9TH SST

bihar board 9 history notes | वन्य समाज और उपनिवेशवाद

वन्य समाज और उपनिवेशवाद

bihar board 9 history notes

class – 9

subject – history

lesson 6 – वन्य समाज और उपनिवेशवाद

SabDekho.in

वन्य समाज और उपनिवेशवाद

महत्त्वपूर्ण तथ्य -वन सम्पदा एक महत्त्वपूर्ण संसाधन है। लगभग बाइस से पच्चीस प्रतिशत भूमि वनों से ढकी है। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार इन वनों में भारतीय प्रायद्वीप के मूल निवासी रहा रहते हैं जिसके कारण इन्हें आदिवासी कहा जाता है। आदिवासियों के साथ वनों का महत्वपूर्ण संबंध है। भोजन, ईंधन, लकड़ी, घरेलू सामग्री, जड़ी-बूटी, औषधियों, पशुओं के लिए चारा और कृषि औजारों की सामग्री के लिए ये वनों पर निर्भर रहते हैं। अपनी संस्कृति के अनुसार ये अनेक वृक्षों की पूजा भी करते हैं। भारत में अनेक प्रकार की जनजातियाँ पाई जाती हैं। भारत में भील सबसे बड़ी जनजाति है जो मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, गुजरात, कर्नाटक एवं त्रिपुरा राज्यों में पाई
जाती है। गोंड इसके बाद की दूसरी सबसे बड़ी जनजाति है जो मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र एवं गुजरात में पाई जाती है। इन्हीं प्रदेशों में अन्य जातियों में उरांव, मीना, मुंडा, खोंड आदि पाई जाती है। अठारहवीं शताब्दी के पहले तक ये जन-जातियाँ अपने जीविकोपार्जन के लिए वन सम्पदा का प्रयोग करते थे। इनका आर्थिक तथा सामाजिक जीवन बड़ा सीध-सादा होता था। लेकिन शताब्दी के अंत तक ये उपनिवेशवाद के शिकार हो गए जिसकी वजह से कई सशस्त्र विद्रोह तथा क्रांतियाँ भी हुईं। बाद में कुछ सुधारात्मक आदेश भी पारित किए गए। आदिवासियों के जीवन के कुछ मुख्य पहलू हैं-
राजनीतिक जीवन-
अठारहवीं शताब्दी में वन्य समाज कबीलों में बँटा हुआ था। कबीले का प्रमुख मुखिया था जिसका मुख्य कर्त्तव्य कबीले को सुरक्षा प्रदान करना था। धीरे-धीरे इन्होंने कबीलों पर अपना अधिकार जमाना शुरू कर दिया तथा अपने लिए कुछ विशेषाधिकार भी प्राप्त कर लिये । परम्परागत जनजातियाँ वैधानिक, न्यायिक तथा कार्यपालिका में विकेन्द्रीकृत थीं। बिहार के सिहभूम में ‘मानिकी’ व ‘मुंडा’ प्रणालियाँ और संथाल परगना में ‘मांझी’ व ‘पटगनैत’ प्रणालियाँ आज भी प्रचलित हैं। अंग्रेजी शासन के समय अंग्रेजों द्वारा प्रलोभन दिए जाने पर ये मुखिया लोग भी राजस्व वसूलने में अंग्रेजों का साथ देने लगे।
सामाजिक जीवन-
आदिवासी जंगलों से लकड़ी काटते थे, पशुओं का चारा भी जंगल से लेते थे। मनोरंजन के लिए हिरण, तीतर और अन्य छोटे-बड़े पशुओं का शिकार करते थे। नाच और गाना इनका शौक था। महिलाएँ भी जीविकोपार्जन के लिए पुरुषों का हाथ बँटाती थीं। चैत्र शुक्ल तृतीया तिथि को
आज भी सरहुल मनाया जाता है। उपनिवेशवाद की भावना से प्रेरित होकर अंग्रेजी सरकार ने छोटे शिकार पर प्रतिबंध लगा दिया। उनका मानना था कि बड़े जानवरों को मारकर वे समाज को सभ्य बनाएँगे। फलस्वरूप कई प्रजातियाँ नष्ट होने लगीं। इस प्रकार अंग्रेजों ने सामाजिक जीवन को भ्रष्ट करने की पूरी कोशिश की।
आर्थिक जीवन-
आदिवासियों का आर्थिक जीवन मुख्यतः कृषि पर आधारित था। वे जगह बदल-बदल कर घुमंतू था । झूम विधि से खेती करते थे। जगह बदलने के कारण अंग्रेजों को लगान लगाने तथा उसकी वसूली में परेशानी होती थी। अत: अंग्रेजी सरकार ने इस पर पाबंदी लगा दी। आदिवासी
खेती के अलावा हाथी दाँत, बाँस, मशाले, रेशे, रबर आदि का व्यापार किया करते थे। डायट्रिच बैडिस नामक जर्मन वन विशेषज्ञ ने सन् 1864 में ‘वन सेवा’ की स्थापना की तथा सन् में भारतीय वन अधिनियम’ पारित कर वनों की कटाई पर रोक लगा दिया गया। इससे आदिवासियों का आर्थिक एवं सामाजिक जीवन प्रभावित हुआ। अंग्रेजी शासन ने राजस्व वसूली के लिए जमींदारी व्यवस्था लागू की। जमींदारों, महाजन तथा साहुकारों द्वारा आर्थिक शोषण की वजह से आदिवासी किसान से मजदूर होते चले गए तथा. इनकी आर्थिक स्थिति बद से बदतर चली गई। कभी-कभी इन्हें खुद को भी गिरवी रखना पड़ता था।
धार्मिक जीवन-अंग्रेजों ने जनजातीय क्षेत्रों में प्रवेश करने की पूरी कोशिश की पर वे सफल नहीं हो सके। फिर उन्होंने शिक्षा देने के बहाने इसाई मिशनरियों की मदद से घुसपैठ करने की कोशिश की। कालान्तर में पादरी आदिवासी धर्म की आलोचना कर उनका धर्म परिवर्तन करवाने लगे। धर्म परिवर्तन के पश्चात उनकी स्थिति में सुधार तो हुआ लेकिन वो अपने अन्य आदिवासियों से घृणा
करने लगे। इस प्रकार अंग्रेजों द्वारा उनके बीच फूट डालने की कोशिश ने आदिवासियों को विद्रोह के लिए भड़काया। इस विद्रोह ने कई क्रांतियों एवं नेताओं को जन्म दिया। उन नेताओं का विश्वास था कि ईश्वर उनके कष्टों को दूर करेगा तथा विदेशियों के शोषण से मुक्त करेगा।

आदिवासियों द्वारा किए गए प्रमुख विद्रोहों-
(i) पहाड़िया विद्रोह-यह जाति युद्धप्रिय थी। इनका निवास स्थान भागलपुर की पहाड़ियों में था। अंग्रेजों ने साहुकारों, ठेकेदारों, राजस्व, वन तथा पुलिस विभाग के अधिकारियों द्वारा आदिवासियों का शोषण करने के लिए प्रेरित किया जिसके फलस्वरूप जनजातियों का आर्थिक आधार तहस नहस हो गया। इस विद्रोह का नेता तिलका मांझी था जिसका जन्म 1750 ई. में भागलपुर प्रमंडल स्थित सुल्तानगंज के पास तिलकपुर गाँव में हुआ था। सन् 1779 ई. में उसने पहली बार भू-राजस्व की राशि कम करने तथा किसानों की भूमि छुड़वाने के लिए विद्रोह किया था। भागलपुर के प्रथम कलक्टर अगस्टस क्लेवलैंड पर सशस्त्र प्रहार किया। हिंसात्मक कार्यों एवं अंग्रेज विरोधी नीतियों के कारण सन् 1785 ई. में भागलपुर में बीच चौराहे पर बरगद के पेड़ पर लटका कर फाँसी दे दी गई।
(ii) तमार विद्रोह-सन् 1789 ई० में छोटानागपुर के उरांव जनजाति ने जमींदारों के शोषण के खिलाफ आंदोलन किया जिसे हम तमार विद्रोह के नाम से जानते हैं। यह सन् 1794 तक चलता रहा तथा इसे अंग्रेजों के द्वारा बहुत ही क्रूरतापूर्ण तरीके से दबा दिया। आगे चलकर इनका विरोध मुंडा और संथाल के साथ मिलकर प्रदर्शित किया।
(iii) चेरो विद्रोह-बिहार में पलामू क्षेत्र में रहने वाले चेरो जनजाति के लोगों ने अपने राजा चुडामन राय के खिलाफ विद्रोह किया जिसे चेरो विद्रोह कहते हैं। अंग्रेजों के शोषण के खिलाफ भूषण सिंह के नेतृत्व में चेर जनजाति के लोगों ने सन् 1800 ई० में खुला विद्रोह किया। मदद के लिए कर्नल जोन्स के नेतृत्व में आई सेना ने इस विद्रोह को दबा दिया और सन् 1802 ई० में भूषण सिंह को फाँसी दे दी गई।
(iv) चुआर विद्रोह-यह जनजाति तत्कालीन बंगाल प्रांत के मिदनापुर, बाँकुड़ा, मानभूम आदि क्षेत्रों में पाई जाती थी। अंग्रेजों की लगान व्यवस्था के खिलाफ मिदनापुर स्थित करणगढ़ की रानी सिरोमणी के नेतृत्व में चुआरों ने विद्रोह का झंडा उठाया। सन् 1798 ई० में यह चरमोत्कर्ष पर था। सरकार ने 6 अप्रैल 1799 को रानी सिरोमणी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। आगे चलकर ये लोग भूमिज जाति के साथ हो गए।
(v) “हो” विद्रोह-सन् 1820-21 ई० में छोटानागपुर के सिंहभूम जिले में “हो” जाति के लोगों ने विद्रोह किया था। आगे चलकर ये लोग मुंडा विद्रोह में शामिल हो गए।
(vi) कोल विद्रोह-कोल विद्रोह की शुरुआत छोटानागपुर क्षेत्र में मुंडा, उरांव एवं अन्य जनजातियों के द्वारा 1831 ई० में हुआ। अंग्रेजों की लगान व्यवस्था एवं शोषण की नीति के कारण कोलों के सहयोगी मानकी जमींदार बन बैठे थे तथा उनका आर्थिक तथा सामाजिक शोषण करने
लगे थे। अत: कोलों ने जल्द ही इसके खिलाफ विद्रोह किया।
(vii) भूमिज विद्रोह-सन् 1832 ई. में वीरभूम के जमींदार के पुत्र गंगा नारायण के नेतृत्व में भूमिज विद्रोह की शुरुआत की। अधिक राजस्व के बोझ के कारण इन्होंने भी औपनिवेशिक शासन का विरोध किया था। इन सभी जनजातियों ने सन् 1857 ई. के सिपाही विद्रोह में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
(viii) संथाल विद्रोह-यह विद्रोह बहुत ही महत्वपूर्ण विद्रोह है क्योंकि इसी ने आगे चलकर 1857 ई. की क्रांति को प्रभावित किया था। सन् 1854 ई. आते-आते आदिवासियों नेचिरस्थाई प्रबंध द्वारा अत्यधिक राजस्व वसूली, सामाजिक प्रतिबंध और कई तरह के आर्थिक कष्टं से छुटकारा पाने के लिए कई सभाओं का आयोजन करने लगे। 30 जून 1855 को भगनाडीह गाँव में संथालों की एक सभा आयोजित की गई जिसमें संथालों ने सिद्धू तथा कान्हू के नेतृत्व में स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। जुलाई 1855 ई. में स्त्री एवं पुरुषों के आह्वान पर संथालों का विद्रोह आरम्भ हो गया। जल्द ही लगभग 60 हजार हथियारबंद संथालों का विद्रोह आरम्भ हो गया। आदिवासियों के इस तरह के संगठित विद्रोह से अंग्रेज डर गए थे। उन्होंने कलकत्ता तथा पूर्णिया से सेना बुलाकर इस विद्रोह को कुचल डाला। अन्य नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
(ix) मुंडा विद्रोह-सन् 1899-1900 में छोटानागपुर में मुंडा आदिवासियों ने उपनिवेशवाद का विरोध बिरसा मुंडा के नेतृत्व में किया। बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर 1874 को पलामू जिले में हुआ। सन् 1895 ई. में उसने अपने-आपको ईश्वर का दूत घोषित कर दिया। उसने मुंडा
जाति के साथ-साथ अन्य जनजातियों में भी जागरूकता पैदा की तथा 25 दिसम्बर, 1899 ई. को ईसाई मशीनरियों पर आक्रमण कर दिया। 8 जनवरी, 1900 ई. को ब्रिटिश सरकार ने इस विद्रोह को कुचल दिया।
(x) कंध विद्रोह-इस जनजाति में विपत्ति एवं आपदाओं से मुक्ति प्राप्त करने के लिए ‘मरियाह प्रथा’ का प्रचलन था। सन् 1837 ई. में ब्रिटिश सरकार ने इसे रोकने का प्रयास किया जिसका चक्र बिसोई नामक नेता ने इसका विरोध किया। सन् 1857 ई. की क्रांति में कंध आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ सैन्य संचालन किया। उड़ीसा के ही भुइयां एवं जुआंग आदिवासियों ने वहाँ के राजा की सामन्तवादी एवं दमनकारी नीति के खिलाफ आवाज उठाई। भारत के अन्य प्रदेशों में सन् 1879-80 ई. में आंध्र प्रदेश का ‘वेट्टी प्रथा’ बलात मजदूर प्रथा के खिलाफ विद्रोह किया। परिणामस्वरूप 1935 ई. में जनजाति के लिए शिक्षा और आरक्षण का आदेश पारित किया गया। सन् 1952 ई. में सरकार ने ‘नई वन नीति’ बनायी। वह वनों की रक्षा तथा आदिवासियों के अधिकारों की रक्षा के लिए उठाया गया। भारत सरकार का महत्त्वपूर्ण कदम है। वन्य जीवन व्यतीत करने वाले औपनिवेशिक शासन से तो मुक्त हो गए लेकिन उपनिवेशवाद से मुक्त होने के लिए किया गया प्रयास अभी भी समाप्त नहीं हुआ है बल्कि उसका स्वरूप बदल गया है। यह अब क्षेत्रवादी आंदोलन में परिणत हो गया है जिसके अन्तर्गत वे लोग अलग राज्य
की मांग करने लगे। भारत सरकार ने उनकी लम्बित मांगों को ध्यान में रखकर एक पृथक राज्य का गठन । नवम्बर 2000 ई. को किया। इसी प्रकार 15 नवम्बर, 2000 को बिहार राज्य का पुनर्गठन करके एक अलग आदिवासी बहुल क्षेत्र झारखंड की स्थापना की।
अत: आदिवासियों द्वारा उपनिवेशवाद से मुक्ति के लिए किया गया प्रयास उनके उत्थान में बहुत सहायक हुआ।

वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर
भारतीय वन अधिनियम कब पारित हुआ?
(क) 1864
(ख) 1865
(ग) 1885
(घ) 1874
उत्तर-(ख)
2. तिलका मांझी का जन्म किस ई में हुआ था ?
(क) 1750
(ख) 1774
(ग) 1785
(घ) 1850
उत्तर-(क)
3.तमार विद्रोह किस ई. में हुआ था ?
(क) 1784
(ख) 1788
(ग) 1789
(घ) 1799
उत्तर-(ग)
4.’चेरो’ जनजाति कहाँ की रहनेवाली थी?
(क) राँची
(ख) पटना
(ग) भागलपुर
(घ) पलामू
उत्तर-(घ)
5. किस जनजाति के शोषण विहीन शासन की स्थापना हेतु ‘साउथ वेस्ट फ्रांटियर एजेंसी’ बनाया गया था ?
(क)चेरो
(ख) हो
(ग) कोल
(घ) मुण्डा
उत्तर-(ग)
6. भूमिज विद्रोह कब हुआ था ?
(क) 1779
(ख) 1832
(ग) 1855
(घ) 1869
उत्तर-(ख)
7. सन् 1855 के संथाल विद्रोह का नेता इनमें से कौन था ?
(क) शिबू सोरेन
(ख) सिद्धू
(ग) बिरसा मुंडा
(घ) मंगल पांडे
उत्तर-(ख)
8. बिरसा मुंडा ने ईसाई मिशनरियों पर कब हमला किया ?
(क) 24 दिसम्बर, 1889
(ख) 25 दिसम्बर, 1899
(ग) 25 दिसम्बर, 1900
(घ) 8 जनवरी, 1900
उत्तर-(ख)
9.भारतीय संविधान के किस धारा के अन्तर्गत आदिवासियों को कमजोर वर्ग का दर्जा दिया गया है?
(क) धारा 342
(ख) धारा 352
(ग) धारा 356
(घ) धारा 360
उत्तर-(क)
10. झारखंड को राज्य का दर्जा कब मिला ?
(क) नवम्बर, 2000
(ख) 15 नवम्बर, 2000
(ग) 15 दिसम्बर, 2000
(घ) 15 दिसम्बर, 2000
उत्तर-(ख)

खाली जगह भरें:
1. जनजातियों की सर्वाधिक आबादी…..में है।
उत्तर-मध्य प्रदेश
2. अठारहवीं शताब्दी में वन्य समाज कई……में बंटा था।
उत्तर-जातियों।
3. वन्य समाज में शिक्षा देने के उद्देश्य से ………घुसपैठ की।
उत्तर-ईसाई मिशनरियों ने।
4. जर्मन वन विशेषज्ञ डायट्रिज बैडिस ने सन् 1864 ई० में………की स्थापना की।
उत्तर-वन सेवा।
5……………….पहला संथाली था, जिसने अंग्रेजों पर हथियार उठाया।
उत्तर-तिलका मांझी।
6. ‘हो’ जाति के लोग छोटानागपुर के……के निवासी थे। उत्तर-सिंहभूम।
7. भागलपुर से राजमहल के बीच का क्षेत्र………..कहलाता था।
उत्तर-दामन-ए-कोह।
8. सन्…….. ई. में संथाल विद्रोह हुआ।
उत्तर-1855
9. बिरसा मुंडा का जन्म……… को हुआ था।
उत्तर-1874
10. छत्तीसगढ़ राज्य का गठन………… को हुआ था।
उत्तर-1 नवम्बर, 2000

(लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर)
प्रश्न 1. वन्य समाज की राजनैतिक स्थिति पर प्रकाश डालें।
उत्तर-अठारहवीं शताब्दी में वन्य समाज कबीलों में बँटा हुआ था। प्रत्येक जनजाति एक मुखिया के तहत संगठित होती थी। मुखिया का मुख्य कर्त्तव्य होता था कबीले को सुरक्षा प्रदान करना। मुखिया लोग धीरे-धीरे कबीले पर अपना अधिकार जमाने लगे और अपने लिए विशेष
अधिकार प्राप्त करने में सफल हुए। जनजातियों का मुखिया बनने के लिए उनका युद्ध कुशल और सुरक्षा देने में सक्षम होना चाहिए। इनकी स्वयं की शासन प्रणाली होती थी। जिसमें सत्ता का विकेन्द्रीकरण किया गया था। जनजातीय संस्थाएँ वैधिक, न्यायिक तथा कार्यपालिका शक्तियों से निहित होती थीं। अंग्रेजी शासन काल के समय अंग्रेजों के द्वारा लालच दिए जाने के कारण ये मुखिया अंग्रेजों के हिमायती होने लगे और राजस्व वसूली में उनका साथ देने लगे। लेकिन बाद में जब आदिवासियों का शोषण किया जाने लगा, तब उन्होंने भी कई जगहों पर समाज के लोगों का साथ दिया।
प्रश्न 2. वन्य समाज का सामाजिक जीवन कैसा था ?
उत्तर-वन्य समाज के लोग सीधे-सादे सरल प्रकृति के थे। वे लोग समाज से अलंग रहते थे। आर्थिक दृष्टिकोण से कबीला के सरदारों को जमींदार का दर्जा दिया जाता था। वे इंजन के लिए जंगल से कटे लकड़ी पर निर्भर थे। पशुओं के लिए चारा वे जंगलों से लाते थे। शिकार करना
उनका मुख्य शौक होता था। वे हिरण, तीतर और अन्य छोटे पशु-पक्षियों का शिकार करते थे। इनका सामाजिक जीवन बहुत सादा होता था। इनका मुख्य शौक नाच और गाना था। ये खेती गृहस्थी करते थे। उनका सबसे महत्त्वपूर्ण पर्व ‘सरहुल’ होता है जो चैत्र शुल्क तृतीया तिथि को मनाया जाता है। आदिवासी महिलाएँ जीविकोपार्जन में वे पुरुषों का हाथ बँटाती थीं।

प्रश्न 3. अठारहवीं शताब्दी में वन्य समाज का आर्थिक जीवन कैसा था ?
उत्तर-कृषि वन्य समाज के आर्थिक जीवन का आधार होता था। वे लोग जगह बदल-बदल कर विभिन्न विधि जैसे घुमंतू, झोम या पोडू विधि से खेती करते थे। जब उनके खेत की उर्वरा शक्ति कम होने लगती थी, तो वे लोग जंगल साफ कर खेती के लिए जमीन तैयार कर लेते थे। इस प्रकार खेती की व्यवस्था करने से अंग्रेजों को लगान निश्चित करने में और वसूली करने में कठिनाई होती थी। इसलिए अंग्रेजी सरकार ने इस पर रोक लगा दी। जमीन पर लगान भी अधिक लगाया गया और लगान वसूलने का तरीका भी बहुत अत्याचारपूर्ण था। इससे आदिवासी लोग बहुत दुखी थे। आदिवासी लोग खेती के अलावा अन्य उद्योग धन्धों का भी प्रचलन था। वे हाथी के दाँत, बाँस, मशाले, रेशे, रबर आदि का व्यापार करते थे और लाह तैयार करते थे। ये लोग तसर उद्योग भी करते थे। उन्नीसवीं शताब्दी में अंग्रेजों ने जंगलों की कटाई शुरू कर दी, जिसका आदिवासियों के जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा। सन् 1864 में जर्मन वन विशेषज्ञ डायट्रिच बैडिस ने वन सेवा की स्थापना की और 1865 ई. में ‘भारतीय वन अधिनियम’ पारित किया, जिसके तहत पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दिया गया, जिससे आदिवासियों के आर्थिक जीवन के साथ-साथ सामाजिक जीवन भी प्रभावित हुआ। इनके बाद आदिवासियों से राजस्व वसूली करने के लिए जमींदारी व्यवस्था लागू की गयी। अब आदिवासी लोग जमींदार, महाजन और साहूकारों द्वारा आर्थिक रूप से शोषित होने लगे जिसके फलस्वरूप वे लोग किसान से मजदूर हो गए और उनकी आर्थिक स्थिति बदतर होती चली गयी।

प्रश्न 4. अठारहवीं शताब्दी में ईसाई मिशनरियों ने वन्य समाज को कैसे प्रभावित किया?
उत्तर-आदिवासी लोग अपने समाज में किसी प्रकार के विदेशी घुसपैठ को पसन्द नहीं करते थे। इन्हें रोकने के लिए वे लोग सशस्त्र तैयार रहते थे। अंग्रेजों ने जनजातीय क्षेत्रों में घुसने का बहुत प्रयास किया पर वे सफल नहीं हुए, तब उन्होंने लोगों को सभ्य और शिक्षित बनाने के उद्देश्य से ईसाई मिशनरियों का घुसपैठ जनजातीय क्षेत्रों में कराया, ताकि उनका भी वहाँ प्रवेश करना आसान हो जाए। शुरू में ये लोग आदिवासी धर्म एवं संस्कृति की आलोचना करने लगे और उनका धर्म परिवर्तन करने लगे। आदिवासियों ने बड़ी संख्या में ईसाई धर्म को अपनाया और अपनी स्थितियों में सुधार की। स्थितियों में सुधार तो हुआ, पर वे अपने अन्य लोगों से घृणा करने लगे। आदिवासियों को अंग्रेजों का यह कार्य अपने सामाजिक और धार्मिक जीवन में अतिक्रमण लगा, इसका वे लोग विरोध करने लगे। ऐसे में वन समाज में व्याप्त धार्मिक भावनाओं ने कई क्रांतियों
एवं नेताओं को जन्म दिया। इन नेताओं ने अपने क्षेत्र में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह शुरू किया। इनका धार्मिक विश्वास था कि ईश्वर इनकी कष्टों को दूर करेगा और विदेशियों के शोषण से इन्हें मुक्त करेगा।

प्रश्न 5. ‘भारतीय वन अधिनियम’ का क्या उद्देश्य था ?
उत्तर-‘भारतीय वन अधिनियम’ का उद्देश्य था-पेड़ों की कटाई पर रोक लगाना और जंगल को लकड़ी उत्पादन के लिए सुरक्षित करना।

प्रश्न 6. ‘चेरो’ विद्रोह से आप क्या समझते
उत्तर-चेरो जनजाति जो कि बिहार के पलामू जिले के रहने वाले थे, ने अपने राजा केखिलाफ विद्रोह किए थे, जिसे ‘चेगे’ विद्रोह के नाम से जाना जाता है। यह विद्रोह सन् 1800 ई. में अंग्रेजों के शोषण के खिलाफ भूषण सिंह के नेतृत्व में किया गया था। इस विद्रोह के समय राजा की मदद के लिए अंग्रेजी सेना बुलाई गयी। कर्नल जोन्स के नेतृत्व में सेना ने इस विद्रोह को दबा दिया और सन् 1802 ई. में भूषण सिंह को फांसी दे दी गयो।

प्रश्न 7. ‘तमार’ विद्रोह क्या था ?
उत्तर-छोटानागपुर के उरांव जनजाति ने जमीदारों के शोषण के खिलाफ सन् 1789 ई. में आन्दोलन किया । इस विद्रोह को ‘तमार’ विद्रोह के नाम से जाना जाता है। यह सन् 1794 ई. तक चलता रहा और अंग्रेजों की सहायता से इसे बहुत ही क्रूरतापूर्वक दबा दिया गया।

प्रश्न 8. ‘चूआर’ विद्रोह के बारे में लिखें।
उत्तर-अंग्रेजों की लगान व्यवस्था के खिलाफ मिदनापुर स्थित करणगढ़ की रानी सिरोमणि के नेतृत्व में चुआरों ने विद्रोह किया, जिसे ‘चुआर’ विद्रोह कहा जाता है। सन् 1799 ई. में यह विद्रोह अपने चरम पर था। सरकार ने 6 अप्रैल, 1799 को रारी सिरोमणि को गिरफ्तार कर
कलकत्ता जेल भेज दिया। पर इससे यह विद्रोह शांत नहीं हुआ और आगे चलकर मूमिज जाति के लोगों के साथ गंगाः नारायण द्वारा किए गए विद्रोह में शामिल हो गए

प्रश्न 9. उड़ीसा के जनजाति के लिए चक्र बिसोई ने क्या किए ?
उत्तर-उड़ीसा राज्य के आदिवासी विशाल पहाड़ी क्षेत्र में रहते थे, जो तत्कालीन मद्रास प्रांत तथा बंगाल तक फैला था। इस जाति में आपदाओं तथा विपत्तियों से मुक्ति प्राप्त करने के लिए ‘मरियाह प्रथा’ अर्थात् मानव बलि प्रथा का प्रचलन था। सन् 1897 ई. में ब्रिटिश सरकार ने इसे
रोकने के लिए प्रयास किया। उस समय चक्र बिसोई नामक नेता ने इसका विरोध किया। चक्र विसोई का जन्म घुमसार के तारवाड़ी नामक गाँव में हुआ था। उसने अंग्रेजों पर आदिवासियों के सामाजिक तथा धार्मिक प्रधाओं में हस्तक्षेप करने का आरोप लगाया तथा प्रबल विरोध किया।

प्रश्न 10. आदिवासियों के क्षेत्रवादी आंदोलन के क्या प्रभाव हुआ?
उत्तर-क्षेत्रवादी आंदोलन के फलस्वरूप आदिवासियों ने अलग राज्य की माँग करना शुरू कर दिया। भारत कार ने उनकी मांगों को ध्यान में रखते हुए मध्य प्रदेश राज्य का पुनर्गठन करके 1 नवम्बर, 2000 ई. को आदिवासी बहुल क्षेत्र का एक पृथक राज्य छत्तीसगढ़ बनाया। इसी प्रकार
15 नवम्बर, 2000 ई० को बिहार राज्य का पुनर्गठन करके आदिवासी बहुल क्षेत्र के रूप में झारखंड का निर्माण किया।




दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर
प्रश्न 1. अठारहवीं शताब्दी में भारत में जनजातियों के जीवन पर प्रकाश डालें।
उत्तर-अठारहवीं शताब्दी में भारत में जनजातियों के जीवन को चार भागों में बाँटा जा सकता है-
(1) राजनैतिक जीवन
(i) सामाजिक जीवन
(iii) आर्थिक जीवन
(iv) धार्मिक जीवन

(i) राजनैतिक जीवन-अठारहवीं शताब्दी में वन्य समाज कबीलों में बँटा था। प्रत्येक जनजाति एक मुखिया के द्वारा संगठित होती थी। मुखिया का मुख्य कर्तव्य था-कबीलों को सुरक्षा प्रदान करना। मुखिया धीरे-धीरे कबीले पर अपना अधिकार जमाने लगे, और अपने लिए बहुत से अधिकार प्राप्त किए। इनकी स्वयं की शासन प्रणाली थी, जिसमें सत्ता का विकेन्द्रीकरण किया गया था। परम्परागत जनजातीय संस्थाएँ जो थी वो वैधानिक, न्यायिक तथा कार्यपालिका शक्तियों से निहित धीं। अंग्रेजी शासन के वक्त मुखिया लोगों को अंग्रेजों के तरफ से लालच दिए जाते
थे, जिसके फलस्वरूप मुखिया अंग्रेजों के साथ हो गए, और राजस्व वसूली में उनका साथ देने लगे। पर बाद में जब आदिवासियों का शोषण होने लगा, तो उनलोगों ने कई जगहों पर समाज का साध दिया।

(ii) सामाजिक जीवन-आदिवासी बहुत सरल प्रकृति के होते थे। वे अपने को समाज से अलग रखते थे। कबीला के सरदारों को जमींदार का दर्जा दिया गया। आदिवासी लोग ईंधन के रूपमें जंगलों से काटे गए लकड़ी का उपयोग करते थे। पशुओं के खाने के लिए चारा भी वे लोग जंगलों के घास से इकट्ठा करते थे। उनका मुख्य शौक शिकार करना होता था। वे लोग हिरण, तीतर और अन्य छोटे पशु-पक्षियों का शिकार करते थे। इनका महत्वपूर्ण शौक नाच और गाना था। ये लोग खेती-गृहस्थी करते थे। इनका सबसे महत्वपूर्ण पर्व ‘सरहुल’ था, जो चैत्र शुल्क की तृतीया तिथि को मनाया जाता है। आदिवासी महिलाएं जीविकोपार्जन में पुरुषों का हाथ बंटाती थीं।

(iii) आर्थिक जीवन-कृषि वन्य समाज के आर्थिक जीवन का आधार होता था। वे लोग जगह बदल-बदल कर विभिन्न विधि जैसे ‘धूमंतू’, ‘झूम’ या पोडू विधि से खेती करते थे। जब उन्हें लगता था कि उनके खेत की उर्वरा शक्ति कम होने लगी तब वह जंगल को काट कर नई जमीन तैयार कर लेते थे। खेती की इस व्यवस्था से अंग्रेजों को लगान निश्चित करने और उसे वसूलने में बहुत कठिनाई होती थी। इस कारण अंग्रेजी सरकार ने इस पर रोक लगा दी। आदिवासी
खेती के अलावा उद्योग-धंधों का भी कार्य करते थे। वे लोग हाथी के दाँत, रेशे, रबर, मशाले आदि का व्यापार करते थे। साथ ही लाह तैयार करने का भी काम करते थे। सन् 1864 ई. में ‘वन सेवा’ की स्थापना एक जर्मन वन विशेषज्ञ डायट्रिज बैडिस ने की। सन् 1865 ई. में ‘भारतीय वन अधिनियम’ पारित किया गया, जिसका उद्देश्य था, पेड़ों की कटाई पर रोक लगाना और जंगल को लकड़ी उत्पादन के लिए सुरक्षित रखना। इससे आदिवासियों का आर्थिक जीवन के साथ ही सामाजिक जीवन भी प्रभावित हुआ। अंग्रेजी सरकारों के द्वारा राजस्व वसूलने के लिए जमींदारी व्यवस्था लागू की गई जिससे आदिवासियों को जमींदारों, महाजनों और साहूकारों द्वारा आर्थिक रूप से शोषित किया जाने लगा। राजस्व चुकाने में वे किसान से मजदूर होते गए और उनकी आर्थिक स्थिति बदतर हो गई।

(iv) धार्मिक जीवन-आदिवासी लोग अपने समाज के अंदर किसी दूसरे की दखलअंदाजी पसंद नहीं करते थे। वे लोग इससे निपटने के लिए हमेशा सशस्त्र तैयार रहते थे। अंग्रेज उनके जनजातीय प्रदेश में घुसने की कोशिश की पर सफल नहीं हो पाए। फिर उन्होंने लोगों को सभ्य और शिक्षित बनाने के उद्देश्य से ईसाई मिशनरियों को जनजातीय क्षेत्र में भेजा। इन लोगों ने आदिवासियों के धर्म और संस्कृति की आलोचना की और उनका धर्म परिवर्तन करना शुरू किया। बड़ी संख्या में आदिवासियों ने ईसाई धर्म को अपनाया। शिक्षित होने पर उनकी स्थिति में परिवर्तन
तो हुआ, लेकिन वे अपने ही अन्य लोगों से घृणा करने लगे। अंग्रेजों द्वारा किए गए इस कार्य को आदिवासियों ने अपने सामाजिक एवं धार्मिक जीवन में उनका अतिक्रमण समझा और इसका विरोध किया। इस समय में वन समाज में फैले धार्मिक भावनाओं ने कई क्रांतियों को जन्म दिया।
आदिवासी क्रांतियों के नेताओं को विश्वास था कि ईश्वर उनके कष्टों को दूर करेगा और उन्हें शोषण से मुक्त करेगा।

प्रश्न 2. तिलका मांझी कौन थे ? इन्होंने आदिवासी समाज के लिए क्या किया ?
उत्तर-तिलका मांझी पहाड़िया जाति के आदिवासी थे। यह जाति युद्धप्रिय थी। इनका निवास-स्थान राजमहल की पहाड़ियों में था। यहाँ अंग्रेजों ने मुखिया, साहूकार, ठेकेदारों, वन तथा पुलिस विभाग के अधिकारियों को आदिवासियों का शोषण करने के लिए प्रेरित किया।
परिणामस्वरूप इनका आर्थिक आधार तहस-नहस हो गया तथा वे दरिद्र हो गए। ऋण के बोझ के कारण उन्हें अपनी उपजाऊ जमीन गैर आदिवासियों को बेचने के लिए बाध्य होना पड़ा। अतः पहली बार भारत में इस क्षेत्र में जनजातीय विद्रोह हुआ। उन्होंने जमींदार के राजस्व नीति के खिलाफ विद्रोह किया जिसका नेता तिलका मांझी था। यह पहला संथाली था जिसने अंग्रेजों पर हिंसात्मक कार्रवाई की। सन् 1779 में उसने पहली बार भू-राजस्व की राशि कम करने तथा अंग्रेजों से अपनी जमीन छुड़वाने के लिए सशस्त्र विद्रोह किया। उसने तिलापुर जंगल को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। उसने भागलपुर के प्रथम तत्कालीन कलक्टर अगस्टस क्लेवलैंड पर सशस्त्र प्रहार किया
जिसके कारण उसकी मृत्यु हो गई। हिंसात्मक कार्यों एवं अंग्रेज विरोधी नीतियों के कारण उसे गिरफ्तार कर लिया गया तथा 1785 ई० में भागलपुर में बीच चौराहे पर बरगद के पेड़ से लटका कर फाँसी दे दी गई।

प्रश्न 3. संथाल विद्रोह से आप क्या समझते हैं ? 1857 के विद्रोह में उसकी क्या भूमिका थी?
उत्तर-भागलपुर से राजमहल के बीच का क्षेत्र जो दामन-ए-कोट कहलाता था। संथाल बहुल क्षेत्र था। गैर आदिवासी एवं अंग्रेजों के अत्याचार से तंग आकर संथालों ने अपने-आपको चुलू संथाल के चार पुत्रों सिद्धू, कान्हू, चाँद तथा भैरव के दिशा-निर्देशों के अन्तर्गत संगठित किया। सिद्धू ने अपने-आपको ठाकुर का अवतार घोषित कर दिया। 1854 ई. तक अत्यधिक राजस्व वसूली, सामाजिक प्रतिबंध तथा कई प्रकार के आर्थिक कष्टों के खिलाफ वे जनसभाओं के द्वारा एकत्रित होने लगे। 30 जून, 1855 को भगनाडीह गाँव में एक सभा आयोजित की गई जिसमें 400 गाँवों के 10,000 संथाल अस्त्र-शस्त्र के साथ एकत्रित हुए । इसमें ठाकुर का आदेश पढ़कर सुनाया गया जिसमें संथालों ने अपने आपको स्वतंत्र घोषित कर दिया तथा अपने ऊपर किसी प्रकार के
शासन से इनकार किया । जुलाई 1855 ई. में स्त्री एवं पुरुषों के आह्वान पर लगभग 60 हजार संथालों के साथ विद्रोह आरम्भ हो गया। विद्रोहियों ने सर्वप्रथम अत्याचारी महेश लाल की हत्या कर दी, सरकारी दफ्तरों, महाजनों के घर तथा अंग्रेजी वस्तियों पर आक्रमण किया। रेल ठेकेदारों
एवं परियोजना के इंजीनियरों के साथ बुरा व्यवहार किया। संथालो ने सभी गैर आदिवासी तथा उपनिवेशवादी सत्ता के सहायकों पर आक्रमण किया। अंग्रेजों ने इस विद्रोह को कोलकाता तथा पूर्णिया से सेना बुलाकर कुचल दिया । अंग्रेजों की इस बर्बरता ने संथालों के कई गाँव उजाड़ दिए
और उपद्रवी क्षेत्रों में मार्शल लॉ लागू कर दिया । कान्हू सहित 5000 से अधिक संथाल मार दिए गए। सिद्धू तथा अन्य नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया । युद्ध की नई तकनीकों के अभाव के कारण संथालों के अदभ्य साहस के बावजूद विद्रोह असफल हो गया। संथाली अधिकांशतः तीर धनुष से लड़ते थे।
सन् 1857 ई. के बिद्रोह में ये संथाल अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोहियों का साथ दे रहे थे। संथाल विद्रोह से आदिवासियों की स्थिती में कोई विशेष परिवर्तन नहीं आया लेकिन अंग्रेजी सरकार के लिए यह एक चेतावनी थी। अंग्रेजी सरकार को इस क्षेत्र के लिए नई प्रशासनिक नीति
अपनानी पड़ी। सन् 1885 ई. में “अधिनीयम 37” पारित कर संथाल परगना जिला बनाकर उसे वर्हिगत क्षेत्र घोषित कर दिया गया जो प्रत्यक्ष रूप से गवर्नर जनरल के शासन के अधीन रहता था।

प्रश्न 4. मुंडा विद्रोह का नेता था ? औपनिवेशिक शोषण के विरुद्ध उसने क्या किया? मुंडा विद्रोह का नेता बिरसा मुंडा था।
उत्तर-उसने औपनिवेशिक शोषण का विरोध किया और इसके लिए उसने औपनिवेशिक शासन के भू-राजस्व प्रणाली, न्यायप्रणाली एवं शोषणपूर्ण नीतियों का विरोध किया और नीतियों का समर्थन करने वाले जमींदारों के प्रति भी आक्रोशित हुआ । बिरसा मुंडा को ईश्वर पर
बहुत अधिक विश्वास था । अतः सन् 1895 में उसने अपने आप को ईश्वर का दूत घोषित किया। बिरसा मुंडा ने आदिवासियों को उनके अधिकार से अवगत कराया और धार्मिक आंदोलन के आधसार पर आदिवासियों को हथियार बन्द करना शुरू कर दिया । 25 दिसम्बार सन् 1899 ई० में उसके. ईसाई मिशनरियों पर आक्रमण किया। 8 जनवरी सन् 1900 ई० में ब्रिटिश सरकार
विद्रोह को क्रूरतापूर्वक बंद करवा दिया । इस विद्रोह में 200 पुरुष एवं महिला मारे गए तथा 300 लोग बन्दी बना लिए गए। बिरसा को गिरफ्तार करने के लिए सरकार ने उसके ऊपर 500 रु० की इनाम की घोषणा की बिरसा की गिरफ्तारी 3 मार्च सन् 1900 ई. को हो गयी और राँची जेल में जून में, हैजा से उसकी मृत्यु हो गयी।
ब्रिटिश सरकार ने दमन नीति अपनाकर बिरसा मुंडा के विद्रोह को तो बंद करवा दिया, लेकिन इस आंदोलन का महत्वपूर्ण प्रभाव अंग्रेजी शासन पर पड़ा। ब्रिटिश सरकार के लिए यह आंदोलन एक चेतावनी थी। इस आंदोलन के परिणाम स्वरूप जनजातियों के बीच एक जिम्मेवार
और उत्तरदायी शासन स्थापित हुआ। यह आंदोलन स्वतंत्रता आंदोलन का प्रेरणा स्रोत बना ।

प्रश्न 5. वे कौन से कारण थे, जिन्होंने अंग्रेजों को वन्य-समाज में हस्तक्षेप की नीति अपनाने के लिए बाध्य किया ?
उत्तर-भारत में अपनी स्थिती को सुदृढ़ करने के लिए उपनिवेशवादी नीति का पालन करते हुए अंग्रेजों ने वन्य-समाज में हस्तक्षेप करने की नीति का पालन करना पड़ा। वन्यवाजी अपने जीवन में बाहरी हस्तक्षेप की नीति अपनानी पड़ी।

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