12-sociology

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   सामाजिक संस्थाएँ : निरंतरता एवं परिवर्तन 

(Social Institutions : Continuity and Change)

स्मरणीय तथ्य

*जाति (Caste) : जाति एक अनमनीय सामाजिक वर्ग है जिसमें मनुष्य का जन्म होता है और जिसे वे बड़ी कठिनाई से ही छोड़ सकते हैं।

*दलित वर्ग (Oppressed Class): औपनिवेशिक काल के अंतिम दौर में पद दलित जातियों को दलित वर्ग कहा जाता था।

*संस्कृतिकरण (Sanskritization) : संस्कृतिकरण एक ऐसी प्रक्रिया का नाम है जिसके द्वारा जाति के सदस्य किसी उच्च जाति की धार्मिक क्रियाओं, घरेलू या सामाजिक परिपाटियों को अपनाकर अपनी सामाजिक प्रस्थिति को ऊंचा करने का प्रयत्न करते हैं।

* प्रबल जाति (Dominant Caste) : प्रबल जाति शब्द का प्रयोग ऐसी जातियों का उल्लेख करने के लिए किया जाता है जिनकी जनसंख्या काफी बड़ी होती है।

*जनजातीय (Tribal) : यह एक आधुनिक शब्द है जो ऐसे समुदायों के लिए प्रयुक्त होता है जो बहुत पुराने हैं और उपमहाद्वीप के सबसे पुराने अधिवासी हैं।

*मूल परिवार (Main Family) : मूल परिवार में माता-पिता (एक दंपत्ति) और बच्चे ही शामिल होते हैं।

*संयुक्त परिवार (Joint Family) : इसे विस्तृत परिवार भी कहा जाता है। इसमें एक से अधि क युगल (दंपत्ति) होते हैं। एन.सी.ई.आर.टी. पाठ्यपुस्तक एवं अन्य परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर |

 

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

      (Objective Questions) 

  1. भारतीय जाति व्यवस्था एक

[M.Q.2009A]

(क) खुली व्यवस्थाएँ

(ख) जाति व्यवस्थाएँ

(ग) बंद व्यवस्थाएँ

(घ) उपर्युक्त कोई नहीं

उत्तर-(ख)

  1. भारतीय सामाजिक व्यवस्था का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पहलू- [M.Q. 2009 A]

(क) संयुक्त परिवार व्यवस्था है ।

(ख) जाति व्यवस्था है

(ग) धर्म है

(घ) उपर्युक्त कोई भी नहीं है

उत्तर-(ग)

  1. भारतीय नातेदारी व्यवस्था

[M.Q.2009A]

(क) पितृ-प्रधान है

(ख) उभयगामी है

(ग) मातृ-प्रधान है

(घ) उपर्युक्त कोई भी नहीं

उत्तर-(क)

  1. निम्न में कौन-सा भारतीय सम्प्रदाय मातृप्रधान है ?

[M.Q.2009A]

(क) संथाल

(ख) मुंडा

(ग) ले

(घ) सारो

उत्तर-(घ)

  1. भारत के किस सम्प्रदाय में मामा की भूमिका संतानों के जीवन में पिता से अधिक है

[M.Q.2009A]

(क) खासी

(ख) उराँव

(ग) नायर

(घ) गोंड

उत्तर-(ख)

  1. ‘जाति की उत्पति-संबंधी प्रजातीय सिद्धान्त के प्रतिपादक हैं- [M.Q. 2009 A]

(क) नेसफिल्ड

(ख) हटन

(ग) रिजले

(घ) ब्लन्ट

उत्तर-(घ)

  1. भारतीय समाज

[M.Q.2009A]

(क) मातृसत्तात्मक है

(ख) न तो पितृसत्तात्मक और मातृसत्तात्मक है।

(ग) पितृसत्तात्मक है

(घ) उपर्युक्त कोई भी सही नहीं है

उत्तर-(ख)

  1. जाति की उत्पत्ति-संबंधी नेसफिल्ड के द्वारा दी गई सिद्धांत को किस नाम से जाना जाता है ?

[M.Q.2009A]

(क) प्रजातीय सिद्धांत

(ख) धार्मिक सिद्धांत

(ग) प्रकार्यात्मक सिद्धांत

(घ) उपर्युक्त कोई भी नट

उत्तर-(ख)

9″परिवार एक समूह है जो स्त्री-पुरुष के यौन संबंध पर आधारित होता है और यह समूह इतना सुनिश्चित और टिकाऊ होता है कि इसके माध्यम प्रजनन क्रिया और बच्चों के पालन-पोषण की समुचित व्यवस्था होती है।” परिवार की उपर्युक्त परिभाषा निम्नलिखित में किस विद्वान ने दी है ?

[M.Q.2009A]

(क) मैकाइवर

(ख) मैकाइवर 7 पेज

(ग) ऑगबर्न एवं निमकॉफ

(घ) इनमें कोई नहीं

उत्तर-(ख)

  1. निम्नलिखित में कौन परिवार की विशेषता नहीं है ? [M.Q.2009A]

(क) सीमित आकार

(ख) योन – छाओं की पूर्ति

(ग) सामान्य निवास

(घ) औपनारिक नियम कानून

उत्तर-(घ)

  1. निम्नलिखित में कौन जाति है ?

[M.Q.2009A]

(क) राजपूत

(ख) वेश्य (ग) शूद्र

(घ) उपर्युक्त सभी

उत्तर-(क)

  1. “जाति एक बंद वर्ग है” किसने कहा ?

[M.Q.2009A] •

(क) मदन एवं मजूमदार

(ख) सी० एच० कूले

(ग) मैकाइवर एवं पेज

(घ) जॉनसन

उत्तर-(क)

  1. भारतीय जाति-व्यवस्था निम्नलिखित में किस प्रकार के स्तरण का उदाहरण

[M.Q.2009A]

(क) बंद स्तरण

(ख) खुला स्तरण

(ग) जागीर

(घ) इनमें कोई नहीं

उत्तर-(क)

  1. ‘सोसाइटी’ नामक पुस्तक का लेखक कौन है ?

[M.Q.2009A]

(क) मैकाइवर व पेज

(ख) पी० जिल्वर्ट

(ग) एच० एम० जॉनसन

(घ) इनमें कोई नहीं

उत्तर-(क)

  1. इनमें कौन जाति की विशेषता है ?

[M.Q.2009A]

(क) खण्डात्मक विभाग

(ख) अन्तः विवाही

(ग) छुआछूत

(घ) ये सभी

उत्तर-(घ)

  1. इनमें कौन संयुक्त परिवार की परिभाषा ‘पीढ़ी के आधार पर दिया है ?

[M.Q.2009A]

(क) ए० आर० देसाई

(ख) आई० पी० देसाई

(ग) ईरावती आर्वे

(घ) इनमें कोई नहीं

उत्तर-(ख)

  1. ‘झील’ नामक जनजाति किस राज्य में निवास करती है? M.Q.2009A]

(क) राजस्थान

(ख) बिहार

(ग) पं० बंगाल

(घ) मेघालय

उत्तर-(क)

18, ‘नायर’ नामक जाति किस राज्य में पायी जाती है?

[M.Q. 2009 A]

(क) तमिलनाडु

(ख) कर्नाटक

(ग) केरल

(घ) आंध्र प्रदेश

उत्तर-(ग)

  1. जनजातीय समाजों में धर्म का प्रमुख स्वरूप क्या है ? [M.Q.2009A]

(क) बन्दवाद

(ख) टोटमवाद

(ग) ओलागिरी

(घ) इनमें कोई नहीं

उत्तर-(ख)

  1. जनजातीय समाज की क्या विशेषता है ?[M.Q.2009 A]

(क) एक क्षेत्र में बसना

(ख) समान भाषा

(ग) अविकसित अर्थव्यवस्था

(घ) ये सभी

उत्तर-(घ) 21. परीक्षा विवाह (Marriage by trail) किस जनजाति में पायी जाती है ?

[M.Q.2009A] (क) मुंडा जनजाति

(ख) संथाल

(ग) नागा

(घ) झील

उत्तर-(घ) –

  1. धुर्वे ने जाति-व्यवस्था की अवधारणा छः विशेषताओं के आधार पर की है

[M.Q. 2009A] (क) सही है

(ख) गलत है (ग) नहीं कह सकते

(घ) इनमें कोई नहीं

उत्तर-(क)

  1. हिन्दुओं में विवाह के कितने प्रकारों का प्रचलन है ? [M.Q.2009A]

(क) एक

(ख) दो

(ग) चार

(घ) आठ

उत्तर-(घ)

  1. संस्कृतिकरण की अवधारणा का विकास किसने किया? [M.Q.2009A]

(क) योगेन्द्र सिंह ने किया

(ख) एन० के० बोस ने किया

(ग) के० एल० शर्मा ने किया

(घ) एम०एन० श्रीनिवास ने किया

उत्तर-(घ)

  1. Caste in Modern India and other Essays के लेखक कौन है ?

[M.Q.2009A]

(क) नर्मदेश्वर प्रसाद

(ख) आर्द्र बेतई

(ग) एम.एन. श्रीनिवास

(घ) के. एल. शर्मा

उत्तर-(ग)

  1. पत्नी के भाई की पत्नी नातेदारी की किस श्रेणी में आती है? [M.Q.2009 A]

(क) प्राथमिक नातेदारी

(ख) द्वितीयक नातेदारी

(ग) तृतीयक नातेदारी

(घ) इनमें कोई नहीं

उत्तर-(ग)

  1. निम्न में किसे आप जाति-व्यवस्था की महत्त्वपूर्ण विशेषता मानंगे ?

[M.Q.2009A

(क) मुक्त प्रतियोगिता

(ख) आनुवंशिकता

(ग) सामाजिक गतिशीलता

(घ) इनमें कोई नहीं

उत्तर-(ख)

  1. जनजातीय उत्थान के लिए पंचशील का सिद्धान्त किसने प्रस्तुत किया था ?

[M.Q. 2009A] .

(क) बेरियर एल्विन

(ख) जवाहरलाल नेहरू

(ग) एन. बी. बोस

(घ) जयपाल सिंह

उत्तर-(ख)

  1. भारत में शिशु-मृत्यु के सामाजिक सांस्कृतिक कारक क्या है ? [M.Q.2009 A]

(क) परिवार नियोजन के प्रति उदासीनता

(ख) बाल-विवाह

(ग) अप्रशिक्षित दाइयाँ

(घ) उपर्युक्त सभी

उत्तर-(घ)

  1. वह कौन-सा परिवार है, जो सबसे छोटा है और इसकी सदस्यता केवल पति-पत्नी तथा उनके अविवाहिक बच्चे ही लेते हैं ?

_ [M.Q.2009 A]

(क) संयुक्त परिवार

(ख) मातृसत्तात्मक परिवार

(ग) पितृसत्तात्मक परिवार

(घ) एकाकी परिवार

उत्तर-(घ)

  1. नातेदारों से निकटता और दूरी को स्पष्ट करने के लिए जो श्रेणियां बनती है उन्हें कितने भागों में विभाजित किया जाता है ?

. . [M.Q.2009A]

(क) दो भागों में –

(ख) तीन भागों में

(ग) चार भागों में

(घ) इनमें कोई नहीं

उत्तर-(ख)

  1. जाति एक बन्द वर्ग है’ यह किसका कथन है ?

(क) मजूमदार और मदान

(ख) सी० एच० कूले

(ग) एस० वी० केतकर

(घ) एच० एच० रिजले _

उत्तर-(क)

  1. “एक जनजाति वह क्षेत्रीय मानव समूह है जो भू-भाग, भाषा, सामाजिक नियम और

आर्थिक कार्य आदि विषयों में एक सामान्यता के सूत्र में बंधा होता है।” यह कथन है

(क) गिलिन और गिलिन

(ख) आर० एन० मुखर्जी

(ग) डॉ० मजूमदार

(घ) इम्पीरियल गजेटियर

उत्तर-(ख)

  1. “किसी भी संस्था के विविध कार्य होते हैं। संभवतः सभी संस्थाओं में परिवार अत्यन्त

विविध कार्योंवाली संस्था है।” यह कथन किसका. है

(क) ऑगबर्न तथा निमकॉफ

(ख) इलियट तथा मैरिल

(ग) गिलिन और गिलिन

(घ) मैकाइवर तथा पेज

उत्तर-(ख).

  1. किस प्रान्त में आदिवासियों की संख्या 50 लाख से अधिक है ? (क) बिहार

(ख) मध्य प्रदेश (ग) उड़ीसा

(घ) झारखंड

उत्तर-(ग)

  1. 2001 ई० की जनगणना के अनुसार जनजातियों की कुल जनसंख्या भारत में समस्त

जनसंख्या के लगभग कितना करोड़ है ?

(क) 8.4

(ख) 6.5

(ग) 9.4

(घ) 5.4

उत्तर-(क)

(ख) रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए :

(1) भारत में लगभग ………….. जनजातियाँ पाई जाती है।

(2) जनजाति के लोग …………… बोली बोलते हैं।

(3) मातृवंशीय परिवार में वंशावली …………… के माध्यम से चलती है।

(4) परिवार की वंशावली ……………. के माध्यम से चलती है।

(5) माता-पिता के साथ संतान में और सहोदर में ……………. संबंध होता है।’

उत्तर-(1) 427, (2) सामान्य, (3) माता, (4) पिता, (5) रक्त।

(ग) निम्नलिखित कथनों में सत्य एवं असत्य बताइये :

(1) जाति जन्म पर आधारित है।

(2) बहुपति परिवार में एक स्त्री के एक समय में एक पति होते हैं।

(3) संयुक्त परिवार बाल विवाह को प्रोत्साहन देता है।

(4) परम्परागत सिद्धान्त वेदों, महाकाव्यों तथा पुराणों पर आधारित है।

(5) गोद लिया बच्चा परिवार वालों का नातेदार बन जाता है।

उत्तर-(1) सत्य, (2) असत्य, (3) सत्य, (4) सत्य, (5) सत्य।

अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

(Very Short Answer Type Questions)

प्रश्न 1. भारत में कितनी जनजातियां पाई जाती हैं ?

उत्तर-लगभग 427 जनजातियाँ।

प्रश्न 2. भारत में कौन-सी जनजातियों की जनसंख्या सबसे अधिक है ? .

उत्तर-भारत में मुंडा, संथाल, गोंड तथा भील जनजातियों की जनसंख्या सबसे अधिक है।

प्रश्न 3. 1991 की जनगणना के अनुसार जनजातियों के लोगों की जनसंख्या कितनी है?

उत्तर-6,77,58,380

प्रश्न 4. जनजातीय संस्कृति में कैसे अंश विद्यमान हैं ?

उत्तर-कृषक संस्कृति के तत्व विद्यमान हैं।

प्रश्न 5. सबसे अधिक जनजातियां कौन-से राज्य में हैं ?

उत्तर-मध्य प्रदेश में।

प्रश्न 6. जनजाति के लिए कौन-सी बोली बोलते हैं ?

उत्तर-सामान्य बोली।

प्रश्न 7. झूम खेती का रिवाज किन समूहों में पाया जाता है ?

उत्तर-जनजातियों के समूहों में पाया जाता है।

प्रश्न 8. उत्तर-पूर्वी वर्ग के आदिवासियों में सबसे प्रसिद्ध जनजाति कौन-सी है।

उत्तर-नागा जनजाति।

प्रश्न 9. परिवार की संरचना के मुख्य तत्व क्या हैं ?

उत्तर-परिवार की संरचना के मुख्य तत्व

निम्नलिखित हैं : 10. वैवाहिक संबंध (Affinal Relationship)

(i) एक सामाजिक संस्था के रूप में परिवार की उत्पत्ति विपरीत लिंगियों (Opposite Sex) के वैवाहिक संबंधों से प्रारम्भ होती है। (ii) यह जरूरी नहीं है कि प्रत्येक परिवार एक जैविकीय समूह (Biological group) हो। कभी-कभी बच्चों को गोद भी लिया जाता है।

  1. रक्त संबंध (Consanguineous Relationship)

परिवार के सदस्य संतानोपत्ति की प्रक्रिया से परस्पर जुड़े हुए होते हैं। जिस परिवार में व्यक्ति स्वयं जन्म लेता है उसे जन्म का परिवार (Family of Orientation) कहा जाता है। दूसरी तरफ, जिस परिवार में उसके स्वयं के बच्चे होते हैं उसे प्रजनन का परिवार (Family ofProceration) कहा जाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

  (Short Answer Type Questions) 

प्रश्न 1. जाति का अर्थ लिखिए।

B.M.2009A]

उत्तर-जाति शब्द अंग्रेजी के ‘Caste’ शब्द का हिन्दी रूपान्तर है। ‘Caste’ (कास्ट) शब्द पुर्तगीज में ‘Casta’ (कास्टा) से बना है जिसका अभिप्राय प्रजाति, नस्ल या भेद है। फ्रांसीसी

विचारक अबे डुबॉयस (Abbe Dobois) का कहना है, “कास्ट (जाति) शब्द पुर्तगीज से लिया गया है और इसे यूरोप में उन विभिन्न कबीलों अथवा वर्गों को संबोधित करने के लिए प्रयोग किया जाता है जिससे भारत की जनता विभाजित है।” इसके अतिरिक्त Tata Institute of Sciences के निदेशक प्रो. ए. आर. वाडिया का भी यही मत है कि ‘Caste’ शब्द पुर्तगीज भाषा के ‘Casta’ से बना है जिसका अर्थ प्रजाति या नस्ल है और यह शब्द लैटिन भाषा के ‘Casta’ (कास्टा) शब्द के अत्यन्त निकट है जिसका अर्थ विशुद्ध है।”

इस प्रकार शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से जाति ऐसे वर्ग समूह का बोध कराती है जिसका आधार प्रजाति, नस्ल या जन्म है।

प्रश्न 2, जाति की परिभाषा लिखिए।

उत्तर-1. मजूमदार और मदान (Majumdar and Madan) के अनुसार, “जाति एक बन्द वर्ग है।”

  1. सी. एच. कूले (C. H.Colley) के अनुसार, “जब एक वर्ग लगभग पूर्णतया वंशानुक्रम पर आधारित होता है, तब हम उसे जाति कहते हैं।”
  2. एस. वी. केतकर (S. V. Ketkar) के अनुसार, “जाति एक ऐसा समुदाय है जिसकी दो विशेषताएँ हैं-(अ) इसके सदस्य वही होते हैं जो इसमें जन्म लेते हैं, (ब) इसके सदस्य इनके अपने सामाजिक नियमों के आधार पर अपने समुदाय के बाहर विवाह नहीं कर सकते हैं।”
  3. एच. एच. रिजले (H. H: Risley) के अनुसार, “जाति परिवार या परिवारों के समूह का संकलन है, जिसका एक सामान्य नाम है, जो अपने को एक काल्पनिक पुरुष अथवा देवता से उत्पन्न होने का दावा करती है। एक ही वंशानुगत व्यवसाय को करने का दावा करती है और उन लोगों की दृष्टि में सजातीय समुदाय बनाती है जो इस संदर्भ में अपना विचार देने योग्य हैं।”

प्रश्न 3. जाति व्यवस्था की सामान्य विशेषताएं लिखिए।

उत्तर-जाति व्यवस्था की सामान्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :

  1. जातियों में खंडात्मक विभाजन।
  2. जाति जन्म पर आधारित है।
  3. जाति अन्तर्विवाही समूह है।
  4. प्रत्येक जाति के दूसरे जाति के साथ खान-पान के संबंध निश्चित होते हैं।
  5. जाति व्यवस्था ब्राह्मणों के सम्मान पर केन्द्रित है।
  6. ऊँच-नीच का क्रम पाया जाता है।
  7. जातीय नियमों का उल्लंघन करने पर प्रत्येक जाति अपने सदस्यों को प्रताड़ित करती है।
  8. व्यवसाय निश्चित होते हैं। 9. यह एक बन्द वर्ग है।

प्रश्न 4. जाति व्यवस्था के चार लाभ बताइए।

उत्तर-1. जाति व्यवस्था में सदस्यों को अपने भविष्य की चिंता नहीं करनी पड़ती। सब कुछ पहले से ही निश्चित रहता है।

  1. जातीय नियमों का उल्लंघन करने पर सदस्यों को प्रताड़ित किया जाता है और उनकी निंदा की जाती है।
  2. प्रत्येक जाति अपने देवी-देवता, पूजा-पाठ और धार्मिक भावनाओं को आदर करती है।
  3. प्रत्येक जाति अपने नियमों के अनुसार खान-पान, रहन-सहन, आचार-व्यवहार आदि को ही नियमित नहीं करती वरन् समाज की धारणाओं, रीतियों, प्रणालियों, आस्थाओं व विश्वासों आदि को भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित करती है।

प्रश्न 5. जाति व्यवस्था श्रम-विभाजन में किस प्रकार सहायक है ?

उत्तर-जाति-व्यवस्था ने समाज के सभी कार्यों को व्यक्तियों में इस प्रकार बाँट दिया है कि लगभग सभी व्यक्ति संतुष्ट दिखाई पड़ते हैं और अपने-अपने जातीय नियमों के अनुसार कार्य करते हैं। यह सरल श्रम-विभाजन का उत्तम रूप प्रस्तुत करती है।

प्रश्न 6. जाति व्यवस्था के दोष बताइए।

उत्तर-डॉ. राधाकृष्णन् का मत है कि वह जाति व्यवस्था जिसे सामाजिक संगठन को नष्ट होने से बचाने के साधन के रूप में विकसित किया गया था, अब उसी की उन्नति में बाधक

रही है।

  1. जाति व्यवस्था आर्थिक प्रगति में बाधक है।
  2. जाति व्यवस्था कृषि की प्रगति में बाधक है।
  3. यह श्रमिकों की कार्य कुशलता में बाधक है।
  4. जाति व्यवस्था की ऊँच-नीच की भावना ने हिन्दू समाज को जटिल समस्याएँ प्रदान की हैं।

प्रश्न 7. जाति व्यवस्था में वर्तमान में क्या परिवर्तन आ रहे हैं ?

उत्तर-पाश्चात्य शिक्षा, औद्योगीकरण, नगरीकरण, धार्मिक व राजनीतिक आंदोलन, यातायात और संचार के साधन, समाजवादी विचारधारा आदि कारकों ने जाति व्यवस्था के परंपरागत स्वरूप में तीव्र परिवर्तन किए हैं। जातीय प्रतिबंध धीरे-धीरे कमजोर पड़ते जा रहे हैं। खान-पान संबंधी प्रतिबंध कमजोर हो रहे हैं। व्यावसायिक प्रतिबंधों का पालन कमजोर हो रहा है। उच्च जातियों का प्रभुत्व घट रहा है। भारतीय संविधान ने धर्म, जाति, लिंग, रंग आदि पर आधारित भेदभाव समाप्त कर दिया है। विवाह संबंधी प्रतिबंध भी ढीले पड़ते जा रहे हैं।

प्रश्न 8. आधुनिक भारत में जाति की भूमिका बताइए। [B.M. 2009 A]

उत्तर-प्राचीन भारत में जाति व्यवस्था व्यक्ति की सामाजिक स्थिति को निर्धारित करने की एक महत्वपूर्ण संस्था मानी जाती थी। ब्राह्मणों को उसमें सर्वोच्च स्थान प्राप्त था, परंतु आज जन्म के स्थान पर व्यक्तिगत गुणों और क्षमताओं का महत्व बढ़ रहा है। विवाह के मामले में आज अंतर्जातीय विवाह का प्रचलन बढ़ रहा है, लेकिन फिर भी व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान करने, बीमारी, दुर्घटना इत्यादि अवसर पर चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध कराना, स्कूल-कॉलेज तथा प्रशिक्षण केन्द्र खोलना, छात्रवृत्ति, पुस्तकें आदि प्रदान करने में जाति व्यवस्था का महत्व दिखाई पड़ता है। सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना, आपसी झगड़ों का निपटारा करना, सदस्यों के व्यवहार पर नियंत्रण रखना जैसे कार्यों को जाति के सदस्य मिलकर पूरा करते हैं।

प्रश्न 9. जनजाति की परिभाषा दीजिए।

उत्तर-गिलिन और गिलिन (Gillin and Gillin) के अनुसार स्थानीय आदिम समूहों के किसी संग्रह को, जो एक सामान्य भू-भाग में निवास करता हो, एक सामान्य भाषा बोलता हो और एक सामान्य संस्कृति को व्यक्त करता हो, एक जनजाति कहते हैं।

प्रश्न 10, जनजाति की विशेषताएँ लिखिए। उत्तर-जनजाति की विशेषताएँ निम्न हैं :

  1. निश्चित सामान्य भू-भाग।
  2. एकता की भावना।
  3. सामान्य बोली।
  4. अन्तर्विवाही समूह।
  5. रक्त संबंधों का बंधन।
  6. रक्षा की आवश्यकता का अनुभव।
  7. धर्म का महत्व।
  8. सामान्य धर्म व संस्कृति।
  9. गोत्रों का संगठन।

प्रश्न 11. जाति और जनजाति में अंतर लिखिए।

उत्तर-(i) रिजले के अनुसार जनजाति में अन्तर्विवाह का नियम कठोर नहीं होता परन्तु जाति

में इस नियम का कठोरता से पालन किया जाता है।

(ii) जाति प्रथा हिन्दू समाज में विभिन्न कार्यों और पेशों के आधार पर श्रम विभाजन हेतु शुरू हुई थी। जनजाति एक समूह के निश्चित भू-भाग में रहने के कारण तथा सामुदायिक भावना के विकास से बनी।

प्रश्न 12. ‘टोटम’ क्या है ?

उत्तर-जातियों में गोत्रों के नाम किसी ऋषि या काल्पनिक महापुरुष के नाम पर होते हैं; जैसे वशिष्ट, विश्वामित्र, भारद्वाज, कश्यप आदि। इसके विपरीत जनजाति में गोत्र टोटमों के आधार पर होते हैं’; जैसे कि मैसूर की कीमती जनजाति में आँवला, नींबू, कहू, चना, लाल कमल, नील कमल, करेला, चिचिड़ा उड़द, केला, सन, अनार, गेहूँ, दाल, खजूर, गूलर, ईख, मूली, जायफल, सरसों, चन्दन, इमली, सिन्दूर, कपूर आदि गोत्र हैं। _ ‘Caste and Tribes of Southern India’ में थर्सटन ने जनजातियों के टोटमों की जो सूची दी है उससे यह प्रतीत होता है कि प्राणी अथवा वनस्पति जगत का शायद ही कोई नाम ऐसा बचा हो जिसके आधार पर टोटम का नाम न हो।

प्रश्न 13. जनजातियों का वर्गीकरण लिखिए।

उत्तर-डी. एन. मजूमदार ने आदिवासियों को तीन बड़े वर्गों में विभाजित किया है

  1. उत्तरी-पूर्वी वर्ग के आदिवासी-जिसमें असम के नागा और कूकी तथा उनकी अनेक शाखाएँ उल्लेखनीय हैं। .

2, केन्द्रीय वर्ग के आदिवासी-जो विन्ध्याचल, सतपुड़ा, महादेव, मेकाल तथा अरावली पर्वतमाला में मिलते हैं। इनमें उल्लेखनीय हैं-मध्य प्रदेश व छत्तीगढ़ के गोंड, राजस्थान के भील, छोटानागपुर के संथाल, उराँव और मुंडा, सिंहभूम और मानभूमि के ‘हो’, उड़ीसा के खोंध और खारिया तथा गंजमम जिले के सावरा, गदब और बोंदा इत्यादि।

  1. दक्षिण के आदिवासी-इनमें हैदराबाद के चेंचू, नीलगिरि के टोडा, वायनाड के पनियन, इरुला और कुरुम्ब तथा ट्रावनकोर-कोचीन के पहाड़ियों के कडार, कणीकर और कुरोवन इत्यादि शामिल हैं।

प्रश्न 14. जनजाति के कल्याण हेतु सरकार ने कौन-से कदम उठाये हैं ?

उत्तर-लोकसभा और राज्यों के विधानसभाओं एवं पचायतों में तथा सरकारी नौकरियों में इनके लिए स्थान सुरक्षित रखे गए हैं। शिक्षा के क्षेत्र में इन्हें शुल्क मुक्ति प्रदान की गई है, छात्रावासों की व्यवस्था की गई है तथा प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए, इनके लिए विशेष प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित किए गए हैं। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में इनके लिए विशेष व्यवस्था किए गए हैं।

प्रश्न 15, जनजातियाँ आदिम समुदाय हैं जो सभ्यता से अछूते रहकर अपना अलग-थलग जीवन व्यतीत करते हैं। इस दृष्टिकोण के विपक्ष में आप क्या साक्ष्य प्रस्तुत करना चाहेंगे?

(NCERT T.B. Q. 6) __

उत्तर-कुछ समाजशास्त्रियों का मानना है कि जनजातियों को ऐसे ‘आदिम’ (prestine) अर्थात् मौलिक अथवा विशुद्ध-समाज, जो सभ्यता से अछूते रहे हों, मानने का कोई सुसंगत आधार नहीं है। इसके स्थान पर उनका यह प्रस्ताव है क जनजातियों को वास्तव में ऐसी ‘द्वितीयक’ प्रघटना माना जाए जो पहले से विद्यमान राज्यों और जनजातियों जैसे राज्येत्तर समूहों के बीच शोषणात्मक और उपनिवेशवादी संपर्क के परिणामस्वरूप अस्तित्व में आया। ऐसा संपर्क स्वयं ही एक ‘जनजातिवादी’ विचारधारा को जन्म देता है-जनजातीय समूह नए संपर्क में आए अन्य लोगों से अपने-आपको अलग दर्शाने के लिए स्वयं को जनजातीय के रूप में परिभाषित करने लगते हैं।

प्रश्न 16. आज जनजातीय पहचानों के लिए जो दावा किया जा रहा है उसके पीछे क्या कारण हैं ?

. (NCERT T.B. Q.6)

उत्तर-जनजातीय पहचान को सुरक्षित रखने का आग्रह दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। इसका

कारण यह हो सकता है कि जनजातीय समाज के भीतर भी एक मध्य वर्ग का प्रादुर्भाव हो चला है। विशेष रूप से इस वर्ग के प्रादुर्भाव के साथ ही, संस्कृति, परंपरा, आजीविका यहाँ तक कि भूमि तथा संसाधनों पर नियंत्रण और आधुनिकता की परियोजनाओं के लाभों में हिस्से की माँगें भी जनजातियों में अपनी पहचान को सुरक्षित रखने के आग्रह का अभिन्न अंग बन गई हैं। इसलिए अब जनजातियों में उनके मध्य वर्गों में एक नई जागरुकता की लहर आ रही है। यह मध्य वर्ग स्वयं भी आधुनिक शिक्षा और आधुनिक व्यवसायों का परिणाम है, जिन्हें सरकार की आरक्षण नीतियों से बल मिला है।

प्रश्न 17. परिवार की परिभाषा दीजिए।

उत्तर-1. परिवार की रचना ऐसे व्यक्तियों से होती है जिनमें नातेदारों के संबंध पाये जाते हैं। वलेयर (Clare) के अनुसार, “परिवार से हम संबंधों की वह व्यवस्था समझते हैं जो माता-पिता और उनकी संतानों के बीच पायी जाती है।”

  1. मैकाइवर तथा पेज (Maclver and Page) के अनुसार, “परिवार वह समूह है जो यौन संबंधों पर आधारित है और जो इतना छोटा तथा स्थायी है कि उसमें बच्चों की उत्पत्ति तथा पालन-पोषण हो सके।”

प्रश्न 18. भारतीय परिवार के विशेष संदर्भ में परिवार की परिभाषा दीजिए।

उत्तर-भारतीय परिवार अपेक्षाकृत अधिक जटिल सामाजिक संरचना है जिनमें आमतौर पर दो या तीन पीढ़ियाँ निवास करती हैं। इन्हें संयुक्त परिवार भी कहते हैं।

डॉ. इरावती कर्वे (Dr. Iravati Karve) के अनुसार, “एक संयुक्त परिवार उन व्यक्तियों का समूह है जो सामान्यत: एक भवन में रहते हैं, जो एक रसोई में पका भोजन करते हैं, जो सामान्य सम्पत्ति के स्वामी होते हैं तथा जो सामान्य पूजा में भाग लेते हैं तथा जो किसी न किसी प्रकार एक-दूसरे के रक्त संबंधी हैं।”

प्रश्न 19. परिवार की दो प्रमुख विशेषताएं बताइये। [B.M.2009 A]

उत्तर-1. परिवार व्यक्तियों की केवल सामूहिकता (Collectivity) नहीं है। परिवार के व्यक्ति एक-दूसरे से परस्पर जैविकीय, आर्थिक तथा सामाजिक रूप से जुड़े हुए होते हैं।

  1. परिवार एक सार्वभौम सामाजिक प्रघटना (Universal social phenomenon) है। यह समाज की मूल इकाई है तथा इसमें सदस्यों के बीच भावनात्मक संबंध पाया जाता है।

प्रश्न 20. परिवार के दो प्रमुख सामाजिक कार्य बताइये।

उत्तर-समाज की केन्द्रीय इकाई के रूप में परिवार के दो प्रमुख सामाजिक कार्य निम्नलिखित हैं :

  1. सामाजीकरण (Socialisation)-जन्म लेते ही बच्चा परिवार का स्वाभाविक सदस्य (Natural member) बन जाता है। परिवार में ही वह अन्तःक्रिया (Interaction) के माध्यम से सामाजिकता का पाठ सीखता है। समाज के स्थापित आदर्शों, प्रतिमानों तथा स्वीकृत व्यवहारों को बच्चा परिवार में ही सीखता है। इस प्रकार परिवार समाजीकरण की प्रथम पाठशाला है। बर्गेस तथा लॉक (Burges and Locke) के अनुसार, “परिवार बालक पर सांस्कृतिक प्रभाव डालने वाली मौलिक समिति है तथा पारिवारिक परम्परा बालक को उसके प्रति प्रारम्भिक व्यवहार प्रतिमान व आचरण का स्तर प्रदान करती है।
  2. सामाजिक नियंत्रण : परिवार एक प्राथमिक समूह (Primary group) है। परिवार सामाजिक नियंत्रण के स्वैच्छिक प्रतिमान विकसित करता है। व्यक्ति इन प्रतिमानों का स्वाभाविक रूप से अनुपालन करते हैं। इस प्रकार परिवार सामाजिक नियंत्रण की स्थायी संस्था है जो अनौपचारिक साधनों के द्वारा सामाजिक नियंत्रण की प्रक्रिया को जारी रखती है।

प्रश्न 21. परिवार के प्रमख आर्थिक कार्य बताइये।

उत्तर-(1) सामाजिक संरचना की एक महत्वपूर्ण तथा मूलभूत प्राथमिक इकाई के रूप में परिवार अनेक आर्थिक कार्य भी करता है। परिवार अपने सदस्यों के लिए रोटी, कपड़ा तथा मकान

जैसी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।

(2) प्राचीन काल से आज तक परिवार आर्थिक क्रियाओं का केन्द्र रहा है। परिवार के सदस्य अपनी विभिन्न आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति परिवार में ही करते हैं।

प्रश्न 22, आधुनिक समय में परिवार के कौन से दो प्रकार प्रमुख हैं ?

अथवा,

परिवार के प्रमुख रूप क्या हो सकते हैं ?

(NCERT T.B.Q.8)

उत्तर-आधुनिक समय में परिवार के दो प्रमुख प्रकार या रूप निम्नलिखित हैं :

  1. एकाकी परिवार (Nuclear Family): एकाकी परिवार में पति, पत्नी तथा उनके अविवाहित बच्चे एक साथ रहते हैं। परिवार में निम्नलिखित नातेदारी संबंध पाये जाते हैं :

पति-पत्नी, पिता-पुत्र, माता-पिता, पिता-पुत्री, माता-पुत्री, भाई-भाई, भाई-बहन तथा बहन-बहन।

पूरित एकाकी परिवार (Supplemental Nuclear Family) में पति की विधवा माता या विधुर पिता या उसके छोटे अविवाहित भाई तथा बहनें होती हैं।

  1. संयुक्त परिवार (Joint Family): संयुक्त परिवार का तात्पर्य उस परिवार से होता है जिसमें कई पीढ़ियों के सदस्य एक साथ रहते हैं तथा वे एक-दूसरे के प्रति पारस्परिक कर्तव्यपरायणता के बंधन (Bond of mutual obligation) में बंधे रहते हैं।

श्रीमती कर्वे (Smt. Karve) के अनुसार, “एक संयुक्त परिवार उन व्यक्तियों का समूह है जो आम तौर पर एक छत के नीचे रहते हैं, जो एक रसोई में पका भोजन करते हैं, जो सामान्य सम्पत्ति के स्वामी होते हैं तथा जो सामान्य पूजा में भाग लेते हैं तथा जो किसी न किसी प्रकार एक-दूसरे के रक्त संबंधी हैं।”

प्रश्न 23. भारत में संयुक्त परिवार की प्रणाली को बनाए रखने वाले मूल कारकों का उल्लेख कीजिए।

उत्तर–भारत में संयुक्त परिवार प्रणाली को बनाए रखने के लिए निम्नलिखित मूल कारक उत्तरदायी हैं :

(1) अर्थव्यवस्था का कृषि पर आधारित होना (Argarian Economy): भारत की कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था संयुक्त परिवार प्रणाली को प्रमुख रूप से बनाए रखने में उत्तरदायी है। आज भी देश की लगभग 70 प्रतिशत जनता प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से कृषि से जुड़ी हुई है।

(2) पितृपूजा की परम्परा (Tradition of Ancestor worship): हिन्दू समुदाय में प्राचीन काल से ही पितृपूजा अथवा पूर्वजों की पूजा की परम्परा प्रचलित रही है। परिवार के सदस्य संयुक्त रूप से अपने पितरों (Ancestors) की पूजा करते हैं।

(3) धर्म (Religion) : प्राचीन काल से ही धर्म भारतीय सामाजिक संगठन का मूल आधार रहा है। सामान्य देवी-देवताओं की अराधना तथा अनेक धार्मिक कार्यों को संयुक्त रूप से करने की परम्परा ने संयुक्त परिवार प्रणाली को सशक्त आधार प्रदान किया है।

राधा विनोद पाल (Radha Vinod Pal) के शब्दों में, धार्मिक विधियों का प्रारम्भिक रूप मृत व्यक्तियों की पूजा थी। वांशजों का यह कर्तव्य था कि वे उस पूजा को जारी रखें। इसलिये इससे पूर्णरूपेण न सही आंशिक रूप से परिवार के संरक्षण को सर्वत्र अत्यधिक महत्व मिला। परिवार के सदस्यों के पितरों के प्रति धर्म पालन के कुछ कर्तव्य होते थे। वे उन कर्तव्यों से पारिवारिक भूमि और यज्ञ-वेदी से जुड़े रहते थे। जैसे यक्ष-वेदी भूमि से संयुक्त रहती थी, उसी प्रकार परिवार भूमि के साथ बँधा रहता था।”

प्रश्न 24. विस्तृत परिवार से आप क्या समझते हैं ?

उत्तर-(1) यदि एकाकी या संयुक्त परिवार के सदस्यों के अलावा कोई नातेदार परिवार

का हिस्सा बनता है तो उसे विस्तृत परिवार कहते हैं।

(2) विस्तृत परिवार में एकाकी नातेदारों के अतिरिक्त दूर के रक्त संबंधी हो सकते हैं या साथ रहने वाले नातेदार और भी अधिक दूर के हो सकते हैं। उदाहरण के लिए सास-ससुर का अपने दामाद (Son-in-law) के परिवार में रहना।

प्रश्न 25. मातृवंशीय एवं मातृस्थानीय परिवार के विषय में संक्षेप में लिखिए।

उत्तर-बैचोपन (Bachopen) तथा मॉर्गन (Morgan) आदि विद्वानों का मत है कि परिवार का प्रथम स्वरूप मातृक था। मातृवंशीय एवं मातृस्थानीय परिवार की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं :

  1. मातृवंशीय (Matrilineal) परिवार में वंशावली माता के माध्यम से चलती है।
  2. परिवार में मुख्य सत्ता तथा निर्णय करने का अधिकार माता के पास होता है।
  3. बच्चों की देखभाल पत्नी के रिश्तेदारों के घर में होती है। इस प्रकार ये परिवार मात स्थानीय (Matrilocal) भी होते हैं। उदाहरण के लिए, दक्षिण भारत के नायर परिवार मातृ स्थानीय हैं।
  4. सम्पत्ति का उत्तराधिकार स्त्रियों के पास होता है। मेघालय में खासी जनजाति में मातृ सत्तात्मक परिवार पाये जाते हैं।

प्रश्न 26. पितृवंशीय एवं पितृस्थानीय परिवार के विषय में संक्षेप में लिखिए।

उत्तर-पितृवंशीय एवं पितृस्थानीय परिवार की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं:

  1. पितृवंशीय परिवार में पत्नी विवाह के पश्चात् पति के घर में रहने जाती है।
  2. पितृवंशीय परिवार में पिता परिवार का मुखिया तथा सम्पत्ति का सर्वोच्च स्वामी होता है।
  3. परिवार की वंशावली पिता के माध्यम से चलती है।
  4. पितृवंशीय परिवार पितृ स्थानीय होते हैं।

प्रश्न 27. बहुपति परिवार के विषय में संक्षेप में बताइये।

उत्तर-(1) बहुपति परिवार में एक स्त्री के एक समय में एक से अधिक पति होते हैं।

(2) बहुपति परिवार दो प्रकार के होते हैं :

(i) भ्राता बहुपति परिवार (Fraternal polyandry family): भ्राता परिवार में स्त्री के सभी पति भाई होते हैं। वेस्टर मार्क (Wester Marck) के अनुसार, “जब एक लड़का किसी स्त्री से शादी कर लेता है तो वह लड़को प्राय: उस समय उसके अन्य सब भाईयों की पत्नी बन जाती है तथा उसी प्रकार बाद में पैदा होने वाला भाई बड़े भाई भाइयों के अधिकारों में भागीदार माना जाता है।”

हमारे देश में भ्राता बहुपति परिवार खासी तथा टोडा जनजातियों में पाये जाते हैं।

(ii) अभ्राता बहुपति परिवार (Non-fraternal polyandry family) : अभ्राता बहुपति परिवार में एक स्त्री के अनेक पति परस्पर भ्राता न होकर अनेक गोत्रों (Clans) के व्यक्ति होते हैं जो एक-दूसरे से अपरिचित होते हैं। नायर जनजाति में इस प्रकार के परिवार पाये जाते हैं।

प्रश्न 28. नातेदारी का अर्थ स्पष्ट कीजिए। नातेदारी के प्रकार बताइये।

उत्तर-(1) नातेदारी का अर्थ (Meaning of Kinship): नातेदारी रक्त तथा विवाह का ऐसा बंधन है जो व्यक्तियों के एक समूह से बाँधता है। इस प्रकार, नातेदारी व्यवस्था किसी परिवार के सदस्यों के आपसी संबंधों तथा इन सदस्यों से जुड़े दूसरे परिवारों के सदस्यों के आपसी संबंधों को संगठित और वर्गीकृत करने की केवल एक प्रणाली है। मुरडाक (Murdock) के अनुसार, “यह मात्र संबंधों की ऐसी रचना है जिसमें व्यक्ति एक-दूसरे से जटिल आंतरिक बंधन एवं शाखाकृत बंधनों (Ramifying ties) द्वारा जुड़े होते हैं।

(2) नातेदारी के प्रकार (Types of Kinship)

(i) वैवाहिक नातेदारी (Affinal Kinship): जब किसी पुरुष द्वारा किसी कन्या से विवाह किया जाता है तो उसका संबंध न केवल कन्या से होता है वरन् कन्या के परिवार के अनेक सदस्यों

से भी उसका संबंध स्थापित हो जाता है।

(ii) समरक्तीय नातेदारी (Consanguineous Kinship): समरक्तीय नातेदारी के संबंध रक्त के आधार पर होते हैं। उदाहरण के लिए, माता-पिता तथा बच्चों के बीच सम-रक्तीय संबंध होते हैं।

प्रश्न 29. संयुक्त परिवार से क्या अभिप्राय है ? संयुक्त परिवार कितने प्रकार के होते हैं ?

उत्तर-संयुक्त परिवार से अभिप्राय ऐसे गृहस्थ समूह से है जिसमें दो या अधिक पीढ़ियों के रक्त व विवाह संबंधी नातेदार रहते हैं। सभी सदस्यों की एक सामान्य सम्पत्ति होती है। एक ही चूल्हे पर सब भोजन बनाते हैं, सभी लोग किसी न किसी देवी या देवता की पूजा करते हैं, सभी सदस्य एक-दूसरे के साथ मिलकर रहते हैं और एक ही जगह से अपना खर्च चलाते हैं।

संयुक्त परिवार का वर्गीकरण वंश के आधार पर तथा सम्पत्ति के आधार पर किया जाता है।

वंश के आधार पर मातृ सत्तात्मक परिवार और पितृसत्तात्मक परिवार एवं संपत्ति के आधार पर मिताक्षरा और दायभाग संयुक्त परिवार।

प्रश्न 30. मातृसत्तात्मक परिवार और पितृसत्तात्मक परिवार में अंतर स्पष्ट करें।

उत्तर-मातृसत्तात्मक परिवार (MaternalJoint Family): ऐसे परिवार जिनमें माता या परिवार की अन्य किसी स्त्री के नाम पर वंश चलता है तथा परिवार में उसकी प्रधानता होती है, मातृसत्तात्मक संयुक्त परिवार कहलाते हैं। इस प्रकार के परिवार प्रायः दक्षिण में मालाबार क्षेत्रों में विशेष रूप से नायर लोगों में पाए जाते हैं।

पितृसत्तात्मक परिवार (Paternal Joint Family): जिन परिवारों में पिता या अन्य किसी पुरुष के नाम पर वंशावली चलती है तथा परिवार में पुरुष की प्रधानता होती है, पितृसत्तात्मक परिवार कहलाते हैं। भारत में प्रायः सभी स्थानों पर पितृसत्तात्मक परिवार पाए जाते हैं।

प्रश्न 31. सम्पत्ति के आधार पर संयुक्त परिवारों का वर्गीकरण कीजिए।

उत्तर-पैतृक सम्पत्ति के आधार पर संयुक्त परिवारों को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है:

  1. मिताक्षरा संयुक्त परिवार,
  2. दाय भाग संयुक्त परिवार।

(i) मिताक्षरा संयुक्त परिवारों में जन्म से ही पैतृक सम्पत्ति पर पुत्रों का पिता के समान बराबर अधिकार हो जाता है जबकि दाय भाग प्रणाली में पिता की मृत्यु के बाद सम्पत्ति पर पुत्रों का अधिकार माना जाता है।

(ii) मिताक्षरा संयुक्त परिवार में कोई भी व्यक्ति या हिस्सेदार अपने हिस्से का विक्रय और दान नहीं कर सकता जबकि दाय भाग प्रणाली में संयुक्त परिवार में हिस्सेदार का यह पूर्ण अधिकार होता है।

(iii) मिताक्षरा संयुक्त परिवार में केवल पुरुष ही सम्पत्ति का हिस्सेदार होता है जबकि दाय भाग प्रणाली में पुरुष हिस्सेदारों की विधवाएँ भी संपत्ति में हिस्सेदार होती हैं।

(iv) भारत में केवल बंगाल में ही दाय भाग संयुक्त परिवार देखने को मिलते हैं। देश के बाकी भागों में मिताक्षरा संयुक्त परिवार का प्रचलन रहा है।

हिन्दू उत्तराधिकारी अधिनियम 1956 द्वारा मिताक्षरा और दाय भाग संयुक्त परिवारों में अंतर समाप्त कर दिया गया है।

प्रश्न 32. “भारत में संयुक्त परिवार अपने सदस्यों को आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने वाली संस्था थी।” व्याख्या कीजिए।

उत्तर-इरावती कर्वे के अनुसार, “एक संयुक्त परिवार उन व्यक्तियों का समूह है जो सामान्यतः एक भवन में रहते हैं, जो एक रसोई में पका हुआ भोजन खाते हैं, जो सामान्य सम्पत्ति के स्वामी होते हैं तथा जो किसी न किसी प्रकार से एक-दूसरे के रक्त संबंधी हैं।”

सामान्यत: संयुक्त परिवार प्रथा भारतीय समाज की एक महत्वपूर्ण संस्था रही है। इसमें पाया जाने वाला स्थायित्व इसके गुणों के कारण ही है। एक संयुक्त परिवार अपने सदस्यों को शारीरिक,

मनोवैज्ञानिक, आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा का अनुभव प्रदान कराता है। सुरक्षा की दृष्टि से संयुक्त परिवार प्रणाली भारतीय समाज में एक प्रकार की बीमा कम्पनी जैसा कार्य करती है। विपत्ति काल में बच्चों, अपाहिजों, वृद्धों, विधवाओं की सुरक्षा की समस्या का हल स्वयं परिवार में ही हो जाता है। बेरोजगार व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति भी सरलतापूर्वक होती रहती है। बीमारी और प्रसव काल में तो संयुक्त परिवार में पूरी सावधानी बरती जाती है। किसी पुरुष के मर जाने पर उसकी स्त्री और बच्चों की घर में ही देखभाल की जाती है, उन्हें दर-दर की ठोकरें नहीं खानी पड़ती। बच्चों को असहाय होने का अनुभव नहीं होने दिया जाता। उनके लिए हर प्रकार की सुरक्षा के साधन जुटाये जाते हैं। विपत्ति के समय संयुक्त परिवार एक प्रकार से सामाजिक बीमे का कार्य करता है।

प्रश्न 33. संयुक्त परिवार के कुछ लाभ बताइए।

उत्तर-संयुक्त परिवार बच्चों के लिए प्रारंभिक पाठशाला के रूप में कार्य करता है। संयुक्त परिवार में छोटे बच्चे बड़े बच्चों की नकल करते हैं। दादा-दादी बच्चों को अनौपचारिक शिक्षा प्रदान करते हैं। प्रारंभ में बच्चों का पालन-पोषण वृद्धों की देख-रेख में होता है। व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं जैसे शारीरिक, संवेगात्मक, सामाजिक और भौतिक विकास अच्छी तरह होता है। बड़ों की देख-रेख में युवकों की अवांछनीय तथा सामाजिक प्रवृत्तियों पर नियंत्रण रखने की अधिक सम्भावनाएँ होती हैं। बच्चों और युवकों में ऐसी आदतें पड़ जाती हैं जिनसे वे हर प्रकार की परिस्थितियों का सामना करने के योग्य हो सकें।

प्रश्न 34. संयुक्त परिवार के कुछ दोष बताइए।

उत्तर-संयुक्त परिवार भारतीय समाज की एक महत्वपूर्ण और विशिष्ट संस्था है परन्तु . परिस्थितियों और समय में परिवर्तन हो जाने के कारण यह संस्था अब अनेक दोषों से युक्त हो गई है। मुख्य दोष निम्नलिखित हैं : .

  1. संयुक्त परिवार में सदस्यों की संख्या अधिक होने के कारण कलह और द्वेष बढ़ जाता है।
  2. संयुक्त परिवार में स्त्रियों की दशा निम्न और दयनीय बन जाती है। संयुक्त परिवार में बच्चों के उत्पन्न होने की दर भी अधिक होती है।
  3. संयुक्त परिवार बाल विवाह को प्रोत्साहन देता है।
  4. संयुक्त परिवारों में स्थान की कमी के कारण नविविवाहितों और पति-पत्नी को दाम्पत्य जीवन बिताने का कम अवसर मिलता है।
  5. संयुक्त परिवारों में वृद्ध लोगों का शासन सभी सदस्यों पर रहता है।
  6. संयुक्त परिवार में बेरोजगार, बीमार, अपाहिज और विधवा बिना कमाये पेट भरते हैं। इससे बाहर से कमाकर लाने वालों में असंतोष पनपता है। कुछ सदस्य आलसी और कामचोर बन जाते हैं।
  7. संयुक्त परिवार में आर्थिक निर्भरता नहीं रहती। सभी व्यक्ति कर्ता की इच्छा पर निर्भर रहते हैं।
  8. संयुक्त पविार में रूढ़ियों और परम्पराओं का बोलबाला रहता है। पीढ़ियों में संघर्ष बढ़ जाता है।

प्रश्न 35. औद्योगीकरण और नगरीकरण परिवार प्रणाली के विघटन के लिए किस प्रकार उत्तरदायी हैं ?

उत्तर-औद्योगीकरण तथा नगरीकरण के कारण रोजगार के नये अवसर उत्पन्न होते हैं। लोग ग्रामीण क्षेत्रों से नगरों की ओर गतिशील हो जाते हैं। संयुक्त परिवार से आकर लोग नगरों में मकान और व्यवसाय की खोज करते हैं। व्यावसायिक गतिशीलता ने संयुक्त परिवार के विघटन में विशेष योगदान दिया है। ग्रामीण उद्योगों के पतन के बाद व्यक्ति विवश होकर गाँव छोड़ाकर औद्योगिक केन्द्रों में आ जाते हैं। इससे संयुक्त परिवार प्रथा को ठेस पहुंचती है। औद्योगीकरण

और नगरीकरण के फलस्वरूप मजदूरों का भुगतान नकद किया जाने लगा। इससे संयुक्त परिवार प्रणाली को विघटन होने में सहायता मिली है। नकद वेतन से आकर्षित होकर ग्रामीण श्रमिकों ने औद्योगिक मजदूरी को अधिक अच्छा समझा और नगरों की ओर प्रस्थान किया जाने लगा। इससे संयुक्त परिवार प्रथा के विघटन में सहायता मिली। औद्योगिक केन्द्रों में स्त्रियों को भी नियमित नकद वेतन प्राप्त होने लगता है। इससे स्त्रियों में जागृति और स्वतंत्रता की भावना उत्पन्न होती है। अतः परिवार प्रथा के विघटन में सहयोग प्राप्त हुआ है।

प्रश्न 36. एकाकी परिवार से क्या अभिप्राय है ? इसकी विशेषताएँ बताइये।

उत्तर-परिवार के आकार और इसमें सम्मिलित पीढ़ियों की संख्या के आधार पर किए गये वर्गीकरण के अनुसार संयुक्त परिवार के अतिरिक्त एक और परिवार पाया जाता है जिसे एकाकी परिवार या केन्द्रीय परिवार कहते हैं। इसमें केवल दो ही पीढ़ियों के सदस्य पाये जाते हैं। पति-पत्नी और उनके बच्चे ही एकाकी परिवार के सदस्य होते हैं।

परिभाषा : एम, एन. श्रीनिवास के अनुसार, “व्यक्ति, उसकी पत्नी और अविवाहित बच्चों वाले गृहस्थ समूह को प्रारम्भिक अथवा एकाकी परिवार कहते हैं।”

एकाकी परिवार में पति-पत्नी तथा उसकी अविवाहित संतान को सम्मिलित किया जाता है। यदि पति-पत्नी में से किसी एक की मृत्यु हो जाये तो भी शेष सदस्य एकाकी परिवार का निर्माण करते हैं।

विशेषताएँ : एकाकी परिवार की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं :

  1. छोटा आकार : एकाकी परिवार में पति-पत्नी और उनके अविवाहित बच्चे होते हैं। इसमें एक या दो पीढ़ियों के व्यक्ति परिवार के सदस्य होते हैं।
  2. दो परिवारों में संबंध : इस परिवार का संबंध दो परिवारों के साथ होता है-पहला स्त्री के परिवार के साथ दूसरा, स्त्री के पति के परिवार के साथ।
  3. स्वतंत्र सामाजिक इकाई : इस प्रकार के परिवार अन्य परिवारों पर आश्रित नहीं रहते और न अन्यों पर निर्भर रहने में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं।
  4. मित्रता की भावना : एकाकी परिवार के सभी सदस्य आपस में एक-दूसरे के कार्य में हाथ बँटाते हैं, एक-दूसरे का मनोरंजन करते हैं। एक-दूसरे की भलाई में लगे रहते हैं।
  5. ‘माता-पिता की प्रधानता : माता-पिता उसी समय तक अपने बच्चों पर नियंत्रण रखते हैं जब तक कि वे विवाह नहीं कर लेते।

प्रश्न 37. एकाकी परिवार के प्रमख कार्य बताइये।

उत्तर-एकाकी परिवार के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं:

  1. पालन-पोषण का कार्य : एकाकी परिवारों में बच्चों का पालन-पोषण उसी समय तक किया जाता है जब तक कि वे किसी काम करने के योग्य नहीं हो जाते। विवाह के पश्चात् बच्चों को स्वतंत्र छोड़ दिया जाता है।
  2. समाजीकरण का कार्य : बच्चों को भाषा, रहन-सहन, नियंत्रित और नियमित जीवन व्यतीत करने की शिक्षा परिवार में ही दी जाती है।
  3. धार्मिक कार्य : एकाकी परिवारों में परिवार का मुखिया बच्चों को धार्मिक अनुष्ठान और कर्मकांड करने की प्रेरणा देता है।
  4. संतानोत्पत्ति का कार्य : एकाकी परिवारों में सन्तानोत्पत्ति का कार्य यौन संबंधों के साथ जुड़ा हुआ है। संतान को जन्म इसलिए दिया जाता है जिससे कि मानव प्रजाति आगे बढ़ती रहे।
  5. सहयोग : परिवार में स्त्री, बड़ा पुत्र या पुत्री परिवार की आय को बढ़ाने में सहयोग करते हैं। बच्चों के पालन-पोषण, शिक्षा, विवाह आदि का उत्तरदायित्व सभी मिलकर उठाते हैं।

प्रश्न 38 एकाकी परिवार और संयुक्त परिवार में अंतर स्पष्ट करें। उत्तर–एकाकी परिवार और संयुक्त परिवार में मुख्य अंतर निम्नलिखित हैं :

 

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प्रश्न 39. नातेदारी व्यवहार क्या है ? नातेदारी व्यवहार के सामाजिक आशय क्या हैं?

उत्तर-भारतवापियों के लिए नातेदारी व्यवस्था बहुत महत्वपूर्ण है। संकटकाल में अधिकतर भारतीय प्राथमिक रूप से नातेदारी संबंधों पर भरोसा करते हैं। जब किसी संबंधी की मृत्यु होती है तो नातेदारी से जुड़े सभी स्त्री-पुरुष शोक-संतप्त परिवार को सहयोग देने के लिए आ जाते हैं। जब कोई व्यक्ति किसी अन्य देश में जाता है तो वह अपने संबंधियों से ही सम्पर्क करता है। जब व्यक्ति को नौकरी या कारोबार करना होता है तो वह अपने निकट संबंधियों से संपर्क करता है। नये स्थान पर जाने पर व्यक्ति अपने संबंधियों के यहाँ जाकर ठहरना पसंद करता है। विवाह संबंधी प्रस्ताव भी नातेदारों के माध्यम से ही आता है। विवाह समारोह में नातेदार दूल्हे और दुल्हन को उपहार देने का कर्तव्य निभाते हैं। भारतवासियों के जीवन में नातेदारी सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन की रूपरेखा प्रस्तुत करती है। जाति, वर्ग, क्लब और पड़ोस भी महत्वपूर्ण होता है परन्तु नातेदारी की भूमिका उसमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।

प्रश्न 40. भारत में जाति व्यवस्था के उद्भव के परम्परागत सिद्धांत के विषय में आप क्या जानते हैं ?

उत्तर–1. परम्परागत सिद्धान्त (Traditiona Theory): यह सिद्धान्त वेदों, महाकाव्यों तथा पुराणों पर आधारित है। इस सम्बन्ध में सबसे प्राचीन वर्णन ऋग्वेद के मन्त्र के रूप में मिलता है। इस मन्त्र के अनुसार ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रिय बाहु से, वैश्य जाँघ से और शूद्र पैर से उत्पन्न हुए हैं। मनु महोदय ने इसी आधार पर प्रत् क जाति के कार्यों को भी नियत कर दिया। ब्राह्मणों की उत्पत्ति मुख से हुई, इसलिए ब्राह्मणों का कार्य अध्ययन और अध्यापन है ताकि वेदों की रक्षा की जा सके। बाहु शक्ति का परिचायक है, इसलिए क्षत्रियों का कार्य शक्ति से सम्बन्धित है, जैसे देश की रक्षा, जीवन की रक्षा आदि करना क्षत्रियों का कार्य है क्योंकि इसके द्वारा उचित राज्य-व्यवस्था स्थापित की जा सकती है। इसी प्रकार वैश्यों का कार्य व्यापार और कृषि करना है, शूद्रों का कार्य पैरों से उत्पत्ति होने के कारण तीनों वर्गों की सेवा करना है।

प्रारंभ में यह सामाजिक संस्तरण ‘जाति-प्रथा’ के रूप में न होकर ‘वर्ण व्यवस्था’ के रूप में था। इन चार वर्षों से अनुलोम व प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न संतानों से भिन्न-भिन्न जातियाँ एवं उपजातियाँ विकसित हुईं।

आलोचना : 1. आज के वैज्ञानिक युग में मानव की उत्पत्ति के बारे में ऐसी कल्पना पर विश्वास करना कठिन है।

  1. हट्टन महादेय के अनुसार इस सिद्धांत के आधार पर खेती करने वाली विभिन्न जातियों की सामाजिक स्थिति बताना संभव नहीं है।
  2. अनुलोम-प्रतिलोम विवाह से नवीन जातियों की उत्पत्ति भी पूर्ण रूप से सत्य नहीं है।
  3. इस सिद्धान्त ने ‘वर्ण’ और ‘जाति’ में अनावश्यक भ्रम उत्पन्न कर दिया है जबकि दोनों की धारणाएँ एक-दूसरे से अलग हैं।

प्रश्न 41. भारत में जाति व्यवस्था के उद्भव के व्यावसायिक या पेशेगत सिद्धांत के विषय में आप क्या जानते हैं ?

उत्तर-व्यावसायिक सिद्धांत (Occupational Theory): नेसफील्ड (Nesfield) महोदय के अनुसार पेशों अथवा व्यवसायों के आधार पर जाति-प्रथा की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी (Function and function alone is responsible for the origin of caste system).” आपका कहना है कि कार्य अथवा पेशे की ऊँच-नीच का भेदभाव पनपा और इस प्रकार समाज का खंडात्मक विभाजन (Segmental division) हुआ है। ऐसा विभाजन अथवा संस्तरण स्वाभाविक है और सभी समाजों में पाया जाता है। नेसफील्ड ने धार्मिक, प्रजातीय अथवा शारीरिक लक्षणों को जातियों को एक-दूसरे से अलग करने का आधार नहीं माना है। जातियों की भिन्नता अथवा भेदभाव पेशों की प्रकृति अथवा ऊँच-नीच पर आधारित है।

आलोचना : 1. डॉ. मजूमदार के अनुसार इस सिद्धान्त का सबसे बड़ा दोष प्रजातीय (Racial) तत्वों की अवहेलना करना है।

  1. समाज की संस्था होने के कारण जाति प्रथा में धार्मिक तत्वों का समावेश रहता है, यद्यपि धर्म को ही मुख्य कारण मानना उचित नहीं है। .
  2. भारतवर्ष में खेती करने वाले सब लोग एक ही जाति के नहीं हैं। हट्टन (Hutton) महोदय ने इसी आधार पर इस सिद्धान्त की आलोचना की है। इस सिद्धान्त से विभिन्न जातियों के मध्य पाई जाने वाली घृणा व विरोध की व्याख्या नहीं हो पाती।

अतः ऐसी स्थिति में यह कहना कि “पेशा और केवल पेशा ही जाति प्रथा की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी है” एक बहुत बड़ा दावा है। .

प्रश्न 42. “जातिवाद भारतीय संविधान की आत्मा के प्रतिकूल हैं।” स्पष्ट कीजिए।

उत्तर-जातिवाद भारतीय संविधान की आत्मा के प्रतिकूल है। संविधान की धारा 15 में उल्लेख है कि “राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूल, वंश, लिंग, जन्म स्थान अथवा इनमें से किसी एक के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा।” परंतु जातिभेद आज भी समाज में बहुत प्रभावपूर्ण स्थान रखता है। यह अंधविश्वास और पक्षपात को जन्म देता है। जाति व्यवस्था देश की एकता में बाधा उत्पन्न करती है। यह सामाजिक निषेधों, पवित्रता और अपवित्रता की भावना राष्ट्रीय जागृति का विरोध करती है। यह व्यवस्था श्रम की गतिशीलता में बाधक है और व्यक्ति को उसकी क्षमता और इच्छा के विरुद्ध उसे परंपरागत व्यवसाय करने के लिए बाध्य करती है। व्यक्ति के व्यक्तित्व को विकास रुक जाता है। सार्वजनिक क्षेत्रों में महिलाओं की स्थिति में रुकावट बनती है।

प्रश्न 43. समकालीन भारत में जाति की क्या भूमिका है ?

उत्तर-समकालीन भारत में जाति व्यवस्था के बंधन कमजोर पड़ रहे हैं। एक जाति या उपजाति का सदस्य होने का कोई खास अर्थ नहीं है। फिर भी विवाह के क्षेत्र में इसका महत्व बना हुआ है। जाति के अन्तर्गत विवाह अभी भी किए जाते हैं। यद्यपि अंतर्जातीय विवाह भी स्वीकृति हो जाते हैं परंतु यह केवल नगरों तक सीमित है। भारत में प्रत्येक भाग में जाति का राजनीतिक प्रयोग दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। जाति व्यवस्था की संरचनात्मक व्यवस्था कमजोर पड़ रहा है। धार्मिक कर्म-कांड, खान-पान और मेल-जोल संबंधी निषेध प्रायः समाप्त हो गये हैं। जाति और व्यवसाय का संबंध अब बीते दिनों की बात हो गई है। नगरों में बाजार व्यवस्था ने जजमानी

संबंध केवल रीति-रिवाजों के स्तर पर कायम हैं। आज गाँवों में संख्यात्मक शक्ति, आर्थिक शक्ति, शिक्षा और राजनीतिक तानाबाना जाति को प्रभुता प्रदान करता है। जाति व्यवस्था ने बदलते समय के अनुसार अपना सामंजस्य ठीक प्रकार से स्थापित कर लिया है। संस्कृतिकरण, पाश्चात्यकरण, औद्योगीकरण और नगरीकरण ने जाति व्यवस्था को लचीला बना दिया है।

प्रश्न 44. सामाजिक स्तरीकरण के प्रकार के रूप में जाति और वर्ग में भिन्नता कीजिए।

उत्तर-जाति और वर्ग सामाजिक स्तरीकरण के दो मुख्य रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं। जाति एक व्यक्ति के जन्म से निर्धारित होती है परंतु वर्ग जन्म पर निर्भर नहीं करता। वर्ग व्यवस्था में एक व्यक्ति अपने धन, आय और समाज में स्थानों के अनुसार स्तरीकरण में ऊंचा या नीचा स्थान प्राप्त करता है। यह जाति व्यवस्था के अन्तर्गत संभव नहीं है।

एक व्यक्ति अपनी वर्ग स्थिति को अपने व्यवसाय, बल या धन के सहारे परिवर्तित कर सकता है। जाति व्यवस्था को सामान्यतः बंद माना जाता है। समाजशास्त्री एम. एन. श्री निवास का मत है कि संस्कृतिकरण और पाश्चात्यकरण की प्रक्रिया के द्वारा गतिशीलता हमेशा ही सम्भव है। वर्ग संरचना में एक व्यक्ति द्वारा अपनी इच्छा और क्षमता के अनुसार अपने व्यवसाय को इतनी आसानी से परिवर्तित नहीं किया जा सकता।

प्रश्न 45, समकालीन भारत में जाति व्यवस्था पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।

[B.M. 2009A]

उत्तर-समकालीन भारत में जाति व्यवस्था कमजोर पड़ रही है। वह अब अपनी पुरानी शक्ति की तरह कार्य नहीं कर पा रही है। फिर भी विवाह के क्षेत्र में इसका महत्व बना हुआ है। नगरों में अन्तर्जातीय विवाह को मान्यता मिल रही है, लेकिन राजनीति में जाति का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। जाति व्यवस्था के संरचनात्मक बंधन अब कमजोर पड़ रहे हैं। धार्मिक कर्मकांड, खान-पान और शारीरिक मेल-जोल संबंधी निषेध अब समाप्त हो रहे हैं। जाति और व्यवसाय का संबंध अब समाप्त हो रहा है। जजमानी प्रथा भी अब समाप्त हो रही है। आज ग्रामीण क्षेत्रों में जिस जाति की संख्या अधिक है उसका वर्चस्व है। राजनीति में भी जाति पक्ष का महत्व बढ़ा है। जाति व्यवस्था में पाश्चात्यकरण, औद्योगीकरण और नगरीकरण की प्रक्रियाओं को अपना लिया है।

प्रश्न 46. जाति व्यवस्था में पृथक्करण (separation) और अधिक्रम (hierarchy) की क्या भूमिका है ?

(NCERTT.B.Q. No. 1)

उत्तर-सैद्धान्तिक तौर पर, जाति व्यवस्था को सिद्धांतों के दो समुच्चों के मिश्रण के रूप में समझा जा सकता है, एक भिन्नता और पृथक्करण पर आधारित है और दूसरा संपूर्णता और अधिक्रम पर।

पृथक्करण (Separation): प्रत्येक जाति से यह अपेक्षित है कि वह दूसरी जाति से भिन्न हो और इसलिए वह प्रत्येक अन्य जाति से कठोरता से पृथक होती है। अतः जाति के अधिकांश धर्मग्रंथसम्मत नियमों की रूपरेखा जातियों को मिश्रित होने से बचाने के अनुसार बनाई गई है। इन नियमों में शादी, खान-पान एवं सामाजिक अंतःक्रिया से लेकर व्यवसाय तक के नियम शामिल हैं। वहीं दूसरी ओर इन विभिन्न एवं पृथक जातियों का कोई व्यक्तिगत अस्तित्व नहीं है, वे एक बड़ी संपूर्णता से संबंधित होकर ही अपनी अस्तित्व बनाए रख सकती हैं। समाज की संपूर्णता में सभी जातियों शामिल होती हैं। इससे भी आगे, यह सामाजिक संपूर्णता या व्यवस्था समानतावादी व्यवस्था होने की अपेक्षा अधिक्रमित व्यवस्था है।

अधिक्रम (Hierarchy) : प्रत्येक जाति का समाज में एक विशिष्ट स्थान के साथ-साथ एक क्रम श्रेणी भी होती है। एक सीढ़ीनुमा व्यवस्था में, जो ऊपर से नीचे जाति है प्रत्येक जाति का एक विशिष्ट स्थान होता है।

धार्मिक या कर्मकांडीय दृष्टि से जाति की अधिक्रमित व्यवस्था ‘शुद्धता’ (शुचिता) और ‘अशुद्धता* (अशुचिता) के बीच के अंतर पर आधारित होती है। यह विभाजन जिसे हम पवित्र के करीब मानने में विश्वास रखते हैं उसके और जिसे हम पवित्र से परे मानते हैं या उसके विपरीत मानते हैं अतः वह कर्मकांड के लिए प्रदूषित होता है, के बीच हैं। वह जातियाँ जिन्हें कर्मकांड की दृष्टि से शुद्ध माना जाता है उनका स्थान उच्च होता है और जिन्हें कम शुद्ध या अशुद्ध माना जाता है उन्हें निम्न स्थान दिया जाता है। जैसा कि हर समाज में होता है, सामाजिक स्तर से भौतिक शक्ति (अर्थात्, आर्थिक या सैन्य शक्ति) नजदीकी से जुड़ी होती है, अत: जिनके पास शक्ति होती है उनकी स्थिति उच्च होती है और जिनके पास शक्ति नहीं होती उनकी स्थिति निम्न होती है। इतिहासकारों का मानना है कि जो लोग युद्धों में पराजित हुए थे उन्हें अकसर निम्न जाति की स्थिति मिली।

प्रश्न 47. वे कौन से नियम हैं जिनका पालन करने के लिए जाति व्यवस्था बाध्य करती है? कुछ के बारे में बताइए।

(NCERTT.B.Q.No.2)

उत्तर-जाति के नियम (Rule of caste):

  1. जाति, जन्म से निर्धारित होती है। एक बच्चा अपने माता-पिता की जाति में ही जन्म लेता है। जाति कभी चुनाव का विषय नहीं होती। हम अपनी जाति को कभी भी बदल नहीं सकते, छोड़ नहीं सकते या हम इस बात का चुनाव नहीं कर सकते कि हमें जाति में शामिल होना है या नहीं। हालाँकि, ऐसे दारहरण हैं जहाँ एक व्यक्ति को उसकी जाति से निकाला भी जा सकता है।
  2. जाति की सदस्यता के साथ विवाह संबंधी कठोर नियम शामिल होते हैं। जाति समूह ‘सजातीय होते हैं अर्थात् विवाह समूह के सदस्यों में ही हो सकते हैं।
  3. जाति सदस्यता में खाने और खाना बाँटने के बारे में नियम भी शामिल होते हैं। किस प्रकार का खाना खा सकते हैं और किस प्रकार का नहीं, यह निर्धारित है और किसके साथ खाना बाँटकर खाया जा सकता है यह भी निर्धारित होता है।
  4. जातियों में श्रेणी एवं परिस्थिति के एक अधिक्रम में संयोजित अनेक जातियों की एक व्यवस्था शामिल होती है। सैद्धांतिक तौर पर, हम व्यक्ति की एक जाति होती है और हर जाति का सभी जातियों के अधिक्रम में एक निर्धारित स्थान होता है। जहाँ अनेक जातियों की अधिक्रमित स्थिति, विशेषकर मध्यक्रम की श्रेणियों में, एक क्षेत्र में दूसरे क्षेत्र में बदल सकती है पर अधिक्रम हमेशा पाया जाता है।
  5. जातियों में आपसी उप-विभाजन भी होता है अर्थात् जातियों में हमेशा उप-जातियों होती हैं और कभी-कभी उप-जातियों में भी उप-जातियाँ होती हैं। इसे खंडात्मक संगठन (segmental organisation) कहते हैं।
  6. पारंपारिक तौर पर जातियाँ व्यवसाय से जुड़ी होती थीं। एक जाति में जन्म लेना वाला व्यक्ति उस जाति से जुड़े व्यवसाय को ही अपना सकता था।
  7. इनमें से अनेक नियम हैं जिनका पालन करने के लिए जाति व्यवस्था आज भी बाध्य करती है।

प्रश्न 48. एक जनजाति से क्या अभिप्राय है ? इसकी मुख्य विशेषताएँ क्या हैं ?

उत्तर-प्रो. डी. एन. मजूमदार के अनुसार, “एक जनजाति परिवार या परिवारों का समूह का संगठन होता है, जिसका एक सामान्य नाम होता है, जिसके सदस्य एक ही क्षेत्र में रहते हैं, विवाह और व्यवसाय में संबंधित कुछ निश्चित निषेधों का पालन करते हैं, एक ही भाषा बोलते हैं तथा लेन-देन एवं कर्तव्यों के द्वारा बँधे रहते हैं।”

विशेषताएँ : 1. प्रत्येक जनजाति का एक अपना ही अलग नाम होता है।

  1. ये एक भौगोलिक क्षेत्र में निवास करती है।
  2. इनकी एक भाषा या बोली होती है।
  3. ये अपनी जनजाति में ही विवाह करते हैं।
  4. ये कृषि कार्य, शिकार या जंगल के उत्पादों को एकत्र करते हैं।
  5. ये प्रायः मासाहारी होते हैं।
  6. ये रक्त संबंधों में एक-दूसरे से जुड़े होते हैं।
  7. जनजातियाँ प्रकृति या मूर्ति की पूजा करती हैं। इनका अपना एक संगठन होता है।

अब ऐसे कम जनजातीय समूह हैं जो आखेट और जंगली उत्पादों को एकत्रित करने पर निर्भर हैं लेकिन अभी भी बहुत से चरवाहे और शिल्पकार हैं। अब अनेक आदिवासी खनन, पेड़ लगाने और औद्योगिक कामों को भी कर रहे हैं।

प्रश्न 49. स्वतंत्र भारत में जनजातियों की स्थिति पर प्रकाश डालिए।

उत्तर-स्वतंत्र भारत में जनजातियों की स्थिति में तेजी से परिवर्तन आ रहे हैं। जब तक अंग्रेजों ने जनजातीय क्षेत्रों में प्रवेश करना आरंभ नहीं किया था, तब तक जनजातियों ने अपने अस्तित्व को बचा कर रखा। बाहरी लोगों से सम्पर्क होने पर जनजातियों ने अपनी भूमि को खो दिया। वे सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक शोषण के शिकार हो गये। अंग्रेजी शासकों के विरुद्ध भी उन्होंने आंदोलन चलाए। स्वतंत्र भारत में भी उनकी माँग नौकरियों प्रशिक्षण, भूमि और अन्य स्रोतों के अधिकार को सुरक्षित रखने के संबंध में बनी रही। उन्होंने कई आंदोलन अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए चलाए। स्वतंत्र भारत में भी अपनी पहचान, सांस्कृतिक और आर्थिक हितों को बचाने के लिए तथा राजनीतिक ताकत प्राप्त करने के लिए जनजातियाँ प्रयत्नशील हैं। विकास के लाभ उन तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। जनजातियों में से केवल कुछ मुट्ठी भर लोग ही उनका लाभ उठा रहे हैं। जनजातियों को प्रलोभन देकर विदेशी मिशनरी धर्म परिवर्तन पर जोर देते हैं। ऐसे उपाय किए जाने चाहिए जिनसे आधुनिकीकरण और आर्थिक विकास के लाभ गरीब आदिवासियों तक पहुँच सकें।

प्रश्न 50. विभिन्न समाजशास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत जनजाति की परिभाषा लिखिए।

उत्तर-1. आर. एन. मुकर्जी (R. N. Mukherji): “एक जनजाति वह क्षेत्रीय मानव समूह है जो भू-भाग, भाषा, सामाजिक नियम और आर्थिक कार्य आदि विषयों में एक सामान्यता के सूत्र में बँधा होता है तो।”

2गिलिन और गिलिन (Gillin and Gillin) : “स्थानीय आदिम समूहों के किसी संग्रह को, जो एक सामान्य भू-भाग में निवास करता हो, एक सामान्य भाषा बोलता हो और एक सामान्य संस्कृति को व्यक्ति करता हो, एक जनजाति कहते हैं।”

  1. इम्पीरियल गजेटियर (Imperial Gazeteer of India) के अनुसार, “जनजाति परिवारों का ऐसा समूह है जिसका एक सामान्य नाम होता है, जो एक सामान्य बोली का प्रयोग करता है, एक सामान्य प्रदेश में रहता है अथवा रहने का दावा करता है और प्रायः अन्तर्विवाह करने वाला नहीं होता चाहे आरम्भ में उसमें अन्तर्विवाह करने का प्रचलन रहा हो।”
  2. डॉ. मजूमदार (Dr. D. N. Majumdar) : “एक जनजाति परिवारों अथवा परिवारों के समूह का ऐसा संकलन होता है, जिसका एक सामान्य नाम होता है, जिनके सदस्य एक सामान्य भू-भाग में रहते हैं, एक सामान्य भाषा बोलते हैं और विवाह, व्यवसाय अथवा उद्योग के विषय में कुछ प्रतिबन्धों का पालन करते हैं और एक निश्चित व परस्पर उपयोग आदान-प्रदान की व्यवस्था को विकसित करते हैं।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि ‘जनजाति व्यक्तियों या परिवारों का एक ऐसा समूह है जो आदिम अवस्था में रहता है और जिसका रहन-सहन, धर्म, भाषा, नाम व भू-भाग एक समान होता है।’

प्रश्न 51. जनजातीय पहचान का मुद्दा क्या है ?

[B.M.2009 A]

उत्तर-जनजातीय पहचान (Tribal Identity) : जनजातीय पहचान से आशय जनजातियों की सामाजिक व सांस्कृतिक विरासत (Social and Cultural Heritage) को धारा प्रवाहिक रूप में रखने से है ताकि जनजातियाँ अपनी मूल जीवन-विधि को बाह्य सम्पर्क की चपेट के बावजूद भी अपना सकें। सम्भवतया इसीलिए भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने ठीक ही कहा था कि “प्रत्येक जनजाति को बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के अपनी परंपराओं के अनुसार विकसित होने का अवसर दिया जाना चाहिए। उनकी इस प्राकृतिक अथवा स्वाभाविक प्रगति में किसी सरकारी अथवा गैर-सरकारी नियंत्रण को स्थान नहीं दिया जाना चाहिए।”

वर्तमान भारत की जनजातियाँ संक्रमणकालीन स्थिति से गुजर रही हैं, वे स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र परिवेश में स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रही है। उनके समक्ष मुख्य समस्या अपनी पहचान व अस्तित्व की है। इस पहचान व अस्तित्व के लिए जनजातियों में तीव्र असन्तोष व आक्रोश है। जनजातीय क्षेत्रों में ईसाई मिशनरियों के कार्य के कारण जनजातियों में धर्म-परिवर्तन भी हुआ है और उनमें अंग्रेजी शिक्षा का प्रचार-प्रसार भी हुआ है। धर्म-परिवर्तन व अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार की प्रक्रियाओं ने जनजातियों के शिक्षित युवक-युवतियों को आधुनिक बना दिया है और जनजातियों के लोगों का यह वर्ग मूल जनजातीय संस्कृति से भटक गया है और इस प्रकार जनजातीय संस्कृति को मूल रूप में चिरस्थायी बनाए रखना अत्यन्त कठिन हो गया है। इस स्थिति के प्रति अधिकांश जनजातीय लोगों में एक नवीन प्रतिक्रिया या नवीन चेतना उत्पन्न हो रही है और ये लोग अपनी जीवन-विधि (Way of Living) को हर दशा में बनाए रखना चाहते हैं ताकि बदलते भारत में उनकी विशिष्ट पहचान हो, उनकी संस्कृति और उनके सांस्कृतिक आदर्शों का सम्मान हो। सम्भवतया इसीलिए पिछले तीन दशकों में अपनी पहचान बनाए रखने के लिए जनजातियों के लोगों ने अपने-अपने क्षेत्रों में आंदोलन भी किए हैं और अपने-अपने संगठनों के माध्यम से केन्द्रीय व प्रदेशीय सरकारों के समक्ष माँगें भी रखी हैं। वास्तव में इन्हीं आन्दोलनों के फलस्वरूप जनजातीय क्षेत्रों में छोटे-छोटे जनजातीय राज्यों की स्थापना भी हुई है ताकि जनजातीय लोग अपनी विशिष्ट पहचान को बनाए रखते हुए लोकतांत्रिक शासन में सहभागी बन सकें और राष्ट्र की मुख्य धारा से भी पूर्णतया जुड़े रहें। सच तो यह है कि भारतीय गणराज्य में झारखंड, छत्तीसगढ़, नागालैण्ड, मिजोरम, अरुणाचल आदि प्रदेशों का निर्माण जनजातीय पहचान के लिए किए गए प्रयासों के अच्छे उदाहरण हैं।

जनजातीय पहचान का मुद्दा हम सबके लिए एवं जनजातियों के लिए एक महत्वपूर्ण प्रश्न बन गया है। विभिन्न समाजशास्त्रियों ने इस प्रश्न पर गम्भीरता से विचार किया है और वे इस निर्णय पर पहुंचे हैं कि जनजातीय क्षेत्रों में विकास कार्यक्रमों का संचालन जनजातियों की मूल सांस्कृतिक धरोहर को क्षति पहुँचाये बिना किया जाना चाहिए।

 

वास्तव में जनजातीय पहचान का कार्य किसी व्यक्ति विशेष का नहीं है वरन् यह तो हम सबका है। जनजातीय जीवन-विधि को सुरक्षित बनाए रखने से जनजातियों को मानसिक व सामाजिक सुरक्षा प्राप्त होगी और धीरे-धीरे जनजातीय समाज व अन्तिम तौर पर भारतीय समाज की प्रगति हो सकेगी। इतना ही नहीं, ऐसा होने पर राष्ट्रीय एकीकरण के महान् लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकेगा।

प्रश्न 52. औद्योगीकरण ने नातेदारी व्यवस्था को किस प्रकार प्रभावित किया?

उत्तर-समाज में लोगों में सामाजिक संबंधों का विकास परिवार, विवाह तथा समान वंश परंपरा के कारण होता है। वास्तव में संबंध तथा संबोधन ही नातेदारी के आधार हैं। उदाहरण के लिए पितामह, पिता, भाई, बहन, चाचा, ताऊ आदि संबोधन सामाजिक संबंधों की स्थापना करते हैं।

रेडक्लिफ बाउन के अनुसार, “नातेदारी प्रथा वह व्यवस्था है जो व्यक्तियों को व्यवस्थित सामाजिक जीवन में परस्पर सहयोग करने की प्रेरणा देती है।”

चार्ल्स विनिक के अनुसार, “नातेदारी व्यवस्था में समाज द्वारा मान्यता प्राप्त वे संबंध आ जाते हैं जो कि अनुमानित तथा वास्तविक, वंशावली संबंधों पर आधारित हैं।”

औद्योगीकरण का नातेदारी व्यवस्था पर प्रभाव (Effect of Industrialization on Kinship System):

  1. औद्योगीकरण की प्रक्रिया के कारण ग्रामीण जनता रोजगार की तलाश में नगरों की ओर पलायन करती है।
  2. औद्योगीकरण के कारण प्राथमिक संबंध कमजोर हो जाते हैं तथा द्वितीयक संबंध महत्वपूर्ण हो जाते हैं।
  3. औद्योगीकरण के कारण आर्थिक संबंधों का विकास होता है जिससे सामाजिक संबंध के स्वरूप में परिवर्तन होने लगता है।
  4. औद्योगीकरण के कारण नगरीकरण की प्रक्रिया में तेजी आती है। सामाजिक संबंधों तथा सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन होने लगता है।
  5. औद्योगीकरण के कारण नये प्रकार के सामाजिक संबंध विकसित होने लगते हैं तथा नातेदारी व्यवस्था कमजोर होने लगती है।
  6. औद्योगीकरणके कारण सामाजिक अलगाव (Social Alienation), प्रतिमान हीनता (Normlessness) तथा व्यक्ति केन्द्रित जीवन पद्धति का विकास होने लगता है। इसके कारण नातेदारी संबंधों के स्थान पर राजनीतिक, व्यवसायी तथा पेशागत संबंधों का महत्व बढ़ता चला जाता है।

अंततः हम कह सकते हैं कि औद्योगीकरण की प्रक्रिया के कारण नातेदारी संबंध दिन-प्रतिदिन कम महत्वपूर्ण होते जाते हैं। द्वितीयक तथा तृतीयक संबंधों का बढ़ता हुआ विस्तार प्राथमिक संबंधों के दायरे को सीमित कर देता है।

प्रश्न 53. परिवार के राजनैतिक, सांस्कृतिक, धार्मिक कार्य लिखिए।

उत्तर-(i) राजनैतिक कार्य (Political Functions): बच्चों को राज्य के अनुसार आदर्श नागरिक बनाने का सर्वप्रथम कार्य परिवार द्वारा ही होता है। कनफ्यूसियस (Confucious) नामक विद्वान का मत है कि “मनुष्य सबसे पहले परिवार का सदस्य है और फिर राज्य का, जिसका निर्माण परिवार के रूप के अनुसार ही होता है।”

मेजिनी (Mazini) ने भी राजनैतिक क्षेत्र में परिवार की महत्वपूर्ण भूमिका को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “बच्चा माता के चुम्बन और पिता की वीर बाहों (संरक्षण) के मध्य नागरिकता का सर्वश्रेष्ठ पाठ सीखता है।”

(ii) सांस्कृतिक कार्य (Cultural Functions): परिवार संस्कृति के मूल तत्वों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित करता रहता है। आज के बच्चे अपने वृद्ध दादा-दादी या माता-पिता से सांस्कृतिक भावनाएँ, परम्पराएँ, मूल्य, आदर्श रीति-रिवाजों आदि को पारिवारिक वातावरण में धीरे-धीरे ग्रहण कर लेते हैं। इस क्षेत्र में परिवार का प्रभाव इतना प्रभावशाली होता है कि बच्चे संस्कृति की धरोहर को स्वयं में पचा लेते हैं और भविष्य में वे ही किसी परिवार के अभिभावक, माता-पिता आदि के रूप में इस धरोहर को अपने बच्चों को देते हैं। इस प्रकार परिवार संस्कृति की दृष्टि से महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता रहता है।

(iii) धार्मिक कार्य (Religious Functions): परिवार के कार्य बहुमुखी होते हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसका प्रभाव देखा जा सकता है और धार्मिक जीवन भी इसके प्रभाव से पूर्णतया मुक्त नहीं रहता। परिवार अपने-अपने बच्चों को अपने-अपने धर्मों के सार पूजा-पाठ, आराधना, इबादत, भक्ति आदि धार्मिक कृत्यों के लिए तैयार करता है जिससे धर्म विशेष का महत्व बना रहता है। कुछ भारतीय जनजातियों में धर्म और जादू के माध्यम से जीवन की अनेक समस्याओं को सुलझाने का ढंग परिवार में ही सिखा दिया जाता है। भारत में भी ग्रामीण समाजों में, परिवार

में किसी बच्चे के बीमार हो जाने पर पर धार्मिक आधार पर झाड़-फूंककर रोग के निदान का प्रयास किया जाता है।

प्रश्न 54. एकाकी परिवार से आप क्या समझते हैं ?

उत्तर-(1) एकाकी परिवार का अर्थ (Meaning of Nuclear Family) : एकाकी परिवार व्यक्तियों का एक ऐसा समूह होता है जिसमें पति, पत्नी तथा उनके अविवाहित बच्चे सम्मिलित होते हैं। एकाकी परिवार सबसे छोटी इकाई है। __एकाकी परिवार में निम्नलिखित नातेदारी संबंध (Kinship relationship) होते हैं-पति-पत्नी, पिता-पुत्र, पिता-पुत्री, माता-पुत्र, माता–पुत्री, भाई-बहन, बहन-बहन तथा भाई-भाई।

(2) पूरित एकाकी परिवार (Supplemented Nuclear Family)–पूरित एकाकी परिवार में एकाकी परिवार के सदस्यों के अलावा पति की विधवा माता या अविधुर पिता या उसके अविवाहित भाई तथा बहन सम्मिलित होते हैं।

(3) एकाकरी परिवर के उदय के कारण (Causes of the origin of Nuclear family)

(i) नगरीकरण तथा औद्योगीकरण की सामाजिक व आर्थिक प्रवृत्तियों के कारण लोग नगरों में आकर बसने लगते हैं।

(ii) नगरों में स्थानाभाव के कारण संयुक्त परिवार साधारणतया एक साथ नहीं रह पाते हैं।

(iii) आधुनिक विचारों तथा सभ्यता के कारण एकाकी परिवार लगातार महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं। डॉ. आर. के. मुखर्जी के अनुसार, ” इस प्रकार संयुक्त परिवार एक महत्वपूर्ण विशेषता खो रहा है।” संयुक्त परिवार द्वारा सम्पादित किए जाने वाले अनेक कार्य अन्य सामाजिक तथा आर्थिक संस्थाओं द्वारा किए जा रहे हैं। उदाहरण के लिए बीमा, पेंशन, छोटे बच्चों की देखभाल के लिए केन्द्र आदि।

(iv) जैसे-जैसे गाँवों में कृषि कार्यों का यंत्रीकरण हो रहा है तथा कृषि में लोगों की आवश्यकता अपेक्षाकृत कम होती जा रही है, वैसे वैसे गाँवों में भी एकाकी परिवार की प्रवृत्ति का उदय हो रहा है।

(4) एकाकी परिवार के गुण (Merits of Nuclear Family)

(i) परिवार के सदस्यों में परस्परिक घनिष्ठता।

(ii)परिवार के सदस्यों में आर्थिक समायोजन।

(ii) परिवार में सदस्यों को मनोवैज्ञानिक सुरक्षा।

(iv) व्यक्तित्व के विकास में सहायक।

(v) स्त्री का सम्मानपूर्ण दर्जा। (vi) बच्चों की अच्छी देखभाल।

(5) एकाकी परिवार के दोष (Demerits of Nuclear Family):

(i) बच्चों का समुचित पालन-पोषण नहीं हो पाता।

(ii) आपतियों का सामना नहीं कर पाता।

(iii) सुरक्षा की भावना का अभाव।

(iv) वृद्धावस्था में सुरक्षा का अभाव।

प्रश्न 55. नातेदारी की श्रेणियों की विवेचना कीजिए।

उत्तर-व्यक्ति सभी रिश्तदारों के साथ समान रूप से निकटता नहीं रखता। कुछ नातेदारों को सामाजिक व्यवहार में अत्यन्त निकट और आत्मीय माना जाता है, जबकि दूसरों के साथ कम निकटता होती है। आत्मीयता अथवा निकटता की मात्रा के आधार पर नातेदारी की कुछ श्रेणियाँ बन जाती हैं। इस प्रकार नातेदारों को हम निम्न श्रेणियों में रह सकते हैं :

(i) प्राथमिक नातेदारी (Primary Kinship) : आमने-सामने की प्रत्यक्ष रिश्तेदारी को प्राथमिक नातेदारी कहा जाता है। पिता और पुत्र, पति और पत्नी, भाई और बहन, भाई और भाई, माता और पुत्र, माता और पुत्री, बहन और बहन, ये सम्बन्ध प्राथमिक नातेदारी के संबंध कहलाते हैं, क्योंकि इनमें परस्पर प्रत्यक्ष संबंध होता है।

(ii) द्वितीयक नातेदारी (Secondary Kinship): व्यक्ति के प्राथमिक नातेदारों या स्वजनों के प्राथमिक स्वजन उसके लिए द्वितीयक स्वजन या द्वितीयक नातेदार होते हैं। जीजा एक द्वितीयक नातेदार हैं क्योंकि वह बहन (प्राथमिक) का प्राथमिक स्वजन है। इसी प्रकार चाचा व्यक्ति का द्वितीयक रिश्तेदार है क्योंकि वह उसके पिता का प्राथमिक स्वजन है।

(iii) तृतीयक नातेदारी (Tertiary Kinship) : प्राथमिक स्वजन का द्वितीयक नातेदार अथवा द्वितीयक नातेदार का प्राथमिक नातेदार व्यक्ति का तृतीयक नातेदार होता है। उदाहरण के लिए, माता की बहन का पति (मौसा) व्यक्ति का तृतीयक नातेदार होता है तथा जीजा की बहन व्यक्ति का तृतीयक रिश्तेदार बन जाती है। नातेदारी की यह शृंखला या श्रेणी चौथी, पाँचवीं या दसवीं स्थिति तक भी जा सकती है। मर्डोक ने एक व्यक्ति के लगभग 33 द्वितीयक और 151 तृतीयक नातेदारों की व्याख्या की है।

प्रश्न 56. रक्तमूलक एवं विवाहमूलक नातेदारी पर प्रकाश डालिए।

उत्तर-रक्तमूलक नातेदारी (Consanguineous Kinship): जिस परिवार में व्यक्ति जन्म लेता है उसके सदस्यों के साथ उसका रक्त संबंध होता है। माता-पिता के साथ संतान में और सहोदर में रक्त संबंध होता है। दूसरे शब्दों में जन्म के परिवार के सदस्यों के साथ व्यक्ति की रक्तमूलक रिश्तेदारी होती है। रक्तमूलक नातेदारी एक सामाजिक मान्यता है। पिता एक सामाजिक स्थिति है। यह आवश्यक नहीं कि व्यक्ति का सामाजिक पिता (जिसे समाज पिता मानता है) उसका जैविकीय पिता भी हो। बहुपति प्रथा वाली टोडा जनजाति में जो भाई पत्नी के गर्भवती होने पर तीर-कमान का संस्कार करता है, वही होने वाली संतान का पिता माना जाता है, चाहे जैविकीय दृष्टि से सन्तान किसी भी पति की हो। इसी प्रकार गोद ली हुई संतान भी गोद लेने वाले युवक की ही सन्तान मानी जाती है और वह उन्हें माता और पिता ही कहता है।

विवाहमूलक नातेदारी (Affinal Kinship): व्यक्ति दो परिवारों का सदस्य होता है। एक तो उसका मूल परिवार होता है जिसमें वह जन्म लेता है और दूसरा परिवार वह विवाह करके स्वयं बनाता है। विवाह करने के परिणास्वरूप व्यक्ति को नए रिश्तेदार मिल जाते हैं। जीजा, साली और साला, मौसा-मौसी, सास-ससुर, ननदोई-सलहज, देवर-जेठ, ननद-भाभी आदि के रिश्ते विवाह के कारण ही प्राप्त होते हैं। विवाह के आधार पर स्थापित होने वाली नातेदारी को विवाहमूलक नातेदारी कहा जाता है।

प्रश्न 57. परिवार के बदलते रूप के लिए सामाजिक कारक किस प्रकार जिम्मेदार

उत्तर-सामाजिक कारक (Social Factors): परिवार के बदलते रूप के लिए निम्न सामाजिक कारक जिम्मेदार हैं :

(i) जनसंख्या की गतिशीलता (Mobility of Population): विभिन्न प्रजातियों, देशों, संस्कृतियों आदि के लोगों के आपसी संपर्क से पारिवारिक मान्यताएँ, मूल्य, आदर्श आदि बदले हैं।

(ii) स्त्रियों की उच्च शिक्षा (Higher Education of Women) : स्त्रियों की उच्च शिक्षा के द्वारा विवाह की आयु बढ़ी है। अधिकारों के प्रति जागृति उत्पन्न हुई है, पुरुषों के स्वामित्व में अन्तर आया है और इस प्रकार पारिवारिक क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं।

(iii) नगरीकरण (Urbanization): नगरों के वातावरण में पारिवारिक जीवन की उसी (प्राचीन) रूप में बनाए रखना संभव नहीं हो पा रहा है, क्योंकि व्यावसायिक गतिशीलता के कारण पारिवारिक जीवन की रूपरेखा ही बदल गई है।

(iv) यौन संबंधों में परिवर्तन (Changes in Sexual Relations): परिवार में सीमित यौन संबंधों का दायरा बदल गया है, क्योंकि अब पुराने विचारों को न मानकर यौन संबंधों की तृप्ति अन्य प्रकार से कर रहे हैं।

(v) युवा वर्ग में क्रांति (Revolution in Young folk): सामाजिक जीवन की गतिशीलता बढ़ जाने के बाद युवा वर्ग पारिवारिक नियंत्रणों को उसी (प्रारंभिक) रूप में मानने के लिए तैयार नहीं है। इस कारण युवा वर्ग पारिवारिक मान्यताओं को चुनौती दे रहा है और उन्हें अस्वीकार कर रहा है।

प्रश्न 58. नातेदारी शब्दावली का अर्थ तथा उसके प्रकार बताइये।

उत्तर-(1) नातेदारी शब्दावली का अर्थ (Meaning of Kinship Terms): नातेदारी शब्दावली से अभिप्राय उन शब्दों से है जिनका प्रयोग विभिन्न प्रकार के संबंधियों को संबोधित करने के लिए किया जाता है। कुछ शब्दों (Terms) का प्रयोग उन सभी नातेदारों के लिए होता है, जिनमें कुछ समानताएँ पायी जाती हैं जबकि दूसरी तरफ, कुछ विशिष्ट नातेदारों के लिए एक विशिष्ट शब्द का प्रयोग किया जाता है।

(II) नातेदारी शब्दावली के प्रकार (Types of Kinship Terms): नातेदारी शब्दावली को तकनीकी रूप से विभिन्न प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है। मोरगन (Morgen) द्वारा .. नातेदारी शब्दावली को निम्नलिखित दो श्रेणियों में बाँटा गया है :

(1) वर्गत प्रणाली।

(ii) वा नात्मक प्रणाली।

(1) वांकृत प्रणाली (Classification System): वर्गीकृत प्रणाली के अन्तर्गत विभिन्न संबंधियों को एक ही श्रेणी में शामिल किया जाता है। इनके लिए समान शब्द प्रयोग किए जाते हैं। उदाहरण के लिए अंकल (Uncle) शब्द एक वर्गीकृत शब्द है जिसका इस्तेमाल चाचा, ताऊ, मामा, फूफा, मौसा आदि रिश्तेदारों के लिए किया जाता है। अंकल की भाँति कजिन (Cousin), नेफ्यू (Nephew) तथा इन-लॉ (In-law) सभी वर्गीकृत शब्दों की श्रेणी में आते हैं। उदाहरण के लिए, समधी एक वर्गीकृत शब्द है जिसका प्रयोग दामाद तथा पुत्र-वधू दोनों के माता-पिता के लिये किया जाता है। असम के सेमा नागा व्यक्तियों द्वारा अजा (Aja) शब्द का इस्तेमाल माता, चाची तथा मौसी के लिए किया जाता है।

(ii) वर्णनात्मक प्रणाली (Descriptive System): वर्णनात्मक प्रणाली के अन्तर्गत एक शब्द केवल एक ही संबंधी को इंगित करता है। इस प्रणाली में एक शब्द दो व्यक्तियों के मध्य निश्चित संबंध का वर्णन करता है। उदाहरण के लिए, माता तथा पिता वर्णनात्मक शब्द हैं। इसी प्रकार हिन्दी भाषा के चाचा, मामा, मौसा, ताऊ, साला, भांजा, नन्दोई, भाभी, भतीजा आदि वर्णनात्मक शब्द हैं, जो एक ही नातेदार को निर्दिष्ट करते हैं।

अंत में हम कह सकते हैं कि किसी एक नातेदारी शब्दावली अर्थात् वर्गीकृत प्रणाली या वर्णनात्मक प्रणाली का प्रयोग विशुद्ध रूप से नहीं किया जाता है। दोनों ही प्रणालियाँ मिले-जुले रूप में प्रचलित हैं।

प्रश्न 59. अतिपिछड़ा पर नोट लिखें।

[M.Q.2009A]

उत्तर-अतिपिछड़ा-आर्थिक सामाजिक दृष्टि से पहले जाति को अगड़े-पिछड़ों में बाँटा गया। लेकिन पिछड़ी जातियाँ में भी बहुत विभेद पाया गया तो कुर्मी एवं यादव जैसी जातियाँ भी अन्य पिछड़ों की पंजी में रखा गया और पिछड़ों में भी जो ज्यादा पिछड़े हैं उन्हें अति पिछड़ा कहा गया जैसे-कहार कानू, तेली आदि। ये हरिजनों से तो आगे हैं लेकिन अन्य-पिछड़ों से काफी पीछे। इसलिए बिहार सरकार ने पंचायतों में उनके लिए विशेष आरक्षण दिया है।

प्रश्न 60. जनजातीय आंदोलन के मुख्य आधारों को दर्शायें। [M.Q.2009A] –

उत्तर-जनजातीय आंदोलन, जनजातियों के विभिन्न स्तरों पर असंतोष, उत्पीड़न और शोषण पर आधारित है। सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक कारणों तथा साहूकारों एवं जमींदारों

के शोषण के विरुद्ध एवं भाषाई पहचान पाने आदि कारक इन आंदोलनों के मुख्य आधार रहे हैं। इस प्रकार यह संरचित असमानता, भेद-भाव एवं अंतहीन उपेक्षा के खिलाफ विद्रोह माना जाता है।

स्वस्थ मानव जीवन के लिए पर्यावरण की सुरक्षा आवश्यक है। इससे संबंधित प्रमुख आंदोलनों के चिपको आंदोलन, एपिको आंदोलन, माधव आशीष, रियो कॉन्फ्रेंस, मानव पर्यावरण समिति (1970), पर्यावरण (सुरक्षा) अधिनियम (1986), केन्द्रीय प्राधिकरण (1985), जल प्रदूषण निवारण और निवारण बोर्ड, बड़े बाँधों का विरोध तथा नशाखोरों के खिलाफ आंदोलन आदि उल्लेखनीय हैं।

प्रश्न 61. जाति व्यवस्था के दो प्रमुख प्रकार का वर्णन करें। [M.Q.2009A]

उत्तर-(क) जातीय व्यवस्था, जाति पंचायत के दंड का भय दिखाकर प्रथागत कानून को अधिक प्रभावी बनाता है। समाजीकरण के द्वारा एक व्यक्ति अपनी जाति की सांस्कृतिक मूल्यों को सीखता है तथा उसे अपनाता है।

ख) जाति व्यवस्था व्यक्ति की व्यवसाय-संबंधी अनिश्चितता को दूर करता है। इस व्यवसाय में प्रत्येक जाति अपने परम्परागत व्यवसाय को अपनाता है जिससे देश का आर्थिक विकास होता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तरोत्तर

(Long Answer Type Questions)

प्रश्न 1. जाति को परिभाषित कीजिए। जाति व्यवस्था की मुख्य विशेषताएँ बताइए।

उत्तर-साधारण अर्थ में जाति ऐसे वर्ग समूह का बोध कराती है जिसका आधार प्रजाति, नस्ल अथवा जन्म है।

फिर भी जाति के वास्तविक अर्थ को भली-भांति समझने के लिए विभिन्न समाजशास्त्रियों की परिभाषाओं का अध्ययन करना भी आवश्यक होगा, क्योंकि केवल शाब्दिक अर्थ से जाति की धारणा पूर्ण रूप से स्पष्ट न हो सकेगी। इसलिए कुछ प्रमुख समाजशास्त्रियों की परिभाषाएँ नीचे दी जा रही हैं :

  1. एस. वी. केतकर (S.V. Ketkar): “जाति एक ऐसा समुदाय है जिसकी दो विशेषताएँ हैं-(अ) इसके सदस्य वही होते हैं जो इसमें जन्म लेते हैं। (ब) इसके सदस्य इनके अपने सामाजिक नियमों के आधार पर अपने समुदाय के बाहर विवाह नहीं कर सकते हैं।”
  2. मजूमदार और मदान (Majumdar and Madan) : “जाति एक बन्द वर्ग है।”
  3. सी. एच. कूले (C. H. Cooley): “जब एक वर्ग लगभग पूर्णतया वंशानुक्रम पर आधारित होता है, तब हम उसे जाति कहते हैं।”
  4. एच. एच. रिजले (H. H. Risley): “जाति परिवार या परिवारों के समूह का संकलन है, जिसका एक सामान्य नाम है, जो अपने को एक काल्पनिक पुरुष अथवा देवता से उत्पन्न होने का दावा करती है। एक ही वंशानुगत व्यवसाय को करने का दावा करती है और उन लोगों की दृष्टि में सजातीय समुदाय बनाती है जो इस संदर्भ में अपना विचार देने योग्य हैं।”

उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि जाति जन्म पर आधारित ऐसा समूह है जो अपने सदस्यों को खान-पान, विवाह, व्यवसाय और सामाजिक सम्पर्क के सम्बन्ध में कुछ प्रतिबन्ध मानने के लिए निर्देशित करता है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जाति-व्यवस्था ऊँच-नीच स्थिति वाले अन्तर्विवाही समूहों में समाज का ऐसा खंडात्मक विभाजन है जिसका आधार जन्म है।

जाति-व्यवस्था की विशेषताएँ (Characteristics of Caste System): विभिन्न समाजशास्त्रियों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से जाति-व्यवस्था की विशेषताओं का विवेचन किया है। डॉ. जी. एस. घुरिये (Dr.GS.Ghurye) के मतानुसार जाति की निम्न विशेषताएँ हैं :

  1. खंडात्मक विभाजन (Segmental division of Society): जाति व्यवस्था की प्रथम विशेषता, हिन्दू समाज को विभिन्न खंडों में विभाजित करना है। इसके प्रत्येक खंड (ब्राह्मण,

क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) के सदस्यों की स्थिति, पद, कार्य, स्थान आदि भी निश्चित रहते हैं। इस प्रकार के विभाजन के परिणामस्वरूप भिन्न-भिन्न खंडों के सदस्य अपने खंड अथवा जाति के नैतिक कर्तव्यों से बँधे रहते हैं और सम्पूर्ण समुदाय या देश व्यक्तियों के लिए जाति की तुलना में गौण हो जाता है। इस संदर्भ में डॉ. जी. एस. धुरिये ने लिखा है, “इसका अभिप्राय यह है कि जातिबद्ध समाज में सामुदायिक भावना की मात्रा सीमित हो जाती है और नागरिकों की नैतिक निष्ठा सम्पूर्ण समुदाय की तुलना में अपनी जाति के प्रति पहले होती है।”

यदि कोई सदस्य जातीय नियमों अथवा प्रतिबंधों का उल्लंघन करता है तो उसे जाति से बहिष्कृत कर दिया जाता है अथवा जाति से हुक्का-पानी और रोटी-बेटी का सम्बध समाप्त कर दिया जाता है।

  1. संस्तरण (Heirarchy): जातिव्यवस्था के अन्तर्गत इन खंडात्मक विभाजनों में विभिन्न खंडों अथवा जातियों की स्थिति एक जैसी नहीं होती वरन् इनमें ऊँच-नीच का क्रम अथवा उतार-चढ़ाव का क्रम देखने को मिलता है। इस सोपान-क्रम में ब्राह्मणों की स्थिति सबसे ऊँची होती है और उसके बाद क्रमशः क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की स्थिति आती है। ब्राह्मण तथा अस्पृश्य जातियों के इन दो छोरों के मध्य अनेक जातियाँ स्थित होती हैं जिनकी सामाजिक स्थिति ब्राह्मणों के साथ उनके सम्पर्क की दूरी पर निर्भर करती है। ये बीच की जातियाँ अपने से ऊँची जातियों के साथ अधिक-से-अधिक सम्पर्क बढ़ाने का प्रयास करती हैं ताकि उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा उन्नत हो सके।

जाति व्यवस्था के इस संस्तरण में धन, प्रतिष्ठा एवं अन्य आधारों पर परिवर्तन संभव नहीं है। इसलिए प्रो. मजूमदार और मदान (Majumdar and Madan) का कहना उपयुक्त मालूम होता है कि “जाति एक बन्द वर्ग है।” (Caste is a closed class)

  1. भोजन व सामाजिक सहवास पर प्रतिबन्ध अथवा रोक (Restrictions on feeding and social intercourse): प्रत्येक जाति के अन्य जातियों के हाथ के बने भोजन के सम्बन्ध में कुछ नियम हैं। ब्राह्मणों के हाथ का बना भोजन प्रायः सभी जातियाँ खा लेती हैं। ब्राह्मण वैश्यों और क्षत्रियों के यहाँ पका भोजन (पूड़ी-कचौड़ी) ग्रहण कर लेते हैं, परंतु कच्चा भोजन (दाल-चावल) नहीं करते हैं। इस प्रकार भिन्न-भिन्न जातियों में खान-पान के कुछ निश्चित नियम होते हैं।
  2. भिन्न-भिन्न खंडों अथवा जातियों की सामाजिक व धार्मिक निर्योग्यताएँ (Civil and religious disabilities and privileges of different castes): जातिव्यवस्था की एक प्रमुख विशेषता छुआछूत पर आधारित है। सबसे अधिक अधिकार ब्राह्मणों को प्राप्त है और सबसे अधिक निर्योग्यताएँ अस्पृश्य अथवा हरिजनों के लिए हैं। दक्षिण भारत में हरिजनों की स्थिति दयनीय है। उच्च जातियों के लोगों का देखना भी इनका मौलिक अधिकार नहीं है। गाँवों में अस्पृश्यता के नियमों का कठोरता से पालन होता है। अब धीरे-धीरे परिस्थितियाँ बदल रही हैं।
  3. बिना रोक-टोक के व्यवसाय के चुनाव का अभाव (Lack of unrestricted choice of occupation): इस व्यवस्था के अनुसार विभिन्न जातियाँ अपने व्यवसायों को परम्परागत अथवा धर्म का आधार मानती हैं। यही कारण है कि ब्राह्मण पुरोहित के कार्य में और शूद्र सेवा अथवा मल-मूत्र उठाने में लगे रहते हैं। मुगल साम्राज्य की स्थापना के बाद यह प्रतिबन्ध ढीला होता गया है।
  4. विवाह सम्बन्धी प्रतिबन्ध (Restrictions on Marriage): प्रत्येक जाति अथवा उपजाति अपने सदस्यों के मध्य ही विवाह सम्बन्ध की अनुमति देती है। इस प्रकार जाति अन्तर्विवाही समूह (Endogamous group) है। वेस्टरमार्क (Westermark) ने अन्तर्विवाह को ‘जाति व्यवस्था का सार तत्व’ माना है।

आधुनिक युग में बदलती हुई परिस्थितियों के साथ इन विशेषताओं का धीरे-धीरे लोप होता जा रहा है।

प्रश्न 2. भारत में जातिव्यवस्था के उद्भव या उत्पत्ति की विवेचना कीजिए।

उत्तर-भारत में जातिव्यवस्था का उद्भव तथा उत्पत्ति (Growth and origin of caste system in India): जातिप्रथा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विभिन्न विचारकों ने विभिन्न सिद्धान्तों का वर्णन किया है और प्रत्येक ने अपने ही सिद्धान्त को जातिप्रथा की उत्पत्ति का आधार माना है। यहाँ पर कुछ प्रमुख सिद्धान्तों का वर्णन करना ही उचित है।

  1. परम्परागत सिद्धान्त (Traditional Theory): परंपरागत सिद्धान्त वेदों, महाकाव्यों तथा पुराणों पर आधारित है। इस सम्बन्ध में सबसे प्राचीन वर्णन ऋग्वेद के एक मन्त्र के रूप में मिलता है। इस मन्त्र के अनुसार ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रिय बाहु से, वैश्य जाँध से और शूद्र पैर से उत्पन्न हुए हैं। मनु ने इसी आधार पर प्रत्येक जाति के कार्यों को भी निर्धारित कर दिया। ब्राह्मणों की उत्पत्ति मुख से हुई, इसलिए ब्राह्मणों का कार्य अध्ययन और अध्यापन है जिससे सम्बन्धित है, जैसे देश की रक्षा, जीवन की रक्षा आदि करना क्षत्रियों का कर्तव्य है क्योंकि इसके द्वारा उचित राज्य-व्यवस्था स्थापित की जा सकती है। इसी प्रकार वैश्यों का कार्य व्यापार और कृषि करना है, शूद्रों का कार्य पैरों से उत्पत्ति होने के कारण तीनों वर्गों की सेवा करना है।

प्रारंभ में यह सामाजिक संस्तरण ‘जातिप्रथा’ के रूप में न होकर ‘वर्णव्यवस्था’ के रूप में था। इन चार वर्णों से अनुलोम व प्रतिलोम विवाह से उत्पन्न संतानों से भिन्न-भिन्न जातियाँ एवं उपजातियाँ विकसित हुईं।

आलोचना : 1. आज के वैज्ञानिक युग में मानव की उत्पत्ति के विषय में ऐसी कल्पना पर विश्वास करना बहुत कठिन है।

  1. हट्टन के अनुसार इस सिद्धान्त के आधार पर कृषि करने वाली विभिन्न जातियों की सामाजिक स्थिति बताना संभव नहीं है।
  2. अनुलोम-प्रतिलोम विवाह से ही नवीन जातियों की उत्पत्ति पूर्ण रूप से सत्य नहीं है।
  3. इस सिद्धान्त ने ‘वर्ण’ और ‘जाति’ में अनावश्यक भ्रम उत्पन्न कर दिया है जबकि दोनों ही धारणाएँ एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं।
  4. व्यावसायिक सिद्धांत (Occupational Theory) : नेसफील्ड (Nesfield) के अनुसार पेशों अथवा व्यवसायों के आधार पर जातिप्रथा की उत्पत्ति होती है। इस सिद्धान्त का मुख्य सार यह है, “पेशा और केवल पेशा ही भारत में जातिप्रथा की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी

(Function and function alone is responsible for the origin of caste system in India)|” नेसफील्ड का मत है कि कार्य अथवा पेशे की ऊँच-नीच अथवा अच्छाई-बुराई के अनुसार ही जातिव्यवस्था में ऊँच-नीच का भेदभाव पनपा और इस प्रकार समाज का खंडात्मक विभाजन (Segmental division) हुआ है। ऐसा विभाजन अथवा संस्तरण बहुत स्वाभाविक है और सभी समाजों में पाया जाता है। नेसफील्ड ने धार्मिक, प्रजातीय अथवा शारीरिक लक्षणों को जातियों को एक-दूसरे से अलग करने का आधार नहीं माना है। जातियों की भिन्नता अथवा भेदभाव पेशों की प्रकृति अथवा ऊँच-नीच पर आधारित है।

आलोचना : 1. डॉ. मजूमदार के अनुसार इस सिद्धान्त- का सबसे बड़ा दोष प्रजातीय (Racial) तत्वों की अवहेलना करना है।

  1. समाज की संस्था होने के कारण जातिप्रथा में धार्मिक तत्वों का समावेश रहता है, यद्यपि धर्म को ही मुख्य कारण मानना उचित नहीं है।
  2. भारतवर्ष में खेती करने वाले सब लोग एक ही जाति के नहीं हैं। हट्टन (Hutton) महोदय ने इसी आधार पर सिद्धान्त की आलोचना की है। इस सिद्धान्त से विभिन्न जातियों के मध्य पाई जाने वाली घृणा व विरोध की व्याख्या नहीं हो पाती।

अतः ऐसी स्थिति में यह कहना है कि “पेशा और केवल पेशा ही जाति-प्रथा की उत्पत्ति के लिए उत्तरदायी है” एक बहुत बड़ी दावा है।

  1. राजनीतिक सिद्धान्त (Political Theory) : यूरोपीय विचारकों ने जातिप्रथा को ब्राह्मणों द्वारा आयोजित एवं संचालित राजनीतिक योजना के रूप में प्रस्तुत किया है। इस सम्बन्ध में फ्रांसीसी विद्वान अबे डुबायस (Abbe Dubois) के अनुसार जातिव्यवस्था ब्राह्मणों द्वारा बनाई गई चतुर योजना है जो कि ब्राह्मणों ने अपने लिए, अपनी सत्ता को चिरस्थायी बनाये रखने के लिए तैयार की थी। ब्राह्मणों ने अपनी प्रभुसत्ता बनाये रखने के लिए धर्म का सहारा लिया और एक ऐसी योजना बनाई जिसमें अपना स्थान सर्वोपरि रखा और दूसरा स्थान उन लोगों को दिया जिनकी शक्ति के सहारे ब्राह्मण अपने हितों की रक्षा कर सकें। दूसरा स्थान प्राप्त करने वाले व्यक्ति क्षत्रिय कहलाये।

डॉ. जी. एस. धुरिये (Dr.GS.Ghurye) और इबेटसन (Ebbeston) ने भी इस सिद्धान्त से आशिक रूप से सहमति प्रकट की है। धुर्ये ने उचित ही लिखा है, “जातिप्रथा इंडो-आर्यन संस्कृति के ब्राह्मणों का बच्चा है जो गंगा-यमुना के मैदान में पला और वहाँ से देश के दूसरे भागों में ले जाया गया।” _अबे डुवॉयसे ने अपने मत की पुष्टि विभिन्न प्राचीन समाजों से की है। प्राचीन काल में भारतवर्ष में धर्म का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण था और धर्म से सम्बन्धित अथवा ब्राह्मण व्यक्तियों की स्थिति ऐसे समय में सर्वोपरि रही होगी। इस सर्वोपरि स्थिति से लाभ उठाते हुए ब्राह्मणों ने अपने पेशे को भी श्रेष्ठ प्रमाणित कर दिया। इस सिद्धान्त के अनुसार जातिप्रथा की उत्पत्ति इसी आधार पर हुई है।

आलोचना : 1. जातिप्रथा भारतीय समाज की एक मौलिक एवं अति प्राचीन संस्था है, इसलिए इसकी कृत्रिम रचना सम्भव प्रतीत नहीं होती, क्योंकि कृत्रिमता स्थिरता को प्राप्त नहीं होती।

  1. यह आश्चर्य का विषय है कि ब्राह्मणों की इस चतुर योजना को कोई 2,000 वर्ष तक न समझ सका।
  2. इसमें संदेह नहीं है कि इस प्रथा को चिरस्थायी बनाये रखने में ब्राह्मणों का काफी हाथ रहा है। 4. यह सिद्धांत प्रजातीय भेदों की पूर्ण रूप से अवहेलना करता है।

प्रश्न 3. जाति की उत्पत्ति के कोई तीन सिद्धांत लिखिए।

उत्तर-(क) उद्विकासीय या आर्थिक सिद्धान्त (Evolutionary or Economic Theory): डेनजिल इबेटसन (Denzil Ebbetson) का मत है कि जाति प्रथा की उत्पत्ति आर्थिक संघों (Guilds) से हुई, वर्ग से संघ बने और संघ से जाति का विकास हुआ है। अर्थव्यवस्था जब जटिल हो जाती है, तो श्रम-विभाजन की आवश्यकता होती है और राजा का यह कर्तव्य होता है कि वह राज्य की आर्थिक नीति को श्रम-विभाजन और व्यवसाय की भिन्नता पर आधारित करे। यह स्थिति सामाजिक वर्गों को जन्म देती है और एक तरह के व्यवसाय करने वाले आपस में सामुदायिक भावना से बँध जाते हैं और पृथक्-पृथक् संघों का निर्माण अपने हितों के लिए करते हैं। आर्थिक आधार पर बने इन संघों ने व्यवसाय सम्बन्धी भेदों को गुप्त रखने के लिए अन्तर्विवाही पद्धति को अपनाया और अपनी प्रतिष्ठा के लिए निरंतर संघर्ष जारी रखा। पुरोहितों के संघ की इस संघर्ष में विजय हुई और उन्होंने अपनी प्रभुता को चिरस्थायी बनाने के लिए अन्तर्विवाह करना प्रारंभ किया और अपने संघ पर दृढ़ता से कायम रहे। इस प्रकार देखा-देखी अन्तर्विवाही संघों की संख्या तीव्रता से बढ़ी और समाज के खंडात्मक विभाजन का निर्माण हुआ। यही जातिप्रथा का प्रारंभिक रूप था और इसी के अनुसार विभिन्न जातियों का जन्म हुआ।

आलोचना : 1. हट्टन (Hutton) का मत है कि व्यावसायिक संघ संसार के सभी समाजों में पाये जाते हैं, परंतु जातिप्रथा की उत्पत्ति भारत में ही क्यों हुई ?

  1. प्रो. मजूमदार का कहना है कि इस सिद्धान्त में प्रजातीय तत्वों की अनदेखी की गई है।

(ख) गिलबर्ट का भौगोलिक सिद्धान्त (Gilbert’s Geographical Theory): गिलबर्ट महोदय ने भौगोलिक परिस्थिति के आधार पर जातिप्रथा की उत्पत्ति को समझाया है।

 

उदाहरणार्थ सरस्वती नदी के किनारे रहने वाले सारस्वत ब्राह्मण कहलाये और पंजाब के आरह प्रदेश में रहने वाले लोग अरोड़ा कहलाये।

आलोचना : 1. यह सिद्धान्त भौगोलिक कारण को आवश्यकता से अधिक बल देता है।

  1. वास्तव में गिलबर्ट महोदय ने भौगोलिक पष्ठभूमि में व्यवसाय या पेशे को ही आधार माना है।

(ग) धार्मिक सिद्धान्त (Religious theory): इस सिद्धान्त के प्रमुख समर्थकों में होकार्ट (Hocart) और सेनार्ट (Senart) के नाम उल्लेखनीय हैं। श्री होकार्ट का कहना है कि प्राचीन समय में भारत में धर्म का महत्व अधिक था और धर्म की सामान्य अभिव्यक्ति (General expression) देवी-देवताओं को बलि चढ़ाने की प्रथा थी। जानवरों की बलि देने के काम के लिए कुछ ऐसे लोगों की सेवाओं की आवश्यकता होती थी जो कार्य कर सकें। प्रायः नीची सामाजिक स्थिति के अलावा दास लोग इस कार्य के लिए तैयार होते थे, क्योंकि धर्म के अन्तर्गत हत्या करना नीचे स्तर का अथवा अपवित्र कार्य समझा जाता है। इसी प्रकार धर्म के अन्तर्गत अनेक प्रकार के कृत्य सम्मिलित होते हैं। आज भी नाई, धोबी, कहार, माली आदि लोगों की सेवाएँ धार्मिक अवसरों पर आवश्यक होती हैं और धार्मिक कृत्यों के आधार पर बने ये समूह ही आगे चलकर विभिन्न जातियों के रूप में विकसित हुए। सेनार्ट (Senart) महोदय का कहना है कि एक देवता पर विश्वास करने वाले स्वयं को एक ही वंश तथा बंधन द्वारा बंधा हुआ मानते हैं और देवी-देवता को एक विशेष प्रकार का भोग चढ़ाते हैं। इन असमानताओं के आधार पर विभिन्न जातीय समूहों का निर्माण हुआ।

आलोचना : 1. जाति प्रथा एक सामाजिक संस्था है, धार्मिक आधार पर इसकी पूर्ण व्याख्या किस प्रकार सम्भव है ?

  1. सेनार्ट ने सामान्य पूर्वज की कल्पना करके जाति और गोत्र में भ्रम उत्पन्न कर दिया है। . (घ) प्रजातीय सिद्धान्त (Racial Theory): प्रजातीय सिद्धान्त के मानने वाले विचारकों का कहना है कि आर्य भारत के बाहर से आए थे, उन्होंने यहाँ के आदिवासियों को जीता और दास अथवा दस्यु का नाम दिया। आर्य लोगों ने स्क्त की शुद्धता बनाये रखने के लिए मूल निवासियों की लड़कियों को तो अपने में खपाया, परंतु अपनी लड़कियाँ मूल निवासियों को नहीं दी। इस प्रकार अनुलोम विवाह का क्रम तब तक चलता रहा जब तक कि स्त्रियों की आवश्यकता पूरी न हो गई। आवश्यकता पूर्ण हो जाने पर विभिन्न आक्रमणकारी समूह जातियों या अन्तर्विवाह समूहों में बदल गये। इस प्रकार अनुलोम विवाह (Hypergamy) द्वारा अनेक जातियाँ-उपजातियाँ बनीं। ये विचार रखने वालों में प्रमुख रूप से सर हर्बट रिजले थे। डॉ. जी. एस. घुरिये (Dr.G. S.Ghurye), प्रो.मजूमदार (Prof. Majumdar) तथा प्रो. एन. के. दत्त (N.K. Dutta) भी इसी विचारधारा को मानने वाले हैं।

आलोचना : 1. अगर आर्य और दास दो पृथक प्रजातियाँ होती तो वेद में इस प्रकार के मन्त्र का होना कहाँ तक उचित है ?-‘कृष्णवन्तो विश्वमार्यम्’ अर्थात् सबको आर्य अथवा श्रेष्ठ बनाओ।

  1. कर्म से ही भिन्न-भिन्न वर्ण अथवा बाद में जातियाँ बनी हैं क्योंकि ब्राह्मण काल और शूद्र गोरे भी दिखाई देते हैं।
  2. प्रजातीय आधार को एकमात्र कारक मानना उचित नहीं
  3. हट्टन के अनुसार बाहर से आये मुसलमान और ईसाई को नही एक जाति के बन सक?

(5) हट्टन का बहुकारक सिद्धान्त (Huttoni’sMultiple Theory) : हटन अनुसार यहाँ की जातिव्यवस्था को वर्तमान रूप देने में अनेक कारकों का योगदान रहा है केवल एक कारक से जातिप्रथा के वर्तमान रूप को नहीं समझाया जा सकता है। हट्टन ने जातिय की उत्पत्ति एवं विकास में सहायक 14 कारकों की एक सूची प्रस्तुत की है।

उपर्युक्त विवेन से स्पष्ट है कि जातिप्रथा की उत्पत्ति अनेक कारकों से हुई, किसी एक कारक का जातिप्रथा की उत्पत्ति में सब कुछ नहीं माना जा सकता है। इसकी उत्पत्ति में किस कारक का कितना भाग रहा है, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। वस्तुतः यह तो गन्वेषणा का विषय है।

प्रश्न 4. उपनिवेशवाद के कारण जाति व्यवस्था में क्या-क्या परिवर्तन आए ?

(NCERT T.B.Q.3)

उत्तर-उपरिवेशवाद और जाति (Colonialismand Caste): प्राचीन काल की तुलना में, हम अपनेवर्तमान के इतिहास में जाति के बारे में बहुत कुछ अधिक जानते हैं। यदि यह माना जाए कि आधुनिक इतिहास 19वीं शताब्दी के साथ प्रारंभ हुआ तो 1947 में प्राप्त भारतीय स्वतंत्रता को औपनिवेशिक काल (मोटे तौर पर 1800 से 1947 तक के लगभग 150 वर्ष) और स्वातंत्र्योत्तर अथवा औपनिवेशिक शासन के बाद के काल ‘1947 से आज तक छह दशक) के बीच स्वाभाविक विभाजक रेखा स्वीकार कर सकते हैं। एक सामाजिक संस्था के रूप में जाति के वर्तमान स्वरूप को औपनिवेशिक काल और साथ ही स्वतंत्र भारत में तीव्र गति से हुए परिवर्तनों द्वारा सुदृढ़तापूर्वक आकार प्रदान किया गया।

समाजशास्त्री इस बात पर सहमत हैं कि औपनिवेशिक काल के दौर में सभी प्रमुख सामाजिक संस्थाओं में और विशेष रूप से जाति व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन आए। वस्तुतः कुछ समाजशास्त्री तो कहते हैं कि आज जिसे हम जाति के रूप में जानते हैं वह प्राचीन भारतीय परंपरा की अपेक्षा उपनिवेशवाद की ही अधिक देन है।

(i) उपरिवेशवादी प्रयास : यह सभी परिवर्तन जान-बूझकर या सोच-समझकर नहीं लाए गए। प्रारंभ में, ब्रिटिश प्रशासकों ने देश पर कुशलतपपूर्वक शासन करना सीखने के उद्देश्य से जाति व्यवस्थाओं की जटिलताओं को समझने के प्रयत्न शुरू किए। इन प्रयत्नों के अंतर्गत देश भर में विभिन्न जनजातियों तथा जातियों की ‘प्रथाओं और तौर-तरीकों’ के बारे में अत्यंत सुव्यवस्थित रीति से गहन सर्वेक्षण किए गए और उनके विषय में रिपोर्ट तैयार की गई। अनेक ब्रिटिश प्रशासक प्रशासनिक अधिकारी होने के साथ-साथ शौकिया तौर पर नृजातिविज्ञानी भी थे और उन्होंने सर्वेक्षण तथा अध्ययन कार्यों में बहुत- रुचि ली।

(ii) जनगणना : जाति के विषय में सूचना एकत्र करने का अब तक का सबसे महत्वपूर्ण सरकारी प्रयत्न जनगणना के माध्यम से किया गया था। इसके बाद 1881 से तो जनगणना ब्रिटिश भारतीय सरकार द्वारा नियमित रूप से हर दस वर्ष बाद कराई जाने लगी। 1901 में हरबर्ट रिसले के निर्देशन में कराई गई जनगणना विशेष रूप से महत्वपूर्ण थी क्योंकि इस जनगणना के अंतर्गत जाति के सामाजिक अधिक्रम के बारे में जानकारी इकट्ठी करने का प्रयत्न किया गया अर्थात् किस क्षेत्र में किस जाति को अन्य जातियों की तुलना में सामाजिक दृष्टि से कितना ऊँचा या नीचा स्थान प्राप्त हैं और तदनुसार श्रेणी क्रम में प्रत्येक जाति की स्थिति निर्धारित कर दी गई। जाति के सामाजिक बोध पर इस प्रयास का गहरा प्रभाव पड़ा और विभिन्न जातियों के प्रतिनिधियों द्वारा जनगणना आयुक्त के पास सैकड़ों याचिकाएँ भेजी गईं जिनमें उन्होंने सामाजिक क्रम में अपनी जाति को अधिक ऊँचा स्थान देने की मांग की थी और अपने दावों के समर्थन में अनेक ऐतिहासिक तथा धर्मशास्त्रीय प्रमाण प्रस्तुत किए थे। कुल मिलाकर, समाजशास्त्री यह अनुभव करते हैं इस प्रकार की जातीय गणना और अधिकारिक रूप से जातियों की परिस्थिति का अभिलेख करने के प्रत्यक्ष प्रयास ने जाति संस्था के स्वरूप को ही बदल डाला। इस प्रकार के हस्तक्षेप से पहले जातियों की पहचान अपेक्षाकृत बहुत अधिक अस्थिर तथा कम कठोर थी। जब एक बार उनकी गणना गरंभ हो गई और उसे अभिलिखित किया जाने लगा तो फिर जाति का एक नया जीवन प्रारंभ हो गया।

(iii) भू-राजस्व व्यवस्था : औपनिवेशिक शासन द्वारा किए गए अन्य हस्तक्षेपों ने भी इस संस्था पर अपना प्रभाव डाला। भूराजस्व व्यवस्थाओं और तत्संबंधी प्रबंधों तथा कानूनों ने उच्च

जातियों के रूढ़िगत (जाति आधिारित) अधिकारों को वैध मान्यता देने का कार्य किया। अब ये जातियाँ, सामंती वर्गों के स्थान पर, आधुनिक अर्थों में भू-स्वामी यानी जमीन की मालिक बन गई और जमीन की उपज पर अथवा राजस्व या अन्य कई प्रकार के नजरानों पर उनका दावा स्थापित हो गया। पंजाब की तरह अन्य क्षेत्रों में भी बड़े पैमाने पर सिंचाई की योजनाएँ प्रारंभ की गईं और उनके साथ-साथ लोगों को वहाँ बसाने के प्रयल किए गए और इन प्रयत्नों का भी अपना एक जातीय आयाम था।

(iv) दलित कल्याण : इस क्रम के दूसरे सिरे पर औपनिवेशिक काल के अन्तिम दौर में, प्रशासन ने पददलित जातियों, जिन्हें उन दिनों ‘दलित वर्ग’ कहा जाता था, के कल्याण में भी रुचि ली। इन प्रयत्नों के अंतर्गत ही 1935 का भारत सरकार अधिनियम पारित किया गया जिसने राज्य द्वारा विशेष व्यवहार के लिए निर्धारित जातियों तथा जनजातियों की सूचियों या ‘अनुसूचियों को वैध मान्यता प्रदान कर दी। इस प्रकार ‘अनुसूचित जनजातियाँ’ और ‘अनुसूचित जातियाँ’ शब्द अस्तित्व में आए। जातीय अधिक्रम में जो जातियाँ सबसे नीचे थीं जिनके साथ सबसे अधिक भेदभाव बरता जाता था और जिनमें सभी तथाकथित ‘अस्पृश्य’ यानी अछूत जातियाँ शामिल थीं, उन्हें अनुसूचित जातियों की श्रेणी में शामिल किया गया।

इस प्रकार, उपनिवेशवाद ने जाति संस्था में अनेक प्रमुख परिवर्तन किए। शायद यह कहना अधिक समीचीन होगा कि औपनिवेशिक काल में जाति की संस्था में अनेक आधारभूत परिवर्तन आए। इस काल में, पूँजीवाद और आधुनिकता के प्रसार के कारण, भारत में ही नहीं बल्कि विश्व भर में तेजी से बदलाव आ रहा था।

प्रश्न 5. आधुनिक भारत में जाति के बदलते स्वरूप की चर्चा करें।

__ [M.Q.2009 A]

उत्तर-यही सही है कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था के एक अभिन्न अंग के रूप में जाति व्यवस्था लम्बे समय से चला आ रहा है, परन्तु पिछले कई शताब्दियों से एवं विशेषकर अंग्रेजों के आगमन के पश्चात् इसमें महत्त्वपूर्ण परिवर्तन देखे जा रहे हैं। जाति व्यवस्था में होनेवाले परिवर्तनों को इसकी प्रमुख विशेषताओं के संदर्भ में समझा जा सकता है। __जाति व्यवस्था की एक महत्त्वपूर्ण संस्तरण के आधार पर इसका खंडात्मक विभाजन है। संस्तरण का आधार पवित्रता-अपवित्रता (Purity / impurity) की सशक्त अवधारणा एवं उसके आधार पर समाज के विभिन्न जाति समूहों का ऊँच-नीच की भावना के आधार पर श्रेणीबद्ध होना परन्तु, अंग्रेजों के आगमन के पश्चात् एवं विशेषकर आजादी के पश्चात् भारतीय संविधान में समानता (Equality) के आदर्श को स्थापित किया गया है और छुआछूत को दंडनीय अपराध माना गया है। उसी प्रकार, खान-पान संबंधी प्रतिबंध एवं छुआ छूत की अवधारणा भी अब ढीले पड़ने लगे हैं। इसके साथ ही सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक गतिशीलता में भी वृद्धि हुई है, तथा देश के विभिन्न प्रांतों में राजनैतिक सत्ता एवं अधिकार मध्यमवर्गीय एवं निम्नवर्गीय जातियों के हाथों में चला गया है। सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक गतिशीलता में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। पेशाओं के जातिगत स्वरूप में भी बदलाव आ रहा है एवं उच्च पदों पर निम्न जातियों के योग्य सदस्यों की बहाली हो रही है। आरक्षण के प्रावधान ने निम्न एवं दलित जातियों की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक स्थिति में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन लाया है एवं भारत के कई क्षेत्रों में ये आज प्रमुख जाति के रूप में उभरकर सामने आ रहे हैं।

प्रश्न 6. किन अर्थों में नगरीय उच्च जातियों के लिए जाति अपेक्षाकृत अदृश्य हो गई

(NCERTT.B.Q.4)

उत्तर-समकालीन दौर में जाति व्यवस्था में हुए अत्यंत महत्वपूर्ण फिर भी विरोधाभासी परिवर्तनों में से एक परिवर्तन यह है कि अब जाति व्यवस्था उच्च जातियों, नगरीय मध्यम और उच्च वर्गों के लिए ‘अदृश्य’ होती जा रही है। इन समूहों के लिए, जो स्वातंत्र्योतर काल की

विकासात्मक नीतियों से सर्वाधिक लाभान्वित हुए हैं, जातीयता का महत्व सचमुच कम हो गया प्रतीत होता है क्योंकि अब इसका कार्य पूर्ण रूप से संपन्न हो चुका है। इन समूहों की जातीय स्थिति यह सुनिश्चित करने के लिए निर्णायक रही है कि इन समूहों की तीव्र विकास द्वारा प्रदत्त अवसरों का पूरा-पूरा लाभ उठाने के लिए आवश्यक आर्थिक तथा शैक्षिक संसाधन उपलब्ध हों। विशेष रूप से उच्च जातियों के संभ्रांत लोग आर्थिक सहायता प्राप्त सार्वजनिक शिक्षा, विशेष रूप से विज्ञान, प्रौद्योगिकी, आयुर्विज्ञान तथा प्रबन्धन में व्यावसायिक शिक्षा से लाभान्वित होने में सफल हुए। इसके साथ-साथ, वे स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद के प्रारंभिक दशकों में राजकीय क्षेत्र की नौकरियों में हुए विस्तार का भी लाभ उठा सकें। इस प्रारंभिक अवधि में, शेष समाज की तुलना में उनकी अग्रणी स्थिति (शिक्षा की दृष्टि से) ने यह सुनिश्चित कर दिया कि उन्हें किसी गंभीर प्रतिस्पर्धा का सामना नहीं करना पड़ा। उनकी दूसरी तथा तीसरी पीढ़ियों में जब उनकी विशेषाधिकार प्राप्त परिस्थिति और सुदृढ़ हो गई तब इन समूहों को यह विश्वास होने लगा कि उनकी प्रगति का जाति से अधिक लेना-देना नहीं था। निश्चित रूप से, इन समूहों की तीसरी पीढ़ी के लिए उनकी आर्थिक तथा शैक्षिक पूँजी अकेले ही यह सुनिश्चित करने के लिए पूर्णत: पर्याप्त है कि उन्हें जीवन में सर्वोत्तम अवसर प्राप्त होते रहेंगे। इस समूह के लिए, सार्वजनिक जीवन में जाति की कोई विशिष्ट भूमिका नहीं रही है, वह धार्मिक रीति-रिवाज, विवाह अथवा नातेदारी के व्यक्तिगत क्षेत्र तक ही सीमित है। किन्तु यह एक विशिष्टीकृत या विभेदित समूह है और इस तथ्य ने आगे एक और जटिलता उत्पन्न कर दी है। यद्यपि विशेषाधिकार अथवा सुविधा प्राप्त इस समूह में ऊँची जाति के लोगों का ही बाहुल्य है, लेकिन ऊँची जातियों के सभी लोगों को यह सुविधा प्राप्त नहीं है, उनमें से कुछ लोग गरीब भी हैं।

जहाँ तक तथाकथित अनुसूचित जातियों और जनजातियों तथा पिछड़े वर्गों का संबंध है, उनके लिए तो उपर्युक्त से विपरीत स्थिति ही घटित हुई है। उनके लिए, जाति और अधिक सुदृश्य हो गई, निस्संदेह उनकी जाति ने उनकी पहचान के अन्य सभी आयामों को समाप्त कर दिया है क्योंकि उन्हें विरासत में कोई शैक्षिक और सामाजिक पूँजी नहीं मिली है और उन्हें पहले से संस्थापित उच्च जाति समूह के साथ प्रतिस्पर्धा में उतरना पड़ रहा है। इसलिए वे अपनी जातीय पहचान को नहीं छोड़ सकते, क्योंकि यह उनकी बहुत थोड़ी सी सामूहिक परिसंपत्तियों में से एक है। इसके आगे, वे अभी भी विभिन्न प्रकार के भेदभाव के शिकार हैं। आरक्षण की नीतियाँ और राजनीतिक दबाव में आकर राज्य द्वारा उन्हें दिए गए अन्य संरक्षण ही उनके जीवन को बचाने वाले प्रमुख उपाय हैं। परंतु इन जीवन रक्षक साधनों का उपयोग करना ही उनकी जाति को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बना देता है और अक्सर यही उनकी पहचान का वह पक्ष होता है जिसे दुनिया मान्यता देती है।

इस प्रकार जाति रहित प्रतीत होने वाला उच्च जातीय समूह और प्रत्यक्ष रूप से जाति परिभाषित निम्न जातीय समूह इन दोनों समूहों का सन्निधान (पास-पास होना) ही आज की जाति संस्था का एक केन्द्रीय पक्ष है।

प्रश्न 7. जनजाति की प्रमुख विशेषताओं पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।

[B.M.2009 A]

उत्तर-जनजाति की विशेषताएँ (Characteristics of Tribe): जनजातियों की विशेषताओं के सम्बन्ध में सभी विचारक एकमत नहीं हैं। विभिन्न विचारकों ने अपने-अपने ढंग से जनजाति की विशेषताओं को स्पष्ट किया है। बोगार्ड्स ने लिखा है, “जनजातीय समूह रक्षा की आवश्यकता, रक्त-सम्बन्धों के बन्धन और एक सामान्य धर्म की शक्ति पर आधारित था।” -पैरी महोदय ने सामान्य भाषा और सामान्य भू-भाग को जनजाति के आवश्यक तत्वों के रूप में स्वीकार किया है। इन विभिन्नताओं और समानताओं के मध्य जनजाति की निम्नलिखित विशेषताओं का वर्णन किया जा सकता है :

  1. निश्चित सामान्य भू-भाग (Definite area): जनजाति का एक निश्चित और सामान्यभू-भाग होता है जिस पर वह निवास करती है। सामान्य भू-भाग की अनुपस्थिति में जनजाति में उसकी अन्य विशेषताएँ-सामुदायिक भावनाएँ, सामान्य बोली आदि-भी नहीं रहेंगी। इसलिए जनजाति के लिए एक सामान्य निवास स्थान आवश्यक है।
  2. एकता की भावना (Feeling of Unity) : किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र में निवास करने वाले प्रत्येक समूह को जनजाति नहीं कहा जा सकता जब तक कि उसके सदस्यों में परस्पर एकता की भावना न हो। यह मानसिक तत्व जनजाति की एक अनिवार्य विशेषता है।
  3. सामान्य भाषा या बोली (Common dialect or laugnage): जनजाति के सदस्य एक सामान्य भाषा बोलते हैं। इससे भी उसमें एकता की सामुदायिक भावना का विकास होता है।
  4. अन्तर्विवाही समूह (Endogamous group) : जनजाति के सदस्य सामान्यतया अपनी जाति में ही विवाह करते हैं परन्तु अब यातायात और संदेशवाहन के साधनों के विकास से अन्य जातियों से सम्पर्क में आने के कारण जनजातियों से बाहर विवाह करने की प्रथा भी बढ़ती जा रही है।
  5. रक्त-सम्बन्धों का बन्धन (Ties of blood relations): जनजाति में पाई जाने वाली सामुदायिक एकता की भावना का एक बड़ा कारण उनके सदस्यों में परस्पर रक्त-सम्बन्धों का बन्धन है। जनजाति के सदस्य अपनी उत्पत्ति किसी सामान्य, वास्तविक या काल्पनिक पूर्वज से मानते हैं और इसलिए अन्य सदस्यों से रक्त-सम्बन्ध मानते हैं। इन सम्बन्धों के आधार पर ही वे परस्पर बंधे रहते हैं।
  6. रक्षा की आवश्यकता का अनुभव (Feeling of need for protection) : जनजाति के सदस्य रक्षा की आवश्यकता का सदैव अनुभव करते हैं। इस आवश्यकता को दृष्टिगत रखकर जनजाति का राजनीतिक संगठन स्थापित किया जाता है और किसी एक व्यक्ति को शासन के समस्त अधिकार सौंप दिए जाते हैं। यह नेता अपनी शारीरिक और मानसिक शक्ति तथा चतुराई से सम्पूर्ण जनजाति की रक्षा करता है। जनजातीय मुखिया की सहायता करने के लिए एक जनजातीय समिति होती है जो मुखिया को परामर्श देती है। साधारणतया मुखिया समिति के परामर्श को मानता है। जनजाति अनेक छोटे-छोटे समूहों में बँटी होती है जिनके अपने-अपने मुखिया होते हैं। ये मुखिया अपने-अपने समूहों की समस्याओं को हल करते हैं और जनजाति के आदेश के अनुसार काम करते हैं।
  7. राजनीतिक संगठन (Political Organisation): इस तरह हर एक जनजाति का एक राजनीतिक संगठन होता है जो जाति के सदस्यों में सामंजस्य रखता है; उनकी रक्षा करता है और महत्वपूर्ण मसलों पर निर्णय देता है।
  8. धर्म का महत्व (Importance of Religion) : जनजाति में धर्म का बड़ा महत्व है। जनजातीय राजनीतिक तथा सामाजिक संगठन धर्म पर आधारित है क्योंकि धार्मिक स्वीकृति प्राप्त कर लेने पर सामाजिक और राजनीतिक नियम अनुल्लंघनीय बन जाते हैं। बोगार्ड्स के अनुसार, “जनजातियों में धर्म ने भी, विशेषतः पितृपूजा के रूप में, आज्ञापालन की आदत का विकास करने में महत्वपूर्ण सेवा की है।” (Religion, specially in the form of ancestor worship also rendered important service in developing the habit of common culture.)
  9. सामान्य नाम (Common Name): जनजाति का एक सामान्य नाम होता है।
  10. सामान्य संस्कृति (Common Culture): एकता की भावना, सामान्य भाषा, सामान्य धर्म, सामान्य राजनीतिक संगठन आदि के कारण जनजाति में एक सामान्य संस्कृति पाई जाती है।
  11. गोत्रों का संगठन (Organisation of Clans): जनजाति अनेक गोत्रों से मिलकर बनती है। उनके सदस्यों में परस्पर आदान-प्रदान के नियम होते हैं।

प्रश्न 8, जनजाति और जाति में अन्तर लिखिए।

उत्तर-जनजाति और जाति में अन्तर (Distinction between Tribe and Caste): जनजाति और जाति दोनों में अपने गोत्रों में विवाह करना मना है। दोनों में सामान्य रूप से समूह के बाहर विवाह अच्छा नहीं माना जाता है। आजकल यातायात तथा संदेशवाहन के विकास से अन्य समूहों से सम्पर्क बढ़ने के कारण दोनों में अन्तर्विवाह के नियम के बन्धन ढीले पड़ते जा रहे हैं। इन समानताओं के होते हुए भी जनजाति और जाति में निम्नलिखित अन्तर है :

  1. हरबर्ट रिजले के अनुसार, “जनजाति में अन्तर्विवाह का नियम कठोर नहीं होता परन्तु जाति में इस नियम का कठोरता से पालन किया जाता है।
  2. ‘Social Structures’ में मैक्स वेबर लिखते हैं कि जब कोई भारतीय जनजाति अपने प्रादेशिक महत्व को खो देती है तो वह भारतीय जाति का रूप धारण कर लेती है। इस प्रकार जनजाति एक स्थानीय समूह है जबकि जाति एक सामाजिक समूह है।
  3. जातिप्रथा हिन्दू समाज में विभिन्न कार्यों और व्यवसायों के आधार पर श्रम-विभाजन हेतु शुरू हुई थी। जनजाति एक समूह के निश्चित भू-भाग में रहने के कारण तथा सामुदायिक भावना के विकास से बनी।
  4. डॉ. डी. एन. मजूमदार के अनुसार, जनजाति हिन्दू कर्मकांड का अनुसरण तथा देवी-दवेताओं की पूजा करते हुए भी उन्हें विदेशी और विधर्मी प्रथाएँ समझती हैं, परन्तु जाति में ये धर्म के आवश्यक अंग माने जाते हैं। मध्य भारत (अब मध्य प्रदेश छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र का कुछ भाग) की हिन्दू और क्षत्रिय कहलाने वाली जनजातियाँ हिन्दू देवताओं की अपेक्षा अपने ‘बोंगा’ से अधिक परिचित हैं।
  5. मैक्स वेबर के अनुसार जाति में व्यक्तियों का पद एक ही होता है, इनमें कोई विशेषता या भेद नहीं होता, परन्तु जनजाति में पद और स्थिति के अनेक भेद पाये जाते हैं। ___मैक्स वेबर का यह मत सभी जातियों पर नहीं लागू होता है। बहुत-सी जातियों में भी पद और स्थिति का अन्तर होता है।
  6. जाति में ऊँच-नीच का भाव जनजाति से अधिक होता है।
  7. जाति कभी राजनीतिक समिति नहीं होती, परन्तु जनजाति राजनीतिक समिति होती है।
  8. जातियों में गोत्रों के नमा किसी ऋषि या काल्पनिक महापुरुष के नाम पर होते हैं; जैसे वशिष्ठ, विश्वामित्र, भारद्वाज, कश्यप आदि। जनजाति में गोत्र टोटमों के आधार पर होते हैं; जैसे कि मैसूर की कोमती जनजाति में आँवला, नींबू, कद्दू, चना, लाल, कमल, नील कमल, करेला, चिचिड़ा, उड़द, केला, सन, अनार, गेहूँ, दाल, खजूर, गूलर, ईख, मूली, जायफल, सरसों, चन्दन, इमली, सिन्दूर, कपूर आदि गोत्र हैं। ‘Caste and Tribes of Southern India’ में थर्सटन ने जनजातियों के टोटमों की जो सूची दी है उससे यह प्रतीत होता है कि प्राणी अथवा वनस्पति जगत का शायद ही कोई नाम ऐसा बचा हो जिसके आधार पर टोटम का नाम न हो।
  9. जाति में व्यक्ति अधिकतर अपने निश्चित व्यवसाय करते हैं क्योंकि जाति व्यवस्था में कार्यों का विभाजन किया जाता है। जनजाति में व्यक्ति कुछ भी व्यवसाय कर सकते हैं क्योंकि उसका व्यवसाय से कोई निश्चित सम्बन्ध नहीं है।

फिर भी अब जनजातियाँ क्रमश: जाति के रूप में परिवर्तित होती जा रही हैं। सर हरबर्ट रिजले ने इस परिवर्तन की निम्नलिखित चार प्रक्रियाओं का उल्लेख किया है :1) वंशावली बदलवाकर, (2) हिन्दू धर्म के किसी सम्प्रदाय के सिद्धान्तों को मानकर, (3) हिन्दू धर्म में शामिल होकर, (4) बिना नाम बदले हिन्दुओं में शामिल होकर।

डी. एन. मजूमदार के अनुसार जनजाति किसी जाति का गोत्र और नाम ग्रहण करके भी हिन्दू समाज में घुल-मिल जाती है।

इन परिवर्तनों के कारण जाति और जनजाति का अन्तर कम होता जा रहा है।

प्रश्न 9. जनजातियों के वर्गीकरण पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।

उत्तर-जनजातियों या आदिवासियों का वर्गीकरण (Classification fo Tribes): डॉ. डी. एन. मजूमदार ने आदिवासियों को तीन बड़े वर्गों में विभाजित किया है

(1) उत्तरी-पूर्वी वर्ग के आदिवासी : भातर के उत्तरी-पूर्वी वर्ग के आदिवासी असम, मेघालय, मिजोरम, अरुणाचल, मणिपुर और त्रिपुरा के प्रदेशों में पाये जाते हैं। ये तिब्बत और बर्मा (म्यांमार) के सीमावर्ती इलाकों, दुर्गम पर्वतमालाओं तथा जंगलों में रहते हैं। इनकी जनसंख्या लगभग 40 लाख है। प्रजाति की दृष्टि से ये मंगोल हैं। अधिकतर लोग तिब्बत-बर्मी वंश की बोलियाँ बोलते हैं। इनमें कुछ बोलियाँ आग्नेय परिवार की मोनखमेर भाषा से मिलती-जुलती हैं।

इस क्षेत्र में बसने वाली जनजातियों में उल्लेखनीय हैं-सुबनसिरी नदी के पश्चिम में बसी हुई आका, डफला, गुरंग, आपाटनी जनजातियाँ, दिहांग घाट की कालांश, मिनयंग, पासी, नरम और पंगी जनजातियाँ, दिवोंग तथा लोहित नदियों के बीच की मिछमी जनजातियाँ, अधिक पूर्व में खामीर सिफो जनजातियाँ तथा उससे ऊपर पटकोई पर्वतमाला के दोनों ओर सुप्रसद्धि नागा जनजाति। इन जनजातीय क्षेत्रों के अलावा असम राज्य में बड़ोकचारी, देअरी, होजाई, कचायरी, लालंग, मेच, मिरि और रामा जनजातियाँ हैं। असम के स्वतंत्र जिलों तथा जनजातीय क्षेत्रों में अबीर, शेरडुकपेन, डिमासा, गारो, हाजंग, खासी, जयन्तिया, कुकी, लखेर, लुशाई, मिकिर और सिटेंग जनजातियाँ तथा मणिपुर और त्रिपुरा में भी कूकी, लुशाई तथा नागा प्रजातियाँ हैं।

उत्तरी-पूर्वी वर्ग के आदिवासियों में सर्वाधिक प्रसिद्ध जनजाति नागा है। यह पाँच बड़े भागों में विभाजित हैं-उत्तर में रंगयन और कोयनक, नागा, पश्चिम में रेंगमा, सेमा तथा अंगामी नागा, केन्द्रीय भाग में आओ, ल्होटा, फोम चंग, संतम तथा थिमस्त-संगर नागा तथा दक्षिण में कच और कबुई नागा तथा पूर्व में तंग-खुल और कल्याकेंगु नागा। नागा नाम संस्कृत के ‘नग्न’ शब्द से बना है क्योंकि इनमें से बहुत-से लोग नग्न ही रहते हैं। इनके शारीरिक लक्षण हैं-गठा हुआ शरीर, थोड़ी चपटी नाक, कुछ मोटी आँखें, सफाचट दाढ़ी मूंछे तथा माथे पर कटे हुए बाल। केवल कुछ अवसरों पर गुप्तांगों को ढक लेते हैं। पुरुष कभी-कभी चुस्त कपड़े, गले में बालों की रस्सी में गुथी हुई कौड़ियों की माला, भुजाओं में कसी हुई गोल चूड़ियाँ तथा कानों में पीतल की बालियां और सिर पर कंगूरेनुमा टोप पहनते हैं। स्त्रियाँ नीले रंग का कढ़ा हुआ लहँगा, हँसली, बाजूबंद और कौड़ियों का बना हुआ हार पहनती हैं। इन लोगों को गोदना गुदवाने का बड़ा शौक होता है। इनके हथियारों में विशेष तौर से भाला, खाँडा या डाओ तथा तीरकमान का प्रयोग किया जाता है। इनके मुख्य उद्यम शिकार, खेती, कपड़े बुनना, रुई का व्यापार, लोहारी, बढ़ईगिरी, बर्तन बनाना, बाँस की चीजें बनाना तथा सूअर, मुर्गियाँ, गाय, बैल, कुत्ते आदि पालना तथा मछली मारना आदि हैं। ये कबीले के बाहर विवाह करते हैं, कहीं-कहीं पर बहुपतित्व की प्रथा भी प्रचलन में है। तलाक की प्रथा. है। अंत्यन्त खूखार होने पर भी ये नाच-गानों में रुचि रखते हैं। ये बड़े अंधविश्वासी और खूखार होते हैं। नरहत्या इनके लिए खेल से अधिक नहीं है। परन्तु भारत सरकार के प्रयत्न से नागाओं में अब धीरे-धीरे सभ्यता बढ़ रही है।

  1. केन्द्रीय वर्ग के आदिवासी : इस वर्ग में बंगाल, बिहार, झारखंड, दक्षिणी उत्तर प्रदेश, दक्षिणी राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तरी बम्बई (महाराष्ट्र) और उड़ीसा शामिल हैं। क्षेत्रफल तथा आदिवासियों की संख्या की दृष्टि से यह प्रदेश सबसे बड़ा है। इसमें केवल संथालों की संख्या ही 25 लाख से अधिक है। पूर्व से पश्चिम की ओर चलने पर इस क्षेत्र की सबसे महत्वपूर्ण जनजातियाँ हैं-खोंड या कंध, संथाल, सौरा या सरव, गोंड, हो, भुइया या भूयाँ, ओराँव, बंजारा, बिंझल, खरिया या खड़िया और जुआँग। उड़ीसा प्रान्त में आदिवासियों की संख्या 50 लाख से अधिक है। बिहार, झारखंड की जनसंख्या का दसवाँ भाग आदिवासी है जिनकी संख्या कुल 58,10,887 है। ये बिहार के दक्षिणी भाग विशेषतया छोटानागपुर के पठार में बड़ी संख्या में रहते हैं। ‘बिहार के पश्चिम में विन्ध्य पर्वतमाला में कोल और भील बसे हुए हैं।’ भील तो

उत्तर-पश्चिम में अरावली पर्वतमाला तक चले गए हैं। गोंडवाना तथा भूतपूर्व हैदराबाद, बस्तर (छत्तीसगढ़) और कंकर राज्यों में गोंड रहते हैं। कोरकू, अंगोरिया, परधान और बंगा जातियाँ सतपुड़ा पर्वत के दोनों ओर मेवल पहाड़ियों में बसी हुई हैं। पहले के बस्तर राज्य (अब छत्तीसगढ़) में माड़िया तथा मुड़िया जनजातियाँ पाई जाती हैं। ये गोंड हैं। राज्यों के पुनर्गठन से मध्य भारत के मध्य प्रदेश में सम्मिलित हो जाने से अब इस प्रदेश में आदिवासियों की संख्या राज्य की कुल जनसंख्या का 23 प्रतिशत है।

केन्द्रीय वर्ग के क्षेत्र के निवासी आग्नेय परिवार की भाषाएँ बोलते हैं। इन पर पड़ोसी हिन्दुओं का बड़ा प्रभाव पड़ा है। ये शिकार और अन्न-संग्रह की अवस्था से निकलकर अब ‘झूम’ खेती करते हैं। पहले ये बल्कल (पेड़ों की छाल) के कपड़े पहनते थे। अब सूती कपड़े प्रयोग करते हैं! ये टोकरी बनाने और लकड़ी पर नक्काशी का काम करते हैं। इनमें कुछ उन्नत जातियों में ग्रामीण पंचायत और लोकतंत्रीय आधार पर बनी हुई आखेट-परिषद् भी होती हैं जो गाँवों के आपसी झगड़े निपटाती है। प्रजाति की दृष्टि से ये प्रायः प्रोटो-आस्ट्रेलॉयड हैं। इनमें -‘बी’ रक्त-समूह अधिक पाया जाता है।

  1. दक्षिण क्षेत्र के आदिवासी : आदिवासियों का दक्षिणी क्षेत्र कृष्णा नदी तथा 16 उत्तरी अक्षांश के दक्षिण में है। ये सबसे अधिक पश्चिमी घाट के पहाड़ों में वाइनाड से कन्याकुमारी तक पाए जाते हैं। मद्रास प्रान्त (अब आंध्र प्रदेश) की सबसे प्रसिद्ध जनजाति टोडा, उटकमंड के आसपास नीलगिरि की पहाड़ियों में रहती है। आन्ध्र राज्य की चंचु जाति कृष्णा नदी के पार नल्ल-मल्लै की पहाड़ियों में रहती है। केरल में भारत की सबसे पुरानी जनजातियाँ मिलती हैं जिनमें अधिक संख्या काडर जनजाति की है। केरल के ये आदिवासी केवल शिकार और अन्न-संग्रह करके अपना पेट भरते हैं। कुछ समय पूर्व तक इनका एकमात्र वस्त्र पत्तों या घास की बनी कोपीन मात्र था। दक्षिणी क्षेत्र की कुछ जनजातियों में कहीं-कहीं मातृ-मूलक व्यवस्था भी पाई जाती है। डॉ. गुहा के अनुसार, “काडर, इरुला और पुलयन जातियों में नीग्रिटो प्रजाति की कुछ विशेषताएँ मिलती हैं।”

अन्य अदिवासी : उपर्युक्त तीन क्षेत्रों के अलावा अंडमान और निकोबाद द्वीप में जारवा, ओंगे, अंडमानी और निकोबारी जनजातियाँ पाई जाती हैं। उत्तर में हिमालय प्रदेश की दुर्गम पर्वतमालाओं में गद्दी, गुज्जर, जाट, लम्बा, खम्पा, कनोरा, लाहौल तथा पंगवाल आदि जनजातियाँ रहती हैं। मुख्य रूप से ये चम्बा जिले के लाहौल तथा महास जिले के स्पीति प्रदेश में बसी हुई हैं। इनमें अधिकतर में पशुपालन और खेती का कार्य होता है। इस उत्तरी प्रदेश के उत्तर में हिमालय के पहाड़ी क्षेत्र में भी आदिवासी पाए जाते हैं। इनमें मुख्य जनजातियाँ हैं-देहरादून जिले के जौनसारी, अल्मोड़ा तथा अस्कोट में राजी या वनमानुष, भोक्सा, भूइया, भूटिया, बोरा, खाखाड़ और यास। सिक्किम तथा दार्जिलिंग के उत्तरी भाग में लेपचा लोग रहते हैं।

भारत में आदिवासियों की इन जनजातियों के सामाजिक जीवन की विस्तृत जानकारी करने के लिए अभी बहुत खोज करने की आवश्यकता है।

प्रश्न 10. भारत में जनजातियों की वर्तमान स्थिति पर प्रकाश डालिए।

उत्तर-जनजाति एक क्षेत्रीय समूह होती है। इसकी अपनी एक अलग भाषा होती है। तब तक अंग्रेजों का जनजातीय क्षेत्रों में प्रवेश करना आरंभ नहीं हुआ था तब तक जनजातियों ने अपने अस्तित्व को बनाए रखा था, लेकिन जब जंगलों और खनिजों का दोहन करना आरम्भ हुआ तो आदिवासियों के रूप में सस्ते श्रमिक उपलब्ध होने लगे। आदिवासियों का बाहरी संसार से सम्पर्क होने पर उनके जीवन में परिवर्तन आने लगे। उन्होंने अपनी भूमि खो दी। उन्हें जबरदस्ती उस व्यवस्था में शामिल किया गया जिसके बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं थी। आदिवासी अनेक प्रकार के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक शोषण के लक्ष्य बन गये। जब उन्होंने भूमि और जंगली उत्पादों पर अधिकार और अपनी संस्कृति पर खतरा देखा तो अंग्रेजी शासकों के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए भी तैयार हो गये।

स्वतंत्र भारत में भी उन्होंने बहुत से आंदोलन चलाये हैं। भूमि और जंगली उत्पादों के अधिकार, नौकरी, ट्रेनिंग सुविधा और आय के अपने स्रोतों को लेकर, उनकी सुरक्षा के लिए इन्होंने आन्दोलन चलाये हैं। इन क्षेत्रों में अन्य लोगें के आने से जो खतरा उत्पन्न हो गया है और जिनसे उनकी परंपरागत संस्कृति को खतरा बना हुआ है, उसके लिए उन्होंने लगातार अपने संघर्ष को जारी रखा है। स्वतंत्र भारत में विकास के नाम पर उन्हें उनकी भूमि से बेदखल किया गया। आज वे अपनी सजातीय पहचान, सांस्कृतिक और आर्थिक हितों को बचाने के लिए राजनीतिक ताकत प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहे हैं। सरकार द्वारा जो सुविधाएँ आदिवासियों के लिए उपलब्ध कराई जा रही हैं, वे उन तक नहीं पहुंच रही हैं। आदिवासियों में जो धनवान और शक्तिशाली हैं वे ही उन सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। ऐसे प्रयत्न किए जाने चाहिए जिससे की आधुनिकीकरण और आर्थिक विकास के लाभ उन तक पहुँच सकें।

प्रश्न 11. भारत में जनजातियों का वर्गीकरण किस प्रकार किया जाता है?

(NCERTT.B. Q:5)

उत्तर-जनजातीय समाजों का वर्गीकरण : जहाँ तक सकारात्मक विशिष्टताओं का संबंध है, जनजातियों को उनके ‘स्थायी’ तथा ‘अर्जित’ विशेषकों के अनुसार विभाजित किया गया है। स्थायी विशेषकों या लक्षणों में क्षेत्र, भाषा, शारीरिक विशिष्टताएँ और पारिस्थितिक आवास सम्मिलित हैं।

स्थायी विशेषक : भारत की जनजातीय जनसंख्या व्यापक रूप से विस्तृत है लेकिन कुछ क्षेत्रों में उनकी जनसंख्या काफी घनी है। जनजातीय जनसंख्या का लगभग 85% भाग ‘मध्य भारत’ में रहता है जो पश्चिम में गुजरात तथा राजस्थान से लेकर पूर्व में पश्चिम बंगाल और उड़ीसा तक विस्तृत है और जिसके हृदय-स्थल (मध्य भाग) में मध्य प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र तथा आंध्र प्रदेश के कुछ भाग स्थित हैं। जनजातीय जनसंख्या के शेष 15% में से 11% से अधिक पूर्वोत्तर राज्यों में और 3% से थोड़े-से अधिक शेष भारत में रहते हैं। यदि हम राज्य की जनसंख्या में जनजातियों के हिस्से पर दृष्टिपात करें तो पाएँगे कि पूर्वोत्तर राज्यों में इनकी आबादी सब से घनी है, वहाँ असम को छोड़कर सभी राज्यों में उनका घनत्व 30% से अधिक है और अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम और नागालैंड जैसे कुछ राज्यों में तो जनजातीय जनसंख्या 60% से अधिक और 95% तक है। किन्तु, देश के शेष भागों में जनजातीय जनसंख्या बहुत छोटी है यानि उड़ीसा और मध्य प्रदेश को छोड़कर शेष सभी राज्यों में 12% से कम है। इनके पारिस्थितिक आवासों में पहाड़ियाँ, वन, ग्रामीण मैदान और नगरीय औद्योगिक इलाके शामिल हैं।

भाषायिक विभाजन : भाषा की दृष्टि से, जनजातियों को चार श्रेणियों में विभाजित किया गया है। इनमें से दो श्रेणियों अर्थात् भारतीय-आर्य और द्रविड़ परिवार की भाषाएँ शेष भारतीय जनसंख्या द्वारा भी बोली जाती हैं और जनजातियों में लगभग 1% लोग ही भारतीय-आर्य परिवार की भाषाएँ और लगभग 3% लोग द्रविड़ परिवार की भाषाएँ बोलते हैं। दो अन्य भाषा समूह, आस्ट्रिक और तिब्बती-बर्मी, प्राथमिक रूप से जनजातीय लोगों द्वारा बोले जाते हैं जिनमें से आस्ट्रिक परिवार की भाषाएँ पूर्ण रूप से जनजातीय लोगों द्वारा और तिब्बती-बर्मी परिवार की भाषाएँ 80% से अधिक जनजातियों द्वारा ही बोली जाती हैं। शारीरिक-प्रजातीय दृष्टि से, जनजातियों को नीग्रिटो, आस्ट्रैलॉइड, मंगोलॉइड, द्रविड़ और आर्य श्रेणियों में वर्गीकरण किया गया है। भारत की जनसंख्या का शेष भाग भी द्रविड़ और आर्य श्रेणियों के अंतर्गत आता है।

जनसंख्या के आकार की दृष्टि से जनजातियों में बहुत अधिक अंतर पाया जाता है, सबसे बड़ी जनजाति की जनसंख्या लगभग 70 लाख है जबकि सबसे छोटी जनजाति यानी अंडमान द्वीपवासियों की जनसंख्या शायद 100 व्यक्तियों से भी कम है। सबसे बड़ी जनजातियाँ गोंड, भील, संथाल, ओराँव, मीना, बोडो और मुंडा हैं। इनमें से सभी की जनसंख्या कम-से-कम दस लाख है। 2001 की जनगणना के अनुसार जनजातियों की कुल जनसंख्या का लगभग 8.2% या लगभग 8.4 करोड़ व्यक्ति है।

अर्जित विशेषक : अर्जित विशेषकों पर आधारित वर्गीकरण दो मुख्य कसौटियों आजीविका के साधन और हिन्दू समाज में उनके समावेश की सीमा अथवा दोनों के सम्मिश्रण पर आधारित है। ___आजीविका पर आधारित : आजीविका के आधार पर, जनजातियों को मछुआ, खाद्य संग्राहक और आखेटक (शिकारी), झूम खेती करने वाले, कृषक और बागान तथा औद्योगिक कामगारों की श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। लेकिन अकादमिक समाजशास्त्र और राजनीति तथा सार्वजनिक मामलों में अपनाए जाने वाले सबसे प्रभावी वर्गीकरण इस बात पर आधारित हैं कि हिन्दू समाज में अमुक जनजाति को कहाँ तक आत्मसात् किया गया है। इस आत्मसात्करण को जनजातियों के दृष्टिकोण से (जैसा कि अक्सर होता है) प्रबल हिंदू मुख्य धारा के दृष्टिकोण से देखा जा सकता है। जनजातियों के दृष्टिकोण से, आत्मसात्करण की सीमा के अलावा, हिन्दू समाज के प्रति अभिवृत्तियों के बीच काफी अंतर होता है क्योंकि जनजातियों का हिंदुत्व की ओर सकारात्मक झुकाव होता है। जबकि कुछ जनजातियाँ उसका प्रतिरोध या विरोध करती हैं। मुख्य धारा के दृष्टिकोण से, जनजातियों को हिन्दू समाज में मिली परिस्थिति की दृष्टि से भी देखा जा सकता है जिसमें कुछ को तो ऊँचा स्थान दिया जाता है पर अधिकांश को आमतौर पर नीचा स्थान ही मिलता है।

प्रश्न 12. संयुक्त परिवार से क्या अभिप्राय है ? संयुक्त परिवार कितने प्रकार के होते हैं ?

उत्तर-मनुष्य समाज में परिवार एक बुनियादी और सार्वभौमिक इकाई है। यह सामाजिक जीवन की निरंतरता, एकता और विकास के लिए आवश्यक है। मनुष्य में जाति सृजन तथा वंश संरक्षण की प्राकृतिक प्रेरणा होती है। इसी प्रेरणा से परिवार तथा घर का जन्म हुआ। परिवार पति-पत्नी और उनकी संतान से मिलकर बनता है। समाजशास्त्र में परिवार का अध्ययन आवश्यक प्रतीत होता है। यह समाज की महत्वपूर्ण इकाई है।

भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में परिवार का आकार भिन्न-भिन्न होता है। कुछ समाजों में बड़े आकार के परिवार को संयुक्त परिवार (Joint family) कहा जाता है। कुछ समाजों में परिवार का आकार छोटा होता है जिसे मूल परिवार या एकाकी परिवार (Nuclear family) कहते हैं। भारतीय समाज में परंपरागत रूप से पाये जाने वाले परिवार को संयुक्त परिवार कहा जाता है। भारतीय समाज की इकाई व्यक्ति न होकर संयुक्त परिवार ही रही है। यह वह आधार स्तंभ है जिस पर भारतीय समाज रूपी भवन सदियों से खड़ा है। संयुक्त परिवार से अभिप्राय एक ऐसे परिवार या गृहस्थ समूह से है जिसमें माता-पिता, दादा-दादी, चाचा-चाची, भाई-बहन, अविवाहित भाई-बहन सभी शामिल होते हैं। वे एक रसोई का भोजन करते हैं। साझी सम्पत्ति रखते हैं।

इरावती कर्वे के अनुसार, “एक संयुक्त परिवार उन व्यक्तियों का समूह है जो सामान्यतः एक भवन में रहते हैं, जो एक रसोई में पका हुआ भोजन खाते हैं, जो सामान्य सम्पत्ति के स्वामी होते हैं तथा जो किसी न किसी प्रकार से एक-दूसरे के रक्त संबंधी हैं।”

सामान्यतः एक संयुक्त परिवार में तीन या अधिक पीढ़ियों के सदस्य एक साथ रहते हैं तथा सम्पत्ति, आय और पारस्परिक अधिकारों के दायित्व के द्वारा एक-दूसरे से संबंधित होते हैं।

संयुक्त परिवारों का वर्गीकरण : संयुक्त परिवारों का वर्गीकरण वंश के आधार पर निम्न प्रकार से किया जा सकता है :

  1. मातृसत्तात्मक परिवार।
  2. पितृसत्तात्मक परिवार।
  3. मातृसत्तात्मक परिवार : ऐसे परिवार जिनमें माता या परिवार की अन्य स्त्री के नाम पर वंश चलाता है और उसकी प्रधानता होती है मातृसत्तात्मक परिवार कहते हैं। इस प्रकार के परिवार दक्षिण में मालाबार के क्षेत्रों में विशेष रूप से नायर जाति में पाये जाते हैं।
  4. पितृसत्तात्मक परिवार : ऐसे परिवार जिनमें पिता या किसी अन्य पुरुष के नाम पर वंशावली चलती है तथा परिवार में पुरुष की प्रधानता होती है पितृसत्तात्मक परिवार कहलाते हैं।

भारत में सभी स्थानों पर ऐसे परिवार पाये जाते हैं। विवाह के पश्चात् बेटी अपनी ससुराल में । रहती है। पारिवारिक सम्पत्ति का हस्तान्तरण पिता से पुत्रों के हाथ में होता है।

मातृसत्तात्मक परिवारों की संख्या भारत में कम है। बच्चे अपनी माँ के नाम से जाने जाते हैं। विवाह के बाद पति या तो अपनी पत्नी और उसके परिवार के साथ रहने जाता है या कुछ समाजों में अपनी बहन के साथ रहता है। पारिवारिक सम्पत्ति का हस्तांतरण माँ से बेटी के हाथ में होता है पर वास्तव में यह मामा की देख-रेख में होता है। प्रबंधन का अधिकार मामा से भांजे को हस्तांतरित होता है। मातृसत्तात्मक परिवार प्रायः संयुक्त परिवार होता है।

प्रश्न 13. संयुक्त परिवार की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। [B.M.2009A]

उत्तर-श्रीमती इरावती कर्वे (Smt. Iravati Karve) के अनुसार, ‘संयुक्त परिवार एक ऐसा समूह है जिसके सदस्य सामान्यतः एक छत के नीचे रहते हैं, एक रसोई का बना खाना खाते हैं, सामूहिक रूप से सम्पत्ति में साझीदार होते हैं, पारिवारिक पूजा में सामूहिक रूप से भाग लेते हैं तथा एक-दूसरे से सगोत्रता के संबंध में जुड़े होते हैं।”

सुयंक्त परिवार की विशेषताएँ : भारत में संयुक्त परिवर की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :

  1. सामूहिक निवास-स्थान और रसोई, 2. बड़ा आकार, 3. सामूहिक सम्पत्ति, 4. सामूहिक कर्मकांड और उत्सव, 5. कर्ता की भूमिका, 6. समाजवादी व्यवस्था, 7. सामान्य सामाजिक कर्तव्य, 8. आर्थिक स्थिरता, 9. सुरक्षा।
  2. सामूहिक निवास स्थान और रसोई : परिवार के सभी सदस्य एक छत के नीचे रहते हैं। पूरा घर छोटे-छोटे कमरों में विभाजित होता है। साथ रहने से परिवार के विभिन्न सदस्यों के बीच सामूहिक भावना विकसित होती है। पूरे घर के लिए एक ही रसोईघर होता है।
  3. बड़ा आकार : सामान्यत: एक संयुक्त परिवार में 2 या 3 पीढी से अधिक के व्यक्ति होते हैं। 20-25 सदस्यों के परिवार में सभी पीढ़ियों के लोग होते हैं। नगरों की अपेक्षा गाँवों में संयुक्त परिवारों का बड़ा आकार देखने को मिलता है जिसमें दादा-दादी, पोता-पोती, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, चचेरे भाई-बहन आदि होते हैं।
  4. सामूहिक सम्पत्ति : परिवार की सम्पत्ति में सभी सदस्यों को सामुदायिक अधिकार प्राप्त होते हैं। सभी लोग अपनी क्षमता के अनुसार काम करते हैं और एक संयुक्त कोष में परिवार के सभी लोगों को आमदनी को जमा किया जाता है। संयुक्त परिवार का धन खर्च करने का उत्तरदायित्व परिवार के कर्ता पर होता है।
  5. सामूहिक कर्मकांड और उत्सव : हर संयुक्त परिवार का अपना रीति-रिवाज तथा कर्मकांड होता है जिसका निर्धारण जाति मूल्यों और धार्मिक कर्तव्यों के आधार पर होता है।

सामूहिक पारिवारिक देवता को कुल देवता कहा जाता है।

  1. कर्ता की भूमिका : घर में निर्णय लेने और शांति तथा अनुशासन बनाए रखने का उत्तरदायित्व कर्ता का होता है। सभी सदस्य परिवार के कर्ता के पास अपनी आय को जमा करा देते हैं। घर की सम्पूर्ण सम्पत्ति पर उसका नियंत्रण होता है। धार्मिक अनुष्ठान भी उसी के मार्गदर्शन में सम्पन्न होते हैं। घरेलू झगड़ों को वही निपटाता है। उसे परिवार में सभी अधिकार प्राप्त होते हैं।
  2. समाजवादी व्यवस्था : पारिवार के सभी सदस्य परिवार की भलाई के लिए कार्य करते हैं और सबके कर्तव्य समान होते हैं। परिवार की सम्पत्ति पर सभी सदस्यों का अधिकार होता है। प्रत्येक सदस्य से उसकी क्षमता के अनुसार और प्रत्येक को उसकी आवश्यकता के अनुसार सिद्धांत का पालन किया जाता है। परिवार के सदस्य मिलजुल कर एक ही कार्य को सम्पन्न करते हैं। उत्पादन कार्य में स्त्री-पुरुष और बच्चे सहयोग देते हैं।
  3. सामान्य सामाजिक कर्तव्य : परिवार के सदस्य परस्पर अधिकारों और कर्तव्यों की भावना के साथ जुड़े होते हैं। वे विवाह, जन्म-मृत्यु आदि अवसरों पर साथ होते हैं। कर्तव्य-बोध की भावना से सभी सदस्य एक सूत्र में बंधे रहते हैं।
  4. आर्थिक स्थिरता : सभी सदस्यों द्वारा कमाया गया धन एक ही कोष में जमा होने से और आवश्यकतानुसार व्यय करने से परिवार की आर्थिक स्थिति बिगड़ने नहीं पाती और आर्थिक स्थिरता बनी रहती है।
  5. सुरक्षा : एकाकी परिवार में कम सदस्य होते हैं। उनमें से यदि कोई बीमार पड़ जाये या भ्रमण के लिए चला जाये तो परिवार के कार्यों में बाधा पड़ जाती है। संयुक्त परिवार में ऐसी कोई बाधा नहीं होती। सभी सदस्य एक-दूसरे परिवार के लिए कार्य करते हैं।

प्रश्न 14. संयुक्त परिवार प्रथा के गुण-दोषों की विवेचना कीजिए।

उत्तर-संयुक्त परिवार भारतीय समाज की एक प्रमुख विशेषता है। यह अनादिकाल से प्रचलन में है। संयुक्त परिवार व्यवस्था भारतीय सामाजिक संगठन की रीढ़ समझी जाती है। यह प्राचीन संस्था समाज की दृष्टि से अनेक महत्वपूर्ण कार्य करती है। इसमें पाया जाने वाला स्थायित्व इसके गुणों के कारण ही है। यह व्यवस्था भारतीय सामाजिक संगठन के लिए वरदान रही है। यद्यपि औद्योगीकरण और नगरीकरण के इस युग में इस व्यवस्था का पतन आरंभ हो गया और एकाकी परिवार पनप रहे हैं लेकिन संयुक्त परिवार प्रथा अपने सदस्यों को आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने वाली एक व्यवस्था रही है।

संयुक्त परिवार भारतीय समाज की एक ऐसी इकाई है जिसमें दो या तीन से अधिक पीढ़ियों के रक्त व विवाह संबंधी नातेदार रहते हैं। उन सभी सदस्यों की एक सामान्य सम्पत्ति होती है, एक ही चूल्हे पर सब भोजन बनाते हैं, सभी लोग किसी न किसी देवी था देवता की पूजा करते हैं, सभी सदस्य एक-दूसरे के साथ मिलकर रहते हैं और एक ही कोष से व्यय करते हैं।

संयुक्त परिवार के गुण :

  1. जैविक पुनरुत्पादन : संतान की विधिसम्मत उत्पत्ति परिवार का प्रमुख कार्य है। बच्चों के लालन-पालन की जिम्मेदारी विस्तृत नातेदारी समूह द्वारा मिल-बाँटकर पूरी की जाती है। बच्चे परिवार के लिए लाभदायक समझे जाते हैं और माता-पिता के लिए बुढ़ापे में सहारा बनते हैं।
  2. बच्चों का समाजीकरण : संयुक्त परिवार बच्चों के लिए प्राथमिक पाठशाला का कार्य करता है। छोटे बच्चे बड़े बच्चों की नकल करते हैं। उनसे अच्छी-बुरी आदतें सीखते हैं। दादा-दादी बच्चों को कहानियाँ सुनाकर सहयोग, बलिदान, सहनशीलता और सहानुभूति की भावनाओं का विकास करते हैं। परिवार बच्चों को सम्पूर्ण सामाजिक मनुष्य के रूप के विकसित होने में सहायता करता है। स्त्री और पुरुष के रूप में अपने अधिकार और कर्तव्य सीखने पर जोर देता है। परिवार अपने बच्चों की शिक्षा, नौकरी और विवाह के विषय में निर्णय लेता है।
  3. सामाजिक नियंत्रण का साधन : संयुक्त परिवार एक ऐसी इकाई है जो कर्ता के मार्गदर्शन में कार्य करता है। परिवार के कर्ता को असीमित अधिकार प्राप्त होते हैं। परिवार के वरिष्ठ सदस्य छोटे बच्चों की अनुशासनहीनता और असामाजिक गतिविधियों पर नियंत्रण रखते हैं। परिवार अपने सदस्यों को अनुशासित और सदाचारी व्यक्ति बनने में सहयोग देता है।
  4. कल्याण : परिवार का प्रमुख कर्तव्य छोटे बच्चों, अपाहिजों, बीमार लोगों और बुजुर्गों की सेवा व उपचार करना है। परिवार अबोध बच्चों, गर्भवती महिलाओं और दूध पिलाने वाली माताओं की विशेष देखभाल करता है। अपने सदस्यों को विशेष रूप से संकट के समय अधिकतम सुरक्षा प्रदान करने में समर्थ होता है। संयुक्त परिवार अपने सदस्यों के लिए एक सहायक मित्रतापूर्ण सामाजिक वातावरण का निर्माण करता है। मनोरंजन और सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने का अवसर प्रदान करता है।
  5. उत्पादन, वितरण और उपभोग : उत्पादन की पारिवारिक व्यवस्था का आधार स्त्री-पुरुष के बीच श्रम विभाजन होता है। स्त्रियाँ सामान्य रूप से घरेलू कार्यों को करती हैं और पुरुष घर से बाहर कार्य करते हैं।
  6. सुरक्षा की भावना : परिवार के सदस्य आपस में प्रेम के बंधन में बंधे रहते हैं जिसके कारण सभी सदस्य शारीरिक, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा अनुभव करते हैं। सुरक्षा की दृष्टि से यह एक प्रकार की बीमा कम्पनी की तरह कार्य करता है। विपत्ति काल में बच्चों, अपाहिजों, वृद्धों, विधवाओं की सुरक्षा की समस्या का हल परिवार में ही हो जाता है। बीमारी और प्रसवकाल में पूरी सावधानी बरती जाती है। वृद्धावस्था में भोजन, वस्त्र और आवास की सुविधा उपलब्ध हो जाती है। .
  7. व्यक्तित्व का विकास : संयुक्त परिवार में बच्चों का पालन-पोषण वृद्धों की दख-रेख में होता है। बच्चों के शारीरिक, संवेगात्मक, समाजिक और भौतिक विकास में संयुक्त परिवार का बहुत बड़ा योगदान होता है।
  8. भूमि का विखडन से बचाव : पारिवारिक सम्पत्ति पर जब पूरे परिवार का अधिकार होता है तो कोई व्यक्ति अपनी भूमि को बेच नहीं सकता अत: भूमि छोटे-छोटे टुकड़े होने से बच जाती है।
  9. संस्कृति की रक्षा : संयुक्त परिवार में प्रत्येक सदस्य उस ढंग से कार्य करते हैं जैसे कि उनके पूर्वज करते आये हैं। वे परिवार की परम्पराओं, प्रथाओं और धार्मिक व्यवस्था के अंतर्गत अपने व्यवहार को मोड़ लेते हैं। इससे सांस्कृतिक परम्पराएँ निरंतर चलती रहती हैं।
  10. श्रम-विभाजन के लाभ : परिवार के सदस्यों को उनकी योग्यता और क्षमता के अनुसार कार्य सौंपे जाते हैं। इससे श्रम-विभाजन के लाभ प्राप्त होते हैं।
  11. सामूहिक जीवन को प्रोत्साहन : संयुक्त परिवार व सदस्यों में त्याग और परोपकार की भावना होती है जो कि सामुदायिक जीवन के लिए अति आवश्यक है।

संयुक्त परिवार प्रथा भारतीय समाज की एक प्रमुख संस्था है परंतु समय के परिवर्तन के साथ इसमें कुछ दोष भी दिखाई पड़ने लगे हैं। आज यह संस्था विघटित होती जा रही है। संयुक्त परिवार प्रथा में निम्नलिखित दोष दिखाई पड़ते हैं :

  1. पारिवारिक कलह : संयुक्त परिवार में छोटी-छोटी बातों पर कलह हो जाती है। आपसी तालमेल और समायोजन की कमी भी दिखाई पड़ती है। सास-बहू, पिता-पुत्र, भाई-भाई के बीच कलह का वातावरण परिवार के विघटन का कारण बन जाता है।
  2. स्त्रियों की दुर्दशा : संयुक्त परिवार में स्त्रियों की स्थिति शोचनीय बन जाती है। स्त्रियों को अधिक कार्य करना पड़ता है। परिवार में बच्चों की संख्या अधिक होती है। इससे परिवारों में स्त्रियों के स्वास्थ्य का ध्यान नहीं रह पाता। प्रायः रूढ़िवादिता के कारण परिवार में स्त्रियाँ अशिक्षित रह जाती हैं।
  3. गोपनीय स्थान का अभाव : संयुक्त परिवार में अधिक सदस्यों के होने के कारण गोपनीय स्थान की कमी रहती है। कभी-कभी नव-विवाहित जोड़े के बीच आत्मीयता का अभाव रहता है। मतभेद और कटुता से विरोध भावना उत्पन्न हो जाती है। यौन संबंधों में गोपनीयता नहीं रह पाती। परिवार में युवक-युवतियों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। विवाहित युवा स्त्रियों को अधिकांश समय परिवार के सभी सदस्यों की आवश्यकता पूर्ति में खर्च हो जाता है। इससे उन्हें उचित तरीके से आनंद उठाने या अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देने का समय नहीं मिल पाता।
  4. भय का वातावरण : संयुक्त परिवारों में परिवार के वृद्ध लोगों का शासन सभी सदस्यों पर रहता है। बिना उनकी इच्छा के कोई सदस्य काम नहीं कर सकते। सदस्य गलत कार्य से तो बचते ही हैं साथ ही अच्छे कार्यों को करने में सर्वदा घबराते हैं।
  5. व्यक्तित्व के विकास में बाधा : संयुक्त परिवार में जब कोई सदस्य कोई नया काम करने का प्रयास करता है तो उसके कार्य पर आवश्यकता से अधिक नियंत्रण रखा जाता है। व्यक्ति अपनी इच्छा को मारकर रूढ़िवादिता का दास बन जाता है। कर्ता का निरंकुश शासन होने के कारण वह अपने व्यक्तित्व का पूर्णतया विकास नहीं कर पाता। संयुक्त परिवार की निरंकुशता व्यक्ति की गतिशीलता में बाधक होती है।
  6. रूढ़ियों और परम्पराओं का बोलबाला : कई पीढ़ियों के सदस्य साथ-साथ रहते हैं। वृद्धजन रूढ़ियों से अधिक जकड़े होते हैं इसलिए प्रगतिवादी विचारों का पनपना कठिन हो जाता है। युवक पश्चिमी शैली के व्यक्तिवाद के पक्षधर होते हैं और पारंपरिक मूल्यों को अधिनायकवादी, पक्षपातपूर्ण और अन्यायपूर्ण मानकर उनका विरोध करने लगते हैं। घर की शांति भंग हो जाती है।
  7. अप्राकृतिक वातावरण : संयुक्त परिवार में पिता बेटे से, पति-पत्नी से, भाई-बहन से, माता-पिता अपने बच्चों से प्यार से बैठकर उनकी समस्याओं को सुनने का समय नहीं मिलता। परिवार का वातावरण अप्राकृतिक रहता है। पति-पत्नी कृत्रिम और अस्वाभाविक परिस्थिति में मिलते हैं। इनमें प्रेम का विकास तो दूर रहा मामूली परिचय भी नहीं हो पाता।

प्रश्न 15, संयुक्त परिवार में हो रहे परिवर्तनों पर एक संक्षिप्त निबंध लिखिए।

उत्तर-संयुक्त परिवार से अभिप्राय एक ऐसी परिवार या गृहस्थ समूह से है जिसमें माता-पिता, दादा-दादी, भाई-भाभी, चचेरे भाई-बहन, अविवाहित भाई-बहन सभी सम्मिलित होते हैं। ये सब एक छत के नीचे रहते हैं, एक रसोई का पका हुआ भोजन खाते हैं तथा सामान्य सम्पत्ति रखते हैं।

संयुक्त परिवार भारतीय समाज की एक ऐसी इकाई है जिसमें दो या तीन से अधिक पीढ़ियों के रक्त व विवाह संबंधी नातेदार रहते हैं। उन सभी सदस्यों की एक सामान्य सम्पत्ति होती है, सभी सदस्य मिलकर रहते हैं।

कुछ समय पूर्व तक व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में संयुक्त परिवार का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। प्रारम्भिक समाजीकरण का कार्य, शिक्षा का कार्य, मनोरंजन का कार्य, बीमा कार्य, वृद्धावस्था में सुरक्षा कार्य आदि संयुक्त परिवार का उत्तरदायित्व रहा है। आज समाज में इन कार्यों को करने के लिए क्रमशः मातृत्व केन्द्र, स्कूल, जीवन बीमा निगम, ऋण देने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाएँ स्थापित हो गई हैं। अत: संयुक्त परिवार का महत्व और आवश्यकता घटती चली गई। अब व्यक्ति अपने परिवार से अलग रहकर भी अपनी अधिकतर आवश्यकताएँ पूरी कर लेता है। _ संयुक्त परिवार प्रथा में अब निम्नलिखित परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं :

  1. पति-पत्नी संबंध : पहले संयुक्त परिवारों में निर्णय लेने में पत्नी की भूमिका सहायक की थी, परन्तु समकालीन घरों में पत्नी, अपने पति के बराबर सक्रिय भूमिका निभाती है। पति-पत्नी अब घर के कार्य और बाहर के कार्य दोनों में सहयोग प्रदान करते हैं।
  2. माता-पिता और बच्चों का संबंध : प्रारंभिक घरों में शक्ति और अधिकार पूरी तरह से कां के हाथ में होता था और वह शिक्षा, व्यवसाय एवं बच्चों के विवाह की दृष्टि से निर्णय लेने के लिए असीमित अधिकार रखते थे। समकालीन परिवारों में अब यह स्थिति नहीं रही। आजकल अधिकतर परिवारों में माता-पिता और बच्चे सामूहिक रूप से मिल-जुलकर निर्णय करने लगे हैं।
  3. सास-ससुर के साथ बहू का संबंध : आजकल शिक्षित बहु अपने ससुर के साथ पर्दा नहीं रखती। सास-बहू के संबंध में अब पहले की तुलना में कम कटुतापूर्ण है। सास का पद अब इतना शक्तिशाली नहीं रहा है।
  4. एकाकी परिवारो का चलन : अब संयुक्त परिवारों के स्थान पर एकाकी परिवारों का चलन तेजी से बढ़ रहा है।

अधिकतर भारतवासी आज भी संयुक्त परिवार में रहते हैं और सदस्यों के बीच भावनात्मक संबंध बना रहता है। यद्यपि परिवार के मुखिया का महत्व अब कमजोर पड़ रहा है तथा संयुक्त परिवार के आदर्श और प्रथाएँ तेजी से बदल रही हैं। परंतु भारत में संयुक्त परिवार का महत्व कम नहीं हुआ है।

प्रश्न 16. नाभिकीय परिवारों (एकाकी परिवारों) से क्या तात्पर्य है ? इनकी विशेषताएँ बताइये।

उतर-यद्यपि भारत के अधिकतर सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक समूहों में संयुक्त परिवार का सांस्कृतिक मूल्य रहा है। परंतु आधुनिक काल में नगरीकरण, औद्योगीकरण, पश्चिमी शिक्षा के प्रसार और पश्चिमीकरण की प्रक्रिया जैसे कारकों से संयुक्त परिवार प्रथा के स्थान पर एकाकी परिवारों का चलन बढ़ रहा है। नाभिकीय परिवार के रूप में एक अलग सांस्कृतिक मूल्य का भी प्रसार हुआ है। आधुनिक संचार के साधनों ने भी नाभिकीय परिवार के नये सांस्कृतिक मूल्य के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यद्यपि महानगरों में स्थान की कमी के कारण छोटे आकार के नाभिकीय परिवार और घर का चलन लोकप्रिय हो रहा है। नगरों में मध्य वर्ग के लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। यह पश्चिमी शैली की व्यक्तिवादी विचारधारा के सबसे अधिक प्रभाव में रहने वाला वर्ग है। मध्य वर्ग के पेशेवर लोगों ने छोटे परिवार के मूल्य को स्वीकार कर लिया है। इस वर्ग के लोगों में अधिक आयु में विवाह करने का चलन है। विवाह के बाद पुत्र का कार्यस्थल दूर हो सकता है इसलिए संयुक्त परिवार के आदर्श को मानते हुए भी संयुक्त परिवार में नहीं रह सकते।

नाभिकीय परिवारों की विशेषताएँ : 1. छोटे आकार के घर सदस्यों को अधिक स्वतंत्रता और स्वावलम्बन प्रदान करते हैं।

  1. ऐसे परिवार में संयुक्त परिवारों की तुलना में व्यक्ति अधिक उत्तरदायित्व महसूस करता है।
  2. पेशेवर मध्य वर्ग के लिए ऐसे परिवार अधिक सुविधाजनक बन गये हैं।
  3. संकट की स्थिति में नाभिकीय परिवार अधिक अनुकूल पाये गये हैं। बीमा, बैंकिग तथा चिकित्सालयों जैसी सुविधा ने संयुक्त परिवारों द्वारा दिए जाने वाले पारम्परिक सुरक्षा और सुविधाओं को कम आकर्षक बना दिया है।
  4. बच्चों के दृष्टिकोण से नाभिकीय परिवार के अपने दोष हैं। जहाँ पति और पत्नी दोनों काम करते हैं वहाँ बच्चे अकेलापन और चिंता महसूस करते हैं। उन्हें नौकरों और आया आदि पर निर्भर रहना पड़ता है। उन्हें भावनात्मक दबाव झेलना पड़ता है।

प्रश्न 17. नातेदारी क्या है ? भारतीय समाज में नातेदारी के कार्यों पर चर्चा कीजिए।

उत्तर-सभी समाजों में नातेदारी संबंधों का एक ढाँचा होता है। हर व्यक्ति के प्राथमिक संबंध उसी परिवार में पाये जाते हैं जिससे वह संबंधित होता है। नातेदारी, संस्कृति का वह भाग है जो जन्म और विवाह के आधार पर बने संबंधों की अवधारणाओं और विचारों से संबंधित होता है। नातेदारी संगठन व्यक्तियों के उस समूह को इंगित करता है जो या तो एक-दूसरे के रक्त संबंधी होते हैं या विवाह संबंधी।

मिथेल के अनुसार, “जब हम नातेदारी शब्द का इस्तेमाल करते हैं तो हम रक्त संबंधियों और विवाह संबंधियों की ओर इंगित कर रहे हैं।” रक्त संबंधियों में सामान्यतः उन्हें शामिल किया जाता है जिनके बीच सामूहिक रूप से तथाकथित रक्त संबंध पाया जाता है। रक्त संबंधी वह है जिसका या तो उस परिवार में जन्म हुआ है या उसे परिवार द्वारा गोद लिया गया है। विवाह संबंधी उसे कहते हैं जिसके साथ संबंध विवाह के माध्यम से होता है। पति-पत्नी का संबंध विवाह संबंध है। नातेदारी दो उद्देश्यों की पूर्ति करता है:

  1. यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सम्पत्ति के हस्तान्तरण को संभव बनाता है।
  2. कुछ समाजों में यह प्रभावी सामाजिक समूह के निर्माण और उसे स्थायी बनाए रखने में सहायता करता है।
  3. नातेदारी परिवार एवं विवाह जैसी दो जुड़ी संस्थाओं का प्रतिफल है और यह जन्म-मृत्यु और पुरुष-स्त्री के शारीरिक संबंधों से जुड़े व्यवहार का नियमन करता है। यह नातेदारों को अधिकारों और कर्तव्यों का ज्ञान कराता है जहाँ समाज में नातेदारी संबंध महत्वपूर्ण होते हैं तथा वंशावली तय करने के नियम स्पष्ट होते हैं।

प्रश्न 18. भारत में ममेरे-फुफेरे भाई-बहनों (क्रॉस-कजिन) तथा मौसेरे एवं चचेरे भाई-बहनों (समांतर-कजिन) के परस्पर विवाह के बारे में बताइए।

उत्तर- भारत में नातेदारी व्यवस्था विवाह से संबंधित प्रथाओं और रीतियों की विविधता को अभिव्यक्ति करती है। अखिल भारतीय स्तर पर भारत में नातेदारी के बारे में सामान्यीकरण करना संभव नहीं है। यह क्षेत्रीय संस्कृति का एक आयाम है।.

समाजशास्त्री इरावती कर्वे ने भारत में नातेदारी व्यवस्था के चार क्षेत्रों उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम की चर्चा की है। कुछ अन्य अर्थशास्त्री केवल दो नातेदारी व्यवस्थाओं की चर्चा करते हैं : उत्तर भारतीय नातेदारी व्यवस्था और दक्षिण भारतीय नातेदारी व्यवस्था। इन्हें क्रमश: आर्यऔर द्रविड़ नातेदारी व्यवस्था के रूप में वर्णित किया गया है।

उत्तर भारत में नातेदारी व्यवस्था : उत्तर भारत में ममेरे फुफेरे भाई-बहनों के बीच विवाह की स्वीकृति नहीं है। उत्तर भारत में पहले से नजदीकी नातेदारी संबंधों में बंधे लोगों के बीच विवाह कभी प्रोत्साहित नहीं किए जाते। एक गाँव या शहर के लोग भौगोलिक रूप से काफी दूर-दूर विवाह करना पसंद करते हैं। इस क्षेत्र में नातेदारी संबंध को विस्तृत करने पर जोर दिया जाता है। दुल्हन पति के परिवार में एकदम अपरिचित की तरह आती है। कभी-कभी परिवार में जब उसके साथ ठीक व्यवहार नहीं किया जाता तो वह असहाय अनुभव करती है। दहेज (वर मूल्य) के कारण दुल्हन को समस्याएँ झेलनी पड़ती हैं।

दक्षिण भारत में नातेदारी व्यवस्था : दक्षिणी क्षेत्र में निकट संबंधियों विशेष रूप से मेमेरे भाई-बहनों अर्थात् क्रॉस कजिन्स से विवाह विशेष रूप से पसंद किए जाते हैं। चचेरे और मौसेरे भाई बहनों का विवाह कभी नहीं होता। पति-पत्नी के माता-पिता (या आपस में विवाह करने वाले समूहों) की परिस्थिति बराबर होती है। दोनों समूह भौगोलिक रूप से एक-दूसरे के काफी नजदीक होते हैं। कई बार तो एक ही गाँव में रहते हैं। दुल्हन अपने विवाह संबंधियों से पूर्व परिचित होती है। दक्षिण भारत में नये वैवाहिक संबंध के द्वारा पूर्व स्थापित नातेदारी संबंध मजबूत बनते हैं, लेकिन नातेदारी का दायरा विस्तृत नहीं होता।

प्रश्न 19, परिवार के परिवर्तित होते स्वरूप की व्याख्या कीजिए।

उत्तर-परिवार का बदलता रूप (Changing form of family) : समाज की विभिन्न निर्माणक इकाइयाँ स्थिर नहीं हैं, वरन् तात्कालिक परिस्थितियों में इनमें सदैव परिवर्तन होता रहता है। समाज की प्राथमिक व आधारभूत इकाई के रूप में परिवार भी निरंतर परिवर्तित होता रहा है और हो रहा है लेकिन हमारे समक्ष प्रश्न यह है कि ये परिवर्तन क्यों हो रहे हैं और ये परिवर्तन कौन-कौन से हैं ? इसलिए परिवर्तन के कारकों और होने वाले परिवर्तनों को समझना आवश्यक है।

पारिवारिक परिवर्तनो के कारणों को कई भागों में बाँटा जा सकता हैं समाजशास्त्री इलियट और मैरिल के अनुसार इनकी विवेचना निम्न प्रकार से की जा सकती है :

  1. आर्थिक कारण (Economic Factors): आर्थिक कारण निम्नलिखित हैं :

(i) औद्योगीकरण (Industrialization): औद्योगीकरण द्वारा पारिवारिक कार्यों में बहुत से परिवर्तन आ गए हैं। भोजन के लिए रेस्टोरेंट, कपड़े धोने के लिए लांड्रियाँ, बच्चों के पालन-पोषण के लिए शिशु-गृह व ऐसी ही अन्य संस्थाएँ खुल गई हैं।

(ii) महिलाओं की आर्थिक निर्भरता (Economic Independence of Women): महिलाओं के आर्थिक जीवन में प्रवेश करने से परिवार के पूर्वनिश्चित कार्यों में तीव्र परिवर्तन आए हैं।

(iii) रोजगाररत माताएँ (Employed Mothers) : माताओं के रोजगाररत होने के कारण बच्चों के पालन-पोषण व शिक्षा-व्यवस्था का उत्तरदायित्व अन्य संस्थाओं पर आ पड़ा है।

(iv) उच्च जीवन स्तर (Higher standard of living) : उच्च जीवन-स्तर के कारण आर्थिक दृष्टिकोण अथवा धन-सम्पदा का महत्व बढ़ता जा रहा है। ऐसी स्थिति में पारिवारिक मान्यताएँ किस प्रकार टिकी रह सकती हैं ?

  1. सामाजिक कारण (Social Factors): सामाजिक कारण निम्नलिखित हैं:

(i) जनसंख्या की गतिशीलता (Mobility of Population): विभिन्न प्रजातियों, देशों, संस्कृतियों आदि के लोगों के आपसी सम्पर्क से पारिवारिक मान्यताएँ, मूल्य, आदर्श आदि परिवर्तित होते रहे हैं।

(ii) महिलाओं की उच्च शिक्षा (Higher education of Women): महिलाओं की उच्च शिक्षा के कारण विवाह की आयु बढ़ी है, उनमें अधिकारों के कारण जागृति उत्पन्न हुई है, पुरुषों के स्वामित्व में अन्तर आया है और इस प्रकार पारिवारिक क्षेत्र में अनेक नवीन परिवर्तन हुए हैं।

(iii) नगरीकरण (Urbanization) : नगरों के वातावरण में पारिवारिक जीवन को उसी (प्राचीन) रूप में बनाए रखना बिल्कुल भी समभव नहीं हो पा रहा है, क्योंकि व्यावसायिक गतिशीलता के कारण पारिवारिक जीवन की रूपरेखा ही परिवर्तित हो गई है।

(iv) व्यावसायिक मनोरंजन (Commercialized recreation): इसके द्वारा पारिवारिक जीवन में होने वाले मनोरंजन का कोई महत्व नहीं रहा है और न ही किसी के पास इतना समय है कि वह पारिवारिक मनोरंजन में बहुत समय लगाए।

(v) यौन संबंधों में परिवर्तन (Changes in sexual relations) : परिवार में सीमित यौन-संबंधों का क्षेत्र बदल गया है, क्योंकि लोग अब पुराने विचारों को न मानकर यौन-सम्बन्धों की तृप्ति अन्य प्रकार से कर रहे हैं।

(vi) युवावर्ग में क्रांति (Revolution in young folk): सामाजिक जीवन की गतिशीलता बढ़ जाने के बाद युवा वर्ग पारिवारिक नियंत्रणों को उसी (प्रारंभिक) रूप में मानने के लिए तैयार नहीं है, परिणामस्वरूप युवावर्ग पारिवारिक मान्यताओं को चुनौती दे रहा है और इन्हें बदल रहा है।

  1. राजनैतिक कारण (Political Factors): राजनैतिक कारण निम्नलिखित हैं :

(i) अभिभावकों पर राज्य की प्रभुसत्ता (The Soreveignty of the State over parents) : बढ़ते हुए राजकीय नियंत्रण से अभिभावकों को बच्चों के मामले में मनमानी का अधिकार नहीं रहा है, बल्कि साम्यवादी देशों में तो राज्य के अनुसार ही बच्चों को बनाया जा रहा है। इस प्रकार परिवार का रूप परिवर्तित होना स्वाभाविक है।

(ii) महिलाओं को राजनैतिक मताधिकार (Political franchisement to Women) : महिलाओं को पुरुषों के समान राज्य की ओर से मत प्रदान करने की स्वतंत्रता प्राप्त होने से पारिवारिक जीवन में गतिशीलता आ गई है। इस तथ्य का एक अच्छा उदाहरण यह है कि विश्व में महिलाएँ विभिन्न महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित होती आ रही हैं। जैसे भारत में श्रीमती इंदिरा गाँधी और श्रीलंका में श्रीमती चन्द्रिका कुमारतुन्गा प्रधानमंत्री पद पर सुशोभित रहीं, पाकिस्तान में श्रीमती बेनजीर भुट्टो प्रधानमंत्री पद पर आसीन रहीं तथा इंग्लैंड में मार्गरेट थैचर वहाँ की सर्वेसर्वा थीं। ऐसी स्थिति में महिलाओं से समस्त पारिवारिक कार्यों की पूर्ति कहाँ तक सम्भव है?

  1. दार्शनिक कारण (Philosophical Factors): दार्शनिक कारण निम्नलिखित हैं :

(i) विवाह के धार्मिक आधार का पतन (Decline of the religiouse basis of marriage) : विवाह को एक धार्मिक संस्कार के रूप में नहीं माना जा रहा है, वरन् यह अब नई संवैधानिक व्यवस्थाओं के अनुसार समझौते का रूप लेता जा रहा है। ऐसी दशा में पारिवारिक परिवर्तन स्वाभाविक है।

(ii) भौतिकवादी व व्यक्तिवादी विचारधारा (Materialistic and Individualistic Philosophy): ऐसी विचारधारा के कारण लोग अपने-अपने स्वार्थ व हित का ही ध्यान रखते हैं, परिणामस्वरूप पारिवारिक जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन होता है।

(iii) नैतिकता का नवीन प्रतिमान (A new pattern of morality): आधुनिक युग में विवाह-सम्बन्धी नैतिकता बदली है, परिणामस्वरूप पारिवारिक क्षेत्र में परिवर्तन आया है। प्रेम-विवाह, विवाह-विच्छेद आदि अनेक परिस्थितियाँ पारिवारिक परिवर्तन की गति को तीव्र करने में पर्याप्त सहायक हैं।

इस प्रकार स्पष्ट है कि पारिवारिक परिवर्तन अनेक सम्बन्धित कारणों का ही परिणाम है और यह स्वाभाविक भी है।

प्रश्न 20. परिवार में हो रहे अभिनव परिवर्तनों की विवेचना कीजिए। उत्तर-आधुनिक युग में परिवार में निम्नलिखित परिवर्तन हुए हैं :

  1. परिवार के आकार में परिवर्तन (Changes in the size of family) : संयुक्त परिवार का रूप मूल परिवार (Immediate family) ग्रहण करता जा रहा है, परिणामस्वरूपं सदस्य-संख्या सीमित होती जा रही है। परिवार-कल्याण के कार्यक्रम से परिवार का आकार और भी छोटा होता जा रहा है।
  2. पुरुष के स्वामित्व में परिवर्तन (Change in the ownership of male members of family) : महिलाएँ नवीन परिस्थिति में दास-प्रवृत्ति व पराधीन अवस्था में रहने वाली नहीं हैं। पुरुष का देवता का रूप समाप्त होता जा रहा है।
  3. परिवार के परंपरागत कार्यों में परिवर्तन (Changes in the traditional functions of family): पालन-पोषण से लेकर मनोरंजन तक के कार्यों में बहुत अधिक परिवर्तन आ गया है। महिलाओं का कार्यक्षेत्र परिवार की चारदीवारी तक ही सीमित नहीं रहा है।
  4. प्रजातांत्रिक वातावरण का विकास (Development of democratic atmosphere) : आधुनिक परिवार में प्रत्येक सदस्य को अपनी अलग-अलग बात कहने का अधिकार है। यह परिस्थिति समानता अथवा प्रजातंत्र को विकसित कर रही है।
  5. पति-पत्नी के सम्बन्धों में परिवर्तन (Change in husband and wife relationship): पति-पत्नी का सम्बन्ध प्रभुत्व से सहयोग की दिशा में बढ़ रहा है।
  6. परिवार के द्वितीयक कार्यों में परिवर्तन (Change in Secondary functions of family): द्वितीयक कार्यों को राज्य अपने हाथ में लेता जा रहा है। व्यक्ति की सुरक्षा की जिम्मेदारी आज परिवार की न होकर राज्य की समझी जा रही है। समाजवादी देशों में यह प्रक्रिया तीव्र गति से अपनाई जा रही है।
  7. रक्त-सम्बन्धियों का महत्व कम होना (Lesser importance of kinship rela•tions): नातेदारों व रिश्तेदारों का महत्व कम होता जा रहा है। व्यक्ति वर्तमान में पारिवारिक आधार पर रक्त-सम्बन्धियों से घनिष्ठ संबंध नहीं रख पा रहा है।

8 स्थायित्व का अभाव (Lack of stability): विवाह-विच्छेद और प्रेम-विवाह के द्वारा पारिवारिक सदस्यों का आपसी मोह और स्नेह समाप्त होता जा रहा है।

  1. नियोजित परिवार (Planned family): बढ़ती हुई जनसंख्या और जीवन स्तर को ऊँचा रखने के लिए कम बच्चे वाले नियोजित परिवार बनते जा रहे हैं। इस प्रकार के परिवार परम्परात्मक परिवारों का परिवर्तित व नियोजित रूप हैं।

इस प्रकार स्पष्ट है कि समय के परिवर्तन के साथ जिस प्रकार समाज की अन्य इकाइयाँ परिवर्तित हुई है अथवा हो रही हैं, उसी प्रकार समाज की मौलिक व केन्द्रीय इकाई भी परिवर्तित होती जा रही हैं। परिवार में सृष्टि के प्रारंभ अथवा मानवीय समाज के प्रारंभ से ही इस प्रकार के परिवर्तन होते जा रहे हैं, लेकिन इन परिवर्तनों से परिवार टूटा नहीं है वरन् नवीन संस्करण के रूप में सदैव बना रहा है और बना रहेगा।

प्रश्न 21. परिवार को परिभाषित कीजिए। परिवार की मूलभूत विशेषताएँ क्या हैं।

उत्तर- शाब्दिक अर्थ (Etymological Meaning) : परिवार शब्द अंग्रेजी भाषा के

फैमिली (Family) शब्द का रूपान्तर है, जिसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा के फैमुलस (Famulus) शब्द से हुई जिसका अर्थ है नौकर (Servent)। रोमन कानून मे फैमुलस शब्द दासों, नौकरों व अन्य संबंधित व्यक्तियों के लिए प्रयोग किया जाता था।

परिवार समाज की प्राथमिक इकाई है, जहाँ बालक भाषा, व्यवहार पद्धति तथा समाजिक प्रतिमानों के विभिन्न स्वरूपों को सीखता है। परिवार सार्वदेशिक (Universal) है। तथा यह जनजातीय, ग्रामीण, नगरीय समुदायों, सभी धर्मों के अनुयायियों तथा सभी संस्कृतियों में पायां जाता है।

परिवार की परिभाषा (Definition of Family)

(1) मैकाइवर तथा पेज (Maclber and Page) के अनुसार, “परिवार वह समूह है जो कि लिंग संबंध पर आधारित है तथा काफी छोटा एवं इतना स्थायी है कि बच्चों की उत्पत्ति और पालन-पोषण की व्यवस्था करने योग्य है।”

(2) क्लेयर (Clare) के अनुसार, “परिवार से हम संबंधों की वह व्यवस्था समझते हैं जो माता-पिता और उनकी संतानों के बीच पायी जाती है।”

(3) जुकरमेन (Zuckerman) के अनुसार, “एक परिवार समूह, पुरुष स्वामी, उसकी स्त्री या स्त्रियों तथा उनके बच्चों को मिलाकर बनता है तथा कभी-कभी एक या अधिक अविवाहित पुरुषों को भी सम्मिलित किया जा सकता है।”

(4) ऑगबर्न तथा निमकॉफ (Ogburn and Nimkoff) के अनुसार, “परिवार पति-पत्नी का बच्चों सहित अथवा थोड़ा-बहुत स्थायी संघ है अथवा एक स्त्री या पुरुष का अकेले ही बच्चों के साथ वाला संघ है।”

(5) बील्स तथा हॉइजर (Beals and Hoizer) के अनुसार, ” परिवार को संक्षेप में एक सामाजिक समूह के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके सदस्य रक्त के आधार पर एक-दूसरे से जुड़े रहते हैं।”

(6) बर्गेस तथा लॉक (Burges and Locke) के अनुसार, “परिवार उन व्यक्तियों का एक समूह है जो विवाह, रक्त या गोद लेने के बंधनों से जुड़े हैं, एक गृहस्थी का निर्माण करते हैं तथा पति-पत्नी, माता-पिता, पुत्र और पुत्री, भाई और बहन अपने-अपने क्रमशः सामाजिक कार्यों तथा पति-पत्नी के रूप में एक-दूसरे पर प्रभाव डालते हैं एवं व्यवहार तथा संबंध रखते है वह एक सामान्य संस्कृति का निर्माण करते हैं तथा उसे बनाए रखते हैं।”

परिवार की उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि परिवार समाज की प्राथमिक इकाई है, जिसमें सदस्यों के बीच साधारणतया आमने-सामने के संबंध पायें जाते हैं। परिवार में आमतौर पर पति-पत्नी तथा उनके अविवाहित बच्चे तथा अन्य सदस्य सम्मिलित होते हैं।

लेकिन उपरोक्त परिभाषाएँ भारतीय संदर्भ में परिवार के अर्थ को पूर्णरूपेण स्पष्ट नहीं करती हैं। भारतीय परिवार एक स्थान में रहने वाले रक्त संबंधियों का समूह-मात्र नहीं है। यह रक्त संबंधियों का नातेदारी समूह भी है जिसके सभी सदस्य पारस्परिक उत्तरदायित्व की भावना से भावनात्मक रूप से बंधे होते हैं। प्रसिद्ध भारतीय समाजशास्त्री आई. पी. देसाई ( L P.Desai) ने परिवार की अवधारणा को समझने के लिए आवास, पारस्परिक संबंधों तथा सदस्यों के अधिकारों तथा कर्तव्यों पर विशेष बल दिया है।

अतः परिवार कुछ महत्त्वपूर्ण तत्त्व निम्नलिखित हैं: .

(i) परिवार एक प्राथमिक, निश्चित तथा दीर्घकालीन समूह है।

(ii) परिवार की संरचना हेतु पति-पत्नी के मध्य स्थायी साहचर्य तथा यौन संबंधों का होना अवश्यक है।

(iii) परिवार के सदस्यों का निवास स्थान सामान्य होता है।

(iv) परिवार द्वारा बच्चों का प्रजनन तथा लालन-पालन किया जाता है।

(v) परिवार का आकार विस्तृत तथा लघु दोनों प्रकार का हो सकता है।

(vi) परिवार के सदस्य साधारणतया रक्त संबंधों के द्वारा परस्पर संबद्ध होते हैं। गोद लिए बच्चों को भी परिवार का सदस्य स्वीकार किया जाता है।

(vii) परिवार के सदस्यों को समुचित पालन-पोषण हेतु आर्थिक संसाधन आवश्यक होते हैं।

(viii) प्रत्येक परिवार में वंश-नाम निश्चित करने की कोई न कोई व्यवस्था पायी जाती है। परिवार की मूलभूत विशेषताएँ (Basic Features of Family)

(1) सार्वभौमिकता (Universality) : परिवार एक सार्वभौमिक संस्था है जो प्रत्येक युग में किसी-न-किसी रूप में विद्यमान रही है।

(2) भावनात्मक आधार (Emotional Basis) : परिवार के सदस्य पारस्परिक रूप से भावनात्मक आधार पर संबद्ध होते हैं। पति-पत्नी तथा उनके बच्चों के बीच अथाह प्रेम तथा संवेगात्मक संबंध पाये जाते हैं।

(3) सीमित आकार (Limited Size) : परिवार के सदस्यों के बीच रक्त संबंध पाये जाते हैं, अत: उसका आकार सीमित होता है। आधुनिक युग में परिवार का अकार निरन्तर सीमित होता जा रहा है।

(4) सामाजिक संरचना में केन्द्रीय स्थिति (Central position in social structure): परिवार समाजिक संरचना की मौलिक तथा केन्द्रीय इकाई है। सम्पूर्ण सामाजिक संरचना परिवार पर आधारित है।

(5) सदस्यों में उत्तरदायित्व की भावना (Feeling of responsibility among family members): परिवार एक प्राथमिक समूह है, जिसके सदस्यों के मध्य अनौपचारिक तथा आमने-सामने के संबंध पाये जाते हैं। परिवार के सदस्यों के बीच त्याग तथा उत्तरदायित्व की असीमित भावना पायी जाती है।

(6) सामाजिक नियंत्रण (Social Control) : परिवार समाजिक नियंत्रण में एक प्रभावशाली संस्था है। परिवार में लोकरीतियाँ (Folkways), प्रथाएँ (Customs), सामाजिक निषेध (Social Toboos) तथा संस्कार (Sarcraments) आदि सामाजिक नियंत्रण के साधन हैं।

व्यक्ति समाजिक नियंत्रण का प्रथम पाठ परिवार में ही सीखता है।

(7) स्थायी तथा अस्थायी प्रकृति (Permanent and Temporary nature): एक सामाजिक संस्था के रूप में परिवार के सदस्य बदलते रहते हैं। एक सामाजिक समिति (Social Association) के रूप में परिवार अस्थायी है। पति या पत्नी के निधन से समिति के रूप में परिवार समाप्त हो जाता है। ‘

प्रश्न 22, परिवार के सामाजिक कार्यो की विवेचना कीजिए।

उत्तर-एक संस्था तथा समिति के रूप में समाज में परिवार का केन्द्रीय स्थान है। परिवार समाज का सूक्ष्म स्वरूप है। सामाजिक संगठन की इकाई के रूप में परिवार का अत्यधिक महत्त्व है। ऑगबर्न तथा निमकॉफ (Ogburn and nimcoff) के अनुसार, “किसी भी संस्कृति में परिवार के महत्त्व का मूल्यांकन करने के लिए यह मालूम करना जरूरी है कि उसके क्या कार्य हैं तथा किस सीमा तक उन्हें पूर्ण किया जा सकता है।”

एक संस्था तथा समिति के रूप में परिवार के विविध कार्य हैं। इलियट तथा मैरिल (Elliott and Merrill) के अनुसार, “किसी भी संस्था के विविध कार्य होते हैं। संभवतः सभी संस्थाओं में परिवार अत्यन्त विविध कार्यों वाली संस्था है।”

डेविस (Davis) ने अपनी पुस्तक (Human Society) तथा डल्लू. जू. मूर (W.J. Moore) ने अपनी पुस्तक फैमिली (The Family) में परिवार के निम्नलिखित सामाजिक कार्य (Social Functions) बताये हैं :

(1) प्रजनन कार्य (Reproductive Function) : समाज का अस्तित्व व्यक्तियों से होता है। परिवार में कछ विशेष व्यक्तियों के बीच यौन संबंध स्थापित करके यह कार्य पूरा किया

जाता है। इस प्रकार व्यक्तियों की यौन आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ समाज को स्थायित्व भी प्रदान करता है।

(2) परिवार के सदस्यों की देखभाल करना (Maintenance of Family Members): नवजात शिशुओं का समुचित पालन-पोषण परिवार में होता है। गर्भवती स्त्री की देखभाल तथा बच्चों को आत्मनिर्भर बनाने का कार्य भी परिवार में ही किया जाता है।

(3) व्यक्तियों को सामाजिक प्रस्थिति का प्रदान किया जाना (Social Placement of Individuals): एक नातेदारी समूह के रूप में परिवार व्यक्तियों के लिए निश्चित प्रस्थितियों (Statuses) तथा भूमिकाओं (Roles) का निर्धारण करता है। परिवार एक सामाजिक इकाई के रूप में श्रम विभाजन तथा उत्तरदायित्वों का वितरण भी करता है।

(4) नौजवानों का समाजीकरण (Socialization of the Young) : व्यक्ति समाज द्वारा निर्धारित आदर्शों (Norms) तथा मूल्यों (Values) के अनुरूप अंत:क्रिया करते हैं। व्यक्तियों के द्वारा समाज-स्वीकृत आदर्शों तथा मूल्यों को परिवार के माध्यम से सीखा जाता है। इस प्रकार, परिवार व्यक्ति के समाजीकरण की प्राथमिक इकाई है। यही कारण है कि व्यक्ति साधारणतया समाज की प्रत्याशाओं (Expectations) के अनुरूप ही कार्य करते हैं।

(5) सामाजिक नियंत्रण (Social Control): परिवार में रहकर व्यक्ति सामाजिक प्रतिमानों तथा कानूनों का अनुपालन करना सीखता है। व्यक्ति के समाजीकरण में परिवार की प्राथमिक भूमिका होती है।

समाजीकरण की प्रक्रिया में परिवार के महत्व के विषय में सदरलैंड तथा वुडवर्ड (Sutherland and Woodword) ने कहा है, “यह (परिवार) समाजीकरण की सबसे अधिक महत्वपूर्ण समिति है।”

बर्गेस तथा लॉक के अनुसार, “समाज मनोवैज्ञानिक तथा मनोरोग चिकित्सक दोनों ही इससे सहमत हैं कि व्यक्ति के अत्यधिक प्रारम्भिक तथा मौलिक लक्षणों का निर्माण परिवार में होता है।”

परिवार द्वारा मानव सभ्यता को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण कार्य किया जाता है। .

प्रश्न 23. परिवार की विभिन्न स्वरूपों की विशेषताएँ बताइये।

उत्तर-एक सार्वभौमिक संस्था के रूप में परिवार मानव समाज की मौलिक इकाई है लेकिन विश्व के सभी समाजों में इसका स्वरूप एक समान नहीं है। सामाजिक परिस्थिति तथा सांस्कृतिक भिन्नता के कारण परिवार के अनेक स्वरूप पाये जाते हैं।

वर्तमान समय में परिवार के दो प्रमुख रूप निम्नलिखित हैं : (1) एकाकी परिवार (Nuclear Family) (2) संयुक्त परिवार (Joint Family)

इसके अतरिक्त, परिवार के निम्नलिखित स्वरूप भी अनेक समाजों तथा जनजातीय समाजों में पाये जाते हैं

(1) विस्तृत परिवार (Extended family)

(2) मातृवंशीय तथा मातृस्थानीय परिवार (Matrilenal and Matrilocal family)

(3) पितृवंशीय तथा पितृस्थानीय परिवार (Ptrilenal and Patrilocal family)

(4) बहुपत्नी परिवार (Polygynous family)

(5) बहुपति परिवार (Polyandrous Family)

(1) एकाकी परिवार (Nuclear Family): एकाकी परिवार वास्तव में परिवार का सबसे छोटा स्वरूप है। इसमें पति-पत्नी तथा उनके वैध एवं अविवाहित बच्चे होते हैं। एकाकी परिवार में निम्नलिखित नातेदारी संबंध पाये जाते हैं :

(1) पति-पत्नी

(2) पिता-पुत्र

3) पिता-पुत्री

(4) माता-पुत्र

(5) माता-पुत्री

(6) भाई-भाई

(7) भाई-बहन

(2) संयुक्त परिवार (Joint Family): संयुक्त परिवार भारतीय समाज की विशेषता है। अति प्राचीन काल से ही संयुक्त परिवारों का अस्तित्व भारतीय समाज में रहा है। डॉ. इरावती कर्वे (Dr. I. Karve) के अनुसार, “एक संयुक्त परिवार उन व्यक्तियों का समूह है जो सामान्यतः एक भवन में रहते हैं, जो एक रसोई में पका भोजन करते हैं, जो सामान्य संपत्ति के स्वामी होते हैं और जो सामान्य पूजा में भाग लेते हैं और जो किसी न किसी प्रकार एक-दूसरे के रक्त संबंधी हैं।”

आई. पी. देसाई (I.P.Desai) के अनुसार, “हम ऐसे परिवार को संयुक्त परिवार कहते हैं, जिसमें पीढ़ी की गहराई परिवार की अपेक्षा अधिक लम्बी पायी जाती है और जिसके सदस्य परस्पर संपत्ति, आय तथा पारस्परिक अधिकारों तथा दायित्वों के आधार पर संबंधित होते हैं।”

यद्यपि औद्योगीकरण, नगरीकरण, कृषि तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था के ह्रास, पश्चिम के प्रभाव तथा नवीन सामाजिक विधानों ने संयुक्त परिवार को काफी क्षीण कर दिया है तथापि एक परिवर्तित रूप में उनका अस्तित्व भारतीय समाज में आज भी विद्यमान है। डॉ. एम. एन. श्रीनिवास का मत है कि भारत में संयुक्त परिवार विघटित नहीं हो रहे हैं अपितु उनके स्वरूप में परिवर्तन हो रहा है। डॉ.के. एम. कपाड़िया (K. M. Kapadia) के अनुसार, “अभी तक संयुक्त परिवार ने ऐसे कष्टमय समय को पार किया है तथा उसका भविष्य खराब नहीं है।”

(3) विस्तृत परिवार (Extended family): विस्तृत पविार के अन्तर्गत एकाकी नातेदारों के अतिरिक्त दूर के रक्त-संबंधी भी हो सकते हैं, उदाहरण के लिए सास-ससुर तथा दामाद का एक साथ रहना। इस प्रकार एकाकी या संयुक्त परिवार के सदस्यों के अलावा कोई अन्य नातेदार परिवार का हिस्सा बनता है तो उसे संयुक्त परिवार कहते हैं।

(4) मातृवंशी एवं मातृस्थानीय परिवार (Matrilenal and Matrilocl Family): मातृवंशीय परिवार के अन्तर्गत पति अपनी पत्नी के साथ पत्नी की माँ अर्थात् अपनी सास (Mother-in-law) के घर में रहता है। मातृवंशीय परिवार में वंशावली माँ के पक्ष में पायी जाती है तथा परिवार में निर्णय करने की सत्ता भी माँ के पास ही होती है। माँ ही परिवार की मुखिया है। हालांकि, इस प्रकार के परिवार अधिक प्रचलन में नहीं हैं। दक्षिण भारत के नायर परिवार तथा मेघालय की खासी जनजाति के लोग मातृसत्तात्मक परिवारों में निवास करते हैं।

(5) पितृवंशीय एवं पितृ-स्थानीय परिवार (Patrilenal and Ptrilocal Family): विश्व के लगभग सभी समाजों में पितृवंशीय तथा पितृस्थानीय परिवार पाये जाते हैं। इन परिवारों में वंशावली पिता के पक्ष में पायी जाती है। इन परिवारों में विवाह के बाद पत्नी पति के घर रहती है। परिवार का मुखिया पिता होता है तथा परिवार की सत्ता उसी के पास होती है।

(6) बहुपत्नी परिवार (Polyandrous Family): बहुपत्नी परिवार में एक व्यक्ति एक समय में एक से अधिक पत्नियाँ रखता है। इस प्रकार के परिवार अनेक जनजातियों में पाये जाते हैं।

(7) बहुपति परिवार (Polyandrous Family): बहुपति परिवार के अन्तर्गत एक स्त्री के एक समय में एक से अधिक पति होते हैं। इन परिवारों की संरचना भ्रातृत्व बहुपति विवाह (Fraternal Polyandry) से होती है। भारत में इस प्रकार के परिवार खासी तथा टोडा जनजातियों में पाये जाते हैं।

प्रश्न 24, नातेदारी से आप क्या समझते हैं ? सामाजिक जीवन में इसके महत्व की विवेचना कीजिए।

उत्तर-जैसा कि हम जानते हैं कि परिवार घनिष्ठ संबंधियों से बनी एक संस्था है। परिवार के सदस्यों के बीच परस्पर रक्त अथवा वैवाहिक संबंध पाये जाते हैं। इन बंधनों द्वारा संबद्ध व्यक्तियों को ही नातेदार कहा जाता है। लेकिन नातेदारी संबंधों का क्षेत्र परिवार तक ही सीमित

न होकर व्यापक है। वैवाहिक संबंधों के जरिए एक परिवार के सदस्य दूसरे परिवार के सदस्यों से जुड़ जाते हैं। वैवाहिक संबंधों के आधार पर पत्नी, पति तथा दामाद आदि संबंध बनते हैं। वस्तुतः इस प्रकार जुड़े विभिन्न प्रकार के सदस्यों को भी नातेदार कहा जाता है।

उपरोक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि नातेदार वे व्यक्ति हैं जो रक्त या वैवाहिक संबंधों द्वारा परस्पर संबंधित होते हैं। ये संबंध प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष हो सकते हैं।

(1) जाज पीटर मुरडॉक (G. P. Murdock) के अनुसार, “यह (नातेदारी) मात्र संबंधों की एक ऐसी रचना है जिसमें व्यक्ति एक-दूसरे से जटिल आंतरिक बंधन तथा शाखाकृत बंधनों द्वारा सम्बद्ध होते हैं।” .

(2) रैडक्लिफ ब्राउन (Redcliffe Brown) के अनुसार, “नातेदारी प्रथा वह व्यवस्था है जो व्यक्तियों को व्यवस्थित सामाजिक जीवन में परस्पर सहयोग करने की प्रेरणा देती है।”

(3) चार्ल्स विनिक के अनुसार “नातेदारी व्यवस्था में समाज द्वारा मान्यता प्राप्त वे संबंध आ जाते हैं जो कि अनुमानित तथा वास्तविक, वंशावली संबंधों पर आधारित हैं।”

नातेदारी संबंधों के बदलते आयाम :

(1) नातेदारी संबंध जनजातीय समाजों तथा ग्रामीण समुदायों में काफी प्रबल तथा विस्तृत होते हैं।

(2) औद्योगीकरण, नगरीकरण तथा प्रौद्योगिक विकास के कारण नातेदारी संबंधों की प्रबलता में कमी आयी है।

(3) प्राथमिक समूहों के स्थान पर द्वितीयक तथा तृतीयक समूहों के बढ़ते महत्व के कारण भी नातेदारी संबंध न केवल शिथिल हुए हैं, वरन् उनका विस्तार भी कम हुआ है।

नातेदारी के प्रकार (Types of Kinship)

(1) वैवाहिक नातेदारी

(2) रक्त संबंधी नातेदारी –

(1) वैवाहिक नातेदारी (Affinal Kinship): वैवाहिक नातेदारी वैवाहिक संबंधों पर आधारित होती है। उदाहरण के लिए जब कोई व्यक्ति किसी स्त्री से विवाह करता है तो उसका संबंध न केवल उस स्त्री से स्थापित हो जाता है वरन् स्त्री के परिवार के अन्य सदस्यों से भी उसका संबंध स्थापित हो जाता है। इस प्रकार विवाह के पश्चात् कोई व्यक्ति न केवल पति बनता है, अपितु वह बहनोई तथा दामाद (Son-in-law) भी बन जाता है। इसी प्रकार कोई स्त्री विवाह के पश्चात् न केवल पत्नी बनती है, अपितु पुत्रवधू (Daughter-in-law), चाची, भाभी, जेठानी, देवरानी तथा मामी आदि बन जाती है।

(2) रक्त संबंधी नातेदारी (Consanguineous Kinship): रक्त संबंधी नातेदारी के अन्तर्गत रक्त अथवा सामूहिक वंशावली से जुड़े व्यक्ति आते हैं। वैवाहिक नातेदारी में संबंधों का आधार विवाह होता है जबकि रक्त संबंधी नातेदारी में संबंध रक्त के आधार पर होते हैं। उदाहरण के लिए, माता-पिता तथा उनके बच्चों तथा सहोदरों (Siblings) के बीच रक्त संबंध पाये जाते हैं। उदाहरण के लिए, गोद लिए हुए बच्चे की पहचान वास्तविक पुत्र की भाँति होती है।

नातेदारी के विभिन्न आधार (Various bases of Kinship) हैरी एम. जॉनसन (Harry M. Johnson) के द्वारा नातेदारी के निम्नलिखित आधार बताये

(1) लिंग (Sex) : बहन तथा भाई शब्द रक्त संबंधियों के लिंग को बताते हैं।

(2) पीढ़ी (Generation): पिता तथा पुत्र के द्वारा जहाँ एक तरफ दो पीढ़ियों की ओर संकेत करते हैं, दूसरी तरफ वे रक्त संबंधी भी हैं।

(3) निकटता (Closeness): दामाद तथा फूफा से निकटता के आधार पर संबंध होते हैं, लेकिन ये संबंध रक्त पर आधारित नहीं होते हैं।

(4) विभाजन (Division): सभी नातेदारी संबंधों को साधारणतया दो शाखाओं में बाँटा जाता है। उदाहरण के लिए पितामह (Father’s father) तथा नाना (Mother’s father), भतीजी (Brother’s daughter) आदि। पहली शाखा का संबंध पिता के जन्म वाले परिवार से होता है तथा दूसरी शाखा का संबंध माता के जन्म लेने वाले परिवार से होता है।

(5) श्रृंखला सूत्र (Binding Thread): उपरोक्त वर्णित विभाजन का संबंध संबंधियों की निकटता के साथ है। इन संबंधों की श्रृंखला का आधार निकटता अथवा रक्त संबंध है।

नातेदारी का सामाजिक जीवन में महत्व (Importance of Kinship in Social life)

(1) सामाजिक संरचना में नातेदारी संबंधों का विशेष महत्व है। यह पारिवारिक जीवन का एक महत्वपूर्ण पक्ष है।

(2) परिवार में व्यक्तियों की प्रस्थितियों के अनुसार निश्चित अधिकार तथा उत्तरदायित्व होते हैं।

(3) नातेदार एक-दूसरे से भावनात्मक रूपसे जुड़ हुए होते हैं तथा एक-दूसरे की सहायता अन्य संस्थाओं या व्यक्तियों की अपेक्षा अत्यधिक तत्परता से करते हैं।

(4) नातेदार व्यक्ति की आर्थिक, सामाजिक तथा धार्मिक कार्यों में भी सहायता करते हैं। नातेदार अनेक संस्कारों तथा कर्मकांडों में महत्व रखते हैं। मृत्यु के पश्चात् कौन मुखाग्नि देगा, यह भी नातेदारी से संबंधित है। उदाहरण के लिए, हिन्दू परिवार में पिता की मृत्यु के पश्चात् पुत्र ही मुखाग्नि देता है। नातेदारी में विवाह संबंधियों के मुकाबले रक्त संबंधियों का महत्व अधिक होता है। नातेदारी संबंधों से पारिवारिक एकता का ताना-बाना कायम रहता है। औद्योगीकरण, नगरीकरण, द्वितीयक तथा तृतीयक समूह, नामहीनता, व्यक्ति केन्द्रित पद्धति तथा व्यावसायिक संबंधों के कारण नातेदारी संबंधों का महत्व निरंतर कम होता जा रहा है।

प्रश्न 26. सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तन पारिवारिक संरचना में किस प्रकार परिवर्तन ला सकते हैं ?

(NCERT T.B. Q.9)

उत्तर–सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तन पारिवारिक संरचना में भारी परिवर्तन ला सकते हैं। यह परिवर्तन कभी-कभी तो आकस्मिक तौर पर होते रहते हैं जब कोई लड़ाई छिड़ जाती है अथवा लोग काम की तलाश में और कहीं जा बसते हैं। कभी-कभी ये परिवर्तन किसी विशेष प्रयोजन हेतु किए जाते हैं, जैसे कि जब युवा लोग बुजुर्गों द्वारा उनके लिए जीवन साथी का चुनाव करने के स्थान पर स्वयं ही अपने लिए जीवन साथी का चुनाव कर लेते हैं।

प्रश्न 26. मातृवंश (Matriliny) और मातृतंत्र (Matriarachy) में क्या अंतर है? व्याख्या कीजिए।

(NCERT T.B.Q. 10)

उत्तर-अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि विभिन्न समाजों में किस तरह विविध प्रकार के परिवार पाए जाते हैं। आवास के नियम के अनुसार कुछ समाज, विवाह और पारिवारिक प्रथाओं के मामले में पत्नी-स्थानिक और कुछ पति-स्थानिक होते हैं। प्रथम स्थिति में नवविवाहित जोड़ा वधू के माता-पिता के साथ रहता है और दूसरी स्थिति में वर के माता-पिता के साथ। उत्तराधिकार के नियम के अनुसार, मातृवंशीय समाज में जायदाद माँ से बेटी को प्राप्त होती है और पितृवंशीय समाज में जायदाद माँ से बेटी को प्राप्त होती है और पितृवंशीय समाज में पिता से पुत्र को। पितृतंत्रात्मक परिवार संरचना में पुरुषों की सत्ता व प्रभुत्व होता है और मातृतंत्रात्मक परिवार संरचना में स्त्रियाँ समान प्रभुत्वकारी भूमिका निभाती हैं। हालाँकि पितृतंत्र के विपरीत मातृतंत्र एक अनुभाविक संकल्पना के स्थान पर एक सैद्धांतिक कल्पना है। मातृतंत्र का कोई ऐतिहासिक या मानवशास्त्रीय प्रमाण नहीं है अर्थात् ऐसा समाज नहीं है जहाँ स्त्रियाँ प्रभुत्वशाली हों। हालांकि मातृवंशीय समाज अवश्य पाए जाते हैं अर्थात् समाज जहाँ स्त्रियाँ अपनी माताओं से उत्तराधिकार के रूप में जायदाद प्राप्त करती है, परंतु उस पर उनका अधिकार नहीं होता और न ही सार्वजनिक क्षेत्र में उन्हें निर्णय लेने का कोई अधिकार होता है।

मेघालय की खासी और जयंतिया जनजातियों में ऐसे ही परिवार पाए जाते हैं। इन परिवारों में मूलतः महिलायें को उत्तराधिकार में मिलने वाली संपत्ति को लेकर अंतर पाए जाते हैं किन्तु खासी समाज में पुरुष ही शक्ति के स्वामी हैं।

प्रश्न 27. धुमकरिया के बारे में आप क्या जानते हैं ? [M.Q.2009A]

उत्तर-धुमकरिया-जनजातीय समाजों में युवाओं के संगठन को युवागृह कहा जाता है। अभी संगठन को ओराँव जनजाति में धुमकरिया कहा जाता है। यह जनजातीय संगठन का प्रमुख अंग होता है जहाँ गाँव के युवा घर से बाहर गाँव के बीच में या किनारे पर बने एक बड़े कमरे में रहते हैं। एक आयु सीमा से कम या ज्यादा होने पर स्वतः उनकी समस्या समाप्त हो जाती है। रात में लड़के-लड़कियाँ आपस में नाच-गाकर जनजातीय संस्कृति, कला और यौन शिक्षा प्राप्त करते हैं। यह समाजीकरण का सबसे महत्त्वपूर्ण केन्द्र होता है। उसका विकास शायद जनजातियों युवाओं को अपने माता-पिता के निजी जीवन से ज्ञात हो कि जनजातियों के पास बड़े घर नहीं बल्कि छोटे आवास होते हैं, उसे अलग करने क लिए बना होगा। कुछ लोगों का विचार है कि इसका निर्माण गाँव की सुरक्षा के लिए भी बना होगा, क्योंकि पहले दूसरे दुश्मन जातियों से गाँव पर हमेशा खतरा बना रहता था और आक्रमण की स्थिति में गाँव के सभी युवा एक जगह किसी भी स्थिति की सामना करने में सक्षम रहते होंगे। लेकिन अब आधुनिकता के प्रमुख में ये संगठन विलुप्त हो रहे हैं।

प्रश्न 28. संस्कृतीकरण से क्या समझते हैं ?

[M.Q.2009A]

उत्तर-संस्कृतीकरण-संस्कृतीकरण की अवधारणा एम० एन० श्रीनिवास नामक समाजशास्त्री ने प्रस्तुत किया। उसके द्वारा उन्होंने जाति व्यवस्था में गतिशीलता और परिवर्तन को समझने का प्रयास किया। कुर्ग नामक समुदाय के अध्ययन में उन्होंने पाया कि भिन्न जातियाँ और खासकर पूर्व अछूत जातियाँ उच्च जातियों और खासकर ब्राह्मण का अनुकरण कर रही थीं। उनकी सोच थी कि ऐसा करने से उनकी सामाजिक स्थिति और सामाजिक प्रतिष्ठा बढ़ेगी। जैसे वे निरामिष भोजन, पूजा-पाठ, जनेऊ या यज्ञोपवीत (Sacal threa) रामायण पाठ आदि करने लगे और उनके जीवनशैली को जो पुराने तरीके थे जिससे वे समाज में निम्न समझे जाते थे, उनका त्याग करने लगे। जैसे मांस खाना और मदिरापान उनके जीवन शैली का अंग था, उनका वे त्याग करने लगे। अब वे भी अपने बेटियों की विदाई पालकी में या नाम के बाद उपनाम (Surname) में शर्मा या सिंह जैसे अलंकरण का प्रयोग करने लगे। उसी को विद्वानों ने संस्कृतीकरण कहा, क्योंकि हिन्दू समाज को संस्कृति उच्च जातियों में ही परिलक्षित होती थी और पूर्व की अछूत। –

प्रश्न 29. दलित आन्दोलन पर टिप्पणी लिखें। . [M.Q.2009A]

उत्तर-दलित आन्दोलन-प्राचीन भारत से लेकर मध्य भारत तक दलितों की स्थिति काफी दयनीय या अमानवीय थी। उससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ऐसे निम्न जातियाँ. उसे अपना पूर्वजन्म की कमाई का फल (हिन्दूओं में पूर्वजन्म) का नियति मानकर सहर्ष स्वीकार कर लेती थी। वे एक ओर हीन भावना के शिकार थे और यह सोचना भी पाप समझते थे कि हम हिन्दू जैसा एक सामान्य नागरिक होने का हक रखते हैं। उसी भावना को ध्वस्त कर उनमें एक नयी चेतना प्रवाहित करने के लिए पहले दक्षिण भारत में रामास्वामी नामक और अन्नादुराई के नेतृत्व में और बाद में महाराष्ट्र में भीमराव के नेतृत्व में आंदोलन चला जिसे दलित आंदोलन के रूप में जाना जाता है। इससे दलितों का मनोविज्ञान बदला और वे जब जीवन के हर क्षेत्र में सम्मानपूर्वक हिस्सेदारी या दावा करने लगे। इससे उनकी सामाजिक स्थिति सुधरी और राजनैतिक हिस्सेदारी में भी काफी परिवर्तन आया। सुश्री मायावती इसकी ज्वलंत उदाहरण कही जा सकती हैं। यह कहना निरर्थक ही होगा कि जातीय व्यवस्था के जकड़न को ढीला करने में दलित आंदोलन की अहम् भूमिका रही है।

प्रश्न 30. जनजातीय समाज में जीवन साथी प्राप्त करने की पद्धति से स्पष्ट करें।

[M.Q. 2009A]

उत्तर-जनजातीय समाजों में जीवन-साथी चुनने की नि विधियाँ हैंजब लड़के तथा लड़कियों में प्यार हो जाता है परन्तु माता-पिता से विवाह की स्वीकृति नहीं

मिलती है तब वे पलायन कर जाते है और कहीं जाकर विवाह कर लेते हैं। बाद में माता-पिता उन्हें स्वीकृत कर लेते हैं।

वधू-मूल्य देने में असमर्थ होने पर अविवाहित युवक वधू के माता-पिता के घर जाकर सारे कार्य करते हैं फिर वैवाहिक अनुमति प्रदान कर दी जाती है।

इसमें जिस परिवार से वधू के रूप में लड़की को लाया जाता है उसी परिवार में अपनी लड़की का विवाह किया जाता है। _इस पद्धति में प्रेमिका अपने प्रेमी के घर जाकर हठपूर्वक रहने लगती है। कुछ समय बाद उसकी अपने प्रेमी के साथ विवाह कर दी जाती है।

किसी अवसर पर मैदान में बाँस गाड़कर उसके ऊपर एक नारियल टाँग दिया जाता है। बाँस के घेरे के अन्दर अविवाहित लड़कियाँ तथा बाहरी घेरे में लड़के नाचते गाते हैं। कोई अविवाहित लड़का लड़कियों के घेरे को तोड़कर बाँस पर चढ़कर नारियल प्राप्त करना चाहता है जिसे लड़कियाँ रोकना चाहती हैं। यदि लड़का नारियल पाने में सफल होता है तब मनचाही लड़की से उसकी शादी कर दी जाती है।

इस विधि के अनुसार लड़के-लड़की को विवाह से पूर्व साथ रहने का अवसर दिया जाता है। ताकि दोनों एक-दूसरे को समझ सकें। सहमति पैदा होने पर दोनों की शादी कर दी जाती है।

प्रश्न 31. भारत के प्रमुख जनजातीय आंदोलनों की विवेचना कीजिए।

[M.Q.2009 A]

उत्तर-भारत में प्रमुख जनजातीय आंदोलन निम्नलिखित हैं

(i) संथाल विद्रोह-औपनिवेशिक शासन-व्यवस्था तथा पोषण के खिलाफ सिद्धू कान्हू द्वारा संचालित संथाल जनाजाति के लोगों ने इसका सूत्रपात किया।

(ii) बिरसा आन्दोलन–बिरसा आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा प्रदान की। इसके नेता बिरसा मुण्डा ने जनजातियों की एक नई राह दिखायी। इन्होंने आदिवासियों में जनमत का निर्माण किया। 25 दिसम्बर, 1899 ई० को इस आंदोलन की शुरुआत हुई।

(iii) ताना भारत आंदोलन-ताना भगत, उराँव जनजाति की एक शाखा है। यह आंदोलन कृषि अर्थव्यवस्था, जनजातीय संस्कृति तथा असमानता से संबंधित है। इसकी शुरुआत 1914 ई० में जतरा भगत नेतृत्व में हुई।

(iv) झारखंड आंदोलन-स्वतंत्रता के बाद विभिन्न राजनीतिक तथा सांस्कृतिक संगठनों के द्वारा झारखंड आंदोलन की शुरुआत की गई। इसके फलस्वरूप 15 नवम्बर, 2000 को झारखंड राज्य की स्थापना की गई।

(v) बोडो आंदोलन-1950 ई० में असम के बोडो भाषाई जनजातियों ने पृथक् राज्य की स्थापना के लिए इस आंदोलन की शुरुआत की जो अभी तक जारी है।

इन आंदोलनों के अलावा नागा आंदोलन, मिजो आंदोलन, खासी विद्रोह, भील भगत आंदोलन आदि प्रमुख जनजातीय आंदोलन हैं।

ही इसका अर्थ है खुला व्यापार।

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