हिन्दी साहित्य में गीतिकाव्य परम्परा : उद्भव और विकास
हिन्दी साहित्य में गीतिकाव्य परम्परा : उद्भव और विकास
हिन्दी साहित्य में गीतिकाव्य परम्परा : उद्भव और विकास
जब मानव के व्यक्तिगत अनुभव , भावावेश में संगीतमय होकर कोमलकांत पदावली के माध्यम से अभिव्यक्त होते हैं , उन्हें गीत कहते हैं । भारतीय समस्त साहित्य ही गेय होता था , इसीलिए गीतिकाव्य का भारतीय साहित्य में कोई पृथक् अस्तित्व नहीं रहा । जैसा कि अंग्रेजी में गीति को लिरिक ‘ कहते हैं । लिरिक का अर्थ है कि लायर पर गाया जाने वाला । लायर एक प्रकार का बाजा होता है , उसी पर गाये जाने के कारण इसका नाम लिरिक पड़ा । कुछ समय के बाद बाजे पर गाये जाने की बात समाप्त हो गई और शब्द माधुर्य तथा लय से सम्बन्ध रह गया । कालान्तर में आत्माभिव्यक्ति ही उसकी एकमात्र कसौटी रह गई और वह अन्तर्जगत् पर ही केन्द्रीभूत हो गया । अत : व्यक्तिगत भावना ही गीत का प्राण बन गयी । गीत के सम्बन्ध में भिन्न भिन्न विद्वानों के भिन्न – भिन्न मत हैं , परन्तु उनकी आधारभूत बातें समान हैं । हीगल का विचार है , “ जब कवि विश्व के अन्त : करण में पहुँचकर आत्मानुभूति करता है , तब उसे अपनी चित्तवृत्ति के अनुसार काव्योचित भाषा में व्यक्त कर देता है , उसे गीत कहते हैं । ” अर्नेस्ट राइस के अनुसार , ” सच्चा गीत वही है जो भाव या भावात्मक विचार का भाषा में स्वाभाविक विस्फोट हो । ” महादेवी वर्मा का विचार है कि , “ गीत का चिरंतन विषय रागात्मिकता वृत्ति से सम्बन्ध रखने वाली सुख एवं दुःखात्मक अनुभूति से रहेगा । ” साधारणतः गीत व्यक्तिगत सीमा में सुख – दुःखात्मक अनुभूति का शब्द रूप है , जो अपनी – अपनी ध्वन्यात्मकता में गेय और कोमल – कान्त पदावली से संयुक्त हो । अतः गीत की निम्नलिखित विशेषतायें हो सकती है –
१. संगीत से पूर्णाभिव्यक्ति । २. अन्तर्जगत् का चित्रण । ३. संक्षेप में अभिव्यक्ति । ४. सहज स्फुरित उद्गार । ५. कोमलकान्त पदावली ।
भारतवर्ष में गीतिकाव्य की परम्परा अति प्राचीन है । सामवेद ऋचाओं से आरम्भ होकर उपनिषद् की स्तुतियों तथा बौद्धों की कथाओं तक में उसके तत्त्व मिलते हैं । इनमें केवल धार्मिक सामाजिक तथा शान्तिमय तत्त्व ही व्यक्त हुआ करते थे । शनैः शनैः आगे चलकर उसमें खोज की आभा प्रस्फुटित होने लगी और उन गीतों ने विप्लव की वेशभूषा पहिनना प्रारम्भ कर दिया । वीरगाथा काल में इसी प्रकार के वीर गीतों की रचनायें हुई , जिन्होंने राजा तथा प्रजा दोनों को युद्ध भूमि के लिए प्रोत्साहित किया । वीर क्षत्राणियों को चिता में आत्मसात करने के लिए प्रेरित किया । आदिकाल के गीतिकार केवल गीतिकार ही नहीं थे लेखनी के चमत्कार के साथ तलवार के कौशल में भी निपुण होते थे ।
भक्तिकाल में आकर गीतिकाव्य को व्यवस्थित रूप प्राप्त हुआ , यह काल गीतिकाव्य का विकास काल कहा जा सकता है । विचार की चरम सीमा मीरा के पदों में दृष्टिगोचर होती है । सूर के पूर्व यद्यपि कबीरदास जी ने भी पर्याप्त संख्या में पद लिखे थे , परन्तु ज्ञान की शुष्कता और निर्गुणवाद के प्रति आग्रह करना इतना अधिक था कि वे गीत के आवश्यक माधुर्य से वंचित ही रहे । न उनमें संगीत समता पर कोई ध्यान दिया गया और न कोमलकान्त पदावली पर । कबीर से पूर्व गीतिकाव्य में प्राण संचार करने वाले दो महाकवि थे , एक जयदेव दूसरे विद्यापति । जयदेव ने संस्कृत में ” गीत गोविन्द की रचना की तथा विद्यापति ने मैथिली भाषा में राधा और कृष्णा का गुणगान किया । इन दोनों कवियों ने राधा – कृष्ण की लीलाओं को संगीतमय भाषा में व्यक्त किया था ।
सूर भी राधा – कृष्ण की लीलाओं के गायक थे । उनकी शैली पर जयदेव और विद्यापत्ति को शैली का प्रभाव था । इसका अर्थ यह है कि इन्होंने उनका अन्धानुकरण किया । सूर ने अपने पूर्ववर्ती इन दोनों कवियों से श्रृंगार भाव और कोमलकान्त पदावली अवश्य ली , परन्तु उन्हें अपने रंग में रंगकर प्रस्तुत किया । तुलसी , मीरा , नन्ददास आदि सभी भक्तिकालीन कवियों ने गीतिकाव्य की रचना की ।
रीतिकाल में गीतों का समुचित विकास नहीं हुआ अपितु उत्तरोत्तर उनका ह्रास ही होता गया । रीतिकाल में न भावों की मौलिकता थी और न भाषा एवं शब्द लालित्य । संगीतात्मकता की दृष्टि से भी न कोई विशेषता थी , न वैचित्र्य । संगीत का जो उत्कर्ष और महत्त्व भक्तिकाल में था , वह रीतिकाल में न रहा । वह बाजारू होकर निम्न श्रेणी का हो गया था । आधुनिक युग में गीतिकाव्य का पुनरुद्धार भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र से पुनः प्रारम्भ हुआ । भारतेन्दु एवं सत्यनारायण कविरल ने ब्रजभाषा पद शैली को ही अपनाकर राधा – कृष्ण की प्रेमानुभूति में पवित्र गीतों की रचना की , वियोगीहरि जी ने ब्रजभाषा में सुन्दर पदों की रचना की ।
आधुनिक युग में नवीन गीत शैली का श्रीगणेश प्रसाद जी ने किया । भारतेन्दु युग और प्रसाद युग का सन्धिकाल द्विवेदी युग के नाम से पुकारा जाता है । इस युग में केवल वर्णन प्रणाली तथा इतिवृत्तात्मकता का ही प्राधान्य रहा । इस युग के प्रमुख गीतिकार श्रीधर पाठक तथा मैथिलीशरण गुप्त हैं । गुप्त जी ने किसी स्वतन्त्र गीतिकाव्य की रचना नहीं की , उनके गीत उनके प्रबन्ध काव्यों में यत्र – तत्र बिखरे हुए मिलते हैं । द्विवेदी युग में गीतिकाव्य का जो रूप प्रच्छन्न रूप से प्रभावित हो रहा था , वह छायावाद युग में विशेष रूप से प्रत्यक्ष हुआ । प्रसाद जी ने छायावाद के रूप में जिस प्रकार गीतिकाव्य के स्तर को ऊंचा किया , उसी प्रकार के नाटकीय गीतों को भी । प्रसाद जी के नाटकीय गीत अत्यन्त मनोहर एवं सुन्दर हैं ।
आधुनिक गीतिकाव्य पदावली साहित्य से भिन्न कोटि की है । प्राचीन गीतिकाव्य का आधार भारतीय संगीत की राग – रागनियाँ थीं । निराला जी के गीतों में भाषा और शब्द – चयन भावों के अनुरूप हैं निराला जी ने अपने संगीत के विषय में स्वयं कहा है- ” जो संगीत कोमल , मधुर और उच्च भाव , तद्नुकूल भाषा और प्रकाशन से व्यक्त होता है , उसके साफल्य की मैंने कोशिश की है ताल प्राय : सभी प्रचलित हैं , प्राचीन ढंग रहने पर भी ये नवीन कण्ठ से नया रंग पैदा करेंगी । ”
निराला जी का एक सुन्दर गीत देखिए –
अलि घिर आये घन पावस के , लख ये काले – काले बादल
नील सिन्धु में खिले कमल दल हरित ज्योति ,
चपला अति चंचल सौरभ के , रस के ।
पन्त जी की कविता में यद्यपि प्रगीतत्व का पूर्ण निर्वाह नहीं है , फिर भी कुछ गीत बहुत सुन्दर हैं । उनमें संगीत की प्रचुरता है , भावों की मनोहरता है , शब्द – चयन भी सुन्दर हैं –
सिखा दो ना हे मधुप कुमारि ! मुझे भी अपने मीठे गान ,
कुसुम के चुने कटोरों से , करा दो ना कुछ – कुछ मधुपान ।।
श्री रामकुमार वर्मा के गीतों में भावपूर्णता , तन्मयता , आत्म – समर्पण और आत्माभिव्यक्ति पद – पद पर मिलती है-
देव मैं अब भी हूँ अज्ञात ! एक स्वप्न बन गई तुम्हारे प्रेम मिलन की बात ,
तुम से परिचित होकर भी में , तुमसे इतनी दूर ? बढ़ना सीख – सीख कर मेरी आयु बन गई क्रूर ।
मेरी साँस कर रही मेरे जीवन पर आघात ।
आधुनिक काल में , इस दिशा में थोड़ा बहुत आग्रह केवल निराला जी का ही था । आज का गीतिकाव्य अंग्रेजी और बंगला की प्रतिस्पर्धा में खड़ा किया गया है । गुप्त जी , महादेव , राजकुमार तथा नवीन के गीत भी भारतीय शैली पर अवस्थित हैं । महादेवी जी के गीत अपनी सहज गतिशीलता , वागविदग्धता के कारण सजीव हैं । विरह की आह में अनजान कविता उनके हृदय में बहने लगती है । उनकी करुणातुर प्रार्थना कितनी नारी सुलभ है , सुकुमार है –
जो तुम आ जाने एक बार ! कितनी करुणा कितने सन्देश,
पथ में बिछ जाल बन पराग साता प्राणों का तार – तार ,
अनुरागः भरा उन्माद राग आस लते व पद पवार ।
इस करणा के अगोम सांग से वह केवल नौल भरो दुःखको क्षगिक बदली है-
मैं नीर भरी दःख की बदली
विस्तृत नम का काना – काना ,
मेरा न कभी अपना हाना,
वर परिचय इतना इतिहास यही ,
उमड़ी कल थी मिट आज चली |
जीवन के सून्य क्षणों ने उनका विरही मन सहसा गा उठता है –
अलि कसे उनको पाऊँ ?
वे आस बनकर मर इस कारण ढुल – ढुल जाते ।
इन पलका के बन्धन मे , में बांध बांध पछताऊं ।।
महादेवी जी के गीत लोकप्रिय एवं साहित्य को निधि है । उनकी अपनी शैली है , अपनी प्रवृत्ति है ।
निराला जो सौन्दर्योपासक कवि थे , उनके गीतों में उनको अपनी कला है और कुशल भातुक गायक । घनघोर बादल को भयकरता को देखकर कवि का मानस उद्वेलित हो उठता है । वह उसका आह्वान करके कहता है-
बादल गरजो ।
घेर घेर घोर गगन धारा धाराधर ओ ।।
बच्चन जी अपने काव्य में सर्वत्र गोति प्रधान कवि थे । संसार की नश्वरता और निराशा की गहरो अनुभूति में उन्होंने मानव जीवन का बड़े मनोयोग से अध्ययन किया है । बच्चन जी में जीवन के यथार्थ और दार्शनिक तत्व को कविता का रूप दे देने की अपूर्व क्षमता थी । इन गीतिकारों के अतिरिक्त , सोहनलाल द्विवेदी , नरेन्द्र शर्मा , गोपाल सिंह नैपाली , भगवती चरण वर्मा आदि आधुनिक युग में श्रेष्ठ गीतिकार थे । आधुनिक काल प्रायः गौतों का युग है । बिना गाई हुई कविता को तो कोई सुनने को भी तैयार नहीं होता । इन गीतों का भविष्य क्या होगा कुछ कहा नहीं जा सकता ।