bihar board 10th class hindi – परंपरा का मूल्यांकन
परंपरा का मूल्यांकन
bihar board 10th class hindi
class – 10
subject – hindi
lesson 7 – परंपरा का मूल्यांकन
परंपरा का मूल्यांकन
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-रामविलास शर्मा
लेखक परिचय:-रामविलास शर्मा हिन्दी के जाने-माने प्रख्यात आलोचक थे। इनका जन्मज. प्रदेश के अभाव जिले के एक छोटे से गाँव ऊँचगाँव सानी में 10 अक्टूबर 1912 को हुआ था।
इन्होंने 1932 ई. में बी. ए. एवं 1934 ई० में एम. ए. (अंग्रेजी) लखनऊ विवि से किया। 1938 ई. तक शोध कार्य में रत। 1938 से 43ई० तक अंग्रेजी विभाग-लखनऊ वि. वि.में कार्यरत, के. एम. हिन्दी संस्थान के निदेशक पद 1974 ई. तक बने रहे। 1949-53 ई. तक भारतीय प्रगति लेखक संघ के महामंत्री बने। निधन 30 मई, 2000 ई. में दिल्ली में हुआ।
*कृतियाँ- रामविलासजी ने अपनी साधना द्वारा हिन्दी को अनेक मौलिक कृतियों से समृद्ध किया जिनमें निम्नलिखित हैं-
(1) निराला को साहित्य साधना, (2) आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिन्दी आलोचना. (3) भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, (4) प्रेमचंद और उनका युग, (5) भाषा और समाज, (6) महावीर प्र. द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण, (7) भारत की भाषा समस्या, (8) नयी कविता और अस्तित्ववाद, (9) भारत
में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद, (10) भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिन्दी, (11) विराम चिह्न और (12) बड़े भाई आदि।
* साहित्यक विशेषताएँ-रामविलासजी ने हिन्दी में जीवनी साहित्य को एक नया आयाम दिया। हिन्दी गद्य के विकास में इनका योगदान ऐतिहासिक है। तर्क और तथ्यपूर्ण इनका पारदर्शी भाषा है। इन्होंने हिन्दी को वैज्ञानिक दृष्टि देने का काम किया है। भाषा विज्ञान से संबंधित परंपरागत दृष्टि को मार्क्सवाद की वैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषित किया है। देशभक्ति और मार्क्सवादी चेतना युक्त इनका साहित्य है। इन्होंने वाल्मीकि-कालीदास से लेकर मुक्तिबोध तक की रचनाओं का प्रगतिवादी चेतना के आधार पर मूल्यांकन किया है। उन्होंने प्रगति विरोधी हिन्दी आलोचना की
कला एवं साहित्य से संबंधित भ्रांतियों को दूर किया है। साथ ही प्रगतिवादी आलोचना द्वारा उत्पन्न अंतर्विरोधों का भी उन्मूलन किया है।
सारांश
जो लोग साहित्य में युग-परिवर्तन चाहते हैं, रूढ़ियाँ तोड़कर साहित्य-रचना करना चाहते हैं, उनके लिए साहित्य की परम्परा का ज्ञान जरूरी है। साहित्य की परम्परा का मूल्यांकन करते हुए सबसे पहले इस साहित्य का मूल्य निर्धारित किया जाता है जो जनहित को प्रतिबिम्बत करता
है। यह ध्यातत्य है कि दूसरों की नकल करके लिखा जानेवाला साहित्य अद्यम कोटि का होता है। महान् रचनाकार किसी का अनुसरण नहीं करते, पूर्ववर्ती कवियों की रचनाओं का मनन कर, स्वयं सीखते और नयी परम्पराओं को जन्म देते हैं। उनकी आवृत्ति नहीं होती। शेक्सपियर के नाटक दुबारा नहीं लिखे गए।
साहित्य के निर्माण में प्रतिभाशाली मनुष्यों की भूमिका निर्णायक होती है। किन्तु सब श्रेष्ठतम हो यह जरूरी नहीं है। पूर्णत: निर्दोष होना भी छला का दोष है। यही कारण है कि अद्वितीय उपलब्धियों के बाद भी कुछ नये की संभावना बनी रहती है। कोई भी साहित्यकार आलोचना से परे नहीं है। यही कारण है कि राजनीतिक मूल्यों की अपेक्षा साहित्यक मूल्य अधिक स्थायी हैं।
ब्रिटिश साम्राज्य के मिटने पर भी शेक्सपियर, मिल्टन और शेली आज भी जगमगा रहे हैं।
साहित्य के विकास में जन समुदायों और जातियों को विशेष भूमिका होती है। यूरोप के सांस्कृतिक विकास में यूनानियों की भूमिका कौन नहीं जानता। दरअसल, इतिहास का प्रवाह अविछिन्न है और अविछिन्न भो। मानव समाज बदलता और अपनी पुरानी अस्मिता कायम रखता है। इस अस्मिता का जान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। जिस समय राष्ट्र पर मुसीबत आती है, यह अस्मिता प्रकट हो जाती है। यह प्रेरक शक्ति का काम करती है। हिटलर के इसी प्रकार, भारत में राष्ट्रीयता राजनीति की नहीं, इसके इतिहास और संस्कृति को देन है और इसका श्रेय व्यास और वाल्मीकि को है। कोई भी देश, बहुजातीय राष्ट्र के रूप में भारत का मुकाबला नहीं कर सकता।
साहित्य की परम्परा का पूर्ण ज्ञान समाजवादी व्यवस्था में ही संभव है। समाजवादी संस्कृति पुरानी संस्कृति को आत्मसात कर आगे बढ़ती है। हमारे देश की जनता जब साक्षर हो जाएगी तो व्यास और वाल्मीकि के करोड़ों पाठक होंगे। सुब्रह्मय भारती और रवीन्द्रनाथ ठाकुर को सारी
जनता पड़ेगी। तब मानव संस्कृति में भारतीय साहित्य का गौरवशाली नवीन योगदान होगा।
गद्यांश पर आधारित अर्थ ग्रहण-संबंधी प्रश्न
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1. जो लोग साहित्य में युग-परिवर्तन करना चाहते हैं, जो लकीर के फकीर नहीं हैं, जो रूढ़ीयाँ तोड़कर क्रांतिकारी साहित्य रखना चाहते हैं, उनके लिए साहित्य को परम्परा का ज्ञान सबसे ज्यादा आवश्यक है। जो लोक समाज में बुनियादी परिवर्तन करके वर्गहीन शोषणमुक्त समाज का
रचना करना चाहते हैं। चे अपने सिद्धान्तों को ऐतिहासिक भौतिकवाद के नाम से पुकारते हैं। जो महत्व ऐतिहासिक भौतिकवाद के लिए इतिहास का है, वही आलोचना के लिए साहित्य की परम्परा का है। साहित्य की परम्परा के ज्ञान से हो प्रगतिशील आलोचना का विकास होता है। प्रगतिशील
आलोचना के ज्ञान से साहित्य को धारा मोड़ी जा सकती है और नए प्रगतिशील साहित्य का निर्माण किया जा सकता है। प्रगतिशील आलोचना किन्हीं अमूर्त सिद्धानों का संकलन नहीं हैं, वह साहित्य को परम्परा का मूर्त ज्ञान है। और यह जान उतना ही विकासमान है जितना साहित्य को परम्परा।
(क) यह अवतरण किस पाठ से लिया गया है?
(क) विष के दाँत
(ख) जित जित मैं निरखत हूँ
(ग) मछली
(घ) परम्परा का मूल्यांकन
(ख) इस गद्यांश के लेखक कौन हैं?
(क) रामबिलास शर्मा
(ख) बिरजू महाराज
(ग) अशोक वाजपेयी
(घ) भीमराव अंबंदकर
(ग) नये प्रगतिशील साहित्य का निर्माण कैसे किया जा सकता है?
(घ) प्रगतिशील आलोचना क्या है?
उत्तर-(क) (प) परम्परा का मूल्यांकन
(ख)-(क) रामविलास शर्मा
(ग) नये प्रगतिशील साहित्य का निर्माण आलोचना के माध्यम से किया जा सकता है। साहित्य की परम्परा का है।
जिस तरह ऐतिहासिक भौतिकवाद के लिए इतिहास का महत्त्व है उसी तरह आलोचना के लिए साहित्य की परम्परा का है।
(घ) साहित्य की परम्परा के ज्ञान से ही प्रगतिशील आलोचना का विकास होता है प्रगतिशील आलोचना साहित्य की परंपरा का मूर्त ज्ञान है।
2. साहित्य मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन से संबद्ध है। आर्थिक जीवन के अलावा मनुष्य एक प्राणी के रूप में भी अपना जीवन बिताता है। साहित्य में उसकी बहुत-सी आदिम भावनाएं प्रतिफलित होती हैं जो उसे प्राणिमात्र से जोड़ती हैं। इस बात को बार-बार कहने में कोई हानि नहीं है कि साहित्य विचारधारा मात्र नहीं है। उसमें मनुष्य का इन्द्रिय-बोध, उसकी भावनाएँ भी व्यंजित होती है। साहित्य का यह पक्ष अपेक्षाकृत स्थायी होता है।
(क) प्रस्तुत गद्यांश किस पाठ से लिया गया है ?
(क) शिक्षा और संस्कृति
(ख) नौबतखाने में इबादत
(ग) जित-जित मैं निरखत हूँ
(घ) परम्परा का मूल्यांकन
(ख) इस गद्यांश के लेखक कौन हैं ?
(क) रामविलास शर्मा
(ख) मैक्समूलर
(ग) अशोक वाजपेयी
(घ) यतीन्द्र मिश्र
(ग) साहित्य में कौन-कौन-से भाव व्यंजित होते हैं?
(घ) साहित्य विचारधारा मात्र ही नहीं है। इसे स्पष्ट करें।
उत्तर-(क)-(घ) परम्परा का मूल्यांकन
(ख)-(क) रामविलास शर्मा
(ग) साहित्य में इन्द्रिय बोध एवं भावनाओं का स्वरूप व्यंजित होता है।
(घ) साहित्यकार मस्तिष्क और हृदय संपन्न प्राणी है। जब कभी वह भावों और विचारों को प्रकट करना चाहता है, तब उसकी अभिव्यक्ति साहित्य के रूप में होती है। साहित्य युग एवं समाज का होकर भी युगांतकारी जीवन मूल्यों को प्रतिष्ठित कर सुंदरतम समाज का रेखाचित्र प्रस्तुत करता है। इसमें रंग भरकर जीवंतता प्रदान कर देना पाठकों का कार्य होता है।
3. साहित्य में विकास-प्रक्रिया उसी तरह सम्पन्न नहीं होती जैसे समाज में। सामाजिक विकास-क्रम में सामन्ती सभ्यता की अपेक्षा पूँजीवादी सभ्यता को अधिक प्रगतिशील कहा जा सकता है और पूँजीवादी सभ्यता के मुकाबले समाजवादी सभ्यता को। पुराने चरखे और करघे के मुकाबले मशीनों के व्यवहार से श्रम की उत्पादकता बहुत बढ़ गई है। पर यह आवश्यक नहीं है कि सामन्ती समाज के कवि की अपेक्षा पूँजीवादी समाज का कवि श्रेष्ठ हो। यह भी सम्भव है कि आधुनिक सभ्यता का विकास कविता के विकास का विरोधी हो और कवि स्वयं बिकाऊ माल
बन रहा हो। व्यवहार में यही देखा जाता है कि 19वीं और 20वीं सदी के कवि-क्या भारत में क्या यूरोप में पुराने कवियों को घोटे जा रहे हैं और कहीं उनके आस-पास पहुँच जाते हैं तो अपने को धन्य मानते हैं। ये जो तमाम कवि अपने पूर्ववर्ती कवियों की रचनाओं का मनन करते हैं, वे
उनका अनुकरण नहीं करते, उनसे सीखते हैं, और स्वयं नई परम्पराओं को जन्म देते हैं। जो साहित्य दूसरों की नकल करके लिखा जाए, वह अधम कोटि का होता है और सांस्कृतिक असमर्थता का सूचक होता है। जो महान साहित्यकार है, उनकी कला की आवृत्ति नहीं हो सकती, यहाँ तक कि एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद करने पर उनका कलात्मक सौन्दर्य ज्यों-का-त्यों नहीं बना रहता। औद्योगिक उत्पादन और कलात्मक उत्पादन में यह बहुत बड़ा अन्तर है। अमरीका ने ऐटम बम बनाया, रूस ने भी बनाया, पर शेक्सपियर के नाटकों जैसी चीज का उत्पादन दुबारा इंग्लैंड में भी नहीं हुआ।
(क) यह अवतरण किस पाठ से लिया गया है ?
(क) परम्परा का मूल्यांकन
(ख) नौबतखाने में इबादत
(ग) नागरी लिपि
(घ) श्रम विभाजन और जाति प्रथा
(ख) इस गद्यांश के लेखक कौन हैं ?
(क) महात्मा गाँधी
(ख) विनोद कुमार शुक्ल
(ग) रामविलास शर्मा
(घ) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(ग) अनुदित भाषा का सौन्दर्य घट जाता है क्यों?
(घ) लेखक आज के कवियों को बिकाऊ क्यों मानता है?
उत्तर-(क)-(क) परम्परा का मूल्यांकन
(ख)-(ग) रामविलास शर्मा
(ग) भाषा की लावण्यता ही उसका सौन्दर्यबोध है। अनुदित भाषा में लावण्यता क्षीण हो जाती है। बार-बार पढ़ने पर कोई-न-कोई एक नया रूप दिखाई देता हैं उस साहित्य की लावण्यता अक्षुण्ण होती है। अनुदित भाषा में ये गुण नहीं दिखाई पड़ते हैं। यही कारण है कि अनुदित भाषा का सौन्दर्य घट जाता है।
(घ) पुराने चरखे और करघे की अपेक्षा मशीनों के व्यवहार में उत्पादन क्षमता बढ़ गर्नु है। ठीक इसी प्रकार आज के कवि सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप अपनी रचनाओं का सृजन नहीं करते है बल्कि पूँजीपतियों को आधार बनाकर या किसी रचना की नकल करते हैं। इसी कारण
लेखक आज के कवियों को बिकाऊ मानता है।
4. द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद मनुष्य की चेतना को, आर्थिक संबंधों को प्रभावित मानते उसकी सापेक्ष स्वाधीनता स्वीकार करता है। आर्थिक संबंधों से प्रभावित होना एक बात है, उनके द्वारा चेतना का निर्धारित होना और बात है। भौतिकवाद का अर्थ भाग्यवाद नहीं है। सब कुछ परिस्थितियों द्वारा अनिवार्यतः निर्धारित नहीं हो जाता। यदि मनुष्य परिस्थितियों का नियामक नहीं है तो परिस्थितियाँ भी मनुष्य की नियामक नहीं है। दोनों का संबंध द्वन्द्वात्मक है। यही कारण है कि साहित्य सापेक्ष रूप से स्वाधीन होता है।
(क) यह अवतरण किस पाठ से लिया गया है?
(ख) आविन्यो
(ग) परम्परा का मूल्यांकन
(घ) शिक्षा और संस्कृति
(ख) इस गद्यांश के लेखक कौन हैं ?
(क) भीमराव अंबेदकर
(ख) मैक्समूलर
(ग) रामविलास शर्मा
(घ) अमरकांत
(ग) क्या मनुष्य की चेतना आर्थिक संबंधों से निर्धारित होती है?
(घ) मनुष्य और परिस्थितियों का संबंध कैसा है? इसका प्रभाव साहित्य पर क्या पड़ता है?
उत्तर-(क)-(ग) परम्परा का मूल्यांकन
(ख)-(ग) रामविलास शर्मा
(ग) मनुष्य की चेतना केवल आर्थिक संबंधों से निर्धारित नहीं होती।
(घ) न मनुष्य परिस्थितियों का नियामक है, न परिस्थितियाँ मनुष्य का। दोनों का संबंध द्वन्द्वात्मक है। इस कारण ही साहित्य सापेक्ष रूप से स्वाधीन होता है।
5. साहित्य के निर्माण में प्रतिभाशाली मनुष्यों की भूमिका निर्णायक है। इसका यह अर्थ नहीं कि ये मनुष्य जो करते है, वह सब अच्छा ही अच्छा होता है, या उनके श्रेष्ठ कृतित्व में दोष नहीं होते। कला का पूर्णतः निर्दोष होना भी एक दोष हैं ऐसी कला निर्जीव होती है। इसीलिए प्रतिभाशाली मनुष्यों की अद्वितीय उपलब्धियों के बाद कुछ नया और उल्लेखनीय करने की गुंजाइश बनी रहती है। आजकल व्यक्ति पूजा की काफी निन्दा की जाती है। किन्तु जो लोग सबसे ज्यादा व्यक्ति पूजा की निन्दा करते हैं, वे सबसे ज्यादा व्यक्ति पूजा का प्रचार भी करते हैं।
(क) प्रस्तुत गद्यांश किस पाठ से लिया गया है ?
(क) बहादुर
(ख) श्रम विभाजन और जाति प्रथा
(ग) विष के दाँत
(घ)परम्परा का मूल्यांकन
(ख) इस गद्यांश के लेखक कौन हैं ?
(क) गुणाकर मूले
(ख) रामविलास शर्मा
(ग) नलिन निलोचन शर्मा
(घ) भीमराव अंबेदकर
(ग) साहित्य का मूल्य राजनीतिक मूल्यों की अपेक्षा अधिक स्थायी क्यों हैं?
(घ) व्यक्ति पूजा का प्रचार कौन लोग करते हैं?
उत्तर-(क)-(घ) परम्परा का मूल्यांकन
(ख)-(ख) रामविलास शर्मा
(ग) राजनीतिक मूल्य जीवन के सम-विषम परिस्थितियों से अवगत नहीं होते हैं। इनमें आलोचना सकारात्मक नहीं होती है। वे परस्पा-एक दूसरे का विरोध करते हैं किन्तु धरातल स्तर पर एक है। साहित्यिक मूल्य जीवन से जुड़ा हुआ रहता है। जीवन से इसका गहरा संबंध होता
है। इसकी आलोचना न हो तो जीवन की सार्थकता ही समाप्त हो जायेगी। यही कारण है कि साहित्य का मूल्य राजनीतिक मूल्यों की अपेक्षा अधिक स्थायी है।
(घ) व्यक्ति पूजा की निन्दा करनेवाले लोग ही व्यक्ति पूजा का अधिक प्रचार-प्रसार करते है। वर्तमान परिस्थिति में यदि कोई महान बनना चाहे तो वह और कुछ नहीं किसी महान
व्यक्ति की आलोचना करना शुरू दे। उसका आलोचनात्मक रूप ही महानता की सीढ़ी साबित होगा।
6. यदि कोई साहित्यकार आलोचना से परे नहीं है, तो राजनीतिज्ञ यह दावा और भी नहीं कर सकते, इसलिए कि साहित्य के मूल्य, राजनीतिक मूल्यों की अपेक्षा अधिक स्थायी है। अंग्रेज कवि टेनीसन ने लैटिन कवि वर्जिल पर एक बड़ी अच्छी कविता लिखी थी। इसमें उन्होंने कहा
है कि रोमन साम्राज्य का वैभव समाप्त हो गया पर वर्जिल के काव्य-सागर की ध्वनि-तरंगें हमें आज भी सुनाई देती हैं और हृदय को आनन्द विह्वल कर देती है। कह सकते हैं कि जब ब्रिटिश साम्राज्य का कोई नामलेवा और पानीदेवा न रह जाएगा, तब शेक्सपियर, मिल्टन और शेली विश्व संस्कृति के आकाश में वैसे ही जगमगाते नजर आएँगे जैसे पहले और उनका प्रकाश पहले की अपेक्षा करोड़ों नई आँखें देख सकेंगी।
(क) यह अवतरण किस पाठ से लिया गया है?
(क) परम्परा का मूल्यांकन
(ख) आविन्यो
(ग) श्रम विभाजन और जाति प्रथा
(घ) शिक्षा और संस्कृति
(ख) इस गद्यांश के लेखक कौन हैं ?
(क) रामविलास शर्मा
(ख) मैक्समूलर
(ग) महात्मा गाँधी
(घ) अमरकांत
(ग) टेनीसन कौन थे? उन्होंने क्या लिखा है?
(घ) गद्यांश का आशग्न लिखिए।
उत्तर-(क)-(क) परम्परा का मूल्यांकन
(ख)-(क) रामविलास शर्मा
(ग) टेनीसन अंग्रेज कवि थे। उन्होंने लिखा है कि रामन साम्राज्य का वैभव समाप्त हो गया पर लैटिन कवि वर्जिल के काव्य-सागर की ध्वनि की तरंगें आज भी सुनाई देती हैं। और आनन्द प्रदान करती हैं।
(घ) राजनीति की अपेक्षा साहित्य के मूल्य अधिक स्थायी होते हैं। आज रोमन साम्राज्य नहीं है किन्तु लैटिन कवि वर्जिल की कविताएँ आज भी लोगों को आनंदित करती हैं। इसी प्रकार, अंग्रेजों का राज्य संसार से मिट गया किन्तु शेक्सपियर और मिल्टन तथा शेली विश्व-संस्कृति
के आकाश में जगमगा रहे हैं।
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गोधूलि, भाग-2
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
1. साहित्य में युग-परिवर्तन चाहनेवालों के लिए क्या जरूरी है?
उत्तर-साहित्य में युग-परिवर्तन चाहनेवालों के लिए साहित्य की परम्परा का ज्ञान आवश्यक है।
2. प्रगतिशील आलोचना का विकास कैसे होता है?
उत्तर-साहित्य की परम्परा के ज्ञान से प्रगतिशील आलोचना का विकास होता है।
3. साहित्य का कौन-सा पक्ष अपेक्षाकृत स्थायी होता है?
उत्तर-साहित्य जिसमें मनुष्य का इन्द्रिय-बोध, उसकी भावनाएँ व्यंजित होती है, वह पक्षअपेक्षाकृत स्थायी होता है।
4. मनुष्य और परिस्थितियाँ का संबंध कैसा है?
उत्तर-मनुष्य और परिस्थितियाँ का संबंध द्वन्द्वात्मक है।
5.शेली और बायरन की देन क्या है?
उत्तर-शेली और बायरन ने 19 वीं सदी में स्वाधीनता के लिए लड़नेवाले यूनानियों को एकात्मकता पहचानवाले में बहुत परिश्रम किया।
6. इतिहास का प्रवाह कैसा होता है?
उत्तर-इतिहास का प्रवाह विच्छिन्न होता है और अविच्छिन्न भी।
7. भारतीय संस्कृति के निर्माण में किसका सर्वाधिक योगदान है?
उत्तर-भारतीय संस्कृति के निर्माण में भारत के कवियों का सर्वाधिक योगदान है।
8. रामविलास शर्मा की दृष्टि से देश के साधनों का सबसे अच्छा उपयोग किस व्यवस्था में होता है?
उत्तर-रामविलास शर्मा की दृष्टि से देश के साधनों का सबसे अच्छा उपयोग समाजवादी व्यवस्था में ही हो सकता है।
पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उत्तर
पाठ के साथ
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प्रश्न 1. परंपरा का ज्ञान किनके लिए सबसे ज्यादा आवश्यक है और क्यों?
उत्तर-जो लोग क्रांतिकारी साहित्य की रचना करना चाहते हैं। जो साहित्य में युगांतकारी काम करना चाहते हैं। जो लोग लकीर का फकीर नहीं बनना चाहते हैं, उन्हें साहित्य की परंपराका सम्यक् ज्ञान होना अत्यावश्यक है।
प्रश्न 2. परंपरा के मूल्याकंन में साहित्य के वर्गीय आधार का विवेक लेखक क्यों महत्त्वपूर्ण मानता है?
उत्तर-साहित्य की परंपरा के मूल्याकंन में लेखक वर्गीय आधार को महत्त्वपूर्ण इसलिए मानता है कि रचा गया साहित्य कितना लोकहितकारी है। जो साहित्य शोषक वर्गों के विरुद्ध श्रमिक जनता के हितों का प्रतिबिंबित करता है वह शोषितों के हित का साहित्य है। दूसरी ओर जो साहित्य पूँजीवादी व्यवस्था या संपत्तिशाली वर्गों की देख-रेख में उनके हित-साधन में रचा गया है, उसे पूँजीवादी वर्ग का साहित्य माना जाता है।
अतः, लेखक का विचार है कि साहित्य के मूल्यांकन करने के वक्त ध्यान देना होगा कि रचा गया साहित्य अभ्युदय शील वर्ग का साहित्य है या कि हासमान वा स्पष्ट शब्दों में शीषकों के वर्गहित वाला साहित्य है या कि शोषितों के वर्ग हित का।
सभ्यता के अनेक तत्त्वों की तरह साहित्य में भी ऐसे तत्त्व होते हैं जो विरोधी वर्गों के काम आते है इसी कारण संपत्तिशाली और संपत्तिहीन वर्ग एक-दूसरे के विरोध में खड़े हो जाते हैं। पुराने साहित्य में वर्ग-हित साफ-साफ टकराते दिखायी देता है।
लेकिन साहित्य का हर स्तर संपत्तिशाली वर्गों के हित से बँधा नहीं होता है ठीक उसी प्रकार सभ्यता का हर स्तर वर्ग युद्ध नहीं होता। अतः, इस विज्ञान के युग में बहुत-सी चीजों का उपयोग समाजवादी और पूँजीवादी दोनों व्यवस्था में समान रूप से होता है। जैसे बिजली का उत्पादन पूँजीवादी व्यवस्था की देन है। तो क्या यह समाजवादियों के लिए अहितकर है। इसी प्रकार साहित्य की व्यापकता लोक हित में निहित रहती है। वर्गीय आधार के मानते हुए विवेक के साथ ही हम साहित्य की परंपरा का सम्यक् मूल्याकंन कर सकते है। अतः, मूल्याकंन करते वक्त यह ख्याल रखना होगा कि वर्तमानकाल में जनता के लिए रचा गया साहित्य कहाँ तक उपयोगी है और उसका उपयोग किस प्रकार हो सकता है।
प्रश्न 3. साहित्य का कौन-सा पक्ष अपेक्षाकृत स्थायी होता है? इस संबंध में लेखक की राय स्पष्ट करें।
उत्तर-साहित्य मनुष्य के संपूर्ण जीवन से जुड़ा होता है। आर्थिक जीवन के अलावा मनुष्य एक प्राणी के रूप में भी जीता है। मनुष्य की बहुत-सी आदिम भावनाएँ प्रतिफलित होती हैं जो उसे प्राणिमात्र से जोड़ती हैं। यह कहने में तनिक भी संकोच की बात नहीं है कि साहित्य विचारधारा
मात्रा ही नहीं है। उसमें मनुष्य का इन्द्रिय-बोध उसकी भावनाएँ उसके कार्य व्यापार व्यंजित होते है। साहित्य का यह पक्ष अपेक्षाकृत स्थायी होता है।
प्रश्न 4. ‘साहित्य में विकास प्रक्रिया उसी तरह संपन्न नहीं होती, जैसे समाज में’ लेखक का आशय स्पष्ट करें।
उत्तर-साहित्य में विकास प्रक्रिया निरन्तर गतिशील रहती है लेकिन यह प्रक्रिया समाज विकास की प्रक्रिया से भिन्न होती है।
सामाजिक विकास क्रम में सामान्ती सभ्यता की अपेक्षा पूँजीवादी सभ्यता को अधिक प्रगतिशील माना जाता है और पूँजीवादी सभ्यता को तुलना में समाजवादी सभ्यता को। पुराने चरखे और करघे के मुकाबले मशीनों के व्यवहार से श्रम की उत्पादकता बढ़ गयी है लेकिन यह जरूरी नही है कि समान्ती समाज के कवि की अपेक्षा पूँजीवादी समाज का कवि श्रेष्ठ हो। यह भी संभव नहीं है कि आधुनिक सभ्यता का विकास कविता के विकास का विरोधी
हो। कवि स्वयं बिकाऊ माल बन जाए।
इसे हम व्यवहार में देख सकते हैं कि 19वीं, 20वीं सदी के कवि-क्या भारत में क्या यूरोप में पुराने कवियों को घोटे जा रहे हैं और कहीं उनके पास पहुँचकर अपने को धन्य समझते हैं। ये जो तमाम कवि अपने पूर्ववर्ती कवियों की रचनाओं का मनन करते हैं, वे उनका अनुकरण
नहीं करते, उनसे सीखते हैं और स्वयं नई परम्पराओं को जन्म देते हैं। नकल कर लिखा गया अधम कोटि का माना गया है। उसको सांस्कृतिक गतिमयता नहीं रहती। जो महान साहित्यकार होते हैं, उनकी कला की आवृत्ति नहीं होती। अनुवाद के स्तर पर भी एक भाषा से दूसरी भाषा में कलात्मक सौंदर्य में अंतर आ जाता है।
औद्योगिक उत्पादन और कलात्मक सौंदर्य ज्यों-का-त्यों नहीं बना रहता। अमेरिका ने एटम बम बनाया, रूस ने भी बनाया पर शेक्सपियर के नाटकों के समान दूसरे नाटकों का सृजन दुबारा इंगलैंड में भी नहीं हुआ। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि साहित्य में विकास की जो प्रक्रिया
है वह समाज के विकास की प्रक्रिया से भिन्न है।
प्रश्न 5. लेखक मानव चेतना को आर्थिक संबंधों से प्रभावित मानते हुए भी उसकी सापेक्ष स्वाधीनता किन दृष्टांतों द्वारा प्रमाणित होता है?
उत्तर-द्वन्दात्मक भौतिकवाद मनुष्य की चेतना को आर्थिक संबंधों से प्रभावित मानता है। आर्थिक संबंधों से प्रभावित होना एक बात है, उनके द्वारा चेतना का निर्धारण होना दूसरी बात।
भौतिकिवाद का अर्थ भाग्यवाद नहीं है। परिस्थितियों द्वारा ही सबकुछ अनिवार्य रूप से निर्धारित नहीं हो जाता। अगर मनुष्य परिस्थितियों का नियामक नहीं है तो परिस्थितियाँ भी मनुष्य को नियामक नहीं हैं। दोनों का संबंध द्वन्दात्मक है। यही मूल कारण है कि साहित्य सापेक्ष रूप में स्वाधीनता है।
गुलामी जहाँ अमेरिका में थी उसी तरह वह एथेन्स में भी थी किन्तु एथेन्स की सभ्यता ने सारे यूरोप को प्रभावित किया जबकि अमरीका सामंतवाद दुनिया भर में कायम रहा पर इस सामंती दुनिया में कविता के दो ही केन्द्र रहे-भारत और ईरान। पूँजीवादी विकास भी दुनिया के तमाम देशों में हुआ पर रैफैल, लियानार्डो दा विंची, माइकेल ऐंजेलो इटली में ही पैदा हुए।
प्रश्न 6. साहित्य के निर्माण में प्रतिभा की भूमिका स्वीकार करते हुए लेखक किन खतरों से आगाह करता है?
उत्तर-साहित्य के निर्माण में प्रतिभाशाली मनुष्यों की भूमिका ही निर्णायक होती है। इसका यह अर्थ नही है कि जो मनुष्य जो करते हैं, वह सब अच्छा ही हो। उनके श्रेष्ठ कृतित्व में दोष नहीं हो। कला पूर्णरूप से निर्दोष नहीं होती। उसका पूर्णतः निर्दोष होना भी एक दोष माना जाता
है। ऐसी कला निर्जीव यानी मृतप्राय होती है। यही कारण है कि प्रतिभाशाली मनुष्यों को अद्वितीय उपलब्धियों के बाद कुछ नया और उल्लेखनीय करने की गुंजाइश बनी रहती है।
आजकल व्यक्ति पूजा की काफी निंदा की जाती है लेकिन जो लोग ज्यादा व्यक्ति पूजा की निंदा करते हैं वे ही सबसे ज्यादा व्यक्ति पूजा का प्रचार करते हैं।
साहित्य के मूल राजनीतिक मूल्यों का अपेक्षा स्थायी होते हैं। उदाहरण के लिए रोमन साम्राज्य का वैभव समाप्त हो गया किन्तु वर्जिल के काव्य सागर की ध्वनि तरंगें आज भी हमें सुनाई देती है। जब ब्रिटिश शासन समाप्त पर रहेगा तब शेक्सपियर, मिल्टन शैली विश्व संस्कृति के आकाश में जगमगाते नजर आएंगे।
प्रश्न 7. राजनीतिक मूल्यों से साहित्य के मूल्य अधिक स्थायी होते कैसे होते हैं?
उत्तर-राजनीतिक मूल्यों से साहित्य के मूल्य अधिक स्थायी होते हैं। इसका उदाहरण अंग्रेज कवि टेनीसन की लैटिन कवि वर्जिल पर लिखी गयी कविता है-इसमें उन्होंने कहा है कि रोमन साम्राज्य का वैभव समाप्त हो गया पर वर्जिल के काव्य-सागर की ध्वनि-तरंगें हमें आज भी सुनायी पड़ती है और हृदय को आनंद-विह्वल कर देती हैं।
हम कह सकते हैं जब ब्रिटिश साम्राज्य का कोई नामलेवा और पानी देवा नहीं रहेगा-तब शेक्सपियर, मिल्टन और शैली संस्कृति के आकाश में वैसे ही जगमगाते नजर आएँगे जैसे पहले थे। उनका प्रकाश पहले की अपेक्षा करोड़ों नई आँखें देखेंगी।
इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि राजनीति घिसते-पिटते समाप्त हो जाती है। लेकिन साहित्य नहीं मरता। युगों-युगों से वेदों , की ध्वनियाँ गगन मध्य पूँज रही है जबकि कितने राजे आए और गए। उनका नाम स्मृति पटल से ओझल हो गया किन्तु सूर, कबीर, तुलसी ओझल हुए क्या?
प्रश्न 8. जातीय अस्मिता का लेख किस प्रसंग में उल्लेख करता है और उसका क्या महत्त्व बताता है?
उत्तर-साहित्य के विकास में प्रतिभाशाली मनुष्यों की तरह जनसमुदायों, जातियों की भी विशेष भूमिका होती है। यूरोप के सांस्कृतिक विकास में जो भूमिका प्राचीन यूनानियों की है, वह अन्य किसी जाति की नहीं।
जनसमुदाय जब एक व्यवस्था से दूसरी व्यवस्था में प्रवेश करते हैं तब उनकी अस्मिता नष्ट नहीं होती।
प्राचीन यूनान अनेक गण समाजों में बँटा हुआ था-आधुनिक यूनान एक राष्ट्र है। यह आधुनिक यूनान अपनी प्राचीन संस्कृति से अपनी एकात्मकता स्वीकार करता है या कि नही? यह चिंतन का विषय है।
19वीं सदी में शैली और बायरन ने अपनी स्वाधीनता के लिए लड़नेवाले यूनानियों को ऐसी -एकात्मकता पहचनवाने में बड़ी मदद किया था।
भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के समय में भी इस देश ने इसी तरह अपनी एकात्मकता बदलता है किन्तु अपनी अस्मिता कायम रखता है। जो तत्त्व मानव समुदाय को एक जाति के रूप में संगठित करते है उनमें इतिहास और सांस्कृतिक परंपरा के आधार पर निर्मित यह अस्मिता का
पहचानी थी।
इतिहास का प्रवाह भी विच्छिन्न और अविच्छिन्न रूप में चलता रहता है। मानव समाज पंजाब की मान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बंगाल और पंजाब के विभाजन पर वहाँ की साहित्यिक परंपरा के आधार हम जातीय अस्मिता की पहचान सम्यक् रूप से कर सकते हैं। विभाजित बंगाल से विभाजित तुलना कीजिए तो ज्ञात हो जाएगा कि साहित्य की परंपरा का ज्ञान कहाँ ज्यादा है और कहाँ कम। इस न्यूनाधिक ज्ञान के सामाजिक परिणाम क्या होते हैं।
प्रश्न 9. जातीय और राष्ट्रीय अस्मिताओं के स्वरूप का अंतर करते हुए लेखक दोनों में क्या समानता बताता है?
उत्तर-एक भाषा बोलनेवाली जाति की तरह अनेक भाषाएँ बोलनेवाले राष्ट्र की भी अस्मिता होती है। संसार में इस समय अनेक राष्ट्र बहुजातीय हैं, अनेक भाषा-भाषी है। जिस समय राष्ट्र के सभी तत्त्वों पर मुसीबत आ जाती है तब उन्हें अपनी राष्ट्रीय अस्मिता का ज्ञान बहुत अच्छी तरह हो जाता है। जिस समय हिटलर ने सोवियत संघ पर आक्रमण किया उस समय राष्ट्रीय अस्मिता जानता के स्वाधीनता संग्राम की प्रेरक शक्ति बनी। सोवियत संघ के लोग हिटलर विरोधी संग्राम को महान राष्ट्रीय संग्राम कहते हैं। इस युद्ध के दौरान रूसी जाति ने बार-बार अपनी साहित्य
पंरपरा को याद किया।
जारशाही रुस के टाल्सटॉय सोवियत समाज में सर्वाधिक पढ़े जानेवाले साहित्यकार है। इन्होंने रुसी जाति की अस्मिता को सुदृढ़ और पुष्ट किया।
समाजवादी व्यवस्था कायम होने पर जातीय आस्मिता खंडित नहीं होती वरन पुष्ट और मजबूत होती है। सोवियत संघ में बहुजातीय राष्ट्रीयता का जन्म हुआ। यह राष्ट्रीयता अब एक सामाजिक शक्ति है। यह 1971 के पूर्व नहीं थी। जारशाही रूस में बहुत-सी जातियाँ पराधीन थीं। उनपर रूसी जाति के सामंत और पूँजीपति शासन करते थे-यह भी अन्य साम्राज्य की तरह एक साम्राज्य था। 1917 में बहुत-सी जातियाँ रूसी और गैर-रूसी के झंड तले अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए सोवियत संघ में शामिल हुई और अलग भी हुई। सोवियत संघ में आज जितनी जातियाँ शामिल है, उनका वैसा मिला-जुला राष्ट्रीय इतिहास नहीं है।
भारत में जातियों की भरमार है। राष्ट्र के गठन में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान है। इनका अपना अस्तित्व और जातीय इतिहास भी है। भारत का अपना राष्ट्रीय इतिहास भी है। यूरोप के लोग यूरोपियन संस्कृति की बात तो करते हैं किन्तु यूरोप कभी राष्ट्र का स्वरूप नहीं ले सका।
संसार का कोई भी देश बहुजातीय राष्ट्र की हैसियत से भारत का मुकाबला नहीं कर सकता। यहाँ राष्ट्रीयता एक जाति से दूसरी जातियों पर राजनीतिक प्रभुत्व कायम करके स्थापित नहीं हुई। वह मुख्यत: संस्कृति और इतिहास की देन हैं। देश की संस्कृति से रामायण और महाभारत
को अलग कर दें तो भारत की आन्तरिक एकता टूट जाएगी। किसी भी बहुजातीय राष्ट्र के निर्माण में कवियों का योगदान अमूल्य रहता है। जैसाकि इस देश के व्यास और बाल्मीकि की है।
प्रश्न 10. बहुजातीय राष्ट्र की हैसियत से कोई भी देश भारत का मुकाबला क्यों नहीं कर सकता?
उत्तर-कोई भी राष्ट्र बहुजातीय राष्ट्र की हैसियत से इतिहास के आधार पर भारत का कायम करके स्थापित नहीं हुई। वह मुख्यतः इतिहास और संस्कृति की देन है। इस संस्कृति के मुकाबला नहीं कर सकता। यहाँ की राष्ट्रीयता एक जाति द्वारा दूसरी जातियों पर राजनीतिक प्रभुत्व निर्माण में इस देश के कवियों का सर्वोच्च स्थान है। इस देश की संस्कृति से रामायण और महाभारत को अलग कर दें, तो भारतीय साहित्य की आतंरिक एकता टूट जाएगी। किसी भी
बहुजातीय राष्ट्र के सामाजिक विकास में कवियों की ऐसी निर्णायक भूमिका नहीं रही जैसी इस देश में व्यास और बाल्मीकि की है। इसलिए किसी भी देश के लिए साहित्य की परंपरा का मूल्याकंन उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना इस देश के लिए है।
प्रश्न 11. भारत की बहुजातीयता मुख्यतः संस्कृति और इतिहास की देन है। कैसे?
उत्तर-भारत बहुजातियों का देश है। यहाँ अनेकता में एकता की छवि देखी जा सकती है। यहाँ की संस्कृति समन्वयवादी है। अगर इतिहास का सम्यक् अध्ययन किया जाय तो साफ-साफ पता चलेगा कि बहुजातीय राष्ट्र के रूप में भारत का महत्त्व दूसरे देशों की तुलना में ज्यादा है।
यहाँ राष्ट्रीयता एक जाति द्वारा दूसरी जातियों पर राजनीतिक प्रभुत्व कायम करके स्थापित नहीं हुई है। इसके निर्माण में संस्कृति और इतिहास का योगदान है। यहाँ की संस्कृति के निर्माण में यहाँ के कवियों ने अपने उत्कृष्ट साहित्य द्वारा अपना योगदान किया। किसी भी बहुजातीय राष्ट्र के समन्वयवादी स्वरूप को गढ़ने में कवियों का योगदान महत्त्वपूर्ण रहता है। इस देश की संस्कृति
के निर्माण में व्यास और बाल्मीकि, तुलसी, कबीर, सूर, मीरा, रैदास आदि का योगदान अत्यधिक रहा है। रामायण और महाभारत जैसे ग्रंथ इसके उदाहरण हैं। इसीलिए अन्य देशों की तुलना में भारत में साहित्य की पंरपरा का मूल्याकंन बहुत जरूरी है।
प्रश्न 12. किस तरह समाजवाद हमारी राष्ट्रीय आवश्यकता है? इस प्रसंग में लेखक के विचारों पर प्रकाश डालें।
उत्तर-लेखक के मतानुसार समाजवाद आज के लिए हमारी राष्ट्रीय आवश्यकता है क्योंकि भारत में समाजवादी व्यवस्था कायम होने पर यहाँ की राष्ट्रीयता पहले से ज्यादा पुष्ट होगी। पूँजीवादी व्यवस्था में शक्ति का अपव्यय होता है। देश के साधनों का सबसे अच्छा उपभोग समाजवादी व्यवस्था में ही संभव है। अनेक छोटे-बड़े राष्ट्र जो भारत से ज्यादा पिछड़े थे समाजवादी व्यवस्था कायम करने के बाद पहले की अपेक्षा ज्यादा शक्तिशाली हो गए हैं। उनकी
प्रगति की रफ्तार भी पूँजीवादी देशों की तुलना में तेज है। भारत की राष्ट्रीय क्षमता का पूर्ण विकास समाजवादी व्यवस्था में ही संभव है।
प्रश्न 13. निबंध का समापन करते हुए लेखक कैसा स्वप्न देखता है? उसे साकार करने में पंरपरा की क्या भूमिका हो सकती है? विचार करें।
उत्तर-लेखक का कहना है कि भारत का विकास तभी संभव है जब यहाँ की निरक्षर जनता पूर्ण साक्षर बने। साक्षर बनने के बाद ही वह देश की संस्कृति से अवगत होगी। अभी यहाँ की जनता प्राचीन साहित्य की महत्ता से अनभिज्ञ है। उस ज्ञान से वंचित है। साक्षर होकर जब वह साहित्य का अध्ययन करेगी, सुविधा पाएगी तब व्यास और बाल्मीकि के करोड़ों पाठक पैदा होंगे। वे अनुवाद ही नहीं संस्कृत में भारतीय वाड्गमय का अध्ययन करेंगे। पूरे देश में सांस्कृतिक आदान-प्रदान होगा। उत्तर के लोग सुब्रह्मण्य भारती को पढ़ेंगे, द. के लोग रवीन्द्र, तुलसी, मीरा, कबीर, व्यास को पढ़ेंगे। विभिन्न भाषाओं में लिखित साहित्य जातीय और क्षेत्रीय सीमाओं को तोड़कर सारे देश की संपत्ति बनेगा। राष्ट्र की नयी पीढ़ी को नयी दिशा देगा। तब सांस्कृतिक आदान-प्रदान होगा। ज्ञानवृद्धि होगी तब, सबका विकास होगा। अंग्रेजी जब प्रभुत्व की भाषा न होकर ज्ञानार्जन की भाषा बनेगी। यूरोप-अमेरिका के साथ सारे विश्व साहित्य से हम अवगत होंगे। तब मानव संस्कृति की विशद धारा में भारतीय साहित्य की गौरवशाली परंपरा का नवीन योगदान होगा। इस प्रकार साहित्य की परंपरा का पूर्ण ज्ञान समाजवादी व्यवस्था में ही संभव हैं समाजवादी संस्कृति पुरानी संस्कृति से नाता नहीं तोड़ती बल्कि उसे आत्मसात करके आगे बढ़ता है।
प्रश्न 14. साहित्य सापेक्ष रूप में स्वाधीन होता है। इस मत को प्रमाणित करने के लिए लेखक ने कौन-से तर्क और प्रमाण उपस्थित किये हैं?
उत्तर-साहित्य सापेक्ष रुप में स्वाधीन होता है। इसपर लेखक ने अपने निबंध में प्रकाश डाला है। द्वन्दात्मक भौतिकवाद मनुष्य की चेतना को आर्थिक संबंधों से प्रभावित करता है। इसी कारण उसकी सापेक्ष स्वाधीनता स्वीकार करता है। आर्थिक संबंधों से प्रभावित होना एक बात है, और उनके द्वारा चेतना का निर्धारित होना दूसरी बात है। यहाँ भौतिकवाद का अर्थ भाग्यवाद से नहीं है। मनुष्य का सब कुछ परिस्थितियों द्वारा अनिवार्य रूप से निर्धारित नहीं होता। यदि मनुष्य परिस्थितियों को नहीं पैदा करता है तो परिस्थितियाँ भी मनुष्य का निर्माण नहीं करती हैं। दोनों का संबंध द्वन्दात्मक है। इसी कारण साहित्य भी सापेक्ष रूप स्वाधीन होता है। लेखक ने तर्क दिया है कि गुलामी अमेरिका में भी थी और एथेन्स में भी थी लेकिन एथेन्स की सभ्यता ने सारे यूरोप को प्रभावित किया जबकि गुलामों के अमेरीकी मालिकों ने मानव संस्कृति को कुछ नहीं दिया।
सामन्तवाद सारी दुनिया में कायम रहा लेकिन कविता के दो ही मुख्य केन्द्र थे-भारत और ईरान। पूँजीवादी व्यवस्था यूरोप के तमाम देशों में फैला लेकिन रैफेल, लियोनार्डो दा विंची और माइकेल ऐंजेलो तो इटली में ही पैदा हुए।
यहाँ यह बात स्पष्ट हो जाता है कि विशेष सामाजिक परिस्थितियों में कला का विकास संभव होता है। दूसरी ओर यह भी देखते हैं कि समान सामाजिक परिस्थितियों होने पर भी कला का समान विकास नहीं होता। यहाँ हम असाधारण प्रतिभाशाली मनुष्यों की अद्वितीय भूमिका भी देखते हैं।
प्रश्न 15. व्याख्या करें:-
विभाजित बंगाल से विभाजित पंजाब की तुलना कीजिए, तो ज्ञात हो जाएगा। कि साहित्य की पंरपरा का ज्ञान कहाँ ज्यादा है, कहाँ कम है और इस न्यूनाधिक ज्ञान के
सामाजिक परिणाम क्यो होते हैं।
उत्तर-प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘परंपरा का मूल्याकंन’ नामक पाठ से ली गयी है। इन पंक्तियों का संदर्भ इतिहास और सांस्कृतिक पंरपरा से जुड़ा हुआ है।
लेखक का कहना है कि जब मानव समाज बदलता है और वह अपनी पुरानी अस्मिता कायम रखता है। जो तत्त्व मानव समुदाय को एक जाति के रूप में संगठित करते हैं, उनमें इतिहास और संस्कृति का अद्भुत योगदान है। इतिहास और सांस्कृतिक परंपरा के आधार पर निर्मित यह
अस्मिता का ज्ञान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बंगाल विभाजित हुआ है, किन्तु पूर्वी और पश्चिमी बंगाल के लोगों को अपनी साहित्यिक परंपरा का ज्ञान रहेगा तब तक बंगाली जाति सांस्कृतिक रूप से अविभाजित रहेगी। विभाजित बंगाल से विभाजित पंजाब की तुलना कीजिए, तो ज्ञात हो जाएगा कि साहित्य की परंपरा का ज्ञान कहाँ ज्यादा है, कहाँ कम है, और इस न्यूनाधिक ज्ञान के सामाजिक परिणाम
क्या होते हैं।
उपर्युक्त पंक्तियों का मूल आशय यह है कि इतिहास और संस्कृति किसी भी जाति को संगठित, प्रगतिशील बनने में सहायक होती है। सांस्कृतिक परंपरा से जुड़कर ही अस्मिता की रक्षा की जा सकती है।
भाषा की बात
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प्रश्न 1. पाठ से दस अविकारी शब्द चुनिए और उनका वाक्यों में प्रयोग कीजिए।
(i) जो-जो मेहनत करता है, वह सफल होता है।
(ii) जिसकी-जिसकी लाठी मजबूत होती है, भैंस वही ले जाता है।
(i) जहाँ-जहाँ भी जाना है, जाओ!
(iv) ऐसे-ऐसे बैठे रहोगे तो कैसे काम चलेगा!
(v) जैसे-जैसे-जैसे उम्र ढलती है, आदमी थकने लगता है।
(vi) पर-कुर्सी पर बैठा!
(vii) तो-तुमको तो आना चाहिए था।
(viii) यहाँ तक-यहाँ तक उनके घर की चहारदीवारी है।
(ix) यदि-यदि तुम आओगे तो मैं चलूँगा।
(x) यहीं-यहीं ‘ठहर जाओ! कल जाना।
प्रश्न 2. निम्नलिखित पदों में विशेष्य का परिवर्तन कीजिए-
(i) बुनियादी परिवर्तन-बुनियादी ढाँचा
(ii) मूर्त ज्ञान- मूर्त रूप
(iii) अभ्युदय शीलवर्ग-अभ्युदयशील समाज
(ix) समाजवादी व्यवस्था-समाजवादी शासन
(v) श्रमिक जनता-श्रमिक लोग
(vi) प्रगतिशील आलोचना-प्रगतिशील विचार
(vii) अद्वितीय भूमिका-अद्वितीय भागीदारी, रोल
(viii) राजनीतिक मूल्य-राजनीतिक महत्त्व
प्रश्न 3. पाठ से संज्ञा के भेदों के चार-चार उदाहरण चुनें-
(i) व्यक्तिवाचक-अमेरिका, एथेन्स, रूस, शेक्सपियर, मिल्टन, टेनीसन
(ii) जातिवाचक-साहित्य, लोग, इतिहास, रचना
(iii) भाववाचक-एकात्मकता, स्वाधीनता, अस्मिता, राष्ट्रीयता, एकता
(iv) द्रव्यवाचक-माल, उत्पादन, मूल्य, खाना, संपत्ति, पूँजी, पानी।
(v) समूहवाचक-जनसम्रदाय, गणसमाज, सोवियत संघ, बहुजातीय राष्ट्र।
प्रश्न 4. निम्नलिखित सर्वनामों के प्रकार बताते हुए उनका वाक्य में प्रयोग करें-
(i) जो-(संबंधवाचक सर्वनाम ):-जो पढ़ता है, उत्तीर्ण होता है।
(ii) वे-(अन्यपुरुष, पुरुषवाचक ):-वे लोग आ गए।
(iii) वह- (अन्यपुरुष, पुरुष वाचक):-वह अच्छा लड़का है।
(iv) यह-(निश्चयवाचक):-यह मेरा घर है।
(v) मैं-(पुरुषवाचक ):-मैं टहलता हूँ।
(vi) वैसा-(निश्चयवाचक ):-वैसा घर मुझे चाहिए।
(vii) कोई-(अनिश्चयवाचक):-कोई आ रहा है।
(viti) कुछ-(अनिश्चयवाचक ):-कुल लोग आनेवाले हैं।
(ix) कौन-(प्रश्नवाचक):-कौन बोल रहा है?
(x) जैसा-(संबंधवाचक):- उसके जैसा मित्र कहाँ?
(xi) हमारे-(पुरुषवाचक ):-हमारे देश में बहुत गरीबी है।
(xii) हम-(पुरुषवाचक):-हम रोज पढ़ते हैं।