हिंदी साहित्य में नाटकों का प्रारंभ और प्रगति
हिंदी साहित्य में नाटकों का प्रारंभ और प्रगति
हिंदी साहित्य में नाटकों का प्रारंभ और प्रगति
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से पूर्व हिन्दी में नाटक साहित्य नहीं के बराबर था । जो कुछ था भी वह नाममात्र के लिए था । उन नाटकों में न नाटकीय लक्षण थे , न मौलिकता । अधिकांश नाटक संस्कृत के नाटकों के आधार पर लिखे हुए पद्यबद्ध नाटकीय काव्य थे । इस प्रकार के नाटकों में पन्द्रहदों १०. हिन्दी साहित्य में नाटकों का प्रारम्भ और प्रगति शताब्दी में लिखा गया विद्यापति का रुक्मणी परिणय ‘ तथा ‘ पारिजात परिणय ‘ , सत्रहवीं शताब्दी में हृदयराम द्वारा लिखा गया हनुमन्नाटक , महाराज यशवंतसिंह का लिखा हुआ प्रबोध चन्द्रोदय नाटक ‘ , अठारहवीं शताब्दी , का देव कवि द्वारा लिखा गया देव माया प्रपंच ‘ तथा नेवाज कृत ‘ शकुन्तला नाटक उन्नीसवीं शताब्दी में लिखा गया । महाराजा विश्वनाथ सिंह का आनन्द रघुनन्दन ‘ तथा बजवासी का ‘ प्रबोध चन्द्रोदय बीसवीं सदी के नाटकों में आते हैं ।
हिन्दी नाटकों का व्यवस्थित रूप भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के काल से ही दृष्टिगोचर होता है । पारसी थियेटरों और नाटक कम्पनियों के असाहित्यिक एवं अव्यवस्थित नाटकों की प्रतिक्रिया के फल स्वरुप भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने नाटक लिखना आरंभ किया भारतेंदु ने जिस नाट्य पद्धति का श्रीगणेश किया वह अपने अतीत से भिन्न थी अपने अतीत से भिन्न थी । उन्होंने पद्य के स्थान पर गद्य , राम और कृष्ण के स्थान पर सामाजिक तथा राजनीतिक विषयों को ग्रहण किया । भारतेन्दु ने स्वयं भी संस्कृत , बंगला तथा अंग्रेजी नाटकों का अच्छा अध्ययन किया था । इनमें से इन्होंने कुछ नाटकों का हिन्दी में अनुवाद भी किया था ।
भारतेन्दु युग के नाटककारों में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ही प्रमुख नाटककार थे । उन्होंने लगभग १३ मौलिक तथा अनूदित नाटकों की रचना की । भारत दुर्दशा , नीलदेवी , अंधेरनगरी , प्रेमयोगिनी , चन्द्रावली , वैदिकी हिंसा – हिंसा न भवति , विषस्य विषमौधम् आदि आपकी मौलिक नाटक कृतियाँ हैं । मुद्रा राक्षस , धनंजय विजय और रत्नावली संस्कृत नाटकों के अनुवाद हैं । ‘ कर्पूरमंजरी ‘ प्राकृत से अनुवाद किया हुआ नाटक है । ‘ विद्या सुन्दर तथा भारत जननी नाटकों का बंगला से अनुवाद किया । वेनिस नगर का महाजन शेक्सपियर का अंग्रेजी नाटक ‘ मर्चेण्ट ऑफ वेनिस ‘ का अनुवाद है । भारतेन्दु के नाटकों में ‘ सत्य हरिश्चन्द्र ‘ सबसे अधिक प्रसिद्ध नाटक है । इसने राजा हरिश्चन्द्र की सत्यनिष्ठा तथा उनके चारित्रिक बल की पौराणिक कथा . को एक कलात्मक नाटकीय स्वरूप प्रदान किया है । भारतेन्दु जी की नाट्यकला पर संस्कृत , अंग्रेजी , बंगला तीनों भाषाओं के नाटकों का प्रभाव है । भारतेन्दु ने इन भाषाओं के नाटकों का अनुकरण नहीं किया , अपितु संस्कृत , अंग्रेजी और हिन्दी की नाट्यकला में समन्वय स्थापित किया । इन्होंने रंगमंच के लिए उपयुक्त नाटकों की रचना की । उन्हें रंगमंच का विशेष ज्ञान तथा अनुभव था । वे स्वयं नाटकों के अभिनय में भाग लेते थे । यही उनकी सफलता का रहस्य था ।
भारतेन्दु के समकालीन लेखकों में लाला श्रीनिवास दास ने ‘ रणधीर ‘ , ‘ प्रेम मोहनी ‘ , ‘ प्रह्लाद चरित्र ‘ , ‘ सप्तसंवरण ‘ तथा ‘ संयोगिता स्वयंवर ‘ , ये चार नाटक लिखे । रायकृष्ण दास ने ‘ दुःखिनी बाला ‘ , ‘ पद्मावती ‘ , ‘ धर्मपाल ‘ तथा ‘ महाराणा प्रताप ‘ नाटकों की रचना की । बालकृष्ण भट्ट के प्रकाश में आए हुए ‘ दमयन्ती स्वयंवर ‘ , ‘ वेणी संहार ‘ और ‘ जैसा काम वैसा परिणाम तीन नाटक प्रसिद्ध हैं । बद्री नारायण चौधरी प्रेमधन ने भारत सौभाग्य ‘ , ‘ वीरांगना रहस्य ‘ और ‘ वृद्ध विलाप ‘ नाटक लिखे । प्रताप नारायण मिश्र ने ‘ गो संकट ‘ , ‘ कलि कौतुक ‘ , ‘ हठी हमीर ‘ आदि नाटकों की रचना की । किशोरीलाल गोस्वामी ने ‘ मयंक मंजरी ‘ और ‘ नाट्य सम्भव ‘ आदि नाटकों की रचना की । भारतेन्दु तथा उनके समकालीन लेखकों द्वारा लिखे गये नाटकों में सामाजिक कुरीतियों के प्रति तीखा व्यंग्य होता था । उस समय के लिखे गये प्रहसनों में सामाजिक समस्याओं पर खुलकर प्रहार किया गया ।
आचार्य प . महावीर प्रसाद द्विवेदी युग में नाटकों का विशेष विकास नहीं हो पाया । यद्यपि इस बीच भी कई नाटकों की रचना हुई , परन्तु बद्रीनाथ भट्ट के अतिरिक्त कोई विशेष प्रतिभाशाली नाटककार का प्रादुर्भाव नहीं हुआ । इसके कई कारण थे , सर्वप्रथम हमारे यहाँ रंगमंच का अभाव था तथा अभिनय कला का प्रचार कम था । सभ्य समाज में अभिनय को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था । इस युग में हिन्दी नाटक संस्कृत के प्रभाव से मुक्त होकर पाश्चात्य नाटटीय शिल्प का प्रयोग प्रारम्भ हुआ । भारतेन्दु ने जिस हिन्दी रंगमंच की स्थापना की थी वह भी पारसी थियेटर कम्पनियों की तड़क – भड़क , जनता की भद्दी रुचि , गद्य – पद्य मिश्रित चलती हुई भाषा तथा उर्दू लेखकों के चुलबुलेपन के कारण स्थिर न रह सका । इन्हीं कम्पनियों की प्रेरणा से रंगमंचीय नाटक लिखे गये जिनमें नारायण प्रसाद बेताब , आगा हश्र कश्मीरी , हरिकृष्ण जौहर , तुलसीदत्त शैदा आदि नाटककार प्रमुख थे । इसके अतिरिक्त इस युग में जो साहित्यिक नाटक लिखे गये उनमें बद्रीनाथ भट्ट के कुरुवन दहन ‘ , चन्द्रगुप्त ‘ , ‘ तुलसीदास ‘ और ‘ दुर्गावती माधच शुक्ल का ‘ महाभारत ‘ , मिश्र बन्धुओं का नेत्रोन्मीलन ‘ तथा आनन्द प्रसाद खत्री का ‘ संसार स्वप्न ‘ आदि उल्लेखनीय हैं । इसी युग में मैथिलीशरण गुप्त ने ‘ चन्द्रहास ‘ और तिलोत्तमा ‘ तथा माखनलाल चतुर्वेदी ने ‘ कृष्णार्जुन युद्ध ‘ नाटक लिखा ।
जयशंकर प्रसाद ने हिन्दी के नाट्य साहित्य में नये युग का सूत्रपात किया । प्रसाद जी युगान्तरकारी नाटककार थे । उन्होंने अपने भावपूर्ण ऐतिहासिक नाटकों में राष्ट्रीय जागृति , नवीन आदर्श एवं भारतीय इतिहास के प्रति अगाध श्रद्धा प्रस्तुत की । प्रसाद जी ने बौद्धकालीन भारत के इतिहास को आधार बनाकर , ऐतिहासिक तथ्यों के अतिरिक्त घटनाओं , परिस्थितियों तथा चरित्र का समावेश किया । प्रसाद जी के ऐतिहासिक नाटकों में सबसे पहली रचना राज्यश्री ‘ है । इसमें हर्षकालीन भारत का चित्रण है । ‘ अजातशत्रु से प्रसाद जी की नाटककार के रूप में ख्याति हुई । ‘ स्कन्दगुप्त ‘ और ‘ चन्द्रगुप्त ‘ प्रसाद जी के सर्वोत्कृष्ट नाटक हैं । ‘ धुवस्वामिनी ‘ ऐतिहासिक नाटक है , इसमें नाटककार ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि प्राचीनकाल में भी विधवा विवाह होते थे । ‘ सज्जन ‘ और ‘ जनमेजय का नागयज्ञ ‘ इनके पौराणिक नाटक हैं , परन्तु पौराणिक नाटकों की प्राचीन पद्धति से ये नाटक कुछ भिन्न हैं । ‘ काना ‘ और एक घूट ‘ प्रसाद जी के भाव नाट्य हैं । प्रसाद जी दार्शनिक एवं कवि थे । अत : उनकी समस्त रचनाओं में गम्भीर चिन्तन , द्वन्द्व , सूक्ष्म चरित्र चित्रण , गम्भीर सांस्कृतिक वातावरण तथा सुगठित कथानकों के कारण प्रसाद जी के नाटक बहुत उच्चकोटि के हैं । प्रसाद जी के नाटक साधारण पाठक के लिये न होकर साहित्यिक अभिरुचि के पाठक और परिष्कृत रुचि के दर्शकों के लिए हैं ।
प्रसाद युग के अन्य नाटककारों में माखनलाल चतुर्वेदी ने ‘ कृष्णार्जुन युद्ध ‘ , सुदर्शन ने ‘ अजन्ता ‘ , वेचन शर्मा उय ने ‘ महात्मा ईसा ‘ , प्रेमचन्द ने ‘ कर्बला ‘ नामक नाटक लिखे । गोविन्दबल्लभ पंत भी प्रसाद युग के एक श्रेष्ठ नाटककार थे । इन्होंने सामाजिक , ऐतिहासिक तथा पौराणिक सभी प्रकार के नाटक लिखे । इनके ‘ अंगूर की बेटी ‘ , सामाजिक ‘ राजमुकुट ‘ तथा ‘ अन्तःपुर के छिद्र ‘ ऐतिहासिक और ‘ बरमाला ‘ पौराणिक नाटक हैं । इसके अतिरिक्त १ ९ ५१ में इनके दो नाटक और प्रकाशित थे — ‘ ययाति ‘ और ‘ सिन्दूर बिन्दी । पंत जी के नाटक रंगमंच की दृष्टि से सफल माने गये हैं । भाषा सरल और सुबोध है ।
आधुनिक युग के नाटककारों में हरिकृष्ण प्रेमी , लक्ष्मीनारायण मिश्र , उदयशंकर भट्ट , सेठ गोविन्ददास तथा उपेन्द्रनाथ अश्क अधिक प्रसिद्ध है । हरिकृष्ण प्रेमी ने ऐतिहासिक नाटकों के क्षेत्र में विशेष ख्याति प्राप्त की है । इनके नाटक मुस्लिमकालीन भारत के इतिहास से सम्बन्धित हैं तथा उनमें समकालीन समस्याओं का समाधान ढूंढने का सफल प्रयास किया गया है । रक्षा – बन्धन , विषपान , आहुति , प्रतिशोध , प्रकाश स्तम्भ आदि आपके ऐतिहासिक नाटक हैं । प्रेमी जी ने पाताल विजय ‘ नाम से एक पौराणिक नाटक भी लिखा है । इन्होंने एक दर्जन से भी अधिक नाटक लिखे हैं , ये सभी अभिनय के लिए उपयुक्त हैं और परिस्थिति एवं पात्रानुकूल भाषा है । इतिहास और कल्पना का समन्वय आपके नाटकों की विशेषता है । प्रेमी जी के नाटक ओजपूर्ण , चरित्र – चित्रण में गम्भीर तथा विचार नवीन हैं।
लक्ष्मीनारायण मिश्र के अधिकांश नाटक समाज सम्बन्धी एवं समस्या मूलक हैं । समस्या मूलक नाटकों में मिश्र जी को अधिक सफलता प्राप्त हुई । उनका बुद्धिवादी दृष्टिकोण है । इन्होंने समस्या के चित्रण में पात्रों की मनःस्थिति तथा अन्तर्द्वन्दों का भी यथार्थ चित्रण किया है ।
इनके अधिकांश नाटक तीन अंकों के हैं , संवाद छोटे हैं तथा नाटकों में पर्याप्त गतिशीलता है । इन्होंने दो – एक ऐतिहासिक नाटक भी लिखे हैं । मिश्र जी के नाटकों में अशोक , संन्यासी , सिंदूर की होली , राक्षस का मन्दिर , मुक्ति रहस्य , आधी रात , वत्सराज , दशाश्वमेध आदि मुख्य हैं । इनमें अशोक , वत्सराज , दशाश्वमेध ऐतिहासिक नाटक हैं ।
उदयशंकर भट्ट ने ऐतिहासिक तथा पौराणिक नाटक लिखे हैं । ऐतिहासिक नाटकों में ‘ विक्रमादित्य ‘ , ‘ सिंधुपतन ‘ , ‘ मुक्तिपथ ‘ तथा ‘ शक – विजय ‘ हैं । ऐतिहासिक नाटकों में पात्रों के चरित्र – चित्रण में भट्ट जी अधिक सफल नहीं कहे जा सकते । पौराणिक नाटकों में भट्ट जी अधिक सफल हैं । दोनों में कथानक महाभारत की कथा पर आधारित है । विश्वामित्र और राधा दोनों भाव नाट्य हैं । क्रांतिकारी , नया समाज और पार्वती नवीनतम अभिनय नाटक हैं । मेघदूत तथा विक्रमोर्वशी आदि कुछ रेडियो रूपक भी इन्होंने लिखे हैं ।
सेठ गोविन्ददास ने सबसे बड़ी संख्या में नाटक लिखे हैं । इन्होंने ऐतिहासिक , सामाजिक , पौराणिक , राजनैतिक सभी प्रकार की समस्याओं के नाटक लिखे हैं । एकांकी नाटकों के क्षेत्र में सेठ जी ने सौ से भी अधिक नाटक लिखे हैं । चरित्र – चित्रण तथा रंगमंच की दृष्टि से इनके नाटक श्रेष्ठ हैं । कथोपकथन भी स्वाभाविक हैं , परन्तु सेठ जी किसी उत्कृष्ट प्रभावोत्पादक नाटक की रचना नहीं कर पाये । इनके नाटकों में हर्ष , प्रकाश , सेवापथ , शशिगुप्त , बड़ा पापी कौन , आदि उल्लेखनीय हैं । हिन्दी नाटक के क्षेत्र में सेठ गोविन्ददास जी ही ऐसी विभूति हैं , जिनके नाटकों में साहित्य में राजनीतिक और सामाजिक जीवन का जीता – जागता स्वरूप प्रस्तुत किया गया है ।
उपेन्द्रनाथ अश्क भी आधुनिक काल के उल्लेखनीय नाटककार हैं । उन्होंने अपने नाटकों में समाज पर तीखे व्यंग्य किये हैं । अश्क जी के नाटकों में सामाजिक समस्याओं का चित्रण यथार्थवादी ढंग से हुआ है । जय पराजय , पैतरे , कैद और उड़ाके , छोटा बेटा , स्वर्ग की झलक और अंधी गली इन सभी नाटकों में समाज के ऊपर तीक्ष्ण व्यंग्य है । अश्क जी के सभी नाटक खेले जा चुके हैं तथा सफल सिद्ध हुए हैं ।
उपर्युक्त नाटककारों के अतिरिक्त वृन्दावनलाल वर्मा तथा चतुरसेन शास्त्री ने भी पर्याप्त संख्या में नाटक लिखे हैं । वर्मा जी का ‘ पूर्व की ओर ‘ ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त सफल नाटक है । इन्होंने ११ सामाजिक नाटक भी लिखे हैं जिनमें समाज की भिन्न – भिन्न समस्याओं पर प्रकाश डाला गया है । श्री चतुरसेन शास्त्री के नाटकों में राजपूती संघर्ष प्रस्तुत किया गया है । इनकी भाषा सशक्त एवं भावानुकूल है । इनके अतिरिक्त जगदीश चन्द्र माथुर पृथ्वीनाथ शर्मा , राजकुमार वर्मा , अमृतलाल नागर , विष्णु प्रभाकर , रामवृक्ष बेनीपुरी आदि नाटककारों की रचनाओं का हिन्दी नाट्य साहित्य के विकास में योगदान है ।
इस प्रकार हमारा नाट्य साहित्य उत्तरोत्तर प्रगतिशील है । एक बात जो आवश्यक है , वह यह है कि हमारे यहाँ रंगमंच और अभिनय की कमी है । रंगमंच के ज्ञान से रहित जो नाटककार नाटकों की रचना करते हैं , वे सफल नहीं हो पाते । दूसरे , हमारे नाटकों से हमारी सभी प्रकार की समस्याओं का पूर्णरूप से समाधान होना चाहिये । हमारे नाटकों से हमारा सांस्कृतिक व्यक्तित्व स्पष्ट होना चाहिये । अभिनयशीलता और भाषा की सरलता पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए तथा हास्य , विनोद तथा परिहास को प्रमुख स्थान देना चाहिए ।।