10th hindi

bihar board 10th hindi solutions – आविन्यों

आविन्यों

bihar board 10th hindi solutions

class – 10

subject – hindi

lesson 9 – आविन्यों

आविन्यों
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-अशोक वाजपेयी
लेखक परिचय:-अशोक वाजपेयी हिन्दी के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। इनका जन्म 16 जनवरी 1941 ई० में दुर्ग (छत्तीसगढ़) में हुआ था। उनकी माता निर्मल देवी थी और पिताजी का नाम पुरमानंद वाजपेयी था।
सागर वि० वि० से स्नातक और सेंट स्टीफेंस कॉलेज दिल्ली से अंग्रेजी में एम० ए० किया। वृत्ति के रूप में प्रशासनिक सेवा के उच्च पदों पर रहे। महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय वि. वि. के प्रथम कुलपति थे। भारत सरकार के कला अकादमी के निदेशक पद पर कार्य-संपा।

काव्य कृतियाँ:-
* रचनाएँ:-1. शहर अब भी संभावना है, 2. एक पतंग अनंत में, 3. तत्पुरुष 4. कहीं नहीं
वहीं, 5. बहुरि अकेला, 6. थोड़ी-सी जगह, 7. दुःख चिटटीरसा, आदि काव्य संकलन हैं।

आलोचना:-1. फिलहाल, 2. कुछ पूर्वग्रह 3. समय से बाहर, 4. कविता का गल्प 5. कवि रह गया है।

संपादित पुस्तकें:-1. तीसरा साक्ष्य, 2. साहित्य विनोद, 3. कला विनोद, 4. कविता का जनपद, 5. मुक्ति बोध, 6. शमशेर, 7. समवेत, 8. पहचान, 9. पूर्वग्रह, 10. वहुबचन, 11. कविता एशिय, 12. समास आदि प्रमुख हैं।

* पुरस्कार:-साहित्य अकादमी, दयावती मोदी कवि शेखर पुरस्कार, फ्रेंच सरकार का ऑफिसर ऑफ द ऑर्डर ऑफ क्रॉस 2004 आदि पुरस्कारों से सम्मानित।

* विशेषताएँ:- अशोक वाजपेयी, जिनका हिन्दी के मूर्धन्य साहित्यकारों में अन्यतम है। ये बहुभाषाविद है। बौद्धिक स्तर के स्थान सहज-सरल कवि हैं। इनकी कविताओं में जीवन के विविध पक्षों का सम्यक् उद्घाटन मिलता है।
लेखों में गंभीरता, तथ्यगत, विवेचन, विश्लेषण एवं आलोचना के पैनी गहरी दृष्टि का दर्शन होता है।
वाजपेयीजी ने विश्व की अनेक भाषाओं के ग्रंथों का अध्यपन कर अपनी चिंतन प्रखरता को पुष्ट और गंभीर आयाम दिया है। आप आधुनिक कवियों में पूजनीय हैं, आदरणीय है।
इनकी कालजयी कृतियाँ हिन्दी धरोहर हैं। सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्त्व की है।
* सारांश:-आविन्यों फ्रांस में रोम नदी के तट पर बसा एक पुराना शहर है। कभी यह पोप की राजधानी थी। आज यह गर्मियों में प्रतिवर्ष होनेवाले रंग-समारोह का केन्द्र है। उस समय वहाँ के अनेक चर्च और पुराने रंग-स्थल में बदल जाते हैं। रोज नदी के दूसरी ओर आविन्यों का एक लगभग स्वतंत्र भाग है उसे वीलनव्वल आविन्यों अर्थात् नई बस्ती कहते हैं। पोप की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए फ्रेंच शासकों ने यहाँ किला बनवाया था-उसी में अब ईसाई मठ है ला शत्रूजा क्रांति होने पर आम लोगों ने इस पर कब्जा कर लिया। सदी के आरंभ में इसका जीर्णोद्धार किया गया और उसमें एक कला केन्द्र की स्थापना की गई। यहाँ रंगकर्मी, अभिनेता, नाटककार कुछ समय रहकर रचनात्मक कार्य करते हैं। यहाँ अनेक सुविधाएँ हैं-पत्र-पत्रिकाओं की दुकानें हैं एक डिपार्टमेंटल स्टोर, रेस्तराँ आदि।
अशोक वाजपेयी को फ्रेंच सरकार ने ला शत्रूज में रहकर कुछ काम करने का न्योता दिया। वे गए और वहाँ उन्नीस दिन रहे और उस निपट एकान्त में पैंतीस कविताएँ और सत्ताइस गद्य रचनाएँ की।
दरअसल आविन्यों फ्रांस का प्रमुख कला-केन्द्र है। सुप्रसिद्ध चित्रकार पिकासो की विख्यात कृति का नाम ही है ल मादामोजेल द आविन्यों। यही यथार्थवादी आन्द्रे वेता देने शॉ और पालएलुआर ने संयुक्त रूप से तीस कविताएँ रची। इन कविताओं में वहाँ का एकान्त, किविड सुनसान सते और दिन प्रतिबिम्बित हैं।
यहाँ की रोम नदी के तट पर बैठना भी नदी के साथ बहना है। नदी किसी की अनदेखी नहीं करती सबको भिंगोती है। निरन्तरता नदी और कविता दोनों में हमारी नश्वरता का आनन्द से अभिषेक करती है।

गद्यांश पर आधारित अर्थ ग्रहण-संबंधी प्रश्न
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1. दक्षिण फ्रांस में रोन नदी के किनारे बसा एक पुराना शहर है जहाँ कभी कुछ समय के लिए पोप की राजधानी थी और अब गर्मियों में फ्रांस और यूरोप का एक अत्यंत प्रसिद्ध और लोकप्रिय रंग-समारोह हर बरस होता है।
उस बरस वहाँ भारत केन्द्र में था। पीटर बुक का विवादास्पद ‘महाभारत’ पहले पहल प्रस्तुत किया जानेवाला था और उन्होंने मुझे निमंत्रण भेजा था।

(क) यह अवतरण किस पाठ से लिया गया है ?
(क) विष के दाँत
(ख) जित-जित मैं निरखत हूँ
(ग) मछली
(घ) आविन्यों

(ख) इस गद्यांश के लेखक कौन हैं ?
(क) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(ख) बिरजू महाराज
(ग) मैक्समूलर
(घ) अशोक वाजपेयी

(ग) फ्रांस और यूरोप का लोकप्रिय रंग समारोह कब होता है?
(घ) किस-किसने और क्यों निमंत्रण भेजा था?
उत्तर-(क)-(घ) आविन्यों
(ख)-(घ) अशोक वाजपेयी
(ग) फ्रांस और यूरोप का लोकप्रिय रंग-समारोह आविन्यों में प्रत्येक बरस गर्मी के दिनों में होता है।
(घ) पीटर बुक ने लेखक अशोक वाजपेयी को आविन्यों में प्रस्तुत किए जानेवाले विवादास्पद ‘महाभारत’ को देखने के लिए आमंत्रित किया।

2. नदी के समान ही कविता सदियों से हमारे साथ रही है। उसमें न जाने कहाँ-कहाँ से जल आकर मिलते और उसमें विलीन होते रहते हैं, वह सागर में समाहित होती रहती है हर दिन उसमें जल का टोटा नहीं पड़ता।
कविता में भी न जाने कहाँ से कैसी-कैसी बिम्बमालाएँ, शब्द भंगिमाएँ, जीवन छवियाँ और प्रतीतियाँ आकर मिलती और तदाकार होती रहती है। जैसे नदी जल-रिक्त नहीं होती वैसे ही कविता शब्द-रिक्त नहीं होती। न नदी के किनारे न ही कविता के पास हम तटस्थ रह पाते हैं अगर हम खुलेपन से गए हैं तो हम उसकी अभिभूति से बच नहीं सकते। नदी और कविता में हम बराबर ही शामिल हो जाते हैं। जैसे हमारे चेहरों पर नदी की आभा आती है, वैसे ही हमारे चेहरों पर कविता की चमक। निरन्तरता नदी और कविता दोनों में हमारी नश्वरता का अभिषेक करती है।

(क) यह अवतरण किस पाठ से लिया गया है ?
(क) नाखून क्यों बढ़ते हैं
(ख) नौबतखाने में इबादत
(ग) नागरी लिपि
(घ) आविन्यों

(ख) इस गद्यांश के लेखक कौन हैं ?
(क) महात्मा गाँधी
(ख) अशोक वाजपेयी
(ग) भीमराव अंबेदकर
(घ) हजारी प्रसाद द्विवेदी

(ग) किस हालत में हम नदी और कविता के पास तटस्थ नहीं रह सकते?

(घ) उल्लिखित गद्यांश का भाव स्पष्ट करें।
उत्तर-(क)-(घ) आवियों
(ख)-(ख) अशोक वाजपेयी

(ग) अगर मनुष्य खुलेपन से गया है तो उसका कविता पढ़ने पर और नदी के समीप जाने पर तटस्थ रहना कठिन है। नदी अपने प्रवाह से भाव-प्रवाहित करती है और कविता अनुभूतियों की गहराई से मर्म को छू अपने में डूबोती है।

(घ) नदी और कविता का मनुष्य से घनिष्ठ संबंध है। नदी जल देती है और रिक्त नहीं होती। कविता भी सदियों से चली आती है लेकिन पुरानी नहीं पड़ती, नये भाव, नये बिंब उसे तरोताजा रखते हैं। दोनों ही निरंतरता से मनुष्य का अभिषेक करते हैं।

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
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1. आविन्यों क्या है और कहाँ अवस्थित है?
उत्तर-आविन्यों फ्रांस का एक पुराना नगर है और रोन नदी के तट पर अवस्थित है।

2. हर बरस आविन्यों में कब और कैसा समारोह होता है?
उत्तर-हर बरस आविन्यों में गरमी के दिनों में लोकप्रिय रंग-समारोह होता है।

3. आविन्यों के दूसरे हिस्सा का क्या नाम है?
उत्तर-आविन्यों के दूसरे हिस्से का नाम वीलनव्वल आविन्यों अर्थात् आविन्यों का नया नगर है।

4. वीनलव्व में कौन-कौन सी सुविधाएँ हैं?
उत्तर-वीलनव्व में पत्र-पत्रिकाओं की एक दुकान एक डिपार्टमेंटल स्टोर और कई रेस्तराएँ आदि है।

5. नदी के तट पर बैठे लेखक को क्या अनुभव होता है?
उत्तर-नदी के तट पर बैठे लेखक को लगता है कि नदी के पास होना नदी होना है।

6. नदी और कविता में लेखक क्या समानता पाता है?
उत्तर-नदी और कविता में लेखक यह समानता पाता है कि नदी न जलस्थित होती है न कविता शब्द-रिक्त।

पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उत्तर
पाठ के साथ
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प्रश्न 1. आविन्यों क्या है और वह कहाँ अवस्थित है?
उत्तर-आविन्यों दक्षिण फ्रांस में रोन नदी के किनारे बसा हुआ एक पुराना शहर है। यहाँ कभी पोप की राजधानी भी थी। दस वर्ष पूर्व यहाँ गर्मियों में प्रतिवर्ष फ्रांस एवं यूरोप का एक अत्यंत प्रसिद्ध और लोकप्रिय रंग-समारोह आयोजित होता था।

प्रश्न 2. हर वर्ष आविन्यों में कब और कैसा समारोह हुआ करता है?
उत्तर-आविन्यों में दस बरस पहले प्रत्येक वर्ष गर्मी के दिनों में फ्रांस और यूरोप का अत्यंत प्रसिद्ध लोकप्रिय रंग-समारोह हुआ करता था।

प्रश्न 3. लेखक आविन्यों में किस सिलसिले में गए थे? वहाँ उन्होंने क्या देखा-सुना?
उत्तर-लेखक को फ्रेंच सरकार के सौजन्य से ला शत्रूज में रहकर कुछ कार्य करने का निमंत्रण मिला था। उस समय गरमी का मौसम था। समय सीमा एक महीने की थी किन्तु लेखक वहाँ, 24 अक्टूबर से 10 नवम्बर तक ही ठहरे थे।
वहाँ लेखक ने अपनी आँखों से आविन्यों की महत्त्वपूर्ण कलाकृतियों को देखा। आविन्यों फ्रांस का एक प्रमुख कलाकेन्द्र है। आविन्यों में एक संरक्षित स्मारक बनाया गया है जहाँ एक कलाकेन्द्र स्थापित है। यह केन्द्र आजकल रंगमंच और लेखन से जुड़ा हुआ है। रंगकर्मी,
संगीतकार, अभिनेता, नाटककार आदि वहाँ आते हैं। वे पुराने ईसाई संतों के चैम्बर्स में कुछ समय रहकर अपना वक्त रचनात्मक कार्यों में बिताते हैं। यहाँ 14वीं सदी के फर्नीचर है। दो-दो कमरों के चैम्बर्स सुसज्जित है। आधुनिक रसाईघर और नहानघर है। यहाँ एक आधुनिक संगीत व्यवस्था भी है। चैम्बरों के मुख्य द्वार कब्रगाह के चारों ओर बने गलियारों में खुलते हैं। पीछे आँगन और पिछवाड़े से एक दरवाजा भी है। यहाँ सप्ताह के पाँच दिनों में शाम को सबको एक स्थान पर रात्रि-भोजन की सुविधा भी है बाकी दिन-नाश्ता और दोपहर का भोजन अपनी सुविधानुसार जहाँ चाहे वहाँ बनाकर कर सकते हैं। यहाँ प्रतिदिन एक्यावन सैलानी आते हैं। यह बेहद शांत एवं नीरव
स्थान है।
“आविन्यों फ्रांस का एक प्रमुख कलाकेन्द्र है। पिकासो की विख्यात कृति ल मादामोजेल द आविन्यों यहाँ पर है। यहाँ अति यथार्थवादी कवित्रय आन्द्रे ब्रेता, रेने शॉ, और पाल एलुआर ने मिलकर लगभग तीस संयुक्त कविताएँ साथ में रहकर लिखीं थी जो एक धरोहर के रूप में है। ला शत्रूज के निदेशक ने जब इस पुस्तक की सामग्री को देखा था तब इतने कम समय में इतने काम पर अचरज प्रकट किया था। लेखक को भी कम अचरज नहीं हुआ था। आविन्यों में सुंदर, निविड़, सघन, सुनसान दिन और रातों का दर्शन लेखक को हुआ। भय, आसक्ति और पवित्रता से भरे हुए वे दिन थे। लेखक की यह पुस्तक उन सबकी स्मृति का दस्तावेज है। आविन्यों को, उसी के एक मठ में रहकर कवि के द्वारा रचित यह कृति है। लेखक का मंतव्य है कि हर जगह हम कुछ पाते हैं तो बहुत कुछ गंवाते भी हैं। ला शत्रूज में लेखक ने जो पाया उसके लिए मन में गहरी कृतज्ञता है और जो कुछ गँवाया उसके लिए गहरी पीड़ा भी।
इस प्रकार आविन्यों में लेखक ने बहुत-सी चीजों का दर्शन कर अनुभव प्राप्त किया। लेखक ने आविन्यों में अपने में एकांत रहने, लिखने के अलावा प्राय: कुछ दूसरा काम करने की आवश्यकता महसूस नहीं की। यह जीवन का पहला अवसर लेखक को मिला था। इतने निकट
एकांत में रहकर लेखक ने कुल उन्नीस दिनों में पैतीस कविताएँ और सत्ताइस गद्य रचनाएँ लिखी थी। यह अपने आप में लेखक के लिए महान कार्य था।

प्रश्न 4. ला शत्रूज क्या है और वह कहाँ अवस्थित है? आजकल उसका क्या उपयोग होता है?
उत्तर-रोन नदी के दूसरी ओर आविन्यों का एक हिस्सा जो स्वतंत्र है-वीलनव्वल आविन्यों अर्थात् आविन्यों का नया गाँव या नयी बस्ती। यहाँ फ्रेंच शासकों के द्वारा निर्मित किले में काथूसियन सम्प्रदाय का एक ईसाई मठ है-ला शत्रूज।
आजकल वहाँ एक संरक्षित स्मारक है। वहाँ एक कलाकेन्द्र की स्थापना की गयी है। यह केन्द्र रंगमंच और लेखन से जुड़ा है। रंगकर्मी, रस संगीतकार, अभिनेता नाटककार वहाँ आते हैं और पुराने ईसाई संतों के चैम्बर्स में रहकर कुछ समय तक अपना रचनात्मक कार्य करते हैं। यहाँ प्रतिदिन एक्यावन सैलानी भी आते हैं। यह बेहद शांत और नीरव स्थान है। यहाँ की एक अपनी निजी विशेषता है।

प्रश्न 5. ला शत्रूज का अंतरंग विवरण अपने शब्दों में प्रस्तुत करते हुए यह स्पष्ट कीजिए कि लेखक ने उसके स्थापत्य को ‘मौन का स्थापत्य’ क्यों कहा है?
उत्तर-ला शत्रूज में फ्रेंच शासकों ने पोप की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए एक किला बनवाया था। उसी किले में काथूसियन सम्प्रदाय का एक ईसाईं मठ बना-सा शत्रूज। 14वीं सदी तक उसका धार्मिक उपयोग होता रहा। यह सम्प्रदाय मौन में विश्वास करता था। इसी कारण वहाँ का सारा स्थापत्य एक तरह से मौन का ही स्थापत्य था

क्रांति होने पर इस स्थान और इमारतों पर साधारण लोगों का कब्जा हो गया था। इस सदी के आरंभ में इसका जीर्णोद्धार किया गया। धीरे-धीरे अधिकांश पुराने स्थानों और इमारतों को वापस खरीदकर उनका बहुत संवेदनशील और सुघर जीर्णोद्धार किया गया। उसे पूर्व पहचान देने
की कोशिश की गयी। उसे एक संरक्षित स्मारक का रूप दिया गया। उसमें एक कलाकेन्द्र की स्थापना की गयी। यह केन्द्र इन दिनों रंगमंच और लेखन से जुड़ा हुआ है। रंगकर्मी रस संगीतकार अभिनेता, नाटककार आदि यहाँ आते हैं। पुराने ईसाई संतों के चैम्बर्स में कुछ समय रहकर अपनी
रचनाएँ करते हैं।
यहाँ फर्नीचर तो पुराने ढंग के (14वीं सदी) ही हैं किन्तु आधुनिक रसाईघर और नहान- साथ अत्याधुनिक संगीत व्यवस्था भी है। सप्ताह के पाँच दिनों में शाम को सबको एक स्थान पर रात्रि भोजन की व्यवस्था भी है। बाकी दिन नाश्ता और दोपहर के भोजन की अपनी सुविधा है। जहाँ चाहे वहाँ स्वयं बनाकर भोजन कर सकते हैं। यहाँ प्रतिदिन एक्यावन सैलानी आते हैं। यह एक नीरव, बेहद शांत स्थल है जहाँ एकांत साधना की जा सकती है। इसकी अपनी एक
अलग विशेषता है जिससे लेखक प्रभावित हुआ था। ला. शत्रूज कलाकारों, रचनाकारों के लिए एक साधना स्थली है।

प्रश्न 6. लेखक आविन्यों क्या साथ लेकर गए थे और वहाँ कितने दिनों तक रहे? लेखक की उपलब्धि क्या रही?
उत्तर-लेखक जब आविन्यों गए थे तो अपने साथ हिन्दी का टाइपराइटर, तीन-चार पुस्तकें और कुछ संगीत के टेप्स भर ले गए थे।
लेखक वहाँ कुल उन्नीस दिनों तक रहे (24 अक्टूबर से 10 नवम्बर 1994 की दोपहर तक)।
वहाँ एकांतवास के क्षणों में लेखक ने कुल उन्नीस दिनों में पैंतीस कविताएँ और सत्ताइस गद्य रचनाएँ लिखीं। यह लेखक की महान उपलब्धि थी।

प्रश्न 7. ‘प्रतीक्षा करते हैं पत्थर’ शीर्षक कविता में कवि क्यों और कैसे पत्थर का पानवीकरण करता है?
उत्तर-‘प्रतीक्षा करते हैं पत्थर’ शीर्षक कविता में कवि ने पत्थर का चित्रण एक सजीज मानव के रूप में किया है। युगों-युगों से यह पत्थर हमारी सभ्यता और संस्कृति को कहानी अपनी भूक भाषा में व्यक्त कर रहा है। पत्थर किसी काल या देवता की अगवानी नहीं कर रहा है। बल्कि यह तो मानव को देवता से भी बढ़कर तरजीह देते हुए उसके साथ अपने पुरातन आत्मीय संबंधों पत्थर सदियों से साक्षी के रूप में स्थिर होकर बहुत-कुछ मौन रहकर ही व्यक्त कर देता प्रकट कर रहा है।
काव्य-सृजन में निमग्न हैं। पता नहीं ये किसकी बाट जोह
हैं। प्रतीक्षा करते पत्थर-पाषाण के रूप में नहीं बल्कि एक इतिहास पुरुष के रूप में मामः के विकास की कहानी के विविध रूपों का सम्यक् चित्रण प्रस्तुत कर हमें गुरु सदृश व्यवहार का रहे हैं। अतः, ये पत्थर नहीं हैं, बल्कि इन्सान हैं। इनके भीतर दर्द है, पौड़ा है और है-संवेदनशीलता।

प्रश्न 8:-आवियों के प्रति लेखक कैसे अपना सम्मान प्रकट करता है?
उत्तर-आवियों में लेखक कुल उन्नीस दिनों का प्रवास किया। ये क्षण लेखक के लिए अनमोल थे। लेखक ने अपने जीवन में ऐसा सुखद क्षण कम ही पाया है लेखक के जीवन का
सूजन करने का एकांत क्षण उसे नसीब हुआ
यह पहला अवसर था कि अपने आप में जीने
लेखक इस निपट एकांत क्षण को पाकर अतिशय प्रसन्न था। उसने इस बहुमूल्य क्षण का सदुपया किया और कुल उन्नीस दिनों के बीच पैंतीस कविताओं और सत्ताइस गद्य रचनाओं का सूजन का अतिशय आनंद का अनुभव किया।
वहाँ वह विश्व के महान कलाकार पिकासो की कृति-ल मादामाजेल का दर्शन किया। वहाँ लेखक ने आन्द्रे बेता, रेने शॉ पाल एलुआरिकी तीस संयुक्त कविताओं का भी सुखद दर्शन किया।
वहाँ की सुन्दरता, निविड़, सघन, सुनसान दिन काली रातें लेखक को काफी शांति देती रहीं। भय, पवित्रता और आसक्ति के बीच जीता हुआ लेखक अपने काव्य-सृजन द्वारा कृतज्ञत शापित किया है। वह उन महापुरुषों, आविन्यों के प्रति गहरी आस्था प्रकट करता है।
अतः, अन्त में लेखक कहता है कि जीवन में कुछ खोना पड़ता है तब कुछ हम पाते हैं।
ला राज में जो शांति, सुकून लेखक को मिला, सृजन के जो क्षण मिले, उसके लिए लेखक अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता है। पाने के लिए गहरी कृतज्ञता और खाने के लिए गहरी पौड़ा, दोनों के बीच लेखक आविन्यों के प्रति नतशिर है।

प्रश्न 9. मनुष्य जीवन से पत्थर की क्या समानता और विषमता है?
उत्तर प्रस्तर (पत्थर) का निर्माण प्राकृतिक कारणों से हुआ है। निर्माण की दृष्टि से पत्थर एक निर्जीव पदार्थ है। उसमें संवेदना या चेतना का अभाव है। जबकि मनुष्य एक चेतस प्राणी है। वह संवेदनशील भी है। उसे सुख-दुःख, घृणा, देष, पौड़ा आदि अनेक चीजों का कटू-तिका, सुखद अनुभव होता है। इस प्रकार मनुष्य का निर्माण पाँच तत्वों से हुआ है। मनुष्य में सजीवता, चिंतन शक्ति और अनुभव करने की क्षमता है। इसके पास साधना-शकिा है। जबकि पत्थर अटता निर्जीव, असंवेदनशील, जड पदार्थ है। लेकिन जब कवि उसका मानवीकरण करता है, जब उसे एक इन्सान के रूप में, प्रकृति पुरुष के रूप में अपनी काव्यमाला में चित्रित करता है तब का मजीव हो उठता। है और पुरुष के समान ही उसके गुण दृष्टिगत होने लगते हैं। कवि में पत्या
का प्रतीक मानते हुए मानव के गुणों, उसके साथ के संबंधों का सटीक वर्णन किया है। पत्थः भी प्राकृतिक जद पदार्थ है। मनुष्य भी प्रकृति की अनुपम देन हैं। दोनों प्रकृति-पुत्र है।
इस प्रकार रूप, गुण व्यवहार निर्माण, के आधार इस दोनों में कई बिन्दुओं पर समानता भी है और कई बिन्दुओं पर विषमता भी।

प्रश्न 10. इस कविता से आप क्या सीखते हैं?
उत्तर-‘प्रतीक्षा करते हैं पत्थर’ शीर्षक कविता हमारे लिए पथप्रदर्शक का काम करती है। यह हमें हमारे इतिहास से, सभ्यता से, संस्कृति से रू-ब-रू कराती है। यह हममें मानवता के पाठ पढ़ाती है। इस कविता से हमें जीवन जीने की प्रेरणा भी मिलती है। यह कविता स्वयं में मना
विकास का सन्या इतिहास प्रस्तुत करती है। उसके द्वारा प्रकृति के गुढ़ रहस्यों का पता बता है। प्रकृति और मानव के सनातन संबंधों का चित्रण इस कविता में अच्छी तरह हुआ है। इसे कवि का मानवीकरण कर कवि ने एक जीवंत इतिहास पुरुष का निर्माण किया है जो अनेक थेंपरो संघर्षों के बीच जीते हुए मनुष्य के विकास की कहानी अपनी मूक भाषा में व्यक्त करता है। इसने मानव की रक्षा में, पालन-पोषण में, आवास की सुविधा देने में अपने को समर्पित कर दिया है। मान मानव का सच्चा हितैषी है। युगों-युगों से उसके प्रगति पथ पर बढ़ते चरण के निशान का
सच्चा साक्षी है। इस प्रकार पत्थर निर्जीव नहीं सजी इतिहास पुरुष है जिसके हृदय में मानव गाथा का इतिहास, भूगोल छिपा है।

प्रश्न 11. नदी के तट पर बैठे हुए लेखक को क्या अनुभव होता है?
उत्तर-लेखक जब रोन नदी के तट पर बैठा हुआ है तब उसे अपने आपको भूल जाने का अहसास होता है। वह नदी के जलप्रवाह वहाँ की शांति, नीरवता को देखकर सुध-बुध खो बैठता है और नदी के साथ अपने आपको जुड़ा हुआ पाता है। लेखक स्वयं को नदी की धारा से जुड़कर नदी का रूप ले लेता है। उसमें तरलता, प्रवाहमयता, स्निग्धता दिखने लगती है। नदी का मानवीकरण रूप वह प्रस्तुत करते हुए उससे आत्मीय संबंध जोड़ लेता है। नदी तट पर बैठना नदी के साथ बहना ऐसा प्रयोग है जो अद्भूत आनंद देता है। नैसर्गिक सुख की कल्पना में खोकर लेखक अपने अस्तित्व को भूला बैठता है। इस प्रकार नदी में अपने आपको समाहित कर नदीमय रूप में लेखक अनुभव करता है। नदी की कल-कल, छल-छल, समन्वय, मिलन पोषण रूप लेखक को अच्छा लगता है। लेखक की दृष्टि में नदी-मानव का संबंध पुरातन है नदी के रहने पर ही मानव का अस्तित्व बचा रहेगा। और मानव के रहने पर नदी का महत्त्व बना रहेगा।
इस प्रकार नदी और लेखक दोनों के संबंध में आत्मीय सुख छिपा हुआ है। प्रकृतिगत विशेषताओं के प्रति लेखक आकर्षित होकर अपने आपको भूल गया है। स्वयं को किसी के सौंदर्य को देखकर अभिभूत हो जाना अतिशय सुखकर होता है।

प्रश्न 12. नदी तट पर लेखक को किसकी याद आती है और क्यों?
उत्तर-नदी तट पर जब लेखक बैठता है तब वहाँ उसे नदी का चेहरा लोगों के चेहरा से मिला हुआ दिखता है। कहने का भाव यह है कि नदी मानवहित की देवी है। वह माँ स्वरूप है। उसके चेहरे में जन-जन का रूप-रंग, गुण प्रतिबिंबित होता है। नदी मंगलकामिनी है, जीवनदायिनी है।
नदी तट पर बैठना भी नदी के साथ आत्मसात् हो जाने जैसा हो नदी के पास होने का मतलब नदी की तरह हो जाना है। यानी मानव का जीवन नदी के समान है। इस कविता में कवि को ‘नदी चेहरा लोगों’ की याद आती है। जो लोग नदी के किनारे बसे हैं, वे ही केवल नदी चेहरा नहीं है नदी-पुत्र नहीं है। बल्कि वे लोगों भी नदी’ की बिरादरी में आते हैं जो दूर रहकर नदी तट पर जाते हैं बैठते हैं। नदी किसी को बाँटती नहीं, डाँटती नहीं। वह तो सबको प्यार बाँटती है, दुलारती है, अपने साथ बहाती है। सभी लोग नदी पुत्र के रूप में जीवन जीते हैं। नदी सबकी है और सब लोग नदी के हैं।

प्रश्न 13. नदी और कविता में लेखक क्या समानता पाता है?
उत्तर-नदी और कविता दोनों का स्वरूप एक समान है। जिस प्रकार नदी का निर्माण जलकण से हुआ है, ठीक उसी प्रकार कविता का निर्माण भी शब्द-कण से हुआ है। जिस प्रकार नदी युगों-युगों से प्रवाहित हो रही है, ठीक उसी प्रकार कविता भी आदि काल से है। दूर-दूर से जल आकर नदी को प्रवाहमय, गतिमय बनाते हैं ठीक उसी प्रकार कविता में भी बिंबमालाएँ, शब्द-भंगिमाएँ, जीवन छवियाँ और प्रतीतियाँ आकर मिलती हैं और एकाकार रूप ग्रहण करती हैं। जिस प्रकार नदी जल-रिक्त नहीं होती, ठीक उसी प्रकार कविता भी शब्द-रिक्त नहीं होती।
जिस प्रकार नदी के किनारे हम तटस्थ नहीं पाते हैं, उसी प्रकार कविता के साथ भी हम तटस्थ नहीं रह पाते हैं। नदी और कविता की धारा में हम बरबस बहे जाते हैं। जिस प्रकार नदी का प्रतिबिंब हमारे चेहरे पर झलकता है, चमकता है, दिखायी पड़ता है, ठीक उसी प्रकार हमारे चेहरे पर कविता की चमक भी दिखाई पड़ती है। निरन्तरता नदी की जीवंतता का प्रतीक हैं। नदी और कविता दोन
नश्वरता पर विजय पाकर अनंत से हमारा अभिषेक करती है।
ठीक ही कवि ने कहा है-“कैसी तुम नदी हो?”-उत्तर होगा-“जैसी तुम कविता हो।”
इस प्रकार नदी और कविता में कई विन्दुओं पर रूप-गुण-धर्म के आधार पर हम समानता पार

प्रश्न 14. किसके पास तटस्थ रह पाना संभव नहीं हो पाता और क्यों?
उत्तर-लेखक कहता है कि हम न नदी के किनारे न ही कविता के पास तटस्थ रह पाते हैं। अगर हममें खुलापन है तो हम कविता और नदी दोनों की अभिभूति से बच नहीं सकते हैं। नदी और कविता के साथ बराबर हम घुल-मिल जाते हैं। उसके साथ एकाकार हो जाते हैं। उसकी भावधारा में बह जाते हैं। जिस प्रकार जन-जन के चेहरे पर नदी की आभा प्रतिबिंबित होती है,ठीक उसी प्रकार कविता की चमक भी हमारे चेहरे पर उभर आती है। फैल जाती है। नदी और कविता दोनों में जीवन है, संजीवनी-शक्ति है,प्रेरणा के तत्त्व हैं। समन्वय और आत्मीयता के गुण हैं। कविता और नदी दोनों समान गुण धर्म हैं। दोनों के गुण मिलते-जुलते हैं। दोनों में लोकहित निहित है। इस प्रकार कविता हो चाहे नदी-सच्चा हृदय युक्त पुरुष वहाँ तटस्थ नहीं रह पाएगा।
वह वहाँ की स्थिति, प्रकृति, सौंदर्यानूभूति से अवश्य संबंध स्थापित कर लेगा।

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