मुसलमान कवियों की हिन्दी सेवा
मुसलमान कवियों की हिन्दी सेवा
मुसलमान कवियों की हिन्दी सेवा
राजनैतिक क्षेत्र में हिन्दू और मुसलमानों के कुछ भी सम्बन्ध रहे हों , परन्तु साहित्यिक के में मुसलमानों ने हिन्दी की अमूल्य सेवा की वे हिन्दुओं के अधिक निकट आये । भारतीय सभ्यता और संस्कृति से वे अत्यधिक प्रभावित हुए , धार्मिक मुसलमान कवियों की हिन्दी सेवा क्षेत्र में यद्यपि वे एकेश्वरवाद को मानते थे । उनका मूलमन्त्र था – ‘ ला इला इल अल्लाह ‘ अर्थात् अल्लाह के सिवाय कोई दूसरा अल्लाह नहीं । इतना होते हुए भी , वे भारतीय कृष्ण – भक्ति परम्परा से बडे प्रभावित हुए । पुरुषों ने ही नहीं मुसलमान स्त्रियो । भी कृष्ण की पावन लीलाओं का वर्णन किया । यद्यपि उस समय का शासन – सूत्र मुसलमानों के ही हाथों में था , पारस्परिक कटुता दोनों ओर से हृदय में समाई हुई यो , फिर भी मुसलमानों में भी कुछ महापुरुष ऐसे में , जो कृष्ण भक्ति में और भक्तिकाव्य के प्रणयन में हिन्दुओं से कम नहीं थे । इन्हीं मुसलमान भक्त कवियों की प्रशंसा में एक दिन भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के मुख से निम्न पंक्ति सहज ही में फूट निकली थीं-
” इन मुसलमान हरिजनन पै कोटिन हिन्दुन वारिये । ”
हिन्दी साहित्य के आदिकाल से ही मुसलमान कवियों ने अपनी अमूल्य साहित्यिक कृतियों से हिन्दी साहित्य की श्री वृद्धि की । खड़ी बोली हिन्दी के आदि कवि खुसरो अब से लगभग ७०० वर्ष पहले सम्वत् १३०० के लगभग विद्यमान थे । वे बलबन के पुत्र मुहम्मद के आश्रित कवि थे । इन्होंने अपनी पहेलियों और मुकरियों द्वारा जनता का खूब मनोरंजन किया । अरवी , फारसी के साथ – साथ इन्हें संस्कृत का भी पर्याप्त ज्ञान था । संस्कृत भाषा में भी इन्होंने काव्य रचना की थी । ये बड़े विनोदी स्वभाव के थे , इनका सांसारिक वैभव भी बढ़ा – चढ़ा था । खुसरो की लोकप्रियता का एक विशेष कारण यह था कि उन्होंने जन – साधारण की बोलचाल की भाषा को अपनाया तथा उसमें हास्य का पुट भी पर्याप्त मात्रा में रखा । उदाहरण – स्वरूप कुछ रचनायें उद्धृत की जा रही हैं , जिनमें यह बात अधिक स्पष्ट हो जायेगी –
( हास्य ) खीर पकाई जतन से , चरखा दिया चलाय ,
आया कुत्ता खा गया तू बैठी ढोल बजाय ,
और फिर ” ला पानी पिला । ”
X X X X X X X X X X
( मुकरी ) वह आए तब शादी होय , उस बिन दूजा और न कोय ।
मीठे लागें वाके बोल , क्यों सखि साजन ? ना सखि ढोल ।।
( पहेली ) एक थाल मोती से भरा सब के सिर पर औंधा धरा ।
भक्तिकाल में चार धारायें प्रवाहित हुई – दो निर्गुण के अन्तर्गत तथा दो सगुण के अन्तर्गत । निर्गुण पंथ की दोनों धाराओं में मुसलमान कवियों ने अमूल्य योगदान दिया । ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख कवि कबीर मुसलमान थे , इसमें संदेह नहीं । नीमा नीरू के पालन – पोषण ने उनके मन में इस्लामी संस्कार पूर्णरूपेण से जमा दिए । अपढ़ होते हुए भी , अपने अनुभवों के आधार पर कबीर ने हिन्दी साहित्य की जो सेवा की वह अमूल्य है । कबीर के हमें तीन स्वरूप प्राप्त होते हैं कवि , ज्ञानी तथा समाज सुधारक । वे एक सच्चे समाज – सुधारक थे । उन्होंने ज्ञान की गहन गुत्थियों को अपने विचित्र प्रतीकों और रूपकों द्वारा जनता को समझाने का प्रयत्न किया । आत्मा और माया के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट कराने वाला वैचित्र्य देखिये –
जल में कुम्भ , कुम्भ में जल है , बाहर भीतर पानी । फूटा कुम्भ जल जलहिं समाना यह तत् कथ्यों गियानी ।।
X X X X X X X X X X X X X
काहे री नलिनी तू कुम्हिलानी ।
तेरे ही नाल सरोवर पानी ।।
इसी प्रकार , “ नैया बिच नदिया डूबी जाये ” आदि उलटवासियों द्वारा गम्भीर तथ्यों को समझाने की चेष्टा की है । जिस रहस्यवाद की आज के कवि छीछालेदर कर रहे हैं उसी ज्ञानात्मक रहस्यवाद के वे जन्मदाता थे । आध्यात्मिक प्रेम और विरह की जैसी तीव्र अनुभूति हमें कबीर की रचनाओं में मिलती है , वैसी अधिकांश हिन्दी के कवियों में प्राप्त नहीं होती ।
कबीर के पश्चात् प्रेमाश्रयी शाखा के प्रधान कवि मलिक मुहम्मद जायसी का नाम आता है । ये महाकवि गोस्वामी तुलसीदास की कोटि में आते हैं । जायसी ने अपने पद्मावत काव्य से जिन दोहों और चौपाइयों का मार्ग प्रशस्त किया था आगे चलकर तुलसी ने उन्हीं का अनुकरण किया । जायसी का पद्मावत उनकी कीर्ति का अक्षय स्तम्भ है । इसमें लौकिक और अलौकिक प्रेम का सामंजस्य उपस्थित किया गया है –
तनु चितउर मन राजा कीन्हा , हिय सिंहल बुद्धि पधिनि चीन्हा ।
गुरु सुआ जेई पथ दिखावा , बिन गुरु जगत् को निरगुन पावा ।
नागमीत यह दुनिया धन्धा , बाँचा सोई न एहि चित बन्धा ।
राघव दूत सोई सैतानू माया अलाउद्दीन सुलानू ।
प्रेममार्गी शाखा तो एक प्रकार से मुसलमान कवियों की ही थी । कुतबन शेरशाह के पिता हुसैनशाह के दरबारी कवि थे । इनका मृगावती नामक काव्य अत्यन्त प्रसिद्ध है , इस पुस्तक में चन्द्रनगर के राजा गणपतिदेव के राजकुमार और कंचनपुर की राजकुमारी की प्रेम – कथा का वर्णन है । प्रेम – मार्ग की कठिनाइयों का अच्छा वर्णन है , जो साधक के लिए बड़ी उपदेश – प्रद है । इस काव्य में रहस्य भावना की प्रधानता है । मंझन कवि ने मधुमालती की रचना की , तो उस्मान चित्रावली की । इसके अतिरिक्त , शेख नवी , कासिमशाह , नूरमुहम्मद तथा फाजिलशाह आदि कवियों ने भी सुन्दर प्रेम गाथायें लिखीं ।
अकबर के सेनापति बैरमखा के पुत्र अब्दुर्रहीम खानखाना ने भी अपने नीतिपूर्ण दोहों से हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि की । बरवै छन्द के तो जन्मदाता ही वे थे । बरवै नायिका भेद और मदनाष्टक उनकी सुन्दर रचनायें हैं । बरवै का प्रारम्भिक छन्द देखिए-
प्रेम प्रीत को बिरवा चल्यो लगाइ ।
सींचन की सुधि लीजिओ कहुँ मुरझि न जाइ ।
बिहारी के दोहे तो रसिकों के हृदय में घाव करते थे , परन्तु रहीम के दोहे सबको समान रूप से बाँधते रहे है , चाहे वे रसिक हों या नीतिज्ञ ।
रहिमन यो सुख होत है बढ़त देखि निज गोत ।
ज्यों बड़री अंखियाँ निरखि आँखिन को सुख होत ।।
X X X X X X X X X X X X X
रहिमन अंसुवा नयन इरि , जिय दुःख प्रकट करेई । जाहि निकारो गेह ते , कस न भेद कहि देई ।।
राम – भक्ति शाखा में यद्यपि कोई मुसलमान कवि नहीं हुआ परन्तु कृष्ण – भक्ति ने उन्हें इतना प्रभावित किया कि ताज नामक मुसलमान महिला भी कह उठी-
नन्द के कुमार कुरबान तेरी सूरत पै ।
हो तो मुगलानी , हिन्दुवानी है रहोगी मैं ।।
ताज की तरह शेख नाम की रंगरेजिन भी हिन्दी को भक्त कवियित्री थी जिसके प्रेम में फंसकर आलम कवि ब्राह्मण से मुसलमान बन गये थे । आलम की गणना हिन्दी के प्रसिद्ध मुसलमान कवियों में की जाती है । यह प्रसिद्ध दोहा आलम का ही है-
कनक छरी सी कामिनी , काहे को कटि छीन ।
शेख ने इनका उत्तरार्द्ध यों पूरा किया –
‘ कटि को कंचन काटि विधि कुचन मध्य धरि दीन । ‘
इस पर मुग्ध होकर आलम ने शेख से विवाह कर लिया । विशुद्ध कृष्ण – भक्ति का उज्ज्वल स्वरूप हमें रसखान की रचनाओं में प्राप्त होता है । पठान होते हुए भी इनका मन कृष्ण भक्ति में रमा हुआ था । परिष्कृत भाषा और भाव सौन्दर्य की दृष्टि से रसखान का स्थान हिन्दी के गिने – चुने कवियों में है । सूरदास को छोड़कर रसखान की तुलना में कोई भी भक्त कवि नहीं ठहरता । आज भी उनके सवैये और कवित्त बड़े प्रेम से कहे और सुने जाते हैं-
रसखान कबहुँ इन आँखिन सौं ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौ ।
कोटिक हूँ कलधौत के घाम करील की कुंजन ऊपर वारौ ।।
X X X X X X X X X X X X X X X
मानुस हों तो वही रसखानि बसों बज गोकुल गाँव के ग्वारन ।।
भक्तिकाल के इन कवियों के अतिरिक्त कादिर और मुबारक आदि कवियों ने भी कृष्ण को चन्दना के स्वरों में अपने स्वर मिलाये , जिसका गुंजन आज भी कभी – कभी इधर – उधर सुनाई पड़ जाता है ।
हिन्दी साहित्य के रीतिकाल में भी मुसलमानों ने योगदान दिया । वैसे तो रहीम ने भी रीति मन्थ लिखा है । पठान सुल्तान ने बिहारी की सतसई की तरह कुण्डलियाँ लिखी थीं । रीतिकाल में सैयद रसलीन प्रसिद्ध कवि हुए । ये सम्वत् १ ९ ७४ के आस – पास विद्यमान थे । इनकी अंग दर्पण नाम की पुस्तक प्रसिद्ध है । आज भी निम्नलिखित दोहा जो कि इन्हीं के द्वारा लिखा गया था , अधिकांश लोग बिहारी का समझते हैं –
अमी हलाहल मद भरे , सेत श्याम रतनार ।
जियत , मरत झुकि झुकि परत जेहि चितवत इक बार ।।
आगरे में सम्वत् १ ९९ ७ में नजीर अकबरावादी हुए , जिन्होंने सर्वसाधारण की भाषा में बड़ी मधुर रचनायें की । इन्होंने हिन्दी में उर्दू शब्दों का प्रयोग किया । एक उदाहरण देखिए-
यारो सुनो ये दधि लुटैया का बालपन ।
और मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन ॥
ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन ।
क्या क्या कहूँ मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन ।।
पद्य के अतिरिक्त गद्य का हिन्दी साहित्य क्षेत्र भी मुसलमान साहित्यकारों का ऋणी है । गद्य में खड़ी बोली का श्रीगणेश भी खुसरो ने किया था । गद्य में इंशाअल्ला खाँ ने ‘ रानी केतकी की कहानी ‘ में यह स्पष्ट स्वीकार किया है कि इसमें हिन्दवी छुट और किसी बोली की पुट नही आधुनिक काल में मुसलमान हिन्दी से दूर भागने लगे , इसका मुख्य कारण था , अंग्रेजों द्वार्य पारस्परिक द्वेष और भेद – भावना का विष – वमन करना । उनकी नीति सफल हुई , मुसलमान हिन्दी और हिन्दुओं से दूर हो गए । फिर भी मुन्शी अजमेरी , अख्तर हुसैन रायपुरी , अध्यापक जहूरबख्श , मौर अहमद विलमामी आदि लेखकों ने हिन्दी में अच्छा गद्य लिखा है ।
अब भारतवर्ष स्वतन्त्र है । स्वतन्त्र भारत में सरकार हिन्दी और उर्दू की समान उन्नति के लिये प्रयत्नशील है । आज उर्दू के बहुत से विद्वान् हिन्दी में लिखने का प्रयास कर रहे हैं । हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा है । अतः सभी भारतीय नागरिक राष्ट्र भाषा की उन्नति के लिए प्रयलशील है|