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रणजीत सिंह की जीवनी | Maharaja Ranjit Singh Biography

महाराजा रणजीत सिंह की जीवनी | Maharaja Ranjit Singh Biography In Hindi

Maharaja Ranjit Singh Biography

पंजाब के लोक जीवन और लोक कथाओं में महाराजा रणजीत सिंह से सम्बन्धित अनेक कथाएं कही व सुनी जाती है. इसमें से अधिकांश कहानियां उनकी उदारता, न्यायप्रियता और सभी धर्मो के प्रति सम्मान को लेकर प्रचलित है. उन्हें अपने जीवन में प्रजा का भरपूर प्यार मिला. अपने जीवन काल में ही वे अनेक लोक गाथाओं और जनश्रुतियों का केंद्र बन गये थे.

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“शेरे पंजाब” के नाम से विख्यात और सिख राज्य के संस्थापक महाराजा रणजीत सिंह (Maharaja Ranjit Singh )का जन्म 3 नवम्बर 1780 को गुजरांवाला (वर्तमान में पाकिस्तान में) में हुआ था | 2 वर्ष की उम्र में ही उनके पिता का देहांत हो गया और छोटी उम्र में ही उनको सिख मसलो के एक छोटे समूह का सरदार बना दिया गया , उस समय उनका शासन सिमित क्षेत्र पर ही था | 1793 और 1798 के बीच अफगान शासक जमाल शाह के पंजाब पर आक्रमण होते रहे | अराजकता की इस स्थिति में 19 वर्षीय रणजीत सिंह (Maharaja Ranjit Singh)  ने लाहौर पर अधिकार कर लिया |

जमालशाह को उन्हें “राजा” की उपाधि देकर वहा का उपशासक स्वीकार करना पड़ा | इसके बाद उन्हें अनेक सामरिक सफलताये मिलती गयी और उन्होंने अफगानों की नाममात्र की आधीनता भी अस्वीकार कर दी | उन्होंने अमृतसर पर अधिकार कर लिया और जम्मू के शासक से भी अपनी अधीनता स्वीकार कराई | सन 1801 में बैसाखी के दिन पंजाब के प्रमुख नागरिको ने रणजीत सिंह को “महाराजा” की उपाधि दी और गुरुनानक के उत्तराधिकारी बाबा साहब सिंह द्वारा उनका तिलक समारोह हुआ |

1805 में होल्कर को पराजित करके उसका पीछा करता हुआ लार्डलेक व्यास नदी तक पहुच गया था | होल्कर ने रणजीत सिंह (Maharaja Ranjit Singh) से सहायता माँगी | रणजीत सिंह (Maharaja Ranjit Singh) ने बड़ी चतुरता से दोनों में संधि करा दी | इस संधि से होल्कर को उसके राज्य का कुछ भाग मिल गया और अंग्रेजो को सतलज नदी के उत्तर में सम्पूर्ण पंजाब पर रणजीत सिंह की प्रभुता स्वीकार कर ली | अब रणजीत सिंह ने पंजाब की छोटी छोटी सिख रियासतों को मिलाकर राज्य विस्तार आरम्भ किया |

उस समय तक अंग्रेज दिल्ली तक अपना राज्य विस्तार कर चुके थे | रणजीत सिंह (Maharaja Ranjit Singh) के प्रभाव क्षेत्र को बढ़ते देखकर उन्होंने दोहरी चाल चली | सर चार्ल्स मेटकाफ के नेतृत्व में एक दूत मंडल और साथ ही पीछे से अंग्रेजी सेना महाराजा रणजीत सिंह के राज्य में भेजी | महाराजा ने इस बार भी राजनितिक चातुरी का परिचय दिया और 1908 में “अमृतसर की संधि” कर ली | इसके अनुसार रणजीत सिंह को कुछ क्षेत्र छोड़ना पड़ा और सतलज के दक्षिण की रियासते अंग्रेजो के अधिकार में आ गयी |

अब रणजीत सिंह (Maharaja Ranjit Singh) ने दुसरी दिशा में अपना अभियान आरम्भ किया | उन्होंने कांगड़ा और अटक पर अधिकार कर लिया | इसी बीच अफगानिस्तान का शासक शाह सुजा उनकी शरण में आया | उसने 1814 ईस्वी में महाराजा रणजीत सिंह को प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा प्रदान किया था | उन्होंने 1818 में मुल्तान को जीता और 1819 में कश्मीर पर अधिकार किया और 1823 में पेशावर पर कब्जा करके उसे अपने राज्य की राजधानी बनाया |

रणजीत सिंह (Maharaja Ranjit Singh) दूरदर्शी राजनीतिज्ञ थे | उन्होंने जम्मू और कश्मीर को मिलाकर एक प्रभुता सम्पन्न शक्तिशाली राज्य का रूप दिया | यह राज्य तिब्बत के पश्चिमी सिंध के उत्तर और खैबर दर्रे से लेकर यमुना नदी के पश्चिमी तट तक एक भौगोलिक और राजनितिक इकाई था | उन्होंने न तो अंग्रेजो से युद्ध किया और न उनकी सेनाओं को अपने राज्य के अंदर आने दिया | काबुल के शासको ने पेशावर पर कब्जा करने के कई असफल प्रयत्न किये | 1849 में अंग्रेजो के अधिकार में आने तक यहा सिखों का आधिपत्य बना रहा |

59 वर्ष की उम्र में 1839 में रणजीत सिंह की मृत्यु हो गयी यद्यपि उसके 10 वर्ष बाद ही यह राज्य विच्छिन हो गया पर अपनी वीरता , राज्नितिग्यता और उदारता के लिए महाराजा रणजीत सिंह (Maharaja Ranjit Singh) को भारत के इतिहास में गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त है | उनकी सरकार साम्प्रदायिक आग्रहों से मुक्त थी और उसमे सभी समुदायों के लोग सम्मिलित थे | उन्होंने ऊँचे पदों पर हिन्दू और मुसलमानों सभी योग्य व्यक्तियों को नियुक्त किया | कनिघम में लिखा है कि उनका राज्य जन-भावना पर आधारित था | हिस्ट्री आफ द सिख के लेखक के शब्दों में रणजीत सिंह सामान्य व्यक्ति नही थे वरन सम्पूर्ण पूर्व और पश्चिमी संसार में दुर्लभ मानसिक शक्तियों के स्वामी थे |

महाराजा रणजीत सिंह की जीवनी

महाराजा रणजीत सिंह का जन्म सन 1780 में गुजरांवाला,भारत (अब पाकिस्तान) में सुकरचक्या मिसल (जागीर) के मुखिया महासिंह के घर हुआ. अभी वह 12 वर्ष के थे कि उनके पिता का स्वर्गवास हो गया. सन 1792 से 1797 तक की जागीर की देखभाल एक प्रतिशासक परिषद् (council of Regency) ने की. इस परिषद् में इनकी माता- सास और दीवान लखपतराय शामिल थे. सन 1797 में महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी जागीर का समस्त कार्यभार स्वयं संभाल लिया.

महाराजा रणजीत सिंह ने सन 1801 में बैसाखी के दिन लाहौर में बाबा साहब बेदी के हाथों माथे पर तिलक लगवाकर अपने आपको एक स्वतंत्र भारतीय शासक के रूप में प्रतिष्ठत किया. 40 वर्ष के अपने शासनकाल में महाराजा रणजीत सिंह ने इस स्वतंत्र राज्य की सीमाओं को और विस्तृत किया. साथ ही साथ उसमे ऐसी शक्ति भरी की किसी भी आक्रमणकारी की इस ओर आने की हिम्मत नहीं हुई.

महाराजा के रूप में उनका राजतिलक तो हुआ किन्तु वे राज सिंहासन पर कभी नहीं बैठे. अपने दरबारियों के साथ मनसद के सहारे जमीन पर बैठना उन्हें ज्यादा पसंद था. 21 वर्ष की उम्र में ही रणजीत सिंह ‘महाराजा’ की उपाधि से विभूषित हुए. कालांतर में वे ‘शेर – ए – पंजाब’ के नाम से विख्यात हुए.

महाराजा रणजीत सिंह एक अनूठे शासक थे. उन्होंने कभी अपने नाम से शासन नहीं किया. वे सदैव खालसा या पंथ खालसा के नाम से शासन करते रहे. एक कुशल शासक के रूप में रणजीत सिंह अच्छी तरह जानते थे की जब तक उनकी सेना सुशिक्षित नहीं होगी, वह शत्रुओ का मुकाबला नहीं कर सकेगी. उस समय तक ईस्ट इंडिया कम्पनी का अधिकार सम्पूर्ण भारत पर हो चूका था. भारतीय सैन्य पद्दति और अस्त्र – शस्त्र यूरोपीय सैन्य व्यवस्था के सम्मुख नाकारा सिद्ध हो रहे थे.

सन 1805 में महाराजा ने भेष बदलकर लार्ड लेक शिविर में जाकर अंग्रेजी सेना की कवायद, गणवेश और सैन्य पद्दति को देखा और अपनी सेना को उसी पद्दति से संगठित करने का निश्चय किया. प्रारम्भ में स्वतन्त्र ढंग से लड़ने वाले सिख सैनिको को कवायद आदि का ढंग बड़ा हास्यापद लगा और उन्होंने उसका विरोध किया पर महाराजा रणजीत सिंह अपने निर्णय पर दृढ रहे.

महान इतिहासकार जे. डी कनिंघम ने कहा था-

” निःसंदेह रणजीत सिंह की उपलब्धियाँ महान थी. उसने पंजाब को एक आपसी लड़ने वाले संघ के रूप में प्राप्त किया तथा एक शक्तिशाली राज्य के रूप में परिवर्तित किया ”.

महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में किसी को मृत्युदंड नहीं दिया गया, यह तथ्य अपने आप में कम आश्चर्यजनक नहीं है. उस युग में जब शक्ति के मद में चूर शासकगण बात बात में अपने विरोधियो को मौत के घाट उतार देते थे, रणजीत सिंह ने सदैव अपने विरोधियो के प्रति उदारता और दया का दृष्टिकोण रखा. जिस किसी राज्य या नवाब का राज्य जीत कर उन्होंने अपने राज्य में मिलाया उसे जीवनयापन के लिए कोई न कोई जागीर निश्चित रूप से दे दी.

एक व्यक्ति के रूप में महाराजा रणजीत सिंह अपनी उदारता और दयालुता के लिए बहुत प्रसिद्ध थे. उनकी इस भावना के कारण उन्हें लाखबख्श कहा जाता था. शारारिक दृष्टि से रणजीत सिंह उन व्यक्तियों में से नहीं थे, जिन्हें सुदर्शन नायक के रूप में याद किया जाये. उनका कद औसत दर्जे का था. रंग गहरा गेहुँवा था. बचपन में चेचक की बीमारी के कारण उनकी बाई आँख ख़राब हो गयी थी. चेहरे पर चेचक के गहरे दाग थे परन्तु उनका व्यक्तित्व आकर्षक था.

तत्कालीन ब्रिटिश गवर्नर ज़नरल लार्ड विलियम बेटिंक ने एक बार फ़क़ीर अजिजमुद्दीन से पुछा की महाराजा की कौन सी आँख ख़राब है. फ़क़ीर साहब ने उत्तर दिया – ” उनके चेहरे पर इतना तेज है कि मैंने कभी सीधे उनके चेहरे की ओर देखा ही नहीं. इसलिए मुझे यह नहीं मालूम की उनकी कौन सी आँख ख़राब है ”.

महाराजा रणजीत सिंह का 27 जून सन 1839 में लाहौर में देहावसान हो गया. उनके शासन के 40 वर्ष निरंतर युद्धों – संघर्षो के साथ ही साथ पंजाब के आर्थिक और सामाजिक विकास के वर्ष थे, रणजीत सिंह को कोई उत्तराधिकारी प्राप्त नहीं हुआ, यह दुर्भाग्य की बात थी. महाराजा रणजीत सिंह की कार्यशैली में अनेक ऐसे गुण थे, जिन्हें वर्तमान शासन व्यवस्था में भी आदर्श के रूप में भी सम्मुख रखा जा सकता है.

वे शेर-ए पंजाब के नाम से हमेशा प्रसिद्ध रहेंगे. ऐसे महान शासक को हमारा नमन

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