poem

तुम्हें ढूँढने जग में, मैं आया कितनी बार

तुम्हें ढूँढने जग में, मैं आया कितनी बार

तुम्हें ढूँढने जग में मैं आया कितनी बार

तुम्हें ढूँढने जग में,

मैं आया कितनी बार,

और यहाँ आकर मैं,

पछताया कितनी बार।

किन्तु कदाचित रहा व्यर्थ ही मेरा रोना-धोना,

तुम न मिले इस जग का मैनें छाना कोना – कोना,

और किसी तरह मन को मैंने समझाया कितनी बार,

और यहाँ आकर मैं पछताया कितनी बार।

झांक कुंए के अन्दर जब मैंने आवाज लगाई,

एक अपरिचित ध्वनि तब मेरे कानों से टकराई,

तब मैंने जाना कि मैं ही हूँ जिसको मैं ढूँढ रहा हूँ,

इन गीतों में धुन बनकर मैं ही गूंज रहा हूँ। ।।।।।।।।।

                                                                                                                                           Author – Balendu Shekhar

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