Bihar board solutions class 11th civics
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संघवाद
• संघवाद क्या है?
• भारतीय संविधान के संघीय व्यवस्था सम्बन्धी प्रावधान।
• केन्द्र-राज्य सम्बन्ध।
• स्वायत्तता की मांँग
• राज्यों का विशेष दर्जा।
• धारा 370
• सरकारिया आयोग।
• राज्यपालों की भूमिका।
• भारत में शक्तिशाली केन्द्र।
• संघवाद के अभिप्राय है कि कई राज्य मिलकर एक राज्य बन जाते हैं और साथ ही अपना
अलग अस्तित्व भी बनाए रखते हैं। इस प्रकार निर्मित इकाई राज्य को संघराज्य कहते
हैं और इस प्रकार की प्रक्रिया को संघवाद कहा जाता है। संघवाद में कोई निश्चित नियम
नहीं होते जो प्रत्येक ऐतिहासिक परिस्थिति में एक ही प्रकार से लागू हों।
• भारत एक विभिन्नताओं का देश है, परंतु यहाँ विविधता में एकता पायी जाती है। भारत
28 राज्यों और 7 संघशासित प्रदेशों से मिलकर बना है।
• 1958 में ‘वेस्टइंडीज’ संघ का जन्म हुआ। परंतु कमजोर केन्द्र के कारण 1962 में इस
संघ को भंग कर दिया गया।
• निश्चित रूप से संघवाद एक संस्थागत प्रणाली है जो दो प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाओं
को संगठित करती है। इसमें एक प्रान्तीय स्तर की होती है और दूसरी केन्द्रीय स्तर की।
• भारतीय संविधान में संघवाद को अपनाया गया है परंतु यह अर्द्धसंघात्मक है। राज्य की
अपेक्षा संघ को अधिक शक्तिशाली बनाया गया है। अवशिष्ट शक्तियाँ भी केन्द्र के
पास हैं।
• राज्यों की स्वायत्तता का अर्थ है कि संघ की इकाइयों को अपने आंतरिक क्षेत्र में अपनी
शक्तियों का प्रयोग करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए और जो शक्तियांँ सविधान ने राज्यों
को दी है उनमें केन्द्र द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जाना चाहिए।
• संघवाद के वास्तविक कार्यों का निर्धारण राजनीतिक-संस्कृतिक, विचारधारा और इतिहास
की वास्तविकताओं से होता है।
• संघात्मक राज्यों में केन्द्र तथा राज्यों के बीच उत्पन्न होने वाले विवादों का निपटारा करने
के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका होती है।
• भारत में कुछ राज्यों के लिए उनकी विशिष्ट सामाजिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों के
अनुरूप संविधान कुछ विशेष अधिकारों की व्यवस्था करता है। पूर्वोत्तर राज्य (असम,
नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम आदि) ऐसे ही राज्य हैं। इसी तरह हिमाचल प्रदेश
तथा कुछ अन्य राज्यों जैसे आन्ध्र प्रदेश, गोवा, गुजरात, महाराष्ट्र और सिक्किम आदि।
के लिए भी हैं।
• अनुच्छेद 370 के अन्तर्गत जम्मू-कश्मीर को विशिष्ट स्थिति प्रदान की गयी है। इसके
अनुसार बिना राज्य की अनुमति के जम्मू-कश्मीर में संसद कोई संशोधन लागू नहीं कर
सकती। राज्य सरकार की सहमति के बिना जम्मू-कश्मीर में ‘आन्तरिक अशान्ति’ के
आधार पर आपातकाल लागू नहीं किया जा सकता।
• संघवाद की सफलता राज्यों के पारस्परिक विश्वास, सहनशीलता तथा सहयोग की भावना
तथा केन्द्र एवं राज्य सरकारों के पारस्परिक सद्भाव पर आधारित हैं।
पाठ्यपुस्तक के एवं परीक्षोपयोगी अन्य महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
1. “भारतीय संविधान अर्द्ध-संघात्मक है” किसने कहा है ? [B.M.2009A]
(क) डी० डी० बसु
(ख) एम० वी० पायली
(ग) आईवर जेनिक्स
(घ) के० सी० व्हीयर
2. संघात्मक राज्यों का संविधान होता है। [B.M.2009A]
(क) लिखित और कठोर
(ख) अलिखित और कठोर
(ग) लिखित और लचीला
(घ) अलिखिंत और लचीला उत्तर-(क)
3. भारतीय संविधान में वर्णित समवर्ती सूची किस देश के संविधान से लिया गया है?
(क) अमेरिका से
(ख) कनाडा से
(ग) आयरलैंड से
(घ) आस्ट्रेलिया से
4. बताएंँ कि निम्नलिखित में कौन-सा कथन सही होगा और क्यों?
(i) संघवाद से इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि विभिन्न क्षेत्रों के लोग
मेल-जोल से रहेंगे और उन्हें इस बात का भय नहीं रहेगा कि एक संस्कृति दूसरे पर लाद
दी जायगी।
(ii) अलग-अलग किस्म के संसाधनों वाले दो क्षेत्रों के बीच आर्थिक लेन देन के
संघीय प्रणाली से बाधा पहुंँचेगी।
(iii) संघीय प्रणाली इस बात को सुनिश्चित करती है कि जो केन्द्र में सत्तासीन है
उनकी शक्तियों सीमित रहें।
उत्तर– (i) उपरोक्त कथन जो प्रश्न में दिए गए हैं उनमें से यह कथन सही है कि संघवाद
से इस बात की सम्भावना बढ़ जाती है कि विभिन्न क्षेत्रों के लोग मेलजोल करेंगे और उन्हें इस
बात का डर नहीं रहेगा कि एक की संस्कृत दूसरे पर लाद दी जायगी।
प्रश्न 1. संघवाद से आप क्या समझते हैं?
उत्तर-संघवाद में दो प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाएँ होती हैं। संघवाद एक ऐसी संस्थागत
प्रणाली है जिसमें केन्द्र तथा राज्य स्तर की दो राजनीतिक व्यवस्थाएँ हैं। संघवाद में दोहरी
नागरिकता होती है परंतु भारत में केवल एकल नागरिकता है। केन्द्र व राज्यों के बीच किसी टकराव
को सीमित रखने के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था होती है।
प्रश्न 2. संघ सूची में कौन-कौन से विषय शामिल हैं?
उत्तर-संघ सूची में 97 विषय हैं। इनमें प्रमुख हैं-प्रतिरक्षा, विदशी मामले, युद्ध और संधि,
रेलवे, विदेशी व्यापार, बीमा कम्पनी, बैंक, मुद्रा, डाक व तार, टेलीफोन आदि।
प्रश्न 3. राज्य सूची में कौन-कौन से विषय हैं?
उत्तर-राज्य सूची में 66 विषय होते हैं। इनमें से प्रमुख हैं: पुलिस, जेल, यातायात,
न्याय-प्रबन्ध, शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा एवं स्थानीय सरकारें आदि। इनके सम्बन्ध में राज्य
विधानमंडल कानून बनाते हैं।
प्रश्न 4. संघ राज्य का निर्माण किस प्रकार होता है?
उत्तर-संघ राज्य-संघ राज्य का निर्माण तब होता है जब दो या दो से अधिक स्वतंत्र राज्य
परस्पर मिलकर एक लिखित समझौते के द्वारा किसी एक निश्चित उद्देश्य की पूति के लिए, एक
नीवन राज्य की रचना करते हैं। जिसे (नवीन राज्य को) कुछ निश्चित विषयों में सम्प्रभु अधिकार
प्रदान किए जाते हैं जिन पर उसका अनन्य क्षेत्राधिकार रहता है और जो अवशिष्ट विषयों पर
अपना क्षेत्राधिकार बनाए रखते हैं।
प्रश्न 5. इकहरी नागरिकता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इकहरी नागरिकता से अभिप्राय यह है कि सम्पूर्ण राज्य में नागरिकों को एक ही
नागरिकता प्राप्त होती है। वह राज्य के किसी भी भाग में बस सकते हैं। कुछ संघात्मक राज्यों
में प्रत्येक व्यक्ति को दो नागरिकता प्राप्त होती है। एक तो वह अपने इकाई राज्य का नागरिक
होता है और साथ ही साथ पूरे देश की नागरिकता भी प्राप्त रहती है। संयुक्त राज्य अमेरिका में
दोहरी नागरिकता मिलती है। संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रत्येक नागरिक संयुक्त राज्य अमेरिका का
नागरिक होने के साथ-साथ अपने उस राज्य की नागरिका भी प्राप्त करता है, जिसका निवासी है।
प्रश्न 6. भारतीय संविधान के दो संघीय तत्त्व लिखें।
उत्तर-भारतीय संविधान के दो संघीय तत्त्व निम्नलिखित हैं-
(i) यह लिखित संविधान है।
(ii) संविधान में केन्द्र व राज्यों के बीच शक्ति विभाजन किया गया है।
(a) संघ सूची, (b) राज्य सूची, (c) समवर्ती सूची। इन तीनों सूचियों में अलग-अलग
विषय दिए गए हैं।
प्रश्न 7. संघ सूची क्या है? इसमें उल्लिखित विषय कौन-कौन से हैं?
उत्तर-भारतीय संविधान के अनुसार संघ व राज्यों के बीच शक्तियों का बंँटवारा किया गया
है। दोनों के अधिकारों को संघ सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची में बांटा गया है। इनमें से
संघ सूची में 97 विषय दिए गए हैं। इन पर संसद को कानून बनाने का अधिकार होता है। इस
सूची के कुछ प्रमुख विषय हैं: प्रतिरक्षा, परमाण्विक ऊर्जा, विदेश मामले, रेलवे, डाक-तार, वायु
सेवा, बंदरगाह, विदेश व्यापार तथा मुद्रा आदि।
प्रश्न 8. द्विसदनीय विधायिका संघात्मक राज्यों के लिए क्यों आवश्यक है?
उत्तर-संघात्मक राज्यों के लिए द्विसदनीय विधायिका आवश्यक है-जिस देश में
एकात्मक शासन व्यवस्था होती है वहाँ तो एक-सदन से विधायिका का कार्य चल जाता है, लेकिन
संघात्मक शासन व्यवस्था में द्विसदानन्मक विधायिका का होना आवश्यक है क्योंकि प्रथम सदन
जनता का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए एक ऐसा भी होना चाहिए जो संघ की राजनीतिक
इकाइयों का प्रतिनिधित्व कर सके। अतः संघात्मक राज्यों के लिए द्विसदानात्मक विधायिका का
होना आवश्यक है।
प्रश्न 9. संघात्मक संविधान से आप क्या समझते हैं? [B.M.2009A]
उत्तर-फेडरेशन शब्द लैटिन भाषा से लिया गया है, जिसका अर्थ सन्धि या समझौता। इस
प्रकार संघात्मक शासन ऐसा शासन है जिसका निर्माण अनेक स्वतंत्र राज्य अपनी पृथक् स्वतंत्रता
रखते हुए तथा समान उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक केन्द्रीय सरकार के रूप में करते हैं। इसमें
संविधान द्वारा केन्द्र और राज्यों में शक्तियों का बंटवारा होता है। ऐसी शासन प्रणाली में कठोर
संविधान होता है तथा केन्द्र और राज्यों में झगड़ों का फैसला करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय
की स्थापना की जाती है। जेलीनेक के अनुसार-“संघात्मक राज्य कई एक राज्यों के मेल से बना
हुआ प्रभुसत्तासम्पन्न राज्य है।”
प्रश्न 10. संघात्मक संविधान की कोई पांच विशेषताएं बताओ। [B.M.2009A]
उत्तर-(i) इसमें केन्द्र तथा प्रान्तों के बीच शक्तियों का विभाजन होता है।
(ii) इसमें संविधान कठोर होता है।
(iii) इसमें संविधान लिखित होता है।
(iv) इसमें न्यायपालिका निष्पक्ष तथा स्वतंत्र होती है।
प्रश्न 11. संघात्मक सरकार के पांँच गुण लिखो।
उत्तर-संघात्मक सरकार के पाँच गुण निम्नलिखित हैं-
(i) यह आर्थिक विकास के लिए लाभदायक है।
(ii) यह बड़े राज्यों के लिए उपयुक्त है।
(iii) यह केन्द्रीय सरकार को निरंकुश बनने से रोकती है।
(iv) यह निर्बल राज्यों की शक्तिशाली राज्यों से रक्षा करती है।
(v) इसमें स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति ठीक प्रकार से हो जाती है।
प्रश्न 12. संघात्मक शासन के पांच अवगुण लिखो।
उत्तर-संघात्मक सरकार के पांच अवगुण निम्नलिखित हैं-
(i) इसमें सरकार दुर्बल होती है।
(ii) इसमें केन्द्र और राज्यों में अधिकार क्षेत्र संबंधी झगड़े उत्पन्न हो जाते हैं।
(iii) संघ के टूटने का भय बना रहता है।
(iv) इसमें शासन की एकरूपता नहीं रहती है।
(v) यह खर्चीला शासन होता है।
प्रश्न 13. संघ प्रणाली में नूतन प्रवृत्तियों पर टिप्पणी लिखो।
उत्तर-राज्य की गतिविधियों में विस्तार होने तथा विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विकास
के परिणामस्वरूप राज्यों में शक्तियों का केन्द्रीयकरण हुआ है। आर्थिक विकास, सैनिक सुरक्षा
तथा योजना पूर्ति हेतु आजकल केन्द्र अधिक शक्तिशाली होती जा रही है। इसके साथ-साथ
प्रादेशिक इकाईयाँ विकेन्द्रीकरण की समर्थक होती जा रही है। भारत जैसे संघात्मक देशों में राज्य
इकाई अपनी संस्कृति और अपने क्षेत्रीय विकास हेतु केन्द्र सरकारों पर दबाव बनाए रखती है।
ब्रिटेन, फ्रांस और स्पेन आदि एकातमक शासन वाले देशों में भी क्षेत्रीय समस्याओं की मांगों को
हल करने के लिए वहाँ भी क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व करने वाले दल अपना दबाव बनाने में लगे रहते
हैं। इस प्रकार संघात्मक प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।
प्रश्न-1. संघात्मक और एकात्मक सरकारों में कोई पांच अन्तर बताओ।
उत्तर-(i) संघात्मक सरकार का संविधान लिखित होता है परंतु एकात्मक सरकार का
संविधान अलिखित भी हो सकता है।
(ii) संघात्मक सरकार का संविधान कठोर होता है, परन्तु एकात्मक सरकार का संविधान
लचीला भी हो सकता है।
(iii) संघात्मक सरकार में दोहरा शासन होता है, परंतु एकात्मक सरकार में इकहरा शासन
होता है।
(iv) संघात्मक सरकार में शक्तियों का केन्द्र तथा इकाइयों में बंँटवारा होता है, परंतु
एकात्मक सरकार में शक्तियों का केन्द्रीयकरण होता है।
(v) संघात्मक सरकार में नागरिकों को दोहरी नागरिका प्राप्त होती है, परन्तु एकात्मक
सरकार में नागरिकों को इकहरी नागरिकता प्राप्त होती है।
प्रश्न 2. संघ तथा परिसंघ में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-संघ और परिसंघ में प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं-
(i) स्वरूप में अंतर-संघीय शासन की इकाइयाँ प्रभुत्व सम्पन्न नहीं होती जबकि परिसंघ
में सदस्य राज्यों की प्रभुसत्ता बना रहती है।
(ii) संगठन में अंतर-संघीय शासन में संविधान के द्वारा केन्द्र तथा राज्यों के बीच
शक्तियों का बंँटवारा होता है, जबकि परिसंघ में शक्तियों का बटवारा समझौते के द्वारा होता है।
(iii) सदस्यता में अंतर-संघीय शासन में इकाई राज्यों को संघ छोड़ने की स्वतंत्रता
नहीं होती। रूस के संविधान में यद्यपि इकाई राज्यों को संघ छोड़ने की स्वतंत्रता दी गई है, किन्तु
यह केवल एक दिखावा मात्र है। परिसंघ में सदस्य राज्य अपनी इच्छानुसार अपनी सदस्यता त्याग
सकते हैं।
(iv) उद्देश्यों में अन्तर-संघ का निर्माण किसी विशेष उद्देश्य को लेकर नहीं किया जाता,
जबकि परिसंघ का निर्माण विशिष्ट उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होता है। यही कारण है कि संघ,
परिसंघ के मुकाबले अधिक स्थायी होता है।
प्रश्न 3. संघात्मक शासन के मुख्य लक्षण बताइए।
उत्तर-संघात्मक सरकार-इस शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द से हुई है जिसका अर्थ
है संधि अथवा समझौता। अत: समझौते द्वारा निर्मित राज्य को संघ राज्य कहा जा सकता है।
संवैधानिक दृष्टिकोण से संघात्मक शासन का तात्पर्य एक ऐसे शासन से होता है जिसमें संविधान
द्वारा ही केन्द्रीय सरकार और इकाइयों या राज्य की सरकारों के बीच शक्ति विभाजन कर दिया
जाता है। कोई एक अकेला इस शक्ति विभाजन में परिवर्तन नहीं कर सकता।
संघात्मक शासन के मुख्य लक्षण-(i) संविधान की सर्वोच्चता, (ii) शक्तियों का
विभाजन, (iii) लिखित एवं कठोर संविधान, (iv) द्विसदनीय विधानमंडल
प्रश्न 4. एकात्मक और संघात्मक शासन में से भारत के लिए कौन-सा शासन उपयोगी
है और क्यों?
उत्तर-भारत के लिए एकात्मक और संघासक शासन में संघात्मक शासन अधिक उपयोगी
है। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-
(i) भारत जनसंख्या व क्षेत्रफल, दोनों ही दृष्टियों से एक विशाल देश है इसलिए किसी
भी विशाल देश के लिए संघात्मक शासन ही अधिक उपयोगी होता है। क्योंकि इस प्रकार के
शासन में सारा देश कुछ राजनैतिक इकाइयों में बँटा होता है इसलिए प्रत्येक राजनीतिक इकाई
अपने-अपने क्षेत्र में कुशलतापूर्वक शासन कार्य चला सकती है।
(ii) भारत में विभिन्न भाषाओं, धर्मों, जातियों व संस्कृतियों के लोग रहते हैं। अत: यह
केवल संघात्मक शासन में ही संभव है कि लोगों को सुरक्षा भी प्राप्त हो एवं उनकी संस्कृति भी
बनी रहे।
(iii) भारत बहुत समय तक विदेशी शासन के अधीन रहा है। यदि भारत को छोटे-छोटे
कई राज्यों में विभाजित करके उनमें एकात्मक सरकार की स्थापना कर दी जाए तो ये राज्य
साम्राज्यवादी शक्तियों से अपनी रक्षा नहीं कर सकते अत: संघात्मक शासन दोनों तरह से उपयुक्त
है।इस शासन में एक ओर राज्यों को अपने स्थानीय विषयों में वह अपनी संस्कृति को कायम
रखने में स्वतंत्रता प्राप्त है तो दूसरी ओर उनको विदेशी आक्रमणकारी शक्तियों से सुरक्षा प्राप्त है।
प्रश्न 5. निम्नलिखित में कौन-सा प्रांत के गठन का आधार होना चाहिए और क्यों?
(i) सामान्य भाषा (ii) सामान्य आर्थिक हित (iii) सामान्य क्षेत्र (iv) प्रशासनिक
सुविधा।
उत्तर-किसी प्रांत के गठन का आधार क्या होना चाहिए? आधुनिक युग में इस पर नये
दृष्टिकोण की आवश्यकता है। ब्रिटिश भारत में प्रांतों का गठन प्रशासनिक सुविधाओं को ध्यान
में रखकर किया गया था, परन्तु आज के युग में भाषाई क्षेत्र के आधार पर प्रांतों का गठन उचित
माना जाता है, क्योंकि समाज में अनेक विविधताएं होती हैं और आपसी विश्वास से संघवाद का
कामकाज आसानी से चलाने का प्रयास किया जाता है। कोई एक इकाई, प्रांत, भाषायी समुदाय
आदि मिलकर संघ का निर्माण करते हैं और संघवाद मजबूती के साथ आगे बढ़े इसके लिए
इकाइयों में टकराव कम से कम हो। अत: भारत में राज्यों का पुनर्गठन भाषायी आधार पर किया
गया है। कोई एक भाषायी समुदाय पूरे संघ पर हावी न हो जाए इस कारण इकाई क्षेत्रों की अपनी
भाषा, धर्म, सम्प्रदाय या सामुदायिक पहचान बनी रहती है और वे इकाई अपनी अलग पहचान
होते हुए भी संघ की एकता में विश्वास रखती है।
प्रश्न 6, उत्तर भारत के प्रदेशों-राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा बिहार के
अधिकांश लोग हिन्दी बोलते हैं। यदि इन सभी प्रांतों को मिलाकर एक प्रदेश बना दिया
जाय तो क्या ऐसा करना संघवाद के विचारों से संगत होगा? तर्क दीजिए। (NCERT T.B.0.6)
उत्तर-उत्तर भारत के प्रदेशों -राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार के अधिकांश लोग
हिन्दी बोलते हैं। यदि इन सभी प्रांतों को मिलाकर एक प्रदेश बना दिया जाए तो ऐसा करना संघवाद
के विचार से असंगत होगा। जैसा कि हम जानते हैं कि संघवाद एक संस्थागत प्रणाली है जो दो
प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाओं को समाहित करती है। इसमें एक प्रांतीय स्तर की होती है और
दूसरी केन्द्रीय स्तर की। लोगों की दोहरी पहचान होती है। दोहरी निष्ठाएं होती हैं-वे अपने क्षेत्र
के भी होते हैं और राष्ट्र के भी।
अतः उपरोक्त प्रदेशों को केवल हिन्दी भाषी होने के कारण एक प्रदेश बनाना संघवाद के
विचार से असंगत है।
प्रश्न 1, “भारत राज्यों का संघ है” इसके कुछ संघात्मक लक्षणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-भारत राज्यों का संघ है। इसका तात्पर्य यह है कि भारत में एक संघात्मक शासन
व्यवस्था अपनायी गयी है। इसके अन्तर्गत 28 राज्य तथा 7 केन्द्र शासित प्रदेश हैं। इन सबको
मिलाकर भारत का एक पूर्ण संघ बनाया गया है। भारतीय संविधान के संघात्मक लक्षण निम्नलिखित हैं-
(i) शक्तियों का विभाजन-प्रत्येक संधीय देश की तरह भारत में भी केन्द्र और राज्यों
के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है। इन शक्तियों के विभाजन की तीन सूचियाँ बनायी
गयी हैं-संघ सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची। संघ सूची में 97 विषय रखे गए हैं। राज्य
सूची में 66 तथा समवर्ती सूची में 47 विषय दिए गए हैं।
(ii) लिखित संविधान-संघीय व्यवस्था के लिए लिखित संविधान की आवश्यकता होती
है जिसमें केन्द्र और राज्य इकाइयों के बीच शक्तियों का स्पष्ट वर्णन किया जा सके। भारत का
संविधान लिखित है। इसमें 395 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियाँ हैं। अब तक इसमें लगभग 93
संशोधन हो चुके हैं।
(iii) कठोर संविधान-संघीय व्यवस्था में कठोर संविधान होना बहुत आवश्यक है।
भारत का संविधान भी कठोर है। संविधान को महत्त्वपूर्ण धारा में संसद के दोनों सदनों के दो
तिहाई बहुमत तथा कम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों के बहुमत से ही संशोधन किया
जा सकता है।
(iv) स्वतंत्र न्यायपालिका-संपात्मक व्यवस्था में संविधान की प्रामाणिक व्यवस्था के
लिए स्वतंत्र न्यायपालिका का होना अनिवार्य है। भारत में भी स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था
है। न्यायपालिका के कार्य और अधिकार भारत के संविधान में दिए गए हैं और यहं स्वतंत्र रूप
से कार्य करती है।
(v) संविधान की सर्वोच्चता-भारत में संविधान को सर्वोच्च रखा गया है। कोई भी कार्य
संविधान के प्रतिकूल नहीं किया जा सकता। सरकार के सभी अंग संविधान के अनुसार ही शासन
कार्य चलाते हैं।
वास्तव में भारत क्षेत्र और जनसंख्या की दृष्टि से अत्यधिक विशाल और बहुत विविधाओं
से परिपूर्ण है। ऐसी स्थिति में भारत के लिए संघात्मक शासन व्यवस्था को ही अपनाना स्वाभाविक
था और भारतीय संविधान के द्वारा ऐसा ही किया गया है। संविधान के प्रथम अनुच्छेद में कहा
गया है कि “भारत राज्यों का एक संघ होगा” लेकिन संविधान निर्माता संघीय शासन को अपनाते
हुए भी संघीय शासन की दुर्बलताओं को दूर रखने के लिए उत्सुक थे और इस कारण भारत
के संघीय शासन में एकात्मक शासन के कुछ लक्षणों को अपना लिया गया है। वास्तव में, भारतीय
संविधान में संघीय शासन के लक्षा प्रमुख रूप से तथा एकात्मक शासन के लक्षण गौण रूप
से विद्यमान हैं।
प्रश्न 2. कल्पना करें कि आपको संघवाद के संबंध में प्रावधान लिखने हैं। लगभग
300 शब्दों का एक लेख लिखें जिसमें निम्नलिखित बिन्दुओं पर आपके सुझाव हों-
(i) केन्द्र और प्रदेशों के बीच शक्तियों का बंटवारा (NCERT T.B.Q.4)
(ii) वित्त-संसाधनों का वितरण।
(iii) राज्यपालों की नियुक्ति।
उत्तर-(i) केन्द्र और प्रदेशों के बीच शक्तियों का बंटवारा-भारतीय संविधान द्वारा संघ
और राज्यों के बीच शक्ति विभाजन तो किया गया है, लेकिन शक्ति विभाजन की इस सम्पूर्ण
योजना में केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति प्रबल है। केन्द्रीय सूची में 97 विषय, राज्य सूची में 66 विषय
ओर समवर्ती सूची में 47 विषय हैं। समवर्ती सूची के विषयों पर संघ और राज्य दोनों को ही
कानून बनाने की शक्ति प्राप्त है, लेकिन पारस्परिक विरोध की स्थिति में संघीय सरकार के कानून
ही मान्य होंगे। अवशिष्ट शक्तियों भी केन्द्रीय सरकार को प्राप्त हैं। अनुच्छेद 249 के अनुसार
राज्य सूची के विषय में राष्ट्रीय हित में कानून बनाने की शक्ति भी संसद के पास है।
मूल संविधान द्वारा केन्द्रीय सरकार और इकाइयों की सरकारों के बीच जो शक्ति विभाजन
किया गया, उसमें 42वें संशोधन (1976) द्वारा महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। इस संविधानिक
संशोधन द्वारा राज्य सूची के चार विषय-शिक्षा, वन, वन्य जीव जन्तुओं और पक्षियों का रक्षण
तथा नाप-तौल समवर्ती सूची में कर दिए गए और समवर्ती सूची में एक नवीन विषय जनसंख्या
नियन्त्रण और परिवार नियोजन जोड़ा गया है।
केन्द्र-राज्य संबंध-संवैधानिक प्रावधान
अनुच्छेद 246-संसद को सातवीं अनुसूची की सूची में प्रमाणित विषयों पर कानून बनाने
की शक्ति।
अनुच्छेद 248-अवशिष्ट शक्तियांँ संसद के पास।
अनुच्छेद 249-राज्य सूची के विषय के सम्बन्ध में राष्ट्रीय हित में विधि बनाने की शकि
संसद के पास
अनुच्छेद 250-यदि आपातकाल की उद्घोषणा प्रवर्तन में हो तो राज्य सूची के विषय के
सम्बन्ध में कानून बनाने की संसद की शक्ति।
अनुच्छेद 252-दो या अधिक राज्यों के लिए उनकी सहमति से कानून बनाने की संसद
की शक्ति।
अनुच्छेद 257-संघ की कार्यपालिका किसी राज्य को निर्देश दे सकती है।
अनुच्छेद 257-(क) संघ के सशस्त्र बलों या अन्य बलों के अभियोजन द्वारा राज्यों की
सहायता
अनुच्छेद 263-अन्तर्राज्यीय परिषद का प्रावधान।
(ii) वित्तय संसाधनों का वितरण-सविधान द्वारा केन्द्र तथा राज्यों के मध्य वित्तीय
संबंधों का निरूपण इस प्रकार किया जाता है: भारतीय संविधान में संघ तथा राज्यों के मध्य
कर निर्धारण की शक्ति का पूर्ण विभाजन कर दिया गया है। करों से प्राप्त आय का बँटवारा होता
है। संघ के प्रमुख राजस्व स्रोत इस प्रकार हैं-निगमकर, सीमा शुल्क, निर्यात शुल्क, कृषि भूमि
को छोड़कर अन्य सम्पत्ति पर सम्पदा शुल्क, विदेशी ऋण, रेले, रिजर्व बैंक, शेयर बाजार आदि।
राज्यों के राजस्व स्रोत हैं- प्रति व्यक्ति कर, कृषि भूमि पर कर, सम्पदा शूल्क, भूमि और भवनों
पर कर, पशुओं तथा नौकाओं पर कर, बिजली के उपयोग तथा विक्रय पर कर, वाहनों पर चुंगी
कर आदि।
संघ द्वारा आरोपित संग्रहीत तथा विनियोजित किए जाने वाले शुल्कों के उदाहरण हैं-बिल,
विनिमयों, प्रोमिसरी नोटों, हुण्डियों, चेकों आदि पर मुद्रांक शुल्क और दवा, मादक द्रव्य पर कर,
शौक-शृंगार की चीजों पर कर तथा उत्पादन शुल्क।
संघ द्वारा आरोपित तथा संगृहीत किन्तु राज्यों को सौंपे जाने वाले करों के उदाहरण, हैं-कृषि
भूमि के अतिरिक्त अन्य सम्पत्ति के उत्तराधिकार पर कर, कृषि भूमि के अतिरिक्त अन्य सम्पत्ति
शुल्क, रेल, समुद्र, वायु द्वारा ले जाने वाले माल तथा यात्रियों पर सीमान्त कर, रेलभाड़ों तथा
वस्तुभाड़ों पर कर, शेयर बाजार तथा सट्टा बाजार के आदान-प्रदान पर मुद्रांक शुल्क के अतिरिक्त
कर, सामाचार पत्रों के क्रय-विक्रय तथा उसमें प्रकाशित किए गए विज्ञापनों पर और अन्य
अन्तर्राज्जीय व्यापार तथा वाणिज्य से माल के क्रय-विक्रय पर कर।
(iii) अन्तर्राज्यीय झगड़ों का निपटारा-संघीय व्यवस्था में दो या दो से अधिक राज्यों
के बीच आपसी विवाद भी होते रहते हैं। प्रायः दो प्रकार के विवाद होते हैं- एक है सीमा-विवाद
मणिपुर व नागालैंड के बीच, पंजाब व हरियाणा के बीच, महाराष्ट्र और कर्नाटक आदि राज्यों
में सीमा विवाद बना हुआ है।
नदियों के जल बंटवारे को लेकर भी गम्भीर विवाद है। कावेरी जल विवाद इसका प्रमुख
उदाहरण है। तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच यहाँ विवाद चल रहा है। संसद को यह अधिकार
है कि नदियों के जल के बंटवारे से सम्बन्धित किसी विवाद को निपटाने के लिए उचित कानून
बनाए। 1956 में संसद ने एक ‘जलविवाद अधिनियम’ बनाया था जिसके अनुसार इस प्रकार के
विवाद केवल एक सदस्य वाले एक ट्रिब्यूनल को सौंपे जाएंगे, जिसके जज की नियुक्ति उच्चतम
न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश करेंगे। राज्यों के बीच विवादों को उच्चतम न्यायालय में ले जाया
जा सकता है। परन्तु कभी-कभी राज्यों के बीच इस प्रकार के विवाद उठते हैं, जिनका कोई कानूनी
आधार नहीं होता। संविधान निर्माताओं ने इसी कारण एक अन्तर्राज्यीय परिषद की स्थापना पर
बल दिया है।
(iv) राज्यपालों की नियुक्ति-राज्यों में राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती
है। राष्ट्रपति देश का संवैधानिक प्रमुख होने के कारण राज्यपाल की नियुक्ति प्रधानमंत्री और
मन्त्रिपरिषद के परामर्श से करता है। अत: प्रधानमंत्री ऐसे व्यक्ति को राज्यपाल बनाना चाहेंगे जो
उसका विश्वासपात्र हो क्योंकि ऐसे व्यक्ति द्वारा आवश्यकता पड़ने पर राज्य पर नियंत्रण स्थापित
किया जा सकता है। राज्यपाल राज्य में राष्ट्रपति शासन को सिफारिश कर सकता है। 1980 के
दशक में केन्द्रीय सरकार ने आन्ध्र-प्रदेश और जम्मू-कश्मीर की निसरकारों को बर्खास्त कर दिया।
प्रश्न-3. “भारत के संविधान का स्वरूप संघात्मक है परंत उसकी आत्मा एकात्मक
है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-भारतीय संविधान के निर्माताओं ने देश की परिस्थितियों के अनुसार ऐसी व्यवस्था
की है जिससे राष्ट्र की इकाइयों को स्वायत्तता मिली रहे और साथ ही राष्ट्र की एकता भी भंग
न हो। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर जहाँ संविधान में संघीय तत्त्व अपनाये गए वहाँ एकात्मक
तत्त्व के लक्षण भी पाये जाते हैं। भारत एक ऐसा देश है जहाँ विभिन्न भाषा-भाषी, धर्मों, जातियों
के लोग रहते हैं। अत: देश की समस्याओं का समाधान ऐसी ही व्यवस्था में सम्भव था।
भारतीय संविधान के संघात्मक लक्षण-
(i) संविधान की सर्वोच्चता-भारत में न तो केन्द्रीय सरकार सर्वोच्च है और न ही राज्य
सरकार। संविधान ही सर्वोच्च है। कोई भी सरकार संविधान के प्रतिकूल काम नहीं कर सकती।
देश के सभी पदाधिकारी जैसे राष्ट्रपति, मंत्रीगण आदि अपना पद ग्रहण करने से पूर्व संविधान
की सर्वोच्चता को स्वीकार करते हुए इसके प्रति निष्ठा की शपथ लेते हैं।
(ii) लिखित और कठोर संविधान-भारत का संविधान लिखित है जो संविधान सभा द्वारा
निर्मित किया गया था। इसमें 395 अनुच्छेद तथा 12 सूचियाँ हैं। ये 22 अध्यायों में विभाजित हैं।
इसमें संघ व राज्य सम्बन्धी अधिकारों को स्पष्ट रूप से लिखा गया है। इसके साथ-साथ भारत
का संविधान कठोर भी है। इसे आसानी से बदला नहीं जा सकता।
(iii) अधिकारों का विभाजन-संविधान में केन्द्र और राज्यों की शक्तियों व कर्तव्यों की
स्पष्ट व्याख्या की गई है। दोनों के अधिकारों का तीन सूचियों में विभक्त किया गया है-
(a) संघ सूची-इसमें 97 विषय हैं, जैसे- प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, युद्ध और सन्धि, रेलवे,
व्यापार, बीमा, मुद्रा डाक-तार, आदि। इस पर संसद ही कानून बना सकती है।
(b)राज्य सूची-इसमें 66 विषय हैं। इनमें पुलिस, जेल, न्याय-व्यवस्था, स्वास्थ्य चिकित्सा,
स्थानीय व्यवस्था प्रमुख हैं। इन पर राज्य के विधानमंडलों को कानून बनाने का अधिकार है।
(c) समवर्ती सूची-इसमें 47 विषय हैं, जैसे-शिक्षा, वन, कानून, विवाह, तलाक, निवारक
नजरबन्दी, मिलावट इत्यादि। इन विषयों पर संसद और राज्य सरकार दोनों ही कानून बना
सकती है।
(iv) स्वतंत्र न्यायपालिका-भारत के संविधान में केन्द्र और राज्यों की समस्या को हल
करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई है। वह केन्द्र और राज्यों के उन कानूनों
को अवैध घोषित कर सकता है जो संविधान के अनुच्छेदों के अनुकूल न हो।
(v) द्वैध शासन व्यवस्था-प्रत्येक संसदीय देश में दो प्रकार की सरकारें होती हैं- केन्द्रीय
व राज्य सरकारें। इनके शासन-क्षेत्र भी अलग-अलग होते हैं। इनके मिलने से इस संघ का निर्माण
होता है। भारत के नागरिक दोहरे शासन के अन्तर्गत रहते हैं। इनमें दो प्रकार के, विधानमंडल और
प्रशासनिक, अधिकार आते हैं। नागरिकों को दो प्रकार के कर देने पड़ते हैं। इनमें से कुछ केन्द्रीय
सरकार लगाती है और कुछ राज्य सरकारें।
(vi) कठोर संविधान-भारत का संविधान लिखित होने के साथ-साथ कठोर भी है इसमें
संशोधन करने की विधि कठिन है। संविधान के महत्त्वपूर्ण विषयों में संशोधन के लिए संसद के
दोनों सदनों के उपस्थित सदस्यों का दो-तिहाई बहुमत एवं कुल सदस्यों का बहुमत तथा
कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमंडलों की स्वीकृति चाहिए।
(vii) केन्द्र व राज्य में अलग-अलग सरकारें-संघात्मक शासन में दो प्रकार की सरकारें
होती हैं-केन्द्रीय सरकार और राज्यों की सरकारें। दोनों का गठन संविधान के अनुसार होता है।
दोनों सरकारें प्रशासन चलाने के लिए कानून बनाती हैं।
प्रो. के. सी. ह्वेयर ने कहा है, “भारत एक ऐसे संघीय राज्य की अपेक्षा जिसमें एकात्मक
तत्त्व गौण हों, एक ऐसा एकात्मक राज्य है जिसमें संघीय तत्त्व गौण हैं।”
यह भी कहा जाता है कि भारतीय संविधान का स्वरूप भले ही संघात्मक हो परंतु उसकी
आत्मा एकात्मक है।
भारतीय संविधान के एकात्मक लक्षण-
(i) शक्तिशाल केन्द्र-भारतीय संविधान में राज्यों की अपेक्षा केन्द्र को अधिक शक्तियाँ
प्रदान की गई हैं। संविधान द्वारा शक्तियों का विभाजन करके केन्द्रीय सूची में 97 विषय तथा
राज्य सूची में 66 विषय रखे गए हैं तथा समवर्ती सूची पर केन्द्र और राज्य सरकारें दोनों कानून
बना सकती हैं। लेकिन केन्द्र को इसमें भी प्राथमिकता दी गई है। अवशिष्ट विषयों पर भी केन्द्र
कानून बना सकती है। अतः स्पष्ट है कि संविधान निर्माताओं ने एक शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना
की है।
(ii) राज्य के विषयों में केन्द्र का हस्तक्षेप-कुछ परिस्थितियों में केन्द्र राज्य सूची के
विषयों पर भी कानून बना सकती है वे निम्नलिखित हैं-
(a) यदि कभी दो राज्यों की विधान सभाएं केन्द्र को राज्य सूची में से किसी विषय पर
कानून बनाने की प्रार्थना करें तो उस विषय पर केन्द्र कानून बना सकता है।
(b) राज्य सभी 2/3 बहुमत से राज्य-सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित
कर दे तो केन्द्रीय सरकार उस विषय पर कानून बना सकती है।
(c) संकटकाल की स्थिति उत्पन्न होने पर केन्द्र को राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने
की शक्ति प्राप्त हो जाती । अत: यह स्पष्ट है कि केन्द्रीय सरकार को तीनों सूचियों के विषयों
पर कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। अर्थात् केन्द्र अत्यधिक शक्तिशाली है।
(iii) संकटकालीन शक्तियांँ-सविधान के अनुसार राष्ट्रपति को संकटकालीन शक्तियाँ
दी गई है। राष्ट्रपति युद्ध या आन्तरिक अशांति के कारण देश में आपातस्थिति की घोषणा कर
सकता हैं। ऐसी स्थिति में भारत का संघीय ढाँचा एकात्मक हो जाता है। इस स्थिति में केन्द्रीय
सरकार राज्य सूची के विषयों पर भी कानून बना सकती है तथा राज्यों को उस समय केन्द्र के
आदेश के अनुसार चलना होता है। यदि राष्ट्रपति को यह मालूम हो जाए कि किसी राज्य में
संविधान के अनुसार शासन नहीं चल रहा तो राष्ट्रपति उस राज्य का शासन प्रबन्ध केन्द्र के हाथ
में दे सकता है।
(iv) इकहरी नागरिकता-संघीय देशों में नागरिकों को प्राय: दो प्रकार की नागरिकता प्राप्त
होती है, एक नागरिकता तो वहां की होती है जहाँ वह नागरिक रहता है तथा दूसरी नागरिकता
उस देश की होती है। परंतु भारत में प्रत्येक व्यक्ति को केवल एक नागरिकता प्राप्त है। वैसे तो
ऐसा देश में एकता लाने के लिए किया गया है, लेकिन यह संघीय व्यवस्था के विपरीत है।
(v) राज्यपालों की नियुक्ति-राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति केन्द्रीय मंत्रिमंडल की सलाह
से करता है। राज्यपाल प्रत्येक राज्य में केन्द्र के एजेन्ट के रूप में कार्य करता है। समान्य काल
में राज्यपाल राज्यों में केन्द्र के हितों की रक्षा करता है और विधानसभा द्वारा पास किए हुए कुछ
बिलों को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजता है परंतु राज्य की संकटकालीन स्थिति में राज्य
का शासन उसी को ही सौपा जाता है तथा केन्द्र के निर्देशों को राज्य में लागू करता है। इस प्रकार
राज्यपाल के माध्यम से केन्द्रीय सरकार राज्य पर अपना नियन्त्रण बनाए रखती है।
(vi) राज्यों की केन्द्र पर वित्त सम्बन्धी निर्भरता-राज्यों को केन्द्र पर धन के मामले में
भी आश्रित रहना पड़ता है। केन्द्र राज्यों को अनुदान के रूप में धन देता है और आवश्यकता पड़ने
पर कर्ज भी देता है। क्योंकि राज्यों के पास धन के साधन कम होते हैं इसलिए केन्द्र का उन
पर अधिकार बढ़ जाता है।
(vii) संसद को राज्यों का पुनर्गठन तथा उसके नामों में परिर्वतन करने का अधिकार
“है-केन्द्रीय संसद राज्यों का पुनर्गठन कर सकती है तथा उनकी सीमाओं और नामों को भी बदल
सकती है। संबंधित राज्य से उसकी राय तो ले ली जाती है, परंतु मानना या न मानना राष्ट्रपति
की इच्छा पर निर्भर करता है। संसद का यह अधिकार संघीय व्यवस्था के लिए उपयुक्त नहीं है।
(viii) अखिल भारतीय सेवाएंँ-संघीय शासन में दोहरी सरकार होने के कारण सिविल
सेवाओं को केन्द्रीय सेवाओं में विभक्त किया गया है। इसके अतिरिक्त अखिल भारतीय सेवाओं
को प्रशासन की सुचारु रूप से चलाने के लिए बनाया गया है। कर्मचारियों की नियुक्ति केन्द्र द्वारा
की जाती है लेकिन ये केन्द्र और राज्य दोनों प्रशासनों के लिए नियुक्ति किए जाते हैं।
इस प्रकार संविधान द्वारा एक शसक्त केन्द्रीय सरकार की स्थापना की गई है। भारत एक
विविधताओं वाला देश है। अत: एकता स्थापित करने के लिए ऐसे ही संविधान की आवश्यकता
थी जो देश की एकता के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का समाधान करे और ऐसा
करने में केन्द्र को राज्यों का सहयोग भी प्राप्त हो। अतः संविधान को ऐसा बनाया गया कि संघ
की इकाइयाँ अपने स्थानीय मुद्दों का हल स्वयं कर सकें और राष्ट्रीय महत्त्व के कार्यों का संचालन
केन्द्रीय सरकार करे। इसी कारण भारतीय संविधान में संघात्मक और एकात्मक दोनों प्रकार के
तत्त्वों का समावेश किया गया। इसीलिए भारत के संविधान का स्वरूप संघात्मक है परन्तु उसकी
आत्मा एकात्मक है।
प्रश्न 4. बेल्जियम के संविधान के कुछ प्रारंभिक अनुच्छेद नीचे लिखे गए हैं। इसके
आधार पर बताएंँ कि बेल्जियम में संघवाद को किस रूप में साकार किया गया है। भारत
के संविधान के लिए ऐसा ही अनुच्छेद लिखने का प्रयास करके देखें। (NCERTT.B.Q.3)
शीर्षक-1-संघीय बेल्जियम, इसके घटक और इसका क्षेत्र
अनुच्छेद-1- बेल्जियम एक संघीय राज्य है-जो समुदायों और क्षेत्रों से बना है।
अनुच्छेद-2- बेल्जियम तीन समुदायों से बना है-फ्रैंच समुदाय, फ्लेमिश समुदाय और जर्मन
समुदाय।
अनुच्छेद-3- बेल्जियम तीन क्षेत्रों को मिलाकर बना है-वैलून क्षेत्र, फ्लेमिश क्षेत्र
और ब्रूसेल्स क्षेत्र।
अनुच्छेद-4- बेल्जियम में 4 भाषाई क्षेत्र हैं-फ्रेंच-भाषी क्षेत्र डच-भाषी क्षेत्र, ब्रुसेल्स की
राजधानी का द्विभाषी क्षेत्र तथा जर्मन भाषी क्षेत्र। ‘राज्य का प्रत्येक ‘कम्यून’ इन भाषाई क्षेत्रों में
से किसी एक का हिस्सा है।
अनुच्छेद-5- वैलून क्षेत्र के अंतगर्त आनेवाले प्रांत हैं-वैलून ब्राबैंट, हेनॉल्ट, लेग, लक्जमबर्ग
और नामूर। फ्लेमिश क्षेत्र के अंतर्गत शामिल प्रांत हैं- एंटीवर्प, फ्लेमिश ब्राबैंट, वेस्ट फ्लैडर्स, ईस्ट
फ्लैंडर्स और लिंबर्ग।
उत्तर-संघीय बेल्जियम, उसके घटक और उसका क्षेत्र-
बेल्जियम एक संघीय राज्य है जो समुदायों और क्षेत्रों से बना है। भारतीय संविधान का
यह प्रथम अनुच्छेद है कि (i) भारत अर्थात् इण्डिया राज्यों का संघ होगा। (ii) राज्य और उनके
राज्य क्षेत्र वे होंगे जो पहली. अनुसूची में निर्दिष्ट हैं। (iii) भारत के राज्य क्षेत्र में-(क) राज्यों
के राज्य क्षेत्र, (ख) पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट संघराज्य क्षेत्र और (ग) ऐसे अन्य राज्य क्षेत्र
जो अर्जित किए जाएं समाविष्ट होंगे।
अनुच्छेद 2- बेल्जियम तीन समुदायों से बना है-फ्रेंच फ्लेमिश और जर्मन। भारत एक ऐसे
समाज के लिए प्रेरित है जो जाति भेद से रहित हो परंतु प्रत्येक प्रान्त में सीटें तीन मुख्य समुदायों
में मुस्लिम, सिक्ख और सामान्य में बंटी हैं।
अनुच्छेद 3- बेल्जियम तीन क्षेत्रों से बना है (i) वैलून क्षेत्र, (ii) फ्लेमिश क्षेत्र (iii)
ब्रूसेल्स क्षेत्र।
भारत में 28 राज्य तथा 7 संघ शासित राज्य हैं। अनुच्छेद 1 के अनुसार भारत अर्थात्
इण्डिया राज्यों का संघ होगा। राज्य तथा संघशासित क्षेत्र वे होंगे जो अनुसूची (i) में दिए गए हैं।
अनुच्छेद 4- बेल्जियम में 4 भाषायी क्षेत्र हैं-फ्रेंच भाषी क्षेत्र, डच भाषी क्षेत्र, ब्रूसेल्स
की राजधानी का द्विभाषी क्षेत्र तथा जर्मन भाषी क्षेत्र। राज्य का प्रत्येक ‘कम्यून’ इन भाषायी क्षेत्रों
में किसी एक का हिस्सा है।
भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में इस समय कुल 22 भाषाएंँ दी गयी हैं। असमिया,
बंगला, गुजराती, हिन्दी, कन्नड़ कश्मीरी, मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, सिंधी,
तमिल,तेलगू, उर्दू, कोंकणी, मणिपुरी, नेपाली, बोडो, डोंगरी, मैथिली और नेपाली को 71 वें
संविधान संशोधन द्वारा 1992 में, बोडो, डोंगरी, मैथिली और संथाली को 92वें संवैधानिक
संशोधन अधिनियम 2003 द्वारा जोड़ा गया। इस प्रकार अब कुल 22 भाषाओं को राजभाषा के
रूप में संवैधानिक मान्यता प्राप्त है। संविधान के अनुच्छेद 345 के अधीन प्रत्येक राज्य के
विधानमंडल को यह अधिकार दिया गया है कि वह संविधान की आठवीं अनुसूची में अन्तर्निहित
भाषाओं में से किसी एक या अधिक को सरकारी कार्यों के लिए राज्य की भाषा के रूप में
अंगीकार कर सकता है। किन्तु राज्यों के परस्पर सम्बन्धों तथा संघ और राज्यों के परस्पर सम्बन्धों
में संघ की राजभाषा को ही प्राधिकृत भाषा माना जायगा।
अनुच्छेद 5-वैलून क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले प्रान्त हैं- वैलून, ब्राबेन्ट, हेनान्ट, लेग,
लकजमबर्ग और नामूर। फ्लेमिश क्षेत्र के अन्तर्गत शामिल प्रान्त हैं एन्टवर्प, फ्लेमिश ब्राबेन्ट, वेस्ट
फ्लेंडर्स, इस्ट फ्लेंडर्स और लिम्बर्ग।
भारत में अलग-अलग क्षेत्र संविधान में नहीं दिए गए हैं, परंतु इनकी तुलना हम पहाड़ी क्षेत्र,
उत्तरी क्षेत्र, पश्चिमी क्षेत्र, दक्षिणी क्षेत्र, पूर्वी क्षेत्र, पूर्वोत्तर भारत तथा मध्य भारत आदि के रूप
में कर सकते हैं। संविधान के अनुच्छेद प्रथम में केवल इतना कहा गया है कि-
भारत अर्थात् इण्डिया राज्यों का संघ होगा जिसमें राज्य तथा संघ शासित प्रदेश इस प्रकार
सम्मिलित होंगे जैसा अनुसूची (i) में वर्णन किया गया है।
प्रश्न 5. नीचे कुछ घटनाओं की सूची दी गई है। इनमें से किसको आप संघवाद की
कार्य-प्रणाली के रूप में चिह्नित करेंगे और क्यों? (NCERT T.B.Q.1)
(i) केन्द्र सरकार ने मंगलवार को जीएनएलएफ के नेतृत्व वाले दार्जिलिंग गोरखा
हिल काउंसिल को छठी अनुसूची में वर्णित दर्जा देने की घोषणा की। इससे पश्चिम
बंगाल के इस पर्वतीय जीले के शासकीय निकाय को ज्यादा स्वायत्तता प्राप्त होगी। दो दिन
के गहन विचार-विमर्श के बाद नई दिल्ली में केन्द्र सरकार, पश्चिम बंगाल सरकार और
सुभाष घीसिंग के नेतृत्व वाले गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के बीच
त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर हुए।
उत्तर-यह घटना संघवाद की कार्यप्रणाली के रूप में चिह्नित की जा सकती है, क्योंकि
इसमें केन्द्र सरकार, राज्य सरकार (पश्चिम बंगाल सरकार) तथा सुभाष घीसिंग के नेतृत्व वाली
गोरखा लिबरेशन फ्रंट तीनों शामिल हुए।
(ii) वर्षा प्रभावित प्रदेशों के लिए सरकार कार्य-योजना लाएगी-केन्द्र सरकार ने वर्षा
प्रभावित प्रदेशों से पुनर्निमाण की विस्तृत योजना भेजने को कहा है ताकि वह अतिरिक्त राहत प्रदान
करने की उनकी मांग पर फौरन कार्रवाई कर सके।
उत्तर-यह घटना अथवा प्रक्रिया भी संघवाद की कार्यप्रणाली के रूप में चिह्नित की जायगी।
(iii) दिल्ली के लिए नए आयुक्त-देश की राजधानी दिल्ली में नऐ नगरपालिका
आयुक्त को बहाल किया जायगा। इस बात की पुष्टि करते हुए एमसीडी के वर्तमान आयुक्त राकेश
मेहता ने कहा कि उन्हें अपने तबादले के आदेश मिल गए हैं और संभावना है कि भारतीय
प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अशोक कुमार उनकी जगह संभालेंगे। अशोक कुमार अरुणाचल
प्रदेश के मुख्य सचिव की हैसियत से काम कर रहे हैं। 1975 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा
के अधिकारी श्री मेहता पिछले साढ़े तीन साल से आयुक्त की हैसियत से काम कर रहे हैं।
उत्तर-यह तबादले का आदेश भी संघात्मक राज्य में केन्द्र सरकार के अधिकार में आता
है। अत: यह भी संघात्मक शासन प्रणाली अथवा संघवाद की कार्यप्रणाली के रूप में माना जायगा।
(iv) मणिपुर विश्वविद्यालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा-राज्यसभा ने
बुधवार को मणिपुर विश्वविद्यालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा प्रदान करने वाला विधेयक
पारित किया। मानव संसाधन विकास मंत्री ने वायदा किया है कि अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा और
सिक्किम जैसे पूर्वोत्तर के राज्यों में भी ऐसी संसाओं का निर्माण होगा।
उत्तर-उक्त घटना के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि संघवाद में केन्द्र और राज्यों के
बीच शक्ति का विभाजन रहता है। अतः केन्द्रीय विद्यालय केन्द्र सरकार के अधीन होगा।
(v) केन्द्र ने धन दिया-केन्द्र सरकार ने अपनी ग्रामीण जलापूर्ति योजना के तहत
अरुणाचल प्रदेश को 553 लाख रुपये दिए हैं। इस धन की पहली किश्त के रूप में अरुणाचल
प्रदेश को 466 लाख रुपये दिए गए हैं।
उत्तर-इस घटना में केन्द्र ने राज्य सरकार (अरुणाचल सरकार) को धन मुहैया कराया है।
यह भी संघवाद की कार्यप्रणाली के अन्तर्गत आता है।
(vi) हम बिहारियों को बताएंँगे कि मुंबई में कैसे रहना है-करीब 100 शिवसैनिकों
ने मुंबई के जे.जे. अस्पताल में उठा-पटक करके रोजमर्रा के कामधंधे में बाधा पहुंँचाई, नारे लगाए
और धमकी दी कि गैर-मराठियों के विरुद्ध कार्रवाई नहीं की गई तो इस मामले को वे स्वयं ही
निपटाएंँगे।
उत्तर-यह कार्यवाही संघवाद कार्यप्रणाली के अनुरूप नहीं है क्योंकि कोई राज्य भारतीय
नागरिक को किसी प्रदेश में रहने से नहीं रोक सकता।
(vii) सरकार को भंग करने की मांग-काँग्रेस विधायक दल ने प्रदेश के राज्यपाल
को हाल में सौंपे एक ज्ञापन में सत्तारूढ़ डमोक्रेटिक एलायंस ऑफ नगालैंड (डीएएन) की सरकार
को तथाकथित वित्तीय अनियमितता और सार्वजनिक धन के गबन के आरोप में भंग करने की
मांँग की है।
उत्तर-संघवाद की कार्यप्रणाली में जब किसी राज्यों में शासन भ्रष्टाचार में लिप्त हो तो संघ
(केन्द्र) राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा सकता है, यदि राज्यपाल इस तरह की सिफारिश करे।
उपरोक्त उदाहरण में राज्यपाल को ज्ञापन सौंपा गया है, अतः इसे संघवाद की कार्यप्रणाली के
रूप में देखा जा सकता है।
(viii) एनडीए सरकार ने नक्सलियों से हथियार रखने को कहा-विपक्षी दल राजद
और उसके सहयोगी कांग्रेस तथा सीपीआई (एम) के वॉकआऊट के बीच बिहार सरकार ने आज
नक्सलियों से अपील की कि वे हिंसा का रास्त छोड़ दें। बिहार को विकास के नए युग में ले
जाने के लिए बेरोजगारी को जड़ से खत्म करने के अपने वादे को भी सरकार ने दोहराया।
उत्तर-उक्त उदाहरण में एक राज्य सरकार के द्वारा किए जाने वाले कार्य को दर्शाया गया
है। उसे संघवाद की कार्यप्रणाली के रूप में चिह्नित नहीं किया जा सकता।
प्रश्न 6. भारतीय संविधान की ऐसी चार विशेषताओं का उल्लेख करें जिसमें प्रादेशिक
सरकार की अपेक्षा केन्द्रीय सरकार को ज्यादा शक्ति प्रदान की गई है।
उत्तर-भारत के संविधान में दो प्रकार की सरकारों की बात मानी गयी है एक सम्पूर्ण भारत
के लिए संघीय सरकार और दूसरी प्रत्येक संघीय इकाई के लिए राज्य सरकार। ये दोनों ही
संवैधानिक सरकारें हैं और इनका स्पष्ट कार्य क्षेत्र हैं। भारतीय संविधान की ऐसी चार विशेषताएंँ
निम्नलिखित हैं जिनमें केन्द्रीय सरकार को राज्य सरकार की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बनाया
गया है:
(i) किसी राज्य के अस्तित्व और उसकी भौगोलिक सीमाओं के स्थायित्व पर संसद का
नियंत्रण है। अनुच्छेद 3 के अनुसार संसद ‘किसी राज्य में से उसका राज्य क्षेत्र अलग अथवा
दो या अधिक राज्यों को मिलाकर नये राज्य का निर्माण कर सकती है।’वह किसी राज्य की
सीमाओं या नाम में परिवर्तन कर सकती है पर इस शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिए संविधान
पहले प्रभावित राज्य के विधानमंडल को विचार व्यक्त करने का अवसर देता है।
(ii) संविधान में केन्द्र को अत्यधिक शक्तिशाली बनाने वाले कुछ आपातकालीन प्रावधान
भी दिए गए हैं। आपातकाल में संसद को यह शक्ति प्राप्त हो जाती है कि वह राज्य सूची के
विषयों पर भी कानून बना सकती है।
(iii) सामान्य स्थिति में भी केन्द्र सरकार को अत्यन्त प्रभावी वित्तीय शक्ति प्राप्त है। पहला,
आय के प्रमुख संसाधनों पर केन्द्र सरकार का नियंत्रण है। केन्द्र के पास आय से अनेक संसाधन
हैं और राज्य अनुदानों और वित्तीय सहायता के लिए केन्द्र पर आश्रित है। दूसरा, स्वतंत्रता के बाद
भारत की आर्थिक प्रगति के लिए नियोजन का प्रयोग किया गया। केन्द्र योजना आयोग की नियुक्ति
करता है जो राज्यों के संसाधन-प्रबन्ध की निगरानी करता है। केन्द्र सरकार राज्यों को अनुदान
और ऋण देती है जिसमें विभिन्न राज्यों के साथ भेदभाव भी किया जाता है। विपक्षी दलों की
सरकार वाले राज्यों के साथ भेदभावपूर्ण रवैया अपनाया जाता है।
(iv) राज्यपाल धारा 356 का दुरुपयोग करते हैं क्योंकि राज्यपाल केन्द्र के एजेन्ट के रूप
में कार्य करता है। राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह राज्य सरकार को हटाने और विधान
सभा भंग करने का प्रतिवेदन राष्ट्रपति की स्वीकृति को भेज सके। सामान्य परिस्थिति में भी
राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रख सकता है।
(v) ऐसी परिस्थितियांँ भी आती हैं, जब केन्द्र राज्य सूची के विषय पर कानून बनाए पर
ऐसा करने के लिए राज्यसभा की अनुमति लेना आवश्यक है।
(vi) अनुच्छेद 257 के अनुसार, “प्रत्येक राज्य की कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग इस
प्रकार करेगी जिससे संघ की कार्यपालिका के कार्य में कोई अड़चन न आए।” संघ की
कार्यपालिका शक्ति का विस्तार किसी राज्य को ऐसे निर्देश देने तक होगा जो भारत सरकार को
इस प्रयोजन के लिए आवश्यक प्रतीत हो।
(vii) अखिल भारतीय सेवा में चयनित अधिकारी राज्यों के प्रशासन में कार्य करते हैं।
किसी क्षेत्र में सैनिक शासन (मार्शल ला) लागू हो तो संसद को यह अधिकार है कि वह केन्द्र
या राज्य के किसी भी अधिकारी के द्वारा शान्ति-व्यवस्था बनाए रखने या उसकी बहाली के लिए
किए गए किसी भी कार्य को कानून सम्मत करार दे सके। इसी के अन्तर्गत ‘सशस्त्र बल विशिष्ट
शक्ति अधिनियम’ का निर्माण किया गया।
प्रश्न 7. बहुत से प्रदेश राज्यपाल की भूमिका को लेकर नाखुश क्यों हैं? (NCERT T.B.0.8)
उत्तर-राज्यपाल की भूमिका केन्द्र और राज्यों के बीच सदैव तनाव का कारण रही है।
भारतीय संविधान के अनुसार राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा होती है और राज्यपाल अपने
कार्यों के लिए राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी होता है। राष्ट्रपति राज्यपाल को जब चाहे हटा सकता
है अथवा उसका स्थानान्तरण कर सकता है। कुछ विद्वानों का मत है कि राज्यपाल राज्य में केन्द्र
के एजेन्ट के रूप में कार्य करता है। पिछले कुछ समय से तो राज्यपाल की भूमिका को लेकर
भारत में काफी विवाद रहा है। विशेष तौर से ऐसे राज्यों की सरकारों ने राज्यपाल की भूमिका
की कड़ी आलोचना की है जहाँ विरोधी दलों की सरकारें बनी हैं। राज्यपालों से सम्बन्धित विवाद
का एक मुख्य प्रश्न यह भी रहा है कि राज्यपाल को किन परिस्थितियों में राष्ट्रपति शासन की
सिफारिश करनी चाहिए। कुछ राज्य सरकारों का यह मत रहा है कि कई बार ऐसा होता है कि
राज्यों की संवैधानिक मशीनरी विफल नहीं हुई होती तो भी राज्यपाल केन्द्र सरकार के इशारों पर
राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर देते हैं। इस तनाव को कम करने के लिए राज्यपालों
को समझदारी से काम लेना चाहिए। उत्तर प्रदेश में 21, फरवरी 1998 को तत्कालीन राज्यपाल
रोमेश भण्डारी ने कल्याण सिंह सरकार को गिराकर राज्यपाल के पद की गरिमा को ठेस पहुंँचायी।
2 फरवरी 2005 को गोवा में हुए नाटकीय घटनाक्रम में तत्कालीन राज्यपाल एस.सी. जमीर
ने विधानसभा में विश्वास मत हासिल करने के बावजूद भाजपा की मनोहर पारीकर सरकार को
बर्खास्त कर दिया। यह राजनीतिक व्यवस्था पर आघात है। बिहार में तत्कालीन राज्यपाल बूटासिंह
का आचरण भी विवादास्पद रहा जब उन्होंने 2005 में विधानसभा भंग कर दी। सुप्रीम कोर्ट ने
विधानसभा भंग किए जाने को अनुचित ठहराया। इन्हीं कारणों से बहुत से प्रदेश राज्यपाल की
भूमिका को लेकर नाखुश रहते हैं, क्योंकि राज्यपाल केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में राज्य के
संवैधानिक प्रमुख की भूमिका का निर्वहन नहीं करते। राजनीतिक दलों के नित्य नये गठबंधन बनने
और टूटने की प्रक्रिया के इस काल में राज्यपाल को अपना स्वतंत्र दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और
स्वविवेकी शक्तियों का प्रयोग करते समय निष्पक्षता का परिचय देना चाहिए।
प्रश्न 8. यदि शासन संविधान के प्रावधान के अनुकूल नहीं चल रहा, तो ऐसे प्रदेश
में राष्ट्रपति-शासन लगाया जा सकता है। बताएं कि निम्नलिखित में कौन-सी स्थिति किसी
देश में राष्ट्रपति-शासन लगाने के लिहाज से संगत है और कौन-सी नहीं संक्षेप में कारण
भी दें।
(i) राज्य की विधान सभा के मुख्य विपक्षी दल के दो सदस्यों को अपराधियों ने
मार दिया है और विपक्षी दल प्रदेश की सरकार को भंग करने की मांग कर रहा है।
(ii) फिरौती वसूलने के लिए छोटे बच्चों के अपहरण की घटनाएंँ बढ़ रही हैं।
महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में इजाफा हो रहा है।
(iii) प्रदेश में हुए हाल के विधान सभा चुनाव में किसी दल को बहुमत नहीं मिला
है। भय है कि एक दल दूसरे दल के कुछ विधायकों से धन देकर अपने पक्ष में उनका
समर्थन हासिल कर लेगा।
(iv) केन्द्र और प्रदेश में अलग-अलग दलों का शासन है और दोनों एक-दूसरे के
कट्टर शत्रु हैं।
(v) सांप्रदायिक दंगे में 200 से ज्यादा लोग मारे गए हैं।
(vi) दो प्रदेशों के बीच चल रहे जल विवाद में एक प्रदेश ने सर्वोच्च न्यायालय
को आदेश मानने से इन्कार कर दिया है।
उत्तर-(i) यह राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने का उचित कारण नहीं है। वास्तव में
उन अपराधियों को दण्डित किया जाना चाहिए।
(ii) इस समय भी राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करना उचित नहीं वरन् राज्य सरकार
को चाहिए कि वह राज्य में कानून और व्यवस्था की स्थिति में सुधार करे।
(iii) इस स्थिति में भी बिना किसी ठोस सबूत के केवल आशंका रहने पर राष्ट्रपति शासन
लागू करना असंगत है जैसा कि राज्यपाल बूटा सिंह ने बिहार में किया।
(iv) यही भी राष्ट्रपति शासन लगाने का उचित कारण नहीं बनता। केन्द्र और राज्यों में
अलग-अलग दलों की सरकारें हो सकती हैं।
(v) यह सरकार (शासन) की असफलता का मामला बनता है और इस स्थिति में राज्य
में राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाना चाहिए।
(vi) ऐसी स्थिति में उस प्रदेश की सरकार के कर्त्तव्य असंवैधानिक कहलाएंँगे और
राष्ट्रपति शासन भी लगाया जा सकता है। कोर्ट की अवमानना का सामना उस प्रदेश की सरकार
को करना पड़ेगा।
प्रश्न 9. ज्यादा स्वायत्तता की चाह में प्रदेशों ने क्या मांँगें उठाई हैं ? (NCERT T.B.Q.9)
उत्तर-संविधान ने केन्द्र को राज्यों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बनाया है। यद्यपि सविंधान
विभिन्न क्षेत्रों की भिन्न-भिन्न पहचान को मान्यता देता है, लेकिन फिर भी वह केन्द्र को अधिक
शक्ति देता है। एक बार राज्य की पहचान के सिद्धान्त को मान्यता मिल जाती है तब यह स्वाभाविक
ही है कि पूरे देश के शासन में और अपने शासकीय क्षेत्र में राज्यों द्वारा ज्यादा शक्ति तथा भूमिका
की मांँग उठायी जाए। इसी कारण राज्य ज्यादा शक्ति को मांग करते हैं। समय-समय पर राज्यों
ने ज्यादा शक्ति और स्वायत्तता देने की मांँग की है। 1960 के दशक में कांग्रेस के वर्चस्व में
कमी आयी और उनके राज्यों में विरोधी दल सत्ता में आ गए। इससे राज्यों की और ज्यादा शक्ति
और स्वायत्तता की मांग बलवती हुई। अलग-अलग राज्यों के लिए स्वायत्तता का अलग-अलग
अर्थ है। कुछ राज्य शक्ति विभाजन को राज्यों के पक्ष में बदलने की मांग करते हैं। तमिलनाडु,
पंजाब, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने स्वायत्तता का अलग-अलग अर्थ है। कुछ राज्य शक्ति
विभाजन को राज्यों के पक्ष में बदलने की मांग करते हैं। तमिलनाडु, पंजाब, पश्चिम बंगाल जैसे
राज्यों ने स्वायत्तता की मांग उठायी। कुछ राज्यों का स्वायत्तता का अर्थ है कि राज्यों के पास
आय के स्रोत अधिक होने चाहिए। कुछ राज्यों के स्वायत्तता का अर्थ केन्द्र के राज्य प्रशासनिक
तंत्र पर नियन्त्रण को रोकना है। इसके अतिरिक्त स्वायत्तता की मांग सांस्कृतिक और भाषायी मुद्दों
से भी सम्बन्धित है। तमिलनाडु में हिन्दी का विरोध, पंजाब में पंजाबी भाषा एवं संस्कृति के
प्रोत्साहन की मांग इसी प्रकार के उदाहरण हैं।
प्रश्न 10. क्या कुछ प्रदेशों में शासन के लिए विशेष प्रावधान होने चाहिए? क्या इससे
दूसरे प्रदेशों में नाराजगी पैदा होती है? क्या इन विशेष प्रावधानों के कारण देश के विभिन्न
क्षेत्रों के बीच एकता मजबूत करने में मदद मिलती है? (NCERT T.B.Q.11)
उत्तर– जब कुछ राज्यों में विशेष प्रावधानों के अन्तर्गत उनका शासन चलाया जाता है तो
यह अन्य राज्यों के लिए नाराजगी पैदा करता है। उदाहरणार्थ उत्तरांचल राज्य बनने से पूर्व वह
उत्तर प्रदेश का भाग था और उत्तरप्रदेश के लोग जहाँ चाहे रह सकते थे। परंतु अब उत्तरांचल
को विशेष दर्जा मिलने के कारण उत्तरांचल के बाहर के लोग वहाँ अचल सम्पत्ति नहीं खरीद
सकते, जबकि उत्तरांचल के लोग लोग उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों में जहां चाहे सम्पत्ति खरीद सकते
हैं। स्थायी रूप से मूलनिवासी का दर्जा उत्तरांचल अथवा अन्य किसी विशेष दर्जा प्राप्त अर्थात्
विशेष प्रावधानों द्वारा शासित राज्य में किसी बाहरी राज्य के व्यक्ति को नहीं मिल सकता। इस
कारण दूसरे राज्यों में नाराजगी पैदा होती है।
धारा 370 के लागू रहने के कारण जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा प्राप्त है अत: भारत
की संसद वहाँ की विधायिका की अनुमति के बिना उसमें कोई संशोधन नहीं कर सकती। अत:
अन्य राज्यों में नाराजगी पैदा होती है। शक्ति के बंटवारे की योजना के तहत संविधान प्रदत्त शक्तियाँ
सभी राज्यों को समान रूप से प्राप्त हैं। परन्तु कुछ राज्यों के लिए उनकी विशिष्ट सामाजिक और
ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुरूप संविधान कुछ विशेष अधिकारों की व्यवस्था करता है। असम,
नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम आदि राज्यों में विशेष प्रावधान लागू हैं। इसी प्रकार हिमाचल
प्रदेश, उत्तरांचल आदि कुछ पहाड़ी राज्यों में भी प्रावधान लागू है। अनेक लोगों की मान्यता है
कि संघीय व्यवस्था में शक्तियों का औपचारिक और समान विभाजन संघ की सभी इकाइयों
(राज्यों) पर समान रूप से लागू होना चाहिए। अतः जब भी ऐसे विशिष्ट प्रावधानों की व्यवस्था
संविधान में की जाती है तो उसका कुछ विरोध भी होता है। इस बात की भी शंका होती है कि
विशिष्ट प्रावधानों से उन क्षेत्रों में अलगवादी प्रवृत्तियाँ मुखर हो सकती हैं। संघीय व्यवस्था की
सफलता के लिए न राष्ट्र की एकता को बनाए रखने के लिए इन विशेष प्रावधानों का होना
आवश्यक है। इन प्रावधानों के कारण उन प्रदेशों की अपनी व्यक्तिगत संस्कृति की पहचान बनी
रहती है।