (नेत्र गोलक के) बाहरी भाग को क्या कहा जाता है ?
Ans. नेत्र गोलक के बाहरी भाग को बाह्य पटल या श्वेत पटल कहते हैं
Q.22. नेत्र गोलक के बीच में कौन-सा तरल पदार्थ भरा होता है ?
Ans. नेत्र गोलक के बीच में काँच द्रव्य भरा होता है।
2.23. रेटिना पर कौन-कौन सेल पाया जाता है ?
Ans. रेटिना पर दण्ड एवं सूचियाँ पायी जाती हैं ?
Q.24. फेबिया पर किस सेल की मात्रा अधिक होती है ?
Ans. फेबिया पर सूचियों की मात्रा अधिक होती है ।
Q.25. अंध बिन्दु किसे कहते हैं ?
Ans. अन्तः पटल पर फेबिया के बगल में एक ऐसा स्थान है जहाँ न तो दण्ड होती है
और न सूचियाँ, उस स्थान को अंधबिन्दु कहते हैं। इस स्थान पर प्रकाश पड़ने से कोई प्रतिक्रिया
नहीं होती है।
Q.26. दण्ड और सूचियाँ क्या हैं ?
Ans. दण्ड और सूचियाँ ग्राहक कोष हैं जो आँखों में रेटिना पर होती है । तेज प्रकाश
में सूचियाँ सक्रिय होती हैं जबकि मन्द प्रकाश में दण्ड सक्रिय होता है ।
Q.27. दृष्टि-संवेदना मस्तिष्क के किस भाग से सम्पन्न होती है?
Ans. दृष्टि-संवेदना ऑक्सीविटल लोब से सम्पन्न होती है ।
Q.28. तेज रोशनी आँख पर पड़ने से पुतली का आकार कैसा हो जाता है?
Ans. तेज रोशनी आँख पर पड़ने से पुतली का आकार छोटा हो जाता है।
Q.29. प्रकाश ग्राही की दृष्टि से दंड और शंकु की विशेषता बतावें ।
Ans. दण्ड-शलाका दृष्ट (रात्रि दृष्टि, मंद प्रकाश) के ग्राही होते हैं जबकि शंकु को
प्रकाशानुकूली (दिवा प्रकाश) के ग्राही मानते हैं । अर्थात् दण्ड प्रकाश की निम्न तीव्रता में कार्य
करते हैं तथा शंकु उच्च स्तर के तेज प्रकाश में सक्रिय रहते हैं।
Q.30. प्रकाश एवं अंधकार अनुकूलन के प्रकाश-रासायनिक आधार क्या है?
Ans, दण्ड में संयुक्त रोडोप्सिन नामक रासायनिक पदार्थ के अणु प्रकाश के प्रतिकूल
परिमाण के कारण टूट जाते हैं जिससे आँख प्रकाश अनुकूलन म सक्षम हो जाता है।’
तम-व्यनुकूलन को विटामिन ‘ए’ की सहायता से आँखों को पुनः स्थापित किया जाता है।
Q.31. रंगों के तीन मूल विमाओं के नाम बतावें ।
Ans. रंगों के तीन मूल विमाएँ हैं-वर्ण, संतृप्ति तथा द्युति ।
Q. 32. लाल, नीला और हरा रंग के लिए तरंगदैर्घ्य का औसत मान बतावें।
Ans. लाल रंग का तरंगदैर्घ्य – 780 नैनीमीटर
नीले रंग का तरंगदैर्घ्य – 465 नैनीमीटर
हरे रंग का तरंगदैर्घ्य – 500 नैनीमीटर
Q.33. उत्तर प्रतिमाएंँ क्या होती हैं ?
Ans. किसी दृष्टि क्षेत्र से चाक्षुष उद्दीपन के हट जाने पर भी कुछ समय तक उद्दीपक का
प्रभाव बना रहता है । इसी विशिष्ट प्रभाव को उत्तर प्रतिमा कहते हैं।
Q.34. श्रवण संवेदना कब प्रारम्भ होता है ?
Ans. भाषित सम्प्रेषण से सम्बन्धित श्रवण संवेदना का प्रारम्भ तब होता है जब कोई ध्वनि
तरंग हमारे कान में प्रवेश करती है।
Q.35. बाहरी कान का हिस्सा क्या कहलाता है ?
Ans. बाहरी कान का हिस्सा पिन्ना कहलाता है ।
Q. 36. मध्यकान में स्थित तीन छोटी-छोटी हड्डियों को क्या कहा जाता है ।
Ans- मध्यकान में तीन छोटी-छोटी हड्डियों को निहाई, रिकाव एवं हथौड़ा कहा
जाता है।
Q.37. अन्दरुनी कान की शुरुआत किससे होती है ?
Ans. अन्दरुनी कान की शुरुआत कर्णपट्ट से होती है ।
Q.38. मध्य कर्ण का प्रमुख कार्य क्या है ?
Ans. मध्य कर्ण का प्रमुख कार्य ध्वनि-तरंगों की तीव्रता को बढ़ाना है।
Q.39. कर्ण दोल का स्थान कहाँ है?
Ans. कर्ण दोल या कर्ण पटल बाह्य कान एवं मध्य कान के बीच में होता है।
Q. 40. अर्द्धवृत्ताकर नालिका का क्या लाभ है ?
Ans. अर्धवृत्ताकार नालिका अन्त: कर्ण में स्थित होती है जो शारीरिक संतुलन बनाए रखने
का काम करती है।
Q.41. कोकलिया का आकार किस तरह का होता है?
Ans. कोकलिया का आकार शंख या धुंधे के समान होता है।
Q. 42. ध्वनि का संचरण किस प्रकार होता है ?
Ans. ध्वनि कान के लिए उद्दीपक होती है जो बाहरी परिवेश में दाब में भिन्नता आने से
प्रकट होता है । ध्वनि का संरचन थंग और गर्त के एकान्तर क्रम से होता है । कभी-कभी खासकर
गैसीय माध्यम में ध्वनि संपीडन और विरलन के माध्यम से आगे बढ़ता है ।
Q. 43. तरंगदैर्घ्य क्या होती है ?
Ans. दो क्रमागत श्रृंगों के बीच की दूरी को तरंगदैर्घ्य कहते हैं
Q. 44. तरंगदैर्घ्य, आवृत्ति और ध्वनि किस मात्रक से मापा जाता है ?
Ans. तरंगदैर्घ्य का मात्रक एंगस्ट्रम है । आवृत्ति का मात्रक ह (Hz) है । ध्वनि की तीव्रता
डेसिबल में मापी जाती है।
Q.45. अवधान किसे कहते हैं ?
Ans. कई उद्दीपकों का एक साथ सक्रिय हो जाने पर किसी एक को अध्ययन अथवा कार्य
हेतु चुनकर उस पर ध्यान केन्द्रित करना अवधान कहलाता है ।
Q.46. अवधान या ध्यान का क्या अर्थ है ?
Ans. अवधान या ध्यान एक चयनात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति एक विशेष
शारीरिक मुद्रा बनाकर किसी वस्तु को चेतना केन्द्र में लाने के लिए कोशिश करता है ।
Q.47. अवधान के वस्तुनिष्ठ निर्धारक का क्या अर्थ है ?
Ans. अवधान के वस्तुनिष्ठ निर्धारक का अर्थ उद्दीपन की उन विशेषताओं या गुणों से
होता है जिनके कारण व्यक्ति का ध्यान उस उद्दीपन की ओर चला जाता है ।
Q.48. अवधान के आत्मनिष्ठ निर्धारक का क्या अर्थ है ?
Ans. अवधान या ध्यान के आत्मनिष्ठ निर्धारक का अर्थ उन आत्मगत तथा व्यक्तिगत
कारकों से होता है जिनके कारण व्यक्ति किसी वस्तु या उद्दीपन पर ध्यान देता है ।
Q.49. अवधान के अतिरिक्त कौन-सा बिन्दु है जो सहायक माने जाते हैं ?
Ans. चयन के अतिरिक्त अवधान अन्य गुणों जैसे-सतकर्ता, एकाग्रता तथा खोज से भी
संबंधित होते हैं।
Q.50. अवधान के दो मुख्य रूप क्या हैं ?
Ans. (क) चयनात्मक अवधान और (ख) संधृत अवधान ।
Q.51. चयनात्मक अवधान से संबंधित बाह्य कारक के प्रमुख तत्त्व (आधार)
क्या हैं ?
Ans. उद्दीपकों के आकार, तीव्रता और गति अवधान के प्रमुख आधार माने जाते हैं ।
Q.52. चयनात्मक अवधारणा से संबंधित आंतरिक कारक के दो मुख्य रूप क्या हैं ?
Ans. (क) अभिप्रेरणात्मक तथा (ख) संज्ञानात्मक ।
Q. 53. संज्ञानात्मक कारक के लिए किन विशेषताओं पर अधिक बल दिया
जाता है?
Ans. अवधान से संबंधित संज्ञानात्मक कारक की सफलता अभिव्यक्ति और पूर्वविन्यास
पर आधारित होती है ।
Q.54. निम्न सिद्धान्तों का विकास किसने और कब किया ?
(क) निस्पंदन क्षीणन सिद्धान्त (ख) बहुविधिक सिद्धान्त ।
Ans. (क) ट्रायसमैन के द्वारा सन् 1962 में और
(ख) जॉनसटन के द्वारा सन् 1978 में विकास किया गया था ।
Q.55. संधृत अवधान के प्रभावित कारक कौन-कौन हैं ?
Ans. (i) संवेदन प्रकारता, (ii) उद्दीपन की स्पष्टता, (iii) स्थानिक अनिश्चितता ।
Q.56. प्रत्यक्षण की परिभाषा दें।
Ans. प्रत्यक्षण को परिभाषित करते हुए यह कहा जा सकता है कि यह एक जटिल
संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा वातावरण में उपस्थित उद्दीपन का तात्कालिक ज्ञान
होता है।
Q.57. देश प्रत्यक्षीकरण से आप क्या समझते हैं ?
Ans. देश प्रत्यक्षीकरण विस्तार प्रत्यक्ष मुख्य रूप से तीन तत्त्वों पर आधारित होता
है-व्याप्ति, स्थानीय चिन्ह और गीत । इन तीनों के द्वारा जो प्रत्यक्षीकरण होता है उसे देश
प्रत्यक्षीकरण कहा जाता है।
Q.58. प्रत्यक्षीकरण की समुचित परिभाषा क्या है ?
Ans. प्रत्यक्षीकरण एक जटिल ज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसमें उपस्थित उद्दीपन का
तात्कालिक ज्ञान प्राप्त होता है।
Q.59. प्रत्यक्षीकरण किस प्रकार की मानसिक प्रक्रिया है ?
Ans. प्रत्यक्षीकरण जटिल एवं ज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है।
Q. 60. प्रत्यक्षीकरण में कौन-कौन प्रक्रिया शामिल रहती है ?
Ans. प्रत्यक्षीकरण में चार उप-प्रक्रियाएँ शामिल होती हैं-ग्राहक प्रक्रिया, प्रतीकात्मक
प्रक्रिया, एकीकरण की प्रक्रिया एवं भावात्मक प्रक्रिया ।
Q.61. प्रत्यक्षीकरण में प्रतीकातक प्रक्रिया क्या है ?
Ans. व्यक्ति जब किसी उत्तेजना का प्रत्यक्षीकरण करता है तो अपने पूर्व अनुभति के कारण
उस उत्तेजना से संबंधित कुछ अनुभव उसे प्रतीक के रूप में स्वत: आ जाते हैं जिसे प्रतीकात्मक
प्रक्रिया कहते हैं।
Q. 62. प्रत्यक्षीकरण में भावात्मक प्रक्रिया किसे कहते हैं ?
Ans- किसी उद्दीपन का प्रत्यक्षीकरण के पश्चात् व्यक्ति उस वस्तु के प्रति सुखद या दुखद
भाव का अनुभव करता है जिसे भावात्मक प्रक्रिया कहते हैं।
Q.63. संज्ञानात्मक शैली से क्या समझते हैं ?
Ans. किसी विषय, घटना अथवा उद्दीपकों के संबंध में किए जाने वाले अध्ययनों में व्यापक
रूप से प्रयुक्त शैली (क्षेत्र आश्रित या क्षेत्र अनाश्रित) को मनोवैज्ञानिक शैली कहते हैं।
Q.64. गेस्टाल्ट क्या है?
Ans. गेस्टाल्ट एक नियमित आकृति या रूप को कहते हैं ।
Q. 65. गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों ने वस्तु को किस रूप में देखा ?
Ans. गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों के अनुसार किसी वस्तु का रूप उसके सम्र में होता है ।
Q. 66. प्रमस्तिष्कीय प्रक्रियाएँ किस ओर उन्मुख होती हैं ?
Ans. गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों के मतानुसार प्रमस्तिष्कीय प्रक्रियाएँ सदैव अच्छी आकृति की
ओर उन्मुख होती हैं।
Q. 67. गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों के द्वारा दिये गये पूर्ति का सिद्धान्त का कथन क्या है?
Ans- उद्दीपन के आकृति निरूपण में जो अंश रिक्त (लुप्त या अधूरे) रह जाता है उसे
पूरा करने पर वस्तुओं का प्रत्यक्षण उनके अलग-अलग भागों के रूप के बदले समग्र आकृति
का बोध कराता है।
Q.68. एकनेत्री संकेत किस प्रकार के निर्णय लेने में हमारी सहायता करता है?
Ans. एकनेत्री संकेत द्विविम सतहों में गहराई एवं दूरी का निर्णय लेने में हमारी सहायता
करते हैं।
Q. 69. रचना गुण प्रवणता से क्या अभिप्राय निकलता है ?
Ans. रचना गुण प्रवणता एकनेत्री संकेत से सम्बन्धित एक ऐसा गोचर है जिसके द्वारा
हमारे चाक्षुष क्षेत्र, जिनमें तत्त्वों की सघनता अधिक होती है, दूरी पर होने का आभास देते हैं।
Q.70. भ्रम किसे कहते हैं ? [B.M.2009A]
Ans. ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त सूचनाओं की गलत व्याख्या से उत्पन्न गलत प्रत्यक्षण को
सामान्यतया भ्रम कहते हैं।
Q.71. कुछ प्रात्यायिक भ्रम सार्वभौम होते हैं । उदाहरण देकर स्पष्ट करें ।
Ans. कुछ प्रात्यायिक भ्रम सब लोगों के लिए समान अर्थ बतलाते हैं । जैसे दूरी बढ़ते
जाने पर रेल की पटरियाँ परस्पर एक-दूसरे के निकट आती हुई प्रतीत होती हैं तब दोनों पटरियों
के बीच की दूरी सब जगह समान होती है । इसी प्रकार ऊँचाई से देखने पर पिण्ड का आकार
छोटा हो जाता है।
Q.72. संवेदना और प्रत्यक्षीकरण क्या अंतर है?
Ans. संवेदना में उपस्थित उद्दीपन का सही अर्थरहित ज्ञान होता है, जबकि प्रत्यक्षीकरण
में उपस्थित उद्दीपन का अर्थ सहित ज्ञान होता है ।
Q.73. विपर्यय से क्या तात्पर्य है ?
Ans. विपर्यय एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति को उपस्थिति उद्दीपन का गलत
ज्ञान प्राप्त होता है।
Q.74. विभ्रम किसे कहते हैं ?
Ans. विभ्रम एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति को उद्दीपन की अनुपस्थिति में
ही उसका ज्ञान या अनुमान होता है।
Q.75. प्रत्यक्षण पर सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव को स्पष्ट करें।
Ans. प्रत्यक्षण पर लोगों के निवास स्थान, भाषा, आदत, पेशा, आर्थिक स्थिति, सामाजिक
व्यवहार आदि का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है । इसके कारण लोगों में प्रात्यक्षिक अनुमान की कुछ
आदतों एवं उद्दीपकों की प्रमुखता के प्रति विभेदक अंतरंगता उत्पन्न कर कार्य करते हैं ।
लघु उत्तरीय प्रश्न
(SHORT ANSWER TYPE QUESTION)
Q.1. जगत का ज्ञान प्राप्त करने में हमारी सहायता कौन करता है?
Ans. सम्पूर्ण जगत वस्तुओं, लोगों तथा घटनाओं की विविधता से पूर्ण है। हम उनमें से
प्रत्येक कारक के संबंध में सब कुछ जान लेना चाहते हैं । विविध वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करने
में हमारी सहायता सात ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख, कान, नाक, जीभ, त्वचा, गति संवेदी तथा प्रधान तंत्र)
करती हैं। हमारी ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा दी गई सूचनाएँ ही हमारे समस्त ज्ञान का आधार है । ज्ञानेन्द्रियों
वस्तुओं के आकार, आकृति, रंग के साथ-साथ अन्य विशेषताओं का अनुभव पाने का अवसर
देती हैं । जगत का ज्ञान तीन प्रमुख प्रक्रियाओं-संवेदन, अवधान तथा प्रत्यक्षण पर निर्भर करता
है । ये तीनों प्रक्रियाएँ परस्पर अंतर्संबंधित होती हैं । फलतः इन्हें एक ही प्रक्रिया-संज्ञान के विभिन्न
अंशों के रूप में समझ लिया जाता है।
देखना (नेत्र), सुनना (कान), सूंघना (नाक), चखना (जीभ), स्पर्श (त्वचा) से जुड़े
अनभवों के साथ हमें संगीत का लय, कपड़े की चिकनाहट, धुंधला प्रकाश, शक्तिशाली बिजली,
असह्य गर्मी, भयानक चेहरा, क्रोधाग्नि, खुशी, हँसी-मजाक आदि का अनुभव पाने में ज्ञानेन्द्रियाँ
हमारी सहायता करता है क्योंकि हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ मात्र बाहा जगत से ही नहीं बल्कि हमारे अपने
शरीर से भी सूचनाएँ संग्रह कर लेती हैं। बाह्य अथवा आंतरिक जगत के संबंध में प्राप्त होनेवाली
सूचनाओं से हमें तरह-तरह के अनुभव मिलते हैं और हम उद्दीपकों के विविध गुणों को पहचानने
लगते हैं । अनुभव ही ज्ञान के रूप में हमें निखारता है।
Q.2. भेद सीमा अथवा भेद देहली (DL) से क्या समझते हैं ?
Ans. मनोभौतिकी के अध्ययन से पता चलता है कि ज्ञानेन्द्रियों तथा उद्दीपकों के कार्य करने
के लिए उत्तेजक को एक निर्धारित सीमा के अन्दर पहुंँचाना आवश्यक है । जैसे, धुंधले प्रकाश
में अथवा बहुत ही तीव्र रोशनी के कारण हम पढ़ नहीं पाते हैं। शोर या कोलाहल की तीव्रता
के कारण हम किसी कथन का सही अर्थ समझ नहीं पाते हैं। किसी विशेष संवेदी तंत्र को
क्रियाशील करने के लिए जो न्यूनतम मूल्य अपेक्षित होता है उसे निरपेक्ष सीमा अथवा निरपेक्ष
देहली कहते हैं। जैसे, एक ग्लास पानी को मीठा बनाने के लिए कम-से-कम कितनी चीनी की
आवश्यकता होती है यह मिठास की निरपेक्ष सीमा कहलाती है। निरपेक्ष सीमा व्यक्तियों अथवा
परिस्थितियों के बदलने से बदल जा सकती है। उद्दीपकों के मध्य अन्तर कर पाना भी संभव
नहीं होता है। इसके लिए इतना तो जानना आवश्यक हो जाता है कि उद्दीपकों के मान में न्यूनतम
अन्तर क्या होना चाहिए । आवश्यक न्यूनतम अन्तर को भेद सीमा अथवा भेद देहली माना जाता
है। ज्ञातव्य है कि विविध प्रकार के उद्दीपकों (चाक्षुष, श्रवण) की निरपेक्ष देहली को समझे बिना
संवेदना को समझना असंभव हो जाता है।
Q.3. संवेदन का अर्थ बतावें ।
Ans. संवेदन एक सरलतम संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से उपस्थित
उद्दीपनों का आभासमात्र होता है। इससे स्पष्ट है कि संवदेन में अर्थहीनता तथा अस्पष्टता होती
है। इसके द्वारा उद्दीपनों का यथार्थ ज्ञान न होकर मात्र उनका आभास होता है । सवेदन चूँकि
एक सरलतम आरंभिक मानसिक प्रक्रिया है, अतः इसका विश्लेषण संभव नहीं है । यही कारण
है कि बच्चे, वयस्क तथा बूढ़े किसी को भी शुद्ध संवेदन (pure sensation) नहीं हो पाता है।
Q.4. क्या व्यक्ति को शुद्ध संवेदन होता है ?
Ans. शुद्ध संवेदन का संप्रत्यय (concept) एक सैद्धांतिक संप्रत्यय है । हमलोग यह मान
लेते हैं कि प्रत्यक्षण, चिंतन आदि के पहले उद्दीपनों का शुद्ध संवेदन होता है और जब उसमें कुछ
विशेष अर्थ जोड़ दिया जाता है, तो उसका प्रत्यक्षण होता है । लेकिन, व्यावहारिक रूप में ऐसा
नहीं होता है । सच्चाई यह है कि हमें किसी वस्तु या उद्दीपन का अर्थहीन ज्ञान या शुद्ध संवेदन
नहीं होता है । हम जैसे ही किसी उद्दीपन पर ध्यान देते हैं, तो एक अर्थपूर्ण ज्ञान होता है न कि
पहले उसका शुद्ध संवेदन और तब उसके अर्थ का ज्ञान । कुछ लोगों का मत है कि बच्चे को
शुद्ध संवेदन होता है। परंतु उनका यह मत भी सही नहीं है; क्योंकि बच्चे जब भी किसी उद्दीपन
या वस्तु पर ध्यान देते हैं तो उसका कोई-न-कोई अर्थ अवश्य लगाते हैं, भले ही वह अर्थ गलत
ही क्यों न हो । निष्कर्ष यह है कि बच्चे, वयस्क तथा बूढा कोई भी व्यक्ति क्यों न हो उसमें
शुद्ध संवेदन नहीं होता है।
Q.5. दृष्टिपटल की बनावट तथा कार्य का वर्णन करें।
Ans. दृष्टिपटल (retina) आँख का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग होता है । इससे दो तरह की
प्रकाशग्राही कोशिकाएँ (light-receptor cells) होती हैं-शलाकाएँ (rods) तथा सूचियाँ (cones) ।
शलाकाओं के उत्तेजित होने पर रंगहीन संवेदन होते हैं तथा सूचियों के उत्तेजित होने पर रंगीत
संवेदन होते हैं । शलाकाएँ धूमिल रोशनी तथा रात में देखने में मदद करती हैं तथा सूचियाँ तीव्र
रोशनी एवं दिन में देखने में मदद करती हैं । दृष्टितम का वह स्थान जहाँ केवल सूचियाँ (cones)
ही पाई जाती हैं, को फोबिया (fovea) कहा जाता है । इसे स्पष्टतम दृष्टि बिन्दु भी कहा जाता
है। दृष्टिपटल का वह भाग जहाँ से दृष्टि तंत्रिका निकलकर मस्तिष्क में पहुँचती है, उसे अंधबिन्दु
(blind spot) कहा जाता है जहाँ से देखना संभव नहीं हो पाता है । दृष्टि तंत्रिका आवेग इसी
तंत्रिका से होकर मस्तिष्क में पहुँचता है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति को दृष्टि संवेदन या प्रत्यक्षण
होता है।
Q. 6. लेंस की बनावट या संरचना तथा कार्य पर प्रकाश डालें ।
Ans. लेंस मानव आँख के मध्य पटल (choroid) का एक प्रमुख हिस्सा है। लेंस का
स्थान पुतली के पीछे होता है। लेंस में खुन की आपूर्ति (supply) नहीं होती है। फलतः यह
अपना पोषक पदार्थ जल द्रव (aqueoushumour) से ही प्राप्त करता है। इसका प्रधान कार्य
पुतली द्वारा भीतर आनेवाली रोशनी को आँख की भीतरी सतह की एक विशेष जगह पर पहुंँचा
देना होता है । लेंस की विशेषता यह कि यह फोटो खींचनेवाले कैमरा के लेंस के समान ही यह
लेंस भी किसी वस्तु की प्रतिमा को उल्टा करके आँख के भीतरी भाग की निर्धारित जगह पहुँचा
देता है । इसका छोटा या बड़ा होना इसके दोनों किनारों पर स्थित मांसपेशियों जिन्हें पक्ष्माभिकी
मांसपेशियाँ (ciliary muscles) कहा जाता है, पर निर्भर करता है । सामान्यतः लेंस नजदीक की
चीजों को देखने के लिए छोटा हो जाता है तथा दूर की चीजों के देखने के लिए बड़ा हो
जाता है।
Q.7.श्वेत पटल से आप क्या समझते हैं ?
Ans. श्वेत पटल (Selerotic covat)- श्वेत पटल नेत्र गोलक की सबसे ऊपरी सतह
है। यह कड़ा तथा इसका रंग उजला होता है । यह अपारदर्शी है, अतः इससे होकर प्रकाश अन्दर
नहीं आता । कड़ा होने के कारण यह बाहर के किसी भी प्रकार के आघात से आँख की रक्षा
करता है। साथ ही, इसके अपारदर्शी होने के कारण प्रकाश चारों ओर से आँख में प्रवेश नहीं
करता, फलतः किसी चीज को हम ठीक से देख पाते हैं। श्वेत-पटल का अगला भाग उभरा
तथा पारदर्शी है। इसी के द्वारा प्रकाश आँख में प्रवेश करता है । श्वेत-पटल के इस पारदर्शी
भाग को कोर्निया कहते हैं।
Q.8. मध्य पटल का वर्णन करें?
Ans. मध्य पटल (Choroid)—यह आँख का दूसरा आवरण है । यह प्राय: काले और
भूरे रंग का होता है। यह भी पूर्णतः अपारदर्शी होता है अतः इससे भी प्रकाश का अन्दर प्रवेश
करना संभव नहीं है। इसके आगे भाग को उपतारा (Iris) कहते हैं । उपतारा कनीनिका (Cornea)
के पीछे होता है। इसका प्रधान कार्य प्रकाश ग्रहण करना है। कनीनिका और उपतारा के बीच
का स्थान जल द्रव से भरा रहता है। उपतारा के मध्य में पुतली है। उपतारा एवं पुतली से सटे
पीछे लेंस है । पुतली से जो प्रकाश आँखों में प्रवेश करता है उसकों अक्षि-पटल में यथास्थान
पहुँचाने का काम लेंस का है । लेंस नजदीक की चीजों को देखने के लिए छोटा तथा दूर की
चीजों को बड़ा होकर देखता है। लेंस का छोटा, उभरा एवं बाहर निकलना या बड़ा, चिपटा होना
इसके दोनों ओर लगे मांसपेशियों पर निर्भर करता है। यह सिलियरी पेशियों के साथ-साथ कुछ
और पतली-पतली तार जैसी माँसपेशियाँ सिलियरी पेशी से निकलकर लेंस से मिली हुई हैं । ये
माँसपेशियाँ साइकिल के ‘स्कोप’ की तरह लगी हैं। इनमें सस्पेंसरी लिगामेंट रहते हैं । इनका प्रमुख
कार्य लेंस को उनकी जगह पर संतुलित रूप में रखना है । लेंस के पीछे की जगह में काँच द्रव
भरा रहता है। यह एक पारदर्शी द्रव है। इसका कार्य आँख के स्वरूप या नेत्रगोलक को कायम
रखना है । आँख के फूट जाने पर यह द्रव बाहर निकल जाता है जिससे दृष्टि-संवेदना नहीं
होती है।
Q.9. दृष्टि पटल का वर्णन करें ।
Ans. अक्षि-पटल या दृष्टि-पटल (Retina)मध्य के नीचे आँख की तीसरी और
सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण सतह दृष्टि-पटल है । इसका प्रधान कार्य प्रकाश को ग्रहण करना है।
श्वेत-पटल तथा मध्य-पटल का काम मात्र प्रकाश को यहाँ तक पहुँचा देने का है । प्रकाश को
ग्रहण करने के लिए दृष्टि-पटल में कुछ खास कोष (Cells) हैं, जिन्हें ग्राहक-कोशिकाएँ कहते
हैं। दृष्टि-पटल की ग्राहक कोशिकाएँ दो प्रकार की होती हैं-एक को शलाका (Rods) कहते
हैं तथा दूसरे को सूचियाँ (Cones| शलाकाएँ आकार में लम्बी और पतली होती हैं। दूसरी
ओर, सूचियाँ कुछ मोटी और छोटी होती हैं। रचना में इनमें अन्तर तो है ही, साथ ही इनके कार्य
में भी अन्तर है । शलाकाएँ अन्धकार या धूमिल प्रकाश में क्रियाशील होती हैं। और सूचियाँ
तेज प्रकाश में कार्य करती हैं। हम ऐसे व्यक्तियों को जानते हैं जिन्हें रात में नजर नहीं आता।
इनकी आँख की शलाकाएँ कमजोर अथवा क्षतिग्रस्त हुई रहती हैं। उसी तरह चमगादड़ या उल्लू
को दिन में नजर नहीं आता । इसका कारण भी यही है कि इनमें सूचियों का अभाव रहता है।
शलाका और सूचियों के कार्य में एक अन्तर है । लाल, हरा, नीला, पीला आदि तरह-तरह के
रंगों की संवेदना सूचियों के क्रियाशील होने से होती है। रंगविहीन का अर्थ उजली, काली और
भूरी चीजों से है। इसी तरह प्रकाश और रंग के अनुसार हम शलाका या सूचियों के द्वारा किसी
चीज को ग्रहण करते हैं। संक्षेप में हम कह सकते है कि प्रकाश और रंगों का सवेदन सूचियों
के सहारे होता है और अन्धकार तथा रंगहीन चीजों की संवेदना शलाकाओं की मदद से
होती है।
दृष्टि पटल के बीच थोड़ी-सी एक धंसी हुई जगह है जिसे फोबिया कहते हैं । फोबिया
में केवल सूचियाँ पायी जाती हैं । फलस्वरूप जब किसी देखी जानेवाली चीज की प्रतिमा फोबिया
पर पड़ती है तो वह बहुत अधिक स्पष्ट दीख पड़ती है। यही कारण है कि इसे स्पष्टतम दृष्टि-बिन्दु
कहते हैं। फोबिया से बाहर ज्यों-ज्यों हम दृष्टि-पटल के छोर की ओर बढ़ते हैं, शलाकाओं की
संख्या बढ़ती जाती है और सूचियों की संख्या कम होती जाती है। पक्ष्माभिकी पेशियों के निकट
तो सूचियाँ इतनी कम हैं कि वहाँ केवल शलाकाएँ मालूम पड़ती हैं ।
Q. 10. बाह्य कर्ण से आप क्या समझते हैं ?
Ans. बाह्य कर्ण (Outer Ear)—बाहा कर्ण कान का वह भाग है जो बाहर से दिखाई
पड़ता है। इसके दो भाग हैं-
1. एक वह जो बाहर की ओर निकला हुआ है । इसे पिन्ना या आरीक्ल या ग्राहक कोष्ठक
भी कहते हैं । यह कार्टिलेज का बना होता है । पहले यह विचार था कि पिन्ना ध्वनि-तरंगों को
संग्रहित कर ग्रहण करने में सहायता पहुँचाता है, परंतु बाद में किये गये प्रयोगों से यह पता चला
है कि पिन्ना को जड़ से काट देने पर भी श्रवण-संवेदना में किसी प्रकार की क्षति नहीं आती
है।
बाह्य कर्ण का दूसरा भाग कर्णांजली या बाह्य मियटस (External meatus) है । यह पिन्ना
की जड़ से शुरू होकर कर्ण ढोल तक फैली है। इसे कान की नली (Auditory meatus) भी
कहा जाता है । पिन्ना से टकराकर अथवा इकट्ठी होकर ध्वनि तरंगें कान की नली में प्रवेश करती
हैं । यह नली बाहर से दिखती है । इस नली की लम्बाई 25 मिलीमीटर है। इनमें छोटे-छोटे बाल
तथा कान के मैल भरे रहते हैं । यह मैल इतना जहरीला होता है कि यदि भूल से भी कोई कीड़ा
कान की नली में चला जाता है तो यह मैल उसकी जान ही ले सकता है । इस प्रकार इससे कान
की रक्षा होती है । कान की नली अन्दर में एक पतली झिल्ली से बन्द है । इसे कान की झिल्ली
अथवा कर्ण पट्ट कहते हैं। कान की नली से जो ध्वनि तरंगें अन्दर प्रवेश करती हैं वे इस झिल्ली
से टकराती हैं । यह झिल्ली बहुत कोमल और संवेदनशील होती है, अतः तरंग की चोट से बहुत
अधिक प्रकम्पित होने लगती है। इसी झिल्ली या कर्ण पट्ट के बाद से ही मध्य-कर्ण की शुरुआत
होती है।
Q.11. मध्य-कर्ण का वर्णन करें।
Ans. मध्य-कर्ण (Middle Ear)-कान के मध्य भाग की सीमा का प्रारम्भ कान की नली
जहाँ जाकर रुक जाती है वहाँ से होता है। कर्णढोल मध्यकर्ण का सनस पतला भाग है । वह
मियटस से जुड़ा हुआ है । ‘मियटस’ ध्वनि को कर्णढोल तक पहुँचाती है। कर्णढोल एक बहुत
ही झिल्लीदार पर्दा जैसा है। इस कर्ण-ढोल से सटी हड्डियाँ जो तीन प्रकार की हैं-मुग्दर
(Hammer), निहाई (Anvil or incus) और रकाब (stirrup) ।
ये तीनों हड्डियाँ परस्पर सटी हुई हैं। मुग्दर का एक छोर कान की झिल्ली (कर्णपट्ट)
से सटा है और दूसरा भाग निहाई से मिला है। निहाई से सटी हुई रकाब नामक हड्डी है। एक
का आखिरी भाग एक छेद से लगा है। इस छेद को हम अण्डाकार खिड़की कहते हैं ।इसी
की बगल में एक दूसरा गोल छेद भी है, जिसे गोल खिड़की कहते हैं । इन खिड़कियों के बाद
से ही अन्तःकर्ण शुरू होता है । मध्य-कर्ण की तीनों हड्डियाँ एक-दूसरी से सटी हुई हैं ।
ध्वनि तरंगें (Sound waves) कर्णढोल को प्राकम्पित करती है । इसके प्रकम्पन के फलस्वरूप
इससे सटी इन तीनों हड्डियों में भी कम्पन्न शुरू होता है । मुग्दर प्रकम्पित होने से उनमें लगी
हुई निहाई से भी प्रकम्पन होता है जिसके परिणामस्वरूप रकाब, जो निहाई से लगा हुआ है, भी
प्रकम्पिक हो उठता है चूँकि रकाब मध्य-कर्ण की दूसरी सीमा अंडाकार खिड़की (Oval
window) से लगा हुआ है । अत: यह वह प्रकम्पन है जो सबसे पहले कर्ण-ढोल में उत्पन्न हुआ
था। वह क्रमश: मुग्दर, निहाई तथा रकाब से होता हुआ अण्डाकार खिड़की तक पहुँचता है ।
वह अण्डाकार खिड़की के सहारे अन्त:कर्ण में प्रवेश कर जाता है । हड्डियों में प्रकम्पन होने
से ध्वनि की तीव्रता बहुत अधिक बढ़ जाती है । अनुमान किया जाता है कि उसकी तीव्रता में
पच्चीस या तीस गुनी वृद्धि होती है ।
मध्यकर्ण में कर्ण-कण्ठनली भी है। यह नली मध्यकर्ण से कण्ठ तक.गयी है । बहुत तेज
आवाज होने पर अक्सर हमारा मुँह खुल जाता है, क्योंकि वैसी हालत में कान के भीतर का प्रकम्पन
इस नली के सहारे कण्ठ तक चल जाता है। यदि वह नली नहीं रहती तो जोरों की आवाज होने
पर कर्णपट्ट फट जाता । यह नली कर्ण पट्ट नली (पतली झिल्ली) की रक्षा करती है।
Q.12. अन्तः कर्ण क्या है ? बतायें ।
Ans. अन्तः कर्ण (Inner Ear) अन्तःकर्ण अण्डाकार खिड़की से शुरू होकर कोर्टी-इन्द्रिय
(Organ of corti) एवं अर्द्धचक्राकार नली तक फैला है। यह कनपट्टी की हड्डी के भीतर स्थित
है। अन्त:कर्ण की दीवार एक पतली झिल्ली से ढंको रहती है जिसमें निरन्तर एक तरल पदार्थ
फैला रहता है। जब इस तरल पदार्थ में किसी तरह की गति होती है तो व्यक्ति का शारीरिक
संतुलन नष्ट हो जाता है । जब कोई व्यक्ति एक ही स्थान पर खड़ा होकर तेजी से चक्कर लगाता
है तब उसकी अर्द्ध चक्राकार नलिका के तरल पदार्थ में गति उत्पन्न हो जाती है। परिणामस्वरूप
उसका शारीरिक संतुलन बिगड़ जाता है । रुक जाने पर भी उसे लगता है जैसे अभी शरीर घूम
रहा है, स्थिर खड़ा रहना मुश्किल हो जाता है, वह लड़खड़ाने लगता है । इस प्रकार, अर्द्धचक्राकार
नलिका का विशेष महत्त्व शारीरिक संतुलन बनाये रखने में है, श्रवण-संवेदना में नहीं ।
Q.13. कोक्लिया की संरचना तथा कार्य का वर्णन करें।
Ans. कोक्लिया अंत:कर्ण (inne rear) का सबसे प्रमुख भाग है । देखने में कोक्लिया का
आकार शंख या घोंघे के तरह दाई लपेटे के समान होता है । इसके भीतर में तीन नलिकाएँ अर्थात्
वेस्टीब्युलर नलिका कोक्लियर नलिका तथा टवैनिक नलिका होती है जो एक-दूसरे से विशेष
झिल्ली (membrane) से अलग होती है । इन नलिकाओं में तरल पदार्थ भरा रहता है । कोक्लियर
नलिका तथा टिम्पैनिक नलिका के बीच एक विशेष प्रकार की झिल्ली होती है जिसे बेसीलर झिल्ली
(basilar membrane) कहा जाता है । इस बेसीलर झिल्ली पर आर्गन ऑफ कोर्टी (organ of
corti) होती है जिसमें पतली-पतली केश कोशिकाएँ (haircells) होती हैं जो सेवार के घास के
समान दिखती है । जब ध्वनि तरंगों द्वारा वेस्टीब्युलर नलिका, के तरल पदार्थ में हलचल उत्पन्न
होती है तो इससे टिम्पैनिक नली के तरल पदार्थ में हलचल पैदा हो जाती है और फिर उस हलचल
से बेसीलर झिल्ली प्रकाशित हो जाती है जिससे कोशिकाएँ उत्तेजित हो जाती हैं। इसके
परिणामस्वरूप तंत्रिका आवेग उत्पन्न होकर तंत्रिका द्वारा शंखपालि (temporal lobe) में पहुँचता
है और उसके फलस्वरूप व्यक्ति को श्रवण संवेदन हो पाता है।
Q.14. अवधान या ध्यान से आप क्या समझते हैं ?
Ans. हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ कई तरह के उद्दीपकों से प्रभावित होता रहती हैं । उनमें हम कुछ
ही उद्दीपनों के प्रति चुनकर प्रतिक्रिया कर पाते हैं। मनोविज्ञान में इस तरह की चयनात्मक प्रक्रिया
को अवधान या ध्यान कहा जाता है । अत: यह कहा जा सकता है कि अवधान एक चयनात्मक
मानसिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति एक विशेष शारीरिक मुद्रा (bodily posture) बनाकर किस
वस्तु को चेतना केन्द्र में लाने के लिए तत्परता दिखाता है।
Q.15. अवधान या ध्यान की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालें ।
Ans. अवधान एक चयनात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति एक विशेष शारीरिक
मुद्रा बनाकर किसी वस्तु को चेतना केन्द्र में लाने के लिए तत्परता दिखाता है । अवधान की
कुछ विशेषताएँ हैं जिनसे इसका स्वरूप स्पष्ट होता है-
(a) अवधान का स्वरूप चयनात्मक (selective) होता है।
(b) अवधान में विशेष शारीरिक मुद्रा होती है।
(c) अवधान उद्देश्यपूर्ण होता है ।
(d) अवधान की विस्तृति (span) सीमित होती है।
(e) अवधान में तत्परता की स्थिति होती है।
(f) अवधान में विभाजन का भी गुण होता है।
(g) अवधान में अस्थिरता (fluctuation) तथा उच्चलन (shifting) का गुण होता है।
Q. 16. अवधान के वस्तुनिष्ठ निर्धारक से आप क्या समझते हैं ?
Ans. अवधान के निर्धारक से तात्पर्य उन कारकों से होता है जिनसे यह पता चलता है
कि व्यक्ति किसी उद्दीपन पर ध्यान क्यों देता है । वस्तुनिष्ठ निर्धारक (pbjective condition)
से तात्पर्य उद्दीपन को उन विशेषताओं या गुणों से होता है जिनके कारण व्यक्ति का ध्यान उस
उद्दीपन की ओर चला जाता है । जैसे-उद्दीपन का आकार, तीव्रता, परिवर्तन, रंग, नवीनता, स्थिति
गति, पुनरावृत्ति (repetition), विलगन (isolation), अवधि तथा विरोध (contrast) आदि को
अवधान के वस्तुनिष्ठ निर्धारक की श्रेणी में रखा गया है । वस्तुनिष्ठ निर्धारक की प्रमुख विशेषता
यह है कि इसमें उद्दीपन की विशेषता महत्त्वपूर्ण होती है न कि ध्यान देनेवाले व्यक्ति का वैयक्तिक
गुण (personal characteristic)।
Q.17. अवधान के आत्मनिष्ठ निर्धारक से आप क्या समझते हैं ?
Ans. अवधान के निर्धारक से तात्पर्य उन कारकों से होता है जिससे यह पता चलता है।
कि व्यक्ति किसी उद्दीपन (stimulus) पर ध्यान क्यों देता है। आत्मनिष्ठ निर्धारक से तात्पर्य उन
आत्मगत तथा वैयक्तिक (individual) कारकों से होता है जिनके कारण किसी वस्तु या उद्दीपन
पर ध्यान देता है । आत्मनिष्ठ निर्धारक की विशेषता यह होती है कि इसमें ध्यान देनेवाले की
आत्मगत या व्यक्ति (personal) कारकों की प्रधानता होती है न कि उद्दीपन के गुणों का ।व्यकि
की अभिरुचि, आदत, जिज्ञासा, आवश्यकता, मनोवृत्ति, अर्थ, मानसिक तत्परता तथा प्रशिक्षण आदि
को ध्यान के आत्मनिष्ठ निर्धारक की श्रेणी में रखा जाता है।
Q.18. प्रत्यक्षण से आप क्या समझते हैं?
Ans. प्रत्यक्षण एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति को उपस्थित उद्दीपनों
का ज्ञान होता है। अतः प्रत्यक्षण को परिभाषित करते हुए यह कहा जाता है कि यह एक जटिल
संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा वातावरण में उपस्थित उद्दीपन का तात्कालिक ज्ञान
होता है । इससे प्रत्यक्षण के बारे में निम्नांकित तथ्य प्राप्त होते हैं-
(a) प्रत्यक्षण एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है।
(b) प्रत्यक्षण एक संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है।
(c) प्रत्यक्षण में उद्दीपनों का तात्कालिक ज्ञान होता है।
(d) प्रत्यक्षण के लिए उद्दीपन की उपस्थिति अनिवार्य है।
Q.19. प्रत्यक्षण तथा संवेदन में अंतर करें।
Ans. प्रत्यक्षण तथा संवेदन में मुख्य अंतर निम्नांकित हैं-
(i) संवेदन एक सेरलतम मानसिक प्रक्रिया है जबकि प्रत्यक्षर्ण एक जटिल मानसिक
प्रक्रिया है।
(ii) प्रत्यक्षण में चार तरह की उपक्रियाएँ अर्थात् ग्राहक प्रक्रिया, प्रतीकात्मक प्रक्रिया,
एकीकरण प्रक्रिया तथा भावात्मक प्रक्रिया सम्मिलित होती हैं, परंतु संवदेन में मात्र ग्राहक प्रक्रिया
होती है।
(iii) संवेदन द्वारा उद्दीपन का अर्थहीन ज्ञान होता है जबकि प्रत्यक्षण द्वारा उद्दीपन का अर्थपूर्ण
ज्ञान होता है।
(iv) संवेदन की प्रक्रिया का विश्लेषण संभव नहीं है जबकि प्रत्यक्षण की प्रक्रिया का
विश्लेषण संभव है।
(v) एक ही उद्दीपन भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में समान संवेदन तो पैदा करता है, परंतु अनेक
कारणों से एकसमान प्रत्यक्षण नहीं उत्पन्न कर पाता है।
Q.20. भ्रम क्या है ? भ्रम तथा विभ्रम में अंतर बतावें ।
Ans. भ्रम में अयथार्थ प्रत्यक्षण (false perception) होता है। रस्सी को साँप समझ
बैठना एक भ्रम का उदाहरण है। विभ्रम में बिना किसी दीपन के ही व्यक्ति को उद्दीपन का
प्रत्यक्षण होता है। जैसे-बिना किसी के पुकारे ही यह लगे कि कोई पुकार रहा है, तो यह विभ्रम
का उदाहरण होगा। इन दोनों में मुख्य अंतर निम्नांकित हैं-
(i) भ्रम में उद्दीपन उपस्थित रहता है जबकि विभ्रम में उद्दीपन अनुपस्थिति रहता है।
(ii) भ्रम सामान्य तथा व्यक्तिगत दोनों ही होते हैं जबकि विभ्रम का स्वरूप सिर्फ व्यक्तिगत
होता है।
(iii) भ्रम सामान्य तथा असामान्य दोनों तरह के व्यक्तियों को होता है जबकि विभ्रम
अधिकतर असामान्य व्यक्तियों को ही होता है।
Q.21. विभ्रम का उदाहरणसहित अर्थ बतावें ।
Ans. विभ्रम एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति को उद्दीपन की अनुपस्थिति में
ही उसके बारे में ज्ञान होता है। जैसे-बिना किसी के द्वारा पुकारे यदि किसी व्यक्ति को यह लगता
है कि कोई उसे पुकार रहा है तो यह विभ्रम का उदाहरण होगा। इसी तरह अंधेरे कमरे में यदि
व्यक्ति को यह महसूस होता है कि कोई आदमी खड़ा है जबकि वास्तव में कोई खडा नहीं है
तो यह भी एक विभ्रम का उदाहरण होगा । उद्दीपनरहित होने के कारण विभ्रम का स्वरूप क्षणिक
होता है ।
Q.22. मूलर-लायर भ्रम किसे कहते हैं ?
Ans. मूलर-लायर भ्रम एक तरह का सर्वव्यापी भ्रम (universal illusion) है जिसमें तीर
रेखा तथा पंख रेखा को साथ-साथ उपस्थित करने पर व्यक्ति तीर रेखा को पंख रेखा से छोटा
समझता है, हालाँकि दोनों की लम्बाई बराबर-बराबर होती है ।
Q.23. स्वचालित प्रक्रमण की तीन प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं ?
Ans. एक ही साथ कई उद्दीपनों पर ध्यान देने के लिए बाध्य हो जाने पर किसी मुख्य
उद्दीपकों के प्रति विशेष ध्यान का देना स्वतः निर्धारित हो जाता है । जैसे कार चलाते समय
टेपरिकार्डर बजाना, मोबाइल सुनना, कभीज का बटन लगाना, सिगरेट सुलगाना गौण हो जाता है
और व्यक्ति का ध्यान मूलतः गाड़ी चलाने पर होता है । इसे स्वचालित प्रक्रमण का एक उदाहरण
माना जा सकता है।
स्वचालित प्रक्रमण की तीन प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(i) स्वचालित प्रक्रमण का कोई पूर्व निर्धारित अभिप्राय नहीं होता है ।
(ii) यह अचेतन रूप में क्रियाशील नहीं होती है ।
(iii) इसमें विचार प्रक्रियाओं को आवश्यकता नहीं होती है । जैसे- पुस्तक को पढ़ते समय
जूतों की फीते का बाँध लेना ।
Q.24. अवधान विस्तृति से क्या समझते हैं ?
Ans. हमारे अवधान में उद्दीपकों को ग्रहण करने की क्षमता सीमित होती है। किन्तु
कभी-कभी पूल उद्दीपक के साथ-साथ कुछ अन्य उद्दीपकों पर क्षणिक ध्यान देना आवश्यक हो
जाता है। कार के चालक को पीछे से किसी आवाज को सुनने पर उस ओर झांकना पड़ता हैं।
वस्तुओं की संख्या, जिन पर कोई व्यक्ति क्षणिक ध्यान देने के लिए वाध्य हो जाता है, उसे अवधान
विस्तृति कहा जाता है। अर्थात् अवधान विस्तृति का सामान्य अर्थ यह है कि कोई व्यक्ति मुख्य
उद्दीपकों को ध्यान में रखते हुए अतिरिक्त उद्दीपकों की झलक पाने के लिए अपना ध्यान अस्थायी
रूप से अल्प तो बाँट सकता है।
अनेक प्रयोगों के आधार पर मिलर ने बताया है कि हमारी अवधान विस्तृति सात से दो
अधिक या दो कम की सीमा के भीतर बदलती रहती है।
अवधान विस्तृति का निर्धारण ‘टैनुस्टों स्कोप’ नामक यंत्र की सहायता से की जा
सकती है।
Q.25. उर्ध्वगामी तथा अधोगामी प्रक्रमण के लक्षण बतावें ।
Ans. उद्दीपकों के संबंध में प्राप्त सूचनाओं के प्रत्यक्षण के क्रम में प्रत्यभिज्ञान प्रक्रिया
उपयोगी सिद्ध हुई है। जब प्रत्यभिज्ञान प्रक्रिया अंशों से प्रारम्भ होती है और जो समग्र प्रत्यभिज्ञान
का आधार बनती है, उसे उर्ध्वगामी प्रक्रमण कहते हैं । जब प्रत्यभिज्ञान प्रक्रिया समग्र से प्रारम्भ
होती है और उसके आधार पर विभिन्न घटकों की पहचान की जाती है, तो उसे अधोगामी प्रक्रमण
कहा जाता है। उर्ध्वगामी उपागम प्रत्यक्षण उद्दपकों के विविध लक्षणों पर ध्यान देता है जबकि
अधोगामी उपागम प्रत्यक्षण करने बालों को महत्त्व देता है।
Q.26. आकृति प्रत्यक्षण की परिभाषा निरूपित करें।
Ans. शरीर हो या कोई उपकरण उसका निर्माण विभिन्न अंगों के समूह के रूप में होता
है । जैसे साइकिल कहलाने वाले साधन का निर्माण, सीट, पहिया, हैण्डिल, टायर, ट्यूब आदि
के संयोग के रूप में होता है । सभी भाग या अंग मिलकर सम्पूर्ण साइकिल का निर्माण करता
है । चाक्षुष क्षेत्र को अर्थयुक्त समग्र के रूप में संगठित करने को आकृति प्रत्यक्षण कहते हैं।
गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों के अनुसार किसी वस्तु का रूप उसके समग्र में होता है जो उनके अंशों
के योग से भिन्न होता है । प्रमस्तिष्कीय प्रक्रियाएँ हमेशा अच्छी आकृति का प्रत्यक्षण करने के
लिए उन्मुख होती है।
Q.27. गति दिगंतराभास किसे कहते हैं ?
Ans. गति दिगंतराभास एक गतिक एक नेत्री संकेत होता है । इसके अनुसार सापेक्ष गति
से गतिमान पिण्डों में से जो निकट होता है उसकी तुलना में दूरस्थ पिण्ड धीरे-धीरे गति करती
हुई प्रतीत होती है। जैसे बस का यात्री निकट की वस्तुओं को विपरीत दिशा में तथा दूर की वस्तुओं
को बस के गति की दिशा के साथ गतिमान देखता है ।
Q.28. फ्राई-घटना किसे कहा जाता है ?
Ans. फ्राई-घटना का संबंध आभासी गति भ्रम से है। जब कई क्रमिक चित्रों को लगातार
जल्दी-जल्दी दिखाई जाती है तो स्थिर चित्र चलता-फिरता हुआ प्रतीत होता है । सिनेमा में
कलाकारों को दौड़ते, बोलते देख पाना आभासी गति भ्रम के कारण ही संभव होता है।
जलते-बुझते बिजली के बल्बों को एक निश्चित क्रम में संयोजित करके आभासी गति भ्रम
उत्पन्न की जा सकती है । इस आभासी गति भ्रम के कारण होने वाली घटना को फ्राई-घटना
कहते हैं।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न
(LONG ANSWER TYPE QUESTION)
Q.1. संवेदन से आप क्या समझते हैं ? उसके प्रमुख गुणों या विशेषताओं का वर्णन
करें।
Or, संवेदन की परिभाषा दें और इसकी विशेषताओं का उल्लेख करें।
Ans. संवेदन एक सरलतम मानसिक प्रक्रिया है जिसकी उत्पत्ति के लिए किसी-न-किसी
तरह का उद्दीपन (stimulus) का होना अनिवार्य हैं । परंतु, संवेदन द्वारा उद्दीपन का ज्ञान नहीं होता
है, मात्र उसका आभास होता है । मस्तिष्क के इस प्रारंभिक एवं सरलतम मानसिक प्रक्रिया का
बहुत सूक्ष्म विश्लेषण नहीं किया जा सकता है अतः, शुद्ध संवेदन (pure sensation) का होना
असंभव है । कोई भी सामान्य वयस्क व्यावहारिक रूप से शुद्ध संवेदन कभी भी प्राप्त नहीं कर
सकता है क्योंकि जैसे ही वह संवेदन प्राप्त करता है, वह अपनी पूर्व अनुभूति के आधार पर चेतन
या अचेतन रूप में उसमें अर्थ जोड़ने का भरसक प्रयास करता है । शैशवावस्था में जब शिशुओं
में पूर्व अनुभूति की कमी होती है तो शायद वे शुद्ध संवेदन का अनुभव करते हों, परंतु इसकी
पुष्टि नहीं हो पाई है बल्कि हकीकत यह है कि शिशु भी उद्दीपन का कोई-न-कोई अर्थ अवश्य
ही लगा लेते हैं भले ही वह अर्थ गलत ही क्यों न हो । यदि हम संवेदन की एक परिभाषा देना
चाहें तो इस प्रकार दे सकते हैं-“संवेदन एक ऐसी सरल मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा हमें
उद्दीपनों का एक आभासमात्र होता है क्योंकि इसमें अर्थहीनता तथा अस्पष्टता होती है।” इस
परिभाषा का विश्लेषण करने पर हमें संवेदन के स्वरूप के बारे में निम्नांकित चार प्रमुख तथ्य
प्राप्त होते हैं-
(i) संवेदन एक सरल मानसिक प्रक्रिया है।
(ii) संवेदन एक संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया (cognitive mental process) है; क्योंकि
इसके द्वारा हमें उपस्थित उद्दीपनों के बारे में इसका आभास या ज्ञान अवश्य प्राप्त होता है ।
(iii) संवेदन में उद्दीपन का अर्थहीन ज्ञान होता है।
(iv) संवेदन के लिए उद्दीपन का होना अनिवार्य है।
संवेदन के गुण-संवेदन के कई गुण (attributes) होते हैं । इन गुणों या विशेषताओं के
अभाव में संवेदन का अस्तित्व ही कायम नहीं रह सकता है टिचेनर (Titchener) ने संवेदन के
चार गुणों का उल्लेख किया है-प्रकार (qualityr), तीव्रता (intensity), अवधि (duration) तथा
स्पष्टता (clearness)। स्टाउट (Stout) ने संवेदन के उपर्युक्त गुणों के अतिरिक्त दो और गुण
भी बताए हैं-विस्तार (extensity) तथा स्थानीय चिन्ह (local sign)। इस तरह, संवेदन के कई
छह गुण हो जाते हैं जिनकी वयाख्या निम्नांकित है-
(i) प्रकार (Quality) प्रत्येक संवेदन एक निश्चित प्रकार का होता है। कोई श्रवण संवेदन
होता है तो कोई दृष्टि संवेदन और कोई स्पर्श संवदेन आदि-आदि । इस तरह, संवेदन का सबसे
प्रमुख गुण यह होता है कि इसका कोई-न-कोई प्रकार होता है। ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं
दिया जा सकता है जिसमें संवेदन हो परंतु उसमें प्रकार का कोई गुण नहीं हो । संवेदन का ‘प्रकार’
गुण दो तरह का होता है-जातीय प्रकार (generic quality) तथा विशिष्ट प्रकार (specific
quality)। जब संवेदनाओं की उत्पत्ति अलग-अलग ज्ञानेन्द्रियों से होती है, तो इसे उसका जातीय
प्रकार कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, किसी एक ज्ञानेन्द्रिय से उत्पन्न संवेदन दूसरे ज्ञानेन्द्रिय से
उत्पन्न संवेदन से भिन्न होते हैं । संवेदन के इस गुण को जातीय प्रकार का गुण कहा जाता है।
जैसे, सभी देखी जानेवाली वस्तुओं के संवेदन को दृष्टि संवेदन कहा जाता है । जो एक खास
जातीय प्रकार के गुण का उदाहरण है । एक ही ज्ञानेन्द्रिय से भिन्न-भिन्न तरह के भी संवेदन
उत्पन्न होते हैं । ऐसे संवेदन को संवेदन का विशिष्ट प्रकार (specific quality) कहा जाता है।
जैसे, मान लिया जाए कि हम पिता की आवाज सुनते हैं तथा मामा की भी आवाज सुनते हैं।
ये दोनों ही श्रवण संवेदन के उदाहरण हैं। परत. दोनों में अंतर है। यह अंतर संवेदन के विशिष्ट
प्रकार के गुण का एक उदाहरण है क्योंकि दोनों ही संवेदन विशिष्ट प्रकार के हैं ।
(ii) तीव्रता (Intensity)- संवेदन का अन्य गुण उसकी तीव्रता है । संवेदन की तीव्रता
अलग-अलग होती है। कोई संवेदन अधिक तीव्र होता है तो कोई संवेदन कम तीव्र होता है।
इस तरह,एक ही संवेदन मात्र तीव्रता के अंतर के कारण व्यक्ति में विभिन्न ढ़ंग की अनुभूतियाँ
उत्पन्न करता है । एक भोजन की वस्तु में कम नमक डालने से जो स्वाद का संवेदन होगा, वह
अधिक नमक डाले हुए भोजन के स्वाद से भिन्न होगा । संवेदन की तीव्रता दो बातों पर आधारित
होती है-उद्दीपन की तीव्रता (intensity of stimulus) तथा उत्तेजित ज्ञानेन्द्रिय । तीव्र उद्दीपन से
उत्पन्न संवेदन को मात्रा-एक मंद उद्दीपन से उत्पन्न संवेदन की मात्रा से भिन्न होती है। जैसे,
यदि व्यक्ति की विचा पर सूई की नोक को हल्के ढ़ग स गड़ाया जाए तथा फिर जोर से गड़ाए
जाए, तो स्पष्टतः दो तरह के स्पर्श संवेदन होंगे। एक ही ज्ञानेन्द्रिय के अन्दर के ग्राहक कोशों
(receptor cells) की संवेदनशीलता में भी विभिन्नता पाई जाती है जिसके कारण विशेष तीव्रता
के एक उद्दीपन को यदि हाथ पर स्पर्श किया जाए तथा फिर उसी से होठ पर स्पर्श कराया जाए
तो उत्पन्न संवेदन की मात्रा में विभिन्नता पाई जाएगी। यहाँ पर दोनों संवेदनाओं में विभिन्न कारण
उद्दीपन की तीव्रता नहीं है बल्कि त्वचा में स्थित विभिन्न प्रकार के ग्राहक कोशों की संवेदनशीलता
में अंतर का होना है।
(iii) अवधि (Duration)-संवेदन का अन्य गुण उसकी अवधि होता है। संवेदन जितना
ही समय के लिए होता है, उसे संवेदन की अवधि कहा जाता है। प्रत्येक संवेदन एक खास समय
तक के लिए होता है। ऐसा नहीं होता है कि संवेदन भी हो और उसमें कुछ समय न लगे।
संवेदन की अवधि छोरी भी हो सकती है या बड़ी भी। छोटी अवधि तक हुआ संवेदन बड़ी अवधि
तक हुए संवेदन से शिन होता है । जैसे, यदि हमें कोई ध्वनि संवेदन पाँच सेकंड तक होता है
तथा वही संवेदन उर हालत में 15 सेकंड के लिए होता है तब दोनों प्रकार के संवेदनों में हमे
अंतर महसूस होता है। यह अंतर अवधि (duration) में अन्तर के कारण होता है ।
(iv) स्पष्टता (Clearness)—स्पष्टता संवेदन का एक अन्य गुण है । कोई संवेदन अधिक
स्पष्ट होता है तो कम । सच पूछा जाए तो स्पष्टता संवेदन का कोई स्वतंत्र गुण नहीं है और यह
बहुत कुछ तीव्रता तथा अवधि के गुण पर आधारित होता है । जो संवेदन अधिक तीव्र होगा, वह
व्यक्ति के सामने बहुत देर तक रहेगा तथा वह अधिक स्पष्ट भी होगा । यदि किसी उद्दीपन को
धुंधली रोशनी में बहुत समय के लिए दिखाया जाए और फिर उसी वस्तु को तीव्र रोशनी में अधिक
समय तक के लिए दिखाया जाए तो दूसरी परिस्थिति में पहली परिस्थिति की तुलना में अधिक
स्पष्ट संवेदन होगा । स्पष्ट हुआ कि संवेदन की स्पष्टता बहुत हद तक संवेदन की तीव्रता तथा
उसकी अवधि पर आधारित होती है।
(v) प्रसार (Extensity)-संवेदन में विस्तार का भी गुण पाया जाता है। किसी भी संवेदन
की उत्पत्ति में ज्ञानेन्द्रिय का जितना भाग उत्तेजित होता है, उसे संवेदन का प्रसार कहा जाता है।
जैसे, एक अंगुली को गर्म पानी में डालने से संवेदन का विस्तार कम होगा, परन्तु पूरा हाथ डालने
से संवेदन का विस्तार अधिक होगा । ऐसा इसलिए होता है क्योंकि गर्म पानी में एक अंगुली डालने
से ज्ञानेन्द्रिय (त्वचा) का कम भाग उत्तेजित हुआ पूरा हाथ डालने से अधिक भाग उत्तेजित हुआ।
अतः, विस्तार संवेदन का एक अन्य मुख्य गुण है ।
(vi) स्थानीय चिन्ह (Locarsing स्थानीय चिन्ह भी संवेदन का एक प्रमुख गुण होता
है। व्यक्ति किसी भी संवेदन का अनुभव ता करता ही है, साथ-ही-साथ उसका स्थान-निर्धारण
(localization) भी करता है। जैसे, यदि हमारे शरीर के किसी भाग में दर्द हो रहा है तो हमें
ज्ञान हो जाता है कि यह दर्द शरीर के किस भाग में हो रहा है । उसी तरह यदि पीठ पर पीछे
से कोई व्यक्ति हाथ रखे देता है तो हम बिना देखे ही अनुभव कर पाते हैं कि कोई व्यक्ति उसकी
पीठ के अमुक हिस्से पर हाथ रखे हुए है। ऐसा इसलिए संभव हो पाता है क्योंकि संवेदन में
स्थान-निर्धारण का गुण होता है। दूसरे शब्दों में, संवेदन में स्थानीय चिन्ह का गुण होता है।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि संवेदन, जो एक सरलतम संज्ञानात्मक मानसिक
प्रक्रिया है, को अपनी कुछ विशेषताएँ या गुण होते हैं जिनके कारण उसकी अपनी विशिष्टता
बनी रहती है।
Q.2.प्रात्यक्षिक संगठन के नियम कौन-कौन हैं? उदाहरण सहित विवेचना कीजिए।
Or, प्रात्यक्षिक संगठन के गेस्टाल्ट नियमों का वर्णन कीजिए।
Ans. प्रमुख गेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों ने, जिनमें वर्दाइपर, कोफ्का, कोहलर आते हैं,
प्रत्यक्षीकरण के दौरान उद्दीपक विशेषताओं के समूहीकरण का अध्ययन किया है। इन
वैज्ञानिकों की धारणा है कि उद्दीपकों का पृथकीकरण अथवा समूहीकरण कुछ आन्तरिक एवं बाह्य
विशेषताओं के कारण हो पाता है और प्रात्यक्षिक क्षेत्र में विद्यमान उद्दीपक विशेषताएँ कुछ सीमित
इकाइयों के रूप में संगठित हो जाती हैं । प्रात्यक्षिक क्षेत्र में रहने वाले विभिन्न अवयव
अलग-अलग नहीं दिखाई पड़ते बल्कि पारस्परिक संबंधों के आधार पर संगठित हो जाते हैं और
इस प्रकार जब भी संभव होता है आकृतियाँ स्वतः समूहों के रूप में ही प्रत्यक्षित होती हैं ।
समूहीकरण सदैव आकृति की सुन्दरता या सुघरता (goodness) की दिशा में होती है । गैस्टाल्ट
मनोविज्ञान की भाषा में इसे “प्रॉग्नान्ज का नियम” (Law of Prognans) कहते हैं । प्राग्नान
का नियम यह बतलाता है कि यदि उद्दीपक अवयवों का समूहीकरण कई तरह से संभव हो तो
समूहीकरण अनिश्चित या यादृच्छिक न होकर उस रूप में होता है जो उपलब्ध संगठनों में
सर्वाधिक सुन्दर हो । यही कारण है कि प्रात्यक्षिक संगठन नियमित (regukar), एकरूप
(unified), सहज (simplified) तथा समानरूपी (similar) होते हैं।
प्रात्यक्षिक संगठन के नियम इसी प्राग्नान को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं । ये नियम
उद्दीपक विशेषताओं के आधार पर आंतरिक एवं बाह्य दो प्रकारों में विभाजित किए जा सकते
हैं।
प्रात्यक्षिक संगठन के नियम (Laws of Perceptual Organization) प्रात्यक्षिक
संगठन के वे नियम जो उद्दीपक में अन्तर्निहित विशेषताओं से सम्बन्धित हैं और जो अनुभवों पर
आश्रित नहीं होते हैं, आन्तरिक नियम के रूप में जाने जाते हैं। इन नियमों के द्वारा ऐसे समरूपों
का निर्माण संभव होता है जिनसे प्रत्यक्षीकरण में प्राग्नान बना रहता है। ये नियम निम्नलिखित
हैं-
1. निकटता का नियम (Law of Proximity)—प्रात्यक्षिक क्षेत्र के वे अंग या अवयव
जो समय की दृष्टि से जल्दी प्रस्तुत किए जा रहे हों अथवा स्थान की दृष्टि से पास में स्थित
हों वे सदैव उपसमूहों में संगठित हो जाते हैं और उनका प्रत्यक्षीकरण उनकी निकटता के आधार
पर निर्णित होता है। यदि अन्य विशेषताएँ उद्दीपकों के प्रत्यक्षीकरण में सहायक न हो सकें
तो निकटता के कारण उद्दीपकों का समूहीकरण हो जाता है ।
2. समानता का नियम (Lawof Similarity) यदि प्रत्यक्षिक क्षेत्र विभिन्न अंग विभिन्न
रूप वाले हों और निकटता के कारण उनका समूहीकरण कठिन हो रहा हो तो उन उद्दीपकों का
संगठन समानता के आधार पर होता है । ऐसा होने के लिए यह जरूरी होता है कि समान उद्दीपक
पर्याप्त मात्रा में प्रस्तुत किए जाएँ ताकि उनका पृथक संगठन बन सके ।
3. निरंतरता तथा दिशा का नियम (Continuity and Direction) इस नियम के
अनुसार प्रत्यक्षीकरण सदैव निरंतर और अविच्छिन्न दिशा की ओर उन्मुख होता है । विच्छिन्न
और खण्डित उद्दीपकों की अपेक्षा अविच्छिन्न और निरन्तर दिशा के उद्दीपक ज्यादा प्रभावी होते
हैं। इस नियम के अनुसार उद्दीपकों का ऐसा संगठन बनता है जो निरंतर हो और यदि कोई संगठन
विद्यमान है तो अन्य सम्बद्ध उद्दीपक भी उसी के साथ जुड़ जाते हैं ।
4. पूर्ति का नियम (LawofClosure)-अधूरी या अंशत: अपूर्ण आकृति ‘पूर्ति के नियम’
के अनुसार समूह बनाती है और अधूरी आकृति भी पूर्ण जैसी लगती है । इस प्रकार यह नियम
अपूर्ण को पूर्ण करते हुए प्रत्यक्ष करने पर जोर देता है ।
5. समान नियति का नियम (Law ofCommon Fate)-उद्दीपक की कोई श्रृंखला जब
एक साथ समान वेग से समान दिशा में विद्यमान रहती है तो उन अवयवों में संगठन बन जाता
है। समान नियति का अर्थ है समान वातावरण में उपस्थित उद्दीपक एक जैसी नियति के कारण
परस्पर आबद्ध हो जाते हैं। डेम्बर (1960) के अनुसार वातावरण से पूरी तरह घुला-मिला उद्दीपक
भी जब पृष्ठभूमि से भिन्न रूप में उभरता है तो परस्पर असंबद्ध अंशों का समूहीकरण हो जाता
है।
6. समावेश का नियम (Law of Inclusion)—संगठित पूर्ण आकृति के अन्तर्गत विद्यमान
आंशिक पूर्ण आकृति की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं रह जाती है । वह अंश अलग न दिखाई देकर
पूर्ण आकृति में समाविष्ट हो जाता है ।
7.सममितता का नियम (Lawof Symmetry)-उद्दीपक का वह अंश जो ज्यादा सुडौल
और सममित होता है आसानी से समूह बना डालता है। समान प्रकार की आकृतियाँ यदि किसी
चित्र में समान भाव से वितरित की गयी हों तो वे परस्पर संगठन बना लेने के कारण सुगठित
हो जाती हैं।
8.विन्यास का नियम (LawofOrientation)-उद्दीपन का एक दिशा का होना उद्दीपक
के निर्धारण के लिए सहायक हो सकता है। यदि दो चित्र हो जिनमें से एक में कोई आकृति
उर्ध्व (Vertical) और क्षैतिज किनारों को सम्मिलित करते हुए बनाई गई हो और दूसरे चित्र में
तिरछे किनारों का उपयोग आकृति के लिए किया गया हो तो पहली आकृति अधिक स्पष्टता से
और सरलता से होगी दूसरी नहीं, क्योंकि उर्ध्व और क्षैतिज (vertocal and horizonral) रेखाएँ
हमेशा चित्र के लिए सहायक मानी गई हैं न कि तिरछी (Oblique), लम्बवत् किनारे वाली
(Limbs) रेखाएँ । हमारे स्वयं के विन्यास का प्रभाव यह नहीं है वरन् चित्र जो विन्यास बनाता
है उसका निर्देशन इस प्रकार होता है।
ऊपर वर्णित आंतरिक नियमों के अतिरिक्त कुछ बाह्य नियम भी गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों में
प्रतिपादित किए हैं, क्योंकि जब उद्दीपक की संरचनात्मक विशेषताएँ अस्पष्ट सी रहती हैं तब
आकृति का प्रत्यक्षीकरण केवल आंतरिक विशेषताओं के कारण नहीं हो पाता । उद्दीपक आकृति
की संरचनात्मक अस्पष्टता (Structural ambiguity) की स्थिति में प्रयोज्य का पूर्वानुमान (Past
experience), परिचय (Familiarity), मनोविन्यास (set) आदि दिशाएँ निर्धारक का कार्य करती
हैं।
प्रयोग से यह ज्ञात हुआ है कि प्रत्यक्षीकरण के यह बाह्य नियम आंतरिक नियमों के साथ
संयुक्त होते हैं और सरल ढंग से प्रत्यक्षीकरण में सहायक न होकर जटिल अन्त:क्रिया उत्पन
करते हैं । हाकबर्ग एवं सिल्वर स्टाइन (1956) ने यह स्पष्टतः प्रतिपादित किया है कि ये नियम
भिन्नात्मक प्रबलताओं के साथ जटिल रूप से सक्रिय होते हैं। साथ ही ये नियम प्रौढ़ एवं परिपक्व
व्यक्तियों में स्पष्टतः देखे जा सकते हैं।
Q.3. चयनात्मक अवधान का स्वरूप क्या है ? वर्णन करें।
Ans. चयानात्मक अवधान एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति कुछ खास क्रिया उद्दीपक
पर अपनी मानसिक एकाग्रता (menral concentration) दिखलाता है तथा अन्य क्रियाओं या
उद्दीपकों पर न के बराबर ध्यान देता है । मैटलिन (Matlin) के शब्दों में चयनात्मक अवधान को
इस प्रकार परिभाषित किया जाता है-“चयनात्मक अवधान एक ऐसी घटना है जिसमें हमलोग
एक क्रिया पर अपनी मानसिक क्रियाशीलता को एकाग्रचित करते हैं तथा अन्य क्रियाओं के बारे
में बहुत ही कम ध्यान दे पाते हैं ।” जैसे यदि एक साथ कई व्यक्ति मिलकर बगल के कमरे
में बातचीत कर रहे हों और आप उनमें से किसी एक व्यक्ति की बात पर ध्यान दे रहे हों तो
इसमें आप उस व्यक्ति के बात को ठीक ढंग से सुन पायेंगे तथा अन्य व्यक्तियों के बातों को
यदा-कदा । यह चयनात्मक अवधान का उदाहरण होगा ।
चयनात्मक अवधान का विशेष गुण या लाभ यह है कि इसमें व्यक्ति एक तरह के कार्य
पर दूसरों कार्यों से बिना किसी तरह का अवरोध अनुभव किये एकाग्रचित (concentrate) कर
सकता है। इससे मानसिक निष्पादन (mental performance) की उत्कृष्टता बढ़ जाती है।परंतु
चयनात्मक अवधान में कुछ हानि (disadvantages) भी होती है । चयनात्मक अवधान व्यक्ति
में कुछ विशेष परिस्थिति में खासकर उस परिस्थिति में कुंठा (frustration) उत्पन्न करने लगता
है जब उसे एक ही साथ कई क्रियाओं पर ध्यान देना आवश्यक हो जाता है । ऐसी परिस्थिति
में लाचारी में व्यक्ति को अन्य क्रियाओं को अवहेलना करनी पड़ती है।
चयनात्मक अवधान के क्षेत्र में सबसे महत्त्वपूर्ण अध्ययन चेरी (Cherry) द्वारा किया गया।
इस प्रयोग में उन्होंने छायाभासी प्रविधि (shadowing technique) का प्रतिपादन किया जिसमें
प्रयोज्य को सुने हुए शब्दों को ठीक उसी रूप में बोलने के लिए कहा जाता है। चेरी ने एक
प्रवक्ता (speaker) की आवाज में दो अलग-अलग सूचनाओं (message) को अभिलिखित
किया। प्रयोज्यों को आकर्णक यंत्र (earphone) लगा लेने के लिए कहा गया तथा प्रत्येक कान
में अलग-अलग सूचनाओं को दिया गया तथा उन्हें किसी एक सूचना को ठीक उसी ढंग से
बोलकर दोहराने के लिए कहा गया है इस तरह के कार्य को द्विभाजित सुनना (diachotic
listening) कहा जाता है । परिणाम में देखा गया कि प्रयोज्यों द्वारा दोनों में से एक ही सूचना,
जिसपर वे ध्यान दे सके थे, का प्रत्याव्हान (recall) किया गया । दूसरी सूचना जिसपर वे ध्यान
नहीं दे सके (unattended message), से वे बहुत कम प्रत्याव्हान कर सकने में समर्थ हुए ।
हाँ, जब इस दूसरे तरह की सूचना में कुछ परिवर्तन कर दिया जाता या जैसे इसे पुरुष की आवाज
में न कहकर महिला की आवाज में कहा जाता था, तो वैसी परिस्थिति में प्रयोज्यों का ध्यान उस
ओर चला जाता था । इस प्रयोग से स्पष्ट होता है कि व्यक्ति को जब कई तरह की सूचनाओं
पर एक साथ ध्यान देने के लिए कहा जाता है उसमें कुछ सूचना पर वह ध्यान दे पाता है तथा
कुछ पर एक साथ ध्यान नहीं दे पाता है । हाँ, जिन सूचनाओं पर वह ध्यान नहीं दे पाता है अगर
उसके स्वरूप में कुछ परिवर्तन कर दिया जाता है (जैसे पुरुष से महिला से पुरुष की आवाज
में परिवर्तन होने से तो उस व्यक्ति का ध्यान चला जाता है।) मोरे (Moray) ने अपने एक प्रयोग
में पाया कि जिन सूचनाओं पर प्रयोज्य ध्यान नहीं दे पाता है उनमें यदि प्रयोज्य का नाम कहीं-कहीं
पर जोड़ दिया जाता है, तो वह उस पर ध्यान देने में समर्थ हो पाता है ।
चयनात्मक अवधान की व्याख्या करने के लिए मनोवैज्ञानिकों ने कई तरह के सिद्धान्त का
प्रतिपादन किया है जिनमें निम्नांकित प्रमुख हैं-
1. मार्गविरोधी सिद्धान्त (Bottleneck theories)
2. नॉरमैन एवं बोवरो मॉडल (Normm & Bobrow’s model)
3. नाईसर मॉडल (Neisser model) |
स्पष्ट हुआ कि चयनात्मक अवधान (selective attention) की व्याख्या करने के लिए
कई तरह के मॉडल का विकास किया गया है । इन विभिन्न मॉडल या सिद्धान्त में कौन सबसे
अच्छा है, इसका उत्तर सही-सही ढंग से नहीं दिया जा सकता है।
Q.4. मानव आँख की संरचना या बनावट तथा कार्य का वर्णन करें ।
Ans. मानव शरीर में ग्राहक (receptor) या ज्ञानेन्द्रिय (sense organ) एक महत्त्वपूर्ण
भाग है । इन ज्ञानेन्द्रियों में आँख का स्थान सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होता है । मानव आँख की
संरचना या बनावट फोटो खींचनेवाले कैमरे की संरचना से मिलती है। आँख ऊपर से देखने में
गोलाकार लगता है । इस गोल आकार के कारण इसे नेत्रगोलक (eyeball) कहा जाता है ।
नेत्रगोलक में तीन तहें या परतें होती हैं जिनकी संरचना या बनावट तथा कार्य का वर्णन निम्नांकित
है-
(क) श्वेत पटल (Sclerotic coat)
(ख) मध्य पटल (Choroid)
(ग) दृष्टि पटल (Retina)
इन तीनों का वर्णन निम्नांकित है-
(क) श्वेत पटल (Sclerotic coat)-मानव आँख की सबसे बाहरी परत को श्वेत पटल
कहा जाता है । यह चारों ओर से अपारदर्शी होता है तथा सामने से पारदर्शी होता है । इसका
रंग उजला होता है तथा यह परत अधिक ठोस एवं कड़ा होता है । यह अपारदर्शी होता है, इसलिए
इससे होकर रोशनी अंदर नहीं जा सकती है। ठोस एवं कड़ा होने के कारण यह आँख के भीतरी
भागों जैसे लेंस, रेटिना, परितारिका, पुतली आदि की रक्षा भी करता है । श्वेत पटल का वह भार
जो आगे की ओर उभरा होता है तथा साथ-ही-साथ पारदर्शी भी, उसे कॉर्निया (cornea) कहा
जाता है। कॉर्निया द्वारा ही रोशनी आँख में प्रवेश करती है।
(ख) मध्य पटल (Choroid)-मध्य पटल आँख की दूसरी परत है जिसका रंग काला
या भूरा होता है। मध्य पटल का आगे का भाग भी थोड़ा उभरा हुआ होता है जिसे उपतारा
या परितारिका (iris) कहा जाता है । यह कॉर्निया के थोड़ा पीछे होता है। इसका काम प्रकाश
को ग्रहण करना होता है । काँर्निया तथा परितारिक के बीच की जगह में एक प्रकार का तरल
पदार्थ भरा रहता है जिसे जलद्रव (aqueous humour) कहा जाता है । इसका द्रव प्रत्यक चार
घंटे पर अपने-आप परिवर्तित होता रहता है । कॉर्निया में खन की आपूर्ति (supply) नहीं होती
है। परिणामतः यह अपना पोषक पदार्थ इसी जलद्रव से, प्राप्त करता है । परितारिका के बीच
एक गोल छेद होता है जिसे पुतली (pupil) कहा जाता है । पुतली के द्वारा ही कॉर्निया से आती
हुई रोशनी आँख के भीतरी भाग में प्रवेश करती है। पुतली का काम आँख के भीतर प्रवेश
करनेवाली रोशनी पर नियंत्रण रखना है। तीव्र रोशनी की स्थिति में पुतली सिकुड़ जाती है तथा
कम रोशनी की स्थिति में पुतली फैल जाती है ताकि उपयुक्त तथा सही मात्रा में रोशनी भीतर
प्रवेश कर सके। पुतली के पीछे लेंस (lens) होता है । लेंस में भी खुन की आपूर्ति (supply)
नहीं होता है और वह अपना पोषक पदार्थ जलद्रव से प्राप्त करता है। पूतली से होकर जब प्रकाश
आँख में प्रवेश करता है तब लेंस ही उसे दृष्टिपटल या अक्षिपटल (retina) में सही जगह पर
पहुँचा देता है। लेंसे अत्यंत ही लचीला होता है तथा इसका आकार छोटा-बड़ा होता है । इसका
छोटा या बड़ा होना ।
सिलियरी मांसपेशी (ciliary muscles) जो लेंस के दोनों किनारों पर होती है, पर निर्भर
करता है। दूर की वस्तुओं को देखते समय मांसपेशियाँ फैल जाती हैं जिससे लेंस बड़ा हो जाता
है तथा नजदीक की वस्तुओं को देखते समय मांसपेशियाँ सिकुड़ जाती हैं जिससे लेंस छोटा हो
जाता है।
(ग) दृष्टि पट्ल (Retina)–नेत्रगोलक की सबसे भीतरी और तीसरी परत दृष्टिपटल
(retina) है । यह वह पटल है जिसपर वस्तु की प्रतिमा बनती है। इसमें दो तरह के प्रकाशग्राही
कोशिकाएँ (light-receptor cells) होती हैं-शताकाएँ (rods) तथा सूचियाँ (cones)| शलाकाएँ
कुछ लंबी तथा सूचियाँ कुछ छोटी और मोटी होती हैं। शलाकाओं द्वारा व्यक्ति धूमिल रोशनी
तथा रात में देख पाता है जबकि सूचियों द्वारा दिन तथा तीव्र प्रकाश में व्यक्ति देख पाता है।
शलाकाओं द्वारा व्यक्ति को रंगीन वस्तुओं अर्थात् काले, श्वेत तथा धूसर रंग का ज्ञान होता है
तथा रंगीन वस्तुओं का ज्ञान सूचियों द्वारा होता है ।
दृष्टिपटल में एक विशेष धंसा स्थान है जहाँ सिर्फ सूचियों की संख्या काफी अधिक होती
है। इस स्थान को फोबिया (fovea) कहा जाता है । अत:, जब कभी किसी वस्तु की प्रतिम
फोबिया पर पड़ती है तब वह बहुत ही स्पष्ट दिखाई पड़ती है। यही कारण है कि इसे स्पष्टतम
दृष्टि बिन्दु (point of clearest vision) भी कहा जाता है । फाबिया के बाहर शलाकाएंँ तथा
सूचियाँ दोनों ही असमान संख्या में पाई जाती हैं । जब शलाकाएँ या सूचियाँ प्रकाश को ग्रहण
करती हैं तो उनमें दृष्टि तंत्रिका (optic nerve) के सहारे दृष्टिपटल में मस्तिष्क में पहुँचता है ।
दृष्टिपटल का वह भाग जहाँ से दृष्टि तत्रिका निकलकर मस्तिष्क में जाती हैं, उसे अंधबिन्दु (blind
spot) कहा जाता है जहाँ न तो शलाकाएँ होती हैं और न सूचियाँ ही । इसके परिणामस्वरूप यहाँ
से देखना संभव नहीं है।
स्पष्ट हुआ कि मानव आँख की बनावट काफी जटिल है तथा इसकी संरचनाओं एवं कार्यों
में विशिष्टता पाई जाती है।
Q.5. मानव कान की बनावट तथा कार्यों का वर्णन करें। [B.M.2009A]
Ans. कान द्वारा हम सुनते हैं । अतः, कान ध्वनि का ज्ञानेन्द्रिय है । मानव कोन की बनावट
को तीन भागों में बाँटा गया है-
(क) बाह्य कर्ण (outer ear)
(ख) मध्य कर्ण (middle ear)
(ग) अंत: कर्ण (inner ear)
इन तीनों भागों की बनावट तथा कार्यों का वर्णन निम्नांकित है-
(क) बाह्य कर्ण (Outer ear)—कान का जो भाग बाहर से दिखाई देता है, उसे बाह्य
कर्ण कहा जाता है। बाह्य कर्ण के दो भागों में बाँटा गया है-
(i) पिन्ना (pinna) तथा
(ii) कान की नली (auditory canal) |
इन दोनों का वर्णन इस प्रकार है-
(i) पिन्ना (Pinna)-कान का सबसे ऊपरी भाग जो सीप के आकर का होता है, उसे
पिन्ना कहा जाता है । यह भाग मुलायम हड्डियों से बना होता है । पिन्ना का मुख्य कार्य ध्वनि
तरंगों को इकट्ठा करके उसे कान की नली में भेजना होता है। मानव के लिए यह भाग कोई
खास महत्त्वपूर्ण नहीं होता है, क्योंकि ऐसा देखा गया है कि इसे नष्ट हो जाने पर भी सुनने में
कोई कमी नहीं आती है । इसका स्पष्ट मतलब यह हुआ कि सुनने में पिन्ना का योगदान बहुत
महत्त्वपूर्ण नहीं होता है।
1. कान की नली 2. कर्णपट 3. मुगदर 4. निहाई 5. रकाब 6. गाल खिड़की 7. अंडाकार
खिड़की 8. अर्द्धवृत्ताकार नालिका 9.काक्लिया 10. श्रवण तंत्रिका 11. कर्णकंठ नली
(ii) कान की नली (auditory canal)-बाह्यकर्ण का दूसरा भाग कान की नली
(auditory tube) होती हैं। यह करीब एक इंच लम्बी होती है। यह नला कुछ टढ़ी-मेढ़ी होती
है और इसमें छोटे-छोटे बाल भी होते हैं। इसमें कुछ तीखा पदार्थ भी बनता रहता है जो इतना
अधिक जहरीला होता है कि यदि उसमें भूल से कोई कीट-फतिंगा प्रवेश भी कर गया तो उसकी
मौत निश्चित है। इस तरह यह तीखा पदार्थ कान की रक्षा भी करता है। बाहर से आ रहे ध्वनि
तरंगों को कान की नली उन्हें कान की झिल्ली, जिसे कर्णपट्ट (ear drum) कहा जाता है, तब
पहुंँचा देती है। ध्वनि तरंगों से टकराने के बाद कर्णपट्ट में कंपन पैदा होता है।
(ख) मध्य कर्ण (Middle ear) मध्यकर्ण का प्रारम्भ कर्णपट्ट में होता है । मध्यकर्ण
में एक छोटी-सी जगह होती है जिसे कोटर (tympanic cavity) कहा जाता है। इसमें तीन
हड्डियाँ होती हैं-मुग्दर (hammer), निहाई (anvil) तथा रकाब (stirrup) | ये तीनों हड्डियाँ
एक-दूसरे से सटी होती हैं। इनमें जो हड्डी कर्णपट्ट से सटी होती है, उसे मुग्दर कहा जाता
है। मुग्दर दूसरी ओर निहाई से सटा होता है और निहाई का छोर रकाब से सटा होता है। रकाब
का दूसरा छोर अंत:कर्ण की अंडाकार खिड़की (oval window) से सटा होता है । जब कोई
ध्वनि तरंग कर्णपट्ट को प्रौपत करता है, जब मुग्दर, निहाई तथा रकाब तीनों ही प्रकंपित हो
जाते हैं जिसके कारण ध्वनि कई गुना अधिक तीव्र हो जाती है और अंडाकार खिड़की तक पहुंँच
जाती है जहाँ से अंतःकर्ण (inner ear) की शुरुआत होती है।
(ग) अंत: कर्ण (Inner ear) अंतःकर्ण कान का सबसे प्रमुख भाग है । इसकी शुरुआत
अंडाकार खिड़की (oval window) से होती है । अंत:कर्ण की बनावट तथा कार्य को ठीक ढंग
से समझने के लिए भागों में बाँटा गया है-
(i) अर्द्धवृत्ताकार नलिका (Semi-circular canal)-जब व्यक्ति किसी ध्वनि को सुनने
को कोशिश करता है, तो उस समय उसके शरीर का एक विशेष मुद्रा (posture) की जरूरत
पड़ती है ताकि कान उसाध्वनि तरंग को ठीक ढंग से ग्रहण कर सके । अर्द्धवृत्ताकार नलिक
वैसी मुद्रा बनाए रखने में काफी मदद करती है । इसका मतलब यह हुआ कि अर्द्धवृत्ताकार नलिका
यद्यपि कान में अवस्थित है, फिर भी इसका संबंध सुनने से प्रत्यक्ष रूप से नहीं है । इसका विशेष
महत्त्व शारीरिक संतुलन बनाए रखने से होता है । इस नलिका में एक तरल पदार्थ होता है जिसमें
किसी तरह की गति उत्पन्न हो जाने से व्यक्ति का शारीरिक संतुलन नष्ट हो जाता है तथा वह
लड़खड़ाने भी लगता है।
(ii) कोक्लिया (Chochlea)—कोक्लिया अंत:कर्ण का सबसे प्रमुख भाग होता है । सुनने
की क्रिया में इस भाग का महत्त्व सबसे अधिक है । यह घोंघे या शंख के आकार का होता है।
इसके भीतर तीन नलिकाएँ होती हैं जिनमें तरल पदार्थ भरा रहता है । ये तीन नलिकाएँ
हैं-वेस्टीब्युलर नलिका, कोक्लियर नलिका तथा टिपैनिक नलिका । कोक्लियर नलिका तथा
टिपैनिक नलिका के बीच की झिल्ली होती है जिसे बेसीलर झिल्ली (basilarmembrane) कहा
जाता है। इस बेसिलर झिल्ली पर आर्गन ऑफ कोर्टी (organ of corti) होती है जिसमें सेवार
के घास के समान पतली-पतली केश कोशिकाएँ होती हैं । जब ध्वनि तरंगें अंडाकार खिड़की
में प्रकंपन उत्पन्न करती हैं तो इससे वेस्टीब्युलर नलिका के तरल पदार्थ में भी कंपन उत्पन्न हो
जाती है। इससे टिपैनिक नलिका के तरल पदार्थ भी प्रकपित हो उठते हैं । इस हलचल से बेसीलर
झिल्ली भी प्रकपित हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप झिल्ली की कोशिकाएँ भी उत्तेजित हो जाती
हैं और उनमें श्रवण तंत्रिका आवेग उत्पन्न हो जाता है जो श्रवण तंत्रिका (auditory nerve)
द्वारा मस्तिष्क में पहुँचता है और उसके बाद व्यक्ति ध्वनि को सुन पाता है तथा उसका अर्थ समझ
पाता है।
इस तरह, स्पष्ट है कि बाह्य कर्ण का मुख्य कार्य ध्वनि तरंगों को ग्रहण करके कान के
भीतर भेजना होता है। मध्यकर्ण का मुख्य कार्य ध्वनि तरंग द्वारा उत्पन्न प्रकंपन को कई गुना
तेज कर देना होता है तथा अंत:कर्ण का मुख्य कार्य श्रवण तंत्रिका आवेग (auditory nerve
impulse) को उत्पन्न करके उसे मस्तिष्क में भेज देना होता है ।
Q. 6. अवधान की परिभाषा दें । अवधान के विभिन्न प्रकारों की व्याख्या सोदाहरण
करें।
Ans. अवधान की परिभाषा-व्यक्ति की ज्ञानेन्द्रियाँ किसी भी समय अनेक तरह के
उद्दीपनों से प्रभावित होती रहती है । वह इनमें सबों के प्रति अनुक्रिया न करके कुछ खास-खास
उद्दीपन को उनमें से चुनकर उनके प्रति अवश्य ही अनुक्रिया करता है । मनोविज्ञान में इस तरह
की चयनात्मक प्रक्रिया को अवधान (attention) कहा जाता है । यदि हम अवधान की एक उत्तम
परिभाषा देना चाहें तो इसे प्रकार दे सकते हैं-“अवधान एक चयनात्मक मानसिक प्रक्रिया हे
जिसके द्वारा व्यक्ति विशेष शारीरिक मुद्रा (bodily posture) बनाकर किसी उद्दीपन की चेतना
केन्द्र में ला पाता है।”
उक्त परिभाषा का विश्लेषण करने पर हमें अवधान के स्वरूप के बारे में निम्नांकित तथ्य
निश्चित रूप से मिलते हैं-
(i) अवधान एक चयनात्मक मानसिक प्रक्रिया है।
(ii) अवधान में विशेष शारीरिक मुद्रा (bodily posture) होती है ।
(iii) अवधान में सिर्फ कुछ ही उद्दीपन चेतना केन्द्र में होते हैं।
अवधान का स्वरूप चयनात्मक (selective) इसलिए होता है, क्योंकि व्यक्ति किसी भी
समय में उपस्थित कई उद्दीपनों में सिर्फ कुछ ही उद्दीपन को चुनकर उनपर ध्यान दे पाता है।
जब भी व्यक्ति किसी उद्दीपन या वस्तु पर ध्यान देता है तो उस समय शरीर के अंगों द्वारा एक
विशेष मुद्रा (posture) अपना ली जाती है । अवधान में व्यक्ति सिर्फ उपस्थित बहुत सारे उद्दीपनों
में से कुछ उद्दीपन का चयन ही नहीं करता बल्कि व्यक्ति चुने हुए उद्दीपन को चेतना केन्द्र में
भी लाता है । जब उद्दीपन चेतना केन्द्र में आ जाते हैं, तब उसकी स्पष्टता अधिक बढ़ जाती है।
अवधान कई प्रकार के होते हैं जो निम्नांकित हैं-
(क) ऐच्छिक अवधान (Voluntary attention)-ऐच्छिक ध्यान वह घ्यान है जिसमें
व्यक्ति अपनी इच्छा, अवश्यकता, उद्देश्य आदि के अनुकूल किसी उद्दीपन या वस्तु पर ध्यान देता
है। इस तरह ऐसे ध्यान में व्यक्ति की इच्छा की प्रधानता होती है तथा व्यक्ति जान-बुझकर किसी
वस्तु या उद्दीपन पर ध्यान देता है । इसमें कुछ बाधा भी उपस्थित हो सकती है। फिर भी, व्यक्ति
उस उद्दीपन या वस्तु की ओर ध्यान देने के लिए काफी प्रयत्नशील रहता है । जैसे, परीक्षा के
समय छात्र मनोरंजन के साधनों सिनेमा, दूरदर्शन आदि पर ध्यान न देकर पढ़ाई पर ध्यान अधिक
देते हैं यद्यपि पढ़ाई उन्हें नीरस ही क्यों न लगे । इस तरह, ऐच्छिक अवधान की कुछ स्पष्ट
विशेषताएँ हैं जिन्हें बिन्दुवार इस प्रकार बताया जा सकता है-
(i) ऐच्छिक अवधान में व्यक्ति की प्रेरणा तथा इच्छा की प्रधानता होती है।
(ii) ऐच्छिक अवधान में कोई-न-कोई निश्चित उद्देश्य होता है ।
(iii) ऐच्छिक अवधान में व्यक्ति जान-बूझकर उपस्थित कई उद्दीपनों में कुछ भी अवहेलना
करके किसी इच्छित एवं वांछित वस्तु या उद्दीपन पर ध्यान देता है ।
(ख) अनैच्छिक अवधान (Involuntary attention)—अनैच्छिक अवधान वैसे अवधान
को कहा जाता है जिसमें व्यक्ति की इच्छा या प्रेरणा की प्रधानता नहीं होती है सचमुच अनैच्छिक
अवधान न केवल व्यक्ति की इच्छा या प्रेरणा के बिना ही होता है बल्कि कभी-कभी उसके विरुद्ध
भी होता है। इस तरह के ध्यान में उद्दीपन (stimulus) का महत्त्व काफी होता है। उद्दीपन अपनी
विशेषताओं या गुणों के कारण व्यक्ति का ध्यान अपनी ओर खींच लेते हैं । अतः, यह कहा जा
सकता है कि जब कोई उद्दीपन अपने विशेष गुण या विशेषता के कारण व्यक्ति को अपनी ओर
खींच लेता है तो उस ध्यान को अनैच्छिक ध्यान (involuntary attention) की संज्ञा दी जाती
है। जैसे, यदि कोई छात्र अपने कमरे में पढ़ने में तल्लीन है और बगल में बम का धमाका हो
तो उसका ध्यान न चाहने पर भी धमाके की ओर चला जाता है। वहाँ उद्दीपन (बम) की विशेषता
अर्थात् तीव्रता एक विशेष गुण है जिसके कारण व्यक्ति का ध्यान उस ओर चला जाता है।
(ग) अभ्यस्त या स्वाभाविक अवधान (Habitual attention)-इस तरह के ध्यान
में व्यक्ति की इच्छा की कोई खास प्रधानता नहीं होती है बल्कि इसमें व्यक्ति की अभिरूचि,
प्रशिक्षण, आदत आदि की प्रधानता होती है और इसी के कारण वह किसी वस्तु या उद्दीपन पर
ध्यान दे पाता है। जैसे, शराबी का ध्यान शराब की दुकान की ओर, पान खानेवालों का ध्यान
पान की दुकान की ओर, बिल्ली का ध्यान चूहे की ओर, डॉक्टर का ध्यान रोगी की ओर जाना
एक अभ्यस्त-अवधान का उदाहरण है। इन उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि अभ्यस्त अवधान में
व्यक्ति अपनी, आदत, प्रशिक्षण, अभिरुचि के कारण ही किसी उद्दीपन या वस्तु पर ध्यान दे पाता
है।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि अवधान की प्रक्रिया एक चयनात्मक प्रक्रिया
(selective process) है जिससे व्यक्ति कुछ उद्दीपनों को अपने चेतना केन्द्र में लाता है । अवधान
के तीन प्रकार हैं जिनकी कुछ अपनी विशेषताएँ होती हैं।
Q.7. ध्यान की परिभाषा दें । इसकी विशेषताओं का वर्णन करें।
Ans. ध्यान की परिभाषा-व्यक्ति की ज्ञानेनिन्द्रयाँ किसी भी समय अनेक तरह के उद्दीपनों
से प्रभावित होती रहती हैं । वह इनमें सबों के प्रति अनुक्रिया न करके कुछ खास-खास उद्दीपन
को उनमें से चुनकर उनके प्रति अवश्य ही अनुक्रिया करता है । मनोविज्ञान में इस तरह की
चयनात्मक प्रक्रिया को अवधान (attention) कहा जाता है । यदि हम अवधान की एक उत्तम
परिभाषा देना चाहें तो इस प्रकार दे सकते हैं-“अवधान एक चयनात्मक मानसिक प्रक्रिया है
जिसके द्वारा व्यक्ति विशेष शारीरिक मुद्रा (bodily posture) बनाकर किसी उद्दीपन की चेतना
केन्द्र में ला पाता है।”
ध्यान की विशेषताएँ (Characteristics of attention)-ध्यान की परिभाषा का
विश्लेषण करने पर हमें ध्यान की कुछ निश्चित विशेषताओं का पता चलता है जिनमें निम्नांकित
प्रमुख हैं-
(i) ध्यान या अवधान एक चयनात्मक मानसिक प्रक्रिया है (Attention is aselec-
tive mental process) वातावरण में उपस्थित अनेक उद्दीपन हर समय हमारी ज्ञानेन्द्रियों की
प्रभावित करते रहते हैं । लेकिन, उनमें कुछ ही उद्दीपन हमारे चेतना केन्द्र (focus of conscious-
ness) में आते हैं, बाकी सभी उपेक्षित हो जाते हैं । व्यक्ति इन उद्दीपनों में से किसी एक को
चुन लेता है और उसी पर ध्यान देता है । इसलिए ध्यान को चयनात्मक मानसिक प्रक्रिया कहा
जाता है।
(ii) ध्यान एक प्रेरणात्मक प्रक्रिया है (Attention is a motivational process)-
घ्यान तथा प्रेरणा (motivation) में घनिष्ठ संबंध है। खासकर उत्तेजनाओं के चयन में प्रेरणा
का महत्त्वपूर्ण स्थान है । व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं, अभिरुचियों, मनोवृत्तियों आदि से प्रेरित
होकर किसी उद्दीपन को चेतना केन्द्र में लाता है अर्थात् उसपर ध्यान देता है ।
(iii) ध्यान का विस्तार सीमित होता है (Span of attention is limited)-एक समय
में उपस्थित कई उद्दीपनों में व्यक्ति जितने अधिक-से-अधिक उद्दीपनों पर ध्यान दे पाता है,उसे
ही ध्यान का विस्तार कहा जाता है। प्रयोगों द्वारा यह स्पष्ट है कि एक क्षण में सीमित वस्तुओं
पर ही ध्यान केन्द्रित हो पाता है। इन प्रयोगों में यह स्पष्ट है कि क्षणभर में 6 से 11 अक्षरों या
अंकों पर ही ध्यान केन्द्रित किया जा सकता है । अर्थपूर्ण अक्षरों के ध्यान का विस्तार 11 तक
होता है और निरर्थक शब्दों का ध्यान का विस्तार 6 से 8 तक का होता है। जिस उपकरण से
ध्यान विस्तार का अध्ययन किया जाता है,उसे ”टैचिस्टोस्कोप'( techistoscope) कहा जाता
है। इससे स्पष्ट है कि ध्यान का विस्तार तो सीमित होता ही है, साथ-ही-साथ विभिन्न प्रकार।
के उद्दीपनों के लिए ध्यान-विस्तार अलग-अलग होता है ।
(iv) ध्यान उद्देश्यपूर्ण होता है (Attention is purposive)-हम एक साथ अनेक
उद्दीपनों या वस्तुओं पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते । जब हम अनेक उद्दीपनों में से चुनकर किसी
एक उद्दीपन पर ध्यान केन्द्रित करते हैं तब उसके पीछे किसी उद्देश्य की पूर्ति का भाव छिपा रहता
है । जैसे, यदि कोई छात्र परीक्षा के समय खेलकूद से ध्यान हटाकर पुस्तकों की ओर केन्द्रित
करता है तब इसके पीछे उसका उद्देश्य परीक्षा में अधिक अंक लाकर उच्च स्थान प्राप्त करना
होता है । इस तरह ध्यान उद्देश्यपूर्ण होता है ।
(v) ध्यान में अस्थिरता तथा उच्चलन का गुण होता है (Attention has the property
of fluctuation and shifting)-ध्यान में अस्थिरता तथा उच्चलन दोनों का गुण होता है ।
ऐसा देखा गया है कि व्यक्ति का ध्यान प्रायः एक ही उद्दीपन के एक पहलू से दूसरे पहलू पर
परिवर्तित होता रहता है । यह गुण का ध्यान अस्थिरता (fluctuation of attention) कहा जाता
है। जैसे, यदि कोई व्यक्ति किसी सुन्दर चित्रकारी पर देखता है, तो उसका ध्यान चित्रकारी के
एक बूटे से दूसरे बूटे तथा फिर दूसरे बूटे से तीसरे बूटे पर अपने-आप जाता है। ध्यान के इस
गुण को ध्यान एक अस्थिरता (fluctuation of attention) कहा जाता है। ऐसा भी होता है
कि व्यक्ति का ध्यान एक उद्दीपन से दूसरे उद्दीपन तथा दूसरे से तीसरे उद्दीपन पर परिवर्तित होता
है । ध्यान के इस गुण को ध्यान उच्चलन (shifting of attention) कहा जाता है । जैसे, कपड़ा
की दुकान में जब व्यक्ति का ध्यान एक कपड़े से दूसरे कपड़े तथा दूसरे कपड़े से तीसरे कपड़े
पर जाता है, तब यह ध्यान उच्चलन (shifting of attention) का उत्तम उदाहरण बनता है ।
(vi) ध्यान में विभाजन का गुण होता है (There occurs division in attention)-
ध्यान में विभाजन संभव है। सामान्यतः जब एक ही समय में व्यक्ति दो भिन्न कार्यों को करने
लगता है तब इस प्रक्रिया में उसका ध्यान उन दोनों कार्यों पर होता है। अवधान की इस स्थिति
को अवधान विभाजन (division of attention) कहा जाता है। अक्सर देखा जाता है कि छात्र
किताब पढ़ते समय धीमा करके अपना रेडियो भी चालू रखते हैं । इस तरह, उनका ध्यान कुछ
किताब पर तथा कुछ रेडियो पर होता है । इस उदाहरण से यह स्पष्ट है कि ध्यान में विभाजन
का गुण होता है।
(vii) ध्यान में एक विशेष तरह की शारीरिक मुद्रा होती है (Attention involves
particular bodily posture)-जब भी व्यक्ति किसी वस्तु या उद्दीपन पर ध्यान देता है तो इसमें
एक विशेष शारीरिक मुद्रा भी होती है ताकि वह उद्दीपन का ठीक ढंग से प्रत्यक्षण करे । जैसे,
वर्ग में शिक्षक का भाषण सुनते समय छात्र अपने सिर, हाथ, पैर आदि को विशेष ढंग से कर
लेते हैं जिसे देखने से यह लगता है कि वे ध्यानमग्न होकर उनका भाषण सुन रहे हैं । इस तरह,
प्रत्येक ध्यान में एक विशेष शारीरिक मुद्रा होती है ।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि ध्यान की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जिनके आधार पर
इसके स्वरूप को भनीभाँति समझा जाता है ।
Q.8. ध्यान के वस्तुनिष्ठ निर्धारकों को बतायें ।
Ans. घ्यान या अवधान एक चयनात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति एक विशेष
शारीरिक मुद्रा बनाकर किसी वस्तु को चेतना केन्द्र में लाने के लिए तत्पर रहता है । व्यक्ति जब
उद्दीपन की विशेषताओं के कारण उनपर ध्यान देता है, तब इस स्थिति को ध्यान का वस्तुनिष्ठ
निर्धारक (objective determinanty कहा जाता है । वस्तुनिष्ठ निर्धारकों में निम्नलिखित कारकों
(factors) की भूमिका प्रधान है-
(i) उद्दीपन का आकार (Size of stimulus) ध्यान को आकृष्ट करने में उद्दीपन के
आकार का हाथ काफी महत्त्वपूर्ण है। मनोवैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ
है कि छोटे आकार के उद्दीपन की अपेक्षा बड़े आकार के उद्दीपन की ओर व्यक्ति का ध्यान तेजी
से खींच जाता है । इसलिए पुस्तकों, समाचारपत्रों आदि में मुख्य विषयों तथा खबरों को अधिक
मोटे-मोटे अक्षरों में दिया जाता है। खासकर अखबारों में जो विज्ञापन दिया जाता है, वह बहुत
ही बड़े-बड़े अक्षरों में रहता है जिससे पाठकों का ध्यान सबसे पहले उसी ओर जाता है । ठीक
इसी तरह दुकानदार भी लोगों के ध्यान को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए बड़े आकार का
साइनबोर्ड दुकान में लगाते हैं।
(ii) उद्दीपन की तीव्रता (Intensity of stimulus) अधिक तीव्र उद्दीपन कम तीव्र
उद्दीपन की अपेक्षा व्यक्ति का ध्यान जल्द अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है । शायद यही कारण
है कि बिजली के बल्ब की तीव्र रोशनी पर हमारा ध्यान लालटेन की रोशनी की अपेक्षा जल्द
चला जाता है। उसी तरह यदि कोई व्यक्ति अपने कमरे में रेडियों सुन रहा है और पड़ोसी के
यहाँ लाउडस्पीकर बजना प्रारम्भ हो जाता है, तो उस व्यक्ति का ध्यान बरबस लाउडस्पीकर की
आवाज की ओर चला जाता है । इसका कारण लाउडस्पीकर की आवाज का रेडियों की आवाज
से अधकि तीव्र होना है।
(iii) उद्दीपन का स्वरूप (Nature of stimulus)-किसी उद्दीपन पर ध्यान देने का एक
कारण उसका स्वरूप भी होता है । उद्दीपन के स्वरूप से तात्पर्य उसके प्रकार (Kinds) से होता
है । जैसे, दृष्टि उद्दीपन (visual stimulus), श्रवण उद्दीपन (auditory stimulus), घ्राण उद्दीपन
(olfactory stimulus), स्पर्श उद्दीपन (touch stimulus) आदि । श्रवण उद्दीपन में भाषण,
संगीत, वाद्य यंत्रों की आवाज आदि प्रमुख हैं । यदि किसी जगह मधुर संगीत हो रहा है, तो व्यक्ति
का ध्यान उसकी ओर अपने-आप चला जाता है । उसी तरह दृष्टि उद्दीपन भी हमारे ध्यान को
आकृष्ट करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । यही कारण है कि फिल्मी सितारों के चित्र साधारण
व्यक्ति की अपेक्षा आधुनिक नवयुवकों एवं नवयुवतियों का ध्यान अपनी ओर जल्द आकृष्ट कर
लेते हैं।
(iv) उद्दीपन की अवधि (Duration of stimulus)-जो उद्दीपन देर तक व्यक्ति को
ज्ञानेन्द्रिय को प्रभावित करता है, उसपर व्यक्ति का ध्यान उन उद्दीपनों की अपेक्षा जल्द चला जाता
है जो व्यक्ति की ज्ञानेन्द्रिय को क्षणभर के लिए प्रभावित करता है । जैसे, यदि किसी चित्र को
क्षणभर हमारे सामने रखकर हटा लिया जाए तो संभव है कि उसपर हमारा ध्यान नहीं भी जाय,
परन्तु यदि उसी चित्र को कुछ मिनट तक हमारे सामने रखा जाता है, तो हमारा ध्यान उस ओर
निश्चित रूप से जाता है। अतः, उद्दीपन की अवधि निश्चित रूप से व्यक्ति के ध्यान का निर्धारण
करती है।
(v) उद्दीपन का रंग (Colour of stimulus) व्यक्ति का ध्यान उद्दीपन पर उसके रंग के
कारण भी जाता है । शायद यही कारण है कि रंगीन विज्ञापनों पर व्यक्ति का ध्यान काले-उजले
(black-and-white) में किए गए विज्ञापनों की अपेक्षा तेजी से जाता है । सिनेमाघर तथा सिनेमा
के पोस्टरों को विभिन्न रंगों से सजाने के पीछे छिपा तक यही होता है कि ऐसे उद्दीपन व्यक्ति
के ध्यान को आसानी से अपनी ओर आकृष्ट कर सकने में सफल हो सकेंगे ।
(vi) उद्दीपन में परिवर्तन (Change in stimulus)-व्यक्ति का ध्यान किसी उद्दीपन की
ओर इसलिए भी चला जाता है, क्योंकि उसमें सहसा परिवर्तन आ जाता है । सड़क पर चलती
मोटरगाड़ी यदि अचानक रुक जाती है, तो सड़क पर चल रहे व्यक्ति का ध्यान उसपर तुरंत चला
जाता है । ठीक उसी प्रकार कमरा में बज रहा रेडियो यदि अचानक बंद हो जाता है, तो कमरे
में बैठे सभी व्यक्तियों का ध्यान उस ओर चला जाता है । इस तरह उद्दीपन में परिवर्तन भी ध्यान
आकृष्ट करने का एक प्रमुख कारक है। उद्दीपन में सहसा परिवर्तन की ओर क्रमिक परिवर्तन
की अपेक्षा ध्यान तेजी से जाता है
(vii) उद्दीपन की गति (Movementof stimulus)-गतिशील उद्दीपन स्थिर उद्दीपन की
अपेक्षा व्यक्ति का ध्यान जल्द ही अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। सिनेमाघरों की उन सजावटों
की ओर व्यक्ति का ध्यान जल्द चला जाता है जो गति का आभास प्रदान करते हैं। सड़क पर
चलती मोटरगाड़ी खड़ी मोटरगाड़ी की अपेक्षा व्यक्ति का ध्यान जल्द आकृष्ट कर लेती है, क्योंकि
चलती मोटरगाड़ी में गति होती है ।
(viii) उद्दीपन की नवीनता (Novelty of stimulus)-जब व्यक्ति के सामने कोई नया
उद्दीपन या पुराना उद्दीपन नए रूप में आता है, तो व्यक्ति का ध्यान उसकी ओर अनायास ही चला
जाता है । सचमुच, व्यक्ति ऊब एवं एकरसता से बचने के लिए इस नवीनता की ओर ध्यान देता
है । जैसे, देहाती इलाके में यदि कोई अंगरेज महिला चली जाए तो पूरे गाँवभर के लोगों का ध्यान
उसकी ओर इसलिए चला जाता है कि वैसी महिला उस परिस्थिति के लिए एक नवीन उद्दीपन
होती है । उसी प्रकार कोई युवती पैंट और शर्ट या कुरता पहनकर देहाती इलाके में जाती है तो
उस ओर लोगों का ध्यान अपने-आप चला जाता है
(ix) उद्दीपन की पुनरावृत्ति (Repetition of stimulus) जो उद्दीपन बार-बार एक
व्यक्ति के सामने आता है, उस ओर उसका ध्यान शीघ्र चला जाता है। परन्तु, यदि उसी उद्दीपन
को सिर्फ एक बार व्यक्ति के सामने लाया जाए तो हो सकता है कि उसकी ओर उसका ध्यान
न जाए । इसी तथ्य को ध्यान में रखकर किसी चीज का विज्ञापन बार-बार किया जाता है ।
खासकर, चुनाव प्रचार करते समय लोगों का ध्यान अपने उम्मीदवार की ओर आकृष्ट करने के
लिए प्रचारक लाउडस्पीकर द्वारा उसके नाम और चुनाव चिन्ह को बार-बार दोहराता है । इसी
तथ्य को ध्यान में रखकर रेडियों से अमुक्त फिल्म तथा वस्तु के बारे में थोड़े-थोड़े समय अंतराल
के बाद बार-बार पुनरावृत्ति की जाती है ।
(x) उद्दीपन में विरोध (Contrast in stimulus) जब दो या दो से अधिक उद्दीपनों में
आपस में विरोध होता है, तब इस कारण भी व्यक्ति का ध्यान उस उद्दीपन की ओर अनायास
चला जाता है । इस विरोध के कारण ही बहुत काली लड़कियों के बीच एक गोरी लड़की पर
या गोरी लड़कियों के बीच एक काली लड़की पर हमारा ध्यान तेजी से चला जाता है । इसी प्रकार
किसी सुंदरी के गोरे गाल पर काला तिल छोटा होने पर भी विरोध के कारण ध्यान आकृष्ट कर
लेता है। घोर अँधेरे में टिमटिमाता दीपक हमारे ध्यान को अपनी ओर खींच लेता है A
(xi) उद्दीपन का विलगन (Isolation of atimulus)-उद्दीपन का विलगन भी एक
कारक है जो ध्यान को प्रभावित करता है । विलगन का अर्थ किसी उद्दीपन का अन्य उद्दीपनों
से अलग होने से होता है । इस तथ्य को मद्देनजर रखते हुए सिगरेट आदि के प्रचारक बहुत बड़े
बैलून में सिगरेट के ब्रांड का नाम लिखकर उसे एक डोर से बाँधने के बाद आकाश में कुछ
ऊँचाई पर छोड़ देते हैं । जो लोग भी उधर से गुजरते हैं, उनका ध्यान उस ओर अवश्य चला
जाता है। फिर किसी क्लास में बैठे छात्रों के बीच से कोई एक छात्र खड़ा हो जाता है, तो सबका
ध्यान उस ओर चला जाता है । इन सबका कारण उद्दीपन का विगलन है।
स्पष्ट हुआ कि उद्दीपन की कई ऐसी विशेषताएँ होती हैं जिनके कारण व्यक्ति का प्रयास
अनायास उनकी ओर चला जाता है।
Q.9. प्रत्यक्षीकरण में पूर्वानुभव का क्या हाथ है ? वर्णन करें ।
Or, प्रत्यक्षीकरण में गत अनुभव का महत्त्व बतलायें ।
Ans. पूर्व अनुभूति का प्रत्यक्षीकरण में स्थान के विषय में मनोवैज्ञानिक विचारकों में दो
श्रेणियाँ हैं । कुछ विचारकों के अनुसार, पूर्व अनुभूति मनुष्य में एक मानसिक अवस्था को उत्पन्न
करती है । फलतः मनुष्य पूर्व में देखी हुई वस्तुओं को पूर्व की तरह देखता है । प्रत्यक्षीकरण से
जो ज्ञानात्मक व्यवहार या अनुभव उत्पन्न होते हैं उनका आधार पूर्व अनुभूति ही होती है । इन
मनोवैज्ञानिकों का मत है कि मनुष्य पूर्व-अनुभूति के अभाव में किसी भी चीज का प्रत्यक्षीकरण
नहीं कर सकता । इस विचार को पुष्टि के लिए मनोवैज्ञानिकों ने अनेक प्रयोग किये हैं । थाउलेस
महोदय ने एक प्रयोग किया है जिसमें व्यक्ति को कुर्सी दिखलाई । कुर्सी जिस व्यक्ति को दिखाई
गयी, उस व्यक्ति की आँखों में अक्षिपट पर विशेष प्रबन्ध द्वारा उस कुर्सी का प्रतिबिम्ब इस प्रकार
गिराया गया कि यह प्रतिबिम्ब कुर्सी उलट कर देखने पर होने वाले प्रतिबिम्ब की तरह था । ऐसी
अवस्था में व्यक्ति को की उल्टी हुई नजर आनी आवश्यक थी, पर ऐसा न हुआ । कुर्सी उस
व्यक्ति को सीधी ही जान पड़ती थी। कुर्सी को सीधा रख देखने का एकमात्र कारण मनुष्य की
पूर्व अनुभूति थी, जिसने मनुष्य में एक मानसिक स्थिति को उत्पन्न कर पूर्व की देखी वस्तु को
पहले की ही तरह देखने की प्रवृत्ति को सम्पन्न किया । अथात् उसने कभी भी उलटी हुई कुर्सी
का उस अवस्था में देखने का अनुभव नहीं किया था। पूर्व का अनुभव कुसा का साधा देखने
का था। फलतः उसने कुसी को सीधा ही रखा देखा । इस प्रयोग से यह स्पष्ट है कि पूर्व-अनुभूति
के अभाव में प्रत्यक्षीकरण संभव नहीं है। एक दूसरा प्रयोग एक जमान्ध व्यक्ति पर भी किया
गया था। जन्मान्य व्यक्ति की आँखों को ऑपरेशन से ठीक करने पर जब उसकी आँखों में रोशनी
आ गयी तो उसे त्रिभुज और वृत्त के आकार की दो भिन्न आकृतियाँ दिखलाई गयी। उस व्यक्ति
ने पहले कभी इन आकृतियों को नहीं देखा था। परिणामस्वरूप यह पाया गया कि वह व्यक्ति
इन दोनों चीजों के आपसी अन्तर को पहचानने में असमर्थ था। इसकी दृष्टि में वृत्त एवं त्रिभुज
में कोई अन्तर नहीं था। इस प्रयोग से भी पूर्व अनुभूति की महत्ता स्पष्ट हो जाती है।
दूसरे वर्ग के विचारक गेस्टाल्टवादी हैं। गेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों के अनुसार प्रत्येक
प्रत्यक्षीकरण में आकार और पृष्ठभूमि का सम्बन्ध रहता है। अर्थात् मनुष्य के अनुभवों में भी
पृष्ठभूमि और आकार का सम्बन्ध देखने को मिलता है। इसके अनुसार प्रत्यक्षीकरण संवेदना और
अर्थ का योग नहीं है। दूसरे शब्दों में, ऐसा नहीं होता कि किसी उद्दीपन के सम्बन्ध में जो अर्थ
हमें मालूम है उसका वही अर्थ हम हमेशा लगावें। हमेशा अर्थ पहले से निश्चित नहीं रहता है।
प्रत्यक्षीकरण प्राप्त करते समय परिस्थिति का महत्त्वपूर्ण हाथ रहता है। किसी भी वस्तु का
प्रत्यक्षीकरण किसी पृष्ठभूमि में होता है। यह.पृष्ठभूमि वस्तु के प्रत्यक्षीकरण में परिवर्तन ला सकती
है। उदाहरणार्थ, हमें यह अनुभव है कि पेड़ स्थिर रहते हैं, ये चल नहीं सकते । लेकिन जब चलती
रेलगाड़ी में सफर करते हैं तो अगल-बगल के पेड़-पौधे विपरीत दिशा में भागते हुए दीख पड़ते
हैं। इसी तरह दौड़ते हुए बादल की पृष्ठभूमि में चाँद दौड़ता हुआ लगता है। अतः उद्दीपन का
प्रत्यक्षीकरण हमेशा पूर्व निश्चित दिशा में ही नहीं होता। कभी-कभी गत अनुभव पृष्ठभूमि के
रूप में काम करते हैं।
इस प्रकार प्रत्यक्षीकरण में गत अनुभव का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कभी तो गत अनुभव कर
मानसिक वृत्ति का काम करता है जिसके परिणामस्वरूप किसी उद्दीपन का प्रत्यक्षीकरण पूर्व
निश्चित रूप में होता है और कभी यह पृष्ठभूमि का भी काम करता है जिसके फलस्वरूप
प्रत्यक्षीकरण एक खास तरह का होता है।
Q.10. भ्रम से आप क्या समझते हैं ? [B.M.2009A]
Or भ्रम कितने तरह के होते हैं ?
Ans. एक उत्तेजना के उपस्थित होने पर ज्ञानेन्द्रियों का सम्पर्क उस उत्तेजना का एक
सामाजिक और सर्वमान्य अर्थ होता है। पर कभी-कभी प्राणी उत्तेजनाओं के सम्पर्क में आने के
पश्चात् भी उनके सामाजिक एवं सर्वमान्य अर्थ को समझने में भूल कर जाता है। ऐसी अवस्थाओं
को ही विपर्यय या भ्रम की संज्ञा दी जाती है। इस प्रकार मनोविज्ञान का दृष्टि से भ्रम एक मानसिक
क्रिया है जिसके द्वारा किसी उपस्थित उद्दीपन का गलत ज्ञान प्राप्त होता है । इस प्रकार भ्रम के
सम्बन्ध में तीन बातें उल्लेखनीय हैं।
1. भ्रम एक मानसिक क्रिया है।
2. श्रम के लिए किसी उद्दीपन का उपस्थित रहना जरूरी है। किसी को अंधेरे में पेड़ के
उपस्थित रहने पर चोर का भ्रम होता है। ठीक उसी प्रकार रस्सी के उपस्थित रहने पर साँप का
भ्रम होता है, किसी मुसाफिर को देखकर मित्र का भ्रम होता है। यदि पेड़, रस्सी और मुसाफिर ।
न रहें, तो क्रमश: चोर, साँप और मित्र का भ्रम नहीं होगा।
3. भ्रम से उद्दीपन का गलत ज्ञान प्राप्त होता है। यही भ्रम होता है। यही भ्रम की सबसे
प्रमुख विशेषता है जो इसे प्रत्यक्षीकरण से भिन्न करती है। रस्सी को देखकर साँप समझना रस्सी
का गलत ज्ञान है।
भ्रम या विपर्यय के प्रकार (Kinds of Illusion)-विपर्यय प्रायः सभी सामान्य व्यक्तियों
में होता है। विपर्यय क्षणिक तथा स्थायी दोनों हो सकता है। यह भौतिक तथा मानसिक दोनों प्रकार
की परिस्थितियों के कारण हो सकता है। इस दृष्टिकोण से विपर्यय के दो प्रकार हो सकते हैं-
(अ) वैयक्तिक विपर्यय (Personal Illusion)-मानसिक परिस्थिति के कारण समुत्पन्न
विपर्यय वैयक्तिक कोटि का होता है। यह परिस्थिति के अनुसार क्षणिक अथवा स्थायी दोनों हो
सकता है। जैसे, रस्सी को साँप समझ लेना या पेड़ को आदमी समझ लेना, पेड़ को चोर समझ
लेना अथवा पानी को सूखा समझ लेना आदि वैयक्तिक विपर्यक के उदाहरण हैं। यह नितांत
क्षणिक-कोटि का दोष उससे दूर चला जाता है। जैसे, चिराग आते ही रस्सी को रस्सी तथा चटाई
को चटाई समझ लेना अथवा पाँव पड़ते ही पानी और सूखी जमीन का सही ज्ञान हो जाना इसके
प्रमाण है। इस प्रकार विपर्यय में वैयक्तिक भिन्नता होती है। एक ही व्यक्ति में भी यह देश, काल
तथा संदर्भ में परिस्थिति के अनुसार बदलता रहता है। इसका आधार पूर्णतः मानसिक होता है।
(ब) विश्वजनीन विपर्यय (Universal illusion)-इसे सामान्य विपर्यय भी कहा जाता
है। यह स्थायी होता है। इसका कारण भौतिक होता है। अपनी बुद्धि से ही सही अर्थ लगा लेने
पर उसमें विशेष परिवर्तन नहीं होता। सचेष्ट रहने पर भी इस प्रकार की गलती होती है। इस
प्रकार की गलती प्रायः सभी आदमी करते हैं। अतः इस कारण किसी को असामान्य नहीं कहा
जा सकता । इसका अपवाद सामान्यतः कोई नहीं हो सकता। इसके अनेक प्रमाण हमारे दैनिक
जीवन में मिलते हैं। उदाहरणार्थ-
1. पृथ्वी स्थिर है और सूर्य चलता हुआ नजर आता है।
2. जहाँ कहीं भी खड़े होकर आप अपनी आँखें फैलायें तो चारों ओर आकाश जमीन को
छूता हुआ नजर आता है।
3. चलती रेलगाड़ी की खिड़कियों से झाँकने पर ऐसा लगता है मानो अलग-बगल के वृक्ष
तथा बिजली के खम्भे पीछे की ओर भागते हों।
4. स्टेशन पर किसी एक गाड़ी में आप बैठे हैं। यदि बगल की दूसरी गाड़ी चलने लगे
तो आपको ऐसा लगेगा मानो आपको ही गाड़ी चल रही है।
5. रेल की दो पटरियों के बीच बैठकर आगे की ओर देखने पर ऐसा लगता है मानो दोनों
पटरियाँ कुछ दूरी पर जाकर बिल्कुल सट रही हों।
इस प्रकार के वस्तुगत तत्त्वों से समुत्पन्न स्थायी विपर्यय सभी सामान्य व्यक्तियों में पाये
जाते हैं। कभी-कभी पूर्ण वैयक्तिक स्तर का भी अस्थायी विपर्यय होते देखा जाता है। माँ-बाप,
गुरु तथा हितैषी, अभिभावक के डाँट-फटकार, भर्त्सना आदि का गलत अर्थ लगाकर आत्महत्या
कर लेना, अथवा उन्हें अपना जानी दुश्मन समझकर उनसे बदला लेने का प्रयास करना इसका
व्यावहारिक प्रमाण है। प्रयोगशाला में इस व्यवहार का विशेष अध्ययन किया गया है। इसका
महत्त्वपूर्ण प्रमाण दृष्टिगत विपर्यय में मिलता है। इसे ज्यामितिक विपर्यय भी कहते हैं।
(स) दृष्टिगत विपर्यय-दृष्टिगत विपर्यय को हम पाँच भागों में बाँट सकते हैं-1. दूरी
सम्बन्धी, 2. लम्बाई सम्बन्धी, 3. भरा स्थान, 4. मूलर लायर और 5. विपरीत । अब हम इन पर
विचार करेंगे-
1. दूरी सम्बन्धी विपर्यय-इसमें किसी रेखा की लम्बाई अथवा चित्र के आकार को समझने
में कठिनाई हो सकती है।
2. लम्बाई विपर्यय-समान लम्बाई की रेखाओं में खड़ी रेखा पड़ी रेखा से लम्बी मालूम
पड़ती है। वृण्ट के अनुसार खड़ी रेखा को देखने पर पड़ी रेखा की अपेक्षा अधिक समय और
श्रम लगता है, इसमें आँख को अधिक गति करनी पड़ती है। इसलिए उनका अधिक मूल्यांकन
हो जाता है। हेल्महोज ने इसमें आदत का स्थान भी माना है।
3. भरा स्थान विपर्यय-समान लम्बाई की दो रेखाएँ लीजिए। एक को बराबर दूरी पर
चार जगह काट दीजिए। दूसरी को यों ही भरा पूरा छोड़ दीजिए। आप देखेंगे कि भरा स्थान
रिक्त की अपेक्षा लम्बा पड़ता है।
4. मूलर लायर विपर्यय-समान लम्बाई की एक पंख पड़ी रेखा तथा दूसरी बाण रेखा
को एक साथ देखने से पंख रेखा बाण रेखा से बड़ी मालूम होती है। थायरी महोदय ने इसकी
व्याख्या दृश्य के आधार पर की है। उनके मुताबिक खुली रेखा विस्तृत होने के कारण
अधिक जगह को ढंँक लेती है। बन्द रेखा सीमित रहती है। अत: वास्तविक लम्बाई समझने में
गलती होती है।
5. विपरीत विपर्यय-दो समान क्षेत्रफल के वृत्तों को लीजिए। एक को छोटे तथा दूसरे
को बड़े वृत्त के क्षेत्रफल में रख दीजिये। यहाँ छोटे वृत्तों के बीच वाला वृत्त अपेक्षाकृत बड़ा
मालूम होगा।
इस प्रकार लम्बे व्यक्ति के साथ खड़ा रहने पर नाटा व्यक्ति बहुत ही नाटा लगता है।
कोण विपर्यय-कोण से दिशा का बोध होता है। जीलनर, हेरिंग, वुण्ट तथा पोगेनजर्फ
के चित्रों में इनका विशेष प्रमाण मिलता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि एक समकोण से कमवाले
कोण का अधिक मूल्यांकन होता है तथा एक समकोण से अधिक वाले कोण का कम मूल्यांकन
होता है।
इनके अतिरिक्त लिपिशोधक भ्रम तथा चलचित्र भ्रम के नाम विशेष उल्लेखनीय है । ये भी
सामान्य कोटि के स्थायी विपर्यय हैं। ये भी विश्वजनीन होते हैं।
Q.11. विपर्यय और विभ्रम में अन्तर स्पष्ट करें।
Ans. विपर्यय की तरह विभ्रम (Hallucination) में भी अयथार्थ प्रत्यक्षीकरण होता है।
लेकिन फिर भी इन दोनों में अन्तर है। विपर्यय और विभ्रम में पहला भेद यह है कि विपर्यय के
लिए बाह्य उत्तेजना की उपस्थिति अनविार्य है। जब हमारे सामने कोई वस्तु उत्तेजना के रूप में
उपस्थित की जाती है और हमें उसका यथार्थ प्रत्यक्षीकरण होता है, तब उसको विपर्यय कहते
हैं, जैसे-अंधेरी रात में जमीन में पड़ी रस्सी को देखकर उसे साँप समझना, ढूंठे पेड़ को देखकर
उसे चोर या भूत समझना हमारा विपर्यय है। किन्तु विभ्रम तो कभी-कभी किसी प्रत्यक्ष बाह्य
उत्तेजना से भी होता है। उदाहरणार्थ, सुनसान स्थान में कभी-कभी किसी के पुकारने की आवाज
सुनाई पड़ती है अथवा ऐसा जान पड़ता है कि कोई हमारा पीछा कर रहा है। वास्तव में, वहाँ
न तो कोई आवाज ही होती है और न कोई पीछा करनेवाला ही। वस्तुतः यह हमारा विभ्रम है।
विपर्यय का अनुभव प्रायः सभी व्यक्तियों को होता है, किन्तु विभ्रम का अनुभव बहुत थोड़े
से व्यक्तियों को ही होता है। विभ्रम प्रायः मानसिक रोगयुक्त तथा नशे में चूर व्यक्तियों को होता
है। हाँ, कभी-कभी सामान्य व्यक्तियों (Normal persons) में भी विभ्रम पाया जाता है।
किसी-किसी मानसिक रोगी व्यक्ति को ऐसा अनुभव होता है कि किसी ने पीछे से आकर उसकी
गर्दन दबा दी। वैसे ही, नशे में चूर व्यक्ति को ऐसा लगता है कि वह राजा है और सभी लोग
उसकी प्रजा । वस्तुतः ये मानसिक प्रतिमा मात्र हैं।
एक तरह की परिस्थिति सभी व्यक्तियों में एक तरह का ही विपर्यय उत्पन्न करती है, किन्तु
विभ्रम के साथ ऐसी बात नहीं है। उदाहरण के लिए हम मूलर-लायर-विपर्यय (Muller-Lyer
flusion) को ले सकते हैं, जिसका विशद व्याख्या के प्रकार की चर्चा करते समय की
जायगी। जहाँ तक विभ्रम का सम्बन्ध है, यह कहा जा सकता है कि एक ही परिस्थिति विभिन्न
व्यक्तियों में विभिन्न प्रकार के विभ्रम उत्पन्न कर सकती है। उदाहरणार्थ, सुनसान रात में किसी
को अपना नाम सुनने का विभ्रम होता है, तो किसी को चोरों की आहट का, किसी को भूत का
विभ्रम होता है, तो किसी को हत्यारे का।
Q.12. संक्षिप्त टिप्पणी लिखें-
(क) उत्तेजना (ख) प्रत्यक्षीकरण के निर्धारक (ग) प्रत्यक्षीकरण के आकार तथा
पृष्ठभूमि।
Ans.(क) उत्तेजना (Stimulus)-मस्तिष्क में वर्तमान संगठन करने की क्रिया कार्यशील
होना उत्तेजना पर निर्भर है। वातावरण की उत्तेजनाएँ मस्तिष्क में संगठन करने की क्रिया उत्पन्न
करती है। यह क्रिया जब मस्तिष्क में उत्पन्न होती है तो व्यक्ति की मानसिक अवस्था कुछ खास
तरह की हो जाती है। व्यक्ति को प्रत्यक्षीकरण मस्तिष्क की इस अवस्था के ही अनुरूप होता है।
इस प्रकार गेस्टाल्टवादियों के अनुवाद वातावरण में उपस्थित उत्तेजना एवं प्रत्यक्षीकरण में कोई
अनुरूपता नहीं रहती, किन्तु व्यक्ति के अनुभव और मानसिक क्रियाओं में काफी अनुरूपता देखी
जाती है।
गेस्टाल्टवादियों ने यह पूर्णतः स्पष्ट कर दिया है कि भोतिक वातावरण में उपस्थित
उत्तेजनाएँ हमारे अनुभव में पूर्णरूपेण नहीं मिलती हैं। व्यक्ति का वातावरण-सम्बन्धी ज्ञान का
अनुभव स्नायुमण्डल के स्तर पर हुए संगठन की देन है। इस संगठन के फलस्वरूप ही व्यक्ति
संवेदनाओं के द्वारा प्राप्त प्रदत्तों को ज्यों का त्यों ग्रहण नहीं करता, बल्कि उन प्रदत्तों का एक
भिन्न अनुभव इसे होता है, जिसकी अभिव्यक्ति वह अपने व्यवहारों में करता है। स्नायुमण्डल पर
हुए संगठन के फलस्वरूप व्यक्ति वातावरण का संगठित अनुभव करता है तथा वातावरण की
उत्तेजनाओं का प्रत्यक्षीकरण वह आकार एवं पृष्ठभूमि में करता है।
(ख) प्रत्यक्षीकरण के निर्धारक (Factors of perception)-गेस्टाल्टवादियों के अनुसार
प्रत्यक्षीकरण संवेदनाओं और गत अनुभवों के आधार पर उसकी व्याख्या नहीं की जा सकती।
वस्तु का वास्तविक रूप पूर्ण में है। जर्मनी में इसको गेस्टाल्टन (Gestaltan) और अंग्रेजी में
गेस्टाल्ट या जेस्टाल्ट (Gestalt) कहा जाता है। वस्तु के प्रत्यक्षण में उसके इस जेस्टाल्ट का बड़ा
महत्व है। गेस्टाल्ट के प्रभाव से ही चेहरा सुन्दर दिखलाई पड़ता है। प्रत्यक्षीकरण सम्बन्धी इस
सिद्धांत का प्रतिपादन सबसे पहले गेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों ने किया था। सन् 1912 में बर्दाईमर
ने प्रयोगों के आधार पर यह बतलाया कि उत्तेजना का प्रत्यक्षीकरण उसको पूर्ण रूप में होता है।
इस प्रकार आँख, नाक, कान, जिह्वा आदि विभिन्न इन्द्रियों से जो प्रत्यक्षीकरण होता है वह पूर्ण
रूप से ही होता है। हारमोनियम से निकली लय (Tune) बड़ी मोहक लगती है, परन्तु इस लय
के सा, रे, ग, म, को अलग-अलग कर दिया जाय तो यह लय गायब हो जायगी।
गेस्टाल्टवादियों के अनुसार, प्रत्यक्षीकरण भौतिक पदार्थों की उत्तेजना के फलस्वरूप प्राणी
के स्नायु-संस्थान में होने वाली शारीरिक क्रियाओं से निर्धारित होता है । व्यक्ति को जो कुछ दिखाई
पड़ता है वह बहुत कुछ उसे दिखलाई देने वाली वस्तु से उत्पन्न संवेदनाओं पर निर्भर होता है।
वातावरण में उपस्थित उत्तेजनाओं का प्रत्यक्षीकरण गेस्टाल्टवादियों के अनुसार मस्तिष्क
द्वारा वातावरण को संगठित करने पर आश्रित है। यह सत्य है कि उत्तेजनाओं के उपस्थित होने
पर संवेदनाएँ प्राप्त होती हैं, किन्तु व्यक्ति केवल इन संवेदनाओं के आधार पर ही प्रत्यक्षीकरण
नहीं करता। वह मस्तिष्क में स्थित संगठन-क्रिया के सहारे वातावरण को देखता है जिससे उसके
सामने उपस्थित होनेवाली उत्तेजनाएँ अर्थपूर्ण एवं संगठित होती हैं। इस प्रकार गेस्टाल्टवादियों के
मतानुकूल स्पष्टतः प्रत्यक्षीकरण एक जन्मजात क्रिया है। इस क्रिया के प्रमुख उद्देश्य-संगठन पर
ही वस्तु का ज्ञान आश्रित है। ज्ञान के क्षेत्र में विशिष्ट संगठन को निर्धारित करने वाले स्वतंत्र
संवेदनात्मक अंग प्रत्यक्ष क्रिया के रचनात्मक अंग कहलाते हैं। इन्हीं के आधार पर गेस्टाल्टवादी
मनोवैज्ञानिकों ने संगठन के कुछ नियम निकाले हैं। मुख्य नियम निम्नलिखित हैं-
1. समग्रता का नियम-गेस्टाल्टवादियों ने समग्रता के नियम को संगठन का सबसे
महत्वपूर्ण सिद्धांत माना है। इस नियम के अनुसार प्रत्यक्षीकरण में समस्त परिस्थिति का एक साथ
प्रत्यक्षण होता है। संवेदन-समूह प्राणी के मस्तिष्क पर संगठित आकार के रूप में असर डालता
है। यह संगठित आकार ही जर्मन भाषा में जेस्टाल्टन कहलाता है। किसी चित्र को देखने पर
आप का ध्यान सबसे पहले समग्र संगठन की ओर जाता है और आप यह नोट करते हैं कि कुछ
बिन्दु जोड़े में दिए गए हैं।
00 00 00 00 00
पूरे चित्र में जितने बिन्दु हैं उनकी संख्या की ओर आपका ध्यान बाद में जाता है और किसी
विशेष बिन्दु की ओर तो आप कठिनता से ही ध्यान दे पाते हैं। अर्थात् एक अकेले बिन्दु को
आप शायद ही कभी देखते हैं।
समग्रता के नियम का मतलब है कि प्रत्यक्षीकरण में समग्रता सबसे पहले दिखाई पड़ती
है। इसी कारण कभी-कभी देखने वाले का ध्यान चित्र के छोटे-मोटे दोष की ओर नहीं जाता।
यदि हम कोशिश करके देखें तो हमको आपने जाने-पहचाने व्यक्तियों के चेहरे में भी आँख, नाक
आदि की अलग-अलग विशेषताएँ याद नहीं आयेंगी जबकि हमने कभी जान-बूझकर उसकी ओर
गौर नहीं किया हो। इसका कारण यह है कि हमने समग्र चेहरे को एक साथ देखा है। चेहरे
के विशेष अंगों की ओर ध्यान नहीं दिया है। समग्रता के नियम को जेस्टाल्टवादियों ने कई तरह
के विपर्ययों से सिद्ध किया है।
2. आकृति और पृष्ठभूमि का नियम (Lawof Figure and Black-ground)-व्यक्ति
के सामने उसके वातावरण में अनेक उत्तेजनाएँ रहती हैं। व्यक्ति अपनी प्रवृत्ति के अनुरूप
वातावरण में उपस्थित इन उत्तेजनाओं में से किसी को अपने सामने आकार के रूप में रखता है।
अन्य उत्तेजनाएँ सामने आकार के रूप में रहने वाली उत्तेजना की पृष्ठभूमि में रहती हैं। आकार
और पृष्ठभूमि का सम्बन्ध वातावरण को संगठित करने में आवश्यक सहयोग देता है। रूबिन
महोदय ने कहा है कि उत्तेजना के उपस्थित होने पर प्रथम तो व्यक्ति को उत्तेजनाओं के साथ
सम्बन्ध परिलक्षित होने लगता है। अर्थात् व्यक्ति सामने की वर्तमान एक उत्तेजना के अतिरिक्त
अन्य उत्तेजनाओं को भी सम्बन्धित पाता है। प्रत्यक्षीकरण की इस दूसरी अवस्था के उपरान्त
व्यक्ति इन अनेक उत्तेजनाओं को एक-दूसरे से पृथक करने लगता है। इस पृथक्कीकरण की क्रिया
के फलस्वरूप एक उत्तेजना अत्यन्त स्पष्ट एवं सामने अन्य उत्तेजनों की पृष्ठभूमि में उपस्थित
होती है। इस प्रकार आकार और पृष्ठभूमि का सम्बन्ध प्रत्येक प्रत्यक्षीकरण की क्रियाओं में
परिलक्षित होती है। एक सामान्य अनुभव को हम लें, हम बर्ग में बैठे पढ़ रहे हैं। सामने दिवाल
में लगे ब्लैक बोर्ड को दिवाल से अलग नहीं देखते । यहाँ ब्लैक बोर्ड पीछे फैली दिवाल के ऊपर
उभरा हुआ होता है। इस प्रकार दिवाल पृष्ठभूमि के रूप में और ब्लैक बोर्ड आकार के रूप में
उपस्थित होता है। सेण्डर महोदय ने ‘आकार और पृष्ठभूमि’ के रूप में प्रत्यक्षीकरण करने की
प्रवृत्ति को जन्मजात माना है। इन्होंने एक प्रयोग जन्मान्ध व्यक्ति पर किया । इस जन्मान्ध व्यक्ति
की आँखें इलाज के बाद ठीक हो जाने के पश्चात् उसके सामने कुछ उत्तेजनाओं को उपस्थित
किया गया। उत्तेजनाओं की उपस्थिति के बाद व्यक्ति में आकार और पृष्ठभूमि का अनुभव एक
प्राथमिक अनुभव है जिसके अभाव में प्रत्यक्षीकरण असंभव हो जायेगा।
(क) आकार देखने में उभरा हुआ एवं ऊपर निकला हुआ मालूम होता है, परन्तु पृष्ठभूमि
आकार के पीछे दूर तक फैली रहती है।
(ख) आकार का स्थानीयकरण संभव है, परन्तु पृष्ठभूमि क फैले रहने के कारण उसका
स्थान निरूपण नहीं कर सकते।
(ग) आकार का अपना रंग होता है जो सतह पर केन्द्रीभूत रहता है। किन्तु पृष्ठभूमि का
रंग अस्पष्ट एवं परिवर्तनशील रहता है।
(घ) आकार मध्य चेतना में रहने के कारण अधिक दिनों तक स्मृति में रहता है। परन्तु
पृष्ठभूमि चेतना के मध्य में नहीं होती, अत: इसकी स्मृति व्यक्ति को अधिक दिनों तक नहीं रहती ।
गेस्टाल्टवादियों ने केवल संगठन के नियम ही नहीं बतलाये बल्कि बहुत से प्रयोगों के आधार
पर आकृति और पृष्ठभूमि निर्धारित करने वाले नियम भी बतलाये हैं जो निम्नलिखित हैं-
1. समानता का नियम (Law of Similarity)-पहला नियम समानता का नियम है । रंग,
आकृति, विस्तार आदि किसी भी प्रकार की समान्ता रखनेवाले अंगों में परस्पर संगठित होने की
प्रवृति रहती है।
2.समीपता का नियम (law of Proximity)-आकृति तथा पृष्ठभूमि का निर्धारक दूसरे
नियम समीपता का नियम है। देश-काल में एक-दूसरे के नजदीक के अंगों में संगठित होने की
प्रवृति होती है और उनका समग्र प्रत्यक्षीकरण होता है।
3.संगति का नियम (law ofSymmetry)-तीसरा नियम संगति का नियम है। संगति से
सभी अंग संगठित हो जाते हैं और उनका समग्र रूप से प्रत्यक्षीकरण होता है। इतना प्रभाव
समीपता और समानता का भी नहीं मालूम पड़ता जितना कि संगति का है।
4.सजातीयता का नियम (Lawof Homogenity)-आकृति तथा पृष्ठभूमि का निर्धारक
तीसरा नियम सजातीयता का नियम है। समान तीव्रता अथवा दीप्ति रखने वाले अंग संगठित हो
जाते हैं।
5. निरन्तरता-निरन्तरता का भी संगठन पर प्रभाव पड़ता है। निरन्तरता के आधार पर
सत्यता का नियम बना है।
6. आच्छादन (Closure)-निरन्तरता के समान ही आच्छादन का भी विभिन्न अंगों के
संगठन पर प्रभाव पड़ता है।
उपर्युक्त छः बाह्य कारकों (Peripheral Factors) के अलावा बर्दाईमर आदि गेस्टाल्टवादियों
ने संगठन में सहायक कुछ केन्द्रीय कारक (Central Factors) भी बतलाये हैं। ये केन्द्रीय कारक
व्यक्ति में होते हैं। इनके कारण व्यक्ति को मिली उत्तेजनाएँ एक खास तरह से संगठित हो जाती
हैं। वे केन्द्रीय कारक निम्नलिखित हैं-
1. परिचय (Familiarity)-जिस तरह के संगठन से व्यक्ति का परिचय हो जाता है वह
उसको शीघ्र और आसानी से दिखाई देने लगता है। किसी परिचित चित्र पहेली को दोबारा देखने
पर हम उसकी वास्तविकता को एकदम जान जाते हैं और बाकी आकृति से इसमें कोई बाधा नहीं
पड़ती। यदि किसी ऐसे व्यक्ति को यह चित्र दिखाया जाय जिसने उसे पैहले कभी न देखा हो
तो उसकी वास्तविकता को नहीं पहचान पायेगा। अत: जेस्टाल्टवादियों के अनुसार यह जरूरी नहीं
कि परिचय से प्रत्यक्षीकरण पर जरूर असर पड़े।
2. मानसिक तत्परता (Mental set)-दूसरा केन्द्रीय कारक मानसिक तत्परता है।
मानसिक तत्परता से उत्तेजनाओं के संगठन पर बड़ा असर पड़ता है। मानसिक तत्परता का एक
कारण आदत हो सकती है। उदाहरणार्थ, दार्शनिक जगत के तात्विक पक्ष की ओर देखता है और
व्यापारी दुनिया तत्परता किसी विशेष परिस्थिति में भी बन जाती है, जैसे-जब कोई व्यक्ति किसी
स्थान पर बहुत जल्दी पहुँचना चाहता है तो उसको तेज से तेज सवारी की गति भी धीमी जान
पड़ती है। मानसिक तत्परता के भेद के कारण ही अलग-अलग तरह की दिखाई पड़ती है।
बाह्य तथा केन्द्रीय कारक के अलावा गेस्टाल्टवादियों ने संगठन के सहायक तत्त्वों में
प्रोत्साहक कारकों (Reinforcing factors) को भी माना है। इससे उभार तथा अच्छी आकृति
को गिना जाता है। अधूरे को पूरा करना मस्तिष्क की प्रवृत्ति है, इसी कारण टूटी रेखाओं से बना
वृत्त पूरा दिखाई पड़ता है और उनके अन्तर की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। किसी चित्र में
उभरे हुए अंगों की ओर सबसे पहले हमारा ध्यान जाता है।
Q.13. प्रत्यक्षण की परिभाषा दें। प्रत्यक्षीकरण में सन्निहित प्रक्रियाओं की व्याख्या
करें।
Or, किसी वस्तु के प्रत्यक्षण में निहित प्रक्रियाओं की सोदाहरण व्याख्या करें।
Ans. प्रत्यक्षण की परिभाषा (Definition of Perception)-प्रत्यक्षण एक ऐसी मानसिक
प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति को उद्दीपन का ज्ञान होता है। स्पष्टतः प्रत्यक्षण एक संज्ञानात्मक
मानसिक प्रक्रिया (cognitie mental process) है। यदि हम प्रत्यक्षण की एक परिभाषा देना
चाहें, तो इस प्रकार दे सकते हैं-“प्रत्यक्षण एक जटिल संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसके
द्वारा पर्यावरण में किसी उपस्थित उद्दीपन का तात्कालिक ज्ञान होता है।” इस परिभाषा का
विश्लेषण करने पर हमें प्रत्यक्षण के स्वरूप के बारे में निम्नांकित तथ्य प्राप्त होते हैं-
(i) प्रत्यक्षण एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है (Perception is a complex mental
Process)-प्रत्यक्षण को एक जटिल मानसिक प्रक्रिया इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इसमें कई
तरह की उपप्रक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं।
(ii) प्रत्यक्षण एक संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है (Perception is a cognitive
‘mental process)-प्रत्यक्षण को एक संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया इसलिए कहा जाता है,
क्योंकि इसके द्वारा व्यक्ति को बाह्य तथा आंतरिक दोनों तरह के उद्दीपनों का अर्थपूर्ण ज्ञान होता
है।
(iii) प्रत्यक्षण में उद्दीपनों का तात्कालिक ज्ञान होता है (Perception gives immediate
knowledge of stimulus)-प्रत्यक्षण में वातावरण में उपस्थित उद्दीपनों का तात्कालिक ज्ञान
होता है। दूसरे शब्दों में, जब व्यक्ति के सामने कोई उद्दीपन उपस्थित रहता है, तब उसका ज्ञान
उसे तात्कालिक होता है न कि उसके बारे में कुछ देर तक सोचने के बाद ।
(iv) प्रत्यक्षण के लिए उद्दीपन की उपस्थिति अनिवार्य होती है (Forperception the
presence of stimulus is essential)-प्रत्यक्षण के लिए यह आवश्यक है कि उद्दीपन व्यक्ति
के सामने उपस्थित हो। जो उद्दीपन व्यक्ति के सामने उपस्थित नहीं रहता है, व्यक्ति उसके बारे
में मात्र चिंतन कर सकता है, प्रत्यक्षण नहीं।
प्रत्यक्षण में सन्निहित उपप्रक्रियाएँ (Subprocesses involved in perception)-
प्रत्यक्षण में कई तरह की उपप्रक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं। इन उपप्रक्रियाओं में निम्नांकित प्रमुख
हैं-
(क) ग्राहक प्रक्रिया (receptor process), (ख) प्रतीकात्मक प्रक्रिया (symbolic
process), (ग) एकीकरण की प्रक्रिया (unification process), (घ) भावात्मक प्रक्रिया
(affective process)।
इन चारों का वर्णन निम्नांकित है-
(क) ग्राहक प्रक्रिया (Receptor process)-प्रत्यक्षण की यह सबसे पहली तथा प्रमुख
प्रक्रिया है। इसमें दो चीजों का रहना आवश्यक है-उद्दीपन तथा ज्ञानेन्द्रिय । प्रत्यक्षण के लिए
जब कोई उद्दीपन व्यक्ति के सामने उपस्थित होता है तब समुचित ज्ञानेन्द्रिय उसे ग्रहण करती है।
इससे उसमें तंत्रिका आवेग (nerve impulse) पैदा होता है जो संवेदी तंत्रिका (sensory nerve)
द्वारा सुषुम्ना तथा मस्तिष्क में पहुँचता है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति को उस उद्दीपन का ज्ञान होता
है। ज्ञानेन्द्रिय से प्रारंभ होकर मस्तिष्क तक होनेवाली इस पूरी प्रक्रिया को ग्राहक प्रक्रिया
(receptor process) की संज्ञा दी जाती है।
(ख) प्रतीकात्मक प्रक्रिया (Symbolic process)-किसी उद्दीपन के प्रत्यक्षण में गत
अनुभूतियों (Past experiences) के कारण उस उद्दीपन से संबंधित कुछ अन्य अनुभव प्रतीक
(symbol) के रूप में याद आ जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति उस उद्दीपन का प्रत्यक्षण
और भी स्पष्ट ढंग से करता है । जैसे, गुलाब के फूल को देखकर अपनी फुलवारी का याद आ
जाना प्रतीकात्मक प्रक्रिया का उदाहरण है। उपहार में प्राप्त कलम को देखकर उसके देनेवाले
व्यक्ति का याद आ जाना प्रतीकात्मक प्रक्रिया का एक उत्तम उदाहरण है।
(ग) एकीकरण की प्रक्रिया (Unification process) जब व्यक्ति किसी उद्दीपन का
प्रत्यक्षण करता है, तब वह उसके विभिन्न पहलुओं का अलग-अलग प्रत्यक्षण न करके उसका
समग्र रूप से (as a whole) प्रत्यक्षण करता है । दूसरे शब्दों में, व्यक्ति उस उद्दीपन का एक
सम्पूर्ण इकाई के रूप में प्रत्यक्षण करता है । जैसे, जब व्यक्ति किसी साइकिल का प्रत्यक्षण करता
है, तब वह उसका डिल, पहिया, घंटी आदि का अलग-अलग प्रत्यक्षण न करके उसका एक
सम्पूर्ण इकाई (अर्थात् साइकिल) के रूप में प्रत्यक्षण करता है। उसी तरह यदि हम किसी व्यक्ति
के चेहरे पर देखते हैं, तो उसके नाक, होंठ, मुँह, भौंह, गाल आदि का अलग-अलग प्रत्यक्षण
न करके एक साथ एक इकाई के रूप में प्रत्यक्षण करते हैं।
(घ) भावात्मक प्रक्रिया (Affective process) प्रत्यक्षण में भावात्मक प्रक्रिया भी
सम्मिलित होती है। किसी उद्दीपन को देखने के बाद व्यक्ति में सुखद या दुःखद या तटस्थ भाव
अवश्य ही उत्पन्न होते हैं। व्यक्ति के अंदर इस प्रकार की होनेवाली प्रक्रिया को भावात्मक प्रक्रिया
कहा जाता है। जैसे, हम दोस्त को देखते हैं तो हममें सुखद भाव तथा दुश्मन को देखते हैं तो
दुःखद भाव उत्पन्न होता है । परन्तु, अपने घर के सदस्य को जिन्हें रोज देखते हैं, देखने पर न
तो सुखद भाव और न ही दुःखद भाव बल्कि तटस्थ भाव (neutral affect) उत्पन्न होते हैं।
इस उदाहरण से यह स्पष्ट है कि प्रत्यक्षण में भावात्मक प्रक्रिया भी सम्मिलित होती है ।
उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रयत्क्षण में कई तरह की उपक्रियाएँ सम्मिलित
होती हैं जिनसे इसका स्वरूप जटिल हो जाता है।
Q. 14. प्रत्यक्षण का अर्थ बतायें । प्रत्यक्षण तथा संवेदन में अंतर करें ।
Ans. प्रत्यक्षण की परिभाषा (Definition of perception) प्रत्यक्षण एक ऐसी
मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति को उद्दीपन का ज्ञान होता है । स्पष्टतः प्रत्यक्षण एक
संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया (cognitive mental process) है । यदि हम प्रत्यक्षण की एक
परिभाषा देना चाहे, तो इस प्रकार दे सकते हैं-“प्रत्यक्षण एक जटिल संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया
है जिसके द्वारा पर्यावरण में किसी, उपस्थित उद्दीपन का तात्कालिक ज्ञान होता है।”
प्रत्यक्षण तथा संवेदन में अंतर (Distinction between sensation and percep-
tion)-प्रत्यक्षण तथा संवेदन में प्रमुख अंतर निम्नांकित हैं-
(i) संवेदन एक सरलतम संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है जबकि प्रत्यक्षण एक जटिल
संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है। जब कोई उद्दीपन ज्ञानेन्द्रिय को उत्तेजित करता है, तब उसमें
तंत्रिका आवेग उत्पन्न हो जाते हैं । तंत्रिका आवेग जब मस्तिष्क में पहुँचता है, तब सबसे पहली
जो मानसिक प्रक्रिया होती है, उसे संवेदन कहा जाता है जिसमें उद्दीपन का आभासमात्र होता है।
लेकिन, प्रत्यक्षण इतनी सरल मानसिक प्रक्रिया नहीं है. । इसमें जटिलताएँ होती हैं, क्योंकि इसमें
अनेक उपप्रक्रियाएँ (subprocesses) सम्मिलित होती हैं ।
(ii) संवेदन द्वारा उद्दीपन (stimulus) का आभासमात्र अर्थात अर्थहीन ज्ञान होता है । लेकिन,
प्रत्यक्षण में उद्दीपन का अर्थपूर्ण ज्ञान होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि संवेदन में उद्दीपन
का मात्र आभास मिलता है, उसका पूर्ण ज्ञान नहीं होता है । परन्तु, प्रत्यक्षण में उस उद्दीपन का
पूर्ण ज्ञान हमें प्राप्त होता है जिसके परिणामस्वरूप हम यह पहचान कर पाते हैं कि अमुक उद्दीपन
क्या है । इसका कारण यह है कि संवेदन में मस्तिष्क का मात्र संवेदी क्षेत्र (sensory area)ही
कार्य करता है जबकि प्रत्यक्षण में संवेदी क्षेत्र के साथ-ही-साथ साहचर्य क्षेत्र (association
area) भी कार्य करता है।
(iii) संवेदन में मुख्य रूप से ग्राहक प्रक्रिया (receptor process) ही होती है, लेकिन
प्रत्यक्षण में ग्राहक प्रक्रिया के अलावा एकीकरण की प्रक्रिया, भावात्मक प्रक्रिया तथा प्रतीकात्मक
प्रक्रिया भी होती है । संवेदन की उत्पत्ति के लिए ज्ञानेन्द्रिय का उद्दीपन द्वारा प्रभावित होकर उसमें
तंत्रिका आवेग उत्पन्न होना और फिर उसे संवेदी तंत्रिका द्वारा सुषुम्ना होते हुए मस्तिष्क में पहुँचना
ही पर्याप्त होता है। परन्तु, प्रत्यक्षण के लिए इतना ही काफी नहीं है बल्कि इसके आगे की क्रियाएँ,
जैसे भावात्मक प्रक्रिया, प्रतीकात्मक प्रक्रिया तथा एकीकरण की प्रक्रिया आदि भी सम्मिलित होती
है। यही कारण है कि जब हम किसी उद्दीपन का प्रत्यक्षण करते हैं, तब हममें सुख या दुःख
का भाव, उस उद्दीपन से संबंधित कुछ अन्य चीजों की याद तथा उस उद्दीपन का समग्र एवं
समन्वित प्रत्यक्षण होता है।
(iv) एक ही उद्दीपन भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में लगभग एक समान संवेदन उत्पन्न करता है।
परन्तु, कई कारणों से वही उद्दीपन सभी व्यक्तियों में एक समान प्रत्यक्षण उत्पन्न नहीं कर पाता
है । जैसे, यदि एक उजले कागज पर अस्पष्ट चित्र व्यक्ति को थोड़ी देर के लिए दिखाया जाय,
तो उससे भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में संवेदन (आभासमात्र) लगभग एक समान होगा । परन्तु, इसका
प्रत्यक्षण सभी व्यक्तियों में एक समान नहीं होगा । अपनी आवश्यकता (need), अभिप्रेरणा
(motive) आदि के अनुसार उस अस्पष्ट चित्र का प्रत्यक्षण व्यक्ति अलग-अलग ढंग से करेगा।
(v) संवेदन की प्रक्रिया इतनी प्रारंभिक है कि इसका विश्लेषण नहीं किया जा सकता है
और यदि कोशिश की भी गई तो खुद संवेदन ही समाप्त हो जाएगा, परन्तु, प्रत्यक्षण की प्रक्रिया
ऐसी नहीं होती है । इसका विश्लेषण संभव है । इस गुण के कारण ही प्रत्यक्षण को एक जटिल
एवं मूर्त (complex and concrete) प्रक्रिया कहा जाता है जबकि संवेदन को एक प्रारंभिक एवं
अमूर्त (abstract) प्रक्रिया कहा जाता है ।
(vi) संवेदन में ज्ञानेन्द्रिय की प्रधानता अधिक होती है । इसमें मस्तिष्क की प्रधानता उतनी
नहीं होती है । तत्रिका आवेग (nerve impulse) मस्तिष्क में ज्योति पहुँचता है, संवेदन उत्पन्न
हो जाता है । लेकिन, प्रत्यक्षण में मस्तिष्क का कार्य इसके बाद प्रारंभ होता है जिसके
परिणामस्वरूप प्रतीक, भाव एवं संगठन से संबंधित प्रक्रियाएँ हो पाती हैं । स्पष्ट है कि प्रत्यक्षण
में मस्तिष्क की क्रियाशीलता संवेदन की क्रियाशीलता की अपेक्षा अधिक होती है।
स्पष्ट हुआ कि संवेदन तथा प्रत्यक्षण एक-दूसरे से भिन्न है ।
Q.15. अंतर बतावें-
(क) प्रत्यक्षण तथा विपर्यय (ख) प्रत्यक्षण तथा विभ्रम (ग) विपर्यय तथा विभ्रम।
Ans. (क) प्रत्यक्षण तथा विपर्यय में अन्तर (Distinction between Perception
and Illusion)-प्रयत्क्षण तथा विपर्यय दोनों ही मानसिक प्रक्रियाएँ हैं जिनके द्वारा उपस्थित
उद्दीपनों के बारे में ज्ञान होता है। इस समानता के बावजूद दोनों में अन्तर है जो निम्नांकित हैं-
(i) प्रत्यक्षण में उद्दीपन का सही ज्ञान होता है, परन्तु विपर्यय में उद्दीपन का गलत ज्ञान
होता है । जैसे, यदि कोई व्यक्ति कलम को देखकर कलम समझता है,तब यह प्रत्यक्षण का
उदाहरण है परन्तु किसी कारण से यह कलम को पेंसिल समझ बैठता है या अधर में रस्सी को
साँप समझ बैठता है, तो यह विपर्यय का उदाहरण होगा ।
(ii) प्रत्यक्षण का स्वरूप स्थायी होता है जबकि विपर्यय का स्वरूप अस्थायी होता है । जैसे,
जब किसी व्यक्ति को सामने रखे कलम का प्रत्यक्षण हो रहा है, तब वह उसका हमेशा कलम
के रूप में ही प्रत्यक्षण करेगा । उसी तरह कोई व्यक्ति आम देख रहा है, तो वह उसका हमेशा
आम के रूप में ही प्रत्यक्षण करेगा । परन्तु, अंधेरे में पड़े रस्सी को साँप समझ लेना एक विपर्यय
का उदाहरण है जो तबतक बना रहता है जबतक कि रोशनी का अभाव होता है । पर्याप्त रोशनी
पड़े ही व्यक्ति का यह विपर्यय समाप्त हो जाता है और वह उस रस्सी का रस्सी के ही रूप में
प्रत्यक्षण करने लगता है।
(iii) किसी उद्दीपन का प्रत्यक्षण सभी को एक समान होता है, परन्तु एक ही उद्दहपन का
विपर्यय विभिन्न व्यक्तियों में अलग-अलग हो सकता है। जैसे, बकरी को देखने पर सभी व्यक्ति
उसका बकरी के रूप में तो कोई भूत-प्रेत के रूप में भी प्रत्यक्षण कर सकता है । स्पष्टतः, एक
ही खंभे (उद्दीपन) विभिन्न व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न विपर्यय उत्पन्न कर रहा है।
स्पष्ट हुआ कि प्रत्यक्षण तथा विपर्यय में अन्तर कर रहा है ।
(ख) प्रत्यक्षण तथा विभ्रम में अन्तर (Distiction between Perception and
Hallucination)—प्रत्यक्षण तथा विभ्रम दोनों ही मानसिक प्रक्रियाएँ हैं। फिर भी, दोनों में अन्तर
है जो निम्नांकित हैं-
(i) प्रत्यक्षण में उद्दीपन उपस्थित होता है जबकि विभ्रम में उद्दीपन होता ही नहीं है बल्कि
इसमें उद्दीपन की उपस्थिति का मात्र आभास होता है । जैसे, ‘नारंगी’ का फल रख देने पर व्यक्ति
उसका नारंगी के रूप में प्रत्यक्षण करता है । परन्तु, जब किसी व्यक्ति को बिना किसी के द्वारा
पुकारे यह लगे कि कोई उसे पुकार रहा है या रात्रि के अँधेरे में यह लगे कि कोई उसके पीछे-पीछे
आ रहा है, तो विभ्रम का उदाहरण होगा ।
(ii) प्रत्यक्षण में उद्दीपन का अनुभव सभी व्यक्तियों को समान रूप से होता है जबकि विभ्रम
में उद्दीपन का चूँकि अभाव होता है, इसलिए विभिन्न व्यक्तियों में विभ्रम अलग-अलग प्रकार के
होते हैं।
(iii) प्रत्यक्षण सामान्य व्यक्तियों के लिए होता है जिसके लिए सामान्य और स्वस्थ मस्तिष्क
की जरूरत होती है। दूसरी तरफ, विभ्रम अधिकतर मानसिक रोग से ग्रसित व्यक्तियों, नशे में
चूर व्यक्तियों, थके-माँदे व्यक्तियों को ही होता हे । इससे स्पष्ट है कि प्रत्यक्षण सामान्य अवस्था
में होता है जबकि विभ्रम असामान्य अवस्थाओं में ही अधिक होता है ।
(iv) प्रत्यक्षण का स्वरूप स्थायी होता है जबकि विभ्रम का स्वरूप अस्थायी होता है। चूंँकि
प्रत्यक्षण में किसी उद्दीपन का सही ज्ञान होता है, इसलिए इसका स्वरूप स्थायी होता है। परन्तु
विभ्रम का स्वरूप हमेशा अस्थायी होता है। जैसे, यदि किसी व्यक्ति को यह महसूस होता है
कि कोई उसके पीछे-पीछे आ रहा है और वह यदि पीछे मुड़कर देखता है, तो उसका विभ्रम
तुरन्त ही समाप्त हो जाता है, क्योंकि उसके पीछे तो कोई व्यक्ति होता ही नहीं है ।
(v) प्रत्यक्षण में उद्दीपन वास्तविक एवं मूर्त होता है, परन्तु विभ्रम में उद्दीपन अमूर्त एवं
काल्पनिक होता है । सच्चाई यह है कि विभ्रम में उद्दीपन नहीं बल्कि उद्दीपन की मात्र कल्पना
होती है।
(vi) प्रत्यक्षण में उद्दीपन का सही या यथार्थ ज्ञान होता है, परन्तु विभ्रम में अनुपस्थित उद्दीपन
का मिथ्या या गलत एहसास होता है।
(ग) विपर्यय या भ्रम तथा विभ्रम में अंतर (Distinction between Illusion and
Hallucination)-भ्रम तथा विभ्रम दोनों ही मानसिक प्रक्रियाएँ हैं । भ्रम एक ऐसी मानसिक
प्रक्रिया है जिसमें उद्दीपन का अयथार्थ ज्ञान होता है तथा विभ्रम एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है
जिसमें उद्दीपन की अनुपस्थिति में ही उसका ज्ञान होता है । फिर भी, इन दोनों में अन्तर है जो
निम्नाकित हैं-
(i) विपर्यय में उद्दीपन उपस्थित रहता है, परन्तु विभ्रम में उद्दीपन अनुपस्थित रहता है ।
(ii) विपर्यय में उपस्थित उद्दीपन का गलत प्रत्यक्षण होता है, परन्तु विभ्रम में उद्दीपन नहीं
रहने पर भी उसका ज्ञान व्यक्ति को हो जाता है। अंधेरे में रस्सी को साँप समझ लेना विपर्यय
का उदाहरण है तथा अँधेरे में बिना किसी के पीछा किए ही यह समझ लेना कि कोई उसका
पीछा कर रहा है, एक विभ्रम का उदाहरण है।
(iii) विपर्यय के दो मुख्य प्रकार होते हैं-सामान्य या सर्वव्यापी विपर्यय (common or
universal illusion) तथा व्यक्तिगत विपर्यय (Personal illusion) । आगे अधिक दूरी पर
देखने से धरती और आकाश सटा हुआ नजर आना एक सामान्य विपर्यय का उदाहरण है तथा
अँधेरे में रस्सी को साँप समझना एक व्यक्तिगत विपर्यय का उदाहरण है। विभ्रम का कोई ऐसा
प्रकार नहीं होता है। हाँ, ज्ञानेन्द्रिय के अनुभव के आधार पर इसे दृष्टि विभ्रम, श्रवण विभ्रम आदि
श्रेणियों में बाँटा जा सकता है ।
(iv) सामान्य विपर्यय (common illusion)- सभी व्यक्तियों में एक समान होता है, परन्तु
विभ्रम का स्वरूप हमेशा व्यक्तिगत (personal) ही होता है । रेल की पटरियों को काफी दूर तक
देखने में एक बिन्दु पर सटा हुआ नजर आना एक सामान्य विपर्यय का उदाहरण है जो सभी
व्यक्तियों में होता है। उसी तरह आगे अधिक दूरी पर देखने से धरती और आकाश का सटा
हुआ नजर आना भी एक सामान्य विपर्यय का उदाहरण है जो सभी व्यक्तियों को होता है। इसका
स्वरूप व्यक्तिगत ही होता है । सुनसान अँधेरी रात में बिना किसी आवाज के दिए जाने का विभ्रम
यदि किसी व्यक्ति को होता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि उस परिस्थिति में ऐसा अनुभव
सभी व्यक्तियों को हो । अतः, विभ्रम का स्वरूप हमेशा व्यक्तिगत ही होता है ।
स्पष्ट हुआ कि विपर्यय तथा विभ्रम में अन्तर है ।