उपन्यास

 गोदान | Godan – सम्पूर्ण कहानी | Premchand | प्रेमचंद

 गोदान | Godan – Premchand | प्रेमचंद

Godan / गोदान भाग 1 / प्रेमचंद / Premchand

Godan / गोदान भाग 1-5 / प्रेमचंद / Premchand
होरीराम ने दोनों बैलों को सानी-पानी देकर अपनी स्त्री धनिया से कहा — गोबर को ऊख गोड़ने भेज देना। मैं न जाने कब लौटूँ। ज़रा मेरी लाठी दे दे।
धनिया के दोनों हाथ गोबर से भरे थे। उपले पाथकर आयी थी। बोली — अरे, कुछ रस-पानी तो कर लो। ऐसी जल्दी क्या है।
होरी ने अपने झुरिर्यों से भरे हुए माथे को सिकोड़कर कहा — तुझे रस-पानी की पड़ी है, मुझे यह चिन्ता है कि अबेर हो गयी तो मालिक से भेंट न होगी। असनान-पूजा करने लगेंगे, तो घंटों बैठे बीत जायगा।
‘इसी से तो कहती हूँ, कुछ जलपान कर लो। और आज न जाओगे तो कौन हरज़ होगा। अभी तो परसों गये थे।’
‘तू जो बात नहीं समझती, उसमें टाँग क्यों अड़ाती है भाई! मेरी लाठी दे दे और अपना काम देख। यह इसी मिलते-जुलते रहने का परसाद है कि अब तक जान बची हुई है। नहीं कहीं पता न लगता कि किधर गये। गाँव में इतने आदमी तो हैं, किस पर बेदख़ली नहीं आयी, किस पर कुड़की नहीं आयी। जब दूसरे के पाँवों-तले अपनी गर्दन दबी हुई है, तो उन पाँवों को सहलाने में ही कुशल है। ‘
धनिया इतनी व्यवहार-कुशल न थी। उसका विचार था कि हमने ज़मींदार के खेत जोते हैं, तो वह अपना लगान ही तो लेगा। उसकी ख़ुशामद क्यों करें, उसके तलवे क्यों सहलायें। यद्यपि अपने विवाहित जीवन के इन बीस बरसों में उसे अच्छी तरह अनुभव हो गया था कि चाहे कितनी ही कतर-ब्योंत करो, कितना ही पेट-तन काटो, चाहे एक-एक कौड़ी को दाँत से पकड़ो; मगर लगान बेबाक़ होना मुश्किल है। फिर भी वह हार न मानती थी, और इस विषय पर स्त्री-पुरुष में आये दिन संग्राम छिड़ा रहता था। उसकी छः सन्तानों में अब केवल तीन ज़िन्दा हैं, एक लड़का गोबर कोई सोलह साल का, और दो लड़कियाँ सोना और रूपा, बारह और आठ साल की। तीन लड़के बचपन ही में मर गये। उसका मन आज भी कहता था, अगर उनकी दवादारू होती तो वे बच जाते; पर वह एक धेले की दवा भी न मँगवा सकी थी। उसकी ही उम्र अभी क्या थी। छत्तीसवाँ ही साल तो था; पर सारे बाल पक गये थे, चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गयी थीं। सारी देह ढल गयी थी, वह सुन्दर गेहुआँ रंग सँवला गया था और आँखों से भी कम सूझने लगा था। पेट की चिन्ता ही के कारण तो। कभी तो जीवन का सुख न मिला। इस चिरस्थायी जीऩार्वस्था ने उसके आत्म-सम्मान को उदासीनता का रूप दे दिया था। जिस गृहस्थी में पेट की रोटियाँ भी न मिलें, उसके लिए इतनी ख़ुशामद क्यों? इस परिस्थिति से उसका मन बराबर विद्रोह किया करता था। और दो चार घुड़कियाँ खा लेने पर ही उसे यथार्थ का ज्नान होता था।
उसने परास्त होकर होरी की लाठी, मिरजई, जूते, पगड़ी और तमाखू का बटुआ लाकर सामने पटक दिये।
होरी ने उसकी ओर आँखें तरेर कर कहा — क्या ससुराल जाना है जो पाँचों पोसाक लायी है? ससुराल में भी तो कोई जवान साली-सलहज नहीं बैठी है, जिसे जाकर दिखाऊँ।
होरी के गहरे साँवले, पिचके हुए चेहरे पर मुस्कराहट की मृदुता झलक पड़ी। धनिया ने लजाते हुए कहा — ऐसे ही तो बड़े सजीले जवान हो कि साली-सलहजें तुम्हें देख कर रीझ जायँगी!
होरी ने फटी हुई मिरजई को बड़ी सावधानी से तह करके खाट पर रखते हुए कहा — तो क्या तू समझती है, मैं बूढ़ा हो गया? अभी तो चालीस भी नहीं हुए। मर्द साठे पर पाठे होते हैं।
‘जाकर सीसे में मुँह देखो। तुम-जैसे मर्द साठे पर पाठे नहीं होते। दूध-घी अंजन लगाने तक को तो मिलता नहीं, पाठे होंगे! तुम्हारी दशा देख-देखकर तो मैं और भी सूखी जाती हूँ कि भगवान् यह बुढ़ापा कैसे कटेगा? किसके द्वार पर भीख माँगेंगे?’
होरी की वह क्षणिक मृदुता यथार्थ की इस आँच में जैसे झुलस गयी। लकड़ी सँभालता हुआ बोला — साठे तक पहुँचने की नौबत न आने पायेगी धनिया! इसके पहले ही चल देंगे।
धनिया ने तिरस्कार किया — अच्छा रहने दो, मत असुभ मुँह से निकालो। तुमसे कोई अच्छी बात भी कहे, तो लगते हो कोसने।
होरी लाठी कन्धे पर रखकर घर से निकला, तो धनिया द्वार पर खड़ी उसे देर तक देखती रही। उसके इन निराशा-भरे शब्दों ने धनिया के चोट खाये हुए हृदय में आतंकमय कम्पन-सा डाल दिया था। वह जैसे अपने नारीत्व के सम्पूऩर् तप और व्रत से अपने पति को अभय-दान दे रही थी। उसके अन्तःकरण से जैसे आशीर्वादों का व्यूह-सा निकल कर होरी को अपने अन्दर छिपाये लेता था। विपन्नता के इस अथाह सागर में सोहाग ही वह तृण था, जिसे पकड़े हुए वह सागर को पार कर रही थी। इन असंगत शब्दों ने यथार्थ के निकट होने पर भी मानो झटका देकर उसके हाथ से वह तिनके का सहारा छीन लेना चाहा बिल्क यथार्थ के निकट होने के कारण ही उनमें इतनी वेदना-शक्ति आ गयी थी। काना कहने से काने को जो दुःख होता है, वह क्या दो आँखोंवाले आदमी को हो सकता है?
होरी क़दम बढ़ाये चला जाता था। पगडंडी के दोनों ओर ऊख के पौधों की लहराती हुई हरियाली देख कर उसने मन में कहा — भगवान् कहीं गौं से बरखा कर दें और डाँड़ी भी सुभीते से रहे, तो एक गाय ज़रूर लेगा। देशी गायें तो न दूध दें न उनके बछवे ही किसी काम के हों। बहुत हुआ तो तेली के कोल्हू में चले। नहीं, वह पछाईं गाय लेगा। उसकी ख़ूब सेवा करेगा। कुछ नहीं तो चार-पाँच सेर दूध होगा। गोबर दूध के लिए तरस-तरस कर रह जाता है। इस उमिर में न खाया-पिया, तो फिर कब खायेगा। साल-भर भी दूध पी ले, तो देखने लायक़ हो जाय। बछवे भी अच्छे बैल निकलेंगे। दो सौ से कम की गोंई न होगी। फिर, गऊ से ही तो द्वार की सोभा है। सबेरे-सबेरे गऊ के दर्शन हो जायँ तो क्या कहना। न जाने कब यह साध पूरी होगी, कब वह शुभ दिन आयेगा!
हर एक गृहस्थ की भाँति होरी के मन में भी गऊ की लालसा चिरकाल से संचित चली आती थी। यही उसके जीवन का सबसे बड़ा स्वप्न, सबसे बड़ी साध थी। बैंक सूद से चैन करने या ज़मीन ख़रीदने या महल बनवाने की विशाल आकांक्षाएँ उसके नन्हें-से हृदय में कैसे समातीं।
जेठ का सूर्य आमों के झुरमुट में से निकलकर आकाश पर छायी हुई लालिमा को अपने रजत-प्रताप से तेज प्रदान करता हुआ ऊपर चढ़ रहा था और हवा में गमीर् आने लगी थी। दोनों ओर खेतों में काम करनेवाले किसान उसे देखकर राम-राम करते और सम्मान-भाव से चिलम पीने का निमन्त्रण देते थे; पर होरी को इतना अवकाश कहाँ था। उसके अन्दर बैठी हुई सम्मान-लालसा ऐसा आदर पाकर उसके सूखे मुख पर गर्व की झलक पैदा कर रही थी। मालिकों से मिलते-जुलते रहने ही का तो यह प्रसाद है कि सब उसका आदर करते हैं। नहीं उसे कौन पूछता? पाँच बीघे के किसान की बिसात ही क्या? यह कम आदर नहीं है कि तीन-तीन, चार-चार हलवाले महतो भी उसके सामने सिर झुकाते हैं।
अब वह खेतों के बीच की पगडंडी छोड़कर एक खलेटी में आ गया था, जहाँ बरसात में पानी भर जाने के कारण तरी रहती थी और जेठ में कुछ हरियाली नज़र आती थी। आस-पास के गाँवों की गउएँ यहाँ चरने आया करती थीं। उस समय में भी यहाँ की हवा में कुछ ताज़गी और ठंडक थी। होरी ने दो-तीन साँसें ज़ोर से लीं। उसके जी में आया, कुछ देर यहीं बैठ जाय। दिन-भर तो लू-लपट में मरना है ही। कई किसान इस गड्ढे का पट्टा लिखाने को तैयार थे। अच्छी रक़म देते थे; पर ईश्वर भला करे राय साहब का कि उन्होंने साफ़ कह दिया, यह ज़मीन जानवरों की चराई के लिए छोड़ दी गयी है और किसी दाम पर भी न उठायी जायगी। कोई स्वार्थी ज़मींदार होता, तो कहता, गायें जायँ भाड़ में, हमें रुपए मिलते हैं, क्यों छोड़ें। पर राय साहब अभी तक पुरानी मर्यादा निभाते आते हैं। जो मालिक प्रजा को न पाले, वह भी कोई आदमी है?
सहसा उसने देखा, भोला अपनी गायें लिये इसी तरफ़ चला आ रहा है। भोला इसी गाँव से मिले हुए पुरवे का ग्वाला था और दूध-मक्खन का व्यवसाय करता था। अच्छा दाम मिल जाने पर कभी-कभी किसानों के हाथ गायें बेच भी देता था। होरी का मन उन गायों को देख कर ललचा गया। अगर भोला वह आगेवाली गाय उसे दे तो क्या कहना! रुपए आगे पीछे देता रहेगा। वह जानता था घर में रुपए नहीं हैं, अभी तक लगान नहीं चुकाया जा सका, बिसेसर साह का देना भी बाक़ी है, जिस पर आने रुपए का सूद चढ़ रहा है; लेकिन दरिद्रता में जो एक प्रकार की अदूरदर्शिता होती है, वह निर्लज्जता जो तक़ाज़े, गाली और मार से भी भयभीत नहीं होती, उसने उसे प्रोत्साहित किया। बरसों से जो साध मन को आन्दोलित कर रही थी, उसने उसे विचलित कर दिया। भोला के समीप जाकर बोला — राम-राम भोला भाई, कहो क्या रंग-ढंग है। सुना अबकी मेले से नयी गायें लाये हो।
भोला ने रूखाई से जवाब दिया। होरी के मन की बात उसने ताड़ ली थी — हाँ, दो बछियें और दो गायें लाया। पहलेवाली गायें सब सूख गयी थीं। बँधी पर दूध न पहुँचे तो गुज़र कैसे हो। होरी ने आनेवाली गाय के पुट्ठे पर हाथ रखकर कहा — दुधार तो मालूम होती है। कितने में ली ?
भोला ने शान जमायी — अबकी बाज़ार बड़ा तेज़ रहा महतो, इसके अस्सी रुपए देने पड़े। आँखें निकल गयीं। तीस-तीस रुपए तो दोनों कलोरों के दिये। तिस पर गाहक रुपए का आठ सेर दूध माँगता है।
‘बड़ा भारी कलेजा है तुम लोगों का भाई, लेकिन फिर लाये भी तो वह माल कि यहाँ दस-पाँच गाँवों में तो किसी के पास निकलेगी नहीं। ‘
भोला पर नशा चढ़ने लगा। बोला — राय साहब इसके सौ रुपए देते थे। दोनों कलोरों के पचास-पचास रुपए, लेकिन हमने न दिये। भगवान् ने चाहा, तो सौ रुपए इसी ब्यान में पीट लूँगा।
‘ इसमें क्या सन्देह है भाई ! मालिक क्या खाके लेंगे। नज़राने में मिल जाय, तो भले ले लें। यह तुम्हीं लोगों का गुदार् है कि अँजुली-भर रुपए तक़दीर के भरोसे गिन देते हो। यही जी चाहता है कि इसके दरसन करता रहूँ। धन्य है तुम्हारा जीवन कि गउओं की इतनी सेवा करते हो। हमें तो गाय का गोबर भी मयस्सर नहीं। गिरस्त के घर में एक गाय भी न हो, तो कितनी लज्जा की बात है। साल-के-साल बीत जाते हैं, गोरस के दरसन नहीं होते। घरवाली बार-बार कहती है, भोला भैया से क्यों नहीं कहते। मैं कह देता हूँ, कभी मिलेंगे तो कहूँगा। तुम्हारे सुभाव से बड़ी परसन रहती है। कहती है, ऐसा मर्द ही नहीं देखा कि जब बातें करेंगे, नीची आँखें करके, कभी सिर नहीं उठाते। ‘
भोला पर जो नशा चढ़ रहा था, उसे इस भरपूर प्याले ने और गहरा कर दिया। बोला — भला आदमी वही है, जो दूसरों की बहू-बेटी को अपनी बहू-बेटी समझे। जो दुष्ट किसी मेहरिया की ओर ताके, उसे गोली मार देना चाहिए।
‘यह तुमने लाख रुपये की बात कह दी भाई। बस सज्जन वही, जो दूसरों की आबरू को अपनी आबरू समझे। ‘
‘जिस तरह मर्द के मर जाने से औरत अनाथ हो जाती है, उसी तरह औरत के मर जाने से मर्द के हाथ-पाँव टूट जाते हैं। मेरा तो घर उजड़ गया महतो, कोई एक लोटा पानी देनेवाला भी नहीं। ‘
गत वर्ष भोला की स्त्री लू लग जाने से मर गयी थी। यह होरी जानता था, लेकिन पचास बरस का खंखड़ भोला भीतर से इतना स्निग्ध है, वह न जानता था। स्त्री की लालसा उसकी आँखों में सजल हो गयी थी। होरी को आसन मिल गया। उसकी व्यावहारिक कृषक-बुद्धि सजग हो गयी।
‘पुरानी मसल झूठी थोड़ी है — बिन घरनी घर भूत का डेरा। कहीं सगाई नहीं ठीक कर लेते? ‘
‘ताक में हूँ महतो, पर कोई जल्दी फँसता नहीं। सौ-पचास ख़रच करने को भी तैयार हूँ। जैसी भगवान् की इच्छा। ‘
‘अब मैं भी फ़िर्क में रहूँगा। भगवान् चाहेंगे, तो जल्दी घर बस जायगा। ‘
‘बस यही समझ लो कि उबर जाऊँगा भैया! घर में खाने को भगवान् का दिया बहुत है। चार पसेरी रोज़ दूध हो जाता है, लेकिन किस काम का। ‘
‘मेरे ससुराल में एक मेहरिया है। तीन-चार साल हुए, उसका आदमी उसे छोड़-कर कलकत्ते चला गया। बेचारी पिसाई करके गुज़र कर रही है। बाल-बच्चा भी कोई नहीं। देखने-सुनने में अच्छी है। बस, लच्छमी समझ लो। ‘
भोला का सिकुड़ा हुआ चेहरा जैसे चिकना गया। आशा में कितनी सुधा है। बोला — अब तो तुम्हारा ही आसरा है महतो! छुट्टी हो, तो चलो एक दिन देख आयें।
‘मैं ठीक-ठाक करके तब तुमसे कहूँगा। बहुत उतावली करने से भी काम बिगड़ जाता है। ‘
‘जब तुम्हारी इच्छा हो तब चलो। उतावली काहे की। इस कबरी पर मन ललचाया हो, तो ले लो। ‘
‘यह गाय मेरे मान की नहीं है दादा। मैं तुम्हें नुक़सान नहीं पहुँचाना चाहता। अपना धरम यह नहीं है कि मित्रों का गला दबायें। जैसे इतने दिन बीते हैं, वैसे और भी बीत जायेंगे। ‘
‘तुम तो ऐसी बातें करते हो होरी, जैसे हम-तुम दो हैं। तुम गाय ले जाओ, दाम जो चाहे देना। जैसे मेरे घर रही, वैसे तुम्हारे घर रही। अस्सी रुपए में ली थी, तुम अस्सी रुपये ही दे देना। जाओ। ‘
‘लेकिन मेरे पास नगद नहीं है दादा, समझ लो। ‘
‘तो तुमसे नगद माँगता कौन है भाई!’
होरी की छाती गज़-भर की हो गयी। अस्सी रुपए में गाय मँहगी न थी। ऐसा अच्छा डील-डौल, दोनों जून में छः-सात सेर दूध, सीधी ऐसी कि बच्चा भी दुह ले। इसका तो एक-एक बाछा सौ-सौ का होगा। द्वार पर बँधेगी तो द्वार की शोभा बढ़ जायगी। उसे अभी कोई चार सौ रुपए देने थे; लेकिन उधार को वह एक तरह से मुफ़्त समझता था। कहीं भोला की सगाई ठीक हो गयी तो साल दो साल तो वह बोलेगा भी नहीं। सगाई न भी हुई, तो होरी का क्या बिगड़ता है। यही तो होगा, भोला बार-बार तगादा करने आयेगा, बिगड़ेगा, गालियाँ देगा। लेकिन होरी को इसकी ज़्यादा शर्म न थी। इस व्यवहार का वह आदी था। कृषक के जीवन का तो यह प्रसाद है। भोला के साथ वह छल कर रहा था और यह व्यापार उसकी मयार्दा के अनुकूल था। अब भी लेन-देन में उसके लिए लिखा-पढ़ी होने और न होने में कोई अन्तर न था। सूखे-बूड़े की विपदाएँ उसके मन को भी, बनाये रहती थीं। ईश्वर का रौद्र रूप सदैव उसके सामने रहता था। पर यह छल उसकी नीति में छल न था। यह केवल स्वार्थ-सिद्धि थी और यह कोई बुरी बात न थी। इस तरह का छल तो वह दिन-रात करता रहता था। घर में दो-चार रुपये पड़े रहने पर भी महाजन के सामने क़स्में खा जाता था कि एक पाई भी नहीं है। सन को कुछ गीला कर देना और रुई में कुछ बिनौले भर देना उसकी नीति में जायज था। और यहाँ तो केवल स्वार्थ न था, थोड़ा-सा मनोरंजन भी था। बुड्ढों का बुढ़भस हास्यास्पद वस्तु है और ऐसे बुड्ढों से अगर कुछ ऐंठ भी लिया जाय, तो कोई दोष-पाप नहीं।
भोला ने गाय की पगहिया होरी के हाथ में देते हुए कहा — ले जाओ महतो, तुम भी याद करोगे। ब्याते ही छः सेर दूध ले लेना। चलो, मैं तुम्हारे घर तक पहुँचा दूँ। साइत तुम्हें अनजान समझकर रास्तों में कुछ दिक करे। अब तुमसे सच कहता हूँ, मालिक नब्बे रुपए देते थे, पर उनके यहाँ गउओं की क्या क़दर। मुझसे लेकर किसी हाकिम-हुक्काम को दे देते। हाकिमों को गऊ की सेवा से मतलब। वह तो ख़ून चूसना-भर जानते हैं। जब तक दूध देती, रखते, फिर किसी के हाथ बेच देते। किसके पल्ले पड़ती कौन जाने। रुपया ही सब कुछ नहीं है भैया, कुछ अपना धरम भी तो है। तुम्हारे घर आराम से रहेगी तो। यह न होगा कि तुम आप खाकर सो रहो और गऊ भूखी खड़ी रहे। उसकी सेवा करोगे, चुमकारोगे। गऊ हमें आसिरवाद देगी। तुमसे क्या कहूँ भैया, घर में चंगुल भर भी भूसा नहीं रहा। रुपए सब बाज़ार में निकल गये। सोचा था महाजन से कुछ लेकर भूसा ले लेंगे; लेकिन महाजन का पहला ही नहीं चुका। उसने इनकार कर दिया। इतने जानवरों को क्या खिलावें, यही चिन्ता मारे डालती है। चुटकी-चुटकी भर खिलाऊँ, तो मन-भर रोज़ का ख़रच है। भगवान् ही पार लगायें तो लगे।
होरी ने सहानुभूति के स्वर में कहा — तुमने हमसे पहले क्यों नहीं कहा? हमने एक गाड़ी भूसा बेच दिया।
भोला ने माथा ठोककर कहा — इसीलिए नहीं कहा भैया कि सबसे अपना दुःख क्यों रोऊँ। बाँटता कोई नहीं, हँसते सब हैं। जो गायें सूख गयी हैं उनका ग़म नहीं, पत्ती-सत्ती खिलाकर जिला लूँगा; लेकिन अब यह तो रातिब बिना नहीं रह सकती। हो सके, तो दस-बीस रुपये भूसे के लिए दे दो।
किसान पक्का स्वार्थी होता है, इसमें सन्देह नहीं। उसकी गाँठ से रिश्वत के पैसे बड़ी मुश्किल से निकलते हैं, भाव-ताव में भी वह चौकस होता है, ब्याज की एक-एक पाई छुड़ाने के लिए वह महाजन की घंटों चिरौरी करता है, जब तक पक्का विश्वास न हो जाय, वह किसी के फुसलाने में नहीं आता, लेकिन उसका सम्पूर्ण जीवन प्रकृति से स्थायी सहयोग है। वृक्षों में फल लगते हैं, उन्हें जनता खाती है; खेती में अनाज होता है, वह संसार के काम आता है; गाय के थन में दूध होता है, वह ख़ुद पीने नहीं जाती दूसरे ही पीते हैं; मेघों से वर्षा होती है, उससे पृथ्वी तृप्त होती है। ऐसी संगति में कुत्सित स्वार्थ के लिए कहाँ स्थान। होरी किसान था और किसी के जलते हुए घर में हाथ सेंकना उसने सीखा ही न था।
भोला की संकट-कथा सुनते ही उसकी मनोवृत्ति बदल गयी। पगहिया को भोला के हाथ में लौटाता हुआ बोला — रुपए तो दादा मेरे पास नहीं हैं, हाँ थोड़ा-सा भूसा बचा है, वह तुम्हें दूँगा। चलकर उठवा लो। भूसे के लिए तुम गाय बेचोगे, और मैं लूँगा। मेरे हाथ न कट जायेंगे?
भोला ने आर्द्र कंठ से कहा — तुम्हारे बैल भूखों न मरेंगे! तुम्हारे पास भी ऐसा कौन-सा बहुत-सा भूसा रखा है।
‘नहीं दादा, अबकी भूसा अच्छा हो गया था।’
‘मैंने तुमसे नाहक़ भूसे की चर्चा की। ‘
‘तुम न कहते और पीछे से मुझे मालूम होता, तो मुझे बड़ा रंज होता कि तुमने मुझे इतना ग़ैर समझ लिया। अवसर पड़ने पर भाई की मदद भाई भी न करे, तो काम कैसे चले।’
‘मुदा यह गाय तो लेते जाओ। ‘
‘अभी नहीं दादा, फिर ले लूंगा। ‘
‘तो भूसे के दाम दूध में कटवा लेना। ‘
होरी ने दुःखित स्वर में कहा — दाम-कौड़ी की इसमें कौन बात है दादा, मैं एक-दो जून तुम्हारे घर खा लूँ, तो तुम मुझसे दाम मांगोगे?
‘ लेकिन तुम्हारे बैल भूखों मरेंगे कि नहीं? ‘
‘ भगवान् कोई-न-कोई सबील निकालेंगे ही। असाढ़ सिर पर है। कड़बी बो लूंगा। ‘
‘ मगर यह गाय तुम्हारी हो गई। जिस दिन इच्छा हो आकर ले जाना। ‘
‘ किसी भाई का नीलाम पर चढ़ा हुआ बैल लेने में जो पाप है, वह इस समय तुम्हारी गाय लेने में है। ‘
होरी में बाल की खाल निकालने की शक्ति होती, तो वह ख़ुशी से गाय लेकर घर की राह लेता। भोला जब नक़द रुपए नहीं माँगता तो स्पष्ट था कि वह भूसे के लिए गाय नहीं बेच रहा है, बल्कि इसका कुछ और आशय है; लेकिन जैसे पत्तों के खड़कने पर घोड़ा अकारण ही ठिठक जाता है और मारने पर भी आगे क़दम नहीं उठाता वही दसा होरी की थी। संकट की चीज़ लेना पाप है, यह बात जन्म-जन्मान्तरों से उसकी आत्मा का अंश बन गयी थी।
भोला ने गद् गद कंठ से कहा — तो किसी को भेज दूँ भूसे के लिए?
होरी ने जवाब दिया– अभी मैं राय साहब की डयोढ़ी पर जा रहा हूँ। वहाँ से घड़ी-भर में लौटूंगा, तभी किसी को भेजना।
भोला की आँखों में आँसू भर आये। बोला — तुमने आज मुझे उबार लिया होरी भाई! मुझे अब मालूम हुआ कि मैं संसार में अकेला नहीं हूँ। मेरा भी कोई हितू है। एक क्षण के बाद उसने फिर कहा — उस बात को भूल न जाना।
होरी आगे बढ़ा, तो उसका चित्त प्रसन्न था। मन में एक विचित्र स्फूर्ति हो रही थी। क्या हुआ, दस-पाँच मन भूसा चला जायगा, बेचारे को संकट में पड़ कर अपनी गाय तो न बेचनी पड़ेगी। जब मेरे पास चारा हो जायगा, तब गाय खोल लाऊँगा। भगवान् करें, मुझे कोई मेहरिया मिल जाय। फिर तो कोई बात ही नहीं।
उसने पीछे फिर कर देखा। कबरी गाय पूँछ से मक्खियाँ उड़ाती, सिर हिलाती, मस्तानी, मन्द-गति से झूमती चली जाती थी, जैसे बाँदियों के बीच में कोई रानी हो। कैसा शुभ होगा वह दिन, जब यह कामधेनु उसके द्वार पर बंधेगी!

Godan / गोदान भाग 2 / प्रेमचंद / Premchand

Godan / गोदान भाग 1-5 / प्रेमचंद / Premchandसेमरी और बेलारी दोनों अवध-प्रान्त के गाँव हैं। ज़िले का नाम बताने की कोई ज़रूरत नहीं। होरी बेलारी में रहता है, राय साहब अमरपाल सिंह सेमरी में। दोनों गाँवों में केवल पाँच मील का अन्तर है। पिछले सत्याग्रह-संग्राम में राय साहब ने बड़ा यश कमाया था। कौंसिल की मेम्बरी छोड़कर जेल चले गये थे। तब से उनके इलाक़े के असामियों को उनसे बड़ी श्रद्धा हो गयी थी। यह नहीं कि उनके इलाक़े में असामियों के साथ कोई ख़ास रियायत की जाती हो, या डाँड़ और बेगार की कड़ाई कुछ कम हो; मगर यह सारी बदनामी मुख़्तारों के सिर जाती थी। राय साहब की कीर्ति पर कोई कलंक न लग सकता था। वह बेचारे भी तो उसी व्यवस्था के ग़ुलाम थे। ज़ाब्ते का काम तो जैसे होता चला आया है, वैसा ही होगा। राय साहब की सज्जनता उस पर कोई असर न डाल सकती थी; इसलिए आमदनी और अधिकार में जौ-भर की भी कमी न होने पर भी उनका यश मानो बढ़ गया था। असामियों से वह हँस कर बोल लेते थे। यही क्या कम है ? सिंह का काम तो शिकार करना है; अगर वह गरजने और गुरार्ने के बदले मीठी बोली बोल सकता, तो उसे घर बैठे मनमाना शिकार मिल जाता। शिकार की खोज में जंगल में न भटकना पड़ता।
राय साहब राष्ट्रवादी होने पर भी हुक्काम से मेल-जोल बनाये रखते थे। उनकी नज़रें और डालियाँ और कर्मचारियों की दस्तूरियाँ जैसी की तैसी चली आती थीं। साहित्य और संगीत के प्रेमी थे, ड्रामा के शौक़ीन, अच्छे वक्ता थे, अच्छे लेखक, अच्छे निशाने-बाज़। उनकी पत्नी को मरे आज दस साल हो चुके थे; मगर दूसरी शादी न की थी। हँस-बोलकर अपने विधुर जीवन को बहलाते रहते थे।
होरी ड्योढ़ी पर पहुँचा तो देखा जेठ के दशहरे के अवसर पर होनेवाले धनुष-यज्ञ की बड़ी ज़ोरों से तैयारियाँ हो रही हैं। कहीं रंग-मंच बन रहा था, कहीं मंडप, कहीं मेहमानों का आतिथ्य-गृह, कहीं दूकानदारों के लिए दूकानें। धूप तेज़ हो गयी थी; पर राय साहब ख़ुद काम में लगे हुए थे। अपने पिता से सम्पत्ति के साथ-साथ उन्होंने राम की भक्ति भी पायी थी और धनुष-यज्ञ को नाटक का रूप देकर उसे शिष्ट मनोरंजन का साधन बना दिया था। इस अवसर पर उनके यार-दोस्त, हाकिम-हुक्काम सभी निमंत्रित होते थे। और दो-तीन दिन इलाक़े में बड़ी चहल-पहल रहती थी। राय साहब का परिवार बहुत विशाल था। कोई डेढ़ सौ सरदार एक साथ भोजन करते थे। कई चचा थे, दरजनों चचेरे भाई, कई सगे भाई, बीसियों नाते के भाई। एक चचा साहब राधा के अनन्य उपासक थे और बराबर वृन्दाबन में रहते थे। भक्ति-रस के कितने ही कविता रच डाले थे और समय-समय पर उन्हें छपवाकर दोस्तों की भेंट कर देते थे। एक दूसरे चचा थे, जो राम के परमभक्त थे और फ़ारसी-भाषा में रामायण का अनुवाद कर रहे थे। रियासत से सबके वसीके बँधे हुए थे। किसी को कोई काम करने की ज़रूरत न थी।
होरी मंडप में खड़ा सोच रहा था कि अपने आने की सूचना कैसे दे कि सहसा राय साहब उधर ही आ निकले और उसे देखते ही बोले –अरे ! तू आ गया होरी, मैं तो तुझे बुलवानेवाला था। देख, अबकी तुझे राजा जनक का माली बनना पड़ेगा। समझ गया न, जिस वक़्त जानकी जी मन्दिर में पूजा करने जाती हैं, उसी वक़्त तू एक गुलदस्ता लिये खड़ा रहेगा और जानकी जी की भेंट करेगा। ग़लती न करना और देख, असामियों से ताकीद करके कह देना कि सब-के-सब शगुन करने आयें। मेरे साथ कोठी में आ, तुझसे कुछ बातें करनी हैं। वह आगे-आगे कोठी की ओर चले, होरी पीछे-पीछे चला। वहीं एक घने वृक्ष की छाया में एक कुरसी पर बैठ गये और होरी को ज़मीन पर बैठने का इशारा करके बोले — समझ गया, मैंने क्या कहा। कारकुन को तो जो कुछ करना है, वह करेगा ही, लेकिन असामी जितने मन से असामी की बात सुनता है, कारकुन की नहीं सुनता। हमें इन्हीं पाँच-सात दिनों में बीस हज़ार का प्रबन्ध करना है। कैसे होगा, समझ में नहीं आता। तुम सोचते होगे, मुझ टके के आदमी से मालिक क्यों अपना दुखड़ा ले बैठे। किससे अपने मन की कहूँ ? न जाने क्यों तुम्हारे ऊपर विश्वास होता है। इतना जानता हूँ कि तुम मन में मुझ पर हँसोगे नहीं। और हँसो भी, तो तुम्हारी हँसी मैं वरदाश्त कर सकूँगा। नहीं सह सकता उनकी हँसी, जो अपने बराबर के हैं, क्योंकि उनकी हँसी में ईर्ष्या, व्यंग और जलन है। और वे क्यों न हँसेंगे। मैं भी तो उनकी दुर्दशा और विपत्ति और पतन पर हँसता हूँ, दिल खोलकर, तालियाँ बजाकर। सम्पत्ति और सहृदयता में वैर है। हम भी दान देते हैं, धर्म करते हैं। लेकिन जानते हो, क्यों ? केवल अपने बराबरवालों को नीचा दिखाने के लिए। हमारा दान और धर्म कोरा अहंकार है, विशुद्ध अहंकार। हम में से किसी पर डिग्री हो जाय, क़ुर्क़ी आ जाय, बक़ाया मालगुज़ारी की इल्लत में हवालात हो जाय, किसी का जवान बेटा मर जाय, किसी की विधवा बहू निकल जाय, किसी के घर में आग लग जाय, कोई किसी वेश्या के हाथों उल्लू बन जाय, या अपने असामियों के हाथों पिट जाय, तो उसके और सभी भाई उस पर हँसेंगे, बग़लें बजायेंगे, मानो सारे संसार की सम्पदा मिल गयी है। और मिलेंगे तो इतने प्रेम से, जैसे हमारे पसीने की जगह ख़ून बहाने को तैयार हैं। अरे, और तो और, हमारे चचेरे, फुफेरे, ममेरे, मौसेरे भाई जो इसी रियासत की बदौलत मौज उड़ा रहे हैं, कविता कर रहे हैं और जुए खेल रहे हैं, शराबें पी रहे हैं और ऐयाशी कर रहे हैं, वह भी मुझसे जलते हैं, और आज मर जाऊँ तो घी के चिराग़ जलायें। मेरे दुःख को दुःख समझनेवाला कोई नहीं। उनकी नज़रों में मुझे दुखी होने का कोई अधिकार ही नहीं है। मैं अगर रोता हूँ, तो दुःख की हँसी उड़ाता हूँ। मैं अगर बीमार होता हूँ, तो मुझे सुख होता है। मैं अगर अपना ब्याह करके घर में कलह नहीं बढ़ाता तो यह मेरी नीच स्वार्थपरता है; अगर ब्याह कर लूँ, तो वह विलासान्धता होगी। अगर शराब नहीं पीता तो मेरी कंजूसी है। शराब पीने लगूँ, तो वह प्रजा का रक्त होगा। अगर ऐयाशी नहीं करता, तो अरसिक हूँ, ऐयाशी करने लगूँ, तो फिर कहना ही क्या। इन लोगों ने मुझे भोग-विलास में फँसाने के लिए कम चालें नहीं चलीं और अब तक चलते जाते हैं। उनकी यही इच्छा है कि मैं अन्धा हो जाऊँ और ये लोग मुझे लूट लें, और मेरा धर्म यह है कि सब कुछ देखकर भी कुछ न देखूँ। सब कुछ जानकर भी गधा बना रहूँ।
राय साहब ने गाड़ी को आगे बढ़ाने के लिए दो बीड़े पान खाये और होरी के मुँह की ओर ताकने लगे, जैसे उसके मनोभावों को पढ़ना चाहते हों।
होरी ने साहस बटोरकर कहा — हम समझते थे कि ऐसी बातें हमीं लोगों में होती हैं, पर जान पड़ता है, बड़े आदमियों में उनकी कमी नहीं है।
राय साहब ने मुँह पान से भरकर कहा — तुम हमें बड़ा आदमी समझते हो ? हमारे नाम बड़े हैं, पर दर्शन थोड़े। ग़रीबों में अगर ईर्ष्या या वैर है तो स्वार्थ के लिए या पेट के लिए। ऐसी ईर्ष्या और वैर को मैं क्षम्य समझता हूँ। हमारे मुँह की रोटी कोई छीन ले तो उसके गले में उँगली डालकर निकालना हमारा धर्म हो जाता है। अगर हम छोड़ दें, तो देवता हैं। बड़े आदमियों की ईर्ष्या और वैर केवल आनन्द के लिए है। हम इतने बड़े आदमी हो गये हैं कि हमें नीचता और कुटिलता में ही निःस्वार्थ और परम आनन्द मिलता है। हम देवतापन के उस दर्जे पर पहुँच गये हैं जब हमें दूसरों के रोने पर हँसी आती है। इसे तुम छोटी साधना मत समझो। जब इतना बड़ा कुटुम्ब है, तो कोई-न-कोई तो हमेशा बीमार रहेगा ही। और बड़े आदमियों के रोग भी बड़े होते हैं। वह बड़ा आदमी ही क्या, जिसे कोई छोटा रोग हो। मामूली ज्वर भी आ जाय, तो हमें सरसाम की दवा दी जाती है, मामूली फुंसी भी निकल आये, तो वह ज़हरबाद बन जाती है। अब छोटे सर्जन और मझोले सर्जन और बड़े सर्जन तार से बुलाये जा रहे हैं, मसीहुलमुल्क को लाने के लिए दिल्ली आदमी भेजा जा रहा है, भिषगाचार्य को लाने के लिए कलकत्ता। उधर देवालय में दुर्गापाठ हो रहा है और ज्योतिषाचार्य कुंडली का विचार कर रहे हैं और तन्त्र के आचार्य अपने अनुष्ठान में लगे हुए हैं। राजा साहब को यमराज के मुँह से निकालने के लिए दौड़ लगी हुई है। वैद्य और डाक्टर इस ताक में रहते हैं कि कब सिर में दर्द हो और कब उनके घर में सोने की वर्षा हो। और ये रुपए तुमसे और तुम्हारे भाइयों से वसूल किये जाते हैं, भाले की नोक पर। मुझे तो यही आश्चर्य होता है कि क्यों तुम्हारी आहों का दावानल हमें भस्म नहीं कर डालता; मगर नहीं, आश्चर्य करने की कोई बात नहीं। भस्म होने में तो बहुत देर नहीं लगती, वेदना भी थोड़ी ही देर की होती है। हम जौ-जौ और अंगुल-अंगुल और पोर-पोर भस्म हो रहे हैं। उस हाहाकार से बचने के लिए हम पुलिस की, हुक्काम की, अदालत की, वकीलों की शरण लेते हैं। और रूपवती स्त्री की भाँति सभी के हाथों का खिलौना बनते हैं। दुनिया समझती है, हम बड़े सुखी हैं। हमारे पास इलाक़े, महल, सवारियाँ, नौकर-चाकर, क़रज़, वेश्याएँ, क्या नहीं हैं, लेकिन जिसकी आत्मा में बल नहीं, अभिमान नहीं, वह और चाहे कुछ हो, आदमी नहीं है। जिसे दुश्मन के भय के मारे रात को नींद न आती हो, जिसके दुःख पर सब हँसें और रोनेवाला कोई न हो, जिसकी चोटी दूसरों के पैरों के नीचे दबी हो, जो भोग-विलास के नशे में अपने को बिलकुल भूल गया हो, जो हुक्काम के तलवे चाटता हो और अपने अधीनों का ख़ून चूसता हो, उसे मैं सुखी नहीं कहता। वह तो संसार का सबसे अभागा प्राणी है। साहब शिकार खेलने आयें या दौरे पर, मेरा कर्तव्य है कि उनकी दुम के पीछे लगा रहूँ। उनकी भौंहों पर शिकन पड़ी और हमारे प्राण सूखे। उन्हें प्रसन्न करने के लिए हम क्या नहीं करते। मगर वह पचड़ा सुनाने लगूँ तो शायद तुम्हें विश्वास न आये। डालियों और रिश्वतों तक तो ख़ैर ग़नीमत है, हम सिजदे करने को भी तैयार रहते हैं। मुफ़्तख़ोरी ने हमें अपंग बना दिया है, हमें अपने पुरुषार्थ पर लेशमात्र भी विश्वास नहीं, केवल अफ़सरों के सामने दुम हिला-हिलाकर किसी तरह उनके कृपापात्र बने रहना और उनकी सहायता से अपनी प्रजा पर आतंक ज़माना ही हमारा उद्यम है। पिछलगुओं की ख़ुशामद ने हमें इतना अभिमानी और तुनकमिज़ाज बना दिया है कि हममें शील, विनय और सेवा का लोप हो गया है। मैं तो कभी-कभी सोचता हूँ कि अगर सरकार हमारे इलाक़े छीनकर हमें अपनी रोज़ी के लिए मेहनत करना सिखा दे तो हमारे साथ महान उपकार करे, और यह तो निश्चय है कि अब सरकार भी हमारी रक्षा न करेगी। हमसे अब उसका कोई स्वार्थ नहीं निकलता। लक्षण कह रहे हैं कि बहुत जल्द हमारे वर्ग की हस्ती मिट जानेवाली है। मैं उस दिन का स्वागत करने को तैयार बैठा हूँ। ईश्वर वह दिन जल्द लाये। वह हमारे उद्धार का दिन होगा। हम परिस्थतियों के शिकार बने हुए हैं। यह परिस्थिति ही हमारा सर्वनाश कर रही है और जब तक सम्पत्ति की यह बेड़ी हमारे पैरों से न निकलेगी, जब तक यह अभिशाप हमारे सिर पर मँडराता रहेगा, हम मानवता का वह पद न पा सकेंगे जिस पर पहुँचना ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है।
राय साहब ने फिर गिलौरी-दान निकाला और कई गिलौरियाँ निकालकर मुँह में भर लीं। कुछ और कहने वाले थे कि एक चपरासी ने आकर कहा — सरकार बेगारों ने काम करने से इनकार कर दिया है। कहते हैं, जब तक हमें खाने को न मिलेगा हम काम न करेंगे। हमने धमकाया, तो सब काम छोड़कर अलग हो गये।
राय साहब के माथे पर बल पड़ गये। आँखें निकालकर बोले –चलो, मैं इन दुष्टों को ठीक करता हूँ। जब कभी खाने को नहीं दिया, तो आज यह नयी बात क्यों ? एक आने रोज़ के हिसाब से मजूरी मिलेगी, जो हमेशा मिलती रही है; और इस मजूरी पर उन्हें काम करना होगा, सीधे करें या टेढ़े।
फिर होरी की ओर देखकर बोले — तुम अब जाओ होरी, अपनी तैयारी करो। जो बात मैंने कही है, उसका ख़याल रखना। तुम्हारे गाँव से मुझे कम-से-कम पाँच सौ की आशा है।
राय साहब झल्लाते हुए चले गये। होरी ने मन में सोचा, अभी यह कैसी-कैसी नीति और धरम की बातें कर रहे थे और एकाएक इतने गरम हो गये!
सूर्य सिर पर आ गया था। उसके तेज से अभिभूत होकर वृक्षों ने अपना पसार समेट लिया था। आकाश पर मिटयाला गर्द छाया हुआ था और सामने की पृथ्वी काँपती हुई जान पड़ती थी।
होरी ने अपना डंडा उठाया और घर चला। शगून के रुपये कहाँ से आयेंगे, यही चिन्ता उसके सिर पर सवार थी।

Godan / गोदान भाग 3/ प्रेमचंद / Premchand

होरी अपने गाँव के समीप पहुँचा, तो देखा, अभी तक गोबर खेत में ऊख गोड़ रहा है और दोनों लड़कियाँ भी उसके साथ काम कर रही हैं। लू चल रही थी, बगूले उठ रहे थे, भूतल धधक रहा था। जैसे प्रकृति ने वायु में आग घोल दिया हो। यह सब अभी तक खेत में क्यों हैं? क्या काम के पीछे सब जान देने पर तुले हुए हैं? वह खेत की ओर चला और दूर ही से चिल्लाकर बोला — आता क्यों नहीं गोबर, क्या काम ही करता रहेगा? दोपहर ढल गया, कुछ सूझता है कि नहीं?
Godan / गोदान भाग 1-5 / प्रेमचंद / Premchandउसे देखते ही तीनों ने कुदालें उठा लीं और उसके साथ हो लिये। गोबर साँवला, लम्बा, एकहरा युवक था, जिसे इस काम से रुचि न मालूम होती थी। प्रसन्नता की जगह मुख पर असन्तोष और विद्रोह था। वह इसलिये काम में लगा हुआ था कि वह दिखाना चाहता था, उसे खाने-पीने की कोई फ़िक्र नहीं है। बड़ी लड़की सोना लज्जा-शील कुमारी थी, साँवली, सुडौल, प्रसन्न और चपल। गाढ़े की लाल साड़ी जिसे वह घुटनों से मोड़ कर कमर में बाँधे हुए थी, उसके हलके शरीर पर कुछ लदी हुई सी थी, और उसे प्रौढ़ता की गरिमा दे रही थी। छोटी रूपा पाँच-छः साल की छोकरी थी, मैली, सिर पर बालों का एक घोंसला-सा बना हुआ, एक लँगोटी कमर में बाँधे, बहुत ही ढीठ और रोनी।
रूपा ने होरी की टाँगों में लिपट कर कहा — काका! देखो, मैने एक ढेला भी नहीं छोड़ा। बहन कहती है, जा पेड़ तले बैठ। ढेले न तोड़े जायँगे काका, तो मिट्टी कैसे बराबर होगी।
होरी ने उसे गोद में उठाकर प्यार करते हुए कहा — तूने बहुत अच्छा किया बेटी, चल घर चलें। कुछ देर अपने विद्रोह को दबाये रहने के बाद गोबर बोला — यह तुम रोज़-रोज़ मालिकों की ख़ुशामद करने क्यों जाते हो? बाक़ी न चुके तो प्यादा आकर गालियाँ सुनाता है, बेगार देनी ही पड़ती है, नज़र-नज़राना सब तो हमसे भराया जाता है। फिर किसी की क्यों सलामी करो!
इस समय यही भाव होरी के मन में भी आ रहे थे; लेकिन लड़के के इस विद्रोह-भाव को दबाना ज़रूरी था। बोला — सलामी करने न जायँ, तो रहें कहाँ। भगवान् ने जब ग़ुलाम बना दिया है तो अपना क्या बस है। यह इसी सलामी की बरकत है कि द्वार पर मड़ैया डाल ली और किसी ने कुछ नहीं कहा। घूरे ने द्वार पर खूँटा गाड़ा था, जिस पर कारिन्दों ने दो रुपए डाँड़ ले लिये थे। तलैया से कितनी मिट्टी हमने खोदी, कारिन्दा ने कुछ नहीं कहा। दूसरा खोदे तो नज़र देनी पड़े। अपने मतलब के लिए सलामी करने जाता हूँ, पाँव में सनीचर नहीं है और न सलामी करने में कोई बड़ा सुख मिलता है। घंटों खड़े रहो, तब जाके मालिक को ख़बर होती है। कभी बाहर निकलते हैं, कभी कहला देते हैं कि फ़ुरसत नहीं है।
गोबर ने कटाक्ष किया — बड़े आदमियों की हाँ-में-हाँ मिलाने में कुछ-न-कुछ आनन्द तो मिलता ही है। नहीं लोग मेम्बरी के लिए क्यों खड़े हों?
‘जब सिर पर पड़ेगी तब मालूम होगा बेटा, अभी जो चाहे कह लो। पहले मैं भी यही सब बातें सोचा करता था; पर अब मालूम हुआ कि हमारी गरदन दूसरों के पैरों के नीचे दबी हुई है अकड़ कर निबाह नहीं हो सकता।’
पिता पर अपना क्तोध उतारकर गोबर कुछ शान्त हो गया और चुपचाप चलने लगा। सोना ने देखा, रूपा बाप की गोद में चढ़ी बैठी है तो ईर्ष्या हुई। उसे डाँटकर बोली — अब गोद से उतरकर पाँव-पाँव क्यों नहीं चलती, क्या पाँव टूट गये हैं?
रूपा ने बाप की गरदन में हाथ डालकर ढिठाई से कहा — न उतरेंगे जाओ। काका, बहन हमको रोज़ चिढ़ाती है कि तू रूपा है, मैं सोना हूँ। मेरा नाम कुछ और रख दो।
होरी ने सोना को बनावटी रोष से देखकर कहा — तू इसे क्यों चिढ़ाती है सोनिया? सोना तो देखने को है। निबाह तो रूपा से होता है। रूपा न हो, तो रुपए कहाँ से बनें, बता।
सोना ने अपने पक्ष का समर्थन किया — सोना न हो मोहन कैसे बने, नथुनियाँ कहाँ से आयें, कंठा कैसे बने?
गोबर भी इस विनोदमय विवाद में शरीक हो गया। रूपा से बोला — तू कह दे कि सोना तो सूखी पत्ती की तरह पीला है, रूपा तो उजला होता है जैसे सूरज।
सोना बोली — शादी-ब्याह में पीली साड़ी पहनी जाती है, उजली साड़ी कोई नहीं पहनता।
रूपा इस दलील से परास्त हो गयी। गोबर और होरी की कोई दलील इसके सामने न ठहर सकी। उसने क्षुब्ध आँखों से होरी को देखा।
होरी को एक नयी युक्ति सूझ गयी। बोला — सोना बड़े आदमियों के लिए है। हम ग़रीबों के लिए तो रूपा ही है। जैसे जौ को राजा कहते हैं, गेहूँ को चमार; इसलिए न कि गेहूँ बड़े आदमी खाते हैं, जौ हम लोग खाते हैं।
सोना के पास इस सबल युक्ति का कोई जवाब न था। परास्त होकर बोली — तुम सब जने एक ओर हो गये, नहीं रुपिया को रुलाकर छोड़ती।
रूपा ने उँगली मटकाकर कहा — ए राम, सोना चमार — ए राम, सोना चमार।
इस विजय का उसे इतना आनन्द हुआ कि बाप की गोद में रह न सकी। ज़मीन पर कूद पड़ी और उछल-उछलकर यही रट लगाने लगी — रूपा राजा, सोना चमार — रूपा राजा, सोना चमार!
ये लोग घर पहुँचे तो धनिया द्वार पर खड़ी इनकी बाट जोह रही थी। रुष्ट होकर बोली — आज इतनी देर क्यों की गोबर? काम के पीछे कोई परान थोड़े ही दे देता है।
फिर पति से गर्म होकर कहा — तुम भी वहाँ से कमाई करके लौटे तो खेत में पहुँच गये। खेत कहीं भागा जाता था!
द्वार पर कुआँ था। होरी और गोबर ने एक-एक कलसा पानी सिर पर उँड़ेला, रूपा को नहलाया और भोजन करने गये। जौ की रोटियाँ थीं; पर गेहूँ-जैसी सुफ़ेद और चिकनी। अरहर की दाल थी जिसमें कच्चे आम पड़े हुए थे। रूपा बाप की थाली में खाने बैठी। सोना ने उसे ईष्यार्-भरी आँखों से देखा, मानो कह रही थी, वाह रे दुलार!
धनिया ने पूछा — मालिक से क्या बात-चीत हुई?
होरी ने लोटा-भर पानी चढ़ाते हुए कहा — यही तहसील-वसूल की बात थी और क्या। हम लोग समझते हैं, बड़े आदमी बहुत सुखी होंगे; लेकिन सच पूछो, तो वह हमसे भी ज़्यादा दुःखी हैं। हमें अपने पेट ही की चिन्ता है, उन्हें हज़ारों चिन्ताएँ घेरे रहती हैं।
राय साहब ने और क्या-क्या कहा था, वह कुछ होरी को याद न था। उस सारे कथन का ख़ुलासा-मात्र उसके स्मरण में चिपका हुआ रह गया था।
गोबर ने व्यंग्य किया — तो फिर अपना इलाक़ा हमें क्यों नहीं दे देते! हम अपने खेत, बैल, हल, कुदाल सब उन्हें देने को तैयार हैं। करेंगे बदला? यह सब धूर्तता है, निरी मोटमरदी। जिसे दुःख होता है, वह दरजनों मोटरें नहीं रखता, महलों में नहीं रहता, हलवा-पूरी नहीं खाता और न नाच-रंग में लिप्त रहता है। मज़े से राज का सुख भोग रहे हैं, उस पर दुखी हैं!
होरी ने झुँझलाकर कहा — अब तुमसे बहस कौन करे भाई! जैजात किसी से छोड़ी जाती है कि वही छोड़ देंगे। हमीं को खेती से क्या मिलता है? एक आने नफ़री की मजूरी भी तो नहीं पड़ती। जो दस रुपए महीने का भी नौकर है, वह भी हमसे अच्छा खाता-पहनता है, लेकिन खेतों को छोड़ा तो नहीं जाता। खेती छोड़ दें, तो और करें क्या? नौकरी कहीं मिलती है? फिर मरजाद भी तो पालना ही पड़ता है। खेती में जो मरजाद है वह नौकरी में तो नहीं है। इसी तरह ज़मींदारों का हाल भी समझ लो! उनकी जान को भी तो सैकड़ों रोग लगे हुए हैं, हाकिमों को रसद पहुँचाओ, उनकी सलामी करो, अमलों को ख़ुश करो। तारीख़ पर मालगुज़ारी न चुका दें, तो हवालात हो जाय , कुड़की आ जाय। हमें तो कोई हवालात नहीं ले जाता। दो-चार गलियाँ-घुड़कियाँ ही तो मिलकर रह जाती हैं।
गोबर ने प्रतिवाद किया — यह सब कहने की बातें हैं। हम लोग दाने-दाने को मुहताज हैं, देह पर साबित कपड़े नहीं हैं, चोटी का पसीना एड़ी तक आता है, तब भी गुज़र नहीं होता। उन्हें क्या, मज़े से गद्दी-मसनद लगाये बैठे हैं, सैकड़ों नौकर-चाकर हैं, हज़ारों आदमियों पर हुकूमत है। रुपए न जमा होते हों; पर सुख तो सभी तरह का भोगते हैं। धन लेकर आदमी और क्या करता है?
‘तुम्हारी समझ में हम और वह बराबर हैं?’ ‘भगवान् ने तो सबको बराबर ही बनाया है।’
‘यह बात नहीं है बेटा, छोटे-बड़े भजवान के घर से बनकर आते हैं। सम्पत्ति बड़ी तपस्या से मिलती है। उन्होंने पूर्वजन्म में जैसे कर्म किये हैं, उनका आनन्द भोग रहे हैं। हमने कुछ नहीं संचा, तो भोगें क्या?
‘यह सब मन को समझाने की बातें हैं। भगवान् सबको बराबर बनाते हैं। यहाँ जिसके हाथ में लाठी है, वह ग़रीबों को कुचलकर बड़ा आदमी बन जाता है।’
‘यह तुम्हारा भरम है। मालिक आज भी चार घंटे रोज़ भगवान् का भजन करते हैं।’
‘किसके बल पर यह भजन-भाव और दान-धर्म होता है?’
‘अपने बल पर।’
‘नहीं, किसानों के बल पर और मज़दूरों के बल पर। यह पाप का धन पचे कैसे? इसीलिए दान-धर्म करना पड़ता है, भगवान् का भजन भी इसीलिए होता है, भूखे-नंगे रहकर भगवान् का भजन करें, तो हम भी देखें। हमें कोई दोनों जून खाने को दे तो हम आठों पहर भगवान् का जाप ही करते रहें। एक दिन खेत में ऊख गोड़ना पड़े तो सारी भिक्त भूल जाय।’
होरी ने हार कर कहा — अब तुम्हारे मुँह कौन लगे भाई, तुम तो भगवान् की लीला में भी टाँग अड़ाते हो।
तीसरे पहर गोबर कुदाल लेकर चला, तो होरी ने कहा — ज़रा ठहर जाओ बेटा, हम भी चलते हैं। तब तक थोड़ा-सा भूसा निकालकर रख दो। मैंने भोला को देने को कहा है। बेचारा आजकल बहुत तंग है।
गोबर ने अवज्ञा-भरी आँखों से देखकर कहा — हमारे पास बेचने को भूसा नहीं है।
‘बेचता नहीं हूँ भाई, यों ही दे रहा हूँ। वह संकट में है, उसकी मदद तो करनी ही पड़ेगी।’
‘हमें तो उन्होंने कभी एक गाय नहीं दे दी।’
‘दे तो रहा था; पर हमने ली ही नहीं।’
धनिया मटक्कर बोली — गाय नहीं वह दे रहा था। इन्हें गाय दे देगा! आँख में अंजन लगाने को कभी चिल्लू-भर दूध तो भेजा नहीं, गाय देगा!
होरी ने क़सम खायी — नहीं, जवानी क़सम, अपनी पछाई गाय दे रहे थे। हाथ तंग है, भूसा-चारा नहीं रख सके। अब एक गाय बेचकर भूसा लेना चाहते हैं। मैंने सोचा, संकट में पड़े आदमी की गाय क्या लूँगा। थोड़ा-सा भूसा दिये देता हूँ, कुछ रुपए हाथ आ जायँगे तो गाय ले लूँगा। थोड़ा-थोड़ा करके चुका दूँगा। अस्सी रुपए की है; मगर ऐसी कि आदमी देखता रहे।
गोबर ने आड़े हाथों लिया — तुम्हारा यही धमार्त्मापन तो तुम्हारी दुर्गत कर रहा है। साफ़-साफ़ तो बात है। अस्सी रुपए की गाय है, हमसे बीस रुपए का भूसा ले लें ओर गाय हमें दे दें। साठ रुपए रह जायँगे, वह हम धीरे-धीरे दे देंगे।
होरी रहस्यमय ढंग से मुस्कुराया — मैंने ऐसी चाल सोची है कि गाय सेंत-मेंत में हाथ आ जाय। कहीं भोला की सगाई ठीक करनी है, बस। दो-चार मन भूसा तो ख़ाली अपना रंग जमाने को देता हूँ।
गोबर ने तिरस्कार किया — तो तुम अब सब की सगाई ठीक करते फिरोगे?
धनिया ने तीखी आँखों से देखा — अब यही एक उद्यम तो रह गया है। नहीं देना है हमें भूसा किसी को। यहाँ भोली-भाली किसी का करज़ नहीं खाया है।
होरी ने अपनी सफ़ाई दी — अगर मेरे जतन से किसी का घर बस जाय, तो इसमें कौन-सी बुराई है?
गोबर ने चिलम उठाई और आग लेने चला गया। उसे यह झमेला बिल्कुल नहीं भाता था।
धनिया ने सिर हिला कर कहा — जो उनका घर बसायेगा, वह अस्सी रुपए की गाय लेकर चुप न होगा। एक थैली गिनवायेगा।
होरी ने पुचारा दिया — यह मैं जानता हूँ; लेकिन उनकी भलमनसी को भी तो देखो। मुझसे जब मिलता है, तेरा बखान ही करता है — ऐसी लक्ष्मी है, ऐसी सलीके-दार है।
धनिया के मुख पर स्निग्धता झलक पड़ी। मनभाय मुड़िया हिलाये वाले भाव से बोली — मैं उनके बखान की भूखी नहीं हूँ, अपना बखान धरे रहें।
होरी ने स्नेह-भरी मुस्कान के साथ कहा — मैंने तो कह दिया, भैया, वह नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने देती, गालियों से बात करती है; लेकिन वह यही कहे जाय कि वह औरत नहीं लक्षमी है। बात यह है कि उसकी घरवाली ज़बान की बड़ी तेज़ थी। बेचारा उसके डर के मारे भागा-भागा फिरता था। कहता था, जिस दिन तुम्हारी घरवाली का मुँह सबेरे देख लेता हूँ, उस दिन कुछ-न-कुछ ज़रूर हाथ लगता है। मैंने कहा — तुम्हारे हाथ लगता होगा, यहाँ तो रोज़ देखते हैं, कभी पैसे से भेंट नहीं होती।
‘तुम्हारे भाग ही खोटे हैं, तो मैं क्या करूँ।’
‘लगा अपनी घरवाली की बुराई करने — भिखारी को भीख तक नहीं देती थी, झाड़ू लेकर मारने दौड़ती थी, लालचिन ऐसी थी कि नमक तक दूसरों के घर से माँग लाती थी!’
‘मरने पर किसी की क्या बुराई करूँ। मुझे देखकर जल उठती थी।’
‘भोला बड़ा ग़मख़ोर था कि उसके साथ निबाह कर दिया। दूसरा होता तो ज़हर खाके मर जाता। मुझसे दस साल बड़े होंगे भोला; पर राम-राम पहले ही करते हैं।’
‘तो क्या कहते थे कि जिस दिन तुम्हारी घरवाली का मुँह देख लेता हूँ, तो क्या होता है?’
‘उस दिन भगवान् कहीं-न-कहीं से कुछ भेज देते हैं।’
‘बहुएँ भी तो वैसी ही चटोरिन आयी हैं। अबकी सबों ने दो रुपए के ख़रबूज़े उधार खा डाले। उधार मिल जाय, फिर उन्हें चिन्ता नहीं होती कि देना पड़ेगा या नहीं।’
‘और भोला रोते काहे को हैं?
गोबर आकर बोला — भोला दादा आ पहुँचे। मन दो मन भूसा हैरु वह उन्हें दे दो, फिर उनकी सगाई ढूँढ़ने निकलो।
धनिया ने समझाया — आदमी द्वार पर बैठा है उसके लिए खाट-वाट तो डाल नहीं दी, ऊपर से लगे भुनभुनाने। कुछ तो भलमंसी सीखो। कलसा ले जाओ, पानी भरकर रख दो, हाथ-मुँह धोयें, कुछ रस-पानी पिला दो। मुसीबत में ही आदमी दूसरों के सामने हाथ फैलाता है।
होरी बोला — रस-वस का काम नहीं है, कौन कोई पाहुने हैं।
धनिया बिगड़ी — पाहुने और कैसे होते हैं! रोज़-रोज़ तो तुम्हारे द्वार पर नहीं आते? इतनी दूर से धूप-घाम में आये हैं, प्यास लगी ही होगी। रुपिया, देख डब्बे में तमाखू है कि नहीं, गोबर के मारे काहे को बची होगी। दौड़कर एक पैसे का तमाखू सहुआइन की दुकान से ले ले।
भोला की आज जितनी ख़ातिर हुई, और कभी न हुई होगी। गोबर ने खाट डाल दी, सोना रस घोल लायी, रूपा तमाखू भर लायी। धनिया द्वार पर किवाड़ की आड़ में खड़ी अपने कानों से अपना बखान सुनने के लिए अधीर हो रही थी।
भोला ने चिलम हाथ में लेकर कहा — अच्छी घरनी घर में आ जाय, तो समझ लो लक्ष्मी आ गयी। वही जानती है छोटे-बड़े का आदर-सत्कार कैसे करना चाहिए।
धनिया के हृदय में उल्लास का कम्पन हो रहा था। चिन्ता और निराशा और अभाव से आहत आत्मा इन शब्दों में एक कोमल शीतल स्पर्श का अनुभव कर रही थी।
होरी जब भोला का खाँचा उठाकर भूसा लाने अन्दर चला, तो धनिया भी पीछे-पीछे चली। होरी ने कहा — जाने कहाँ से इतना बड़ा खाँचा मिल गया। किसी भड़भूजे से माँग लिया होगा। मन-भर से कम में न भरेगा। दो खाँचे भी दिये, तो दो मन निकल जायँगे।
धनिया फूली हुई थी। मलामत की आँखों से देखती हुई बोली — या तो किसी को नेवता न दो, और दो तो भरपेट खिलाओ। तुम्हारे पास फूल-पत्र लेने थोड़े ही आये हैं कि चँगेरी लेकर चलते। देते ही हो, तो तीन खाँचे दे दो। भला आदमी लड़कों को क्यों नहीं लाया। अकेले कहाँ तक ढोयेगा। जान निकल जायगी।
‘तीन खाँचे तो मेरे दिये न दिये जायँगे !’
‘तब क्या एक खाँचा देकर टालोगे? गोबर से कह दो, अपना खाँचा भरकर उनके साथ चला जाय।’
‘गोबर ऊख गोड़ने जा रहा है।’
‘एक दिन न गोड़ने से ऊख न सूख जायगी।’
‘यह तो उनका काम था कि किसी को अपने साथ ले लेते। भगवान् के दिये दो-दो बेटे हैं।’
‘न होंगे घर पर। दूध लेकर बाज़ार गये होंगे।’
‘यह तो अच्छी दिल्लगी है कि अपना माल भी दो और उसे घर तक पहुँचा भी दो। लाद दे, लदा दे, लादनेवाला साथ कर दे।’
‘अच्छा भाई, कोई मत जाय। मैं पहुँचा दूँगी। बड़ों की सेवा करने में लाज नहीं है।’
‘और तीन खाँचे उन्हें दे दूँ, तो अपने बैल क्या खायेंगे?’
‘यह सब तो नेवता देने के पहले ही सोच लेना था। न हो, तुम और गोबर दोनों जने चले जाओ।’
‘मुरौवत मुरौवत की तरह की जाती है, अपना घर उठाकर नहीं दे दिया जाता!’
‘अभी ज़मींदार का प्यादा आ जाय, तो अपने सिर पर भूसा लादकर पहुँचाओगे तुम, तुम्हारा लड़का, लड़की सब। और वहाँ साइत मन-दो-मन लकड़ी भी फाड़नी पड़े।’
‘ज़मींदार की बात और है।’
‘हाँ, वह डंडे के ज़ोर से काम लेता है न।’
‘उसके खेत नहीं जोतते?’
‘खेत जोतते हैं, तो लगान नहीं देते?’
‘अच्छा भाई, जान न खा, हम दोनों चले जायँगे। कहाँ-से-कहाँ मैंने इन्हें भूसा देने को कह दिया। या तो चलेगी नहीं, या चलेगी तो दौड़ने लगेगी।’
तीनों खाँचे भूसे से भर दिये गये। गोबर कुढ़ रहा था। उसे अपने बाप के व्यवहारों में ज़रा भी विश्वास न था। वह समझता था, यह जहाँ जाते हैं, वहीं कुछ-न-कुछ घर से खो आते हैं। धनिया प्रसन्न थी। रहा होरी, वह धर्म और स्वार्थ के बीच में डूब-उतरा रहा था।
होरी और गोबर मिलकर एक खाँचा बाहर लाये। भोला ने तुरन्त अपने अँगोछे का बीड़ा बनाकर सिर पर रखते हुए कहा — मैं इसे रखकर अभी भागा आता हूँ। एक खाँचा और लूँगा।
होरी बोला — एक नहीं, अभी दो और भरे धरे हैं। और तुम्हें आना नहीं पड़ेगा। मैं और गोबर एक-एक खाँचा लेकर तुम्हारे साथ ही चलते हैं।
भोला स्तम्भित हो गया। होरी उसे अपना भाई बल्कि उससे भी निकट जान पड़ा। उसे अपने भीतर एक ऐसी तृप्ति का अनुभव हुआ, जिसने मानो उसके सम्पूर्ण जीवन को हरा कर दिया।
तीनों भूसा लेकर चले, तो राह में बातें होने लगीं।
भोला ने पूछा — दशहरा आ रहा है, मालिकों के द्वार पर तो बड़ी धूमधाम होगी?
‘हाँ, तम्बू सामियाना गड़ गया है। अब की लीला में मैं भी काम करूँगा। राय साहब ने कहा है, तुम्हें राजा जनक का माली बनना पड़ेगा।’
‘मालिक तुमसे बहुत ख़ुश हैं।’
‘उनकी दया है।’
एक क्षण के बाद भोला ने फिर पूछा — सगुन करने के रुपए का कुछ जुगाड़ कर लिया है? माली बन जाने से तो गला न छूटेगा।
होरी ने मुँह का पसीना पोंछकर कहा — उसी की चिन्ता तो मारे डालती है दादा — अनाज तो सब-का-सब खलिहान में ही तुल गया। ज़मींदार ने अपना लिया, महाजन ने अपना लिया। मेरे लिए पाँच सेर अनाज बच रहा। यह भूसा तो मैंने रातोंरात ढोकर छिपा दिया था, नहीं तिनका भी न बचता। ज़मींदार तो एक ही हैं; मगर महाजन तीनतीन हैं, सहुआइन अलग, मँगरू अलग और दातादीन पण्डित अलग। किसी का ब्याज भी पूरा न चुका। ज़मींदार के भी आधे रुपए बाक़ी पड़ गये। सहुआइन से फिर रुपए उधार लिये तो काम चला। सब तरह किफ़ायत कर के देख लिया भैया, कुछ नहीं होता। हमारा जनम इसी लिए हुआ है कि अपना रक्त बहायें और बड़ों का घर भरें। मूलका दुगना सूद भर चुका; पर मूल ज्यों-का-त्यों सिर पर सवार है। लोग कहते हैं, सर्दी-गर्मी में, तीरथ-बरत में हाथ बाँधकर ख़रच करो। मुदा रास्ता कोई नहीं दिखाता। राय साहब ने बेटे के ब्याह में बीस हज़ार लुटा दिये। उनसे कोई कुछ नहीं कहता। मँगरू ने अपने बाप के िक्तया-करम में पाँच हज़ार लगाये। उनसे कोई कुछ नहीं पूछता। वैसा ही मरजाद तो सबका है।
भोला ने करुण भाव से कहा — बड़े आदमियों की बराबरी तुम कैसे कर सकते हो भाई?
‘आदमी तो हम भी हैं।
‘कौन कहता है कि हम तुम आदमी हैं। हममें आदमियत कहाँ? आदमी वह हैं, जिनके पास धन है, अख़्तियार है, इलम है, हम लोग तो बैल हैं और जुतने के लिए पैदा हुए हैं। उसपर एक दूसरे को देख नहीं सकता। एका का नाम नहीं। एक किसान दूसरे के खेत पर न चढ़े तो कोई जाफ़ा कैसे करे, प्रेम तो संसार से उठ गया।’
बूढ़ों के लिए अतीत के सुखों और वर्तमान के दुःखों और भविष्य के सर्वनाश से ज़्यादा मनोरंजक और कोई प्रसंग नहीं होता। दोनों मित्र अपने-अपने दुखड़े रोते रहे। भोला ने अपने बेटों के करतूत सुनाये, होरी ने अपने भाइयों का रोना रोया और तब एक कुएँ पर बोझ रखकर पानी पीने के लिए बैठ गये। गोबर ने बनिये से लोटा माँगा और पानी खींचने लगा।
भोला ने सहृदयता से पूछा — अलगौझे के समय तो तुम्हें बड़ा रंज हुआ होगा। भाइयों को तो तुमने बेटों की तरह पाला था।
होरी आद्रर् कंठ से बोला — कुछ न पूछो दादा, यही जी चाहता था कि कहीं जाके डूब मरूँ। मेरे जीते जी सब कुछ हो गया। जिनके पीछे अपनी जवानी धूल में मिला दी, वही मेरे मुद्दई हो गये और झगड़े की जड़ क्या थी? यही कि मेरी घरवाली हार में काम करने क्यों नहीं जाती। पूछो, घर देखनेवाला भी कोई चाहिए कि नहीं। लेना-देना, धरना उठाना, सँभालना-सहेजना, यह कौन करे। फिर वह घर बैठी तो नहीं रहती थी, झाड़ू-बुहारू, रसोई, चौका-बरतन, लड़कों की देख-भाल यह कोई थोड़ा काम है। सोभा की औरत घर सँभाल लेती कि हीरा की औरत में यह सलीका था? जब से अलगौझा हुआ है, दोनों घरों में एक जून रोटी पकती है। नहीं सब को दिन में चार बार भूख लगती थी। अब खायँ चार दफ़े, तो देखूँ। इस मालिकपन में गोबर की माँ की जो दुर्गती हुई है, वह मैं ही जानता हूँ। बेचारी अपनी देवरानियों के फटे-पुराने कपड़े पहनकर दिन काटती थी, ख़ुद भूखी सो रही होगी; लेकिन बहुओं के लिए जलपान तक का ध्यान रखती थी। अपनी देह पर गहने के नाम कच्चा धागा भी न था, देवरानियों के लिए दो-दो चार-चार गहने बनवा दिये। सोने के न सही चाँदी के तो हैं। जलन यही थी कि यह मालिक क्यों है। बहुत अच्छा हुआ कि अलग हो गये। मेरे सिर से बला टली।
भोला ने एक लोटा पानी चढ़ाकर कहा — यही हाल घर-घर है भैया! भाइयों की बात ही क्या, यहाँ तो लड़कों से भी नहीं पटती और पटती इसलिए नहीं कि मैं किसी की कुचाल देखकर मुँह नहीं बन्द कर सकता। तुम जुआ खेलोगे, चरस पीओगे, गाँजे के दम लगाओगे, मगर आये किसके घर से? ख़रचा करना चाहते हो तो कमाओ; मगर कमाई तो किसी से न होगी। ख़रच दिल खोलकर करेंगे। जेठा कामता सौदा लेकर बाज़ार जायगा, तो आधे पैसे ग़ायब। पूछो तो कोई जवाब नहीं। छोटा जंगी है, वह संगत के पीछे मतवाला रहता है। साँझ हुई और ढोल-मजीरा लेकर बैठ गये। संगत को मैं बुरा नहीं कहता। गाना-बजाना ऐब नहीं; लेकिन यह सब काम फ़ुरसत के हैं। यह नहीं कि घर का तो कोई काम न करो, आठों पहर उसी धुन में पड़े रहो। जाती है मेरे सिर; सानी-पानी मैं करूँ, गाय-भैंस मैं दुहूँ, दूध लेकर बाज़ार मैं जाऊँ। यह गृहस्थी जी का जंजाल है, सोने की हँसिया, जिसे न उगलते बनता है, न निगलते। लड़की है, झुनिया, वह भी नसीब की खोटी। तुम तो उसकी सगाई में आये थे। कितना अच्छा घर-बर था। उसका आदमी बम्बई में दूध की दूकान करता था। उन दिनों वहाँ हिन्दू-मुसलमानों में दंगा हुआ, तो किसी ने उसके पेट में छूरा भोंक दिया। घर ही चौपट हो गया। वहाँ अब उसका निबाह नहीं। जाकर लिवा लाया कि दूसरी सगाई कर दूँगा; मगर वह राज़ी ही नहीं होती। और दोनों भावजें हैं कि रात-दिन उसे जलाती रहती हैं। घर में महाभारत मचा रहता है। विपत की मारी यहाँ आई, यहाँ भी चैन नहीं।
इन्हीं दुखड़ों में रास्ता कट गया। भोला का पुरवा था तो छोटा; मगर बहुत गुलज़ार। अधिकतर अहीर ही बसते थे। और किसानों के देखते इनकी दशा बहुत बुरी न थी। भोला गाँव का मुखिया था। द्वार पर बड़ी-सी चरनी थी जिस पर दस-बारह गायें-भैंसें खड़ी सानी खा रही थीं। ओसारे में एक बड़ा-सा तख़्त पड़ा था जो शायद दस आदमियों से भी न उठता। किसी खूँटी पर ढोलक लटक रही थी किसी पर मजीरा। एक ताख पर कोई पुस्तक बस्ते में बँधी रखी हुई थी, जो शायद रामायण हो। दोनों बहुएँ सामने बैठी गोबर पाथ रही थीं और झुनिया चौखट पर खड़ी थी। उसकी आँखें लाल थीं और नाक के सिरे पर भी सुख़ीर् थी। मालूम होता था, अभी रोकर उठी है। उसके मांसल, स्वस्थ, सुगठित अंगों में मानो यौवन लहरें मार रहा था। मुँह बड़ा और गोल था, कपोल फूले हुए, आँखें छोटी और भीतर धँसी हुई, माथा पतला; पर वक्ष का उभार और गात का वही गुदगुदापन आँखों को खींचता था। उस पर छपी हुई गुलाबी साड़ी उसे और भी शोभा प्रदान कर रही थी।
भोला को देखते ही उसने लपककर उनके सिर से खाँचा उतरवाया। भोला ने गोबर और होरी के खाँचे उतरवाये और झुनिया से बोले — पहले एक चिलम भर ला, फिर थोड़ा-सा रस बना ले। पानी न हो तो गगरा ला, मैं खींच दूँ। होरी महतो को पहचानती है न?
फिर होरी से बोला — घरनी के बिना घर नहीं रहता भैया। पुरानी कहावत है — नाटन खेती बहुरियन घर। नाटे बैल क्या खेती करेंगे और बहुएँ क्या घर सँभालेंगी। जब से इसकी माँ मरी है, जैसे घर की बरकत ही उठ गयी। बहुएँ आटा पाथ लेती हैं। पर गृहस्थी चलाना क्या जानें। हाँ, मुँह चलाना ख़ूब जानती हैं। लौंडे कहीं फड़ पर जमे होंगे। सब-के-सब आलसी हैं, कामचोर। जब तक जीता हूँ, इनके पीछे मरता हूँ। मर जाऊँगा, तो आप सिर पर हाथ धरकर रोयेंगे। लड़की भी वैसी ही है। छोटा-सा अढ़ौना भी करेगी, तो भुन-भुनाकर। मैं तो सह लेता हूँ, ख़सम थोड़े ही सहेगा।
झुनिया एक हाथ में भरी हुई चिलम, दूसरे में लोटे का रस लिये बड़ी फुतीर् से आ पहुँची। फिर रस्सी और कलसा लेकर पानी भरने चली। गोबर ने उसके हाथ से कलसा लेने के लिए हाथ बढ़ाकर झेंपते हुए कहा — तुम रहने दो, मैं भरे लाता हूँ।
झुनिया ने कलसा न दिया। कुएँ के जगत पर जाकर मुस्कराती हुई बोली — तुम हमारे मेहमान हो। कहोगे एक लोटा पानी भी किसी ने न दिया।
‘मेहमान काहे से हो गया। तुम्हारा पड़ोसी ही तो हूँ।’
‘पड़ोसी साल-भर में एक बार भी सूरत न दिखाये, तो मेहमान ही है।’
‘रोज़-रोज़ आने से मरजाद भी तो नहीं रहती।’ झुनिया हँसकर तिरछी नज़रों से देखती हुई बोली — वही मरजाद तो दे रही हूँ। महीने में एक बेर आओगे, ठंडा पानी दूँगी। पन्द्रहवें दिन आओगे, चिलम पाओगे। सातवें दिन आओगे, ख़ाली बैठने को माची दूँगी। रोज़-रोज़ आओगे, कुछ न पाओगे।
‘दरसन तो दोगी?’
‘दरसन के लिए पूजा करनी पड़ेगी।’
यह कहते-कहते जैसे उसे कोई भूली हुई बात याद आ गयी। उसका मुँह उदास हो गया। वह विधवा है। उसके नारीत्व के द्वार पर पहले उसका पति रक्षक बना बैठा रहता था। वह निश्चिन्त थी। अब उस द्वार पर कोई रक्षक न था, इसलिए वह उस द्वार को सदैव बन्द रखती है। कभी-कभी घर के सूनेपन से उकताकर वह द्वार खोलती है; पर किसी को आते देखकर भयभीत होकर दोनों पट भेड़ लेती है।
गोबर ने कलसा भरकर निकाला। सबों ने रस पिया और एक चिलम तमाखू और पीकर लौटे। भोला ने कहा — कल तुम आकर गाय ले जाना गोबर, इस बखत तो सानी खा रही है।
गोबर की आँखें उसी गाय पर लगी हुई थी और मन-ही-मन वह मुग्ध हुआ जाता था। गाय इतनी सुन्दर और सुडौल है, इसकी उसने कल्पना भी न की थी।
होरी ने लोभ को रोककर कहा — मँगवा लूँगा, जल्दी क्या है?
‘तुम्हें जल्दी न हो, हमें तो जल्दी है। उसे द्वार पर देखकर तुम्हें वह बात याद रहेगी।’
‘उसकी मुझे बड़ी फ़िकर है दादा!’
‘तो कल गोबर को भेज देना।’
दोनों ने अपने-अपने खाँचे सिर पर रखे और आगे बढ़े। दोनों इतने प्रसन्न थे मानो ब्याह करके लौटे हों। होरी को तो अपनी चिर संचित अभिलाषा के पूरे होने का हर्ष था, और बिना पैसे के। गोबर को इससे भी बहुमूल्य वस्तु मिल गयी थी। उसके मन में अभिलाषा जाग उठी थी।
अवसर पाकर उसने पीछे की तरफ़ देखा। झुनिया द्वार पर खड़ी थी, मन आशा की भाँति अधीर, चंचल।

Godan / गोदान भाग 4/ प्रेमचंद / Premchand

Godan / गोदान भाग 1-5 / प्रेमचंद / Premchandहोरी को रात भर नींद नहीं आयी। नीम के पेड़-तले अपनी बाँस की खाट पर पड़ा बार-बार तारों की ओर देखता था। गाय के लिए एक नाँद गाड़नी है। बैलों से अलग उसकी नाँद रहे तो अच्छा। अभी तो रात को बाहर ही रहेगी; लेकिन चौमासे में उसके लिए कोई दूसरी जगह ठीक करनी होगी। बाहर लोग नज़र लगा देते हैं। कभी-कभी तो ऐसा टोना-टोटका कर देते हैं कि गाय का दूध ही सूख जाता है। थन में हाथ ही नहीं लगाने देती। लात मारती है। नहीं, बाहर बाँधना ठीक नहीं। और बाहर नाँद भी कौन गाड़ने देगा। कारिन्दा साहब नज़र के लिए मुँह फुलायेंगे। छोटी छोटी बात के लिए राय साहब के पास फ़रियाद ले जाना भी उचित नहीं। और कारिन्दे के सामने मेरी सुनता कौन है। उनसे कुछ कहूँ, तो कारिन्दा दुश्मन हो जाय। जल में रहकर मगर से बैर करना लड़कपन है। भीतर ही बाँधूँगा। आँगन है तो छोटा-सा; लेकिन एक मड़ैया डाल देने से काम चल जायगा। अभी पहला ही ब्यान है। पाँच सेर से कम क्या दूध देगी। सेर-भर तो गोबर ही को चाहिए। रुपिया दूध देखकर कैसी ललचाती रहती है। अब पिये जितना चाहे। कभी-कभी दो-चार सेर मालिकों को दे आया करूँगा। कारिन्दा साहब की पूजा भी करनी ही होगी। और भोला के रुपए भी दे देना चाहिये। सगाई के ढकोसले में उसे क्यों डालूँ। जो आदमी अपने ऊपर इतना विश्वास करे, उससे दग़ा करना नीचता है। अस्सी रुपए की गाय मेरे विश्वास पर दे दी। नहीं यहाँ तो कोई एक पैसे को नहीं पतियाता। सन में क्या कुछ न मिलेगा? अगर पच्चीस रुपए भी दे दूँ, तो भोला को ढाढ़स हो जाय। धनिया से नाहक़ बता दिया। चुपके से गाय लेकर बाँध देता तो चकरा जाती। लगती पूछने, किसकी गाय है? कहाँ से लाये हो?। ख़ूब दिक करके तब बताता; लेकिन जब पेट में बात पचे भी। कभी दो-चार पैसे ऊपर से आ जाते हैं; उनको भी तो नहीं छिपा सकता। और यह अच्छा भी है। उसे घर की चिन्ता रहती है; अगर उसे मालूम हो जाय कि इनके पास भी पैसे रहते हैं, तो फिर नख़रे बघारने लगे। गोबर ज़रा आलसी है, नहीं मैं गऊ की ऐसी सेवा करता कि जैसी चाहिए। आलसी-वालसी कुछ नहीं है। इस उमिर में कौन आलसी नहीं होता। मैं भी दादा के सामने मटरगस्ती ही किया करता था। बेचारे पहर रात से कुट्टी काटने लगते। कभी द्वार पर झाड़ू लगाते, कभी खेत में खाद फेंकते। मैं पड़ा सोता रहता था। कभी जगा देते, तो मैं बिगड़ जाता और घर छोड़कर भाग जाने की धमकी देता था। लड़के जब अपने माँ-बाप के सामने भी ज़िन्दगी का थोड़ा-सा सुख न भोगेंगे, तो फिर जब अपने सिर पड़ गयी तो क्या भोगेंगे? दादा के मरते ही क्या मैंने घर नहीं सँभाल लिया? सारा गाँव यही कहता था कि होरी घर बरबाद कर देगा; लेकिन सिर पर बोझ पड़ते ही मैंने ऐसा चोला बदला कि लोग देखते रह गये। सोभा और हीरा अलग ही हो गये, नहीं आज इस घर की और ही बात होती। तीन हल एक साथ चलते। अब तीनों अलग-अलग चलते हैं। बस, समय का फेर है। धनिया का क्या दोष था। बेचारी जब से घर में आयी, कभी तो आराम से न बैठी। डोली से उतरते ही सारा काम सिर पर उठा लिया। अम्मा को पान की तरह फेरती रहती थी। जिसने घर के पीछे अपने को मिटा दिया, देवरानियों से काम करने को कहती थी, तो क्या बुरा करती थी। आख़िर उसे भी तो कुछ आराम मिलना चाहिये। लेकिन भाग्य में आराम लिखा होता तब तो मिलता। तब देवरों के लिए मरती थी, अब अपने बच्चों के लिए मरती है। वह इतनी सीधी, ग़मख़ोर, निर्छल न होती, तो आज सोभा और हीरा जो मूँछों पर ताव देते फिरते हैं, कहीं भीख माँगते होते। आदमी कितना स्वार्थी हो जाता है। जिसके लिए लड़ो वही जान का दुश्मन हो जाता है। होरी ने फिर पूर्व की ओर देखा। साइत भिनसार हो रहा है। गोबर काहे को जगने लगा। नहीं, कहके तो यही सोया था कि मैं अँधेरे ही चला जाऊँगा। जाकर नाँद तो गाड़ दूँ, लेकिन नहीं, जब तक गाय द्वार पर न आ जाय, नाँद गाड़ना ठीक नहीं। कहीं भोला बदल गये या और किसी कारन से गाय न दी, तो सारा गाँव तालियाँ पीटने लगेगा, चले थे गाय लेने। पट्ठे ने इतनी फुर्ती से नाँद गाड़ दी, मानो इसी की कसर थी। भोला है तो अपने घर का मालिक; लेकिन जब लड़के सयाने हो गये, तो बाप की कौन चलती है। कामता और जंगी अकड़ जायँ, तो क्या भोला अपने मन से गाय मुझे दे देंगे, कभी नहीं। सहसा गोबर चौंककर उठ बैठा और आँखें मलता हुआ बोला — अरे! यह तो भोर हो गया। तुमने नाँद गाड़ दी दादा?
होरी गोबर के सुगठित शरीर और चौड़ी छाती की ओर गर्व से देखकर और मन में यह सोचते हुए कि कहीं इसे गोरस मिलता, तो कैसा पट्ठा हो जाता, बोला — नहीं, अभी नहीं गाड़ी। सोचा, कहीं न मिले, तो नाहक़ भद्द हो।
गोबर ने त्योरी चढ़ाकर कहा — मिलेगी क्यों नहीं?
‘ उनके मन में कोई चोर पैठ जाय? ‘
‘ चोर पैठे या डाकू, गाय तो उन्हें देनी ही पड़ेगी। ‘
गोबर ने और कुछ न कहा। लाठी कन्धे पर रखी और चल दिया। होरी उसे जाते देखता हुआ अपना कलेजा ठंठा करता रहा। अब लड़के की सगाई में देर न करनी चाहिये। सत्रहवाँ लग गया; मगर करें कैसे? कहीं पैसे के भी दरसन हों। जब से तीनों भाइयों में अलगौझा हो गया, घर की साख जाती रही। महतो लड़का देखने आते हैं, पर घर की दशा देखकर मुँह फीका करके चले जाते हैं। दो-एक राज़ी भी हुए, तो रुपए माँगते हैं। दो-तीन सौ लड़की का दाम चुकाये और इतना ही ऊपर से ख़र्च करे, तब जाकर ब्याह हो। कहाँ से आये इतने रुपए। रास खलिहान में तुल जाती है। खाने-भर को भी नहीं बचता। ब्याह कहाँ से हो? और अब तो सोना ब्याहने योग्य हो गयी। लड़के का ब्याह न हुआ, न सही। लड़की का ब्याह न हुआ, तो सारी बिरादरी में हँसी होगी। पहले तो उसी की सगाई करनी है, पीछे देखी जायगी। एक आदमी ने आकर राम-राम किया और पूछा — तुम्हारी कोठी में कुछ बाँस होंगे महतो?
होरी ने देखा, दमड़ी बँसार सामने खड़ा है, नाटा काला, ख़ूब मोटा, चौड़ा मुँह, बड़ी-बड़ी मूँछें, लाल आँखें, कमर में बाँस काटने की कटार खोंसे हुए। साल में एक-दो बार आकर चिकें, कुरसियाँ, मोढ़े, टोकरियाँ आदि बनाने के लिए कुछ बाँस काट ले जाता था। होरी प्रसन्न हो गया। मुट्ठी गर्म होने की कुछ आशा बँधी। चौधरी को ले जाकर अपनी तीनों कोठियाँ दिखायीं, मोल-भाव किया और पच्चीस रुपए सैकड़े में पचास बाँसों का बयाना ले लिया। फिर दोनों लौटे। होरी ने उसे चिलम पिलायी, जलपान कराया और तब रहस्यमय भाव से बोला — मेरे बाँस कभी तीस रुपए से कम में नहीं जाते; लेकिन तुम घर के आदमी हो, तुमसे क्या मोल-भाव करता। तुम्हारा वह लड़का, जिसकी सगाई हुई थी, अभी परदेस से लौटा कि नहीं?
चौधरी ने चिलम का दम लगाकर खाँसते हुए कहा — उस लौंडे के पीछे तो मर मिटा महतो! जवान बहू घर में बैठी थी और वह बिरादरी की एक दूसरी औरत के साथ परदेस में मौज करने चल दिया। बहू भी दूसरे के साथ निकल गयी। बड़ी नाकिस जात है, महतो, किसी की नहीं होती। कितना समझाया कि तू जो चाहे खा, जो चाहे पहन, मेरी नाक न कटवा, मुदा कौन सुनता है। औरत को भगवान् सब कुछ दे, रूप न दे, नहीं वह क़ाबू में नहीं रहती। कोठियाँ तो बँट गयी होंगी? होरी ने आकाश की ओर देखा और मानो उसकी महानता में उड़ता हुआ बोला — सब कुछ बँट गया चौधरी! जिनको लड़कों की तरह पाला-पोसा, वह अब बराबर के हिस्सेदार हैं; लेकिन भाई का हिस्सा खाने की अपनी नीयत नहीं है। इधर तुमसे रुपए मिलेंगे, उधर दोनों भाइयों को बाँट दूँगा। चार दिन की ज़िन्दगी में क्यों किसी से छल-कपट करूँ। नहीं कह दूँ कि बीस रुपए सैकड़े में बेचे हैं तो उन्हें क्या पता लगेगा। तुम उनसे कहने थोड़े ही जाओगे। तुम्हें तो मैंने बराबर अपना भाई समझा है। व्यवहार में हम ‘ भाई ‘ के अर्थ का कितना ही दुरुपयोग करें, लेकिन उसकी भावना में जो पवित्रता है, वह हमारी कालिमा से कभी मलिन नहीं होती। होरी ने अप्रत्यक्ष रूप से यह प्रस्ताव करके चौधरी के मुँह की ओर देखा कि वह स्वीकार करता है या नहीं। उसके मुख पर कुछ ऐसा मिथ्या विनीत भाव प्रकट हुआ जो भिक्षा माँगते समय मोटे भिक्षुकों पर आ जाता है। चौधरी ने होरी का आसन पाकर चाबुक जमाया — हमारा तुम्हारा पुराना भाई चारा है महतो, ऐसी बात है भला; लेकिन बात यह है कि ईमान आदमी बेचता है, तो किसी लालच से। बीस रुपए नहीं मैं पन्द्रह रुपए कहूँगा; लेकिन जो बीस रुपए के दाम लो। होरी ने खिसियाकर कहा — तुम तो चौधरी अँधेर करते हो, बीस रुपए में कहीं ऐसे बाँस जाते हैं? ‘ ऐसे क्या, इससे अच्छे बाँस जाते हैं दस रुपए पर, हाँ दस कोस और पच्छिम चले जाओ। मोल बाँस का नहीं है, शहर के नगीच होने का है। आदमी सोचता है, जितनी देर वहाँ जाने में लगेगी, उतनी देर में तो दो-चार रुपए का काम हो जायगा। ‘
सौदा पट गया। चौधरी ने मिरज़ई उतार कर छान पर रख दी और बाँस काटने लगा। ऊख की सिंचाई हो रही थी। हीरा-बहू कलेवा लेकर कुएँ पर जा रही थी। चौधरी को बाँस काटते देखकर घूँघट के अन्दर से बोली — कौन बाँस काटता है? यहाँ बाँस न कटेंगे।
चौधरी ने हाथ रोककर कहा — बाँस मोल लिए हैं, पन्द्रह रुपए सैकड़े का बयाना हुआ है। सेंत में नहीं काट रहे हैं।
हीरा-बहू अपने घर की मालकिन थी। उसी के विद्रोह से भाइयों में अलगौझा हुआ था। धनिया को परास्त करके शेर हो गयी थी। हीरा कभी-कभी उसे पीटता था। अभी हाल में इतना मारा था कि वह कई दिन तक खाट से न उठ सकी, लेकिन अपनी पदाधिकार वह किसी तरह न छोड़ती थी। हीरा क्रोध में उसे मारता था; लेकिन चलता था उसी के इशारों पर, उस घोड़े की भाँति जो कभी-कभी स्वामी को लात मारकर भी उसी के आसन के नीचे चलता है। कलेवे की टोकरी सिर से उतार कर बोली — पन्द्रह रुपए में हमारे बाँस न जायँगे।
चौधरी औरत जात से इस विषय में बात-चीत करना नीति-विरुद्ध समझते थे। बोले — जाकर अपने आदमी को भेज दे। जो कुछ कहना हो, आकर कहें।
हीरा-बहू का नाम था पुन्नी। बच्चे दो ही हुए थे। लेकिन ढल गयी थी। बनाव-सिंगार से समय के आघात का शमन करना चाहती थी, लेकिन गृहस्थी में भोजन ही का ठिकाना न था, सिंगार के लिए पैसे कहाँ से आते। इस अभाव और विवशता ने उसकी प्रकृति का जल सुखाकर कठोर और शुष्क बना दिया था, जिस पर एक बार फावड़ा भी उचट जाता था। समीप आकर चौधरी का हाथ पकड़ने की चेष्टा करती हुई बोली — आदमी को क्यों भेज दूँ। जो कुछ कहना हो, मुझसे कहो न। मैंने कह दिया, मेरे बाँस न कटेंगे।
चौधरी हाथ छुड़ाता था, और पुन्नी बार-बार पकड़ लेती थी। एक मिनट तक यही हाथा-पाई होती रही। अन्त में चौधरी ने उसे ज़ोर से पीछे ढकेल दिया। पुन्नी धक्का खाकर गिर पड़ी; मगर फिर सँभली और पाँव से तल्ली निकालकर चौधरी के सिर, मुँह, पीठ पर अन्धाधुन्ध जमाने लगी। बँसोर होकर उसे ढकेल दे? उसका यह अपमान! मारती जाती थी और रोती भी जाती थी। चौधरी उसे धक्का देकर — नारी जाति पर बल का प्रयोग करके — गच्चा खा चुका था। खड़े-खड़े मार खाने के सिवा इस संकट से बचने की उसके पास और कोई दवा न थी। पुन्नी का रोना सुनकर होरी भी दौड़ा हुआ आया। पुन्नी ने उसे देखकर और ज़ोर से चिल्लाना शुरू किया। होरी ने समझा, चौधरी ने पुनिया को मारा है। ख़ून ने जोश मारा और अलगौझे की ऊँची बाँध को तोड़ता हुआ, सब कुछ अपने अन्दर समेटने के लिए बाहर निकल पड़ा। चौधरी को ज़ोर से एक लात जमाकर बोला — अब अपना भला चाहते हो चौधरी, तो यहाँ से चले जाओ, नहीं तुम्हारी लहास उठेगी। तुमने अपने को समझा क्या है? तुम्हारी इतनी मजाल कि मेरी बहू पर हाथ उठाओ।
चौधरी क़समें खा-खाकर अपनी सफ़ाई देने लगा। तल्लियों की चोट में उसकी अपराधी आत्मा मौन थी। यह लात उसे निरपराध मिली और उसके फूले हुए गाल आँसुओं से भींग गये। उसने तो बहू को छुआ भी नहीं। क्या वह इतना गँवार है कि महतो के घर की औरतों पर हाथ उठायेगा। होरी ने अविश्वास करके कहा — आँखों में धूल मत झोंको चौधरी, तुमने कुछ कहा नहीं, तो बहू झूठ-मूठ रोती है? रुपए की गर्मी है, तो वह निकाल दी जायगी। अलग हैं तो क्या हुआ, हैं तो एक ख़ून। कोई तिरछी आँख से देखे, तो आँख निकाल लें।
पुन्नी चंडी बनी हुई थी। गला फाड़कर बोली — तूने मुझे धक्का देकर गिरा नहीं दिया? खा जा अपने बेटे की क़सम! हीरा को भी ख़बर मिली कि चौधरी और पुनिया में लड़ाई हो रही है। चौधरी ने पुनिया को धक्का दिया। पुनिया ने उसे तल्लियों से पीटा। उसने पुर वहीं छोड़ा और औंगी लिए घटनास्थल की ओर चला। गाँव में अपने क्रोध के लिए प्रसिद्ध था। छोटा डील, गठा हुआ शरीर, आँखें कौड़ी की तरह निकल आयी थीं और गर्दन की नसें तन गयी थी; मगर उसे चौधरी पर क्रोध न था, क्रोध था पुनिया पर। वह क्यों चौधरी से लड़ी? क्यों उसकी इज़्ज़त मिट्टी में मिला दी? बँसोर से लड़ने-झगड़ने का उसे क्या प्रयोजन था? उसे जाकर हीरा से सारा समाचार कह देना चाहिए था। हीरा जैसा उचित समझता, करता। वह उससे लड़ने क्यों गयी? उसका बस होता, तो वह पुनिया को पर्दे में रखता। पुनिया किसी बड़े से मुँह खोलकर बातें करे, यह उसे असह्य था। वह ख़ुद जितना उद्दंड था, पुनिया को उतना ही शान्त रखना चाहता था। जब भैया ने पन्द्रह रुपये में सौदा कर लिया, तो यह बीच में कूदनेवाली कौन! आते ही उसने पुन्नी का हाथ पकड़ लिया और घसीटता हुआ अलग ले जाकर लगा लातें जमाने — हरामज़ादी, तू हमारी नाक कटाने पर लगी हुई है! तू छोटे-छोटे आदमियों से लड़ती फिरती है, किसकी पगड़ी नीची होती है बता! । ( एक लात और जमाकर) हम तो वहाँ कलेऊ की बाट देख रहे हैं, तू यहाँ लड़ाई ठाने बैठी है। इतनी बेसर्मी! आँख का पानी ऐसा गिर गया! खोदकर गाड़ दूँगा।
पुन्नी हाय-हाय करती जाती थी और कोसती जाती थी, ‘ तेरी मिट्टी उठे, तुझे हैज़ा हो जाय, तुझे मरी आये, देवी मैया तुझे लील जायँ, तुझे इन्पलुएंजा हो जाय। भगवान् करे, तू कोढ़ी हो जाय। हाथ-पाँव कट-कट गिरें। ‘
और गालियाँ तो हीरा खड़ा-खड़ा सुनता रहा, लेकिन यह पिछली गाली उसे लग गयी। हैज़ा, मरी आदि में विशेष कष्ट न था। इधर बीमार पड़े, उधर विदा हो गये, लेकिन कोढ़! यह घिनौनी मौत, और उससे भी घिनौना जीवन। वह तिलमिला उठा, दाँत पीसता हुआ फिर पुनिया पर झपटा और झोटे पकड़कर फिर उसका सिर ज़मीन पर रगड़ता हुआ बोला — हाथ-पाव कटकर गिर जायँगे, तो मैं तुझे लेकर चाटूँगा! तू ही मेरे बाल-बच्चों को पालेगी? ऐं! तू ही इतनी बड़ी गिरस्ती चलायेगी? तू तो दूसरा भरतार करके किनारे खड़ी हो जायगी। चौधरी को पुनिया की इस दुर्गति पर दया आ गयी। हीरा को उदारतापूर्वक समझाने लगा — हीरा महतो, अब जाने दो, बहुत हुआ। क्या हुआ, बहू ने मुझे मारा। मैं तो छोटा नहीं हो गया। धन्य भाग कि भगवान् ने यह तो दिखाया। हीरा ने चौधरी को डाँटा — तुम चुप रहो चौधरी, नहीं मेरे क्रोध में पड़ जाओगे तो बुरा होगा। औरत जात इसी तरह बकती है। आज को तुमसे लड़ गयी, कल को दूसरों से लड़ जायगी। तुम भले मानस हो, हँसकर टाल गये, दूसरा तो बरदास न करेगा। कहीं उसने भी हाथ छोड़ दिया, तो कितनी आबरू रह जायेगी, बताओ। इस ख़याल ने उसके क्रोध को फिर भड़काया। लपका था कि होरी ने दौड़कर पकड़ लिया और उसे पीछे हटाते हुए बोला — अरे हो तो गया। देख तो लिया दुनिया ने कि बड़े बहादुर हो। अब क्या उसे पीसकर पी जाओगे? हीरा अब भी बड़े भाई का अदब करता था। सीधे-सीधे न लड़ता था। चाहता तो एक झटके में अपना हाथ छुड़ा लेता; लेकिन इतनी बेअदबी न कर सका। चौधरी की ओर देखकर बोला — अब खड़े क्या ताकते हो। जाकर अपने बाँस काटो। मैंने सही कर दिया। पन्द्रह रुपए सैकड़े में तय है। कहाँ तो पुन्नी रो रही थी। कहाँ झमककर उठी और अपना सिर पीटकर बोली — लगा दे घर में आग, मुझे क्या करना है। भाग फूट गया कि तुम-जैसी क़साई के पाले पड़ी। लगा दे घर में आग! उसने कलेऊ की टोकरी वहीं छोड़ दी और घर की ओर चली। हीरा गरजा — वहाँ कहाँ जाती हैं, चल कुएँ पर, नहीं ख़ून पी जाऊँगा। पुनिया के पाँव रुक गये। इस नाटक का दूसरा अंक न खेलना चाहती थी। चुपके से टोकरी उठाकर रोती हुई कुएँ की ओर चली। हीरा भी पीछे-पीछे चला। होरी ने कहा — अब फिर मार-धाड़ न करना। इससे औरत बेसरम हो जाती है। धनिया ने द्वार पर आकर हाँक लगायी — तुम वहाँ खड़े-खड़े क्या तमाशा देख रहे हो। कोई तुम्हारी सुनता भी है कि यों ही शिक्षा दे रहे हो। उस दिन इसी बहू ने तुम्हें घूँघट की आड़ में डाढ़ीजार कहा था, भूल गये। बहुरिया होकर पराये मरदों से लड़ेगी, तो डाँटी न जायेगी। होरी द्वार पर आकर नटखटपन के साथ बोला — और जो मैं इसी तरह तुझे मारूँ?
‘ क्या कभी मारा नहीं है, जो मारने की साध बनी हुई है? ‘
‘ इतनी बेदरदी से मारता, तो तू घर छोड़कर भाग जाती! पुनिया बड़ी ग़मख़ोर है। ‘
‘ ओहो! ऐसे ही तो बड़े दरदवाले हो। अभी तक मार का दाग़ बना हुआ है। हीरा मारता है तो दुलारता भी है। तुमने ख़ाली मारना सीखा, दुलार करना सीखा ही नहीं। मैं ही ऐसी हूँ कि तुम्हारे साथ निबाह हुआ। ‘
‘ अच्छा रहने दे, बहुत अपना बखान न कर! तू ही रूठ-रूठकर नैहर भागती थी।
‘ जब महीनों ख़ुशामद करता था, तब जाकर आती थी! ‘
‘ जब अपनी गरज सताती थी, तब मनाने जाते थे लाला! मेरे दुलार से नहीं जाते थे। ‘
‘ इसी से तो मैं सबसे तेरा बखान करता हूँ। ‘
वैवाहिक जीवन के प्रभात में लालसा अपनी गुलाबी मादकता के साथ उदय होती है और हृदय के सारे आकाश को अपने माधुर्य की सुनहरी किरणों से रंजित कर देती है। फिर मध्याह्न का प्रखर ताप आता है, क्षण-क्षण पर बगूले उठते हैं, और पृथ्वी काँपने लगती है। लालसा का सुनहरा आवरण हट जाता है और वास्तविकता अपने नग्न रूप में सामने आ खड़ी है। उसके बाद विश्राममय सन्ध्या आती है, शीतल और शान्त, जब हम थके हुए पथिकों की भाँति दिन-भर की यात्रा का वृत्तान्त कहते और सुनते हैं तटस्थ भाव से, मानो हम किसी ऊँचे शिखर पर जा बैठे हैं जहाँ नीचे का जनरूरव हम तक नहीं पहुँचता। धनिया ने आँखों में रस भरकर कहा — चलो-चलो, बड़े बखान करनेवाले। ज़रा-सा कोई काम बिगड़ जाय, तो गरदन पर सवार हो जाते हो।
होरी ने मीठे उलाहने के साथ कहा — ले, अब यही तेरी बेइंसाफ़ी मुझे अच्छी नहीं लगती धनिया! भोला से पूछ, मैंने उनसे तेरे बारे में क्या कहा था?
धनिया ने बात बदलकर कहा — देखो, गोबर गाय लेकर आता है कि ख़ाली हाथ।
चौधरी ने पसीने में लथ-पथ आकर कहा — महतो, चलकर बाँस गिन लो। कल ठेला लाकर उठा ले जाऊँगा।
होरी ने बाँस गिनने की ज़रूरत न समझी। चौधरी ऐसा आदमी नहीं है। फिर एकाध बाँस बेसी ही काट लेगा, तो क्या। रोज़ ही तो मँगनी बाँस कटते रहते हैं। सहालगों में तो मंडप बनाने के लिए लोग दरजनों बाँस काट ले जाते हैं। चौधरी ने साढ़े सात रुपए निकालकर उसके हाथ में रख दिये। होरी ने गिनकर कहा — और निकालो।
हिसाब से ढाई और होते हैं। चौधरी ने बेमुरौवती से कहा — पन्द्रह रुपये में तय हुए हैं कि नहीं?
‘ पन्द्रह रुपए में नहीं, बीस रुपये में। ‘
‘ हीरा महतो ने तुम्हारे सामने पन्द्रह रुपये कहे थे। कहो तो बुला लाऊँ। ‘
‘ तय तो बीस रुपये में ही हुए थे चौधरी! अब तुम्हारी जीत है, जो चाहो कहो। ढाई रुपये निकलते हैं, तुम दो ही दे दो। ‘
मगर चौधरी कच्ची गोलियाँ न खेला था। अब उसे किसका डर। होरी के मुँह में तो ताला पड़ा हुआ था। क्या कहे, माथा ठोंककर रह गया। बस इतना बोला — यह अच्छी बात नहीं है, चौधरी, दो रुपए दबाकर राजा न हो जाओगे। चौधरी तीक्ष्ण स्वर में बोला — और तुम क्या भाइयों के थोड़े-से पैसे दबाकर राजा हो जाओगे? ढाई रुपये पर अपना ईमान बिगाड़ रहे थे, उस पर मुझे उपदेस देते हो। अभी परदा खोल दूँ, तो सिर नीचा हो जाय।
होरी पर जैसे सैकड़ों जूते पड़ गये। चौधरी तो रुपए सामने ज़मीन पर रखकर चला गया; पर वह नीम के नीचे बैठा बड़ी देर तक पछताता रहा। वह कितना लोभी और स्वार्थी, इसका उसे आज पता चला। चौधरी ने ढाई रुपए दे दिये होते, तो वह ख़ुशी से कितना फूल उठता। अपनी चालाकी को सराहता कि बैठे-बैठाये ढाई रुपए मिल गये। ठोकर खाकर ही तो हम सावधानी के साथ पग उठाते हैं। धनिया अन्दर चली गयी थी। बाहर आयी तो रुपए ज़मीन पर पड़े देखे, गिनकर बोली — और रुपए क्या हुए, दस न चाहिए?
होरी ने लम्बा मुँह बनाकर कहा — हीरा ने पन्द्रह रुपए में दे दिये, तो मैं क्या करता।
‘ हीरा पाँच रुपए में दे दे। हम नहीं देते इन दामों। ‘
‘ वहाँ मार-पीट हो रही थी। मैं बीच में क्या बोलता। ‘
होरी ने अपनी पराजय अपने मन में ही डाल ली, जैसे कोई चोरी से आम तोड़ने के लिए पेड़ पर चढ़े और गिर पड़ने पर धूल झाड़ता हुआ उठ खड़ा हो कि कोई देख न ले। जीतकर आप अपनी धोखेबाज़ियों की डींग मार सकते हैं; जीत से सब-कुछ माफ़ है। हार की लज्जा तो पी जाने की ही वस्तु है। धनिया पति को फटकारने लगी। ऐसे सुअवसर उसे बहुत कम मिलते थे। होरी उससे चतुर था; पर आज बाज़ी धनिया के हाथ थी। हाथ मटकाकर बोली — क्यों न हो, भाई ने पन्द्रह रुपये कह दिये, तो तुम कैसे टोकते। अरे राम-राम! लाड़ले भाई का दिल छोटा हो जाता कि नहीं। फिर जब इतना बड़ा अनर्थ हो रहा था कि लाड़ली बहू के गले पर छुरी चल रही थी, तो भला तुम कैसे बोलते। उस बखत कोई तुम्हारा सरबस लूट लेता, तो भी तुम्हें सुध न होती।
होरी चुपचाप सुनता रहा। मिनका तक नहीं। झुँझलाहट हुई, क्रोध आया, ख़ून खौला, आँख जली, दाँत पिसे; लेकिन बोला नहीं। चुपके-से कुदाल उठायी और ऊख गोड़ने चला। धनिया ने कुदाल छीनकर कहा — क्या अभी सबेरा है जो ऊख गोड़ने चले? सूरज देवता माथे पर आ गये। नहाने-धोने जाओ। रोटी तैयार है।
होरी ने घुन्नाकर कहा — मुझे भूख नहीं है।
धनिया ने जले पर नोन छिड़का — हाँ काहे को भूख लगेगी। भाई ने बड़े-बड़े लड्डू खिला दिये हैं न! भगवान् ऐसे सपूत भाई सबको दें।
होरी बिगड़ा। क्रोध अब रस्सियाँ तुड़ा रहा था — तू आज मार खाने पर लगी हुई है।
धनिया ने नक़ली विनय का नाटक करके कहा — क्या करूँ, तुम दुलार ही इतना करते हो कि मेरा सिर फिर गया है।
‘ तू घर में रहने देगी कि नहीं? ‘
‘ घर तुम्हारा, मालिक तुम, मैं भला कौन होती हूँ तुम्हें घर से निकालनेवाली। ‘
होरी आज धनिया से किसी तरह पेश नहीं पा सकता। उसकी अक्ल जैसे कुन्द हो गयी है। इन व्यंग्य-बाणों के रोकने के लिए उसके पास कोई ढाल नहीं है। धीरे से कुदाल रख दी और गमछा लेकर नहाने चला गया। लौटा कोई आध घंटे में; मगर गोबर अभी तक न आया था। अकेले कैसे भोजन करे। लौंडा वहाँ जा कर सो रहा। भोला की वह मदमाती छोकरी है न झुनिया। उसके साथ हँसी-दिल्लगी कर रहा होगा। कल भी तो उसके पीछे लगा हुआ था। नहीं गाय दी, तो लौट क्यों नहीं आया। क्या वहाँ ढई देगा। धनिया ने कहा — अब खड़े क्या हो? गोबर साँझ को आयेगा।
होरी ने और कुछ न कहा। कहीं धनिया फिर न कुछ कह बैठे। भोजन करके नीम की छाँह में लेट रहा। रूपा रोती हुई आई नंगे बदन एक लँगोटी लगाये, झबरे बाल इधर-उधर बिखरे हुए। होरी की छाती पर लोट गयी। उसकी बड़ी बहन सोना कहती है — गाय आयेगी, तो उसका गोबर मैं पाथूँगी।
रूपा यह नहीं बरदाश्त कर सकती। सोना ऐसी कहाँ की बड़ी रानी है कि सारा गोबर आप पाथ डाले। रूपा उससे किस बात में कम है। सोना रोटी पकाती है, तो क्या रूपा बरतन नहीं माँजती? सोना पानी लाती है, तो क्या रूपा कुएँ पर रस्सी नहीं ले जाती? सोना तो कलसा भरकर इठलाती चली आती है। रस्सी समेटकर रूपा ही लाती है। गोबर दोनों साथ पाथती हैं। सोना खेत गोड़ने जाती है, तो क्या रूपा बकरी चराने नहीं जाती? फिर सोना क्यों अकेली गोबर पाथेगी? यह अन्याय रूपा कैसे सहे? होरी ने उसके भोलेपन पर मुग्ध होकर कहा — नहीं, गाय का गोबर तू पाथना सोना गाय के पास जाये तो भगा देना।
रूपा ने पिता के गले में हाथ डालकर कहा — दूध भी मैं ही दुहूँगी।
‘ हाँ-हाँ, तू न दुहेगी तो और कौन दुहेगा? ‘
‘ वह मेरी गाय होगी। ‘
‘हाँ, सोलहो आने तेरी। ‘
रूपा प्रसन्न होकर अपनी विजय का शुभ समाचार पराजिता सोना को सुनाने चली गयी। गाय मेरी होगी, उसका दूध मैं दुहूँगी, उसका गोबर मैं पाथूँगी, तुझे कुछ न मिलेगा। सोना उम्र से किशोरी, देह के गठन में युवती और बुद्धि से बालिका थी, जैसे उसका यौवन उसे आगे खींचता था, बालपन पीछे। कुछ बातों में इतनी चतुर कि ग्रेजुएट युवतियों को पढ़ाये, कुछ बातों में इतनी अल्हड़ कि शिशुओं से भी पीछे। लम्बा, रूखा, किन्तु प्रसन्न मुख, ठोड़ी नीचे को खिंची हुई, आँखों में एक प्रकार की तृप्ति न केशों में तेल, न आँखों में काजल, न देह पर कोई आभूषण, जैसे गृहस्थी के भार ने यौवन को दबाकर बौना कर दिया हो। सिर को एक झटका देकर बोली — जा तू गोबर पाथ। जब तू दूध दुहकर रखेगी तो मैं पी जाऊँगी।
‘ मैं दूध की हाँड़ी ताले में बन्द करके रखूँगी। ‘
‘ मैं ताला तोड़ कर दूध निकाल लाऊँगी। ‘
यह कहती हुई वह बाग़ की तरफ़ चल दी। आम गदरा गये थे। हवा के झोंकों से एकाध ज़मीन पर गिर पड़ते थे, लू के मारे चुचके, पीले; लेकिन बाल-वृन्द उन्हें टपके समझकर बाग़ को घेरे रहते थे। रूपा भी बहन के पीछे हो ली। जो काम सोना करे, वह रूपा ज़रूर करेगी। सोना के विवाह की बातचीत हो रही थी, रूपा के विवाह की कोई चचार् नहीं करता; इसलिए वह स्वयम् अपने विवाह के लिए आग्रह करती है। उसका दूल्हा कैसा होगा, क्या-क्या लायेगा, उसे कैसे रखेगा, उसे क्या खिलायेगा, क्या पहनायेगा, इसका वह बड़ा विशद वर्णन करती, जिसे सुनकर कदाचित् कोई बालक उससे विवाह करने पर राज़ी न होता। साँझ हो रही थी। होरी ऐसा अलसाया कि ऊख गोड़ने न जा सका। बैलों को नाँद में लगाया, सानी-खली दी और एक चिलम भरकर पीने लगा। इस फ़सल में सब कुछ खलिहान में तौल देने पर भी अभी उस पर कोई तीन सौ क़रज़ था, जिस पर कोई सौ रुपए सूद के बढ़ते जाते थे। मँगरू साह से आज पाँच साल हुए बैल के लिए साठ रुपए लिए थे, उसमें साठ दे चुका था; पर वह साठ रुपए ज्यों-के-त्यों बने हुए थे। दातादीन पण्डित से तीस रुपए लेकर आलू बोये थे। आलू तो चोर खोद ले गये, और उस तीस के इन तीन बरसों में सौ हो गये थे। दुलारी विधवा सहुआइन थी, जो गाँव में नोन तेल तमाखू की दूकान रखे हुए थी। बटवारे के समय उससे चालीस रुपए लेकर भाइयों को देना पड़ा था। उसके भी लगभग सौ रुपए हो गये थे, क्योंकि आने रुपये का ब्याज था। लगान के भी अभी पच्चीस रुपए बाक़ी पड़े हुए थे और दशहरे के दिन शगुन के रुपयों का भी कोई प्रबन्ध करना था। बाँसों के रुपए बड़े अच्छे समय पर मिल गये। शगुन की समस्या हल हो जायगी; लेकिन कौन जाने। यहाँ तो एक धेला भी हाथ में आ जाय, तो गाँव में शोर मच जाता है, और लेनदार चारों तरफ़ से नोचने लगते हैं, ये पाँच रुपये तो वह शगुन में देगा, चाहे कुछ हो जाय; मगर अभी ज़िन्दगी के दो बड़े-बड़े काम सिर पर सवार थे। गोबर और सोना का विवाह। बहुत हाथ बाँधने पर भी तीन सौ से कम ख़र्च न होंगे। ये तीन सौ किसके घर से आयेंगे? कितना चाहता है कि किसी से एक पैसा क़रज़ न ले, जिसका आता है, उसका पाई-पाई चुका दे; लेकिन हर तरह का कष्ट उठाने पर भी गला नहीं छूटता। इसी तरह सूद बढ़ता जायगा और एक दिन उसका घर-द्वार सब नीलाम हो जायगा, उसके बाल-बच्चे निराश्रय होकर भीख माँगते फिरेंगे। होरी जब काम-धन्धे से छुट्टी पाकर चिलम पीने लगता था, तो यह चिन्ता एक काली दीवार की भाँति चारों ओर से घेर लेती थी, जिसमें से निकलने की उसे कोई गली न सूझती थी। अगर सन्तोष था तो यही कि यह विपित्त अकेले उसी के सिर न थी। प्रायःसभी किसानों का यही हाल था। अधिकांश की दशा तो इससे भी बदतर थी। शोभा और हीरा को उससे अलग हुए अभी कुल तीन साल हुए थे; मगर दोनों पर चार-चार सौ का बोझ लद गया। झींगुर दो हल की खेती करता है। उस पर एक हज़ार से कुछ बेसी ही देना है। जियावन महतो के घर-भिखारी भीख भी नहीं पाता; लेकिन करजे का कोई ठिकाना नहीं। यहाँ कौन बचा है। सहसा सोना और रूपा दोनों दौड़ी हुई आयीं और एक साथ बोलीं — भैया गाय ला रहे हैं। आगे-आगे गाय, पीछे-पछे भीया हैं। रूपा ने पहले गोबर को आते देखा था। यह ख़बर सुनाने की सुर्ख़रूई उसे मिलनी चाहिए थी। सोना बराबर की हिस्सेदार हुई जाती है, यह उससे कैसे सहा जाता। उसने आगे बढ़कर कहा — पहले मैंने देखा था। तभी दौड़ी। बहन ने तो पीछे से देखा। सोना इस दावे को स्वीकार न कर सकी। बोली — तूने भैया को कहाँ पहचाना। तू तो कहती थी, कोई गाय भागी आ रही है। मैंने ही कहा, भैया हैं। दोनों फिर बाग़ की तरफ़ दौड़ीं, गाय का स्वागत करने के लिए। धनिया और होरी दोनों गाय बाँधने का प्रबन्ध करने लगे। होरी बोला — चलो, जल्दी से नाँद गाड़ दें।
धनिया के मुख पर जवानी चमक उठी थी — नहीं, पहले थाली में थोड़ा-सा आटा और गुड़ घोलकर रख दें। बेचारी धूप में चली होगी। प्यासी होगी। तुम जाकर नाँद गाड़ो, मैं घोलती हूँ।
‘ कहीं एक घंटी पड़ी थी। उसे ढूँढ़ ले। उसके गले में बाँधेंगे। ‘
‘ सोना कहाँ गयी। सहुआइन की दुकान से थोड़ा-सा काला डोरा मँगवा लो, गाय को नज़र बहुत लगती है। ‘
‘ आज मेरे मन की बड़ी भारी लालसा पूरी हो गयी। ‘
धनिया अपने हार्दिक उल्लास को दबाये रखना चाहती थी। इतनी बड़ी सम्पदा अपने साथ कोई नयी बाधा न लाये, यह शंका उसके निराश हृदय में कम्पन डाल रही थी। आकाश की ओर देखकर बोली — गाय के आने का आनन्द तो जब है कि उसका पौरा भी अच्छा हो। भगवान् के मन की बात है। मानो वह भगवान् को भी धोखा देना चाहती थी। भगवान् को भी दिखाना चाहती थी कि इस गाय के आने से उसे इतना आनन्द नहीं हुआ कि ईर्ष्यालु भगवान् सुख का पलड़ा ऊँचा करने के लिए कोई नयी विपत्ति भेज दें। वह अभी आटा घोल ही रही थी कि गोबर गाय को लिये बालकों के एक जुलूस के साथ द्वार पर पहुँचा। होरी दौड़कर गाय के गले से लिपट गया। धनिया ने आटा छोड़ दिया और जल्दी से एक पुरानी साड़ी का काला किनारा फाड़कर गाय के गले में बाँध दिया। होरी श्रद्धा-विह्वल नेत्रों से गाय को देख रहा था, मानो साक्षात् देवीजी ने घर में पदार्पण किया हो। आज भगवान् ने यह दिन दिखाया कि उसका घर गऊ के चरणों से पवित्र हो गया। यह सौभाग्य! न जाने किसके पुण्य-प्रताप से। धनिया ने भयातुर होकर कहा — खड़े क्या हो, आँगन में नाँद गाड़ दो। आँगन में, जगह कहाँ है? ‘
‘ बहुत जगह है। ‘
‘ मैं तो बाहर ही गाड़ता हूँ। ‘
‘ पागल न बनो। गाँव का हाल जानकर भी अनजान बनते हो। ‘
‘ अरे बित्ते-भर के आँगन में गाय कहाँ बँधेगी भाई? ‘
‘ जो बात नहीं जानते, उसमें टाँग मत अड़ाया करो। संसार-भर की बिद्या तुम्हीं नहीं पढ़े हो। ‘
होरी सचमुच आपे में न था। गऊ उसके लिए केवल भक्ति और श्रद्धा की वस्तु नहीं, सजीव सम्पत्ति भी थी। वह उससे अपने द्वार की शोभा और अपने घर का गौरव बढ़ाना चाहता था। वह चाहता था, लोग गाय को द्वार पर बँधे देखकर पूछें — यह किसका घर है? लोग कहें — होरी महतो का। तभी लड़कीवाले भी उसकी विभूति से प्रभावित होंगे। आँगन में बँधी, तो कौन देखेगा? धनिया इसके विपरीत सशंक थी। वह गाय को सात परदों के अन्दर छिपाकर रखना चाहती थी। अगर गाय आठों पहर कोठरी में रह सकती, तो शायद वह उसे बाहर न निकालने देती। यों हर बात में होरी की जीत होती थी। वह अपने पक्ष पर अड़ जाता था और धनिया को दबना पड़ता था, लेकिन आज धनिया के सामने होरी की एक न चली। धनिया लड़ने पर तैयार हो गयी। गोबर, सोना और रूपा, सारा घर होरी के पक्ष में था; पर धनिया ने अकेले सब को परास्त कर दिया। आज उसमें एक विचित्र आत्म-विश्वास और होरी में एक विचित्र विनय का उदय हो गया था। मगर तमाशा कैसे रुक सकता था। गाय डोली में बैठकर तो आयी न थी। कैसे सम्भव था कि गाँव में इतनी बड़ी बात हो जाय और तमाशा न लगे। जिसने सुना, सब काम छोड़कर देखने दौड़ा। यह मामूली देशी गऊ नहीं है। भोला के घर से अस्सी रुपये में आयी है। होरी अस्सी रुपए क्या देंगे, पचास-साठ रुपए में लाये होंगे। गाँव के इतिहास में पचास-साठ रुपए की गाय का आना भी अभूतपूर्व बात थी। बैल तो पचास रुपए के भी आये, सौ के भी आये, लेकिन गाय के लिए इतनी बड़ी रक़म किसान क्या खा के ख़र्च करेगा। यह तो ग्वालों ही का कलेजा है कि अँजुलियों रुपए गिन आते हैं। गाय क्या है, साक्षात् देवी का रूप है। दर्शकों, आलोचकों का ताँता लगा हुआ था, और होरी दौड़-दौड़कर सबका सत्कार कर रहा था। इतना विनम्र, इतना प्रसन्न चित्त वह कभी न था। सत्तर साल के बूढ़े पण्डित दातादीन लठिया टेकते हुए आये और पोपले मुँह से बोले — कहाँ हो होरी, तनिक हम भी तुम्हारी गाय देख लें। सुना बड़ी सुन्दर है।
होरी ने दौड़कर पालागन किया और मन में अभिमानमय उल्लास का आनन्द उठाता हुआ, बड़े सम्मान से पण्डितजी को आँगन में ले गया। महाराज ने गऊ को अपनी पुरानी अनुभवी आँखों से देखा, सींगे देखीं, थन देखा, पुट्ठा देखा और घनी सफ़ेद भौंहों के नीचे छिपी हुई आँखों में जवानी की उमंग भरकर बोले — कोई दोष नहीं है बेटा, बाल-भौंरी, सब ठीक। भगवान् चाहेंगे, तो तुम्हारे भाग खुल जायेंगे, ऐसे अच्छे लच्छन हैं कि वाह! बस रातिब न कम होने पाये। एक-एक बाछा सौ-सौ का होगा।
होरी ने आनन्द के सागर में डुबकियाँ खाते हुए कहा — सब आपका असीरबाद है, दादा! दातादीन ने सुरती की पीक थूकते हुए कहा — मेरा असीरबाद नहीं है बेटा, भगवान् की दया है। यह सब प्रभु की दया है। रुपए नगद दिये?
होरी ने बे-पर की उड़ाई। अपने महाजन के सामने भी अपनी समृद्धि-प्रदर्शन का ऐसा अवसर पाकर वह कैसे छोड़े। टके की नयी टोपी सिर पर रखकर जब हम अकड़ने लगते हैं, ज़रा देर के लिए किसी सवारी पर बैठकर जब हम आकाश में उड़ने लगते हैं, तो इतनी बड़ी विभूति पाकर क्यों न उसका दिमाग़ आसमान पर चढ़े। बोला — भोला ऐसा भलामानस नहीं है महाराज! नगद गिनाये, पूरे चौकस। अपने महाजन के सामने यह डींग मारकर होरी ने नादानी तो की थी; पर दातादीन के मुख पर असन्तोष का कोई चिह्न न दिखायी दिया। इस कथन में कितना सत्य है, यह उनकी उन बूझी आँखों से छिपा न रह सका जिनमें ज्योति की जगह अनुभव छिपा बैठा था। प्रसन्न होकर बोले — कोई हरज़ नहीं बेटा, कोई हरज़ नहीं। भगवान् सब कल्यान करेंगे। पाँच सेर दूध है इसमें बच्चे के लिए छोड़कर।
धनिया ने तुरन्त टोका — अरे नहीं महाराज, इतना दूध कहाँ। बुढ़िया तो हो गयी है। फिर यहाँ रातिब कहाँ धरा है। दातादीन ने मर्म-भरी आँखों से देखकर उसकी सतकर्ता को स्वीकार किया, मानो कह रहे हों,
‘ गृहिणी का यही धर्म है, सीटना मरदों का काम है, उन्हें सीटने दो। ‘
फिर रहस्य-भरे स्वर में बोले — बाहर न बाँधना, इतना कहे देते हैं।
धनिया ने पति की ओर विजयी आँखों से देखा, मानो कह रही हो — लो अब तो मानोगे। दातादीन से बोली — नहीं महाराज, बाहर क्या बाँधेंगे, भगवान् दें तो इसी आँगन में तीन गायें और बँध सकती हैं।
सारा गाँव गाय देखने आया। नहीं आये तो सोभा और हीरा जो अपने सगे भाई थे। होरी के हृदय में भाइयों के लिए अब भी कोमल स्थान था। वह दोनों आकर देख लेते और प्रसन्न हो जाते तो उसकी मनोकामना पूरी हो जाती। साँझ हो गयी। दोनों पुर लेकर लौट आये। इसी द्वार से निकले, पर पूछा कुछ नहीं। होरी ने डरते-डरते धनिया से कहा — न सोभा आया, न हीरा। सुना न होगा?
धनिया बोली — तो यहाँ कौन उन्हें बुलाने जाता है।
‘ तू बात तो समझती नहीं। लड़ने के लिए तैयार रहती है। भगवान् ने जब यह दिन दिखाया है, तो हमें सिर झुकाकर चलना चाहिए। आदमी को अपने संगों के मुँह से अपनी भलाई-बुराई सुनने की जितनी लालसा होती है, बाहरवालों के मुँह से नहीं। फिर अपने भाई लाख बुरे हों, हैं तो अपने भाई ही। अपने हिस्से-बखरे के लिए सभी लड़ते हैं, पर इससे ख़ून थोड़े ही बट जाता है। दोनों को बुलाकर दिखा देना चाहिए। नहीं कहेंगे गाय लाये, हमसे कहा तक नहीं। ‘
धनिया ने नाक सिकोड़कर कहा — मैंने तुमसे सौ बार हज़ार बार कह दिया मेरे मुँह पर भाइयों का बखान न किया करो, उनका नाम सुनकर मेरी देह में आग लग जाती है। सारे गाँव ने सुना, क्या उन्होंने न सुना होगा? कुछ इतनी दूर भी तो नहीं रहते। सारा गाँव देखने आया, उन्हीं के पाँवों में मेंहदी लगी हुई थी; मगर आये कैसे? जलन हो रही होगी कि इसके घर गाय आ गयी। छाती फटी जाती होगी।
दिया-बत्ती का समय आ गया था। धनिया ने जाकर देखा, तो बोतल में मिट्टी का तेल न था। बोतल उठा कर तेल लाने चली गयी। पैसे होते, तो रूपा को भेजती, उधार लाना था, कुछ मुँह देखी कहेगी; कुछ लल्लो-चप्पो करेगी, तभी तो तेल उधार मिलेगा। होरी ने रूपा को बुलाकर प्यार से गोद में बैठाया और कहा — ज़रा जाकर देख, हीरा काका आ गये कि नहीं। सोभा काका को भी देखती आना। कहना, दादा ने तुम्हें बुलाया है। न आये, हाथ पकड़कर खींच लाना।
रूपा ठुनककर बोली — छोटी काकी मुझे डाँटती है।
‘ काकी के पास क्या करने जायगी। फिर सोभा-बहू तो तुझे प्यार करती है? ‘
‘ सोभा काका मुझे चिढ़ाते हैं, कहते हैं … मैं न कहूँगी। ‘
‘ क्या कहते हैं, बता? ‘
‘ चिढ़ाते हैं। ‘
‘ क्या कहकर चिढ़ाते हैं? ‘
‘ कहते हैं, तेरे लिए मूस पकड़ रखा है। ले जा, भूनकर खा ले। ‘
होरी के अन्तस्तल में गुदगुदी हुई। ‘ तू कहती नहीं, पहले तुम खा लो, तो मैं खाऊँगी। ‘
‘ अम्माँ मने करती हैं। कहती हैं उन लोगों के घर न जाया करो। ‘
‘ तू अम्माँ की बेटी है कि दादा की? ‘
रूपा ने उसके गले में हाथ डालकर कहा — अम्माँ की, और हँसने लगी।
‘ तो फिर मेरी गोद से उतर जा। आज मैं तुझे अपनी थाली में न खिलाऊँगा। ‘
घर में एक ही फूल की थाली थी, होरी उसी थाली में खाता था। थाली में खाने का गौरव पाने के लिए रूपा होरी के साथ खाती थी। इस गौरव का परित्याग कैसे करे? हुमककर बोली — अच्छा, तुम्हारी।
‘ तो फिर मेरा कहना मानेगी कि अम्माँ का? ‘
‘ तुम्हारा। ‘
‘ तो जाकर हीरा और सोभा को खींच ला। ‘
‘ और जो अम्माँ बिगड़ें। ‘
‘ अम्माँ से कहने कौन जायगा। ‘
रूपा कूदती हुई हीरा के घर चली। द्वेष का मायाजाल बड़ी-बड़ी मछलियों को ही फँसाता है। छोटी मछलियाँ या तो उसमें फँसती ही नहीं या तुरन्त निकल जाती हैं। उनके लिए वह घातक जाल क्रीड़ा की वस्तु है, भय की नहीं। भाइयों से होरी की बोलचाल बन्द थी; पर रूपा दोनों घरों में आती-जाती थी। बच्चों से क्या बैर! लेकिन रूपा घर से निकली ही थी कि धनिया तेल लिए मिल गयी। उसने पूछा — साँझ की बेला कहाँ जाती है, चल घर। रूपा माँ को प्रसन्न करने के प्रलोभन को न रोक सकी।
धनिया ने डाँटा — चल घर, किसी को बुलाने नहीं जाना है। रूपा का हाथ पकड़े हुए वह घर आयी और होरी से बोली — मैंने तुमसे हज़ार बार कह दियाॡ मेरे लड़कों को किसी के घर न भेजा करो। किसी ने कुछ कर-करा दिया, तो मैं तुम्हें लेकर चाटूँगी? ऐसा ही बड़ा परेम है, तो आप क्यों नहीं जाते? अभी पेट नहीं भरा जान पड़ता है।
होरी नाँद जमा रहा था। हाथों में मिट्टी लपेटे हुए अज्ञान का अभिनय करके बोला — किस बात पर बिगड़ती है भाई! यह तो अच्छा नहीं लगता कि अन्धे कूकर की तरह हवा को भूँका करे। धनिया को कुप्पी में तेल डालना था, इस समय झगड़ा न बढ़ाना चाहती थी। रूपा भी लड़कों में जा मिली। पहर रात से ज़्यादा जा चुकी थी। नाँद गड़ चुकी थी। सानी और खली डाल दी गयी थी। गाय मनमारे उदास बैठी थी, जैसे कोई वधू ससुराल आयी हो। नाँद में मुँह तक न डालती थी। होरी और गोबर खाकर आधी-आधी रोटियाँ उसके लिए लाये, पर उसने सूँघा तक नहीं। मगर यह कोई नयी बात न थी। जानवरों को भी बहुधा घर छूट जाने का दुःख होता है। होरी बाहर खाट पर बैठ कर चिलम पीने लगा, तो फिर भाइयों की याद आयी। नहीं, आज इस शुभ अवसर पर वह भाइयों की उपेक्षा नहीं कर सकता। उसका हृदय वह विभूति पाकर विशाल हो गया था। भाइयों से अलग हो गया है, तो क्या हुआ। उनका दुश्मन तो नहीं है। यही गाय तीन साल पहले आयी होती, तो सभी का उस पर बराबर अधिकार होता। और कल को यही गाय दूध देने लगेगी, तो क्या वह भाइयों के घर दूध न भेजेगा या दही न भेजेगा? ऐसा तो उसका धरम नहीं है। भाई उसका बुरा चेतें, वह क्यों उसका बुरा चेते। अपनी-अपनी करनी तो अपने-अपने साथ है। उसने नारियल खाट के पाये से लगाकर रख दिया और हीरा के घर की ओर चला। सोभा का घर भी उधर ही था। दोनों अपने-अपने द्वार पर लेटे हुए थे। काफ़ी अँधेरा था। होरी पर उनमें से किसी की निगाह नहीं पड़ी। दोनों में कुछ बातें हो रही थीं। होरी ठिठक गया और उनकी बातें सुनने लगा। ऐसा आदमी कहाँ है, जो अपनी चर्चा सुनकर टाल जाय। हीरा ने कहा — जब तक एक में थे, एक बकरी भी नहीं ली। अब पछाई गाय ली जाती है। भाई का हक़ मारकर किसी को फलते-फूलते नहीं देखा।
सोभा बोला — यह तुम अन्याय कर रहे हो हीरा! भैया ने एक-एक पैसे का हिसाब दे दिया था। यह मैं कभी न मानूँगा कि उन्होंने पहले की कमाई छिपा रखी थी।
‘ तुम मानो चाहे न मानो, है यह पहले की कमाई। ‘
‘ किसी पर झूठा इलज़ाम न लगाना चाहिए। ‘
‘ अच्छा तो यह रुपए कहाँ से आ गये? कहाँ से हुन बरस पड़ा। उतने ही खेत तो हमारे पास भी हैं। उतनी ही उपज हमारी भी है। फिर क्यों हमारे पास कफ़न को कौड़ी नहीं और उनके घर नयी गाय आती है? ‘
‘ उधार लाये होंगे। ‘
‘ भोला उधार देनेवाला आदमी नहीं है। ‘
‘ कुछ भी हो, गाय है बड़ी सुन्दर, गोबर लिये जाता था, तो मैंने रास्ते में देखा। ‘
‘ बेईमानी का धन जैसे आता है, वैसे ही जाता है। भगवान् चाहेंगे, तो बहुत दिन गाय घर में न रहेगी। ‘
होरी से और न सुना गया। वह बीती बातों को बिसारकर अपने हृदय में स्नेह और सौहार्द भरे भाइयों के पास आया था। इस आघात ने जैसे उसके हृदय में छेद कर दिया और वह रस-भाव उसमें किसी तरह नहीं टिक रहा था। लत्ते और चिथड़े ठूँसकर अब उस प्रवाह को नहीं रोक सकता। जी में एक उबाल आया कि उसी क्षण इस आक्षेप का जवाब दे; लेकिन बात बढ़ जाने के भय से चुप रह गया। अगर उसकी नीयत साफ़ है, तो कोई कुछ नहीं कर सकता। भगवान् के सामने वह निर्दोष है। दूसरों की उसे परवाह नहीं। उलटे पाँव लौट आया। और वह जला हुआ तम्बाकू पीने लगा। लेकिन जैसे वह विष प्रतिक्षण उसकी धमनियों में फैलता जाता था। उसने सो जाने का प्रयास किया, पर नींद न आयी। बैलों के पास जाकर उन्हें सहलाने लगा, विष शान्त न हुआ। दूसरी चिलम भरी; लेकिन उसमें भी कुछ रस न था। विष ने जैसे चेतना को आक्तान्त कर दिया हो। जैसे नशे में चेतना एकांगी हो जाती है, जैसे फैला हुआ पानी एक दिशा में बहकर वेगवान हो जाता है, वही मनोवृत्ति उसकी हो रही थी। उसी उन्माद की दशा में वह अन्दर गया। अभी द्वार खुला हुआ था। आँगन में एक किनारे चटाई पर लेटी हुई धनिया सोना से देह दबवा रही थी और रूपा जो रोज़ साँझ होते ही सो जाती थी, आज खड़ी गाय का मुँह सहला रही थी। होरी ने जाकर गाय को खूँटे से खोल लिया और द्वार की ओर ले चला। वह इसी वक़्त गाय को भोला के घर पहुँचाने का दृढ़ निश्चय कर चुका था। इतना बड़ा कलंक सिर पर लेकर वह अब गाय को घर में नहीं रख सकता। किसी तरह नहीं। धनिया ने पूछा — कहाँ लिये जाते हो रात को?
होरी ने एक पग बढ़ाकर कहा — ले जाता हूँ भोला के घर। लौटा दूँगा।
धनिया को विस्मय हुआ, उठकर सामने आ गयी और बोली — लौटा क्यों दोगे? लौटाने के लिए ही लाये थे।
‘ हाँ इसके लौटा देने में ही कुशल है? ‘
‘ क्यों बात क्या है? इतने अरमान से लाये और अब लौटाने जा रहे हो? क्या भोला रुपए माँगते हैं? ‘
‘ नहीं, भोला यहाँ कब आया? ‘
‘ तो फिर क्या बात हुई? ‘
‘ क्या करोगी पूछकर? ‘
धनिया ने लपककर पगहिया उसके हाथ से छीन ली। उसकी चपल बुद्धि ने जैसे उड़ती हुई चिड़िया पकड़ ली। बोली — तुम्हें भाइयों का डर हो, तो जाकर उसके पैरों पर गिरो। मैं किसी से नहीं डरती। अगर हमारी बढ़ती देखकर किसी की छाती फटती है, तो फट जाय, मुझे परवाह नहीं है।
होरी ने विनीत स्वर में कहा — धीरे-धीरे बोल महरानी! कोई सुने, तो कहे, ये सब इतनी रात गये लड़ रहे हैं! मैं अपने कानों से क्या सुन आया हूँ, तू क्या जाने! यहाँ चरचा हो रही है कि मैंने अलग होते समय रुपए दबा लिये थे और भाइयों को धोखा दिया था, यही रुपए अब निकल रहे हैं। ‘
‘ हीरा कहता होगा? ‘
‘ सारा गाँव कह रहा है! हीरा को क्यों बदनाम करूँ। ‘
‘ सारा गाँव नहीं कह रहा है, अकेला हीरा कह रहा है। मैं अभी जाकर पूछती हूँ न कि तुम्हारे बाप कितने रुपए छोड़कर मरे थे। डाढ़ीजारों के पीछे हम बरबाद हो गये, सारी ज़िन्दगी मिट्टी में मिला दी, पाल-पोसकर संडा किया, और अब हम बेईमान हैं! मैं कहे देती हूँ, अगर गाय घर के बाहर निकली, तो अनर्थ हो जायगा। रख लिये हमने रुपए, दबा लिये, बीच खेत दबा लिये। डंके की चोट कहती हूँ, मैंने हंडे भर अशर्फ़ियाँ छिपा लीं। हीरा और सोभा और संसार को जो करना हो, कर ले। क्यों न रुपए रख लें? दो-दो संडों का ब्याह नहीं किया, गौना नहीं किया? ‘
होरी सिटपिटा गया। धनिया ने उसके हाथ से पगहिया छीन ली, और गाय को खूँटे से बाँधकर द्वार की ओर चली। होरी ने उसे पकड़ना चाहा; पर वह बाहर जा चुकी थी। वहीं सिर थामकर बैठ गया। बाहर उसे पकड़ने की चेष्टा करके वह कोई नाटक नहीं दिखाना चाहता था। धनिया के क्रोध को ख़ूब जानता था। बिगड़ती है, तो चंडी बन जाती है। मारो, काटो, सुनेगी नहीं; लेकिन हीरा भी तो एक ही ग़ुस्सेवर है। कहीं हाथ चला दे तो परलै ही हो जाय। नहीं, हीरा इतना मूरख नहीं है। मैंने कहाँ-से-कहाँ यह आग लगा दी। उसे अपने आप पर क्रोध आने लगा। बात मन में रख लेता, तो क्यों यह टंटा खड़ा होता। सहसा धनिया का ककर्श स्वर कान में आया। हीरा की गरज भी सुन पड़ी। फिर पुन्नी की पैनी पीक भी कानों में चुभी। सहसा उसे गोबर की याद आयी। बाहर लपककर उसकी खाट देखी। गोबर वहाँ न था। ग़ज़ब हो गया! गोबर भी वहाँ पहुँच गया। अब कुशल नहीं। उसका नया ख़ून है, न जाने क्या कर बैठे; लेकिन होरी वहाँ कैसे जाय? हीरा कहेगा, आप बोलते नहीं, जाकर इस डाइन को लड़ने के लिए भेज दिया। कोलाहल प्रतिक्षण प्रचंड होता जाता था। सारे गाँव में जाग पड़ गयी। मालूम होता था, कहीं आग लग गयी है, और लोग खाट से उठ-उठ बुझाने दौड़े जा रहे हैं। इतनी देर तक तो वह ज़ब्त किये बैठा रहा। फिर न रह गया। धनिया पर क्रोध आया। वह क्यों चढ़कर लड़ने गयी। अपने घर में आदमी न जाने किसको क्या कहता है। जब तक कोई मुँह पर बात न कहे, यही समझना चाहिए कि उसने कुछ नहीं कहा। होरी की कृषक प्रकृति झगड़े से भागती थी। चार बातें सुनकर ग़म खा जाना इससे कहीं अच्छा है कि आपस में तनाज़ा हो। कहीं मार-पीट हो जाय तो थाना-पुलिस हो, बँधे-बँधे फिरो, सब की चिरौरी करो, अदालत की धूल फाँको, खेती-बारी जहन्नुम में मिल जाय। उसका हीरा पर तो कोई बस न था; मगर धनिया को तो वह ज़बरदस्ती खींच ला सकता है। बहुत होगा, गालियाँ दे लेगी, एक-दो दिन रूठी रहेगी, थाना-पुलिस की नौबत तो न आयेगी। जाकर हीरा के द्वार पर सबसे दूर दीवार की आड़ में खड़ा हो गया। एक सेनापति की भाँति मैदान में आने के पहले परिस्थिति को अच्छी तरह समझ लेना चाहता था। अगर अपनी जीत हो रही है, तो बोलने की कोई ज़रूरत नहीं; हार हो रही है, तो तुरन्त कूद पड़ेगा। देखा तो वहाँ पचासों आदमी जमा हो गये हैं। पण्डित दातादीन, लाला पटेश्वरी, दोनों ठाकुर, जो गाँव के करता-धरता थे, सभी पहुँचे हुए हैं। धनिया का पल्ला हलका हो रहा था। उसकी उग्रता जनमत को उसके विरुद्ध किये देती थी। वह रणनीति में कुशल न थी। क्रोध में ऐसी जली-कटी सुना रही थी कि लोगों की सहानुभूति उससे दूर होती जाती थी। वह गरज रही थी — तू हमें देखकर क्यों जलता है? हमें देखकर क्यों तेरी छाती फटती है? पाल-पोसकर जवान कर दिया, यह उसका इनाम है? हमने न पाला होता तो आज कहीं भीख माँगते होते। रूख की छाँह भी न मिलती।
होरी को ये शब्द ज़रूरत से ज़्यादा कठोर जान पड़े। भाइयों का पालना-पोसना तो उसका धर्म था। उनके हिस्से की जायदाद तो उसके हाथ में थी। कैसे न पालता-पोसता? दुनिया में कहीं मुँह दिखाने लायक़ रहता? हीरा ने जवाब दिया — हम किसी का कुछ नहीं जानते। तेरे घर में कुत्तों की तरह एक टुकड़ा खाते थे और दिन-भर काम करते थे। जाना ही नहीं कि लड़कपन और जवानी कैसी होती है। दिन-दिन भर सूखा गोबर बीना करते थे। उस पर भी तू बिना दस गाली दिये रोटी न देती थी। तेरी-जैसी राच्छसिन के हाथ में पड़कर ज़िन्दगी तलख़ हो गयी।
धनिया और भी तेज़ हुई — ज़बान सँभाल, नहीं जीभ खींच लूँगी। राच्छसिन तेरी औरत होगी। तू है किस फेर में मूँड़ी-काटे, टुकड़े-ख़ोर, नमक-हराम।
दातादीन ने टोका — इतना कटु-वचन क्यों कहती है धनिया? नारी का धरम है कि ग़म खाय। वह तो उजड्डा है, क्यों उसके मुँह लगती है?
लाला पटेश्वरी पटवारी ने उसका समर्थन किया — बात का जवाब बात है, गाली नहीं। तूने लड़कपन में उसे पाला-पोसा; लेकिन यह क्यों भूल जाती है कि उसकी जायदाद तेरे हाथ में थी? धनिया ने समझा, सब-के-सब मिलकर मुझे नीचा दिखाना चाहते हैं। चौमुख लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हो गयी — अच्छा, रहने दो लाला! मैं सबको पहचानती हूँ। इस गाँव में रहते बीस साल हो गये। एक-एक की नस-नस पहचानती हूँ। मैं गाली दे रही हूँ, वह फूल बरसा रहा है, क्यों?
दुलारी सहुआइन ने आग पर घी डाला — बाक़ी बड़ी गाल-दराज़ औरत है भाई! मरद के मुँह लगती है। होरी ही जैसा मरद है कि इसका निबाह होता है। दूसरा मरद होता तो एक दिन न पटती। अगर हीरा इस समय ज़रा नर्म हो जाता, तो उसकी जीत हो जाती; लेकिन ये गालियाँ सुनकर आपे से बाहर हो गया। औरों को अपने पक्ष में देखकर वह कुछ शेर हो रहा था। गला फाड़कर बोला — चली जा मेरे द्वार से, नहीं जूतों से बात करूँगा। झोंटा पकड़कर उखाड़ लूँगा। गाली देती है डाइन! बेटे का घमंड हो गया है। ख़ून …
पाँसा पलट गया। होरी का ख़ून खौल उठा। बारूद में जैसे चिनगारी पड़ गयी हो। आगे आकर बोला — अच्छा बस, अब चुप हो जाओ हीरा, अब नहीं सुना जाता। मैं इस औरत को क्या कहूँ। जब मेरी पीठ में धूल लगती है, तो इसी के कारन। न जाने क्यों इससे चुप नहीं रहा जाता।
चारों ओर से हीरा पर बौछार पड़ने लगी। दातादीन ने निर्लज्ज कहा, पटेश्वरी ने गुंडा बनाया, झिंगुरीसिंह ने शैतान की उपाधि दी। दुलारी सहुआइन ने कपूत कहा। एक उद्दंड शब्द ने धनिया का पल्ला हल्का कर दिया था। दूसरे उग्र शब्द ने हीरा को गच्चे में डाल दिया। उस पर होरी के संयत वाक्य ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। हीरा सँभल गया। सारा गाँव उसके विरुद्ध हो गया। अब चुप रहने में ही उसकी कुशल है। क्रोध के नशे में भी इतना होश उसे बाक़ी था। धनिया का कलेजा दूना हो गया। होरी से बोली — सुन लो कान खोल के। भाइयों के लिए मरते रहते हो। ये भाई हैं, ऐसे भाई का मुँह न देखे। यह मुझे जूतों से मारेगा। खिला-पिला…
होरी ने डाँटा — फिर क्यों बक-बक करने लगी तू! घर क्यों नहीं जाती?
धनिया ज़मीन पर बैठ गयी और आर्त स्वर में बोली — अब तो इसके जूते खा के जाऊँगी। ज़रा इसकी मरदूमी देख लूँ, कहाँ है गोबर? अब किस दिन काम आयेगा? तू देख रहा है बेटा, तेरी माँ को जूते मारे जा रहे हैं!
यों विलाप करके उसने अपने क्रोध के साथ होरी के क्रोध को भी क्रियाशील बना डाला। आग को फूँक-फूँक कर उसमें ज्वाला पैदा कर दी। हीरा पराजित-सा पीछे हट गया। पुन्नी उसका हाथ पकड़कर घर की ओर खींच रही थी। सहसा धनिया ने सिंहनी की भाँति झपटकर हीरा को इतने ज़ोर से धक्का दिया कि वह धम से गिर पड़ा और बोली — कहाँ जाता है, जूते मार, मार जूते, देखूँ तेरी मरदूमी!
होरी ने दौड़कर उसका हाथ पकड़ लिया और घसीटता हुआ घर ले चला।

Godan / गोदान भाग 5/ प्रेमचंद / Premchand

Godan / गोदान भाग 1-5 / प्रेमचंद / Premchandउधर गोबर खाना खाकर अहिराने में पहुँचा। आज झुनिया से उसकी बहुत-सी बातें हुई थीं। जब वह गाय लेकर चला था, तो झुनिया आधे रास्ते तक उसके साथ आयी थी। गोबर अकेला गाय को कैसे ले जाता। अपरिचित व्यक्ति के साथ जाने में उसे आपत्ति होना स्वाभाविक था। कुछ दूर चलने के बाद झुनिया ने गोबर को मर्मभरी आँखों से देखकर कहा — अब तुम काहे को यहाँ कभी आओगे। एक दिन पहले तक गोबर कुमार था। गाँव में जितनी युवतियाँ थीं, वह या तो उसकी बहनें थीं या भाभियाँ। बहनों से तो कोई छेड़छाड़ हो ही क्या सकती थी, भाभियाँ अलबत्ता कभी-कभी उससे ठठोली किया करती थीं, लेकिन वह केवल सरल विनोद होता था। उनकी दृष्टि में अभी उसके यौवन में केवल फूल लगे थे। जब तक फल न लग जायँ, उस पर ढेले फेंकना व्यर्थ की बात थी। और किसी ओर से प्रोत्साहन न पाकर उसका कौमार्य उसके गले से चिपटा हुआ था। झुनिया का वंचित मन, जिसे भाभियों के व्यंग और हास-विलास ने और भी लोलुप बना दिया था, उसके कौमार्य ही पर ललचा उठा। और उस कुमार में भी पत्ता खड़कते ही किसी सोये हुए शिकारी जानवर की तरह यौवन जाग उठा।
गोबर ने आवरण-हीन रसिकता के साथ कहा — अगर भिक्षुक को भीख मिलने की आसा हो, तो वह दिन-भर और रात-भर दाता के द्वार पर खड़ा रहे। झुनिया ने कटाक्ष करके कहा — तो यह कहो तुम भी मतलब के यार हो। गोबर की धमनियों का रक्त प्रबल हो उठा। बोला — भूखा आदमी अगर हाथ फैलाये तो उसे क्षमा कर देना चाहिए।
झुनिया और गहरे पानी में उतरी — भिक्षुक जब तक दस द्वारे न जाय, उसका पेट कैसे भरेगा। मैं ऐसे भिक्षुकों को मुँह नहीं लगाती। ऐसे तो गली-गली मिलते हैं। फिर भिक्षुक देता क्या है, असीस! असीसों से तो किसी का पेट नहीं भरता। मन्द-बुद्धि गोबर झुनिया का आशय न समझ सका। झुनिया छोटी-सी थी तभी से ग्राहकों के घर दूध लेकर जाया करती थी। ससुराल में उसे ग्राहकों के घर दूध पहुँचाना पड़ता था। आजकल भी दही बेचने का भार उसी पर था। उसे तरह-तरह के मनुष्यों से साबिक़ा पड़ चुका था। दो-चार रुपए उसके हाथ लग जाते थे, घड़ी-भर के लिए मनोरंजन भी हो जाता था; मगर यह आनन्द जैसे मँगनी की चीज़ हो। उसमें टिकाव न था, समर्पण न था, अधिकार न था। वह ऐसा प्रेम चाहती थी, जिसके लिए वह जिये और मरे, जिस पर वह अपने को समर्पित कर दे। वह केवल जुगनू की चमक नहीं, दीपक का स्थायी प्रकाश चाहती थी। वह एक गृहस्थ की बालिका थी, जिसके गृहिणीत्व को रसिकों की लगावटबाज़ियों ने कुचल नहीं पाया था। गोबर ने कामना से उद्दीप्त मुख से कहा — भिक्षुक को एक ही द्वार पर भरपेट मिल जाय, तो क्यों द्वार-द्वार घूमे?
झुनिया ने सदय भाव से उसकी ओर ताका। कितना भोला है, कुछ समझता ही नहीं। ‘ भिक्षुक को एक द्वार पर भरपेट कहाँ मिलता है। उसे तो चुटकी ही मिलेगी। सर्बस तो तभी पाओगे, जब अपना सर्बस दोगे। ‘
‘ मेरे पास क्या है झुनिया? ‘
‘ तुम्हारे पास कुछ नहीं है? मैं तो समझती हूँ, मेरे लिए तुम्हारे पास जो कुछ है, वह बड़े-बड़े लखपतियों के पास नहीं है। तुम मुझसे भीख न माँगकर मुझे मोल ले सकते हो। ‘
गोबर उसे चकित नेत्रों से देखने लगा। झुनिया ने फिर कहा — और जानते हो, दाम क्या देना होगा? मेरा होकर रहना पड़ेगा। फिर किसी के सामने हाथ फैलाये देखूँगी, तो घर से निकाल दूँगी। गोबर को जैसे अँधेरे में टटोलते हुए इच्छित वस्तु मिल गयी। एक विचित्र भय-मिश्रित आनन्द से उसका रोम-रोम पुलकित हो उठा। लेकिन यह कैसे होगा? झुनिया को रख ले, तो रखेली को लेकर घर में रहेगा कैसे। बिरादरी का झंझट जो है। सारा गाँव काँव-काँव करने लगेगा। सभी दुसमन हो जायँगे। अम्माँ तो इसे घर में घुसने भी न देगी। लेकिन जब स्त्री होकर यह नहीं डरती, तो पुरुष होकर वह क्यों डरे। बहुत होगा, लोग उसे अलग कर देंगे। वह अलग ही रहेगा। झुनिया जैसी औरत गाँव में दूसरी कौन है? कितनी समझदारी की बातें करती है। क्या जानती नहीं कि मैं उसके जोग नहीं हूँ। फिर भी मुझसे प्रेम करती है। मेरी होने को राज़ी है। गाँववाले निकाल देंगे, तो क्या संसार में दूसरा गाँव ही नहीं है? और गाँव क्यों छोड़े? मातादीन ने चमारिन बैठा ली, तो किसी ने क्या कर लिया। दातादीन दाँत कटकटाकर रह गये। मातादीन ने इतना ज़रूर किया कि अपना धरम बचा लिया। अब भी बिना असनान-पूजा किये मुँह में पानी नहीं डालते। दोनों जून अपना भोजन आप पकाते हैं और अब तो अलग भोजन नहीं पकाते। दातादीन और वह साथ बैठकर खाते हैं। झिंगुरीसिंह ने बाम्हनी रख ली, उनका किसी ने क्या कर लिया? उनका जितना आदर-मान तब था, उतना ही आज भी है; बल्कि और बढ़ गया। पहले नौकरी खोजते फिरते थे। अब उसके रुपए से महाजन बन बैठे। ठकुराई का रोब तो था ही, महाजनी का रोब भी जम गया। मगर फिर ख़्याल आया, कहीं झुनिया दिल्लगी न कर रही हो। पहले इसकी ओर से निश्चिन्त हो जाना आवश्यक था। उसने पूछा — मन से कहती हो झूना कि ख़ाली लालच दे रही हो? मैं तो तुम्हारा हो चुका; लेकिन तुम भी हो जाओगी?
‘ तुम मेरे हो चुके, कैसे जानूँ? ‘
‘ तुम जान भी चाहो, तो दे दूँ। ‘
‘ जान देने का अरथ भी समझते हो? ‘
‘ तुम समझा दो न। ‘
‘ जान देने का अरथ है, साथ रहकर निबाह करना। एक बार हाथ पकड़कर उमिर भर निबाह करते रहना, चाहे दुनिया कुछ कहे, चाहे माँ-बाप, भाई-बन्द, घर-द्वार सब कुछ छोड़ना पड़े। मुँह से जान देनेवाले बहुतों को देख चुकी। भौरों की भाँति फूल का रस लेकर उड़ जाते हैं। तुम भी वैसे ही न उड़ जाओगे? ‘ बर के एक हाथ में गाय की पगहिया थी। दूसरे हाथ से उसने झुनिया का हाथ पकड़ लिया। जैसे बिजली के तार पर हाथ गया हो। सारी देह यौवन के पहले स्पर्श से काँप उठी। कितनी मुलायम, गुदगुदी, कोमल कलाई! झुनिया ने उसका हाथ हटाया नहीं, मानो इस स्पर्श का उसके लिए कोई महत्व ही न हो। फिर एक क्षण के बाद गम्भीर भाव से बोली — आज तुमने मेरा हाथ पकड़ा है, याद रखना।
‘ ख़ूब याद रखूँगा झूना और मरते दम तक निबाहूँगा।
झुनिया अविश्वास-भरी मुस्कान से बोली — इसी तरह तो सब कहते हैं गोबर! बल्कि इससे भी मीठे, चिकने शब्दों में। अगर मन में कपट हो, मुझे बता दो। सचेत हो जाऊँ। ऐसों को मन नहीं देती। उनसे तो ख़ाली हँस-बोल लेने का नाता रखती हूँ। बरसों से दूध लेकर बाज़ार जाती हूँ। एक-से-एक बाबू, महाजन, ठाकुर, वकील, अमले, अफ़सर अपना रसियापन दिखाकर मुझे फँसा लेना चाहते हैं। कोई छाती पर हाथ रखकर कहता है, झुनिया, तरसा मत; कोई मुझे रसीली, नसीली चितवन से घूरता है, मानो मारे प्रेम के बेहोश हो गया है, कोई रुपए दिखाता है, कोई गहने। सब मेरी ग़ुलामी करने को तैयार रहते हैं, उमिर भर, बल्कि उस जनम में भी, लेकिन मैं उन सबों की नस पहचानती हूँ। सब-के-सब भौंरे रस लेकर उड़ जानेवाले। मैं भी उन्हें ललचाती हूँ, तिरछी नज़रों से देखती हूँ, मुसकराती हूँ। वह मुझे गधी बनाते हैं, मैं उन्हें उल्लू बनाती हूँ। मैं मर जाऊँ, तो उनकी आँखों में आँसू न आयेगा। वह मर जायँ, तो मैं कहूँगी, अच्छा हुआ, निगोड़ा मर गया। मैं तो जिसकी हो जाऊँगी, उसकी जनम-भर के लिए हो जाऊँगी, सुख में, दुःख में, सम्पत में, बिपत में, उसके साथ रहूँगी। हरजाई नहीं हूँ कि सबसे हँसती-बोलती फिरूँ। न रुपए की भूखी हूँ, न गहने-कपड़े की। बस भले आदमी का संग चाहती हूँ, जो मुझे अपना समझे और जिसे मैं भी अपना समझूँ। एक पण्डित जी बहुत तिलक-मुद्रा लगाते हैं। आध सेर दूध लेते हैं। एक दिन उनकी घरवाली कहीं नेवते में गयी थी। मुझे क्या मालूम। और दिनों की तरह दूध लिये भीतर चली गयी। वहाँ पुकारती हूँ, बहूजी, बहूजी! कोई बोलता ही नहीं। इतने में देखती हूँ तो पण्डितजी बाहर के किवाड़ बन्द किये चले आ रहे हैं। मैं समझ गयी इसकी नीयत ख़राब है। मैंने डाँटकर पूछा — तुमने किवाड़ क्यों बन्द कर लिये? क्या बहूजी कहीं गयी हैं? घर में सन्नाटा क्यों है? उसने कहा — वह एक नेवते में गयी हैं; और मेरी ओर दो पग और बढ़ आया। मैंने कहा — तुम्हें दूध लेना हो तो लो, नहीं मैं जाती हूँ। बोला — आज तो तुम यहाँ से न जाने पाओगी झूनी रानी, रोज़-रोज़ कलेजे पर छुरी चलाकर भाग जाती हो, आज मेरे हाथ से न बचोगी। तुमसे सच कहती हूँ, गोबर, मेरे रोएँ खड़े हो गये। गोबर आवेश में बोला — मैं बच्चा को देख पाऊँ, तो खोदकर ज़मीन में गाड़ दूँ। ख़ून चूस लूँ। तुम मुझे दिखा तो देना। ‘ सुनो तो, ऐसों का मुँह तोड़ने के लिए मैं ही काफ़ी हूँ। मेरी छाती धक-धक करने लगी। यह कुछ बदमासी कर बैठे, तो क्या करूँगी। कोई चिल्लाना भी तो न सुनेगा; लेकिन मन में यह निश्चय न कर लिया था कि मेरी देह छुई, तो दूध की भरी हाँड़ी उसके मुँह पर पटक दूँगी। बला से चार-पाँच सेर दूध जायगा, बचा को याद तो हो जायगी। कलेजा मज़बूत करके बोली — इस फेर में न रहना पण्डितजी! मैं अहीर की लड़की हूँ। मूँछ का एक-एक बाल चुनवा लूँगी। यही लिखा है तुम्हारे पोथी-पत्रे में कि दूसरों की बहू-बेटी को अपने घर में बन्द करके बेईज़्ज़त करो। इसीलिए तिलक-मुद्रा का जाल बिछाये बैठे हो? लगा हाथ जोड़ने, पैरों पड़ने — एक प्रेमी का मन रख दोगी, तो तुम्हारा क्या बिगड़ जायगा, झूना रानी! कभी-कभी ग़रीबों पर दया किया करो, नहीं भगवान् पूछेंगे, मैंने तुम्हें इतना रूपधन दिया था, तुमने उससे एक ब्राह्मण का उपकार भी नहीं किया, तो क्या जवाब दोगी? बोले, मैं विप्र हूँ, रुपए-पैसे का दान तो रोज़ ही पाता हूँ, आज रूप का दान दे दो। ‘ मैंने यों ही उसका मन परखने को कह दिया, मैं पचास रुपए लूँगी। सच कहती हूँ गोबर, तुरन्त कोठरी में गया और दस-दस के पाँच नोट निकालकर मेरे हाथों में देने लगा और जब मैंने नोट ज़मीन पर गिरा दिये और द्वार की ओर चली, तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं तो पहले ही से तैयार थी। हाँड़ी उसके मुँह पर दे मारी। सिर से पाँव तक सराबोर हो गया। चोट भी ख़ूब लगी। सिर पकड़कर बैठ गया और लगा हाय-हाय करने। मैंने देखा, अब यह कुछ नहीं कर सकता, तो पीठ में दो लातें जमा दीं और किवाड़ खोलकर भागी। ‘ गोबर ठट्ठा मारकर बोला — बहुत अच्छा किया तुमने। दूध से नहा गया होगा। तिलक-मुद्रा भी धुल गयी होगी। मूँछें भी क्यों न उखाड़ लीं? ‘ दूसरे दिन मैं फिर उसके घर गयी। उसकी घरवाली आ गयी थी। अपने बैठक में सिर में पट्टी बाँधे पड़ा था। मैंने कहा — कहो तो कल की तुम्हारी करतूत खोल दूँ पण्डित ! लगा हाथ जोड़ने। मैंने कहा — अच्छा थूककर चाटो, तो छोड़ दूँ। सिर ज़मीन पर रगड़कर कहने लगा — अब मेरी इज़्ज़त तुम्हारे हाथ है झूना, यही समझ लो कि पण्डिताइन मुझे जीता न छोड़ेंगी। मुझे भी उस पर दया आ गयी। ‘ गोबर को उसकी दया बुरी लगी — यह तुमने क्या किया? उसकी औरत से जाकर कह क्यों नहीं दिया? जूतों से पीटती। ऐसे पाखण्डियों पर दया न करनी चाहिए। तुम मुझे कल उनकी सूरत दिखा दो, फिर देखना कैसी मरम्मत करता हूँ। झुनिया ने उसके अर्ध-विकसित यौवन को देखकर कहा — तुम उसे न पाओगे। ख़ासा देव है। मुफ़्त का माल उड़ाता है कि नहीं। गोबर अपने यौवन का यह तिरस्कार कैसे सहता। डींग मारकर बोला — मोटे होने से क्या होता है। यहाँ फ़ौलाद की हड्डियाँ हैं। तीन सौ डंड रोज़ मारता हूँ। दूध-घी नहीं मिलता, नहीं अब तक सीना यों निकल आया होता। यह कहकर उसने छाती फैला कर दिखायी। झुनिया ने आश्वस्त आँखों से देखा — अच्छा, कभी दिखा दूँगी। लेकिन यहाँ तो सभी एक-से हैं, तुम किस-किस की मरम्मत करोगे। न जाने मरदों की क्या आदत है कि जहाँ कोई जवान, सुन्दर औरत देखी और बस लगे घूरने, छाती पीटने। और यह जो बड़े आदमी कहलाते हैं, ये तो निरे लम्पट होते हैं। फिर मैं तो कोई सुन्दरी नहीं हूँ … । गोबर ने आपत्ति की — तुम! तुम्हें देखकर तो यही जी चाहता है कि कलेजे में बिठा लें। झुनिया ने उसकी पीठ में हलका-सा घूँसा जमाया — लगे औरों की तरह तुम भी चापलूसी करने। मैं जैसी कुछ हूँ, वह मैं जानती हूँ। मगर इन लोगों को तो जवान मिल जाय। घड़ी-भर मन बहलाने को और क्या चाहिये। गुन तो आदमी उसमें देखता है, जिसके साथ जनम-भर निबाह करना हो। सुनती भी हूँ और देखती भी हूँ, आजकल बड़े घरों की विचित्र लीला है। जिस महल्ले में मेरी ससुराल है, उसी में गपडू-गपडू नाम के कासमीरी रहते थे। बड़े भारी आदमी थे। उनके यहाँ पाँच सेर दूध लगता था। उनकी तीन लड़कियाँ थीं। कोई बीस-बीस, पच्चीस-पच्चीस की होंगी। एक-से-एक सुन्दर। तीनों बड़े कालिज में पढ़ने जाती थीं। एक साइत कालिज में पढ़ाती भी थी। तीन सौ का महीना पाती थी। सितार वह सब बजावें, हरमुनियाँ वह सब बजावें, नाचें वह, गावें वह; लेकिन ब्याह कोई न करती थी। राम जाने, वह किसी मरद को पसन्द नहीं करती थीं कि मरद उन्हीं को पसन्द नहीं करता था। एक बार मैंने बड़ी बीबी से पूछा, तो हँसकर बोलीं — हम लोग यह रोग नहीं पालते; मगर भीतर-ही-भीतर ख़ूब गुलछर्रे उड़ाती थीं। जब देखूँ, दो-चार लौंडे उनको घेरे हुए हैं। जो सबसे बड़ी थी, वह तो कोट-पतलून पहनकर घोड़े पर सवार होकर मर्दो के साथ सैर करने जाती थी। सारे सहर में उनकी लीला मशहूर थी। गपडू बाबू सिर नीचा किये, जैसे मुँह में कालिख-सी लगाये रहते थे। लड़कियों को डाँटते थे, समझाते थे; पर सब-की-सब खुल्लमखुल्ला कहती थीं — तुमको हमारे बीच में बोलने का कुछ मजाल नहीं है। हम अपने मन की रानी हैं, जो हमारी इच्छा होगी, वह हम करेंगे। बेचारा बाप जवान-जवान लड़कियों से क्या बोले। मारने-बाँधने से रहा, डाँटने-डपटने से रहा; लेकिन भाई बड़े आदमियों की बातें कौन चलाये। वह जो कुछ करें, सब ठीक है। उन्हें तो बिरादरी और पंचायत का भी डर नहीं। मेरी समझ में तो यही नहीं आता कि किसी का रोज़-रोज़ मन कैसे बदल जाता है। क्या आदमी गाय-बकरी से भी गया-बीता हो गया है? लेकिन किसी को बुरा नहीं कहती भाई! मन को जैसा बनाओ, वैसा बनता है। ऐसों को भी देखती हूँ, जिन्हें रोज़-रोज़ की दाल-रोटी के बाद कभी-कभी मुँह का सवाद बदलने के लिए हलवा-पूरी भी चाहिए। और ऐसों को भी देखती हूँ, जिन्हें घर की रोटी-दाल देखकर ज्वर आता है। कुछ बेचारियाँ ऐसी भी हैं, जो अपनी रोटी-दाल में ही मगन रहती हैं। हलवा-पूरी से उन्हें कोई मतलब नहीं। मेरी दोनों भावजों ही को देखो। हमारे भाई काने-कुबड़े नहीं हैं, दस जवानों में एक जवान हैं; लेकिन भावजों को नहीं भाते। उन्हें तो वह चाहिए, जो सोने की बालियाँ बनवाये, महीन साड़ियाँ लाये, रोज़ चाट खिलाये। बालियाँ और मिठाइयाँ मुझे भी कम अच्छी नहीं लगतीं; लेकिन जो कहो कि इसके लिए अपनी लाज बेचती फिरूँ तो भगवान् इससे बचायँ। एक के साथ मोटा-झोटा खा-पहनकर उमिर काट देना, बस अपना तो यही राग है। बहुत करके तो मर्द ही औरतों को बिगाड़ते हैं। जब मर्द इधर-उधर ताक-झाँक करेगा तो औरत भी आँख लड़ायेगी। मर्द दूसरी औरतों के पीछे दौड़ेगा, तो औरत भी ज़रूर मर्दो के पीछे दौड़ेगी। मर्द का हरजाईपन औरत को भी उतना ही बुरा लगता है, जितना औरत का मदद्म को। यही समझ लो। मैंने तो अपने आदमी से साफ़-साफ़ कह दिया था, अगर तुम इधर-उधर लपके, तो मेरी भी जो इच्छा होगी वह करूँगी। यह चाहो कि तुम तो अपने मन की करो और औरत को मार के डर से अपने क़ाबू में रखो, तो यह न होगा। तुम खुले-ख़ज़ाने करते हो, वह छिपकर करेगी। तुम उसे जलाकर सुखी नहीं रह सकते। गोबर के लिए यह एक नयी दुनिया की बातें थीं। तन्मय होकर सुन रहा था। कभी-कभी तो आप-ही-आप उसके पाँव रुक जाते, फिर सचेत होकर चलने लगता। झुनिया ने पहले अपने रूप से मोहित किया था। आज उसने अपने ज्ञान और अनुभव से भरी बातों और अपने सतीत्व के बखान से मुग्ध कर लिया। ऐसी रूप, गुण, ज्ञान की आगरी उसे मिल जाय, तो धन्य भाग। फिर वह क्यों पंचायत और बिरादरी से डरे? झुनिया ने जब देख लिया कि उसका गहरा रंग जम गया, तो छाती पर हाथ रखकर जीभ दाँत से काटती हुई बोली — अरे, यह तो तुम्हारा गाँव आ गया! तुम भी बड़े मुरहे हो, मुझसे कहा भी नहीं कि लौट जाओ। यह कहकर वह लौट पड़ी। गोबर ने आग्रह करके कहा — एक छन के लिए मेरे घर क्यों नहीं चली चलती? अम्माँ भी तो देख लें। झुनिया ने लज्जा से आँखें चुराकर कहा — तुम्हारे घर यों न जाऊँगी। मुझे तो यही अचरज होता है कि मैं इतनी दूर कैसे आ गयी। अच्छा, बताओ अब कब आओगे? रात को मेरे द्वार पर अच्छी संगत होगी। चले आना, मैं अपने पिछवाड़े मिलूँगी।
‘ और जो न मिली? ‘
‘ तो लौट जाना। ‘
‘ तो फिर मैं न आऊँगा। ‘
‘ आना पड़ेगा, नहीं कहे देती हूँ। ‘
‘ तुम भी वचन दो कि मिलोगी? ‘
‘ मैं वचन नहीं देती। ‘
‘ तो मैं भी नहीं आता। ‘
‘ मेरी बला से! ‘
झुनिया अँगूठा दिखाकर चल दी। प्रथम-मिलन में ही दोनों एक दूसरे पर अपना-अपना अधिकार जमा चुके थे। झुनिया जानती थी, वह आयेगा, कैसे न आयेगा? गोबर जानता था, वह मिलेगी, कैसे न मिलेगी? गोबर जब अकेला गाय को हाँकता हुआ चला, तो ऐसा लगता था, मानो स्वर्ग से गिर पड़ा है।

Godan / गोदान भाग 6-10 / प्रेमचंद / Premchand

Godan / गोदान भाग 6 / प्रेमचंद / Premchand

Godan / गोदान भाग 6-10 / प्रेमचंद / Premchandजेठ की उदास और गर्म सन्ध्या सेमरी की सड़कों और गलियों में पानी के छिड़काव से शीतल और प्रसन्न हो रही थी। मंडप के चारों तरफ़ फूलों और पौधों के गमले सजा दिये गये थे और बिजली के पंखे चल रहे थे। राय साहब अपने कारख़ाने में बिजली बनवा लेते थे। उनके सिपाही पीली वर्दियाँ डाटे, नीले साफ़े बाँधे, जनता पर रोब जमाते फिरते थे। नौकर उजले कुरते पहने और केसरिया पाग बाँधे, मेहमानों और मुखियों का आदर-सत्कार कर रहे थे। उसी वक़्त एक मोटर सिंह-द्वार के सामने आकर रुकी और उसमें से तीन महानुभाव उतरे। वह जो खद्दर का कुरता और चप्पल पहने हुए हैं उनका नाम पिण्डत ओंकारनाथ है। आप दैनिक-पत्र ‘ बिजली ‘ के यशस्वी सम्पादक हैं, जिन्हें देश-चिन्ता ने घुला डाला है। दूसरे महाशप जो कोट-पैंट में हैं, वह हैं तो वकील, पर वकालत न चलने के कारण एक बीमा-कम्पनी की दलाली करते हैं और ताल्लुक़ेदारों को महाजनों और बैंकों से क़रज़ दिलाने में वकालत से कहीं ज़्यादा कमाई करते हैं। इनका नाम है श्यामबिहारी तंखा और तीसरे सज्जन जो रेशमी अचकन और तंग पाजामा पहने हुए हैं, मिस्टर बी. मेहता, युनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र के अध्यापक हैं। ये तीनों सज्जन राय साहब के सहपाठियों में हैं और शगुन के उत्सव में निमंत्रित हुए हैं। आज सारे इलाक़े के असामी आयेंगे और शगुन के रुपए भेंट करेंगे। रात को धनुष-यज्ञ होगा और मेहमानों की दावत होगी। होरी ने पाँच रुपए शगुन के दे दिये हैं और एक गुलाबी मिरज़ई पहने, गुलाबी पगड़ी बाँधे, घुटने तक कछनी काछे, हाथ में एक खुरपी लिये और मुख पर पाउडर लगवाये राजा जनक का माली बन गया है और गरूर से इतना फूल उठा है मानो यह सारा उत्सव उसी के पुरुषार्थ से हो रहा है। राय साहब ने मेहमानों का स्वागत किया। दोहरे बदन के ऊँचे आदमी थे, गठा हुआ शरीर, तेजस्वी चेहरा, ऊँचा माथा, गोरा रंग, जिस पर शर्बती रेशमी चादर ख़ूब खिल रही थी। पिण्डत ओंकारनाथ ने पूछा — अबकी कौन-सा नाटक खेलने का विचार है? मेरे रस की तो यहाँ वही वस्तु है। राय साहब ने तीनों सज्जनों को अपनी रावटी के सामने कुसिर्यों पर बैठाते हुए कहा — पहले तो धनुष-यज्ञ होगा, उसके बाद एक प्रहसन। नाटक कोई अच्छा न मिला। कोई तो इतना लम्बा कि शायद पाँच घंटों में भी ख़तम न हो और कोई इतना क्लिष्ट कि शायद यहाँ एक व्यक्ति भी उसका अर्थ न समझे। आख़िर मैंने स्वयम् एक प्रहसन लिख डाला, जो दो घंटों में पूरा हो जायगा। ओंकारनाथ को राय साहब की रचना-शक्ति में बहुत सन्देह था। उनका ख़्याल था कि प्रतिभा तो ग़रीबी ही में चमकती है दीपक की भाँति, जो अँधेरे ही में अपना प्रकाश दिखाता है। उपेक्षा के साथ, जिसे छिपाने की भी उन्होंने चेष्टा नहीं की, पण्डित ओंकारनाथ ने मुँह फेर लिया। मिस्टर तंखा इन बेमतलब की बातों में न पड़ना चाहते थे, फिर भी राय साहब को दिखा देना चाहते थे कि इस विषय में उन्हें कुछ बोलने का अधिकार है। बोले — नाटक कोई भी अच्छा हो सकता है, अगर उसके अभिनेता अच्छे हों। अच्छा-से-अच्छा नाटक बुरे अभिनेताओं के हाथ में पड़कर बुरा हो सकता है। जब तक स्टेज पर शिक्षित अभिनेत्रियाँ नहीं आतीं, हमारी नाट्य-कला का उद्धार नहीं हो सकता। अबकी तो आपने कौंसिल में प्रश्नों की धूम मचा दी। मैं तो दावे के साथ कह सकता हूँ कि किसी मेम्बर का रिकार्ड इतना शानदार नहीं है। दर्शन के अध्यापक मिस्टर मेहता इस प्रशंसा को सहन न कर सकते थे। विरोध तो करना चाहते थे पर सिद्धान्त की आड़ में। उन्होंने हाल ही में एक पुस्तक कई साल के परिश्रम से लिखी थी। उसकी जितनी धूम होनी चाहिए थी, उसकी शतांश भी नहीं हुई थी। इससे बहुत दुखी थे। बोले — भाई, मैं प्रश्नों का कायल नहीं। मैं चाहता हूँ हमारा जीवन हमारे सिद्धान्तों के अनुकूल हो। आप कृषकों के शुभेच्छु हैं, उन्हें तरह-तरह की रियायत देना चाहते हैं, ज़मींदारों के अधिकार छीन लेना चाहते हैं, बिल्क उन्हें आप समाज का शाप कहते हैं, फिर भी आप ज़मींदार हैं, वैसे ही ज़मींदार जैसे हज़ारों और ज़मींदार हैं। अगर आपकी धारणा है कि कृषकों के साथ रियायत होनी चाहिए, तो पहले आप ख़ुद शुरू करें — काश्तकारों को बग़ैर नज़राने लिए पट्टे लिख दें, बेगार बन्द कर दें, इज़ाफ़ा लगान को तिलांजलि दे दें, चरावर ज़मीन छोड़ दें। मुझे उन लोगों से ज़रा भी हमददीर् नहीं है, जो बातें तो करते हैं कम्युनिस्टों की-सी, मगर जीवन है रईसों का-सा, उतना ही विलासमय, उतना ही स्वार्थ से भरा हुआ। राय साहब को आघात पहुँचा। वकील साहब के माथे पर बल पड़ गये और सम्पादकजी के मुँह में जैसे कालिख लग गयी। वह ख़ुद समिष्टवाद के पुजारी थे, पर सीधे घर में आग न लगाना चाहते थे। तंखा ने राय साहब की वकालत की — मैं समझता हूँ, राय साहब का अपने असामियों के साथ जितना अच्छा व्यवहार है, अगर सभी ज़मींदार वैसे ही हो जायँ, तो यह प्रश्न ही न रहे। मेहता ने हथौड़े की दूसरी चोट जमायी — मानता हूँ, आपका अपने असामियों के साथ बहुत अच्छा बतार्व है, मगर प्रश्न यह है कि उसमें स्वार्थ है या नहीं। इसका एक कारण क्या यह नहीं हो सकता कि मद्धिम आँच में भोजन स्वादिष्ट पकता है? गुड़ से मारनेवाला ज़हर से मारनेवाले की अपेक्षा कहीं सफल हो सकता है। मैं तो केवल इतना जानता हूँ, हम या तो साम्यवादी हैं या नहीं हैं। हैं तो उसका व्यवहार करें, नहीं हैं, तो बकना छोड़ दें। मैं नक़ली ज़िन्दगी का विरोधी हूँ। अगर मांस खाना अच्छा समझते हो तो खुलकर खाओ। बुरा समझते हो, तो मत खाओ, यह तो मेरी समझ में आता है; लेकिन अच्छा समझना और छिपकर खाना, यह मेरी समझ में नहीं आता। मैं तो इसे कायरता भी कहता हूँ और धूर्तता भी, जो वास्तव में एक हैं। राय साहब सभा-चतुर आदमी थे। अपमान और आघात को धैर्य और उदारता से सहने का उन्हें अभ्यास था। कुछ असमंजस में पड़े हुए बोले — आपका विचार बिल्कुल ठीक है मेहताजी। आप जानते हैं, मैं आपकी साफ़गोई का कितना आदर करता हूँ, लेकिन आप यह भूल जाते हैं कि अन्य यात्राओं की भाँति विचारों की यात्रा में भी पड़ाव होते हैं, और आप एक पड़ाव को छोड़कर दूसरे पड़ाव तक नहीं जा सकते। मानव-जीवन का इतिहास इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। मैं उस वातावरण में पला हूँ, जहाँ राजा ईश्वर है और ज़मींदार ईश्वर का मन्त्री। मेरे स्वर्गवासी पिता असामियों पर इतनी दया करते थे कि पाले या सूखे में कभी आधा और कभी पूरा लगान माफ़ कर देते थे। अपने बखार से अनाज निकालकर असामियों को खिला देते थे। घर के गहने बेचकर कन्याओं के विवाह में मदद देते थे; मगर उसी वक़्त तक, जब तक प्रजा उनको सरकार और धमार्वतार कहती रहे, उन्हें अपना देवता समझकर उनकी पूजा करती रहे। प्रजा का पालन उनका सनातन-धर्म था, लेकिन अधिकार के नाम पर वह कौड़ी का एक दाँत भी फोड़कर देना न चाहते थे। मैं उसी वातावरण में पला हूँ और मुझे गर्व है कि मैं व्यवहार में चाहे जो कुछ करूँ, विचारों में उनसे आगे बढ़ गया हूँ और यह मानने लग गया हूँ कि जब तक किसानों को ये रियायतें अधिकार के रूप में न मिलेंगी, केवल सद्भावना के आधार पर उनकी दशा सुधर नहीं सकती। स्वेच्छा अगर अपना स्वार्थ छोड़ दे, तो अपवाद है। मैं ख़ुद सद्भावना करते हुए भी स्वार्थ नहीं छोड़ सकता और चाहता हूँ कि हमारे वर्ग को शासन और नीति के बल से अपना स्वार्थ छोड़ने के लिए मज़बूर कर दिया जाय। इसे आप कायरता कहेंगे, मैं इसे विवशता कहता हूँ। मैं इसे स्वीकार करता हूँ कि किसी को भी दूसरे के श्रम पर मोटे होने का अधिकार नहीं है। उपजीवी होना घोर लज्जा की बात है। कर्म करना प्राणीमात्र का धर्म है। समाज की ऐसी व्यवस्था, जिसमें कुछ लोग मौज करें और अधिक लोग पीसें और खपें, कभी सुखद नहीं हो सकती। पूँजी और शिक्षा, जिसे मैं पूँजी ही का एक रूप समझता हूँ, इनका क़िला जितनी जल्द टूट जाय, उतना ही अच्छा है। जिन्हें पेट की रोटी मयस्सर नहीं, उनके अफ़सर और नियोजक दस-दस पाँच-पाँच हज़ार फटकारें, यह हास्यास्पद है और लज्जास्पद भी। इस व्यवस्था ने हम ज़मींदारों में कितनी विलासिता, कितना दुराचार, कितनी पराधीनता और कितनी निर्लज्जता भर दी है, यह मैं ख़ूब जानता हूँ; लेकिन मैं इन कारणों से इस व्यवस्था का विरोध नहीं करता। मेरा तो यह कहना है कि अपने स्वार्थ की दृष्टि से भी इसका अनुमोदन नहीं किया जा सकता। इस शान को निभाने के लिए हमें अपनी आत्मा की इतनी हत्या करनी पड़ती है कि हममें आत्माभिमान का नाम भी नहीं रहा। हम अपने असामियों को लूटने के लिए मज़बूर हैं। अगर अफ़सरों को क़ीमती-क़ीमती डालियाँ न दें, तो बागी समझे जायँ, शान से न रहें, तो कंजूस कहलायें। प्रगति की ज़रा-सी आहट पाते ही हम काँप उठते हैं, और अफ़सरों के पास फ़रियाद लेकर दौड़ते हैं कि हमारी रक्षा कीजिए। हमें अपने ऊपर विश्वास नहीं रहा, न पुरुषार्थ ही रह गया। बस, हमारी दशा उन बच्चों की-सी है, जिन्हें चम्मच से दूध पिलाकर पाला जाता है, बाहर से मोटे, अन्दर से दुर्बल, सत्वहीन और मुहताज।
मेहता ने ताली बजाकर कहा — हियर, हियर! आपकी ज़बान में जितनी बुद्धि है, काश उसकी आधी भी मस्तिष्क में होती! खेद यही है कि सब कुछ समझते हुए भी आप अपने विचारों को व्यवहार में नहीं लाते।
ओंकारनाथ बोले — अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, मिस्टर मेहता! हमें समय के साथ चलना भी है और उसे अपने साथ चलाना भी। बुरे कामों में ही सहयोग की ज़रूरत नहीं होती। अच्छे कामों के लिए भी सहयोग उतना ही ज़रूरी है। आप ही क्यों आठ सौ रुपए महीने हड़पते हैं, जब आपके करोड़ों भाई केवल आठ रुपए में अपना निर्वाह कर रहे हैं? राय साहब ने ऊपरी खेद, लेकिन भीतरी सन्तोष से सम्पादकजी को देखा और बोले — व्यक्तिगत बातों पर आलोचना न कीजिए सम्पादक जी! हम यहाँ समाज की व्यवस्था पर विचार कर रहे हैं।
मिस्टर मेहता उसी ठंठे मन से बोले — नहीं-नहीं, मैं इसे बुरा नहीं समझता। समाज व्यक्ति ही से बनता है। और व्यक्ति को भूलकर हम किसी व्यवस्था पर विचार नहीं कर सकते। मैं इसलिये इतना वेतन लेता हूँ कि मेरा इस व्यवस्था पर विश्वास नहीं है। सम्पादकजी को अचम्भा हुआ — अच्छा, तो आप वर्तमान व्यवस्था के समर्थक हैं?
‘ मैं इस सिद्धान्त का समर्थक हूँ कि संसार में छोटे-बड़े हमेशा रहेंगे, और उन्हें हमेशा रहना चाहिए। इसे मिटाने की चेष्टा करना मानव-जाति के सर्वनाश का कारण होगा। ‘
कुश्ती का जोड़ बदल गया। राय साहब किनारे खड़े हो गये। सम्पादक जी मैदान में उतरे — आप इस बीसवीं शताब्दी में भी ऊँच-नीच का भेद मानते हैं।
‘ जी हाँ, मानता हूँ और बड़े ज़ोरों से मानता हूँ। जिस मत के आप समर्थक हैं, वह भी तो कोई नयी चीज़ नहीं। जब से मनुष्य में ममत्व का विकास हुआ, तभी उस मत का जन्म हुआ। बुद्ध और प्लेटो और ईसा सभी समाज में समता के प्रवर्तक थे। यूनानी और रोमन और सीरियाई, सभी सभ्यताओं ने उसकी परीक्षा की पर अप्राकृतिक होने के कारण कभी वह स्थायी न बन सकी। ‘
‘ आपकी बातें सुनकर मुझे आश्चर्य हो रहा है। ‘
‘ आश्चर्य अज्ञान का दूसरा नाम है। ‘
‘ मैं आपका कृतज्ञ हूँ! अगर आप इस विषय पर कोई लेखमाला शुरू कर दें। ‘
‘ जी, मैं इतना अहमक नहीं हूँ, अच्छी रक़म दिलवाइए, तो अलबत्ता। ‘
‘ आपने सिद्धान्त ही ऐसा लिया है कि खुले ख़ज़ाने पब्लिक को लूट सकते हैं। ‘
‘ मुझमें और आपमें अन्तर इतना ही है कि मैं जो कुछ मानता हूँ उस पर चलता हूँ। आप लोग मानते कुछ हैं, करते कुछ हैं। धन को आप किसी अन्याय से बराबर फैला सकते हैं। लेकिन बुद्धि को, चरित्र को, और रूप को, प्रतिभा को और बल को बराबर फैलाना तो आपकी शक्ति के बाहर है। छोटे-बड़े का भेद केवल धन से ही तो नहीं होता। मैंने बड़े-बड़े धन-कुबेरों को भिक्षुकों के सामने घुटने टेकते देखा है, और आपने भी देखा होगा। रूप के चौखट पर बड़े-बड़े महीप नाक रगड़ते हैं। क्या यह सामाजिक विषमता नहीं है? आप रूप की मिसाल देंगे। वहाँ इसके सिवाय और क्या है कि मिल के मालिक ने राज कर्मचारी का रूप ले लिया है। बुद्धि तब भी राज करती थी, अब भी करती है और हमेशा करेगी। तश्तरी में पान आ गये थे। राय साहब ने मेहमानों को पान और इलायची देते हुए कहा — बुद्धि अगर स्वार्थ से मुक्त हो, तो हमें उसकी प्रभुता मानने में कोई आपित्त नहीं। समाजवाद का यही आदर्श है। हम साधु-महात्माओं के सामने इसीलिए सिर झुकाते हैं कि उनमें त्याग का बल है। इसी तरह हम बुद्धि के हाथ में अधिकार भी देना चाहते हैं, सम्मान भी, नेतृत्व भी; लेकिन सम्पत्ति किसी तरह नहीं। बुद्धि का अधिकार और सम्मान व्यक्ति के साथ चला जाता है, लेकिन उसकी सम्पत्ति विष बोने के लिए, उसके बाद और भी प्रबल हो जाती है। बुद्धि के बग़ैर किसी समाज का संचालन नहीं हो सकता। हम केवल इस बिच्छू का डंक तोड़ देना चाहते हैं।
दूसरी मोटर आ पहुँची और मिस्टर खन्ना उतरे, जो एक बैंक के मैनेजर और शक्करमिल के मैनेजिंग डाइरेक्टर हैं। दो देवियाँ भी उनके साथ थीं। राय साहब ने दोनों देवियों को उतारा। वह जो खद्दर की साड़ी पहने बहुत गम्भीर और विचारशील-सी हैं, मिस्टर खन्ना की पत्नी, कामिनी खन्ना हैं। दूसरी महिला जो ऊँची एड़ी का जूता पहने हुए हैं और जिनकी मुख-छवि पर हँसी फूटी पड़ती है, मिस मालती हैं। आप इंगलैंड से डाक्टरी पढ़ आयी हैं और अब प्रैकिटस करती हैं। ताल्लुक़ेदारों के महलों में उनका बहुत प्रवेश है। आप नवयुग की साक्षात् प्रतिमा हैं। गात कोमल, पर चपलता कूट-कूट कर भरी हुई। झिझक या संकोच का कहीं नाम नहीं, मेक-अप में प्रवीण, बला की हाज़िर-जवाब, पुरुष-मनोविज्ञान की अच्छी जानकार, आमोद-प्रमोद को जीवन का तत्व समझनेवाली, लुभाने और रिझाने की कला में निपुण। जहाँ आत्मा का स्थान है, वहाँ प्रदर्शन; जहाँ हृदय का स्थान है, वहाँ हाव-भाव; मनोद्गारों पर कठोर निग्रह, जिसमें इच्छा या अभिलाषा का लोप-सा हो गया। आपने मिस्टर मेहता से हाथ मिलाते हुए कहा — सच कहती हूँ, आप सूरत से ही फ़िलासफ़र मालूम होते हैं। इस नयी रचना में तो आपने आत्मवादियों को उधेड़कर रख दिया। पढ़ते-पढ़ते कई बार मेरे जी में ऐसा आया कि आपसे लड़ जाऊँ। फ़िलासफ़रों में सहृदयता क्यों ग़ायब हो जाती है?
मेहता झेंप गये। बिना-ब्याहे थे और नवयुग की रमिणयों से पनाह माँगते थे। पुरुषों की मंडली में ख़ूब चहकते थे; मगर ज्योंही कोई महिला आयी और आपकी ज़बान बन्द हुई। जैसे बुद्धि पर ताला लग जाता था। स्त्रियों से शिष्ट व्यवहार तक करने की सुधि न रहती थी। मिस्टर खन्ना ने पूछा — फ़िलासफ़रों की सूरत में क्या ख़ास बात होती है देवीजी?
मालती ने मेहता की ओर दया-भाव से देखकर कहा — मिस्टर मेहता बुरा न मानें, तो बतला दूँ। खन्ना मिस मालती के उपासकों में थे। जहाँ मिस मालती जाय, वहाँ खन्ना का पहुँचना लाज़िम था। उनके आस-पास भौंरे की तरह मँडराते रहते थे। हर समय उनकी यही इच्छा रहती थी कि मालती से अधिक-से-अधिक वही बोलें, उनकी निगाह अधिक-से-अधिक उन्हीं पर रहे। खन्ना ने आँख मारकर कहा — फ़िलासफ़र किसी की बात का बुरा नहीं मानते। उनकी यही सिफ़त है।
‘ तो सुनिए, फ़िलासफ़र हमेशा मुर्दा-दिल होते हैं, जब देखिए, अपने विचारों में मगन बैठे हैं। आपकी तरफ़ ताकेंगे, मगर आपको देखेंगे नहीं; आप उनसे बातें किये जायँ, कुछ सुनेंगे नहीं। जैसे शून्य में उड़ रहे हों। ‘
सब लोगों ने क़हक़हा मारा। मिस्टर मेहता जैसे ज़मीन में गड़ गये। ‘ आक्सफ़ोर्ड में मेरे फ़िलासफ़ी के प्रोफ़ेसर मिस्टर हसबेंड थे … ‘ खन्ना ने टोका — नाम तो निराला है।
‘ जी हाँ, और थे क्वाँरे …। ‘
‘ मिस्टर मेहता भी तो क्वाँरे हैं … ‘
‘ यह रोग सभी फ़िलासफ़रों को होता है। ‘
अब मेहता को अवसर मिला। बोले — आप भी तो इसी मरज़ में गिरफ़्तार हैं?
‘मैंने प्रतिज्ञा की है किसी फ़िलासफ़र से शादी करूँगी और यह वर्ग शादी के नाम से घबराता है। हसबेंड साहब तो स्त्री को देखकर घर में छिप जाते थे। उनके शिष्यों में कई लड़कियाँ थीं। अगर उनमें से कोई कभी कुछ पूछने के लिए उनके आफ़िस में चली जाती थी तो आप ऐसे घबड़ा जाते जैसे कोई शेर आ गया हो। हम लोग उन्हें ख़ूब छेड़ा करते थे, मगर थे बेचारे सरल-हृदय। कई हज़ार की आमदनी थी, पर मैंने उन्हें हमेशा एक ही सूट पहने देखा। उनकी एक विधवा बहन थी। वही उनके घर का सारा प्रबन्ध करती थीं। मिस्टर हसबेंड को तो खाने की फ़िक्र ही न रहती थी। मिलने-वालों के डर से अपने कमरे का द्वार बन्द करके लिखा-पढ़ी करते थे। भोजन का समय आ जाता, तो उनकी बहन आहिस्ता से भीतर के द्वार से उनके पास जाकर किताब बन्द कर देती थीं, तब उन्हें मालूम होता कि खाने का समय हो गया। रात को भी भोजन का समय बँधा हुआ था। उनकी बहन कमरे की बत्ती बुझा दिया करती थीं। एक दिन बहन ने किताब बन्द करना चाहा, तो आपने पुस्तक को दोनों हाथों से दबा लिया और बहन-भाई में ज़ोर-आज़माई होने लगी। आख़िर बहन उनकी पहियेदार कुर्सी को खींच कर भोजन के कमरे में लायी। ‘
राय साहब बोले — मगर मेहता साहब तो बड़े ख़ुशमिज़ाज और मिलनसार हैं, नहीं इस हंगामे में क्यों आते।
‘ तो आप फ़िलासफ़र न होंगे। जब अपनी चिन्ताओं से हमारे सिर में दर्द होने लगता है, तो विश्व की चिन्ता सिर पर लादकर कोई कैसे प्रसन्न रह सकता है! ‘
उधर सम्पादकजी श्रीमती खन्ना से अपनी आर्थिक कठिनाइयों की कथा कह रहे थे — बस यों समझिए श्रीमतीजी, कि सम्पादक का जीवन एक दीर्घ विलाप है, जिसे सुनकर लोग दया करने के बदले कानों पर हाथ रख लेते हैं। बेचारा न अपना उपकार कर सके न औरों का। पब्लिक उससे आशा तो यह रखती है कि हर-एक आन्दोलन में वह सबसे आगे रहे जेल, जाय, मार खाय, घर के माल-असबाब की क़ुर्क़ी कराये, यह उसका धर्म समझा जाता है, लेकिन उसकी कठिनाइयों की ओर किसी का ध्यान नहीं। हो तो वह सब कुछ। उसे हर-एक विद्या, हर-एक कला में पारंगत होना चाहिए; लेकिन उसे जीवित रहने का अधिकार नहीं। आप तो आजकल कुछ लिखती ही नहीं। आपकी सेवा करने का जो थोड़ा-सा सौभाग्य मुझे मिल सकता है, उससे क्यों मुझे वंचित रखती हैं? मिसेज़ खन्ना को कविता लिखने का शौक़ था। इस नाते से सम्पादकजी कभी-कभी उनसे मिल आया करते थे; लेकिन घर के काम-धन्धों में व्यस्त रहने के कारण इधर बहुत दिनों से कुछ लिख नहीं सकी थी। सच बात तो यह है कि सम्पादकजी ने ही उन्हें प्रोत्साहित करके कवि बनाया था। सच्ची प्रतिभा उनमें बहुत कम थी।
‘ क्या लिखूँ कुछ सूझता ही नहीं। आपने कभी मिस मालती से कुछ लिखने को नहीं कहा? ‘
सम्पादकजी उपेक्षा भाव से बोले — उनका समय मूल्यवान है कामिनी देवी! लिखते तो वह लोग हैं, जिनके अन्दर कुछ दर्द है, अनुराग है, लगन है, विचार है, जिन्होंने धन और भोग-विलास को जीवन का लक्ष्य बना लिया, वह क्या लिखेंगे। कामिनी ने ईर्ष्या-मिश्रित विनोद से कहा — अगर आप उनसे कुछ लिखा सकें, तो आपका प्रचार दुगना हो जाय। लखनऊ में तो ऐसा कोई रसिक नहीं है, जो आपका ग्राहक न बन जाय।
‘ अगर धन मेरे जीवन का आदर्श होता, तो आज मैं इस दशा में न होता। मुझे भी धन कमाने की कला आती है। आज चाहूँ, तो लाखों कमा सकता हूँ; लेकिन यहाँ तो धन को कभी कुछ समझा ही नहीं। साहित्य की सेवा अपने जीवन का ध्येय है और रहेगा। ‘
‘ कम-से-कम मेरा नाम तो ग्राहकों में लिखवा दीजिए। ‘
‘ आपका नाम ग्राहकों में नहीं, संरक्षकों में लिखूँगा। ‘ ‘ संरक्षकों में रानियों-महारानियों को रखिए, जिनकी थोड़ी-सी ख़ुशामद करके आप अपने पत्र को लाभ की चीज़ बना सकते हैं। ‘
‘ मेरी रानी-महारानी आप हैं। मैं तो आपके सामने किसी रानी-महारानी की हक़ीक़त नहीं समझता। जिसमें दया और विवेक है, वही मेरी रानी है। ख़ुशामद से मुझे घृणा है। ‘
कामिनी ने चुटकी ली — लेकिन मेरी ख़ुशामद तो आप कर रहे हैं सम्पादकजी! सम्पादकजी ने गम्भीर होकर श्रद्धा-पूर्ण स्वर में कहा — यह ख़ुशामद नहीं है देवीजी, हृदय के सच्चे उद्गार हैं। राय साहब ने पुकारा — सम्पादकजी, ज़रा इधर आइएगा। मिस मालती आपसे कुछ कहना चाहती हैं। सम्पादकजी की वह सारी अकड़ ग़ायब हो गयी। नम्रता और विनय की मूरित्त बने हुए आकर खड़े हो गये। मालती ने उन्हें सदय नेत्रों से देखकर कहा — मैं अभी कह रही थी कि दुनिया में मुझे सबसे ज़्यादा डर सम्पादकों से लगता है। आप लोग जिसे चाहें, एक क्षण में बिगाड़ दें। मुझी से चीफ़ सेक्रेटरी साहब ने एक बार कहा — अगर मैं इस ब्लडी ओंकारनाथ को जेल में बन्द कर सकूँ, तो अपने को भाग्यवान समझूँ। ओंकारनाथ की बड़ी-बड़ी मूँछें खड़ी हो गयीं। आँखों में गर्व की ज्योति चमक उठी। यों वह बहुत ही शान्त प्रकृति के आदमी थे; लेकिन ललकार सुनकर उनका पुरुषत्व उत्तेजित हो जाता था। दृढ़ता भरे स्वर में बोले — इस कृपा के लिए आपका कृतज्ञ हूँ। उस बज़्म में अपना ज़िक्र तो आता है, चाहे किसी तरह आये। आप सेक्रेटरी महोदय से कह दीजियेगा कि ओंकारनाथ उन आदमियों में नहीं है जो इन धमकियों से डर जाय। उसकी क़लम उसी वक़्त विश्राम लेगी, जब उसकी जीवन-यात्रा समाप्त हो जायगी। उसने अनीति और स्वेच्छाचार को जड़ से खोदकर फेंक देने का ज़िम्मा लिया है। मिस मालती ने और उकसाया — मगर मेरी समझ में आपकी यह नीति नहीं आती कि जब आप मामूली शिष्टाचार से अधिकारियों का सहयोग प्राप्त कर सकते हैं, तो क्यों उनसे कन्नी काटते हैं? अगर आप अपनी आलोचनाओं में आग और विष ज़रा कम दें, तो मैं वादा करती हूँ कि आपको गवर्नमेंट से काफ़ी मदद दिला सकती हूँ। जनता को तो आपने देख लिया। उससे अपील की, उसकी ख़ुशामद की, अपनी कठिनाइयों की कथा कही, मगर कोई नतीजा न निकला। अब ज़रा अधिकारियों को भी आज़मा देखिए। तीसरे महीने आप मोटर पर न निकलने लगें, और सरकारी दावतों में निमंत्रित न होने लगें तो मुझे जितना चाहें कोसिएगा। तब यही रईस और नेशनलिस्ट जो आपकी परवा नहीं करते, आपके द्वार के चक्कर लगायेंगे।
ओंकारनाथ अभिमान के साथ बोले — यही तो मैं नहीं कर सकता देवीजी! मैंने अपने सिद्धान्तों को सदैव ऊँचा और पवित्र रखा है, और जीते-जी उनकी रक्षा करूँगा। दौलत के पुजारी तो गली-गली मिलेंगे, मैं सिद्धान्त के पुजारियों में हूँ।
‘ मैं इसे दम्भ कहती हूँ। ‘
‘ आपकी इच्छा। ‘
‘ धन की आपको परवा नहीं है? ‘
‘ सिद्धान्तों का ख़ून करके नहीं। ‘
‘ तो आपके पत्र में विदेशी वस्तुओं के विज्ञापन क्यों होते हैं? मैंने किसी भी दूसरे पत्र में इतने विदेशी विज्ञापन नहीं देखे। आप बनते तो हैं आदर्शवादी और सिद्धान्तवादी, पर अपने फ़ायदे के लिए देश का धन विदेश भेजते हुए आपको ज़रा भी खेद नहीं होता? आप किसी तकर् से इस नीति का समर्थन नहीं कर सकते। ‘
ओंकारनाथ के पास सचमुच कोई जवाब न था। उन्हें बग़लें झाँकते देखकर राय साहब ने उनकी हिमायत की — तो आख़िर आप क्या चाहती हैं? इधर से भी मारे जायँ, उधर से भी मारे जायँ, तो पत्र कैसे चले? मिस मालती ने दया करना न सीखा था। फ्र पत्र नहीं चलता, तो बन्द कीजिए। अपना पत्र चलाने के लिए आपको विदेशी वस्तुओं के प्रचार का कोई अधिकार नहीं। अगर आप मज़बूर हैं, तो सिद्धान्त का ढोंग छोड़िए। मैं तो सिद्धान्तवादी पत्रों को देखकर जल उठती हूँ। जी चाहता है, दियासलाई दिखा दूँ। जो व्यक्ति कर्म और वचन में सामंजस्य नहीं रख सकता, वह और चाहे जो कुछ हो सिद्धान्तवादी नहीं है। ‘ मेहता खिल उठे। थोड़ी देर पहले उन्होंने ख़ुद इसी विचार का प्रतिपादन किया था। उन्हें मालूम हुआ कि इस रमणी में विचार की शक्ति भी है, केवल तितली नहीं। संकोच जाता रहा। ‘ यही बात अभी मैं कह रहा था। विचार और व्यवहार में सामंजस्य का न होना ही धूर्तता है, मक्कारी है। ‘ मिस मालती प्रसन्न मुख से बोली — तो इस विषय में आप और मैं एक हैं, और मैं भी फ़िलासफ़र होने का दावा कर सकती हूँ। खन्ना की जीभ में खुजली हो रही थी। बोले — आपका एक-एक अंग फ़िलासफ़ी में डूबा हुआ है। मालती ने उनकी लगाम खींची — अच्छा, आपको भी फ़िलासफ़ी में दख़ल है। मैं तो समझती थी, आप बहुत पहले अपनी फ़िलासफ़ी को गंगा में डुबो बैठे। नहीं, आप इतने बैंकों और कम्पनियों के डाइरेक्टर न होते।
राय साहब ने खन्ना को सँभाला — तो क्या आप समझती हैं कि फ़िलासफ़रों को हमेशा फ़ाकेमस्त रहना चाहिए।
‘ जी हाँ। फ़िलासफ़र अगर मोह पर विजय न पा सके, तो फ़िलासफ़र कैसा? ‘
‘ इस लिहाज़ से तो शायद मिस्टर मेहता भी फ़िलासफ़र न ठहरें! ‘
मेहता ने जैसे आस्तीन चढ़ाकर कहा — मैंने तो कभी यह दावा नहीं किया राय साहब! मैं तो इतना ही जानता हूँ कि जिन औजारों से लोहार काम करता है, उन्हीं औजारों से सोनार नहीं करता। क्या आप चाहते हैं, आम भी उसी दशा में फलें-फूलें जिसमें बबूल या ताड़? मेरे लिए धन केवल उन सुविधाओं का नाम है जिनमें मैं अपना जीवन सार्थक कर सकूँ। धन मेरे लिए बढ़ने और फलने-फूलनेवाली चीज़ नहीं, केवल साधन है। मुझे धन की बिल्कुल इच्छा नहीं, आप वह साधन जुटा दें, जिसमें मैं अपने जीवन का उपयोग कर सकूँ।
ओंकारनाथ समिष्टवादी थे। व्यक्ति की इस प्रधानता को कैसे स्वीकार करते? ‘ इसी तरह हर एक मज़दूर कह सकता है कि उसे काम करने की सुविधाओं के लिए एक हज़ार महीने की ज़रूरत है। ‘
‘ अगर आप समझते हैं कि उस मज़दूर के बग़ैर आपका काम नहीं चल सकता, तो आपको वह सुविधाएँ देनी पड़ेंगी। अगर वही काम दूसरा मज़दूर थोड़ी-सी मज़दूरी में कर दे, तो कोई वजह नहीं कि आप पहले मज़दूर की ख़ुशामद करें। ‘
‘ अगर मज़दूरों के हाथ में अधिकार होता, तो मज़दूरों के लिए स्त्री और शराब भी उतनी ही ज़रूरी सुविधा हो जाती जितनी फ़िलासफ़रों के लिए। ‘
‘ तो आप विश्वास मानिए, मैं उनसे ईर्ष्या न करता। ‘
‘ जब आपका जीवन सार्थक करने के लिए स्त्री इतनी आवश्यक है, तो आप शादी क्यों नहीं कर लेते? ‘
मेहता ने निस्संकोच भाव से कहा — इसीलिए कि मैं समझता हूँ, मुक्त भोग आत्मा के विकास में बाधक नहीं होता। विवाह तो आत्मा को और जीवन को पिंजरे में बन्द कर देता है।
खन्ना ने इसका समर्थन किया — बन्धन और निग्रह पुरानी थ्योरियाँ हैं। नयी थ्योरी है मुक्त भोग। मालती ने चोटी पकड़ी — तो अब मिसेज़ खन्ना को तलाक़ के लिए तैयार रहना चाहिए।
‘ तलाक़ का बिल पास तो हो। ‘
‘ शायद उसका पहला उपयोग आप ही करेंगे। ‘
कामिनी ने मालती की ओर विष-भरी आँखों से देखा और मुँह सिकोड़ लिया, मानो कह रही है — खन्ना तुम्हें मुबारक रहें, मुझे परवा नहीं।
मालती ने मेहता की तरफ़ देखकर कहा — इस विषय में आपके क्या विचार हैं मिस्टर मेहता?
मेहता गम्भीर हो गये। वह किसी प्रश्न पर अपना मत प्रकट करते थे, तो जैसे अपनी सारी आत्मा उसमें डाल देते थे।
‘ विवाह को मैं सामाजिक समझौता समझता हूँ और उसे तोड़ने का अधिकार न पुरुष को है न स्त्री को। समझौता करने के पहले आप स्वाधीन हैं, समझौता हो जाने के बाद आपके हाथ कट जाते हैं। ‘
‘ तो आप तलाक़ के विरोधी हैं, क्यों? ‘
‘ पक्का। ‘
‘ और मुक्त भोग वाला सिद्धान्त? ‘
‘ वह उनके लिए है, जो विवाह नहीं करना चाहते। ‘
‘ अपनी आत्मा का सम्पूर्ण विकास सभी चाहते हैं; फिर विवाह कौन करे और क्यों करे? ‘
‘ इसीलिए कि मुक्ति सभी चाहते हैं; पर ऐसे बहुत कम हैं, जो लोभ से अपना गला छुड़ा सकें। ‘
‘ आप श्रेष्ठ किसे समझते हैं, विवाहित जीवन को या अविवाहित जीवन को? ‘
‘ समाज की दृष्टि से विवाहित जीवन को, व्यक्ति की दृष्टि से अविवाहित जीवन को। ‘
धनुष-यज्ञ का अभिनय निकट था। दस से एक तक धनुष-यज्ञ, एक से तीन तक प्रहसन, यह प्रोग्राम था। भोजन की तैयारी शुरू हो गयी। मेहमानों के लिए बँगले में रहने का अलग-अलग प्रबन्ध था। खन्ना-परिवार के लिए दो कमरे रखे गये थे। और भी कितने ही मेहमान आ गये थे। सभी अपने-अपने कमरों में गये और कपड़े बदल-बदलकर भोजनालय में जमा हो गये। यहाँ छूत-छात का कोई भेद न था। सभी जातियों और वर्णो के लोग साथ भोजन करने बैठे। केवल सम्पादक ओंकारनाथ सबसे अलग अपने कमरे में फलाहार करने गये। और कामिनी खन्ना को सिर दर्द हो रहा था, उन्होंने भोजन करने से इनकार किया। भोजनालय में मेहमानों की संख्या पच्चीस से कम न थी। शराब भी थी और मांस भी। इस उत्सव के लिए राय साहब अच्छी क़िस्म की शराब ख़ास तौर पर खिंचवाते थे? खींची जाती थी दवा के नाम से; पर होती थी ख़ालिस शराब। मांस भी कई तरह के पकते थे, कोफ़ते, कबाब और पुलाव। मुरग़, मुग़िर्याँ, बकरा, हिरन, तीतर, मोर, जिसे जो पसन्द हो, वह खाये।
भोजन शुरू हो गया तो मिस मालती ने पूछा — सम्पादकजी कहाँ रह गये? किसी को भेजो राय साहब, उन्हें पकड़ लाये।
राय साहब ने कहा — वह वैष्णव हैं, उन्हें यहाँ बुलाकर क्यों बेचारे का धर्म नष्ट करोगी। बड़ा ही आचारनिष्ठ आदमी है।
‘ अजी और कुछ न सही, तमाशा तो रहेगा। ‘
सहसा एक सज्जन को देखकर उसने पुकारा — आप भी तशरीफ़ रखते हैं मिरज़ा खुर्शेद, यह काम आपके सुपुर्द। आपकी लियाकत की परीक्षा हो जायगी। मिरज़ा खुर्शेद गोरे-चिट्टे आदमी थे, भूरी-भूरी मूँछें, नीली आँखें, दोहरी देह, चाँद के बाल सफ़ाचट। छकलिया अचकन और चूड़ीदार पाजामा पहने थे। ऊपर से हैट लगा लेते थे। वोटिंग के समय चौंक पड़ते थे और नेशनलिस्टों की तरफ़ वोट देते थे। सूफ़ी मुसलमान थे। दो बार हज कर आये थे; मगर शराब ख़ूब पीते थे। कहते थे, जब हम ख़ुदा का एक हुक्म भी कभी नहीं मानते, तो दीन के लिए क्यों जान दें! बड़े दिल्लगीबाज़, बेफ़िक्रे जीव थे। पहले बसरे में ठीके का कारोबार करते थे। लाखों कमाये, मगर शामत आयी कि एक मेम से आशनाई कर बैठे। मुक़दमेबाज़ी हुई। जेल जाते-जाते बचे। चौबीस घंटे के अन्दर मुल्क से निकल जाने का हुक्म हुआ। जो कुछ जहाँ था, वहीं छोड़ा, और सिर्फ़ पचास हज़ार लेकर भाग खड़े हुए। बम्बई में उनके एजेंट थे। सोचा था, उनसे हिसाब-किताब कर लें और जो कुछ निकलेगा उसी में ज़िन्दगी काट देंगे, मगर एजेंटों ने जाल करके उनसे वह पचास हज़ार भी ऐंठ लिये। निराश होकर वहाँ से लखनऊ चले। गाड़ी में एक महात्मा से साक्षात् हुआ। महात्माजी ने उन्हें सब्ज़ बाग़ दिखाकर उनकी घड़ी, अँगूठियाँ, रुपए सब उड़ा लिये। बेचारे लखनऊ पहुँचे तो देह के कपड़ों के सिवा और कुछ न था। राय साहब से पुरानी मुलाक़ात थी। कुछ उनकी मदद से और कुछ अन्य मित्रों की मदद से एक जूते की दूकान खोल ली। वह अब लखनऊ की सबसे चलती हुई जूते की दूकान थी चार-पाँच सौ रोज़ की बिक्री थी। जनता को उन पर थोड़े ही दिनों में इतना विश्वास हो गया कि एक बड़े भारी मुस्लिम ताल्लुक़ेदार को नीचा दिखाकर कौंसिल में पहुँच गये। अपनी जगह पर बैठे-बैठे बोले — जी नहीं, मैं किसी का दीन नहीं बिगाड़ता। यह काम आपको ख़ुद करना चाहिए। मज़ा तो जब है कि आप उन्हें शराब पिलाकर छोड़ें। यह आपके हुस्न के जादू की आज़माइश है।
चारों तरफ़ से आवाज़ें आयीं — हाँ-हाँ, मिस मालती, आज अपना कमाल दिखाइए।
मालती ने मिरज़ा को ललकारा, कुछ इनाम दोगे?
‘ सौ रुपए की एक थैली! ‘
‘ हुश! सौ रुपए! लाख रुपए का धर्म बिगाड़ूँ सौ के लिए। ‘
‘ अच्छा, आप ख़ुद अपनी फ़ीस बताइए। ‘
‘ एक हज़ार, कौड़ी कम नहीं। ‘
‘ अच्छा मंज़ूर। ‘
‘ जी नहीं, लाकर मेहताजी के हाथ में रख दीजिए। ‘ मिरज़ाजी ने तुरन्त सौ रुपए का नोट जेब से निकाला और उसे दिखाते हुए खड़े होकर बोले — भाइयो! यह हम सब मरदों की इज़्ज़त का मामला है। अगर मिस मालती की फ़रमाइश न पूरी हुई, तो हमारे लिए कहीं मुँह दिखाने की जगह न रहेगी; अगर मेरे पास रुपए होते तो मैं मिस मालती की एक-एक अदा पर एक-एक लाख कुरबान कर देता। एक पुराने शायर ने अपने माशूक़ के एक काले तिल पर समरक़न्द और बोखारा के सूबे कुरबान कर दिये थे। आज आप सभी साहबों की जवाँमरदी और हुस्नपरस्ती का इम्तहान है। जिसके पास जो कुछ हो, सच्चे सूरमा की तरह निकालकर रख दे। आपको इल्म की क़सम, माशूक़ की अदाओं की क़सम, अपनी इज़्ज़त की क़सम, पीछे क़दम न हटाइए। मरदो! रुपए ख़र्च हो जायँगे, नाम हमेशा के लिए रह जायगा। ऐसा तमाशा लाखों में भी सस्ता है। देखिए, लखनऊ के हसीनों की रानी एक जाहिद पर अपने हुस्न का मन्त्र कैसे चलाती है? भाषण समाप्त करते ही मिरज़ाजी ने हर एक की जेब की तलाशी शुरू कर दी। पहले मिस्टर खन्ना की तलाशी हुई। उनकी जेब से पाँच रुपए निकले। मिरज़ा ने मुँह फीका करके कहा — वाह खन्ना साहब, वाह! ! नाम बड़े दर्शन थोड़े। इतनी कम्पनियों के डाइरेक्टर, लाखों की आमदनी और आपके जेब में पाँच रुपए! लाहौल बिला कूबत! कहाँ हैं मेहता? आप ज़रा जाकर मिसेज़ खन्ना से कम-से-कम सौ रुपए वसूल कर लायें। खन्ना खिसियाकर बोले — अजी, उनके पास एक पैसा भी न होगा। कौन जानता था कि यहाँ आप तलाशी लेना शुरू करेंगे?
‘ ख़ैर आप ख़ामोश रहिए। हम अपनी तक़दीर तो आज़मा लें। ‘
‘ अच्छा तो मैं जाकर उनसे पूछता हूँ। ‘
‘ जी नहीं, आप यहाँ से हिल नहीं सकते। मिस्टर मेहता, आप फ़िलासफ़र हैं, मनोविज्ञान के पण्डित। देखिए अपनी भेद न कराइएगा। ‘
मेहता शराब पीकर मस्त हो जाते थे। उस मस्ती में उनका दर्शन उड़ जाता था और विनोद सजीव हो जाता था। लपककर मिसेज़ खन्ना के पास गये और पाँच मिनट ही में मुँह लटकाये लौट आये। मिरज़ा ने पूछा — अरे क्या ख़ाली हाथ?
राय साहब हँसे — क़ाज़ी के घर चूहे भी सयाने।
मिरज़ा ने कहा — हो बड़े ख़ुशनसीब खन्ना, ख़ुदा की क़सम!
मेहता ने क़हक़हा मारा और जेब से सौ-सौ रुपए के पाँच नोट निकाले। मिरज़ा ने लपककर उन्हें गले लगा लिया। चारों तरफ़ से आवाज़ें आने लगीं — कमाल है, मानता हूँ उस्ताद, क्यों न हो, फ़िलासफ़र ही जो ठहरे! मिरज़ा ने नोटों को आँखों से लगाकर कहा — भई मेहता, आज से मैं तुम्हारा शागिर्द हो गया। बताओ, क्या जादू मारा?
मेहता अकड़कर, लाल-लाल आँखों से ताकते हुए बोले — अजी कुछ नहीं। ऐसा कौन-सा बड़ा काम था। जाकर पूछा, अन्दर आऊँ? बोलीं — आप हैं मेहताजी, आइए! मैंने अन्दर जाकर कहा, वहाँ लोग ब्रिज खेल रहे हैं। अँगूठी एक हज़ार से कम की नहीं है। आपने तो देखा है। बस वही। आपके पास रुपए हों, तो पाँच सौ रुपए देकर एक हज़ार की चीज़ ले लीजिए। ऐसा मौक़ा फिर न मिलेगा। मिस मालती ने इस वक़्त रुपए न दिये, तो बेदाग़ निकल जायँगी। पीछे से कौन देता है, शायद इसीलिए उन्होंने अँगूठी निकाली है कि पाँच सौ रुपए किसके पास धरे होंगे। मुसकराईं और चट अपने बटुवे से पाँच नोट निकालकर दे दिये, और बोलीं — मैं बिना कुछ लिये घर से नहीं निकलती। न जाने कब क्या ज़रूरत पड़े। खन्ना खिसियाकर बोले — जब हमारे प्रोफ़ेसरों का यह हाल है, तो यूनिवसिर्टी का ईश्वर ही मालिक है।
खुर्शेद ने घाव पर नमक छिड़का — अरे तो ऐसी कौन-सी बड़ी रक़म है जिसके लिए आपका दिल बैठा जाता है। ख़ुदा झूठ न बुलवाये तो यह आपकी एक दिन की आमदनी है। समझ लीजिएगा, एक दिन बीमार पड़ गये और जायगा भी तो मिस मालती ही के हाथ में। आपके दर्द-ए-जिगर की दवा मिस मालती ही के पास तो है। मालती ने ठोकर मारी — देखिए मिरज़ाजी तबेले में लतिआहुज अच्छी नहीं। मिरज़ा ने दुम हिलायी — कान पकड़ता हूँ देवीजी।
मिस्टर तंखा की तलाशी हुई। मुश्किल से दस रुपए निकले, मेहता की जेब से केवल अठन्नी निकली। कई सज्जनों ने एक-एक, दो-दो रुपए ख़ुद दे दिये। हिसाब जोड़ा गया, तो तीन सौ की कमी थी। यह कमी राय साहब ने उदारता के साथ पूरी कर दी। सम्पादकजी ने मेवे और फल खाये थे और ज़रा कमर सीधी कर रहे थे कि राय साहब ने जाकर कहा — आपको मिस मालती याद रही हैं। ख़ुश होकर बोले — मिस मालती मुझे याद कर रही हैं, धन्य-भाग! राय साहब के साथ ही हाल में आ विराजे। उधर नौकरों ने मेज़ें साफ़ कर दी थीं। मालती ने आगे बढ़कर उनका स्वागत किया। सम्पादकजी ने नम्रता दिखायी — बैठिए तकल्लुफ़ न कीजिए। मैं इतना बड़ा आदमी नहीं हूँ। मालती ने श्रद्धा भरे स्वर में कहा — आप तकल्लुफ़ समझते होंगे, मैं समझती हूँ, मैं अपना सम्मान बढ़ा रही हूँ; यों आप अपने को कुछ समझें और आपको शोभा भी नहीं देता है लेकिन यहाँ जितने सज्जन जमा हैं, सभी आपकी राष्ट्र और साहित्य-सेवा से भली-भाँति परिचित हैं। आपने इस क्षेत्र में जो महत्वपूर्ण काम किया है, अभी चाहे लोग उसका मूल्य न समझें; लेकिन वह समय बहुत दूर नहीं है — मैं तो कहती हूँ वह समय आ गया है — जब हर-एक नगर में आपके नाम की सड़कें बनेंगी, क्लब बनेंगे, टाउन हालों में आपके चित्र लटकाये जायेंगे। इस वक़्त जो थोड़ी बहुत जागृति है, वह आप ही के महान् उद्योग का प्रसाद है। आपको यह जानकर आनन्द होगा कि देश में अब आपके ऐसे अनुयायी पैदा हो गये हैं जो आपके देहात-सुधार आन्दोलन में आपका हाथ बँटाने को उत्सुक हैं, और उन सज्जनों की बड़ी इच्छा है कि यह काम संगठित रूप से किया जाय और एक देहात-सुधार संघ स्थापित किया जाय, जिसके आप सभापति हों। ओंकारनाथ के जीवन में यह पहला अवसर था कि उन्हें चोटी के आदमियों में इतना सम्मान मिले। यों वह कभी-कभी आम जलसों में बोलते थे और कई सभाओं के मन्त्री और उपमन्त्री भी थे; लेकिन शिक्षित-समाज में अब तक उनकी उपेक्षा ही की थी। उन लोगों में वह किसी तरह मिल न पाते थे, इसीलिए आम जलसों में उनकी निष्क्रियता और स्वार्थान्धता की शिकायत किया करते थे, और अपने पत्र में एक-एक को रगेदते थे। क़लम तेज़ थी, वाणी कठोर, साफ़गोई की जगह उच्छृंखलता कर बैठते थे, इसलिए लोग उन्हें ख़ाली ढोल समझते थे। उसी समाज में आज उनका इतना सम्मान! कहाँ हैं आज ‘ स्वराज ‘ और ‘ स्वाधीन भारत ‘ और ‘ हंटर ‘ के सम्पादक, आकर देखें और अपना कलेजा ठंठा करें। आज अवश्य ही देवताओं की उन पर कृपादृष्टि है। सदुद्योग कभी निष्फल नहीं जाता, यह ऋषियों का वाक्य है। वह स्वयम् अपनी नज़रों में उठ गये। कृतज्ञता से पुलकित होकर बोले — देवीजी, आप तो मुझे काँटों में घसीट रही हैं। मैंने तो जनता की जो कुछ भी सेवा की, अपना कर्तव्य समझकर की। मैं इस सम्मान को अपना नहीं, उस उद्देश्य का सम्मान समझ रहा हूँ, जिसके लिए मैंने अपना जीवन अपिर्त कर दिया है, लेकिन मेरा नम्र-निवेदन है कि प्रधान का पद किसी प्रभावशाली पुरुष को दिया जाय, मैं पदों में विश्वास नहीं रखता। मैं तो सेवक हूँ और सेवा करना चाहता हूँ। मिस मालती इसे किसी तरह स्वीकार नहीं कर सकतीं। सभापति पण्डितजी को बनना पड़ेगा। नगर में उसे ऐसा प्रभावशाली व्यक्ति दूसरा नहीं दिखायी देता। जिसकी क़लम में जादू है, जिसकी ज़बान में जादू है, जिसके व्यक्तित्व में जादू है, वह कैसे कहता है कि वह प्रभावशाली नहीं है। वह ज़माना गया, जब धन और प्रभाव में मेल था। अब प्रतिभा और प्रभाव के मेल का युग है। सम्पादकजी को यह पद अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा। मन्त्री मिस मालती होंगी। इस सभा के लिए एक हज़ार का चन्दा भी हो गया है और अभी तो सारा शहर और प्रान्त पड़ा हुआ है। चार-पाँच लाख मिल जाना मामूली बात है। ओंकारनाथ पर कुछ नशा-सा चढ़ने लगा। उनके मन में जो एक प्रकार की फुरहरी सी उठ रही थी, उसने गम्भीर उत्तरदायित्व का रूप धारण कर लिया। बोले — मगर यह आप समझ लें, मिस मालती, कि यह बड़ी ज़िम्मेदारी का काम है और आपको अपना बहुत समय देना पड़ेगा। मैं अपनी तरफ़ से आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आप सभा-भवन में मुझे सबसे पहले मौजूद पायँगी।
मिरज़ाजी ने पुचारा दिया — आपका बड़े-से-बड़ा दुश्मन भी यह नहीं कह सकता कि आप अपना फ़रज़ अदा करने में कभी किसी से पीछे रहे।
मिस मालती ने देखा, शराब कुछ-कुछ असर करने लगी है, तो और भी गम्भीर बनकर बोलीं — अगर हम लोग इस काम की महानता न समझते, तो न यह सभा स्थापित होती और न आप इसके सभापति होते। हम किसी रईस या ताल्लुक़ेदार को सभापति बनाकर धन ख़ूब बटोर सकते हैं, और सेवा की आड़ में स्वार्थ सिद्ध कर सकते हैं, लेकिन यह हमारा उद्देश्य नहीं। हमारा एकमात्र उद्देश्य जनता की सेवा करना है। और उसका सबसे बड़ा साधन आपका पत्र है। हमने निश्चय किया है कि हर-एक नगर और गाँव में उसका प्रचार किया जाय और जल्द-से-जल्द उसकी ग्राहक-संख्या को बीस हज़ार तक पहुँचा दिया जाय। प्रान्त की सभी म्युनिसिपैलिटियों और जिला बोर्ड के चेयरमैन हमारे मित्र हैं। कई चेयरमैन तो यहीं विराजमान हैं। अगर हर-एक ने पाँच-पाँच सौ प्रतियाँ भी ले लीं, तो पचीस हज़ार प्रतियाँ तो आप यक़ीनी समझें। फिर राय साहब और मिरज़ा साहब की यह सलाह है कि कौंसिल में इस विषय का एक प्रस्ताव रखा जाय कि प्रत्येक गाँव के लिए ‘ बिजली ‘ की एक प्रति सरकारी तौर पर मँगाई जाय, या कुछ वाषिर्क सहायता स्वीकार की जाय। और हमें पूरा विश्वास है कि यह प्रस्ताव पास हो जायगा।
ओंकारनाथ ने जैसे नशे में झूमते हुए कहा — हमें गवर्नर के पास डेपुटेशन ले जाना होगा।
मिरज़ा खुर्शेद बोले — ज़रूर-ज़रूर! ‘ उनसे कहना होगा कि किसी सभ्य शासन के लिए यह कितनी लज्जा और कलंक की बात है कि ग्रामोत्थान का अकेला पत्र होने पर भी ‘ बिजली ‘ का अस्तित्व तक नहीं स्वीकार किया जाता। ‘
मिरज़ा खुर्शेद ने कहा — अवश्य-अवश्य! ‘ मैं गर्व नहीं करता। अभी गर्व करने का समय नहीं आया; लेकिन मुझे इसका दावा है कि ग्राम्य-संगठन के लिए ‘ बिजली ‘ ने जितना उद्योग किया है … ‘
मिस्टर मेहता ने सुधारा — नहीं महाशय, तपस्या कहिए। ‘ मैं मिस्टर मेहता को धन्यवाद देता हूँ। हाँ, इसे तपस्या ही कहना चाहिए, बड़ी कठोर तपस्या। ‘ बिजली ‘ ने जो तपस्या की है, वह इस प्रान्त के ही नहीं, इस राष्ट्र के इतिहास में अभूतपूर्व है। ‘ मिरज़ा खुर्शेद बोले — ज़रूर-ज़रूर! मिस मालती ने एक पेग और दिया — हमारे संघ ने यह निश्चय भी किया है कि कौंसिल में अब की जो जगह ख़ाली हो, उसके लिए आपको उम्मेदवार खड़ा किया जाय। आपको केवल अपनी स्वीकृति देनी होगी। शेष सारा काम हम लोग कर लेंगे। आपको न ख़र्च से मतलब, न प्रोपेगेंडा, न दौड़-धूप से।
ओंकारनाथ की आँखों की ज्योति दुगुनी हो गयी। गर्व-पूर्ण नम्रता से बोले — मैं आप लोगों का सेवक हूँ, मुझसे जो काम चाहे ले लीजिए।
‘ हम लोगों को आपसे ऐसी ही आशा है। हम अब तक झूठे देवताओं के सामने नाक रगड़ते-रगड़ते हार गये और कुछ हाथ न लगा। अब हमने आप में सच्चा पथ-प्रदर्शक, सच्चा गुरु पाया है और इस शुभ दिन के आनन्द में आज हमें एकमन, एकप्राण होकर अपने अहंकार को, अपने दम्भ को तिलांजलि दे देना चाहिए। हममें आज से कोई ब्राह्मण नहीं है, कोई शूद्र नहीं है, कोई हिन्दू नहीं है, कोई मुसलमान नहीं है, कोई ऊँच नहीं है, कोई नीच नहीं है। हम सब एक ही माता के बालक, एक ही गोद के खेलनेवाले, एक ही थाली के खानेवाले भाई हैं। जो लोग भेद-भाव में विश्वास रखते हैं, जो लोग पृथकता और कट्टरता के उपासक हैं, उनके लिए हमारी सभा में स्थान नहीं है। जिस सभा के सभापति पूज्य ओंकारनाथजी जैसे विशाल-हृदय व्यिक्त हों, उस सभा में ऊँच-नीच का, खान-पान का और जाति-पाँति का भेद नहीं हो सकता। जो महानुभाव एकता में और राष्ट्रीयता में विश्वास न रखते हों, वे कृपा करके यहाँ से उठ जायँ। राय साहब ने शंका की — मेरे विचार में एकता का यह आशय नहीं है कि सब लोग खान-पान का विचार छोड़ दें। मैं शराब नहीं पीता, तो क्या मुझे इस सभा से अलग हो जाना पड़ेगा? मालती ने निर्मम स्वर में कहा — बेशक अलग हो जाना पड़ेगा। आप इस संघ में रहकर किसी तरह का भेद नहीं रख सकते।
मेहता जी ने घड़े को ठोका — मुझे सन्देह है कि हमारे सभापतिजी स्वयम् खान-पान की एकता में विश्वास नहीं रखते हैं। ओंकारनाथ का चेहरा जर्द पड़ गया। इस बदमाश ने यह क्या बेवक्त की शहनाई बजा दी। दुष्ट कहीं गड़े मुर्दे न उखाड़ने लगे, नहीं, यह सारा सौभाग्य स्वप्न की भाँति शून्य में विलीन हो जायगा। मिस मालती ने उनके मुँह की ओर जिज्ञासा की दृष्टि से देखकर दृढ़ता से कहा — आपका सन्देह निराधार है मेहता महोदय! क्या आप समझते हैं कि राष्ट्र की एकता का ऐसा अनन्य उपासक, ऐसा उदारचेता पुरुष, ऐसा रसिक कवि इस निरर्थक और लज्जा-जनक भेद को मान्य समझेगा? ऐसी शंका करना उसकी राष्ट्रीयता का अपमान करना है। ओंकारनाथ का मुख-मंडल प्रदीप्त हो गया। प्रसन्नता और सन्तोष की आभा झलक पड़ी। मालती ने उसी स्वर में कहा — और इससे भी अधिक उनकी पुरुष-भावना का। एक रमणी के हाथों से शराब का प्याला पाकर वह कौन भद्र पुरुष है जो इनकार कर दे? यह तो नारी-जाति का अपमान होगा, उस नारी-जाति का जिसके नयन-बाणों से अपने ह्ृदय को बिन्धवाने की लालसा पुरुष-मात्र में होती है, जिसकी अदाओं पर मर-मिटने के लिए बड़े-बड़े महीप लालायित रहते हैं। लाइए, बोतल और प्याले, और दौर चलने दीजिए। इस महान् अवसर पर किसी तरह की शंका, किसी तरह की आपित्त राष्ट्र-द्रोह से कम नहीं। पहले हम अपने सभापति की सेहत का जाम पीयेंगे। बर्फ़, शराब और सोडा पहले ही से तैयार था। मालती ने ओंकारनाथ को अपने हाथों से लाल विष से भरा हुआ ग्लास दिया, और उन्हें कुछ ऐसी जादू-भरी चितवन से देखा कि उनकी सारी निष्ठा, सारी वणर्-श्रेष्ठता काफ़ूर हो गयी। मन ने कहा — सारा आचार-विचार परिस्थितियों के अधीन है। आज तुम दरिद्र हो, किसी मोटरकार को धूल उड़ाते देखते हो, तो ऐसा बिगड़ते हो कि उसे पत्थरों से चूर-चूर कर दो; लेकिन क्या तुम्हारे मन में कार की लालसा नहीं है? परिस्थिति ही विधि है और कुछ नहीं। बाप-दादों ने नहीं पी थी, न पी हो। उन्हें ऐसा अवसर ही कब मिला था। उनकी जीविका पोथी-पत्रों पर थी। शराब लाते कहाँ से, और पीते भी तो जाते कहाँ? फिर वह तो रेलगाड़ी पर न चढ़ते थे, कल का पानी न पीते थे, अँग्रेज़ी पढ़ना पाप समझते थे। समय कितना बदल गया है। समय के साथ अगर नहीं चल सकते, तो वह तुम्हें पीछे छोड़कर चला जायगा। ऐसी महिला के कोमल हाथों से विष भी मिले, तो शिरोधार्य करना चाहिये। जिस सौभाग्य के लिए बड़े-बड़े राजे तरसते हैं; वह आज उनके सामने खड़ा है। क्या वह उसे ठुकरा सकते हैं? उन्होंने ग्लास ले लिया और सिर झुकाकर अपनी कृतज्ञता दिखाते हुए एक ही साँस में पी गये और तब लोगों को गर्व भरी आँखों से देखा, मानो कह रहे हों, अब तो आपको मुझ पर विश्वास आया। क्या समझते हैं, मैं निरा पोंगा पिण्डत हूँ। अब तो मुझे दम्भी और पाखंडी कहने का साहस नहीं कर सकते? हाल में ऐसा शोर गुल मचा कि कुछ न पूछो, जैसे पिटारे में बन्द गहगहे निकल पड़े हों। वाह देवीजी! क्या कहना है! कमाल है मिस मालती, कमाल है। तोड़ दिया, नमक का क़ानून तोड़ दिया, धर्म का क़िला तोड़ दिया, नेम का घड़ा फोड़ दिया! ओंकारनाथ के कंठ के नीचे शराब का पहुँचना था कि उनकी रसिकता वाचाल हो गयी। मुस्कराकर बोले — मैंने अपने धर्म की थाती मिस मालती के कोमल हाथों में सौंप दी और मुझे विश्वास है, वह उसकी यथोचित रक्षा करेंगी। उनके चरण-कमलों के इस प्रसाद पर मैं ऐसे एक हज़ार धर्मो को न्योछावर कर सकता हूँ। क़हक़हों से हाल गूँज उठा। सम्पादकजी का चेहरा फूल उठा था, आँखें झुकी पड़ती थीं। दूसरा ग्लास भरकर बोले — यह मिस मालती की सेहत का जाम है। आप लोग पियें और उन्हें आशीवार्द दें। लोगों ने फिर अपने-अपने ग्लास ख़ाली कर दिये। उसी वक़्त मिरज़ा खुर्शेद ने एक माला लाकर सम्पादकजी के गले में डाल दी और । बोले — सज्जनो, फ़िदवी ने अभी अपने पूज्य सदर साहब की शान में एक क़सीदा कहा है। आप लोगों की इजाज़त हो तो सुनाऊँ। चारों तरफ़ से आवाज़ें आयीं — हाँ-हाँ, ज़रूर सुनाइए। ओंकारनाथ भंग तो आये दिन पिया करते थे और उनका मस्तिष्क उसका अभ्यस्त हो गया था, मगर शराब पीने का उन्हें यह पहला अवसर था। भंग का नशा मन्थर गति से एक स्वप्न की भाँति आता था और मस्तिष्क पर मेघ के समान छा जाता था। उनकी चेतना बनी रहती थी। उन्हें ख़ुद मालूम होता था कि इस समय उनकी वाणी बड़ी लच्छेदार है, और उनकी कल्पना बहुत प्रबल। शराब का नशा उनके ऊपर सिंह की भाँति झपटा और दबोच बैठा। वह कहते कुछ हैं, मुँह से निकलता कुछ है। फिर यह ज्ञान भी जाता रहा। वह क्या कहते हैं और क्या करते हैं, इसकी सुधि ही न रही। यह स्वप्न का रोमानी वैचित्र्य न था, जागृति का वह चक्कर था, जिसमें साकार निराकार हो जाता है। न जाने कैसे उनके मस्तिष्क में यह कल्पना जाग उठी कि क़सीदा पढ़ना कोई बड़ा अनुचित काम है। मेज़ पर हाथ पटककर बोले — नहीं, कदापि नहीं। यहाँ कोई क़सीदा नयी ओगा, नयी ओगा। हम सभापति हैं। हमारा हुक्म है। हम अबी इस सबा को तोड़ सकते हैं। अबी तोड़ सकते हैं। सभी को निकाल सकते हैं। कोई हमारा कुछ नहीं कर सकता। हम सभापति हैं। कोई दूसरा सभापति नयी है। मिरज़ा ने हाथ जोड़कर कहा — हुज़ूर, इस क़सीदे में तो आपकी तारीफ़ की गयी है। सम्पादकजी ने लाल, पर ज्योतिहीन नेत्रों से देखा — तुम हमारी तारीप क्यों की? क्यों की? बोलो, क्यों हमारी तारीप की? हम किसी का नौकर नयी है। किसी के बाप का नौकर नयी है, किसी साले का दिया नहीं खाते। हम ख़ुद सम्पादक है। हम ‘ बिजली ‘ का सम्पादक है। हम उसमें सबका तारीप करेगा। देवीजी, हम तुम्हारा तारीप नयी करेगा। हम कोई बड़ा आदमी नयी है। हम सबका ग़ुलाम है। हम आपका चरण-रज है। मालती देवी हमारी लक्ष्मी, हमारा सरस्वती, हमारी राधा … यह कहते हुए वे मालती के चरणों की तरफ़ झुके और मुँह के बल फ़र्श पर गिर पड़े। मिरज़ा खुर्शेद ने दौड़कर उन्हें सँभाला और कुर्सियाँ हटाकर वहीं ज़मीन पर लिटा दिया। फिर उनके कानों के पास मुँह ले जाकर बोले — राम-राम सत्त है! कहिए तो आपका जनाज़ा निकालें। राय साहब ने कहा — कल देखना कितना बिगड़ता है। एक-एक को अपने पत्र में रगेदेगा। और ऐसा-ऐसा रगेदेगा कि आप भी याद करेंगे! एक ही दुष्ट है, किसी पर दया नहीं करता। लिखने में तो अपना जोड़ नहीं रखता। ऐसा गधा आदमी कैसे इतना अच्छा लिखता है, यह रहस्य है। कई आदमियों ने सम्पादकजी को उठाया और ले जाकर उनके कमरे में लिटा दिया।
उधर पंडाल में धनुष-यज्ञ हो रहा था। कई बार इन लोगों को बुलाने के लिए आदमी आ चुके थे। कई हुक्काम भी पंडाल में आ पहुँचे थे। लोग उधर जाने को तैयार हो रहे थे कि सहसा एक अफ़गान आकर खड़ा हो गया। गोरा रंग, बड़ी-बड़ी मूँछें, ऊँचा क़द, चौड़ा सीना, आँखों में निर्भयता का उन्माद भरा हुआ, ढीला नीचा कुरता, पैरों में शलवार, ज़री के काम की सदरी, सिर पर पगड़ी और कुलाह, कन्धे में चमड़े का बैग लटकाये, कन्धे पर बन्दूक़ रखे और कमर में तलवार बाँधे न जाने किधर से आ खड़ा हो गया और गरजकर बोला — ख़बरदार! कोई यहाँ से मत जाओ। अमारा साथ का आदमी पर डाका पड़ा हैं। यहाँ का जो सरदार है। वह अमारा आदमी को लूट लिया है, उसका माल तुमको देना होगा! एक-एक कौड़ी देना होगा। कहाँ है सरदार, उसको बुलाओ। राय साहब ने सामने आकर क्रोध-भरे स्वर में कहा — ‘ कैसी लूट! कैसा डाका? यह तुम लोगों का काम है। यहाँ कोई किसी को नहीं लूटता। साफ़-साफ़ कहो, क्या मामला है?
अफ़गान ने आँखें निकालीं और बन्दूक़ का कुन्दा ज़मीन पर पटककर बोला — अमसे पूछता है कैसा लूट, कैसा डाका? तुम लूटता है, तुम्हारा आदमी लूटता है। अम यहाँ की कोठी का मालिक है। अमारी कोठी में पचास जवान है। अमारा आदमी रुपए तहसील कर लाता था। एक हज़ार। वह तुम लूट लिया, और कहता है कैसा डाका? अम बतलायेगा कैसा डाका होता है। अमारा पचीसों जवान अबी आता है। अम तुम्हारा गाँव लूट लेगा। कोई साला कुछ नयीं कर सकता, कुछ नयीं कर सकता। खन्ना ने अफ़गान के तेवर देखे तो चुपके से उठे कि निकल जायँ। सरदार ने ज़ोर से डाँटा — काँ जाता तुम? कोई कई नयीं जा सकता। नयीं अम सबको क़तल कर देगा। अबी फैर कर देगा। अमारा तुम कुछ नयीं कर सकता। अम तुम्हारा पुलिस से नयीं डरता। पुलिस का आदमी अमारा सकल देखकर भागता है। अमारा अपना काँसल है, अम उसको खत लिखकर लाट साहब के पास जा सकता है। अम याँ से किसी को नयीं जाने देगा। तुम अमारा एक हज़ार रुपया लूट लिया। अमारा रुपया नयीं देगा, तो अम किसी को ज़िन्दा नहीं छोड़ेगा। तुम सब आदमी दूसरों के माल को लूट करता है और याँ माशूक़ के साथ शराब पीता है। मिस मालती उसकी आँख बचाकर कमरे से निकलने लगीं कि वह बाज़ की तरह टूटकर उनके सामने आ खड़ा हुआ और बोला — तुम इन बदमाशों से अमारा माल दिलवाये, नयीं अम तुमको उठा ले जायगा और अपनी कोठी में जशन मनायेगा। तुम्हारा हुस्न पर अम आशिक़ हो गया। या तो अमको एक हज़ार अबी-अबी दे दे या तुमको अमारे साथ चलना पड़ेगा। तुमको अम नहीं छोड़ेगा। अम तुम्हारा आशिक़ हो गया है। अमारा दिल और जिगर फटा जाता है। अमारा इस जगह पचीस जवान है। इस जिला में हमारा पाँच सौ जवान काम करता है। अम अपने क़बीले का खान है। अमारे क़बीला में दस हज़ार सिपाही हैं। अम क़ाबुल के अमीर से लड़ सकता है। अँग्रेज़ सरकार अमको बीस हज़ार सालाना ख़िराज देता है। अगर तुम हमारा रुपया नयीं देगा, तो अम गाँव लूट लेगा और तुम्हारा माशूक़ को उठा ले जायगा। ख़ून करने में अमको लुतफ़ आता है। अम ख़ून का दरिया बहा देगा! मजलिस पर आतंक छा गया। मिस मालती अपना चहकना भूल गयीं। खन्ना की पिंडलियाँ काँप रही थीं। बेचारे चोट-चपेट के भय से एक मंज़िले बँगले में रहते थे। ज़ीने पर चढ़ना उनके लिए सूली पर चढ़ने से कम न था। गरमी में भी डर के मारे कमरे में सोते थे। राय साहब को ठकुराई का अभिमान था। वह अपने ही गाँव में एक पठान से डर जाना हास्यास्पद समझते थे, लेकिन उसकी बन्दूक़ को क्या करते। उन्होंने ज़रा भी चीं-चपड़ किया और इसने बन्दूक़ चलायी। हूश तो होते ही हैं ये सब, और निशाना भी इन सबों का कितना अचूक होता है; अगर उसके हाथ में बन्दूक़ न होती, तो राय साहब उससे सींग मिलाने को भी तैयार हो जाते। मुश्किल यही थी कि दुष्ट किसी को बाहर नहीं जाने देता। नहीं, दम-के-दम में सारा गाँव जमा हो जाता और इसके पूरे जत्थे को पीट-पाटकर रख देता। आख़िर उन्होंने दिल मज़बूत किया और जान पर खेलकर बोले — हमने आपसे कह दिया कि हम चोर-डाकू नहीं हैं। मैं यहाँ की कौंसिल का मेम्बर हूँ और यह देवीजी लखनऊ की सुप्रसिद्ध डाक्टर हैं। यहाँ सभी शरीफ़ और इज़्ज़तदार लोग जमा हैं। हमें बिलकुल ख़बर नहीं, आपके आदमियों को किसने लूटा? आप जाकर थाने में रपट कीजिए। खान ने ज़मीन पर पैर पटके, पैंतरे बदले और बन्दूक़ को कन्धे से उतारकर हाथ में लेता हुआ दहाड़ा — मत बक-बक करो। काउंसिल का मेम्बर को अम इस तरह पैरों से कुचल देता है। (ज़मीन पर पाँव रगड़ता है) अमारा हाथ मज़बूत है, अमारा दिल मज़बूत है, अम ख़ुदा ताला के सिवा और किसी से नयीं डरता। तुम अमारा रुपया नहीं देगा, तो अम (राय साहब की तरफ़ इशारा कर) अभी तुमको कतल कर देगा। अपनी तरफ़ बन्दूक़ की नली देखकर राय साहब झुककर मेज़ के बराबर आ गये। अजीब मुसीबत में जान फँसी थी। शैतान बरबस कहे जाता है, तुमने हमारे रुपए लूट लिये। न कुछ सुनता है, न कुछ समझता है, न किसी को बाहर जाने-आने देता है। नौकर-चाकर, सिपाही-प्यादे, सब धनुष-यज्ञ देखने में मग्न थे। ज़मींदारों के नौकर यों भी आलसी और काम-चोर होते ही हैं, जब तक दस दफ़े न पुकारा जाय बोलते ही नहीं; और इस वक़्त तो वे एक शुभ काम में लगे हुए थे। धनुष-यज्ञ उनके लिए केवल तमाशा नहीं, भगवान् की लीला थी; अगर एक आदमी भी इधर आ जाता, तो सिपाहियों को ख़बर हो जाती और दम-भर में खान का सारा खानपन निकल जाता, डाढ़ी के एक-एक बाल नुच जाते। कितना ग़ुस्सेवर है। होते भी तो जल्लाद हैं। न मरने का ग़म, न जीने की ख़ुशी। मिरज़ा साहब ने चकित नेत्रों से देखा — क्या बताऊँ, कुछ अक्ल काम नहीं करती। मैं आज अपना पिस्तौल घर ही छोड़ आया, नहीं मज़ा चखा देता। खन्ना रोना मुँह बनाकर बोले — कुछ रुपए देकर किसी तरह इस बला को टालिए। राय साहब ने मालती की ओर देखा — देवीजी, अब आपकी क्या सलाह है? मालती का मुख-मंडल तमतमा रहा था। बोलीं — होगा क्या, मेरी इतनी बेईज़्ज़ती हो रही है और आप लोग बैठे देख रहे हैं! बोस मर्दो के होते एक उजड्डा पठान मेरी इतनी दुर्गति कर रहा है और आप लोगों के ख़ून में ज़रा भी गमीर् नहीं आती! आपको जान इतनी प्यारी है? क्यों एक आदमी बाहर जाकर शोर नहीं मचाता? क्यों आप लोग उस पर झपटकर उसके हाथ से बन्दूक़ नहीं छीन लेते? बन्दूक़ ही तो चलायेगा? चलाने दो। एक या दो की जान ही तो जायगी? जाने दो। मगर देवीजी मर जाने को जितना आसान समझती थीं और लोग न समझते थे। कोई आदमी बाहर निकलने की फिर हिम्मत करे और पठान ग़ुस्से में आकर दस-पाँच फैर कर दे, तो यहाँ सफ़ाया हो जायगा। बहुत होगा, पुलिस उसे फाँसी की सज़ा दे देगी। वह भी क्या ठीक। एक बड़े क़बीले का सरदार है। उसे फाँसी देते हुए सरकार भी सोच-विचार करेगी। ऊपर से दबाव पड़ेगा। राजनीति के सामने न्याय को कौन पूछता है। हमारे ऊपर उलटे मुक़दमे दायर हो जायँ और दंडकारी पुलिस बिठा दी जाय, तो आश्चर्य नहीं; कितने मज़े से हँसी-मज़ाक़ हो रहा था। अब तक ड्रामा का आनन्द उठाते होते। इस शैतान ने आकर एक नयी विपत्ति खड़ी कर दी, और ऐसा जान पड़ता है, बिना दो-एक ख़ून किये मानेगा भी नहीं। खन्ना ने मालती को फटकारा — देवीजी, आप तो हमें ऐसा लताड़ रही हैं मानो अपनी प्राण रक्षा करना कोई पाप है, प्राण का मोह प्राणी-मात्र में होता है और हम लोगों में भी हो, तो कोई लज्जा की बात नहीं। आप हमारी जान इतनी सस्ती समझती हैं; यह देखकर मुझे खेद होता है। एक हज़ार का ही तो मुआमला है। आपके पास मुफ़्त के एक हज़ार हैं, उसे देकर क्यों नहीं बिदा कर देतीं? आप ख़ुद अपनी बेईज़्ज़ती करा रही हैं, इसमें हमारा क्या दोष? राय साहब ने गर्म होकर कहा — अगर इसने देवीजी को हाथ लगाया, तो चाहे मेरी लाश यहीं तड़पने लगे, मैं उससे भिड़ जाऊँगा। आख़िर वह भी आदमी ही तो है। मिरज़ा साहब ने सन्देह से सिर हिलाकर कहा — राय साहब, आप अभी इन सबों के मिज़ाज से वाक़िफ़ नहीं हैं। यह फैर करना शुरू करेगा, तो फिर किसी को ज़िन्दा न छोड़ेगा। इनका निशाना बेखता होता है।
मि. तंखा बेचारे आनेवाले चुनाव की समस्या सुलझने आये थे। दस-पाँच हज़ार का वारा-न्यारा करके घर जाने का स्वप्न देख रहे थे। यहाँ जीवन ही संकट में पड़ गया। बोले — सबसे सरल उपाय वही है, जो अभी खन्नाजी ने बतलाया। एक हज़ार ही की बात है और रुपए मौजूद हैं, तो आप लोग क्यों इतना सोच-विचार कर रहे हैं?
मिस मालती ने तंखा को तिरस्कार-भरी आँखों से देखा। ‘ आप लोग इतने कायर हैं, यह मैं न समझती थी। ‘ ‘
मैं भी यह न समझता था कि आप को रुपए इतने प्यारे हैं और वह भी मुफ़्त के! ‘
‘ जब आप लोग मेरा अपमान देख सकते हैं, तो अपने घर की स्त्रियों का अपमान भी देख सकते होंगे? ‘
‘ तो आप भी पैसे के लिए अपने घर के पुरुषों को होम करने में संकोच न करेंगी। ‘
खान इतनी देर तक झल्लाया हुआ-सा इन लोगों की गिटपिट सुन रहा था। एका-एक गरजकर बोला — अम अब नयीं मानेगा। अम इतनी देर यहाँ खड़ा है, तुम लोग कोई जवाब नहीं देता। ( जेब से सीटी निकालकर ) अम तुमको एक लमहा और देता है; अगर तुम रुपया नहीं देता तो अम सीटी बजायेगा और अमारा पचीस जवान यहाँ आ जायगा। बस! फिर आँखों में प्रेम की ज्वाला भरकर उसने मिस मालती को देखा। ‘ तुम अमारे साथ चलेगा दिलदार! अम तुम्हारे ऊपर फ़िदा हो जायगा। अपना जान तुम्हारे क़दमों पर रख देगा। इतना आदमी तुम्हारा आशिक़ है; मगर कोई सच्चा आशिक़ नहीं। सच्चा इश्क़ क्या है, अम दिखा देगा। तुम्हारा इशारा पाते ही अम अपने सीने में खंजर चुबा सकता है। ‘ मिरज़ा ने घिघियाकर कहा — देवीजी, ख़ुदा के लिए इस मूज़ी को रुपए दे दीजिए।
खन्ना ने हाथ जोड़कर याचना की — हमारे ऊपर दया करो मिस मालती!
राय साहब तनकर बोले — हर्गिज़ नहीं। आज जो कुछ होना है, हो जाने दीजिये। या तो हम ख़ुद मर जायँगे, या इन जालिमों को हमेशा के लिए सबक़ दे देंगे।
तंखा ने राय साहब को डाँट बतायी — शेर की माँद में घुसना कोई बहादुरी नहीं है। मैं इसे मूर्खता समझता हूँ। मगर मिस मालती के मनोभाव कुछ और ही थे। खान के लालसाप्रदीप्त नेत्रों ने उन्हें आश्वस्त कर दिया था और अब इस कांड में उन्हें मनचलेपन का आनन्द आ रहा था। उनका हृदय कुछ देर इन नरपुँगवों के बीच में रहकर उनके बर्बर प्रेम का आनन्द उठाने के लिए ललचा रहा था। शिष्ट प्रेम की दुर्बलता और निर्जीवता का उन्हें अनुभव हो चुका था। आज अक्खड़, अनघड़ पठानों के उन्मत्त प्रेम के लिए उनका मन दौड़ रहा था, जैसे संगीत का आनन्द उठाने के बाद कोई मस्त हाथियों की लड़ाई देखने के लिए दौड़े। उन्होंने खाँ साहब के सामने जाकर निश्शंक भाव से कहा — तुम्हें रुपये नहीं मिलेंगे।
खान ने हाथ बढ़ाकर कहा — तो अम तुमको लूट ले जायगा।
‘ तुम इतने आदमियों के बीच से हमें नहीं ले जा सकता। ‘
‘ अम तुमको एक हज़ार आदमियों के बीच से ले जा सकता है। ‘
‘ तुमको जान से हाथ धोना पड़ेगा। ‘
‘ अम अपने माशूक़ के लिए अपने जिस्म का एक-एक बोटी नुचवा सकता है। ‘
उसने मालती का हाथ पकड़कर खींचा। उसी वक़्त होरी ने कमरे में क़दम रखा। वह राजा जनक का माली बना हुआ था और उसके अभिनय ने देहातियों को हँसाते-हँसाते लोटा दिया था। उसने सोचा मालिक अभी तक क्यों नहीं आये। वह भी तो आकर देखें कि देहाती इस काम में कितने कुशल होते हैं। उनके यार-दोस्त भी देखें। कैसे मालिक को बुलाये? वह अवसर खोज रहा था, और ज्योंही मुहलत मिली, दौड़ा हुआ यहाँ आया; मगर यहाँ का दृश्य देखकर भौचक्का-सा खड़ा रह गया। सब लोग चुप्पी साधे, थर-थर काँपते, कातर नेत्रों से खान को देख रहे थे और ख़ान मालती को अपनी तरफ़ खींच रहा था। उसकी सहज बुद्धि ने परिस्थिति का अनुमान कर लिया। उसी वक़्त राय साहब ने पुकारा — होरी, दौड़कर जा और सिपाहियों को बुला, ला जल्द दौड़!
होरी पीछे मुड़ा था कि ख़ान ने उसके सामने बन्दूक़ तानकर डाँटा — कहाँ जाता है सुअर, हम गोली मार देगा।
होरी गँवार था। लाल पगड़ी देखकर उसके प्राण निकल जाते थे; लेकिन मस्त साँड़ पर लाठी लेकर पिल पड़ता था। वह कायर न था, मारना और मरना दोनों ही जानता था; मगर पुलिस के हथकंडों के सामने उसकी एक न चलती थी। बँधे-बँधे कौन फिरे, रिश्वत के रुपए कहाँ से लाये, बाल-बच्चों को किस पर छोड़े; मगर जब मालिक ललकारते हैं, तो फिर किसका डर। तब तो वह मौत के मुँह में भी कूद सकता है। उसने झपटकर ख़ान की कमर पकड़ी और ऐसा अड़ंगा मारा कि ख़ान चारों खाने चित्त ज़मीन पर आ रहे और लगे पश्तों में गालियाँ देने। होरी उनकी छाती पर चढ़ बैठा और ज़ोर से दाढ़ी पकड़कर खींची। दाढ़ी उसके हाथ में आ गयी। ख़ान ने तुरन्त अपनी कुलाह उतार फेंकी और ज़ोर मारकर खड़ा हो गया। अरे! यह तो मिस्टर मेहता हैं। वही! लोगों ने चारों तरफ़ से मेहता को घेर लिया। कोई उनके गले लगता, कोई उनकी पीठ पर थपकियाँ देता था और मिस्टर मेहता के चेहरे पर न हँसी थी, न गर्व; चुपचाप खड़े थे, मानो कुछ हुआ ही नहीं।
मालती ने नक़ली रोष से कहा — आपने यह बहुरूपपन कहाँ सीखा? मेरा दिल अभी तक धड़-धड़ कर रहा है।
मेहता ने मुस्कराते हुए कहा — ज़रा इन भले आदमियों की जवाँमर्दी की परीक्षा ले रहा था। जो गुस्ताख़ी हुई हो, उसे क्षमा कीजिएगा।

Godan / गोदान भाग 7/ प्रेमचंद / Premchand

Godan / गोदान भाग 6-10 / प्रेमचंद / Premchandयह अभिनय जब समाप्त हुआ, तो उधर रंगशाला में धनुष-यज्ञ समाप्त हो चुका था और सामाजिक प्रहसन की तैयारी हो रही थी; मगर इन सज्जनों को उससे विशेष दिलचस्पी न थी। केवल मिस्टर मेहता देखने गये और आदि से अन्त तक जमे रहे। उन्हें बड़ा मज़ा आ रहा था। बीच-बीच में तालियाँ बजाते थे और ‘ फिर कहो, फिर कहो ‘ का आग्रह करके अभिनेताओं को प्रोत्साहन भी देते जाते थे। राय साहब ने इस प्रहसन में एक मुक़दमेबाज़ देहाती ज़मींदार का ख़ाका उड़ाया था। कहने को तो प्रहसन था; मगर करुणा से भरा हुआ। नायक का बात-बात में क़ानून की धाराओं का उल्लेख करना, पत्नी पर केवल इसलिए मुक़दमा दायर कर देना कि उसने भोजन तैयार करने में ज़रा-सी देर कर दी, फिर वकीलों के नख़रे और देहाती गवाहों की चालाकियाँ और झाँसे, पहले गवाही के लिए चट-पट तैयार हो जाना; मगर इजलास पर तलबी के समय ख़ूब मनावन कराना और नाना प्रकार के फ़रमाइशें करके उल्लू बनाना, ये सभी दृश्य देखकर लोग हँसी के मारे लोटे जाते थे। सबसे सुन्दर वह दृश्य था, जिसमें वकील गवाहों को उनके बयान रटा रहा था। गवाहों का बार-बार भूलें करना, वकील का बिगड़ना, फिर नायक का देहाती बोली में गवाहों को समझाना और अन्त में इजलास पर गवाहों का बदल जाना, ऐसा सजीव और सत्य था कि मिस्टर मेहता उछल पड़े और तमाशा समाप्त होने पर नायक को गले लगा लिया और सभी नटों को एक-एक मेडल देने की घोषणा की। राय साहब के प्रति उनके मन में श्रद्धा के भाव जाग उठे। राय साहब स्टेज के पीछे ड्रामे का संचालन कर रहे थे। मेहता दौड़कर उनके गले लिपट गये और मुग्ध होकर बोले — आपकी दृष्टि इतनी पैनी है, इसका मुझे अनुमान न था।
दूसरे दिन जलपान के बाद शिकार का प्रोग्राम था। वहीं किसी नदी के तट पर बाग़ में भोजन बने, ख़ूब जल-क्तीड़ा की जाय और शाम को लोग घर आयँ। देहाती जीवन का आनन्द उठाया जाय। जिन मेहमानों को विशेष काम था, वह तो बिदा हो गये, केवल वे ही लोग बच रहे जिनकी राय साहब से घनिष्टता थी। मिसेज़ खन्ना के सिर में दर्द था, न जा सकीं, और सम्पादकजी इस मंडली से जले हुए थे और इनके विरुद्ध एक लेख-माला निकालकर इनकी ख़बर लेने के विचार में मग्न थे। सब-के-सब छटे हुए गुंडे हैं। हराम के पैसे उड़ाते हैं और मूछों पर ताव देते हैं। दुनिया में क्या हो रहा है, इन्हें क्या ख़बर। इनके पड़ोस में कौन मर रहा है, इन्हें क्या परवा। इन्हें तो अपने भोग-विलास से काम है। यह मेहता, जो फ़िलासफ़र बना फिरता है, उसे यही धुन है कि जीवन को सम्पूर्ण बनाओ। महीने में एक हज़ार मार लेते हो, तुम्हें अख़्तियार है, जीवन को सम्पूर्ण बनाओ या परिपूर्ण बनाओ। जिसको यह फ़िक्र दबाये डालती है कि लड़कों का ब्याह कैसे हो, या बीमार स्त्री के लिए वैद्य कैसे आयँ या अब की घर का किराया किसके घर से आएगा, वह अपना जीवन कैसे सम्पूर्ण बनाये! छूटे साँड़ बने दूसरों के खेत में मुँह मारते फिरते हो और समझते हो संसार में सब सुखी हैं। तुम्हारी आँखें तब खुलेंगी, जब क्रान्ति होगी और तुमसे कहा जायगा — बचा, खेत में चलकर हल जोतो। तब देखें, तुम्हारा जीवन कैसे सम्पूर्ण होता है। और वह जो है मालती, जो बहत्तर घाटों का पानी पीकर भी मिस बनी फिरती है! शादी नहीं करेगी, इससे जीवन बन्धन में पड़ जाता है, और बन्धन में जीवन का पूरा विकास नहीं होता। बस जीवन का पूरा विकास इसी में है कि दुनिया को लूटे जाओ और निर्द्वन्द्व विलास किये जाओ! सारे बन्धन तोड़ दो, धर्म और समाज को गोली मारो, जीवन के कर्तव्यों को पास न फटकने दो, बस तुम्हारा जीवन सम्पूर्ण हो गया। इससे ज़्यादा आसान और क्या होगा। माँ-बाप से नहीं पटती, उन्हें धता बताओ; शादी मत करो, यह बन्धन है; बच्चे होंगे, यह मोहपाश है; मगर टैक्स क्यों देते हो? क़ानून भी तो बन्धन है, उसे क्यों नहीं तोड़ते? उससे क्यों कन्नी काटते हो। जानते हो न कि क़ानून की ज़रा भी अवज्ञा की और बेड़ियाँ पड़ जायँगी। बस वही बन्धन तोड़ो, जिसमें अपनी भोग-लिप्सा में बाधा नहीं पड़ती। रस्सी को साँप बनाकर पीटो और तीस मारखाँ बनो। जीते साँप के पास जाओ ही क्यों वह फूकार भी मारेगा तो, लहरें आने लगेंगी। उसे आते देखो, तो दुम दबाकर भागो। यह तुम्हारा सम्पूर्ण जीवन है!
आठ बजे शिकार-पार्टी चली। खन्ना ने कभी शिकार न खेला था, बन्दूक़ की आवाज़ से काँपते थे; लेकिन मिस मालती जा रही थीं, वह कैसे रुक सकते थे। मिस्टर तंखा को अभी तक एलेक्शन के विषय में बातचीत करने का अवसर न मिला था। शायद वहाँ वह अवसर मिल जाय। राय साहब अपने इस इलाक़े में बहुत दिनों से नहीं गये थे। वहाँ का रंग-ढंग देखना चाहते थे। कभी-कभी इलाक़े में आने-जाने से आदमियों से एक सम्बन्ध भी हो जाता है और रोब भी रहता है। कारकून और प्यादे भी सचेत रहते हैं। मिरज़ा खुर्शेद को जीवन के नये अनुभव प्राप्त करने का शौक़ था, विशेषकर ऐसे, जिनमें कुछ साहस दिखाना पड़े। मिस मालती अकेले कैसे रहतीं। उन्हें तो रसिकों का जमघट चाहिए। केवल मिस्टर मेहता शिकार खेलने के सच्चे उत्साह से जा रहे थे। राय साहब की इच्छा तो थी कि भोजन की सामग्री, रसोईया, कहार, ख़िदमतगार, सब साथ चलें, लेकिन मिस्टर मेहता ने उसका विरोध किया। खन्ना ने कहा — आख़िर वहाँ भोजन करेंगे या भूखों मरेंगे?
मेहता ने जवाब दिया — भोजन क्यों न करेंगे, लेकिन आज हम लोग ख़ुद अपना सारा काम करेंगे। देखना तो चाहिए कि नौकरों के बग़ैर हम ज़िन्दा रह सकते हैं या नहीं। मिस मालती पकायँगी और हम लोग खायँगे। देहातों में हाँडियाँ और पत्तल मिल ही जाते हैं, और ईधन की कोई कमी नहीं। शिकार हम करेंगे ही।
मालती ने गिला किया — क्षमा कीजिए। आपने रात मेरी क़लाई इतने ज़ोर से पकड़ी कि अभी तक दर्द हो रहा है।
‘ काम तो हम लोग करेंगे, आप केवल बताती जाइएगा। ‘
मिरज़ा खुर्शेद बोले — अजी आप लोग तमाशा देखते रहिएगा, मैं सारा इन्तज़ाम कर दूँगा। बात ही कौन-सी है। जंगल में हाँडी और बर्तन ढूँढ़ना हिमाक़त है। हिरन का शिकार कीजिए, भूनिए, खाइए, और वहीं दरख़्त के साये में खर्राटे लीजिए।
यही प्रस्ताव स्वीकति हुआ। दो मोटरें चलीं। एक मिस मालती ड्राइव कर रही थीं, दूसरी ख़ुद राय साहब। कोई बीस-पचीस मील पर पहाड़ी प्रान्त शुरू हो गया। दोनों तरफ़ ऊँची पर्वतमाला दौड़ी चली आ रही थी। सड़क भी पेंचदार होती जाती थी। कुछ दूर की चढ़ाई के बाद एकाएक ढाल आ गया और मोटर नीचे की ओर चली। दूर से नदी का पाट नज़र आया, किसी रोगी की भाँति दुर्बल, निस्पन्द कगार पर एक घने वटवृक्ष की छाँह में कारें रोक दी गयीं और लोग उतरे। यह सलाह हुई कि दो-दो की टोली बने और शिकार खेलकर बारह बजे तक यहाँ आ जाय। मिस मालती मेहता के साथ चलने को तैयार हो गयीं। खन्ना मन में ऐंठकर रह गये। जिस विचार से आये थे, उसमें जैसे पंचर हो गया; अगर जानते, मालती दग़ा देगी, तो घर लौट जाते; लेकिन राय साहब का साथ उतना रोचक न होते हुए भी बुरा न था। उनसे बहुत-सी मुआमले की बात करनी थीं। खुर्शेद और तंखा बच रहो। उनकी टोली बनी-बनायी थी। तीनों टोलियाँ एक-एक तरफ़ चल दीं। कुछ दूर तक पथरीली पगडंडी पर मेहता के साथ चलने के बाद मालती ने कहा — तुम तो चले ही जाते हो। ज़रा दम ले लेने दो।
मेहता मुस्कराये — अभी तो हम एक मील भी नहीं आये। अभी से थक गयीं?
‘ थकीं नहीं; लेकिन क्यों न ज़रा दम ले लो। ‘
‘ जब तक कोई शिकार हाथ न आ जाय, हमें आराम करने का अधिकार नहीं। ‘
‘ मैं शिकार खेलने न आयी थी। ‘ मेहता ने अनजान बनकर कहा — अच्छा यह मैं न जानता था। फिर क्या करने आयी थीं?
‘ अब तुमसे क्या बताऊँ। ‘
हिरनों का एक झुंड चरता हुआ नज़र आया। दोनों एक चट्टान की आड़ में छिप गये और निशाना बाँधकर गोली चलायी। निशाना ख़ाली गया। झुंड भाग निकला। मालती ने पूछा — अब?
‘ कुछ नहीं, चलो फिर कोई शिकार मिलेगा। ‘
दोनों कुछ देर तक चुपचाप चलते रहे। फिर मालती ने ज़रा रुककर कहा — गर्मी के मारे बुरा हाल हो रहा है। आओ, इस वृक्ष के नीचे बैठ जायँ।
‘ अभी नहीं। तुम बैठना चाहती हो, तो बैठो। मैं तो नहीं बैठता। ‘
‘ बड़े निर्दयी हो तुम, सच कहती हूँ। ‘
‘ जब तक कोई शिकार न मिल जाय, मैं बैठ नहीं सकता। ‘
‘ तब तो तुम मुझे मार ही डालोगे। अच्छा बताओ; रात तुमने मुझे इतना क्यों सताया? मुझे तुम्हारे ऊपर बड़ा क्रोध आ रहा था। याद है, तुमने मुझे क्या कहा था? तुम हमारे साथ चलेगा दिलदार? मैं न जानती थी, तुम इतने शरीर हो। अच्छा, सच कहना, तुम उस वक़्त मुझे अपने साथ ले जाते? ‘
मेहता ने कोई जवाब न दिया, मानो सुना ही नहीं। दोनों कुछ दूर चलते रहे। एक तो जेठ की धूप, दूसरे पथरीला रास्ता। मालती थककर बैठ गयी। मेहता खड़े-खड़े बोले — अच्छी बात है, तुम आराम कर लो। मैं यहीं आ जाऊँगा।
‘ मुझे अकेले छोड़कर चले जाओगे? ‘
‘ मैं जानता हूँ, तुम अपनी रक्षा कर सकती हो। ‘
‘ कैसे जानते हो? ‘
‘ नये युग की देवियों की यही सिफ़त है। वह मर्द का आश्रय नहीं चाहतीं, उससे कन्धा मिलाकर चलना चाहती हैं। ‘
मालती ने झेंपते हुए कहा — तुम कोरे फ़िलासफ़र हो मेहता, सच।
सामने वृक्ष पर एक मोर बैठा हुआ था। मेहता ने निशाना साधा और बन्दूक़ चलायी। मोर उड़ गया।
मालती प्रसन्न होकर बोली — बहुत अच्छा हुआ। मेरा शाप पड़ा।
मेहता ने बन्दूक़ कन्धे पर रखकर कहा — तुमने मुझे नहीं, अपने आपको शाप दिया। शिकार मिल जाता, तो मैं तुम्हें दस मिनट की मुहलत देता। अब तो तुमको फ़ौरन चलना पड़ेगा।
मालती उठकर मेहता का हाथ पकड़ती हुई बोली — फ़िलासफ़रों के शायद हृदय नहीं होता। तुमने अच्छा किया, विवाह नहीं किया। उस ग़रीब को मार ही डालते; मगर मैं यों न छोड़ूँगी। तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते।
मेहता ने एक झटके से हाथ छुड़ा लिया और आगे बढ़े। मालती सजलनेत्र होकर बोली — मैं कहती हूँ, मत जाओ। नहीं मैं इसी चट्टान पर सिर पटक दूँगी।
मेहता ने तेज़ी से क़दम बढ़ाये। मालती उन्हेंदेखती रही। जब वह बीस क़दम निकल गये, तो झुँझलाकर उठी और उनके पीछे दौड़ी। अकेले विश्राम करने में कोई आनन्द न था। समीप आकर बोली — मैं तुम्हें इतना पशु न समझती थी।
‘ मैं जो हिरन मारूँगा, उसकी खाल तुम्हें भेंट करूँगा। ‘
‘ खाल जाय भाड़ में। मैं अब तुमसे बात न करूँगी। ‘
‘ कहीं हम लोगों के हाथ कुछ न लगा और दूसरों ने अच्छे शिकार मारे तो मुझे बड़ी झेंप होगी। ‘
एक चौड़ा नाला मुँह फैलाये बीच में खड़ा था। बीच की चट्टानें उसके दाँतों से लगती थीं। धार में इतना वेग था कि लहरें उछली पड़ती थीं। सूर्य मध्याह्व पर आ पहुँचा था और उसकी प्यासी किरणेंजल में क्रीड़ा कर रही थीं। मालती ने प्रसन्न होकर कहा — अब तो लौटना पड़ा।
‘ क्यों? उस पार चलेंगे। यहीं तो शिकार मिलेंगे। ‘
‘ धारा में कितना वेग है। मैं तो बह जाऊँगी। ‘
‘ अच्छी बात है। तुम यहीं बैठो, मैं जाता हूँ। ‘
‘ हाँ आप जाइए। मुझे अपनी जान से बैर नहीं है। ‘
मेहता ने पानी में क़दम रखा और पाँव साधते हुए चले। ज्यों-ज्यों आगे जाते थे, पानी गहरा होता जाता था। यहाँ तक कि छाती तक आ गया। मालती अधीर हो उठी। शंका से मन चंचल हो उठा। ऐसी विकलता तो उसे कभी न होती थी। ऊँचे स्वर में बोली — पानी गहरा है। ठहर जाओ, मैं भी आती हूँ।
‘ नहीं-नहीं, तुम फिसल जाओगी। धार तेज़ है। ‘
‘ कोई हरज़ नहीं, मैं आ रही हूँ। आगे न बढ़ना, ख़बरदार। ‘
मालती साड़ी ऊपर चढ़ाकर नाले में पैठी। मगर दस हाथ आते-आते पानी उसकी कमर तक आ गया। मेहता घबड़ाये। दोनों हाथ से उसे लौट जाने को कहते हुए बोले — तुम यहाँ मत आओ मालती! यहाँ तुम्हारी गर्दन तक पानी है।
मालती ने एक क़दम और आगे बढ़कर कहा — होने दो। तुम्हारी यही इच्छा है कि मैं मर जाऊँ, तो तुम्हारे पास ही मरूँगी।
मालती पेट तक पानी में थी। धार इतनी तेज़ थी कि मालूम होता था, क़दम उखड़ा। मेहता लौट पड़े और मालती को एक हाथ से पकड़ लिया। मालती ने नशीली आँखों में रोष भरकर कहा — मैंने तुम्हारे-जैसे बेदर्द आदमी कभी न देखा था। बिल्कुल पत्थर हो। ख़ैर, आज सता लो, जितना सताते बने; मैं भी कभी समझूँगी।
मालती के पाँव उखड़ते हुए मालूम हुए। वह बन्दूक़ सँभालती हुई उनसे चिमट गयी। मेहता ने आश्वासन देते हुए कहा — तुम यहाँ खड़ी नहीं रह सकती। मैं तुम्हें अपने कन्धे पर बिठाये लेता हूँ।
मालती ने भृकुटी टेढ़ी करके कहा — तो उस पार जाना क्या इतना ज़रूरी है?
मेहता ने कुछ उत्तर न दिया। बन्दूक़ कनपटी से कन्धे पर दबा ली और मालती को दोनों हाथों से उठाकर कन्धे पर बैठा लिया। मालती अपनी पुलक को छिपाती हुई बोली — अगर कोई देख ले?
‘ भंा तो लगता है। ‘
दो पग के बाद उसने करुण स्वर में कहा — अच्छा बताओ, मैं यहीं पानी में डूब जाऊँ, तो तुम्हें रंज हो या न हो? मैं तो समझती हूँ, तुम्हें बिलकुल रंज न होगा। मेहता ने आहत स्वर से कहा — तुम समझती हो, मैं आदमी नहीं हूँ?
‘ मैं तो यही समझती हूँ, क्यों छिपाऊँ। ‘
‘ सच कहती हो मालती? ‘
‘ तुम क्या समझते हो? ‘
‘ मैं! कभी बतलाऊँगा। ‘
पानी मेहता के गर्दन तक आ गया। कहीं अगला क़दम उठाते ही सिर तक न आ जाय। मालती का हृदय धक-धक करने लगा। बोली, मेहता, ईश्वर के लिए अब आगे मत जाओ, नहीं, मैं पानी में कूद पड़ूँगी। उस संकट में मालती को ईश्वर याद आया, जिसका वह मज़ाक़ उड़ाया करती थी। जानती थी, ईश्वर कहीं बैठा नहीं है जो आकर उन्हें उबार लेगा; लेकिन मन को जिस अवलम्बन और शक्ति की ज़रूरत थी, वह और कहाँ मिल सकती थी। पानी कम होने लगा था। मालती ने प्रसन्न होकर कहा — अब तुम मुझे उतार दो।
‘ नहीं-नहीं, चुपचाप बैठी रहो। कहीं आगे कोई गढ़ा मिल जाय। ‘
‘ तुम समझते होगे, यह कितनी स्वार्थिनी है। ‘
‘ मुझे इसकी मज़दूरी दे देना। ‘
मालती के मन में गुदगुदी हुई।
‘ क्या मज़दूरी लोगे? ‘
‘ यही कि जब तुम्हें जीवन में ऐसा ही कोई अवसर आय तो मुझे बुला लेना। ‘
किनारे आ गये। मालती ने रेत पर अपनी साड़ी का पानी निचोड़ा, जूते का पानी निकाला, मुँह-हाथ धोया; पर ये शब्द अपने रहस्यमय आशय के साथ उसके सामने नाचते रहे। उसने इस अनुभव का आनन्द उठाते हुए कहा — यह दिन याद रहेगा।
मेहता ने पूछा — तुम बहुत डर रही थीं?
‘ पहले तो डरी; लेकिन फिर मुझे विश्वास हो गया कि तुम हम दोनों की रक्षा कर सकते हो। ‘
मेहता ने गर्व से मालती को देखा — इनके मुख पर परिश्रम की लाली के साथ तेज था।
‘ मुझे यह सुनकर कितना आनन्द आ रहा है, तुम यह समझ सकोगी मालती? ‘
‘ तुमने समझाया कब। उलटे और जंगलों में घसीटते फिरते हो; और अभी फिर लौटती बार यही नाला पार करना पड़ेगा। तुमने कैसी आफ़त में जान डाल दी। मुझे तुम्हारे साथ रहना पड़े, तो एक दिन न पटे। ‘
मेहता मुस्कराये। इन शब्दों का संकेत ख़ूब समझ रहे थे।
‘ तुम मुझे इतना दुष्ट समझती हो! और जो मैं कहूँ कि तुमसे प्रेम करता हूँ। मुझसे विवाह करोगी? ‘
‘ ऐसे काठ-कठोर से कौन विवाह करेगा! रात-दिन जलाकर मार डालोगे। ‘ और मधुर नेत्रों से देखा, मानी कह रही हो — इसका आशय तुम ख़ूब समझते हो। इतने बुद्धू नहीं हो।
मेहता ने जैसे सचेत होकर कहा — तुम सच कहती हो मालती। मैं किसी रमणी को प्रसन्न नहीं रख सकता। मुझसे कोई स्त्री प्रेम का स्वाँग नहीं कर सकती। मैं इसके अन्तस्तल तक पहुँच जाऊँगा। फिर मुझे उससे अरुचि हो जायगी।
मालती काँप उठी। इन शब्दों में कितना सत्य था। उसने पूछा — बताओ, तुम कैसे प्रेम से सन्तुष्ट होगे?
‘ बस यही कि जो मन में हो, वही मुख पर हो! मेरे लिए रंग–प और हाव-भाव और नाज़ो-अन्दाज़ का मूल्य इतना ही है; जितना होना चाहिए। मैं वह भोजन चाहता हूँ, जिससे आत्मा की तृप्ति हो। उत्तेजक और शोषक पदार्थो की मुझे ज़रूरत नहीं। ‘
मालती ने ओठ सिकोड़कर ऊपर साँस खींचते हुए कहा — तुमसे कोई पेश न पायेगा। एक ही घाघ हो। अच्छा बताओ, मेरे विषय में तुम्हारा क्या ख़याल है?
मेहता ने नटखटपन से मुस्कराकर कहा — तुम सब कुछ कर सकती हो, बुद्धिमती हो, चतुर हो, प्रतिभावान हो, दयालु हो, चंचल हो, स्वाभिमानी हो, त्याग कर सकती हो; लेकिन प्रेम नहीं कर सकती।
मालती ने पैनी दृष्टि से ताककर कहा — झूठे हो तुम, बिलकुल झूठे। मुझे तुम्हारा यह दावा निस्सार मालूम होता है कि तुम नारी-हृदय तक पहुँच जाते हो।
दोनों नाले के किनारे-किनारे चले जा रहे थे। बारह बज चुके थे; पर अब मालती को न विश्राम की इच्छा थी, न लौटने की। आज के सम्भाषण में उसे एक ऐसा आनन्द आ रहा था, जो उसके लिए बिलकुल नया था। उसने कितने ही विद्वानों और नेताओं को एक मुस्कान में, एक चितवन में, एक रसीले वाक्य में उल्लू बनाकर छोड़ दिया था। ऐसी बालू की दीवार पर वह जीवन का आधार नहीं रख सकती थी। आज उसे वह कठोर, ठोस, पत्थर-सी भूमि मिल गयी थी, जो फावड़ों से चिनगारियाँ निकाल रही थी और उसकी कठोरता उसे उत्तरोत्तर मोह लेती थी। धायँ की आवाज़ हुई। एक लालसर नाले पर उड़ा जा रहा था। मेहता ने निशाना मारा। चिड़िया चोट खाकर भी कुछ दूर उड़ी, फिर बीच धार में गिर पड़ी और लहरों के साथ बहने लगी।
‘ अब? ‘
‘ अभी जाकर लाता हूँ। जाती कहाँ है? ‘
यह कहने के साथ वह रेत में दौड़े और बन्दूक़ किनारे पर रख गड़ाप से पानी में कूद पड़े और बहाव की ओर तैरने लगे; मगर आध मील तक पूरा ज़ोर लगाने पर भी चिड़िया न पा सके। चिड़िया मर कर भी जैसे उड़ी जा रही थी। सहसा उन्होंने देखा, एक युवती किनारे की एक झोपड़ी से निकली, चिड़िया को बहते देखकर साड़ी को जाँघों तक चढ़ाया और पानी में घुस पड़ी। एक क्षण में उसने चिड़िया पकड़ ली और मेहता को दिखाती हुई बोली — पानी से निकल जाओ बाबूजी, तुम्हारी चिड़िया यह है।
मेहता युवती की चपलता और साहस देखकर मुग्ध हो गये। तुरन्त किनारे की ओर हाथ चलाये और दो मिनट में युवती के पास जा खड़े हुए। युवती का रंग था तो काला और वह भी गहरा, कपड़े बहुत ही मैले और फूहड़ आभूषण के नाम पर केवल हाथों में दो-दो मोटी चूड़ियाँ, सिर के बाल उलझे अलग-अलग। मुख-मंडल का कोई भाग ऐसा नहीं, जिसे सुन्दर या सुघड़ कहा जा सके; लेकिन उस स्वच्छ, निर्मल जलवायु ने उसके कालेपन में ऐसा लावण्य भर दिया था और प्रकृति की गोद में पलकर उसके अंग इतने सुडौल, सुगठित और स्वच्छन्द हो गये थे कि यौवन का चित्र खींचने के लिए उससे सुन्दर कोई रूप न मिलता। उसका सबल स्वास्थ्य जैसे मेहता के मन में बल और तेज भर रहा था।
मेहता ने उसे धन्यवाद देते हुए कहा — तुम बड़े मौक़े से पहुँच गयीं, नहीं मुझे न जाने कितनी दूर तैरना पड़ता।
युवती ने प्रसन्नता से कहा — मैंने तुम्हें तैरते आते देखा, तो दौड़ी। शिकार खेलने आये होंगे?
‘ हाँ, आये तो थे शिकार ही खेलने; मगर दोपहर हो गया और यही चिड़िया मिली है।
‘ तेंदुआ मारना चाहो, तो मैं उसका ठौर दिखा दूँ। रात को यहाँ रोज़ पानी पीने आता है। कभी-कभी दोपहर में भी आ जाता है। ‘
फिर ज़रा सकुचाकर सिर झुकाये बोली — उसकी खाल हमेंदेनी पड़ेगी। चलो मेरे द्वार पर। वहाँ पीपल की छाया है। यहाँ धूप मेंकब तक खड़े रहोगे। कपड़े भी तो गीले हो गये हैं।
मेहता ने उसकी देह में चिपकी हुई गीली साड़ी की ओर देखकर कहा — तुम्हारे कपड़े भी तो गीले हैं। उ
सने लापरवाही से कहा — ऊँह हमारा क्या, हम तो जंगल के हैं। दिन-दिन भर धूप और पानी में खड़े रहते हैं। तुम थोड़े ही रह सकते हो। लड़की कितनी समझदार है और बिलकुल गँवार।
‘ तुम खाल लेकर क्या करेगी? ‘
‘ हमारे दादा बाज़ार में बेचते हैं। यही तो हमारा काम है। ‘
‘ लेकिन दोपहरी यहाँ काटें, तो तुम खिलाओगी क्या? ‘
युवती ने लजाते हुए कहा — तुम्हारे खाने लायक़ हमारे घर में क्या है। मक्के की रोटियाँ खाओ, जो धरी हैं। चिड़िये का सालन पका दूँगी। तुम बताते जाना जैसे बनाना हो। थोड़ा-सा दूध भी है। हमारी गैया को एक बार तेंदुए ने घेरा था। उसे सींगों से भगाकर भाग आयी, तब से तेंदुआ उससे डरता है।
‘ लेकिन मैं अकेला नहीं हूँ। मेरे साथ एक औरत भी है। ‘
‘ तुम्हारी घरवाली होगी? ‘
‘ नहीं, घरवाली तो अभी नहीं है, जान-पहचान की है। ‘
‘ तो मैं दौड़कर उनको बुला लाती हूँ। तुम चलकर छाँह मेंबैठो। ‘
‘ नहीं-नहीं, मैं बुला लाता हूँ। ‘
‘ तुम थक गये होगे। शहर का रहैया जंगल में काहे आते होंगे। हम तो जंगली आदमी हैं। किनारे ही तो खड़ी होंगी। ‘
जब तक मेहता कुछ बोलें, वह हवा हो गयी। मेहता ऊपर चढ़कर पीपल की छाँह में बैठे। इस स्वच्छन्द जीवन से उनके मन में अनुराग उत्पन्न हुआ। सामने की पर्वतमाला दर्शन-तत्व की भाँति अगम्य और अत्यन्त फै हुई, मानो ज्ञान का विस्तार कर रही हो, मानो आत्मा उस ज्ञान को, उस प्रकाश को, उस अगम्यता को, उसके प्रत्यक्ष विराट रूप में देख रही हो। दूर के एक बहुत ऊँचे शिखर पर एक छोटा-सा मन्दिर था, जो उस अगम्यता में बुद्धि की भाँति ऊँचा, पर खोया हुआ-सा खड़ा था, मानो वहाँ तक पर मारकर पक्षी विश्राम लेना चाहता है और कहीं स्थान नहीं पाता। मेहता इन्हीं विचारों में डूबे हुए थे कि युवती मिस मालती को साथ लिये आ पहुँची, एक वन-पुष्प की भाँति धूप में खिली हुई, दूसरी गमले के फूल की भाँति धूप मेंमुरझायी और निजीद्मव। मालती ने बेदिली के साथ कहा — पीपल की छाँह बहुत अच्छी लग रही है क्या? और यहाँ भूख के मारे प्राण निकले जा रहे हैं। युवती दो बड़े-बड़े मटके उठा लायी और बोली — तुम जब तक यहीं बैठो, मैं अभी दौड़कर पानी लाती हूँ, फिर चूल्हा जला दूँगी; और मेरे हाथ का खाओ, तो मैं एक छन में बोटियाँ सेंक दूँगी, नहीं, अपने आप सेंक लेना। हाँ, गेहूँ का आटा मेरे घर में नहीं है और यहाँ कहीं कोई दूकान भी नहीं है कि ला दूँ। मालती को मेहता पर क्रोध आ रहा था। बोली — तुम यहाँ क्यों आकर पड़ रहे? मेहता ने चिढ़ाते हुए कहा — एक दिन ज़रा इस जीवन का आनन्द भी तो उठाओ। देखो, मक्के की रोटियों मेंकितना स्वाद है। ‘ मुझसे मक्के की रोटियाँ खायी ही न जायँगी, और किसी तरह निगल भी जाऊँ तो हज़म न होंगी। तुम्हारे साथ आकर मैं बहुत पछता रही हूँ। रास्ते-भर दौड़ा के मार डाला और अब यहाँ लाकर पटक दिया! ‘ मेहता ने कपड़े उतार दिये थे और केवल एक नीला जाँघिया पहने बैठे हुए थे। युवती को मटके ले जाते देखा, तो उसके हाथ से मटके छीन लिये और कुएँ पर पानी भरने चले। दर्शन के गहरे अध्ययन में भी उन्होंने अपने स्वास्थ्य की रक्षा की थी और दोनों मटके लेकर चलते हुए उनकी मांसल भुजाएँ और चौड़ी छाती और मछलीदार जाँघें किसी यूनानी प्रतिमा के सुगठित अंगों की भाँति उनके पुरुषार्थ का परिचय दे रही थीं। युवती उन्हें पानी खींचते हुए अनुराग भरी आँखों से देख रही थी। वह अब उसकी दया के पात्र नहीं, श्रद्धा के पात्र हो गये थे। कुआँ बहुत गहरा था, कोई साठ हाथ, मटके भारी थे और मेहता कसरत का अभ्यास करते रहने पर भी एक मटका खींचते-खींचते शिथिल हो गये। युवती ने दौड़कर उनके हाथ से रस्सी छीन ली और बोली — तुमसे न खिंचेगा। तुम जाकर खाट पर बैठो, मैं खींचे लेती हूँ। मेहता अपने पुरुषत्व का यह अपमान न सह सके। रस्सी उसके हाथ से फिर ले ली और ज़ोर मारकर एक क्षण में दूसरा मटका भी खींच लिया और दोनों हाथों में दोनों मटके लिए आकर झोंपड़ी के द्वार पर खड़े हो गये। युवती ने चटपट आग जलायी, लालसर के पंख झुलस डाले। छुरे से उसकी बोटियाँ बनायीं और चूल्हे मेंआग जलाकर मांस चढ़ा दिया और चूल्हे के दूसरे ऐले पर कढ़ाई मेंदूध उबालने लगी। और मालती भौंहेंचढ़ाये, खाट पर खिन्न-मन पड़ी इस तरह यह द श्य देख रही थी मानो उसके आपरेशन की तैयारी हो रही हो। मेहता झोपड़ी के द्वार पर खड़े होकर, युवती के ग ह-कौशल को अनुरक्त नेत्रों से देखते हुए बोले — मुझे भी तो कोई काम बताओ, मैं क्या करूँ? युवती ने मीठी झिड़की के साथ कहा — तुम्हें कुछ नहीं करना है, जाकर बाई के पास बैठो, बेचारी बहुत भूखी है। दूध गरम हुआ जाता है, उसे पिला देना। उसने एक घड़े से आटा निकाला और गूँधने लगी। मेहता उसके अंगों का विलास देखते रहे। युवती भी रह-रहकर उन्हेंकनखियों से देखकर अपना काम करने लगती थी। मालती ने पुकारा — तुम वहाँ क्या खड़े हो? मेरे सिर मेंज़ोर का ददद्म हो रहा है। आधा सिर ऐसा फटा पड़ता है, जैसे गिर जायगा। मेहता ने आकर कहा — मालूम होता है, धूप लग गयी है।
‘ मैं क्या जानती थी, तुम मुझे मार डालने के लिए यहाँ ला रहे हो। ‘
‘ तुम्हारे साथ कोई दवा भी तो नहीं है? ‘
‘ क्या मैं किसी मरीज़ को देखने आ रही थी, जो दवा लेकर चलती? मेरा एक दवाओं का बक्स है, वह सेमरी में है। उफ़! सिर फटा जाता है! ‘
मेहता ने उसके सिर की ओर ज़मीन पर बैठकर धीरे-धीरे उसका सिर सहलाना शुरू किया। मालती ने आँखें बन्द कर लीं। युवती हाथों में आटा भरे, सिर के बाल बिखेरे, आँखें धुएँ से लाल और सजल, सारी देह पसीने में तर, जिससे उसका उभरा हुआ वक्ष साफ़ झलक रहा था, आकर खड़ी हो गयी और मालती को आँखें बन्द किये पड़ी देखकर बोली — बाई को क्या हो गया है?
मेहता बोले — सिर में बड़ा दर्द है।
‘ पूरे सिर में है कि आधे में? ‘
‘ आधे में बतलाती हैं। ‘
‘ दाईं ओर है, कि बाईं ओर? ‘
‘ बाईं ओर। ‘
‘ मैं अभी दौड़ के एक दवा लाती हूँ। घिसकर लगाते ही अच्छा हो जायगा। ‘
‘ तुम इस धूप में कहाँ जाओगी? ‘
युवती ने सुना ही नहीं। वेग से एक ओर जाकर पहाड़ियों में छिप गयी। कोई आधा घंटे बाद मेहता ने उसे ऊँची पहाड़ी पर चढ़ते देखा। दूर से बिलकुल गुड़िया-सी लग रही थी। मन में सोचा — इस जंगली छोकरी में सेवा का कितना भाव और कितना व्यावहारिक ज्ञान है। लू और धूप में आसमान पर चढ़ी चली जा रही है। मालती ने आँखें खोलकर देखा — कहाँ गयी वह कलूटी। ग़ज़ब की काली है, जैसे आबनूस का कुन्दा हो। इसे भेज दो, राय साहब से कह आये, कार यहाँ भेज दें। इस तपिश मेंमेरा दम निकल जायगा।
‘ कोई दवा लेने गयी है। कहती है, उससे आधा-सीसी का दर्द बहुत जल्द आराम हो जाता है! ‘
‘ इनकी दवाएँ इन्हीं को फ़ायदा करती हैं, मुझे न करेंगी। तुम तो इस छोकरी पर लट्टू हो गये हो। कितने छिछोरे हो। जैसी रूह वैसे फ़रिश्ते! ‘ मेहता को कटु सत्य कहने में संकोच न होता था। ‘ कुछ बातेंतो उसमें ऐसी हैं कि अगर तुममें होतीं, तो तुम सचमुच देवी हो जातीं। ‘
‘ उसकी ख़ूबियाँ उसे मुबारक, मुझे देवी बनने की इच्छा नहीं है। ‘
‘ तुम्हारी इच्छा हो, तो मैं जाकर कार लाऊँ, यद्यपि कार यहाँ आ भी सकेगी, मैं नहीं कह सकता। ‘
‘ उस कलूटी को क्यों नहीं भेज देते? ‘
‘ वह तो दवा लेने गयी है, फिर भोजन पकायेगी। ‘
‘ तो आज आप उसके मेहमान हैं। शायद रात को भी यहीं रहने का विचार होगा। रात को शिकार भी तो अच्छा मिलते हैं। ‘
मेहता ने इस आक्षेप से चिढ़कर कहा — इस युवती के प्रति मेरे मन में जो प्रेम और श्रद्धा है, वह ऐसी है कि अगर मैं उसकी ओर वासना से देखूँ तो आँखें फूट जायँ। मैं अपने किसी घनिष्ट मित्र के लिए भी इस धूप और लू में उस ऊँची पहाड़ी पर न जाता। और हम केवल घड़ी-भर के मेहमान हैं, यह वह जानती है। वह किसी ग़रीब औरत के लिए भी इसी तत्परता से दौड़ जायगी। मैं विश्व-बन्धुत्व और विश्व-प्रेम पर केवल लेख लिख सकता हूँ, केवल भाषण दे सकता हूँ; वह उस प्रेम और त्याग का व्यवहार कर सकती है। कहने से करना कहीं कठिन है। इसे तुम भी जानती हो। मालती ने उपहास भाव से कहा — बस-बस, वह देवी है। मैं मान गयी। उसके वक्ष में उभार है, नितम्बों में भारीपन है, देवी होने के लिए और क्या चाहिए। मेहता तिलमिला उठे। तुरन्त उठे, और कपड़े पहने जो सूख गये थे, बन्दूक़ उठायी और चलने को तैयार हुए। मालती ने फुंकार मारी — तुम नहीं जा सकते, मुझे अकेली छोड़कर।
‘ तब कौन जायगा? ‘
‘ वही तुम्हारी देवी। ‘
मेहता हतबुद्धि-से खड़े थे। नारी पुरुष पर कितनी आसानी से विजय पा सकती है, इसका आज उन्हें जीवन में पहला अनुभव हुआ। वह दौड़ी हाँफती चली आ रही थी। वही कलूटी युवती, हाथ में एक झाड़ लिये हुए। समीप जाकर मेहता को कहीं जाने को तैयार देखकर बोली — मैं वह जड़ी खोज लायी। अभी घिसकर लगाती हूँ; लेकिन तुम कहाँ जा रहे हो। मांस तो पक गया होगा, मैं रोटियाँ सेंक देती हूँ। दो-एक खा लेना। बाई दूध पी लेगी। ठंडा हो जाय, तो चले जाना। उसने निस्संकोच भाव से मेहता के अचकन की बटनें खोल दीं। मेहता अपने को बहुत रोके हुए थे। जी होता था, इस गँवारिन के चरणों को चूम लें। मालती ने कहा — अपनी दवाई रहने दो। नदी के किनारे, बरगद के नीचे हमारी मोटरकार खड़ी है। वहाँ और लोग होंगे। उनसे कहना, कार यहाँ लायें। दौड़ी हुई जा। युवती ने दीन नेत्रों से मेहता को देखा। इतनी मेहनत से बूटी लायी, उसका यह अनादर। इस गँवारिन की दवा इन्हें नहीं जँची, तो न सही, उसका मन रखने को ही ज़रा-सी लगवा लेतीं, तो क्या होता। उसने बूटी ज़मीन पर रखकर पूछा — तब तक तो चूल्हा ठंडा हो जायगा बाईजी। कहो तो रोिटयाँ सेंककर रख दूँ। बाबूजी खाना खा लें, तुम दूध पी लो और दोनों जने आराम करो। तब तक मैं मोटरवाले को बुला लाऊँगी। वह झोपड़ी में गयी, बुझी हुई आग फिर जलायी। देखा तो मांस उबल गया था। कुछ जल भी गया था। जल्दी-जल्दी रोटियाँ सेंकी, दूध गर्म था, उसे ठंडा किया और एक कटोरे में मालती के पास लायी। मालती ने कटोरे के भेंपन पर मुँह बनाया; लेकिन दूध त्याग न सकी। मेहता झोपड़ी के द्वार पर बैठकर एक थाली में मांस और रोटियाँ खाने लगे। युवती खड़ी पंखा झल रही थी। मालती ने युवती से कहा — उन्हें खाने दे। कहीं भागे नहीं जाते हैं। तू जाकर गाड़ी ला। युवती ने मालती की ओर एक बार सवाल की आँखों से देखा, यह क्या चाहती हैं। इनका आशय क्या है? उसे मालती के चेहरे पर रोगियों की-सी नम्रता और कृतिज्ञता और याचना न दिखायी दी। उसकी जगह अभिमान और प्रमाद की झलक थी। गँवारिन मनोभावों के पहचानने में चतुर थी। बोली — मैं किसी की लौंडी नहीं हूँ बाईजी! तुम बड़ी हो, अपने घर की बड़ी हो। मैं तुमसे कुछ माँगने तो नहीं जाती। मैं गाड़ी लेने न जाऊँगी।
मालती ने डाँटा — अच्छा, तूने गुस्ताख़ी पर कमर बाँधी! बता तू किसके इलाक़े में रहती है?
‘ यह राय साहब का इलाक़ा है। ‘
‘ तो तुझे उन्हीं राय साहब के हाथों हंटरों से पिटवाऊँगी। ‘
‘ मुझे पिटवाने से तुम्हें सुख मिले तो पिटवा लेना बाईजी! कोई रानी-महारानी थोड़ी हूँ कि लस्कर भेजनी पड़ेगी। ‘
मेहता ने दो-चार कौर निगले थे कि मालती की यह बातें सुनीं। कौर कंठ में अटक गया। जल्दी से हाथ धोया और बोले — वह नहीं जायगी। मैं जा रहा हूँ।
मालती भी खड़ी हो गयी — उसे जाना पड़ेगा।
मेहता ने अँग्रेज़ी में कहा — उसका अपमान करके तुम अपना सम्मान बढ़ा नहीं रही हो मालती!
मालती ने फटकार बतायी — ऐसी ही लौंडियाँ मर्दो को पसन्द आती हैं, जिनमें और कोई गुण हो या न हो, उनकी टहल दौड़-दौड़कर प्रसन्न मन से करें और अपना भाग्य सराहें कि इस पुरुष ने मुझसे यह काम करने को तो कहा। वह देवियाँ हैं, शक्तियाँ हैं, विभूतियाँ हैं। मैं समझती थी, वह पुरुषत्व तुममें कम-से-कम नहीं है; लेकिन अन्दर से, संस्कारों से, तुम भी वही बर्बर हो। मेहता मनोविज्ञान के पण्डित थे। मालती के मनोरहस्यों को समझ रहे थे। ईर्ष्या का ऐसा अनोखा उदाहरण उन्हें कभी न मिला था। उस रमणी में, जो इतनी मृदु-स्वभाव, इतनी उदार, इतनी प्रसन्नमुख थी, ईर्ष्या की ऐसी प्रचंड ज्वाला! बोले — कुछ भी कहो, मैं उसे न जाने दूँगा। उसकी सेवाओं और कपिओं का यह पुरस्कार देकर मैं अपनी नज़रों में नीच नहीं बन सकता। मेहता के स्वर में कुछ ऐसा तेज था कि मालती धीरे से उठी और चलने को तैयार हो गयी। उसने जलकर कहा — अच्छा, तो मैं ही जाती हूँ, तुम उसके चरणों की पूजा करके पीछे आना। मालती दो-तीन क़दम चली गयी, तो मेहता ने युवती से कहा — अब मुझे आज्ञा दो बहन; तुम्हारा यह नेह, तुम्हारी निःस्वार्थ सेवा हमेशा याद रहेगी। युवती ने दोनों हाथों से, सजलनेत्र होकर उन्हें प्रणाम किया और झोपड़ी के अन्दर चली गयी।
दूसरी टोली राय साहब और खन्ना की थी। राय साहब तो अपने उसी रेशमी कुरते और रेशमी चादर में थे। मगर खन्ना ने शिकारी सूट डाटा था, जो शायद आज ही के लिए बनवाया गया था; क्योंकि खन्ना को असामियों के शिकार से इतनी फ़ुरसत कहाँ थी कि जानवरों का शिकार करते। खन्ना ठिंगने, इकहरे, रूपवान आदमी थे; गेहुँआ रंग, बड़ी-बड़ी आँखें, मुँह पर चेचक के दाग़; बात-चीत में बड़े कुशल। कुछ दूर चलने के बाद खन्ना ने मिस्टर मेहता का ज़िकर छेड़ दिया जो कल से ही उनके मस्तिष्क में राहु की भाँति समाये हुए थे। बोले — यह मेहता भी कुछ अजीब आदमी है। मुझे तो कुछ बना हुआ मालूम होता है।
राय साहब मेहता की इज़्ज़त करते थे और उन्हें सच्चा और निष्कपट आदमी समझते थे; पर खन्ना से लेन-देन का व्यवहार था, कुछ स्वभाव से शान्ति-प्रिय भी थे, विरोध न कर सके। बोले — मैं तो उन्हें केवल मनोरंजन की वस्तु समझता हूँ। कभी उनसे बहस नहीं करता। और करना भी चाहूँ तो उतनी विद्या कहाँ से लाऊँ। जिसने जीवन के क्षेत्र में कभी क़दम ही नहीं रखा, वह अगर जीवन के विषय में कोई नया सिद्धान्त अलापता हैं तो मुझे उस पर हँसी आती है। मज़े से एक हज़ार माहवार फटकारते हैं, न जोरू न जाँता, न कोई चिन्ता न बाधा, वह दर्शन न बघारें, तो कौन बघारे? आप निद्वद्वद्व रहकर जीवन को सम्पूर्ण बनाने का स्वप्न देखते हैं। ऐसे आदमी से क्या बहस की जाय।
‘ मैंने सुना चरित्र का अच्छा नहीं है। ‘
‘ बेफ़िक्री में चरित्र अच्छा रह ही कैसे सकता है। समाज में रहो और समाज के कर्तव्यों और मर्यादाओं का पालन करो तब पता चले! ‘
‘ मालती न जाने क्या देखकर उन पर लट्टू हुई जाती है। ‘
‘ मैं समझता हूँ, वह केवल तुम्हें जला रही है। ‘
‘ मुझे वह क्या जलायेंगी। बेचारी। मैं उन्हें खिलौने से ज़्यादा नहीं समझता। ‘
‘ यह तो न कहो मिस्टर खन्ना, मिस मालती पर जान तो देते हो तुम। ‘
‘ यों तो मैं आपको भी यही इलज़ाम दे सकता हूँ। ‘
‘ मैं सचमुच खिलौना समझता हूँ। आप उन्हें प्रतिमा बनाये हुए हैं। ‘ खन्ना ने ज़ोर से क़हक़हा मारा, हालाँकि हँसी की कोई बात न थी! ‘ अगर एक लोटा जल चढ़ा देने से वरदान मिल जाय, तो क्या बुरा है। ‘ अबकी राय साहब ने ज़ोर से क़हक़हा मारा, जिसका कोई प्रयोजन न था। ‘ तब आपने उस देवी को समझा ही नहीं। आप जितनी ही उसकी पूजा करेंगे, उतना ही वह आप से दूर भागेगी। जितना ही दूर भागियेगा, उतना ही आपकी ओर दौड़ेगी। ‘
‘ तब तो उन्हें आपकी ओर दौड़ना चाहिए था। ‘
‘ मेरी ओर! मैं उस रसिक-समाज से बिलकुल बाहर हूँ मिस्टर खन्ना, सच कहता हूँ। मुझमें जितनी बुद्धि, जितना बल हैं वह इस इलाक़े के प्रबन्ध में ही ख़र्च हो जाता है। घर के जितने प्राणी हैं, सभी अपनी-अपनी धुन में मस्त; कोई उपासना में, कोई विषय-वासना में। कोऊ काहू में मगन, कोऊ काहू में मगन। और इन सब अजगरों को भक्ष्य देना मेरा काम हैं कर्तव्य है। मेरे बहुत से ताल्लुक़ेदार भाई भोग-विलास करते हैं, यह सब मैं जानता हूँ। मगर वह लोग घर फूँककर तमाशा देखते हैं। क़रज़ का बोझ सिर पर लदा जा रहा हैं रोज़ डिग्रियाँ हो रही हैं। जिससे लेते हैं, उसे देना नहीं जानते, चारों तरफ़ बदनाम। मैं तो ऐसी ज़िन्दगी से मर जाना अच्छा समझता हूँ। मालूम नहीं, किस संस्कार से मेरी आत्मा में ज़रा-सी जान बाक़ी रह गयी, जो मुझे देश और समाज के बन्धन में बाँधे हुए है। सत्याग्रह-आन्दोलन छिड़ा। मेरे सारे भाई शराब-क़बाब में मस्त थे। मैं अपने को न रोक सका। जेल गया और लाखों रुपए की ज़ेरबारी उठाई और अभी तक उसका तावान दे रहा हूँ। मुझे उसका पछतावा नहीं है। बिलकुल नहीं। मुझे उसका गर्व है। मैं उस आदमी को आदमी नहीं समझता, जो देश और समाज की भलाई के लिए उद्योग न करे और बलिदान न करे। मुझे क्या अच्छा लगता है कि निर्जीव किसानों का रक्त चूसूँ और अपने परिवारवालों की वासनाओं की तृप्ति के साधन जुटाऊँ; मगर करूँ क्या? जिस व्यवस्था में पला और जिया, उससे घ णा होने पर भी उसका मोह त्याग नहीं सकता और उसी चरखे में रात-दिन पड़ा रहता हूँ कि किसी तरह इज़्ज़त-आबरू बची रहे, और आत्मा की हत्या न होने पाये। एेसा आदमी मिस मालती क्या, किसी भी मिस के पीछे नहीं पड़ सकता, और पड़े तो उसका सर्वनाश ही समझिये। हाँ, थोड़ा-सा मनोरंजन कर लेना दूसरी बात है। मिस्टर खन्ना भी साहसी आदमी थे, संग्राम में आगे बढ़नेवाले। दो बार जेल हो आये थे। किसी से दबना न जानते थे। खद्दर न पहनते थे और फ़्रांस की शराब पीते थे। अवसर पड़ने पर बड़ी-बड़ी तकलीफ़ें झेल सकते थे। जेल में शराब छुई तक नहीं, और ए. क्लास में रहकर भी सी. क्लास की रोटियाँ खाते रहे, हालाँकि, उन्हें हर तरह का आराम मिल सकता था; मगर रण-क्षेत्र में जानेवाला रथ भी तो बिना तेल के नहीं चल सकता। उनके जीवन में थोड़ी-सी रसिकता लाज़िमा थी। बोले — आप संन्यासी बन सकते हैं, मैं तो नहीं बन सकता। मैं तो समझता हूँ, जो भोगी नहीं हैं वह संग्राम में भी पूरे उत्साह से नहीं जा सकता। जो रमणी से प्रेम नहीं कर सकता, उसके देश-प्रेम में मुझे विश्वास नहीं। राय साहब मुस्कराये — आप मुझी पर आवाज़ें कसने लगे।
‘ आवाज़ नहीं हैं तत्व की बात है। ‘
‘ शायद हो। ‘ ‘ आप अपने दिल के अन्दर पैठकर देखिए तो पता चले। ‘
‘ मैंने तो पैठकर देखा हैं और मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, वहाँ और चाहे जितनी बुराइयाँ हों, विषय की लालसा नहीं है। ‘
‘ तब मुझे आपके ऊपर दया आती है। आप जो इतने दुखी और निराश और चिन्तित हैं, इसका एकमात्र कारण आपका निग्रह है। मैं तो यह नाटक खेलकर रहूँगा, चाहे दुःखान्त ही क्यों न हो! वह मुझसे मज़ाक़ करती हैं दिखाती है कि मुझे तेरी परवाह नहीं है; लेकिन मैं हिम्मत हारनेवाला मनुष्य नहीं हूँ। मैं अब तक उसका मिज़ाज नहीं समझ पाया। कहाँ निशाना ठीक बैठेगा, इसका निश्चय न कर सका। ‘
‘ लेकिन वह कुंजी आपको शायद ही मिले। मेहता शायद आपसे बाज़ी मार ले जायँ। ‘ एक हिरन कई हिरनियों के साथ चर रहा था, बड़े सींगोंवाला, बिलकुल काला। राय साहब ने निशाना बाँधा। खन्ना ने रोका — क्यों हत्या करते हो यार? बेचारा चर रहा हैं चरने दो। धूप तेज़ हो गयी हैं आइए कहीं बैठ जायँ। आप से कुछ बातें करनी हैं। राय साहब ने बन्दूक़ चलायी; मगर हिरन भाग गया। बोले — एक शिकार मिला भी तो निशाना ख़ाली गया।
‘ एक हत्या से बचे। ‘
‘ आपके इलाक़े में ऊख होती है? ‘
‘ बड़ी कसरत से। ‘
‘ तो फिर क्यों न हमारे शुगर मिल में शामिल हो जाइए। हिस्से धड़ाधड़ बिक रहे हैं। आप ज़्यादा नहीं एक हज़ार हिस्से ख़रीद लें? ‘
‘ ग़ज़ब किया, मैं इतने रुपए कहाँ से लाऊँगा? ‘
‘ इतने नामी इलाक़ेदार और आपको रुपयों की कमी! कुछ पचास हज़ार ही तो होते हैं। उनमें भी अभी २५ फ़ीसदी ही देना है। ‘
‘ नहीं भाई साहब, मेरे पास इस वक़्त बिलकुल रुपए नहीं हैं। ‘
‘ रुपए जितने चाहें, मुझसे लीजिए। बैंक आपका है। हाँ, अभी आपने अपनी ज़िन्दगी इंश्योर्ड न करायी होगी। मेरी कम्पनी में एक अच्छी-सी पालिसी लीजिए। सौ-दो सौ रुपए तो आप बड़ी आसानी से हर महीने दे सकते हैं और इकट्ठी रक़म मिल जायगी — चालीस-पचास हज़ार। लड़कों के लिए इससे अच्छा प्रबन्ध आप नहीं कर सकते। हमारी नियमावली देखिए। हम पूर्ण सहकारिता के सिद्धान्त पर काम करते हैं। दफ़्तर और कर्मचारियों के ख़र्च के सिवा नफ़े की एक पाई भी किसी की जेब में नहीं जाती। आपको आश्चर्य होगा कि इस नीति से कम्पनी चल कैसे रही है। और मेरी सलाह से थोड़ा-सा स्पेकुलेशन का काम भी शुरू कर दीजिए। यह जो आज सैकड़ों करोड़पति बने हुए हैं, सब इसी स्पेकुलेशन से बने हैं। रूई, शक्कर, गेहूँ, रबर किसी जिंस का सट्टा कीजिए। मिनटों में लाखों का वारा-न्यारा होता है। काम ज़रा अटपटा है। बहुत से लोग गच्चा खा जाते हैं, लेकिन वही, जो अनाड़ी हैं। आप जैसे अनुभवी, सुशिक्षित और दूरन्देश लोगों के लिए इससे ज़्यादा नफ़े का काम ही नहीं। बाज़ार का चढ़ाव-उतार कोई आकिस्मक घटना नहीं। इसका भी विज्नान है। एक बार उसे ग़ौर से देख लीजिए, फिर क्या मजाल कि धोखा हो जाय। ‘ राय साहब कम्पनियों पर अविश्वास करते थे, दो-एक बार इसका उन्हें कड़वा अनुभव हो भी चुका था, लेकिन मिस्टर खन्ना को उन्होंने अपनी आँखों से बढ़ते देखा था और उनकी कार्यदक्षता के क़ायल हो गये थे। अभी दस साल पहले जो व्यक्ति बैंक में क्लर्क था, वह केवल अपने अध्यवसाय, पुरुषार्थ और प्रतिभा से शहर में पुजता है। उसकी सलाह की उपेक्षा न की जा सकती थी। इस विषय में अगर खन्ना उनके पथ-प्रदर्शक हो जायँ, तो उन्हें बहुत कुछ कामयाबी हो सकती है। एेसा अवसर क्यों छोड़ा जाय। तरह-तरह के प्रश्न करते रहे। सहसा एक देहाती एक बड़ी-सी टोकरी में कुछ जड़ें, कुछ पित्तयाँ, कुछ फल लिये जाता नज़र आया। खन्ना ने पूछा — अरे, क्या बेचता है? देहाती सकपका गया। डरा, कहीं बेगार में न पकड़ जाय। बोला — कुछ तो नहीं मालिक! यही घास-पात है।
‘ क्या करेगा इनका? ‘
‘ बेचूँगा मालिक! जड़ी-बूटी है। ‘
‘ कौन-कौन सी जड़ी बूटी हैं बता? ‘ देहाती ने अपना औषधालय खोलकर दिखलाया। मामूली चीज़ें थीं जो जंगल के आदमी उखाड़कर ले जाते हैं और शहर में अत्तारों के हाथ दो-चार आने में बेच आते हैं। जैसे मकोय, कंघी, सहदेईया, कुकरौंधे, धतूरे के बीज, मदार के फूल, करजे, घमची आदि। हर-एक चीज़ दिखाता था और रटे हुए शब्दों में उसके गुण भी बयान करता जाता था। यह मकोय है सरकार! ताप हो, मन्दाग्नि हो, तिल्ली हो, धड़कन हो, शूल हो, खाँसी हो, एक खोराक में आराम हो जाता है। यह धतूरे के बीज हैं मालिक, गठिया हो, बाई हो …। खन्ना ने दाम पूछा — उसने आठ आने कहे। खन्ना ने एक रुपया फेंक दिया और उसे पड़ाव तक रख आने का हुक्म दिया। ग़रीब ने मुँह-माँगा दाम ही नहीं पाया, उसका दुगुना पाया। आशीर्वाद देता चला गया। राय साहब ने पूछा — आप यह घास-पात लेकर क्या करेंगे? खन्ना ने मुस्कराकर कहा — इनकी अशर्फ़ियाँ बनाऊँगा। मैं कीमियागर हूँ। यह आपको शायद नहीं मालूम।
‘ तो यार, वह मन्त्र हमें सिखा दो। ‘
‘ हाँ-हाँ, शौक़ से। मेरी शागिर्दी कीजिए। पहले सवा सेर लड्डू लाकर चढ़ाइए, तब बताऊँगा। बात यह है कि मेरा तरह-तरह के आदमियों से साबक़ा पड़ता है। कुछ एेसे लोग भी आते हैं, जो जड़ी-बूिटयों पर जान देते हैं। उनको इतना मालूम हो जाय कि यह किसी फ़कीर की दी हुई बूटी हैं फिर आपकी ख़ुशामद करेंगे, नाक रगड़ेंगे, और आप वह चीज़ उन्हें दे दें, तो हमेशा के लिए आपके ऋणी हो जायँगे। एक रुपए में अगर दस-बीस बुद्धुओं पर एहसान का नमदा कसा जा सके, तो क्या बुरा है। ज़रा से एहसान से बड़े-बड़े काम निकल जाते हैं। राय साहब ने कुतूहल से पूछा — मगर इन बूटियों के गुण आपको याद कैसे रहेंगे? खन्ना ने क़हक़हा मारा — आप भी राय साहब! बड़े मज़े की बातें करते हैं। जिस बूटी में जो गुण चाहे बता दीजिए, वह आपकी लियाक़त पर मुनहसर है। सेहत तो रुपए में आठ आने विश्वास से होती है। आप जो इन बड़े-बड़े अफ़सरों को देखते हैं, और इन लम्बी पूँछवाले विद्वानों को, और इन रईसों को, ये सब अन्धविश्वासी होते हैं। मैं तो वनस्पति-शास्त्र के प्रोफ़ेसर को जानता हूँ, जो कुकरौंधे का नाम भी नहीं जानते। इन विद्वानों का मज़ाक़ तो हमारे स्वामीजी ख़ूब उड़ाते हैं। आपको तो कभी उनके दर्शन न हुए होंगे। अबकी आप आयेंगे, तो उनसे मिलाऊँगा। जब से मेरे बग़ीचे में ठहरे हैं, रात-दिन लोगों का ताँता लगा रहता है। माया तो उन्हें छू भी नहीं गयी। केवल एक बार दूध पीते हैं। ऐसा विद्वान महात्मा मैंने आज तक नहीं देखा। न जाने कितने वर्ष; हिमालय पर तप करते रहे। पूरे सिद्ध पुरुष हैं। आप उनसे अवश्य दीक्षा लीजिए। मुझे विश्वास हैं आपकी यह सारी कठिनाइयाँ छूमन्तर हो जायँगी। आपको देखते ही आपका भूत-भविष्य सब कह सुनायेंगे। ऐसे प्रसन्नमुख हैं कि देखते ही मन खिल उठता है। ताज्जुब तो यह है कि ख़ुद इतने बड़े महात्मा हैं; मगर संन्यास और त्याग मिन्दर और मठ, सम्प्रदाय और पन्थ, इन सबको ढोंग कहते हैं, पाखंड कहते हैं, रूढ़ियों के बन्धन को तोड़ो और मनुष्य बनो, देवता बनने का ख़याल छोड़ो। देवता बनकर तुम मनुष्य न रहोगे। राय साहब के मन में शंका हुई। महात्माओं में उन्हें भी वह विश्वास था, जो प्रभुता-वालों में आम तौर पर होता है। दुखी प्राणी को आत्मचिन्तन में जो शान्ति मिलती है। उसके लिए वह भी लालायित रहते थे। जब आर्थिक कठिनाइयों से निराश हो जाते, मन में आता, संसार से मुँह मोड़कर एकान्त में जा बैठें और मोक्ष की चिन्ता करें। संसार के बन्धनों को वह भी साधारण मनुष्यों की भाँति आत्मोन्नति के मार्ग की बाधाएँ समझते थे और इनसे दूर हो जाना ही उनके जीवन का भी आदर्श था; लेकिन संन्यास और त्याग के बिना बन्धनों को तोड़ने का और क्या उपाय है?
‘ लेकिन जब वह संन्यास को ढोंग कहते हैं, तो ख़ुद क्यों संन्यास लिया है? ‘
‘ उन्होंने संन्यास कब लिया है साहब, वह तो कहते हैं — आदमी को अन्त तक काम करते रहना चाहिए। विचार-स्वातन्त्र्य उनके उपदेशों का तत्व है। ‘
‘ मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। विचार-स्वातन्त्र्य का आशय क्या है? ‘
‘ समझ में तो मेरे भी कुछ नहीं आता, अबकी आइए, तो उनसे बातें हों। वह प्रेम को जीवन का सत्य कहते हैं। और इसकी ऐसी सुन्दर व्याख्या करते हैं कि मन मुग्ध हो जाता है। ‘
‘ मिस मालती को उनसे मिलाया या नहीं? ‘
‘ आप भी दिल्लगी करते हैं। मालती को भला इनसे क्या मिलता । । । ‘ वाक्य पूरा न हुआ था कि वह सामने झाड़ी में सरसराहट की आवाज़ सुनकर चौंक पड़े और प्राण-रक्षा की प्रेरणा से राय साहब के पीछे आ गये। झाड़ी में से एक तेंदुआ निकला और मन्द गति से सामने की ओर चला। राय साहब ने बन्दूक़ उठायी और निशाना बाँधना चाहते थे कि खन्ना ने कहा — यह क्या करते हैं आप? ख़्वाहमख़्वाह उसे छेड़ रहे हैं। कहीं लौट पड़े तो?
‘ लौट क्या पड़ेगा, वहीं ढेर हो जायगा। ‘
‘ तो मुझे उस टीले पर चढ़ जाने दीजिए। मैं शिकार का ऐसा शौक़ीन नहीं हूँ। ‘
‘ तब क्या शिकार खेलने चले थे? ‘
‘ शामत और क्या। ‘ राय साहब ने बन्दूक़ नीचे कर ली। ‘ बड़ा अच्छा शिकार निकल गया। एेसे अवसर कम मिलते हैं। ‘
‘ मैं तो अब यहाँ नहीं ठहर सकता। ख़तरनाक जगह है। ‘
‘ एकाध शिकार तो मार लेने दीजिए। ख़ाली हाथ लौटते शर्म आती है। ‘
‘ आप मुझे कृपा करके कार के पास पहुँचा दीजिए, फिर चाहे तेंदुए का शिकार कीजिए या चीते का। ‘
‘ आप बड़े डरपोक हैं मिस्टर खन्ना, सच। ‘
‘ व्यर्थ में अपनी जान ख़तरे में डालना बहादुरी नहीं है। ‘
‘ अच्छा तो आप ख़ुशी से लौट सकते हैं। ‘
‘ अकेला? ‘
‘ रास्ता बिलकुल साफ़ है। ‘
‘ जी नहीं। आपको मेरे साथ चलना पड़ेगा। ‘
राय साहब ने बहुत समझाया; मगर खन्ना ने एक न मानी। मारे भय के उनका चेहरा पीला पड़ गया था। उस वक़्त अगर झाड़ी में से एक गिलहरी भी निकल आती, तो वह चीख़ मारकर गिर पड़ते। बोटी-बोटी काँप रही थी। पसीने से तर हो गये थे! राय साहब को लाचार होकर उनके साथ लौटना पड़ा। जब दोनों आदमी बड़ी दूर निकल आये, तो खन्ना के होश ठिकाने आये। बोले — ख़तरे से नहीं डरता; लेकिन ख़तरे के मुँह में उँगली डालना हिमाक़त है।
‘ अजी जाओ भी। ज़रा-सा तेंदुआ देख लिया, तो जान निकल गयी। ‘
‘ मैं शिकार खेलना उस ज़माने का संस्कार समझता हूँ, जब आदमी पशु था। तब से संस्कृति बहुत आगे बढ़ गयी है। ‘
‘ मैं मिस मालती से आपकी क़लई खोलूँगा। ‘
‘ मैं अहिंसावादी होना लज्जा की बात नहीं समझता। ‘
‘ अच्छा, तो यह आपका अहिंसावाद था। शाबाश! ‘
खन्ना ने गर्व से कहा — जी हाँ, यह मेरा अहिंसावाद था। आप बुद्ध और शंकर के नाम पर गर्व करते हैं और पशुओं की हत्या करते हैं, लज्जा आपको आनी चाहिए, न कि मुझे। कुछ दूर दोनों फिर चुपचाप चलते रहे। तब खन्ना बोले — तो आप कब तक आयँगे? मैं चाहता हूँ, आप पालिसी का फ़ार्म आज ही भर दें और शक्कर के हिस्सों का भी। मेरे पास दोनों फ़ार्म भी मौजूद हैं। राय साहब ने चिन्तित स्वर में कहा — ज़रा सोच लेने दीजिए।
‘ इसमें सोचने की ज़रूरत नहीं। ‘
तीसरी टोली मिरज़ा खुर्शेद और मिस्टर तंखा की थी। मिरज़ा खुर्शेद के लिए भूत और भविष्य सादे काग़ज़ की भाँति था। वह वर्तमान में रहते थे। न भूत का पछतावा था, न भविष्य की चिन्ता। जो कुछ सामने आ जाता था, उसमें जी-जान से लग जाते थे। मित्रों की मंडली में वह विनोद के पुतले थे। कौंसिल में उनसे ज़्यादा उत्साही मेम्बर कोई न था। जिस प्रश्न के पीछे पड़ जाते, मिनिस्टरों को रुला देते। किसी के साथ –रियायत करना नहीं जानते थे।
बीच-बीच में परिहास भी करते जाते थे। उनके लिए आज जीवन था, कल का पता नहीं। ग़ुस्सेवर भी ऐसे थे कि ताल ठोंककर सामने आ जाते थे। नम्रता के सामने दंडवत करते थे; लेकिन जहाँ किसी ने शान दिखायी और यह हाथ धोकर उसके पीछे पड़े। न अपना लेना याद रखते थे, न दूसरों का देना। शौक़ था शायरी का और शराब का। औरत केवल मनोरंजन की वस्तु थी। बहुत दिन हुए हृदय का दिवाला निकाल चुके थे। मिस्टर तंखा दाँव-पेंच के आदमी थे, सौदा पटाने में, मुआमला सुलझाने में, अड़ंगा लगाने में, बालू से तेल निकालने में, गला दबाने में, दुम झाड़कर निकल जाने में बड़े सिद्धहस्त। कहिये रेत में नाव चला दें, पत्थर पर दूब उगा दें। ताल्लुक़ेदारों को महाजनों से क़रज़ दिलाना, नयी कम्पनियाँ खोलना, चुनाव के अवसर पर उम्मेदवार खड़े करना, यही उनका व्यवसाय था। ख़ासकर चुनाव के समय उनकी तक़दीर चमकती थी। किसी पोढ़े उम्मेद-वार को खड़ा करते, दिलोज़ान से उसका काम करते और दस-बीस हज़ार बना लेते। जब काँग्रेस का ज़ोर था काँग्रेस के उम्मेदवारों के सहायक थे। जब साम्प्रदायिक दल का ज़ोर हुआ, तो हिन्दूसभा की ओर से काम करने लगे; मगर इस उलट-फेर के समर्थन के लिए उनके पास ऐसी दलीलें थीं कि कोई उँगली न दिखा सकता था। शहर के सभी रईस, सभी हुक्काम, सभी अमीरों से उनका याराना था। दिल में चाहे लोग उनकी नीति पसन्द न करें; पर वह स्वभाव के इतने नम्र थे कि कोई मुँह पर कुछ न कह सकता था। मिरज़ा खुर्शेद ने रूमाल से माथे का पसीना पोंछकर कहा — आज तो शिकार खेलने के लायक़ दिन नहीं है। आज तो कोई मुशायरा होना चाहिए था। वकील ने समर्थन किया — जी हाँ, वहीं बाग़ में। बड़ी बहार रहेगी। थोड़ी देर के बाद मिस्टर तंखा ने मामले की बात छेड़ी। ‘ अबकी चुनाव में बड़े-बड़े गुल खिलेंगे। आपके लिए भी मुश्किल है। ‘ मिरज़ा विरक्त मन से बोले — अबकी मैं खड़ा ही न हूँगा। तंखा ने पूछा — क्यों? मुफ़्त की बकबक कौन करे। फ़ायदा ही क्या! मुझे अब इस डेमाक्रेसी में भक्ति नहीं रही। ज़रा-सा काम और महीनों की बहस। हाँ, जनता की आँखों में धूल झोंकने के लिए अच्छा स्वाँग है। इससे तो कहीं अच्छा है कि एक गवर्नर रहे, चाहे वह हिन्दुस्तानी हो, या अँग्रेज़, इससे बहस नहीं। एक इंजिन जिस गाड़ी को बड़े मज़े से हज़ारों मील खींच ले जा सकता हैं उसे दस हज़ार आदमी मिलकर भी उतनी तेज़ी से नहीं खींच सकते। मैं तो यह सारा तमाशा देखकर कौंसिल से बेज़ार हो गया हूँ। मेरा बस चले, तो कौंसिल में आग लगा दूँ। जिसे हम डेमाक्रेसी कहते हैं, वह व्यवहार में बड़े-बड़े व्यापारियों और ज़मींदारों का राज्य हैं और कुछ नहीं। चुनाव में वही बाज़ी ले जाता हैं जिसके पास रुपए हैं। रुपए के ज़ोर से उसके लिए सभी सुविधाएँ तैयार हो जाती हैं। बड़े-बड़े पण्डित, बड़े-बड़े मौलवी, बड़े-बड़े लिखने और बोलनेवाले, जो अपनी ज़बान और क़लम से पब्लिक को जिस तरफ़ चाहें फेर दें, सभी सोने के देवता के पैरों पर माथा रगड़ते हैं। मैंने तो इरादा कर लिया हैं अब एलेक्शन के पास न जाऊँगा! मेरा प्रोपेगंडा अब डेमाक्रेसी के ख़िलाफ़ होगा। ‘ मिरज़ा साहब ने कुरान की आयतों से सिद्ध किया कि पुराने ज़माने के बादशाहों के आदर्श कितने ऊँचे थे। आज तो हम उसकी तरफ़ ताक भी नहीं सकते। हमारी आँखों में चकाचौंध आ जायगी। बादशाह को ख़ज़ाने की एक कौड़ी भी निजी ख़र्च में लाने का अधिकार न था। वह किताबें नक़ल करके, कपड़े सीकर, लड़कों को पढ़ाकर अपना गुज़र करता था। मिरज़ा ने आदर्श महीपों की एक लम्बी सूची गिना दी। कहाँ तो वह प्रजा को पालनेवाला बादशाह, और कहाँ आजकल के मन्त्री और मिनिस्टर, पाँच, छः, सात, आठ हज़ार माहवार मिलना चाहिए। यह लूट है या डेमाक्तसी! हिरनों का एक झुंड चरता हुआ नज़र आया। मिरज़ा के मुख पर शिकार का जोश चमक उठा। बन्दूक़ सँभाली और निशाना मारा। एक काला-सा हिरन गिर पड़ा। वह मारा! इस उन्मत्त ध्वनि के साथ मिरज़ा भी बेतहाशा दौड़े। बिलकुल बच्चों की तरह उछलते, कूदते, तालियाँ बजाते। समीप ही एक वृक्ष पर एक आदमी लकड़ियाँ काट रहा था। वह भी चट-पट वृक्ष से उतरकर मिरज़ाजी के साथ दौड़ा। हिरन की गर्दन में गोली लगी थी, उसके पैरों में कम्पन हो रहा था और आँखें पथरा गयी थीं। लकड़हारे ने हिरन को करुण नेत्रों से देखकर कहा — अच्छा पट्ठा था, मन-भर से कम न होगा। हुकुम हो, तो मैं उठाकर पहुँचा दूँ? मिरज़ा कुछ बोले नहीं। हिरन की टँगी हुई, दीन वेदना से भरी आँखें देख रहे थे। अभी एक मिनट पहले इसमें जीवन था। ज़रा-सा पत्ता भी खड़कता, तो कान खड़े करके चौकड़ियाँ भरता हुआ निकल भागता। अपने मित्रों और बाल-बच्चों के साथ ईश्वर की उगाई हुई घास खा रहा था; मगर अब निस्पन्द पड़ा है। उसकी खाल उधेड़ लो, उसकी बोटियाँ कर डालो, उसका क़ीमा बना डालो, उसे ख़बर न होगी। उसके क्रीड़ामय जीवन में जो आकर्षण था, जो आनन्द था, वह क्या इस निर्जीव शव में है? कितनी सुन्दर गठन थी, कितनी प्यारी आँखें, कितनी मनोहर छवि? उसकी छलाँगें हृदय में आनन्द की तरंगें पैदा कर देती थीं, उसकी चौकड़ियों के साथ हमारा मन भी चौकड़ियाँ भरने लगता था। उसकी स्फूर्ति जीवन-सा बिखेरती चलती थी, जैसे फूल सुगन्ध बिखेरता है; लेकिन अब! उसे देखकर ग्लानि होती है।
लकड़हारे ने पूछा — कहाँ पहुँचाना होगा मालिक? मुझे भी दो-चार पैसे दे देना।
मिरज़ाजी जैसे ध्यान से चौक पड़े। बोले — अच्छा उठा ले। कहाँ चलेगा?
‘ जहाँ हुकुम हो मालिक। ‘
‘ नहीं, जहाँ तेरी इच्छा हो, वहाँ ले जा। मैं तुझे देता हूँ। ‘ लकड़हारे ने मिरज़ा की ओर कुतूहल से देखा। कानों पर विश्वास न आया। ‘ अरे नहीं मालिक, हुज़ूर ने सिकार किया हैं तो हम कैसे खा लें। ‘
‘ नहीं-नहीं मैं ख़ुशी से कहता हूँ, तुम इसे ले जाओ। तुम्हारा घर यहाँ से कितनी दूर है? ‘
‘ कोई आधा कोस होगा मालिक! ‘
‘ तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा। देखूँगा, तुम्हारे बाल-बच्चे कैसे ख़ुश होते हैं। ‘
‘ ऐसे तो मैं न ले जाऊँगा सरकार! आप इतनी दूर से आये, इस कड़ी धूप में सिकार किया, मैं कैसे उठा ले जाऊँ?
‘ उठा उठा, देर न कर। मुझे मालूम हो गया तू भला आदमी है। ‘ लकड़हारे ने डरते-डरते और रह-रह कर मिरज़ाजी के मुख की ओर सशंक नेत्रों से देखते हुए कि कहीं बिगड़ न जायँ, हिरन को उठाया। सहसा उसने हिरन को छोड़ दिया और खड़ा होकर बोला — मैं समझ गया मालिक, हज़ूर ने इसकी हलाली नहीं की। मिरज़ाजी ने हँसकर कहा — बस-बस, तूने ख़ूब समझा। अब उठा ले और घर चल। मिरज़ाजी धर्म के इतने पाबन्द न थे। दस साल से उन्होंने नमाज़ न पढ़ी थी। दो महीने में एक दिन व्रत रख लेते थे। बिलकुल निराहार, निर्जल; मगर लकड़हारे को इस ख़याल से जो सन्तोष हुआ था कि हिरन अब इन लोगों के लिए अखाद्य हो गया हैं उसे फीका न करना चाहते थे। लकड़हारे ने हलके मन से हिरन को गरदन पर रख लिया और घर की ओर चला। तंखा अभी तक-तटस्थ से वहीं पेड़ के नीचे खड़े थे। धूप में हिरन के पास जाने का कष्ट क्यों उठाते। कुछ समझ में न आ रहा था कि मुआमला क्या है; लेकिन जब लकड़हारे को उल्टी दिशा में जाते देखा, तो आकर मिरज़ा से बोले — आप उधर कहाँ जा रहे हैं हज़रत! क्या रास्ता भूल गये? मिरज़ा ने अपराधी भाव से मुस्कराकर कहा — मैंने शिकार इस ग़रीब आदमी को दे दिया। अब ज़रा इसके घर चल रहा हूँ। आप भी आइए न। तंखा ने मिरज़ा को कुतूहल की दृष्टि से देखा और बोले — आप अपने होश में हैं या नहीं। ‘ कह नहीं सकता। मुझे ख़ुद नहीं मालूम। ‘ ‘ शिकार इसे क्यों दे दिया? ‘ इसीलिए कि उसे पाकर इसे जितनी ख़ुशी होगी, मुझे या आपको न होगी। ‘ तंखा खिसियाकर बोले — जाइए! सोचा था, ख़ूब कबाब उड़ायेंगे, सो आपने सारा मज़ा किरकिरा कर दिया। ख़ैर, राय साहब और मेहता कुछ न कुछ लायेंगे ही। कोई ग़म नहीं। मैं इस एलेक्शन के बारे में कुछ अरज़ करना चाहता हूँ। आप नहीं खड़ा होना चाहते न सही, आपकी जैसी मरज़ी; लेकिन आपको इसमें क्या ताम्मुल है कि जो लोग खड़े हो रहे हैं, उनसे इसकी अच्छी क़ीमत वसूल की जाय। मैं आपसे सिर्फ़ इतना चाहता हूँ कि आप किसी पर यह भेद न खुलने दें कि आप नहीं खड़े हो रहे हैं। सिर्फ़ इतनी मेहरबानी कीजिए मेरे साथ। ख़्वाजा जमाल ताहिर इसी शहर से खड़े हो रहे हैं। रईसों के वोट सोलहों आने उनकी तरफ़ हैं ही, हुक्काम भी उनके मददगार हैं। फिर भी पबलिक पर आपका जो असर हैं इससे उनकी कोर दब रही है। आप चाहें तो आपको उनसे दस-बीस हज़ार रुपए महज़ यह ज़ाहिर कर देने के मिल सकते हैं कि आप उनकी ख़ातिर बैठ जाते हैं । । । नहीं मुझे अरज़ कर लेने दीजिए। इस मुआमले में आपको कुछ नहीं करना है। आप बेफ़िक्र बैठे रहिए। मैं आपकी तरफ़ से एक मेनिफ़ेस्टो निकाल दूँगा। और उसी शाम को आप मुझसे दस हज़ार नक़द वसूल कर लीजिए। मिरज़ा साहब ने उनकी ओर हिकारत से देखकर कहा — मैं ऐसे रुपए पर और आप पर लानत भेजता हूँ। मिस्टर तंखा ने ज़रा भी बुरा नहीं माना। माथे पर बल तक न आने दिया।
‘ मुझ पर आप जितनी लानत चाहें भेजें; मगर रुपए पर लानत भेजकर आप अपना ही नुक़सान कर रहे हैं। ‘
‘ मैं ऐसी रक़म को हराम समझता हूँ। ‘
‘ आप शरीयत के इतने पाबन्द तो नहीं हैं। ‘
‘ लूट की कमाई को हराम समझने के लिए शरा का पाबन्द होने की ज़रूरत नहीं है। ‘
‘ तो इस मुआमले में क्या आप अपना फ़ैसला तब्दील नहीं कर सकते? ‘
‘ जी नहीं। ‘
‘ अच्छी बात हैं इसे जाने दीजिए। किसी बीमा कम्पनी के डाइरेक्टर बनने में तो आपको कोई एतराज़ नहीं है? आपको कम्पनी का एक हिस्सा भी न ख़रीदना पड़ेगा। आप सिर्फ़ अपना नाम दे दीजिएगा। ‘
‘ जी नहीं, मुझे यह भी मंज़ूर नहीं है। मैं कई कम्पनियों का डाइरेक्टर, कई का मैनेजिंग एजेंट, कई का चेयरमैन था। दौलत मेरे पाँव चूमती थी। मैं जानता हूँ, दौलत से आराम और तकल्लुफ़ के कितने सामान जमा किये जा सकते हैं; मगर यह भी जानता हूँ कि दौलत इंसान को कितना ख़ुद-ग़रज़ बना देती हैं कितना ऐश-पसन्द, कितना मक्कार, कितना बेग़ैरत। ‘
वकील साहब को फिर कोई प्रस्ताव करने का साहस न हुआ। मिरज़ाजी की बुद्धि और प्रभाव में उनका जो विश्वास था, वह बहुत कम हो गया। उनके लिए धन ही सब कुछ था और ऐसे आदमी से, जो लक्ष्मी को ठोकर मारता हो, उनका कोई मेल न हो सकता था। लकड़हारा हिरन को कन्धे पर रखे लपका चला जा रहा था। मिरज़ा ने भी क़दम बढ़ाया; पर स्थूलकाय तंखा पीछे रह गये। उन्होंने पुकारा — ज़रा सुनिए, मिरज़ाजी, आप तो भागे जा रहे हैं। मिरज़ाजी ने बिना रुके हुए जवाब दिया — वह ग़रीब बोझ लिये इतनी तेज़ी से चला जा रहा है। हम क्या अपना बदन लेकर भी उसके बराबर नहीं चल सकते? लकड़हारे ने हिरन को एक ठूँठ पर उतारकर रख दिया था और दम लेने लगा था। मिरज़ा साहब ने आकर पूछा — थक गये, क्यों? लकड़हारे ने सकुचाते हुए कहा — बहुत भारी है सरकार!
‘ तो लाओ, कुछ दूर मैं ले चलूँ। ‘
लकड़हारा हँसा। मिरज़ा डील-डौल में उससे कहीं ऊँचे और मोटे-ताज़े थे, फिर भी वह दुबला-पतला आदमी उनकी इस बात पर हँसा। मिरज़ाजी पर जैसे चाबुक पड़ गया।
‘ तुम हँसे क्यों? क्या तुम समझते हो, मैं इसे नहीं उठा सकता? ‘
लकड़हारे ने मानो क्षमा माँगी — सरकार आप लोग बड़े आदमी हैं। बोझ उठाना तो हम-जैसे मजूरों ही का काम है।
‘ मैं तुम्हारा दुगुना जो हूँ। ‘
‘ इससे क्या होता है मालिक! ‘
मिरज़ाजी का पुरुषत्व अपना और अपमान न सह सका। उन्होंने बढ़कर हिरन को गर्दन पर उठा लिया और चले; मगर मुश्किल से पचास क़दम चले होंगे कि गर्दन फटने लगी; पाँव थरथराने लगे और आँखों में तितिलियाँ उड़ने लगीं। कलेजा मज़बूत किया और एक बीस क़दम और चले। कम्बख़्त कहाँ रह गया? जैसे इस लाश में सीसा भर दिया गया हो। ज़रा मिस्टर तंखा की गर्दन पर रख दूँ, तो मज़ा आये। मशक की तरह जो फूले चलते हैं, ज़रा उसका मज़ा भी देखें; लेकिन बोझा उतारें कैसे? दोनों अपने दिल में कहेंगे, बड़ी जवाँमर्दी दिखाने चले थे। पचास क़दम में चीं बोल गये। लकड़हारे ने चुटकी ली — कहो मालिक, कैसे रंग-ढंग हैं। बहुत हलका है न? मिरज़ाजी को बोझ कुछ हलका मालूम होने लगा। बोले — उतनी दूर तो ले ही जाऊँगा, जितनी दूर तुम लाये हो।
‘ कई दिन गर्दन दुखेगी मालिक! ‘
‘ तुम क्या समझते हो, मैं यों ही फूला हुआ हूँ! ‘
‘ नहीं मालिक, अब तो ऐसा नहीं समझता। मुदा आप हैरान न हों; वह चट्टान हैं उस पर उतार दीजिए। ‘
‘ मैं अभी इसे इतनी ही दूर और ले जा सकता हूँ। ‘
‘ मगर यह अच्छा तो नहीं लगता कि मैं ठाला चलूँ और आप लदे रहें। ‘
मिरज़ा साहब ने चट्टान पर हिरन को उतारकर रख दिया। वकील साहब भी आ पहुँचे। मिरज़ा ने दाना फेंका — अब आप को भी कुछ दूर ले चलना पड़ेगा जनाब! वकील साहब की नज़रों में अब मिरज़ाजी का कोई महत्व न था। बोले — मुआफ़ कीजिए। मुझे अपनी पहलवानी का दावा नहीं है।
‘ बहुत भारी नहीं हैं सच। ‘
‘ अजी रहने भी दीजिए। ‘
‘ आप अगर इसे सौ क़दम ले चलें, तो मैं वादा करता हूँ आप मेरे सामने जो तजवीज़ रखेंगे, उसे मंज़ूर कर लूँगा। ‘
‘ मैं इन चकमों में नहीं आता। ‘
‘ मैं चकमा नहीं दे रहा हूँ, वल्लाह। आप जिस हलके से कहेंगे खड़ा हो जाऊँगा। जब हुक्म देंगे, बैठ जाऊँगा। जिस कम्पनी का डाइरेक्टर, मेम्बर, मुनीम, कनवेसर, जो कुछ कहिएगा, बन जाऊँगा। बस सौ क़दम ले चलिए। मेरी तो ऐसे ही दोस्तों से निभती हैं जो मौक़ा पड़ने पर सब कुछ कर सकते हों। ‘
तंखा का मन चुलबुला उठा। मिरज़ा अपने क़ौल के पक्के हैं, इसमें कोई सन्देह न था। हिरन ऐसा क्या बहुत भारी होगा। आख़िर मिरज़ा इतनी दूर ले ही आये। बहुत ज़्यादा थके तो नहीं जान पड़ते; अगर इनकार करते हैं तो सुनहरा अवसर हाथ से जाता है। आख़िर ऐसा क्या कोई पहाड़ है। बहुत होगा, चार-पाँच पँसेरी होगा। दो-चार दिन गर्दन ही तो दुखेगी! जेब में रुपए हों, तो थोड़ी-सी बीमारी सुख की वस्तु है।
‘ सौ क़दम की रही। ‘
‘ हाँ, सौ क़दम। मैं गिनता चलूँगा। ‘
‘ देखिए, निकल न जाइएगा। ‘
‘ निकल जानेवाले पर लानत भेजता हूँ। ‘
तंखा ने जूते का फ़ीता फिर से बाँधा, कोट उतारकर लकड़हारे को दिया, पतलून ऊपर चढ़ाया, रूमाल से मुँह पोंछा और इस तरह हिरन को देखा, मानो ओखली में सिर देने जा रहे हों। फिर हिरन को उठाकर गर्दन पर रखने की चेष्ठा की। दो-तीन बार ज़ोर लगाने पर लाश गर्दन पर तो आ गयी; पर गर्दन न उठ सकी। कमर झुक गयी, हाँफ उठे और लाश को ज़मीन पर पटकनेवाले थे कि मिरज़ा ने उन्हें सहारा देकर आगे बढ़ाया। तंखा ने एक डग इस तरह उठाया जैसे दलदल में पाँव रख रहे हों। मिरज़ा ने बढ़ावा दिया — शाबाश! मेरे शेर, वाह-वाह! तंखा ने एक डग और रखा। मालूम हुआ, गर्दन टूटी जाती है।
‘ मार लिया मैदान! जीते रहो पट्ठे! ‘ तंखा दो डग और बढ़े। आँखें निकली पड़ती थीं। ‘ बस, एक बार और ज़ोर मारो दोस्त। सौ क़दम की शर्त ग़लत। पचास क़दम की ही रही। ‘
वकील साहब का बुरा हाल था। वह बेजान हिरन शेर की तरह उनको दबोचे हुए, उनका हृदय-रक्त चूस रहा था। सारी शक्तियाँ जवाब दे चुकी थीं। केवल लोभ, किसी लोहे की धरन की तरह छत को सँभाले हुए था। एक से पच्चीस हज़ार तक की गोटी थी। मगर अन्त में वह शहतीर भी जवाब दे गयी। लोभी की कमर भी टूट गयी। आँखों के सामने अँधेरा छा गया। सिर में चक्कर आया और वह शिकार गर्दन पर लिये पथरीली ज़मीन पर गिर पड़े। मिरज़ा ने तुरन्त उन्हें उठाया और अपने रूमाल से हवा करते हुए उनकी पीठ ठोंकी।
‘ ज़ोर तो यार तुमने ख़ूब मारा; लेकिन तक़दीर के खोटे हो। ‘ तंखा ने हाँफते हुए लम्बी साँस खींचकर कहा — आपने तो आज मेरी जान ही ले ली थी। दो मन से कम न होगा ससुर। मिरज़ा ने हँसते हुए कहा — लेकिन भाईजान मैं भी तो इतनी दूर उठाकर लाया ही था। वकील साहब ने ख़ुशामद करनी शुरू की — मुझै तो आपकी फ़रमाइश पूरी करनी थी। आपको तमाशा देखना था, वह आपने देख लिया। अब आपको अपना वादा पूरा करना होगा।
‘ आपने मुआहदा कब पूरा किया। ‘
‘ कोशिश तो जान तोड़कर की। ‘
‘ इसकी सनद नहीं। ‘
लकड़हारे ने फिर हिरन उठा लिया था और भागा चला जा रहा था। वह दिखा देना चाहता था कि तुम लोगों ने काँख-काँखकर दस क़दम इसे उठा लिया, तो यह न समझो कि पास हो गये। इस मैदान में मैं दुर्बल होने पर भी तुमसे आगे रहूँगा। हाँ, कागद तुम चाहे जितना काला करो और झूठे मुक़दमे चाहे जितने बनाओ।
एक नाला मिला, जिसमें बहुत थोड़ा पानी था। नाले के उस पार टीले पर एक छोटा-सा पाँच-छः घरों का पुरवा था और कई लड़के इमली के पेड़ के नीचे खेल रहे थे। लकड़हारे को देखते ही सबों ने दौड़कर उसका स्वागत किया और लगे पूछने — किसने मारा बापू? कैसे मारा, कहाँ मारा, कैसे गोली लगी, कहाँ लगी, इसी को क्यों लगी, और हिरनों को क्यों न लगी? लकड़हारा हूँ-हाँ करता इमली के नीचे पहुँचा और हिरन को उतार कर पास की झोपड़ी से दोनों महानुभावों के लिए खाट लेने दौड़ा। उसके चारों लड़कों और लड़कियों ने शिकार को अपने चार्ज में ले लिया और अन्य लड़कों को भगाने की चेष्ठा करने लगे। सबसे छोटे बालक ने कहा — यह हमारा है।
उसकी बड़ी बहन ने, जो चौदह-पन्द्रह साल की थी, मेहमानों की ओर देखकर छोटे भाई को डाँटा — चुप, नहीं सिपाई पकड़ ले जायगा।
मिरज़ा ने लड़के को छेड़ा — तुम्हारा नहीं हमारा है।
बालक ने हिरन पर बैठकर अपना क़ब्ज़ा सिद्ध कर दिया और बोला — बापू तो लाये हैं। बहन ने सिखाया — कह दे भैया, तुम्हारा है।
इन बच्चों की माँ बकरी के लिए पत्तियाँ तोड़ रही थी। दो नये भले आदमियों को देखकर उसने ज़रा-सा घूँघट निकाल लिया और शर्मायी कि उसकी साड़ी कितनी मैली, कितनी फटी, कितनी उटंगी है। वह इस वेष में मेहमानों के सामने कैसे जाय? और गये बिना काम नहीं चलता। पानी-वानी देना है। अभी दोपहर होने में कुछ कसर थी; लेकिन मिरज़ा साहब ने दोपहरी इसी गाँव में काटने का निश्चय किया। गाँव के आदमियों को जमा किया। शराब मँगवायी, शिकार पका, समीप के बाज़ार से घी और मैदा मँगाया और सारे गाँव को भोज दिया। छोटे-बड़े स्त्री-पुरुष सबों ने दावत उड़ायी। मर्दों ने ख़ूब शराब पी और मस्त होकर शाम तक गाते रहे। और मिरज़ाजी बालकों के साथ बालक, शराबियों के साथ शराबी, बूढ़ों के साथ बूढ़े, जवानों के साथ जवान बने हुए थे। इतनी देर में सारे गाँव से उनका इतना घनिष्ट परिचय हो गया था, मानो यहीं के निवासी हों। लड़के तो उनपर लदे पड़ते थे। कोई उनकी फुँदनेदार टोपी सिर पर रखे लेता था, कोई उनकी राइफ़ल कन्धे पर रखकर अकड़ता हुआ चलता था, कोई उनकी क़लाई की घड़ी खोलकर अपनी क़लाई पर बाँध लेता था। मिरज़ा ने ख़ुद ख़ूब देशी शराब पी और झूम-झूमकर जंगली आदमियों के साथ गाते रहे। जब ये लोग सूर्यास्त के समय यहाँ से बिदा हुए तो गाँव-भर के नर-नारी इन्हें बड़ी दूर तक पहुँचाने आये। कई तो रोते थे। ऐसा सौभाग्य उन ग़रीबों के जीवन में शायद पहली ही बार आया हो कि किसी शिकारी ने उनकी दावत की हो। ज़रूर यह कोई राजा हैं नहीं तो इतना दरियाव दिल किसका होता है। इनके दर्शन फिर काहे को होंगे! कुछ दूर चलने के बाद मिरज़ा ने पीछे फिरकर देखा और बोले — बेचारे कितने ख़ुश थे। काश मेरी ज़िन्दगी में ऐसे मौक़े रोज़ आते। आज का दिन बड़ा मुबारक था।
तंखा ने बेरुखी के साथ कहा — आपके लिए मुबारक होगा, मेरे लिए तो मनहूस ही था। मतलब की कोई बात न हुई। दिन-भर जँगलों और पहाड़ों की ख़ाक छानने के बाद अपना-सा मुँह लिये लौट जाते हैं।
मिरज़ा ने निर्दयता से कहा — मुझे आपके साथ हमदर्दी नहीं है।
दोनों आदमी जब बरगद के नीचे पहुँचे, तो दोनों टोलियाँ लौट चुकी थीं। मेहता मुँह लटकाये हुए थे। मालती विमन-सी अलग बैठी थी, जो नयी बात थी। राय साहब और खन्ना दोनों भूखे रह गये थे और किसी के मुँह से बात न निकलती थी। वकील साहब इसलिए दुखी थे कि मिरज़ा ने उनके साथ बेवफ़ाई की। अकेले मिरज़ा साहब प्रसन्न थे और वह प्रसन्नता अलौकिक थी।

Godan / गोदान भाग 8 / प्रेमचंद / Premchand

Godan / गोदान भाग 6-10 / प्रेमचंद / Premchandजब से होरी के घर में गाय आ गयी है, घर की श्री ही कुछ और हो गयी है। धनिया का घमंड तो उसके सँभाल से बाहर हो-हो जाता है। जब देखो गाय की चर्चा। भूसा छिज गया था। ऊख में थोड़ी-सी चरी बो दी गयी थी। उसी की कुट्टी काटकर जानवरों को खिलाना पड़ता था। आँखें आकाश की ओर लगी रहती थीं कि कब पानी बरसे और घास निकले। आधा आसाढ़ बीत गया और वर्षा न हुई। सहसा एक दिन बादल उठे और आसाढ़ का पहला दौंगड़ा गिरा। किसान ख़रीफ़ बोने के लिए हल ले-लेकर निकले कि राय साहब के कारकुन ने कहला भेजा, जब तक बाक़ी न चुक जायगी किसी को खेत में हल न ले जाने दिया जायगा। किसानों पर जैसे वज्रापात हो गया। और कभी तो इतनी कड़ाई न होती थी, अबकी यह कैसा हुक्म। कोई गाँव छोड़कर भागा थोड़ा ही जाता है; अगर खेती में हल न चले, तो रुपए कहाँ से आ जायेंगे। निकालेंगे तो खेत ही से। सब मिलकर कारकुन के पास जाकर रोये। कारकुन का नाम था पण्डित नोखेराम। आदमी बुरे न थे; मगर मालिक का हुक्म था। उसे कैसे टालें। अभी उस दिन राय साहब ने होरी से कैसी दया और धर्म की बातें की थीं और आज आसामियों पर यह ज़ुल्म। होरी मालिक के पास जाने को तैयार हुआ; लेकिन फिर सोचा, उन्होंने कारकुन को एक बार जो हुक्म दे दिया, उसे क्यों टालने लगे। वह अगुवा बनकर क्यों बुरा बने। जब और कोई कुछ नहीं बोलता, तो यही आग में क्यों कूदे। जो सब के सिर पड़ेगी, वह भी झेल लेगा। किसानों में खलबली मची हुई थी। सभी गाँव के महाजनों के पास रुपए के लिए दौड़े। गाँव में मँगरू साह की आजकल चढ़ी हुई थी। इस साल सन में उसे अच्छा फ़ायदा हुआ था। गेहूँ और अलसी में भी उसने कुछ कम नहीं कमाया था। पण्डित दातादीन और दुलारी सहुआइन भी लेन-देन करती थीं। सबसे बड़े महाजन थे झिंगुरीसिंह। वह शहर के एक बड़े महाजन के एजेंट थे। उनके नीचे कई आदमी और थे, जो आस-पास के देहातों में घूम-घूमकर लेन-देन करते थे। इनके उपरान्त और भी कई छोटे-मोटे महाजन थे, जो दो आने रुपये ब्याज पर बिना लिखा-पढ़ी के रुपए देते थे। गाँववालों को लेन-देन का कुछ ऐसा शौक़ था कि जिसके पास दस-बीस रुपए जमा हो जाते, वही महाजन बन बैठता था। एक समय होरी ने भी महाजनी की थी। उसी का यह प्रभाव था कि लोग अभी तक यही समझते थे कि होरी के पास दबे हुए रुपए हैं। आख़िर वह धन गया कहाँ। बँटवारे में निकला नहीं, होरी ने कोई तीर्थ, व्रत, भोज किया नहीं; गया तो कहाँ गया। जूते जाने पर भी उनके घट्ठे बने रहते हैं। किसी ने किसी देवता को सीधा किया, किसी ने किसी को। किसी ने आना रुपया ब्याज देना स्वीकार किया, किसी ने दो आना। होरी में आत्म-सम्मान का सर्वथा लोप न हुआ था। जिन लोगों के रुपए उस पर बाक़ी थे उनके पास कौन मुँह लेकर जाय। झिंगुरीसिंह के सिवा उसे और कोई न सूझा। वह पक्का काग़ज़ लिखाते थे, नज़राना अलग लेते थे, दस्तूरी अलग, स्टाम्प की लिखाई अलग। उस पर एक साल का ब्याज पेशगी काटकर रुपया देते थे। पचीस रुपए का काग़ज़ लिखा, तो मुश्किल से सत्रह रुपए हाथ लगते थे; मगर इस गाढ़े समय में और क्या किया जाय? राय साहब की ज़बरदस्ती है, नहीं इस समय किसी के सामने क्यों हाथ फैलाना पड़ता। झिंगुरीसिंह बैठे दातून कर रहे थे। नाटे, मोटे, खल्वाट, काले, लम्बी नाक और बड़ी-बड़ी मूछोंवाले आदमी थे, बिलकुल विदूषक-जैसे। और थे भी बड़े हँसोड़। इस गाँव को अपनी ससुराल बनाकर मदों से साले या ससुर और औरतों से साली या सलहज का नाता जोड़ लिया था। रास्ते में लड़के उन्हें चिढ़ाते — पण्डितजी पाल्लगी! और झिंगुरीसिंह उन्हें चटपट आशीर्वाद देते — तुम्हारी आँखें फूटे, घुटना टूटे, मिरगी आये, घर में आग लग जाय आदि। लड़के इस आशीर्वाद से कभी न अघाते थे; मगर लेन-देन में बड़े कठोर थे। सूद की एक पाई न छोड़ते थे और वादे पर बिना रुपए लिये द्वार से न टलते थे। होरी ने सलाम करके अपनी विपत्ति-कथा सुनायी। झिंगुरीसिंह ने मुस्कराकर कहा — वह सब पुराना रुपया क्या कर डाला?
‘पुराने रुपए होते ठाकुर, तो महाजनी से अपना गला न छुड़ा लेता, कि सूद भरते किसी को अच्छा लगता है। ‘
‘गड़े रुपए न निकलें चाहे सूद कितना ही देना पड़े। तुम लोगों की यही नीति है। ‘
‘कहाँ के गड़े रुपए बाबू साहब, खाने को तो होता नहीं। लड़का जवान हो गया; ब्याह का कहीं ठिकाना नहीं। बड़ी लड़की भी ब्याहने जोग हो गयी। रुपए होते, तो किस दिन के लिए गाड़ रखते। ‘
झिंगुरीसिंह ने जब से उसके द्वार पर गाय देखी थी, उस पर दाँत लगाये हुए गाय का डील-डौल और गठन कह रहा था कि उसमें पाँच सेर से कम दूध नहीं है। मन में सोच लिया था, होरी को किसी अरदब में डालकर गाय को उड़ा लेना चाहिए। आज वह अवसर आ गया। बोले — अच्छा भाई, तुम्हारे पास कुछ नहीं है, अब राज़ी हुए। जितने रुपए चाहो, ले जाओ लेकिन तुम्हारे भले के लिए कहते हैं, कुछ गहने-गाठे हों, तो गिरो रखकर रुपए ले लो। इसटाम लिखोगे, तो सूद बढ़ेगा और झमेले में पड़ जाओगे। होरी ने क़सम खाई कि घर में गहने के नाम कच्चा सूत भी नहीं है। धनिया के हाथों में कड़े हैं, वह भी गिलट के। झिंगुरीसिंह ने सहानुभूति का रंग मुँह पर पोतकर कहा — तो एक बात करो, यह नयी गाय जो लाये हो, इसे हमारे हाथ बेच दो। सूद इसटाम सब झगड़ों से बच जाओ; चार आदमी जो दाम कहें, वह हमसे ले लो। हम जानते हैं, तुम उसे अपने शौक़ से लाये हो और बेचना नहीं चाहते; लेकिन यह संकट तो टालना ही पड़ेगा। होरी पहले तो इस प्रस्ताव पर हँसा, उस पर शान्त मनसे विचार भी न करना चाहता था; लेकिन ठाकुर ने ऊँच-नीच सुझाया, महाजनी के हथकंडों का ऐसा भीषण रूप दिखाया कि उसके मन में भी यह बात बैठ गयी। ठाकुर ठीक ही तो कहते हैं, जब हाथ में रुपए आ जायँ, गाय ले लेना। तीस रुपए का कागद लिखने पर कहीं पचीस रुपए मिलेंगे और तीन चार साल तक न दिये गये, तो पूरे सौ हो जायँगे। पहले का अनुभव यही बता रहा था कि क़रज़ वह मेहमान है, जो एक बार आकर जाने का नाम नहीं लेता। बोला — मैं घर जाकर सबसे सलाह कर लूँ, तो बताऊँ।
‘सलाह नहीं करना है, उनसे कह देना है कि रुपए उधार लेने में अपनी बबार्दी के सिवा और कुछ नहीं। ‘
‘मैं समझ रहा हूँ ठाकुर, अभी आके जवाब देता हूँ। ‘
लेकिन घर आकर उसने ज्योंही वह प्रस्ताव किया कि कुहराम मच गया। धनिया तो कम चिल्लाई, दोनों लड़कियों ने तो दुनिया सिर पर उठा ली। नहीं देते अपनी गाय, रुपए जहाँ से चाहो लाओ। सोना ने तो यहाँ तक कह डाला, इससे तो कहीं अच्छा है, मुझे बेच डालो। गाय से कुछ बेसी ही मिल जायगा, दोनों लड़कियाँ सचमुच गाय पर जान देती थीं। रूपा तो उसके गले से लिपट जाती थी और बिना उसे खिलाये कौर मुँह में न डालती थी। गाय कितने प्यार से उसका हाथ चाटती थी, कितनी स्नेहभरी आँखों से उसे देखती थी। उसका बछड़ा कितना सुन्दर होगा। अभी से उसका नाम-करण हो गया था — मटरू। वह उसे अपने साथ लेकर सोयेगी। इस गाय के पीछे दोनों बहनों में कई बार लड़ाइयाँ हो चुकी थीं। सोना कहती, मुझे ज़्यादा चाहती है, रूपा कहती, मुझे। इसका निर्णय अभी तक न हो सका था। और दोनों दावे क़ायम थे। मगर होरी ने आगा-पीछा सुझाकर आख़िर धनिया को किसी तरह राज़ी कर लिया। एक मित्र से गाय उधार लेकर बेच देना भी बहुत ही वैसी बात है; लेकिन बिपत में तो आदमी का धरम तक चला जाता है, यह कौन-सी बड़ी बात है। ऐसा न हो, तो लोग बिपत से इतना डरें क्यों। गोबर ने भी विशेष आपित्त न की। वह आजकल दूसरी ही धुन में मस्त था। यह तै किया गया कि जब दोनों लड़कियाँ रात को सो जायँ, तो गाय झिंगुरीसिंह के पास पहुँचा दी जाय। दिन किसी तरह कट गया। साँझ हुई। दोनों लड़कियाँ आठ बजते-बजते खा-पीकर सो गयीं। गोबर इस करुण दृश्य से भागकर कहीं चला गया था। वह गाय को जाते कैसे देख सकेगा? अपने आँसुओं को कैसे रोक सकेगा? होरी भी ऊपर ही से कठोर बना हुआ था। मन उसका चंचल था। ऐसा कोई माई का लाल नहीं, जो इस वक़्त उसे पचीस रुपए उधार दे-दे, चाहे फिर पचास रुपए ही ले-ले। वह गाय के सामने जाकर खड़ा हुआ तो उसे ऐसा जान पड़ा कि उसकी काली-काली सजीव आँखों में आँसू भरे हुए हैं और वह कह रही है — क्या चार दिन में ही तुम्हारा मन मुझसे भर गया? तुमने तो वचन दिया था कि जीते-जी इसे न बेचूँगा। यही वचन था तुम्हारा! मैंने तो तुमसे कभी किसी बात का गिला नहीं किया। जो कुछ रूखा-सूखा तुमने दिया, वही खाकर सन्तुष्ट हो गयी। बोलो। धनिया ने कहा — लड़कियाँ तो सो गयीं। अब इसे ले क्यों नहीं जाते। जब बेचना ही है, तो अभी बेच दो। होरी ने काँपते हुए स्वर में कहा — मेरा तो हाथ नहीं उठता धनिया! उसका मुँह नहीं देखती? रहने दो, रुपए सूद पर ले लूँगा। भगवान् ने चाहा तो सब अदा हो जायँगे। तीन-चार सौ होते ही क्या हैं। एक बार ऊख लग जाय। धनिया ने गर्व-भरे प्रेम से उसकी ओर देखा — और क्या! इतनी तपस्या के बाद तो घर में गऊ आयी। उसे भी बेच दो। ले लो कल रुपए। जैसे और सब चुकाये जायँगे वैसे इसे भी चुका देंगे। भीतर बड़ी उमस हो रही थी। हवा बन्द थी। एक पत्ती न हिलती थी। बादल छाये हुए थे; पर वर्षा के लक्षण न थे। होरी ने गाय को बाहर बाँध दिया। धनिया ने टोका भी, कहाँ लिये जाते हो? पर होरी ने सुना नहीं, बोला — बाहर हवा में बाँधे देता हूँ। आराम से रहेगी। उसके भी तो जान है। गाय बाँधकर वह अपने मँझले भाई शोभा को देखने गया। शोभा को इधर कई महीने से दमे का आरजा हो गया था। दवा-दारू की जुगत नहीं। खाने-पीने का प्रबन्ध नहीं, और काम करना पड़ता था जी तोड़कर; इसलिए उसकी दशा दिन-दिन बिगड़ती जाती थी। शोभा सहनशील आदमी था, लड़ाई-झगड़े से कोसों भागनेवाला। किसी से मतलब नहीं। अपने काम से काम। होरी उसे चाहता था। और वह भी होरी का अदब करता था। दोनों में रुपए-पैसे की बातें होने लगीं। राय साहब का यह नया फ़रमान आलोचनाओं का केन्द्र बना हुआ था। कोई ग्यारह बजते-बजते होरी लौटा और भीतर जा रहा था कि उसे भास हुआ, जैसे गाय के पास कोई आदमी खड़ा है। पूछा — कौन खड़ा है वहाँ? हीरा बोला — मैं हूँ दादा, तुम्हारे कौड़े में आग लेने आया था। हीरा उसके कौड़े में आग लेने आया है, इस ज़रा-सी बात में होरी को भाई की आत्मीयता का परिचय मिला। गाँव में और भी तो कौड़े हैं। कहीं से आग मिल सकती थी। हीरा उसके कौड़े में आग ले रहा है, तो अपना ही समझकर तो। सारा गाँव इस कौड़े में आग लेने आता था। गाँव से सबसे सम्पन्न यही कौड़ा था; मगर हीरा का आना दूसरी बात थी। और उस दिन की लड़ाई के बाद! हीरा के मन में कपट नहीं रहता। ग़ुस्सैल है; लेकिन दिल का साफ़। उसने स्नेह भरे स्वर में पूछा — तमाखू है कि ला दूँ?
‘ नहीं, तमाखू तो है दादा!
‘ सोभा तो आज बहुत बेहाल है। ‘
‘ कोई दवाई नहीं खाता, तो क्या किया जाय। उसके लेखे तो सारे बैद, डाक्टर, हकीम अनाड़ी हैं। भगवान् के पास जितनी अक्कल थी, वह उसके और उसकी घरवाली के हिस्से पड़ गयी। ‘
होरी ने चिन्ता से कहा — यही तो बुराई है उसमें। अपने सामने किसी को गिनता ही नहीं। और चिढ़ने तो बिमारी में सभी हो जाते हैं। तुम्हें याद है कि नहीं, जब तुम्हें इफ़िंजा हो गया था, तो दवाई उठाकर फेंक देते थे। मैं तुम्हारे दोनों हाथ पकड़ता था, तब तुम्हारी भाभी तुम्हारे मुँह में दवाई डालती थीं। उस पर तुम उसे हज़ारों गालियाँ देते थे।
‘ हाँ दादा, भला वह बात भूल सकता हूँ। तुमने इतना न किया होता, तो तुमसे लड़ने के लिए कैसे बचा रहता। ‘ होरी को ऐसा मालूम हुआ कि हीरा का स्वर भारी हो गया है। उसका गला भी भर आया।
‘ बेटा, लड़ाई-झगड़ा तो ज़िन्दगी का धरम है। इससे जो अपने हैं, वह पराये थोड़े ही हो जाते हैं। जब घर में चार आदमी रहते हैं, तभी तो लड़ाई-झगड़े भी होते हैं। जिसके कोई है ही नहीं, उसके कौन लड़ाई करेगा। ‘
दोनों ने साथ चिलम पी। तब हीरा अपने घर गया, होरी अन्दर भोजन करने चला। धनिया रोष से बोली — देखी अपने सपूत की लीला? इतनी रात हो गयी और अभी उसे अपने सैल से छुट्टी नहीं मिली। मैं सब जानती हूँ। मुझको सारा पता मिल गया है। भोला की वह राँड़ लड़की नहीं है, झुनिया! उसी के फेर में पड़ा रहता है। होरी के कानों में भी इस बात की भनक पड़ी थी, पर उसे विश्वास न आया था। गोबर बेचारा इन बातों को क्या जाने। बोला — किसने कहा तुमसे? धनिया प्रचंड हो गयी — तुमसे छिपी होगी, और तो सभी जगह चर्चा चल रही है। यह भुग्गा, वह बहत्तर घाट का पानी पिये हुए। इसे उँगलियों पर नचा रही है, और यह समझता है, वह इस पर जान देती है। तुम उसे समझा दो नहीं कोई ऐसी-वैसी बात हो गयी, तो कहीं के न रहोगे। होरी का दिल उमंग पर था। चुहल की सूझी — झुनिया देखने-सुनने में तो बुरी नहीं है। उसी से कर ले सगाई। ऐसी सस्ती मेहरिया और कहाँ मिली जाती है। धनिया को यह चुहल तीर-सा लगा — झुनिया इस घर में आये, तो मुँह झुलस दूँ राँड़ का। गोबर की चहेती है, तो उसे लेकर जहाँ चाहे रहे।
‘ और जो गोबर इसी घर में लाये? ‘ तो यह दोनों लड़कियाँ किसके गले बाँधोगे? फिर बिरादरी में तुम्हें कौन पूछेगा, कोई द्वार पर खड़ा तक तो होगा नहीं। ‘
‘ उसे इसकी क्या परवाह। ‘
‘ इस तरह नहीं छोड़ूँगी लाला को। मर-मर के पाला है और झुनिया आकर राज करेगी। मुँह में आग लगा दूँगी राँड़ के। ‘
सहसा गोबर आकर घबड़ाई हुई आवाज़ में बोला — दादा, सुन्दरिया को क्या हो गया? क्या काले नाग ने छू लिया? वह तो पड़ी तड़प रही है। होरी चौके में जा चुका था। थाली सामने छोड़कर बाहर निकल आया और बोला — क्या असगुन मुँह से निकालते हो। अभी तो मैं देखे आ रहा हूँ। लेटी थी। तीनों बाहर गये। चिराग़ लेकर देखा। सुन्दरिया के मुँह से फिचकुर निकल रहा था। आँखें पथरा गयी थीं, पेट फूल गया था और चारों पाँव फैल गये थे। धनिया सिर पीटने लगी। होरी पण्डित दातादीन के पास दौड़ा। गाँव में पशु-चिकित्सक के वही आचार्य थे। पण्डितजी सोने जा रहे थे। दौड़े हुए आये। दम-के-दम में सारा गाँव जमा हो गया। गाय को किसी ने कुछ खिला दिया। लक्षण स्पष्ट थे। साफ़ विष दिया गया है; लेकिन गाँव में कौन ऐसा मुद्दई है, जिसने विष दिया हो; ऐसी वारदात तो इस गाँव में कभी हुई नहीं; लेकिन बाहर का कौन आदमी गाँव में आया। होरी की किसी से दुश्मनी भी न थी कि उस पर सन्देह किया जाय। हीरा से कुछ कहा-सुनी हुई थी; मगर वह भाई-भाई का झगड़ा था। सबसे जयादा दुखी तो हीरा ही था। धमकियाँ दे रहा था कि जिसने यह हत्यारों का काम किया है, उसे पाय तो ख़ून पी जाय। वह लाख ग़ुस्सैल हो; पर इतना नीच काम नहीं कर सकता। आधी रात तक जमघट रहा। सभी होरी के दुःख में दुखी थे और बधिक को गालियाँ देते थे। वह इस समय पकड़ा जा सकता, तो उसके प्राणों की कुशल न थी। जब यह हाल है तो कोई जानवरों को बाहर कैसे बाँधेगा। अभी तक रात-बिरात सभी जानवर बाहर पड़े रहते थे। किसी तरह की चिन्ता न थी; लेकिन अब तो एक नयी विपित्त आ खड़ी हुई थी। क्या गाय थी कि बस देखता रहे। पूजने जोग। पाँच सेर से दूध कम न था। सौ-सौ का एक-एक बाछा होता। आते देर न हुई और यह वज्रा गिर पड़ा। जब सब लोग अपने-अपने घर चले गये, तो धनिया होरी को कोसने लगी — तुम्हें कोई लाख समझाये, करोगे अपने मन की। तुम गाय खोलकर आँगन से चले, तब तक मैं जूझती रही कि बाहर न ले जाओ। हमारे दिन पतले हैं, न जाने कब क्या हो जाय; लेकिन नहीं, उसे गमीर् लग रही है। अब तो ख़ूब ठंडी हो गयी और तुम्हारा कलेजा भी ठंडा हो गया। ठाकुर माँगते थे; दे दिया होता, तो एक बोझ सिर से उतर जाता और निहोरा का निहोरा होता; मगर यह तमाचा कैसे पड़ता। कोई बुरी बात होनेवाली होती है तो मति पहले ही हर जाती है। इतने दिन मज़े से घर में बँधती रही; न गमीर् लगी, न जूड़ी आयी। इतनी जल्दी सबको पहचान गयी थी कि मालूम ही न होता था कि बाहर से आयी है। बच्चे उसके सींगों से खेलते रहते थे। सिर तक न हिलाती थी। जो कुछ नाद में डाल दो, चाट-पोंछकर साफ़ कर देती थी। लच्छमी थी, अभागों के घर क्या रहती। सोना और रूपा भी यह हलचल सुनकर जग गयी थीं और बिलख-बिलखकर रो रही थीं। उसकी सेवा का भार अधिकतर उन्हीं दोनों पर था। उनकी संगिनी हो गयी थी। दोनों खाकर उठतीं, तो एक-एक टुकड़ा रोटी उसे अपने हाथों से खिलातीं। कैसा जीभ निकालकर खा लेती थी, और जब तक उनके हाथ का कौर न पा लेती, खड़ी ताकती रहती। भाग्य फूट गये! सोना और गोबर और दोनों लड़कियाँ रो-धोकर सो गयी थीं। होरी भी लेटा। धनिया उसके सिरहाने पानी का लोटा रखने आयी तो होरी ने धीरे से कहा — तेरे पेट में बात पचती नहीं; कुछ सुन पायेगी, तो गाँव भर में ढिंढोरा पीटती फिरेगी। धनिया ने आपत्ति की — भला सुनूँ; मैंने कौन-सी बात पीट दी कि यों नाम बदनाम कर दिया।
‘ अच्छा तेरा सन्देह किसी पर होता है। ‘
‘ मेरा सन्देह तो किसी पर नहीं है। कोई बाहरी आदमी था। ‘
‘ किसी से कहेगी तो नहीं? ‘
‘ कहूँगी नहीं, तो गाँववाले मुझे गहने कैसे गढ़वा देंगे। ‘
‘ अगर किसी से कहा, तो मार ही डालूँगा। ‘
‘ मुझे मारकर सुखी न रहोगे। अब दूसरी मेहरिया नहीं मिली जाती। जब तक हूँ, तुम्हारा घर सँभाले हुए हूँ। जिस दिन मर जाऊँगी, सिर पर हाथ धरकर रोओगे। अभी मुझमें सारी बुराइयाँ ही बुराइयाँ हैं, तब आँखों से आँसू निकलेंगे। ‘
‘ मेरा सन्देह हीरा पर होता है। ‘
‘ झूठ, बिलकुल झूठ! हीरा इतना नीच नहीं है। वह मुँह का ही ख़राब है। ‘
‘ मैंने अपनी आँखों देखा। सच, तेरे सिर की सौंह। ‘
‘ तुमने अपनी आँखों देखा! कब? ‘
‘ वही, मैं सोभा को देखकर आया; तो वह सुन्दरिया की नाँद के पास खड़ा था। मैंने पूछा — कौन है, तो बोला, मैं हूँ हीरा, कौड़े में से आग लेने आया था। थोड़ी देर मुझसे बातें करता रहा। मुझे चिलम पिलायी। वह उधर गया, मैं भीतर आया और वही गोबर ने पुकार मचायी। मालूम होता है, मैं गाय बाँधकर सोभा के घर गया हूँ, और इसने इधर आकर कुछ खिला दिया है। साइत फिर यह देखने आया था कि मरी या नहीं। धनिया ने लम्बी साँस लेकर कहा — इस तरह के होते हैं भाई, जिन्हें भाई का गला काटने में भी हिचक नहीं होती। उफ़्फ़ोह। हीरा मन का इतना काला है! और दाढ़ीजार को मैंने पाल-पोसकर बड़ा किया।
‘ अच्छा जा सो रह, मगर किसी से भूलकर भी ज़िकर न करना। ‘
‘ कौन, सबेरा होते ही लाला को थाने न पहुँचाऊँ, तो अपने असल बाप की नहीं। यह हत्यारा भाई कहने जोग है! यही भाई का काम है! वह बैरी है, पक्का बैरी और बैरी को मारने में पाप नहीं, छोड़ने में पाप है। ‘
होरी ने धमकी दी — मैं कहे देता हूँ धनिया, अनर्थ हो जायगा। धनिया आवेश में बोली — अनर्थ नहीं, अनर्थ का बाप हो जाय। मैं बिना लाला को बड़े घर भिजवाये मानूँगी नहीं। तीन साल चक्की पिसवाऊँगी, तीन साल। वहाँ से छूटेंगे, तो हत्या लगेगी। तीरथ करना पड़ेगा। भोज देना पड़ेगा। इस धोखे में न रहें लाला! और गवाही दिलाऊँगी तुमसे, बेटे के सिर पर हाथ रखकर। उसने भीतर जाकर किवाड़ बन्द कर लिये और होरी बाहर अपने को कोसता पड़ा रहा। जब स्वयम् उसके पेट में बात न पची, तो धनिया के पेट में क्या पचेगी। अब यह चुड़ैल माननेवाली नहीं! ज़िद पर आ जाती है, तो किसी की सुनती ही नहीं। आज उसने अपने जीवन में सबसे बड़ी भूल की। चारों ओर नीरव अन्धकार छाया हुआ था। दोनों बैलों के गले की घण्टियाँ कभी-कभी बज उठती थीं। दस क़दम पर मृतक गाय पड़ी हुई थी और होरी घोर पश्चात्ताप में करवटें बदल रहा था। अन्धकार में प्रकाश की रेखा कहीं नज़र न आती थी।

Godan / गोदान भाग 9 / प्रेमचंद / Premchand

Godan / गोदान भाग 6-10 / प्रेमचंद / Premchandप्रातःकाल होरी के घर में एक पूरा हंगामा हो गया। होरी धनिया को मार रहा था। धनिया उसे गालियाँ दे रही थी। दोनों लड़कियाँ बाप के पाँवों से लिपटी चिल्ला रही थीं और गोबर माँ को बचा रहा था। बार-बार होरी का हाथ पकड़कर पीछे ढकेल देता; पर ज्योंही धनिया के मुँह से कोई गाली निकल जाती, होरी अपने हाथ छुड़ाकर उसे दो-चार घूँसे और लात जमा देता। उसका बूढ़ा क्रोध जैसे किसी गुप्त संचित शक्ति को निकाल लाया हो। सारे गाँव में हलचल पड़ गयी। लोग समझाने के बहाने तमाशा देखने आ पहुँचे। शोभा लाठी टेकता खड़ा हुआ। दातादीन ने डाँटा — यह क्या है होरी, तुम बावले हो गये हो क्या? कोई इस तरह घर की लक्ष्मी पर हाथ छोड़ता है! तुम्हें यह रोग न था। क्या हीरा की छूत तुम्हें भी लग गयी।
होरी ने पालागन करके कहा — महाराज, तुम इस बखत न बोलो। मैं आज इसकी बान छुड़ाकर तब दम लूँगा। मैं जितना ही तरह देता हूँ, उतना ही यह सिर चढ़ती जाती है।
धनिया सजल क्रोध में बोली — महाराज तुम गवाह रहना। मैं आज इसे और इसके हत्यारे भाई को जेहल भेजवाकर तब पानी पिऊँगी। इसके भाई ने गाय को माहुर खिलाकर मार डाला। अब जो मैं थाने में रपट लिखाने जा रही हूँ तो यह हत्यारा मुझे मारता है। इसके पीछे अपनी ज़िन्दगी चौपट कर दी, उसका यह इनाम दे रहा है।
होरी ने दाँत पीसकर और आँखें निकालकर कहा — फिर वही बात मुँह से निकाली। तूने देखा था हीरा को माहुर खिलाते?
‘ तू क़सम खा जा कि तूने हीरा को गाय की नाँद के पास खड़े नहीं देखा? ‘
‘ हाँ, मैंने नहीं देखा, क़सम खाता हूँ। ‘
‘ बेटे के माथे पर हाथ रख के क़सम खा! ‘
होरी ने गोबर के माथे पर काँपता हुआ हाथ रखकर काँपते हुए स्वर में कहा — मैं बेटे की क़सम खाता हूँ कि मैंने हीरा को नाँद के पास नहीं देखा। धनिया ने ज़मीन पर थूक कर कहा — थुड़ी है। तेरी झुठाई पर। तूने ख़ुद मुझसे कहा कि हीरा चोरों की तरह नाँद के पास खड़ा था। और अब भाई के पक्ष में झूठ बोलता है। थुड़ी है! अगर मेरे बेटे का बाल भी बाँका हुआ, तो घर में आग लगा दूँगी। सारी गृहस्थी में आग लगा दूँगी। भगवान्, आदमी मुँह से बात कहकर इतनी बेसरमी से मुकुर जाता है।
होरी पाँव पटककर बोला — धनिया, ग़ुस्सा मत दिखा, नहीं बुरा होगा।
‘ मार तो रहा है, और मार ले। जा, तू अपने बाप का बेटा होगा तो आज मुझे मारकर तब पानी पियेगा। पापी ने मारते-मारते मेरा भुरकस निकाल लिया, फिर भी इसका जी नहीं भरा। मुझे मारकर समझता है मैं बड़ा वीर हूँ। भाइयों के सामने भीगी बिल्ली बन जाता है, पापी कहीं का, हत्यारा! ‘
फिर वह बैन कहकर रोने लगी — इस घर में आकर उसने क्या नहीं झेला, किस किस तरह पेट-तन नहीं काटा, किस तरह एक-एक लत्ते को तरसी, किस तरह एक-एक पैसा प्राणों की तरह संचा, किस तरह घर-भर को खिलाकर आप पानी पीकर सो रही। और आज उन सारे बलिदानों का यह पुरस्कार! भगवान् बैठे यह अन्याय देख रहे हैं और उसकी रक्षा को नहीं दौड़ते। गज की और द्रौपदी की रक्षा करने बैकुंठ से दौड़े थे। आज क्यों नींद में सोये हुए हैं।
जनमत धीरे-धीरे धनिया की ओर आने लगा। इसमें अब किसी को सन्देह नहीं रहा कि हीरा ने ही गाय को ज़हर दिया। होरी ने बिलकुल झूठी क़सम खाई है, इसका भी लोगों को विश्वास हो गया। गोबर को भी बाप की इस झूठी क़सम और उसके फलस्वरूप आनेवाली विपित्त की शंका ने होरी के विरुद्ध कर दिया। उस पर जो दातादीन ने डाँट बतायी, तो होरी परास्त हो गया। चुपके से बाहर चला गया, सत्य ने विजय पायी। दातादीन ने शोभा से पूछा — तुम कुछ जानते हो शोभा, क्या बात हुई?
शोभा ज़मीन पर लेटा हुआ बोला — मैं तो महाराज, आठ दिन से बाहर नहीं निकला। होरी दादा कभी-कभी जाकर कुछ दे आते हैं, उसी से काम चलता है। रात भी वह मेरे पास गये थे। किसने क्या किया, मैं कुछ नहीं जानता। हाँ, कल साँझ को हीरा मेरे घर खुरपी माँगने गया था। कहता था, एक जड़ी खोदना है। फिर तब से मेरी उससे भेंट नहीं हुई।
धनिया इतनी शह पाकर बोली — पण्डित दादा, वह उसी का काम है। सोभा के घर से खुरपी माँगकर लाया और कोई जड़ी खोदकर गाय को खिला दी। उस रात को जो झगड़ा हुआ था, उसी दिन से वह खार खाये बैठा था।
दातादीन बोले — यह बात साबित हो गयी, तो उसे हत्या लगेगी। पुलिस कुछ करे या न करे, धरम तो बिना दंड दिये न रहेगा। चली तो जा रुपिया, हीरा को बुला ला। कहना, पण्डित दादा बुला रहे हैं। अगर उसने हत्या नहीं की है, तो गंगाजली उठा ले और चौरे पर चढ़कर क़सम खाय।
धनिया बोली — महाराज, उसके क़सम का भरोसा नहीं। चटपट खा लेगा। जब इसने झूठी क़सम खा ली, जो बड़ा धर्मात्मा बनता है, तो हीरा का क्या विश्वास।
अब गोबर बोला — खा ले झूठी क़सम। बंस का अन्त हो जाय। बूढ़े जीते रहें। जवान जीकर क्या करेंगे!
रूपा एक क्षण में आकर बोली — काका घर में नहीं है, पण्डित दादा! काकी कहती हैं, कहीं चले गये हैं। दातादीन ने लम्बी दाढ़ी फटकारकर कहा — तूने पूछा नहीं, कहाँ चले गये किया? घर में छिपा बैठा न हो। देख तो सोना, भीतर तो नहीं बैठा है।
धनिया ने टोका — उसे मत भेजो दादा! हीरा के सिर हत्या सवार है, न जाने क्या कर बैठे। दातादीन ने ख़ुद लकड़ी सँभाली और ख़बर लाये कि हीरा सचमुच कहीं चला गया है। पुनिया कहती है लुटिया-डोर और डंडा सब लेकर गये हैं। पुनिया ने पूछा भी, कहाँ जाते हो; पर बताया नहीं। उसने पाँच रुपए आले में रखे थे। रुपए वहाँ नहीं हैं। साइत रुपए भी लेता गया। धनिया शीतल हृदय से बोली — मुँह में कालिख लगाकर कहीं भागा होगा।
शोभा बोला — भाग के कहाँ जायगा। गंगा नहाने न चला गया हो।
धनिया ने शंका की — गंगा जाता तो रुपए क्यों ले जाता, और आजकल कोई परब भी तो नहीं है?
इस शंका का कोई समाधान न मिला। धारणा दृढ़ हो गयी। आज होरी के घर भोजन नहीं पका। न किसी ने बैलों को सानी-पानी दिया। सारे गाँव में सनसनी फैली हुई थी। दो-दो चार-चार आदमी जगह-जगह जमा होकर इसी विषय की आलोचना कर रहे थे। हीरा अवश्य कहीं भाग गया। देखा होगा कि भेद खुल गया, अब जेहल जाना पड़ेगा, हत्या अलग लगेगी। बस, कहीं भाग गया। पुनिया अलग रो रही थी, कुछ कहा न सुना, न जाने कहाँ चल दिये। जो कुछ कसर रह गयी थी वह सन्ध्या-समय हलके के थानेदार ने आकर पूरी कर दी। गाँव के चौकीदार ने इस घटना की रपट की, जैसा उसका कर्तव्य था। और थानेदार साहब भला अपने कर्तव्य से कब चूकनेवाले थे। अब गाँववालों को भी उनकी सेवा-सत्कार करके अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। दातादीन, झिंगुरीसिंह, नोखेराम, उनके चारों प्यादे, मँगरू साह और लाला पटेश्वरी, सभी आ पहुँचे और दारोग़ाजी के सामने हाथ बाँधकर खड़े हो गये। होरी की तलबी हुई। जीवन में यह पहला अवसर था कि वह दारोग़ा के सामने आया। ऐसा डर रहा था, जैसे फाँसी हो जायेगी। धनिया को पीटते समय उसका एक-एक अंग फड़क रहा था। दारोग़ा के सामने कछुए की भाँति भीतर सिमटा जाता था। दारोग़ा ने उसे आलोचक नेत्रों से देखा और उसके हृदय तक पहुँच गये। आदमियों की नस पहचानने का उन्हें अच्छा अभ्यास था। किताबी मनोविज्ञान में कोरे, पर व्यावहारिक मनोविज्ञान के मर्मज्न थे। यक़ीन हो गया, आज अच्छे का मुँह देखकर उठे हैं। और होरी का चेहरा कहे देता था, इसे केवल एक घुड़की काफ़ी है। दारोग़ा ने पूछा — तुझे किस पर शुबहा है?
होरी ने ज़मीन छुई और हाथ बाँधकर बोला — मेरा सुबहा किसी पर नहीं है सरकार, गाय अपनी मौत से मरी है। बुड्ढी हो गयी थी।
धनिया भी आकर पीछे खड़ी थी। तुरन्त बोली — गाय मारी है तुम्हारे भाई हीरा ने। सरकार ऐसे बौड़म नहीं हैं कि जो कुछ तुम कह दोगे, वह मान लेंगे। यहाँ जाँच-तहक़िक़ात करने आये हैं।
दारोग़ाजी ने पूछा — यह कौन औरत है?
कई आदमियों ने दारोग़ाजी से कुछ बातचीत करने का सौभाग्य प्राप्त करने के लिए चढ़ा-ऊपरी की। एक साथ बोले और अपने मन को इस कल्पना से सन्तोष दिया कि पहले मैं बोला — होरी की घरवाली है सरकार!
‘ तो इसे बुलाओ, मैं पहले इसी का बयान लिखूँगा। वह कहाँ है हीरा? ‘
विशिष्ट जनों ने एक स्वर से कहा — वह तो आज सबेरे से कहीं चला गया है सरकार!
‘ मैं उसके घर की तलाशी लूँगा। ‘
तलाशी! होरी की साँस तले-ऊपर होने लगी। उसके भाई हीरा के घर की तलाशी होगी और हीरा घर में नहीं है। और फिर होरी के जीते-जी, उसके देखते यह तलाशी न होने पायेगी; और धनिया से अब उसका कोई सम्बन्ध नहीं। जहाँ चाहे जाय। जब वह उसकी इज़्ज़त बिगाड़ने पर आ गयी है, तो उसके घर में कैसे रह सकती है। जब गली-गली ठोकर खायेगी, तब पता चलेगा। गाँव के विशिष्ट जनों ने इस महान संकट को टालने के लिए काना-फूसी शुरू की।
दातादीन ने गंजा सिर हिलाकर कहा — यह सब कमाने के ढंग हैं। पूछो, हीरा के घर में क्या रखा है।
पटेश्वरीलाल बहुत लम्बे थे; पर लम्बे होकर भी बेवक़ूफ़ न थे। अपना लम्बा काला मुँह और लम्बा करके बोले — और यहाँ आया है किस लिए, और जब आया है बिना कुछ लिये-दिये गया कब है?
झिंगुरीसिंह ने होरी को बुलाकर कान में कहा — निकालो जो कुछ देना हो। यों गला न छूटेगा।
दारोग़ाजी ने अब ज़रा गरजकर कहा — मैं हीरा के घर की तलाशी लूँगा। होरी के मुख का रंग ऐसा उड़ गया था, जैसे देह का सारा रक्त सूख गया हो। तलाशी उसके घर हुई तो, उसके भाई के घर हुई तो, एक ही बात है। हीरा अलग सही; पर दुनिया तो जानती है, वह उसका भाई है; मगर इस वक़्त उसका कुछ बस नहीं। उसके पास रुपए होते, तो इसी वक़्त पचास रुपए लाकर दारोग़ाजी के चरणों पर रख देता और कहता — सरकार, मेरी इज़्ज़त अब आपके हाथ है। मगर उसके पास तो ज़हर खाने को भी एक पैसा नहीं है। धनिया के पास चाहे दो-चार रुपए पड़े हों; पर वह चुड़ैल भला क्यों देने लगी। मृत्यु-दंड पाये हुए आदमी की भाँति सिर झुकाये, अपने अपमान की वेदना का तीव्र अनुभव करता हुआ चुपचाप खड़ा रहा। दातादीन ने होरी को सचेत किया — अब इस तरह खड़े रहने से काम न चलेगा होरी, रुपए की कोई जुगत करे।
होरी दीन स्वर में बोला — अब मैं क्या अरज करूँ महाराज! अभी तो पहले ही की गठरी सिर पर लदी है; और किस मुँह से मागूँ; लेकिन इस संकट से उबार लो। जीता रहा, तो कौड़ी-कौड़ी चुका दूँगा। मैं मर भी जाऊँ तो गोबर तो है ही। नेताओं में सलाह होने लगी। दारोग़ाजी को क्या भेंट किया जाय। दातादीन ने पचास का प्रस्ताव किया। झिंगुरीसिंह के अनुमान में सौ से कम पर सौदा न होगा। नोखेराम भी सौ के पक्ष में थे। और होरी के लिए सौ और पचास में कोई अन्तर न था। इस तलाशी का संकट उसके सिर से टल जाय। पूजा चाहे कितनी ही चढ़ानी पड़े। मरे को मन-भर लकड़ी से जलाओ, या दस मन से; उसे क्या चिन्ता! मगर पटेश्वरी से यह अन्याय न देखा गया। कोई डाका या क़तल तो हुआ नहीं। केवल तलाशी हो रही है। इसके लिए बीस रुपए बहुत हैं। नेताओं ने धिक्कारा — तो फिर दारोग़ाजी से बातचीत करना। हम लोग नगीच न जायेंगे। कौन घुड़कियाँ खाय। होरी ने पटेश्वरी के पाँव पर अपना सिर रख दिया — भैया, मेरा उद्धार करो। जब तक जिऊँगा, तुम्हारी ताबेदारी करूँगा।
दारोग़ाजी ने फिर अपने विशाल वक्ष और विशालतर उदर की पूरी शिक्त से कहा — कहाँ है हीरा का घर? मैं उसके घर की तलाशी लूँगा।
पटेश्वरी ने आगे बढ़कर दारोग़ाजी के कान में कहा — तलासी लेकर क्या करोगे हुज़ूर, उसका भाई आपकी ताबेदारी के लिए हाज़िर है। दोनों आदमी ज़रा अलग जाकर बातें करने लगे।
‘ कैसा आदमी है? ‘
‘ बहुत ही ग़रीब हुज़ूर! भोजन का ठिकाना भी नहीं! ‘
‘ सच? ‘
‘ हाँ, हुज़ूर, ईमान से कहता हूँ। ‘
‘ अरे तो क्या एक पचासे का डौल भी नहीं है? ‘
‘ कहाँ की बात हुज़ूर! दस मिल जायँ, तो हज़ार समझिए। पचास तो पचास जनम में भी मुमकिन नहीं और वह भी जब कोई महाजन खड़ा हो जायगा! ‘
दारोग़ाजी ने एक मिनट तक विचार करके कहा — तो फिर उसे सताने से क्या फ़ायदा। मैं ऐसों को नहीं सताता, जो आप ही मर रहे हों।
पटेश्वरी ने देखा, निशाना और आगे जा पड़ा। बोले — नहीं हुज़ूर, ऐसा न कीजिए, नहीं फिर हम कहाँ जायँगे। हमारे पास दूसरी और कौन-सी खेती है?
‘ तुम इलाक़े के पटवारी हो जी, कैसी बातें करते हो? ‘
‘ जब ऐसा ही कोई अवसर आ जाता है, तो आपकी बदौलत हम भी कुछ पा जाते हैं। नहीं पटवारी को कौन पूछता है। ‘
‘ अच्छा जाओ, तीस रुपए दिलवा दो; बीस रुपए हमारे, दस रुपए तुम्हारे। ‘
‘ चार मुखिया हैं, इसका ख़्याल कीजिए। ‘
‘ अच्छा आधे-आधे पर रखो, जल्दी करो। मुझे देर हो रही है। ‘
पटेश्वरी ने झिंगुरी से कहा, झिंगुरी ने होरी को इशारे से बुलाया, अपने घर ले गये, तीस रुपए गिनकर उसके हवाले किये और एहसान से दबाते हुए बोले — आज ही कागद लिखा लेना। तुम्हारा मुँह देखकर रुपए दे रहा हूँ, तुम्हारी भलमंसी पर। होरी ने रुपए लिये और अँगोछे के कोर में बाँधे प्रसन्न मुख आकर दारोग़ाजी की ओर चला। सहसा धनिया झपटकर आगे आयी और अँगोछी एक झटके के साथ उसके हाथ से छीन ली। गाँठ पक्की न थी। झटका पाते ही खुल गयी और सारे रुपए ज़मीन पर बिखर गये। नागिन की तरह फुँकारकर बोली — ये रुपए कहाँ लिये जा रहा है, बता। भला चाहता है, तो सब रुपए लौटा दे, नहीं कहे देती हूँ। घर के परानी रात-दिन मरें और दाने-दाने को तरसें, लत्ता भी पहनने को मयस्सर न हो और अँजुली-भर रुपए लेकर चला है इज़्ज़त बचाने! ऐसी बड़ी है तेरी इज़्ज़त! जिसके घर में चूहे लोटें, वह भी इज़्ज़तवाला है! दारोग़ा तलासी ही तो लेगा। ले-ले जहाँ चाहे तलासी। एक तो सौ रुपए की गाय गयी, उस पर यह पलेथन! वाह री तेरी इज़्ज़त!
होरी ख़ून का घूँट पीकर रह गया। सारा समूह जैसे थर्रा उठा। नेताओं के सिर झुक गये। दारोग़ा का मुँह ज़रा-सा निकल आया। अपने जीवन में उसे ऐसी लताड़ न मिली थी। होरी स्तम्भित-सा खड़ा रहा। जीवन में आज पहली बार धनिया ने उसे भरे अखाड़े में पटकनी दी, आकाश तका दिया। अब वह कैसे सिर उठाये! मगर दारोग़ाजी इतनी जल्दी हार माननेवाले न थे। खिसियाकर बोले — मुझे ऐसा मालूम होता है, कि इस शैतान की ख़ाला ने हीरा को फँसाने के लिए ख़ुद गाय को ज़हर दे दिया।
धनिया हाथ मटकाकर बोली — हाँ, दे दिया। अपनी गाय थी, मार डाली, फिर किसी दूसरे का जानवर तो नहीं मारा? तुम्हारे तहक़ीक़ात में यही निकलता है, तो यही लिखो। पहना दो मेरे हाथ में हथकड़ियाँ। देख लिया तुम्हारा न्याय और तुम्हारे अक्कल की दौड़। ग़रीबों का गला काटना दूसरी बात है। दूध का दूध और पानी का पानी करना दूसरी बात।
होरी आँखों से अँगारे बरसाता धनिया की ओर लपका; पर गोबर सामने आकर खड़ा हो गया और उग्र भाव से बोला — अच्छा दादा, अब बहुत हुआ। पीछे हट जाओ, नहीं मैं कहे देता हूँ, मेरा मुँह न देखोगे। तुम्हारे ऊपर हाथ न उठाऊँगा। ऐसा कपूत नहीं हूँ। यहीं गले में फाँसी लगा लूँगा।
होरी पीछे हट गया और धनिया शेर होकर बोली — तू हट जा गोबर, देखूँ तो क्या करता है मेरा। दारोग़ाजी बैठे हैं। इसकी हिम्मत देखूँ। घर में तलाशी होने से इसकी इज़्ज़त जाती है। अपनी मेहरिया को सारे गाँव के सामने लतियाने से इसकी इज़्ज़त नहीं जाती! यही तो बीरों का धरम है। बड़ा बीर है, तो किसी मर्द से लड़। जिसकी बाँह पकड़कर लाया, उसे मारकर बहादुर न कहलायेगा। तू समझता होगा, मैं इसे रोटी कपड़ा देता हूँ। आज से अपना घर सँभाल। देख तो इसी गाँव में तेरी छाती पर मूँग दलकर रहती हूँ कि नहीं, और उससे अच्छा खाऊँ-पहनूँगी। इच्छा हो, देख ले।
होरी परास्त हो गया। उसे ज्ञात हुआ, स्त्री के सामने पुरुष कितना निर्बल, कितना निरुपाय है। नेताओं ने रुपए चुनकर उठा लिये थे और दारोग़ाजी को वहाँ से चलने का इशारा कर रहे थे। धनिया ने एक ठोकर और जमायी — जिसके रुपए हों, ले जाकर उसे दे दो। हमें किसी से उधार नहीं लेना है। और जो देना है, तो उसी से लेना। मैं दमड़ी भी न दूँगी, चाहे मुझे हाकिम के इजलास तक ही चढ़ना पड़े। हम बाक़ी चुकाने को पचीस रुपए माँगते थे, किसी ने न दिया। आज अँजुली-भर रुपये ठनाठन निकाल के दिये। मैं सब जानती हूँ। यहाँ तो बाँट-बखरा होनेवाला था, सभी के मुँह मीठे होते। ये हत्यारे गाँव के मुखिया हैं, ग़रीबों का ख़ून चूसनेवाले! सूद-ब्याज डेढ़ी-सवाई, नज़र-नज़राना, घूस-घास जैसे भी हो, ग़रीबों को लूटो। उस पर सुराज चाहिए। जेल जाने से सुराज न मिलेगा। सुराज मिलेगा धरम से, न्याय से।
नेताओं के मुँह में कालिख-सी लगी हुई थी। दारोग़ाजी के मुँह पर झाड़-सी फिरी हुई थी। इज़्ज़त बचाने के लिए हीरा के घर की ओर चले। रास्ते में दारोग़ा ने स्वीकार किया — औरत है बड़ी दिलेर!
पटेश्वरी बोले — दिलेर है हुज़ूर, कर्कशा है। ऐसी औरत को तो गोली मार दे।
‘ तुम लोगों का क़ाफ़िया तंग कर दिया उसने। चार-चार तो मिलते ही। ‘
‘ हुज़ूर के भी तो पन्द्रह रुपए गये। ‘
‘ मेरे कहाँ जा सकते हैं। वह न देगा, गाँव के मुखिया देंगे और पन्द्रह रुपये की जगह पूरे पचास रुपए। आप लोग चटपट इन्तज़ाम कीजिए। ‘
पटेश्वरीलाल ने हँसकर कहा — हुज़ूर बड़े दिल्लगीबाज़ हैं। दातादीन बोले-बड़े आदमियों के यही लक्षण हैं। ऐसे भाग्यवानों के दर्शन कहाँ होते हैं।
दारोग़ाजी ने कठोर स्वर में कहा — यह ख़ुशामद फिर कीजिएगा। इस वक़्त तो मुझे पचास रुपए दिलवाइए, नक़द; और यह समझ लो कि आनाकानी की, तो मैं तुम चारों के घर की तलाशी लूँगा। बहुत मुमकिन है कि तुमने हीरा और होरी को फँसाकर उनसे सौ-पचास ऐंठने के लिए यह पाखंड रचा हो।
नेतागण अभी तक यही समझ रहे हैं, दारोग़ाजी विनोद कर रहे हैं। झिंगुरीसिंह ने आँखें मारकर कहा — निकालो पचास रुपए पटवारी साहब!
नोखेराम ने उनका समर्थन किया — पटवारी साहब का इलाक़ा है। उन्हें ज़रूर आपकी ख़ातिर करनी चाहिए।
पण्डित नोखेरामजी की चौपाल आ गयी। दारोग़ाजी एक चारपाई पर बैठ गये और बोले — तुम लोगों ने क्या निश्चय किया? रुपए निकालते हो या तलाशी करवाते हो?
दातादीन ने आपत्ति की — मगर हुज़ूर…
‘ मैं अगर-मगर कुछ नहीं सुनना चाहता। ‘
झिंगुरीसिंह ने साहस किया — सरकार यह तो सरासर…
‘ मैं पन्द्रह मिनट का समय देता हूँ। अगर इतनी देर में पूरे पचास रुपए न आये, तो तुम चारों के घर की तलाशी होगी। और गंडासिंह को जानते हो। उसका मारा पानी भी नहीं माँगता। ‘
पटेश्वरीलाल ने तेज़ स्वर से कहा — आपको अख़्तियार है, तलाशी ले लें। यह अच्छी दिल्लगी है, काम कौन करे, पकड़ा कौन जाय।
‘ मैंने पचीस साल थानेदारी की है जानते हो? ‘
‘ लेकिन ऐसा अँधेर तो कभी नहीं हुआ। ‘
‘ तुमने अभी अँधेर नहीं देखा। कहो तो वह भी दिखा दूँ। एक-एक को पाँच-पाँच साल के लिए भेजवा दूँ। यह मेरे बायें हाथ का खेल है। डाके में सारे गाँव को काले पानी भेजवा सकता हूँ। इस धोखे में न रहना! ‘
चारों सज्जन चौपाल के अन्दर जाकर विचार करने लगे। फिर क्या हुआ किसी को मालूम नहीं, हाँ, दारोग़ाजी प्रसन्न दिखायी दे रहे थे। और चारों सज्जनों के मुँह पर फटकार बरस रही थी। दारोग़ाजी घोड़े पर सवार होकर चले, तो चारों नेता दौड़ रहे थे। घोड़ा दूर निकल गया तो चारों सज्जन लौटे; इस तरह मानो किसी प्रियजन का संस्कार करके श्मशान से लौट रहे हों। सहसा दातादीन बोले — मेरा सराप न पड़े तो मुँह न दिखाऊँ।
नोखेराम ने समर्थन किया — ऐसा धन कभी फलते नहीं देखा।
पटेश्वरी ने भविष्यवाणी की — हराम की कमाई हराम में जायगी।
झिंगुरीसिंह को आज ईश्वर की न्यायपरता में सन्देह हो गया था। भगवान् न जाने कहाँ हैं कि यह अँधेर देखकर भी पापियों को दंड नहीं देते। इस वक़्त इन सज्जनों की तस्वीर खींचने लायक़ थी।

Godan / गोदान भाग 10 / प्रेमचंद / Premchand

Godan / गोदान भाग 6-10 / प्रेमचंद / Premchandहीरा का कहीं पता न चला और दिन गुज़रते जाते थे। होरी से जहाँ तक दौड़धूप हो सकी की; फिर हारकर बैठ रहा। खेती-बारी की भी फ़िक्र करनी थी। अकेला आदमी क्या-क्या करता। और अब अपनी खेती से ज़्यादा फ़िक्र थी पुनिया की खेती की। पुनिया अब अकेली होकर और भी प्रचंड हो गयी थी। होरी को अब उसकी ख़ुशामद करते बीतती थी। हीरा था, तो वह पुनिया को दबाये रहता था। उसके चले जाने से अब पुनिया पर कोई अंकुस न रह गया था। होरी की पट्टीदारी हीरा से थी। पुनिया अबला थी। उससे वह क्या तनातनी करता। और पुनिया उसके स्वभाव से परिचित थी और उसकी सज्जनता का उसे ख़ूब दंड देती थी। ख़ैरियत यही हुई कि कारकुन साहब ने पुनिया से बक़ाया लगान वसूल करने की कोई सख़्ती न की, केवल थोड़ी सी पूजा लेकर राज़ी हो गये। नहीं, होरी अपनी बक़ाया के साथ उसकी बक़ाया चुकाने के लिए भी क़रज़ लेने को तैयार था। सावन में धान की रोपाई की ऐसी धूम रही कि मजूर न मिले और होरी अपने खेतों में धान न रोप सका; लेकिन पुनिया के खेतों में कैसे न रोपाई होती। होरी ने पहर रात-रात तक काम करके उसके धान रोपे। अब होरी ही तो उसका रक्षक है! अगर पुनिया को कोई कष्ट हुआ, तो दुनिया उसी को तो हँसेगी। नतीजा यह हुआ कि होरी को ख़रीफ़ फ़सल में बहुत थोड़ा अनाज मिला, और पुनिया के बखार में धान रखने की जगह न रही। होरी और धनिया में उस दिन से बराबर मनमुटाव चला आता था। गोबर से भी होरी की बोल-चाल बन्द थी। माँ-बेटे ने मिलकर जैसे उसका बहिष्कार कर दिया था। अपने घर में परदेशी बना हुआ था। दो नावों पर सवार होनेवालों की जो दुर्गति होती है, वही उसकी हो रही थी। गाँव में भी अब उसका उतना आदर न था। धनिया ने अपने साहस से स्त्रियों का ही नहीं, पुरुषों का नेतृत्व भी प्राप्त कर लिया था। महीनों तक आसपास के इलाक़ों में कांड की ख़ूब चर्चा रही। यहाँ तक कि वह अलौकिक रूप तक धारण करता जाता था — ‘धनिया नाम है उसका जी। भवानी का इष्ट है उसे। दारोग़ाजी ने ज्योंही उसके आदमी के हाथ में हथकड़ी डाली कि धनिया ने भवानी का सुमिरन किया। भवानी उसके सिर आ गयी। फिर तो उसमें इतनी शिक्त आ गयी कि उसने एक झटके में पति की हथकड़ी तोड़ डाली और दारोग़ा की मूँछें पकड़कर उखाड़ लीं, फिर उसकी छाती पर चढ़ बैठी। दारोग़ा ने जब बहुत मानता की, तब जाकर उसे छोड़ा’
कुछ दिन तक तो लोग धनिया के दर्शनों को आते रहे। वह बात अब पुरानी पड़ गयी थी; लेकिन गाँव में धनिया का सम्मान बहुत बढ़ गया। उसमें अद्भुत साहस है और समय पड़ने पर वह मर्दो के भी कान काट सकती है। मगर धीरे-धीरे धनिया में एक परिवर्तन हो रहा था। होरी को पुनिया की खेती में लगे देखकर भी वह कुछ न बोलती थी। और यह इसलिए नहीं कि वह होरी से विरक्त हो गयी थी; बल्कि इसलिए कि पुनिया पर अब उसे भी दया आती थी। हीरा का घर से भाग जाना उसकी प्रतिशोध-भावना की तुष्टि के लिए काफ़ी था। इसी बीच में होरी को ज्वर आने लगा। फ़स्ली बुख़ार फैला था ही। होरी उसके चपेट में आ गया। और कई साल के बाद जो ज्वर आया, तो उसने सारी बक़ाया चुका ली। एक महीने तक होरी खाट पर पड़ा रहा। इस बीमारी ने होरी को तो कुचल डाला ही, पर धनिया पर भी विजय पा गयी। पति जब मर रहा है, तो उससे कैसा बैर। ऐसी दशा में तो बैरियों से भी बैर नहीं रहता, वह तो अपना पति है। लाख बुरा हो; पर उसी के साथ जीवन के पचीस साल कटे हैं, सुख किया है तो उसी के साथ, दुःख भोगा है तो उसी के साथ, अब तो चाहे वह अच्छा है या बुरा, अपना है। दाढ़ीजार ने मुझे सबके सामने मारा, सारे गाँव के सामने मेरा पानी उतार लिया; लेकिन तब से कितना लज्जित है कि सीधे ताकता नहीं। खाने आता है तो सिर झुकाये खाकर उठ जाता है, डरता रहता है कि मैं कुछ कह न बैठूँ। होरी जब अच्छा हुआ, तो पति-पत्नी में मेल हो गया था। एक दिन धनिया ने कहा — तुम्हें इतना ग़ुस्सा कैसे आ गया। मुझे तो तुम्हारे ऊपर कितना ही ग़ुस्सा आये मगर हाथ न उठाऊँगी। होरी लजाता हुआ बोला — अब उसकी चर्चा न कर धनिया! मेरे ऊपर कोई भूत सवार था। इसका मुझे कितना दुःख हुआ है, वह मैं ही जानता हूँ।
‘और जो मैं भी उस क्रोध में डूब मरी होती!’
‘तो क्या मैं रोने के लिए बैठा रहता? मेरी लहाश भी तेरे साथ चिता पर जाती।’
‘अच्छा चुप रहो, बेबात की बात मत बको। ‘
‘गाय गयी सो गयी, मेरे सिर पर एक विपत्ति डाल गयी। पुनिया की फ़िक्र मुझे मारे डालती है। ‘
‘इसीलिए तो कहते हैं, भगवान् घर का बड़ा न बनाये। छोटों को कोई नहीं हँसता। नेकी-बदी सब बड़ों के सिर जाती है। ‘
माघ के दिन थे। मघावट लगी हुई थी। घटाटोप अँधेरा छाया हुआ था। एक तो जाड़ों की रात, दूसरे माघ की वर्षा। मौत का-सा सन्नाटा छाया हुआ था। अँधेरा तक न सूझता था। होरी भोजन करके पुनिया के मटर के खेत की मेंड़ पर अपनी मड़ैया में लेटा हुआ था। चाहता था, शीत को भूल जाय और सो रहे; लेकिन तार-तार कम्बल और फटी हुई मिरज़ई और शीत के झोंकों से गीली पुआल। इतने शत्रुओं के सम्मुख आने का नींद में साहस न था। आज तमाखू भी न मिला कि उसी से मन बहलाता। उपला सुलगा लाया था, पर शीत में वह भी बुझ गया। बेवाय फटे पैरों को पेट में डालकर और हाथों को जाँघों के बीच में दबाकर और कम्बल में मुँह छिपाकर अपनी ही गर्म साँसों से अपने को गर्म करने की चेष्टा कर रहा था। पाँच साल हुए, यह मिरज़ई बनवाई थी। धनिया ने एक प्रकार से ज़बरदस्ती बनवा दी थी, वही जब एक बार काबुली से कपड़े लिये थे, जिसके पीछे कितनी साँसत हुई, कितनी गालियाँ खानी पड़ीं, और कम्बल तो उसके जन्म से भी पहले का है। बचपन में अपने बाप के साथ वह इसी में सोता था, जवानी में गोबर को लेकर इसी कम्बल में उसके जाड़े कटे थे और बुढ़ापे में आज वही बूढ़ा कम्बल उसका साथी है, पर अब वह भोजन को चबानेवाला दाँत नहीं, दुखनेवाला दाँत है। जीवन में ऐसा तो कोई दिन ही नहीं आया कि लगान और महाजन को देकर कभी कुछ बचा हो। और बैठे बैठाये यह एक नया जंजाल पड़ गया। न करो तो दुनिया हँसे, करो तो यह संशय बना रहे कि लोग क्या कहते हैं। सब यह समझते हैं कि वह दुनिया को लूट लेता है, उसकी सारी उपज घर में भर लेता है। एहसान तो क्या होगा उलटा कलंक लग रहा है। और उधर भोला कई बेर याद दिला चुके हैं कि कहीं कोई सगाई का डौल करो, अब काम नहीं चलता। सोभा उससे कई बार कह चुका है कि पुनिया के विचार उसकी ओर से अच्छे नहीं हैं। न हों। पुनिया की गृहस्थी तो उसे सँभालनी ही पड़ेगी, चाहे हँसकर सँभाले या रोकर। धनिया का दिल भी अभी तक साफ़ नहीं हुआ। अभी तक उसके मन में मलाल बना हुआ है। मुझे सब आदमियों के सामने उसको मारना न चाहिए था। जिसके साथ पचीस साल गुज़र गये, उसे मारना और सारे गाँव के सामने, मेरी नीचता थी; लेकिन धनिया ने भी तो मेरी आबरू उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मेरे सामने से कैसा कतराकर निकल जाती है जैसे कभी की जान-पहचान ही नहीं। कोई बात कहनी होती है, तो सोना या रूपा से कहलाती है। देखता हूँ उसकी साड़ी फट गयी है; मगर कल मुझसे कहा भी, तो सोना की साड़ी के लिए, अपनी साड़ी का नाम तक न लिया। सोना की साड़ी अभी दो-एक महीने थेगलियाँ लगाकर चल सकती है। उसकी साड़ी तो मारे पेवन्दों के बिलकुल कथरी हो गयी है। और फिर मैं ही कौन उसका मनुहार कर रहा हूँ। अगर मैं ही उसके मन की दो-चार बातें करता रहता, तो कौन छोटा हो जाता। यही तो होता वह थोड़ा-सा अदरवान कराती, दो-चार लगनेवाली बात कहती तो क्या मुझे चोट लग जाती; लेकिन मैं बुड्ढा होकर भी उल्लू बना रह गया। वह तो कहो इस बीमारी ने आकर उसे नर्म कर दिया, नहीं जाने कब तक मुँह फुलाये रहती। और आज उन दोनों में जो बातें हुई थीं, वह मानो भूखे का भोजन थीं। वह दिल से बोली थी और होरी गद्गद हो गया था। उसके जी में आया, उसके पैरों पर सिर रख दे और कहे — मैंने तुझे मारा है तो ले मैं सिर झुकाये लेता हूँ, जितना चाहे मार ले, जितनी गालियाँ देना चाहे दे ले। सहसा उसे मँड़ैया के सामने चूड़ियों की झंकार सुनायी दी। उसने कान लगाकर सुना। हाँ, कोई है। पटवारी की लड़की होगी, चाहे पण्डित की घरवाली हो। मटर उखाड़ने आयी होगी। न जाने क्यों इन लोगों की नीयत इतनी खोटी है। सारे गाँव से अच्छा पहनते हैं, सारे गाँव से अच्छा खाते हैं, घर में हज़ारों रुपए गड़े हैं, लेन-देन करते हैं, डयोढ़ी-सवाई चलाते हैं, घूस लेते हैं, दस्तूरी लेते हैं, एक-न-एक मामला खड़ा करके हमा-सुमा को पीसते रहते हैं, फिर भी नीयत का यह हाल! बाप जैसा होगा, वैसी ही सन्तान भी होगी। और आप नहीं आते, औरतों को भेजते हैं। अभी उठकर हाथ पकड़ लूँ तो क्या पानी रह जाय। नीच कहने को नीच हैं; जो ऊँचे हैं, उनका मन तो और नीचा है। औरत जात का हाथ पकड़ते भी तो नहीं बनता, आँखों देखकर मक्खी निगलनी पड़ती है। उखाड़ ले भाई, जितना तेरा जी चाहे। समझ ले, मैं नहीं हूँ। बड़े आदमी अपनी लाज न रखें, छोटों को तो उनकी लाज रखनी ही पड़ती है। मगर नहीं, यह तो धनिया है। पुकार रही है। धनिया ने पुकारा — सो गये कि जागते हो? होरी झटपट उठा और मँड़ैया के बाहर निकल आया। आज मालूम होता है, देवी प्रसन्न हो गयी, उसे वरदान देने आयी हैं, इसके साथ ही इस बादल-बूँदी और जाड़े-पाले में इतनी रात गये उसका आना शंकाप्रद भी था। ज़रूर कोई-न-कोई बात हुई है। बोला — ठंडी के मारे नींद भी आती है? तू इस जाड़े-पाले में कैसे आयी? कुसल तो है?
‘हाँ सब कुसल है। ‘
‘गोबर को भेजकर मुझे क्यों नहीं बुलवा लिया। ‘
धनिया ने कोई उत्तर न दिया। मँड़ैया में आकर पुआल पर बैठती हुई बोली — गोबर ने तो मुँह में कालिख लगा दी, उसकी करनी क्या पूछते हो। जिस बात को डरती थी, वह होकर रही।
‘क्या हुआ क्या? किसी से मार-पीट कर बैठा?’
‘अब मैं जानूँ, क्या कर बैठा, चलकर पूछो उसी राँड़ से?’
‘किस राँड़ से? क्या कहती है तू? बौरा तो नहीं गयी?’
‘हाँ, बौरा क्यों न जाऊँगी। बात ही ऐसी हुई है कि छाती दुगुनी हो जाय।’
होरी के मन में प्रकाश की एक लम्बी रेखा ने प्रवेश किया।
‘ साफ़-साफ़ क्यों नहीं कहती। किस राँड़ को कह रही है? ‘
‘उसी झुनिया को, और किसको! ‘
‘तो झुनिया क्या यहाँ आयी है? ‘
‘ और कहाँ जाती, पूछता कौन? ‘
‘ गोबर क्या घर में नहीं है? ‘
‘ गोबर का कहीं पता नहीं। जाने कहाँ भाग गया। इसे पाँच महीने का पेट है। ‘
होरी सब कुछ समझ गया। गोबर को बार-बार अहिराने जाते देखकर वह खटका था ज़रूर; मगर उसे ऐसा खिलाड़ी न समझता था। युवकों में कुछ रसिकता होती ही है, इसमें कोई नयी बात नहीं। मगर जिस रूई के गाले को उसने नीले आकाश में हवा के झोंके से उड़ते देखकर केवल मुस्करा दिया था, वह सारे आकाश में छाकर उसके मार्ग को इतना अन्धकारमय बना देगा, यह तो कोई देवता भी न जान सकता था। गोबर ऐसा लम्पट! वह सरल गँवार जिसे वह अभी बच्चा समझता था; लेकिन उसे भोज की चिन्ता न थी, पंचायत का भय न था, झुनिया घर में कैसे रहेगी इसकी चिन्ता भी उसे न थी। उसे चिन्ता थी गोबर की। लड़का लज्जाशील है, अनाड़ी है आत्माभिमानी है, कहीं कोई नादानी न कर बैठे। घबड़ाकर बोला — झुनिया ने कुछ कहा नहीं, गोबर कहाँ गया? उससे कहकर ही गया होगा। धनिया झुँझलाकर बोली — तुम्हारी अक्कल तो घास खा गयी है। उसकी चहेती तो यहाँ बैठी है, भागकर जायगा कहाँ? यहीं कहीं छिपा बैठा होगा। दूध थोड़े ही पीता है कि खो जायगा। मुझे तो इस कलमुँही झुनिया की चिन्ता है कि इसे क्या करूँ? अपने घर में तो मैं छन-भर भी न रहने दूँगी। जिस दिन गाय लाने गया है, उसी दिन से दोनों में ताक-झाँक होने लगी। पेट न रहता तो अभी बात न खुलती। मगर जब पेट रह गया तो झुनिया लगी घबड़ाने। कहने लगी, कहीं भाग चलो। गोबर टालता रहा। एक औरत को साथ लेके कहाँ जाय, कुछ न सूझा। आख़िर जब आज वह सिर हो गयी कि मुझे यहाँ से ले चलो, नहीं मैं परान दे दूँगी, तो बोला — तू चलकर मेरे घर में रह, कोई कुछ न बोलेगा, अम्माँ को मना लूँगा। यह गधी उसके साथ चल पड़ी। कुछ दूर तो आगे-आगे आता रहा, फिर न जाने किधर सरक गया। यह खड़ी-खड़ी उसे पुकारती रही। जब रात भींग गयी और वह न लौटा, भागी यहाँ चली आयी। मैंने तो कह दिया, जैसा किया है वैसा फल भोग। चुड़ैल ने लेके मेरे लड़के को चौपट कर दिया। तब से बैठी रो रही है। उठती ही नहीं। कहती है, अपने घर कौन मुँह लेकर जाऊँ। भगवान् ऐसी सन्तान से तो बाँझ ही रखे तो अच्छा। सबेरा होते-होते सारे गाँव में काँव काँव मच जायगी। ऐसा जी होता है, माहुर खा लूँ। मैं तुमसे कहे देती हूँ, मैं अपने घर में न रखूँगी। गोबर को रखना हो, अपने सिर पर रखे। मेरे घर में ऐसी छत्तीसियों के लिए जगह नहीं है और अगर तुम बीच में बोले, तो फिर या तो तुम्हीं रहोगे, या मैं ही रहूँगी। होरी बोला — तुझसे बना नहीं। उसे घर में आने ही न देना चाहिए था।
‘ सब कुछ कहके हार गयी। टलती ही नहीं। धरना दिये बैठी है। ‘
‘ अच्छा चल, देखूँ कैसे नहीं उठती, घसीटकर बाहर निकाल दूँगा। ‘
‘ दाढ़ीजार भोला सब कुछ देख रहा था; पर चुप्पी साधे बैठा रहा। बाप भी ऐसे बेहया होते हैं! ‘
‘ वह क्या जानता था, इनके बीच में क्या खिचड़ी पक रही है। ‘
‘ जानता क्यों नहीं था। गोबर रात-दिन घेरे रहता था तो क्या उसकी आँखें फूट गयी थीं। सोचना चाहिए था न, कि यहाँ क्यों दौड़-दौड़ आता है। ‘
‘चल मैं झुनिया से पूछता हूँ न।’
दोनों मँड़ैया से निकलकर गाँव की ओर चले। होरी ने कहा — पाँच घड़ी रात के ऊपर गयी होगी। धनिया बोली — हाँ, और क्या; मगर कैसा सोता पड़ गया है। कोई चोर आये, तो सारे गाँव को मूस ले जाय।
‘ चोर ऐसे गाँव में नहीं आते। धनियों के घर जाते हैं। ‘
धनिया ने ठिठक कर होरी का हाथ पकड़ लिया और बोली — देखो, हल्ला न मचाना; नहीं सारा गाँव जाग उठेगा और बात फैल जायगी। होरी ने कठोर स्वर में कहा — मैं यह कुछ नहीं जानता। हाथ पकड़कर घसीट लाऊँगा और गाँव के बाहर कर दूँगा। बात तो एक दिन खुलनी ही है, फिर आज ही क्यों न खुल जाय। वह मेरे घर आयी क्यों? जाय जहाँ गोबर है। उसके साथ कुकरम किया, तो क्या हमसे पूछकर किया था? धनिया ने फिर उसका हाथ पकड़ा और धीरे से बोली — तुम उसका हाथ पकड़ोगे, तो वह चिल्लायेगी।
‘ तो चिल्लाया करे। ‘
‘ मुदा इतनी रात गये इस अँधेरे सन्नाटे रात में जायगी कहाँ, यह तो सोचो। ‘
‘ जाय जहाँ उसके सगे हों। हमारे घर में उसका क्या रखा है! ‘
‘ हाँ, लेकिन इतनी रात गये घर से निकालना उचित नहीं। पाँव भारी है, कहीं डर-डरा जाय, तो और आफ़त हो। ऐसी दशा में कुछ करते-धरते भी तो नहीं बनता! ‘
‘ हमें क्या करना है, मरे या जीये। जहाँ चाहे जाय। क्यों अपने मुँह में कालिख लगाऊँ। मैं तो गोबर को भी निकाल बाहर करूँगा। ‘
धनिया ने गम्भीर चिन्ता से कहा — कालिख जो लगनी थी, वह तो अब लग चुकी। वह अब जीते-जी नहीं छूट सकती। गोबर ने नौका डुबा दी।
‘ गोबर ने नहीं, डुबाई इसी ने। वह तो बच्चा था। इसके पंजे में आ गया। ‘
‘ किसी ने डुबाई, अब तो डूब गयी। ‘
दोनों द्वार के सामने पहुँच गये। सहसा धनिया ने होरी के गले में हाथ डालकर कहा — देखो तुम्हें मेरी सौंह, उस पर हाथ न उठाना। वह तो आप ही रो रही है। भाग की खोटी न होती, तो यह दिन ही क्यों आता। होरी की आँखें आद्रर् हो गयीं। धनिया का यह मातृ-स्नेह उस अँधेरे में भी जैसे दीपक के समान उसकी चिन्ता-जर्जर आकृति को शोभा प्रदान करने लगा। दोनों ही के हृदय में जैसे अतीत-यौवन सचेत हो उठा। होरी को इस वीत-यौवना में भी वही कोमल हृदय बालिका नज़र आयी, जिसने पच्चीस साल पहले उसके जीवन में प्रवेश किया था। उस आलिंगन में कितना अथाह वात्सल्य था, जो सारे कलंक, सारी बाधाओं और सारी मूलबद्ध परम्पराओं को अपने अन्दर समेटे लेता था। दोनों ने द्वार पर आकर किवाड़ों के दराज़ से अन्दर झाँका। दीवट पर तेल की कुप्पी जल रही थी और उसके मध्यम प्रकाश में झुनिया घुटने पर सिर रखे, द्वार की ओर मुँह किये, अन्धकार में उस आनन्द को खोज रही थी, जो एक क्षण पहले अपनी मोहिनी छवि दिखाकर विलीन हो गया था। वह आफ़त की मारी व्यंग-बाणों से आहत और जीवन के आघातों से व्यथित किसी वृक्ष की छाँह खोजती फिरती थी, और उसे एक भवन मिल गया था, जिसके आश्रय में वह अपने को सुरिक्षत और सुखी समझ रही थी; पर आज वह भवन अपना सारा सुख-विलास लिये अलादीन के राजमहल की भाँति ग़ायब हो गया था और भविष्य एक विकराल दानव के समान उसे निगल जाने को खड़ा था। एकाएक द्वार खुलते और होरी को आते देखकर वह भय से काँपती हुई उठी और होरी के पैरों पर गिरकर रोती हुई बोली — दादा, अब तुम्हारे सिवाय मुझे दूसरा ठौर नहीं है, चाहे मारो चाहे काटो; लेकिन अपने द्वार से दुरदुराओ मत। होरी ने झुककर उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए प्यार-भरे स्वर में कहा — डर मत बेटी, डर मत। तेरा घर है, तेरा द्वार है, तेरे हम हैं। आराम से रह। जैसी तू भोला की बेटी है, वैसी ही मेरी बेटी है। जब तक हम जीते हैं, किसी बात की चिन्ता मत कर। हमारे रहते कोई तुझे तिरछी आँखों न देख सकेगा। भोज-भात जो लगेगा, वह हम सब दे लेंगे, तू ख़ातिर-जमा रख। झुनिया, सान्त्वना पाकर और भी होरी के पैरों से चिमट गयी और बोली — दादा अब तुम्हीं मेरे बाप हो और अम्माँ, तुम्हीं मेरी माँ हो। मैं अनाथ हूँ। मुझे सरन दो, नहीं मेरे काका और भाई मुझे कच्चा ही खा जायँगे। धनिया अपनी करुणा के आवेश को अब न रोक सकी। बोली — तू चल घर में बैठ, मैं देख लूँगी काका और भैया को। संसार में उन्हीं का राज नहीं है। बहुत करेंगे, अपने गहने ले लेंगे। फेंक देना उतारकर। अभी ज़रा देर पहले धनिया ने क्तोध के आवेश में झुनिया को कुलटा और कलंकिनी और कलमुँही न जाने क्या-क्या कह डाला था। झाड़ू मारकर घर से निकालने जा रही थी। अब जो झुनिया ने स्नेह, क्षमा और आश्वासन से भरे यह वाक्य सुने, तो होरी के पाँव छोड़कर धनिया के पाँव से लिपट गयी और वही साध्वी जिसने होरी के सिवा किसी पुरुष को आँख भरकर देखा भी न था, इस पापिष्ठा को गले लगाये उसके आँसू पोछ रही थी और उसके त्रस्त हृदय को अपने कोमल शब्दों से शान्त कर रही थी, जैसे कोई चिड़िया अपने बच्चे को परों में छिपाये बैठी हो। होरी ने धनिया को संकेत किया कि इसे कुछ खिला-पिला दे और झुनिया से पूछा — क्यों बेटी, तुझे कुछ मालूम है, गोबर किधर गया! झुनिया ने सिसकते हुए कहा — मुझसे तो कुछ नहीं कहा। मेरे कारन तुम्हारे ऊपर । यह कहते-कहते उसकी आवाज़ आँसुओं में डूब गयी। होरी अपनी व्याकुलता न छिपा सका।
‘ जब तूने आज उसे देखा, तो कुछ दुखी था? ‘
‘ बातें तो हँस-हँसकर कर रहे थे। मन का हाल भगवान् जाने। ‘
‘ तेरा मन क्या कहता है, है गाँव में ही कि कहीं बाहर चला गया? ‘
‘ मुझे तो शंका होती है, कहीं बाहर चले गये हैं। ‘
‘ यही मेरा मन भी कहता है, कैसी नादानी की। हम उसके दुसमन थोड़े ही थे। जब भली या बुरी एक बात हो गयी, तो उसे निभानी पड़ती है। इस तरह भागकर तो उसने हमारी जान आफ़त में डाल दी। ‘
धनिया ने झुनिया का हाथ पकड़कर अन्दर ले जाते हुए कहा — कायर कहीं का। जिसकी बाँह पकड़ी, उसका निबाह करना चाहिए कि मुँह में कालिख लगाकर भाग जाना चाहिए। अब जो आये, तो घर में पैठने न दूँ। होरी वहीं पुआल में लेटा। गोबर कहाँ गया? यह प्रश्न उसके हृदयाकाश में किसी पक्षी की भाँति मँडराने लगा।

Godan / गोदान भाग 11-15 / प्रेमचंद / Premchand

Godan / गोदान भाग 11 / प्रेमचंद / Premchand

Godan / गोदान भाग 11-15 / प्रेमचंद / Premchandऐसे असाधारण कांड पर गाँव में जो कुछ हलचल मचना चाहिए था, वह मचा और महीनों तक मचता रहा। झुनिया के दोनों भाई लाठियाँ लिये गोबर को खोजते फिरते थें। भोला ने क़सम खायी कि अब न झुनिया का मुँह देखेंगे और न इस गाँव का। होरी से उन्होंने अपनी सगाई की जो बातचीत की थी, वह अब टूट गयी थी। अब वह अपनी गाय के दाम लेंगे और नक़द और इसमें विलम्ब हुआ तो होरी पर दावा करके उसका घर-द्वार नीलाम करा लेंगे। गाँववालों ने होरी को जाति-बाहर कर दिया। कोई उसका हुक़्क़ा नहीं पीता, न उसके घर का पानी पीता है। पानी बन्द कर देने की कुछ बातचीत थी; लेकिन धनिया का चंडी-रूप सब देख चुके थे; इसलिये किसी की आगे आने की हिम्मत न पड़ी। धनिया ने सबको सुना-सुनाकर कह दिया — किसी ने उसे पानी भरने से रोका, तो उसका और अपना ख़ून एक कर देगी।
इस ललकार ने सभी के पित्ते पानी कर दिये। सबसे दुखी है झुनिया, जिसके कारण यह सब उपद्रव हो रहा है, और गोबर की कोई खोज-ख़बर न मिलना इस दुःख को और भी दारुण बना रहा है। सारे दिन मुँह छिपाये घर में पड़ी रहती है। बाहर निकले तो चारों ओर से वाग्बाणों की ऐसी वर्षा हो कि जान बचाना मुश्किल हो जाय। दिन-भर घर के धन्धे करती रहती है और जब अवसर पाती है, रो लेती है। हरदम थर-थर काँपती रहती है कि कहीं धनिया कुछ कह न बैठे। अकेला भोजन तो नहीं पका सकती; क्योंकि कोई उसके हाथ का खायेगा नहीं, बाक़ी सारा काम उसने अपने ऊपर ले लिया। गाँव में जहाँ चार स्त्री-पुरुष जमा हो जाते हैं, यही कुत्सा होने लगती है। एक दिन धनिया हाट से चली आ रही थी कि रास्ते में पण्डित दातादीन मिल गये। धनिया ने सिर नीचा कर लिया और चाहती थी कि कतराकर निकल जाय; पर पण्डितजी छेड़ने का अवसर पाकर कब चूकनेवाले थे। छेड़ ही तो दिया — गोबर का कुछ सर-सन्देश मिला कि नहीं धनिया? ऐसा कपूत निकला कि घर की सारी मरजाद बिगाड़ दी।
धनिया के मन में स्वयम् यही भाव आते रहते थे। उदास मन से बोली — बुरे दिन आते हैं बाबा, तो आदमी की मति फिर जाती है, और क्या कहूँ। दातादीन बोले — तुम्हें इस दुष्टा को घर में न रखना चाहिए था। दूध में मक्खी पड़ जाती है, तो आदमी उसे निकालकर फेंक देता है, और दूध पी जाता है। सोचो, कितनी बदनामी और जग-हँसाई हो रही है। वह कुलटा घर में न रहती, तो कुछ न होता। लड़कों से इस तरह की भूल-चूक होती रहती है। जब तक बिरादरी को भात न दोगे, बाम्हनों को भोज न दोगे, कैसे उद्धार होगा? उसे घर में न रखते, तो कुछ न होता। होरी तो पागल है ही, तू कैसे धोखा खा गयी।
दातादीन का लड़का मातादीन एक चमारिन से फँसा हुआ था। इसे सारा गाँव जानता था; पर वह तिलक लगाता था, पोथी-पत्रे बाँचता था, कथा-भागवत कहता था, धर्म-संस्कार कराता था। उसकी प्रतिष्ठा में ज़रा भी कमी न थी। वह नित्य स्नान-पूजा कर के अपने पापों का प्रायश्चित कर लेता था। धनिया जानती थी, झुनिया को आश्रय देने ही से यह सारी विपित्त आयी है। उसे न जाने कैसे दया आ गयी, नहीं उसी रात को झुनिया को निकाल देती, तो क्यों इतना उपहास होता; लेकिन यह भय भी होता था कि तब उसके लिए नदी या कुआँ के सिवा और ठिकाना कहाँ था। एक प्राण का मूल्य देकर — एक नहीं दो प्राणों का — वह अपने मरजाद की रक्षा कैसे करती? फिर झुनिया के गर्भ में जो बालक है, वह घनिया ही के हृदय का टुकड़ा तो है। हँसी के डर से उसके प्राण कैसे ले लेती! और फिर झुनिया की नम्रता और दीनता भी उसे निरस्त्र करती रहती थी। यह जली-भुनी बाहर से आती; पर ज्योंही झुनिया लोटे का पानी लाकर रख देती और उसके पाँव दबाने लगती, उसका क्रोध पानी हो जाता। बेचारी अपनी लज्जा और दुःख से आप दबी हुई है, उसे और क्या दबाये, मरे को क्या मारे। उसने तीव्र स्वर में कहा — हमको कुल-परतिसठा इतनी प्यारी नहीं है महाराज, कि उसके पीछे एक जीव की हत्या कर डालते। ब्याहता न सही; पर उसकी बाँह तो पकड़ी है मेरे बेटे ने ही। किस मुँह से निकाल देती। वही काम बड़े-बड़े करते हैं, मुदा उनसे कोई नहीं बोलता, उन्हें कलंक ही नहीं लगता। वही काम छोटे आदमी करते हैं, तो उनकी मरजाद बिगड़ जाती है, नाक कट जाती है। बड़े आदमियों को अपनी नाक दूसरों की जान से प्यारी होगी, हमें तो अपनी नाक इतनी प्यारी नहीं।
दातादीन हार माननेवाले जीव न थे। वह इस गाँव के नारद थे। यहाँ की वहाँ, वहाँ की यहाँ, यही उनका व्यवसाय था। वह चोरी तो न करते थे, उसमें जान-जोख़िम था; पर चोरी के माल में हिस्सा बँटाने के समय अवश्य पहुँच जाते थे। कहीं पीठ में धूल न लगने देते थे। ज़मींदार को आज तक लगान की एक पाई न दी थी, क़ुर्क़ी आती, तो कुएँ में गिरने चलते, नोखेराम के किये कुछ न बनता; मगर असामियों को सूद पर रुपए उधार देते थे। किसी स्त्री को कोई आभूषण बनवाना है, दातादीन उसकी सेवा के लिए हाज़िर हैं। शादी-ब्याह तय करने में उन्हें बड़ा आनन्द आता है, यश भी मिलता है, दिक्षणा भी मिलती है। बीमारी में दवा-दारू भी करते हैं, झाड़-फूँक भी, जैसी मरीज़ की इच्छा हो। और सभा-चतुर इतने हैं कि जवानों में जवान बन जाते हैं, बालकों में बालक और बूढ़ों में बूढ़े। चोर के भी मित्र हैं और साह के भी। गाँव में किसी को उन पर विश्वास नहीं है; पर उनकी वाणी में कुछ ऐसा आकर्षण है कि लोग बार-बार धोखा खाकर भी उन्हीं की शरण जाते हैं। सिर और दाढ़ी हिलाकर बोले — यह तू ठीक कहती है धनिया! धमार्त्मा लोगों का यही धरम है; लेकिन लोक-रीति का निबाह तो करना ही पड़ता है।
इसी तरह एक दिन लाला पटेश्वरी ने होरी को छेड़ा। वह गाँव में पुण्यात्मा मशहूर थे। पूर्णमासी को नित्य सत्यनारायण की कथा सुनते; पर पटवारी होने के नाते खेत बेगार में जुतवाते थे, सिंचाई बेगार में करवाते थे और असामियों को एक दूसरे से लड़ाकर रक़में मारते थे। सारा गाँव उनसे काँपता था! ग़रीबों को दस-दस, पाँच-पाँच क़रज़ देकर उन्होंने कई हज़ार की सम्पत्ति बना ली थी। फ़सल की चीज़ें असामियों से लेकर कचहरी और पुलिस के अमलों की भेंट करते रहते थे। इससे इलाक़े भर में उनकी अच्छी धाक थी। अगर कोई उनके हत्थे नहीं चढ़ा, तो वह दारोग़ा गंडासिंह थे, जो हाल में इस इलाक़े में आये थे। परमार्थी भी थे। बुख़ार के दिनों में सरकारी कुनैन बाँटकर यश कमाते थे, कोई बीमार आराम हो, तो उसकी कुशल पूछने अवश्य जाते थे। छोटे-मोटे झगड़े आपस में ही तय करा देते थे। शादी-ब्याह में अपनी पालकी, क़ालीन, और महफ़िल के सामान मँगनी देकर लोगों का उबार कर देते थे। मौक़ा पाकर न चूकते थे, पर जिसका खाते थे, उसका काम भी करते थे। बोले — यह तुमने क्या रोग पाल लिया होरी?
होरी ने पीछे फिरकर पूछा — तुमने क्या कहा लाला — मैंने सुना नहीं।
पटेश्वरी पीछे से क़दम बढ़ाते हुए बराबर आकर बोले, यही कह रहा था कि धनिया के साथ क्या तुम्हारी बुद्धि भी घास खा गयी। झुनिया को क्यों नहीं उसके बाप के घर भेज देते, सेंत-मेंत में अपनी हँसीं करा रहे हो। न जाने किसका लड़का लेकर आ गयी और तुमने घर में बैठा लिया। अभी तुम्हारी दो-दो लड़कियाँ ब्याहने को बैठी हुई हैं, सोचो कैसे बेड़ा पार होगा। होरी इस तरह की आलोचनाएँ, और शुभ कामनाएँ सुनते-सुनते तंग आ गया था। खिन्न होकर बोला — यह सब मैं समझता हूँ लाला! लेकिन तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूँ! मैं झुनिया को निकाल दूँ, तो भोला उसे रख लेंगे? अगर वह राज़ी हों, तो आज मैं उसे उनके घर पहुँचा दूँ, अगर तुम उन्हें राज़ी कर दो, तो जनम-भर तुम्हारा औसान मानूँ; मगर वहाँ तो उनके दोनों लड़के ख़ून करने को उतारू हो रहे हैं। फिर मैं उसे कैसे निकाल दूँ। एक तो नालायक़ आदमी मिला कि उसकी बाँह पकड़कर दग़ा दे गया। मैं भी निकाल दूँगा, तो इस दशा में वह कहीं मेहनत-मजूरी भी तो न कर सकेगी। कहीं डूब-धस मरी तो किसे अपराध लगेगा। रहा लड़कियों का ब्याह सो भगवान् मालिक हैं। जब उसका समय आयेगा, कोई न कोई रास्ता निकल ही आयेगा। लड़की तो हमारी बिरादरी में आज तक कभी कुँआरी नहीं रही। बिरादरी के डर से हत्यारे का काम नहीं कर सकता।
होरी नम्र स्वभाव का आदमी था। सदा सिर झुकाकर चलता और चार बातें ग़म खा लेता था। हीरा को छोड़कर गाँव में कोई उसका अहित न चाहता था, पर समाज इतना बड़ा अनर्थ कैसे सह ले! और उसकी मुटमर्दी तो देखो कि समझाने पर भी नहीं समझता। स्त्री-पुरुष दोनों जैसे समाज को चुनौती दे रहे हैं कि देखें कोई उनका क्या कर लेता है। तो समाज भी दिखा देगा कि उसकी मयार्दा तोड़नेवाले सुख की नींद नहीं सो सकते। उसी रात को इस समस्या पर विचार करने के लिए गाँव के विधाताओं की बैठक हुई। दातादीन बोले — मेरी आदत किसी की निन्दा करने की नहीं है। संसार में क्या क्या कुकर्म नहीं होता; अपने से क्या मतलब। मगर वह राँड़ धनिया तो मुझसे लड़ने पर उतारू हो गयी। भाइयों का हिस्सा दबाकर हाथ में चार पैसे हो गये, तो अब कुपथ के सिवा और क्या सूझेगी। नीच जात, जहाँ पेट-भर रोटी खायी और टेढ़े चले, इसी से तो सासतरों में कहा है — नीच जात लतियाये अच्छा।
पटेश्वरी ने नारियल का कश लगाते हुए कहा — यही तो इनमें बुराई है कि चार पैसे देखे और आँखें बदलीं। आज होरी ने ऐसी हेकड़ी जतायी कि मैं अपना-सा मुँह लेकर रह गया। न जाने अपने को क्या समझता है। अब सोचो, इस अनीति का गाँव में क्या फल होगा। झुनिया को देखकर दूसरी विधवाओं का मन बढ़ेगा कि नहीं? आज भोला के घर में यह बात हुई। कल हमारे-तुम्हारे घर में भी होगी। समाज तो भय के बल से चलता है। आज समाज का आँकुस जाता रहे, फिर देखो संसार में क्या-क्या अनर्थ होने लगते हैं।
झिंगुरीसिंह दो स्त्रियों के पति थे। पहली स्त्री पाँच लड़के-लड़कियाँ छोड़कर मरी थी। उस समय इनकी अवस्था पैंतालिस के लगभग थी; पर आपने दूसरा ब्याह किया और जब उससे कोई सन्तान न हुई, तो तीसरा ब्याह कर डाला। अब इनकी पचास की अवस्था थी और दो जवान पत्नियाँ घर में बैठी हुई थीं। उन दोनों ही के विषय में तरह-तरह की बातें फैल रही थीं; पर ठाकुर साहब के डर से कोई कुछ कह न सकता था, और कहने का अवसर भी तो हो। पति की आड़ में सब कुछ जायज़ है। मुसीबत तो उसको है, जिसे कोई आड़ नहीं। ठाकुर साहब स्त्रियों पर बड़ा कठोर शासन रखते थे और उन्हें घमंड था कि उनकी पत्नियों का घूँघट तक किसी ने न देखा होगा। मगर घूँघट की आड़ में क्या होता है, उसकी उन्हें क्या ख़बर? बोले — ऐसी औरत का तो सिर काट ले। होरी ने इस कुलटा को घर रखकर समाज में विष बोया है। ऐसे आदमी को गाँव में रहने देना सारे गाँव को भ्रष्ट करना है। राय साहब को इसकी सूचना देनी चाहिए। साफ़-साफ़ कह देना चाहिए, अगर गाँव में यह अनीति चली तो किसी की आबरू सलामत न रहेगी।
पण्डित नोखेराम कारकुन बड़े कुलीन ब्राह्मण थे। इनके दादा किसी राजा के दीवान थे! पर अपना सब कुछ भगवान् के चरणों में भेंट करके साधु हो गये थे। इनके बाप ने भी राम-नाम की खेती में उम्र काट दी। नोखेराम ने भी वही भक्ति तरके में पायी थी। प्रातःकाल पूजा पर बैठ जाते थे और दस बजे तक बैठे राम-नाम लिखा करते थे; मगर भगवान् के सामने से उठते ही उनकी मानवता इस अवरोध से विकृत होकर उनके मन, वचन और कर्म सभी को विषाक्त कर देती थी। इस प्रस्ताव में उनके अधिकार का अपमान होता था। फूले हुए गालों में धँसी हुई आँखें निकालकर बोले — इसमें राय साहब से क्या पूछना है। मैं जो चाहूँ, कर सकता हूँ। लगा दो सौ रुपये डाँड़। आप गाँव छोड़कर भागेगा। इधर बेदख़ली भी दायर किये देता हूँ।
पटेश्वरी ने कहा — मगर लगान तो बेबाक़ कर चुका है?
झिंगुरीसिंह ने समर्थन किया — हाँ, लगान के लिए ही तो हमसे तीस रुपए लिये हैं।
नोखेराम ने घमंड के साथ कहा — लेकिन अभी रसीद तो नहीं दी। सबूत क्या है कि लगान बेबाक़ कर दिया।
सर्वसम्मति से यही तय हुआ कि होरी पर सौ रुपए तवान लगा दिया जाय। केवल एक दिन गाँव के आदमियों को बटोरकर उनकी मंज़ूरी ले लेने का अभिनय आवश्यक था। सम्भव था, इसमें दस-पाँच दिन की देर हो जाती। पर आज ही रात को झुनिया के लड़का पैदा हो गया। और दूसरे ही दिन गाँववालों की पंचायत बैठ गयी। होरी और धनिया, दोनों अपनी क़िस्मत का फ़ैसला सुनने के लिए बुलाए गये। चौपाल में इतनी भीड़ थी कि कहीं तिल रखने की जगह न थी। पंचायत ने फ़ैसला किया कि होरी पर सौ रुपए नक़द और तीस मन अनाज डाँड़ लगाया जाय। धनिया भरी सभा में रकुँआरधे हुए कंठ से बोली — पंचो, ग़रीब को सताकर सुख न पाओगे, इतना समझ लेना। हम तो मिट जायँगे, कौन जाने, इस गाँव में रहें या न रहें, लेकिन मेरा सराप तुमको भी ज़रूर से ज़रूर लगेगा। मुझसे इतना कड़ा जरीबाना इसलिये लिया जा रहा है कि मैंने अपनी बहू को क्यों अपने घर में रखा। क्यों उसे घर से निकालकर सड़क की भिखारिन नहीं बना दिया। यही न्याय है, ऐं?
पटेश्वरी बोले — वह तेरी बहू नहीं है, हरजाई है।
होरी ने धनिया को डाँटा — तू क्यों बोलती है धनिया! पंच में परमेसर रहते हैं। उनका जो न्याय है, वह सिर आँखों पर; अगर भगवान् की यही इच्छा है कि हम गाँव छोड़कर भाग जायँ, तो हमारा क्या बस। पंचो, हमारे पास जो कुछ है, वह अभी खलिहान में है। एक दाना भी घर में नहीं आया, जितना चाहो, ले लो। सब लेना चाहो, सब ले लो। हमारा भगवान् मालिक है, जितनी कमी पड़े, उसमें हमारे दोनों बैल ले लेना। धनिया दाँत कटकटाकर बोली — मैं एक दाना न अनाज दूँगी, न एक कौड़ी डाँड़। जिसमें बूता हो, चलकर मुझसे ले। अच्छी दिल्लगी है। सोचा होगा डाँड़ के बहाने इसकी सब जैजात ले लो और नज़राना लेकर दूसरों को दे दो। बाग़-बग़ीचा बेचकर मज़े से तर माल उड़ाओ। धनिया के जीते-जी यह नहीं होने का, और तुम्हारी लालसा तुम्हारे मन में ही रहेगी। हमें नहीं रहना है बिरादरी में। बिरादरी में रहकर हमारी मुकुत न हो जायगी। अब भी अपने पसीने की कमाई खाते हैं, तब भी अपने पसीने की कमाई खायँगे।
होरी ने उसके सामने हाथ जोड़कर कहा — धनिया, तेरे पैरों पड़ता हूँ, चुप रह। हम सब बिरादरी के चाकर हैं, उसके बाहर नहीं जा सकते। वह जो डाँड़ लगाती है, उसे सिर झुकाकर मंज़ूर कर। नक्कू बनकर जीने से तो गले में फाँसी लगा लेना अच्छा है। आज मर जायँ, तो बिरादरी ही तो इस मिट्टी को पार लगायेगी? बिरादरी ही तारेगी तो तरेंगे। पंचो, मुझे अपने जवान बेटे का मुँह देखना नसीब न हो, अगर मेरे पास खलिहान के अनाज के सिवा और कोई चीज़ हो। मैं बिरादरी से दग़ा न करूँगा। पंचों को मेरे बाल-बच्चों पर दया आये, तो उनकी कुछ परवरिस करें, नहीं मुझे तो उनकी आज्ञा पालनी है। धनिया झल्लाकर वहाँ से चली गयी और होरी पहर रात तक खलिहान से अनाज ढो-ढोकर झिंगुरीसिंह की चौपाल में ढेर करता रहा। बीस मन जौ था, पाँच मन गेहूँ और इतना ही मटर, थोड़ा-सा चना और तेलहन भी था। अकेला आदमी और दो गृहिस्थयों का बोझ। यह जो कुछ हुआ, धनिया के पुरुषार्थ से हुआ। झुनिया भीतर का सारा काम कर लेती थी और धनिया अपनी लड़कियों के साथ खेती में जुट गयी थी। दोनों ने सोचा था, गेहूँ और तेलहन से लगान की एक क़िस्त अदा हो जायगी और हो सके तो थोड़ा-थोड़ा सूद भी दे देंगे। जौ खाने के काम में आयेगा। लंगे-तंगे पाँच-छः महीने कट जायँगे तब तक जुआर, मक्का, साँवाँ, धान के दिन आ जायेंगे। वह सारी आशा मिट्टी में मिल गयी। अनाज तो हाथ से गये ही, सौ रुपए की गठरी और सिर पर लद गयी। अब भोजन का कहीं ठिकाना नहीं। और गोबर का क्या हाल हुआ, भगवान् जाने। न हाल न हवाल। अगर दिल इतना कच्चा था, तो ऐसा काम ही क्यों किया; मगर होनहार को कौन टाल सकता है। बिरादरी का वह आतंक था कि अपने सिर पर लादकर अनाज ढो रहा था, मानो अपने हाथों अपनी क़ब्र खोद रहा हो। ज़मींदार, साहूकार, सरकार किसका इतना रोब था? कल बाल-बच्चे क्या खायँगे, इसकी चिन्ता प्राणों को सोखे लेती थी; पर बिरादरी का भय पिशाच की भाँति सिर पर सवार आँकुस दिये जा रहा था। बिरादरी से पृथक जीवन की वह कोई कल्पना ही न कर सकता था। शादी-ब्याह, मूँड़न-छेदन, जन्म-मरण सब कुछ बिरादरी के हाथ में है। बिरादरी उसके जीवन में वृक्ष की भाँति जड़ जमाये हुए थी और उसकी नसें उसके रोम-रोम में बिन्धी हुई थीं। बिरादरी से निकलकर उसका जीवन विशृंखल हो जायगा — तार-तार हो जायगा। जब खलिहान में केवल डेढ़-दो मन जौ रह गया, तो धनिया ने दौड़कर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली — अच्छा, अब रहने दो। ढो तो चुके बिरादरी की लाज। बच्चों के लिए भी कुछ छोड़ोगे कि सब बिरादरी के भाड़ में झोंक दोगे। मैं तुमसे हार जाती हूँ। मेरे भाग्य में तुम्हीं जैसे बुद्धू का संग लिखा था! होरी ने अपना हाथ छुड़ाकर टोकरी में शेष अनाज भरते हुए कहा — यह न होगा धनिया, पंचों की आँख बचाकर एक दाना भी रख लेना मेरे लिए हराम है। मैं ले जाकर सब-का-सब वहाँ ढेर कर देता हूँ। फिर पंचों के मन में दया उपजेगी, तो कुछ मेरे बाल-बच्चों के लिए देंगे। नहीं भगवान् मालिक हैं।
धनिया तिलमिलाकर बोली — यह पंच नहीं हैं, राक्षस हैं, पक्के राछस! यह सब हमारी जगह-ज़मीन छीनकर माल मारना चाहते हैं। डाँड़ तो बहाना है। समझाती जाती हूँ; पर तुम्हारी आँखें नहीं खुलतीं। तुम इन पिशाचों से दया की आसा रखते हो। सोचते हो, दस-पाँच मन निकालकर तुम्हें दे देंगे। मुँह धो रखो।
जब होरी ने न माना और टोकरी सिर पर रखने लगा तो धनिया ने दोनों हाथों से पूरी शक्ति के साथ टोकरी पकड़ ली और बोली — इसे तो मैं न ले जाने दूँगी, चाहे तुम मेरी जान ही ले लो। मर-मरकर हमने कमाया, पहर रात-रात को सींचा, अगोरा, इसलिये कि पंच लोग मूछों पर ताव देकर भोग लगायें और हमारे बच्चे दाने-दाने को तरसें। तुमने अकेले ही सब कुछ नहीं कर लिया है। मैं भी अपनी बच्चियों के साथ सती हुई हूँ। सीधे से टोकरी रख दो, नहीं आज सदा के लिए नाता टूट जायगा। कहे देती हूँ। होरी सोच में पड़ गया। धनिया के कथन में सत्य था। उसे अपने बाल-बच्चों की कमाई छीनकर तावान देने का क्या अधिकार है? वह घर का स्वामी इसलिए है कि सबका पालन करे, इसलिए नहीं कि उनकी कमाई छीनकर बिरादरी की नज़र में सुर्ख़- बने। टोकरी उसके हाथ से छूट गयी। धीरे से बोला — तू ठीक कहती है धनिया! दूसरों के हिस्से पर मेरा कोई ज़ोर नहीं है। जो कुछ बचा है, वह ले जा, मैं जाकर पंचों से कहे देता हूँ।
धनिया अनाज की टोकरी घर में रखकर अपनी दोनों लड़कियों के साथ पोते के जन्मोत्सव में गला फाड़-फाड़कर सोहर गा रही थी, जिसमें सारा गाँव सुन ले। आज यह पहला मौक़ा था कि ऐसे शुभ अवसर पर बिरादरी की कोई औरत न थी। सौर से झुनिया ने कहला भेजा था, सोहर गाने का काम नहीं है; लेकिन धनिया कब मानने लगी। अगर विरादरी को उसकी परवा नहीं है, तो वह भी बिरादरी की परवा नहीं करती। उसी वक़्त होरी अपने घर को अस्सी रुपए पर झिंगुरीसिंह के हाथ गिरों रख रहा था। डाँड़ के रुपए का इसके सिवा वह और कोई प्रबन्ध न कर सकता था। बीस रुपए तो तेलहन, गेहूँ और मटर से मिल गये। शेष के लिए घर लिखना पड़ गया। नोखेराम तो चाहते थे कि बैल बिकवा लिए जायँ; लेकिन पटेश्वरी और दातादीन ने इसका विरोध किया। बैल बिक गये, तो होरी खेती कैसे करेगा? बिरादरी उसकी जायदाद से रुपए वसूल करे; पर ऐसा तो न करे कि वह गाँव छोड़कर भाग जाय। इस तरह बैल बच गये। होरी रेहननामा लिखकर कोई ग्यारह बजे रात घर आया तो, धनिया ने पूछा — इतनी रात तक वहाँ क्या करते रहे?
होरी ने जुलाहे का ग़ुस्सा दाढ़ी पर उतारते हुए कहा — करता क्या रहा, इस लौंडे की करनी भरता रहा। अभागा आप तो चिनगारी छोड़कर भागा, आग मुझे बुझानी पड़ रही है। अस्सी रुपए में घर रेहन लिखना पड़ा। करता क्या! अब हुक़्क़ा खुल गया। बिरादरी ने अपराध क्षमा कर दिया।
धनिया ने ओठ चबाकर कहा — न हुक़्क़ा खुलता, तो हमारा क्या बिगड़ा जाता था। चार-पाँच महीने नहीं किसी का हुक़्क़ा पिया, तो क्या छोटे हो गये? मैं कहती हूँ, तुम इतने भोंदू क्यों हो? मेरे सामने तो बड़े बुद्धिमान बनते हो, बाहर तुम्हारा मुँह क्यों बन्द हो जाता है? ले-दे के बाप-दादों की निसानी एक घर बच रहा था, आज तुमने उसका भी वारा-न्यारा कर दिया। इसी तरह कल यह तीन-चार बीघे ज़मीन है, इसे भी लिख देना और तब गली-गली भीख माँगना। मैं पूछती हूँ, तुम्हारे मुँह में जीभ न थी कि उन पंचों से पूछते, तुम कहाँ के बड़े धमार्त्मा हो, जो दूसरों पर डाँड़ लगाते फिरते हो, तुम्हारा तो मुँह देखना भी पाप है।
होरी ने डाँटा — चुप रह, बहुत चढ़-चढ़ न बोल। बिरादरी के चक्कर में अभी पड़ी नहीं है, नहीं मुँह से बात न निकलती।
धनिया उत्तेजित हो गयी — कौन-सा पाप किया है, जिसके लिए बिरादरी से डरें, किसी की चोरी की है, किसी का माल काटा है? मेहरिया रख लेना पाप नहीं है, हाँ, रख के छोड़ देना पाप है। आदमी का बहुत सीधा होना भी बुरा है। उसके सीधेपन का फल यही होता है कि कुत्ते भी मुँह चाटने लगते हैं। आज उधर तुम्हारी वाह-वाह हो रही होगी कि बिरादरी की कैसी मरजाद रख ली। मेरे भाग फूट गये थे कि तुम जैसे मर्द से पाला पड़ा। कभी सुख की रोटी न मिली।
‘ मैं तेरे बाप के पाँव पड़ने गया था? वही तुझे मेरे गले बाँध गया। ‘
‘ पत्थर पड़ गया था उनकी अक्कल पर और उन्हें क्या कहूँ ? न जाने क्या देखकर लट्टू हो गये। ऐसे कोई बड़े सुन्दर भी तो न थे तुम।’
विवाद विनोद के क्षेत्र में आ गया। अस्सी रुपए गये तो गये, लाख रुपए का बालक तो मिल गया! उसे तो कोई न छीन लेगा। गोबर घर लौट आये, धनिया अलग झोपड़ी में भी सुखी रहेगी। होरी ने पूछा — बच्चा किसको पड़ा है?
धनिया ने प्रसन्न मुख होकर जवाब दिया — बिलकुल गोबर को पड़ा है। सच!
‘ रिष्ट-पुष्ट तो है? ‘
‘ हाँ, अच्छा है। ‘

Godan / गोदान भाग 12 / प्रेमचंद / Premchand

Godan / गोदान भाग 11-15 / प्रेमचंद / Premchandरात को गोबर झुनिया के साथ चला, तो ऐसा काँप रहा था, जैसे उसकी नाक कटी हुई हो। झुनिया को देखते ही सारे गाँव में कुहराम मच जायगा, लोग चारों ओर से कैसी हाय-हाय मचायेंगे, धनिया कितनी गालियाँ देगी, यह सोच-सोचकर उसके पाँव पीछे रहे जाते थे। होरी का तो उसे भय न था। वह केवल एक बार धाड़ेंगे, फिर शान्त हो जायँगे। डर था धनिया का, ज़हर खाने लगेगी, घर में आग लगाने लगेगी। नहीं, इस वक़्त वह झुनिया के साथ घर नहीं जा सकता। लेकिन कहीं धनिया ने झुनिया को घर में घुसने ही न दिया और झाड़ू लेकर मारने दौड़ी, तो वह बेचारी कहाँ जायगी। अपने घर तो लौट ही नहीं सकती। कहीं कुएँ में कूद पड़े या गले में फाँसी लगा ले, तो क्या हो। उसने लम्बी साँस ली। किसकी शरण ले। मगर अम्माँ इतनी निर्दयी नहीं हैं कि मारने दौड़ें। क्रोध में दो-चार गालियाँ देंगी! लेकिन जब झुनिया उसके पाँव पड़कर रोने लगेगी, तो उन्हें ज़रूर दया आ जायगी। तब तक वह ख़ुद कहीं छिपा रहेगा। जब उपद्रव शान्त हो जायगा, तब वह एक दिन धीरे से आयेगा और अम्माँ को मना लेगा, अगर इस बीच उसे कहीं मजूरी मिल जाय और दो-चार रुपए लेकर घर लौटे, तो फिर धनिया का मुँह बन्द हो जायगा। झुनिया बोली — मेरी छाती धक-धक कर रही है। मैं क्या जानती थी, तुम मेरे गले यह रोग मढ़ दोगे। न जाने किस बुरी साइत में तुमको देखा। न तुम गाय लेने आते, न यह सब कुछ होता। तुम आगे-आगे जाकर जो कुछ कहना-सुनना हो, कह-सुन लेना। मैं पीछे से जाऊँगी।
गोबर ने कहा — नहीं-नहीं, पहले तुम जाना और कहना, मैं बाज़ार से सौदा बेचकर घर जा रही थी। रात हो गयी है, अब कैसे जाऊँ। तब तक मैं आ जाऊँगा।
झुनिया ने चिन्तित मन से कहा — तुम्हारी अम्माँ बड़ी ग़ुस्सैल हैं। मेरा तो जी काँपता है। कहीं मुझे मारने लगें तो क्या करूँगी।
गोबर ने धीरज दिलाया — अम्माँ की आदत ऐसी नहीं। हम लोगों तक को तो कभी एक तमाचा मारा नहीं, तुम्हें क्या मारेंगी। उनको जो कुछ कहना होगा मुझे कहेंगी, तुमसे तो बोलेंगी भी नहीं।
गाँव समीप आ गया। गोबर ने ठिठककर कहा — अब तुम जाओ। झुनिया ने अनुरोध किया — तुम भी देर न करना।
‘ नहीं-नहीं, छन भर में आता हूँ, तू चल तो। ‘
‘ मेरा जी न जाने कैसा हो रहा है। तुम्हारे ऊपर क्रोध आता है। ‘
‘ तुम इतना डरती क्यों हो? मैं तो आ ही रहा हूँ। ‘
‘ इससे तो कहीं अच्छा था कि किसी दूसरी जगह भाग चलते। ‘
‘ जब अपना घर है, तो क्यों कहीं भागें? तुम नाहक़ डर रही हो। ‘
‘ जल्दी से आओगे न? ‘
‘ हाँ-हाँ, अभी आता हूँ। ‘
‘ मुझसे दग़ा तो नहीं कर रहे हो? मुझे घर भेजकर आप कहीं चलते बनो। ‘
‘ इतना नीच नहीं हूँ झूना! जब तेरी बाँह पकड़ी है, तो मरते दम तक निभाऊँगा। ‘
झुनिया घर की ओर चली। गोबर एक क्षण दुविधे में पड़ा खड़ा रहा। फिर एका-एक सिर पर मँडरानेवाली धिक्कार की कल्पना भयंकर रूप धारण करके उसके सामने खड़ी हो गयी। कहीं सचमुच अम्माँ मारने दौड़ें, तो क्या हो? उसके पाँव जैसे धरती से चिमट गये। उसके और उसके घर के बीच केवल आमों का छोटा-सा बाग़ था। झुनिया की काली परछाईं धीरे-धीरे जाती हुई दीख रही थी। उसकी ज्ञानेंद्रियाँ बहुत तेज़ हो गयी थीं। उसके कानों में ऐसी भनक पड़ी, जैसे अम्माँ झुनिया को गाली दे रही हैं। उसके मन की कुछ ऐसी दशा हो रही थी, मानो सिर पर गड़ाँसे का हाथ पड़ने वाला हो। देह का सारा रक्त जैसे सूख गया हो। एक क्षण के बाद उसने देखा, जैसे धनिया घर से निकलकर कहीं जा रही हो। दादा के पास जाती होगी! साइत दादा खा-पीकर मटर अगोरने चले गये हैं। वह मटर के खेत की ओर चला। जौ-गेहूँ के खेतों को रौंदता हुआ वह इस तरह भागा जा रहा था, मानो पीछे दौड़ आ रही है। वह है दादा की मँड़ैया। वह रुक गया और दबे पाँव जाकर मँड़ैया के पीछे बैठ गया। उसका अनुमान ठीक निकला। वह पहुँचा ही था कि धनिया की बोली सुनायी दी। ओह! ग़ज़ब हो गया। अम्माँ इतनी कठोर हैं। एक अनाथ लड़की पर इन्हें तनिक भी दया नहीं आती। और जो मैं भी सामने जाकर फटकार दूँ कि तुमको झुनिया से बोलने का कोई मजाल नहीं है, तो सारी सेखी निकल जाय। अच्छा! दादा भी बिगड़ रहे हैं। केले के लिए आज ठीकरा भी तेज़ हो गया। मैं ज़रा अदब करता हूँ, उसी का फल है। यह तो दादा भी वहीं जा रहे हैं। अगर झुनिया को इन्होंने मारा-पीटा तो मुझसे न सहा जायगा। भगवान्! अब तुम्हारा ही भरोसा है। मैं न जानता था इस विपत में जान फँसेगी। झुनिया मुझे अपने मन में कितना धूर्त, कायर और नीच समझ रही होगी; मगर उसे मार कैसे सकते हैं? घर से निकाल भी कैसे सकते हैं? क्या घर में मेरा हिस्सा नहीं है? अगर झुनिया पर किसी ने हाथ उठाया, तो आज महाभारत हो जायगा। माँ-बाप जब तक लड़कों की रक्षा करें, तब तक माँ-बाप हैं। जब उनमें ममता ही नहीं है, तो कैसे माँ-बाप! होरी ज्यों ही मँड़ैया से निकला, गोबर भी दबे पाँव धीरे-धीरे पीछे-पीछे चला; लेकिन द्वार पर प्रकाश देखकर उसके पाँव बँध गये। उस प्रकाशरेखा के अन्दर वह पाँव नहीं रख सकता। वह अँधेरे में ही दीवार से चिमट कर खड़ा हो गया। उसकी हिम्मत ने जवाब दे दिया। हाय! बेचारी झुनिया पर निरपराध यह लोग झल्ला रहे हैं, और वह कुछ नहीं कर सकता। उसने खेल-खेल में जो एक चिनगारी फेंक दी थी, वह सारे खलिहान को भस्म कर देगी, यह उसने न समझा था। और अब उसमें इतना साहस न था कि सामने आकर कहे — हाँ, मैंने चिनगारी फेंकी थी। जिन टिकौनों से उसने अपने मन को सँभाला था, वे सब इस भूकम्प में नीचे आ रहे और वह झोंपड़ा नीचे गिर पड़ा। वह पीछे लौटा। अब वह झुनिया को क्या मुँह दिखाये। वह सौ क़दम चला; पर इस तरह, जैसे कोई सिपाही मैदान से भागे। उसने झुनिया से प्रीति और विवाह की जो बातें की थीं, वह सब याद आने लगीं। वह अभिसार की मीठी स्मृतियाँ याद आयीं जब वह अपने उन्मत्त उसासों में, अपनी नशीली चितवनों में मानो अपने प्राण निकालकर उसके चरणों पर रख देता था। झुनिया किसी वियोगी पक्षी की भाँति अपने छोटे-से घोंसले में एकान्त-जीवन काट रही थी। वहाँ नर का मत्त आग्रह न था, न वह उद्दीप्त उल्लास, न शावकों की मीठी आवाज़ें; मगर बहेलिये का जाल और छल भी तो वहाँ न था। गोबर ने उसके एकान्त घोसले में जाकर उसे कुछ आनन्द पहुँचाया या नहीं, कौन जाने; पर उसे विपत्ति में तो डाल ही दिया। वह सँभल गया। भागता हुआ सिपाही मानो अपने एक साथी का बढ़ावा सुनकर पीछे लौट पड़ा। उसने द्वार पर आकर देखा, तो किवाड़ बन्द हो गये थे। किवाड़ों के दराजों से प्रकाश की रेखाएँ बाहर निकल रही थीं। उसने एक दराज़ से बाहर झाँका। धनिया और झुनिया बैठी हुई थीं। होरी खड़ा था। झुनिया की सिसकियाँ सुनायी दे रही थीं और धनिया उसे समझा रही थी — बेटी, तू चलकर घर में बैठ। मैं तेरे काका और भाइयों को देख लूँगी। जब तक हम जीते हैं, किसी बात की चिन्ता नहीं है। हमारे रहते कोई तुझे तिरछी आँखों देख भी न सकेगा।
गोबर गद्गद हो गया। आज वह किसी लायक़ होता, तो दादा और अम्माँ को सोने से मढ़ देता और कहता — अब तुम कुछ परवा न करो, आराम से बैठे खाओ और जितना दान-पुन करना चाहो, करो। झुनिया के प्रति अब उसे कोई शंका नहीं है। वह उसे जो आश्रय देना चाहता था वह मिल गया। झुनिया उसे दग़ाबाज़ समझती है, तो समझे। वह तो अब तभी घर आयेगा, जब वह पैसे के बल से सारे गाँव का मुँह बन्द कर सके और दादा और अम्माँ उसे कुल का कलंक न समझकर कुल का तिलक समझें। मन पर जितना ही गहरा आघात होता है, उसकी प्रतिक्रिया भी उतनी ही गहरी होती है। इस अपकीर्ति और कलंक ने गोबर के अन्तस्तल को मथकर वह रत्न निकाल लिया जो अभी तक छिपा पड़ा था। आज पहली बार उसे अपने दायित्व का ज्ञान हुआ और उसके साथ ही संकल्प भी। अब तक वह कम से कम काम करता और ज़्यादा से ज़्यादा खाना अपना हक़ समझता था। उसके मन में कभी यह विचार ही नहीं उठा था कि घरवालों के साथ उसका भी कुछ कर्तव्य है। आज माता-पिता की उदात्त क्षमा ने जैसे उसके हृदय में प्रकाश डाल दिया। जब धनिया और झुनिया भीतर चली गयीं, तो वह होरी की उसी मड़ैया में जा बैठा और भविष्य के मंसूबे बाँधने लगा। शहर के बेलदारों को पाँच-छः आने रोज़ मिलते हैं, यह उसने सुन रखा था। अगर उसे छः आने रोज़ मिलें और वह एक आने में गुज़र कर ले, तो पाँच आने रोज़ बच जायँ। महीने में दस रुपए होते हैं, और साल-भर में सवा सौ। वह सवा सौ की थैली लेकर घर आये, तो किसकी मजाल है, जो उसके सामने मुँह खोल सके। यही दातादीन और यही पटेसुरी आकर उसकी हाँ में हाँ मिलायेंगे। और झुनिया तो मारे गर्व के फूल जाय। दो चार साल वह इसी तरह कमाता रहे, तो घर का सारा दलिद्दर मिट जाय। अभी तो सारे घर की कमाई भी सवा सौ नहीं होती। अब वह अकेला सवा सौ कमायेगा। यही तो लोग कहेंगे कि मजूरी करता है। कहने दो। मजूरी करना कोई पाप तो नहीं है। और सदा छः आने ही थोड़े मिलेंगे। जैसे-जैसे वह काम में होशियार होगा, मजूरी भी तो बढ़ेगी। तब वह दादा से कहेगा, अब तुम घर बैठकर भगवान् का भजन करो। इस खेती में जान खपाने के सिवा और क्या रखा है। सबसे पहले वह एक पछायीं गाय लायेगा, जो चार-पाँच सेर दूध देगी और दादा से कहेगा, तुम गऊ माता की सेवा करो। इससे तुम्हारा लोक भी बनेगा, परलोक भी। और क्या, एक आने में उसका गुज़र आराम से न होगा? घर-द्वार लेकर क्या करना है। किसी के ओसार में पड़ा रहेगा। सैकड़ों मन्दिर हैं, धरमसाले हैं। और फिर जिसकी वह मजूरी करेगा, क्या वह उसे रहने के लिए जगह न देगा? आटा रुपए का दस सेर आता है। एक आने में ढाई पाव हुआ। एक आने का तो वह आटा ही खा जायगा। लकड़ी, दाल, नमक, साग यह सब कहाँ से आयेगा? दोनों जून के लिए सेर भर तो आटा ही चाहिए। ओह! खाने की तो कुछ न पूछो। मुट्ठी भर चने में भी काम चल सकता है। हलुवा और पूरी खाकर भी काम चल सकता है। जैसी कमाई हो। वह आध सेर आटा खाकर दिन भर मज़े से काम कर सकता है। इधर-उधर से उपले चुन लिये, लकड़ी का काम चल गया। कभी एक पैसे की दाल ले ली, कभी आलू। आलू भूनकर भुरता बना लिया। यहाँ दिन काटना है कि चैन करना है। पत्तल पर आटा गूँधा, उपलों पर बाटियाँ सेंकी, आलू भूनकर भुरता बनाया और मज़े से खाकर सो रहे। घर ही पर कौन दोनों जून रोटी मिलती है, एक जून चबेना ही मिलता है। वहाँ भी एक जून चबेने पर काटेंगे। उसे शंका हुई; अगर कभी मजूरी न मिली, तो वह क्या करेगा? मगर मजूरी क्यों न मिलेगी? जब वह जी तोड़कर काम करेगा, तो सौ आदमी उसे बुलायेंगे। काम सबको प्यारा होता है, चाम नहीं प्यारा होता। यहाँ भी तो सूखा पड़ता है, पाला गिरता है, ऊख में दीमक लगते हैं, जौ में गेरुई लगती है, सरसों में लाही लग जाती है। उसे रात को कोई काम मिल जायगा, तो उसे भी न छोड़ेगा। दिन-भर मजूरी की; रात कहीं चौकीदारी कर लेगा। दो आने भी रात के काम में मिल जायँ, तो चाँदी है। जब वह लौटेगा, तो सबके लिए साड़ियाँ लायेगा। झुनिया के लिए हाथ का कंगन ज़रूर बनवायेगा और दादा के लिए एक मुँड़ासा लायेगा। इन्हीं मनमोदकों का स्वाद लेता हुआ वह सो गया; लेकिन ठंड में नींद कहाँ! किसी तरह रात काटी और तड़के उठ कर लखनऊ की सड़क पकड़ ली। बीस कोस ही तो है। साँझ तक पहुँच जायगा। गाँव का कौन आदमी वहाँ आता-जाता है और वह अपना ठिकाना नहीं लिखेगा, नहीं दादा दूसरे ही दिन सिर पर सवार हो जायँगे। उसे कुछ पछतावा था, तो यही कि झुनिया से क्यों न साफ़-साफ़ कह दिया — अभी तू घर जा, मैं थोड़े दिनों में कुछ कमा-धमाकर लौटूँगा; लेकिन तब वह घर जाती ही क्यों। कहती — मैं भी तुम्हारे साथ लौटूँगी। उसे वह कहाँ-कहाँ बाँधे फिरता।
दिन चढ़ने लगा। रात को कुछ न खाया था। भूख मालूम होने लगी। पाँव लड़खड़ाने लगे। कहीं बैठकर दम लेने की इच्छा होती थी। बिना कुछ पेट में डाले वह अब नहीं चल सकता; लेकिन पास एक पैसा भी नहीं है। सड़क के किनारे झुड़-बेरियों के झाड़ थे। उसने थोड़े से बेर तोड़ लिये और उदर को बहलाता हुआ चला। एक गाँव में गुड़ पकने की सुगन्ध आयी। अब मन न माना। कोल्हाड़ में जाकर लोटा-डोर माँगा और पानी भर कर चुल्लू से पीने बैठा कि एक किसान ने कहा — अरे भाई, क्या निराला ही पानी पियोगे? थोड़ा-सा मीठा खा लो। अबकी और चला लें कोल्हू और बना लें खाँड़। अगले साल तक मिल तैयार हो जायगी। सारी ऊख खड़ी बिक जायगी। गुड़ और खाँड़ के भाव चीनी मिलेगी, तो हमारा गुड़ कौन लेगा? उसने एक कटोरे में गुड़ की कई पिण्डियाँ लाकर दीं। गोबर ने गुड़ खाया, पानी पिया। तमाखू तो पीते होगे? गोबर ने बहाना किया। अभी चिलम नहीं पीता। बुड्ढे ने प्रसन्न होकर कहा — बड़ा अच्छा करते हो भैया! बुरा रोग है। एक बेर पकड़ ले, तो ज़िन्दगी भर नहीं छोड़ता। इंजन को कोयला-पानी भी मिल गया, चाल तेज़ हुई। जाड़े के दिन, न जाने कब दोपहर हो गया। एक जगह देखा, एक युवती एक वृक्ष के नीचे पति से सत्याग्रह किये बैठी थी। पति सामने खड़ा उसे मना रहा था। दो-चार राहगीर तमाशा देखने खड़े हो गये थे। गोबर भी खड़ा हो गया। मानलीला से रोचक और कौन जीवन-नाटक होगा? युवती ने पति की ओर घूरकर कहा — मैं न जाऊँगी, न जाऊँगी, न जाऊँगी।
पुरुष ने ये जैसे अल्टिमेटम दिया — न जायगी?
‘ न जाऊँगी। ‘
‘ न जायगी? ‘
‘ न जाऊँगी। ‘
पुरुष ने उसके केश पकड़कर घसीटना शुरू किया। युवती भूमि पर लोट गयी। पुरुष ने हारकर कहा — मैं फिर कहता हूँ, उठकर चल। स्त्री ने उसी दृढ़ता से कहा — मैं तेरे घर सात जनम न जाऊँगी, बोटी-बोटी काट डाल।
‘ मैं तेरा गला काट लूँगा। ‘
‘ तो फाँसी पाओगे। ‘
पुरुष ने उसके केश छोड़ दिये और सिर पर हाथ रखकर बैठ गया। पुरुषत्व अपनी चरम सीमा तक पहुँच गया। उसके आगे अब उसका कोई बस नहीं है। एक क्षण में वह फिर खड़ा हुआ और परास्त होकर बोला — आख़िर तू क्या चाहती है? युवती भी उठ बैठी, और निश्चल भाव से बोली — मैं यही चाहती हूँ, तू मुझे छोड़ दे।
‘ कुछ मुँह से कहेगी, क्या बात हुई? ‘
‘ मेरे भाई-बाप को कोई क्यों गाली दे? ‘
‘ किसने गाली दी, तेरे भाई-बाप को? ‘
‘ जाकर अपने घर में पूछ! ‘
‘ चलेगी तभी तो पूछूँगा? ‘
‘ तू क्या पूछेगा? कुछ दम भी है। जाकर अम्माँ के आँचल में मुँह ढाँककर सो। वह तेरी माँ होगी। मेरी कोई नहीं है। तू उसकी गालियाँ सुन। मैं क्यों सुनूँ? एक रोटी खाती हूँ, तो चार रोटी का काम करती हूँ। क्यों किसी की धौंस सहूँ? मैं तेरा एक पीतल का छल्ला भी तो नहीं जानती! ‘
राहगीरों को इस कलह में अभिनय का आनन्द आ रहा था; मगर उसके जल्द समाप्त होने की कोई आशा न थी। मंज़िल खोटी होती थी। एक-एक करके लोग खिसकने लगे। गोबर को पुरुष की निर्दयता बुरी लग रही थी। भीड़ के सामने तो कुछ न कह सकता था। मैदान ख़ाली हुआ, तो बोला — भाई मर्द और औरत के बीच में बोलना तो न चाहिए, मगर इतनी बेदरदी भी अच्छी नहीं होती।
पुरुष ने कौड़ी की-सी आँखें निकालकर कहा — तुम कौन हो?
गोबर ने निःशंक भाव से कहा — मैं कोई हूँ; लेकिन अनुचित बात देखकर सभी को बुरा लगता है।
पुरुष ने सिर हिलाकर कहा — मालूम होता है, अभी मेहरिया नहीं आयी, तभी इतना दर्द है!
‘ मेहरिया आयेगी, तो भी उसके झोंटे पकड़कर न खीचूँगा। ‘
‘ अच्छा तो अपनी राह लो। मेरी औरत है, मैं उसे मारूँगा, काटूँगा। तुम कौन होते हो बोलने-वाले! चले जाओ सीधें से, यहाँ मत खड़े हो। ‘
गोबर का गर्म ख़ून और गर्म हो गया। वह क्यों चला जाय। सड़क सरकार की है। किसी के बाप की नहीं है। वह जब तक चाहे वहाँ खड़ा रह सकता है। वहाँ से उसे हटाने का किसी को अधिकार नहीं है। पुरुष ने ओठ चबाकर कहा — तो तुम न जाओगे? आऊँ?
गोबर ने अँगोछा कमर में बाँध लिया और समर के लिए तैयार होकर बोला — तुम आओ या न आओ। मैं तो तभी जाऊँगा, जब मेरी इच्छा होगी।
‘तो मालूम होता है, हाथ पैर तुड़वा के जाओगे। ‘
‘यह कौन जानता है, किसके हाथ-पाँव टूटेंगे। ‘
तो तुम न जाओगे? ‘
‘ना। ‘
पुरुष मुट्ठी बाँधकर गोबर की ओर झपटा। उसी क्षण युवती ने उसकी धोती पकड़ ली और उसे अपनी ओर खींचती हुई गोबर से बोली — तुम क्यों लड़ाई करने पर उतारू हो रहे हो जी, अपनी राह क्यों नहीं जाते। यहाँ कोई तमाशा है। हमारा आपस का झगड़ा है। कभी वह मुझे मारता है, कभी मैं उसे डाँटती हूँ। तुमसे मतलब।
गोबर यह धिक्कार पाकर चलता बना। दिल में कहा — यह औरत मार खाने ही लायक़ है। गोबर आगे निकल गया, तो युवती ने पति को डाँटा — तुम सबसे लड़ने क्यों लगते हो। उसने कौन-सी बुरी बात कही थी कि तुम्हें चोट लग गयी। बुरा काम करोगे, तो दुनिया बुरा कहेगी ही; मगर है किसी भले घर का और अपनी बिरादरी का ही जान पड़ता है। क्यों उसे अपनी बहन के लिए नहीं ठीक कर लेते? पति ने सन्देह के स्वर में कहा — क्या अब तक क्वाँरा बैठा होगा?
‘ तो पूछ ही क्यों न लो? ‘
पुरुष ने दस क़दम दौड़कर गोबर को आवाज़ दी और हाथ से ठहर जाने का इशारा किया। गोबर ने समझा, शायद फिर इसके सिर भूत सवार हुआ, तभी ललकार रहा है। मार खाये बिना न मानेगा। अपने गाँव में कुत्ता भी शेर हो जाता है लेकिन आने दो। लेकिन उसके मुख पर समर की ललकार न थी। मैत्री का निमन्त्रण था। उसने गाँव और नाम और जात पूछी। गोबर ने ठीक-ठीक बता दिया। उस पुरुष का नाम कोदई था। कोदई ने मुस्कराकर कहा — हम दोनों में लड़ाई होते-होते बची। तुम चले आये, तो, मैंने सोचा, तुमने ठीक ही कहा। मैं नाहक़ तुमसे तन बैठा। कुछ खेती-बारी घर में होती है न?
गोबर ने बताया, उसके मौ-सी पाँच बीघे खेत हैं और एक हल की खेती होती है।
‘ मैंने तुम्हें जो भला-बुरा कहा है, उसकी माफ़ी दे दो भाई! क्रोध में आदमी अन्धा हो जाता है। औरत गुन-सहूर में लच्छिमी है, मुदा कभी-कभी न जाने कौन-सा भूत इस पर सवार हो जाता है। अब तुम्हीं बताओ, माता पर मेरा क्या बस है? जन्म तो उन्हींने दिया है, पाला-पोसा तो उन्हींने है। जब कोई बात होगी, तो मैं जो कुछ कहूँगा, लुगाई ही से कहूँगा। उस पर अपना बस है। तुम्हीं सोचो, मैं कुपद तो नहीं कह रहा हूँ। हाँ, मुझे उसका बाल पकड़कर घसीटना न था; लेकिन औरत जात बिना कुछ ताड़ना दिये क़ाबू में भी तो नहीं रहती। चाहती है, माँ से अलग हो जाऊँ। तुम्हीं सोचो, कैसे अलग हो जाऊँ और किससे अलग हो जाऊँ। अपनी माँ से? जिसने जनम दिया? यह मुझसे न होगा। औरत रहे या जाय। ‘
गोबर को भी अपनी राय बदलनी पड़ी। बोला — माता का आदर करना तो सबका धरम ही है भाई। माता से कौन उरिन हो सकता है?
कोदई ने उसे अपने घर चलने का नेवता दिया। आज वह किसी तरह लखनऊ नहीं पहुँच सकता। कोस दो कोस जाते-जाते साँझ हो जायगी। रात को कहीं न कहीं टिकना ही पड़ेगा। गोबर ने विनोद दिया — लुगाई मान गयी?
‘ न मानेगी तो क्या करेगी। ‘
‘ मुझे तो उसने ऐसी फटकार बतायी कि मैं लजा गया। ‘
‘ वह ख़ुद पछता रही है। चलो, ज़रा माता जी को समझा देना। मुझसे तो कुछ कहते नहीं बनता। उन्हें भी सोचना चाहिए कि बहू को बाप-भाई की गाली क्यों देती हैं। हमारी ही बहन है। चार दिन में उसकी सगाई हो जायगी। उसकी सास हमें गालियाँ देगी, तो उससे सुना जायगा? सब दोस लुगाई ही का नहीं है। माता का भी दोस है। जब हर बात में वह अपनी बेटी का पच्छ करेंगी, तो हमें बुरा लगेगा ही। इसमें इतनी बात अच्छी है कि घर से रूठकर चली जाय; पर गाली का जवाब गाली से नहीं देती। ‘
गोबर को रात के लिए कोई ठिकाना चाहिए था ही। कोदई के साथ हो लिया। दोनों फिर उसी जगह आये जहाँ युवती बैठी हुई थी। वह अब गृहिणी बन गयी थी। ज़रा-सा घूँघट निकाल लिया था और लजाने लगी थी। कोदई ने मुस्कराकर कहा — यह तो आते ही न थे। कहते थे, ऐसी डाँट सुनने के बाद उनके घर कैसे जायँ?
युवती ने घूँघट की आड़ से गोबर को देखकर कहा — इतनी ही डाँट में डर गये? लुगाई आ जायगी, तब कहाँ भागोगे?
गाँव समीप ही था। गाँव क्या था, पुरवा था; दस-बारह घरों का, जिसमें आधे खपरैल के थे, आधे फूस के। कोदई ने अपने घर पहुँचकर खाट निकाली, उस पर एक दरी डाल दी, शर्बत बनाने को कह, चिलम भर लाया। और एक क्षण में वही युवती लोटे में शर्बत लेकर आयी और गोबर को पानी का एक छींटा मारकर मानो क्षमा माँग ली। वह अब उसका ननदोई हो रहा था। फिर क्यों न अभी से छेड़-छाड़ शुरू कर दे!

Godan / गोदान भाग 13 / प्रेमचंद / Premchand

Godan / गोदान भाग 11-15 / प्रेमचंद / Premchandगोबर अँधेरे ही मुँह उठा और कोदई से बिदा माँगी। सबको मालूम हो गया था कि उसका ब्याह हो चुका है; इसलिए उससे कोई विवाह-सम्बन्धी चर्चा नहीं की। उसके शील-स्वभाव ने सारे घर को मुग्ध कर लिया था। कोदई की माता को तो उसने ऐसे मीठे शब्दों में और उसके मातृपद की रक्षा करते हुए, ऐसा उपदेश दिया कि उसने प्रसन्न होकर आशीवार्द दिया था। ‘ तुम बड़ी हो माता जी, पूज्य हो। पुत्र माता के रिन से सौ जन्म लेकर भी उरिन नहीं हो सकता, लाख जन्म लेकर भी उरिन नहीं हो सकता। करोड़ जन्म लेकर भी नहीं … ‘ बुढ़िया इस संख्यातीत श्रद्धा पर गद्गद हो गयी। इसके बाद गोबर ने जो कुछ कहा, उसमें बुढ़िया को अपना मंगल ही दिखायी दिया। वैद्य एक बार रोगी को चंगा कर दे, फिर रोगी उसके हाथों विष भी ख़ुशी से पी लेगा — अब जैसे आज ही बहू घर से रूठकर चली गयी, तो किसकी हेठी हुई। बहू को कौन जानता है? किसकी लड़की है, किसकी नातिन है, कौन जानता है! सम्भव है, उसका बाप घसियारा ही रहा हो… बुढ़िया ने निश्चयात्मक भाव से कहा — घसियारा तो है ही बेटा, पक्का घसियारा सबेरे उसका मुँह देख लो, तो दिन-भर पानी न मिले। गोबर बोला — तो ऐसे आदमी की क्या हँसी हो सकती है! हँसी हुई तुम्हारी और तुम्हारे आदमी की। जिसने पूछा, यही पूछा कि किसकी बहू है? फिर वह अभी लड़की है, अबोध, अल्हड़। नीच माता-पिता की लड़की है, अच्छी कहाँ से बन जाय! तुमको तो बूढ़े तोते को राम-नाम पढ़ाना पड़ेगा। मारने से तो वह पढ़ेगा नहीं, उसे तो सहज स्नेह ही से पढ़ाया जा सकता है। ताड़ना भी दो; लेकिन उसके मुँह मत लगो। उसका तो कुछ नहीं बिगड़ता, तुम्हारा अपमान होता है। जब गोबर चलने लगा, तो बुढ़िया ने खाँड़ और सत्तू मिलाकर उसे खाने को दिया। गाँव के और कई आदमी मजूरी की टोह में शहर जा रहे थे। बातचीत में रास्ता कट गया और नौ बजते-बजते सब लोग अमीनाबाद के बाज़ार में जा पहुँचे। गोबर हैरान था, इतने आदमी नगर में कहाँ से आ गये? आदमी पर आदमी गिरा पड़ता था। उस दिन बाज़ार में चार-पाँच सौ मज़दूरों से कम न थे। राज और बढ़ई और लोहार और बेलदार और खाट बुननेवाले और टोकरी ढोनेवाले और संगतराश सभी जमा थे। गोबर यह जमघट देखकर निराश हो गया। इतने सारे मजूरों को कहाँ काम मिला जाता है। और उसके हाथ में तो कोई औजार भी नहीं है। कोई क्या जानेगा कि वह क्या काम कर सकता है। कोई उसे क्यों रखने लगा। बिना औज़ार के उसे कौन पूछेगा? धीरे-धीरे एक-एक करके मजूरों को काम मिलता जा रहा था। कुछ लोग निराश होकर घर लौटे जा रहे थे। अधिकतर वह बूढ़े और निकम्मे बच रहे थे, जिनका कोई पुछत्तर न था। और उन्हीं में गोबर भी था। लेकिन अभी आज उसके पास खाने को है। कोई ग़म नहीं। सहसा मिरज़ा खुर्शेद ने मज़दूरों के बीच में आकर ऊँची आवाज़ से कहा — जिसको छः आने रोज़ पर काम करना हो, वह मेरे साथ आये। सबको छः आने मिलेंगे। पाँच बजे छुट्टी मिलेगी। दस-पाँच राजों और बढ़इयों को छोड़कर सब के सब उनके साथ चलने को तैयार हो गये। चार सौ फटे-हालों की एक विशाल सेना सज गयी। आगे मिरज़ा थे, कन्धे पर मोटा सोटा रखे हुए। पीछे भुखमरों की लम्बी क़तार थी, जैसे भेड़ें हों। एक बूढ़े ने मिरज़ा से पूछा — कौन काम करना है मालिक? मिरज़ा साहब ने जो काम बतलाया, उस पर सब और भी चकित हो गये। केवल एक कबड्डी खेलना! यह कैसा आदमी है, जो कबड्डी खेलने के लिए छः आना रोज़ दे रहा है। सनकी तो नहीं है कोई! बहुत धन पाकर आदमी सनक ही जाता है। बहुत पढ़ लेने से भी आदमी पागल हो जाते हैं। कुछ लोगों को सन्देह होने लगा, कहीं यह कोई मखौल तो नहीं है! यहाँ से घर पर ले जाकर कह दे, कोई काम नहीं है, तो कौन इसका क्या कर लेगा! वह चाहे कबड्डी खेलाये, चाहे आँख मिचौनी, चाहे गुल्लीडंडा, मजूरी पेशगी दे दे। ऐसे झक्कड़ आदमी का क्या भरोसा? गोबर ने डरते-डरते कहा — मालिक, हमारे पास कुछ खाने को नहीं है। पैसे मिल जायँ, तो कुछ लेकर खा लूँ। मिरज़ा ने झट छः आने पैसे उसके हाथ में रख दिये और ललकारकर बोले — मजूरी सबको चलते-चलते पेशगी दे दी जायगी। इसकी चिन्ता मत करो। मिरज़ा साहब ने शहर के बाहर थोड़ी-सी ज़मीन ले रखी थी। मजूरों ने जाकर देखा, तो एक बड़ा अहाता घिरा हुआ था और उसके अन्दर केवल एक छोटी-सी फूस की झोंपड़ी थी, जिसमें तीन-चार कुर्सियां थीं, एक मेज़। थोड़ी-सी किताबें मेज़ पर रखी हुई थीं। झोंपड़ी बेलों और लताओं से ढकी हुई बहुत सुन्दर लगती थी। अहाते में एक तरफ़ आम और नीबू और अमरूद के पौधे लगे हुए थे, दूसरी तरफ़ कुछ फूल। बड़ा हिस्सा परती था। मिरज़ा ने सबको क़तार में खड़ा करके ही मजूरी बाँट दी। अब किसी को उनके पागलपन में सन्देह न रहा। गोबर पैसे पहले ही पा चुका था, मिरज़ा ने उसे बुलाकर पौधे सींचने का काम सौंपा। उसे कबड्डी खेलने को न मिलेगी। मन में ऐंठकर रह गया। इन बुड्ढों को उठा-उठाकर पटकता; लेकिन कोई परवाह नहीं। बहुत कबड्डी खेल चुका है। पैसे तो पूरे मिल गये। आज युगों के बाद इन ज़रा-ग्रस्तों को कबड्डी खेलने का सौभाग्य मिला। अधिक-तर तो ऐसे थे, जिन्हें याद भी न आता था कि कभी कबड्डी खेली है या नहीं। दिनभर शहर में पिसते थे। पहर रात गये घर पहुँचते थे और जो कुछ रूखा-सूखा मिल जाता था, खाकर पड़े रहते थे। प्रातःकाल फिर वही चरखा शुरू हो जाता था। जीवन नीरस, निरानन्द, केवल एक ढर्रा मात्र हो गया था। आज जो यह अवसर मिला, तो बूढ़े भी जवान हो गये। अधमरे बूढ़े, ठठरियाँ लिये, मुँह में दाँत न पेट में आँत, जाँघ के ऊपर धोतियाँ या तहमद चढ़ाये ताल ठोक-ठोककर उछल रहे थे, मानो उन बूढ़ी हड्डियों में जवानी धँस पड़ी हो। चटपट पाली बन गयी, दो नायक बन गये। गोईयों का चुनाव होने लगा। और बारह बजते-बजते खेल शुरू हो गया। जाड़ों की ठंडी धूप ऐसी क्रीड़ाओं के लिए आदर्श ऋतु है। इधर अहाते के फाटक पर मिरज़ा साहब तमाशाइयों को टिकट बाँट रहे थे। उन पर इस तरह की कोई-न-कोई सनक हमेशा सवार रहती थी। अमीरों से पैसा लेकर ग़रीबों को बाँट देना। इस बूढ़ी कबड्डी का विज्ञापन कई दिन से हो रहा था। बड़े-बड़े पोस्टर चिपकाये गये थे, नोटिस बाँटे गये थे। यह खेल अपने ढंग का निराला होगा, बिलकुल अभूतपूर्व। भारत के बूढ़े आज भी कैसे पोढ़े हैं, जिन्हें यह देखना हो, आयें और अपनी आँखें तृप्त कर लें। जिसने यह तमाशा न देखा, वह पछतायेगा। ऐसा सुअवसर फिर न मिलेगा। टिकट दस रुपए से लेकर दो आने तक के थे। तीन बजते-बजते सारा अहाता भर गया। मोटरों और फिटनों का ताँता लगा हुआ था। दो हज़ार से कम की भीड़ न थी। रईसों के लिए कुसिर्यों और बेंचों का इन्तज़ाम था। साधारण जनता के लिए साफ़ सुथरी ज़मीन। मिस मालती, मेहता, खन्ना, तंखा और राय साहब सभी विराजमान थे। खेल शुरू हुआ, तो मिरज़ा ने मेहता से कहा — आइए डाक्टर साहब, एक गोई हमारी और आपकी भी हो जाय। मिस मालती बोली — फ़िलासफ़र का जोड़ फ़िलासफ़र ही से हो सकता है। मिरज़ा ने मूँछों पर ताव देकर कहा — तो क्या आप समझती हैं, मैं फ़िलासफ़र नहीं हूँ। मेरे पास पुछल्ला नहीं है; लेकिन हूँ मैं फ़िलासफ़र। आप मेरा इम्तहान ले सकते हैं मेहताजी! मालती ने पूछा — अच्छा बतलाइए, आप आइडियलिस्ट हैं या मेटीरियलिस्ट।
‘ मैं दोनों हूँ। ‘
‘ यह क्योंकर? ‘
‘ बहुत अच्छी तरह। जब जैसा मौक़ा देखा, वैसा बन गया। ‘ ‘ तो आपका अपना कोई निश्चय नहीं है। ‘
‘ जिस बात का आज तक कभी निश्चय न हुआ, और न कभी होगा, उसका निश्चय मैं भला क्या कर सकता हूँ! और लोग आँखें फोड़कर और किताबें चाटकर जिस नतीजे पर पहुँचते हैं, वहाँ मैं यों ही पहुँच गया। आप बता सकती हैं, किसी फ़िलासफ़र ने अक्ली गद्दे लड़ाने के सिवाय और कुछ किया है? ‘
डाक्टर मेहता ने अचकन के बटन खोलते हुए कहा — तो चलिए हमारी और आपकी हो ही जाय। और कोई माने या न माने, मैं आपको फ़िलासफ़र मानता हूँ। मिरज़ा ने खन्ना से पूछा — आपके लिए भी कोई जोड़ ठीक करूँ? मालती ने पुचारा दिया — हाँ, हाँ, इन्हें ज़रूर ले जाइए मिस्टर तंखा के साथ। खन्ना झेंपते हुए बोले — जी नहीं, मुझे क्षमा कीजिए। मिरज़ा ने रायसाहब से पूछा — आपके लिए कोई जोड़ लाऊँ? राय साहब बोले — मेरा जोड़ तो ओंकारनाथ का है, मगर वह आज नज़र ही नहीं आते। मिरज़ा और मेहता भी नंगी देह, केवल जाँघिए पहने हुए मैदान में पहुँच गये। एक इधर, दूसरा उधर। खेल शुरू हो गया। जनता बूढ़े कुलेलों पर हँसती थी, तालियाँ बजाती थी, गालियाँ देती थी, ललकारती थी, बाज़ियाँ लगाती थी। वाह! ज़रा इन बूढ़े बाबा को देखो! किस शान से जा रहे हैं, जैसे सबको मारकर ही लौटेंगे। अच्छा, दूसरी तरफ़ से भी उन्हीं के बड़े भाई निकले। दोनों कैसे पैंतरे बदल रहे हैं! इन हिड्डयों में अभी बहुत जान है। इन लोगों ने जितना घी खाया है, उतना अब हमें पानी भी मयस्सर नहीं। लोग कहते हैं, भारत धनी हो रहा है। होता होगा। हम तो यही देखते हैं कि इन बुड्ढों-जैसे जीवट के जवान भी आज मुश्किल से निकलेंगे। वह उधरवाले बुड्ढे ने इसे दबोच लिया। बेचारा छूट निकलने के लिए कितना ज़ोर मार रहा है; मगर अब नहीं जा सकते बच्चा! एक को तीन लिपट गये। इस तरह लोग अपनी दिलचस्पी ज़ाहिर कर रहे थे; उनका सारा ध्यान मैदान की ओर था। खिलाड़ियों के आघात-प्रतिघात, उछल-कूद, धर-पकड़ और उनके मरने-जीने में सभी तन्मय हो रहे थे। कभी चारों तरफ़ से क़हक़हे पड़ते, कभी कोई अन्याय या धाँधली देखकर लोग ‘ छोड़ दो, छोड़ दो ‘ का गुल मचाते, कुछ लोग तैश में आकर पाली की तरफ़ दौड़ते, लेकिन जो थोड़े-से सज्जन शामियाने में ऊँचे दरजे के टिकट लेकर बैठे थे, उन्हें इस खेल में विशेष आनन्द न मिल रहा था। वे इससे अधिक महत्व की बातें कर रहे थे। खन्ना ने जिंजर का ग्लास ख़ाली करके सिगार सुलगाया और राय साहब से बोले — मैंने आप से कह दिया, बैंक इससे कम सूद पर किसी तरह राज़ी न होगा और यह रिआयत भी मैंने आपके साथ की है; क्योंकि आपके साथ घर का मुआमला है। राय साहब ने मूँछों में मुस्कराहट को लपेटकर कहा — आपकी नीति में घरवालों को ही उलटे छुरे से हलाल करना चाहिए? ‘ यह आप क्या फ़रमा रहे हैं। ‘ ‘ ठीक कह रहा हूँ। सूर्यप्रताप सिंह से आपने केवल सात फ़ी सदी लिया है, मुझसे नौ फ़ी सदी माँग रहे हैं और उस पर एहसान भी रखते हैं। क्यों न हो। ‘
खन्ना ने क़हक़हा मारा, मानो यह कथन हँसने के ही योग्य था। ‘ उन शतों पर मैं आपसे भी वही सूद ले लूँगा। हमने उनकी जायदाद रेहन रख ली है और शायद यह जायदाद फिर उनके हाथ न जायगी। ‘
‘ मैं अपनी कोई जायदाद निकाल दूँगा। नौ परसेंट देने से यह कहीं अच्छा है कि फ़ालतू जायदाद अलग कर दूँ। मेरी जैकसन रोडवाली कोठी आप निकलवा दें। कमीशन ले लीजिएगा। ‘
‘ उस कोठी का सुभीते से निकलना ज़रा मुश्किल है। आप जानते हैं, वह जगह बस्ती से कितनी दूर है; मगर ख़ैर, देखूँगा। आप उसकी क़ीमत का क्या अन्दाज़ा करते हैं? ‘
राय साहब ने एक लाख पचीस हज़ार बताये। पन्द्रह बीघे ज़मीन भी तो है उसके साथ।
खन्ना स्तम्भित हो गये। बोले — आप आज के पन्द्रह साल पहले का स्वप्न देख रहे हैं राय साहब! आपको मालूम होना चाहिए कि इधर जायदादों के मूल्य में पचास परसेंट की कमी हो गयी है।
राय साहब ने बुरा मानकर कहा — जी नहीं, पन्द्रह साल पहले उसकी क़ीमत डेढ़ लाख थी।
‘ मैं ख़रीददार की तलाश में रहूँगा; मगर मेरा कमीशन पाँच प्रतिशत होगा, आपसे। ‘
‘ औरों से शायद दस प्रतिशत हो क्यों; क्या करोगे इतने रुपए लेकर? ‘
‘ आप जो चाहें दे दीजिएगा। अब तो राज़ी हुए। शुगर के हिस्से अभी तक आपने न ख़रीदे। अब बहुत थोड़े-से हिस्से बच रहे हैं। हाथ मलते रह जाइएगा। इंश्योरेंस की पालिसी भी आपने न ली। आप में टाल-मटोल की बुरी आदत है। जब अपने लाभ की बातों का इतना टाल-मटोल है, तब दूसरों को आप लोगों से क्या लाभ हो सकता है! इसी से कहते हैं, रियासत आदमी की अक्ल चर जाती है। मेरा बस चले तो मैं ताल्लुक़े-दारी की रियासतें ज़ब्त कर लूँ। ‘
मिस्टर तंखा मालती पर जाल फेंक रहे थे। मालती ने साफ़ कह दिया था कि वह एलेक्शन के झमेले में नहीं पड़ना चाहती; पर तंखा इतनी आसानी से हार माननेवाले व्यक्ति न थे। आकर कुहनियों के बल मेज़ पर टिककर बोले — आप ज़रा उस मुआमले पर फिर विचार करें। मैं कहता हूँ ऐसा मौक़ा शायद आपको फिर न मिले। रानी साहब चन्दा को आपके मुक़ाबले में रुपए में एक आना भी चांस नहीं है। मेरी इच्छा केवल यह है कि कौंसिल में ऐसे लोग जायँ, जिन्होंने जीवन में कुछ अनुभव प्राप्त किया है और जनता की कुछ सेवा की है। जिस महिला ने भोग-विलास के सिवा कुछ जाना ही नहीं, जिसने जनता को हमेशा अपनी कार का पेट्रोल समझा, जिसकी सबसे मूल्यवान सेवा वे पाटिर्याँ हैं, जो वह गवर्नरों और सेक्रेटरियों को दिया करती हैं, उनके लिए इस कौंसिल में स्थान नहीं है। नयी कौंसिल में बहुत कुछ अधिकार प्रतिनिधियों के हाथ में होगा और मैं नहीं चाहता कि वह अधिकार अनधिकारियों के हाथ में जाय।
मालती ने पीछा छुड़ाने के लिए कहा — लेकिन साहब, मेरे पास दस-बीस हज़ार एलेक्शन पर ख़र्च करने के लिए कहाँ है? रानी साहब तो दो-चार लाख ख़र्च कर सकती हैं। मुझे भी साल में हज़ार-पाँच सौ रुपए उनसे मिल जाते हैं, यह रक़म भी हाथ से निकल जायगी।
‘ पहले आप यह बता दें कि आप जाना चाहती हैं, या नहीं? ‘
‘ जाना तो चाहती हूँ, मगर फ़्री पास मिल जाय! ‘
‘ तो यह मेरा ज़िम्मा रहा। आपको फ़्री पास मिल जायगा। ‘
‘ जी नहीं, क्षमा कीजिए। मैं हार की ज़िल्लत नहीं उठाना चाहती। जब रानी साहब रुपए की थैलियाँ खोल देंगी और एक-एक वोट पर एक-एक अशर्फ़ी चढ़ने लगेगी, तो शायद आप भी उधर वोट देंगे। ‘
‘ आपके ख़याल में एलेक्शन महज़ रुपए से जीता जा सकता है। ‘
‘ जी नहीं, व्यक्ति भी एक चीज़ है। लेकिन मैंने केवल एक बार जेल जाने के सिवा और क्या जन-सेवा की है? और सच पूछिए तो उस बार भी मैं अपने मतलब ही से गयी थी, उसी तरह जैसे राय साहब और खन्ना गये थे। इस नयी सभ्यता का आधार धन है, विद्या और सेवा और कुल और जाति सब धन के सामने हेय है। कभी-कभी इतिहास में ऐसे अवसर आ जाते हैं, जब धन को आन्दोलन के सामने नीचा देखना पड़ता है; मगर इसे अपवाद समझिए। मैं अपनी ही बात कहती हूँ। कोई ग़रीब औरत दवाखाने में आ जाती है, तो घंटों उससे बोलती तक नहीं। पर कोई महिला कार पर आ गयी, तो द्वार तक जाकर उसका स्वागत करती हूँ और उसकी ऐसी उपासना करती हूँ, मानो साक्षात् देवी है। मेरी और रानी साहब का कोई मुकाबला नहीं। जिस तरह के कौंसिल बन रहे हैं, उनके लिए रानी साहब ही ज़्यादा उपयुक्त हैं।
उधर मैदान में मेहता की टीम कमज़ोर पड़ती जाती थी। आधे से ज़्यादा खिलाड़ी मर चुके थे। मेहता ने अपने जीवन में कभी कबड्डी न खेली थी। मिरज़ा इस फन के उस्ताद थे। मेहता की तातीलें अभिनय के अभ्यास में कटती थीं। रूप भरने में वह अच्छे-अच्छे को चकित कर देते थे। और मिरज़ा के लिए सारी दिलचस्पी अखाड़े में थी, पहलवानों के भी और परियों के भी। मालती का ध्यान उधर भी लगा हुआ था। उठकर राय साहब से बीली — मेहता की पार्टी तो बुरी तरह पिट रही है।
राय साहब और खन्ना में इंश्योरेंस की बातें हो रही थीं। राय साहब उस प्रसंग से ऊबे हुए मालूम होते थे। मालती ने मानो उन्हें एक बन्धन से मुक्त कर दिया। उठकर बोले — जी हाँ, पिट तो रही है। मिरज़ा पक्का खिलाड़ी है।
‘ मेहता को यह क्या सनक सूझी। व्यर्थ अपनी भद्द करा रहे हैं। ‘
‘ इसमें काहे की भद्द? दिल्लगी ही तो है। ‘
‘ मेहता की तरफ़ से जो बाहर निकलता है, वही मर जाता है। ‘
एक क्षण के बाद उसने पूछा — क्या इस खेल में हाफ़ टाइम नहीं होता?
खन्ना को शरारत सूझी। बोले — आप चले थे मिरज़ा से मुकाबला करने। समझते थे, यह भी फ़िलासफ़ी है।
‘ मैं पूछती हूँ, इस खेल में हाफ़ टाइम नहीं होता? ‘
खन्ना ने फिर चिढ़ाया — अब खेल ही ख़तम हुआ जाता है। मज़ा आयेगा तब, जब मिरज़ा मेहता को दबोचकर रगड़ेंगे और मेहता साहब ‘ चीं ‘ बोलेंगे।
‘ मैं तुमसे नहीं पूछती। राय साहब से पूछती हूँ। ‘
राय साहब बोले — इस खेल में हाफ़ टाइम! एक ही एक आदमी तो सामने आता है।
‘ अच्छा, मेहता का एक आदमी और मर गया। ‘
खन्ना बोले — आप देखती रहिए! इसी तरह सब मर जायँगे और आख़िर में मेहता साहब भी मरेंगे। मालती जल गयी — आपकी हिम्मत न पड़ी बाहर निकलने की।
‘ मैं गँवारों के खेल नहीं खेलता। मेरे लिए टेनिस है। ‘
‘ टेनिस में भी मैं तुम्हें सैकड़ों गेम दे चुकी हूँ। ‘
‘ आपसे जीतने का दावा ही कब है? ‘
‘ अगर दावा हो, तो मैं तैयार हूँ। ‘
मालती उन्हें फटकार बताकर फिर अपनी जगह पर आ बैठी। किसी को मेहता से हमदर्दी नहीं है। कोई यह नहीं कहता कि अब खेल ख़त्म कर दिया जाय। मेहता भी अजीब बुद्धू आदमी हैं, कुछ धाँधली क्यों नहीं कर बैठते। यहाँ अपनी न्याय-प्रियता दिखा रहे हैं। अभी हारकर लौटेंगे, तो चारों तरफ़ से तालियाँ पड़ेंगी। अब शायद बीस आदमी उनकी तरफ़ और होंगे और लोग कितने ख़ुश हो रहे हैं। ज्यों-ज्यों अन्त समीप आता जाता था, लोग अधीर होते जाते थे और पाली की तरफ़ बढ़ते जाते थे। रस्सी का जो एक कठघरा-सा बनाया गया था, वह तोड़ दिया गया। स्वयम्रूसेवक रोकने की चेष्टा कर रहे थे; पर उस उत्सुकता के उन्माद में उनकी एक न चलती थी। यहाँ तक कि ज्वार अन्तिम बिन्दु तक आ पहुँचा और मेहता अकेले बच गये और अब उन्हें गूँगे का पाटर् खेलना पड़ेगा। अब सारा दारमदार उन्हीं पर है; अगर वह बचकर अपनी पाली में लौट आते हैं, तो उनका पक्ष बचता है। नहीं, हार का सारा अपमान और लज्जा लिए हुए उन्हें लौटना पड़ता है, वह दूसरे पक्ष के जितने आदमियों को छूकर अपनी पाली में आयँगे वह सब मर जायँगे और उतने ही आदमी उनकी तरफ़ जी उठेंगे। सबकी आँखें मेहता की ओर लगी हुई थीं। वह मेहता चले। जनता ने चारों ओर से आकर पाली को घेर लिया। तन्मयता अपनी पराकाष्ठा पर थी। मेहता कितने शान्त भाव से शत्रुओं की ओर जा रहे हैं। उनकी प्रत्येक गति जनता पर प्रतिबििम्बत हो जाती है, किसी की गर्दन टेढ़ी हुई जाती है, कोई आगे को झुक पड़ता है। वातावरण गर्म हो गया। पारा ज्वाला-बिन्दु पर आ पहुँचा है। मेहता शत्रु-दल में घुसे। दल पीछे हटता जाता है। उनका संगठन इतना दृढ़ है कि मेहता की पकड़ या स्पर्श में कोई नहीं आ रहा है। बहुतों को जो आशा थी कि मेहता कम-से-कम अपने पक्ष के दस-पाँच आदमियों को तो जिला ही लेंगे, वे निराश होते जा रहे हैं। सहसा मिरज़ा एक छलाँग मारते हैं और मेहता की कमर पकड़ लेते हैं। मेहता अपने को छुड़ाने के लिए ज़ोर मार रहे हैं। मिरज़ा को पाली की तरफ़ खींचे लिये आ रहे है। लोग उन्मत्त हो जाते है। अब इसका पता चलना मुश्किल है कि कौन खिलाड़ी है कौन तमाशाई। सब एक गडमड हो गये हैं। मिरज़ा और मेहता में मल्लयुद्ध हो रहा है। मिरज़ा के कई बुड्ढे मेहता की तरफ़ लपके और उनसे लिपट गये। मेहता ज़मीन पर चुपचाप पड़े हुए हैं; अगर वह किसी तरह खींच-खाँचकर दो हाथ और ले जायँ, तो उनके पचासों आदमी जी उठते हैं, मगर वह एक इंच भी नहीं खिसक सकते। मिरज़ा उनकी गर्दन पर बैठे हुए हैं। मेहता का मुख लाल हो रहा है। आँखें बीरबहूटी बनी हुई हैं। पसीना टपक रहा है, और मिरज़ा अपने स्थूल शरीर का भार लिये उनकी पीठ पर हुमच रहे हैं।
मालती ने समीप जाकर उत्तेजित स्वर में कहा — मिरज़ा खुर्शेद, यह फ़ेयर नहीं है। बाज़ी ड्रॉ रही।
खुर्शेद ने मेहता की गर्दन पर एक घस्सा लगाकर कहा — जब तक यह ‘ चीं ‘ न बोलेंगे, मैं हरगिज़ न छोड़ूँगा। क्यों नहीं ‘ चीं ‘ बोलते?
मालती और आगे बढ़ी — ‘ चीं ‘ बुलाने के लिए आप इतनी ज़बरदस्ती नहीं कर सकते।
मिरज़ा ने मेहता की पीठ पर हुमचकर कहा — बेशक कर सकता हूँ। आप इनसे कह दें, ‘ चीं ‘ बोलें, मैं अभी उठा जाता हूँ।
मेहता ने एक बार फिर उठने की चेष्टा की; पर मिरज़ा ने उनकी गर्दन दबा दी।
मालती ने उनका हाथ पकड़कर घसीटने कोशिश करके कहा — यह खेल नहीं, अदावत है।
‘ अदावत ही सही। ‘
‘ आप न छोड़ेंगे? ‘
उसी वक़्त जैसे कोई भूकम्प आ गया। मिरज़ा साहब ज़मीन पर पड़े हुए थे और मेहता दौड़े हुए पाली की ओर भागे जा रहे थे और हज़ारों आदमी पागलों की तरह टोपियाँ और पगड़ियाँ और छड़ियाँ उछाल रहे थे। कैसे यह काया पलट हुई, कोई समझ न सका। मिरज़ा ने मेहता को गोद में उठा लिया और लिये हुए शामियाने तक आये। प्रत्येक मुख पर यह शब्द थे — डाक्टर साहब ने बाज़ी मार ली। और प्रत्येक आदमी इस हारी हुई बाज़ी के एकबारगी पलट जाने पर विस्मित था। सभी मेहता के जीवट और धैर्य का बखान कर रहे थे। मज़दूरों के लिए पहले से नारंगियाँ मँगा ली गयी थीं। उन्हें एक-एक नारंगी देकर विदा किया गया। शामियाने में मेहमानों के चाय-पानी का आयोजन था। मेहता और मिरज़ा एक ही मेज़ पर आमने-सामने बैठे। मालती मेहता के बग़ल में बैठी। मेहता ने कहा — मुझे आज एक नया अनुभव हुआ। महिला की सहानुभूति हार को जीत बना सकती है।
मिरज़ा ने मालती की ओर देखा — अच्छा! यह बात थी! जभी तो मुझे हैरत हो रही थी कि आप एकाएक कैसे ऊपर आ गये।
मालती शर्म से लाल हुई जाती थी। बोली — आप बड़े बेमुरौवत आदमी हैं मिरज़ाजी! मुझे आज मालूम हुआ।
‘ कुसूर इनका था। यह क्यों ‘ चीं ‘ नहीं बोलते थे? ‘
‘ मैं तो ‘ चीं ‘ न बोलता, चाहे आप मेरी जान ही ले लेते। ‘
कुछ देर मित्रों में गप-शप होती रही। फिर धन्यवाद के और मुबारकवाद के भाषण हुए और मेहमान लोग बिदा हुए। मालती को भी एक विजिट करनी थी। वह भी चली गयी। केवल मेहता और मिरज़ा रह गये। उन्हें अभी स्नान करना था। मिट्टी में सने हुए थे। कपड़े कैसे पहनते। गोबर पानी खींच लाया और दोनों दोस्त नहाने लगे। मिरज़ा ने पूछा — शादी कब तक होगी?
मेहता ने अचम्भे में आकर पूछा — किसकी?
‘ आपकी।
‘ मेरी शादी! किसके साथ हो रही है?
‘ वाह! आप तो ऐसा उड़ रहे हैं, गोया यह भी छिपा की बात है। ‘
‘ नहीं-नहीं, मैं सच कहता हूँ, मुझे बिलकुल ख़बर नहीं है। क्या मेरी शादी होने जा रही है? ‘
‘ और आप क्या समझते हैं, मिस मालती आप की कम्पेनियन बनकर रहेंगी? ‘
मेहता गम्भीर भाव से बोले — आपका ख़याल बिलकुल ग़लत है। मिरज़ाजी! मिस मालती हसीन हैं, ख़ुशमिज़ाज हैं, समझदार हैं, रोशन ख़याल हैं और भी उनमें कितनी ख़ूबियाँ हैं। लेकिन मैं अपनी जीवन-संगिनी में जो बात देखना चाहता हूँ, वह उनमें नहीं है और न शायद हो सकती है। मेरे ज़ेहन में औरत वफ़ा और त्याग की मूतिर् है, जो अपनी बेज़बानी से, अपनी क़ुबार्नी से, अपने को बिलकुल मिटाकर पति की आत्मा का एक अंश बन जाती है। देह पुरुष की रहती है, पर आत्मा स्त्री की होती है। आप कहेंगे, मर्द अपने को क्यों नहीं मिटाता? औरत ही से क्यों इसकी आशा करता है? मर्द में वह सामथ्र्य ही नहीं है। वह अपने को मिटायेगा, तो शून्य हो जायगा। वह किसी खोह में जा बैठेगा और सवार्त्मा में मिल जाने का स्वप्न देखेगा। वह तेजप्रधान जीव है, और अहंकार में यह समझकर कि वह ज्नान का पुतला है सीधा ईश्वर में लीन होने की कल्पना किया करता है। स्त्री पृथ्वी की भाँति धैर्यवान् है, शान्ति-सम्पन्न है, सहिष्णु है। पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं, तो वह महात्मा बन जाता है। नारी में पुरुष के गुण आ जाते हैं तो वह कुलटा हो जाती है। पुरुष आकषिर्त होता है स्त्री की ओर, जो सवांश में स्त्री हो। मालती ने अभी तक मुझे आकर्षित नहीं किया। मैं आपसे किन शब्दों में कहूँ कि स्त्री मेरी नज़रों में क्या है? संसार में जो कुछ सुन्दर है, उसी की प्रतिमा को मैं स्त्री कहता हूँ; मैं उससे यह आशा रखता हूँ कि मैं उसे मार ही डालूँ तो भी प्रतिहिंसा का भाव उसमें न आये, अगर मैं उसकी आँखों के सामने किसी स्त्री को प्यार करूँ, तो भी उसकी ईर्ष्या न जागे। ऐसी नारी पाकर मैं उसके चरणों में गिर पड़ूँगा और उसपर अपने को अर्पण कर दूँगा।
मिरज़ा ने सिर हिलाकर कहा — ऐसी औरत आपको इस दुनिया में तो शायद ही मिले।
मेहता ने हाथ मारकर कहा — एक नहीं हज़ारों; वरना दुनिया वीरान हो जाती।
‘ ऐसी ही एक मिसाल दीजिए। ‘
‘ मिसेज़ खन्ना को ही ले लीजिए। ‘
‘ लेकिन खन्ना! ‘
‘ खन्ना अभागे हैं, जो हीरा पाकर काँच का टुकड़ा समझ रहे हैं। सोचिए, कितना त्याग है और उसके साथ ही कितना प्रेम है। खन्ना के रूपासक्त मन में शायद उसके लिए रत्ती-भर भी स्थान नहीं है; लेकिन आज खन्ना पर कोई आफ़त आ जाय तो वह अपने को उनपर न्योछावर कर देगी। खन्ना आज अन्धे या कोढ़ी हो जायँ, तो भी उसकी वफ़ादारी में फ़र्क़ न आयेगा। अभी खन्ना उसकी क़द्र नहीं कर सकते हैं, मगर आप देखेंगे, एक दिन यही खन्ना उसके चरण धो-धोकर पियेंगे। मैं ऐसी बीबी नहीं चाहता, जिससे मैं ऐंस्टीन के सिद्धान्त पर बहस कर सकूँ, या जो मेरी रचनाओं के प्रूफ़ देखा करे। मैं ऐसी औरत चाहता हूँ, जो मेरे जीवन को पवित्र और उज्ज्वल बना दे, अपने प्रेम और त्याग से। ‘
खुर्शेद ने दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए जैसे कोई भूली हुई बात याद करके कहा — आपका ख़याल बहुत ठीक है मिस्टर मेहता! ऐसी औरत अगर कहीं मिल जाय, तो मैं भी शादी कर लूँ, लेकिन मुझे उम्मीद नहीं है कि मिले।
मेहता ने हँसकर कहा — आप भी तलाश में रहिए, मैं भी तलाश में हूँ। शायद कभी तक़दीर जागे।
‘ मगर मिस मालती आपको छोड़नेवाली नहीं। कहिए लिख दूँ। ‘
‘ ऐसी औरतों से मैं केवल मनोरंजन कर सकता हूँ, ब्याह नहीं। ब्याह तो आत्म-समर्पण है। ‘
‘ अगर ब्याह आत्म-समर्पण है, तो प्रेम क्या है? ‘
‘ प्रेम जब आत्म-समर्पण का रूप लेता है, तभी ब्याह है; उसके पहले ऐयाशी है। ‘
मेहता ने कपड़े पहने और विदा हो गये। शाम हो गयी थी। मिरज़ा ने जाकर देखा, तो गोबर अभी तक पेड़ों को सींच रहा था। मिरज़ा ने प्रसन्न होकर कहा — जाओ, अब तुम्हारी छुट्टी है। कल फिर आओगे?
गोबर ने कातर भाव से कहा — मैं कहीं नौकरी चाहता हूँ मालिक!
‘ नौकरी करना है, तो हम तुझे रख लेंगे। ‘
‘ कितना मिलेगा हुज़ूर! ‘
‘ जितना तू माँगे। ‘
‘ मैं क्या माँगूँ। आप जो चाहे दे दें। ‘
‘ हम तुम्हें पन्द्रह रुपए देंगे और ख़ूब कसकर काम लेंगे। ‘
गोबर मेहनत से नहीं डरता। उसे रुपए मिलें, तो वह आठों पहर काम करने को तैयार है। पन्द्रह रुपए मिलें, तो क्या पूछना। वह तो प्राण भी दे देगा। बोला — मेरे लिए कोठरी मिल जाय, वहीं पड़ा रहूँगा।
‘ हाँ-हाँ, जगह का इन्तज़ाम मैं कर दूँगा। इसी झोपड़ी में एक किनारे तुम भी पड़ रहना। ‘
गोबर को जैसे स्वर्ग मिल गया।

Godan / गोदान भाग 14 / प्रेमचंद / Premchand

Godan / गोदान भाग 11-15 / प्रेमचंद / Premchandहोरी की फ़सल सारी की सारी डाँड़ की भेंट हो चुकी थी। वैशाख तो किसी तरह कटा, मगर जेठ लगते-लगते घर में अनाज का एक दाना न रहा। पाँच-पाँच पेट खानेवाले और घर में अनाज नदारद। दोनों जून न मिले, एक जून तो मिलना ही चाहिए। भर-पेट न मिले, आधा पेट तो मिले। निराहार कोई कै दिन रह सकता है! उधार ले तो किससे! गाँव के सभी छोटे-बड़े महाजनों से तो मुँह चुराना पड़ता था। मजूरी भी करे, तो किसकी। जेठ में अपना ही काम ढेरों था। ऊख की सिंचाई लगी हुई थी; लेकिन ख़ाली पेट मेहनत भी कैसे हो! साँझ हो गयी थी। छोटा बच्चा रो रहा था। माँ को भोजन न मिले, तो दूध कहाँ से निकले? सोना परिस्थिति समझती थी; मगर रूपा क्या समझे! बार-बार रोटी-रोटी चिल्ला रही थी। दिन-भर तो कच्ची अमिया से जी बहला; मगर अब तो कोई ठोस चीज़ चाहिए। होरी दुलारी सहुआइन से अनाज उधार माँगने गया था; पर वह दूकान बन्द करके पैठ चली गयी थी। मँगरू साह ने केवल इनकार ही न किया, लताड़ भी दी — उधार माँगने चले हैं, तीन साल से धेला सूद नहीं दिया, उस पर उधार दिये जाओ। अब आकबत में देंगे। खोटी नीयत हो जाती है, तो यही हाल होता है। भगवान् से भी यह अनीति नहीं देखी जाती। कारकुन की डाँट पड़ी, तो कैसे चुपके से रुपए उगल दिये। मेरे रुपए, रुपए ही नहीं हैं। और मेहरिया है कि उसका मिज़ाज ही नहीं मिलता। वहाँ से रुआँसा होकर उदास बैठा था कि पुन्नी आग लेने आयी। रसोई के द्वार पर जाकर देखा तो अँधेरा पड़ा हुआ था। बोली — आज रोटी नहीं बना रही हो क्या भाभी जी? अब तो बेला हो गयी। जब से गोबर भागा था, पुन्नी और धनिया में बोलचाल हो गयी थी। होरी का एहसान भी मानने लगी थी। हीरा को अब वह गालियाँ देती थी — हत्यारा, गऊ-हत्या, करके भागा। मुँह में कालिख लगी है, घर कैसे आये? और आये भी तो घर के अन्दर पाँव न रखने दूँ। गऊ-हत्या करते इसे लाज भी न आयी। बहुत अच्छा होता, पुलिस बाँधकर ले जाती और चक्की पिसवाती! धनिया कोई बहाना न कर सकी। बोली — रोटी कहाँ से बने, घर में दाना तो है ही नहीं। तेरे महतो ने बिरादरी का पेट भर दिया, बाल-बच्चे मरें या जियें। अब बिरादरी झाँकती तक नहीं। पुन्नी की फ़सल अच्छी हुई थी, और वह स्वीकार करती थी कि यह होरी का पुरुषार्थ है। हीरा के साथ कभी इतनी बरक्कत न हुई थी। बोली — अनाज मेरे घर से क्यों नहीं मँगवा लिया? वह भी तो महतो ही की कमाई है कि किसी और की? सुख के दिन आयें, तो लड़ लेना; दुख तो साथ रोने ही से कटता है। मैं क्या ऐसी अन्धी हूँ कि आदमी का दिल नहीं पहचानती। महतो ने न सँभाला होता, तो आज मुझे कहाँ सरन मिलती। वह उलटे पाँव लौटी और सोना को भी साथ लेती गयी। एक क्षण में दो डल्ले अनाज से भरे लाकर आँगन में रख दिये। दो मन से कम जौ न था। धनिया अभी कुछ कहने न पायी थी कि वह फिर चल दी और एक क्षण में एक बड़ी-सी टोकरी अरहर की दाल से भरी हुई लाकर रख दी, और बोली — चलो, मैं आग जलाये देती हूँ। धनिया ने देखा तो जौ के ऊपर एक छोटी-सी डलिया में चार-पाँच सेर आटा भी था। आज जीवन में पहली बार वह परास्त हुई। आँखों में प्रेम और कृतज्ञता के मोती भरकर बोली — सब का सब उठा लायी कि घर में भी कुछ छोड़ा? कहीं भाग जाता था? आँगन में बच्चा खटोले पर पड़ा रो रहा था। पुनिया उसे गोद में लेकर दुलराती हुई बोली — तुम्हारी दया से अभी बहुत है भाभीजी! पन्द्रह मन तो जौ हुआ है और दस मन गेहूँ। पाँच मन मटर हुआ, तुमसे क्या छिपाना है। दोनों घरों का काम चल जायगा। दो-तीन महीने में फिर मकई हो जायगी। आगे भगवान् मालिक है। झुनिया ने आकर अंचल से छोटी सास के चरण छुए। पुनिया ने असीस दिया। सोना आग जलाने चली, रूपा ने पानी के लिए कलसा उठाया। रुकी हुई गाड़ी चल निकली। जल में अवरोध के कारण जो चक्कर था, फेन था, शोर था, गति की तीव्रता थी, वह अवरोध के हट जाने से शान्त मधुर-ध्वनि के साथ सम, धीमी, एक-रस धार में बहने लगी। पुनिया बोली — महतो को डाँड़ देने की ऐसी जल्दी क्या पड़ी थी? धनिया ने कहा — बिरादरी में सुरख़रू कैसे होते।
‘ भाभी, बुरा न मानो, तो एक बात कहूँ? ‘
‘ कह, बुरा क्यों मानूँगी? ‘
‘ न कहूँगी, कहीं तुम बिगड़ने न लगो? ‘
‘ कहती हूँ, कुछ न बोलूँगी, कह तो। ‘
‘ तुम्हें झुनिया को घर में रखना न चाहिये था। ‘
‘ तब क्या करती? वह डूबी मरती थी। ‘
‘ मेरे घर में रख देती। तब तो कोई कुछ न कहता। ‘
‘ यह तो तू आज कहती है। उस दिन भेज देती, तो झाड़ू लेकर दौड़ती! ‘
‘ इतने ख़रच में तो गोबर का ब्याह हो जाता। ‘
‘ होनहार को कौन टाल सकता है पगली! अभी इतने ही से गला नहीं छूटा भोला अब अपनी गाय के दाम माँग रहा है। तब तो गाय दी थी कि मेरी सगाई कहीं ठीक कर दो। अब कहता है, मुझे सगाई नहीं करनी, मेरे रुपए दे दो। उसके दोनों बेटे लाठी लिये फिरते हैं। हमारे कौन बैठा है, जो उससे लड़े! इस सत्यानासी गाय ने आकर चौपट कर दिया। ‘
कुछ और बातें करके पुनिया आग लेकर चली गयी। होरी सब कुछ देख रहा था। भीतर आकर बोला — पुनिया दिल की साफ़ है।
‘ हीरा भी तो दिल का साफ़ था? ‘
धनिया ने अनाज तो रख लिया था; पर मन में लज्जित और अपमानित हो रही थी। यह दिनों का फेर है कि आज उसे यह नीचा देखना पड़ा।
‘ तू किसी का औसान नहीं मानती, यही तुझमें बुराई है। ‘
‘ औसान क्यों मानूँ? मेरा आदमी उसकी गिरस्ती के पीछे जान नहीं दे रहा है? फिर मैंने दान थोड़े ही लिया है। उसका एक-एक दाना भर दूँगी। ‘
मगर पुनिया अपनी जिठानी के मनोभाव समझकर भी होरी का एहसान चुकाती जाती थी। जब यहाँ अनाज चुक जाता, मन दो मन दे जाती; मगर जब चौमासा आ गया और वर्षा न हुई, तो समस्या अत्यन्त जटिल हो गयी। सावन का महीना आ गया था और बगूले उठ रहे थे। कुओं का पानी भी सूख गया था और ऊख ताप से जली जा रही थी। नदी से थोड़ा-थोड़ा पानी मिलता था; मगर उसके पीछे आये दिन लाठियाँ निकलती थीं। यहाँ तक कि नदी ने भी जवाब दे दिया। जगह-जगह चोरियाँ होने लगीं, डाके पड़ने लगे। सारे प्रान्त में हाहाकार मच गया। बारे कुशल हुई कि भादों में वषार् हो गयी और किसानों के प्राण हरे हुए। कितना उछाह था उस दिन! प्यासी पृथ्वी जैसे अघाती ही न थी और प्यासे किसान ऐसे उछल रहे थे मानो पानी नहीं, अशफ़िर्याँ बरस रही हों। बटोर लो, जितना बटोरते बने। खेतों में जहाँ बगूले उठते थे, वहाँ हल चलने लगे। बालवृन्द निकल-निकलकर तालाबों और पोखरों और गड़हियों का मुआयना कर रहे थे। ओहो! तालाब तो आधा भर गया, और वहाँ से गड़हिया की तरफ़ दौड़े। मगर अब कितना ही पानी बरसे, ऊख तो बिदा हो गयी। एक-एक हाथ ही होके रह जायगी, मक्का और जुआर और कोदो से लगान थोड़े ही चुकेगा, महाजन का पेट थोड़े ही भरा जायगा। हाँ, गौओं के लिए चारा हो गया और आदमी जी गया। जब माघ बीत गया और भोला के रुपए न मिले, तो एक दिन वह झल्लाया हुआ होरी के घर आ धमका और बोला — यही है तुम्हारा क़ौल? इसी मुँह से तुमने ऊख पेरकर मेरे रुपए देने का वादा किया था? अब तो ऊख पेर चुके। लाओ रुपए मेरे हाथ में! होरी जब अपनी विपित्त सुनाकर और सब तरह चिरौरी करके हार गया और भोला द्वार से न हटा, तो उसने झुँझलाकर कहा — तो महतो, इस बखत तो मेरे पास रुपए नहीं हैं और न मुझे कहीं उधार ही मिल सकते हैं। मैं कहाँ से लाऊँ? दाने-दाने की तंगी हो रही है। बिस्वास न हो, घर में आकर देख लो। जो कुछ मिले, उठा ले जाओ। भोला ने निर्मम भाव से कहा — मैं तुम्हारे घर में क्यों तलासी लेने जाऊँ और न मुझे इससे मतलब है कि तुम्हारे पास रुपये हैं या नहीं। तुमने ऊख पेरकर रुपये देने को कहा था। ऊख पेर चुके। अब मेरे रुपए मेरे हवाले करो।
‘ तो फिर जो कहो, वह करूँ? ‘
‘ मैं क्या कहूँ? ‘
‘ मैं तुम्हीं पर छोड़ता हूँ। ‘
‘ मैं तुम्हारे दोनों बैल खोल ले जाऊँगा। ‘
होरी ने उसकी ओर विस्मय-भरी आँखों से देखा, मानो अपने कानों पर विश्वास न आया हो। फिर हतबुद्धि-सा सिर झुकाकर रह गया। भोला क्या उसे भिखारी बनाकर छोड़ देना चाहते हैं? दोनों बैल चले गये, तब तो उसके दोनों हाथ ही कट जायँगे। दीन स्वर में बोला — दोनों बैल ले लोगे, तो मेरा सर्वनाश हो जायगा। अगर तुम्हारा धरम यही कहता है, तो खोल ले जाओ।
‘ तुम्हारे बनने-बिगड़ने की मुझे परवा नहीं है। मुझे अपने रुपए चाहिए। ‘
‘ और जो मैं कह दूँ, मैंने रुपए दे दिये? ‘
भोला सन्नाटे में आ गया। उसे अपने कानों पर विश्वास न आया। होरी इतनी बड़ी बेईमानी कर सकता है, यह सम्भव नहीं। उग्र होकर बोला — अगर तुम हाथ में गंगाजली लेकर कह दो कि मैंने रुपए दे दिये, तो सबर कर लूँ।
‘ कहने का मन तो चाहता है, मरता क्या न करता; लेकिन कहूँगा नहीं। ‘
‘ तुम कह ही नहीं सकते। ‘
‘ हाँ भैया, मैं नहीं कह सकता। हँसी कर रहा था। एक क्षण तक वह दुबिधे में पड़ा रहा। फिर बोला — तुम मुझसे इतना बैर क्यों पाल रहे हो भोला भाई! झुनिया मेरे घर में आ गयी, तो मुझे कौन-सा सरग मिल गया। लड़का अलग हाथ से गया, दो सौ रुपया डाँड़ अलग भरना पड़ा। मैं तो कहीं का न रहा। और अब तुम भी मेरी जड़ खोद रहे हो। भगवान् जानते हैं, मुझे बिलकुल न मालूम था कि लौंडा क्या कर रहा है। मैं तो समझता था, गाना सुनने जाता होगा। मुझे तो उस दिन पता चला, जब आधी रात को झुनिया घर में आ गयी। उस बखत मैं घर में न रखता, तो सोचो, कहाँ जाती? किसकी होकर रहती? झुनिया बरौठे के द्वार पर छिपी खड़ी यह बातें सुन रही थी। बाप को अब वह बाप नहीं, शत्रु समझती थीं। डरी, कहीं होरी बैलों को दे न दें। जाकर रूपा से बोली — अम्माँ को जल्दी से बुला ला। कहना, बड़ा काम है, बिलम न करो। धनिया खेत में गोबर फेंकने गयी थी, बहू का सन्देश सुना, तो आकर बोली — काहे को बुलाया बहू, मैं तो घबड़ा गयी।
‘ काका को तुमने देखा है न? ‘
‘ हाँ देखा, क़साई की तरह द्वार पर बैठा हुआ है। मैं तो बोली भी नहीं। ‘
‘ हमारे दोनों बैल माँग रहे हैं, दादा से। ‘ धनिया के पेट की आँतें भीतर सिमट गयीं। दोनों बैल माँग रहे हैं? ‘
‘ हाँ, कहते हैं या तो हमारे रुपए दो, या हम दोनों बैल खोल ले जायँगे। ‘
‘ तेरे दादा ने क्या कहा? ‘ ‘ उन्होंने कहा, तुम्हारा धरम कहता हो, तो खोल ले जाओ। ‘
‘ तो खोल ले जाय; लेकिन इसी द्वार पर आकर भीख न माँगे, तो मेरे नाम पर थूक देना। हमारे लहू से उसकी छाती जुड़ाती हो, तो जुड़ा ले। ‘
वह इसी तैश में बाहर आकर होरी से बोली — महतो दोनों बैल माँग रहे हैं, तो दे क्यों नहीं देते?
‘ उनका पेट भरे, हमारे भगवान् मालिक हैं। हमारे हाथ तो नहीं काट लेंगे? अब तक अपनी मजूरी करते थे, अब दूसरों की मजूरी करेंगे। भगवान् की मरज़ी होगी, तो फिर बैल-बधिये हो जायँगे, और मजूरी ही करते रहे, तो कौन बुराई है। बूड़ेसूखे और जोत-लगान का बोझ तो न रहेगा। मैं न जानती थी, यह हमारे वैरी हैं, नहीं गाय लेकर अपने सिर पर विपित्त क्यों लेती! उस निगोड़ी का पौरा जिस दिन से आया, घर तहस-नहस हो गया। भोला ने अब तक जिस शस्त्र को छिपा रखा था, अब उसे निकालने का अवसर आ गया। उसे विश्वास हो गया बैलों के सिवा इन सबों के पास कोई अवलम्ब नहीं है। बैलों को बचाने के लिए ये लोग सब कुछ करने को तैयार हो जायँगे। अच्छे निशानेबाज़ की तरह मन को साधकर बोला — अगर तुम चाहते हो कि हमारी बेइज़्ज़ती हो और तुम चैन से बैठो, तो यह न होगा। तुम अपने दो सौ को रोते हो। यहाँ लाख रुपए की आबरू बिगड़ गयी। तुम्हारी कुशल इसी में है कि जैसे झुनिया को घर में रखा था, वैसे ही घर से उसे निकाल दो, फिर न हम बैल माँगेंगे, न गाय का दाम माँगेंगे। उसने हमारी नाक कटवाई है, तो मैं भी उसे ठोकरें खाते देखना चाहता हूँ। वह यहाँ रानी बनी बैठी रहे, और हम मुँह में कालिख लगाये उसके नाम को रोते रहें, यह नहीं देख सकता। वह मेरी बेटी है, मैंने उसे गोद में खिलाया है, और भगवान् साखी है, मैंने उसे कभी बेटों से कम नहीं समझा; लेकिन आज उसे भीख माँगते और घूर पर दाने चुनते देखकर मेरी छाती सीतल हो जायगी। जब बाप होकर मैंने अपना हिरदा इतना कठोर बना लिया है, तब सोचो, मेरे दिल पर कितनी बड़ी चोट लगी होगी। इस मुँहजली ने सात पुस्त का नाम डुबा दिया। और तुम उसे घर में रखे हुए हो, यह मेरी छाती पर मूँग दलना नहीं तो और क्या है! धनिया ने जैसे पत्थर की लकीर खींचते हुए कहा — तो महतो मेरी भी सुन लो। जो बात तुम चाहते हो, वह न होगी, सौ जनम न होगी। झुनिया हमारी जान के साथ है। तुम बैल ही तो ले जाने को कहते हो, ले जाओ; अगर इससे तुम्हारी कटी हुई नाक जुड़ती हो, तो जोड़ लो; पुरखों की आबरू बचती हो, तो बचा लो। झुनिया से बुराई ज़रूर हुई। जिस दिन उसने मेरे घर में पाँव रखा, मैं झाड़ू लेकर मारने उठी थी; लेकिन जब उसकी आँखों से झर-झर आँसू बहने लगे, तो मुझे उस पर दया आ गयी। तुम अब बूढ़े हो गये महतो! पर आज भी तुम्हें सगाई की धुन सवार है। फिर वह तो अभी बच्चा है। भोला ने अपील भरी आँखों से होरी को देखा — सुनते हो होरी इसकी बातें! अब मेरा दोस नहीं। मैं बिना बैल लिये न जाऊँगा।
होरी ने दृढ़ता से कहा — ले जाओ।
‘ फिर रोना मत कि मेरे बैल खोल ले गये! ‘
‘ नहीं रोऊँगा। ‘
भोला बैलों की पगहिया खोल ही रहा था कि झुनिया चकतियोंदार साड़ी पहने, बच्चे को गोद में लिये, बाहर निकल आयी और किम्पत स्वर में बोली — काका, लो मैं इस घर से निकल जाती हूँ और जैसी तुम्हारी मनोकामना है, उसी तरह भीख माँगकर अपना और बच्चे का पेट पालूँगी, और जब भीख भी न मिलेगी, तो कहीं डूब मरूँगी।
भोला खिसियाकर बोला — दूर हो मेरे सामने से। भगवान् न करे मुझे फिर तेरा मुँह देखना पड़े। कुलिच्छनी, कुल-कलंकिनी कहीं की। अब तेरे लिए डूब मरना ही उचित है। झुनिया ने उसकी ओर ताका भी नहीं। उसमें वह क्रोध था, जो अपने को खा जाना चाहता है, जिसमें हिंसा नहीं, आत्मसमर्पण है। धरती इस वक़्त मुँह खोलकर उसे निगल लेती, तो वह कितना धन्य मानती! उसने आगे क़दम उठाया। लेकिन वह दो क़दम भी न गयी थी कि धनिया ने दौड़कर उसे पकड़ लिया और हिंसा-भरे स्नेह से बोली — तू कहाँ जाती है बहू, चल घर में। यह तेरा घर है, हमारे जीते भी और हमारे मरने के पीछे भी। डूब मरे वह, जिसे अपनी सन्तान से बैर हो। इस भले आदमी को मुँह से ऐसी बात कहते लाज नहीं आती। मुझ पर धौंस जमाता है नीच! ले जा, बैलों का रकत पी …
झुनिया रोती हुई बोली — अम्माँ, जब अपना बाप होके मुझे धिक्कार रहा है, तो मुझे डूब ही मरने दो। मुझ अभागिनी के कारन तो तुम्हें दुःख ही मिला। जब से आयी, तुम्हारा घर मिट्टी में मिल गया। तुमने इतने दिन मुझे जिस परेम से रखा, माँ भी न रखती। भगवान् मुझे फिर जनम दें; तो तुम्हारी कोख से दें, यही मेरी अभिलाषा है।
धनिया उसको अपनी ओर खींचती हुई बोली — वह तेरा बाप नहीं है, तेरा बैरी हैं; हत्यारा। माँ होती, तो अलबत्ते उसे कलक होता। ला सगाई। मेहरिया जूतों से न पीटे, तो कहना! झुनिया सास के पीछे-पीछे घर में चली गयी। उधर भोला ने जाकर दोनों बैलों को खूँटों से खोला और हाँकता हुआ घर चला, जैसे किसी नेवते में जाकर पूरियों के बदले जूते पड़े हों — अब करो खेती और बजाओ बंसी। मेरा अपमान करना चाहते हैं सब, न जाने कब का बैर निकाल रहे हैं, नहीं, ऐसी लड़की को कौन भला आदमी अपने घर में रखेगा। सब के सब बेसरम हो गये हैं। लौंडे का कहीं ब्याह न होता था इसी से। और इस राँड़ झुनिया की ढिठाई देखो कि आकर मेरे सामने खड़ी हो गयी। दूसरी लड़की होती, तो मुँह न दिखाती। आँख का पानी मर गया है। सब के सब दुष्ट और मूरख भी हैं। समझते हैं, झुनिया अब हमारी हो गयी। यह नहीं समझते जो अपने बाप के घर न रही, वह किसी के घर नहीं रहेगी। समय ख़राब है, नहीं बीच बाज़ार में इस चुड़ैल धनिया के झोंटे पकड़कर घसीटता। मुझे कितनी गालियाँ देती थी। फिर उसने दोनों बैलों को देखा, कितने तैयार हैं। अच्छी जोड़ी है। जहाँ चाहूँ, सौ रुपए में बेच सकता हूँ। मेरे अस्सी रुपए खरे हो जायँगे। अभी वह गाँव के बाहर भी न निकला था कि पीछे से दातादीन, पटेश्वरी, शोभा और दस-बीस आदमी और दौड़े आते दिखायी दिये। भोला का लहू सर्द हो गया। अब फ़ौजदरी हुई; बैल भी छिन जायँगे, मार भी पड़ेगी। वह रुक गया कमर कसकर। मरना ही है तो लड़कर मरेगा। दातादीन ने समीप आकर कहा — यह तुमने क्या अनर्थ किया भोला ऐं! उसके बैल खोल लाये, वह कुछ बोला नहीं, इसीसे सेर हो गये। सब लोग अपने-अपने काम में लगे थे, किसी को ख़बर भी न हुई। होरी ने ज़रा-सा इशारा कर दिया होता, तो तुम्हारा एक-एक बाल चुन जाता। भला चाहते हो, तो ले चलो बैल, ज़रा भी भलमंसी नहीं है तुममें।
पटेश्वरी बोले — यह उसके सीधेपन का फल है। तुम्हारे रुपये उस पर आते हैं, तो जाकर दिवानी में दावा करो, डिग्री कराओ। बैल खोल लाने का तुम्हें क्या अख़्तियार है? अभी फ़ौजदारी में दावा कर दे तो बँधे-बँधे फिरो।
भोला ने दबकर कहा — तो लाला साहब, हम कुछ ज़बरदस्ती थोड़े ही खोल लाये। होरी ने ख़ुद दिये।
पटेश्वरी ने शोभा से कहा — तुम बैलों को लौटा दो शोभा। किसान अपने बैल ख़ुशी से देगा, तो इन्हें हल में जोतेगा। भोला बैलों के सामने खड़ा हो गया। हमारे रुपए दिलवा दो हमें बैलों को लेकर क्या करना है। हम बैल लिये जाते हैं, अपने रुपए के लिए दावा करो और नहीं तो मारकर गिरा दिये जाओगे। रुपए दिये थे नगद तुमने? एक कुलिच्छनी गाय बेचारे के सिर मढ़ दी और अब उसके बैल खोले लिये जाते हो। ‘
भोला बैलों के सामने से न हटा। खड़ा रहा गुमसुम, दृढ़, मानो मारकर ही हटेगा। पटवारी से दलील करके वह कैसे पेश पाता? दातादीन ने एक क़दम आगे बढ़कर अपनी झुकी कमर को सीधा करके ललकारा — तुम सब खड़े ताकते क्या हो, मार के भगा दो इसको। हमारे गाँव से बैल खोल ले जाएगा।
बंशी बलिष्ठ युवक था। उसने भोला को ज़ोर से धक्का दिया। भोला सँभल न सका, गिर पड़ा। उठना चाहता था कि बंशी ने फिर एक घूँसा दिया। होरी दौड़ता हुआ आ रहा था। भोला ने उसकी ओर दस क़दम बढ़कर पूछा — ईमान से कहना होरी महतो, मैंने बैल ज़बरदस्ती खोल लिये?
दातादीन ने इसका भावार्थ किया — यह कहते हैं कि होरी ने अपने ख़ुशी से बैल मुझे दे दिये। हमी को उल्लू बनाते हैं। होरी ने सकुचाते हुए कहा — यह मुझसे कहने लगे या तो झुनिया को घर से निकाल दो, या मेरे रुपए दो, नहीं तो मैं बैल खोल ले जाऊँगा। मैंने कहा, मैं बहु को तो न निकालूँगा, न मेरे पास रुपए हैं; अगर तुम्हारा धरम कहे, तो बैल खोल लो। बस, मैंने इनके धरम पर छोड़ दिया और इन्होंने बैल खोल लिये।
पटेश्वरी ने मुँह लटकाकर कहा — जब तुमने धरम पर छोड़ दिया, तब कोई की ज़बरदस्ती। उसके धरम ने कहा, लिये जाता है। जाओ भैया, बैल तुम्हारे हैं।
दातादीन ने समर्थन किया — हाँ, जब धरम की बात आ गयी, तो कोई क्या कहे। सब के सब होरी को तिरस्कार की आँखों से देखते परास्त होकर लौट पड़े और विजयी भोला शान से गर्दन उठाये बैलों को ले चला।

Godan / गोदान भाग 15 / प्रेमचंद / Premchand

Godan / गोदान भाग 11-15 / प्रेमचंद / Premchandमालती बाहर से तितली है, भीतर से मधुमक्खी। उसके जीवन में हँसी ही हँसी नहीं है, केवल गुड़ खाकर कौन जी सकता है! और जिये भी तो वह कोई सुखी जीवन न होगा। वह हँसती है, इसलिए कि उसे इसके भी दाम मिलते हैं। उसका चहकना और चमकना, इसलिए नहीं है कि वह चहकने को ही जीवन समझती है, या उसने निजत्व को अपनी आँखों में इतना बढ़ा लिया है कि जो कुछ करे, अपने ही लिए करे। नहीं, वह क्योंकि चहकती है और विनोद करती है कि इससे उसके कर्तव्य का भार कुछ हलका हो जाता है। उसके बाप उन विचित्र जीवों में थे, जो केवल ज़बान की मदद से लाखों के वारे-न्यारे करते थे। बड़े-बड़े ज़मींदारों और रईसों की जायदादें बिकवाना, उन्हें क़रज़ दिलाना या उनके मुआमलों को अफ़सरों से मिलकर तय करा देना, यही उनका व्यवसाय था। दूसरे शब्दों में, दलाल थे। इस वर्ग के लोग बड़े प्रतिभावान होते हैं। जिस काम से कुछ मिलने की आशा हो, वह उठा लेंगे, किसी न किसी तरह उसे निभा भी देंगे। किसी राजा की शादी किसी राजकुमारी से ठीक करवा दी और दस-बीस हज़ार उसी में मार लिये। यही दलाल जब छोटे-छोटे सौदे करते हैं, तो टाउट कहे जाते हैं, और हम उनसे घृणा करते हैं। बड़े-बड़े काम करके वही टाउट राजाओं के साथ शिकार खेलता है और गवर्नरों की मेज़ पर चाय पीता है। मिस्टर कौल उन्हीं भाग्यवानों में से थे। उनके तीन लड़कियाँ ही लड़कियाँ थीं। उनका विचार था कि तीनों को इंगलैंड भेजकर शिक्षा के शिखर पर पहुँचा दें। अन्य बहुत से बड़े आदमियों की तरह उनका भी ख़याल था कि इंगलैंड में शिक्षा पाकर आदमी कुछ और हो जाता है। शायद वहाँ के जल-वायु में बुद्धि को तेज़ कर देने की कोई शक्ति है; मगर उनकी यह कामना एक-तिहाई से ज़्यादा पूरी न हुई। मालती इंगलैंड में ही थी कि उन पर फ़ालिज गिरा और बेकाम कर गया। अब बड़ी मुश्किल से दो आदमियों के सहारे उठते-बैठते थे। ज़बान तो बिलकुल बन्द ही हो गयी। और जब ज़बान ही बन्द हो गयी, तो आमदनी भी बन्द हो गयी। जो कुछ थी, ज़बान ही की कमाई थी। कुछ बचा रखने की उनकी आदत न थी। अनियमित आय थी और अनियमित ख़र्च था; इसलिए इधर कई साल से बहुत तंगहाल हो रहे थे। सारा दायित्व मालती पर आ पड़ा। मालती के चार-पाँच सौ रुपए में वह भोग-विलास और ठाट-बाट तो क्या निभता! हाँ, इतना था कि दोनों लड़कियों की शिक्षा होती जाती थी और भलेमानसों की तरह ज़िन्दगी बसर होती थी। मालती सुबह से पहर रात तक दौड़ती रहती थी। चाहती थी कि पिता सात्विकता के साथ रहें, लेकिन पिताजी को शराब-कवाब का ऐसा चस्का पड़ा था कि किसी तरह गला न छोड़ता था। कहीं से कुछ न मिलता, तो एक महाजन से अपने बँगले पर प्रोनोट लिखकर हज़ार दो हज़ार ले लेते थे। महाजन उनका पुराना मित्र था, जिसने उनकी बदौलत लेन-देन में लाखों कमाये थे, और मुरौवत के मारे कुछ बोलता न था। उसके पचीस हज़ार चढ़ चुके थे, और जब चाहता, क़ुक़ीर् करा सकता था; मगर मित्रता की लाज निभाता जाता था। आत्मसेवियों में जो निर्लज्जता आ जाती है, वह कौल में भी थी। तक़ाज़े हुआ करें, उन्हें परवा न थी। मालती उनके अपव्यय पर झुँझलाती रहती थी; लेकिन उसकी माता जो साक्षात् देवी थीं और इस युग में भी पति की सेवा को नारी-जीवन का मुख्य हेतु समझती थीं, उसे समझाती रहती थी; इसलिए गृह-युद्ध न होने पाता था। सन्ध्या हो गयी थी। हवा में अभी तक गमीर् थी। आकाश में धुन्ध छाया हुआ था। मालती और उसकी दोनों बहनें बँगले के सामने घास पर बैठी हुई थीं। पानी न पाने के कारण वहाँ की दूब जल गयी थी और भीतर की मिट्टी निकल आयी थी।
मालती ने पूछा — माली क्या बिलकुल पानी नहीं देता?
मँझली बहन सरोज ने कहा — पड़ा-पड़ा सोया करता है सूअर। जब कहो, तो बीस बहाने निकालने लगता है।
सरोज बी. ए. में पढ़ती थी, दुबली-सी, लम्बी, पीली, रूखी, कटु। उसे किसी की कोई बात पसन्द न आती थी। हमेशा ऐब निकालती रहती थी। डाक्टरों की सलाह थी कि वह कोई परिश्रम न करे, और पहाड़ पर रहे; लेकिन घर की स्थिति ऐसी न थी कि उसे पहाड़ पर भेजा जा सकता। सबसे छोटी वरदा को सरोज से इसलिये द्वेष था कि सारा घर सरोज को हाथों-हाथ लिये रहता था; वह चाहती थी जिस बीमारी में इतना स्वाद है, वह उसे ही क्यों नहीं हो जाती। गोरी-सी, गर्वशील, स्वस्थ, चंचल आँखोंवाली बालिका थी, जिसके मुख पर प्रतिभा की झलक थी। सरोज के सिवा उसे सारे संसार से सहानुभूति थी। सरोज के कथन का विरोध करना उसका स्वभाव था। बोली — दिन-भर दादाजी बाज़ार भेजते रहते हैं, फ़ुरसत ही कहाँ पाता है। मरने को छुट्टी तो मिलती नहीं, पड़ा-पड़ा सोयेगा!
सरोज ने डाँटा — दादाजी उसे कब बाज़ार भेजते हैं री, झूठी कहीं की!
‘ रोज़ भेजते हैं, रोज़। अभी तो आज ही भेजा था। कहो तो बुलाकर पुछवा दूँ? ‘
‘ पुछवायेगी, बुलाऊँ? ‘
मालती डरी। दोनों गुथ जायँगी, तो बैठना मुश्किल कर देंगी। बात बदलकर बोली — अच्छा ख़ैर, होगा। आज डाक्टर मेहता का तुम्हारे यहाँ भाषण हुआ था, सरोज?
सरोज ने नाक सिकोड़कर कहा — हाँ, हुआ तो था; लेकिन किसी ने पसन्द नहीं किया। आप फ़रमाने लगे — संसार में स्त्रियों का क्षेत्र पुरुषों से बिलकुल अलग है। स्त्रियों का पुरुषों के क्षेत्र में आना इस युग का कलंक है। सब लड़कियों ने तालियाँ और सीटियाँ बजानी शुरू कीं। बेचारे लज्जित होकर बैठ गये। कुछ अजीब-से आदमी मालूम होते हैं। आपने यहाँ तक कह डाला कि प्रेम केवल कवियों की कल्पना है। वास्तविक जीवन में इसका कहीं निशान नहीं। लेडी हुक्कू ने उनका ख़ूब मज़ाक़ उड़ाया।
मालती ने कटाक्ष किया — लेडी हुक़्क़ू ने? इस विषय में वह भी कुछ बोलने का साहस रखती हैं! तुम्हें डाक्टर साहब का भाषण आदि से अन्त तक सुनना चाहिए था। उन्होंने दिल में लड़कियों को क्या समझा होगा?
‘ पूरा भाषण सुनने का सब्र किसे था? वह तो जैसे घाव पर नमक छिड़कते थे। ‘
‘ फिर उन्हें बुलाया ही क्यों? आख़िर उन्हें औरतों से कोई वैर तो है नहीं। जिस बात को हम सत्य समझते हैं, उसी का तो प्रचार करते हैं। औरतों को ख़ुश करने के लिए वह उनकी-सी कहनेवालों में नहीं हैं और फिर अभी यह कौन जानता है कि स्त्रियाँ जिस रास्ते पर चलना चाहती हैं वही सत्य है। बहुत सम्भव है, आगे चल कर हमें अपनी धारणा बदलनी पड़े। ‘
उसने फ़्रांस, जर्मनी और इटली की महिलाओं के जीवन आदर्श बतलाये और कहा — शीघ्र ही वीमेंस लीग की ओर से मेहता का भाषण होनेवाला है। सरोज को कुतूहल हुआ।
‘ मगर आप भी तो कहती हैं कि स्त्रियों और पुरुषों के अधिकार समान होने चाहिए। ‘
‘ अब भी कहती हूँ; लेकिन दूसरे पक्षवाले क्या कहते हैं, यह भी तो सुनना चाहिए। सम्भव है; हमीं ग़लती पर हों। ‘
यह लीग इस नगर की नयी संस्था है और मालती के उद्योग से खुली है। नगर की सभी शिक्षित महिलाएँ उसमें शरीक हैं। मेहता के पहले भाषण ने महिलाओं में बड़ी हलचल मचा दी थी और लीग ने निश्चय किया था, कि उनका ख़ूब दन्दाशिकन जवाब दिया जाय। मालती ही पर यह भार डाल गया था। मालती कई दिन तक अपने पक्ष के समर्थन में युक्तियाँ और प्रमाण खोजती रही। और भी कई देवियाँ अपने भाषण लिख रही थीं। उस दिन जब मेहता शाम को लीग के हाल में पहुँचे, तो जान पड़ता था हाल फट जायगा। उन्हें गर्व हुआ। उनका भाषण सुनने के लिए इतना उत्साह! और वह उत्साह केवल मुख पर और आँखों में न था। आज सभी देवियाँ सोने और रेशम से लदी हुई थीं, मानो किसी बारात में आयी हों। मेहता को परास्त करने के लिए पूरी शक्ति से काम लिया था और यह कौन कह सकता है कि जगमगाहट शक्ति का अंग नहीं है। मालती ने तो आज के लिए नये फ़ैशन की साड़ी निकाली थी, नये काट के जम्पर बनवाये थे और रंग-रोगन और फूलों से ख़ूब सजी हुई थी, मानो उसका विवाह हो रहा हो। वीमेंस लीग में इतना समारोह और कभी न हुआ था। डाक्टर मेहता अकेले थे, फिर भी देवियों के दिल काँप रहे थे। सत्य की एक चिनगारी असत्य के एक पहाड़ को भस्म कर सकती है। सबसे पीछे की सफ़ में मिरज़ा और खन्ना और सम्पादकजी भी विराज रहे थे। राय-साहब भाषण शुरू होने के बाद आये और पीछे खड़े हो गये।
मिरज़ा ने कहा — आ जाइए आप भी, खड़े कब तक रहिएगा।
राय साहब बोले — नहीं भाई, यहाँ मेरा दम घुटने लगेगा।
‘ तो मैं खड़ा होता हूँ। आप बैठिए। ‘
राय साहब ने उनके कन्धे दबाये — तकल्लुफ़ नहीं, बैठे रहिए। मैं थक जाऊँगा, तो आपको उठा दूँगा और बैठ जाऊँगा, अच्छा मिस मालती सभानेत्री हुईं। खन्ना साहब कुछ इनाम दिलवाइए।
खन्ना ने रोनी सूरत बनाकर कहा — अब मिस्टर मेहता पर ही निगाह है। मैं तो गिर गया।
मिस्टर मेहता का भाषण शुरू हुआ — ‘ देवियो, जब मैं इस तरह आपको सम्बोधित करता हूँ, तो आपको कोई बात खटकती नहीं। आप इस सम्मान को अपना अधिकार समझती हैं; लेकिन आपने किसी महिला को पुरुषों के प्रति ‘ देवता ‘ का व्यवहार करते सुना है? उसे आप देवता कहें, तो वह समझेगा, आप उसे बना रही हैं। आपके पास दान देने के लिए दया है, श्रद्धा है, त्याग है। पुरुष के पास दान के लिए क्या है? वह देवता नहीं, लेवता है। वह अधिकार के लिए हिंसा करता है, संग्राम करता है, कलह करता है .. ‘ तालियाँ बजीं।
राय साहब ने कहा — औरतों को ख़ुश करने का इसने कितना अच्छा ढंग निकाला।
‘ बिजली ‘ सम्पादक को बुरा लगा — कोई नयी बात नहीं। मैं कितनी ही बार यह भाव व्यक्त कर चुका हूँ।
मेहता आगे बढ़े — इसलिए जब मैं देखता हूँ, हमारी उन्नत विचारोंवाली देवियाँ उस दया और श्रद्धा और त्याग के जीवन से असन्तुष्ट होकर संग्राम और कलह और हिंसा के जीवन की ओर दौड़ रही हैं और समझ रही हैं कि यही सुख का स्वर्ग है, तो मैं उन्हें बधाई नहीं दे सकता।
मिसेज़ खन्ना ने मालती की ओर सगर्व नेत्रों से देखा। मालती ने गर्दन झुका ली।
खुर्शेद बोले — अब कहिए। मेहता दिलेर आदमी है। सच्ची बात कहता है और मुँह पर।
‘ बिजली ‘ सम्पादक ने नाक सिकोड़ी — अब वह दिन लद गये, जब देवियाँ इन चकमों में आ जाती थीं। उनके अधिकार हड़पते जाओ और कहते जाओ, आप तो देवी हैं, लक्षमी हैं, माता हैं।
मेहता आगे बढ़े — स्त्री को पुरुष के रूप में, पुरुष के कर्म में, रत देखकर मुझे उसी तरह वेदना होती है, जैसे पुरुष को स्त्री के रूप में, स्त्री के कर्म करते देखकर। मुझे विश्वास है, ऐसे पुरुषों को आप अपने विश्वास और प्रेम का पात्र नहीं समझती और मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ, ऐसी स्त्री भी पुरुष के प्रेम और श्रद्धा का पात्र नहीं बन सकती।
खन्ना के चेहरे पर दिल की ख़ुशी चमक उठी। राय साहब ने चुटकी ली — आप बहुत ख़ुश हैं खन्नाजी!
खन्ना बोले — मालती मिलें, तो पूछूँ, अब कहिए।
मेहता आगे बढ़े — मैं प्राणियों के विकास में स्त्री के पद को पुरुषों के पद से श्रेष्ठ समझता हूँ, उसी तरह जैसे प्रेम और त्याग और श्रद्धा को हिंसा और संग्राम और कलह से श्रेष्ठ समझता हूँ। अगर हमारी देवियाँ सृष्टि और पालन के देव-मन्दिर से हिंसा और कलह के दानव-क्षेत्र में आना चाहती हैं, तो उससे समाज का कल्याण न होगा। मैं इस विषय में दृढ़ हूँ। पुरुष ने अपने अभिमान में अपनी दानवी कीर्ति को अधिक महत्व दिया। वह अपने भाई का स्वत्व छीनकर और उसका रक्त बहाकर समझने लगा, उसने बहुत बड़ी विजय पायी। जिन शिशुओं को देवियों ने अपने रक्त से सिरजा और पाला उन्हें बम और मशीनगन और सहस्रों टैंकों का शिकार बनाकर वह अपने को विजेता समझता है। और जब हमारी ही मातायें उसके माथे पर केसर का तिलक लगाकर और उसे अपनी असीसों का कवच पहनाकर हिंसा-क्षेत्र में भेजती हैं, तो आश्चर्य है कि पुरुष ने विनाश को ही संसार के कल्याण की वस्तु समझा और उसकी हिंसा-प्रवृत्ति दिन-दिन बढ़ती गयी और आज हम देख रहे हैं कि यह दानवता प्रचंड होकर समस्त संसार को रौंदती, प्राणियों को कुचलती, हरी-भरी खेतियों को जलाती और गुलज़ार बिस्तयों को वीरान करती चली जाती है। देवियो, मैं आप से पूछता हूँ, क्या आप इस दानवलीला में सहयोग देकर, इस संग्राम-क्षेत्र में उतरकर संसार का कल्याण करेंगी? मैं आपसे विनती करता हूँ, नाश करनेवालों को अपना काम करने दीजिए, आप अपने धर्म का पालन किये जाइए।
खन्ना बोले — मालती की तो गर्दन नहीं उठती।
राय साहब ने इन विचारों का समर्थन किया — मेहता कहते तो यथार्थ ही हैं।
‘ बिजली ‘ सम्पादक बिगड़े — मगर कोई नयी बात तो नहीं कही। नारी-आन्दोलन के विरोधी इन्हीं उट-पटाँग बातों की शरण लिया करते हैं। मैं इसे मानता ही नहीं कि त्याग और प्रेम से संसार ने उन्नति की। संसार ने उन्नति की पौरुष से, पराक्रम से, बुद्धि-बल से, तेज से।
खुर्शेद ने कहा — अच्छा, सुनने दीजिएगा या अपनी ही गाये जाइएगा?
मेहता का भाषण जारी था — देवियो, मैं उन लोगों में नहीं हूँ, जो कहते हैं, स्त्री और पुरुष में समान शक्तियाँ हैं, समान प्रवृत्तियाँ हैं, और उनमें कोई विभिन्नता नहीं है; इससे भयंकर असत्य की मैं कल्पना नहीं कर सकता। यह वह असत्य है, जो युग-युगान्तरों से संचित अनुभव को उसी तरह ढँक लेना चाहता है, जैसे बादल का एक टुकड़ा सूर्य को ढँक लेता है। मैं आपको सचेत किये देता हूँ कि आप इस जाल में न फँसें। स्त्री पुरुष से उतनी ही श्र्ोष्ठ है, जितना प्रकाश अँधेरे से। मनुष्य के लिए क्षमा और त्याग और अहिंसा जीवन के उच्चतम आदर्श हैं। नारी इस आदर्श को प्राप्त कर चुकी है। पुरुष धर्म और अध्यात्म और ऋषियों का आश्र्ाय लेकर उस लक्ष्य पर पहुँचने के लिए सदियों से ज़ोर मार रहा है; पर सफल नहीं हो सका। मैं कहता हूँ, उसका सारा अध्यात्म और योग एक तरफ़ और नारियों का त्याग एक तरफ़। तालियाँ बजीं। हाल हिल उठा। राय साहब ने गद्गद होकर कहा — मेहता वही कहते हैं, जो इनके दिल में है।
ओंकारनाथ ने टीका की — लेकिन बातें सभी पुरानी हैं, सड़ी हुईं।
‘ पुरानी बात भी आत्मबल के साथ कही जाती है, तो नयी हो जाती है। ‘ जो एक हज़ार रुपए हर महीने फटकारकर विलास में उड़ाता हो, उसमें आत्मबल जैसी वस्तु नहीं रह सकती। यह केवल पुराने विचार की नारियों और पुरुषों को प्रसन्न करने के ढंग हैं। ‘
खन्ना ने मालती की ओर देखा — यह क्यों फूली जा रही हैं? इन्हें तो शरमाना चाहिए।
खुर्शेद ने खन्ना को उकसाया — अब तुम भी एक तक़रीर कर डालो खन्ना, नहीं मेहता तुम्हें उखाड़ फेंकेगा। आधा मैदान तो उसने अभी मार लिया है।
खन्ना खिसियाकर बोले — मेरी न कहिए, मैंने ऐसी कितनी चिड़ियाँ फँसाकर छोड़ दी हैं।
राय साहब ने खुर्शेद की तरफ़ आँख मारकर कहा — आजकल आप महिला-समाज की तरफ़ आते-जाते हैं। सच कहना, कितना चन्दा दिया?
खन्ना पर झेंप छा गयी — मैं ऐसे समाजों को चन्दे नहीं दिया करता, जो कला का ढोंग रचकर दुराचार फैलाते हैं।
मेहता का भाषण जारी था — ‘ पुरुष कहता है, जितने दार्शनिक और वैज्ञानिक आविष्कारक हुए हैं, वह सब पुरुष थे। जितने बड़े-बड़े महात्मा हुए हैं, वह सब पुरुष थे। सभी योद्धा, सभी राजनीति के आचार्य, बड़े-बड़े नाविक, बड़े-बड़े सब कुछ पुरुष थे; लेकिन इन बड़ों-बड़ों के समूहों ने मिलकर किया क्या? महात्माओं और धर्म-प्रवर्तकों ने संसार में रक्त की नदियाँ बहाने और वैमनस्य की आग भड़काने के सिवा और क्या किया, योद्धाओं ने भाइयों की गरदनें काटने के सिवा और क्या यादगार छोड़ी, राजनीतिज्ञों की निशानी अब केवल लुप्त साम्राज्यों के खंडहर रह गये हैं, और आविष्कारकों ने मनुष्य को मशीन का ग़ुलाम बना देने के सिवा और क्या समस्या हल कर दी? पुरुषों की रची हुई इस संस्कृति में शान्ति कहाँ है? सहयोग कहाँ है? ओंकारनाथ उठकर जाने को हुए — विलासियों के मुँह से बड़ी-बड़ी बातें सुनकर मेरी देह भस्म हो जाती है।
खुर्शेद ने उनका हाथ पकड़कर बैठाया — आप भी सम्पादकजी निरे पोंगा ही रहे। अजी यह दुनिया है, जिसके जी में जो आता है, बकता है। कुछ लोग सुनते हैं और तालियाँ बजाते हैं। चलिए क़िस्सा ख़तम। ऐसे-ऐसे बेशुमार मेहते आयेंगे और चले जायेंगे। और दुनिया अपनी रफ़्तार से चलती रहेगी। यहाँ बिगड़ने की कौन-सी बात है?
‘ असत्य सुनकर मुझसे सहा नहीं जाता! ‘
राय साहब ने उन्हें और चढ़ाया — कुलटा के मुँह से सतियों की-सी बात सुनकर किसका जी न जलेगा!
ओंकारनाथ फिर बैठ गये। मेहता का भाषण जारी था — ‘ मैं आपसे पूछता हूँ, क्या बाज़ को चिड़ियों का शिकार करते देखकर हंस को यह शोभा देगा कि वह मानसरोवर की आनन्दमयी शान्ति को छोड़कर चिड़ियों का शिकार करने लगे? और अगर वह शिकारी बन जाय, तो आप उसे बधाई देंगी? हंस के पास उतनी तेज़ चोंच नहीं है, उतने तेज़ चंगुल नहीं हैं, उतनी तेज़ आँखें नहीं हैं, उतने तेज़ पंख नहीं हैं और उतनी तेज़ रक्त की प्यास नहीं है। उन अस्त्रों का संचय करने में उसे सदियाँ लग जायँगी, फिर भी वह बाज़ बन सकेगा या नहीं, इसमें सन्देह है; मगर बाज़ बने या न बने, वह हंस न रहेगा — वह हंस जो मोती चुगता है। ‘
खुर्शेद ने टीका की — यह तो शायरों की-सी दलीलें हैं। मादा बाज़ भी उसी तरह शिकार करती है, जैसे, नर बाज़।
ओंकारनाथ प्रसन्न हो गये — उस पर आप फ़िलासफ़र बनते हैं, इसी तर्क के बल पर!
खन्ना ने दिल का गुबार निकाला — फ़िलासफ़र की दुम हैं। फ़िलासफ़र वह है, जो …
ओंकारनाथ ने बात पूरी की — जो सत्य से जौ-भर भी न टले।
खन्ना को यह समस्या पूर्ति नहीं रुची — मैं सत्य-वत्य नहीं जानता। मैं तो फ़िलासफ़र उसे कहता हूँ, जो फ़िलासफ़र हो सच्चा!
खुर्शेद ने दाद दी — फ़िलासफ़र की आपने कितनी सच्ची तारीफ़ की है। वाह सुभानल्ला। फ़िलासफ़र वह है, जो फ़िलासफ़र हो। क्यों न हो।
मेहता आगे चले — मैं नहीं कहता, देवियों को विद्या की ज़रूरत नहीं है। है और पुरुषों से अधिक। मैं नहीं कहता, देवियों को शक्ति की ज़रूरत नहीं है। है और पुरुषों से अधिक; लेकिन वह विद्या और वह शक्ति नहीं, जिससे पुरुष ने संसार को हिंसाक्षेत्र बना डाला है। अगर वही विद्या और वही शक्ति आप भी ले लेंगी, तो संसार मरुस्थल हो जायगा। आपकी विद्या और आपका अधिकार हिंसा और विध्वंस में नहीं, सृष्टि और पालन में है। क्या आप समझती हैं, वोटों से मानव-जाति का उद्धार होगा, या दफ़्तरों में और अदालतों में ज़बान और क़लम चलाने से? इन नक़ली, अप्राकृतिक, विनाशकारी अधिकारों के लिए आप वह अधिकार छोड़ देना चाहती हैं, जो आपको प्रकृति ने दिये हैं?
सरोज अब तक बड़ी बहन के अदब से ज़ब्त किये बैठी थी। अब न रहा गया। पुकार उठी — हमें वोट चाहिए, पुरुषों के बराबर। और कई युवतियों ने हाँक लगायी — वोट! वोट! ओंकारनाथ ने खड़े होकर ऊँचे स्वर से कहा — नारीजाति के विरोधियों की पगड़ी नीची हो।
मालती ने मेज़ पर हाथ पटककर कहा — शान्त रहो, जो लोग पक्ष या विपक्ष में कुछ कहना चाहेंगे, उन्हें पूरा अवसर दिया जायगा।
मेहता बोले — वोट नये युग का मायाजाल है, मरीचिका है, कलंक है, धोखा है; उसके चक्कर में पड़कर आप न इधर की होंगी, न उधर की। कौन कहता है कि आपका क्षेत्र संकुचित है और उसमें आपको अभिव्यिक्त का अवकाश नहीं मिलता। हम सभी पहले मनुष्य हैं, पीछे और कुछ। हमारा जीवन हमारा घर है। वहीं हमारी सृष्टि होती है वहीं हमारा पालन होता है, वहीं जीवन के सारे व्यापार होते हैं; अगर वह क्षेत्र परिमित है, तो अपरिमित कौन-सा क्षेत्र है? क्या वह संघर्ष, जहाँ संगठित अपहरण है? जिस कारख़ाने में मनुष्य और उसका भाग्य बनता है, उसे छोड़कर आप उन कारखानों में जाना चाहती हैं, जहाँ मनुष्य पीसा जाता है, जहाँ उसका रक्त निकाला जाता है?
मिरज़ा ने टोका — पुरुषों के ज़ुल्म ने ही तो उनमें बगावत की यह स्पिरिट पैदा की है।
मेहता बोले — बेशक, पुरुषों ने अन्याय किया है; लेकिन उसका यह जवाब नहीं है। अन्याय को मिटाइए; लेकिन अपने को मिटाकर नहीं।
मालती बोली — नारियाँ इसलिए अधिकार चाहती हैं कि उनका सदुपयोग करें और पुरुषों को उनका दुरुपयोग करने से रोकें।
मेहता ने उत्तर दिया — संसार में सबसे बड़े अधिकार सेवा और त्याग से मिलते हैं और वह आपको मिले हुए हैं। उन अधिकारों के सामने वोट कोई चीज़ नहीं। मुझे खेद है, हमारी बहनें पश्चिम का आदर्श ले रही हैं, जहाँ नारी ने अपना पद खो दिया है और स्वामिनी से गिरकर विलास की वस्तु बन गयी है। पश्चिम की स्त्री स्वच्छन्द होना चाहती है; इसीलिए कि वह अधिक से अधिक विलास कर सके। हमारी माताओं का आदर्श कभी विलास नहीं रहा। उन्होंने केवल सेवा के अधिकार से सदैव गृहस्थी का संचालन किया है। पश्चिम में जो चीज़ें अच्छी हैं, वह उनसे लीजिए। संस्कृति में सदैव आदान-प्रदान होता आया है; लेकिन अन्धी नक़ल तो मानसिक दुर्बलता का ही लक्षण है! पश्चिम की स्त्री आज गृह-स्वामिनी नहीं रहना चाहती। भोग की विदग्ध लालसा ने उसे उच्छृखल बना दिया है। वह अपनी लज्जा और गरिमा को जो उसकी सबसे बड़ी विभूति थी, चंचलता और आमोद-प्रमोद पर होम कर रही है। जब मैं वहाँ की सुशिक्षित बालिकाओं को अपने रूप का, या भरी हुई गोल बाँहों या अपनी नग्नता का प्रदर्शन करते देखता हूँ, तो मुझे उन पर दया आती है। उनकी लालसाओं ने उन्हें इतना पराभूत कर दिया है कि वे अपनी लज्जा की भी रक्षा नहीं कर सकतीं। नारी की इससे अधिक और क्या अधोगति हो सकती है?
राय साहब ने तालियाँ बजायीं। हाल तालियों से गूँज उठा, जैसे पटाखों की टिट्टयाँ छूट रही हों।
मिरज़ा साहब ने सम्पादक जी से कहा — इसका जवाब तो आपके पास भी न होगा?
सम्पादक जी ने विरक्त मन से कहा — सारे व्याख्यान में इन्होंने यही एक बात सत्य कही है।
‘ तब तो आप भी मेहता के मुरीद हुए। ‘
‘ जी नहीं, अपने लोग किसी के मुरीद नहीं होते। मैं इसका जवाब ढूँढ़ निकालूँगा, ‘ बिजली ‘ में देखिएगा। ‘
‘ इसके माने यह है कि आप हक़ की तलाश नहीं करते, सिर्फ़ अपने पक्ष के लिए लड़ना चाहते हैं। ‘
राय साहब ने आड़े हाथों लिया — इसी पर आपको अपने सत्य-प्रेम का अभिमान है।
सम्पादकजी अविचल रहे — वकील का काम अपने मुअक्किल का हित देखना है, सत्य या असत्य का निराकरण नहीं।
‘ तो यों कहिए कि आप औरतों के वकील हैं। ‘
‘ मैं उन सभी लोगों का वकील हूँ, जो निर्बल हैं, निस्सहाय हैं, पीड़ित हैं। ‘
‘ बड़े बेहया हो यार। ‘
मेहताजी कह रहे थे — और यह पुरुषों का षडयन्त्र है। देवियों को ऊँचे शिखर से खींचकर अपने बराबर बनाने के लिए, उन पुरुषों का, जो कायर हैं, जिनमें वैवाहिक जीवन का दायित्व सँभालने की क्षमता नहीं है, जो स्वच्छन्द काम-क्रीड़ा की तरंगों में साँड़ों की भाँति दूसरों की हरी-भरी खेती में मुँह डालकर अपनी कुत्सित लालसाओं को तृप्त करना चाहते हैं। पश्चिम में इनका षडयन्त्र सफल हो गया और देवियाँ तितलियाँ बन गयीं। मुझे यह कहते हुए शर्म आती है कि इस त्याग और तपस्या की भूमि भारत में भी कुछ वही हवा चलने लगी है। विशेषकर हमारी शिक्षित बहनों पर वह जादू बड़ी तेज़ी से चढ़ रहा है। वह गृहिणी का आदर्श त्यागकर तितलियों का रंग पकड़ रही हैं।
सरोज उत्तेजित होकर बोली — हम पुरुषों से सलाह नहीं माँगतीं। अगर वह अपने बारे में स्वतन्त्र हैं, तो स्त्रियाँ भी अपने विषय में स्वतन्त्र हैं। युवतियाँ अब विवाह को पेशा नहीं बनाना चाहतीं। वह केवल प्रेम के आधार पर विवाह करेंगी।
ज़ोर से तालियाँ बजीं, विशेषकर अगली पंक्तियों में जहाँ महिलाएँ थीं।
मेहता ने जवाब दिया — जिसे तुम प्रेम कहती हो, वह धोखा है, उद्दीप्त लालसा का विकृत रूप, उसी तरह जैसे संन्यास केवल भीख माँगने का संस्कृत रूप है। वह प्रेम अगर वैवाहिक जीवन में कम है, तो मुक्त विलास में बिलकुल नहीं है। सच्चा आनन्द, सच्ची शान्ति केवल सेवा-व्रत में है। वही अधिकार का स्रोत है, वही शक्ति का उद्गम है। सेवा ही वह सीमेंट है, जो दम्पति को जीवनपर्यन्त स्नेह और साहचर्य में जोड़े रख सकता है, जिसपर बड़े-बड़े आघातों का भी कोई असर नहीं होता। जहाँ सेवा का अभाव है, वहीं विवाह-विच्छेद है, परित्याग है, अविश्वास है। और आपके ऊपर, पुरुष-जीवन की नौका का कणर्धार होने के कारण ज़िम्मेदारी ज़्यादा है। आप चाहें तो नौका को आँधी और तूफ़ानों में पार लगा सकती हैं। और आपने असावधानी की तो नौका डूब जायगी और उसके साथ आप भी डूब जायँगी।
भाषण समाप्त हो गया। विषय विवाद-ग्रस्त था और कई महिलाओं ने जवाब देने की अनुमति माँगी; मगर देर बहुत हो गयी थी। इसलिए मालती ने मेहता को धन्यवाद देकर सभा भंग कर दी। हाँ, यह सूचना दे दी गयी कि अगले रविवार को इसी विषय पर कई देवियाँ अपने विचार प्रकट करेंगी।
राय साहब ने मेहता को बधाई दी — आपने मन की बातें कहीं मिस्टर मेहता। मैं आपके एक-एक शब्द से सहमत हूँ।
मालती हँसी — आप क्यों न बधाई देंगे, चोर-चोर मौसेरे भाई जो होते हैं; न मगर यह सारा उपदेश ग़रीब नारियों ही के सिर क्यों थोपा जाता है, उन्हीं के सिर क्यों आदर्श और मयार्दा और त्याग सब कुछ पालन करने का भार पटका जाता है?
मेहता बोले — इसलिए कि वह बात समझती हैं।
खन्ना ने मालती की ओर अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से देख कर मानो उसके मन की बात समझने की चेष्टा करते हुए कहा — डाक्टर साहब के ये विचार मुझे तो कोई सौ साल पिछड़े हुए मालूम होते हैं।
मालती ने कटु होकर पूछा — कौन से विचार?
‘ यही सेवा और कर्तव्य आदि। ‘
‘ तो आपको ये विचार सौ साल पिछड़े हुए मालूम होते हैं! तो कृपा करके अपने ताज़े विचार बतलाइए। दम्पति कैसे सुखी रह सकते हैं, इसका कोई ताज़ा नुसख़ा आपके पास है? ‘
खन्ना खिसिया गये। बात कही मालती को ख़ुश करने के लिए, वह और तिनक उठी। बोली — यह नुसख़ा तो मेहता साहब को मालूम होगा।
‘ डाक्टर साहब ने तो बतला दिया और आपके ख़्याल में वह सौ साल पुराना है, तो नया नुसख़ा आपको बतलाना चाहिए। आपको ज्ञात नहीं कि दुनिया में ऐसी बहुत सी बातें हैं, जो कभी पुरानी हो ही नहीं सकतीं। समाज में इस तरह की समस्याएँ हमेशा उठती रहती हैं और हमेशा उठती रहेंगी। ‘
मिसेज़ खन्ना बरामदे में चली गयी थीं। मेहता ने उनके पास जाकर प्रणाम करते हुए पूछा — मेरे भाषण के विषय में आपकी क्या राय है?
मिसेज़ खन्ना ने आँखें झुकाकर कहा — अच्छा था, बहुत अच्छा; मगर अभी आप अविवाहित हैं, सभी नारियाँ देवियाँ हैं, श्रेष्ठ हैं, कणर्धार हैं। विवाह कर लीजिए तो पूछूँगी, अब नारियाँ क्या हैं? और विवाह आपको करना पड़ेगा; क्योंकि आप विवाह से मुँह चुरानेवाले मदों को कायर कह चुके हैं।
मेहता हँसे — उसी के लिए तो ज़मीन तैयार कर रहा हूँ।
‘ मिस मालती से जोड़ा भी अच्छा है। ‘
‘ शर्त यही है कि वह कुछ दिन आपके चरणों में बैठकर आपसे नारी-धर्म सीखें। ‘
‘ वही स्वार्थी पुरुषों की बात! आपने पुरुष-कर्तव्य सीख लिया है? ‘
‘ यही सोच रहा हूँ, किससे सीखूँ। ‘
‘ मिस्टर खन्ना आपको बहुत अच्छी तरह सिखा सकते हैं। ‘
मेहता ने क़हक़हा मारा — नहीं, मैं पुरुष-कर्तव्य भी आप ही से सीखूँगा।
‘ अच्छी बात है, मुझी से सीखिए। पहली बात यही है कि भूल जाइए कि नारी श्रेष्ठ है और सारी ज़िम्मेदारी उसी पर है, श्रेष्ठ पुरुष है और उसी पर गृहस्थी का सारा भार है। नारी में सेवा और संयम और कर्तव्य सब कुछ वही पैदा कर सकता है; अगर उसमें इन बातों का अभाव है, तो नारी में भी अभाव रहेगा। नारियों में आज जो यह विद्रोह है, इसका कारण पुरुष का इन गुणों से शून्य हो जाना है। ‘
मिरज़ा साहब ने आकर मेहता को गोद में उठा लिया और बोले — मुबारक!
मेहता ने प्रश्न की आँखों से देखा — आपको मेरी तक़रीर पसन्द आयी?
‘ तक़रीर तो ख़ैर जैसी थी, वैसी थी; मगर कामयाब ख़ूब रही। आपने परी को शीशे में उतार लिया। अपनी तक़दीर सराहिए कि जिसने आज तक किसी को मुँह नहीं लगाया, वह आपका कलमा पढ़ रही है। ‘
मिसेज़ खन्ना दबी ज़बान से बोली — जब नशा ठहर जाय, तो कहिए।
मेहता ने विरक्त भाव से कहा — मेरे जैसे किताब कीड़ों को कौन औरत पसन्द करेगी देवीजी! मैं तो पक्का आदर्शवादी हूँ।
मिसेज़ खन्ना ने अपने पति को कार की तरफ़ जाते देखा, तो उधर चली गयीं। मिरज़ा भी बाहर निकल गये। मेहता ने मंच पर से अपनी छड़ी उठायी और बाहर जाना चाहते थे कि मालती ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया और आग्रह-भरी आँखों से बोली — आप अभी नहीं जा सकते। चलिए, पापा से आपकी मुलाक़ात कराऊँ और आज वहीं खाना खाइए।
मेहता ने कान पर हाथ रखकर कहा — नहीं, मुझे क्षमा कीजिए। वहाँ सरोज मेरी जान खायगी। मैं इन लड़कियों से बहुत घबराता हूँ।
‘ नहीं-नहीं, मैं ज़िम्मा लेती हूँ जो वह मुँह भी खोले। ‘
‘ अच्छा आप चलिए, मैं थोड़ी देर में आऊँगा। ‘
‘ जी नहीं, यह न होगा। मेरी कार सरोज को लेकर चल दी। आप मुझे पहुँचाने तो चलेंगे ही। ‘
दोनों मेहता की कार में बैठे। कार चली। एक क्षण के बाद मेहता ने पूछा — मैंने सुना है, खन्ना साहब अपनी बीबी को मारा करते हैं। तब से मुझे इनकी सूरत से नफ़रत हो गयी। जो आदमी इतना निर्दयी हो, उसे मैं आदमी नहीं समझता। उस पर आप नारी जाति के बड़े हितैषी बनते हैं। तुमने उन्हें कभी समझाया नहीं?
मालती उद्विग्न होकर बोली — ताली हमेशा दो हथेलियों से बजती है, यह आप भूल जाते हैं।
‘ मैं तो ऐसे किसी कारण की कल्पना ही नहीं कर सकता कि कोई पुरुष अपनी स्त्री को मारे। ‘
‘ चाहे स्त्री कितनी ही बदज़बान हो? ‘
‘ हाँ, कितनी ही। ‘
‘ तो आप एक नये क़िस्म के आदमी हैं। ‘
‘ अगर मर्द बदमिज़ाज है, तो तुम्हारी राय में उस मर्द पर हंटरों की बौछार करनी चाहिए, क्यों? ‘
‘ स्त्री जितनी क्षमाशील हो सकती है पुरुष नहीं हो सकता। आपने ख़ुद आज यह बात स्वीकार की है। ‘
‘ तो औरत की क्षमाशीलता का यही पुरस्कार है। मैं समझता हूँ, तुम खन्ना को मुँह लगाकर उसे और भी शह देती हो। तुम्हारा वह जितना आदर करता है, तुमसे उसे जितनी भक्ति है, उसके बल पर तुम बड़ी आसानी से उसे सीधा कर सकती हो; मगर तुम उसकी सफ़ाई देकर स्वयम् उस अपराध में शरीक हो जाती हो। ‘
मालती उत्तेजित होकर बोली — तुमने इस समय यह प्रसंग व्यर्थ ही छेड़ दिया। मैं किसी की बुराई नहीं करना चाहती; मगर अभी आपने गोविन्दी देवी को पहचाना नहीं? आपने उनकी भोली-भाली शान्त-मुद्रा देखकर समझ लिया, वह देवी हैं। मैं उन्हें इतना ऊँचा स्थान नहीं देना चाहती। उन्होंने मुझे बदनाम करने का जितना प्रयत्न किया है, मुझ पर जैसे-जैसे आघात किये हैं, वह बयान करूँ, तो आप दंग रह जायँगे और तब आपको मानना पड़ेगा कि ऐसी औरत के साथ यही व्यवहार होना चाहिए।
‘ आख़िर उन्हें आपसे इतना द्वेष है, इसका कोई कारण तो होगा? ‘
‘ कारण उनसे पूछिए। मुझे किसी के दिल का हाल क्या मालूम? ‘
‘ उनसे बिना पूछे भी अनुमान किया जा सकता है और वह यह है — अगर कोई पुरुष मेरे और मेरी स्त्री के बीच में आने का साहस करे, तो मैं उसे गोली मार दूँगा, और उसे न मार सकूँगा, तो अपनी छाती में मार लूँगा। इसी तरह अगर मैं किसी स्त्री को अपने और अपनी स्त्री के बीच में लाना चाहूँ, तो मेरी पत्नी को भी अधिकार है कि वह जो चाहे, करे। इस विषय में मैं कोई समझौता नहीं कर सकता। यह अवैज्ञानिक मनोवृत्ति है जो हमने अपने बनैले पूर्वजों से पायी है और आजकल कुछ लोग इसे असभ्य और असामाजिक व्यवहार कहेंगे; लेकिन मैं अभी तक उस मनोवृति पर विजय नहीं पा सका और न पाना चाहता हूँ। इस विषय में मैं क़ानून की परवाह नहीं करता। मेरे घर में मेरा क़ानून है। ‘
मालती ने तीव्र स्वर में पूछा — लेकिन आपने यह अनुमान कैसे कर लिया कि मैं आपके शब्दों में खन्ना और गोविन्दी के बीच आना चाहती हूँ। आप ऐसा अनुमान करके मेरा अपमान कर रहे हैं। मैं खन्ना को अपनी जूतियों की नोक के बराबर भी नहीं समझती।
मेहता ने अविश्वास-भरे स्वर में कहा — यह आप दिल से नहीं कह रही हैं मिस मालती! क्या आप सारी दुनिया को बेवक़ूफ़ समझती हैं? जो बात सभी समझ रहे हैं, अगर वही बात मिसेज़ खन्ना भी समझें, तो मैं उन्हें दोष नहीं दे सकता।
मालती ने तिनककर कहा — दुनिया को दूसरों को बदनाम करने में मज़ा आता है। यह उसका स्वभाव है। मैं उसका स्वभाव कैसे बदल दूँ; लेकिन यह व्यर्थ का कलंक है। हाँ, मैं इतनी बेमुरौवत नहीं हूँ कि खन्ना को अपने पास आते देखकर दुत्कार देती। मेरा काम ही ऐसा है कि मुझे सभी का स्वागत और सत्कार करना पड़ता है। अगर कोई इसका कुछ और अर्थ निकालता है, तो वह … वह …
मालती का गला भर्रा गया और उसने मुँह फेरकर रूमाल से आँसू पोंछे। फिर एक मिनट बाद बोली — औरों के साथ तुम भी मुझे .. मुझे … इसका दुख है … मुझे तुमसे ऐसी आशा न थी।
फिर कदाचित् उसे अपनी दुर्बलता पर खेद हुआ। वह प्रचंड होकर बोली — आपको मुझ पर आक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है; अगर आप भी उन्हीं मदों में हैं, जो किसी स्त्री-पुरुष को साथ देखकर उँगली उठाये बिना नहीं रह सकते, तो शौक़ से उठाइए। मुझे रत्ती-भर परवा नहीं; अगर कोई स्त्री आपके पास बार-बार किसी न किसी बहाने से आये, आपको अपना देवता समझे, हर-एक बात में आपसे सलाह ले, आपके चरणों के नीचे आँखें बिछाये, आपका इशारा पाते ही आग में कूदने को तैयार हो, तो मैं दावे से कह सकती हूँ, आप उसकी उपेक्षा न करेंगे; अगर आप उसे ठुकरा सकते हैं, तो आप मनुष्य नहीं हैं। उसके विरुद्ध आप कितने ही तर्क और प्रमाण लाकर रख दें; लेकिन मैं मानूँगी नहीं। मैं तो कहती हूँ, उपेक्षा तो दूर रही, ठुकराने की बात ही क्या, आप उस नारी के चरण धो-धोकर पियेंगे, और बहुत दिन गुज़रने के पहले वह आपकी हृदयेश्वरी होगी। मैं आपसे हाथ जोड़कर कहती हूँ, मेरे सामने खन्ना का कभी नाम न लीजिएगा।
मेहता ने इस ज्वाला में मानो हाथ सेंकते हुए कहा — शर्त यही है कि मैं खन्ना को आपके साथ न देखूँ।
‘ मैं मानवता की हत्या नहीं कर सकती। वह आयेंगे तो मैं उन्हें दुर-दुराऊँगी नहीं। ‘
‘ उनसे कहिए, अपनी स्त्री के साथ सज्जनता से पेश आयें। ‘
‘ मैं किसी के निजी मुआमले में दख़ल देना उचित नहीं समझती। न मुझे इसका अधिकार है! ‘
‘ तो आप किसी की ज़बान नहीं बन्द कर सकतीं। ‘
मालती का बँगला आ गया। कार रुक गयी। मालती उतर पड़ी और बिना हाथ मिलाये चली गयी। वह यह भी भूल गयी कि उसने मेहता को भोजन की दावत दी है। वह एकान्त में जाकर ख़ूब रोना चाहती है। गोविन्दी ने पहले भी आघात किये हैं; पर आज उसने जो आघात किया है, वह बहुत गहरा, बड़ा चौड़ा और बड़ा मर्मभेदी है।

Godan / गोदान भाग 16-20 / प्रेमचंद / Premchand

Godan / गोदान भाग 16 / प्रेमचंद / Premchand

Godan / गोदान भाग 16-20 / प्रेमचंद / Premchand
राय साहब को ख़बर मिली कि इलाक़े में एक वारदात हो गयी है और होरी से गाँव के पंचों ने जुरमाना वसूल कर लिया है, तो फ़ौरन नोखेराम को बुलाकर जवाब-तलब किया — क्यों उन्हें, इसकी इत्तला नहीं दी गयी। ऐसे नमकहराम दग़ाबाज़ आदमी के लिए उनके दरबार में जगह नहीं है। नोखेराम ने इतनी गालियाँ खायीं, तो ज़रा गर्म होकर बोले — मैं अकेला थोड़ा ही था। गाँव के और पंच भी तो थे। मैं अकेला क्या कर लेता। राय साहब ने उनकी तोंद की तरफ़ भाले-जैसी नुकीली दृष्टि से देखा — मत बको जी! तुम्हें उसी वक़्त कहना चाहिए था, जब तक सरकार को इत्तला न हो जाय, मैं पंचों को जुरमाना न वसूल करने दूँगा। पंचों को मेरे और मेरी रिआया के बीच में दख़ल देने का हक़ क्या है? इस डाँड़-बाँध के सिवा इलाक़े में और कौन-सी आमदनी है? वसूली सरकार के घर गयी। बक़ाया असामियों ने दबा लिया। तब मैं कहाँ जाऊँ? क्या खाऊँ, तुम्हारा सिर! यह लाखों रुपए साल का ख़र्च कहाँ से आये? खेद है कि दो पुश्तों से कारिन्दगीरी करने पर मुझे आज तुम्हें यह बात बतलानी पड़ती है। कितने रुपए वसूल हुए थे होरी से? नोखेराम ने सिटपिटा कर कहा — अस्सी रुपए! ‘ नक़द? ‘ ‘ नक़द उसके पास कहाँ थे हुज़ूर! कुछ अनाज दिया, बाक़ी में अपना घर लिख दिया। ‘ राय साहब ने स्वार्थ का पक्ष छोड़कर होरी का पक्ष लिया — अच्छा तो आपने और बगुलाभगत पंचों ने मिलकर मेरे एक मातबर असामी को तबाह कर दिया। मैं पूछता हूँ, तुम लोगों को क्या हक़ था कि मेरे इलाक़े में मुझे इत्तला दिये बग़ैर मेरे असामी से जुरमाना वसूल करते। इसी बात पर अगर मैं चाहूँ, तो आपको और उस जालिये पटवारी और उस धूर्त पण्डित को सात-सात साल के लिए जेल भिजवा सकता हूँ। आपने समझ लिया कि आप ही इलाक़े के बादशाह हैं। मैं कहे देता हूँ, आज शाम तक जुरमाने की पूरी रक़म मेरे पास पहुँच जाय; वरना बुरा होगा। मैं एक-एक से चक्की पिसवाकर छोड़ूँगा। जाइए, हाँ, होरी को और उसके लड़के को मेरे पास भेज दीजिएगा। नोखेराम ने दबी ज़बान से कहा — उसका लड़का तो गाँव छोड़कर भाग गया। जिस रात को यह वारदात हुई, उसी रात को भागा। राय साहब ने रोष से कहा — झूठ मत बोलो। तुम्हें मालूम है, झूठ से मेरे बदन में आग लग जाती है। मैंने आज तक कभी नहीं सुना कि कोई युवक अपनी प्रेमिका को उसके घर से लाकर फिर ख़ुद भाग जाय। अगर उसे भागना ही होता, तो वह उस लड़की को लाता क्यों? तुम लोगों की इसमें भी ज़रूर कोई शरारत है। तुम गंगा में डूबकर भी अपनी सफ़ाई दो, तो मानने का नहीं। तुम लोगों ने अपने समाज की प्यारी मर्यादा की रक्षा के लिए उसे धमकाया होगा। बेचारा भाग न जाता, तो क्या करता! नोखेराम इसका प्रतिवाद न कर सके। मालिक जो कुछ कहें वह ठीक है। वह यह भी न कह सके कि आप ख़ुद चलकर झूठ-सच की जाँच कर लें। बड़े आदमियों का क्रोध पूरा समर्पण चाहता है। अपने ख़िलाफ़ एक शब्द भी नहीं सुन सकता। पंचों ने राय साहब का यह फ़ैसला सुना, तो नशा हिरन हो गया। अनाज तो अभी तक ज्यों का त्यों पड़ा था; पर रुपए तो कब के ग़ायब हो गये। होरी का मकान रेहन लिखा गया था; पर उस मकान को देहात में कौन पूछता था। जैसे हिन्दू स्त्री पति के साथ घर की स्वामिनी है, और पति त्याग दे, तो कहीं की नहीं रहती, उसी तरह यह घर होरी के लिए लाख रुपए का है; पर उसकी असली क़ीमत कुछ भी नहीं। और इधर राय साहब बिना रुपए लिए मानने के नहीं। यही होरी जाकर रो आया होगा। पटेश्वरीलाल सबसे ज़्यादा भयभीत थे। उनकी तो नौकरी ही चली जायगी। चारों सज्जन इस गहन समस्या पर विचार कर रहे थे, पर किसी की अक्ल काम न करती थी। एक दूसरे पर दोष रखता था। फिर ख़ूब झगड़ा हुआ। पटेश्वरी ने अपनी लम्बी शंकाशील गर्दन हिलाकर कहा — मैं मना करता था कि होरी के विषय में हमें चुप्पी साधकर रह जाना चाहिए। गाय के मामले में सबको तावान देना पड़ा। इस मामले में तावान ही से गला न छूटेगा, नौकरी से हाथ धोना पड़ेगा; मगर तुम लोगों को रुपए की पड़ी थी। निकालो बीस-बीस रुपए। अब भी कुशल है। कहीं राय साहब ने रपट कर दी, तो सब जने बँध जाओगे। दातादीन ने ब्रह्मतेज दिखाकर कहा — मेरे पास बीस रुपए की जगह बीस पैसे भी नहीं हैं। ब्राहमणों को भोज दिया गया, होम हुआ। क्या इसमें कुछ ख़रच ही नहीं हुआ? राय साहब की हिम्मत है कि मुझे जेल ले जायँ? ब्रह्म बनकर घर का घर मिटा दूँगा। अभी उन्हें किसी ब्राह्मण से पाला नहीं पड़ा। झिंगुरीसिंह ने भी कुछ इसी आशय के शब्द कहे। वह राय साहब के नौकर नहीं हैं। उन्होंने होरी को मारा नहीं, पीटा नहीं, कोई दबाव नहीं डाला। होरी अगर प्रायिश्चत करना चाहता था, तो उन्होंने इसका अवसर दिया। इसके लिए कोई उन पर अपराध नहीं लगा सकता; मगर नोखेराम की गर्दन इतनी आसानी से न छूट सकती थी। यहाँ मज़े से बैठे राज करते थे। वेतन तो दस रुपए से ज़्यादा न था; पर एक हज़ार साल की ऊपर की आमदनी थी, सैकड़ों आदमियों पर हुकूमत, चार-चार प्यादे हाज़िर, बेगार में सारा काम हो जाता था, थानेदार तक कुरसी देते थे, यह चैन उन्हें और कहाँ था! और पटेश्वरी तो नौकरी के बदौलत महाजन बने हुए थे। कहाँ जा सकते थे? दो-तीन दिन इसी चिन्ता में पड़े रहे कि कैसे इस विपित्त से निकलें। आख़िर उन्हें एक मार्ग सूझ ही गया। कभी-कभी कचहरी में उन्हें दैनिक ‘ बिजली ‘ देखने को मिल जाती थी। यदि एक गुमनाम पत्र उसके सम्पादक की सेवा में भेज दिया जाय कि राय साहब किस तरह असामियों से जुरमाना वसूल करते हैं तो बचा को लेने के देने पड़ जायँ। नोखेराम भी सहमत हो गये। दोनों ने मिलकर किसी तरह एक पत्र लिखा और रजिस्टरी भेज दिया। सम्पादक ओंकारनाथ तो ऐसे पत्रों की ताक में रहते थे। पत्र पाते ही तुरन्त राय साहब को सूचना दी। उन्हें एक ऐसा समाचार मिला है, जिस पर विश्वास करने की उनकी इच्छा नहीं होती; पर संवाददाता ने ऐसे प्रमाण दिये कि सहसा अविश्वास भी नहीं किया जा सकता। क्या यह सच है कि राय साहब ने अपने इलाक़े के एक असामी से अस्सी रुपए तावान इसलिए वसूल किये कि उसके पुत्र ने एक विधवा को घर में डाल लिया था? सम्पादक का कर्तव्य उन्हें मज़बूर करता है कि वह मुआमले की जाँच करें और जनता के हितार्थ उसे प्रकाशित कर दें। राय साहब इस विषय में जो कुछ कहना चाहें, सम्पादक जी उसे भी प्रकाशित कर देंगे। सम्पादकजी दिल से चाहते हैं कि यह ख़बर गलत हो; लेकिन उसमें कुछ भी सत्य हुआ, तो वह उसे प्रकाश में लाने के लिए विवश हो जायँगे। मैत्री उन्हें कर्तव्य-पथ से नहीं हटा सकती। राय साहब ने यह सूचना पायी, तो सिर पीट लिया। पहले तो उनकी ऐसी उत्तेजना हुई कि जाकर ओंकारनाथ को गिनकर पचास हंटर जमायें और कह दें, जहाँ वह पत्र छापना वहाँ यह समाचार भी छाप देना; लेकिन इसका परिणाम सोचकर मन को शान्त किया और तुरन्त उनसे मिलने चले। अगर देर की, और ओंकारनाथ ने वह संवाद छाप दिया, तो उनके सारे यश में कालिमा पुत जायगी। ओंकारनाथ सैर करके लौटे थे और आज के पत्र के लिए सम्पादकीय लेख लिखने की चिन्ता में बैठे हुए थे; पर मन पक्षी की भाँति अभी उड़ा-उड़ा फिरता था। उनकी धर्मपत्नी ने रात में उन्हें कुछ ऐसी बातें कह डाली थीं जो अभी तक काँटों की तरह चुभ रही थीं। उन्हें कोई दरिद्र कह ले, अभागा कह ले, बुद्धू कह ले, वह ज़रा भी बुरा न मानते थे; लेकिन यह कहना कि उनमें पुरुषत्व नहीं है, यह उनके लिए असह्य था। और फिर अपनी पत्नी को यह कहने का क्या हक़ है? उससे तो यह आशा की जाती है कि कोई इस तरह का आक्षेप करे, तो उसका मुँह बन्द कर दे। बेशक वह ऐसी ख़बरें नहीं छापते, ऐसी टिप्पणियाँ नहीं करते कि सिर पर कोई आफ़त आ जाय। फूँक-फूँककर क़दम रखते हैं। इन काले कानूनों के युग में वह और कर ही क्या सकते हैं; मगर वह क्यों साँप के बिल में हाथ नहीं डालते? इसीलिए तो कि उनके घरवालों को कष्ट न उठाने पड़े। और उनकी सहिष्णुता का उन्हें यह पुरस्कार मिल रहा है? क्या अँधेर है! उनके पास रुपए नहीं हैं, तो बनारसी साड़ी कैसे मँगा दें? डाक्टर सेठ और प्रोफ़ेसर भाटिया और न जाने किस-किस की स्त्रियाँ बनारसी साड़ी पहनती हैं, तो वह क्या करें? क्यों उनकी पत्नी इन साड़ीवालियों को अपनी खद्दर की साड़ी से लज्जित नहीं करती? उनकी ख़ुद तो यह आदत है कि किसी बड़े आदमी से मिलने जाते हैं, तो मोटे से मोटे कपड़े पहन लेते हैं और कुछ कोई आलोचना करे तो उसका मुँहतोड़ जवाब देने को तैयार रहते हैं। उनकी पत्नी में क्यों वही आत्माभिमान नहीं है? वह क्यों दूसरों का ठाट-बाट देखकर विचलित हो जाती है? उसे समझना चाहिए कि वह एक देश-भक्त पुरुष की पत्नी है। देश-भक्त के पास अपनी भक्ति के सिवा और क्या सम्पत्ति है। इसी विषय को आज के अग्रलेख का विषय बनाने की कल्पना करते-करते उनका ध्यान राय साहब के मुआमले की ओर जा पहुँचा। राय साहब सूचना का क्या उत्तर देते हैं, यह देखना है। अगर वह अपनी सफ़ाई देने में सफल हो जाते हैं, तब तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर वह यह समझें कि ओंकारनाथ दबाव, भय, या मुलाहजे में आकर अपने कर्तव्य से मुँह फेर लेंगे तो यह उनका भ्रम है। इस सारे तप और साधन का पुरस्कार उन्हें इसके सिवा और क्या मिलता है कि अवसर पड़ने पर वह इन क़ानूनी डकैतों का भंडा-फोड़ करें। उन्हें ख़ूब मालूम है कि राय साहब बड़े प्रभावशाली जीव हैं। कौंसिल के मेम्बर तो हैं ही। अधिकारियों में भी उनका काफ़ी रुसूख है। वह चाहें, तो उन पर झूठे मुक़दमे चलवा सकते हैं, अपने गुंडों से राह चलते पिटवा सकते हैं; लेकिन ओंकार इन बातों से नहीं डरता। जब तक उसकी देह में प्राण है, वह आततायियों की ख़बर लेता रहेगा। सहसा मोटरकार की आवाज़ सुन कर वह चौंके। तुरन्त काग़ज़ लेकर अपना लेख आरम्भ कर दिया। और एक ही क्षण में राय साहब ने उनके कमरे में क़दम रक्खा। ओंकारनाथ ने न उनका स्वागत किया, न कुशल-क्षेम पूछा, न कुरसी दी। उन्हें इस तरह देखा मानो कोई मुलाज़िम उनकी अदालत में आया हो और रोब से मिले हुए स्वर में पूछा — आपको मेरा पुरज़ा मिल गया था? मैं वह पत्र लिखने के लिए बाध्य नहीं था, मेरा कर्तव्य यह था कि स्वयम् उसकी तहक़ीक़ात करता; लेकिन मुरौवत में सिद्धान्तों की कुछ न कुछ हत्या करनी ही पड़ती है। क्या उस संवाद में कुछ सत्य है? राय साहब उसका सत्य होना अस्वीकार न कर सके। हालाँ कि अभी तक उन्हें जुरमाने के रुपए नहीं मिले थे और वह उनके पाने से साफ़ इनकार कर सकते थे; लेकिन वह देखना चाहते थे कि यह महाशय किस पहलू पर चलते हैं। ओंकारनाथ ने खेद प्रकट करते हुए कहा — तब तो मेरे लिए उस संवाद को प्रकाशित करने के सिवा और कोई मार्ग नहीं है। मुझे इसका दुःख है कि मुझे अपने एक परम हितैषी मित्र की आलोचना करनी पड़ रही है; लेकिन कर्तव्य के आगे व्यक्ति कोई चीज़ नहीं। सम्पादक अगर अपना कर्तव्य न पूरा कर सके, तो उसे इस आसन पर बैठने का कोई हक़ नहीं है। राय साहब कुरसी पर डट गये और पान की गिलौरियाँ मुँह में भरकर बोले — लेकिन यह आपके हक़ में अच्छा न होगा। मुझे जो कुछ होना है, पीछे होगा, आपको तत्काल दंड मिल जायगा; अगर आप मित्रों की परवाह नहीं करते, तो मैं भी उसी कैंड़े का आदमी हूँ। ओंकारनाथ ने शहीद का गौरव धारण करके कहा — इसका तो मुझे कभी भय नहीं हुआ। जिस दिन मैंने पत्र-सम्पादन का भार लिया, उसी दिन प्राणों का मोह छोड़ दिया, और मेरे समीप एक सम्पादक की सबसे शानदार मौत यही है कि वह न्याय और सत्य की रक्षा करता हुआ अपना बलिदान कर दे। ‘ अच्छी बात है। मैं आपकी चुनौती स्वीकार करता हूँ। मैं अब तक आपको मित्र समझता आया था; मगर अब आप लड़ने ही पर तैयार हैं, तो लड़ाई ही सही। आख़िर मैं आपके पत्र का पँचगुना चन्दा क्यों देता हूँ। केवल इसीलिए कि वह मेरा ग़ुलाम बना रहे। मुझे परमात्मा ने रईस बनाया है। पचहत्तर रुपया देता हूँ; इसीलिए कि आपका मुँह बन्द रहे। जब आप घाटे का रोना रोते हैं और सहायता की अपील करते हैं, और ऐसी शायद ही कोई तिमाही जाती हो, जब आपकी अपील न निकलती हो, तो मैं ऐसे मौक़े पर आपकी कुछ न कुछ मदद कर देता हूँ। किसलिए! दीपावली, दसहरा, होली में आपके यहाँ बैना भेजता हूँ, और साल में पच्चीस बार आपकी दावत करता हूँ, किसलिए! आप रिश्वत और कर्तव्य दोनों साथ-साथ नहीं निभा सकते। ‘ ओंकारनाथ उत्तेजित होकर बोले, — मैंने कभी रिश्वत नहीं ली। राय साहब ने फटकारा — अगर यह व्यवहार रिश्वत नहीं है तो रिश्वत क्या है? ज़रा मुझे समझा दीजिए। क्या आप समझते हैं, आपको छोड़कर और सभी गधे हैं जो निःस्वार्थ-भाव से आपका घाटा पूरा करते हैं। निकालिए अपनी बही और बतलाइए अब तक आपको मेरी रियासत से कितना मिल चुका है। मुझे विश्वास है, हज़ारों की रक़म निकलेगी; अगर आपको स्वदेशी-स्वदेशी चिल्लाकर विदेशी दवाओं और वस्तुओं का विज्ञापन छापने में शरम नहीं आती, तो मैं अपने असामियों से डाँड़, तावान और जुमार्ना लेते शरमाऊँ? यह न समझिए कि आप ही किसानों के हित का बीड़ा उठाये हुए हैं। मुझे किसानों के साथ जलना-मरना है, मुझसे बढ़कर दूसरा उनका हितेच्छु नहीं हो सकता; लेकिन मेरी गुज़र कैसे हो! अफ़सरों को दावतें कहाँ से दूँ, सरकारी चन्दे कहाँ से दूँ, ख़ानदान के सैकड़ों आदमियों की ज़रूरतें कैसे पूरी करूँ। मेरे घर का क्या ख़र्च है, यह शायद आप जानते हैं। तो क्या मेरे घर में रुपये फलते है? आयेगा तो आसामियों ही के घर से। आप समझते होंगे, ज़मींदार और ताल्लुक़ेदार सारे संसार का सुख भोग रहे हैं। उनकी असली हालत का आपको ज्ञान नहीं; अगर वह धमार्त्मा बन कर रहें, तो उनका ज़िन्दा रहना मुश्किल हो जाय। अफ़सरों को डालियाँ न दें, तो जेलख़ाना घर हो जाय। हम बिच्छू नहीं हैं कि अनायास ही सबको डंक मारते फिरें। न ग़रीबों का गला दबाना कोई बड़े आनन्द का काम है; लेकिन मर्यादाओं का पालन तो करना ही पड़ता है। जिस तरह आप मेरी रईसी का फ़ायदा उठाना चाहते हैं, उसी तरह और सभी हमें सोने की मुरग़ी समझते हैं। आइए मेरे बँगले पर तो दिखाऊँ कि सुबह से शाम तक कितने निशाने मुझ पर पड़ते हैं। कोई काश्मीर से शाल-दुशाला लिये चला आ रहा है, कोई इत्र और तम्बाकू का एजेंट है, कोई पुस्तकों और पत्रिकाओं का, कोई जीवन-बीमे का, कोई ग्रामोफ़ोन लिये सिर पर सवार है, कोई कुछ। चन्देवाले तो अनगिनती। क्या सबके सामने अपना दुखड़ा लेकर बैठ जाऊँ? ये लोग मेरे द्वार पर दुखड़ा सुनाने आते हैं? आते हैं मुझे उल्लू बनाकर मुझसे कुछ ऐंठने के लिए। आज मर्यादा का विचार छोड़ दूँ, तो तालियाँ पिटने लगें। हुक्काम को डालियाँ न दूँ, तो बागी समझा जाऊँ। तब आप अपने लेखों से मेरी रक्षा न करेंगे। काँग्रेस में शरीक हुआ, उसका तावान अभी तक देता जाता हूँ। काली किताब में नाम दरज़ हो गया। मेरे सिर पर कितना क़रज़ है, यह भी कभी आपने पूछा है? अगर सभी महाजन डिग्रियाँ करा लें, तो मेरे हाथ की यह अँगूठी तक बिक जायगी। आप कहेंगे क्यों यह आडम्बर पालते हो। कहिए, सात पुश्तों से जिस वातावरण में पला हूँ उससे अब निकल नहीं सकता। घास छीलना मेरे लिए असम्भव है। आपके पास ज़मीन नहीं, जायदाद नहीं, मर्यादा का झमेला नहीं, आप निर्भीक हो सकते हैं; लेकिन आप भी दुम दबाये बैठे रहते हैं। आपको कुछ ख़बर है, अदालतों में कितनी रिश्वतें चल रही हैं, कितने ग़रीबों का ख़ून हो रहा है, कितनी देवियाँ भ्रष्ट हो रही हैं! है बूता लिखने का? सामग्री मैं देता हूँ, प्रमाणसहित। ओंकारनाथ कुछ नर्म होकर बोले — जब कभी अवसर आया है, मैंने क़दम पीछे नहीं हटाया। राय साहब भी कुछ नर्म हुए — हाँ, मैं स्वीकार करता हूँ कि दो-एक मौक़ों पर आपने जवाँमरदी दिखायी है; लेकिन आप की निगाह हमेशा अपने लाभ की ओर रही है, प्रजा-हित की ओर नहीं। आँखें न निकालिए और न मुँह लाल कीजिए। जब कभी आप मैदान में आये हैं, उसका शुभ परिणाम यही हुआ कि आपके सम्मान और प्रभाव और आमदनी में इज़ाफ़ा हुआ है; अगर मेरे साथ भी आप वही चाल चल रहे हों, तो मैं आपकी ख़ातिर करने को तैयार हूँ। रुपए न दूँगा; क्योंकि वह रिश्वत है। आपकी पत्नीजी के लिए कोई आभूषण बनवा दूँगा। है मंज़ूर? अब मैं आपसे सत्य कहता हूँ कि आपको जो संवाद मिला वह गलत है; मगर यह भी कह देना चाहता हूँ कि अपने और सभी भाइयों की तरह मैं असामियों से जुर्माना लेता हूँ और साल में दस-पाँच हज़ार रुपए मेरे हाथ लग जाते हैं, और अगर आप मेरे मुँह से यह कौर छीनना चाहेंगे, तो आप घाटे में रहेंगे। आप भी संसार में सुख से रहना चाहते हैं, मैं भी चाहता हूँ। इससे क्या फ़ायदा कि आप न्याय और कर्तव्य का ढोंग रचकर मुझे भी ज़ेरबार करें, ख़ुद भी ज़ेरबार हों। दिल की बात कहिए। मैं आपका बैरी नहीं हूँ। आपके साथ कितनी ही बार एक चौके में, एक मेज़ पर खा चुका हूँ। मैं यह भी जानता हूँ कि आप तकलीफ़ में हैं। आपकी हालत शायद मेरी हालत से भी ख़राब है। हाँ, अगर आप ने हरिशचन्द्र बनने की क़सम खा ली है, तो आप की ख़ुशी। मैं चलता हूँ। राय साहब कुरसी से उठ खड़े हुए। ओंकारनाथ ने उनका हाथ पकड़कर सिन्धभाव से कहा — नहीं-नहीं, अभी आपको बैठना पड़ेगा। मैं अपनी पोज़ीशन साफ़ कर देना चाहता हूँ। आपने मेरे साथ जो सलूक किये हैं, उनके लिए मैं आपका आभारी हूँ; लेकिन यहाँ सिद्धान्त की बात आ गयी है और आप जानते हैं, सिद्धान्त प्राणों से भी प्यारे होते हैं। राय साहब कुर्सी पर बैठकर ज़रा मीठे स्वर में बोले — अच्छा भाई, जो चाहे लिखो। मैं तुम्हारे सिद्धान्त को तोड़ना नहीं चाहता। और तो क्या होगा, बदनामी होगी। हाँ, कहाँ तक नाम के पीछे पीछे मरूँ! कौन ऐसा ताल्लुक़ेदार है, जो असामियों को थोड़ा-बहुत नहीं सताता। कुत्ता हड्डी की रखवाली करे तो खाय क्या? मैं इतना ही कर सकता हूँ कि आगे आपको इस तरह की कोई शिकायत न मिलेगी; अगर आपको मुझ पर कुछ विश्वास है, तो इस बार क्षमा कीजिए। किसी दूसरे सम्पादक से मैं इस तरह की ख़ुशामद न करता। उसे सरे बाज़ार पिटवाता; लेकिन मुझसे आपकी दोस्ती है; इसलिए दबना ही पड़ेगा। यह समाचार-पत्रों का युग है। सरकार तक उनसे डरती है, मेरी हस्ती क्या! आप जिसे चाहें बना दें। ख़ैर यह झगड़ा ख़तम कीजिए। कहिए, आजकल पत्र की क्या दशा है? कुछ ग्राहक बढ़े? ओंकारनाथ ने अनिच्छा के भाव से कहा — किसी न किसी तरह काम चल जाता है और वर्तमान परिस्थिति में मैं इससे अधिक आशा नहीं रखता। मैं इस तरफ़ धन और भोग की लालसा लेकर नहीं आया था; इसलिए मुझे शिकायत नहीं है। मैं जनता की सेवा करने आया था और वह यथाशक्ति किये जाता हूँ। राष्ट्र का कल्याण हो, यही मेरी कामना है। एक व्यक्ति के सुख-दुःख का कोई मूल्य नहीं। राय साहब ने ज़रा और सहृदय होकर कहा — यह सब ठीक है भाई साहब; लेकिन सेवा करने के लिए भी जीना ज़रूरी है। आर्थिक चिन्ताओं में आप एकाग्रचित्त होकर सेवा भी तो नहीं कर सकते। क्या ग्राहक-संख्या बिलकुल नहीं बढ़ रही है? ‘ बात यह है कि मैं अपने पत्र का आदर्श गिराना नहीं चाहता; अगर मैं आज सिनेमास्टारों के चित्र और चरित्र छापने लगूँ तो मेरे ग्राहक बढ़ सकते हैं; लेकिन अपनी तो वह नीति नहीं। और भी कितने ही ऐसे हथकंडे हैं, जिनसे पत्रों द्वारा धन कमाया जा सकता है, लेकिन मैं उन्हें गहिर्त समझता हूँ। ‘ ‘ इसी का यह फल है कि आज आपका इतना सम्मान है। मैं एक प्रस्ताव करना चाहता हूँ। मालूम नहीं आप उसे स्वीकार करेंगे या नहीं। आप मेरी ओर से सौ आदमियों के नाम फ़्री जारी कर दीजिए। चन्दा मैं दे दूँगा। ‘ ओंकारनाथ ने कृतज्ञता से सिर झुकाकर कहा — मैं धन्यवाद के साथ आपका दान स्वीकार करता हूँ। खेद यही है कि पत्रों की ओर से जनता कितनी उदासीन है। स्कूल और कालिजों और मन्दिरों के लिए धन की कमी नहीं है पर आज तक एक भी ऐसा दानी न निकला जो पत्रों के प्रचार के लिए दान देता, हालाँकि जन-शिक्षा का उद्देश्य जितने कम ख़र्च में पत्रों से पूरा हो सकता है, और किसी तरह नहीं हो सकता। जैसे शिक्षालयों को संस्थाओं द्वारा सहायता मिला करती है, ऐसे ही अगर पत्रकारों को मिलने लगे, तो इन बेचारों को अपना जितना समय और स्थान विज्ञापनों की भेंट करना पड़ता है, वह क्यों करना पड़े? मैं आपका बड़ा अनुगृहीत हूँ। राय साहब बिदा हो गये; ओंकारनाथ के मुख पर प्रसन्नता की झलक न थी। राय साहब ने किसी तरह की शर्त न की थी, कोई बन्धन न लगाया था; पर ओंकारनाथ आज इतनी करारी फटकार पा कर भी इस दान को अस्वीकार न कर सके। परििस्थति ऐसी आ पड़ी थी कि उन्हें उबरने का कोई उपाय ही न सूझ रहा था। प्रेस के कर्मचारियों का तीन महीने का वेतन बाक़ी पड़ा हुआ था। काग़ज़वाले के एक हज़ार से ऊपर आ रहे थे; यही क्या कम था कि उन्हें हाथ नहीं फैलाना पड़ा। उनकी स्त्री गोमती ने आकर विद्रोह के स्वर में कहा — क्या अभी भोजन का समय नहीं आया, या यह भी कोई नियम है कि जब तक एक न बज जाय, जगह से न उठो। कब तक कोई चूल्हा अगोरता रहे। ओंकारनाथ ने दुखी आँखों से पत्नी की ओर देखा। गोमती का विद्रोह उड़ गया। वह उनकी कठिनाइयों को समझती थी। दूसरी महिलाओं के वस्त्राभूषण देखकर कभी-कभी उसके मन में विद्रोह के भाव जाग उठते थे और वह पति को दो-चार जली-कटी सुना जाती थी; पर वास्तव में यह क्रोध उनके प्रति नहीं, अपने दुर्भाग्य के प्रति था, और इसकी थोड़ी-सी आँच अनायास ही ओंकारनाथ तक पहुँच जाती थी। वह उनका तपस्वी जीवन देखकर मन में कुढ़ती थी और उनसे सहानुभूति भी रखती थी। बस, उन्हें थोड़ा-सा सनकी समझती थी। उनका उदास मुँह देखकर पूछा — क्यों उदास हो, पेट में कुछ गड़बड़ है क्या? ओंकारनाथ को मुस्कराना पड़ा — कौन उदास है, मैं? मुझे तो आज जितनी ख़ुशी है, उतनी अपने विवाह के दिन भी न हुई थी। आज सबेरे पन्द्रह सौ की बोहनी हुई। किसी भाग्यवान का मुँह देखा था। गोमती को विश्वास न आया, बोली — झूठे हो। तुम्हें पन्द्रह सौ कहाँ मिल जाते हैं। हाँ, पन्द्रह रुपए कहो, मान लेती हूँ।
‘ नहीं-नहीं, तुम्हारे सिर की क़सम, पन्द्रह सौ मारे। अभी राय साहब आये थे। सौ ग्राहकों का चन्दा अपनी तरफ़ से देने का वचन दे गये हैं। ‘
गोमती का चेहरा उतर गया — तो मिल चुके?
‘ नहीं, राय साहब वादे के पक्के हैं ‘
‘ मैंने किसी ताल्लुक़ेदार को वादे का पक्का देखा ही नहीं। दादा एक ताल्लुक़ेदार के नौकर थे। साल-साल भर तलब नहीं मिलती थी। उसे छोड़कर दूसरे की नौकरी की। उसने दो साल तक एक पाई न दी। एक बार दादा गरम पड़े, तो मारकर भगा दिया। इनके वादों का कोई क़रार नहीं। ‘
‘ मैं आज ही बिल भेजता हूँ। ‘
‘ भेजा करो। कह देंगे, कल आना। कल अपने इलाक़े पर चले जायँगे। तीन महीने में लौटेंगे। ‘
ओंकारनाथ संशय में पड़ गये। ठीक तो है, कहीं राय साहब पीछे से मुकर गये, तो वह क्या कर लेंगे। फिर भी दिल मज़बूत करके कहा — ऐसा नहीं हो सकता। कम-से-कम राय साहब को मैं इतना धोखेबाज़ नहीं समझता। मेरा उनके यहाँ कुछ बाक़ी नहीं है।
गोमती ने उसी सन्देह के भाव से कहा — इसी से तो मैं तुम्हें बुद्ध कहती हूँ। ज़रा किसी ने सहानुभूति दिखायी और तुम फूल उठे। ये मोटे रईस हैं। इनके पेट में ऐसे कितने वादे हज़म हो सकते हैं। जितने वादे करते हैं, अगर सब पूरा करने लगें, तो भीख माँगने की नौबत आ जाय। मेरे गाँव के ठाकुर साहब तो