History

Sarojini Naidu | सरोजिनी नायडू

सरोजिनी नायडू की जीवनी

सरोजिनी नायडू महान देशभक्त थी। गांधी जी के बताए मार्ग पर चलकर स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वालो में उनका महत्वपूर्ण स्थान था। उनमें देशप्रेम, साहस और शौर्य तो था ही,कवि की कोमल भावनाएं भी थी। वे उच्चकोटि की कवयित्री भी थी। उनकी रचनाओं में वीर और करूण रस का पुनीत संगम देखने को मिलता है। वे स्वयं वीरता और करुणा की साक्षात प्रतिमा थी।

सरोजिनी नायडू की जीवनी

स्वर्गीय नेहरू जी ने उनके संबंध में लिखा हैकि —-सरोजिनी जब कार्य समितियों की बैठकों में पहुंचती थी, तो उसी प्रकार वातावरण गूंज उठता था, जिस तरह बुलबुल के बोलने से चमन का सन्नाटा दूर हो जाता है।

सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फरवरी सन् 1879 को हैदराबाद में हुआ था। सरोजिनी नायडू के पिता का नाम आधोरनाथ चट्टोपाध्याय और माता का नाम वरद सुंदरी था। उनके पिता बंगाली ब्राह्मण थे, तथा रसायन शास्त्र के बहुत बडे विद्वान थे। उन्होंने हैदराबाद में एक कॉलेज की स्थापना की थी। वे उसी कॉलेज में रसायन शास्त्र पढाया करते थे। सरोजिनी के जन्म के समय वे प्रधानाचार्य के पद पर थे। वे बडे सादे ढंग से रहा करते थे, निश्छल ह्रदय के थे, दिल खोलकर जोर जोर से हंसा करते थे।

सरोजिनी नायडू की माता सरल ह्रदया भारतीय महिला थी। वे पाक विद्या मे बडी पटु थी, सबके साथ मृदुलता का व्यवहार करती थी। और तो और नौकरों को भी अपने ही परिवार का सदस्य समझती थी।

सरोजिनी को जोर से हंसने, ऊंची आवाज मे बोलने और सबके साथ मृदुलतापूर्ण व्यवहार करने का गुण अपने माता पिता से ही प्राप्त हुआ था।

सरोजिनी चार भाई बहनों में सबसे बडी थी। उन्होंने विलक्षण प्रतिभा पाई थी। उनकी शिक्षा अंग्रेजी में हुई थी। उन्होंने बारह वर्ष की अवस्था में ही मद्रास यूनिवर्सिटी से मैट्रिक की परीक्षापास कर ली थी। यूनिवर्सिटी में उनका तीसरा स्थान था।

सरोजिनी नायडू विद्यार्थी अवस्था में ही अंग्रेजी में कविताएं लिखने लगी थी। उनके पिता उनकी कविताओं से बडे प्रभावित थे। अतः वे उन्हें प्रोत्साहित भी किया करते थे। कि सरोजिनी अंग्रेजी में अपना ज्ञान बढाएं। वे चाहते थे कि सरोजिनी की अंग्रेजी बहुत अच्छी हो जाए। जिससे अंग्रेजी के बडे बडे विद्वान भी उनकी अंग्रेजी की प्रशंसा कर सके।

सन् 1891 से 95 के मध्य मे सरोजिनी का परिचय एक युवक से हुआ। जिसका नाम गोविंदलाजलू नायडू था। धीरे धीरे वह परिचय प्रगाढ़ प्रेम के रूप मे परिवर्तित हो गया। राजुलू ब्राह्मण नही थे। अतः सरोजिनी के पिता संकट में पड गए। क्योंकि वे अपनी पुत्री का हाथ किसी अब्राह्मण के हाथ में नही देना चाहते थे।

अतः सरोजिनी के पिता ने उन्हें पढ़ने के लिए लंदन भेज दिया। उनकी धारणा थी कि सरोजिनी के लंदन जाने प्रेम समाप्त हो जाएगा। परंतु ईश्वर को यह स्वीकार नही था। सरोजिनी नायडू लंदन जाकर बीमार पड़ गई। उनके पिता ने स्वयं लंदन जाकर उनकी चिकित्सा करायी। जब वह स्वस्थ्य हो गई तो भारत लौट आईं।

सरोजिनी जबतक लंदन मे रही कविताएँ लिखती रही। वे अंग्रेजी के बडे बडे कवियों और आलोचकों से भी मिली थी, जिन्होंने उनकी रचनाओं की बडी प्रशंसा की थी। इंग्लैंड के प्रवास के दिनो मे राजुलू के साथ उनका पत्रव्यवहार चलता रहा। जिसके फलस्वरूप प्रेम समाप्त नही हुआ, बल्कि इसके विपरित दिनोंदिन प्रगाढ़ होता गया।

सन् 1898 मे जब सरोजिनी इंग्लैंड से लौटकर आई, तो उनकी इच्छा को देखकर उनके पिता ने राजुलू के साथ उनका विवाह कर दिया। कुछ दिनो के बाद राजुलू की नियुक्ति निजाम के डॉक्टर के पद पर हुई। इस पद पर रहकर उन्होंने बडी उन्नति की। वे निजाम के राज्य के सर्वश्रेष्ठ डॉक्टर समझे जाते थे।

सरोजिनी नायडू के चार बच्चे थे। उनकी बडी पुत्री पद्मजा नायडू ने उनके ही जीवन मार्ग पर चलकर बडी उन्नति की। वे आजीवन अविवाहित रही। उन्हें बंगाल की गवर्नर होने का भी गौरव प्राप्त हुआ। सरोजिनी की दूसरी पुत्री नीलमणि नायडू ने भी भारत सरकार के विदेश विभाग में कई वर्षों तक सचिव के पद पर काम किया। वे भी अविवाहित रही। लड़का जर्मनी मे होमियोपैथी का बहुत बडा डॉक्टर था। उसने उसने जर्मनी में ही अपना विवाह किया था। उसकी कोई संतान नही है।

सरोजिनी नायडू सदा सामाजिक और राजनीतिक कार्यों में लगी रहती थी। उनकी अनुपस्थिति मे पद्मजा नायडू गृहस्थी का संचालन करती थी। स्वंय सरोजिनी भी उनकी योग्यता और कार्यक्षमता की प्रशंसा किया करती थी। वे घर का कामकाज करने के साथ साथ समाजिक और राजनीतिक कार्य भी किया करती थी।

सरोजिनी को “भारत की कोकिला” कहा जाता था, उनकी इस उपाधि के पिछे उनकी कविताएं थी। उन्होंने 12 वर्ष की उम्र से लेकर 24-25 वर्ष की उम्र तक सुंदर और भावपूर्ण कविताओं की रचना की। पहले उनकी कविताओं पर पश्चिमी जीवन की छाप थी, परंतु उसके पश्चात की गई बाकी रचनाओं में भारतीय संस्कृति का समावेश हो गया था।

सचमुच, सरोजिनी भारत की कोकिला थी, वे कोकिला की ही तरह बोलती थी। वे जहाँ जहाँ जाती थी, वातावरण गुंजायमान हो जाता था। उनकी रसमयी और मधुर वाणी सूने वातावरण में भी रस की गंगा बहा देती थी, परंतु राजनीति ने उनकी रसमयता को सुखा दिया। यद्यपि उनके ह्रदय मे ंआजीवन कवित्व बना रहा, पर इसमे संदेह नही कि उसमें राजनीति की कटुता भी समा गई थी।

सरोजिनी की कविताओं के कई संग्रह प्रकाशित हुए है। उनका अंतिम संग्रह सन् 1940 मे अमेरिका से प्रकाशित हुआ था। उसमें पुरानी चुनी हुई कविताएँ थी। वे गद्य भी लिखती थी। उनके गद्य मे कवित्त का ओज भरा रहता था।

यद्यपि सरोजिनी की कविताओं की प्रशंसा बडे बडे अंग्रेजों और भारतीय विद्वानों ने भी की है। पर उन्हें जो ख्याति प्राप्त हुई है, उसका कारण उनकी कविता नही, उनकी देशभक्ति है। उन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप मे कहा थाकि– “जब तक मेरे शरीर में प्राण है, मेरी रगो मे लहूँ है, मे आजादी के लिए युद्ध करती रहूंगी”।

राजनीति के क्षेत्र में सरोजिनी नायडू के दो प्ररेणा गुरू थे– गोपालकृष्ण गोखले और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी। वे गोखले का बडा सम्मान करती थीं। उनकी मृत्यु पर उन्होंने एक कविता लिखी थी, जिसके शब्दों में उनके ह्रदय की श्रद्धा और प्रेम बोलता था।

सरोजिनी नायडू की गांधी जी से पहली भेंट सन् 1914 मे लंदन में हुई थी। पहली ही भेंट मे उन्होंने अपने आप को गांधी जी का प्रशंसक बना लिया था। उन्होंने गांधी जी के सिद्धांतों मे अपने आप को ढाल लिया था। वे अहिंसा, सच्चाई, सादगी, हरिजन सेवा और विनम्रता की जीती जागती तस्वीर थी।

सरोजिनी की देशसेवाओ पर मुग्ध होकर उन्हें राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया। वे प्रथम महिला थी जिन्हें यह गौरव प्राप्त हुआ था। कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने भारत का ही नही बल्कि दक्षिण अफ्रीका काभी दौरा किया। उन्होंने सन् 1928 मे अमेरिका जाकर मदर इंडिया के लेखक को मुंह तोड जवाब दिया। मदर इंडिया में अंग्रेज लेखक ने भारत की बडी निंदा की थी। उन्होंने सभाओं में दिए अपने भाषण में कहा कि मदर इंडिया मे जो कुछ लिखा गया है। वह बिल्कुल असत्य और बेईमानी से भरा हुआ है।

दिन रात कार्यों में व्यस्त रहने के कारण सरोजिनी का स्वास्थ्य खराब हो गया था। उनके बांए हाथ मे दर्द बना रहता था। वे शरीर से स्थूल हो गई थी। उनकी बीमारी उन्हें कार्यसमिति की आवश्यक बैठकों में भी भाग नहीं लेने देती थी।

15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ। स्वतंत्र भारत में सरोजिनी नायडू को उत्तर प्रदेश के गवर्नर के पद पर प्रतिष्ठित किया गया। वे प्रथम भारती महिला गवर्नर थी जिन्हें यह गौरव प्राप्त हुआ। 4 मार्च सन् 1949 को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में ही सरोजिनी नायडू की मृत्यु हो गई। भारत की स्वतंत्रता के इतिहास में वह अमर हो गई और इतिहास मे सरोजिनी के जीवन की गाथा सदा बडे सम्मान के साथ लिखी और पढी जाएगी

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