8TH SST

BIHAR BOARD CLASS 8TH HISTORY SOLUTIONS

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 ग्रामीण जीवन और समाज
(अंग्रेजी शासन और भारत के गाँव)
पाठ का सारांश – अंग्रेजों ने शुरुआत में भारतीय राज्यों को अपने अधिकार में ले लिया। आगे चलकर उन्होंने ऐसे नियम-कानून बनाए, ऐसी व्यवस्थाएं लागू की जो उनके शासन और उनके लाभ को लगातार बढ़ाएँ । अंग्रेजों के शासन का प्रभाव भारतीय गाँवों पर किस प्रकार पड़ा। प्रस्तुत अध्याय इस तथ्यों पर प्रकाश डालता है।
अंग्रेजी शासन के पहले के भारतीय गाँव- आज की कुल आबादी का प्रायः 68 प्रतिशत भाग गाँवों में रहती है जबकि हमेशा से भारत की अधिकांश आबादी गाँवों में रहती थी। तब, भारत की अधिकांश आबादी का मुख्य काम कृषि था। ग्रामीण अपनी प्रत्येक वस्तु का, जो उनकी जरूरत की होती थी, उत्पादन स्वयं करते थे । खेती के लिए जमीन उन्हें राजा से मिलती थी इसी के बदले राजा उनसे जमींदारों के माध्यम से लगान लेता था । समूची जमीन का मालिक राजा होता था।
गाँवों में लोग प्रायः मिल-जुलकर रहते थे। अपने छोटे-छोटे झगड़ों का समाधान स्वयं कर लेते थे। गाँवों के लोगों की मेहनत से ही बड़े-बड़े राज्य और साम्राज्य खड़े होते थे। यहीं से राज्यों के खर्च के लिए धन, व्यापारियों के लिए वस्तु एवं सेना-पुलिस तथा अन्य कर्मचारियों के लिए भोजन का प्रबंध होता था। इसलिए अंग्रेजी सरकार ने भी सर्वप्रथम गाँवों पर ही ध्यान दिया और उस पर अपना नियंत्रण स्थापित करने की बात सोची।
अंग्रेजों को लगान वसूली का अधिकार मिला-अंग्रेजों ने भारतीय राज्यों की फूट का लाभ उठाकर राजनीतिक सत्ता पर अप्रत्यक्ष अधिकार प्राप्त कर, गाँवों का लगान वसूल करने का अधिकार प्राप्त कर लिया था। अपने व्यापार के लिए धन को अब उन्हें अपने देश से मंगाने की जरूरत नहीं रही थी। भारत के गांवों से ही घन उगाहते और यहाँ के धन से व्यापार कर चौगुना-दस गुना लाभ कमाना शुरू कर दिया जो बढ़ता ही गया। साम्राज्य वृद्धि के लिए उन्हें लगातार युद्ध करना पड़ता था। सेना के खर्चों और उनके अन्य खर्चों के लिए धन गाँवों से वसूले लगान से ही प्राप्त होता था।
शुरू में तो अंग्रेजों ने राजा की व्यवस्था बरकरार रखते जमींदारों के माध्यम से ही लगान प्राप्त किया। पर, बाद में ज्यादा लगान प्राप्त करने के उद्देश्य से उन्होंने लगान वसूली के अधिकार की नीलामी शुरू कर दी। जो व्यक्ति किसी खास इलाके से ज्यादा लगान वसूल करने की बोली लगाता उसे लगान वसूल करने का अधिकार मिलता । इसे ठेकेदारी व्यवस्था कह सकते हैं। पर यह व्यवस्था ज्यादा दिनों तक नहीं चल पायी। लगान व्यवस्था की शुरुआत– सन् 1789 के आस-पास कंपनी सरकार ने जमींदारों के साथ एक करार किया जिसके तहत उनके द्वारा कंपनी को दिया जाने वाला लगान 10 वर्षों के लिए तय कर दिया गया। यह राशि जमींदारों द्वारा किसानों से वसूले गए लगान का 3/10 भाग तय कर दिया गया। आगे चलकर सन् 1793 में इसी राशि को निश्चित मान लिया गया। इसे स्थायी बंदोबस्ती नाम दिया गया।
एक अनुमान के अनुसार यदि किसानों की उपज को 100 माना जाए तो इस व्यवस्था के तहत अंग्रेजी सरकार को उसमें से लगभग 45 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त होता था। जमींदार और उसके कारींदे अपने लिए करीब 15 प्रतिशत हिस्सा वसूलते थे और शेष 40 प्रतिशत किसानों के पास बचता था।
जमींदारों को लगान की तय राशि नियमित तिथि को सूरज डूबने से पूर्व सरकारी कार्यालय में जमा करवाना अनिवार्य था.। ऐसा नहीं करने पर उनकी जमींदारी नीलाम कर दी जाती थी।
सरकार को इस बात से कोई मतलब या परवाह नहीं था कि अकाल या बाढ़ के कारण फसल नष्ट हो गयी है या पैदावार कम हुई है। उन्हें तो हर हाल में जमींदारों से तय राशि, नियत तिथि को प्राप्त करना ही था।
इस व्यवस्था से, जमींदार जो पूर्व में लगान वसूलने वाले अधिकरी होते थे, अब जमीन के मालिक बना दिये गये। अंग्रेज ऐसा सोचते थे कि जमीन के मालिक बनने से जोदार खेती में सुधार और पैदावार बढ़ाने का प्रयास करेंगे, जैसी व्यवस्था यूरोप के कुछ देशों में थी। साथ ही वे भारत में अपने लिए एक समर्थक वर्ग तैयार करना चाहते थे। ऐसा हुआ भी। बीसवीं सदी में जब उनके खिलाफ आंदोलन हुए तो इस जमींदार वर्ग ने उनका साथ दिया ।
पर, इस व्यवस्था की खामी भी अंग्रेजों को दिखने लगी। एक तो स्थायी बंदोबस्ती से उन्होंने लगान की राशि को हमेशा के लिए निश्चित कर दिया था, पर उनके खर्च और उनकी आवश्यकताएँ बढ़ती जा रही थी।
दूसरे जैसा उन्होंने सोचा था कि जमीदार पैदावार बढ़ाएंगे, किसानों की समस्याएँ सुलझायेंगे वैसा हुआ नहीं। विपरीत इसके, जब सही समय पर किसी कारण लगान न चुका पाने पर भले जमींदारों की जमींदारी चली गई तो उनके बदले क्रूर और लोभी जमींदार आ गये जो सिर्फ अपने फायदों को देखते, किसानों की समस्याओं से उनका कोई मतलब नहीं होता और वे उनसे जबर्दस्ती लगान वसूल कर लेते भले ही किसानों को अपना सब कुछ खोना पड़े।
तब अंग्रेजों के एक वर्ग ने इस बिचौलिए जमींदार पद को ही समाप्त कर जमीन का अधिकार सीधे किसानों को देने की बात सोची। यह नई व्यवस्था दक्षिण और पश्चिम भारत में रैयतवारी व्यवस्था के नाम से शुरू की गई। इसमें किसानों के साथ सीधा करार किया गया । इस व्यवस्था
में जमींदार खत्म हो गये। सीधे किसानों से कम्पनी ने लगान उपज के आधार पर तय किया । उपज से लाभ का 50 प्रतिशत लगान के रूप में तय कर दिया गया। मगर इसे स्थायी नहीं बनाया गया। प्रत्येक 30 वर्ष याद लगान की राशि में बदलाव किया जाना तय किया गया। इस व्यवस्था से किसान जमीन के मालिक बन गये। महालवारी व्यवस्था-पंजाब, दिल्ली एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अंग्रेजों ने सीधे किसानों की जगह बड़े जमीन मालिकों या परिवारों जिन्हें महाल कहा जाता था, से लगान वसूल करने का करार कर लिया। लगान की मात्रा रैयतवारी व्यवस्था वाली हो धी-उपज से खेती के खर्च को पाकर जो बचता था उसका लगभग 50 प्रतिशत लगान तय कर दिया गया। इसे भी मात्र 30 वर्षों के लिए ही लागू किया गया।
निष्कर्ष-इन तीन प्रकार की भूमि व्यवस्था को अगर अंग्रेजों के शासन वाले भारतीय क्षेत्र में प्रसार के तहत देखें तो यह निष्कर्ष निकलता है-कुल कृषि योग्य भूमि में 19 प्रतिशत स्थायी बंदोबस्ती के अन्तर्गत था। 29 प्रतिशत महालवारी व्यवस्था के तहत एवं 52 प्रतिशत रैयतवारी व्यवस्था के तहत आता था। इसे आय को नीचे दिये गये मानचित्र में भी देख सकते हैं।

नई लगान व्यवस्थाओं का ग्रामीण जीवन पर प्रभाव- भले जमींदार जो संकट की घड़ी-अकाल, बाढ़ या फसल नष्ट होने की सूरत में किसानों से अच्छे संबंध के कारण जबर्दस्ती लगान वसूल नहीं करना चाहते थे, उनकी जमींदारी छिन गयी और बुरे, असभ्य एवं क्रूर जमींदार सामने
आ गये जिससे किसानों का जीना दुश्वार हो गया।
नई व्यवस्था में किसानों को जमीन का मालिक बनाने, लगान न दे पाने की सूरत में उन्हें अपने खेत, जमीन महाजनों के यहाँ गिरवी रखने पड़ते थे और कर्ज पर पैसा उठाकर कंपनी को देना होता था। अतः महाजनी व्यवस्था सुदृढ़ होने लगी और किसान बेमौत मरने लगे। खेती में सुधार का प्रश्न ही नहीं उठता था। रैयतवारी और महलवारी दोनों व्यवस्थाओं में कोई भी पक्ष खेतों में सुधार नहीं करना चाहता था। चूँकि इसका अर्थ होता अंग्रेजों को ज्यादा लगान वसूलने का लोभ हो जाता । अतः मजबूत हुए महाजन या नए जमीन मालिक जिन्होंने पुराने जमींदारों की जगह ले ली थी।
1875 का दक्कन विद्रोह- महाराष्ट्र के पूणा और अहमदनगर जिला में 1875 में किसानों का गुस्सा बड़े पैमाने पर उपद्रव के रूप में महाजनों के खिलाफ भड़क गया । महाजनों को और उनकी संपत्ति व उनके खाते-बही को निशाना बनाया गया । महाजनों ने उन क्षेत्रों को छोड़कर चले जाना ही उचित समझा।
बाजार के लिए नई फसलों का उत्पादन–अंग्रेजों ने अपनी जरूरतों के हिसाब से नई फसलों के उत्पादन के लिए किसानों को प्रोत्साहित भी किया और मजबूर भी। भले ही किसानों के लिए उन फसलों का महत्व न हो । जैसे—बंगाल में किसानों को पटसन (जूट), असम में चाय, बिहार में नील, शोरा और अफीम, मध्य व पश्चिम भारत में कपास इत्यादि फसलों का उत्पादन करने को कहा गया।
नील की खेती की समस्याएँ-किसानों को धान की खेती की जगह जबरदस्ती नील की खेती करने को बाध्य किया गया। इससे किसानों को खाने के लिए धान नहीं मिला तो अनाज की उनके पास कमी हो गयी। ऐसे में या तो वे महाजनों से कर्ज लेते या भूखे रहते क्योंकि नील की खेती जब होती तो उस साल कोई और फसल खेत में नहीं उपजाया जा सकता था।
नील किसानों का विद्रोह—बंगाल में नील की खेती बड़े पैमाने पर करवायी जा रही थी
जिससे वहाँ के किसान अत्यन्त दुखी थे। बार-बार पड़ने वाले अकाल व भुखमरी से परेशान किसानों ने विद्रोह कर दिया। जमींदारों ने भी विद्रोह में उनका साथ दिया। इस विद्रोह की खास बात यह थी कि अंग्रेजों ने इसे दबाने का प्रयास नहीं किया। धीरे-धीरे बंगाल के कुछ इलाकों से नील की खेती पूर्णत: खत्म हो गई।
बिहार और नील की खेती- बिहार में नील की खेती मुख्य रूप से उत्तर बिहार के चम्पारण और मुजफ्फरपुर के इलाकों में की जाती थी। भागलपुर और शाहाबाद क्षेत्र में भी नील की खेती बड़े पैमाने पर शुरू हुई। नील के अलावा अंग्रेजों ने इस इलाके में अफीम, पटसन और शोरा नामक नकदी फसलों का उत्पादन भी बड़े पैमाने पर शुरू करवाया। वर्तमान गया जिला अफीम उत्पादन में तत्कालीन बंगाल प्रान्त से प्रथम स्थान पर था।
बिहार में नील की खेती दो तरीकों से की जाती थी। ‘जीरात’ और ‘असामीबार’। जीरात के तहत सीधे अपनी देख-रेख में अंग्रेज बगान मालिक मजदूरों से खेती करवाते थे। असामीबार में बगान मालिक रैयतों को उनकी स्वयं की जमीन पर नील की खेती करने को बाध्य करते थे।
“तीनकठिया” प्रणाली इसी के तहत चम्पारण में शुरू किया गया। इसके अन्तर्गत किसानों को अपनी जमीन में तीन कट्ठे प्रति बीघा की दर से नील की खेती करनी पड़ती थी। इसी के विरोध में महात्मा गाँधी ने चम्पारण में सत्याग्रह की शुरुआत की।
नई भू-राजस्व व्यवस्थाएँ अंग्रेजों द्वारा भारत में अपने साम्राज्य निर्माण की दिशा में उठाए गए सबसे महत्वपूर्ण कदमों में से थीं जिनसे अंग्रेजी शासन को स्थायित्व मिला। वैसे, इन व्यवस्थाओं ने भारत के परम्परागत भूपतियों और आम किसानों दोनों में कई प्रकार के असंतोष को जन्म दिया।
पाठ के अन्दर आए प्रश्नों के उत्तर
1. कल्पना करें लगान वसूली का अधिकार मिलने से गाँवों में क्या परिवर्तन आया होगा, आपकी नजर में अब भूमि का मालिक कौन हो गया ?
उत्तर—अंग्रेजों को लगान वसूली का अधिकार मिलने से गाँवों में असंतोष उत्पन्न हो गया।
किसानों की दशा खराब होती चली गयी। भूमि का मालिक अब राजा से जमींदार हो गये थे।
2. गतिविधि-रिकार्डो के मत के अनुसार बड़े एवं सम्पन किसानों की आय पर आज कर लगाना क्या उचित होगा? सोचें ।
उत्तर–हाँ, ऐसा करना उचित होगा। बड़े एवं सम्पन्न किसानों की आय पर कर लगाना उचित ही होगा।
3. गतिविधि-महालवारी व्यवस्था में पूरे गाँव से एक परिवार द्वारा लगान वसूलने में किस प्रकार की कठिनाई आती होगी? विचार कर अपना मत दें।
उत्तर-एक परिवार द्वारा पूरे गाँव से लगान वसूल करने में बहुत समस्या आती होगी । प्रत्येक किसान की उपज का हिसाब-किताब रखना व उनकी बचत का अनुमान लगाना किसी एक परिवार के लिए संभव नहीं हो सकता है। अत: वे किसी प्रकार इस काम को निपटा देते होंगे।
4. नकदी फसल किसे कहा जाता था?
उत्तर–नकदी फसल ऐसा कृषि उत्पाद होता है जिसे खेतों से सीधे व्यापारियों द्वारा खरीद लिया जाता था। जैसे—गन्ना, नील, तम्बाकू, अफीम इत्यादि ।
अभ्यास
आइये फिर से याद करें-
1. सही विकल्प को चुनें-
(i) बिहार में अंग्रेजों के समय किस तरह की भूमि व्यवस्था अपनाई गई?
(क) स्थायी बंदोबस्त
(ख) रैयतवारी व्यवस्था
(ग) महालवारी व्यवस्था
(घ) इनमें से कोई नहीं
(ii) अंग्रेजों के आने के पहले भूमि का मालिक कौन होता था?
(क) जमींदार
(ख) व्यापारी
(ग) किसान
(घ) राजा
(iii) रैयतवारी व्यवस्था में जमीन का मालिक किसे माना गया?
(क) किसान
(ख) जमींदार
(ग) गाँव.
(घ) व्यापारी
(iv) अंग्रेजी शासन द्वारा भारत में अपनाई गई भूमि व्यवस्थाओं का प्रमुख उद्देश्य क्या था?
(क) अपनी आय बढ़ाना
(ख) भारतीय गाँवों पर अपने शासन को मजबूत करना
(ग) व्यापारिक लाभ प्राप्त करना
(घ) किसानों का समर्थन प्राप्त करना
उत्तर-(i) (क) स्थायी बंदोवस्त । (ii) (घ) राजा । (ii) (क) किसान । (iv) (क) अपनी आय  बढ़ाना
2. निम्नलिखित के जोड़े बनाएँ-
(क) महालवारी                                (क) 1793
(ख) नील दर्पण                                (ख) बिहार
(ग) नकदी फसल                            (ग) दीनबंधु मित्र                                                                                                                                     (घ) स्थायी भूमि-व्यवस्था                  (घ) पंजाब                                                       
उत्तर-
(क) महालवारी                           (घ) पंजाब
(ख) नील दर्पण                           (ग) दीनबंधु मित्र
(ग) नकदी फसल                        (ख) बिहार
(घ) स्थायी भूमि व्यवस्था              (क) 1793

आइए विचार करें-
(i) अंग्रेजी शासन के पहले भारतीय भूमि व्यवस्था एवं लगान प्रणाली के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर– अंग्रेजी शासन के पहले राज्य की समूची जमीन का मालिक उस राज्य का राजा होता था। उस समय जमींदारों का एक प्रभावशाली वर्ग भी गांवों में रहता था जिनके पास राजा द्वारा दी गई काफी जमीन होती थी। वे ही गाँवों से लगान (कृषि उपज पर राजा द्वारा किसानों से लिया जाने वाला कर) की वसूली करते थे। इसके एवज में या फिर राज्य के अन्य कामों को देखने के एवज में इन्हें जमीनें मिलती थीं। राजा या उसके अधिकारी गाँवों में ज्यादा दखल नहीं देते थे। बस, जमींदारों के मार्फत (द्वारा) निर्धारित लगान वसूल करते थे।
(ii) स्थायी बन्दोबस्त की विशेषताओं को बताएं।
उत्तर-1789 के आस-पास कंपनी सरकार ने, जमींदारों के साथ एक करार किया। इसके तहत जमींदारों के द्वारा कंपनी को दिया जाने वाला लगान 10 वर्षों के लिए तय कर दिया गया।
यह राशि जमींदारों द्वारा किसानों से वसूले गए लगान का 9/10 भाग तय कर दिया गया ।
आगे चलकर सन् 1793 में इसी राशि को हमेशा के लिए निश्चित मान लिया गया। इस राशि में भविष्य में कोई बढ़ोतरी नहीं होनी थी। इस व्यवस्था को ‘स्थायी बंदोबस्त’ नाम दिया गया।
इस व्यवस्था के तहत, एक आकलन के अनुसार यदि किसानों की उपज को 100 माना जाए तो अंग्रेजी सरकार को उसमें से लगभग 45 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त होता था। जमींदार और उसके कारिंदे अपने लिए करीब 15 प्रतिशत हिस्सा वसूलते थे और शेष 40 प्रतिशत किसानों के पास बचता था। इस राशि में कोई परिवर्तन नहीं होना था। पर, जमींदारों को लगान की तय राशि नियमित तिथि को सूरज डूबने के पहले सरकारी कार्यालय में जमा करना अनिवार्य था। ऐसा नहीं करने पर उनकी जमींदारी नीलाम कर दी जाती थी। सरकार को इस बात की कोई परवाह नहीं अकाल या बाढ़ के कारण फसल नष्ट हो गयी है या पैदावार कम हुई है।
जमींदारों को हर हाल में तय राशि नियत तिथि को जमा कराना ही था।
(iii) अंग्रेजी सरकार द्वारा बार-बार भूमि राजस्व व्यवस्था में किये जाने वाले परिवर्तनों को आप किस रूप में देखते हैं ? अपने शब्दों में बताएँ।
उत्तर—अंग्रेजी सरकार ने गाँवों से ज्यादा से ज्यादा धन अपने साम्राज्य विस्तार के लिए होने वाले खचों के लिए प्राप्त करना चाहा। इसके लिए उसने पहले स्थायी बंदोबस्त व्यवस्था की।
इसके तहत जमींदारों द्वारा लगान के रूप में जमा की जाने वाली राशि हमेशा के लिए तय कर दी गयी। फिर उन्हें लगा कि यह उचित नहीं था। चूंकि साल दर साल उनके खर्चे तो बढ़ते ही जाएँगे और लगान के रूप में आने वाली आय वही रहेगी । अतः उन्होंने फिर महलवारी व्यवस्था की जिसके तहत जमींदारों के बदले गाँव के बड़े किसान या परिवार को गाँव का लगान वसूलने का अधिकार दे दिया गया इसके तहत अंग्रेजों को 50 प्रतिशत लगान मिलना था और इसे मात्र 30 वर्षों के लिए लागू किया गया । जवकि रैयतवारी व्यवस्था के तहत कंपनी सरकार ने सीधा किसानों से संपर्क किया। किसानों को जमीन का मालिक बना दिया गया। उनसे सीधे 50 प्रतिशत लगान जमा करने को कहा गया। पर, इस व्यवस्था को स्थायी नहीं बनाया गया। प्रत्येक 30 वर्ष बाद राशि में बदलाव किया जाना तय किया गया। भूमि राजस्व व्यवस्था में अंग्रेजी सरकार ने बार-बार परिवर्तन अधिक से अधिक लाभ कमाने के दृष्टिकोण से किया था।
(iv) अंग्रेजों की भूमि राजस्व व्यवस्था आज की व्यवस्था से कैसे अलग थी, संक्षेप में बताएं।
उत्तर– आज, जहाँ सरकार किसानों से काफी कम राशि भूमि राजस्व के रूप में लेती हैऔर कई सरकारी कर्मचारी व अधिकारी इस काम के लिए लगे होते हैं वहीं अंग्रेजी सरकार भूमि राजस्व के रूप में तब, किसानों से उनके लाभ का लगभग आधा हिस्सा हड़प लेती थी। भूमि राजस्व की वसूली का काम जमींदार और उसके कारिंदे करते थे, कहीं यह काम कोई बड़ा किसान या परिवार करता था और कहीं कंपनी के लोग स्वयं यह काम करते थे। पर, उनका मकसद अधिक-से-अधिक शोषण करना होता था।
(V) नई राजस्व नीति का भारतीय समाज पर क्या असर हुआ?
उत्तर-नई राजस्व नीति के कारण आधे पुराने जमींदारों की जमींदारी उनके हाथ से चली गई क्योंकि उन्होंने तय समय पर लगान जमा नहीं किया था। दरअसल उनके लिए किसानों से लगान के लिए ज्यादा जोर-जबर्दस्ती करना संभव नहीं था। किसानों के साथ उनके पुराने संबंध थे। नई राजस्व व्यवस्था में जमीन का मालिक किसान या जमींदारों को बना दिया गया। इससे लगान समय पर जमा करने के लिए इसे बेचने या बंधक रखने का चलन शुरू हो गया। इससे गाँवों में महाजन के रूप में एक प्रभावी समूह आ गया । ये महाजन जमीन के एवज में धन दिया करते थे। किसान और जमींदार दोनों इनसे कर्ज लेते थे। अंग्रेज सरकार को केवल लगान से मतलब थी। इस नई राजस्व नीति का भारतीय समाज पर बुरा असर पड़ा। शोषण बड़ा, भारतीय किसानों की दरिद्रता बढ़ी और भारतीय समाज में असंतोष बढ़ता गया जिसके परिणामस्वरूप जगह-जगह पर उपद्रव की स्थिति उत्पन्न हो गयी।
(vi) नील की खेती की प्रमुख समस्याओं की चर्चा करें।
उत्तर भारतीय किसानों के दृष्टिकोण से नील की खेती उनके लिए फायदेमंद नहीं थी। मजबूरन, उन्हें अपनी जमीन के एक बेहतर हिस्से पर इसकी खेती करनी पड़ती थी। अंग्रेज अधिकारी इसके लिए उन्हें बाध्य करते थे। किसान तो हमेशा खाद्य फसल ही उपजाना चाहते थे। इससे उन्हें उस साल के लिए खाने का अनाज मिलता था और बुरे दिनों के लिए कुछ अनाज वे बचाकर भी रख लेते थे। नील की खेती धान के मौसम में ही की जाती थी इससे धान के फसल में देर हो जाती थी। साथ ही, जिस खेत में नील की खेती होती थी उसमें फसल कटने के बाद उस साल कोई और फसल नहीं उगायी जा सकती थी। इसका असर होता कि किसानों के पास अनाज की कमी हो जाती थी। जब सूखा या बाढ़ के कारण फसलों का उत्पादन कम होता था तो किसानों के पास पहले का रखा अनाज नहीं होता था। ऐसे में या तो महाजनों से कर्ज लेते थे या भूखे रहते थे।
आइए करके देखें-
(i) अंग्रेजी राज के समय उत्पादित फसलों में से कौन-कौन आज भी उत्पादित होती है, वर्ग में सहपाठियों से चर्चा करें।
उत्तर–चाय, आलू, धान, गेहूँ, दाल, अफीम आदि ।
(ii) खेती करने के तौर-तरीकों में पहले की अपेक्षा आज किस तरह का बदलाव आया है ? बुजुर्गों से पता करें।
उत्तर–पहले खेती हल-बैल की सहायता से होती थी जबकि आज ट्रैक्टर से खेत जोतते हैं और अधिक फसल उत्पादन के लिए विभिन्न खादों की मदद ली जाती है।

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