रे मन! चल सागर के उस पार जहाँ फैली हैं दिशा अपार
रे मन! चल सागर के उस पार, जहाँ फैली हैं दिशा अपार।
रे मन! चल सागर के उस पार जहाँ फैली हैं दिशा अपार
रे मन! चल सागर के उस पार,
जहाँ फैली हैं दिशा अपार।
मार्ग में उछल -कूद करती हैं लहरें,
मन में प्रेम-भाव भरती हैं गहरे।
रे मन! चल सागर के उस पार,
जहाँ बिखरा है जलद – संसार।
छिपी है उसमें अमृत-धार,
यह तो है सृष्टि का आधार।
रे मन! चल सागर के उस पार,
जहाँ उडते हैं विहग स्वच्छंद।
चमकना, ना उनका पडता मंद,
भरे वो जीवन में आनन्द, रे मन!
चल सागर के उस पार।।।।।।।।
Author- Balendu Shekhar ( M.a )