bihar board class 10 hindi notes – नाखून क्यों बढ़ते हैं
नाखून क्यों बढ़ते हैं
bihar board class 10 hindi notes – नाखून क्यों बढ़ते हैं
class – 10
subject – hindi
lesson 4 – नाखून क्यों बढ़ते हैं
नाखून क्यों बढ़ते हैं
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-हजारी प्रसाद द्विवेदी
* लेखक परिचय:-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म 1907 ई० में बलिया (उ० प्र०) जिले के दूबे छपरा गाँव में हुआ था। द्विवेदीजी को लखनऊ वि० वि०, लखनऊ ने डि० लिट्० की उपाधि देकर सम्मानित किया था। द्विवेदीजी गंभीर अध्येता और पांडित्यपूर्ण व्यक्तित्व संपन्न महापुरुष थे।
संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, बंगला आदि भाषाओं व उनके साहित्य के द्विवेदी गहन अध्येता थे। साथ ही उन्हें इतिहास, संस्कृति, धर्म, दर्शन और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की व्यापक एवं गहन जानकारी थी। इनके द्वारा रचित साहित्य में विचार की तेजस्विता, कथन के लालित्य और बंध की शास्त्रीयता का संगम दिखाई पड़ता है। सच मानिए तो द्विवेदीजी में एकसाथ कबीर, तुलसी और रवीन्द्रनाथ तीनों का एकाकार स्वरूप उभरकर प्रतिबिंबित हुआ है।
“उनकी दृष्टि में भारतीय संस्कृति किसी एक जाति की देन नहीं, बल्कि समय-समय पर उपस्थित अनेक जातियों के श्रेष्ठ साधनांशों के लवण-नीर संयोग से विकसित हुई है।”
* प्रमुख कृतियाँ:-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदीजी की निम्नलिखित प्रमुख कृतियाँ हैं-
(1) अशोक के फूल, (2) कल्पलता, (3) विचार और वितर्क, (4) कुटज, (5) विचार-प्रवाह, (6) आलोक पर्व, (7) प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद (निबंध संग्रह), (8) बाणभट्ट की आत्मकथा, (9) चारूचन्द्र लेख, (10) पुनर्नवा, (11) अनामदास का पोथा (उपन्यास), (12) सूर
साहित्य, (13) कबीर, (14) मध्यकालीन बोध का स्वरूप, (15) नाथ-संप्रदाय, (16) कालिदास की लालित्य-योजना, (17) हिन्दी साहित्य का आदिकाल, (18) हिन्दी सा० की भूमिका, (19) हिन्दी सा०: उद्भव और विकास (आलोचना साहित्येतिहास), (20) संदेशासक, (21) पृथ्वी राजरा
(22) नाथ-सिद्धों की बानियाँ (ग्रंथ-संपादन), (23) विश्वभारती (शांति निकेतन), (24) पत्रिका
का संपादन
* वृत्ति एवं पुरस्कार:-हिन्दी-प्राध्यापक-काशी हिन्दू वि. वि., वाराणसी, शांति निकेतन-विवि बोलपुर (प. बंगाल), चंडीगढ़ वि०वि०, चंडीगढ़ में। अनेक प्रशासननिक पदों पर भी कार्य-संपादन
‘आलोक पर्व’ पर-साहित्य अकादमी पुरस्कार, पद्मभूषण-सम्मान-भारत सरकार द्वारा एवं लखनऊ वि. वि. द्वारा डि० लिट् की उपाधि प्राप्त।
* साहित्यिक विशेषताएँ:-
‘नाखून क्यों बढ़ते हैं?” नामक निबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मानववाद दृष्टिकोण उभरकर सामने आया है। द्विवेदीजी एक प्रख्यात लेखक और निबंधकार थे। उनका या लेख एक ललित निबंध है। इस निबंध के माध्यम से बार-बार काटे जाने पर भी बढ़ जानेवाले नाखूनों के बहाने अत्यंत सहज शैली में सभ्यता और संस्कृति की विकास गाथा को उद्घाटित किया है। एक ओर नाखूनों का बढ़ना मनुष्य की आदिम पाशविक वृत्ति और संघर्ष चेतना की प्रमाण है। दूसरी तरफ नाखूनों को बार-बार काटते रहना और अलंकृत करते रहना मनुष्य की सौंदर्यबोध और सांस्कृतिक चेतना को भी निरूपित करता है।
‘नाखून क्यों बढ़ते हैं एक ललित निबंध है जिसमें भारतीयता, उसकी महत्ता, यहाँ के लोग की सामाजिक व्यवस्था, राजनीतिक चिंतन, रहन-सहन, भाषा-ज्ञान, सांस्कृतिक अभ्युत्थान, पर सम्यक् रूप से प्रकाश डाला गया है। इसमें राष्ट्र, राष्ट्र की सभ्यता और संस्कृति पर विहंगम रूप से विचार किया गया है।
सारांश :-‘नाखून क्यों बढ़ते हैं’ ललित निबंध के लेखक हैं-आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इस शोधपरक ललित निबंध द्वारा द्विवेदीजी ने मानव के जीवनमूल्यों, सांस्कृतिक पक्षों एवं ऐतिहासिक संदर्भो का उल्लेख करते हुए एक व्यापक रूपरेखा का निर्माण किया है।
इस निबंध में मानव के विकास की कहानी है। कैसे जंगली जीवन से मुक्ति पाते हुए मनुष्य ने अपनी जीवन-यात्रा का क्रम जारी रखे हुए है? पाषाण युग, लौहयुग, ताम्रयुग होते हुए आज आधुनिक युग पारकर अत्याधिकता की ओर अग्रसर हो रहा मानव सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ उपादान है। उसमें पशुता भी है तो मानवता भी। उसमें बैर-घृणा है तो प्रेम भी है, करुणा भी है उसमें
हिंसा के भाव हैं तो अहिंसा के भी। वह चेतस हो चुकाहै।
मनुष्य ने लोक विनाशक रूप को अख्तियार कर उसे भी भोगा है और आज भी उस विध्वंसक रूप को याद कर सिहर उठता है। हिरोशिमा का वीभत्स और कारुणिक रूप उसके समक्ष आज भी नाच रहा है।
इस प्रकार मनुष्य अंधयुग की यात्रा को समाप्त कर आज संस्कृति शंकट को सबसे ऊँची चोटी पर पहुँचाया है। फिर भी कभी-कभी उसके भीतर बैठी हुई, सोयी हुई पाशविकता अपने घृणित कर्मों द्वारा इंसानियत का महाविनाश कर देती है। लेखक ने मनुष्य के उत्तरोत्तर विकास की कहानी की चर्चा करते हुए उसके मानवोचित्त गुणों की भी विशद् चर्चा की है प्राणी विज्ञान, मनुष्य की उत्पत्ति, विकास-क्रम सम्यक् दृष्टि डाला है।
लेखक ने भारतीयता उसकी प्राचीनता, नवीनता, पुरखों के त्याग-बलिदान चिंतन-अनुचिंतन पर सम्यक् प्रकाश डाला है। गौतम, महाभारत और गाँधी की महत्ता की और ध्यान खींचा है।
विश्व-बंधुत्व, लोकहित भावना मानव मूल्यों की रक्षा में हमारा योगदान आदि विषयों का विशेषकर ध्यान आकृष्ट किया है।
गद्यांश पर आधारित अर्थ ग्रहण-संबंधी प्रश्न
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1. इतिहास को किस कीचड़ भरे घाट तक घसीटा है, यह सबको मालूम है। नखधर मनुष्य अब एटम बम पर भरोसा करके आगे की ओर चल पड़ा है। पर उसके नाखून अब भी बढ़ रहे हैं। अब भी प्रकृति मनुष्य को उसके भीतर वाले अस्त्र से वंचित नहीं कर रही है, अब भी वह याद दिला देती है कि तुम्हारे नाखून को भुलाया नहीं जा सकता। तुम वही लाख वर्ष के पहले के नख-दतावलंबी जीव हो-पशु के साथ एक ही सतह पर विचरण करनेवाले और चरनेवाले।
ततः किम्। मैं हैरान होकर सोचता हूँ कि मनुष्य आज अपने बच्चों को नाखून न काटने के लिए डाँटता है। किसी दिन-कुछ थोड़े लाख वर्ष पूर्व-वह अपने बच्चों को नाखून नष्ट करने पर डाँटता रहा होगा। लेकिन प्रकृति है कि वह अब भी नाखून को जिलाए जा रही है और मनुष्य है कि वह अब भी उसे काटे जा रहा है। वे कमबख्त रोज बढ़ते हैं, क्योंकि वे अंधे हैं, नहीं जानते कि मनुष्य को इससे कोटि-कोटि गुना शक्तिशाली अस्त्र मिल चुका है। मुझे ऐसा लगता है कि मनुष्य अब नाखून को नहीं चाहता। उसके भीतर बर्बर युग का कोई अवशेष रह जाए यह उसे असह्य है। लेकिन यह भी कैसे कहूँ, नाखून काटने से क्या होता है? मनुष्य की बर्बरता घटी कहाँ है, वह तो बढ़ती ही जा रही है। मनुष्य के इतिहास में हिरोशिमा का हत्याकांड बार-बार थोड़े ही हुआ है। यह तो उसका नवीनतम रूप है! मैं मनुष्य के नाखून की ओर देखता हूँ, तो कभी-कभी निराश हो जाता हूँ।
(क) यह अवतरण किस पाठ से लिया गया है ?
(क) विष के दाँत
(ख) जित-जित मैं निरखत हूँ
(ग) नाखून क्यों बढ़ते हैं
(घ) श्रम विभाजन और जाति प्रथा
(ख) इस गद्यांश के लेखक कौन हैं?
(क) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(ख) बिरजू महाराज
(ग) अशोक वाजपेयी
(घ) भीमराव अंबेदकर
(ग) मनुष्य का नाखून बढ़ना किस वृत्ति का परिचायक है? उस वृत्ति की पूर्ति के लिए मनुष्य ने क्या किया?
(घ) प्रकृति मनुष्य के नाखूनों को लगातार बढ़ाकर उसे क्या अहसास दिलाती है?
उत्तर-(क)-(ग) नाखून क्यों बढ़ते हैं
(ख)-(क) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(ग) नाखून बढ़ना हमारी पाशविक वृत्ति का परिचायक है। यही पाशविक वृति हिंसा की प्रतीक है। इसी हिंसा की पूर्ति के लिए उसने एटम बम का विकास किया है।
(घ) प्रकृति मनुष्य के नाखूनों को लगातार बढ़ाकर उसकी पाशविक वृत्ति का अहसास दिलाती रहती है कि तुम वही लाख वर्ष पहलेवाले नाखूनों और दाँतों पर निर्भर रहनेवाले जीव हो। इन्हीं नाखूनों और दाँतों के सहारे मनुष्य पशुओं के समान जीवन व्यतीत करता था अर्थात् अपनी हिंसा को शांत करता था।
2. अल्पज्ञ पिता बड़ा दयनीय जीव होता है। मेरी छोटी लड़की ने उस दिन पूछ दिया कि आदमी के नाखून क्यों बढ़ते हैं, तो मैं कुछ सोच नहीं सका। हर तीसरे दिन नाखून बढ़ जाते हैं, बच्चे अगर कुछ दिन उन्हें बढ़ने दें, तो माँ-बाप अकसर उन्हें डाँटा करते हैं। पर कोई नहीं जानता कि ये अभागे नाखून क्यों इस प्रकार बढ़ा करते है। काट दीजिए, वे चुपचाप दंड स्वीकार कर लेंगे, पर निर्लज्ज अपराधी की भाँति फिर छूटते ही सेंध पर हाजिर। आखिर वे इतने बेहया क्यों हैं?
(क) प्रस्तुत गद्यांश किस पाठ से लिया गया है ?
(क) नाखून क्यों बढ़ते हैं
(ख) नौबतखाने में इबादत
(ग) जित-जित मैं निरखत हूँ
(घ) श्रम विभाजन और जाति प्रथा
(ख) इस गद्यांश के लेखक कौन हैं?
(क) भीमराव अंबेदकर
(ख) मैक्समूलर
(ग) अशोक वाजपेयी
(घ) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(ग) नाखुन बढ़ने पर माता-पिता बच्चों को क्यों डाँटा करते हैं?
(घ) निर्लज्ज अपराधी लेखक ने किसे कहा है?
उत्तर-(क)-(क) नाखून क्यों बढ़ते हैं
(ख)-(घ) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(ग) नाखून हाध के अनिवार्य अंग हैं। बढ़ने से उनमें गंदगी घुस जाती है जो खाते समय पेट में चली जाती है। इसलिए नाखून चढ़ने पर माँ बाप बच्चों को डाँटा करते हैं।
(घ) लेखक ने नाखूनों को निर्लज्य अपराधो कहा है।
3. सोचना तो क्या उसे इतना भी पता नहीं चलता कि उसके भीतर नख बढ़ा लेने की सहजात वृत्ति है, वह उसके पशुत्व का प्रमाण है। उन्हें काटने की जो प्रवृत्ति है, वह उसको मनुष्य की निशानी है और यद्यपि पशुत्व के चिह्न उसके भीतर रह गए हैं, पर वह पशुल्व को छोड़ चुना है। पशु बनकर वह आगे नहीं बन सकता। उसे कोई और रास्ता खोजना चाहिए। अस्त्र बदार की प्रवृत्ति मनुष्यता की विरोधिनी है।
(क) यह अवतरण किस पाठ से लिया गया है?
(क) नाखून क्यों बढ़ते हैं
(ख) नौबतखाने में इबादत
(ग) नागरी लिपि
(घ) श्रम विभाजन और जाति प्रथा
(ख) इस गद्यांश के लेखक कौन हैं?
(क) महात्मा गाँधी
(ख) विनोद कुमार शुक्ल
(ग) भीमराव अंबेदकर
(घ) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(ग) नाखून बढ़ना और नाखून काटना किस की निशानी है?
(घ) ‘पशु बनकर वह आगे नहीं बढ़ सकता -स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-(क)-(क) नाखून क्यों बढ़ते हैं।
(ख)-(घ) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(ग) प्राणीविज्ञानी के अनुसार नाखून बढ़ाना मानव की सहजात वृत्ति है। यदि मनुष्य नाखून काटता है तो काटने की प्रवृति मनुष्यता की निशानी है।
(घ) आदिकाल में मनुष्य को हिंसक होने की जरूरत थी इसलिए उसमें नाखून बढ़ाए रखने तथा उसे न काटे जाने की प्रवृत्ति थी । परन्तु आज मनुष्य सभ्य हो चुका है। वह हिंसा की भावना को नष्ट कर देना चाहता है क्योंकि उसे पता है कि वह हिंसा या पशुता के सहारे आगे नहीं बढ़ सकता उसे कोई और रास्ता खोजना चाहिए। उसे यह भी ज्ञान है कि अस्त्र-शस्त्र जमा करणा मानवता का विरोध करना है।
4. हमारी परंपरा महिमामयी, उत्तराधिकार विपुल और संस्कार उज्ज्वल हैं। हमारे अनजाने में भी ये बातें एक खास दिशा में सोचने की प्रेरणा देती हैं। यह जरूर है कि परिस्थितियों बदल गई है। उपकरण ना हो गए हैं और उलझनों को मात्रा भी बहुत बढ़ गई है, पर मूल समस्याएं
बहुत अधिक नहीं बदली है। भारतीय चित जो आज भी ‘अणेनता’ के रूप में न सोचकर ‘स्वाधीनता’ के रूप में सांचता है, वह हमारे दीर्घकालीन संस्कार का फल है। वह ‘स्व’ के बंधन को आसानी से होड़ नहीं सकता। अपने-आप पर अपने-आप के द्वारा लगाया हुआ बंधन हमारी संस्कृति की बड़ी-भारी विशेषता है।
(क) यह अवतरण किस पाठ से लिया गया है?
(क) माली
(ख) आबिन्यो
(ग) नाखून क्यों बढ़ते हैं
(घ) शिक्षा और संस्कृति
(ख) इस गद्यांश के लेखक कौन हैं?
(क) भीमराव अंबेदकर
(ख) मैक्समूलर
(ग) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(घ) अमरकांत
(ग) भारतीय चित में ‘स्व’ का भाव किसका प्रतिफल है?
(घ) गद्यांश का भावार्थ लिखें।
उत्तर-(क)-(ग) नाखून क्यों बढ़ते हैं
(ख)-(ग) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(ग) भारतीय चित में ‘स्व’ का भाव हमारे दीर्घकालीन संस्कारों का फल है।
(घ) हमारी महिमामयी परंपरा और उज्ज्वल संस्कार ही एक खास दिशा में सोचने की प्रेरणा देते हैं। परिस्थितियाँ भले बदल गई हैं, पर समस्याएँ बदली नहीं हैं। हमारे मानस में ‘स्व’ का जो भाव है, जो आत्म-बंधन की स्वीकृति है, वह दीर्घकालीन संस्कारों का फल है।
5. मरे बच्चे को गोद में दबाए रहनेवाली ‘बँदरिया’ मनुष्य का आदर्श नहीं बन सकती। परंतु मैं ऐसा भी नहीं सोच सकता कि हम नई अनुसन्धित्सा के नशे में चूर होकर अपना सरबस खो दें। कालिदास ने कहा था कि सब पुराने अच्छे नहीं होते, सब नए खराब ही नहीं होते। भले
लोग दोनों की जाँच कर लेते हैं, जो हितकर होता है उसे ग्रहण करते हैं, और मूढ़ लोग दूसरों के इशारे पर भटकते रहते हैं। सो, हमें परीक्षा करके हितकर बात सोच लेनी होगी और अगर हमारे पूर्वसंचित भंडार में वह हितकर वस्तु निकल आए, तो इससे बढ़कर और क्या हो सकता है?
(क) प्रस्तुत गद्यांश किस पाठ से लिया गया है ?
(क) बहादुर
(ख) नाखून क्यों बढ़ते हैं
(ग) विष के दाँत
(घ) परम्परा का मूल्यांकन
(ख) इस गद्यांश के लेखक कौन हैं ?
(क) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(ख) रामविलास शर्मा
(ग) नलिन निलोचन शर्मा
(घ) भीमराव अंबेदकर
(ग) लेखक अपनी प्राचीन परंपराओं को क्यों नहीं छोड़ना चाहता?
(घ) बुद्धिमान और मूढ़ लोगों में क्या अन्तर है?
उत्तर-(क)-(ख) नाखून क्यों बढ़ते हैं
(ख)-(क) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(ग) लेखक को भारतीय परंपराओं पर गर्व है। उसकी इच्छा है कि नये अनुसंधानों में हम प्राचीन परंपराओं को नहीं खोयें। हमारी प्राचीन पंरपराओं में भी अपनानेवाली श्रेष्ठता है। हमारी प्राचीन परंपराओं में भी कल्याणकारी मार्ग हैं जिन पर आज भी चला जा सकता है।
(घ) वास्तव में बुद्धिमान लोग वही होते हैं जो नये पुराने को परख लेते हैं और जो कल्याणकारी होता है उसे ग्रहण कर लेते है बाकी त्याग देते हैं। इसके विपरीत जो लोग दूसरों
के इशारों पर भटकते हैं वे मूर्ख कहलाते है। इसलिए हमारे लिए क्या कल्याणकारी है और क्या नहीं-इसकी जाँच करनी होगी। श्रेष्ठ बातों को अपने भीतर संजोना होगा।
6. जातियाँ इस देश में अनेक आई हैं। लड़ती-झगड़ती भी रही हैं, फिर प्रेमपूर्वक बस भी गई हैं। सभ्यता की नाना सीढ़ियों पर खड़ी और नाना और मुख करके चलनेवाली इन जातियों के लिए एक सामान्य धर्म खोज निकालना कोई सहज बात नहीं थी। भारतवर्ष के ऋषियों ने अनेक
प्रकार से इस समस्या को सुलझाने की कोशिश की थी। पर एक बात उन्होंने लक्ष्य की थी। समस्त वर्णों और समस्त जातियों का एक सामान्य आदर्श भी है। वह है अपने ही बंधनों से अपने को वाँधना। मनुष्य पशु से किस बात से भिन्न है। आहार-निद्रा आदि पशु-सुलभ स्वभाव उसके ठीक
वैसे ही हैं, जैसे अन्य प्राणियों के। लेकिन वह फिर भी पशु से भिन्न है। उसमें संयम है, दूसरे के सुख-दुख के प्रति सम्वेदना है, श्रद्धा है, तप है, त्याग है। वह मनुष्य के स्वयं के उद्भावित बंधन हैं। इसीलिए मनुष्य झगड़े-टंटे को अपना आदर्श नहीं मानता, गुस्से में आकर चढ़-दौड़ने- वाले अविवेकी को बुरा समझता है और वचन, मन और शरीर से किए गए असत्याचरण को गलत आचरण मानता है। यह किसी भी जाति या वर्ण या समुदाय का धर्म नहीं है। यह मनुष्यमात्र का धर्म है। महाभारत में इसीलिए निर्वैर भाव, सत्य और अक्रोध को सब वर्णों का सामान्य धर्म
कहा है-
(क) यह अवतरण किस पाठ से लिया गया है ?
(क) विष के दाँत
(ख) जित-जित मैं निरखत हूँ
(ग) नाखून क्यों बढ़ते हैं
(घ) श्रम विभाजन और जाति प्रथा
(ख) इस गद्यांश के लेखक कौन हैं ?
(क) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(ख) बिरजू महाराज
(ग) अशोक वाजपेयी
(घ) भीमराव अंबेदकर
(ग) लेखक ने ‘स्वाधीनता’ को भारतीय संस्कृति का सबसे बड़ा गुण क्यों माना है?
(घ) गलत आचरण किसे माना गया है?
उत्तर-(क)-(ग) नाखून क्यों बढ़ते हैं
(ख)-(क) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(ग) ‘स्वाधीनता’ का अर्थ है-अपने ऊपर लगाया गया बंधन। अपने पर अपने द्वारा रोक लगाना भारतीय परंपरा है। मन में क्रोध आना पशुता की निशानी है परन्तु विवेक द्वारा संयमित करना मनुष्यता है।
(घ) वचन, मन और शरीर से किये गये असत्याचरण को गलत आचरण माना गया है।
7. मनुष्य को सुख कैसे मिलेगा? बड़े-बड़े नेता कहते हैं, वस्तुओं की कमी है, और मशीन बैठाओ, और उत्पादन बढ़ाओ, और धन की वृद्धि करो और बाह्य उपकरणों की ताकत बढ़ाओ। एक बूढ़ा था। उसने कहा था-बाहर नहीं, भीतर की ओर देखो। हिंसा को मन से दूर करो, मिथ्या
को हटाओ, क्रोध और द्वेष को दूर करो, लोक के लिए कष्ट सहो, आराम की बात मत सोचो, प्रेम की बात सोचो; आत्म-तोषण की बात सोचो, काम करने की बात सोचो। उसने कहा-प्रेम ही बड़ी चीज है, क्योंकि वह हमारे भीतर है। उच्छृखलता पशु की प्रवृत्ति है, ‘स्व’ का बंधन मनुष्य
का स्वभाव है। की बात अच्छी लगी या नहीं, पता नहीं। उसे गोली मार दी गई। आदमी के नाखून बढ़ने की प्रवृत्ति ही हावी हुई। मैं हैरान होकर सोचता हूँ- बूढ़े ने कितनी गहराई में पैठकर मनुष्य की वास्तविक चरितार्थता का पता लगाया था।
(क) प्रस्तुत गद्यांश किस पाठ से लिया गया है ?
(क) शिक्षा और संस्कृति
(ख) नौबतखाने में इबादत
(ग) जित-जित मैं निरखत हूँ
(घ) नाखून क्यों बढ़ते हैं
(ख) इस गद्यांश के लेखक कौन हैं ?
(क) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(ख) मैक्समूलर
(ग) अशोक वाजपेयी
(घ) यतीन्द्र मिश्र
(ग) “एक बूढ़ा था”-लेखक ने किस बूढ़े की ओर संकेत किया है?
(घ) लेखक हैरान होकर क्यों सोचता है?
उत्तर-(क)-(घ) नाखून क्यों बढ़ते हैं
(ख)-(क) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(ग) ‘एक बूढ़ा था’-वाक्यांश में लेखक ने महात्मा गाँधी की ओर संकेत किया है।
(घ) बूढ़े द्वारा अच्छी बातें समझाने पर भी उसे गोली मारी गई। पशुता या हिंसा को जितनी बार भी समाप्त करने का प्रयास किया जाता है, वह बढ़ती जाती है। वास्तविक चरितार्थता का पाठ पढानेवाला भी गोली का ही शिकार हुआ। लोगों की ऐसी पशुवृत्ति को देखकर लेखक हैरान
हो जाता है।
अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
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1. नाखून क्यों बढ़ते हैं? यह प्रश्न लेखक के आगे कैसे उपस्थित हुआ?
उत्तर-एक दिन अचानक लेखक को छोटी बेटी ने प्रश्न उपस्थित कर दिया-नाखून क्यों बढ़ते हैं?
2. बढ़ते नाखून द्वारा प्रकृति मनुष्य को क्या याद दिलाती है?
उत्तर-बढ़ते नाखून द्वारा प्रकृति मनुष्य को याद दिलाती है कि वह कभी बर्बर था और नाखून उसकी जीव रक्षा के अंग थे।
3. मनुष्य बार-बार नाखूनों को क्या काटता है?
उत्तर-मनुष्य नहीं चाहता कि वर्षर युग की कोई निशानी उसमें रहे। इसलिए बार-बार नाखूनों को काटता है।
4. भारतीय संस्कृति की क्या विशेषता है?
उत्तर भारतीय संस्कृति को विशेषता है अपने आप पर अपने-आप लगाया हुआ बंधन।
5. भले और मूक लोगों में क्या अन्तर है?
उत्तर-भले लोग अच्छे-बुरे की जाँच कर हितकर को ग्रहण करते है और मूह लोग दूसरों के इशारों पर भटकते रहते हैं।
6. महाभारत में सामान्य धर्म किसे कहा गया है?
उत्तर-महाभारत में निर्वर भाव, सत्य और क्रोषहीनता को सामान्य धर्म कहा गया है।
7. मनुष्य का स्वधर्म क्या है?
उत्तर अपने आप पर संयम और दूसरे के मनोभावों का समादर करना मनुष्य का स्वधर्म है।
पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उत्तर
पाठ के साथ
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प्रश्न 1. नाखून क्यों बढ़ते हैं? यह प्रश्न लेखक के आगे कैसे उपस्थित हुआ?
उत्तर-लेखक की छोटी लड़की ने जब पूछ दिया कि आदमी के नाखून क्यों बढ़ी है, तो लोखक असमंजस में पड़ गए। छोटी लड़की के प्रम ने उन्हें यह सोचने का विवश कर दिया
कि सचमुच ये नाखून बार-बार काटने पर भी क्यों इस प्रकार बना करते हैं। इस प्रकार बेटी के प्रश्न ने लेखक को नाखून की प्रकृति और बढ़ने की स्थिति पर गंभीर रूप में सोचने को मजबूर कर दिया।
प्रश्न 2. बढ़ते नाखूनों द्वारा प्रकृति मनुष्य को क्या याद दिलाती है?
उत्तर-लाखों वर्ष पूर्व जब मनुष्य जंगली जीवन जीता था यानो असम्यावस्था में था ता उसके लिए रक्षा हेतु नाखूनों की जरूरत पड़ती थी। वह उसे आनी रक्षा के लिए अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करता था।
विज्ञान के सहारे मनुष्य में विकास पथ का निर्माण किया और द्रूतगति से उन्नति के शिखर पर आरूढ़ हुआ फिर भी उसका विध्वंसक रूप नहीं मिटा है। नाखून से लेकर पत्थर युग, लौह-युग होते हुए इस कम्प्यूटर युग में प्रवेश कर रहा मानव आज भी कही न कही जंगली रूप में जीरहा है-माई जाया और राक्षसी रूप, या अपने द्वारा हो आविष्कृत औजारों से अपना भिमा कर रहा है। वह नव-पाथर इंटा-लाठी के साथ चलकर एटम बम तक आ गया। लेकिन उसके जिन जीन का यह पाशमिम यानी जगली पन गौजूद है। यही कारण है कि लेगका को काँ प्राण जा सकता। सुग वहीं लाया वर्ष के पहले के नख-दशावलंबी जाँव हां-पत्र स एक ही रातह पर विचरण करनेवाले और चरनेवाले।
प्रश्न 3. लेखक द्वारा नाखूनों को अस्व के रूप में देखना कहाँ तक संगत है?
उत्तर-लेखक मनुष्य के नाखूनों को आस्त्र के रूप में देखकर निराश हो जाता है। लेखक नाखूनों को प्रतीकात्मक प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध करना चाहता है कि थे उसकी (मानव को) पारथी वृति के बोर्कत प्रतीक है। मनुष्य की पशुता को जितनी बार भी कार दो, वह मरना नहीं नहीं चाहती।
सेक्षक का विचार यह है कि बदलते परिवेश में गानव अब नाखून नहीं चाहता किन्तु यकिन अति उसे जिलाए आ रही है और मनुष्य उसे काटा जा रहा है। कहने का भाव यह है कि मनुष्य को कोटि-कोटि गुना शक्तिशाली अस्त मिल चुका है लेकिन मनुष्य न चाहकर भी बर्बरता और नृशंसता की और ही बह रहा है कारण है कि उसके भीतर वर युग का कोई अवशेष संघ रह गया है। यह उसे असहय है। मनुष्य के इतिहास में हिरोशिमा का हत्याकांड इसका ज्वलत
प्रमाण है। या उसका नवीनतम रूप है।
इसी कारण नाखूनों के प्रतीकात्मक प्रयोगों द्वारा लेखक यह सिद्ध करना चाहता है कि मनुष्य जितना विकास कर ले लग्नि उसके भीतर की पशुता जबतक नहीं मरंगी तबतक वह विध्वंसक और विनाशक कदम उठाना रहेगा जो सृष्टि के लिए हानिकारक है।
प्रश्न 4. मनुष्य बार-बार नाखूनों को क्यों काटता है?
उत्तर-मनुष्य बार-बार नाखूनों को इसलिए कारता है कि वह बर्बरता और अंगली अवस्था का प्रतीक है। वसने रक्षा के बदले हानि की अब संभावना ज्यादा बढ़ गयी है। यह हमारी कुरूपता, असभ्यता और विकास के प्रतिकूल दीखता है।
सामान्य अर्थ में नाखून तो इसलिए काय जाता है कि फूहड़ता दूर हो जाय। शरीर और ऊँगलियाँ अच्छी लगे लेकिन यहाँ नासले का सामान्य अर्थ के साथ विशिष्ट प्रयोग हुआ है। इससे हमारी सभ्यता और संस्कृति को पारा है। यह हमारी पाशविक प्रवृत्ति का चिह है। हमें अंधकारयुग को और ले जा सकता है। हमारा विनाशक भी बन सकता है इसी कारण भीतर की पाविक प्रवृत्ति और भी समभाव में बदलाव हो। मनुष्य मनुष्यता को ग्रहण करें और अपनी महत्ता को भूलने की कोशिश नहीं करें। मानवीय पओं की ओर लेखक ने ध्यान आकृष्ट करते हुए नाखूनों के काटने
के माध्यम से हमें बताया है कि अगर हम नहीं संभले तो इस सृष्टि के विनाशक स्वयं हम होंगे यानी मानव होगा।
प्रश्न 5. मुकुमार विनोदों के लिए नाखून को उपयोग में लाना मनुष्य ने कैसे शुरू किया? लेखक ने इस संबंध में क्या बताया है?
उत्तर— लेखक ने यह बताया है कि आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भारतवासी नाखूनों को जमकर संवारते थे। इसकी चर्चा वारमवायन के कामसूत्र में भी है। उनके नाखूनों को आले की कला भी अनोखी की।
त्रिकोण, बलिाकर, चंद्रकार, तुल आदि विविध आकृतियों में नाखूनों को काटकर संवारा और सजाया जाता था। विलासी प्रकृति के मनुष्यों में यह चलन काफी था। नाखूनों को नीबू का माझ और आलवा में इंग से एण्डकर लाल और चिकना बनाया जाता था।
देश के विभिन्न हिस्सों में बसे हुए लोगों में नाखूनों को सजाने और संवारने की कला में विभिन्नता थी। गढ़ देश के लोग उन दिनों बड़े-बड़े नखों को पसंद करते थे किन्तु दक्षिण में रहनेवाले छोटे-छोटे नख रखते थे।
नख रखने, सजाने-सँवारने में रुचि, देश और काल का भी अधिक प्रभाव पड़ा है। लेकिन लेखक का अंतिम विचार है कि मनुष्य में जितनी नीचे गिरानेवाली वृत्तियाँ हैं साथ ही नीचे खींचने- वाली वस्तुएँ हैं उन्हें भारतवर्ष ने मनुष्योचित रूप देकर व्यवहृत किया है जो चाहकर भी भुलाया नहीं जा सकता। यही भारतीय सभ्यता और संस्कृति की विशिष्ट देना है।
प्रश्न 6. नख बढ़ाना और काटना कैसे मनुष्य की सहजात वृत्तियाँ है? इनका क्या अभिप्राय है?
उत्तर-मानव विज्ञानी और प्राणि विज्ञानियों का यह निश्चित मत है कि मनुष्य की जैसी चित्त-वृत्तियाँ हैं ठीक उसी प्रकार मानव शरीर में ही बहुत-सी अभ्यास-जन्य सहज वृत्तियाँ रह
गयीं है। इन वृत्तियों की दीर्घकाल तक आवश्यकता रही है। अतः, शरीर ने अपने भीतर एक ऐसा गुण पैदा कर लिया है कि ये वृत्तियाँ सहज ही, अनायास ही और शरीर के अनजाने भी, अपने आप कार्य करती हैं।
नाखूनों को बढ़ना, केश का बढ़ना दूसरा, दाँत का दुबारा उठना तीसरा, पलकों का गिरना, असल में सहजात वृत्तियाँ अनजान स्मृतियों को ही कहते हैं। हमारी भाषा में इसके अनेक उदाहरण हैं।
अगर मनुष्य शरीर, मन और वचन द्वारा अनायास घटनेवाली वृत्तियों के विषय में विचार करे तो उसे अपनी वास्तविक प्रवृत्ति पहचानने में काफी मदद मिल सकती है लेकिन यह कोई नहीं सोचता है।
मनुष्य को तो यह पता ही चलता है कि उसके भीतर नख बढ़ा लेने की जो सहजात वृत्ति है वह उसके पशुत्व का प्रमाण है। उन्हें काटने की जो प्रवृत्ति है, वह उसकी मदांधता की निशानी है। यद्यपि पशुत्व के चिह्न आज भी मनुष्य में रह गए हैं लेकिन वह पशुत्व को छोड़ चुका है।
पशु बनकर वह आगे नहीं बढ़ सकता। उसे कोई दूसरा मार्ग खोजना चाहिए। अस्त्र बढ़ाने की प्रवृत्ति मनुष्यता की विरोधिनी है।
प्रश्न 7. लेखक क्यों पूछता है कि मनुष्य किस ओर बढ़ रहा है, पशुता की ओर या मनुष्यता की ओर? स्पष्ट करें।
उत्तर-लेखक आज के मनुष्य से यह पूछना चाह रहा है कि वह किस ओर बढ़ रहा है-पशुता की ओर या कि मनुष्यता की ओर। अस्त्र बढ़ाने की ओर या अस्त्र घटाने की ओर लेखक की अबोध बालिका का यह प्रश्न-“नाखून क्यों बढ़ते हैं” आज मनुष्य जाति को कठघरे में खड़ा कर दिया है। अस्त्र-शस्त्र की होड़ में लगा मानव आज पशुता की ओर बढ़ रहा है। आज अस्त्र-शस्त्र बढ़ने के मूल में जो बड़ा कारण है-वह ही मनुष्य की पाशविक प्रवृत्ति। यह मानव
सभ्यता का संहारक रूप है। सृष्टि का विनाशक रूप है।
प्रश्न 8. देश की आजादी के लिए किन शब्दों की अर्थ मीमांसा लेखक करता है और लेखक के निष्कर्ष क्या है?
उत्तर-देश की आजादी के लिए लेखक ने दो शब्दों की अर्थ मीमांसा प्रस्तुत किया है-एक इंडिपेण्डेन्स और दूसरा स्वाधीनता दिवस। दोनों शब्दों में समानता और अर्थवत्ता भी पूर्णरूपेण नहीं है-जैसा कि लेखक का मानना है।
लेखक के मतानुसार भारतीय भाषाओं में अँगरेजी के ‘इन्डिपेन्डेंस’ शब्द का समानार्थक शब्द व्यवहृत नहीं होता। 15 अगस्त को जब अंगरेजी भाषा के पत्र इन्डिपेन्डेन्स शब्द की घोषणा कर रहे थे तो देशीभाषा के पत्र-स्वाधीनता दिवस की। दोनों के अर्थ में अंतर है। ‘इंडिपेन्डेन्स’ का अर्थ है-अनधीनता या किसी की अधीनता का अभाव। पर ‘स्वाधीनता’ का अर्थ है-अपने ही अधीन रहना। अँगरेजी में कहना हो तो सेल्फ डिपेन्डेन्स’ कह सकते हैं। लेखक कभी-कभी सोचते हैं कि इतने दिनों तक अँगरेजी के पीछे-पीछे चलने पर भी भारत वर्ष इण्डिपेन्डेन्स को अनधीनता क्यों नहीं कह सका। उसने अपनी आजादी के जितने भी नामकरण किए-स्वतंत्रता,स्वराज्य, स्वाधीनता-उन सबमें ‘स्व’ का बंधन अवश्य रखा। यह क्या संयोग है कि हमारी समूची न परंपरा ही अनजाने में, हमारा भाषा के द्वारा प्रकट होती रही है। अतः, उक्त दोनों शब्दों की अर्थवत्ता सोचकर स्वाधीनता के रूप में सोचता है, वह हमारे दीर्घकाली, संस्कारों का फ है। वह ‘स्व’ हमारी
कुछ हमारा पुराना है, जो कुछ-कुछ हमारा विशेष है, उससे हम चिपटे रहें। पुराने का मोह सब को बताते हुए लेखक कहना चाहता है कि भारतीय चित्र जो आज भी अनधीनता के रूप में संस्कृति की बड़ी भारी विशेषता है। फिर लेखक का कहना है कि मैं ऐसा नहीं मानता कि समय उपयोगी और आवश्यक नहीं होता। लेकिन ऐसा भी न हो कि हम नशे की हालत में, ना खोजी के रूप में अपना सबकुछ खो दें। हमें संयत और संतुलन रखना होगा तभी सभ्यता और
संस्कृति अक्षुण्ण रहेगी।
प्रश्न 9. लेखक ने किस प्रसंग में कहा है कि बंदरिया मनुष्य का आदर्श नहीं सकती? लेखक का अभिप्राय स्पष्ट करें।
उत्तर-लेखक का कहना है कि अपने आप पर अपने आप के द्वारा लगाया हुआ बंधन हमारी संस्कृति की बड़ी भरी विशेषता है। मैं ऐसा नहीं मानता यानी यह लेखक का विचार है कि जी कुछ हमारा पुराना है, जो कुछ हमारा विशेष है, हमारी पहचान है, धरोहर है, उससे हम चिपरे
रहें। पुराने का मोह सदैव हितकारी नहीं होता। मरे हुए बच्चे को गोद में लेकर जिस प्रकार बंदरिया घुमती-फिरती है-वह कभी भी हमारा आदर्श नहीं बन सकती। लेकिन व्यामोह से मुक्त रहते नयी खोजों के साथ नशे की हालत में भी नहीं रहना है कि हम अपना सर्वस्व ही खो दें।
यहाँ पुरातनता की खामियों से सबक लेते हुए नवीनता को ग्रहण करने का आग्रह है। लेकिन लेखक सचेत करता है कि मोह और नशे की हालत में नहीं। दूरदर्शिता और संयत, सतर्क रहकर ही हम प्राचीन और नवीन के बीच संगम सेतु का निर्माण कर सकते हैं और इस सृष्टि की, अपनी अस्मिता की रक्षा कर सकते हैं।
प्रश्न 10. ‘स्वाधीनता’ शब्द की सार्थकता से लेखक क्या बताता है?
उत्तर-लेखक की दृष्टि में ‘स्वाधीनता’ का अर्थ है-अपने ही अधीन रहना। इसे अगर अंग्रेजी में कहना हो तो सेल्फ-डिपेन्डेन्स कह सकते हैं। जबकि स्वाधीनता के लिए इंडिपेन्डेन्स शब्द का प्रयोग होता है जो
अनुपयुक्त है।
‘इंडिपेन्डेन्स’ का अर्थ है-अनधीनता या किसी की अधीनता का अभाव। लेखक का कहना है कि अंग्रेजी का इतने दिनों तक पिछलग्गू बनने पर भी हमारे चिंतकों ने भारत की जनता ने इंडिपेन्डेन्स को अनधीनता क्यों नहीं कह सका। आज तक इंडिपेन्डेन्स के लिए जितने भी शब्द गढ़े गए हैं वे अवैज्ञानिक हैं क्योंकि उनमें वैज्ञानिकता और यथार्थ का अभाव है। स्वतंत्रता, स्वराज, स्वाधीनता उन सब में ‘स्व’ का जो बंधन रखा गया वह अनुपयुक्त और अव्यावहारिक है।
यहाँ लेखक का कहना है कि हमारी समूची परंपरा अनजाने में ही हमारी भाषा के द्वारा प्रकट होती रही है, जो संयोग की ही बात है।
प्रश्न 11. निबंध में लेखक ने किस बूढ़े का जिक्र किया है? लेखक की दृष्टि में बूढ़े के कथनों की सार्थकता क्या है?
उत्तर-निबंध में लेखक ने बूढ़े के रूप में महात्मा गाँधी का जिक्र किया है। लेखक की दृष्टि में महात्मा गाँधी एक विचारक थे, एक संत थे, एक महामानव थे। उनके
विचारों की अनेक विशेषताएँ थी। वे हमारे लिए, मानव के लिए समग्र लोक के लिए हितकारी थे। ‘उन्होंने हिंसा, मिथ्या, क्रोध, द्वेष से दूर रहने की शिक्षा दी। लोक के लिए यानी राष्ट्र और प्रजा के लिए कष्ट सहने का संदेश दिया। आराम की बातों से दूर रहने को कहा। प्रेम, भाईचारा
और आत्म-तोष का उपदेश दिया। पशुता को त्यागने की सीख दी। ‘स्व’ से मुक्ति का मार्ग सुझाया। उन्होंने बाहरी आडम्बरों से मुक्त रहकर भीतरी साधना और चिंतन पर जोर दिया। महात्मा गाँधी जैसे बूढ़े ने गहराई की बातों द्वारा मनुष्य के वास्तविक चरित्र निर्माण के उपाय बताए। मनुष्य
की महत्ता, आवश्यकता और सृष्टि के सर्वाधिक, सर्वश्रेष्ठ स्वरूप के रूप में चित्रित किया।
प्रश्न 12. “मनुष्य की पूँछ की तरह उसके नाखून भी एक दिन झड़ जाएँगे-प्राणिशास्त्रियों के इस अनुमान से लेखक के मन में कैसी आशा जगती है?”
उत्तर-डार्विन के सिद्धांत के अनुसार मनुष्य की उत्पत्ति बंदरों से हुई है। ऐसा प्राणिशास्त्री भी मानते हैं। सृष्टि के आदिकाल में मनुष्य को पूँछ हुआ करती थीं। कालान्तर में वे पूँछे झड़ते-झड़ते विलुप्त हो गयीं। ठीक उसी प्रकार यह नाखून भी एक दिन विलुप्त हो जाएगा-ऐसा प्राणिशास्त्रियों का अनुमान है।
प्राणिशास्त्रियों के इस अनुमान को लेकर लेखक के मन में आशा का संचार होता है और एक नये विश्वास का जन्म होता है। लेखक को लगता है कि जिस दिन ये नाखून झड़ जाएँगे उस दिन मनुष्य की पशुता खत्म हो जाएगी। उस दिन से वह विध्वंसक अस्त्र-शस्त्रों का उपयोग
बंद कर देगा।
वृहत्तर जीवन में अस्त्र-शस्त्रों का बढ़ने देना मनुष्य की अपना इच्छा की निशानी है। इसमें उसकी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा छिपी हुई है। अपना स्वार्थ-लाभ सन्निहित है। दूसरी ओर उसके बाढ़ को यानी वृद्धि को रोकना मनुष्यत्व का तकाजा है।
मनुष्य में घृणा जन्मजात गुण है। यह पशुत्व का द्योतक है। दूसरी ओर अपने को संयत रखना, दूसरे के मनोभावों का आदर करना मनुष्य का स्वधर्म है।
प्रश्न 13. ‘सफलता’ और ‘चरितार्थता’ शब्दों में लेखक अर्थ की भिन्नता किस प्रकार प्रतिपादित करता है?
उत्तर-लेखक ने अपने इस ललित निबंध-‘नाखून क्यों बढ़ते हैं’ में दो शब्दों का प्रयोग किया है-‘सफलता’ और दूसरा ‘चरितार्थता’।
इन दोनों शब्दों में अर्थगत और निर्माणगत अंतर है। दोनों का अर्थ भिन्न है। निर्माण भी भिन्न है। दोनों दो भावों को व्यंजित करते हैं।
‘सफलता’ का अर्थ है-मारणास्त्रों के संचयन बाह्य उपकरणों की बहुलता द्वारा किसी अभीष्ट की प्राप्ति करना। इसी आडंबर को उसने ‘सफलता’ नाम दिया है इसमें भौतिकता के गुणावगुण छिपे हुए हैं। मनुष्य बाहरी उन्नति को ही जीवन की सफलता मानता है जबकि असली
सफलता वह नहीं है। असली सफलता तभी सार्थक हो सकती है जब तक उसमें प्रेम, मैत्री-भाव त्याग, मंगलकारी भावना नहीं बढ़े। मानवीय आन्तरिक गुणों से ही जीवन विकास पा सकता है। बाहरी आचार-विचार से ज्यादा महत्त्वपूर्ण भीतरी राग-द्वेष से मुक्त होना। यहीं जीवन की सही सार्थकता है और तभी सफलता हासिल हो सकती है।
इस प्रकार दोनों शब्दों में तात्विक भिन्नता है।
प्रश्न 14. व्याख्या करें:-
(क) “काट दीजिए, वे चुपचाप दंड स्वीकार कर लेंगे, पर निर्लज्ज अपराधी की भाँति फिर छूटते ही सेंध पर हाजिर।”
व्याख्या :-प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के नाखून क्यों बढ़ते हैं, शीर्षक से ली गयी हैं। इसका संदर्भ है-जब लेखक की बिटिया नाखून बढ़ने का सवाल पूछती है, तब लेखक इस पर, चिंतन-मनन करने लगता है। इस छोटे से सवाल के बीच ही यह पंक्ति भी विद्यमान है जो लेखक के चिंतन से उभरकर आयी है।
लेखक का मानना है कि नाखून ठीक वैसे ही बढ़ते हैं जैसे कोई अपराधी निर्लज्ज भाव से दंड स्वीकार के समय मौन तो लगा जाते हैं लेकिन पुनः अपनी आदत या व्यसन को शुरू कर देते हैं और अपराध, चोरी करने लगते हैं।
यह नाखून भी ठीक उसी अपराधी की तरह है। यह धीरे-धीरे बढ़ता है। काट दिए जाने पर पुनः बेहया की तरह बढ़ जाता है। इसे तनिक भी लाज-शर्म नहीं आती। अपराधी की भी ठीक वैसी ही प्रकृति-प्रवृत्ति हैं।
लेखक मनुष्य की पाशविक प्रवृत्ति की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। वह बार-बार सुधारने, सुकर्म करने की कसमें खाता है। वादा करता है किन्तु थोड़ी देर के बाद पुनः वहीं कर्म दुहराने लगता है। कहने का मूल भाव यह है कि वह विध्वंसक प्रकृति की ओर सहज अग्रसर होता है
जबकि उसे निर्णयात्मक कार्यों अपनी ऊर्जा और मेधा को लगाता।
(ख) “मैं मनुष्य के नाखून की ओर देखता हूँ तो कभी-कभी निराश हो जाता हूँ।”
उत्तर-व्याख्या-प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं’ नामक पाठ से ली गयी है।
इन पंक्तियों का संदर्भ मनुष्य की बर्बरता से जुड़ा हुआ है। अपने निबंध में लेखक यह बताना चाहता है कि मनुष्य के नाखून उसकी भयंकरता के प्रतीक है। लेखक के मन में कभी-कभी नाखून को देखकर निराशा उठती है। वह इस पर गंभीरता से चिंतन करने लगता है।
कहने का आशय यह है कि मनुष्य की बर्बरता कितनी भयंकर है कि वह अपने संहार में स्वयं लिप्त है जिसका उदाहरण-हिरोशिमा पर बम बरसाना है इससे कितनी हानि हुई, संस्कृति का विनाश हुआ, अनुमान नहीं लगाया जा सकता। आज भी उसकी स्मृति से मन कहर उठता
है। तो यह है मनुष्य का पाशविक स्वरूप। यहीं स्वरूप उसके नाखून की याद दिला देते हैं। उसकी भयंकरता, बर्बरता, पाशविकता, अदूरदर्शिता, मानवीयता को लेकर लेखक निराश हो उठता है। वह चिंतित हो उठता है।
लेखक की दृष्टि में मनुष्य के नाखून भयंकर पाशवी वृत्ति के जीते-जागते उदाहरण मनुष्य की पशुता को जितनी बार काटने की कोशिश की जाय फिर भी वह मरना नहीं चाहती। किसी न किसी नवीन रूप को धारण कर अपने विध्वंसक रूप को प्रदर्शित कर ही देती है।
(ग) “कमबख्त नाखून बढ़ते हैं तो बढ़े, मनुष्य उन्हें बढ़ने नहीं देगा।”
उत्तर-व्याख्या :-प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं’ पाठ से ली गयी हैं।
इन पंक्तियों का संदर्भ जुड़ा है-लेख के अंत में द्विवेदीजी यह बताना चाहते हैं कि ये कमबख्त नाखून अगर बढ़ता है तो बढ़े, किन्तु मनुष्य उसे बढ़ने नहीं देगा।
लेखक के कहने का आशय यह है कि मनुष्य अब इतना चेतस हो गया है, बुद्धिजीवी हो गया है कि वह नरसंहार का वीभत्स रूप देख चुका है। उसे यादकर ही वह काँप जाता है। उसके विनाशक रूप का वह भुक्तभोगी है। हिरोशिमा का महाविनाश उसके सामने प्रत्यक्ष प्रमाण है।
अतः, उससे निजात पाने के लिए वह सदैव सचेत होकर फूंक-फूंक कर कदम बढ़ा रहा है। वह अपने विध्वंसक रूप को छोड़कर सृजनात्मकता की ओर अग्रसर होना चाहता है। वह मानव मूल्यों की रक्षा मानवीयता की स्थापना में लगे रहना चाहता है। निरर्थक और संहारक तत्वों से बचकर
शांति के साये में जीना चाहता है।
मनुष्य की इसी विवेकशील चिंतन और दूरदर्शिता की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए लेखक यह बताना चाहता है कि कमबख्त नाखून बढ़े तो बढ़ इससे चिंतित होने की जरूरत नहीं। अब मनुष्य सजग और सचेत है। वह उसे बढ़ने नहीं देगा उसे काटकर नष्ट कर देगा। कहने का भाव
यह है कि वह क्रूरतम विध्वंसक रूप को त्याग देगा।
प्रश्न 15. लेखक की दृष्टि में हमारी संस्कृति की बड़ी भारी विशेषता क्या है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-लेखक ने अपने इस ललित एवं सारगर्भित निबंध ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं?’ में भारतीय सभ्यता और संस्कृति की विशेषताओं की ओर सबका ध्यान आकृष्ट किया है। हमारी संस्कृती विराटता की प्रतीक है। उसमें समन्वय की भावना है। उसमें अनेकता में एकता का प्रतिबिंब झलकता है। उसमें विश्व-बंधुत्व की भावना छिपी हुई है। उसमें करुणा, प्रेम, अहिंसा के संदेश घुले हुए हैं। उसमें भारतीयता की गंध है।
हमारे पुरखों के त्याग बलिदान की अमरगाथाएँ उसे याद दिलाती हैं। हमारे निर्माण और उदारता के कई उदाहरण दुनिया के समक्ष हैं। मानव-सत्य क्या है- इसपर हमारे चिंतकों ने अपने दर्शन द्वारा व्याख्यायित किया है। लोकहित के लिए सर्वस्व त्याग करना हड्डियों को दान दे देना, यही तो हमारी. उत्कृष्ट संस्कृति की पहचान है।
आसुरी वृत्तियों को त्यागकर लोक कल्याणकारी भावनाओं को जगाना, बढ़ाना यही तो हमारा धर्म रहा है।
प्राचीन और नवीन के बीच समन्वय रखना, संतुलन रखना यही तो हमारा दर्शन है। बुद्ध के विचार-सबके सुख-दुख में सहानुभूति रखो, गाँधी के विचार-बाहर नहीं भीतर देखो महाभारत के अनुसार-निबैर भाव, सत्य और अक्रोध को सब वर्गों का समान धर्म मानो- ये वाक्य कितना महत्त्वपूर्ण हैं-लोकहित के लिए। लेखकीय मतानुसार हमारी संस्कृति की यही जीवंत विशेषताएँ है जो आज भी हमें जिन्दा रखे हैं।
प्रश्न 16. ‘नाखून क्यो बढ़ते हैं’ का सारांश प्रस्तुत करें।
उत्तर-पाठ का सारांश देखें
पाठ के आस-पास
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प्रश्न 1. देवराज इन्द्र और दधीचि मुनि की कथा लिखें।
उत्तर-देव और असुरों के बीच बराबर युद्ध हुआ करता था। वृत्तासुर नामक असुर से सभी देवता तबाह हो चुके थे। उसकी ताकत से देवराज इन्द्र भी भयभीत रहा करते थे। उसे मारने के लिए दधीचि मुनि की रीढ़ की हड्डी से बने बज्र की आवश्यकता थी क्योंकि वृत्तासुर को मारने के लिए दधीचि मुनि की हड्डी ही उपयुक्त थी ऐसा उसे श्राप था।
अतः देवराज इन्द्र और सभी देवताओं ने महामुनि दधीचि से प्रार्थना की और उनकी हड्डीयाँ दान में माँगी।
दधीचि ने सहर्ष साधना द्वारा लोकहित के लिए अपना प्राण त्याग दिया। तदुपरांत उनकी हड्डियों से बज्र का निर्माण हुआ और उसी अस्त्र से देवराज इन्द्र ने वृत्तासुर नामक बलशाली और आतंकी राक्षस का अंत किया।
प्रश्न 2. लेखक ने कालिदास के जिस कथन का हवाला दिया है उसका मूलरूप संस्कृत के शिक्षक से मालूम कर याद कर लें तथा उसके अर्थ को ध्यान में रखते हुए एक स्वतंत्र टिप्पणी लिखें।
उत्तर-अर्थ-“कालिदास ने कहा था कि सब पुराने अच्छे नहीं होते, सब नए खराब नहीं होते भक्त लोग दोनों की जाँच कर लेते हैं, सो हमें परीक्षा कर के हितकर बात सोच लेनी
होगी-और अगर हमारे पूर्व संचित भंडार में वह हितकर वस्तु निकल आए, तो इससे बढ़कर और क्या हो सकता है?”
प्रश्न 3. समय-समय पर भारत में बाहर से आनेवाली जातियों के नाम और समय अपने इतिहास के शिक्षक से मालूम करें।
उत्तर – भारत में समय-समय पर अनेक जातियों का आक्रमण हुआ और वे यहाँ की जातियों में घुल-मिल गयीं। उनमें शक आए, हूण आए, कुषाण आए, यवन आए, मुस्लिम आए और अंत में पूर्तगीज, डच और अंग्रेज आए।
भाषा की बात
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प्रश्न 1. निम्नलिखित शब्दों के वचन बदलें-
(1) अल्पज्ञ-अल्पज्ञों
(2) प्रतिद्वन्दियों-प्रतिद्वंदी
(3) हड्डी-हड्डियों
(4) मुनि-मुनियों
(5) अवशेष-अवशेषों
(6) वृत्तियों-वृत्ति
(7) उत्तराधिकार-उत्तराधिकारियों
(8) बँदरिया-बंदरी
प्रश्न 2. वाक्य प्रयोग द्वारा निम्नलिखित शब्दों के लिंग-निर्णय करें-
(1) बंदूक-क्या यह तुम्हारी बंदूक है?
(2) घाट- गंगा का घाट दर्शनीय है।
(3) सतह-धरती की ऊपरी सतह मनुष्य के लिए अत्यधिक उपयोगी है।
(4) अनुसधित्सा-
(5) भंडार- यह आपका अन्न भंडार है।
(6) खोज-वास्कोडिगामा ने भारत की खोज की।
(7) अंग-उनका सुकोमल अंग धूप नहीं सह सकता।
(8) वस्तु-यह कैसी वस्तु है।
प्रश्न 3. निम्नलिखित वाक्यों में क्रिया की काल रचना स्पष्ट करें।
(क) उन दिनों उसे जूझना पड़ता था।
(ख) मनुष्य और आगे बढ़ा।
(ग) यह सबको मालूम है।
(घ) वह तो बढ़ती ही जा रही है।
(ङ) मनुष्य उन्हें बढ़ने नहीं देगा।
प्रश्न 4. ‘अस्त्र-शस्त्रों का बढ़ने देना मनुष्य की अपनी इच्छा की निशानी है और उनकी बाढ़ को रोकना मनुष्यत्व का तकाजा है।’-इस वाक्य में आए विभक्ति चिह्नों के प्रकार बताएँ।
■का- संबंध कारक
■की-संबंध कारक
■उनकी-संबंध कारक
■को-कर्म कारक
■का-संबंध कारक
प्रश्न 5. निम्नलिखित के विलोम शब्द लिखें।
(1) पशुता- मनुष्यता
(2) घृणा-प्रेम
(3) अभ्यास-निराभ्यास
(4) मारणास्त्र-जीवनास्त्र
(5) ग्रहण- मुक्ति, मोक्ष
(6) मूढ़- ज्ञानी
(7) अनुवर्तिता- अअनुवर्त्तिता
(8) सत्याचरण-मिथ्याचरण