Bihar board class 11th notes psychology chapter 3
Bihar board class 11th notes psychology chapter 3
Bihar board class 11th notes psychology chapter 3
मानव व्यवहार के आधार
• जीवों की करोड़ों विभिन्न प्रजातियाँ हैं जो पूर्ववर्ती प्रारूपों से आज के रूप में विकसित
हुई हैं।
• विकास मुख्यतः पर्यावरण की मांगों के परिणामस्वरूप होता है।
• माँगें, अनुभव और अवसर हमारे व्यवहार को प्रभावित करते हैं।
• मानव तंत्रिका तंत्र में 12 अरब तंत्रिका कोशिकाएँ हैं।
• तंत्रिका कोशिकाएँ समस्त मानव व्यवहार को नियंत्रित और समन्वित करती हैं।
• तंत्रिका तंत्र के तीन मूलभूत घटक काय, पार्श्व तन्तु और अक्ष तन्तु समान रूप से पाए
जाते हैं।
• तंत्रिका तंत्र में सूचनाएँ तंत्रिका आवेग के रूप में प्रवाहित होती हैं।
• परिधीय तंत्रिका तंत्र में वे समस्त तत्रिका कोशिकाएँ तथा तंत्रिका तन्तु पाए जाते हैं,
जो केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र को पूरे शरीर से जोड़ते हैं।
• केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र के अनुकंपी और परानुकंपी खण्ड एक-दूसरे के विपरीत होते हैं।
• मस्तिष्क से जुड़ी प्राचीनतम संस्थाएँ उपवल्कुटीय तंत्र, मस्तिष्क स्तंभ और अनुमस्तिष्क
हैं।
• मस्तिष्क के तीन प्रमुख हिस्से हैं-पश्चमस्तिष्क, मध्यमस्तिष्क तथा अग्रमस्तिष्क ।
• मेरुरज्जु एक लम्बी रस्सी की तरह का तंत्रिका तंतुओं का एक समूह है ।
• मेरुरज्जु के मध्य में तितली के आकार का धूसर रंग वाला द्रव्य के रूप में साहचर्य
तंत्रिका कोशिकाएँ होती हैं।
• अन्त:स्रावी ग्रन्थियाँ नलिका विहीन होती हैं।
• अवटु ग्रन्थि गले में स्थित होती है तथा यह थाइरॉक्सीन नामक अन्त:स्राव उत्पन्न करते
हैं।
• अग्नाशय इन्सुलीन देती है।
• केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र में मस्तिष्क एवं मेरुरज्जु होते हैं ।
• स्वायत्त तंत्र को अनुकंपी और परानुकंपी तंत्र में उपविभाजित किया जा सकता है।
प्रत्येक अक्षतंतु एक खाली स्थान से विभाजित होता है जिसे तंत्रिका कोष सन्धि कहते
हैं।
• उपवल्कुटीय तंत्र के माध्यम से लडने-दौडने जैसे व्यवहार को नियंत्रित किया जा
सकता है। उपवल्कुटीय तंत्र में हिप्पोकेम्पस, गलतुडिका तथा अधश्चेतक होते हैं।
• जैवकीय कारकों के साथ संस्कृति भी मानव व्यवहारों की एक महत्त्वपूर्ण निर्धारक मानी
गयी है।
• सबसे महत्त्वपूर्ण समाजीकरण कारक माता-पिता, विद्यालय, समसमूह, जनसंचार
इत्यादि होते हैं।
• आनुवंशिकता का संबंध जीन अथवा गुणसूत्र से होता है ।
• गुणसूत्र DNA से बना होता है ।
मानव व्यवहार पर समाजिक तथा सांस्कृतिक दोनों विधियों का प्रभाव देखा जाता
है।
बालक के विकास पर सबसे अधिक प्रत्यक्ष और महत्त्वपूर्ण प्रभाव माता-पिता का
पड़ता है।
विद्यालय एक महत्त्वपूर्ण समाजीकरण कारक है।
• परसंस्कृति ग्रहण का तात्पर्य सांस्कृतिक एवं मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों से है जो दूसरी
संस्कृतियों के संपर्क में आने के परिणामस्वरूप होते हैं ।
• व्यवहारात्मक भिन्नताओं को उत्पन्न करने में जैविक तंत्र के गुणों के अतिरिक्त
सांस्कृतिक विशेषताओं का भी महत्त्वपूर्ण योगदान होता है ।
Q.1.विकासवादी परिप्रेक्ष्य व्यवहार के जैविक आधार का किस प्रकार व्याख्या करता
है?
Ans. संसार में जीवों की करोड़ों विभिन्न प्रजातियाँ हैं जो अपने पूर्ववर्ती प्रारूपों से आज
के रूप में विकसित हुई हैं । जैविकीय परिवर्तन किसी प्रजाति के पूर्ववर्ती प्रारूपों में पर्यावरण की
परिवर्तित हुई अनुकूलन की आवश्यकताओं के प्रति उसकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप होती है। जीवों
में व्यवहारात्मक परिवर्तन इतना मंद होते हैं कि सैकड़ों पीढ़ियों के बाद ही दिखाई पड़ता है।
आधुनिक मानवों के तीन महत्त्वपूर्ण अभिलक्षण उन्हें अपने पूर्वजों से अलग करते हैं-
(i) बड़ा और विकसित मस्तिष्क जिसमें संज्ञानात्मक व्यवहार (प्रत्यक्षण, स्मृति, तर्कन) तथा
भाषा के उपयोग करने की क्षमता का पाया जाना ।
(ii) काम करने योग्य विपरीत अंगूठे के साथ मुक्त हाथ रखने वाला प्राणी बन जाना ।
मानव का व्यवहार बहुत जटिल और विकसित होता है। मस्तिष्क का वजन हमारे शरीर
के सम्पूर्ण वजन का 2.35 प्रतिशत होता है जो सर्वाधिक होता है। मनुष्य का प्रमस्तिष्क के अन्य
भागों से अधिक विकसित होता है।
हमारे व्यवहार को प्रभावित करने शारीरिक संरचना के साथ-साथ पर्यावरण के प्रति
अनुकूलन और आनुवंशिकता का सामूहिक योगदान रहता है।
आहार जुटाने की योग्यता, पूरे परिवार की सुरक्षा, परभक्षों को अपने से अलग रखने की
प्रवृत्ति जैसे अनेक प्रक्रियाएँ एवं विधियाँ हैं जो जीवों के व्यवहार को बदलने का कारण बने हुए
हैं । जीवों के व्यवहार में अन्तर लाने का कार्य मुख्यतः पर्यावरण और जीन की योग्यता से करते
रहता है । जीन के माध्यम से व्यवहार में पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिवर्तन होता रहता है ।
Q.2.तंत्रिका कोशिकाएँ सूचना को किस प्रकार संचारित करती हैं? वर्णन कीजिए।
Ans. तंत्रिका कोशिकाएँ सूचना को विद्युत संकेतों के रूप में ग्रहण करने, संवहन करने तथा
अन्य कोशिकाओं तक पहुँचाने का कार्य निपुणता के साथ पूरा करती है । ये संबंधित अंगों के
माध्यम से सूचना प्राप्त करके केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र तक ले जाती है जो प्राप्त सूचना को पेशीय
अंगों तक ले जाती है । तंत्रिका तंत्र के प्रमुख घटक पार्श्व नंतु विद्युत रासायनिक या जैव रासायनिक
संकेत के मिलते ही सक्रिय हो जाते हैं और प्राप्त संकेतों को दूसरे घटक काय कोशिका में भेज
देते हैं । अक्ष तंतु के अंतिम सिरे पर स्थित अंतस्थ वहन प्राप्त संकेतों को अन्य ग्रन्थियों और
मांसपेशियों को दे देते हैं । पेशीय तंत्रिका स्नायविक आदेशों का संवहन करती है।
अर्थात् तंत्रिका तंत्र में सूचनाएँ तत्रिका आवेग के रूप में प्रवाहित होती हैं जो उद्दीपक ऊजा
के रूप में ग्राहकों तक पहुंँचती है ।
Q.3. प्रमस्तिष्कीय वल्कुट के चार पालियों के नाम बताइये । ये क्या कार्य करते हैं ?
Ans. मस्तिष्क के चार प्रमुख भागों में से एक प्रमस्तिष्क कहलाने वाले भाग को प्रमस्तिष्कीय
वल्कुट के नाम से भी समझा जाता है। प्रमस्तिष्कीय वल्कुट सभी उच्चस्तरीय संज्ञानात्मक प्रकार्यो
(अवधान, प्रत्यक्षण, अधिगम, स्मृति, भाषा-व्यवहार, तर्कना, समस्या समाधान) को नियमित
करने का कार्य करता है।
प्रमस्तिष्कीय वल्कुट की संरचना को चार मुख्य पालियों में बाँटा जा सकता है-
(i) ललाट या अग्र पालि
(ii) पाश्विक या मध्य पालि
(iii) शंख पालि तथा
(iv) पश्वकपाल पालि।
प्रमस्तिष्कीय वल्कुट की चार पालियों के कार्य भिन्न माने जाते हैं जो निम्न वर्णित हैं-
(i) ललाट अथवा अग्र पालि-ललाट पालि मुख्यत: संज्ञानात्मक कार्यों (चिंतन, स्मृति
तर्कना, अधिगम, अवधान आदि) में सहायता करता है। किन्तु स्वायत्त और संवेगात्मक
अनुक्रियाओं पर अवरोधात्मक प्रभाव डालता है।
(ii) पार्श्विक पालि या मध्य पालि-पाश्विक पालि त्वचीय संवेदनाओं और उनका चाक्षुष
और श्रवण संवेदनाओं के साथ समन्वय स्थापित करने का कार्य करता है। अर्थात गर्मी, ठंढक,
दर्द आदि की अनुभूति इसी पालि पर आधारित होता है।
(iii) शंख पालि-शंख पालि का सीधा संबंध श्रवणात्मक सूचनाओं से होता है ।
प्रतीकात्मक शब्दों तथा भिन्न-भिन्न ध्वनियों का सही अर्थ समझने का कार्य शंख पालि का ही
है । यह लिखित भाषा और वाणी का अर्थ समझने में निपुण होता है । अर्थात् शंख पालि के
द्वारा श्रवण संवेदनाओं का ज्ञान होता है।
(iv) पश्च कपाल पालि या पृष्ठ पालि-पश्च कपाल पालि मुख्यतः चाक्षुष सूचनाओं से
संबद्ध रहता है । इसी पालि के द्वारा चाक्षुष आवेगों की व्याख्या, चाक्षुष उद्दीपंकों की स्मृति और
रंग चाक्षुष उन्मुखता आदि सम्पन्न की जा सकती है । इसके नष्ट होने से अंधापन का भय उत्पन्न
हो जाता है।
प्रमस्तिष्कीय वल्कुट के प्रमुख पालियों के कार्य को कार चलाने के उदाहरण से स्पष्ट किया
जा सकता है।
कार चलाते समय चालक पश्च कपाल की सहायता से सड़क और अन्य गाड़ियों को देखता
है, शंख पालि की मदद से हार्न या सचेतक की ध्वनि को सुन लेता है । पार्श्विक पालि की सहायता
से चालक गाड़ी को नियंत्रित रखने के लिए पेशीय क्रियाकलाप करता है । गाड़ी को रोकना या
ओवरटेक करना आदि जैसे निर्णय के लिए ललाट पालि की मदद लेता है । इस तरह माना जा
सकता है कि मस्तिष्क की कोई भी गतिविधि वल्कुट के केवल एक हिस्से के द्वारा ही संपादित
होते हैं। प्रत्येक पालि की अपनी विशिष्ट कार्य-क्षमता होती है।
Q.4. विभिन्न अंतःस्रावी ग्रंथियों और उनसे निकलने वाले अन्तःस्रावों के नाम बताएँ।
अंतःस्रावी तंत्र हमारे व्यवहार को कैसे प्रभावित करता है?
Ans. विभिन्न अन्तःस्रावी ग्रन्थियों (नलिकाविहीन ग्रन्थियों) के नाम तथा उनसे निकलने
वाले अन्तःस्नावों के नाम क्रमानुसार अंकित किए गए हैं
अन्तःस्त्रावी ग्रन्थियाँ
(i) पीयूष ग्रन्थि
(ii) अवटु ग्रन्थि
(iii) अधिवृक्क ग्रन्थि एडीनोकार्टिकोट्रोन्यिक हार्मोन (ACTH), कॉर्टिकोयड हार्मोन,
(iv) अग्नाशय
(v) जनन ग्रन्थियाँ
अन्तःस्रावी तंत्र हमारे व्यवहार को
प्रत्यक्षतः प्रभावित करते हैं-पीयूष ग्रंथि
मूल और गौण लैंगिक परिवर्तन को
प्रभावित करके हमें व्यवहार में अन्तर
लाने को बाध्य कर देते हैं । अवटु ग्रंथि
से निकलने वाला थाइरॉक्सिन नामक
हॉर्मोन शरीर में चयापचय की दर को
प्रभावित करता है जिसके कारण ऊर्जा
का उत्पादन होता है । इसकी सक्रियता
बढ़ जाती है। इसके विपरीत थाइरॉक्सिन
की कमी से शारीरिक और मानसिक
सुस्ती आ जाती है।
अधिवृक्क ग्रथियों से निकलने वाले
हार्मोनों के कारण तत्रिका तंत्र के प्रकार्यों
पर सीधा प्रभाव पड़ता है । यह अध-
श्चेतक को उद्दीप्त करते हैं जिससे व्यक्ति
का संवेग घटता-बढ़ता है।
अग्नाशय से निकलनेवाले इन्सुलिन में यह क्षमता होती है कि वह भूख और दर्द से निश्चित
रखकर खुश रहने की प्रवृत्ति जगाता है । इसके विपरीत मधुमेह से ग्रसित व्यक्ति इन्सुलिन के
उपयोग में गड़बड़ी को मुख्य कारण मानता है ।
जनन ग्रंथियों से निकलने वाले हार्मोन के कारण हमारा व्यवहार उत्तेजित तथा आक्रामक हो
जाता है । हमारे व्यवहार में सुन्दर, समर्थ एवं विकसित व्यक्ति कहलाने के लिए कृत्रिम प्रदर्शन
के द्वारा आकर्षण उत्पन्न करने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है ।
सभी अन्तःलावों का सामान्य प्रकार्य हमारे व्यवहारपरक कल्याण के लिए निर्णायक होता
है।
शरीर का आंतरिक संतुलन बनाये रखने के लिए हमारे व्यवहार को दवाब मुक्त, भय मुक्त,
विकसित रखने में हमारी सहायता करता है
सारांशतः अंतःस्त्रावी ग्रंथि से निकलने वाले हार्मोन के चलते हम अपने व्यवहार पर मानसिक
असंतुलन उत्तेजना, भूख, रक्तचाप, उदासीनता, संवेग, सक्रियता, मोटापन, बेचैनी, चिन्ता आदि
प्रभावकारी कारकों का कुप्रभाव नहीं पड़ने देते हैं और इस सर्वप्रिय व्यवहार के प्रदर्शन के योग्य
बने रहते हैं।
Q. 5. स्वायत्त तंत्रिका तंत्र किस प्रकार आपातकालीन स्थितियों में कार्य-व्यवहार में
हमारी सहायता करता है ?
Ans. आपातकाल की स्थिति में हम भय, अनहोनी, अशांति, दुर्घटना आदि के प्रभाव के
कारण अव्यवस्थित हो जाते हैं। हमारी शारीरिक क्रिया स्वाभाविक कार्य नहीं कर पाती है और
हम कई रोग अथवा विषमताओं के चक्कर में पड़ जाते हैं। ज्ञात है कि स्वायत्त तंत्र, जो तंत्रिका
तंत्र का एक प्रमुख घटक होता है, उन क्रियाओं का संचालन करता है जिनपर हमारे प्रत्यक्ष नियंत्रण
नहीं होते हैं । जैसे, साँस लेना, रक्त संचार, लार स्राव, उदर संकुचन और प्रायोगिक प्रतिक्रियाओं
का नियंत्रण हमारी इच्छा पर निर्भर नहीं करता है।
आपातकाल में तेजी से हृदय का धड़कना, कई वीभत्स घटनाओं को देखना, रक्तचाप का
बढ़ जाना, मुँह सूखना, भूख न लगना, बार-बार प्यास लगना, चिड़चिड़ापन का बढ़ जाना जैसी
अस्वाभाविक स्थितियाँ आ जाती हैं । स्वायत्त तंत्रिका तंत्र ऐसी स्थिति में अपनी स्वाभाविक वृत्ति
को छोड़कर हमारी सहायता करते हैं। अधिक ऊर्जा का संचार करके, अनुकंपी तंत्र की सक्रियता
को कम करके, पाचन-क्रिया की गड़बड़ी को सुधार कर प्रभावित व्यक्ति को शांत कर उसे
सामान्य स्थिति में लाता है । स्वायत्त तंत्रिका के दोनों प्रमुख खण्ड-अनुकम्पी और परानुकम्पी
खण्ड अपने विपरीत प्रभाव की प्रवृत्ति को छोड़कर मानवीय व्यवहार में संतुलन बनाये रखने के
लिए मिल-जुलकर कार्य करने लगते हैं । स्वायत्त तंत्र के दोनों खण्डों के सामूहिक प्रयास से संघर्ष
करने की क्षमता बढ़ जाती है तथा सभी शारीरिक क्रियाएँ (हृदय गति, श्वास गति, रक्तचाप, रक्त
की संरचना) आदि सामान्य स्तर में आ जाती है । अर्थात् स्वायत्त तंत्र की सक्रियता से प्रबल
और त्वरित कार्यवाही के माध्यम से प्रभावित व्यक्ति परिस्थिति से जूझने की क्षमता बढ़ा पाता
है।
Q.6. संस्कृति का क्या अर्थ है ? इसकी मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए । [Model Set2009A]
Ans. संस्कृति का सामान्य अर्थ एक विशिष्ट अवधारणा मानी जाती है जहाँ अच्छे व्यवहार
या आचरण करने वाले को सुसंस्कृत कहा जाता है । संस्कृति का सही अर्थ जानने के लिए
भिन्न-भिन्न विद्वानों ने अपने-अपने तरह से संस्कृति को परिभाषित किया है जिनमें से कुछ प्रमुख
परिभाषाएँ निम्नवत हैं-
(i) वूम और सेल्जनिक-समाज में संस्कृति का अर्थ मनुष्य की सामाजिक विरासत से लिया
जाता है जिसमें सभी प्रकार के ज्ञान, विश्वास, प्रथाएँ एवं प्रथा आती हैं जिसे व्यक्ति समाज के
एक सदस्य के रूप में ग्रहण करता है । आज संस्कृति लोगों की जीवन-शैली के रूप में परिभाषित
की जा रही है । इसे परम्परा की धरोहर के रूप में पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तान्तरित किए जाते रहे हैं।
(ii) टॉयलर (Taylor) “संस्कृति वह जटिल समग्रता है जिसमें ज्ञान, विश्वास, कला,
आचार, कानून, प्रथा तथा ऐसी ही अन्य क्षमताओं और आदतों का समावेश रहता है जिसे मनुष्य
समाज के सदस्य के रूप में प्राप्त करता है।” टॉयलर की इस परिभाषा में भौतिक तत्वों को
संस्कृति में शामिल नहीं किया गया है । आज के मानवशास्त्रियों ने संस्कृति में भौतिक तत्वों को
भी शामिल किया है।
(iii) पिडिंग्टन (R. Piddington)- “मानव संस्कृति उन भौतिक और बौद्धिक साधनों
और उपकरणों का संपूर्ण योग है जिसके द्वारा मानव अपनी जैविकीय और सामाजिक
आवश्यकताओं की पूर्ति करता है और साथ ही अपने को पर्यावरण के अनुकूल बनाता है।”
पिडिंग्टन की इस परिभाषा में-
(a) भौतिक और बौद्धिक साधनों और उपकरणों को संस्कृति का अंग माना गया है;
(b) मनुष्य संस्कृति के माध्यम से अपने को पर्यावरण (Environment) के अनुकूल
बनाता है:
(c) संस्कृति के तत्वों को मनुष्यमात्र की आवश्यकताओं की पूर्ति का साधन माना गया है।
(iv) डॉ. श्यामचरण दूबे-प्रसिद्ध भारतीय विद्वान डॉ. दूबे के शब्दों में, “सीखे हुए
व्यवहार-प्रकारों को उस समग्रता को जो किसी समूह को विशिष्टता प्रदान करती है, संस्कृति की
संज्ञा दी जा सकती है। दूसरे शब्दों में, किसी समूह के ऐतिहासिक विकास में जीवन-यापन के
जो विशिष्ट स्वरूप विकसित होते हैं, वे ही उस समूह की संस्कृति हैं ।” पिडिंग्टन तथा दूबे के
अनुसार मानव द्वारा निर्मित सभी भौतिक एवं अभौतिक वस्तुएँ संस्कृति में आती हैं।
(v) रॉबर्ट बीयरटेंड (Robert Bierstedt)- “संस्कृति एक जटिल समग्रता (the com-
plex whole) हैं जिसमें उन सभी चीजों का समावेश हे जिनपर हम सोचते हैं, कार्य करते हैं।
और समाज के सदस्य होने के नाते उन्हें अपने पास रखते हैं।”
(vi) हस्कोविट्स (Herskovits)-“संस्कृति पर्यावरण का मानव-निर्मित व्यवहार है।”
(vii) मेकाइवर तथा पेज (Maclver and Page)-मेकाइवर तथा पेज ने संस्कृति को
सभ्यता से अलग माना है । उनका कहना है कि “हमारी संस्कृति वही है जो हम हैं और हम
प्रयोग करते हैं, वही हमारी सभ्यता है” (Our culture is what we are, our civilization
is what we use.)। उन्होंने कलम, घड़ी, टाइपराइटर मशीन आदि को सभ्यता माना है जबकि
ज्ञान, नैतिक आचार शास्त्र, कला, धर्म आदि. को संस्कृति का तत्व स्वीकार किया है।
संस्कृति की विशेषताएँ-संस्कृति के सम्बन्ध में प्राप्त अवधारणों तथा अनेक परिभाषाओं
के आधार पर संस्कृति के सम्बन्ध में कुछ विशिष्ट विशेषताओं की संभावना मिलती है जो इस
प्रकार व्यक्त किये जा सकते हैं-
(i) संस्कृति उन लोगों के व्यवहारात्मक उत्पादों को सम्मिलित करती है जो हमसे पहले आ
चुके हैं । अर्थात् जैसे ही हम जीवन प्रारम्भ करते हैं, संस्कृति वहाँ पहले से ही उपस्थित होती
है।
(ii) संस्कृति एक जीवन-पद्धति है जो किसी निश्चित परिवेश में रहने वाले लोगों द्वारा अपनाई
जाती है।
(iii) संस्कृति को कुछ प्रतीकों में अभिव्यक्त अर्थों के रूप में समझा जाता है जो कि
ऐतिहासिक रूप से लोगों में संचारित होते हैं ।
(iv) संस्कृति समय, स्थान, पर्यावरण और परिस्थिति के कारण भिन्नता बनाए रह सकती है।
(v) संस्कृति एक समाज से दूसरे समाज के मनुष्यों के व्यवहारों का निरूपण करती है।
इन विशेषताओं को स्पष्टतः व्यक्त करने के उपरान्त निम्न विशेषताओं को भी व्यक्त किए
जा सकते हैं-
1. संस्कृति सीखे हुए आचरणों का नाम है; जैसे-अभिवादन, गायन, वस्त्र पहनना, नृत्य
करना आदि सीखे हुए आचरण कहलायेंगे; क्योंकि हम इन्हें समाज से सीखते हैं । गैर सीखे हुए
आचरण वे कहलायेंगे जो कि स्वाभाविक प्रवृत्ति से सम्बन्धित होते हैं । जैसे-रोना, क्रोध करना
आदि । समस्त सीखे हुए आचरण एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं । वे एक-दूसरे को प्रभावित
करते हैं; जैसे कि गुरु-शिष्य का आचरण, मालिक-मजदूर का आचरण आदि और इन्हीं के
आधार पर हम आचरणों के प्रतिमान निर्धारित करते हैं, जैसे-बच्चों का आचरण, स्त्रियों का
आचरण, शिष्यों का आचरण इत्यादि ।
2.संस्कृति के छिपे हुए आचरण संगठित प्रतिमानों के रूप होते हैं-किसी भी व्यक्ति
के आचरण का स्वयं में कोई अर्थ नहीं होता है वरन् इनका महत्त्व अन्य लोगों के सम्बन्धों में
ही होता है। एक आचरण अन्य आचरणों से भी सम्बन्धित होता है। हर व्यक्ति के आचरण
निर्धारित हो जाने पर समाज तथा उनकी संस्कृति उससे यह आशा करती है कि वह उसी के
अनुसार आचरण करें । इसी के आधार पर उनके आचरणों का नामांकन होता है; जैसे कि बच्चों
की तरह आचरण करने वाले युवक के कार्यों को बचकाना आचरण कहा जायगा । कुछ विशेष
आचरण तथा संस्कृति द्वारा स्त्री तथा पुरुषों के लिए निर्धारित किये गये हैं । यदि कोई पुरुष स्त्रियों
के अनुसार आचरण करते हैं तो उसे जनाना आचरण कहते हैं ।
3. संस्कृति के प्रतिमान आदर्शात्मक होते हैं-भला-बुरा, सत्य-असत्य, उचित-अनुचित,
विचार को शिक्षा छोटे को बड़े से मिलती है । उचित-अनुचित को धारणा परिणाम पर निर्भर
करता है। किसी व्यक्ति के कार्य का परिणाम यदि अच्छा होता है तो मनुष्य उसका अनुसरण
करते हैं।इस प्रकार जनरीति,प्रथा,परम्परा,संस्था का रूप लेकर वह विचार संस्कृति का अंग
बन जाता है।
4. संस्कृति के प्रतिमान भौतिक एवं अभौतिक दोनों ही होते हैं-वस्तुवादी चीजें
भौतिकवादी प्रतिमान में आयेंगी और विचारवादी सम्बन्धों को प्रभावित करने वाली अभौतिक
प्रतिमान में आयेंगी । इस प्रकार से रेडियो, टेलीविजन के आचरण, विचार, प्रथा, परम्परा आदि
वस्तुएँ अभौतिक संस्कृति के अन्तर्गत आयेंगी, क्योंकि ये निराकार होती हैं ।
5. सार्वभौमिक स्वीकृति-कोई भी आचरण संस्कृति का अंग तभी कहलाता है जबकि
पर्याप्त लोग उसे स्वीकार कर लेते हैं ।
6. व्यवहार के प्रतिमान हस्तांतरति होते हैं-एक पीढ़ी पने आचरण दूसरी पीढ़ी को
सिखाती है और युग-युग से यह हस्तांतरण चल रहा है । माता-पिता, वयोवृद्धों तथा शिक्षकों के
माध्यम से अभौतिक, भौतिक संस्कृतियाँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित होती हैं ।
7. संस्कृति का स्वरूप हमेशा परिवर्तनशील होता है-संस्कृति समाज त । व्यक्ति की
विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति की विधियों का नाम है । इसलिये यह हमेशा परिवर्तनशील होती
है।
8. संस्कृति सामाजिक है-संस्कृति सामाजिक है; क्योंकि व्यक्ति समूह के बाहर किसी भी
प्रकार की सृष्टि नहीं कर सकता । यह समूह का आदर्शात्मक गुण होता है, व्यक्ति उसे अपनाने
का प्रयत्न करता है।
Q.7. क्या आप इस कथन से सहमत हैं कि “जैविक कारक हमें समर्थ बनाने की
भूमिका निभाती है जबकि व्यवहार के विशिष्ट पहलू सांस्कृतिक कारकों से जुड़े हैं।”
अपने उत्तर के समर्थन के लिए कारण दीजिए।
Ans. दिये गये कथन में सच्चाई है, क्योंकि जैवकीय उत्तराधिकारी जीन के माध्यम से घटित
होते हैं जबकि सांस्कृतिक उत्तराधिकार पर्यावरण की भिन्न-भिन्न घटनाओं के कारण उत्पन्न होता
है । जैविक कारक प्रकृति प्रदत्त होते हैं जबकि व्यवहार को परिवेश के आधार पर कृत्रिम दशा
में उपलब्ध किया जाता है । जैविक कारक मनुष्य को ही नहीं बल्कि सभी जीवों को भी
जीवन-सम्बन्धी क्रियाकलाप (सांस लेना, भोजन खोजना, स्वयं को सुरक्षित रखना, स्वतंत्र एवं
न्यायपूर्ण जीवन जीना) के प्रति समर्थ बनाता है । सभी जीवों में माता-पिता से मिले जीन के
विशिष्ट संयोजन का धारक बनने का अवसर मिलता है तथा वह विभिन्न प्रतिक्रियाओं के प्रति
स्वयं को समर्थ बना पाता है । जीन के रूप में प्राप्त होने वाले गुणसूत्र शरीर के आनुवंशिक तत्व
के रूप में सहयोग करता है । गुणसूत्र के माध्यम से जीनोटाइप और फीनोटाइप जैसे लक्षण प्रकट
होते हैं तथा जैविक कारक में सुस्क्षा सम्बन्धी गुण उत्पन्न हो जाते हैं । इस तरह माना जा सकता
है कि जैविक कारकों को उपलब्ध सामर्थ्य आनुवंशिक कारणों से संभव होते हैं ।
सांस्कृतिक कारकों के प्रभाव में जीव अनुकूलन के लिए अपने व्यवहार में परिस्थिति के
अनुसार अन्तर उत्पन्न कर लेता है । हम कुछ विचार, संप्रत्यय और मूल्यों को सीखकर काम
व्यवहार सम्बन्धी नियमों, मूल्यों तथा कानूनों की रचना कर परिवेश में अनुकूल परिवर्तन लाने का
प्रयास करते रहते हैं। पर्यावरण के विभिन्न घटकों से प्रभावित होकर जीवन अपनी जीव-पद्धति
को बदलकर जीने का प्रयास करता है। मानव का स्वभाव प्राकृतिक दशा के अधीन होती है जबकि
शारीरिक क्षमता उसे बचपन से ही उपलब्ध रहती है । माँ-बाप की क्षमता, पालन-पोषण के लिए
प्रयुक्त विधि और साधन जीवों को समर्थ बनाता है जो स्वाभाविक वृत्ति मानी जाती है। व्यवहार
एक कृत्रिम प्रक्रिया होती है जो परिस्थितिवश उइंड, नम्र, सर्वप्रिय, कटु, किसी श्रेणी में रूपान्तरित
हो सकता है।
Q.8. समाजीकरण के प्रमुख कारकों का वर्णन कीजिए।
Ans. समाज के हित में किये जाने वाले कार्य-विधि को जो हमें सीखने की विधि या
अवसर प्रदान करता है उन्हें समाजीकरण के कारक कहते हैं । समाजीकरण के प्रमुख कारक
निम्नलिखित हैं-
(i) माता-पिता (ii) विद्यालय (iii) समसमूह और (iv) जनसंचार का प्रभाव ।
(i) माता-पिता-बालक के विकास पर सबसे अधिक प्रत्यक्ष और महत्त्वपूर्ण प्रभाव
माता-पिता का पड़ता है । वे विभिन्न स्थितियों में माता-पिता के प्रति भिन्न प्रकार से प्रतिक्रिया
करते हैं। माता-पिता उनके कुछ व्यवहारों को, शाब्दिक रूप से पुरस्कृत करके जैसे-प्रशंसा करना
या अन्य मूर्त तरह से पुरस्कृत करके जैसे-चॉकलेट, खिलौने या बच्चे की पसंद की वस्तु खरीदना
प्रोत्साहित करते हैं । वे कुछ अन्य व्यवहारों का अनुमोदन करके, निरुत्साहित करते हैं । वे बच्चों
को भिन्न प्रकार की स्थितियों में रखके उन्हें विघ्यात्मक अनुभव, सीखने के अवसर और चुनौतियाँ
प्रदान करते हैं। बच्चों से अन्योन्यक्रिया करते समय माता-पिता विभिन्न युक्तियाँ अपनाते हैं जिन्हें
पैतृक शैली कहा जाता है। माता-पिता के अपने बच्चों के प्रति व्यवहारों में स्वीकृति और नियंत्रण
की हद के विषय में बहुत भिन्नताएँ होती हैं । माता-पिता अपने बच्चों को समाजीकृत करने के
लिए जो शैली अपनाते हैं वे उनकी आर्थिक दृश्य, स्वास्थ्य, कार्य-दबाव, परिवार का स्वरूप आदि
से प्रभावित होते हैं । दादा-दादी एवं नाना-नानी के समीपता तथा सामाजिक संबंधों का ढाँचा,
बच्चे के समाजीकरण में प्रत्यक्षतः या माता-पिता के माध्यम से बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं।
(ii) विद्यालय-बच्चे विद्यालय में लंबा समय व्यतीत करते हैं, जो उन्हें अपने शिक्षकों और
समकक्षियों के साथ अन्योन्यक्रिया करने का एक सुसंगठित ढाँचा प्रदान करता है। विद्यालय में
बच्चे न केवल संज्ञानात्मक कौशल जैसे-पढ़ना, लिखना, गणित को करना ही नहीं सीखते हैं बल्कि
बहुत से सामाजिक कौशल जैसे-बड़ों तथा समवयस्कों के साथ व्यवहार करने के ढंग, भूमिकाएँ
स्वीकारणा, उत्तरदायित्व निभाना भी सीखते हैं। वे समाज के नियमों और मानकों को भी सीखते
हैं और उनका आंतरीकरण भी करते हैं। स्वयं पहल करना, आत्म-नियंत्रण, उत्तरदायित्व लेना
और सर्जनात्मकता आदि गुण भी बच्चे विद्यालय में सीखते हैं । ये गुण बच्चे को अधिक
आत्मनिर्भर बनाते हैं । वास्तव में, एक अच्छा विद्यालय बच्चे के व्यक्तितव के पूर्णतया ही रूपांतरण
कर सकता है।
(iii) समसमूह-समसमूह बच्चे के समाजीकरण का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारक है। यह
बच्चों को न केवल दूसरों के साथ होने का अवसर प्रदान करता है बल्कि अपनी उम्र के साधियों
के साथ सामूहिक रूप से विभिन्न क्रियाकलापों जैसे-खेल को आमोजित करने का भी अवसर
प्रदान करती है। ऐसे गुण; जैसे-सहभाजन, विश्वास, आपसी समझ, भूमिका स्वीकृति एवं निर्वहन
भी समकक्षियों के साथ अन्योन्यक्रिया के दौरान विकसित होते हैं । बच्चे, अपने दृष्टिकोण को
दृढ़तापूर्वक रखना और दूसरों के दृष्टिकोण को स्वीकार करना और उनसे अनुकूलन करना भी
सीखते हैं । समसमूह के कारण आत्म-तादाम्य का विकास बहुत सुगम हो जाता है।
(iv) जनसंचार का प्रभाव-दूरदर्शन, समाचारपत्रों, पुस्तकों और चलचित्रों के माध्यम से
बच्चे बहुत सारी बातें सीखते हैं । किशोर और युवा प्रौढ़ अक्सर इन्हीं में से अपना आदर्श प्राप्त
करते हैं, विशेषकर दूरदर्शन और चलचित्रों से । दूरदर्शन चलचित्रों में दिखाई जानेवाली हिंसा
बच्चों में आक्रामक व्यवहार को बढ़ाता है । अतः समाजीकरण के इस कारक को अधिक तरह
से उपयोग करने की आवश्यकता है जिससे बच्चों में अवांछित व्यवहारों के विकास को रोका
जा सके।
Q.9. संस्कृतिकरण और समाजीकरण में हम किस प्रकार विभेद कर सकते हैं ?
व्याख्या कीजिए।
Ans. संस्कृतिकरण का संदर्भ उन समस्त अधिगमों से है जो बिना किसी प्रत्यक्ष और सोद्देश्य
शिक्षण के होता है जबकि समाजीकरण एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति ज्ञान, कौशल और
शील गुण अर्जित करते हैं जो उन्हें समाज एवं समूहों में प्रभावशाली सदस्यों की तरह भाग लेने
में सक्षम बनाती है।
(i) संस्कृतिकरण के मुख्य तत्व प्रेक्षण द्वारा सीखना है जबकि सबसे महत्त्वपूर्ण समाजीकरण
कारक माता-पिता, विद्यालय समसमूह, जन-संचार आदि होते हैं
(ii) संस्कृतिकरण के प्रभाव काफी स्पष्ट दिखाई देते हैं तथापि लोग सामान्यत: इन प्रभावों
के प्रति सजग नहीं हो पाते हैं । समाजीकरण के प्रभाव के रूप में माता-पिता का व्यवहार, विद्यालय
का कार्यक्रम, सामाजिक जालक्रम का विस्तार, अवांछित व्यवहारों का विकास आदि से जुड़े होते
हैं।
(iii) संस्कृतिकरण एक प्रत्यक्ष विरोधाभास को जन्म देता है जबकि समाजीकरण किसी
व्यक्ति में सुरक्षा, देखभाल, पालन-पोषण, योग्यता का विकास आदि को समझने तथा अपनाने
का अवसर जुटाता है।
(iv) पूर्ववर्ती पीढ़ियों के माध्यम से चीजों का सांस्कृतिक निरूपण किया जाता है जबकि
समाजीकरण सदस्यों के व्यवहार, विकास, अनुप्रयोग आदि पर ध्यान देता है ।
(v) संस्कृतिकरण पूरी जीवन विस्तृति तक निरन्तर चलती रहती है जबकि समाजीकरण
आवश्यकता एवं दशा पर आश्रित होता है।
(vi) संस्कृतिकरण एक प्रकार का सजग एवं उद्देश्यपूर्ण प्रक्रिया है जबकि समाजीकरण
समाजीकृत करने की शक्ति रखता है जो भाषिक व्यवहार के रूप में जाना जाता है ।
अर्थात्. संस्कृतिकरण और समाजीकरण में विभेद बतलाने के लिए उनकी प्रकृति एवं
विशेषताओं (लक्षण एवं प्रभाव) को इंगित करना होता है।
Q.10. परसंस्कृति ग्रहण से क्या तात्पर्य है ? क्या परसंस्कृति ग्रहण एक निर्बाध प्रक्रिया
है ? विवेचना कीजिए।
Ans. दो भिन्न संस्कृतियों में से कोई एक जब दूसरी के सम्पर्क में आता है तो सांस्कृतिक
और मनोवैज्ञानिक परिवर्तन आना परसंस्कृति ग्रहण के सामान्य धारणा है। अभीष्ट सम्पर्क प्रत्यक्ष
अथवा अप्रत्यक्ष कुछ भी हो सकता है । परसंस्कृति ग्रहण की रूप में नयी संस्कृति में स्थानांतरण
अथवा जन-संचार के माध्यमों से होनेवाले में प्रयुक्त माध्यमों में हो सकता है । उच्च शिक्षा के
लिए विदेश जाना, प्रशिक्षण, नौकरी या व्यापार के लिए स्थान बदलना ऐच्छिक ग्रहण माना जाता
है । औपनिवेशिक अनुभव, आक्रमण या राजनीतिक शरण के द्वारा अनैच्छिक ग्रहण कहलाता है।
परसंस्कृति ग्रहण को स्पष्टतः समझने के लिए कुछ नया सीखने की आवश्यकता हो जाती
है । अर्थात् परसंस्कृति ग्रहण की स्थिति में कोई व्यक्ति समस्यारहित माना जाता है । इसमें
यदा-कदा द्वन्द्व की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है । व्यवहार संबंधी ज्ञान की पुनरावृत्ति को जारी
रखने का एक महत्त्वपूर्ण जरिया है । इसे परिवर्तन मुक्त भी रखा जा सकता है । अर्थात् परसंस्कृति,
ग्रहण का तात्पर्य दूसरी संस्कृतियों के साथ सम्पर्क के परिणामस्वरूप आए हुए सांस्कृतिक और
मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों से है जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष, ऐच्छिक अथवा अनैच्छिक किसी भी श्रेणी
में रहकर कुछ नया सीखने के लिए बाध्य कर देता है। दूसरी संस्कृति के लोगों से मिलने पर
उसकी संस्कृति को समझना तथा उसके साथ जीवन व्यतीत करने की सही स्थिति का पता लगाना
परसंस्कृति ग्रहण की प्रमुख विशेषता है । ब्रिटिश शासनकाल में लोग इसी कारण उसके लक्षणों
एवं आदर्शों को ग्रहण करना सरल, सत्य एवं अभीष्ट माना गया । इस प्रकार ब्रिटिश संस्कृति
के साथ रह जाने से उसकी जीवन-शैली संबंधी प्रेक्षण किया जाता है।
परसंस्कृति ग्रहण की व्याख्या पर्यावरण को रूपान्तरित करना होता है। यह निर्बाध प्रतिक्रिया
को नकारते हुए किसी के जीवन में किसी भी समय घटित हो सकती है। यह जब कभी भी घटित
होता है तब इसमें मानकों, मूल्यों, गुणों और व्यवहार के प्रारूपों को पुनः सीखना होता है । इसकी
सफल व्याख्या करने के लिए समाजीकरण की मदद ली जाती है। परिवर्तन की दिशा एवं प्रभाव
के बदलने से परसंस्कृति ग्रहण के प्रति समझ भी बदल जाती है।
Q.11. परसंस्कृतिग्रहण के दौरान लोग किस प्रकार की परसंस्कृतिग्राही युक्तियाँ
अपनाते हैं ? विवेचना कीजिए ।
Ans. परसंस्कृतिग्रहण के अवसर पर अक्सर कुछ द्वन्द्व उत्पन्न हो जाते हैं जिससे मुक्ति पाना
आवश्यक हो जाता है । अध्ययन से ज्ञा है कि लोगों के पास परसंस्कृतिग्राही परिवर्तन का मार्ग
बदल जा सकता है। लोगों के पास परसंस्कृति ग्रहण से संबंधित कई विकल्प होते हैं । परसंस्कृति
ग्रहण एक विशिष्ट नैतिक घटना है जिसका अध्ययन आत्मनिष्ठ तथा वस्तुनिष्ठ होना चाहिए।
भाषा, वेशभूषा, जीवन-शैली, जीवन-यापन के साधन, घर का प्रबंध, घर के साधन (आभूषण,
फर्नीचर, रेडियो, टी.वी.), यात्रा के अनुभव, चलचित्रों का प्रदर्शन इत्यादि जीवन-यापन में अपनाये
जाने वाले परिवर्तनों की सूचना देते हैं । परिवर्तनों का परीक्षण या अभिवृतियाँ द्वन्द्व की समस्या
से छुटकारा दिलाने में समर्थ हैं । इन्हें एक प्रमुख युक्ति माना जाता है । जीवन पद्धति से जुड़े
परिवर्तनों के प्रति सजग रहना परसंस्कृति ग्रहण का मार्ग खोल देता है। साथ ही साथ समाकलन,
आत्मसात्करण, पृथक्करण तथा सीमांतकरण नामक चार युक्तियों का उपयोग करके परसंस्कृति
ग्रहण की संभावना को और अधिक पुष्ट बनाया जा सकता है । समाकलन नामक युक्ति में दो
भिन्न संस्कृतियों को समान मूल्य दिया जाता है।
आत्म सात्करण नामक युक्ति के द्वारा अपनी सांस्कृतिक अनन्यता को बनाए रखने का प्रयास
किया जाता है।
पृथक्करण-लोगों को दूसरे सांस्कृतिक समूहों के अन्यान्य क्रिया से बचना चाहिए।
सीमांतकरण-अनिश्चय की स्थिति में रहने वाले लोग दो तरह के प्रश्नों के उत्तर जानने को
उत्सुक रहते हैं।
(क) उन्हें क्या करना चाहिए?
(ख) वे क्यों दयनीय स्थिति में कैसे बने रहते हैं ?
(OBJECTIVE ANSWER TYPE QUESTIONS)
1. स्नायुमंडल की सबसे छोटी इकाई है- [B.M.2009A]
(a) न्यूरोन
(b) कपाल
(c) टेक्टम
(d) इनमें से कोई नहीं। (उत्तर-A)
2. मानव शरीर में कोशों की संख्या है। [B.M.2009 A]
(a) लगभग । करोड़
(b) लगभग 10 करोड़
(c) लगभग 10 अरब
(d) इनमें से कोई नहीं। (उत्तर-C)
3. मानव मस्तिष्क में संधि की संख्या कितनी होती है ? [B.M.2009A]
(a) 1 लाख
(b) 1 करोड़
(c) 10 करोड़
(d) 1 अरब
4. कान के नली की लंबाई होती है-
(a) 20 मी०मी०
(b) 25 मी०मी०
(c) 30 मी०मी०
(d) 32 मी०मी०
5. आँख में पटलों की संख्या कितनी होती है ? [B.M.2009 A)
(a) दो
(b) तीन
(c) चार
(d) पाँच
6. जो प्रयोग करता है उसे कहा जाता है [B.M.2009 A]
(a) प्रयोगकर्ता
(b) प्रयोग
(c) चर
(d) इनमें से कोई नहीं। (उत्तर-A)
7. व्यवहारवाद की नींव किसने डाली : [B.M. 2009 A]
(a) वुण्ट
(b) कोहल
(c) वाटसन
(d) मैस्लो
8. गुणसूत्र किस पदार्थ से बने होते हैं :
(a) जीन
(b) डी एन ए
(c) खत
(d) इनमें से कोई नहीं। (उत्तर-B)
9. हमारी आँखें कितनी परतों से बनी होती है: [B.M.2009 A]
(a) 1
(b) 2
(c) 3
(d) 4
(VERY SHORT ANSWER TYPE QUESTIONS)
Q.1. लोग शारीरिक और मनोवैज्ञानिक विशेषताओं में एक-दूसरे से भिन्न होते हैं । क्यों?
Ans. लोगों की विशिष्टताएँ, उनकी आनुवांशिक और पर्यावरण की माँगों के बीच अंत:क्रिया
का परिणाम होती है । अर्थात किसी प्रजाति के पूर्ववर्ती प्रारूपों में पर्यावरण को परिवर्तित होती
हुई अनुकूलन की आवश्यकताओं के प्रति उनकी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप जैविकीय परिवर्तन तथा
विकास होता रहता है।
Q.2. आधुनिक मानव के किन तीन महत्त्वपूर्ण अभिलक्षणों के कारण वे अपने पूर्वजों
से अलग प्रतीत होते हैं?
Ans. (i) बड़ा और विकसित मस्तिष्क (ii) दो पैरों पर सीधा खड़ा होकर चलने की क्षमता
तथा (ii) काम करने योग्य विपरीत अंँगूठे के साथ मुक्त हाथ ।
Q.3. हमारे व्यवहार का महत्त्वपूर्ण निर्धारक किसे माना जा सकता है ?
Ans. हमारी जैविकीय संरचना, जो हमें हमारे पूर्वजों से एक विकसित शरीर और मस्तिष्क
के रूप में प्राप्त हुई है, हमारे व्यवहार का निर्धारक बनकर हमारी सहायता करती है। हम अनुभव
एवं ज्ञान के आधार पर पर्यावरण से समझौता करते हुए जीवन की विकास पथ अग्रसरित करते
हैं।
Q.4. तंत्रिका कोशिकाएँ क्या हैं ?
Ans. तंत्रिका कोशिका हमारे तंत्रिका तंत्र की मूलभूत इकाई है । ये उद्दीपकों को विद्युतीय
आवेग में बदलती है तथा प्राप्त सूचना को विद्युत रासायनिक संकेतों में बदलकर अन्य कोशिकाओं
तक पहुँचाने का कार्य करती है।
Q.5. मानव तंत्रिका तंत्र में कितनी तंत्रिका कोशिकाएंँ हैं ?
Ans. मानव तंत्रिका तंत्र में आकार, संरचना एवं कार्य करने की प्रवृत्ति और क्षमता की दृष्टि
से भिन्न मानी जानेवाली लगभग बारह अरब तंत्रिका कोशिकाएँ हैं।
Q.6. वे तीन मूलभूत घटक क्या हैं जो तंत्रिका कोशिकाओं में भिन्नता पाई जाने पर
भी समान रूप से पाए जाते हैं ?
Ans. सभी तंत्रिका कोशिकाओं में समान रूप से पाए जाने वाली तीन घटक हैं-(i) काय
(soma) (ii) पार्श्व तंतु (dendrites) तथा (iii) असतंतु (axon) | ये कार्य की दृष्टि से
अलग-अलग महत्व रखते हैं।
Q.7.तंत्रिका आवेग क्या है?
Ans. तंत्रिका तंत्र में प्रवाहित होने वाली सूचनाओं के परिवर्तित रूप को तंत्रिका आवेग कहते
हैं जो उद्दीपक ऊर्जा के सशक्त होने पर ही उत्पन्न होती है । इसकी शक्ति तत्रिका तंतु के
साथ-साथ स्थिर रहती है।
Q.8. तंत्रिका-कोष सन्धि का परिचय दें।
Ans. किसी सूचना के प्रसारण की स्थिति में तंत्रिका आवेग को संचारित करना होता है।
इस प्रक्रिया में एक तंत्रिका कोशिका निकटवर्ती तंत्रिका कोशिका को संदेश दे देती है। पूर्ववर्ती
तंत्रिका कोशिका के अक्ष तंतु से प्रकार्यात्मक संबंध या तंत्रिका कोष-सन्धि बनाते हैं।
Q.9.तंत्रिका तंतु का क्रमबद्ध प्रतिरूपण एक आरेख के रूप में किस प्रकार व्यक्त
किया जा सकता है?
Ans. मानव तंत्रिका तंत्र सर्वाधिक जटिल एवं विकसित तंत्र है जिसके प्रमुख, अंश
अलग-अलग तरह से व्यवस्थित रहकर विभिन्न प्रकार्यों से संलग्न रहते हैं । जैसे केन्द्रीय तंत्रिका
तंत्र कठोर हड्डी के खोल (कपाल) के अन्दर पाया जाता है। स्वायत्त तंत्रिका तंत्र का कार्य
ऐच्छिक नियंत्रण से बाहर होता है।
Q.10. परिधीय तंत्रिका तंत्र में क्या पाए जाते हैं ?
Ans. परिधीय तंत्रिका तंत्र में वे समस्त तंत्रिका कोशिकाएँ तथा तंत्रिका तंतु पाए जाते हैं
जो केन्द्रीय तत्रिका तंत्र को पूरे शरीर से जोड़ते हैं । कायिक तथा स्वायत्त तंत्रिका तंत्र इसके प्रमुख
भाग होते हैं।
Q.11. कायिक तंत्रिका तंत्र के तीन प्रमुख हिस्से क्या हैं ?
Ans. कायिक अथवा कपालीय तंत्रिकाएँ तीन प्रकार की होती हैं-
(i) संवेदी-जो संवेदी सूचनाओं का संग्रह करती है ।
(ii) पेशीय-जो पेशीय आवेगों को सिर के क्षेत्र में पहुँचाती है ।
(iii) मिश्रित-जो मेरुरज्जू के 31 समुच्चयों के रूप में संवेदी तथा संवहन दो तरह के कार्यों
को पूरा करती है।
Q.12. स्वायत्त तंत्रिका के दो खण्ड क्या हैं ? उनका तुलनात्मक अध्ययन किस रूप
में किया जाता है?
Ans. स्वायत्त तंत्रिका तंत्र के दो प्रमुख खण्ड हैं-(i) अनुकम्पी खण्ड तथा (ii) परानुकंपी
खण्ड।
विपरीत प्रभाव डालने वाले दोनों खण्डों का संतुलन बनाये रखने के लिए मिलकर कार्य करने
होते हैं । परानुकंपी खण्ड मुख्यत: ऊर्जा के संरक्षण से सम्बद्ध होते हैं । अनुकंपी खण्ड
आपातकालीन स्थितियों को नियत्रित रखता है।
Q.13. केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र किनकी सहायता से तथा किस प्रकार के कार्य करते हैं ?
Ans. केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र मस्तिष्क और मेरुरज्जु की सहायता से समस्त संवेदी सूचनाओं
को संगठित करके मांसपेशियों तथा ग्रथियों को प्रेरक आदेश देने का काम करता है ।
Q.14. मस्तिष्क के बारे में सबसे आश्चर्यजनक बात क्या है ?
Ans. एक वयस्क मस्तिष्क का भार 1.36 किग्रा होता है तथा इसमें 100 अरब तंत्रिका
कोशिकाएंँ होती हैं । उसको मानव व्यवहार और विचार को दिशा प्रदान करने की योग्यता
आश्चर्यजनक मानी जाती है।
Q.15. तंत्रिक तंत्र को कितने भागों में बाँटा गया है ?
Ans. तंत्रिका तंत्र को तीन भागों में विभाजित किया गया है-केंद्रीय तंत्रिकातंत्र,स्वचालित
तत्रिकातंत्र एवं परिधीय तंत्रिकातंत्र।
Q.16. केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र के कौन-कौन भाग होते हैं ?
Ans, केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र को दो भागों में विभाजित किया गया है-सुषुम्ना नाड़ी एवं
मस्तिष्क ।
Q.17. संवेदी तंत्रिकाएँ कहाँ अवस्थित होती हैं तथा इसके क्या कार्य हैं ?
Ans. संवेदी तंत्रिका शरीर के सभी भागों में स्थित होती है । इसका मुख्य कार्य ज्ञानेन्द्रियों
स्नायु-प्रवाहों को ग्रहण करके मस्तिष्क तक पहुँचाना है ।
Q.18. गति तंत्रिका कहाँ अवस्थित होती है तथा इसके क्या कार्य हैं ?
Ans. गति तंत्रिका पूरे शरीर में पायी जाती है । यह मस्तिष्क से उत्पन्न हुए तंत्रिका आवेगों
को मस्तिष्क या सुषुम्ना से ग्रहण करके माँसपेशियों, ग्रंथियों तथा शरीर के विभिन्न केन्द्रों तक
ले जाने का कार्य करता है।
Q.19. मस्तिष्क को किन तीन प्रमुख हिस्सों में बाँटा जा सकता है ?
Ans. मस्तिष्क के तीन प्रमुख भाग हैं-
(i) पश्च मस्तिष्क (ii) मध्य मस्तिष्क तथा (iii) अग्र मस्तिष्क
उनके उपभागों के नाम मेडुला, ऑबलांगाटा, सेतु अनुमस्तिष्क आदि होते हैं ।
Q.20. प्रतिवर्ती क्रिया किसे कहते हैं ?
Ans. किसी आकस्मिक उद्दीपनों के प्रति संवेदी अंगों के द्वारा अनैच्छिक क्रिया के रूप में
प्रकट की जाने वाली प्रतिक्रिया को प्रतिवर्ती क्रिया कहते हैं । जैसे-आँख झपकने की क्रिया ।
Q.21. साहचर्य तंत्रिका का क्या कार्य है?
Ans. साहचर्य तंत्रिका का स्थान मस्तिष्क में तथा कुछ सुषुम्ना नाड़ी में होता है । इसका
मुख्य कार्य संवेदी तंत्रिका से स्नायु-प्रवाहों को ग्रहण करके दूसरे साहचर्य तंत्रिका या गति तंत्रिका
तक पहुँचाना होता है।
Q.22. अंतःस्रावी ग्रन्थि (Endocrine gland) से आप क्या समझते हैं ?
Ans. मनुष्य के शरीर में वैसी ग्रन्थियाँ जिनसे स्राव निकलकर सीधे खून में मिल जाते हैं
और व्यक्तित्व विकास को प्रभावित करते हैं। ऐसी ग्रन्थियों को अन्तःस्रावी ग्रन्थि कहा जाता
है।
Q.23. आनुवंशिकता की विशेषताएँ बतायें ।
Ans. हम अपने माता-पिता से विशेषताएँ उत्तराधिकार में जीन के रूप में पाते हैं। अपने
पूर्वजों से प्राप्त उत्तराधिकार में शारीरिक और मनोवैज्ञानिक विशेषताएँ मिली रहती हैं । आनुवांशिक
तत्व के प्रमुख तत्व गुणसूत्र होते हैं । गुणसूत्र मुख्यत: DNA नामक पदार्थ से बने होते हैं। प्रत्येक
गुणसूत्र में हजारों आनुवांशिक निर्देश जीन के रूप में उपस्थित रहते हैं । जीन में उत्परिवर्तन की
क्षमता होती है।
Q.24. हमारे व्यवहार किससे प्रभावित होते हैं ?
Ans. हमारे कई व्यवहार अंत:स्रावों से प्रभावित होते हैं तो कई व्यवहार प्रतिवर्ती अनुक्रियाओं
के कारण होते हैं। हालाँकि हार्मोन तथा प्रतिवर्ती हमारे व्यवहार में आनेवाले अन्तरों की स्पष्ट
व्याख्या नहीं कर पाती हैं। हमारे व्यवहार पर सांस्कृतिक शक्तियों का प्रभाव भी स्वाभाविक है।
मानव काम-व्यवहार अनेक नियमों, मान, मूल्यों और कानूनों से नियंत्रित रहते हैं ।
Q.25. समाजीकरण के प्रमुख कारकों की चर्चा करें।
Ans. (i) माता-पिता तथा घर के अन्य सदस्य (ii) विद्यालय (iii) समसमूह (iv) जन-संचार
आदि समाजीकरण के प्रमुख कारक माने जाते हैं।
Q.26. परसंस्कृति ग्राही युक्तियों को किन समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है ?
Ans. परसंस्कृति ग्रहण के मार्ग में लोगों द्वारा जो परसंस्कृति ग्राही युक्तियाँ अपनाई जाती
हैं वे हैं-(1) समाकलन (ii) आत्मसात्करण (iii) पृथक्करण तथा (iv) सीमांतकरण ।
Q.27. अंतःस्रावी ग्रन्थियों के नाम लिखें।
Ans. अंतःस्रावी ग्रन्थियाँ विभिनन प्रकार की होती हैं जो इस प्रकार हैं-
(i) धायरायड ग्रन्थि (ii) पाराथायरायड ग्रंथि (iii) पिट्यूटरी ग्रन्थि (iv) एड्रीनल ग्रन्थि
(v) गोनाड्स (यौन ग्रन्थि) ।
Q.28. मस्तिष्क को कितने मुख्य भागों में बाँटा गया है ?
Ans. मस्तिष्क को मुख्य रूप से तीन भागों में बाँटा गया है-पश्च मस्तिष्क, मध्य मस्तिष्क
तथा अग्र मस्तिष्क ।
Q.29. पश्च मस्तिष्क में मस्तिष्क के कौन-कौन से भाग आते हैं?
Ans. पश्च मस्तिष्क के अन्तर्गत मेडुला, सेतु एवं लघु मस्तिष्क आते हैं ।
Q.30. मस्तिष्क का सबसे निचला हिस्सा कौन होता है ?
Ans. मस्तिष्क का सबसे नीचे तथा पीछे सुषुम्ना शीर्ष (Medulla) अवस्थित होते हैं।
Q.31. लघु मस्तिष्क का क्या कार्य है ?
Ans. लघु मस्तिष्क का सबसे प्रमुख कार्य शारीरिक संतुलन को बनाए रखना होता है।
Q.32. लघु मस्तिष्क कितने खण्डों में बँटा होता है तथा इसे मिलाने का कार्य कौन
करता है?
Ans. लघु मस्तिष्क दो खण्डों में विभाजित रहता है जिसे मिलाने का काम सेतु करता है।
Q.33. मध्य मस्तिष्क को कितने भागों में विभाजित किया जाता है ?
Ans. मध्य मस्तिष्क को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है । इसके ऊपरी भाग को
रूफ या टेक्टम कहते हैं तथा नीचे का भाग फ्लोर कहलाता है।
Q.34. पश्च मस्तिष्क (Hind brain) तथा मध्य मस्तिष्क को एक साथ मिलाकर क्या
कहा जाता है?
Ans. पश्च मस्तिष्क और मध्य मस्तिष्क को एक साथ मिलाकर मस्तिष्क स्तम्भ कहा जाता है।
Q.35. किसके द्वारा लघु मस्तिष्क (Cerebelum) तथा प्रमस्तिष्क Cerebrum) आपस
में मिलते हैं?
Ans. लघु मस्तिष्क तथा प्रमस्तिष्क हाइपोथैलेमस द्वारा आपस में मिलते हैं।
Q.36. प्रमस्तिष्क (Cerebrum) में कितने गोलार्द्ध (Hemisphere) होते हैं ?
Ans. प्रमस्तिष्क में दो गोलार्द्ध होते हैं।
Q.37. संधि-स्थल (Synapse) क्या है ?
Ans. जहाँ दो या दो से अधिक तंत्रिकाएँ आपस में मिलती हैं उस स्थान को संधि-स्थल
कहते हैं।
Q.38. स्नायुमंडल की सबसे छोटी इकाई किसे कहा जाता है ?
Ans. स्नायुमंडल की सबसे छोटी इकाई को न्यूरॉन कहा जाता है ।
Q.39. मनुष्य में तंत्रिका आवेग की गति सामान्य रूप से कितनी होती है ?
Ans. मनुष्य में तंत्रिका आवेग की गति सामान्य रूप से 100 मीटर प्रति सेकेण्ड होती है।
Q.40. थैलेमस का मुख्य कार्य क्या है ?
Ans. थैलेमस का मुख्य कार्य शरीर के विभिन्न भागों से आए हुए स्नायु-प्रवाहों को मस्तिष्क
में निश्चित स्थान पर भेजना है। इसका संबंध संवेगों से भी होता है।
Q.41. न्यूरॉन में शाखिकाएँ (Dendrites) कहाँ होती हैं ?
Ans. शाखिकाएँ कोश शरीर के चारों तरफ शाखा की तरह फैल जाती हैं। इसका आकार
बहुत छोटा होता है तथा इसको भी कई उप-शाखाएँ होती हैं ।
Q.42 ऐक्सॉन (Axon) क्या है?
Ans. यह न्यूराँन का एक पतला लम्बा भाग है। इसका एक छोर कोश शरीर से जुड़ा होता
है तथा दूसरे छोर पर अनेक छोटे-छोटे तन्तु होते हैं जिसे एण्डल ब्रम कहते हैं ।
Q.43. सम्पूर्ण या बिल्कुल नहीं का नियम (All or non law) क्या है ?
Ans. जब कोई स्नायु-प्रवाह चलता है अर्थात एक न्यूरॉन से दूसरे न्यूरॉन में जाता है तो
अपनी पूरी शक्ति के साथ जाता है, अन्यथा रुक जाता है । इसे ही सम्पूर्ण या बिल्कुल नहीं का
नियम कहते हैं।
Q.44. न्यूरॉन की संख्या सबसे अधिक किसमें होती है ?
Ans. न्यूरॉन का वह हिस्सा जो तंत्रिका आवेग को दूसरे न्यूरॉन में छोड़ता है, उसे एक्सॉन
कहा जाता है।
Q.45. न्यूरॉन की संख्या सबसे अधिक किसमें होती है ?
Ans. न्यूरॉन की संख्या सबसे अधिक मस्तिष्क में होती है।
Q.46. संस्कृति से क्या तात्पर्य है ?
Ans. संस्कृति उन प्रतीकात्मक एवं सीखे हुए पक्षों को बिंबित करती है जिसमें भाषा, प्रथा,
परम्पराओं आदि का समावेश किया जाता है।
Q.47. संस्कृति की परिभाषा दीजिए ।
Ans. संस्कृति की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है-एक समाज विशेष के सदस्यों के
सम्पूर्ण व्यवहार प्रतिमानों और समग्र जीवन विधि को ही संस्कृति कहा जाता है जो सामाजिक
विरासत के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होती है।
Q.48. भौतिक संस्कृति क्या है ?
Ans. भौतिक संस्कृति का संबंध उन बुनियादी दशाओं से है जिसमें भौतिक वस्तुएँ होती हैं,
जिन्हें समाज के सदस्यों द्वारा प्रयोग में लाया जाता है तथा जिन्हें देखा जा सकता है।
Q.49.संस्कृति के प्रतिमानात्मक आयाम क्या हैं ?
Ans. संस्कृति के प्रतिमानात्मक आयाम में नियम, अपेक्षाएँ और मानवीकृत कार्यविधियों को
सम्मिलित किया जाता है।
Q.50. संस्कृति के संज्ञानात्मक आयाम क्या हैं ?
Ans. संस्कृति के संज्ञानात्मक आयाम का अभिप्राय मिथकों, अंधविश्वासों, वैज्ञानिक
तथ्यकलाओं एवं धर्म से जुड़े हुए विचार हैं ।
Q.51.समाजीकरण का क्या तात्पर्य है?
Ans. समाजीकरण एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा एक नवजात शिशु जो जन्म के समय न
सामाजिक होता है और न असामाजिक, किसी विशिष्ट समाज का क्रियाशील सदस्य बन जाता
है जो जन्म के बाद प्रारंभ होता है ।
Q.52. संस्कृति और मानवीय व्यवहार का क्या संबंध है ?
Ans. संस्कृति मनुष्य को विरासत में प्राप्त होती है इसलिये जिस संस्कृति में मनुष्य
जीवन-यापन करता है उसी के अनुसार उसका सम्पूर्ण सामाजिक व्यवहार भी हो जाता है। इस
पर मनोवैज्ञानिक व्यवहार का प्रभाव अवश्य पड़ता
Q.53. संस्कृतिकरण से आप क्या समझते हैं ?
Ans. संस्कृतिकरण सामाजिक परिवर्तन का एक स्वाभाविक आयाम है। अपनी संस्कृति के
सभ्य लोगों के अनुरूप अपनी जीवन-शैली में परिवर्तन लाने और उनकी संस्कृति के मानदण्डों
अनुरूप व्यवहार करने को संस्कृतिकरण कहा जाता है।
Q.54. आधुनिकीकरण से आप क्या समझते हैं ?
Ans. आधुनिकीकरण मानवीय सामाजिक व्यवहार की एक ऐसी क्रिया है जिसमें मनुष्य
आधुनिक विचारों और तकनीक के आधार पर सामाजिक व्यवहार करता है । मनुष्य आधुनिक
विचारों से प्रभावित हो जाता है ।
Q.55. समाजीकरण की प्रक्रिया जन्मजात होती है या अर्जित ?
Ans. समाजीकरण की प्रक्रिया अर्जित होती है, क्योंकि मनुष्य समाज में होनेवाले परिवर्तन
के अनुसार अपने-आपको समायोजित करने का प्रयत्न करता है।
(SHORT ANSWER TYPE QUESTIONS)
Q.1. “हमारे व्यवहार दूसरी प्रजातियों की तुलना में बहुत जटिल और विकसित हैं।”
कैसे?
Ans. हमारे पास बड़ा और अधिक विकसित मस्तिष्क है । हमारे मस्तिष्क का वजन हमारे
शरीर के कुल भार का 2.35 प्रतिशत है जो अन्य प्रजातियों की तुलना में सर्वाधिक है । मनुष्य
के प्रमस्तिष्क को अन्य भागों की तुलना में अधिक विकसित और उपयोगी माना जाता है। मानव
अपने व्यवहार से पर्यावरण के साथ संतुलन बनाते हुए जीवन-क्रिया को आगे बढ़ा लेता है। हम
अपने सार्थक एवं विकसित व्यवहार के कारण आहार की व्यवस्था करने में, परभक्षी से स्वयं
को सुरक्षित रखने में, बच्चों को शिक्षा एवं सुरक्षा प्रदान करने में अन्य प्रजातियों की तुलना
में स्थिति के अनुसार विधियों एवं साधनों को बदल लेने की क्षमता अधिक विकसित रूप में रखते
हैं । आनुवांशिकता, जीन, गुणसूत्र आदि के महत्व को समझाते हुए सांस्कृतिक दशा के अनुकूल
बनाने में हम सक्षम हैं । अनुभव प्राप्त करने अथवा कुछ सीखने-समझने की प्रवृत्ति हममें अपेक्षाकृत
अधिक होती है। हमारे पास न केवल समान जैविकीय तंत्र, बल्कि निश्चित सांस्कृतिक तंत्र भी
होते हैं । उत्तरजीविता से सम्बन्धित उद्देश्यों को पूरा करने में हमारी सतर्कता एकाधिकार रखती
है।
Q.2. अंतस्थ बटन (Terminal buttons) किसे कहते हैं ? कार्य के आधार पर
परिचय दें।
Ans. मेरुरज्जु के अतिम सिरे पर अक्ष तंतु छोटी-छोटी कई शाखाओं में बँट जाती है जिन्हें
अंतस्थ बटन कहा जाता है । अंतस्थ बटन में अन्य तंत्रिका कोशिकाओं, ग्रन्थियों और मांसपेशियों
में सूचना भेजने की क्षमता होती है । अक्षतन्तु अपनी लम्बाई के साथ-साथ सूचना का संवहन
करता है जो मेरुरज्जु में कई फीट तक और मस्तिष्क में एक मिली मीटर से कम हो सकते हैं।
इस असमर्थता की स्थिति में अंतस्थ बटन सूचना संवहन में निर्णायक कार्य करता है ।
Q.3. तंत्रिका तंत्र का कौन-सा भाग ऐच्छिक प्रकार्यों से सम्बद्ध होता है ?
Ans. सभी प्राणियों में मानव तंत्रिका तंत्र सर्वाधिक जटिल एवं विकसित तंत्र होता है । यद्यपि
तंत्रिका तंत्र समग्र रूप से कार्य करता है फिर भी इसके अलग-अलग विभागों में अलग-अलग
तरह के कार्य करने की प्रवृत्ति होती है । केन्द्रीय तंत्रिका के साथ परिधीय तंत्रिका तंत्र के अस्तित्व
को पहचानने के बाद कायिक तंत्रिका तंत्र तथा स्वायत्त तंत्रिका तंत्र ऐच्छिक प्रकार्यों से सम्बद्ध
होता है । कायिक तंत्रिका तंत्र में कपालीय तथा मेरु तंत्रिका संलग्न होते हैं। संवेदी, पेशीय और
मिश्रित तंत्रिकाओं के द्वारा देखने, सुनने के क्रम में नियंत्रण की आवश्यकता पूरी की जाती है ।
कपालीय तंत्रिकाओं के 12 समुच्चय होते हैं जबकि मेरु तंत्रिकाओं के 31 समुच्चय मिलते हैं।
ये दोनों मिलकर संवाद का संवहन तथा संचरण करते हैं । अर्थात् कायिक तंत्रिका तंत्र संवेदी
और पेशीय होने के साथ-साथ ऐच्छिक प्रकार्यों से सम्बद्ध माने जाते हैं ।
Q.4.मस्तिष्क की प्राचीनतम तथा नवीनतम संरचनाओं का उल्लेख करें ।
Ans, मस्तिष्क की प्राचीनतम संरचनाएँ उपवल्कुटीय तंत्र, मस्तिष्क स्तम्भ तथा अनुमस्तिष्क
को प्राचीनतम संरचनाएँ मानी जाती हैं । लगातार चलनेवाली विकासात्मक प्रक्रियाओं के कारण
प्रमस्तिष्कीय वल्कुट नामक परिवर्धन का पता चला है जो मस्तिष्क की नवीनतम परिवर्धन माना
जाता है । विकास क्रम में यह भी पता चला है कि एक वयस्क मस्तिष्क का भार लगभग 1.36
किग्रा. है जिसमें 100 अरब तंत्रिका कोशिकाएँ सक्रिय रहती हैं । मस्तिष्कीय क्रम वीक्षण से पता
चलता है कि कुछ मानसिक प्रकार्य मस्तिष्क के विभिन्न क्षेत्रों में वितरित हैं। प्रमस्तिष्कीय वल्कुट
को चार पालियों में विभक्त किया गया है-
(i) ललाट पालि (ii) पार्श्विक पालि (iii) शंख पालि और (iv) पश्च कपाल पालि ।
अवधान, चिंतन, स्मृति, तर्कना, देखना, सुनना, सूचनाओं का संवहन, चाक्षुष आवेगों की
व्याख्या करना प्रमस्तिष्कीय वल्कुट की विभिन्न पालियों के माध्यम से सरलता से पूरी की जा
सकती है।
Q.5. प्रत्येक की स्थिति बतावें
(क) साहचर्य तंत्रिका कोशिकाएँ (ख) पार्श्व तंतु (ग) अवटु ग्रंथि (घ) मेडुला ।
Ans.(क) साहचर्य तंत्रिका कोशिकाएँ-मेरुरज्जु के मध्य में उपस्थित तितली के आकार
के धूसर रंग के द्रव्य के ढेर में साहचर्य तंत्रिका कोशिकाएँ होती हैं ।
(ख) पार्श्व तन्तु-मानव तंत्रिका तंत्र के तीन मूलभूत घटकों में से एक पार्श्व तंतु का नाम
लिया जाता है । तंत्रिका कोशिका का अधिकांश कोशिका द्रव्य काय (soma) कोशिका में होती
है । पार्श्व तन्तु (Dendrites) शाखाओं की तरह की विशिष्ट संरचना के साथ काय कोशिका
से निकलते हैं । पार्श्व तंतु में विशिष्ट ग्राहक होते हैं जो किसी विद्युत-रासायनिक या जैव
रासायनिक संकेत के मिलते ही सक्रिय हो जाते हैं।
(ग) अवटु ग्रन्थि-अवटु ग्रन्थि गले में स्थित होती है । यह थाइरॉक्सिन नामक अंत:स्राव
उत्पन्न करती है जो शरीर में चपापचय की दर को प्रभावित करता है।
(घ) मेडुला आबलांगाटा-पश्च मस्तिष्क का एक प्रमुख हिस्सा बनकर मेडुला आबलांगाटा
मूलभूत जीवन सहायक गतिविधियों को नियमित करने में सहायक होते हैं । मेडुला मस्तिष्क का
सबसे निचला हिस्सा है। इसे मस्तिष्क का जीवनधार केन्द्र माना जाता है।
Q.6. आनुवंशिकता के प्रति जीवन एवं गुणसूत्र के व्यवहार का संक्षिप्त वर्णन करें।
Ans. एक बच्चा अपने जन्म के समय अपने माता-पिता से प्राप्त जीन के विशिष्ट संयोजन
का धारक होता है। उसे माता-पिता से विशेषताएँ उत्तराधिकार में जीन के रूप में मिलता है।
यह उत्तराधिकार व्यक्ति के विकास को जैविक नक्शा और समय सारणी प्रदान करता है।
आनुवंशिकी के रूप में बच्चा को कुछ शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक विशेषताएँ उपलब्ध हो जाती
हैं । निषेचित युग्मनज के गुणसूत्र प्रत्येक कोशिका के केन्द्र में होता है । गुणसूत्र को शरीर का
आनुवंशिक तत्व माना जाता है । गुणसूत्र की संरचना धागे जैसी होती है । युग्मक-कोशिकाओं
में 23 गुणसूत्र पाए जाते हैं।
जीन अथवा DNA नामक पदार्थ से बने होते हैं । गुणसूत्र के एक विशेष जोड़े के प्रत्येक
गुणसूत्र पर एक जीन स्थित होता है । लिंग गुणसूत्रों का जोड़ा आनेवाले बच्चे का लिंग
निर्धारण करता है । प्रत्येक गुणसूत्र में हजारों आनुवंशिक निर्देश जीन के रूप में होते हैं । कुछ
विशिष्ट जीन नियंत्रक जैसा कार्य करता है । जीनोटाइप और फीनोटाइप के माध्यम से वह कायिक
संरचना तथा व्यवहार की कुशलता का निर्धारण करता है । उत्परिवर्तन कहलाने वाली क्रिया के
माध्यम से जीन में रूपान्तरण संभव होता है । फलतः नयी जातियों की उत्पत्ति होती है।
इस प्रकार आनुवंशिक नामक प्रवृत्ति के विकास में जीन और गुणसूत्र का महत्त्वपूर्ण योगदान
होता है । किसी व्यक्ति का कद, स्मृति, चेहरा, क्रोध जैसे गुण जीन अथवा गुणसूत्रों की देन होती
है।
Q.7. समाज जीव विज्ञान का क्षेत्र वतलावें।
Ans. जीव विज्ञान और समाज की अन्योन्य क्रिया से संबंधित आधुनिक विद्याशाखा को
समाज मनोविज्ञान कहकर संबोधित करते हैं । समावेशी उपयुक्तता के आधार पर यह विद्याशाखा
मनुष्य के सामाजिक व्यवहार की व्याख्या करता है ।
समाज के प्रति सर्वप्रिय व्यवहार की कला को प्रभावित करने वाले जैविक कारकों का समुचित ।
अध्ययन करके ही संस्कृति की रक्षा की जा सकती है। इसी कारण हम संस्कृति के संदर्भ में
उपलब्य कुछ विचारों तथा मूल्यों को सामाजिक परिवेश में सीखना-समझना चाहते हैं।
माता-पिता, विद्यालय, समसमूह, जनसंचार के अतिरिक्त पर्यावरण की विविधता हमें समाज जीवन
विज्ञान के अध्ययन के लिए प्रेरित करती है । सुफल जीवन के लिए इमें संस्कृतिकरण और
समाजीकरण की विधियों, नियमों, मूल्यों की दृष्टि से स्पष्टतः समझना होगा । अध्ययन की
प्रगाढ़ता के क्रम में हमें पता लगेगा कि प्रत्येक जीवन से अच्छे व्यवहार की प्रत्याशा की जाती
है जिससे प्रजनन और पालन-पोषण से सम्बन्धित सभी प्रकार की जानकारियाँ मिल सकें।
Q.8. अन्तःस्रावी ग्रन्थियों से आप क्या समझते हैं ? मानव शरीर की विभिन्न
अंतःस्रावी ग्रन्थियों का नाम बतायें ।
Ans. शरीर के विभिन्न भागों में उपस्थित नलिकाविहीन ग्रन्थि जो हार्मोन को अन्तःस्त्रावित
करता है, अन्तःस्रावी ग्रन्थि कहलाता है।
शरीर में निम्नलिखित अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ हैं-
(i) पीयूष ग्रन्थि (ii) थायरायड ग्रंथि (iii) पाराथायरायड ग्रन्थि (iv) अधिवृक्क ग्रन्थि ।
Q.9. बहिःस्रावी ग्रंथि तथा अंतःस्रावी ग्रंथि में अंतर करें।
Ans. बहिःस्रावी ग्रंथि वैसी थि को कहा जाता है जिसके स्राव को निकलने के लिए विशेष
मार्ग या नली बनी होती है। यही कारण है कि इसे नलिका विहीन ग्रोथ भी कहा जाता है।
अंत:स्रावी ग्रंथि से तात्पर्य वैसी ग्रंथि से होता है जिसका स्राव निकलने के लिए किसी तरह की
नली या मार्ग नहीं होता है । फलस्वरूप इसका स्राव सीधे खून में मिल जाता है तथा महत्त्वपूर्ण
शारीरिक एवं मानसिक प्रभाव उत्पन्न करता है । शारीरिक एवं मानसिक विकास के दृष्टिकोण
से अंत:स्रावी ग्रंथियाँ बहिःस्रावी ग्रंथियों से अधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं ।
Q.10. तंत्रिका तंत्र से आप क्या समझते हैं ?
Ans. प्राणी जब कोई अनुक्रिया करता है तब इसमें तीन तरह के अंगों का समन्वय होता
है-ग्राहक (receptor) या ज्ञानेन्द्रिय, प्रभावक (effectors) अर्थात् मांसपेशियाँ एवं ग्रंथि तथा
समायोजक (adjustor) । समायोजक का काम ज्ञानेन्द्रियों तथा प्रभावक के बीच संबंध स्थापित
करना होता है । समायोजक का दूसरा नाम तत्रिका (nerve) है । अनेक तंत्रिकाएँ आपस में मिलकर
ग्राहक तथा प्रभावक में विशेष संबंध स्थापित करती हैं और व्यक्ति सही-सही अनुफ़िया कर पाता
है । इन तत्रिकाओं के समूह या गुच्छा को तंत्रिका तंत्र या स्नायुमंडल (nervous sysytem) कहा
जाता है।
Q.11. तंत्रिका आवेग क्या है?
Ans. प्रत्येक न्यूरोन एक छोटी पतली आवरण से ढंका होता है । जब कोई उपयुक्त उद्दीपन
उस आवरण को उत्तेजित करता है तब उससे न्यूरोन भी उत्तेजित हो जाता है। इससे एक तरह
का वैद्युत रासायनिक आवेग (electro chemical impulse) पैदा होता है जिसे तंत्रिका आवेग
(nerve impulse) कहा जाता है । तंत्रिका आवेग की गति सामान्यत: 100 मीटर प्रति सेकंड
होती है।
Q.12. सुषुम्ना को संरचना का वर्णन करें।
Ans. सुषुम्ना (spinal cord) केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र (central nervous system) का एक
प्रमुख भाग है। रीढ़ की हड्डी जो गर्दन से कमर तक फैली हुई है, में एक विशेष तरल पदार्थ
भरा हुआ होता है और उसमें एक मोय तंतु (Fibres) होता है। इसे सुपुम्ना कहा जाता है। रीढ़।
की हड्डी में 31 जोड़ (Joints) होते हैं और प्रत्येक जोद के बाएं तथा दाएँ भाग से एक-एक
तंतु सुषुम्ना तंत्रिका के भी 31 जोड़ होते हैं। प्रत्येक जोड़ा में एक संवेदी तंत्रिका (sensory
nerve) तथा दूसरा गतिवाही तंत्रिका (motor nerve) होती है । संवेदी तंत्रिका का संबंध
ज्ञानेन्द्रियों से तथा गतिवाही तंत्रिका का संबंध कर्मेन्द्रिय (motor organs) से होता है ।
सुषुम्ना को कहीं से भी काटकर देखा जाए तो इसकी भीतरी संरचना (internal structure)
एक ही समान दीख पड़ती है ।
सुषुम्ना के इस कटे हुए बीच के भाग का आकार तितली (butter fly) के समान होता है
और इस भाग का रंग भूसर (gray) होता है । इसके बीच के भाग के चारों तरफ तरल पदार्थ
होते हैं जिसे अनेक तंत्रिका तंत्र ऊपर से नीचे तथा नीचे से ऊपर की ओर आते-जाते दिखलाई
पड़ते हैं । ऊपर से नीचे आनेवाले तंत्रिका तंतु द्वारा मस्तिष्क से सुषुम्ना को तथा नीचे से ऊपर
जाने वाले तंत्रिका तंतु द्वारा सुषुम्ना से मस्तिष्क को सूचनाएँ मिलती हैं ।
Q.13. संधिस्थल से आप क्या समझते हैं ?
Ans. एक न्यूरोन के एक्सॉन स्था दूसरे न्यूरोन की शाखिकाओं के मिलन-स्थल को
संधिस्थल कहा जाता है । संधिस्थल की विशेषता यह होती है कि एक्सॉन तथा शाखिकाएँ
एक-दूसरे से सटी हुई नहीं होती फिर भी तत्रिका आवेग का संचरण एक्सॉन से शाखिकाओं में
हो जाता है। ऐसा संभव इसलिए हो पाता है, क्योंकि एक्सॉन की छोटी-छोटी पुस्तिकाओं से एक
विशेष रासायनिक तरल पदार्थ जिसे न्यूरोट्रांसमीटर (neurotransmitter) कहा जाता है, निकलता
है जिसके कारण यह स्थान गीला हो जाता है तथा दोनों में संबंध स्थापित हो जाता है । फलस्वरूप,
आसनी से तंत्रिका आवेग आगे बढ़ जाता है। इस तरह, संधिस्थल तंत्रिका आवेग को पहले रोकता
है तथा फिर उसका मार्ग प्रशस्त कर आगे बढ़ने देता है ।
Q.14. पूर्ण या शून्य नियम क्या है ?
Ans. पूर्ण या शून्य नियम तंत्रिका आवेग (nerve impulse) के संचरण (conduction)
का एक नियम है जो यह बताता है कि जब कोई न्यूरोन किसी उपयुक्त उद्दीपन से उत्तेजित होता
है तब वह या तो अपनी पूरी शक्ति के साथ उत्तेजित होता है या फिर बिल्कुल ही उत्तेजित नहीं
होता है । कभी-कभी ऐसा होता है कि उद्दीपन की शक्ति काफी कमजोर होती है जो न्यूरोन में
तंत्रिका आवेग उत्पन्न ही नहीं कर पाती है । परंतु, यदि उससे न्यूरोन में तंत्रिका आवेग उत्पन्न
हो गया तो वह अपनी पूर्ण शक्ति के साथ उत्पन्न होगा न कि उद्दीपन की शक्ति के समान क्षीण
मात्रा में।
Q.15. प्रतिवर्त क्रिया किसे कहा जाता है ?
Ans. प्रतिवर्त क्रिया या सहज क्रिया वह स्वचालित (automatic) या अनैच्छिक (invol-
untary) अनुक्रिया है जो किसी उद्दीपन (stimulus) द्वारा उत्पन्न होती है। जैसे, आँख पर तीव्र
रोशनी पड़ने पर पलक का अपने-आप बंद हो जाना, गर्म वायु से अंगुली का स्पर्श होने पर हाथ
को झट पीछे खींच लेना आदि प्रतिवर्त क्रिया के उदाहरण हैं । प्रतिवर्त क्रिया की मुख्य विशेषताएँ
निम्नांकित हैं
(i) प्रतिवर्त क्रिया अर्जित (acquired) न होकर जन्मजात होती है।
(ii) यह स्वचालित या अनैच्छिक होती है ।
(iii) इस क्रिया की उत्पत्ति के लिए उद्दीपन (stimulus) का होना अनिवार्य है।
(iv) प्रतिवर्त क्रियाओं का संचालन मस्तिष्क से न होकर सुषुम्ना से ही होता है ।
Q.16. प्रतिवर्त अनुक्रिया तथा प्रतिवर्त धनु में अंतर बताएँ ।
Ans. प्रतिवर्त अनुक्रिया या सहज अनुक्रिया (reflex action) किसी उद्दीपन के प्रति किया
गया एक स्वचालित (automatic) जन्मजात अनुक्रिया है । जैसे आँख पर तीव्र रोशनी पड़ते ही
आँख के पटल का अपने आप बंद हो जाना, हाथ में पिन चुभने या किसी के द्वारा चुभाये जाने
पर हाथ का झट से पीछे खींच लेना एक प्रतिवर्त अनुक्रिया का उदाहरण है । प्रतिवर्त किया के
संचालन में तंत्रिका आवेग (nerve impulse) जिन प्रक्रियाओं एवं अंगों से होकर गुजरता है उसे
ही प्रतिवर्त धनु (reflex arc) कहा जाता है । इसमें ज्ञानेन्द्रिय, संवेदी न्यूरॉन, सुषुम्ना तथा विशेष
भाग, साहचर्य न्यूरॉन, कर्मेन्द्रिय आदि अंग सम्मिलित रहते हैं ।
Q.17. कारपस कैलोजम किसे कहा जाता है ?
Ans. प्रमस्तिष्क में दो गोलार्द्ध होते हैं-बायाँ गोलार्द्ध (left hemisphere) तथा दायाँ
गोलार्द्ध (right hermisphere)। ये दोनों गोलार्द्ध एक-दूसरे से तंत्रिका के एक विशेष गुच्छा
से जुड़े होते हैं । इसी विशेष गुच्छा (bundle) का नाम कारपस कैलोजम है ।
Q.18. प्रमस्तिष्क की विभिन्न पालियों के कार्यों का वर्णन करें।
Ans, प्रमस्तिष्क के दोनों गोलार्द्ध केंद्रीय सुलकस तथा लेट्रल दरार की मदद से चार पालियों
में बंँटे हैं जिनके कार्यों का वर्णन निम्नांकित हैं-
(i) अग्रपालि (Frontal lobe)-यह केन्द्रीय सुलकस के आगे तथा लेट्रल दरार के ऊपर
का भाग होता है तथा इसके द्वारा उच्च मानसिक प्रक्रियाओं (higher mental processes) का
ज्ञान होता है।
(ii) मध्यपालि Parietal lobe)-यह पालि केन्द्रीय सुलकस के आगे तथा लेट्रल दरार के
ऊपर होता है । इसके द्वारा मूलत: त्वक संवेदन (touch sensation) अर्थात् ठंड, गर्म, दर्द आदि
का ज्ञान होता है।
(iii) शंखपालि Temporal lobe)-यह पालि लेट्रल दरार के नीने जिसे हम कन्पट्टी कहते
हैं, में होती है तथा इसके द्वारा श्रवण संवेदनाओं का ज्ञान होता है।
Q.19. न्यूरॉन किसे कहते हैं ?
Ans. तंत्रिकातंत्र (nervous system) की सबसे छोटी इकाई को न्यूरॉन (neuron) या
तत्रिका कोश कहा जाता है । इसके द्वारा तंत्रिका आवेग प्राणी में एक जगह से दूसरे जगह संचारित
होते हैं । अध्ययनों के अनुसार पूरे मानव में न्यूरॉन की संख्या 12.5 अरब (Billion) है जिसमें
से करीब 10 अरब सिर्फ मस्तिष्क में ही है । शाखिका (dendrite), जीवकोश (cell body)
तथा एक्सॉन (axon) न्यूरॉन के तीन प्रमुख संरचना होते हैं । शाखिका तंत्रिका आवेग को ग्रहण
करता है और शरीर (cell body) की ओर भेज देता है । कोश शरीर उसे एक्सॉन (axon) की
ओर भेज देता है जो तंत्रिका आवेग को बाहर निकालकर दूसरे न्यूरॉन के शाखिका को सुपुर्द कर
देता है।
Q.20. न्यूरॉन के कितने प्रकार होते हैं ? संक्षिप्त वर्णन करें।
Ans.(क) संवेदी न्यूरॉन (Sensory of afferent neuron)-इसे ज्ञानवाही न्यूरॉन भी
कहा जाता है । संवेदी या ज्ञानवाही न्यूरॉन वैसे न्यूरॉन को कहा जाता है जो तत्रिका आवेश (nurve
impulse) को ज्ञानेंद्रीय (sense organ) से सुषुम्ना एवं मस्तिश्क तक पहुँचाता है।
(ख) साहचर्य न्यूरॉन (Association neuron)-इस तरह का न्यूरॉन सुषुम्ना तथा
मस्तिष्क में पाया जाता है । साहचर्य न्यूरॉन संवेदी न्यूरॉन तथा गतिवाही या क्रियावाही न्यूरॉन
(motor impulse) से साहचर्य स्थापित करता है । संवेदी न्यूरॉन से तंत्रिका आवेश को ग्रस्त
करके साहचर्य न्यूरॉन उसे गतिवाही या क्रियावाही न्यूरॉन में छोड़ता है।
(ज) गतिवाही या क्रियावाही न्यूरॉन (Motor neuron)-गतिवाही या क्रियावाही न्यूरॉन
वैसे न्यूरॉन को कहा जाता है जो तंत्रिका आवेग को सुषुम्ना या मस्तिष्क से केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र
तक पहुंँचाता है । इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति कोई वांछित अनुक्रिया कर पाता है ।
Q.21. न्यूरॉन तथा तंत्रिका में अंतर करें।
Ans. न्यूरॉन स्नायुमंडल (nervous neuron) की सबसे छोटी इकाई (smallest unit) है।
जिसमें शाखिका (dendrite), कोश शरीर (cell body), तथा एक्सॉन (axon) होता है। न्यूरॉन
संवेदी (sensory), पेशीय (motor) या साहचर्य (association) किसी भी प्रकार के हो सकते
हैं। तंत्रिका (nerve) को संरचना इससे भिन्न होती है । सैकड़ों या हजारों न्यूरॉन के एक्सॉन
(axon) आपस में मिलकर एक गुच्छा (bundle) तैयार करते हैं जिसे तंत्रिका (nerve) कहा
जाता है । एक ही तंत्रिका में संवेदी तथा पेशीय दोनों तरह के न्यूरोन के एक्सॉन सम्मिलित हो
सकते हैं।
Q.22. शाखिका तथा एक्सॉन में अंतर बतलाएँ ।
Ans. न्यूरॉन के दो महत्त्वपूर्ण भाग (dendrite) तथा एक्सॉन (axon) हैं । शाखिका के
आकार पेड़ की टहनियों तथा शाखाओं के समान होते हैं जिसमें कई छोटी-छोटी उपशाखाएँ होती
हैं । इसके द्वारा न्यूरॉन दूसरे न्यूरॉन से आनेवाले तंत्रिका आवेग को ग्रहण करता है । न्यूरॉन के
उस भाग को एक्सॉन कहा जाता है जो कोश शरीर (cell body) से निकलकर आगे की ओर
लम्बत: बढ़ा हुआ होता है। यह एक ऐसे परत या आवरण से ढंका होता है जो प्रत्येक दो
मिलीमीटर पर कुछ दबा हुआ-सा होता है । एक्सॉन द्वारा तंत्रिका आवेग न्यूरॉन से निकलकर दूसरे
न्यूरॉन को शाखिका में जाते हैं । अतः एक्सॉन न्यूरॉन का एक सुपुर्दगी केन्द्र (delivery centre)
होता है।
Q.23. तंत्रिका कोशिका क्या कार्य करती है ?
Ans. तंत्रिका कोशिका हमारे तंत्रिका तंत्र की मूलभूत इकाई मानी जाती है। तंत्रिका
कोशिकाएँ विशिष्ट कोशिकाओं के रूप में विभिन्न प्रकार के उद्दीपकों को विद्युतीय आवेग में
बदलती है । ये सूचना को विद्युत-रासायनिक संकेतों के रूप में ग्रहण करने, संवहन करने तथा
अन्य कोशिकाओं तक भेजने में भी निपुण होते हैं । ये ज्ञानेन्द्रियों से सूचना प्राप्त करती है तथा
उसे केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र तक ले जाती है।
Q.24. मानव तंत्रिका तंत्र के कौन-कौन से तीन मूलभूत घटक पाये जाते हैं ?
Ans. मानव तत्रिका में 12 अरब तंत्रिका कोशिकाएँ होती हैं जिनकी आकृति, आकार,
रासायनिक संरचना और प्रकार्य में काफी भिन्नता होती है। इन भिन्नताओं के मिलने पर भी तीन
मूलभूत घटक समान रूप से पाए जाते हैं-
(क) काय (Soma) निकटवर्ती तंत्रिका कोशिका से आनेवाले तंत्रिका आवेग को ग्रहण
करते हैं । ये पार्श्व तन्तु शाखाओं की तरह विशिष्ट संरचना वाले होते हैं ।
(ख) पार्श्व तन्तु (Dendrites)—इसमें विशिष्ट ग्राहक होते हैं जो जैव रासायनिक संकेत
(विद्युत रासायनिक) के मिलते ही सक्रिय हो जाते हैं।
(ग) अक्ष तन्तु (Axon) अक्ष तंतु अपनी लम्बाई के साथ-साथ सूचना का संवहन करता
है । इसके अंतिम सिरे पर अंतस्थ बटन के रूप में छोटी-छोटी शाखाओं के पुंज होते हैं ।
Q.25. तंत्रिका कोष सन्धि का निर्माण किस प्रकार से होता है ?
Ans. पूर्ववर्ती तंत्रिका कोशिका के अग्र तंतु के संकेत दूसरी तंत्रिका के पार्श्व तंतु से
प्रकार्यात्मक संबंध बनाते हैं जिसे तंत्रिका कोष सन्धि भी कहते हैं। सन्धि स्थलीय संचरण की
प्रकृति रासायनिक होती है जो रासायनिक पदार्थ तंत्रिका-संचारक कहलाते हैं । तंत्रिका कोष सन्धि
के मध्य भाग में पाये जाने वाले खाली स्थान को संधि स्थलीय खण्ड कहा जाता है।
Q.26. परिधीय तंत्रिका तंत्र का सामान्य परिचय दें।
Ans. केन्द्रीय तंत्रिका को पूरे शरीर से जोड़ने वाले समस्त तत्रिका कोशिकाओं तथा तंत्रिका
तन्तु को परिधीय तंत्रिका तंत्र कहते हैं।
Q.27. मस्तिष्क की संरचना उसके तीन प्रमुख हिस्सों में स्थित भिन्न-भिन्न उपभागों
के नाम के साथ लिखें।
Ans. मस्तिष्क के तीन प्रमुख हिस्से होते हैं-
(i) पश्च मस्तिष्क-इसके उपभाग मेडुला ऑबलांगाटा सेतु तथा अनुमस्तिष्क होते हैं । इनके
कारण श्वास प्रक्रिया, स्वमित क्रिया, श्रवण क्रिया, शारीरिक मुद्रा आदि वांछनीय विधि से उपयुक्त
कार्य करते हैं।
(ii) मध्य मस्तिष्क-इसमें रेटिक्युलर एक्टिवेटिंग सिस्टम (R.A.S.) भाव प्रबंधन में सहयोग
देता है । पर्यावरण से मिलने वाली सूचनाओं के चयन में भी यह सहायक होता है।
(iii) अग्र मस्तिष्क-मस्तिष्क के इस भाग के चार उपविभाग होते हैं-
(क) अधश्चेतक-सांवेगिक तथा अभिप्रेरणात्मक व्यवहारों को नियमित रखने में मदद
करता है।
(ख) चेतक-यह सूचना प्रसारण केन्द्र की तरह कार्य करता है ।
(ग) उपवल्कुटीय तंत्र-यह तापमान, रक्तचाप और रक्तशर्करा के स्तर को समस्थिति में
रखकर शारीरिक क्रिया को संतुलित रखता है । इसमें हिप्पोकैम्पस और गल तुडिका भी समाविष्ट
हैं जो दीर्घकालिक स्मृति और संवेगात्मक व्यवहार को नियंत्रित रखता है ।
Q.28. प्रमस्तिष्क पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
Ans. प्रमस्तिष्क को प्रमस्तकीय वल्कुट भी कहा जाता है । यह अवधान, अधिगम, स्मृति
एवं भाषा व्यवहार जैसे उच्चस्तरीय संज्ञानात्मक प्रकार्यों को नियमित करता है । इसमें तंत्रिका
कोशिकाएँ, अक्ष तंतुओं के समूह और तंत्रिका जाल होते हैं ।
प्रमस्तिष्क दो अर्ध भागों में विभक्त है । बायाँ गोलार्ध भाषा संबंधी व्यवहारों को तथा दायाँ
गोलार्द्ध प्रारूप प्रत्यभिज्ञान को संभालते हैं।
प्रमस्तिष्कीय वल्कुट चार पालियों में बँटा रहता है-
(i) ललाट पालि (ii) पाश्विक पालि (iii) शंख पालि तथा (iv) पश्च कपाल पालि जो चिंतन
स्मृति, दृष्टि, श्रवण, सूचनाओं के प्रक्रमण, उद्दीपकों का नियंत्रण जैसे कार्यों में संलग्न रहते हैं।
मस्तिष्क की कोई भी गतिविधि वल्कुट के केवल एक हिस्से के द्वारा ही संपादित नहीं होती
किन्तु एक विशेष कार्य के लिए वल्कुट का कोई एक विशेष भाग, दूसरे भागों की अपेक्षा अधिक
निपुणता से कार्य पूरा कर लेता है।
Q.29. मेरुरज्जु की संरचना और कार्य बतावें ।
Ans. मेरुरज्जु की संरचना एक लम्बी रस्सी की तरह का होती है जो मेरुदंड के अन्दर पूरी
लम्बाई में फैला रहता है । मेरुरज्जु का एक सिरा मेडुला से जुड़ा होता है जबकि दूसरा सिरा
मुक्त रहता है । मेरुरज्जु के मध्य में उपस्थित तितली के आकार के धूसर रंग के प्रत्येक ढेर में
साहचर्य तंत्रिका कोशिकाएँ होती हैं।
मेरुरज्जु के दो प्रमुख कार्य हैं-
(i) शरीर के निचले भागों से आनेवाले संवेदी आवेगों को मस्तिष्क तक पहुँचाना और
(ii) मस्तिष्क में उत्पन्न होनेवाले पेशीय आवेगों को सारे शरीर तक पहुँचाना ।
Q.30. परिवर्ती क्रिया को समझने के लिए एक स्पष्ट उदाहरण दें।
Ans. परिवर्ती क्रिया उद्दीपन के प्रतिक्रिया स्वरूप घटित होनेवाली अनैच्छिक क्रिया है
प्रतिवर्ती क्रियाएँ हमारे तंत्रिका तंत्र में विकासवादी प्रक्रिया के माध्यम से वंशानुगत होती है ।
उदाहरण-तेज प्रकाश के आने के कारण आँखों की पलकों का झपकना अथवा बहुत गर्म
या ठंढा पिण्ड पर हाथ पड़ते ही हाथ को झटके के साथ हटाना परिवर्ती क्रिया कहलाती है।
इसी प्रकार सांस लेना, अंगों को फैलाना, घुटनों में झटका लगना आदि परिवर्ती क्रिया मेरुरज
के द्वारा सम्पादित होती है जिनमें मस्तिष्क भाग नहीं लेता है ।
प्रतिवर्ती क्रियाएँ जीव को किसी भी संभावित खतरे से बचाकर जीवन की रक्षा करता है।
Q.31. अन्तःस्रावी तंत्र में सन्निहित विभिन्न ग्रन्थियों के नाम एवं कार्य बतावें ।
Ans. मानव शरीर की मुख्य अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ निम्नलिखित हैं-
(i) पीयूष ग्रन्थि-संवृद्धि, अंतःस्राव के माध्यम से मूल और गौण लैंगिक परिवर्तन को
नियंत्रित किया जाता है।
(ii) अवटु ग्रन्थि-थाइरॉक्सिन नामक अन्त:स्राव उत्पन्न करके शरीर कोशिकाओं में ऊर्जा
उत्पन्न करता है।
(iii) अधिवृक्क ग्रन्थियाँ-इसके दो प्रमुख भाग अधिवृक्क वल्कुट और अधिवृक्क मध्यांश
कहे जाते हैं जो क्रमश: ACTH और कार्टिकोयड के माध्यम से तंत्रिका तंत्र में उद्दीपन उत्पन्न
करता है।
(iv) अग्नाशय-यह इन्सुलिन के माध्यम से यकृत में ग्लुकोज का विखंडन करता है । इसकी
अनियमित आचरण के कारण मधुमेह नामक रोग से मनुष्य ग्रसित हो जाता है ।
(v) जनन ग्रन्थियाँ-शुक्र ग्रन्थि और डिंब ग्रन्थि के संयोजन से प्रजनन सम्बन्धी क्रिया
सम्पादित होती है। इसके लिए एस्ट्रोजन, पोजेस्ट्रान, एण्ड्रोजन टेस्टोस्ट्रोन प्रमुख भूमिका निभाते
हैं।
Q.32. आनुवंशिकता के लिए जीन एवं गुणसूत्र की क्या भूमिका होती है ?
Ans. माता-पिता से विशेषताएँ उत्तराधिकार के रूप में जीन के माध्यम से मिलता है। बच्चा
जीन के विशिष्ट संयोजन का धारक होता है । युग्मनज के मध्य भाग में केन्द्रक होता है जिसमें
गुणसूत्र होते हैं । गुणसूत्र शरीर के आनुवंशिक तत्व माने जाते हैं जो मुख्यत: DNA नामक पदार्थ
से बने होते हैं । प्रत्येक गुणसूत्र में हजारों जीन होते हैं । एक शुक्राणु कोशिका और एक अंडाणु
कोशिका के मिलने से एक नयी पीढ़ी का जन्म होता है । गर्भ धारण के समय जीवन 3 गुणसूत्र
माता से और 23 गुणसूत्र पिता से प्राप्त करता है।
प्रत्येक गुणसूत्र में हजारों आनुवंशिक निर्देश जीन के रूप में होते हैं । जीव के विकास में
जीन से सयुंक्त प्रोटीन महत्त्वपूर्ण काम करते हैं ।
जीन कई भिन्न रूपों में जीवित रह सकते हैं। जीन के रूपान्तरण को उत्परिवर्तन कहा जाता
है । उत्परिवर्तन जीन में पुनः संयोजन के अवसर जुटाती है ।
Q.33. व्यवहार का जैवकीय आधार तथा सांस्कृतिक आधार को स्पष्ट करें ।
Ans. मनुष्य को जीवन-रक्षा एवं समान रक्षा के लिए कई प्रकार के व्यवहार का कर्ता बनना
होता है । आहार ढूँढने की योग्यता, परभक्षी से दूर रहने की प्रवृत्ति, छोटे बच्चों का संरक्षण एवं
पालन-पोषण पर आधारित जैवकीय व्यवहार में अपनी रुचि एवं क्रियाशीलता का प्रदर्शन करना
होता है
अतिथियों को पसन्द का भोजन ऐच्छिक परिवेश में कराना हमारे लिए सांस्कृतिक व्यवहार
माना जाता है। निर्धारित साधन के अभाव में उचित विकास को खोजकर प्रबंधक की मदद करना
हमारा नैतिक व्यवहार है । वर्ग में बैठने की कला, प्रश्न पूछने का तरीका, खेल को खेल की भावना
से खेलना, दुखी व्यक्ति को सांत्वना दे देना आदि सांस्कृतिक व्यवहार के अन्तर्गत माने जा सकते
हैं।
Q.34. संस्कृतिकरण तथा परसंस्कृतिकरण में क्या अंतर है । स्पष्ट करें । [B.M.2009A]
Ans. संस्कृतिकरण-उन सभी प्रकार के अधिगम को कहते हैं जो बिना किसी प्रत्यक्ष और
सुविचारित शिक्षण के होता है।
परसंस्कृतिकरण-परसंस्कृतिकरण का अर्थ है किसी अन्य संस्कृति की धारणा, विचार तथा
व्यवहार को स्वीकारना तथा उसे अपनाना । जब व्यक्ति दूसरी संस्कृति की भाषा, विश्वास को
अपनाता है तो इसे परसंस्कृतिग्रहण कहते हैं।
Q.35. संस्कृतिकरण का सामान्य परिचय दें।
Ans. संस्कृतिकरण उन सभी प्रकार के अधिगमों को कहते हैं जो व्यक्ति के जीवन में बिना
किसी प्रत्यक्ष और सुविचारित शिक्षण के इसलिए घटित होता है कि वे हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक
संदर्भों में हमें प्राप्त होते हैं।
संस्कृतिकरण के दो मुख्य आधार हैं-(i) प्रेक्षण और (ii) सीखना । परिवारों, पूर्वजों अथवा
पड़ोसियों के उत्तम व्यवहारों को पता लगाकर उसे ग्रहण करना संस्कृतिकरण माना जाता है ।
हम कुछ विचार, संप्रत्यय और मूल्यों को सीखते हैं ।
Q.36. संस्कृति और समाज में क्या अंतर हैं ? [B. M. 2009A]
Ans. संस्कृति समाज में जीने एवं सामूहिक व्यवहार करने का ढंग है यह मानव-निर्मित होता
है जिसके अंतर्गत धार्मिक विश्वास, रीति-रिवाज, रहन-सहन, मूल्य, रूढ़ियाँ एवं परंपरा आती हैं।
समाज-समाज लोगों का एक समूह है जिसकी एक विशेष सीमा होती है । वे एक सामान्य
भाषा होती है जो उनके पड़ोसी लोग नहीं समझ पाते हैं एक समाज एकल राष्ट्र हो सकता है
या नहीं हो सकता है।
Q.37. समाजीकरण किसे कहते हैं ? समाजीकरण के प्रमुख कारक क्या-क्या हैं?
Ans. समाजीकरण-समाजीकरण एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा लोग ज्ञान, कौशल और
शीलगुण अर्जित करते हैं जो उन्हें समाज और समूहों के प्रभावी सदस्यों के रूप में भाग लेने के
योग्य बनाते हैं। समाजीकरण नामक प्रक्रिया एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सामाजिक-सांस्कृतिक
संचरण का आधार तैयार करता है। जैसे कई भाषाओं की जानकारी रखनेवाले को किसी निश्चित
क्षेत्र में जाकर उसी क्षेत्र की भाषा का व्यवहार करना होता है।
समाजीकरण के प्रमुख कारक-समाज के हित में किये जाने वाले कार्य-विधि को जो हमें
सीखने की विधि या अवसर प्रदान करता है उन्हें समाजीकरण के कारक कहते हैं। समाजीकरण
के प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं-
(i) माता-पिता (ii) विद्यालय (iii) समससमूह और (iv) जनसंचार का प्रभाव ।
Q.38. परसंस्कृतिकरण से क्या समझते हैं ?
Ans. किसी अन्य संस्कृति के संपर्क में आकर जो भी सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों
के प्रभाव में पड़ते हैं उन्हें परसंस्कृतिकरण कहते हैं।
परसंस्कृतिकरण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में अथवा स्थायी या अस्थायी रूप में, ऐच्छिक या
अनैच्छिक रूप में घटित होता रहाता है । ये लाभ और हानि दोनों के कारण होते हैं।
परसंस्कृतिकरण के माध्यम से नई विधियों या नये संस्कार से मुलाकात होती है। यह कभी-कभी
कष्ट और कठिनाइयाँ उत्पन्न करती हैं। यदि इसे हानिकारक परिणाम वाला समझकर छोड़ने की
इच्छा होती है तो कई विकल्प मिल जाते हैं।
Q.39. परसंस्कृति ग्राही युक्तियाँ क्या-क्या हैं ?
Ans. निम्नलिखित चार युक्तियों के द्वारा परसंस्कृतिकरण सरलता से संभव हो जाता है-
(i) समाकलन-नई-पुरानी दोनों संस्कृति के प्रति रुचि रखना।
(ii) आत्मसात्करण-अपनी संस्कृति का त्याग कर नई संस्कृति को अपनाना ।
(iii) पृथक्करण-दोनों संस्कृतियों को मिश्रित प्रभाव ।
(iv) सीमांतकरण-अनिश्चित स्थिति में ।
(LONG ANSWER TYPE QUESTIONS)
Q.1. जैवकीय तथा सांस्कृतिक मूल का सामान्य अर्थ एवं उद्देश्य बतावें ।
Ans. कोई बच्चा अपने पूर्वजों से एक विकसित शरीर और उन्नत मस्तिष्क पाकर अच्छे
व्यवहार के प्रदर्शन के योग बनता है।अर्थात् हमारे व्यवहार का महत्वपूर्ण निर्धारक हमारी जैवकीय
संरचना होती है । व्यवहार सम्बन्धी कला एवं आदतें हमें आनुवंशिक रूप में उपलब्ध होती हैं।
जैसे माता-पिता के अशक्त रहने के कारण मंद बुद्धि वाले बच्चे जन्म लेते हैं तथा असामान्य लक्षण
प्रकट करते हैं। किसी कारण मस्तिष्क की कोशिकाओं के क्षतिग्रस्त हो जाने पर जैवकीय आधारों
का महत्त्व जानने का अवसर मिलता है।
किसी व्यक्ति का व्यवहार जैवकीय तंत्र के अलावे सांस्कृतिक तंत्र से भी प्रभावित होता है।
पूर्वज से मिला संस्कृति से समझौता करते हुए हम अपने व्यावहारिक आचरण का निर्धारण करते
हैं । विकट स्थितियों का मुकाबला करना, आकस्मिक घटना के बाद भी धैर्य बनाए रखना,
प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षित रहने की युक्ति सोचना आदि ऐसी परिस्थिति है जहाँ जैविकीय ज्ञान
के साथ-साथ सांस्कृतिक सहायता की आवश्यकता महसूस होने लगती है। माँगें, अभाव, अनुभव,
अवसर, लोगों की प्रतिक्रिया, मिलने वाला पुरस्कार आदि हमारे व्यवहार को प्रभावित किए बिना
रहते हैं । ज्यों-ज्यों बच्चा बड़ा होने लगता है, उसकी समय विकसित होने लगती है और वह
उक्त प्रभावों के स्पष्ट लक्षण और क्षमता को समझने लगता है। कई स्थितियाँ ऐसी आती हैं जब
सांस्कृतिक ज्ञान से ही हम समस्या को सरलता से सुलझा लेते हैं। मनोवैज्ञानिक की मानें तो
जैवकीय आधार के अलावा सांस्कृतिक आधार भी व्यवहार के लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं । दोनों
का साझा प्रयास हमारे व्यवहार को उन्नत दर्जा दिलाने में हमारी सहायता करते हैं ।
Q.2. ‘मानव व्यवाहर जानवरों के व्यवहार से अधिक जटिल होते हैं । इस कथन को
सोदाहरण स्पष्ट करें।
Ans. मानव व्यवहार की एक महत्त्वपूर्ण निर्धारिका हमारी जैवकीय संरचना है जो पूर्वजों
से उत्तराधिकार के रूप में विकसित शरीर और मस्तिष्क के साथ मिलती है। हमारे व्यवहार दूसरी
प्रजातियों की तुलना में बहुत जटिल और विकसित हैं क्योंकि हमारे पास एक बड़ा और विकसित
मस्तिष्क है । हमें पर्यावरण को समझने तथा उसके प्रभाव के प्रति अनुकूलित होने की क्षमता है।
एक मनुष्य होने के कारण हमारे पास न केवल जैवकीय तंत्र है बल्कि निश्चित सांस्कृतिक क्षेत्र
भी होते हैं । हम जानवरों की तुलना में अधिक सरलता से सीख सकते हैं, अवसर को पहचान
कर व्यवहार निश्चित कर सकते हैं । विविध माँगें, अनुभव और अवसर हमारे व्यवहार को अत्यन्त
प्रभावित करते हैं । मानवीय व्यवहार के लिए जैविकीय आधार के अलावा सांस्कृतिक आधार भी
होते हैं । अर्थात् मानव के व्यवहार की जटिलता का एक प्रमुख कारण यह है कि मनुष्य के व्यवहार
को नियंत्रित करने के लिए एक संस्कृति है जो जानवरों में नहीं है। उदाहरणार्थ, भूख से उत्पन्न
वेदना के प्रति किये जाने वाले व्यवहार को समझा जा सकता है। मानव भूख की शांति के लिए
विवेकपूर्ण विधि अपनाता है । शाकाहारी और मांसाहारी मानव अपनी भूख को अलग-अलग तरीके
शान्त करके सन्तुष्ट होते हैं । खाद्य सामग्रियों के संग्रह और संरक्षण करना केवल मनुष्य के वश
की बात है । मानव अपनी भूख की शान्ति के लिए सभ्य तरीका अपनाता है जबकि जानवर भूखा
होने पर हिंसक और भयानक बन जाता है।
मानव काम-व्यवहार कई नियमों, मानकों, मूल्यों और कानूनों से नियंत्रित होता है जबकि
जानवर भोजन पाने के क्रम में किसी नियम और मूल्यों को नहीं अपनाता है । मानव अपने
काम-व्यवहार के लिए भरोसेमन्द साथी का चयन कर लेता है लेकिन जानवर मिल-जुल कर कोई
व्यवस्था नहीं कर पाता है। अतः जैविकीय और सांस्कृतिक शक्तियों की परस्पर-क्रिया के द्वारा
मानव प्रकृति विकसित होती है जिसके कारण मानव अपना स्वभाव निश्चित करके उचित व्यवहार
करता है। मानव अपने व्यवहार को प्रयोगात्मक बनाने के लिए भौतिक वस्तुओं (औजार मूत्तियाँ),
विचार (श्रेणियाँ, मानक, परोपकार, दया, धर्म) तथा सामाजिक संस्थान (परिवार, विद्यालय,
सहकारिता विभाग, पंचायत भवन) का उपयोग करने की क्षमता रहता है जो जानवरों को नसीब
नहीं होता है।
भवन निर्माण हो या उपस्कर का निर्माण हो हम परिणामी उत्पाद के प्रति सुरक्षा और उपयोग
की दृष्टि से सदा सतर्क व्यवहार करते हैं । हम किसी व्यवहार के लिए पूर्व निर्धारित साधनों या
विधियों का इन्तजार नहीं करते हैं । वाशिंग मशीन के अभाव हम बाल्टी-पानी के द्वारा ही
सफाई का काम निबटाना जानते हैं । कुर्सी के अभाव में हम शिक्षण कार्य या यात्रा की योजना
को बन्द नहीं कर देते हैं।
Q.3. मानव मस्तिष्क की संरचना या बनावट तथा कार्यों का वर्णन करें।
Ans. केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र (central nervous system) का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग मस्तिष्क
है जिसके माध्यम से व्यक्ति सभी तरह की क्रियाओं का संचालन करता है । शरीर में मस्तिष्क
का स्थान सुषुम्ना के ऊपर तथा खोपड़ी (skull) के भीतर होता है । मस्तिष्क की बनावट तथा
उसके कार्यों का अध्ययन निम्नांकित सात प्रमुख भाग में बाँटकर कर सकते हैं-
(i) मेडुला शीर्ष (medulla oblongata)
(ii) सेतु (pons)
(iii) लघुमस्तिष्क (cerebellum)
(iv) थैलेमस (thalamus)
(v) हाइपोथैलेमस (hypothalamus)
(vi) मध्यमस्तिष्क (midbrain)
(vii) प्रमस्तिष्क या प्रमस्तिष्कीय वल्कुट (cerebrum or cerebral cortex)
इन सबों का वर्णन निम्नांकित है-
(i) मेडुला शीर्ष (Medulla oblongata)-मेडुला सुषुम्ना के ठीक ऊपर होता है । इसकी
लम्बाई लगभग एक इंच होती है । यह मस्तिष्क तथा सुषुम्ना को जोड़ता है । इसके द्वारा कई
तरह के कार्य किए जाते हैं । जैसे, यह सुषुम्ना का मस्तिष्क के उच्च केन्द्रों से सम्पर्क स्थापित
करता है, क्योंकि सुषुम्ना से मस्तिष्क की ओर जानेवाले सभी तंत्रिका आवेग मेडुला होकर ही
गुजरते हैं। यह शरीर की रक्षा-संबंधी सभी क्रियाओं का जैसे रक्त-संचालन, साँस की गति,
निगलने, हृदय की धड़कन आदि का संचालन एवं नियंत्रण करता है । यह शरीर में कुछ हद तक
संतुलन भी बनाए रखने में मदद करता है तथा अपने क्षेत्र की प्रतिवर्त क्रियाओं को भी कुछ हद
तक नियंत्रित करता है।
(ii) सेतु (Pons)—यह मेडुला शीर्ष के ठीक ऊपर से होता है । इसमें कई तरह के तंतु
पाए जाते हैं जिनके माध्यम से यह लघुमस्तिष्क (cerebellum) तथा प्रमस्तिष्क (cerebrum)
के भागों को आपस में मिलाता है । इस तरह, यह वास्तविक अर्थ में सेतु या पुल का कार्य करता
है । यह श्रवण कार्यों (auditory functions) के लिए एक तरह का प्रसारण स्टेशन (relay
station) का कार्य करता है । इसमें कुछ ऐसे केन्द्रक (nuclei) भी होते हैं जिनसे प्रमुख श्वसन
गति तथा आनन अभिव्यक्तियों (facial expressions) की क्रियाएँ प्रभावित होती हैं।
(iii) लघुमस्तिष्क (Cerebellum)-लघुमस्तिष्क या अनुमस्तिष्क प्रमस्तिष्क (cere-
brum) या वृहत मस्तिष्क के नीचे और पीछे की ओर होता है। कुछ स्नायुतंतुओं द्वारा लघुमस्तिष्क
का संबंध एक आरे प्रमस्तिष्क से तथा दूसरी ओर सुषुम्ना (spinal cord) से होता है । इसकी
ऊपरी सतह पर धूसर पदार्थ (grey matter) होता है तथा उजला पदार्थ उसकी भीतर तह पर
होता है । लघु मस्तिष्क का मुख्य कार्य शारीरिक संतुलन (bodily balance) बनाए रखना होता
है। शराब के नशे में हो जाने पर लघुमस्तिष्क प्रभावित हो जाता है । फलस्वरूप, व्यक्ति की
चाल-ढाल में लड़खड़ाहट आ जाती है ।
(iv) थैलेमस (Thalamus)-थैलेमस प्रमस्तिष्क (cerebrum) के नीचे और हाइपोथैलेमस
के बगल में होता है । थैलेमस दोनों प्रमस्तिष्कीय गोलार्डों (cerebral hemispheres) के बीच
एक अंडाकार संरचना है जिसे ऊपर से देखा नहीं जाता है । इसका कार्य बिजली के स्विचबोर्ड
के समान है । जैसे स्विचबोर्ड का स्विच दबातें हैं, बिजली की धारा उपयुक्त जगह पर पहुंँचकर
बल्व को प्रकाशमय कर देती है या पंखे को चला देती है, ठीक उसी प्रकार थैलेमस में जो तंत्रिका
आवेग पहुँचते हैं, वह उन्हें मस्तिष्क के उचित स्थान पर पहुंचा देता है । अतः, थैलेमस का मुख्य
कार्य भिन्न-भिन्न संवेदी प्रक्रियाओं (sensory processes) से संबंधित आवेग को ग्रहण करके
प्रमस्तिष्क (cerebrum) के उपर्युक्त केन्द्रों में प्रसारण (relay) करना होता है । इतना ही नहीं,
यह लघुमस्तिष्क से भी आवेगों को ग्रहण करके उन्हें प्रमस्तिष्क (cerebrum) में पहुँचाता है ।
(v) हाइपोथैलेमस (Hypothalamus) थैलेमस के नीचे एक छोटा परंतु अत्यंत ही
महत्त्वपूर्ण तंतु है जिसे हाइपोथैलेमस (hypothalamus) कहा जाता है । यह थैलेमस तथा
मध्यमस्तिष्क (midbrain) को एक तरह एक जोड़ता है। हाइपोथैलेमस द्वारा कई तरह के कार्य
किए जाते हैं । इसके द्वारा जैविक अभिप्रेरकों जैसे भूख, प्यास, काम आदि को समंजित
(regulate) किया जाता है। शरीर के भीतर सामान्य संतुलन बनाए रखने में भी यह महत्त्वपूर्ण
भूमिका निभाता है । हाइपोथैलेमस संवेग की उत्पत्ति एवं नियंत्रण का मुख्य केन्द्र माना गया है।
इसके द्वारा अंत:स्रावी ग्रन्थियों (endocrine glands) को भी समंजित किया जाता है।
(vi) मध्यमस्तिष्क (Midbrain)-मध्यमस्तिष्क का स्थान मस्तिष्क के बीच में होता है।
इसमें दो सतहें होती हैं-निचली सतह (floor) तथा ऊपरी सतह (roof or tectum)। निचली सतह
संवेदी तंत्रिका आवेगों (sensory nerve impulses) को मस्तिष्क के उच्च केन्द्रों में तथा उच्च
केन्द्रों से गतिवाही तंत्रिका आवेगों (motor nerve impulses) को निचले केन्द्रों में आने-जाने
का काम काम करता है । जहाँ तक ऊपरी सतह या टेक्टम (tectum) का प्रश्न है, इसके द्वारा
दृष्टि तथा श्रवण क्रियाओं के संचालन में मदद मिलती है। जब मस्तिष्क का दृष्टिक्षेत्र या श्रवणश्रेत्र
क्षतिग्रस्त हो जाता है तो इन क्रियाओं का संचालन यहीं से होता है । मध्यमस्तिष्क का एक विशिष्ट
भाग जो घना एवं मोटा जाल-सा दिखता है, उसे रेटिकुलर फॉरमेशन (reticular formation)
कहा जाता है जो व्यक्ति में सतर्कता की अवस्था को बनाए रखने में सक्षम होता है। इसमें नींद
आदि के संचालन में भी मदद मिलती है।
(vii) प्रमस्तिष्क (Cerebrum)-मानव मस्तिष्क का सबसे बड़ा तथा सबसे प्रमुख भाग
प्रमस्तिष्क या वृहत मस्तिष्क है । इसे प्रमस्तिष्कीय वल्कुट (cerebral cortex) भी कहा जाता
है। एक विशेष दरार (fissure), जिसे अनुदैर्ध्य दरार (longitudinal fissure) कहा जाता है,
द्वारा प्रमस्तिष्क दो गोलार्द्धा (hemispheres) में बँटा होता है-बायाँ गोलार्द्ध (left hemisphere)
तथा दायाँ गोलार्द्ध (right hemisphere), इन दोनों गोलार्डों के ऊपर न्यूरोन का एक पतला
आवरण होता है जिसकी मोटाई लगभग 3 मिलीमीटर होती है। इस आवरण का रंग धूसर (grey)
होता है। बायाँ गोलार्द्ध तथा दायाँ गोलार्द्ध तत्रिका तंतु (nerve fibre) के एक विशेष गुच्छा या
बंडल (bundle) से जुड़े होते हैं जिसे कारपस कैलोजम (corpus callosum) कहा जाता है।
यह उजले पदार्थ (white matter) का बना होता है ।
प्रत्येक गोलार्द्ध दो गहरी दरारों (fissure) अर्थात् रोलैण्डो की दरार (fissure of Rolando)
या केन्द्रीय सुलकस (central sulcus) तथा सिलभियस की दरार (fissure of Sylvius) या
लेट्ल दरार (lateral fissure) की मदद से निम्नांकित चार पालियों (lobes) में बँटा होता है-
(i) अग्रपालि (frontal lobe) (ii) मध्यपालि (parietal lobe)
(iii) शंखपालि (temporal lobe) (iv) पृष्ठपालि (occipital lobe)
इन खंडों के कार्य अलग-अलग हैं। इन्हें इन कार्यों के विभाजन के दृष्टिकोण से निम्नांकित
तीन क्षेत्रों में बाँटा गया है-
(i) संवेदी या ज्ञानवाही क्षेत्र (sensory area)
(ii) क्रियावाही या पेशीय क्षेत्र (motor area)
(iii) साहचर्य क्षेत्र (association area)
इन तीनों का वर्णन इस प्रकार हैं-
संवेदी या ज्ञानवाही क्षेत्र के कार्य (Functions of sensory area)-इस क्षेत्र द्वारा
संवेदी क्रियाएँ होती हैं जिसके फलस्वरूप हमें तरह-तरह के उद्दीपकों का ज्ञान होता है । इसके
क्षेत्र द्वारा निम्नांकित तीन तरह के ज्ञान या संवेदनाएँ होती हैं-
(a) दृष्टि संवेदन (Visual sensation)-दृष्टि संवेदन का ज्ञान हमें पृष्ठपालि (occipital
lobe) द्वारा होता है । इसलिए पृष्ठपालि की दृष्टि ज्ञानपालि कहा जाता है । आँख में जो तंत्रिका
आवेग उत्पन्न होते हैं वे दृष्टि तत्रिका (optic nerve) द्वारा पृष्ठपालि में पहुंचते हैं जिससे व्यक्ति
में दृष्टि संवेदन का ज्ञान होता है । यदि किसी कारण से पृष्ठपालि नष्ट हो जाए तो व्यक्ति को
दृष्टि संवेदन नहीं होगा।
(b) श्रवण संवेदन (Auditory sensation)—सुनने की क्रिया का नियंत्रण शंखपालि
(temporal lobe) से होता है । अतः, शंखपालि को श्रवण ज्ञानकेन्द्र भी कहा जाता है । जब
ध्वनि या आवाज कान में श्रवण तंत्रिका आवेग उत्पन्न करता है, तब वह शंखपालि में पहुँचता
है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति को श्रवण संवेदन होता है । यदि यह शंखपालि पूर्णतः नष्ट हो जाए
तब व्यक्ति को इससे श्रवण-संबंधी संवेदन या ज्ञान नहीं हो सकता है ।
(c) त्वक संवेदन (Cutaneous sensation)—व्यक्ति को स्पर्श का ज्ञान या त्वक संवेदन
का ज्ञान मध्यपालि (parietal lobe) से होता है । जब हमारे त्वक को कोई चीज उत्तेजित करता
है, तब इससे तंत्रिका आवेग उत्पन्न होकर मध्यपालि (parietal lobe) में पहुँचता है जिसके
परिणामस्वरूप व्यक्ति को स्पर्श ज्ञान होता है ।
(iii) क्रियावाही या पेशीय क्षेत्र के कार्य (Functions of motor area)—व्यक्ति जो भी
शारीरिक क्रिया या व्यवहार स्वेच्छा से करता है, उसका आदेश प्रमस्तिष्क के जिस भाग से मिलता
है, उसे क्रियावाही या पेशीय क्षेत्र कहा जाता है । क्रियावाही क्षेत्र रोलैण्डो की दरार के बगल
में एक लंबा-सा हिस्सा में अवस्थित है। इस क्षेत्र में पिरामिड के आकार के बड़े-बड़े कोश
(cells) पाए जाते हैं जिनके सहारे शारीरिक क्रियाओं एवं व्यवहारों का नियंत्रण होता है । अध्ययनों
से यह स्पष्ट हुआ कि पेशीय क्षेत्र के सबसे ऊपर का भाग शरीर के सबसे निचले हिस्से जैसे
पैर की अंगुलियों तथा पैर की मांसपेशियों आदि का नियंत्रण एवं संचालन करता है और सबसे
नीचे का भाग शरीर के ऊपर के हिस्से जैसे मुँह, गर्दन, चेहरा आदि की क्रियाओं का संचालन
एवं नियंत्रण करता है।
(ii) साहचर्य क्षेत्र के कार्य (Functions of association area)-अग्रपालि में एक
बड़ा-सा साहचर्य क्षेत्र है जिसके द्वारा उच्च मानसिक क्रियाओं (higher mental processes)
जैसे सोचना, तर्क करना, चिंतन करना, कल्पना करना, स्मरण करना आदि का संचालन एवं
नियंत्रण होता है। अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि यह क्षेत्र किसी कारण से क्षतिग्रस्त हो जाने
से प्राणी वर्तमान संबद्ध सभी बातों, घटनाओं एवं अर्थों को भूल जाता है ।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि मानव मस्तिष्क की संरचना काफी जटिल है तथा इसके
द्वारा प्राणी की सभी तरह की शारीरिक क्रियाओं का संचालन एवं नियंत्रण होता है।
Q.4. स्वतः संचालित स्नायु संस्थान पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये ।
Ans. स्वतंत्र स्नायु संस्थान मस्तिष्क का एक महत्त्वपूर्ण भाग है । केन्द्रीय स्नायु संस्थान
का इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । यह केन्द्रीय स्नायु संस्थान स्वतंत्र रहकर क्रिया करता है।
शरीर में संवेगावस्था में होनेवाले अनेक परिवर्तनों को स्वतंत्र स्नायु संस्थान ही संचालित करता
है। इस संचालन में केन्द्रीय स्नायु संस्थान का कोई हाथ नहीं रहता है । परन्तु इससे यह नहीं कहा
जा सकता कि स्वतंत्र स्नायु संस्थान का केन्द्रीय स्नायु संस्थान से कोई सम्बन्ध नहीं है। केन्द्रीय
स्नायु संस्थान के भाग सुषुम्ना का स्वतंत्र स्नायु संस्थान में महत्वपूर्ण स्थान है। अतएव इस स्नायु
संस्थान को स्वतंत्र केवल इसलिए समझा जाता है, क्योंकि जिन क्रियाओं के संचालन एवं नियंत्रण
में मस्तिष्क काम नहीं करते वे स्वतंत्र स्नायु संस्थान द्वारा संचालित एवं नियंत्रित होती हैं । इस
संस्थान के कार्य को रोका नहीं जा सकता । यह संस्थान स्वतंत्र रूप से अपना कार्य करता है।
यह मानव शरीर के विभिन्न अंगों की क्रियाओं में समायोजन करता है । इसकी बहुत-सी नाड़ियाँ
मस्तिष्क और सुषुम्ना से चलकर आमाशय और रक्तवाहिनी नाड़ियों से आकर मिलती हैं। इन
नाड़ियों द्वारा आन्तरिक एवं बाह्य मांसपेशियों की क्रियाओं का संचालन होता है । स्वतंत्र स्नायु
संस्थान द्वारा स्राव ग्रन्थियों तथा आमाशय और रक्त कोषों आदि की क्रिया का संचालन होता
है। इसी से फेंफड़े, दिल, यकृत, तिल्ली, आमाशय, बड़ी आँत, प्रस्वेद ग्रन्थियाँ आदि की क्रिया
चुलती हैं । वस्तुतः यह संस्थान क्रियावाहक स्नायु संस्थान के बाहर स्थित है और उनकी क्रिया
में केन्द्रीय स्नायु संस्थान कोई हाथ नहीं बँटाता ।
स्वतंत्र स्नायु संस्थान के बायें भाग को तीन भागों में बाँटा गया है-
1. कापालिक, 2. माध्यमिक स्नायु तंत्र या थौरेको लम्बर और 3. अनुब्रिका ।
चित्र में सबसे ऊपर कापालिक है । इससे जुड़े स्नायु कापालिक स्नायु कहलाते हैं । इसके
नीचे सुषुम्ना है । इससे सम्बन्धित स्नायु सुषुम्ना स्नायु कहलाते हैं । सुषुम्ना शीर्ष से लेकर अनुत्रिका
का भाग धौरेका लम्बर अथवा माध्यमिक स्नायु तंत्र कहलाता है । इसे थौरेका लम्बर इसलिए
कहा जाता है, क्योंकि इस भाग से स्नायु सुषुम्ना चलकर थोरेक्स तक पहुँचता है । सुषुम्ना का
अंतिम भाग अनुत्रिका कहलाता है ।
स्वतंत्र स्नायु कोष गुच्छिका तथा शरीर के विभिन्न अंग सुषुम्ना से जुड़े होते हैं । स्वतंत्र
स्नायु का फैलाव नेत्र, रालवाही ग्रन्थियाँ, मुख, त्वचा और रक्त कोष, हृदय, श्वासनली, यकृत,
आमाशय, क्लोम, आँत, अभिवृक्क, गुर्दे, थैली, कोलोन और गुदा तथा जननेन्द्रियों तक है । ये
पसीने की ग्रन्थियों तथा त्वचा कोशों में भी फैले हुए हैं। ये पुच्छिंका लड़ी तथा सुषुम्ना को स्नायु
सूत्र में जोड़ते हैं । जिन सूत्रों से ये इन्हें जोड़ते हैं वे सूत्र सुषुम्ना से निकलकर पुच्छिकाओं तक
जाते हैं। पुच्छिकाओं की लड़ी में 22 अनुकम्पिक पुच्छिकायें होती हैं । मेंगेलियन लड़ी सुपुम्ना
के समानान्तर में उसकी लम्बाई में होती है । अनुकम्पिक पुच्छिका लड़ी में माइलीन नामक श्वेत
पदार्थ ऊपर से लिपटे रहते हैं। पुच्छिका लड़ी से निकलकर लागूल सूत्र वापस सुषुम्ना के स्नायु
में जाकर मिलते हैं।
स्वतंत्र स्नायु संस्थान के दो भाग हैं-1. अनुकम्पिक स्नायु संस्थान तथा 2. परिअनुकम्पिक
स्नायु संस्थान । ये दोनों भाग एक-दूसरे के विपरीत क्रियायें करते हैं ।
अनुकम्पिक स्नायु संस्थान शरीर को कार्य करने की क्षमता प्रदान करता है और खतरे का
सामना करने के लिए तैयार करता है । यह संस्थान शरीर की खतरे से रक्षा भी करता है । संवेग
की दशा में संस्थान अधिक क्रियाशील रहता है। इसकी क्रियाशीलता से ही खतरे के समय आँखों
की पुतलियाँ फैल जाती हैं और आमाशय की रक्तवाहिनी नाड़ियाँ क्रियाशील हो जाती हैं। ये
नाड़ियाँ आमाशय को रक्त न पहुँचाकर माँसपेशियों और मस्तिष्क को अधिक रक्त पहुँचाती हैं।
परिणामस्वरूप आमाशय में भोजन पचना बन्द हो जाता है, भूख नहीं लगती है। मांसपेशियों एवं
मस्तिष्क की क्रियाशीलता बढ़ जाती है । आँत निष्क्रिय हो जाती है। आमाशय को रस प्रदान
करने वाली ग्रन्थियाँ रस देना बन्द कर देती हैं। हृदय अधिक तेजी से रक्त फेंकने लगता है जिससे
उसकी गति में तीव्रता आ जाती है । अभिवृक्क ग्रन्थियाँ अभिवृक्की रस का अधिकांश खून में
पहुँचाने लगती हैं । परिणामस्वरूप रक्त शर्करा बढ़ जाती है। मनुष्य की शक्ति में वृद्धि हो जाती
है । आवेश के कारण कोश अधिक नष्ट होते हैं । साँस की गति तीव्र हो जाती है, हाँफने की
क्रिया होने लगती है और कभी-कभी तो मल-मूत्र भी निकलने लगता है । लार ग्रन्थियों से रस
निकलना बन्द हो जाता है । गला और मुख सूख जाता है । ये क्रियायें कलह की अवस्था में,
क्रोध एवं भय की अवस्था में देखी जाती है। संवेग की अवस्था त्वचा की विद्युत-प्रतिशोधन
शक्ति में भी कमी आ जाती है जिसे हम गाल्वनिक त्वचा अनुक्रिया के नाम से जानते हैं ।
स्वतंत्र स्नायु संस्थान का दूसरा भाग परिअनुकम्पिक स्नायु संस्थान है । इसका सम्बन्ध
कापालिक तथा अनुत्रिक से है । यह संस्थान एनाबोलिज्म की क्रिया करता है । यह संस्थान शरीर
की शक्ति का संचय कर शरीर के विभिन्न भागों के पदार्थ को पुष्ट करता है । इस संस्थान की
क्रिया में हृदय की धड़कन कम होती है और रक्त-चाप कम हो जाता है । परिणामस्वरूप शरीर
में भोजन की मात्रा कम खर्च होती है, लार ग्रन्थियों की क्रिया बढ़ जाती है जिससे भोजन पचने
की क्रिया में सहायता मिलती है । फलतः शरीर का वजन बढ़ जाता है, आँखों की पुतलियाँ सिकुड़
जाती हैं । फलतः आँख में कम प्रकाश प्रवेश कर पाता है और आँखों को लाभ होता है। यह
संस्थान अनुत्रिका विभाग के कार्य का संचालन करता है । यह ब्लेडर और कोलन तथा बड़ी आँतों
को स्वस्थ रखता है। इसकी सहायता से शरीर से मल-मूत्र तथा विषैले पदार्थ बाहर निकलते हैं।
अनुकम्पिक और परिअनुकम्पिक संस्थान में अन्तर है जो निम्न हैं-
1. अनुकम्पिक स्नायु संस्थान में स्नायु कोश गुच्छिका सुषुम्ना के अन्दर होती है अथवा शरीर
के उन आन्तरिक अंगों के पास होती है जिनको वे उत्तेजित करती है। परिअनुकम्पिक स्नायु संस्थान
के कोश गुच्छिकायें सुषुम्ना के अन्दर न होकर अंगों के पास ही होती हैं ।
2. अनुकम्पिक स्नायु संस्थान की क्रिया में सम्पूर्ण संस्थान काम करता है । परिअनुकम्पिक
संस्थान की क्रिया में उस स्थान के विभिन्न भाग स्वतंत्र होते हैं।
परन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि ये दोनों संस्थान एक-दूसरे के विरुद्ध ही हैं, इनमें
कोई पारस्परिक सम्बन्ध नहीं है । वास्तव में ये एक-दूसरे के सहयोगी होते हैं । मॉगर्न के अनुसार
ये दोनों संस्थान कभी भी एक-दूसरे से स्वतंत्र कार्य नहीं करते बल्कि परिस्थिति के अनुसार
भिन्न-भिन्न मात्रा में सहयोग करते हैं। पर्यावरण में संघर्ष के समय जीव में अनुकम्पिक संस्थान
की क्रिया अधिक और परिअनुकम्पिक संस्थान की कमी हो जाती है । इस सहयोग से शरीर में
कार्य और विश्राम दोनों अवस्थाओं में संतुलन रहता है ।
Q.5. मस्तिष्क के कार्यों के अध्ययन के लिए किन-किन विधियों का उपयोग होता
है। उनकी विवेचना करें ।
Ans. स्नायुमंडल या तंत्रिका तंत्र या मस्तिष्क की रचना एवं इसके कार्य के अध्ययन के
लिए कई प्रकार की विधियों का प्रयोग किया जाता है । इनमें से कुछ प्रमुख विधियों का वर्णन
यहाँ किया जा रहा है-
1. वर्णनात्मक विधि या अभिरंजन विधि (Staining Method)—यह विधि तंत्रिका तंत्र
की रचना के अध्ययन की सबसे प्राचीन विधि है । इस विधि का व्यवहार गोल्गी (Golgi) ने
स्नायु-मंडल के भिन्न-भिन्न भागों की रचना तथा उनके कार्य के अध्ययन में किया । इस विधि
में स्नायु-कोश को रजित करने (रंगने) का प्रयास किया जाता है । चूँकि स्नायु-कोश पर किसी
रंग का प्रभाव जल्दी नहीं पड़ता है, इसलिए स्नायु के माइलीन आवरण को रंगने का प्रयास किया |
जाता है । रंगों का व्यवहार दो प्रकार से किया जाता है। एक तो यह कि केवल तन्तुओं (Fibres)
को रंगा जाता है और दूसरे प्रकार के रंग से केवल कोशिका-शरीर (Cell body) को रंजित किया
जाता है । पहले प्रकार की कार्य-विधि को वेगर्ट विधि कहते हैं और दूसरे प्रकार की कार्य-विधि
को नीसिल विधि (Nissil Method) कहते हैं । रंजित तंतु या कोशिका-शरीर को माइक्रोस्कोप
की मदद से देखा जाता है । रंगे हुए तन्तु या कोशिका-शरीर को देखने में आसानी होती है और
इस आधार पर उनकी रचना को समझने का प्रयास किया जाता है । इस विधि का सबसे बड़ा
गुण यह है कि इसके द्वारा तंतुओं तथा कोशिका-शरीर का अध्ययन प्रत्यक्ष रूप से संभव होता
है। लेकिन इस विधि का दोष यह है कि इसके द्वारा सभी तन्तुओं का अध्ययन नहीं किया जा
सकता है । कारण यह है कि कुछ ऐसे तंतु हैं जिन पर माइलिन आवरणं नहीं होता है । अतः
इस प्रकार के तन्तुओं पर रंगों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है
2. मस्तिष्क परिवर्तन-विधि (Brain changes method)-मस्तिष्क के भिन्न-भिन्न
भागों की रचना तथा इनके कार्यों के अध्ययन के लिए इस विधि का व्यवहार किया जाता है।
यहाँ यह देखने का प्रयास किया जाता है कि मनोवैज्ञानिक परिचालन (Manipulation) के कारण
प्राणी के मस्तिष्क में कोई परिवर्तन होता है या नहीं और यदि परिवर्तन होता है तो मस्तिष्क के
किस भाग में होता है । प्राणी को संवेदी वचन या संवेदी समृद्धि (Sensory Enrichment) से
प्रभावित किया जाता है और यह देखने का प्रयास किया जाता है कि प्राणी के मस्तिष्क में कोई
रचनात्मक या रसायन-परिवर्तन होता है या नहीं।
लेकिन, इस विधि के साथ सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि इसका उपयोग मनुष्य पर नहीं
किया जा सकता है। मनुष्य के मस्तिष्क में वातावरण के कारण होनेवाले रसायन-परिवर्तन तथा
संरचनात्मक परिवर्तन का अध्ययन कठिन है। इसीलिए इस विधि का उपयोग केवल चूहे आदि
छोटे-छोटे पशुओं पर किया जाता है । लेकिन पशुओं पर प्राप्त निष्कर्ष को मनुष्यों पर उसी रूप
में लागू करना पूरी तरह सही नहीं हो पाता है।
3. विद्युत अभिलेखन-विधि (Electrical recording method)-स्नायुमंडल और खासकर
मस्तिष्क के अध्ययन के लिए इस विधि का व्यवहार बड़े पैमाने पर होता है । इस विधि में
स्नायुकोश या मस्तिष्क के किसी भाग में होने वाले विद्युत प्रवाह को रेकार्ड (Record) कर लिया
जाता है । प्राणी को किसी उत्तेजना से प्रभावित किया जाता है और मस्तिष्क के किसी भाग में
उत्पन्न विद्युत-परिवर्तन को एलेक्ट्रोड (Electrode) द्वारा रेकार्ड कर लिया जाता है । इस प्रकार
के विद्युत परिवर्तन को उत्पन्न अन्तःशक्ति (Evoke Potential) कहते हैं ।
यह विधि स्नायु मंडल या मस्तिष्क के अध्ययन के लिए काफी उपयोगी सिद्ध हुई है । टोवे
ने इस विधि का उपयोग बिल्ली पर किया और ज्ञानवाही कॉर्टेक्स के कार्य को देखने का प्रयास
किया। उन्होंने बिल्ली के ज्ञानवाही कॉर्टेक्स में एक बड़े आकार का एलेक्ट्रोड लगा दिया, फिर
उसके ज्ञानवाही मार्ग (Sensory Path) को उत्तेजित करके अन्त:शक्ति जमा हो गयी। इससे पता
चला कि ज्ञानवाही कार्य वास्तव में ज्ञानवाही कॉर्टेक्स द्वारा नियंत्रित होता है। लेकिन, यह विधि
खतरनाक है । इसलिए मनुष्य पर इसका व्यवहार करना कठिन है। दूसरी बात यह है कि इस
विधि के उपयोग के लिए बड़े प्रशिक्षित तथा योग्य स्नायु-विशेषज्ञ (Neurologist) की
आवश्यकता होती है । इसके अभाव में अध्ययन के गलत हो जाने की संभावना बढ़ जाती है।
4. उत्तेजना-विधि (Stimulation method)-स्नायुमंडल और विशेष रूप से मस्तिष्क
की रचना तथा कार्य के अध्ययन के लिए उत्तेजना करके यह देखने का प्रयास किया जाता है
कि इससे प्राणी के व्यवहार में कोई परिवर्तन होता है या नहीं। उत्तेजन को स्वतंत्र चर
(Independent Variable) और इससे उत्पन्न प्रतिक्रिया को आश्रित चर माना जाता है ।
साधारण अर्थ में उत्तेजन को कारण तथा प्रतिक्रिया को प्रभाव माना जाता है । इसी आधार पर
कॉर्टेक्स के भिन्न-भिन्न भागों के कार्यों को जानने का प्रयास किया जाता है और देखा जाता है
कि इससे प्राणी में कौन-सी नई प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई । विश्वास कर लिया जाता है कि उस
प्रतिक्रिया का नियंत्रण कॉर्टेक्स के उसी भाग द्वारा होता है । जैसे-किसी चूहे के पृष्ठ-खण्ड
(Occipital Lobe) को विजली द्वारा उत्तेजित करने से यदि चूहे में देखने संबंधी क्रिया का
आधार कॉर्टेक्स का पृष्ठ-खण्ड है ।
लेकिन इस विधि के साथ सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि इसको व्यवहार में लाने के लिए
कुशल तथा प्रशिक्षित शारीरिक मनोवैज्ञानिक की आवश्यकता होती है ।
5. क्षति-विधि (Lesion Method)—स्नायु-मंडल या मस्तिष्क की रचना तथा कार्य के
अध्ययन के लिए इस विधि का व्यवहार व्यापक रूप से होता रहा है । फ्लोरेंस तथा रोलैन्डो को
इस विधि का पथप्रदर्शक समझा जाता है । इस विधि में मस्तिष्क के किसी खास भाग को नष्ट
कर दिया जाता है और देखा जाता है कि इसके कारण प्राणी की कौन-सी क्रिया क्षतिग्रस्त होती
है । जैसे-कॉर्टेक्स के पृष्ठ-खण्ड को काट देने पर यदि प्राणी में देखने की क्षमता समाप्त हो
जाती है तो समझा जाता है कि दृष्टि-संवेदना का नियंत्रण पृष्ठ-खण्ड द्वारा होता है । इसी तरह
मस्तिष्क के भिन्न-भिन्न भागों द्वारा होने वाले कार्यों को निर्धारित कर लिया जाता है ।
6. क्यूरेर-विधि (Curare-method)-मस्तिष्क के अध्ययन के लिए हार्लो एवं स्टेगनर
(Halow and Stegner) ने 1933 में एक विधि निकाली जिसको क्यूरेर-विधि कहते हैं । क्यूरेर
एक प्रकार की औषधि है जो मध्य अमेरिका तथा दक्षिण अमेरिका में अधिक व्यवहार किया जाता
है । इसके उपयोग से दैहिक मांसपेशियाँ निष्क्रिय (Inactive) हो जाती हैं । इसका प्रभाव
उप-कॉर्टेक्स पर नहीं पड़ता है। इसलिए जब उप-कॉर्टेक्स से संबंधित कार्य का अध्ययन करना
होता है तो कॉर्टेक्स को क्यूरेर के प्रभाव से निष्क्रिय बना दिया जाता है। इससे कॉर्टेक्स से होनेवाली
क्रियाएँ रुक जाती हैं । फिर प्राणी को कोई क्रिया सिखाई जाती है । प्राणी जब उस क्रिया को
सीखने में सफल होता है तो इससे साबित हो जाता है कि उस क्रिया का नियंत्रण उप-कॉर्टेक्स
द्वारा होता है । क्यूरेर के प्रभाव के समाप्त हो जाने के बाद भी यदि वह क्रिया जारी रहती है
तो समझा जाता है कि उस क्रियापर कॉर्टेक्स का कोई बाधक प्रभाव नहीं है तो समझा जाता है
कि उस पर उप-कॉर्टेक्स के साथ-साथ कॉर्टेक्स का भी नियंत्रण रहता है । इसी आधार पर
कॉर्टेक्स तथा उप-कॉटॅक्स द्वारा होनेवाले कार्यों का अध्ययन किया जाता है।
इस विधि का एक लाभ यह कि इससे पशु को कोई हानि नहीं होती है । कारण यह
है कि क्यूरेर का प्रभाव जब समाप्त हो जाता है तो मस्तिष्क का वह भाग पहले की तरह काम
करने लगता है । यह गुण ‘उन्मूलन या क्षति-विधि’ में नहीं है, क्योंकि उस विधि में स्नायु को
एक बार जब काट दिया जाता है तो फिर वह काम के लायक नहीं हो पाता है। इस प्रकार, क्यूरेर
विधि में पशुओं की क्षति नहीं होती है, जबकि उन्मूलन विधि में पशुओं की क्षति होती है । लेकिन,
इतना होने पर भी क्यूरेर-विधि की उपयोगिता बहुत सीमित है।
7. अपकर्षण विधि (Degeneration method)- स्नायु-मंडल के अध्ययन के लिए
अपकर्षण-विधि या अप-विकार विधि का भी व्यवहार किया जाता है। अपकर्षण का अर्थ यह
है कि जब स्नायु-मंडल के किसी क्षेत्र को नष्ट किया जाता है या काटा जाता है तो उस क्षेत्र
से सम्बद्ध क्षेत्र भी विघटित या अपकर्षित हो जाता है । उस क्षेत्र के बर्बाद होने से या विघटित
होने से यदि कोई क्रिया रुक जाती है तो समझा जाता है कि उस क्रिया का नियंत्रण उसी क्षेत्र
द्वारा होता है । इस प्रकार, स्नायुओं के अपकर्षण के आधार पर स्नायु-कोशों के संबंधों का पता
लगाया जाता है और उनके द्वारा संचालित होनेवाली क्रियाओं का निरूपण किया जाता है।
8. रासायनिक विधि (Chemical Method)-स्नायु-मंडल अथवा मस्तिष्क के अध्ययन
के लिए रसायन-विधि का व्यवहार भी किया जाता है। वास्तव में यह विधि विद्युत-उत्तेजन विधि
का ही एक रूप हैं । इस विधि में मस्तिष्क के किसी खास भाग को बिजली से उत्तेजित न करके
किसी रासायनिक पदार्थ से उत्तेजित किया जाता है। जैसे-कुचालक एक काफी प्रभावशाली
रासायनिक पदार्थ है जिसके द्वारा मस्तिष्क के किसी भाग को उत्तेजित किया जाता है और इससे
जो परिवर्तन होता है उसे एलेक्ट्रोड द्वारा रेकार्ड कर लिया जाता है । कभी-कभी एलेक्ट्रोड के
बदले छोटे पिपेट से होकर रासायनिक पदार्थ को थोड़ी मात्रा में मस्तिष्क के किसी विशेष भाग
पर डालकर उसे उत्तेजित करता है तथा उससे संचालित होनेवाली क्रिया का अध्ययन करता है।
इस विधि का उपयोग भिन्न-भिन्न प्रेरक संरचना (Mechanism) से संबंधित प्रयोग में किया गया
है। ग्रौसमैन (Grossman 1960) ने इस विधि का व्यवहार प्यास तथा भूख प्रेरकों को संचालित
करनेवाले मस्तिष्क के भागों को निर्धारित करने के लिए किया और देखा कि इस तरह के अध्ययन
के लिए यह विधि काफी उपयोगी है।
इस प्रकार, मस्तिष्क या स्नायु मंडल के अध्ययन के लिए कई विधियों का व्यवहार किया
जाता है । प्रत्येक विधि के अपने गुण-दोष हैं । अतः आवश्यकता के अनुसार अधिक-से-अधिक
विधियों का व्यवहार करके विश्वसनीय निष्कर्ष प्राप्त किया जा सकता है ।
Q.6. स्नायुकोश या तंत्रिका कोश या न्यूरोन की संरचना तथा कार्य का वर्णन करें।
Ans. मानव शरीर में बहुत तरह के जीवित कोश (living cells) हैं जिनके अलग-अलग
कार्य हैं । इनमें एक विशेष तरह के जीवित कोश का कार्य स्नायु आवेग (nerve impurse)
को ढोना है । इस तरह के जीवित कोश को स्नायुकोश या तंत्रिका कोश (neuron) कहा जाता
है। दूसरे शब्दों में, तंत्रिका कोश या जिसे न्यूरोन (neuron) कहा जाता है, एक ऐसा कोश होता
है जिसके माध्यम से तंत्रिका आवेग के रूप में सूचनाएँ शरीर के एक अंग से दूसरे अंग में जाती
हैं। न्यूरोन तंत्रिका तंत्र की सबसे छोटी इकाई (smallest unit) होती है ।
संरचना या बनावट के दृष्टिकोण से तंत्रिका कोश को निम्नांकित तीन भागों में बाँटा गया
है-(1) शाखिकाएँ (dendrites) (2) कोश शरीर (cell body) (3) एक्सॉन (axon) |
(i) शाखिकाएँ (Dendrites)- शाखिका की संरचना पेड़ की टहनियों तथा शाखाओं के
समान होती है जिसमें कई छोटी-छोटी उपशाखाएँ होती हैं (जैसा कि चित्र में दिखाया गया है)।
शाखिका दो तरह के कार्य करती है । पहला, यह तंत्रिका आवेगों (nerve impulse) को ग्रहण
करती है तथा दूसरी उसे जीवकोश (cell body) की ओर भेज देती है । इस तरह,शाखिका का
मुख्य कार्य तंत्रिका आवेग को ग्रहण करना और उसे कोशशरीर की और भेजना होता है ।
(ii) कोशशरीर (Cell body)-
कोशशरीर न्यूरोन का दूसरा प्रमुख भाग है ।
इसे सोमा (soma) भी कहा जाता है। कोशशरीर
चारों तरफ से एक झिल्ली से ढंँका होता है
जिसे कोश की झिल्ली (membrane) कहा
जाता है । इस झिल्ली के भीतर एक तरल
पदार्थ होता है जिसे साइटोप्लाज्म (cyto-
plasm) कहा जाता है। कोशशरीर के बीच
में केंद्रक (nucleus) होता है जो कोशशरीर
का सबसे प्रधान भाग है । कोशशरीर के मुख्य
दो कार्य होते हैं। पहला, शाखिका द्वारा लाए
गए तंत्रिका आवेग को ग्रहण कर उसे आगे
की ओर अर्थात एक्सॉन की ओर बढ़ाना तथा
दूसरा कार्य न्यूरोन को स्वस्थ तथा जीवित
रखना है।
(iii) एक्सॉन (Axon)—एक्सॉन तंत्रिका कोश या न्यूरोन के उस भाग को कहा जाता है
जो कोशशरीर (cell body) से निकलकर आगे की ओर लम्बवत बढ़ता हुआ दिखाई पड़ता है
जैसा कि चित्र में दिखाया गया है, इसका आकार छोटा भी होता है तथा बड़ा भी। एक्सॉन एक
विशेष तरह की उजली परत या आवरण से ढंका होता है । यह परत सतत (continuous) नहीं
होती है । बल्कि कुछ-कुछ दूर पर लगभग समाप्त हो जाती है या पतली हो जाती है जैसा कि
चित्र में दिखाया गया है। एक्सॉन के अंतिम छोर पर अनेक छोटे-छोटे तंतु होते हैं जिन्हें एण्डब्रश
(endbrush) या एण्डप्लेट (endplate) कहा जाता है ।
एक्सॉन का मुख्य कार्य तंत्रिका आवेग को को शरीर से निकालकर न्यूरोन के अंतिम छोर
अर्थात् एण्डब्रश तक पहुँचा देना होता है । इस तरह, तंत्रिका आवेग एक्सॉन द्वारा बाहर निकल
जाता है।
इस तरह एक न्यूरोन इस क्रम में कार्य करता है-तंत्रिका आवेग (nerve impulse) को पहले
शाखिका (dendrite) द्वारा ग्रहण किया जाता है और उसे कोशशरीर (cell body) की ओर भेज
दिया जाता है । कोशशरीर उसे ग्रहण कर लेता है तथा एक्सॉन कोशशरीर से आ रहे तंत्रिका
आवेग को एण्डब्रश होते हुए बाहर निकाल देता है अर्थात् दूसरे न्यूरोन में भेज देता है । स्पष्ट
हुआ कि शाखिका तंत्रिका आवेग का एक ग्रहण केन्द्र (receiving centre) है जबकि एक्सॉन
(axon) एक सुपुदगी केन्द्र (delivery centre) है ।
Q.7. सुषुम्ना या मेरुरज्जु की संरचना या बनावट तथा कार्य का वर्णन करें ।
Ans. केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र (central nervous system) को दो भागों में बाँटा गया है-
सुषुम्ना (spinal cord) तथा मस्तिष्क (brain) |
सुषुम्ना की संरचना-सुषुम्ना रीढ़ की हड्डी, जो कमर से गर्दन तक फैली है, के भीतर
उपस्थित होती है । इस हड्डी के भीतर एक तरल पदार्थ भरा होता है जिसमें लगभग 18 इंच
लंबा एक मोटा तंतु है । इसे ही सुषुम्ना कहा जाता है । इसका रंग ऊपर से उजला ता भीतर
से धूसर (grey) होता है । ऊपर से नीचे तक सुषुम्ना में कुल 31 भाग (divisions) होते हैं ।
प्रत्येक भाग से मेरुदंडीय तंत्रिका (spinal nerves) का एक जोड़ा (pair) निकलता है । इस जोड़े
में एक तंत्रिका भाग शरीर के बाएँ भाग से स्नायुप्रवाह आते हैं तथा दूसरी तंत्रिका द्वारा शरीर
के दाएँ भाग से स्नायुप्रवाह आते हैं ।
सुषुम्ना को यदि कहीं से काटा
जाए, तब इसकी भीतरी संरचना या
बनावट एक ही समान दीख पड़ती है।
चित्र में सुषुम्ना के एक ऐसे कटे हुए
भाग को दिखाया गया है। इस चित्र में
गौर करने से यह स्पष्ट हो जाता है।
सुषुम्ना के बीच का भाग, जिसका रंग
धूसर (grey) होता है, एक तितली के
समान होता है । सुषुम्ना के बीच के भाग
के चारों तरफ उजला पदार्थ (white
matter) होता है जिससे होकर अनेक
तंत्रिका तंतु ऊपर से नीचे की ओर और
नीचे से ऊपर की ओर आते-जाते दिखाई
पड़ते हैं। ऊपर से नीचे आनेवाले तंत्रिका
तंतु द्वारा मस्तिष्क से सूचनाएँ सुषुम्ना में
आती हैं तथा नीचे से ऊपर जानेवाली
तत्रिका तंतु से सूचनाएँ सुषुम्ना से मस्तिष्क
में जाती हैं।
सुषुम्ना द्वारा कई तरह के कार्य किए जाते हैं जिनमें निम्नांकित प्रमुख हैं-
(i) तंत्रिका आवेग का संचरण (Transmission of nerve impulse)-सुषुम्ना का
प्रधान काम तंत्रिका आवेग का संचरण करना है । ऐसे संचरण के माध्यम से वह मस्तिष्क का
संबंध शरीर के अन्य भागों से जोड़ पाता है । संचरण का अर्थ होता है शरीर से आनेवाले तंत्रिका
आवेगों को मांसपेशियों तथा ग्रंथियों से भेजना । शरीर के भिन्न-भिन्न भागों (सिर एवं गर्दन
को छोड़कर) से आनेवाले तंत्रिका आवेग को सुषुम्ना ग्रहण करता है तथा उसे मस्तिष्क में पहुँचाता
है । फिर मस्तिष्क द्वारा शरीर के विभिन्न अंगों को भेजी जानेवाली सूचनाओं को सुषुम्ना ग्रहण
करता है तथा उपयुक्त अंगों में ले जाने के लिए उन्हें पेशीय या गति न्यूरोन (motor neuron)
में छोड़ देता है । इस तरह, सुषुम्ना द्वारा तंत्रिका आवेग के संचरण का कार्य संपन्न होता है।
(ii) प्रतिवर्त क्रियाओं का नियंत्रण एवं संचालन (Conduct and control of reflex
action)-प्रतिवर्त क्रिया का नियंत्रण एवं संचालन भी सुषुम्ना द्वारा किया जाता है। प्रतिवर्त क्रिया
से तात्पर्य एक ऐसी जन्मजात, सरल एवं अनैच्छिक (involuntary) क्रिया से होती है जो किसी
उद्दीपन के प्रति की जाती है। जैसे किसी गर्म वस्तु से अंगुली स्पर्श हो जाने से अंगुली को खींच
लेना एक प्रतिवर्त क्रिया का उदाहरण है। उसी तरह आँख पर तीव्र रोशनी पड़ने पर पलक
बंद होना एक प्रतिवर्त क्रिया का उदाहरण है । प्रतिवर्त क्रियाएँ इतनी जल्दी हो जाती हैं कि लगता
है मानो वे अपने-आप हो गईं। परंतु, सच्चाई यह है कि इसका नियंत्रण एवं संचालन इसी सुषुम्ना
द्वारा होता है । चूँकि सुषुम्ना ऐसी क्रियाओं का संचालन एवं नियंत्रण अपने स्तर से मस्तिष्क से
मिलनेवाली सूचना के बिना इंतजार किए ही करता है, अतः यह स्वचालित (automatic) होता
प्रतीत होता है।
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि सुषुम्ना की संरचना तथा बनावट में थोड़ी जटिलता
है तथा इसके द्वारा तंत्रिका आवेगों का संचरण तथा प्रतिवर्त क्रियाओं का नियंत्रण एवं संचालन
जैसे महत्त्वपूर्ण कार्य किए जाते हैं।
Q.8. प्रतिवर्त धनु से आप क्या समझते हैं ? इस धनु में सम्मिलित शारीरिक अंगों का
वर्णन करें।
Ans. प्रतिवर्त क्रिया या सहज क्रिया (reflex action) किसी उद्दीपन के प्रति एक एक
स्वचालित (automatic) एवं जन्मजात अनुक्रिया है । आँख पर तीव्र रोशनी पड़ने से पलक का
बंद हो जाना एक प्रतिवर्त क्रिया का उदाहरण है । प्रतिवर्त क्रिया के शारीरिक आधार (bodily
base) को प्रतिवर्त धनु (reflex arc) कहा जाता है । दूसरे शब्दों में, प्रतिवर्त क्रिया के संचालन
में स्नायु प्रवाह स्नायुओं और अंगों से होकर गुजरता है, उन सभी को प्रतिवर्त धनु के अंदर समझा
जाता है।
वास्तव में सहज क्रिया एक सरलतम मानसिक क्रिया है । इसके होने के लिए सर्वप्रथम
उद्दीपन ज्ञानेन्द्रिय (sense organ) को उत्तेजित करता है जिससे ज्ञानेन्द्रिय में तंत्रिका आवेग
(nerve impulse) उत्पन्न होता है । यह तंत्रिका आवेग संवेदी या ज्ञानवाही तंत्रिका (sensory
nerve) से होता हुआ सुषुम्ना में पहुँचता है । सुषुम्ना में साहचर्य तंत्रिका (association nerve)
होते हैं । वे तंत्रिका आवेग को गतिवाही या क्रियावाही तंत्रिका (motor nerve) में छोड़ देते हैं।
तंत्रिका आवेग गतिवाही या क्रिया न्यूरोन द्वारा मांसपेशियों तथा ग्रन्थियों या कर्मेन्द्रियों में पहुँचाए
जाते हैं । इसके फलस्वरूप व्यक्ति सहज क्रिया कर पाता है । इस प्रक्रिया में ज्ञानेन्द्रिय (sense
organ) से सुषुम्ना तथा सुषुम्ना से कर्मेन्द्रियों तक के सभी रास्तों को प्रतिवर्त धनु (reflex arc)
कहा जाता है।
प्रतिवर्त धनु के उपर्युक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसके संचालन में शरीर
के निम्नांकित छह अंगों की भूमिका प्रधान होती है-
(i) ज्ञानेन्द्रिय (Sense organ)-मानव शरीर में कुछ खास-खास अंग हैं जो विभिन्न प्रकार
की उत्तेजनाओं को ग्रहण करते हैं । इन अंगों को ज्ञानेन्द्रिय या ग्राहक (receptor) कहा जाता
है। व्यक्ति की प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय द्वारा एक विशेष प्रकार की उत्तेजना ग्रहण की जाती है जिसके
कारण ही संबंधित उद्दीपन (stimulus) का ज्ञान होता है । जैसे, आँख द्वारा प्रकाश या रोशनी
को, कान द्वारा आवाज को, नाक द्वारा गंध को, जीभ द्वारा स्वाद को तथा त्वचा द्वारा स्पर्श को
ग्रहण किया जाता है।
(ii) संवेदी या ज्ञानवाही तंत्रिका (Sensory nerve)-ज्ञानेन्द्रिय से सुषुम्ना तथा मस्तिष्क
तक आने वाली तंत्रिका को संवेदी या ज्ञानवाही तंत्रिका कहा जाता है। प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय का संबंध
ऐसी तंत्रिका द्वारा सुषुम्ना से होता है । जब उपयुक्त उद्दीपन (appropriate stimulus) किसी
ज्ञानेन्द्रियों को उत्तेजित करता है, तब उसमें तंत्रिका आवेग उत्पन्न होता है जो संबद्ध संवेदी तंत्रिका
द्वारा सुषुम्ना में पहुँचता है । जैसे, वस्तु से हमारी त्वचा जब छू जाती है तब त्वचा में उत्पन्न तंत्रिका
आवेग संवेदी या ज्ञानवाही तंत्रिका द्वारा सुषुम्ना में पहुँचता है ।
(ii) साहचर्य तंत्रिका (Association nerve) साहचर्य तंत्रिका सुषुम्ना तथा मस्तिष्क में
पाया जाता है । इसका मुख्य कार्य संवेदी तथा गति तंत्रिकाओं से संबंध स्थापित करना है, क्योंकि
कार्यात्मक रूप से इनका एक छोर संवेदी तंत्रिका से तथा दूसरा छोर गति तंत्रिका से मिला होता
है । सुषुम्ना इन्हीं के द्वारा प्रतिवर्त क्रियाओं का संचालन करता है। जब तंत्रिका आवेग संवेदी
या ज्ञानवाही तंत्रिका द्वारा सुषुम्ना में पहुँचता है तब साहचर्य तंत्रिका उसे सुषुम्ना गतिवाही तंत्रिका
(motor nerve) में छोड़ देता है।
(iv) गतिवाही तंत्रिका (Motor nerve)-गतिवाही तंत्रिका मस्तिष्क तथा सुषुम्ना को
कर्मेन्द्रियों (motor organs) से जोड़ता है । जब सुषुम्ना में साहचर्य तंत्रिका द्वारा तंत्रिका आवेग
गतिवाही तंत्रिका में छोड़ दिया जाता है, तब गतिवाही तंत्रिका उसे तंत्रिका आवेग को सुषुम्ना से
कर्मेन्द्रियों (मांसपेशियों) तक ले जाता है । फलस्वरूप, सुषुम्ना का आदेश कर्मेन्द्रिय को प्राप्त
होता है जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति कोई अनुक्रिया करता है ।
(v) कर्मेन्द्रिय (Motor organ)-कर्मेन्द्रियों द्वारा व्यक्ति अनुक्रियाएँ करता है । कर्मेन्द्रियों
सामान्यतः पेशियों एवं ग्रन्थियों को रखा जाता है। इन्हें प्रभावक (effectors) भी कहा जाता
है। प्रतिवर्त क्रिया में सुषुम्ना का आदेश इन कर्मेन्द्रियों तक पहुँचता है और व्यक्ति अनुक्रिया कर
बैठता है।
प्रतिवर्त धनु में इस तरह से शरीर के छह अंगों की क्रियाशीलता होती है जिसे एक उदाहरण
द्वारा इस प्रकार समझाया जा सकता है-मान लिया जाए कि रात्रि में हम कहीं जा रहे हैं। अचानक
कोई व्यक्ति आँख पर टॉर्च से तीव्र रोशनी डालता है। ऐसी परिस्थिति में आँख का पलक स्वतः
बंद हो जाएगा जो एक प्रतिवर्ष क्रिया का उदाहरण है । इस उदाहरण में सर्वप्रथम टॉर्च की रोशनी
आँखों पर पड़ती है जिससे आँखें उत्तेजित हो जाती हैं और तंत्रिका आवेग (nerve impulse)
उत्पन्न हो जाता है । यह तंत्रिका आवेग संवेदी या ज्ञानवाही तंत्रिका द्वारा सुषुम्ना में पहुंँचता है।
सुषुम्ना में स्थित साहचर्य तंत्रिका के द्वारा यह तंत्रिका आवेग गतिवाही या क्रियावाही तंत्रिका में
छोड़ दिया जाता है जो इसे आँख एवं पलक की मांसपेशियों (muscles) तक पहुँचा देता है और
उसके फलस्वरूप पलक बंद हो जाता है । टॉर्च की रोशनी आँख पर पड़ने के बाद पलक बंद
होने की अनुक्रिया इतनी तेजी से होती है कि यह पता नहीं चलता कि इसका संचालन तथा नियंत्रण
कहीं से (अर्थात सुषुम्ना से) हो रहा है
Q.9. वृहत मस्तिष्क की बनावट और क्रियाओं का वर्णन करें ।
Or, मानव वृहत मस्तिष्क की ज्ञानवाही एवं गतिवाही क्रियाओं की व्याख्या कीजिए।
Or, प्रमस्तिष्क की बनावट या कार्यवाही की व्याख्या करें ।
Ans. वृहत मस्तिष्क बल्क (Cerebral Cortex) मनुष्य मस्तिष्क का सबसे बड़ा और
सबसे प्रमुख भाग मस्तिष्क है जिसे मस्तिष्क बल्क (Cerebral Cortex) भी कहते हैं । हमारी
सभी चेतन क्रियाओं का संचालन और विभिन्न मानसिक अनुभवा का नियंत्रण प्रमस्तिष्क के ही
द्वारा होता है। उदाहरणार्थ, प्रत्यक्षण, सोचना, विचारना, तर्क करना, कल्पना करना आदि हमारी
सभी मानसिक क्रियाओं का संचालन प्रमस्तिष्क के द्वारा ही होता है । इसका स्थान खोपड़ी के
ठीक नीचे है । यह सभी जटिल मानसिक क्रियाओं का उद्गम स्थान है। ऊपर की सतह को
देखने से मस्तिष्क का यह भाग कहीं दबा हुआ तो कहीं उभरा हुआ मालूम होता है । दबे हुए
भाग को दरार या फिसर या सलकस (Fissure or Sulcus) कहते है। इस तरह के दो दबे हुए
हुए भागों के बीच के भाग को ‘गाइरस’ (Gyrus) की संज्ञा दी जाती है। उभरे हुए भागों को।
रीजेज (Ridges) कहते हैं । कोर्टेक्स की दरारें या फिसर दो भागों में बँटती हैं। दो भागों में
बाँटने वाली लम्बी दरार का नाम रोलैण्डो या मध्य दरार (Rolando or central) है । एक दूसरी
दरार या फिसर भी है, जिसे सिलभीयस (fissure or Sylvius) की दरार कहते हैं । इन दरारों
द्वारा कोर्टेक्स चार भागों में बँटा है-1. पृष्ठ पालि (Occipital lobe), 2. मध्यपालि (Pariental
lobe), 3. अग्र-पालि (Frontal lobe) तथा 4. शंख-पालि (Temporal lobe)।
वृहत मस्तिष्क के विभिन्न भागों के कार्यों को मुख्यतः तीन वर्गों में बाँटा जा सकता है-
1. संवेदी कार्य (Sensory functions) 2. पेशीय कार्य (Motor functions) तथा
3.साहचर्यात्मक कार्य (Associative functions) |
इन तीनों प्रकार के कार्यों का संचालन एवं नियंत्रण प्रमस्तिष्क के कुछ खास केन्द्रों के द्वारा
होता है।
1. मस्तिष्क द्वारा संचालित ज्ञानात्मक क्रियाएँ (Sensory functions of the
cortex)-किसी भी उद्दीपन का ज्ञान होने के पीछे कुछ खास क्रियाएँ होती हैं। सबसे पहले।
उद्दीपन किसी ज्ञानेन्द्रिय के सहारे ग्रहण किया जाता है । फलतः ज्ञानेन्द्रिय तत्रिका आवेग उत्पन्न
होता है । यह तत्रिका आवेग जव किसी खास तरह की तत्रियों के सहारे वृहत मस्तिष्क या
प्रमस्तिष्क के किसी भाग में पहुँचता है तो प्रमस्तिष्क के सहारे उस उद्दीपन का संवेदन और ज्ञान
होता है । इस प्रकार किसी भी उद्दीपन का ज्ञान प्रमस्तिष्क के द्वारा ही होता है ।
प्राणी के वर्तमान सम्पूर्ण ज्ञानात्मक अनुभवों को तीन वर्गों में रखा गया है-
(क) शारीरिक परिवर्तन के फलस्वरूप उत्पन्न अनुभव जिसके अन्तर्गत ताप,स्पर्श एवं
शारीरिक गति का अनुभव रखा गया है ।
(ख) दृष्टि-सम्बन्धी अनुभव, जैसे-रंग को देखना या रंगों को ठीक से नहीं पहचानना
आदि।
(ग) श्रवण-सम्बन्धी अनुभव (Auditory Sensitivity), जैसे-ठीक से सुनना या सुनने
में कमजोरी आदि ।
इन तीन वर्गों का ज्ञानात्मक अनुभव या आधार-स्थान भी मस्तिष्क में अलग-अलग पाया
गया है । उदाहरणार्थ, शारीरिक परिवर्तन में उत्पन्न अनुभव का आधार मस्तिष्क का वह भाग
है जो रोलैण्डो के फीसर के ठीक पीछे पैरीटल कौर्टेक्स में स्थित है । शरीर के विभिन्न भागों
की त्वचा में स्थित ग्राहक कोशों से चलकर जो स्नायु-प्रवाह मस्तिष्क के इस भाग में पहुँचते हैं
वे हममें ताप एवं स्पर्श के अनुभव को उत्पन्न करते हैं। साथ ही साथ, शारीरिक अंगों के संचालन
से उत्पन्न अनुभव की भी आधारशिला पैरीटल कौर्टेक्स का वही भाग है जो रोलैंडो के ठीक पीछे
है । पैरीटल कोर्टेक्स के इस भाग को हम सोमेस्थेटिक (Somesthetic) भाग कहते हैं ।
(i) सोमेस्थेटिक भाग ताप एवं स्पर्श की संवेदनाओं का नियंत्रण एवं संचालन करता है।
पीड़ा के अनुभव के लिए कोर्टेक्स का नहीं, बल्कि थैलेमस की आवश्यकता होती है ।
(ii) दाहिने सोमेस्थेटिक भाग के द्वारा शरीर के बायें भाग में उत्पन्न ताप एवं गति के अनुभव
नियंत्रित एवं संचालित होते हैं । बायें सोमेस्थेटिक भाग का सम्बन्ध शरीर के बायें भाग से रहता
है।
(iii) त्वचा सम्बन्धी उत्तेजनाओं की शक्ति के लिए कोर्टेक्स की उतनी आवश्यकता नहीं है
जितनी कि थैलेमस की है, कारण कि थैलेमस में इतनी सामर्थ्य है कि वह त्वचा सम्बन्धी
संवेदनाओं को उत्पन्न, नियंत्रण एवं संचालित कर सकता है । इसलिए असाधारण स्थिति में
कोर्टेक्स का सहयोग त्वचा संबंधी संवेदना की उत्पत्ति एवं नियंत्रण में रहते हुए भी इसके अभाव
से उनकी उत्पत्ति एवं नियंत्रण में किसी प्रकार की बाधा नहीं होती है।
(iv) दृष्टि सम्बन्धी संवेदना प्रमस्तिष्क की पृष्ठ-पालि के द्वारा होती है। यही कारण है कि
पृष्ठ-पालि को दृष्टि-संवेदन क्षेत्र कहा गया है । आँख में आनेवाले तंत्रिका आवेग प्रमस्तिष्क के
इसी खण्ड से आते हैं जिनके फलस्वरूप हमें दृष्टि संबंधी प्रेरणा होती है । पृष्ठ-पालि के दो
भाग हैं-बायाँ भाग और दाहिना भाग । दोनों आँखों में बायीं ओर आने वाला तंत्रिका आवेग
पृष्ठ-पालि के बायें भाग में जाता है और दोनों आँखों की दाहिनी ओर से उत्पन्न तंत्रिका आवेग
पृष्ठ-पालि के दाहिने भाग में जाता है। अतः पृष्ठ-पालि का यदि कोई एक भाग क्षतिग्रस्त हो
जाय तो दोनों आँखों की आधी रोशनी समाप्त हो जायेगी । पेनफील्ड एवं इरीक्शन महोदय ने
अपने प्रयोग द्वारा मस्तिष्क के दृष्टि भाग और दृष्टि सम्बन्धी अनुभवों के बीच स्पष्ट सम्बन्ध
दिखलाया है । एक औरत जिसका दृष्टि भाग कौटेंक्स को चीर-फाड़ के लिए खोला गया था,
उसके उस दृष्टि भाग के विभिन्न हिस्सों पर बिजली से उत्तेजनाएँ हो गयीं । इस प्रकार उन हिस्सों
को बिजली द्वारा उत्तेजित किये जाने पर औरत ने लाल, नीले आदि रंगों के अनुभव को प्राप्त किया।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कोर्टेक्स के दृष्टि भाग का सम्बन्ध दृष्टि सम्बन्धी अनुभवों से है।
(v) श्रवण-सम्बन्धी अनुभवों का आधार मस्तिष्क की शंख-पालि (Temporal lobe) है।
यही कारण है कि इसे मस्तिष्क का श्रवण-संवेदी क्षेत्र भी कहते हैं । यह शंख-पालि दो भागों
में बँटी रहती है, किन्तु प्रत्येक भाग में दोनों कानों से तंत्रिका आवेग पहुंचते हैं । इसलिए शंख
पालि के किसी एक भाग के क्षतिग्रस्त होने से श्रवण सम्बन्धी संवेदना में कुछ कमी आ जाती
है। किन्तु, इससे व्यक्ति पूर्णत: बहरा नहीं हो जाता है। जबकि शंख पालि के दोनों भागों के
क्षतिग्रस्त हो जाने पर व्यक्ति पूर्णत: बहरा हो जाता है।
2. कौर्टेंक्स द्वारा नियंत्रित एवं संचालित गतिवाही क्रियाएँ (Motor functions of the
cortex) मनुष्यों के गतिवाही क्रियाओं का संचालन एवं नियंत्रण रौलेंडो दरार (Fissure of
Rolando) के अग्र भाग से लगे पतले से लम्बे भाग द्वारा होता है। इन कोशों से लगे हुए मुख्य
तंतु (Axon) होते हैं। पिरामिड की शक्ल के इन कोशों को अगर नष्ट कर दिया जाता है तो
वे मुख्य तंतु जो बिल्कुल इनसे सटे रहते हैं, मरने लगते हैं। ऐसे मरे हुए स्नायु ततु सुषुम्ना एवं
सुषुम्नाशीर्ष में भी पाये जाते हैं। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि पिरामिड की शक्ल
के जीव कोशों का सम्बन्ध सुषुम्ना एवं सुषुम्ना शीर्ष में पाये जानेवाले स्नायु-तंतुओं से भी है।
मस्तिष्क के दायें अद्धखण्ड में स्थित गतिवाही क्षेत्र (Motor area) के नष्ट होने से शरीर के बायें
अंग में होने वाली ऐच्छिक क्रियाओं में हास देखा जाता है । इसी प्रकार दायें अंगों में होने वाली
ऐच्छिक क्रियाएँ उत्पन्न हो जाती हैं । इस प्रकार क्रियाओं का संचालन सहज धनु ही करता है।
जिसके लिए वर्तमान सभी शारीरिक अवयव, जैसे-ग्राहक इन्द्रिय ज्ञानवाही स्नायु कोश, सुषुम्ना,
गतिवाही स्नायु कोष, मांसपेशियाँ एवं पिंड अपने कार्यों के बिना किसी रुकावट के करतें पाये
जाते हैं। कभी-कभी ऐसा भी देखा गया है कि मस्तिष्क के गतिवाही क्षेत्रों को नष्ट कर देने
पर कुछ क्रियाओं का सम्पन्न होना बिल्कुल असम्भव-सा हो गया है। किन्तु व्यक्ति में यह अवस्था
बहुत दिनों तक नहीं रहती है । धीरे-धीरे ऐसा होता है कि विनष्ट भाग के निकट जीव-कोष नष्ट
हुये जीव कोशों के कार्य-भार को स्वयं ग्रहण कर लेते हैं, जिससे वे असम्पन्न हुई क्रियाएँ भी
सम्पन्न होने लगती हैं।
मस्तिष्क के गतिवाही क्षेत्रों को जब बिजली द्वारा उत्तेजित किया गया तो उससे निम्नलिखित
परिणाम निकले-
(क) जब मस्तिष्क के ऊपरी गतिवाही क्षेत्रों को उत्तेजित किया जाता है तो शरीर के निचले
अंगों में क्रियाएँ उत्पन्न हो जाती हैं । दाहिने अर्द्ध-मस्तिष्क के ऊपरी भाग की सहायता से शरीर
के बायें हिस्से के निचले अंगों की क्रियाओं का संचालन होता है तथा बायें अर्द्ध-मस्तिष्क के ऊपरी
भाग की सहायता से शरीर के दाहिने भाग के अंगों का संचालन एवं नियंत्रण होता है ।
(ख) मस्तिष्क के निचले भाग का गतिवाही क्षेत्र चेहरे से सम्बन्धित रहता है । अत: इसके
उत्तेजित किये जाने पर चेहरा का फड़कना, मुँह का खुलना और बन्द हो जाना आदि क्रियाएँ शुरू
हो जाती हैं।
ऊपर के वर्णन से यह स्पष्ट है कि दाहिने गतिवाही क्षेत्र का सम्बन्ध शरीर के बायें भाग
से और बायें गतिवाही क्षेत्र का सम्बन्ध र दाहिन भाग रहता है। साथ ही साथ ऊपरी
गतिवाही क्षेत्रों का सम्बन्ध शरीर के निचले अंगों से और निचले गतिवाही क्षेत्रों का सम्बन्ध शरीर
के ऊपरी भागों से रहता है।
3. कौटॅक्स द्वारा सम्पादित एवं नियंत्रित साहचर्य क्रियाएँ (Associative functions
of the cortex)-प्रामाणिक अग्रपालि (Frontal lobe) में जो बड़ा-सा क्षेत्र पाया जाता है।
उसका कार्य हमारे उच्च मानसिक प्रक्रमों के सम्पादन में सहायता करता है। कोर्टेक्स के विभिन्न
भाग जटिल मानसिक-क्रियाओं का सम्पादन करते हैं। पढ़ने के बाद समझने की क्रिया का सम्पादन
दृष्टि साहचर्य भाग (Visual associative area) करता है, सार्थक रूप से बोलने और लिखने
की क्रिया का सम्पादन गतिवाही साहचर्य (frontal association) करता है । इस सभी भागों
में किसी एक भाग को ही अगर नष्ट कर दिया जाय तो उसपर आश्रित क्रियाएँ सम्पादित नहीं
हो सकेंगी। अन्य प्रकार की क्रियाओं का सम्पादन बड़ी आसानी से हो जाता है। अतः गतिवाही
साहचर्य क्षेत्र के नष्ट करने पर व्यक्ति आवाज पैदा कर सकता है, हाथों में कलम देने पर
इधर-उधर चला जा सकता है, परन्तु वह सार्थक शब्द-समूह को नहीं उत्पन्न कर सकता है और
न ही कलम से दो-चार-दस शब्द लिखही सकता है, जिसका कोई अर्थ हो । इस प्रकार साहचर्य
भाग के विनाश के साथ-साथ जटिल मानसिक क्रियाओं की सार्थकता भी जाती रहती है।
Q.10. अन्तःस्त्रावी ग्रंथि से आप क्या समझते हैं? इसके प्रभावों का वर्णन करें।
Ans. व्यक्ति के शरीर में कुछ ऐसी ग्रंथियाँ होती हैं, जिससे स्राव निकलकर सीधे खून में
मिल जाते हैं और व्यक्तित्व विकास को प्रभावित करते हैं । इस तरह की ग्रंथियों को अंतःस्रावी
ग्रंथि तथा इससे निकलने वाले स्राव को हॉरमोन्स कहते हैं । व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित
करने वाली ग्रंथियों में निम्नलिखित प्रमुख हैं-
(A) थायरॉयड ग्रंथि-जब ग्रंथि का स्थान कण्ठ के निकट होता है । इससे थाइरॉक्सिन का
स्राव होता है । थायरायड ग्रंथि से जब स्राव बहुत कम मात्रा में निकलता है तो व्यक्ति में मानसिक
मन्दता तथा उदासीनता छा जाती है । जब इससे स्राव अधिक मात्रा में निकलता है तो व्यक्ति
अधिक क्रियाशील रहता है । उसका रक्तचाप बढ़ा रहता है, भूख अधिक लगती है, ऐसा व्यक्ति
चिड़चिड़ा स्वभाव का हो जाता है ।
(B) पाराथायरॉयड ग्रंथि-पारा थायरॉयड ग्रन्थि का स्थान भी कण्ठ के समीप ही रहता
है जिसमें चार छोटी-छोटी ग्रंथियाँ होती हैं। पाराथायरॉयड का स्राव शरीर में कैलसियम की मात्रा
को निर्धारित करता है । इस ग्रंथि से अधिक मात्रा में स्राव होता है, जिससे व्यक्ति में शिथिलता
बढ़ जाती है तथा कम मात्रा में स्राव होने से तनाव होती है । व्यक्ति में घबराहट होती है तथा
चिड़चिड़ा हो जाता है।
(C) पिट्यूटरी ग्रंथि-पिट्यूटरी ग्रंथि का स्थान मस्तिष्क में होता है ।यह ग्रंथि शरीर के
सभी ग्रंथियों को नियंत्रित करती है, इसीलिए इसे Master gland भी कहा जाता है। यदि किसी
बच्चे के पिट्यूटरी ग्रंथि का स्राव कम मात्रा में होता है तो उसका शारीरिक विकास रुक जाता
है। ऐसा व्यक्ति प्रायः बौना रह जाता है । उसमें आलसी के लक्षण विकसित हो जाते हैं तथा
यौन अंगों का विकास अवरुद्ध हो जाता है और यदि अधिक मात्रा में स्राव होता है, तो व्यक्ति
का कद काफी लम्बा हो जाता है और उसमें क्रियाशीलता अधिक हो जाती है।
(D) एड्रिनल ग्रंथि-एड्रिनल ग्रंथि किडनी के ठीक ऊपर होता है । यह एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथि
है। इसे Emergency gland भी कहा जाता है । एड्रिनल ग्रंथि से दो प्रकार के स्राव निकलते
हैं, जिसको कार्टिन तथा एड्रीनलिन कहा जाता है । एड्रीनलिन हमारे शरीर के लिए काफी महत्त्वपूर्ण
होते हैं, क्योंकि इससे रक्तचाप, हृदय गति, शरीर में रक्त की आपूर्ति अधिक होती है। इसमें संवेग
की अवस्था में समायोजन में सहायता मिलती है।
(E) गोनाड्स-गोनाड्स को यौन-ग्रंथि भी कहा जाता है । यह स्रियों और पुरुषों में
अलग-अलग होता है । पुरुषों के यौन-ग्रंथि को Testes तथा नियों के यौन-ग्रंथि को Ovary
कहा जाता है। पुरुषों में पुरुषों के गुण तथा स्री में स्त्रियों के गुणों का विकास होना इन्हीं ग्रंथियों
पर निर्भर करता है । पुरुषों में मूंछों का निकलना, आवाज का मोटा होना तथा स्त्रियों में स्तनों
का विकास, जाँघों की गोलाई इसी के स्राव पर निर्भर करता है।
इसके अलावे मी कुछ और ग्रंथियाँ हैं जो व्यक्ति-विकास में सहयोग करती है ।
जैसे-Pineal Gland के स्राव बचपन में यौन-प्रवृत्तियों को बढ़ने से रोकता है । इसी प्रकार
Pancreas के स्राव से माँसपेशियों में चीनी की आपूर्ति होती है । इसके अधिक स्राव से व्यक्ति
बेचैन, चिन्तित और उदास रहता है ।
Q.11. परिधीय स्नायु-मंडल क्या है ? इसके कौन-कौन प्रकार हैं ?
Ans. स्नायु-मंडल का यह भाग शरीर के परिधीय भागों में रहता है । इसलिए इसे हम
परिधीय स्नायु-मण्डल कहते हैं । यह मस्तिष्क एवं सुषुम्ना से बाहर सीमान्त प्रदेशों या शरीर
की परिधि में फैले हुए हैं । इसी कारण शरीर की परिधि में पाये जाने वाले स्नायु कोशों के संगठन
को परिधीय स्नायु-मण्डल कहा जाता है । इस स्नायु-मण्डल का सम्बन्ध ज्ञानेन्द्रियों तथा
कर्मेन्द्रियों से रहता है। यह ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों का सम्बन्ध केन्द्रीय स्नायु-मण्डल से
ज्ञानवाही एवं क्रियावाही स्नायु-कोशों द्वारा स्थापित करता है । इस प्रकार परिधीय स्नायु-मण्डल
के मुख्य अंग निम्नलिखित हैं-(क) ग्राहकेन्द्रियाँ, (ख) ज्ञानवाही स्नायु-कोश, (ग)
कर्मेन्द्रियाँ-मांसपेशियाँ और ग्रन्थियाँ तथा (घ) गतिवाही स्नायु-कोश।
परिधीय स्नायु-मण्डल को उसके कार्यों के आधार पर दो भागों में बाँटा गया है-
1. ज्ञानवाही परिधीय स्नायु-मण्डल 2. गतिवाही परिधीय स्नायु-मण्डल ।
1.ज्ञानवाही परिधीय स्नायु-मण्डल-परिधीय स्नायु-मण्डल के इस भाग का सम्बन्ध ।
शरीर के विभिन्न ज्ञानेन्द्रियों से रहता है । यह ज्ञानेन्द्रियों का संबंध केन्द्रिय स्नायु-मण्डल से
स्थापित करता है । इस बात के स्पष्टीकरण के लिए एक उदाहरण लें । किसी मंदिर में घंटी
बजती है। हम उस घंटी की आवाज को कान से सुनते हैं । कान ही आवाज को ग्रहण करते
हैं । अतः कान आवाज के ग्राहक हैं । परन्तु इस आवाज का ज्ञान हमें मस्तिष्क से प्राप्त होता
है । कान और मस्तिष्क के बीच ज्ञानवाही परिधीय स्नायु-मण्डल कार्य करता है । जब कान
आवाज को ग्रहण करते हैं तब कान के ग्राहक कोष उत्तेजित हो जाते हैं । फलतः ज्ञानवाही
स्नायु-प्रवाह उत्पन्न होते हैं । इस स्नायु-प्रवाह को मस्तिष्क में पहुँचाने का काम ज्ञानवाही स्नायु
करता है । इन क्रियाओं के बाद ही हमें मंदिर की घंटी की आवाज का ज्ञान होता है । ज्ञानवाही
स्नायु- -कोष स्नायु प्रवाहों को ज्ञानेन्द्रियों से मस्तिष्क तक पहुँचाते हैं इसलिए इसे ज्ञानवाही
परिधीय स्नायु-मण्डल कहते हैं । ज्ञानवाही परिधीय स्नायु-मण्डल अन्य ज्ञानेन्द्रियों का भी सम्बन्ध
सुषुम्ना और मस्तिष्क के साथ स्थापित करता है।
2. गतिवाही परिधीय स्नायु-मण्डल-परिधीय स्नायु-मण्डल का जो भाग मस्तिष्क एवं
सुषुम्ना को कर्मेन्द्रियों तथा मांसपेशियों और ग्रन्थियों से सम्बन्धित करता है उसे हम गतिवाही
परिधीय स्नायु-मण्डल कहते हैं । इस स्नायु-मण्डल का कार्य मस्तिष्क या सुषुम्ना के आदेशें को
कर्मेन्द्रियों तक पहुँचाना है । इसके ऐसा करने पर ही व्यक्ति कुछ क्रियाएँ करता है । इसे एक
उदाहरण की सहायता से हम स्पष्ट कर सकते हैं । मान लीजिए आप पढ़ रहे हैं । कोई व्यक्ति
दरवाजा खटखटाता है । दरवाजा खटखटाने की आवाज को आपके कान ग्रहण करते हैं । ज्ञानवाही
परिधीय स्नायु-मण्डल द्वारा स्नायु-प्रवाह मस्तिष्क में पहुँचता है । मस्तिष्क दरवाजा खोलने का
आदेश देता है । यह आदेश गतिवाही स्नायु-प्रवाह के रूप में गतिवाही स्नायु-कोश द्वारा
मांसपेशियों तथा ग्रन्थियों तक पहुंचता है । तदुपरान्त आप दरवाजा खोलने की क्रिया करते हैं ।
इस प्रकार गतिवाही परिधीय स्नायु-मण्डल द्वारा मस्तिष्क एवं सुषुम्ना के क्रियात्मक आवेग
गतिवाही अवयवों, मांसपेशियों और ग्रन्थियों तक पहुँचाये जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप
प्रतिक्रियाएँ होती हैं।
परिधीय स्नायु-मण्डल के कुछ ज्ञानवाही और गतिवाही स्नायुओं का कार्य मस्तिष्क के साथ
सम्बन्ध स्थापित कराना है और कुछ का सुषुम्ना के साथ, । मस्तिष्क के साथ सम्बन्ध स्थापित
करानेवाले परिधीय स्नायु को मस्तिष्क-स्नायु तथा सुषुम्ना के साथ सम्बन्ध स्थापित करानेवाले
परिधीय स्नायु को सुषुम्ना-स्नायु कहते हैं।
चूंँकि स्नायु कोश पूर्णत: स्वतंत्र होकर कार्य करते हैं अतः परिधीय स्नायुमण्डल को दो भागों
में बाँटा गया है-1. परिधीय दैहिक स्नायुमंडल तथा 2. परिधीय स्वतः संचालित स्नायुमण्डल।
परिधीय दैहिक स्नायुमण्डल के स्नायु-कोशों की क्रियाएँ मस्तिष्क के उच्च केन्द्रों द्वारा संचालित
होती हैं । परन्तु ये स्नायु कोश मस्तिष्क एवं सुषुम्ना से बाहर शरीर के परिधीय भागों में स्थित
हैं। व्यक्ति को इन स्नायुओं द्वारा होनेवाली समस्त क्रियाओं का ज्ञान होता है । व्यक्ति इन क्रियाओं
पर अपना नियंत्रण भी रखता है। ये स्नायु बाहरी वातावरण से सम्बन्धित रहते हैं। प्रत्येक स्नायु
कोश स्वतंत्र एवं व्यक्तिगत रूप से कार्य करता है। इसमें ज्ञानवाही तथा गतिवाही दोनों प्रकार
के स्नायु रहते हैं।
परिधीय स्वतः संचालित स्नायु-मण्डल का निर्माण ऐसे स्नायु कोशों से हआ है जिनकी
क्रियाएँ मस्तिष्क के उच्च केन्द्रों के अधीन नहीं रहती हैं। अत: व्यक्ति को इन स्नायुकोशों द्वारा
होनेवाली क्रियाओं का ज्ञान नहीं होता। व्यक्ति का इन पर नियंत्रण भी नहीं रहता है। ये मस्तिष्क
और सुषुम्ना के बाहर ही रहते हैं। ये शरीर के आंतरिक वातावरण से सम्बन्धित रहते हैं। इनके
स्नायु-कोश सामूहिक रूप से कार्य करते हैं। इसमें केवल गतिवाही स्नायुकोश ही रहते हैं।