Surendranath Banerjee | सुरेन्द्रनाथ बनर्जी
जन्म: 10 नवम्बर, 1848, कलकत्ता
मृत्यु: 6 अगस्त, 1925, बैरकपुर
कार्य क्षेत्र: स्वाधीनता सेनानी
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी एक प्रसिद्ध भारतीय स्वाधीनता सेनानी थे। वे ब्रिटिश राज के दौरान सबसे शुरूआती नेताओं में एक थे। उन्होंने ‘इंडियन नेशनल एसोसिएशन’ की स्थापना की जो भारत के प्रारंभिक राजनैतिक संगठनों में एक था। आगे जाकर वे भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस के वरिष्ठ नेता बने। वे ‘राष्ट्रगुरु’ के उपनाम से भी जाने गए। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी कांग्रेस के उन नरमपंथी नेताओं में शामिल थे जिन्होंने ब्रिटिश शासन का सदैव विरोध किया और देशवासियों के हितों को आगे बढ़ाया। कांग्रेस के स्थापना के बाद के शुरूआती दशकों में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और गोपालकृष्ण गोखले जैसे नरमपंथी नेताओं का बोलबाला था। इन नेताओं के अनुसार अंग्रेजों के साथ सहयोग करके देशवासियों के हक़ में बदलाव लाया जा सकता था। धीरे-धीरे इनके विचारों का विरोध कांग्रेस के अन्दर ही होने लगा। हालांकि इनके विचारों और आजादी पाने के तरीकों से बहुत लोग असहमत थे लेकिन इस बात से बिलकुल भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इन नेताओं ने आजादी के आंदोलन को तेज करने के लिए एक सशक्त जमीन तैयार की।
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने हमेशा देशवासियों के हितों के लिए अंग्रेजी हुकुमत पर दबाव डालकर कानून में बदलाव लाने की कोशिश की। बनर्जी सहित नरमपंथी नेताओं का गरमपंथी दल के नेताओं के साथ इस बात को लेकर मतभेद था कि गरमपंथी राजनैतिक व्यवस्था में परिवर्तन लाकर भारतियों को शासन का अधिकार दिलाना चाहते थे और इसके लिए वे हिंसात्मक तरीके भी अपना सकते थे।
प्रारंभिक जीवन
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का जन्म 10 अगस्त 1848 को कलकत्ता में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। वे अपने पिता दुर्गा चरण बनर्जी के उदार व प्रगतिशील विचारों से बहुत प्रभावित थे। उनकी प्रारंभिक शिक्षा परिवार के पैत्रिक शिक्षा संस्थान ‘हिन्दू कॉलेज’ में हुई। कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक करने के बाद सन 1868 में वे भारतीय सिविल सेवा परीक्षा में बैठने के लिए इंग्लैंड चले गए। सन 1869 में उन्होंने परीक्षा उत्तीर्ण कर ली पर उम्र से सम्बंधित विवाद को लेकर उनका चयन रद्द कर दिया गया पर न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद वे एक बार फिर परीक्षा में बैठे और सन 1871 में दोबारा चयनित हुए। चयन के बाद उन्हें सिलहट में सहायक मजिस्ट्रेट बनाया गया पर ब्रिटिश प्रशासन ने उन पर नस्ली भेदभाव का आरोप लगाकर उन्हें सरकारी नौकरी से हटा दिया। सरकार के इस फैसले के खिलाफ वे इंग्लैंड गए पर उसका कोई नतीजा नहीं निकला। अपने इंग्लैंड प्रवास के दौरान उन्होंने एडमंड बुर्के और दूसरे उदारवादी दार्शनिकों की रचनाएं पढ़ी। इससे उन्हें ब्रिटिश सरकार का विरोध करने में सहायता मिली।
राजनैतिक जीवन
सन 1875 में भारत वापस आने के बाद वे मेट्रोपोलिटन इंस्टीट्युशन, फ्री चर्च इंस्टीट्युशन और रिपन कॉलेज में अंग्रेजी के प्रोफेसर बन गए। इसके बाद उन्होंने राष्ट्रीय, उदारवादी, राजनितिक और भारतीय इतिहास जैसे विषयों पर सार्वजानिक व्याख्यान देने लगे। 26 जुलाई 1876 को उन्होंने आनंद मोहन बोस के साथ मिलकर ‘इंडियन नेशनल एसोसिएशन’ की स्थापना की। यह भारत के सबसे शुरूआती राजनैतिक संगठनों में एक था। उन्होंने इस संगठन के माध्यम से ‘भारतीय सिविल सेवा’ में भारतीय उम्मीदवारों के आयु सीमा के मुद्दे को उठाया। उन्होंने देश भर में अपने भाषणों के माध्यम से ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा नस्ल-भेद की नीति की घोर निंदा की और धीरे-धीरे पूरे देश में प्रसिद्द हो गए।
सन 1879 में उन्होंने ‘द बंगाली’ समाचार पत्र की स्थापना की। सन 1883 में जब अपने पत्र में छपे एक लेख (जिसे अदालत की अवमानना माना गया) के कारण उन्हें गिरफ्तार किया गया तब बंगाल समेत देश के दूसरे शहरों जैसे आगरा, अमृतसर, फैजाबाद, लाहौर और पुणे में इसका घोर विरोध हुआ। धीरे-धीरे ‘इंडियन नेशनल एसोसिएशन’ के सदस्यों की संख्या भी बढ़ गयी और सन 1885 में सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने इसका विलय ‘भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस’ के साथ कर दिया क्योंकि दोनों संगठनों का लक्ष्य एक ही था। बाद में उन्हें दो बार कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया (पुणे – 1895 और अहमदाबाद – 1902)।
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी बंगाल विभाजन (1905) का पुरजोर विरोध करने वाले अग्रणी नेताओं में से एक थे। उन्होंने आगे बढ़कर आन्दोलन में भाग लिया और विरोध प्रदर्शन और याचिकाओं का आयोजन किया, जिसके फलस्वरूप अंग्रेजी हुकुमत ने बंगाल विभाजन के फैसले को सन 1912 में वापस ले लिया। वे गोपाल कृष्ण गोखले और सरोजिनी नायडू जैसे उभरते नेताओं के संरक्षक भी बने।
वे कांग्रेस के अन्दर वरिष्ठ नरमपंथी नेताओं में से एक थे और उनका मत था की अंग्रेजी हुकुमत के साथ सामंजस्य बैठाकर बात-चीत का रास्ता अपनाना चाहिए। उनका विचार गरमपंथी दल से बिलकुल विपरीत था जो क्रांति के साथ-साथ पूर्ण आजादी चाहते थे।
वे स्वदेशी आन्दोलन के बहुत बड़े प्रचारक और प्रवर्तक थे। उन्होंने लोगों से विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और स्वदेशी अपनाने का आग्रह किया।
स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान नरमपंथी नेताओं के घटते प्रभाव ने सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के प्रभाव को भी कम कर दिया। उन्होंने 1909 के ‘मोर्ले मिन्टो सुधारों’ की सराहना की जबकि देश के बड़े हिस्से और राष्ट्रवादी राजनेताओं द्वारा इसका घोर विरोध हुआ। उन्होंने महात्मा गाँधी के ‘सविनय अवज्ञा’ जैसे राजनितिक हथिआरों से भी सहमत नहीं थे। बंगाल सरकार में मंत्री पद स्वीकार करने के बाद उनकी घोर आलोचना हुई और सन 1923 के चुनाव में वे ‘स्वराज पार्टी’ के बिधान चन्द्र रॉय से हार गए और उनका राजनैतिक जीवन लगभग समाप्त हो गया।
अंग्रेजी राज के समर्थन के लिए उन्हें नाइट की पदवी से सुशोभित किया गया। बंगाल सरकार में मंत्री रहते हुए उन्होंने कलकत्ता नगर निगम को ज्यादा लोकतांत्रिक बनाया।
भारतीय राष्ट्रवाद के निर्माता
पहले ‘इंडियन नेशनल एसोसिएशन’ और फिर ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ के माध्यम से सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने भारत में राष्ट्रवाद विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने देश के शासन में अधिक हिस्सा दिये जाने के लिए कई दशकों तक संघर्ष किया पर बदलते समय के साथ राष्ट्रिय आन्दोलन स्वाधीनता की माँग में बदल गया जो सुरेन्द्रनाथ की कल्पना से परे था। उनका अंतिम समय आते-आते स्वधीनता आन्दोलन का स्वरुप बिलकुल ही परिवर्तित हो चुका था परन्तु इसमें दो राय नहीं है कि उनका नाम उन नेताओं में शुमार है जिन्होंने देश में राष्ट्रीय आन्दोलन की नींव रखी।
मृत्यु
सन 1923 के चुनाव में स्वराज पार्टी के बिधान चन्द्र रॉय से हारने के बाद वे सार्वजनिक जीवन से प्राय: अलग रहे और 6 अगस्त, 1925 में उनका निधन हो गया।